Corona Diaries

प्रिय कोरोना,

कहाँ से शुरू करूँ। इतने ज़ख़्म जो तुमने दियें हैं। किस ज़ख़्म-ए-दर्द को पहले बयाँ करूँ।
रुक जाइए। ये किसी नकारे आशिक़ की सस्ती शायरी से भरा प्रेमपत्र नहीं हैं।

इस कोरोना काल में माहौल बदला हुआ सा है। इस बदलाव में कुछ चीज़ें अभी भी जस की तस है। पेट की भूख़। ग़रीबों की ज़िंदगी से रस्साकशी। सरकार की जुमलेबाज़ी। नेताओ के वायदे। अमीरों के इंस्टाग्राम पर चोंचले। और भी बहुत कुछ।

सुना है सरकार ने कोई २० लाख करोड़ का पैकेज दिया है। किसको? पता नहीं। घर लौटते मज़दूर को अभी बस का और ट्रेन का टिकट तो लेना पड़ेगा। बहुत महँगा होता है। २० लाख करोड़ में नहीं आएगा समझें।

ये पैक़ेज़ चाय की पत्ती के पैक़ेट ख़रीदने पर मिलने वाले बम्पर प्राइज़ की तरह है। कोई नहीं जानता के वो बम्पर प्राइज़ मिला किसे। वो करोड़ों के ईनाम किसने जीते। बस छाप दो। जनता है। जन्मजात बेवक़ूफ़ हैं।

मज़दूरो के रोज़गार की बात नहीं करनी। खाना नहीं देना। बोल दिया। ट्रेन पकड़ो, बस पकड़ो या कुछ और पकड़ो लेकिन अपने घर निकल लो। मरो या जियो लेकिन किराया देकर जाना। हम आपको खाना नहीं दे सकते बस पैकेज़ दे सकते है। तुम गंवार मज़दूरों से वो भी यूज़ नहीं करना आता। वी कांट हेल्प इट.

सड़क पर भूख-प्यास से दम तोड़ते प्रवासी मज़दूरों के लिए वंदे-भारत मिशन नहीं चलाया जाता। हर चीज़ का एक स्टैड़र्ड होता है। हवाई जहाज़ से लायँगे विदेशों में फँसे लोगों को। पूरी दुनिया देखेगी। देखो देश का कितना नाम होगा। बाद में पिक्चर भी तो बनेगी। रेस्क्यू को लेकर। भला ऐसी ऑरीज़नल स्क्रिप्ट मिलेंगी कही। समझते नहीं हो यार। प्रधान सेवक दूर की सोचते है। मान के चलो ऐसी पिक्चर ३०० करोड़ कमा के देगी। एक झटके में बाँलीवुड़ की सारी मंदी ख़त्म। समझे बच्चा। इसे कहते है मास्टरस्ट्रोक।

डायरी जारी है...
 
ख़ाली बसें दौड़ रही है। सियासी बसें। ये तेरी बस ये मेरी बस। सड़क पर चलता मज़दूर अपनी घिसी हुई चप्पलों को देख रहा है। उसे नहीं पता उसकी बस कौन सी है। मीडिया बताएगा। पहले बस का धर्म और पार्टी का फ़ैसला तो हो जाये। शायद घर पहुँचने तक पता चल ही जाएगा।

बदहवास मज़दूर रोटी की उधेड़बुन में है। आज मिलेगी या नहीं। पर वह आत्मनिर्भर है। देखो ख़ुद के पैरो से चला जा रहा है। चप्पल टूटी तो क्या। पैर में छाले पड़े तो क्या। मरना तो उसे अपनी घर की देहरी पर ही है। पैदल चलते मज़दूर को बग़ल में चलती साइकिल भी राजधानी एक्सप्रेस लग रही है। काश कुछ पैसे जोड़ लिए होते। तो कब का घर पहुँच गया होता। एक साइकिल भी ना ख़रीद सका। धिक्कार है। ख़ुद को कोसते हुए आगे बढ़ा जा रहा है। ठोकर लगती है तो हक़ीक़त से रूबरू होता है। सैकड़ों मील का सफ़र अभी बाक़ी है।

वह आत्मनिर्भर भारत में चल रहा है। देश की सड़क पर। राह चलते लोग मिल रहे है। उसकी फ़ोटो ले रहे है। मीडिया वाले रोटी की जगह माइक से उसका पेट भरने में लगे है। वह आज रात प्राइम टाइम की स्टोरी में आएगा। सोशल मीडिया पर उसकी स्टोरी वायरल है।

बेख़बर मज़दूर घर जाने की फ़िक्र में घुला जा रहा है। बार-बार वह पीछे मुड़कर देखता है। कोई ट्रक आयेगा। कही कुचल ना जाए। या फिर घर पहुँचा दे। अब चाहे कुचले या घर पहुँचाये। आख़िरी मंज़िल तो घर ही है। फिर चाहे घर ख़ुद का हो या ख़ुदा का। घर तो घर होता है। सुक़ून तो वही मिलता है।

डायरी जारी है..
 
However it is from yahoo news but it is very important to note.
The battle is only halfway and still this platform can be very useful. Some meme forum too can be added to increase taste as per younger generation.
 
