PDA

View Full Version : Hindi Kavita



Pages : 1 [2] 3 4

neels
May 20th, 2008, 03:27 PM
Okay guys...as yu wish... :)
i hadnt any prob wid the pic.... agree tht enhances teh meaning... only tht i wasnt much comfortable wid the image kinda thing for the whole poem.... bt nyways... how so ever evone likes..i don ve any prob..... keep posting wid pics yogs....

neels
May 20th, 2008, 04:13 PM
Barson ke Baad kahin --- GirijaKumar Mathur

बरसों के बाद कभी
हमतुम यदि मिलें कहीं,
देखें कुछ परिचित से,
लेकिन पहिचानें ना।

याद भी न आये नाम,
रूप, रंग, काम, धाम,
सोचें,
यह सम्मभव है -
पर, मन में मानें ना।

हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को -
पढ़ने की ठाने ना।

बातें जो साथ हुई,
बातों के साथ गयीं,
आँखें जो मिली रहीं -
उनको भी जानें ना।

cooljat
May 20th, 2008, 04:27 PM
Hummm, Quality poem with deep thoghts, gud one Neels! :)



Barson ke Baad kahin --- GirijaKumar Mathur

बरसों के बाद कभी
हमतुम यदि मिलें कहीं,
देखें कुछ परिचित से,
लेकिन पहिचानें ना।

याद भी न आये नाम,
रूप, रंग, काम, धाम,
सोचें,
यह सम्मभव है -
पर, मन में मानें ना।

हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को -
पढ़ने की ठाने ना।

बातें जो साथ हुई,
बातों के साथ गयीं,
आँखें जो मिली रहीं -
उनको भी जानें ना।

neels
May 20th, 2008, 05:25 PM
Don know how I missed it so long... This si abt Guatam Budha's son 'Rahul' story

माँ कह एक कहानी- मैथिलीशरण गुप्त
"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।"
"जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।"
"सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"

ysjabp
May 20th, 2008, 06:15 PM
http://manaskriti.com/kaavyaalaya/muktaks/ek_aisee.gif

ysjabp
May 20th, 2008, 06:19 PM
http://manaskriti.com/kaavyaalaya/muktaks/keval_baadal.gif

cooljat
May 20th, 2008, 06:38 PM
Yogi bro, Awesome poem!
keep addin'...


http://manaskriti.com/kaavyaalaya/muktaks/keval_baadal.gif

ysjabp
May 20th, 2008, 07:21 PM
http://www.4to40.com/images/poems/kunji/kunji_01.gif
http://www.4to40.com/images/poems/kunji/ramdhari_dinkaras_kunji.jpg
http://www.4to40.com/images/poems/kunji/kunji_02.gif




by Ramdhari Singh - Dinkar

ysjabp
May 20th, 2008, 07:41 PM
http://www.4to40.com/images/poems/ehsash/ehsash_kite.jpghttp://www.4to40.com/images/poems/ehsash/ehsash_1.gifhttp://www.4to40.com/images/poems/ehsash/ehsash_2.gifhttp://www.4to40.com/images/poems/ehsash/ehsash_3.gif



by Manoj Kumar "Maithil"

Samarkadian
May 27th, 2008, 06:05 AM
रात यों कहने लगा / रामधारी सिंह "दिनकर"



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।



जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।



आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।



मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?



मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।



मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।



स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

रामधारी सिंह "दिनकर"

:)Enjoy!

neels
May 27th, 2008, 02:53 PM
रात यों कहने लगा / रामधारी सिंह "दिनकर"

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
रामधारी सिंह "दिनकर"

:)Enjoy!

samar gud one....

bt this poem is already posted wid name "chand aur kavi"

ysjabp
May 27th, 2008, 03:41 PM
एक दिन बैठा समुंदर तीर पेर,
सुन रहा था बुलबुले की मैं कथा.
एक कागज की दिखी किश्ती तभी ,
थी छुपी जिसमे पहाडों की व्यथा.
बोझ इतना धर, मुझे अचरज हुआ,
चल रही है किस तरह यह धर में.
वह हँसी, बोली चलती चाह हेई,
आदमी चलता नही संसार में.

अज्ञात

(agar anuvaad sahi nahi hua ho to )

ek din baitha samunder teer per,
sun raha tha bulbule ki main katha.
ek kagaj ki dikhee kishtee tabhee,
thi chhupi jisme pahado ki vyatha.
bojh itna dhar, mujhe achraj hua,
chal rahi hai kis tarah yeh dhar mein.
wah hansi, boli chalati chaah hei,
aadmi chalta nahi sansar mein.


Agyat..

neels
May 27th, 2008, 06:34 PM
एक दिन बैठा समुंदर तीर पेर,
सुन रहा था बुलबुले की मैं कथा.
एक कागज की दिखी किश्ती तभी ,
थी छुपी जिसमे पहाडों की व्यथा.
बोझ इतना धर, मुझे अचरज हुआ,
चल रही है किस तरह यह धर में.
वह हँसी, बोली चलती चाह हेई,
आदमी चलता नही संसार में.

अज्ञात



bahut achchi hai...

neels
May 27th, 2008, 06:37 PM
बालिका से वधु - another sensitive poem from Ramdhari Singh Dinker
माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी,
पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी।
लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी,
यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

पीला चीर, कोर में जिसकी चकमक गोटा-जाली,
चली पिया के गांव उमर के सोलह फूलोंवाली।
पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल चितवन में,
आँसू में भींगी माया चुपचाप खड़ी आंगन में।

आँखों में दे आँख हेरती हैं उसको जब सखियाँ,
मुस्की आ जाती मुख पर, हँस देती रोती अँखियाँ।
पर, समेट लेती शरमाकर बिखरी-सी मुस्कान,
मिट्टी उकसाने लगती है अपराधिनी-समान।

भींग रहा मीठी उमंग से दिल का कोना-कोना,
भीतर-भीतर हँसी देख लो, बाहर-बाहर रोना।
तू वह, जो झुरमुट पर आयी हँसती कनक-कली-सी,
तू वह, जो फूटी शराब की निर्झरिणी पतली-सी।

तू वह, रचकर जिसे प्रकृति ने अपना किया सिंगार,
तू वह जो धूसर में आयी सुबज रंग की धार।
मां की ढीठ दुलार! पिता की ओ लजवंती भोली,
ले जायेगी हिय की मणि को अभी पिया की डोली।

कहो, कौन होगी इस घर तब शीतल उजियारी?
किसे देख हँस-हँस कर फूलेगी सरसों की क्यारी?
वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे पहला फल अर्पण-सा?
झुकते किसको देख पोखरा चमकेगा दर्पण-सा?

किसके बाल ओज भर देंगे खुलकर मंद पवन में?
पड़ जायेगी जान देखकर किसको चंद्र-किरन में?
महँ-महँ कर मंजरी गले से मिल किसको चूमेगी?
कौन खेत में खड़ी फ़सल की देवी-सी झूमेगी?

बनी फिरेगी कौन बोलती प्रतिमा हरियाली की?
कौन रूह होगी इस धरती फल-फूलों वाली की?
हँसकर हृदय पहन लेता जब कठिन प्रेम-ज़ंजीर,
खुलकर तब बजते न सुहागिन, पाँवों के मंजीर।

घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन उँगली की पोरों पर,
प्रिय की याद झूलती है साँसों के हिंडोरों पर।
पलती है दिल का रस पीकर सबसे प्यारी पीर,
बनती है बिगड़ती रहती पुतली में तस्वीर।

पड़ जाता चस्का जब मोहक प्रेम-सुधा पीने का,
सारा स्वाद बदल जाता है दुनिया में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहागिन, यह मेरा वरदान;
हरसिंगार की टहनी-से फूलें तेरे अरमान।

जगे हृदय को शीतल करनेवाली मीठी पीर,
निज को डुबो सके निज में, मन हो इतना गंभीर।
छाया करती रहे सदा तुझको सुहाग की छाँह,
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे हो प्रियतम की बाँह।

पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी के दिन-दिन त्यौहार,
उर का प्रेम फूटकर हो आँचल में उजली धार।


- दिनकर

shashiverma
May 27th, 2008, 06:46 PM
http://manaskriti.com/kaavyaalaya/muktaks/ek_aisee.gif

Beautiful lines...

cooljat
May 27th, 2008, 06:54 PM
Bhai Yogi, indeed quality deep pondering lines indeed! :)


एक दिन बैठा समुंदर तीर पेर,
सुन रहा था बुलबुले की मैं कथा.
एक कागज की दिखी किश्ती तभी ,
थी छुपी जिसमे पहाडों की व्यथा.
बोझ इतना धर, मुझे अचरज हुआ,
चल रही है किस तरह यह धर में.
वह हँसी, बोली चलती चाह हेई,
आदमी चलता नही संसार में.

अज्ञात

cooljat
May 27th, 2008, 06:57 PM
Bhai Yogi, Indeed matchless inspiring poem, awesome !
keep posting ... really liked this one bro! :)


http://www.4to40.com/images/poems/ehsash/ehsash_kite.jpg


by Manoj Kumar "Maithil"

cooljat
May 27th, 2008, 07:03 PM
The Balance between Blues & Bliss, day & night, Sukh & Dukh that makes life a beautiful experince!!, This wonderful inspirin' poem very much describes the same!! :)


सुख दुख - सुमित्रानंदन पंत

मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख!

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन!

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से!

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का!


Rock on
Jit

cooljat
May 27th, 2008, 07:14 PM
One more for the day from same classy poet, let ur heart brekfree! :)


तप रे मधुर-मधुर मन! - सुमित्रानंदन पंत

विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन!

अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर मन!

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!

आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल?
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!

खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की!

बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन!

आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!

क्या यह जीवन? सागर में
जल भार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!

सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय ..


Rock on
Jit

rama
May 27th, 2008, 07:18 PM
One more for the day from same classy poet, let ur heart brekfree! :)


तप रे मधुर-मधुर मन! - सुमित्रानंदन पंत

विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन!

अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर मन!

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!

आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल?
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!

खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की!

बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन!

आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!

क्या यह जीवन? सागर में
जल भार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!

सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय ..


Rock on
Jit
Excellent poem ,Jit:)

cooljat
May 28th, 2008, 02:23 PM
One sucha Classy Inspirin poem full of Zeal, Fills u with enthu quickly!
Never Say Die is the moral, Matchless composition by Great Suman!

I literally got goosebumps when I read it, too inspirin' !! :cool:



तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार - शिवमंगल सिंह सुमन

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।


Rock on
Jit

cooljat
May 28th, 2008, 03:25 PM
One more for the day, Again an inspiring poem, givin msg to those who shed tears just for lil defeats & few shattered dreams! Truly matchless, Great moral as well! :)


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपालदास "नीरज"


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

Rock on
Jit

mukeshkumar007
May 28th, 2008, 03:29 PM
One sucha Classy Inspirin poem full of Zeal, Fills u with enthu quickly!
Never Say Die is the moral, Matchless composition by Great Suman!

I literally got goosebumps when I read it, too inspirin' !! :cool:



तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार - शिवमंगल सिंह सुमन

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।


Rock on
Jit

too good :-)

nainakhicher
May 28th, 2008, 03:50 PM
एक दिन बैठा समुंदर तीर पेर,

वह हँसी, बोली चलती चाह हे,
आदमी चलता नही संसार में.



True... and very beautiful way to express the truth.:)

nainakhicher
May 28th, 2008, 03:56 PM
One more for the day, Again an inspiring poem, givin msg to those who shed tears just for lil defeats & few shattered dreams! Truly matchless, Great moral as well! :)


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपालदास "नीरज"



सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |



खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।



bahut sundar aur meaningful kavita he. I recall, perhaps it was in VIIth standard. Jit bhaiya agar koi badalon aur barish se related lines milen to wo bhi post kar do plz.

rama
May 28th, 2008, 05:24 PM
One more for the day, Again an inspiring poem, givin msg to those who shed tears just for lil defeats & few shattered dreams! Truly matchless, Great moral as well! :)


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपालदास "नीरज"


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

Rock on
Jit
Bahut badhia kavita,Jit. Is kavita ne mujhe bhi ek kavita yaad dila di.....



जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
— हरिवंशराय बच्चन

ysjabp
May 28th, 2008, 05:38 PM
http://www.4to40.com/images/poems/badal/badal_text.gif

nainakhicher
May 29th, 2008, 01:56 PM
http://www.4to40.com/images/poems/badal/badal_text.gif

Aaj Jatland par bhi barish ho hi gai. Very nice yoginder bhaiya.:)

sandeeprathee
May 29th, 2008, 02:42 PM
this one is too good Jit....really inspiring and motivating.:)


One more for the day, Again an inspiring poem, givin msg to those who shed tears just for lil defeats & few shattered dreams! Truly matchless, Great moral as well! :)


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपालदास "नीरज"


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

Rock on
Jit

jatanomics
May 29th, 2008, 02:49 PM
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है.
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है.
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो.
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्श का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम.
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

ysjabp
May 29th, 2008, 03:46 PM
कातिल शूल भी दुलरा रहे हैं पों को मेरे
कहीं तुम पंथ पेर पलके बिछाए टू नही बैठी

हवाओं में न जाने आज कुछ नमी सी हेई
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी हेई
गगन पेर बदलियाँ लहरा रही हेई, श्याम आँचल सी
कहीं तुम नयन में सावन बिछाए टू नही बैठी

अमावस की दुल्हन सोई हुई हेई, अवनी से लग कर
न जाने तरिकाए बात किसकी जोती जग कर
गहन तम हेई, डगर मेरी मगर फिर भी चमकती हेई
कहीं तुम द्वार पे दीपक जलाये टू नही बैठी

हुई कुछ बात असइ, फूल भी फीके पड़ जाते
सितारे भी चमक पर आज टू अपनी इतराते
बहुत शर्मा रहा हेई, बदलियो की ओत में चन्दा
कहीं तुम आँख में काजल लगाये टू नही बैठी

Poet : Balswaroop Rahi

ysjabp
May 29th, 2008, 03:55 PM
Aaj Jatland par bhi barish ho hi gai. Very nice yoginder bhaiya.:)

Bebbe Aap ki pharmaish thi Barish ki aur Mausam bhi dastak de raha hei
to bus aapki khattir dhundh ke post kar di

Aapka Bhaiya
Yogendra singh joon

neels
May 29th, 2008, 04:33 PM
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार - शिवमंगल सिंह सुमन

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार



One more for the day, Again an inspiring poem, givin msg to those who shed tears just for lil defeats & few shattered dreams! Truly matchless, Great moral as well! :)


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपालदास "नीरज"


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

Rock on
Jit

Too good jit.... keep it up...:) the second one is really worth posting and meaningful.

ahlwit
May 29th, 2008, 06:20 PM
can any one post MADHUSHALA BY Harivansh Rai bacchan

ysjabp
May 29th, 2008, 07:26 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/madhushala/madhushala1.gifhttp://www.geeta-kavita.com/images/madhushala/madhushala2.gif

Shri Harvansh Rai Bachhan

ysjabp
May 29th, 2008, 07:30 PM
can any one post MADHUSHALA BY Harivansh Rai bacchan

RAHUL JI AAP KE LIYE MADHUSHLA PADH LIJIYE

ysjabp
May 29th, 2008, 07:37 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/roshni/roshni.gif

POET : RAM AVTAR TYAGI

spdeshwal
May 30th, 2008, 03:49 AM
योगेंदर भाई,

अति सुंदर !

में जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ -
पाँव मेरे देख कर दुनिया चलेगी !!.......

में बहारों का अकेला वंशधर हूँ ......

आंसुओं को देख कर मेरी हँसी तुम मत उड़ाओ!
में ना रोऊँ तो शिला कैसे गलेगी ! .....


इस सुंदर कविता को यहाँ प्रेषित करने के लिए धन्यवाद !



खुश रहो !

ahlwit
May 30th, 2008, 09:26 AM
Yoginder Bhai, thank you very much for posting Madhushala

cooljat
May 30th, 2008, 06:10 PM
One more gem from the treasure of Great Bachchan, matchless!!
lil melancholic in touch .... but a class apart ... as usual !!


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है - हरिवंश राय बच्चन

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है |


Rock on
Jit

cooljat
May 30th, 2008, 06:30 PM
One more for the day, A quality inspiring poem ... really touchin' ... never say die is the moral !! Awesome! :)


क्योंकि सपना है अभी भी - धर्मवीर भारती

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!



Rock on
Jit

ysjabp
May 30th, 2008, 07:18 PM
One more for the day, A quality inspiring poem ... really touchin' ... never say die is the moral !! Awesome! :)


क्योंकि सपना है अभी भी - धर्मवीर भारती

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!



Rock on
Jit

BAHUT BADHIYA JIT BHAI

neels
May 30th, 2008, 09:08 PM
विवशता - शिव मंगल सिंह 'सुमन'

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।

गति मिलि मैं चल पड़ा
पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
संगी अनसुना था।
चाँद सूरज की तरह चलता
न जाना रातदिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
आज भी कहना कठिन है,
तन न आया माँगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आँधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।
- शिव मंगल सिंह 'सुमन'

shashiverma
May 30th, 2008, 09:38 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/roshni/roshni.gif

POET : RAM AVTAR TYAGI

Interesting and Gud one

neels
May 30th, 2008, 09:43 PM
Gud Job Yogs n Jit...keep posting.

cooljat
June 2nd, 2008, 03:48 PM
Too gud, Awesome Poem Neels...:)
Touches to the core of heart!


विवशता - शिव मंगल सिंह 'सुमन'

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।

.
.
.

डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।
- शिव मंगल सिंह 'सुमन'

cooljat
June 2nd, 2008, 03:59 PM
'Road' word makes my nomadic soul feel, whenever I hear it! ... nyways, got this beautiful deep pondering poem ... really a nice poem! :)


सड़क दर सड़क - पूर्णिमा वर्मन

सड़क दर सड़क
मंज़िलों की तरफ़ बढ़ते हुए
हम आवारा हो गए थे
सही डग भरते हुए।

डूब कर उतराए
खुद को रोक भी पाए
मगर सुनसान रस्ते हो गए थे
तभी सब चलते हुए
हाथ थामे कौन-सा
थे हाथ सब मलते हुए

जंगलों में साँप थे
थे बीहड़ों में रास्ते
अस्तीनें तंग थीं
जेबों में थे कुछ वास्ते
वास्ते आवाराओं के
काम क्या आते भला?
दूर तक दिखता नहीं था
पार जाता काफ़िला

दिल में थी छोटी-सी आशा
सिर पे एक रुमाल था
दूर पानी का कुआँ था
पैर में एक घाव था
दर्द के दर्शन से हल्की
मसख़री करते हुए
सबको छोड़ा और धीरे से
किनारे हो लिए।


Rock on
Jit

neels
June 2nd, 2008, 04:02 PM
समय की शिला पर - शम्भुनाथ सिंह
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये।

किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी
इसी में गये बीत दिन ज़िन्दगी के
गयी घुल जवानी, गयी मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाये, गगन ने गिराये।

शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना,
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाये, विरह ने बुझाये।

भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाये, उषा ने सुलाये।

सुरभि की अनिल-पंख पर मौन भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिंदु बनकर बिखर पर गये स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाये, लहर ने बहाये।


- शम्भुनाथ सिंह

cooljat
June 2nd, 2008, 06:17 PM
One more for the day, Really an Inspirin' one !...


एक भी आँसू न कर बेकार - रामावतार त्यागी

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!


Rock on
Jit

cooljat
June 3rd, 2008, 06:28 PM
Well, Poornima Varman ... I discoverd this lil less know poet lately, and I find her creations really deep classy & thought provoking, Indeed Gem of a poet ! :)

Time, its indeed mystic .. sometimes it acts as friend while sometimes as a foe, indeed classy poem that describes!...


इस मोड़ पर - पूर्णिमा वर्मन

वक्त हरदम
साथ था मेरे
कभी रूमाल बन कर
पोंछता आँसू
कभी तूफ़ान बन कर
टूटता मुझ पर

कभी वह भूख था
कभी उम्मीद का सूरज
कभी संगीत था
तनहाइयों का
कभी वह आख़िरी किश्ती
जो मुझको छोड़ जाती थी
किनारे पर अकेला

वो हमदम था
कि दुश्मन
या कि कोई अजनबी था
समझते – ना समझते
उम्र के इस मोड़ पर
आ गए दोनों. . ,


Rock on
Jit

cooljat
June 3rd, 2008, 06:46 PM
One more from Poornima, A gud philosophical poem about Paradox of Life!...


आधी रात - पूर्णिमा वर्मन

उठो!
आधी रात
फिर ज़िंदगी को ढूँढने चलें

बार-बार फिसल जाती है हाथों से
छटपटाती
ज़िंदा मछली की तरह
साँसों की तलाश में
भीड़ों के अंधेरे सागर में

भीड़ जो बरसों से अकेलेपन की परिचायक है
और हथेलियाँ जहाँ
रिसने लगता है नेह गाँठों के बीच से
बुझने लगते हैं दिये
घुटने लगता है दम

न इस करवट चैन
न उस करवट
करवटें बदलते
यों ही कटती है ज़िंदगी
कि ये ऊँट भी न जाने किस करवट बैठे।


Rock on
Jit

cooljat
June 5th, 2008, 05:17 PM
for u sis ... :)

A nice poem that describes City Rains beautifully ...

शहर में बरसात

शहर में बरसात हुई
भीगी सी ठंडी सी रात हुई |

भली लगी खिड़की पर
शीशे से टकराती
कोमल बौछारें
सड़कों पर मंद हुई
तेज़ तेज़ दौड़ रही
कार की कतारें ..

प्रतिबिम्बित होती है बहुरंगी बत्तियां
सजधज बाज़ारों की
बड़े-बड़े ग्लो साइन
बारिश की धारों में अजब समां देते हैं
धुन्धलाता है सामने का कांच
कठीन श्रम करते हैं वाइपर
परे सिमटती है
कोलहाल भरी भीड़ ..

छोटे से कैफे
में शीशे गिरता है लड़का
सिमटा मुस्कराता सा
कड़ाहे में पलटता है बार-बार
फिलाफल के पकौडों को
दौड़-दौड़ के परोसता है कावा के गरम प्याले ..

गहराई सड़कों पर
टिप टिप कर बहुत तेज़
होता है टंकित
नया गीत वर्षा का
कोन है लिपिक ?..


Rock on
Jit


bahut sundar aur meaningful kavita he. I recall, perhaps it was in VIIth standard. Jit bhaiya agar koi badalon aur barish se related lines milen to wo bhi post kar do plz.

ysjabp
June 7th, 2008, 02:22 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/gahan_andhera/gahan_andhera.gif
Poem by :Nemichand Jain

neels
June 8th, 2008, 11:21 PM
जीकर देख लिया - - शिव बहादुर सिंह भदौरिया
जीकर देख लिया
जीने में -
कितना मरना पड़ता है।
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है।
किन्तु ज़िन्दगी अनुबन्धों के
अनचाहे आश्रय गहती है।
क्या क्या कहना
क्या क्या सुनना
क्या क्या करना पड़ता है
समझौतों की सुइयां मिलती,
धन के धागे भी मिल जाते,
सम्बन्धों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं, सिल भी जाते,
सीवन
कौन, कहाँ कब उधड़े,
इतना डरना पड़ता है।
मेरी कौन विसात यहाँ तो
सन्यासी भी सांसत ढोते।
लाख अपरिग्रह के दर्पण हो
संग्रह के प्रतिबिम्ब संजोते,
कुटिया में
कोपीन कमण्डल
कुछ तो धरना पड़ता है।


- शिव बहादुर सिंह भदौरिया

ysjabp
June 10th, 2008, 01:01 PM
' Phir kya hoga uske baad?'
utsuk hokar shishu ne poocha,
' Maa, kya hoga uske baad?'

Ravi se ujjval, shashi se sundar,
nav-kislay dal se komaltar
vadhu tumhare ghar aayegi
us vivah utsav ke baad

palbhar mukh par smiti rekha
khel gayi phir maa ne dekha
vadhu tumhare ghar aayegi
us vivah utsav ke baad

phir nabh se nakshatra manohar
swarga lok se utar utar kar
tere shishu banne ko mere
ghar aayenge uske baad

Mere naye khiloune lekar
chale na jayein ve apne ghar
chintit hokar utha, kintu phir
poocha shishu ne uske baad ?

Ab maa ka jee oob chuka tha
harsh shranti mein doob chuka tha
boli phir main boodhi hokar
mar jaoongi uske baad

Ye sun kar bhar aaye lochan
kintu ponchkar unhein usi kshan
sahaj kutuhal se phir shishu ne
poocha, maan kya hoga uske baad

kavi ko balak ne sikhlaya
sukh dukh hai palbhar ki maya
hai anant tatwa ka prashna yah
phir kya hoga uske baad?

Balkrishna Rao

ysjabp
June 11th, 2008, 05:02 PM
http://www.4to40.com/images/poems/Kavi_Kabhi_roya_nahi_Karta/Kavi_Kabhi_Roya_nahi_Karta_title.gifhttp://www.4to40.com/images/poems/Kavi_Kabhi_roya_nahi_Karta/Kavi_kabhi_roya_nahi_karta_1.gifhttp://www.4to40.com/images/poems/Kavi_Kabhi_roya_nahi_Karta/Kavi_Kabhi_roya_Nahi_karta_2.gif


POET: MANOHARLAL RATNAM

ysjabp
June 11th, 2008, 05:19 PM
http://www.4to40.com/images/poems/udaasnaho/udaas_na_ho_01.gif
http://www.4to40.com/images/poems/udaasnaho/depression.jpg
http://www.4to40.com/images/poems/udaasnaho/udaas_na_ho_02.gifhttp://www.4to40.com/images/poems/udaasnaho/into_tensions.jpg

Sahir Ludhyanvi

ysjabp
June 11th, 2008, 06:31 PM
http://manaskriti.com/kaavyaalaya/muktaks/sarp_tum.gif

neels
June 11th, 2008, 09:39 PM
Gud ones Yogender Ji..... rst Agyey wali sanp tum sabhya to nahin the.... i posted long ago... pls take care tht poems nt get repeated.

neels
June 11th, 2008, 09:43 PM
for u sis ... :)

A nice poem that describes City Rains beautifully ...

शहर में बरसात

शहर में बरसात हुई
भीगी सी ठंडी सी रात हुई |

भली लगी खिड़की पर
शीशे से टकराती
कोमल बौछारें
सड़कों पर मंद हुई
तेज़ तेज़ दौड़ रही
कार की कतारें ..

प्रतिबिम्बित होती है बहुरंगी बत्तियां
सजधज बाज़ारों की
बड़े-बड़े ग्लो साइन
बारिश की धारों में अजब समां देते हैं
धुन्धलाता है सामने का कांच
कठीन श्रम करते हैं वाइपर
परे सिमटती है
कोलहाल भरी भीड़ ..

छोटे से कैफे
में शीशे गिरता है लड़का
सिमटा मुस्कराता सा
कड़ाहे में पलटता है बार-बार
फिलाफल के पकौडों को
दौड़-दौड़ के परोसता है कावा के गरम प्याले ..

गहराई सड़कों पर
टिप टिप कर बहुत तेज़
होता है टंकित
नया गीत वर्षा का
कोन है लिपिक ?..


Rock on
Jit

Jit tumhari poem padh ker mujhe 2 lines yaad aa gayi... i know i know this is kavita thread.... bt fr once i take this liberty.....:)

"अबकी बार भी शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ सारे शहर में बरसात हुई |"

neels
June 11th, 2008, 09:46 PM
मेरा नया बचपन - सुभद्रा कुमारी चौहान

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥


- सुभद्रा कुमारी चौहान

ysjabp
June 12th, 2008, 10:47 AM
Gud ones Yogender Ji..... rst Agyey wali sanp tum sabhya to nahin the.... i posted long ago... pls take care tht poems nt get repeated.

I Will take care

wrm rgds

rama
June 14th, 2008, 06:46 PM
Lohe Ke ped Hare Honge

Lohe ke ped hare honge, tu gaan prem ka gaata chal
nam hogi yeh mitti zaroor, aanso ke kan barsaataa chal.

Siskiyon aur chitkaaron se, jitna bhi ho akaash bhara,
Kankaalon ka ho dher, khapparon se chahe ho pati dhara.
aasha ke swar ka bhaar, pavan ko leking lena hi hoga,
jeevit sapno ke liye marg murdon ko dena hi hoga.
rango ke saaton ghat udhel, yeh andhiyaari rang jaayegi,
Usha ko satya banane ko jaavak nabh par chitraata chal.

Aadarshon se Aadarsha bhide, pragya pragya par toot rahi,
Pratima Pratima se ladti hai, dharti ki kismat foot rahi.
Aavarton ka hai visham jaal, nirupaay buddhi chakraati hai,
vigyaan - yaan ar chadhi hui sabhyata doobne jaati hai.
Jab-Jab mastishq jayi hota, sansaar gyaan se chalta hai,
sheetalta ki hai shah hriday, tu yeh samvaad sunaata chal.

Sooraj hai jag ka bujha bujha, chandramaa amlin sa lagta hai,
Sab ki koshish bekaar hui, aalok na inka jagta hai.
In malin grahon ke praron mein koi naveed aabha bhar de,
Jaadogar! apne darpan par ghiskar in ko taaza kar de.
Deepak ke Jalte Praan, diwali tabhi suhaawan hoti hai,
Roshni jagat ko dene ko, apni asthiyaan jalaata chal.

Kya unhe dekh vismit hona, jo hain almast bahaaron mein,
phoolon ko jo hain goonth rahe, sone- chaandi ke taaron mein.
Maanavta ka tu vipra, gandh-chaaya ka aadi pujaari hai,
Vedna-putra! to to keval jalne bhar ka adhikaari hai.
Le badi kushi se utha, sarovar mein jo hansta chaand mile,
Darpan mein rachkar phool, magar uska bhi mol chukata chal.

Kaayaa ki kitni dhoom-dhaam! do roz chamak bujh jaati hai,
chaaya peeti piyuush, mrityu ke upar dhwaja udhati hai.
Lene de jag ko use, taal par jo kalhans machalta hai,
tera maraal jal ke darpan mein neeche-neeche chalta hai.
Kankaabh dhool jhar aayegi, ye rang kabhi ud jaayenge,
Saurabh hai keval saar, use tu sab ke liye jugaata chal.

Kya apni un se hod, amar-ta ki jinko pehchaan nahin,
chaaya se parichay nahi, gandh ke jag ka jin ko gyaan nahi?
Jo chatur chaand ka ras nichod pyaalon mein dhaalaa karte hain,
Bhattiyaan chadaakar phoolon se jo itra nikaala karte hain.
Ye bhi jaayenge kabhi, magar, aadhi manushyata-waalon par,
Jaise muskaata aaya hai, vaise ab bhi muskaata chal.

Sabhyata-ang par shat karaal, yeh arth-maanvon ka bal hai,
hum ro-kar bharte use, humaari aankh mein ganga-jal hai.
Sooli par chadha maseeha ko ve foole nahi samaate hain,
Hum shav ko jeevit karne ko chaayapur mein le jaate hain.
Bheegi chandniyon mein jeeta, jo kathin dhoop mein marta hai,
Ujiyaali se peedit nar ke man mein gaudhooli basaaata chal.

Yeh dekh nai leela un ki, phir us ne bada kamaal kiya,
Gandhi ke lahu se saare, bhaarat-sansaar ko laal kiya.
Jee Uthe raam, Jee Uthe Krishna, bharat ki mitti roti hai,
Kya hua ki pyaare Gandhi ki yeh laash na jinda hoti hai?
Talwaar maarti jinhe, baansuri unhe naya jeevan deti,
Jeevani-shakti ke abhimaani! yeh bhi kamaal dikhlaata chal.

Dharti ke bhaag hare honge, bhaarti Amrit barsaayegi,
din ki karaal dahakta par, chaandni susheetal chaayegi.
Jwaalamukhiyon ke kantho mein kal-kanthi ka aasan hoga
Jildon se lada gagan hoga, phoolon se bhara bhuvan hoga.
Bejaan yantra vichrit, Goongi Moortiyaan ek din bolengi,
Moonh khol khol sab ke bheetar shilpi! tu jeebh bithaata chal.

Lohe ke ped hare honge...

neels
June 14th, 2008, 09:31 PM
Lohe Ke ped Hare Honge



Lohe ke ped hare honge, tu gaan prem ka gaata chal
nam hogi yeh mitti zaroor, aanso ke kan barsaataa chal.






Very Good one Rama... can yu add the name of the poet also if know.