कोरोना भई,
अरे फिर वापस आ गए तुम। लेकिन अभी बंगाल क्यूँ नही गए? अच्छा, अभी वहाँ इलेक्शन है। ठीक है। वैसे भी तुम ठहरे प्योर वायरस। तुम्हारा राजनीति से क्या लेना देना। कोई बात नही। तब तक मुंबई, दिल्ली के लोगों से मज़े लो।

सुना है कोई वैक्सीन थी जो तुम्हारी जान लेना चाहती है। बड़ा दुःख हुआ सुनकर। लेकिन हाथ धोकर तो वैसे ही जान निकल जाती है तुम्हारी। फिर वैक्सीन से क्या डरना।
लेकिन मान गए गुरू। भेष बदल-बदल कर वापस आ रहे हो। खुद को भगवान समझ लिए हो क्या? हमने तो सोचा था कि तुम अमेरिका, यूरोप निकल लिए।
लेकिन एक तुम हो कि रॉफ़ेल डील की तरह बार-बार सुर्ख़ियों में आ जाते हो। आख़िर चाहते क्या हो? माई फ़्रेंड डोलांड को तो ले डूबे अमेरिका में। यहाँ भी कुछ ऐसा ही इरादा है क्या?
ख़ैर तुम्हारे चक्कर में हमने अपनी आधी वैक्सीन अपने पुराने यारों में बँटवा दी। कि तुम तो आओगे नही अभी। हमारी हालत तो दुल्हन के बाप जैसी हो गयी है। पचास लोगों की बारात बोलकर पाँच सौ लोग ले आए तुम तो। कहाँ से लाए इतनी वैक्सीन? अबकी बार तो कपड़े फटेंगे यार।

वैसे तुम किसान आंदोलन के कैम्पों में क्यूँ नही चले जाते। कुछ तो सुक़ून मिलेगा हमें। इस बहाने ही उठा लेंगे हम उन्हें। और कुछ तो है नही हमारे पास किसानो को देने के लिए। जैसे तैसे करके पेट्रोल डीज़ल को रोका हुआ है। इलेक्शन निपट जाने दो बंगाल में। फिर देखना सबकी ज़ुबान पर महँगाई का ही नाम होगा। कोई नी पूछेगा तुम्हें।

वैसे जाते-जाते ये तो बता दो कि कोई ट्रिक है क्या तुम्हारे पास। कि बंगाल में लॉकडाउन लगाए बिना पूरे देश में लगा दिया जाए? तुम वैक्सीन से तो मानोगे नही। आख़िर लॉकडाउन की सालगिरह भी तो मनानी है। मज़दूरों को उनके घर वापिस भेजना है। पिछली बार उन्होने रोटी और रोज़गार माँगा था। अबकी बार वैक्सीन माँगेंगे।
हम फिर से लॉकडाउन लगाकर ये वैक्सीन वाला क़िस्सा ही ख़त्म किए देते है।

डायरी जारी है...
 
जितना मखौल कोरोना का उड़ा है इस देश में, उतना तो माय फ़्रेंड डोलांड का भी नही उड़ा अमेरिका में। कोई सीरियसली लेने को तैयार ही नही है।
आई कैंट ब्रीद..पिछले साल यह नारा अमेरिका में गूंजा था। अबकी बार इस देश में। वजह अलग है। लेकिन अंजाम एक ही है। मौत।ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोगों की।

ये देश बड़ा है। इस देश में चुनाव भी बड़े होते है। मौत से भी बड़े। लोग कोरोना से मर रहे है। यही कोई दो हज़ार से ज़्यादा रोज़ाना। मामूली है। इलेक्शन के आगे तो कुछ भी नही। कुछ भी हो जाए हम बंगाल फ़तह कर के रहेंगे। फिर रोज़ टीवी पर देश के नाम संदेश देंगे।कोरोना से बचने के उपाय बताएँगे। लेकिन इलेक्शन बंद नही कराएँगे। कोरोना वाइरस को पॉलिटिक्स से बड़ी चिड़ है। ये बात उसने हमें खुद बतायी है।इसीलिए वो रैलियों में नही जाता। कोरोना वाइरस जैसी नॉन-पॉलिटिकल फ़िगर को आप क्यूँ राजनीति में घसीट रहे है।

आप कोरोना वाइरस को लेकर बेवज़ह शोर ना मचायें। उसे अगर बुरा लग गया तो वो हरिद्वार चला जायेगा। कुम्भ में। वहीं डूब मरेगा बेचारा साधुओं के साथ। अब कोई इलेक्शन की ड्युटी देते हुए निपट गया तो इसमें कोरोना का क्या क़सूर। उसने तो पहले ही बताया था कि उसे पॉलिटिक्स से चिड़ है। प्लीज़ आप कोरोना वाइरस को बेवज़ह बदनाम ना करें। वह अपना काम बेहद ईमानदारी से कर रहा है। वह लोगों को जीवन से मुक्ति दे रहा है। नेताओ की तरह अच्छे दिन के वायदे नही।
 
Saara failure system aur logo ka hai. Samajte hi nahi log. Modi ji ko blame karne mei lage hue hain. Modi ji kya karein jab log social distancing nahi kar sakte to. Modi ji kis kis ko control karenge. Society ka failure hai, Modi ji ka nahi. Please samjho.
 
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