Samarkadian
June 14th, 2008, 10:58 PM
~~~~Is Sadi Ka Baccha~~~~

Baccha Khilono Se khelta
Bottle se Pita Dudh
Tarsata Ma Ke Aanchal Ko..

Baccha
Chai Ki Gumthi Mein
Dhota Juthe Cup Glass
Balsharam ka Udata Uphas

Baccha
Hatth Mein Liye Katora
Muh Per Liye Yachna
Hridya Mein Liye Vedna
Mangta Bheekh

Baccha
Unnt Daud Ka Hissa
Rozgar Ban Gaya Hai
Manoranjan Ka Vyapar Ban Gaya Hai


Baccha
Jiski Pith per
Bojh Ban Gaya Basta
Nahi Bacchi Ab Kilkari
Jisme Brahamand Dikhta Tha..

Baccha
Ab Nahi Mangta
Khelne Ke Liye Chand khilona
Chand mein Bhi Use Dikhti Hai Roti..


Baccha
Hanste Hue Kanpta Hai
Baccha
Baccha Hone Se Darta Hai
By Anirudh Singh Sengar

neels
June 15th, 2008, 09:00 AM
~~~~Is Sadi Ka Baccha~~~~

Baccha Khilono Se khelta
Bottle se Pita Dudh
Tarsata Ma Ke Aanchal Ko..


Baccha
Hatth Mein Liye Katora
Muh Per Liye Yachna
Hridya Mein Liye Vedna
Mangta Bheekh

By Anirudh Singh Sengar

Bahut badhiya hai samar.... very realistic n true to times.

neels
June 15th, 2008, 09:14 AM
Liked it....
ऊँचाई - अटल बिहारी वाजपेयी
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।


जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफन की तरह सफेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिल-खिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनन्दन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफि नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

जरूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंट सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई कलि न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
- अटल बिहारी वाजपेयी

rama
June 15th, 2008, 11:07 PM
Very Good one Rama... can yu add the name of the poet also if know.[/center]
Hello Dr. Neelam
I think the poet is Randhari Singh Dinkar.
Thanks.

ysjabp
June 16th, 2008, 11:17 AM
~~~~Is Sadi Ka Baccha~~~~

Baccha Khilono Se khelta
Bottle se Pita Dudh
Tarsata Ma Ke Aanchal Ko..



Baccha
Jiski Pith per
Bojh Ban Gaya Basta
Nahi Bacchi Ab Kilkari
Jisme Brahamand Dikhta Tha..


Baccha
Hanste Hue Kanpta Hai
Baccha
Baccha Hone Se Darta Hai
By Anirudh Singh Sengar

Dil ko Jhakjhorati hui Kavita, Aaj ke Zamane ki Sachchi Tasveer
Very Emotionaly SK , Katu Satya hum sab ke liye.

Samarkadian
June 16th, 2008, 01:56 PM
Thanks Guys! Here is some more positivism and realistic work by a young girl.

_______________Samundra Manthan______________________//////

Ek DIn Hridya Mein Aaya
Samudra Manthan Ka Khayal
To Mai Gayi Sagar Ke Pass
Pucchne Uska Haal Chaal
Shaant, Gambhir Maun Tha Sagar
Samete Bahut Kuch Bheetar.................


Meri Zigasaya Dekh
Sagar Thoda Muskaya
Apne Bheetar Chal Rahe
Antardwand Se Avgat Karaya................


Yaado Ki Parat Kholte Sagar Bola
Kabhi Sochta Hoon Purane Samay ko
To Kaleja
Muh Tak Aa Jata Hai
Aur Mera Utsah
Thanda Ho Jata Hai......................................


Manthan Ke Samay Ki Peeda
Nahi Apna Ahsas Jata Pati Hai
Jab Vartman Daur Ke Rajniti;
Aur Bharstachar Ki Baat Aati Hai....................................


Unmukat Ho Utsah Se
Leta Hoon Unnchi Hilore
Jaga Dena Chahta hoon
Sabhi Ke ''Zameer'' Ko
Ek Ek Gareeb Ko
Hazaro Ameer Ko................................................ ..................


Tab Sab
Mughe Toofan man Lete Hain
Meri Utsah Ki Hiloro Ko
Barbadi Ka Karan Jaan Lete Hain.............................................. .....


Ye Sab Dekh
Punah: Ho Jata Hoon Maun
Ab Samjh Nahi Aata
Kitna Doshi Kaun.............................................. ..............................


Mai,! ?
Jo Soye Hue Ko Jaga Nahi Pa Raha;
Ya Wo!?
Jo Jagkar Bhi, Jagna Nahi Chah Rahe.............................................. ..........



Rolli Tripathi

ysjabp
June 16th, 2008, 02:51 PM
[quote=Samarkadian;172635]Thanks Guys! Here is some more positivism and realistic work by a young girl.

_______________Samundra Manthan______________________//////

Ek DIn Hridya Mein Aaya
Samudra Manthan Ka Khayal
To Mai Gayi Sagar Ke Pass
Pucchne Uska Haal Chaal
Shaant, Gambhir Maun Tha Sagar
Samete Bahut Kuch Bheetar.................
__________________________________________________ ________

SAGAR KI VYATHA KA BADE SUNDER SHABDON MEIN VARNAN KIY HE
BHAUT KHOOB.......

ysjabp
June 16th, 2008, 02:56 PM
Hello Dr. Neelam
I think the poet is Randhari Singh Dinkar.
Thanks.

POET :RASHTRA KAVI SHRI RAMDHARI SINGH DINKAR

ysjabp
June 16th, 2008, 04:57 PM
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
- Harivansh Rai Bachchan

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

Anjalis
June 17th, 2008, 03:30 PM
Liked it....
ऊँचाई - अटल बिहारी वाजपेयी

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।


मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
- अटल बिहारी वाजपेयी
Neel Ji Behad Khubsurat
Ek dum Satik tathya he yeh panktiyan...

rama
June 18th, 2008, 12:28 PM
POET :RASHTRA KAVI SHRI RAMDHARI SINGH DINKAR
O.K.
Thanks.:)

rama
June 18th, 2008, 12:32 PM
कवि: माखनलाल चतुर्वेदी (http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%B2%E0%A 4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0 %E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80)
~*~*~*~*~*~*~*~
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो !


पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया


धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो।

कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!


किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !


काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
मनमोहिनी धरा के बल हैं
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
तेरी ही छाया के छल हैं।


प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

rama
June 18th, 2008, 12:48 PM
Jeevan ki aapadhapi me----

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।


जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खडा हुआ हूं दुनिया के इस मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलाने में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
कुछ देर रहा हक्क-बक्क, भौंचक्का सा,
आ गया कंहा, क्या करुं यहां, जाऊं किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का उहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।


मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।


मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पांव पडे, ऊंचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,
पर मैं क्रितग्य उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,
जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,
इस एक और पहलू से होकर निकल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या

Dr. Harivansh Rai Bachchan

ysjabp
June 18th, 2008, 03:44 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/soona_ghar/soona_ghar.gif


Lovely poem by : Shri Satyanarayan

ysjabp
June 21st, 2008, 04:20 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/motif/bracket_right.gif http://www.geeta-kavita.com/images/geet_ka_pehla_charan/geet_ka_pehla_charan.gif

poet : Indira Gaud

ysjabp
June 21st, 2008, 04:41 PM
एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!


Poet: (Ram Avtar Tyagi)

cooljat
June 23rd, 2008, 02:26 PM
When someone u trust most, leaves u in middle of nowhere ... the agony, heartache, restlessness, this poem describes really well! :)


अब नहीं हो - अभिज्ञात

हार, किस काँधे पे धर दूँ
जीत किस को भेंट कर दूँ
कोई तो अपना नहीं था
एक तुम थे, अब नही हो!
किस तरह राहत बनेगी
टूट जाने की हताशा
थक गई साँसों को देगा
कौन जीवन की दिलासा
बिस्तरों पर सिलवटें अब
नींद क्या, बस करवटें अब
रात ने ताने दिए तो
आँख में बस बात ये कि
कोई तो सपना नहीं था
एक तुम थे, अब नहीं हो!

किस हथेली की रेखाओं
का वरण मैंने किया है
किसका, क्षण भर प्यार पाने
को जनम मैंने लिया है
इस प्रश्न का हल मिला कल
हाँ वही रीता हुआ पल
जिसने मेरा गीत साधा
जो कहो, रत्ना या राधा
कोई तो इतना नहीं था
एक तुम थे, अब नहीं हो!


Rock on
Jit

cooljat
June 23rd, 2008, 02:30 PM
Bhaisaab, I already posted these poems long back! :)


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
- Harivansh Rai Bachchan

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
.
.

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

ysjabp
June 23rd, 2008, 03:58 PM
Bhaisaab, I already posted these poems long back! :)

Dear Jeet

(HOW ARE YOU! I HOPE YOU WILL BE FINE )

Now this post is to big , and I joined just 03 months ago
AB AAP SAMAJH GAYE HOGE KI MAINE YE NAHI PADHA THA ILLIYE HI POST HO GAYA, AGLI BAAR MEIN DHYAN RAKHUNGA

YAD DILANE KE LIYE SHUKRIYA

neels
June 24th, 2008, 07:42 AM
ईंधन - गुलज़ार
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -

बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!


- गुलज़ार

cooljat
June 24th, 2008, 03:36 PM
Sooner or later, we all compromise in life. Sooner or later, idealism gives way to realism. This beautiful poem by Dushyant Kumar depcits it really well! :)


अब तो पथ यही है - दुष्यंत कुमार

जिन्दगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है |

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हल्का सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले या ना पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांचों का घट है किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है |

ये लड़ाई, जो की अपने आप से मैँने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पड़ी है,
यह पहाड़ी पांव क्या चढते. इरादों ने चढी़ है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है | .


Rock on
Jit

cooljat
June 24th, 2008, 04:05 PM
You have reached the peak of career and life is taking you places. You have accomplished what ever is worthwhile in life and a loving family surrounds you. Yet, that first love in the life long bygone though, still haunts you. When all is quiet around, that face silently emerges in thoughts. Look how beautifully Dushyant Kumar puts it in words!

तुझे कैसे भूल जाऊं - दुष्यंत कुमार

अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं |

गहरा गये हैं सब धुंधलके निगाह में
गो राहरौ नहीं है कहीं, फ़िर भी राह में
लगते हैं चन्द साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं |

फैले हुए सवाल सा, सड़कों का जाल है
ये सड़क है उजाड़, या मेरा ख्याल है
सामाने-सफर बांधते-धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं |

फ़िर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग
होकर निढाल, शाम बजाती है जल-तरंग
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं |

उन सिलसिलों की टीस अभी तक है घाव में
थोडी-सी आंच और बची है अलाव में
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं |


Rock on
Jit

cooljat
June 26th, 2008, 04:55 PM
One indeed Rare Gem of Inspiring poem from the Treasure of Great Poet Bachhan ji! Life is a Journey and we sould always keep movin' ... great moral !!


यात्रा और यात्री - हरिवंश राय बच्चन


साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है;
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!


Rock on
Jit

mukeshkumar007
June 26th, 2008, 05:35 PM
Sooner or later, we all compromise in life. Sooner or later, idealism gives way to realism. This beautiful poem by Dushyant Kumar depcits it really well! :)


अब तो पथ यही है - दुष्यंत कुमार

जिन्दगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है |

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हल्का सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले या ना पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांचों का घट है किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है |

ये लड़ाई, जो की अपने आप से मैँने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पड़ी है,
यह पहाड़ी पांव क्या चढते. इरादों ने चढी़ है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है | .


Rock on
Jit

gud one :)

neels
June 26th, 2008, 08:44 PM
Gud Ones Jit... keep posting good stuff.

cooljat
July 3rd, 2008, 12:03 PM
Indeed one Inspiring gem of a poem by Dushyant Kumar, awesome! :)



मत कहो, आकाश में कुहरा घना है - दुष्यंत कुमार

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है ।

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।


Rock on
Jit

cooljat
July 9th, 2008, 03:24 PM
One truly a masterpiece by Bhagvati Charan Verma, describes nomadic nature of young & freewheeling Souls! :) Indeed a beautiful n inspiring poem!


हम दीवानों की क्या हस्ती - भगवतीचरण वर्मा


हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास अभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले

किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले

दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले

हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी सी उर पर, ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बँधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले!..


Rock on
Jit

cooljat
July 9th, 2008, 03:31 PM
Dusk is the very time when you often feel solitude, lonliness & retlessness 'More' ... yeah! if you're feeling gloomy it certainly hurts more in the Evening and make u feel more upset!! his beautiful classy poem depicts it really well. :)

आज शाम है बहुत उदास - भगवती चरण वर्मा

आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास।

कुछ भूला-सा और भ्रमा-सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुंध में कुछ सहमी-सी
आज शाम है बहुत उदास।

एकाकीपन का एकांत
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत।

थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त।

अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकांत
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत।

उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार।

आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर?
एक प्रश्न मैं हूँ साकार।

क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार।

सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास।

जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी-सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस।

जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास।...


Rock on
Jit

mukeshkumar007
July 9th, 2008, 03:40 PM
Dusk is the very time when you often feel solitude, lonliness & retlessness 'More' ... yeah! if you're feeling gloomy it certainly hurts more in the Evening and make u feel more upset!! his beautiful classy poem depicts it really well. :)

आज शाम है बहुत उदास - भगवती चरण वर्मा

आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास।

कुछ भूला-सा और भ्रमा-सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुंध में कुछ सहमी-सी
आज शाम है बहुत उदास।

एकाकीपन का एकांत
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत।

थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त।

अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकांत
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत।

उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार।

आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर?
एक प्रश्न मैं हूँ साकार।

क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार।

सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास।

जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी-सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस।

जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास।...


Rock on
Jit


hmm aaj shaam hai bhoot udas !!

sandeeprathee
July 9th, 2008, 04:02 PM
really good find...jit.
दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले
.
.
.
अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बँधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले!..

very B'ful lines..


One truly a masterpiece by Bhagvati Charan Verma, describes nomadic nature of young & freewheeling Souls! :) Indeed a beautiful n inspiring poem!


हम दीवानों की क्या हस्ती - भगवतीचरण वर्मा


हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले

हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बँधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले!..


Rock on
Jit

neels
July 9th, 2008, 10:45 PM
आज शाम है बहुत उदास - भगवती चरण वर्मा

आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास।

.
.
.
जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास।...


Rock on
Jit


Very B'ful ..... I remember this one used to be in our syllabus.

renuchoudhary
July 10th, 2008, 03:37 AM
तेरे छुने से बरसो बाद मेरा मौन टूटा है
एक पर्दा सा था तन मन पर मेरे
तेरे छुने से वो भ्रम जाल टूटा है
आज बरसो बाद दिल में प्यार फूटा है !!


हिमनदी सी जमी हुई थी मैं
तेरे छुने से एक गर्माहट हुई
सोई हुई तितलियों के पंख में
फिर से कोई अकूलाहट हुई
दिल में फिर से मस्त बयार का झरना फूटा है
तेरे छुने से बरसो बाद मेरा मौन टूटा है


मेरे ही स्वर कही गुम थे मेरे भीतर छिपे हुए
तेरे आने से हर राग जैसे दिल को छूता है
छा गया है एक खुमार सा चारो तरफ़
हाँ बरसो बाद मेरा मौन से साथ छूटा है


तेरे छुने से मेरा हर भर्म जाल टूटा है
आज बरसो बाद दिल मे प्यार फूटा है !!

renuchoudhary
July 10th, 2008, 03:43 AM
तुम्हारी तनी उंगलियों
चढी भ्रकुटियों
और तानों को सहती
मैं चुप रही
मौन- मेरी विवशता तो नहीं था
पर हां
संस्कारों की बेडियों में
जकडे हुए था
मेरे शब्दों को
मेरी वाणी को
मेरे मौन को अपनी जीत मान
जश्न मनाते रहे
गाहे-ब-गाहे
मौके-ब-मौके
अपना रौद्र रुप दिखाते रहे
मैं -फिर भी मौन थी।
हां कभी-कभी
मन ही मन गुस्से से सुलगती थी
कसमसाती थी
और चाहती थी ज्वालामुखी बन
फट पडना
किन्तु अगले ही पल
अपने इर्द-गिर्द अपनों के ही
मुस्कुराते चेहरों को देख
अपने खुलते होठों को सख्ती से भींच
चल पडती हूं जीवन पथ पर
कई बार आत्माभिमान से समझौते किये हैं
पर सुकूं है-
मेरे अपनों के चेहरों पर अब भी मुस्कुराहट है
जिसे देख मेरे ज़ख्म भर चले हैं
मेरे मौन ने कुछ तो किया है
मौन अब और गहरा हो चला हो चला है
कवच बन मेरे साये से खडा है
तुम निराश हारे से
जब-तब अब भी गमकते हो
भभकते हो
और उकसाते हो
पर
मौन मेरी आदत बन चुका है
पराजय नहीं ये ताकत बन चुका है
तुम अब जीत से खुश नहीं होते
ये जीत तुम्हें अब
आहत करती है
और
मेरा मौन-अन्तर्मन में
अट्टाहस करता है
नयी शक्तियों का संचार करता है
तुम खडे हो निराश -हताश
मौन अब भी मेरे दामन में पसरा हुआ

cooljat
July 10th, 2008, 11:36 AM
Thanx A lot, Neels & Sandy! :)


really good find...Jit.
दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले
.
.
.
अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बँधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले!..

very B'ful lines..


Very B'ful ..... I remember this one used to be in our syllabus.

cooljat
July 14th, 2008, 05:35 PM
Emptiness is filling me...to the point of agony!!, Well these lines from the Rock ballad 'Fade to Black' of Metallica very much resemble this poem! ..

Beautiful creation by poet that describes emptiness, loneliness within! just feel it.


एक खालीपन - अरुणा राय

एक खालीपन है
जो परेशान करता है
रात दिन

यह
उसके होने की खुशी से रौशन
खालीपन नहीं है
जिसमें मैं हवा सी हल्की हो
भागती-दौड़ती
उसे भरती रह सकती हूँ

यह
उसके ना होने से पैदा
एक ठोस और अंधेरा खालीपन है
जो अपने भीतर
धँसने नहीं देता मुझे

इस खालीपन को
अपनी हँसी से
गुँजा नहीं सकती मैं

इसमें तो
मेरी रुलाई की भी
रसाई नहीं

यह
ना हँसने देता है
ना रोने
बस
एक अनंत उदासी में
गर्क होने को
छोड़ जाता है
तन्*हा ...

Rock on
Jit

anilsinghd
July 14th, 2008, 06:04 PM
Didnt see the thread first. Cant go through all the posts , but i am very sure this one , no one would have produced.

:)

It's a long one and i only remember a part of it , still remember, i sang it on stage in honour of a friend's b'day in class 5.

Yeh kadam ka ped agr maa hota yamuna teere
main bhi ispar baith kanhaiya banta dheere dheere
le deti agar mujhe baansui tum do paise wali
kisi tarah neeche ho jaati yeh kadam ki daali
tumhe kuch nahi kehta par main chupke chupke aata
us neechi daali se par maa unche par chadh jaata
vahin baith fir bade maje se main bansuri bajata
amma amma keh bansi ke swar mein tumhe bulata
sun meri bansi ko maa tum itni khush ho jaati
.........

and that's only what i can reporduce after 15 years.:)

jitendershooda
July 14th, 2008, 07:00 PM
ईंधन - गुलज़ार


छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -

बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!



- गुलज़ार



Its really touching Neelam ji ... thanks for sharing.

Ek ek shabd yatharth samete hai ...

downtoearth
July 14th, 2008, 10:03 PM
keep pouring man,,really good stuff


एक खालीपन - अरुणा राय

एक खालीपन है
जो परेशान करता है
रात दिन

यह
उसके होने की खुशी से रौशन
खालीपन नहीं है
जिसमें मैं हवा सी हल्की हो
भागती-दौड़ती
उसे भरती रह सकती हूँ

यह
उसके ना होने से पैदा
एक ठोस और अंधेरा खालीपन है
जो अपने भीतर
धँसने नहीं देता मुझे

इस खालीपन को
अपनी हँसी से
गुँजा नहीं सकती मैं

इसमें तो
मेरी रुलाई की भी
रसाई नहीं

यह
ना हँसने देता है
ना रोने
बस
एक अनंत उदासी में
गर्क होने को
छोड़ जाता है
तन्*हा ...

Rock on
Jit[/quote]

neels
July 15th, 2008, 01:16 AM
अमर स्पर्श - सुमित्रानंदन पंत
'युगपथ' से
खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!


- सुमित्रानंदन पंत

neels
July 15th, 2008, 01:21 AM
Didnt see the thread first. Cant go through all the posts , but i am very sure this one , no one would have produced.

:)

It's a long one and i only remember a part of it , still remember, i sang it on stage in honour of a friend's b'day in class 5.

Yeh kadam ka ped agr maa hota yamuna teere
main bhi ispar baith kanhaiya banta dheere dheere
le deti agar mujhe baansui tum do paise wali
kisi tarah neeche ho jaati yeh kadam ki daali
tumhe kuch nahi kehta par main chupke chupke aata
us neechi daali se par maa unche par chadh jaata
vahin baith fir bade maje se main bansuri bajata
amma amma keh bansi ke swar mein tumhe bulata
sun meri bansi ko maa tum itni khush ho jaati
.........

and that's only what i can reporduce after 15 years.:)

Yea Anil... this one is a really good poem... I hum this one till date...n posted it long ago... yea true.. nt possible to chk all of 'em at one go.. so easily possible to b missed. You are welcome to come with more....:)

neels
July 15th, 2008, 01:24 AM
एक खालीपन - अरुणा राय

एक खालीपन है
जो परेशान करता है
रात दिन



Wow...this is so meaningful....!!!

B'ful poems by Renu too.

Good going Renu... keep posting more....

cooljat
July 15th, 2008, 05:00 PM
Evening, Sunset, Dusk ... This is the very time when u feel Empty, Lonely & Gloomy often, dont know how but Evening is very much related to sadness & emptiness!

This poem depicts that emptiness in a really deep touching manner, indeed a quality creation by Great Kavi Dr. Dharam Veer Bharti! :)


शाम - डॉ. धर्मवीर भारती

वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आए
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आए!

अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आए
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!

अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आए गए बराबर हैं
शाम गहरा गई, उदासी भी!..


Rock on
Jit

sandeeprathee
July 15th, 2008, 06:11 PM
While googling for a sher got some B'ful poems by Iqbal. Here's the first one..



Parinde ki faryaad ---Allama Iqbal


Aata hai yaad mujhko guzraa huwa zamaana
Woh baag ki bahaare woh sab ka chechahana

Azaadiyaa kaha woh ab apne ghosle ki
Apni khushi se aana, apni khusi se jaana

Lagti hao chot dil par, aata hai yaad jis dam
Shabnam ke aasuoo par kaliyoo ka muskuraana

Woh pyaari pyaari surat, woh kaamini si murat
Aabad jis ke dam se tha mera aashiyaana

Aati nahi sadaayee us ki mere kafas (cage) mein
Hoti meri rihaahi ay kaash mere bas mein

Kya bad-naseeb hoo mein ghar ko taras raha hoon
Saathi to hai watan mein, mein kaid mein pada hoon

Aayi bahaar, kaliya phoolo ki has rahi hai
Mein is andhere ghar mein kismat ko ro raha hoon

Is kaid ka ilaahi, dukhda kise sunaoo
Dar hai yahee kafas mein, mein gham se mar na jaooo

Jab se chaman choota hai yeh haal ho gaya hai
Dil gham ko kha raha hai, gham dil ko kha raha hai

Gaana ise samajh kar khush ho na sunnewale
Dukhe huwee diloo ki faryaad, yeh sada hai

Azaad mujh ko kar de oh qaid karne wale
Mein bezoobaa hoon qaidi, mujhe chod kar dua le

sandeeprathee
July 15th, 2008, 06:18 PM
Lab pe aatii hai duaa banake tamannaa merii ---Iqbal

lab pe aatii hai duaa banake tamannaa merii

zindagii shammaa kii surat ho Khudaayaa merii
duur duniyaa kaa mere dam se a.Ndheraa ho jaaye

har jagah mere chamakane se ujaalaa ho jaaye
ho mere dam se yuu.N hii mere vatan kii ziinat

jis tarah phuul se hotii hai chaman kii ziinat
zindagii ho merii paravaane kii surat yaa rab

ilm kii shammaa se ho mujh ko muhabbat yaa rab
ho meraa kaam Gariibo.n kii himaayat karanaa

dard_mando.n se za_iifo.n se muhabbat karanaa
mere allaah buraa_ii se bachaanaa mujh ko

nek jo raah ho us raah pe chalaanaa mujh ko
[ziinat = decoration/enhancing the beauty of; ilm = knowledge]
[himaayat = sympathize; za_iif = old/infirm/weak]

one s'her from Iqbal:


Achha hai dil ke saath rahe pasbaan-e-aql
Lekin kabhi kabhi ise tanha bhi chhod de

(Good, if reasoning of the mind controls the heart
But let it (heart) have it's own way, once in a while)

mukeshkumar007
July 15th, 2008, 06:29 PM
Lab pe aatii hai duaa banake tamannaa merii ---Iqbal

lab pe aatii hai duaa banake tamannaa merii

zindagii shammaa kii surat ho Khudaayaa merii
duur duniyaa kaa mere dam se a.Ndheraa ho jaaye

har jagah mere chamakane se ujaalaa ho jaaye
ho mere dam se yuu.N hii mere vatan kii ziinat

jis tarah phuul se hotii hai chaman kii ziinat
zindagii ho merii paravaane kii surat yaa rab

ilm kii shammaa se ho mujh ko muhabbat yaa rab
ho meraa kaam Gariibo.n kii himaayat karanaa

dard_mando.n se za_iifo.n se muhabbat karanaa
mere allaah buraa_ii se bachaanaa mujh ko


[/SIZE]


Gud one :)

cooljat
July 16th, 2008, 05:57 PM
Gud finds Sandy bro ... Cheers!

keep contributing..

cooljat
July 16th, 2008, 06:00 PM
Found another Gem of a Poem from the Treasure of Great Bachhan Sir!
Life is all about Moving Ahead ... So keep walking no matter how hard the way is.. :)


तू क्यों बैठ गया है पथ पर? - हरिवंशराय बच्चन

ध्येय न हो, पर है मग आगे,
बस धरता चल तू पग आगे,
बैठ न चलनेवालों के दल में तू आज तमाशा बनकर!

तू क्यों बैठ गया है पथ पर?

मानव का इतिहास रहेगा
कहीं, पुकार पुकार कहेगा-
निश्चय था गिर मर जाएगा चलता किंतु रहा जीवन भर!

तू क्यों बैठ गया है पथ पर?

जीवित भी तू आज मरा-सा,
पर मेरी तो यह अभिलाषा-
चिता-निकट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर!

तू क्यों बैठ गया है पथ पर? ..


Rock on
Jit

neels
July 17th, 2008, 05:44 AM
पाबंदियाँ- बालकृष्ण मिश्रा

होंठ पर पाबन्दियाँ हैं
गुनगुनाने की।

निर्जनों में जब पपीहा
पी बुलाता है।
तब तुम्हारा स्वर अचानक
उभर आता है।
अधर पर पाबन्दियाँ हैं
गीत गाने की।

चाँदनी का पर्वतों पर
खेलना रुकना
शीश सागर में झुका कर
रूप को लखना।
दर्पणों को मनाही
छबियाँ सजाने की।

ओस में भीगी नहाई
दूब सी पलकें,
श्रृंग से श्यामल मचलती
धार सी अलकें।
शिल्प पर पाबन्दियाँ
आकार पाने की।

केतकी सँग पवन के
ठहरे हुए वे क्षण,
देखते आकाश को
भुजपाश में, लोचन।
बिजलियों को है मनाही
मुस्कुराने की।

हवन करता मंत्र सा
पढ़ता बदन चन्दन,
यज्ञ की उठती शिखा सा
दग्ध पावन मन।
प्राण पर पाबन्दियाँ
समिधा चढाने की।

renuchoudhary
July 18th, 2008, 07:14 AM
छत के किसी कोने में
अटकी वह बूंद
टीन पर ‘टप्प’ गिरी
समय के अंतराल पर
गिरना जारी है उसका
लय-सीमा बंधी वह
गिरने के बीच
प्रतीक्षा दहला देती है
कि अब गिरी…अब गिरी.

वर्षा थम चुकी है
छत से बहती तेज धार
एकदम चुप है
पर यह धीरे-धीरे संवरती
शक्ति अर्जित कर
गिरती है ‘टप्प’ से

cooljat
July 19th, 2008, 08:27 AM
Read this simple yet elegant positive poem in newspaper, found it worth posting, njoy! :)


जिंदगी - अश्विनी बग्गा

जिंदगी की उलझनों से यूँ
ना तौबा कीजिये
दिन गुजर जाते हैं,
कोई शौक पैदा कीजिये |

कैद रखी हसरतें अब
साँस लेने दीजिये
गुल हैं तितली के लिए,
काँटों को रोंदा कीजिये |

चंद लम्हा बैठ कर ख्वाहिश
ये पुरी कीजिये
जख्म क्या है, दर्द क्या है,
ये ना सोचा कीजिये |

बागबां से पूछिये, इस
गुलिस्तां की बहार,
शब में खिलता है चमन
शबनम से सींचा कीजिये |

देखिये होता है कैसा
दरिया के पानी का
उजास
आंसुओं के संग ख़ुद को,
बहने से रोका कीजिये | ..


Rock on
Jit

rama
July 19th, 2008, 03:24 PM
Read this simple yet elegant positive poem in newspaper, found it worth posting, njoy! :)


जिंदगी - अश्विनी बग्गा

जिंदगी की उलझनों से यूँ
ना तौबा कीजिये
दिन गुजर जाते हैं,
कोई शौक पैदा कीजिये |

कैद रखी हसरतें अब
साँस लेने दीजिये
गुल हैं तितली के लिए,
काँटों को रोंदा कीजिये |

चंद लम्हा बैठ कर ख्वाहिश
ये पुरी कीजिये
जख्म क्या है, दर्द क्या है,
ये ना सोचा कीजिये |

बागबां से पूछिये, इस
गुलिस्तां की बहार,
शब में खिलता है चमन
शबनम से सींचा कीजिये |

देखिये होता है कैसा
दरिया के पानी का
उजास
आंसुओं के संग ख़ुद को,
बहने से रोका कीजिये | ..


Rock on
Jit
Very nice poem Mr. Jeet.
:)

cooljat
July 21st, 2008, 10:58 AM
Solitude! ... word itself is self-explanatory; sometimes its ur friend n sometimes u just run away from it!! This wonderful deep poem by Ritu describes mystic behaviour of Solitude very well.. :)


अकेलापन - ऋतु पल्लवी

एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोली,
खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा
एक छोटे बच्चे से नन्हें सूरज को आते-जाते देखा
नीचे झाँककर देखा हँसते-खिलखिलाते,
लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे
प्रातः के बोझ को ढ़ोते पाँवों की भीड़
पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा
या यों कहूँ कि सुन नहीं सका।
कमरे में बिखरी चीज़ों को समेटने में लग गया
चादर, पलंग, तस्वीरें, किताबें
सब अपनी-अपनी जगह ठीक करके, सुने हुए रिकॉर्ड को पुनः सुना
मन को न भटकने देने के लिए
रैक से एक-एक किताब को चुना
इस साथी के साथ कुछ समय बिताकर
पहली बार निस्संगता का भाव जगा
ध्यान रहे-सबसे विश्वसनीय साथी ही,
साथ न होने का अहसास जगाते हैं।
दिन गुज़रता रहा और अपना अस्तित्व फैलाता रहा
पाखियों के शोर में भी शाम नीरव लगी
मन जागकर कुछ खोजता था -
ढलती शाम में सुबह का नयापन!
आस तो कभी टूटती नहीं है
सब डूब जाता है तब भी नहीं।
मन में आशा थी उससे दूर जाने की
उस एकाकीपन के साम्राज्य से स्वयं को बचाने की
में निस्संग था, पर एकाकी नहीं
मेरा अकेलापन मेरे साथ था!
दिन के हर उस क्षण में, जब मैं
प्रकृति में,लोगों में, किताबों में
अपनी, केवल अपनी इयत्ता खोजता था।
और उसने कहा-
तुम चाहकर भी मुझसे अलग नहीं हो सकते,
मत होओ-क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप
केवल मैं ही पहचानता हूँ।
यहाँ सब भटकते हैं स्वयं को खोजने के लिए,
अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता जानने के लिए,
और मैं तुम्हारी उसी अर्थवत्ता की पहचान हूँ।
संसार की भीड़ में तुम मुझे ही भूल जाते हो
इसलिए अपना प्रभाव जताने के लिए,
मुझे आना पड़ता है,
मानव को उसके मूल तक ले जाना पड़ता है।
...और अब मेरे आस-पास घर,बच्चे, किताबें
लोग, दिन, समय कुछ भी नहीं था
केवल दूर-दूर तक फैला अकेलापन था।...

Rock on
Jit

cooljat
July 22nd, 2008, 06:50 PM
Story of a Solitary person,...Perfectly presented by this wonderful deep touching creation by Great Gulzar!! :)


ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा - गुलज़ार


ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफर तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा ...



Rock on
Jit

downtoearth
July 22nd, 2008, 08:28 PM
all lines r worth reading...keep pouring man

cooljat
July 23rd, 2008, 12:04 PM
Thanks Rupi bro, will keep on pouring! :)

Quality Hindi poems are my new obsession n u know about my taste n obessions!, how special n classy they're :cool:;)


all lines r worth reading...keep pouring man

Anjalis
July 24th, 2008, 07:40 PM
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!



- हरिवंश राय बच्चन

Anjalis
July 24th, 2008, 07:45 PM
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।
ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने ।
इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने ।
हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने ।
कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने ।
आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने ।
बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये ।
अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान
बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये ।
दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक
रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये ।
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।


- कैफी आजमी

Anjalis
July 24th, 2008, 07:55 PM
मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ
मॉं तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण
गान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ
मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया धनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो
गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो
और बाऍं हाथ में ध्*वज को थमा दो
सुमन अर्पित, चमन अर्पित
नीड़ का तृण-तृण समर्पित
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ


- रामावतार त्यागी

cooljat
July 25th, 2008, 08:42 AM
Hi Anjali, I posted this poem already, see post no #337 :)

Btw, rest are gud findings ... keep contributing..

Rock on
Jit



साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
.

.

- हरिवंश राय बच्चन

rama
July 26th, 2008, 06:27 PM
कवि: माखनलाल चतुर्वेदी (http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%B2%E0%A 4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0 %E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80)
~*~*~*~*~*~*~*~
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो !


पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया


धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो।

कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!


किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !


काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
मनमोहिनी धरा के बल हैं
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
तेरी ही छाया के छल हैं।


प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

neels
July 28th, 2008, 09:13 AM
प्रतीक्षा -- बच्चन
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?

मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीण पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

neels
July 28th, 2008, 09:15 AM
कहते हैं तारे गाते हैं - बच्चन
कहते हैं तारे गाते हैं!
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं!
कहते हैं तारे गाते हैं!

स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथिवी ने तो बस यह जाना,
अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं!
कहते हैं तारे गाते हैं!

ऊपर देव तले मानवगण,
नभ में दोनों गायन-रोदन,
राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं।
कहते हैं तारे गाते हैं!

cooljat
July 29th, 2008, 12:06 PM
Keep Walkin' ... This should always be mantra of Life; this wonderful inspirin poem by Great Poet Shivmangal Singh Suman describes it beautifully !! .. :) One of my all time fav!!..


चलना हमारा काम है - शिवमंगल सिंह सुमन

गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

Rock on
Jit

cooljat
July 30th, 2008, 08:16 AM
Very nice poem, Ms Rama ji !! :)


कवि: माखनलाल चतुर्वेदी[/COLOR][/URL]
~*~*~*~*~*~*~*~
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो !


पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया
.
.
.
प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

cooljat
July 30th, 2008, 12:05 PM
Retrosepction of Life!, that what we often do when we site idle, alone and talk to ourselves ... This classy deep touchin' poem by Shivmangal Singh Suman depicts in a really beautiful way, Awesome !! :)


बात की बात - शिवमंगल सिंह सुमन

इस जीवन में बैठे ठाले
ऐसे भी क्षण आ जाते हैं
जब हम अपने से ही अपनी-
बीती कहने लग जाते हैं।

तन खोया-खोया-सा लगता
मन उर्वर-सा हो जाता है
कुछ खोया-सा मिल जाता है
कुछ मिला हुआ खो जाता है।

लगता; सुख-दुख की स्मृतियों के
कुछ बिखरे तार बुना डालूँ
यों ही सूने में अंतर के
कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ

कवि की अपनी सीमाऍं है
कहता जितना कह पाता है
कितना भी कह डाले, लेकिन-
अनकहा अधिक रह जाता है

यों ही चलते-फिरते मन में
बेचैनी सी क्यों उठती है?
बसती बस्ती के बीच सदा
सपनों की दुनिया लुटती है

जो भी आया था जीवन में
यदि चला गया तो रोना क्या?
ढलती दुनिया के दानों में
सुधियों के तार पिरोना क्या?

जीवन में काम हजारों हैं
मन रम जाए तो क्या कहना!
दौड़-धूप के बीच एक-
क्षण, थम जाए तो क्या कहना!

कुछ खाली खाली होगा ही
जिसमें निश्वास समाया था
उससे ही सारा झगड़ा है
जिसने विश्वास चुराया था

फिर भी सूनापन साथ रहा
तो गति दूनी करनी होगी
साँचे के तीव्र-विवर्त्तन से
मन की पूनी भरनी होगी

जो भी अभाव भरना होगा
चलते-चलते भर जाएगा
पथ में गुनने बैठूँगा तो
जीना दूभर हो जाएगा।


Rock on
Jit

cooljat
August 6th, 2008, 05:16 PM
Kisan is no doubt the biggest never-say-die Warrior & Karam-Yogi on earth cuz he always keep on fighting with Nature and after keep on loosing and loosing but still he refuse to give up!

Jats always excel in basically 2 fileds: Agriculture & Army! :cool:

Nyways, this beautiful poem by Mathilicharan Gupt describes greatness of a Farmer in a touching way ... indeed an awesome poem! :)

किसान - मैथिलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे कहाँ
आता महाजन के यहाँ वहा अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस अर्चि में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
और शीत कैसा पड़ रहा, थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशी सूर्य है फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है !..


Rock on
Jit

neels
August 14th, 2008, 10:36 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/desh_mere/title.gifBy Rajiv Krishna saxena
http://www.geeta-kavita.com/images/desh_mere/desh_mere_2.gif

neels
August 17th, 2008, 11:16 AM
After decades of freedom struggle and innumerable sacrifices, the country finally attained freedom in 1947. In this poem the old guards pass the baton to younger generation and instruct them to carry on with great care and fortitude so that the freedom won by great efforts of several generations is sustained and the country moves on the path to progress. This poem by Pradeep moistened the eyes of a generation of Indians, especially the last stanza that exhorts the young Indians not to be complacent in the present glory but work hard to take a sky high leap of progress. The poem was also used as a song in the old hit Hindi film Jagriti - Rajiv Krishna Saxena

http://www.geeta-kavita.com/images/motif/bracket_right.gif http://www.geeta-kavita.com/images/hum_laye_hain/hum_laye_hain_1.gifhttp://www.geeta-kavita.com/images/hum_laye_hain/hum_laye_hain_2.gif http://www.geeta-kavita.com/images/common/top_table_edge_01_bgd.gifhttp://www.geeta-kavita.com/images/motif/Desh_Prem.gifDesh Prem (http://www.geeta-kavita.com/indian_poetry_list.asp?theme=Desh_Prem)
http://www.geeta-kavita.com/images/common/icon_author.gifPradeep (http://www.geeta-kavita.com/indian_poetry_list.asp?author=Pradeep)

Anjalis
August 18th, 2008, 06:12 PM
On the eve of Independence day, here goes the complete 'saare jahan se achha' song by Iqbal. This song is like a unofficial national anthem for India - though typically only a subset of the song is sung (with 1st, 3rd, 4th, and 6th stanza).

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा
ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा

यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा ।


- मुहम्मद इक़बाल (Muhammad Iqbal)

cooljat
August 18th, 2008, 06:20 PM
One gentle poem that describes complexity of Relations in a simple yet effective way! :)

संबंध - कृष्ण कुमार यादव

संबंधों के मकड़जाल से
भरी हुई है दुनिया
एक सम्बन्ध से नाता टूटा
ते दूसरे सम्बन्ध जुड़ गए
हर दिन न जाने कितने ही
संबंधों से जुड़ते हैं लोग
कोई औपचारिक
तो कोई अनौपचारिक
पर कई सम्बन्ध
ऐसे भी होते हैं
जो न चाहते हुए भी
जुड़ जाते हैं,
क्योंकि
उनका नाता कहीं
मन की गहराइयों से होता है
ये सम्बन्ध
साथ भले
ही न निभा सकें
पर चेतन या अवचेतन में
उनकी टीस सदा बनी रहती है।...


Rock on
Jit

neels
August 18th, 2008, 09:38 PM
We all are enjoying rains a lot this year. But what seems so pretty from a distance may have its own tales of sorrow. As it has created havoc in Punjab now.Tales that people watching from a distance will never know. Read this lovely poem by Akhilesh Kumar Singh, telling tale of a rain drenched village.

http://www.geeta-kavita.com/images/bheeg_raha_hai_gaon/bheeg_raha_hai_gaon.gif

crsnadar
August 22nd, 2008, 11:26 PM
True narration of a picture comes out of rain in lakhs of Indian villages.
I have gone through many of such villages in & around Allahabad during college days.
So many people who live near bank of holy Ganga river don't even know whether they would survive this monsoon or not because of heavy landsliding into the Ganga river beacuse of heavy flow.

ये बूंद न आती तो शायद
निवाला रोटी का तब भी
भाग्य हमारे न होता.
नभ में जाने जल कितना है अब
जाने कब थमेगी बूंदें
दाना अन्न का एक एक जब
वसुंधरा में ही विलीन होगा.

cooljat
September 2nd, 2008, 11:25 AM
Acting of Life, A classy poem that describes complexity of life span in a deep poetic way! :)

जीवन का अभिनय - महेन्द्र भटनागर

संसार समझ कब पाया
मेरे जीवन का अभिनय !

मेरे जीवन की धरती पर
ऊबड़-खाबड़ पथ
सर-सरिता, गिरि-वन,
मैदान-पठार बने;
मरुथल, दलदल;
सुख-दुख का क्रम,
उत्थान-पतन
मुसकान-रुदन
है हार-विजय ?

मेरे जीवन के अम्बर में
आँधी झंझा,
हिम का वर्षण,
पानी की बूँदों की रिमझिम,
गर्जन-स्वर है, विद्युत कंपन ;
क्षण देदीप्य अमर सविता-चंदा जैसे,
उल्काएँ भी नश्वर !
सुन्दर और असुन्दर,
शिव और अशिव
भावों का संचय !


Rock on
Jit

cooljat
September 2nd, 2008, 06:05 PM
Colors of Life, A wonderful poem which depicts the life cycle in deep touching words with a gud pragmatic message! :)


ज़िन्दगी के रंग - सीमा कुमार

ज़िन्दगी कभी-कभी
कहीं खत्म सी हो जाती है,
कहीं थम सी जाती है
और फिर कहीं
शुरू हो जाती है ।

कहीं उमड़ जाती है
कहीं मचल जाती है
कहीं रेत के बवन्डरों सी
उड़ती चली जाती है ।

कहीं हरे-हरे पत्तों पर पड़ी
बरखा की बूँदों सी
झिलमिलाती जाती है ।
कहीं ठंढ़ी हवाओं सी
बस छू कर चली जाती है ।

यूँ ही बदलती रूप रंग
ज़िन्दगी चली जाती है ।
थाम ले जिस पल को
वही बस अपना है ;
बाकी की ज़िन्दगी रेत-सी
यूँ ही फिसल जाती है ।


Rock on
Jit

neels
September 2nd, 2008, 08:54 PM
Very True.........



ज़िन्दगी के रंग - सीमा कुमार

ज़िन्दगी कभी-कभी
कहीं खत्म सी हो जाती है,
कहीं थम सी जाती है
और फिर कहीं
शुरू हो जाती है ।

Rock on
Jit

neels
September 2nd, 2008, 08:55 PM
सोये हैं पेड़ - माहेश्वर तिवारी
कुहरे में
सोये हैं पेड़।
पत्ता-पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है

लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत-बहुत
रोये हैं पेड़।

जंगल का घर छूटा,
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनो में खोये हैं पेड़।

cooljat
September 3rd, 2008, 03:39 PM
wow, what a wonderful poem that describes nature's pain rather trees pain!
Guys Grow Trees ... Save Environment!!




सोये हैं पेड़ - माहेश्वर तिवारी
कुहरे में
सोये हैं पेड़।
पत्ता-पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है

लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत-बहुत
रोये हैं पेड़।

जंगल का घर छूटा,
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनो में खोये हैं पेड़।

cooljat
September 3rd, 2008, 03:42 PM
Live Life to the Fullest & Enjoy every Movment of it, - is the message Poet Seema Kumar wants to give thro' her wonderful deep touching creation!.. :)


हर लम्हा एक विस्मय - सीमा कुमार

ठहरा हुआ पानी
एक छोटा सा कंकड़
या एक हल्का सा स्पर्श
और उठी असंख्य, अनगिनत लहरें;
पानी की सतह पर
खिली असंख्य तरंगें.. ।

लहरें मेरी ओर आती रहीं
और वापस जा कहीं दूर
विलीन होती रहीं ।
तट पर खड़ी मैं
उन अनगिनत लहरों को
एक एक कर
गिनने की कोशिश करती रही ।

मेरे स्याह केश को
उड़ाता हुआ निकल चला
आकाररहित पवन
और जागी एक तीव्र इच्छा
उस शक्लरहित पवन को
आलिंगन में लेने की ।

वक्त रेत की तरह
फिसलता रहा
मेरी भिंची हुई मुठ्ठियों से
और मैं रेत के एक-एक कण को
बिना आहट
फर्श पर तरलता से
बिखरते देखती रही ।

बगिया के
खिले हुए फूलों के बीच
हुआ एहसास
यह कोमल पंखुड़ियाँ
हैं बस कुछ पल के मेहमान ।
उनकी मोहक खुशबू ने कहा
उठा लो आनंद
इससे पहले कि मैं
हो जाऊँ लुप्त ।

यह सभी याद दिलाते रहे
दोहराते रहे मुझसे -
जीयो, प्रेम करो,
हो उत्क्रांत और
करो आत्म-उत्थान,
हो आनंदित
और संजो कर रखो
हर नन्हें पल को
वक्त के हर कतरे को
क्योंकि हर लम्हा
अपने आप में
है एक चमत्कार,
एक विस्मय ।

Rock on
Jit

neels
September 3rd, 2008, 03:47 PM
हर लम्हा एक विस्मय - सीमा कुमार


वक्त रेत की तरह
फिसलता रहा
मेरी भिंची हुई मुठ्ठियों से
और मैं रेत के एक-एक कण को
बिना आहट
फर्श पर तरलता से
बिखरते देखती रही ।



Nice lines

neels
September 3rd, 2008, 03:54 PM
Very true picture of Indian Hindu Sprituality, which believes in Rebirth and the carry over effects of old lives.
लेन-देन - दिनकर

लेन-देन का हिसाब
लंबा और पुराना है।

जिनका कर्ज हमने खाया था,
उनका बाकी हम चुकाने आये हैं।
और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था,
उनसे हम अपना हक पाने आये हैं।

लेन-देन का व्यापार अभी लंबा चलेगा।
जीवन अभी कई बार पैदा होगा
और कई बार जलेगा।

और लेन-देन का सारा व्यापार
जब चुक जायेगा,
ईश्वर हमसे खुद कहेगा -

तुम्हार एक पावना मुझ पर भी है,
आओ, उसे ग्रहण करो।
अपना रूप छोड़ो,
मेरा स्वरूप वरण करो।

minichaudhary
September 3rd, 2008, 08:42 PM
Hi...a small try just to add on to what neelam is doing...

अक्सर भटक ही जाते हैं बाहर निकल के लोग,
हर घर से निकला आदमी गौतम नहीं होता।

कौन है कोई रूप हो
तब तो दिखाउ मैं
रंग हो रस गंध हो
तब तो बताउ मैं
वो तो बस एक अहसास है
जो सांसों में बहता है


अंधेरों के लिए
रात को दोष मत दीजै
रातें सूरज की मज़बूरी के सिवा कुछ भी नहीं !!
######
ये अंधरे नहीं
सुकूँ के लिए मौका है
इस बेहतर दुनियां में दवा कुछ भी नहीं !!
######
जब भी होता है अँधेरा
तो दीप जगते हैं
मायने रोशनी के तब सभी समझते हैं !
ज़िंदगी *निशीथ के सिवा कुछ भी नहीं

minichaudhary
September 3rd, 2008, 08:45 PM
Khubsoorat hain wo lub
Jo pyari batein kertey hain

Khubsoorat hai wo muskurahat
Jo doosron ke chehron par bhi muskan saja de

Khubsoorat hai wo dil
Jo kisi ke dard ko samjhey
Jo kisi ke dard mein tarpey

Khubsoorat hain wo jazbat
Jo kisi ka ehsaas karein

Khubsoorat hai wo ehsaas
Jo kisi ke dard ka hamrahi baney

khubsoorat hain wo batein
Jo kisi ka dil na dukhaein

Khubsoorat hain wo aankhein
Jin mein pakizgi ho
Sharm - o - haya ho

khubsoorat hain wo aansoo
Jo kisi ke dard ko
Mehsoos kerke bah jaein

Khubsoorat hain wo Hath
Jo kisi ko mushkil
Waqt mein thaam lein

Khubsoorat hain wo qadam
Jo kisi ki madad ke liye
Aagey berhein !!!!!

Khubsooart hai wo soch
Jo kisi ke liye achha sochey

Khubsoorat hai wo insan
Jis ko KHUDA ne ye
khubsoorati ata ki.......... .

neels
September 3rd, 2008, 09:35 PM
Thanx Meenakshi for adding b'ful poems...and joining in our efforts.


Hi...a small try just to add on to what neelam is doing...

अक्सर भटक ही जाते हैं बाहर निकल के लोग,
हर घर से निकला आदमी गौतम नहीं होता।



These lines are amazingly good...so meaningful.

Anjalis
September 4th, 2008, 06:36 PM
मुझको यकीन है सच कहती थी , जो भी अम्मा कहती थीं,
जब मेरे बचपन के दिन थे, चाँद में परियां रहती थीं .
इक ये दिन जब अपनों ने भी, हमसे रिश्ता तोड़ लिया ,
इक वो दिन जब पेड़ की शाखें, बोझ हमारा सहती थीं .
इक ये दिन जब लाखों गम, और काल पडा है आंसू का ,
इक वो दिन जब एक ज़रा सी, बात पे नदियाँ बहती थीं .
इक ये दिन जब सारी सड़कें, रुठी रुठी लगती हैं ,
इक वो दिन जब 'आओ खेलें ', सारी गलियाँ कहती थीं .
इक ये दिन जब जागी रातें, दीवारों को तकती हैं ,
इक वो दिन जब शाखों की, भी पलकें बोझल रहती थीं .
इक ये दिन जब ज़हन में, सारी अय्यारी की बातें हैं ,
इक वो दिन जब दिल में, सारी भोली बातें रहती थीं .
इक ये घर जिस घर में , मेरा साज़ - ओ -सामान रहता है ,
इक वो घर जिसमें मेरी बूढी नानी रहती थीं.

by: javed akhtar

jitendershooda
September 4th, 2008, 07:02 PM
सोये हैं पेड़ - माहेश्वर तिवारी


कुहरे में
सोये हैं पेड़।
पत्ता-पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है

लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत-बहुत
रोये हैं पेड़।

जंगल का घर छूटा,
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनो में खोये हैं पेड़।


Ultimate words ... thanks for sharing Neelam ji.

jitendershooda
September 4th, 2008, 07:05 PM
Badhiya panktiyan!!!



वक्त रेत की तरह
फिसलता रहा
मेरी भिंची हुई मुठ्ठियों से
और मैं रेत के एक-एक कण को
बिना आहट
फर्श पर तरलता से
बिखरते देखती रही ।



Khubsoorat hain wo lub
Jo pyari batein kertey hain

khubsoorat hain wo batein
Jo kisi ka dil na dukhaein

Khubsoorat hain wo aankhein
Jin mein pakizgi ho
Sharm - o - haya ho

khubsoorat hain wo aansoo
Jo kisi ke dard ko
Mehsoos kerke bah jaein

Khubsoorat hain wo Hath
Jo kisi ko mushkil
Waqt mein thaam lein
.

minichaudhary
September 7th, 2008, 10:04 PM
Logone diya hai tumhe bahut nam alag,
Sab kahte hai mera hai bhagwan alag,
Wo kahte hai mera hai RAHMAAN alag,
Ye kahte hai mera hai RAM alag…!!!!!


Ek ne sazda kiya , ek ne jhukaya sar alag
Unka kahna hai unka hai darbaar alag,
Dono ka hai rasta ek, par bandgi hai alag
Ek hi hai bhagwan wo hi khuda na koi alag..!!!!

RAM ke bina kaise ho RAMZAAN alag,
ALI se na ho kabhi Diw- Ali alag
Log kaise kahte hai ki mera hai bhagwan alag
Mera hai kahna wahi RAM, wahi RAHMAN
Ek hi hai wo sirf hai uske nam alag..!!!!!!

cooljat
September 8th, 2008, 11:51 AM
A beautiful poem that describes Mechanized Life in today's arena, thought provoking indeed ! :) ..


थक गया हर शब्द - डॉ. तारादत्त निर्विरोध

थक गया हर शब्द
अपनी यात्रा में,
आँकड़ों को जोड़ता दिन
दफ़्तरों तक रह गया।

मन किसी अंधे कुएँ में
खोजने को जल
काग़ज़ों में फिर गया दब,
कलम का सूरज
जला दिन भर
मगर है डूबने को अब।
एक क्षण कोई अबोली साँझ के
कान में यह बात आकर कह गया,
एक पूरा दिन, दफ़्तरों तक रह गया।

सुख नहीं लौटा
अभी तक काम से,
त्रासदी की देख गतिविधियाँ
बहुत चिढ़ है आदमी को
आदमी के नाम से।
एक उजली आस्था का भ्रम
फिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ़्तरों तक रह गया।


Rock on
Jit

cooljat
September 22nd, 2008, 02:01 PM
One nice poem that describes paradox of today's choked Life very well ! :)

बहुत घुटन है - राधेश्याम बंधु

बहुत घुटन है, बन्द घरों में,
खुली हवा तो आने दो,
संशय की खिड़कियाँ खोल दो,
किरनों को मुस्काने दो!

ऊँचे-ऊँचे भवन उठ रहे,
पर आँगन का नाम नहीं,
चमक-दमक, आपा-धापी है,
पर जीवन का नाम नहीं!
लौट न जाए सूर्य द्वार से,
नया संदेशा लाने दो!
बहुत घुटन है...

हर माँ अपना राम जोहती,
कटता क्यों बनवास नहीं?
मेहनत की सीता भी भूखी,
रुकता क्यों उपवास नहीं?
बाबा की सूनी आँखों में
चुभता तिमिर भगाने दो,
बहुत घुटन है...

हर उदास राखी गुहारती,
भाई का वह प्यार कहाँ?
डरे-डरे रिश्ते भी कहते
अपनों का संसार कहाँ?
गुमसुम गलियों में मिलनों की,
खुशबू तो बिखराने दो,
बहुत घुटन है, बन्द घरों में,
खुली हवा तो आने दो!


Rock on
Jit

neels
September 22nd, 2008, 10:08 PM
Laughter they say is the best medicine. After all life is so temporary and brooding on perceived losses serves no particular purpose. Fortunate are those of us who retain their ability to laugh off the adversities. Here is a description of such a heartfelt laughter by Kusum Sinha. I especially like the last three lines. Rajiv Krishna Saxena


http://www.geeta-kavita.com/images/motif/bracket_right.gif http://www.geeta-kavita.com/images/tumhari_hansi/tumhari_hansi.gif

dkumars
September 25th, 2008, 05:38 PM
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्ही चीटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वाश रगों मे साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिन्धु मे गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोंती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है , इसे स्वीकार करो ,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो .
जब तक ना सफल हो , नींद चैन को त्यागो तुम ,
संघर्ष का मैदान छोड़कर मत भागो तुम.
कुछ किए बिना ही जय जयकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

-----By Harivansh Rai Bachchan

PrashantHooda
September 25th, 2008, 08:28 PM
Nice job "D". Thanks a lot for sharing :) :)

neels
September 25th, 2008, 09:03 PM
Ever Inspiring Poem.... bt DK,, this poem is by Nirala, not Bachhan.

chk it... http://www.jatland.com/forums/showthread.php?t=22113 (http://www.jatland.com/forums/showthread.php?t=22113)

This was the first poem with which i started Hindi Kavita thread.

az09
September 30th, 2008, 05:08 PM
Mai neer bhari dukh ki badli

Spandan mey chir nispand basa,

Krandan mey aahat vishva hansa,

Nayno mey deepak se jalte,

Palko mey nirjharini machli

Mai neer bhari dukhi ki badli............

neels
September 30th, 2008, 08:49 PM
Mai neer bhari dukh ki badli

Spandan mey chir nispand basa,

Krandan mey aahat vishva hansa,

Nayno mey deepak se jalte,

Palko mey nirjharini machli

Mai neer bhari dukhi ki badli............



BAhut achche....

Anjalis
October 2nd, 2008, 12:24 PM
उठो लाल अब आँखें खोलो
पानी लायी हूँ, मुँह धोलो

बीती रात कमल -दल फूले
उनके ऊपर भँवरे झूले

चिडिया चहक उठी पेडो पर
बहने लगी हवा अति सुन्दर

भोर हुई सूरज उग आया
नभ में हुई सुनहरी काया

आसमान में छाई लाली
हवा बही सुख देने वाली

नन्ही -नन्ही किरणें आएँ
फूल हँसे कलियाँ मुस्काएँ

इतना सुन्दर समय ना खोओं
मेरे प्यारे अब मत सोओं



अयोध्या सिंह 'उपद्याय'

Anjalis
October 2nd, 2008, 01:11 PM
mai neer bhari dukh ki badli




मैं नीर भरी दुःख की बदली !
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनो में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झनी मचली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वांसों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मैं क्षितिज भृकुटी पर घिर धूमिल,
चिंता का भर बनी अविरल,
रज कण पर जल कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

पथ न मलिन करते आना
पद चिन्ह न दे जाते आना
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमटी कल थी मिट आज चली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

कवियत्री : सुश्री महादेवी वर्मा

az09
October 3rd, 2008, 02:12 PM
Amma ne khat likha chaav se.....

Amma ne khat likha chaav se,

Putra marey, na dhoodh lajaana !

Ek inch peechey mat hatna,

chahe inch inch kat jana !!

az09
October 3rd, 2008, 02:20 PM
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संसृति
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!
तेरा मुख सहास अरुणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय
खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!
तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही स्मित मिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या!
रोमरोम में नंदन पुलकित
साँससाँस में जीवन शतशत
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित
मुझमें नित बनते मिटते प्रिय
स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या!
हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन
जीत बनूँ तेरा ही बंधन
भर लाऊँ सीपी में सागर
प्रिय मेरी अब हार विजय क्या!
चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया छाया में रहस्यमय
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या!
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या

cooljat
October 3rd, 2008, 02:52 PM
Star-Gazing is one mystic activity that is associated with many moods & feelings like sometimes it makes u wonder about infinite space, sometimes leaves nostaligic, sometimes its only way to pass time in a lonely sleepless night!

Well, a beautiful deep touching poem that describes beauty of star-gazing with moving train, one deep philosophical msg about life to ponder upon ... :)


रेलगाड़ी में - पूर्णिमा वर्मन

साथ-साथ
चलते थे तारे
गाँव छूटते जाते थे पीछे

अगल– बगल सब
साथ तो थे पर
सोते ढीले

टिकी रहीं आँखें तारों पर
पैरों तले
ज़मीन निकलती रही
अजाने. . .


Rock on
Jit

cooljat
October 11th, 2008, 07:22 PM
Enough of Lip Service, Its time for Action, Revolution what that required..!!
This poem full of zeal gives the message !! .. :)


भाषणों से युग बदलने का नहीं - अनुराग रंजन

कुछ नई हिम्मत से रचना कर दिखाओ,
भाषणों से युग बदलने का नहीं|
बेबसी का पाश है जब तक नियंता,
पश्चना का दैत्य टलने का नहीं|
भाषणों से युग बदलने का नहीं|


जब तलक हम बातें करते जा रहें,
कर्म के हित स्वांग भरते जा रहें|
हो सकी कुछ भी नहीं तब्दीलियाँ,
बेकसों के नयन झरते जा रहें|
नव-सुबह की रौशनी जब तक न निकले,
दीप से अब काम चलने का नहीं|
भाषणों से युग बदलने का नहीं|


व्याप्त अंतर्दाह है नैराश्य का,
लुट गये निज रहबरों के छद्म से|
क्षुब्ध हैं! हैवानियत से क्या करें?
बुझ चुके! नियत चल रहे प्रपंच से|
अनय को कुचले बिना कुछ भी न होगा,
सांत्वना से मन बहलने का नहीं|
भाषणों से युग बदलने का नहीं|


कागजों पर चल चुकी गाडी बहुत,
योजनाएं लग चुकीं खारी बहुत|
क्या पता कब तक चलेगा ढोंग यह,
हो चुकी है मौत से यारी बहुत|
है जहाँ पड़ती ज़रूरत ढेर की,
बूंद से जीवन संभलने का नहीं|
भाषणों से युग बदलने का नहीं|


नाच-रंग, नाटक-तमाशे हो चुके,
वायदों के गर्त में सब सो चुके|
मानवी इज्ज़त लगी है दाँव पर,
जिंदगी के ख्वाब धूमिल हो चुके|
ठोस धरती पर कदम रखे बिना,
कल्पना से हल निकलने का नहीं|
भाषणों से युग बदलने का नहीं|


Rock on
Jit

cooljat
October 11th, 2008, 07:28 PM
One more for the day from same Poet, with same josh, zeal that inspires to the core!! ...remind me of Swami Vivekanand... Youth must be filled with Josh n energy that what this poem wants to give the message!! .. :)

अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का - अनुराग रंजन

अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का,
चलो आसुओं को कफ़न से सजाने
जमी को उठाकर गगन पर बिठाने

सितारों की दूरी न दूरी रहेगी,
नहीं यह आज़ादी अधूरी रहेगी,
नये दीप को आंधिओं में जलाओ,
अंधेरा डगर है, अंधेरे शहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का

अडे हैं पहाडों के पत्थर पुराने,
लहू से नहाये हैं इनके घराने,
मगर जिन्दगी जोखिमों की कहानी,
विन्धी-कंटकों में ही खिलती जवानी,
मसल पत्थरों को सृजन रह का कर,
बदलता नहीं ऐसे रुतबा कहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का

सुलगती जवानी न चाहे जमाना,
धधकती जवानी से बदले जमाना,
जवानी तूफानों से झुकती नहीं है,
अगर बढ़ गई, तो फिर रूकती नहीं है,
चलो! देश रौशन बनाने चलो फिर,
बचे कोई सोया न प्राणी नगर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का

वतन में वतन की नीलामी नहीं हो,
किसी को किसी की गुलामी नहीं हो,
नहीं पेट की आग अस्मत उधारे,
नहीं दर्द का राग कोई पुकारे,
बहो! ऐ हवाओं! फिजा मुस्कुराए,
नहीं कोई मौसम बुलाये ज़हर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का ! ..


Rock on
Jit

neels
October 11th, 2008, 09:31 PM
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का - अनुराग रंजन


सितारों की दूरी न दूरी रहेगी,
नहीं यह आज़ादी अधूरी रहेगी,
नये दीप को आंधिओं में जलाओ,
अंधेरा डगर है, अंधेरे शहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का



Very nice Jit.

cooljat
October 13th, 2008, 08:21 AM
Well, Sometimes you can't just express the very feelings in the words & language, You just fall short of the right words to convey; this excellent poem describes it really well. Just feel the poem it touches deep inside n will leave u breathless !! :)

जो शाब्दिक भी नहीं, भाषिक भी नहीं - अनुराग रंजन

अनायास एक बंधन की सीमा,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

ह्रदय अधरों के उर्ध्वाधर संबोधन से,
संबोधित करती,
कहीं दूर, बहुत दूर,
जाते हुए राही को|
दूर-दूर तक सन्नाटा-विराना,
सिमटती सासों में खामोशी,
खामोशिओं को चीरती बंधन की सीमा,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

स्थिरता भंग करती तरंगें,
किनारों तक जाते-जाते,
ख़त्म हो जातीं,
तरंगों से न जाने कब-कैसे,
कटते चले जाते, मिटते चले जाते,
पता ही नहीं चलता,
किनारों का विस्मय,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

यादों की चंद लड़ियों में,
उलझा अतीत|
यादें जो साथ होती हैं,
जब तुम साथ नहीं होती|
लटों में छुपा,
खिलखिलाता चेहरा,
करता अंधेरे का श्रृंगार|
आखों में तैरती तुम्हारी छाया,
दीवारों से बातों का सिलसिला,
एक कहानी जो आसमां की तरह,
तुम्हारे बीच का फासला जीवंत करता,
टूटने से पहले,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

न जाने कितने रहस्यों का आयाम,
पलकों को भिगोतीं,
फिर भी होठों पर सूखी लकीर,
क्षितिज में डूबता सूरज,
कहने को बहुत कुछ,
पर वक़्त उतना ही कम|
आँखों ने जब देखा,
सरकती सी धुप,
उढ़ता आँचल,
बिखरते गेसूं,
गुजरता मंज़र,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

दरख्त की टहनियां,
उदास सी हुई,
पत्तों ने भी पतझड़ में,
उनका साथ न दिया|
हालतें ही ऐसी रहीं,
उन्होंने सब कुछ लौटा दिया,
जो मुझसे लिया था|
पर शायद वो भूल गये,
क्या-कुछ हमने उन्हें दिया था|
इंतजार की हद,
आज भी मेरी जहन में,
जीने के इशारों पर,
क़यामत के किनारों पर|
नजरें आज भी ढूढ़ती हैं,
तुम्हारे हर पहलु को,
जिसमें महसूस करता हूँ,
अपने आपको,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

Rock on
Jit

neels
October 13th, 2008, 09:39 AM
Good job, Nidhi, Anjali n jit.. keep sharing the b'ful poems.

neels
October 13th, 2008, 09:42 AM
अनायास एक बंधन की सीमा,
जो शाब्दिक भी नहीं!
भाषिक भी नहीं!

यादों की चंद लड़ियों में,
उलझा अतीत|
यादें जो साथ होती हैं,
जब तुम साथ नहीं होती|

दरख्त की टहनियां,
उदास सी हुई,
पत्तों ने भी पतझड़ में,
उनका साथ न दिया|

Very nice poem..n these lines are superb.. very meaningful.

neels
October 13th, 2008, 09:44 AM
पाबंदियाँ - बालकृष्ण मिश्रा


होंठ पर पाबन्दियाँ हैं
गुनगुनाने की।

निर्जनों में जब पपीहा
पी बुलाता है।
तब तुम्हारा स्वर अचानक
उभर आता है।
अधर पर पाबन्दियाँ हैं
गीत गाने की।

चाँदनी का पर्वतों पर
खेलना रुकना
शीश सागर में झुका कर
रूपको लखना।
दर्पणों को मनाही
छबियाँ सजाने की।

ओस में भीगी नहाई
दूब सी पलकें,
श्रृंग से श्यामल मचलती
धार सी अलकें।
शिल्प पर पाबन्दियाँ
आकार पाने की।

केतकी सँग पवन के
ठहरे हुए वे क्षण,
देखते आकाश को
भुजपाश में, लोचन।
बिजलियों को है मनाही
मुस्कुराने की।

हवन करता मंत्र सा
पढ़ता बदन चन्दन,
यज्ञ की उठती शिखा सा
दग्ध पावन मन।
प्राण पर पाबन्दियाँ
समिधा चढाने की।

vijay
October 13th, 2008, 01:49 PM
एक भी आँसू न कर बेकार !
- रामावतार त्यागी

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!


:)

shritisingh1234
October 13th, 2008, 01:53 PM
:)wow!!2 gud!

cooljat
October 13th, 2008, 03:24 PM
Just for Info, the poem 'एक भी आँसू न कर बेकार - रामावतार त्यागी' is already posted by me long time ago!

Ref: http://www.jatland.com/forums/showpost.php?p=171364&postcount=299

.
.

Kind Suggestion to the contributors, plz use search option of the thread to learn if the poem u r about to post, is already posted before?? :)

Thanks!


Rock on
Jit

neels
October 13th, 2008, 03:39 PM
एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है


आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

:)

Very Meaningful Lines.... aur sab kuch ruth jaye to samasyan to aur badh jati hain... wo kahan ruthengi.

ritu
October 14th, 2008, 06:49 PM
Jeevan Main Ek Sitara Tha
Maana Vah Behad Pyara Tha
Vah Doob Gaya To Doob Gaya
Ambar Kay Aanan Ko Dekho
Kitne Iskay Taare Toote
Kitne Iskay Pyare Choote
Jo Choot Gaye Fir Kahan Mile
Par Bolo Toote Taaron Par
Kab Ambar Shok Manata Hai
Jo Beet Gayi So Baat Gayi
Jeevan Main Vah Tha Ek Kusum
They Us Par Nitya Nichavar Tum
Vah Sookh Gaya TO Sookh Gaya
Madhuvan Ki Chaati Ko Dekho
Sookhi Kitni Iski Kaliyan
Murjhaayi Kitni ballriyan
Jo Murjhayi Woh Fir Kahan Khili
Par Bolo Sookhe Phoolon Par
Kab Madhuban Shor Machata hai
Jo Beet Gayi So Bat Gayi
jeevan Main Madhu Ka Pyala Tha
Tumnay Tan Man De Daala Tha
Wah Toot Gaya To Toot Gaya
Madiralya Kay Aangan Ko Dekho
Kitne Pyale Hil Jaate Hain
Gir Mitti Main Mil Jaate Hain
Jo Girte Hain Kab Uthte Hain
Par Bolo Toote Pyalo Par
Kab Madiralaya Pachtata Hai
Jo Beet Gayi So Baat Gayi

cooljat
October 15th, 2008, 12:07 PM
A beautiful poem with a melancholic touch that describes true image of Materialistic Relations in today's world.


क्या कहिये - दुष्यन्त कुमार

कौन सा रिश्ता सच्चा है अब
किस रिश्ते को क्या कहिये
अपने ही जब ज़ख्म दे रहे
बेगानों को क्या कहिये
ना जाने क्या किया है हमने
किसी से कोई बैर नहीं
क़त्ल किया है हमको जिसने
यारों वो भी ग़ैर नहीं
झूठ की नैया तैर रही है
सच का माझी सोया है
हर रिश्ते ने ग़म के सागर
मे बस हमें डुबोया है
माला के मोतियों से बिखरे
अरमानों को क्या कहिये
अपने ही जब ज़ख्म दे रहे
बेगानों को क्या कहिये !


Rock on
Jit

PrashantHooda
October 16th, 2008, 08:00 PM
एक भी आँसू न कर बेकार !
- रामावतार त्यागी

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
:)

Very beautiful sharing Vijay Ji. Thanks a lot for sharing it.... :) :)

spdeshwal
October 18th, 2008, 02:05 AM
नीलम जी, विजय सिंह व् जीतेंदर

आप सभी ने बहुत सुंदर कविता दुंड निकली हैं
यहाँ पेषित करने के लिए धन्यवाद ! मुझे भी एक सुंदर कविता , अमर शाही मोहन चंदर शर्मा के सम्मान में लिखी ये कविता आर्य समाज फॉरम से मिली , जो आप सब के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ !


Submitted by AnandBakshi on Sat, 2008-09-20 11:39. Bhajan/Kavita

आज विदायी देते तुमको
ओ अमर शहीद!, ओ शक्तिमान!
ओ वीर बहादुर देशभक्त!
तुम थे भारत के स्वाभिमान!

इस देश के दुश्मन, दुष्टों को
निरपराध जनों के भक्षक को
तुमने न्योंछावर कर, अपने प्राण
कर दिये दाँत, खट्टे उनके
जो भारत पर छाये, बन शैतान

कितने ही शत्रू अरिदल को
थी धूल चटाई, जीवन भर
अब तुम्हीँ चले, तज कर भारत
कर रहे, छोड़ सबको, प्रयाण

हम भूल न पायेगें तुमको
अब सदा तुम्हें हम देखेंगे
नभ पर, चमकोगे ध्रुव समान!

तुम प्रेरक बन इस भारत के
अनगिनित युवा और बच्चों के
मन* पर ऐसे छा जाओगे
भर दोगे नव जीवन उनमें
उत्साह नया और स्वाभिमान

ऐ वीर! छोड़, भरे पूरे घर को
किस और किया, तुमने प्रयाण
पत्नि और बच्चे, अश्रु भर
छलके जो, जैसे गंगाजल
कर रहे नमन, कर रहे विदा
संग उनके, एक समुद्र बना
भारत विराट के जन जन का
उमढ़ा है करने, तुम्हें विदा

ओ भारत के अमर वीर सपूत!
शहादत का तुमने
एक नया इतिहास रचा
सौ बार करें तुमको प्रणाम
मन में ले यादों की माला
आखोँ में भर भर अश्रुजल

आज विदायी देते तुमको
ओ अमर शहीद!, ओ शक्तिमान।
ओ वीर बहादुर देशभक्त!
तुम हो, भारत के स्वाभिमान! ||


Khush raho!

cooljat
October 23rd, 2008, 03:26 PM
One Simple, Inspiring & deep touching poem, quite thought provoking as well! :)

जरूरी है - महेश

गगन चूमती आशाओ के
नभ का विस्तार जरूरी है
हर ऊंची इमारत की
नींव में सुधार जरूरी है...

हर पल खिंचती है ज़िन्दगी
शायद खींच - तान जरूरी है
पलभर में टूटते है रिश्ते
रिश्तो का मान जरूरी है...

मिलने से,
बढ़ती है उमंगें
नजदीकी में भी,
कुछ दूरी दरमियाँ जरूरी है...

कौन नहीं उदास यहाँ ???
उदासी का निशान जरूरी है
लेकिन, उदासी भरे हर चेहरे में
ख़ुशी का गुमान जरूरी है...

मांगने से मिलता नहीं हक
छीनो...तो मिल भी जाए
अपने हक के लिए
इस दुनिया से घमासान जरूरी है...

हारना बुरा नहीं
लड़ना जरूरी है
मौत में भी हम कहें
जीने का अरमान जरूरी है...

यहाँ,
हर इंसान मरा हुआ है
इसीलिए....शायद
इंसानों की बस्ती में
शमशान जरूरी है ! ...


Rock on
Jit

az09
October 23rd, 2008, 03:44 PM
One Simple, Inspiring & deep touching poem, quite thought provoking as well! :)

जरूरी है - महेश

गगन चूमती आशाओ के
नभ का विस्तार जरूरी है
हर ऊंची इमारत की
नींव में सुधार जरूरी है...

हर पल खिंचती है ज़िन्दगी
शायद खींच - तान जरूरी है
पलभर में टूटते है रिश्ते
रिश्तो का मान जरूरी है...

मिलने से,
बढ़ती है उमंगें
नजदीकी में भी,
कुछ दूरी दरमियाँ जरूरी है...

कौन नहीं उदास यहाँ ???
उदासी का निशान जरूरी है
लेकिन, उदासी भरे हर चेहरे में
ख़ुशी का गुमान जरूरी है...

मांगने से मिलता नहीं हक
छीनो...तो मिल भी जाए
अपने हक के लिए
इस दुनिया से घमासान जरूरी है...

हारना बुरा नहीं
लड़ना जरूरी है
मौत में भी हम कहें
जीने का अरमान जरूरी है...

यहाँ,
हर इंसान मरा हुआ है
इसीलिए....शायद
इंसानों की बस्ती में
शमशान जरूरी है ! ...


Rock on
Jit



Beautiful....................

neels
October 23rd, 2008, 04:10 PM
हर पल खिंचती है ज़िन्दगी
शायद खींच - तान जरूरी है
पलभर में टूटते है रिश्ते
रिश्तो का मान जरूरी है...

मिलने से,
बढ़ती है उमंगें
नजदीकी में भी,
कुछ दूरी दरमियाँ जरूरी है...

कौन नहीं उदास यहाँ ???
उदासी का निशान जरूरी है
लेकिन, उदासी भरे हर चेहरे में
ख़ुशी का गुमान जरूरी है...



Wonderful lines...very realistic n meaningful.

neels
October 23rd, 2008, 10:18 PM
मुझे पुकार लो - बच्चन
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोड़कर जिया,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदघ से उमीद की बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

neels
October 23rd, 2008, 10:32 PM
आज नदी बिलकुल उदास थी - केदारनाथ अग्रवाल
आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोयी थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर -
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसे नहीं जगाया,
दबे पाँव घर वापस आया।

neels
October 23rd, 2008, 10:39 PM
आशा का दीपक - रामधारी सिंह "दिनकर"

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है
थककर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है

cooljat
October 23rd, 2008, 11:00 PM
Gud one ... Quite inspiring indeed !! :)


आशा का दीपक - रामधारी सिंह "दिनकर"

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है
थककर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है

PrashantHooda
October 23rd, 2008, 11:06 PM
Beauteous !! :)
Awe-inspiring !!! :) :)





मुझे पुकार लो - बच्चन
[font=mangal][b][color=navy]इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता...

neels
October 23rd, 2008, 11:08 PM
I am posting my last pasandeeda kavita in this thread, and with this I request the Moderators to please close the thread.
Well I started this thread to share some classic, very famous and meaningful poems, and I think most of them are explored now. Thou there is no dearth of literature, and still can find a no. of more b'ful and meaningful poems, but the idea behind this thread was not to bring all the available Hindi Kavya here.
My purpose is served, by sharing some classic poems with all; which otherwise we are not in touch with after once over with Hindi as a subject. If anyone feels that they still like to share more, they can with a new thread. As this last poem 'Lo Din Beeta, Lo Raat Gayi' by Harivansh Rai Bachhan also gives the message of a new beginning . I am very glad and highly grateful to all contributors and readers who made it such a huge success.Thank you all very much. :)-



लो दिन बीता, लो रात गई - बच्चन
लो दिन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पच्छिम पहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

चिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकी,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रातः कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई |

cooljat
October 23rd, 2008, 11:33 PM
Hey Neels, this thread by far one of the finest and my fav of all time, please dont close it ... let it go, it'll be heart-breaking if it gets closed ! :(

So Please let it go, if you dont wanna contribute you can refrain but let me keep contributing to this wonderful and beautiful thread !! :)

Think about it !


Rock on
Jit




I am posting my last pasandeeda kavita in this thread, and with this I request the Moderators to please close the thread.
Well I started this thread to share some classic, very famous and meaningful poems, and I think most of them are explored now. Thou there is no dearth of literature, and still can find a no. of more b'ful and meaningful poems, but the idea behind this thread was not to bring all the available Hindi Kavya here.
My purpose is served, by sharing some classic poems with all; which otherwise we are not in touch with after once over with Hindi as a subject. If anyone feels that they still like to share more, they can with a new thread. As this last poem 'Lo Din Beeta, Lo Raat Gayi' by Harivansh Rai Bachhan also gives the message of a new beginning -



लो दिन बीता, लो रात गई - बच्चन
लो दिन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पच्छिम पहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

चिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकी,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रातः कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई |

Samarkadian
October 23rd, 2008, 11:34 PM
Lo Din Beeta Lo Raat Gayi'' What an excellent work to conclude such a shining thread which includes some of my favourite poems as well.Since Dr Neelam herself requested to close this thread and morever as like she said most of classic works has been explored in this regards.:) This is the best conclusive post I have even seen.Thread is being closed. I hope she would come with something new and interesting.:)

VirenderNarwal
October 25th, 2008, 11:36 PM
As many of followers and contributors of this worthy thread are very disappointed with the Alligadiya lock. No doubt this is one of the best conclusive post as admitted by Samar Ji. Author of this thread also express her views in other post regarding reopening of "Hindi Kavita" thread.
A very found of hindi philosophical poems Jit Bhai also interested in reopening...so, to see the interest of our members and contributors let me take this initiative to reopen this thread.

cooljat
October 25th, 2008, 11:42 PM
Thanks a lot Bhaisaab ... Am really Happy to see the Thread alive again !! :)


As many of followers and contributors of this worthy thread are very disappointed with the Alligadiya lock. No doubt this is one of the best conclusive post as admitted by Samar Ji. Author of this thread also express her views in other post regarding reopening of "Hindi Kavita" thread.
A very found of hindi philosophical poems Jit Bhai also interested in reopening...so, to see the interest of our members and contributors let me take this initiative to reopen this thread.

cooljat
October 27th, 2008, 11:18 PM
On the festival occasion of Diwali, I want to wish all of Jatlanders, their families and their beloved ones a Bright and Prosperous Diwali with this Beautiful Enchanting Poem !! .. :)

आज फ़िर दिवाली है - मानोशी चटर्जी

कतारों में ज़मीन पर
आई है आज उतर
तारों की बारात
जड़ने हीरे मोती
एक काली चादर पर
छुप गया है चाँद आज
अंधेरी गुफ़ा में बहुत दूर
अमावस का जामा पहन
और भेजा है चांदनी को
चुपके से अकेले तारों के संग
जब फुलझडियों की बरसात में
भीग रही काली ये रात
इठलाती खुशी फ़िर रही
सज-धज कर हर गली
झर रही उमंग
बिखर रहा रंग
कि रात एक जो काली है
आज बहुत सुंदर मगर
सितारों से जगमगाती
दीयों से खिलखिलाती
हाँ आज फ़िर दिवाली है ! ..

'HAPPY DIWALI TO ALL OF YOU !'


Rock on
Jit

sweetsim
October 29th, 2008, 12:46 PM
ye meri favourite poem hai....since the tym i was studying in class X...ye meri book 'Swati' mein thi nd i really liked the inspiring thoughts givn in this poem....

is poem ka zikr pehle hi is thread k first page par ho chuka h.....awesome poem...

sanjeev_balyan
October 29th, 2008, 07:19 PM
Few rubaiya from Madhusala

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।

minichaudhary
November 5th, 2008, 10:01 PM
सोचता हूँ जब मेरा बेटा बड़ा हो जाएगा
तो मेरी बैशाखियाँ ,माँ की दवा हो जाएगा
पेड़ यादों का यूँ ही बढ़ता क्या तो देखना
इस सफर की धुप में कुछ आसरा हो जाएगा
न्याये के दरबार मैं मुझको यहीं चिंता रही
मैं अगर सच कह गया तो जाने क्या हो जाएगा
सीख लूँगा मैं उसी से जिंदा रहने का हुनर
जब कभी जिन्दगी से सामना हो जाएगा
तेरे आने की उम्मीदों से साँस हैं
गीत के बिन जखम दिल का फिर हरा हो जाएगा
गोपियों को छोड़ देगा फिर कभी कान्हा तो सुन
राग तेरी बांसुरी का बेसुरा हो जाएगा

shivamchaudhary
November 6th, 2008, 08:30 AM
भ्रमर कोई कुमुद्नी पे मचल बैठा तो हंगामा !


हमारे दिल में कोई ख़्वाब पल बैठा तो हंगामा !!


अभी तक डूब के सुनते थे सब किस्सा मोहबत का !


मैं किस्से को हक़ीकत में बदल बैठा तो हंगामा !!

minichaudhary
November 6th, 2008, 08:04 PM
लोगो ने दिये हैं तुम्हे बहुत नाम अलग
सब कहते है मेरा है भगवान् अलग
वो कहते है मेरा है रहमान अलग ,
ये कहते है मेरा है राम अलग …!!!!!
एक ने सजदा किया, एक ने झुकाया सर अलग
उनका है उनका है दरबार अलग,
दोनों का है रास्ता एक, पर बंदगी है अलग
एक ही है भगवान वो ही खुदा ना कोई अलग ...!!!!
राम के बिना कैसे हो रमजान अलग,
अली से ना हो कभी दिवाली अलग
लोग कैसे कहते है की मेरा है भगवान अलग
मेरा है कहना वही राम, वही रहमान
एक ही वो सिर्फ़ है उसके नाम अलग ..!!!!!!

minichaudhary
November 7th, 2008, 11:20 PM
प्रेत आएगा
किताब से निकल ले जाएगा प्रेम पत्र
गीध उसे पहाड़ पर नोच नोच खायेगा

चोर आएगा तो प्रेम पत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेम पत्र ही दांव पर लगायेगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेम पत्र

बारिश आएगी तो प्रेम पत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेम पत्र
बंदिशे प्रेम पत्र पर ही लगाए जायेंगी


सांप आएगा तो डसेगा प्रेम पत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेम पत्र
कीडे प्रेम पत्र ही काटेंगे

प्रलये के दिनों में
सप्तरिशी, मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नही बचायेगा प्रेम पत्र


कोई रोम बचायेगा
कोई मदीना
कोई चंडी बचायगा,कोई सोना

मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेम पत्र......

cooljat
November 10th, 2008, 12:58 PM
Life and Railway Station, very much resemble to each other; this beautiful thought provoking poem describes it really well. :)

छूट चुकी है रेलः - अज्ञात


जा चुके है सब और वही खामोशी छायी है,
पसरा है हर ओर सन्नाटा, तन्हाई मुस्कुराई है,

छूट चुकी है रेल ,
चंद लम्हों की तो बात थी,

क्या रौनक थी यहॉं,
जैसे सजी कोई महफिल खास थी,

अजनबी थे चेहरे सारे,
फिर भी उनसे मुलाक़ात थी,

भेजी थी किसी ने अपनाइयत,
सलाम मे वो क्या बात थी,

एक पल थे आप जैसे क़ौसर,
अब बची अकेली रात थी,

चलो अब लौट चलें यहॉं से,
छूट चुकी है रेल
ये अब गुज़री बात थी,

उङते काग़ज़, करते बयान्,
इनकी भी किसी से
दो पल पहले मुलाक़ात थी,

बढ़ चले क़दम,
कनारे उन पटरियों
कहानी जिनके रोज़ ये साथ थी,

फिर आएगी दूजी रेल,
फिर चीरेगी ये सन्नाटा
जैसे जिन्दगी से फिर मुलाक़ात थी,

फिर लौटेंगे और,
भारी क़दमों से,जैसे
कोई गहरी सी बात थी,

छूट चुकी है रेल,
अब सिर्फ काली स्याहा रात थी |

Rock on
Jit

hoodarajesh
November 11th, 2008, 03:27 PM
प्रेत आएगा

किताब से निकल ले जाएगा प्रेम पत्र
गीध उसे पहाड़ पर नोच नोच खायेगा


चोर आएगा तो प्रेम पत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेम पत्र ही दांव पर लगायेगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेम पत्र


बारिश आएगी तो प्रेम पत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेम पत्र
बंदिशे प्रेम पत्र पर ही लगाए जायेंगी


सांप आएगा तो डसेगा प्रेम पत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेम पत्र
कीडे प्रेम पत्र ही काटेंगे


प्रलये के दिनों में
सप्तरिशी, मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नही बचायेगा प्रेम पत्र


कोई रोम बचायेगा
कोई मदीना
कोई चंडी बचायगा,कोई सोना


मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेम पत्र......


बहुत ही अच्छी मीनाक्षी जी '' प्रेम पत्र ''

Anjalis
November 12th, 2008, 01:03 PM
सब जीवन बीता जाता है
धुप छांह के खेल सदृश
सब जीवन बीता जाता है l

समय भागता प्रतिक्षण में
नव-अतीत्त के तुषार- कण में
हमें लगा कर भविष्य-रण में
आप कहाँ छिप जाता है

सब जीवन बीता जाता है l

बुल्ले नहर हवा के झोंके
मेघ और बिजली के टोंके
किसका साहस है कुछ रोके
जीवन का वह नाता है

सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है l

सब जीवन बीता जाता है ll


श्री जयशंकर प्रसाद

virender1454
November 12th, 2008, 01:11 PM
so sweet anjali ji..

keep firing..




सब जीवन बीता जाता है
धुप छांह के खेल सदृश
सब जीवन बीता जाता है l

समय भागता प्रतिक्षण में
नव-अतीत्त के तुषार- कण में
हमें लगा कर भविष्य-रण में
आप कहाँ छिप जाता है

सब जीवन बीता जाता है l

बुल्ले नहर हवा के झोंके
मेघ और बिजली के टोंके
किसका साहस है कुछ रोके
जीवन का वह नाता है

सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है l

सब जीवन बीता जाता है ll


श्री जयशंकर प्रसाद

Anjalis
November 12th, 2008, 01:31 PM
खुली पाठशाला फूलों की
पुस्तक-कापी लिए हाथ में
फूल धूप की बस में आए l

कुरते में जँचते गुलाब तो
टाई लटकाए पलाश हैं
चंपा चुस्त पज़ामे में है
हैट लगाये अमलताश है l

सूरजमुखी मूखर है ज्यादा
किंतु मोंगर अभी मौन है
चपल चमेली है स्लेक्स में
पहचानो तो कौन- कौन हैं l

गैंदा नज़र नहीं आता है
जूही कंही छूप कर बैठी है
जाने किसने छेड़ दिया है
गुलमुहर ऐंठी- ऐंठी है

सबके अपने अलगे रंग हैं
सब हैं अपनी गंध लुटाए
फूल धुप की बस में आए
मुस्कानों के बैग सजाये


डा. तारादत्त निर्विरोध

cooljat
November 12th, 2008, 02:16 PM
Beautiful Poem, Thanks Anjaliji for sharing ! :)



सब जीवन बीता जाता है
धुप छांह के खेल सदृश
सब जीवन बीता जाता है l

समय भागता प्रतिक्षण में
नव-अतीत्त के तुषार- कण में
हमें लगा कर भविष्य-रण में
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है l

Anjalis
November 14th, 2008, 06:18 PM
My Pleasure

cooljat
November 14th, 2008, 07:18 PM
Dusk on the banks of River, creates a beautiful enchanting yet lil gloomy ambiance !! This nice poem describes that gloominess in touching words. :)


खुल गई नाव - अज्ञेय

खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे।


धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मंडराने,

सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।

तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे।


Rock on
Jit

poonamchaudhary
November 14th, 2008, 07:38 PM
Very beautiful,calm,soothing and touching poem Jit!

well as i have come in this thread i think it would not be right if i dont post any poem...though i am not much into hindi poems but i will share a composition from my college lecturer who is a poet too. Here it goes...

Wajood ki hadon se nikalkar dekhen
chalo saare aalam me bikharkar dekhen
mumkin hai dil ki raah bhi mil jaye
philhaal aankhon me utarkar dekhen
shayad ki jannat ki tamanna na rahe
ek baar gunaah-e-ishq bhi karke dekhen
ho sakta hai ki isi me zindgi ka hal ho
kyon na kisi shakhs par marke dekhen
kya pata wo kisi mod par bichhud jaye
ek din to usko ji bhar ke dekhen
husn-e-nigahe yaar ke aage bhi kaif
kuchh aur sanwar kar dekhen.

annch
November 15th, 2008, 10:05 AM
I have been going through the posts for the past one hour, and there still are a lot to cover..and not a single poem in the post can be left unread...Thank you Neelam ji for starting this thread..its a strong wave of nostalgia...


These are the lines from the Title song of the serial- "Bharat ek Khoj". Anyone knows who the poet is? Thanks
-----------------------------------------------------------------------

Srushtee se pehle sat nahin thaa, asat bhi nahin
Antariksh bhi nahin, aakaash bhin nahin thaa
chhipaa thaa kyaa kahaan, kisne dekhaa thaa
us pal to agam, atal jal bhi kahaan thaa

Shushtee kaa kaun hain kartaa
Kartaa hain yeh vaa akartaa
Oonche aasmaan mein rahtaa
Sadaaa adhyaksh banaa rahtaa
Wohin sach much mein jaantaa..Yaa nahin bhi jaanataa
Hain kisi ko nahin pataa
Nahin pataa

annch
November 15th, 2008, 10:28 AM
Jit Ji,

Seema Kumar meri priya saheli hai.....unki kai kavitaein Hindi Yugam mein bhi prakashit ki gayi hai.....

हर लम्हा एक विस्मय - सीमा कुमार

ठहरा हुआ पानी
एक छोटा सा कंकड़
या एक हल्का सा स्पर्श
और उठी असंख्य, अनगिनत लहरें;

Anjalis
November 15th, 2008, 12:27 PM
[quote=malvika;187756]I have been going through the posts for the past one hour, and there still are a lot to cover..and not a single poem in the post can be left unread...Thank you Neelam ji for starting this thread..its a strong wave of nostalgia...


These are the lines from the Title song of the serial- "Bharat ek Khoj". Anyone knows who the poet is? Thanks
-----------------------------------------------------------------------
Dear Malvika
Please go through this link


http://en.wikipedia.org/wiki/Bharat_Ek_Khoj#Lyrics_Of_The_Title_Track

cooljat
November 15th, 2008, 03:42 PM
Hi Anju Ji,

Pleased to know that Seema Kumar is your gud friend, :) btw she is my gud net friend as well !!

Actually, I found her blog while searching for hindi poems and she is really gud in writing poems, am big admirer of her !!

Cheers !!


Rock on
Jit



Jit Ji,

Seema Kumar meri priya saheli hai.....unki kai kavitaein Hindi Yugam mein bhi prakashit ki gayi hai.....

हर लम्हा एक विस्मय - सीमा कुमार

ठहरा हुआ पानी
एक छोटा सा कंकड़
या एक हल्का सा स्पर्श
और उठी असंख्य, अनगिनत लहरें;

Anjalis
November 15th, 2008, 05:41 PM
दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

रोम-रोम में खिले चमेली
साँस-साँस में महके बेला,
पोर-पोर से झरे मालती
अंग-अंग जुड़े जुही का मेला
पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की
तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली,
यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली
जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती
ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।
दो गुलाब के फूल...

जाने क्या हो गया कि हरदम
बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे
तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है।
दो गुलाब के फूल...

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई
महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है।

दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।


गोपालदास 'नीरज'

annch
November 15th, 2008, 08:51 PM
Anjali Ji,
Dhanyavad..



-----------------------------------------------------------------------
Dear Malvika
Please go through this link

annch
November 15th, 2008, 08:55 PM
Duniya sachmuch gol hai...:)...so, if you are a net friend of Seema, and Seema is a friend of mine...by default, you are also a net/ friend of mine, correct?:)
--------------------------------------------------------------------

Hi Anju Ji,

Pleased to know that Seema Kumar is your gud friend, :) btw she is my gud net friend as well !!

Actually, I found her blog while searching for hindi poems and she is really gud in writing poems, am big admirer of her !!

Cheers !!


Rock on
Jit

neels
November 16th, 2008, 12:15 AM
I have been going through the posts for the past one hour, and there still are a lot to cover..and not a single poem in the post can be left unread...Thank you Neelam ji for starting this thread..its a strong wave of nostalgia...


These are the lines from the Title song of the serial- "Bharat ek Khoj". Anyone knows who the poet is? Thanks
-----------------------------------------------------------------------

Srushtee se pehle sat nahin thaa, asat bhi nahin
Antariksh bhi nahin, aakaash bhin nahin thaa

Thanks Anju that you liked our effort. well i shall also thank you as your this post brought me back to this thread :)

This title track of Bharat ek Khoj was superb... n thnx a lot fr reminding us all of it. I am posting the complete one in Hindi (and some Sanskrit part too) now....

नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत |
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम ||

सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं

आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ
किसने ढका था
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहां था

सृष्टि का कौन है कर्ता?
कर्ता है या है विकर्ता?
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नही पता
नही पता
नही है पता
नही है पता

वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगा चुके व एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

ऊँ! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशायें बाहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर

............................................

listening is a treat... enjoy it...

http://in.youtube.com/watch?v=vBbSbCczYeM&feature=related

http://in.youtube.com/watch?v=VIoOiT6u320&feature=related

annch
November 16th, 2008, 12:42 AM
Thank you Neelam Ji, for posting it in Hindi. Its an effort to read it in roman translation.
What we studied as part of syllabus in our schools and colleges, become more meaningful later as we move through our lives. Many of the poems become part of our "personal" philosophy.
So, once again, thank you for this thread.

Thanks Anju that you liked our effort. well i shall also thank you as your this post brought me back to this thread :)

This title track of Bharat ek Khoj was superb... n thnx a lot fr reminding us all of it. I am posting the complete one in Hindi (and some Sanskrit part too) now....

cooljat
November 17th, 2008, 02:34 PM
Thanks a lot Anju and Neels, for reminding this very haunting nostalgic poem !! I always used to watch this great serial and used to think about this unresolved Enigma, who created this universe?? but question still remains the same .. :) Btw Its indeed one of the finest creation and certainly a treat to read it in Hindi.

Thanks again ..


Rock on
Jit


Thank you Neelam Ji, for posting it in Hindi. Its an effort to read it in roman translation.
What we studied as part of syllabus in our schools and colleges, become more meaningful later as we move through our lives. Many of the poems become part of our "personal" philosophy.
So, once again, thank you for this thread.


Thanks Anju that you liked our effort. well i shall also thank you as your this post brought me back to this thread :)

This title track of Bharat ek Khoj was superb... n thnx a lot fr reminding us all of it. I am posting the complete one in Hindi (and some Sanskrit part too) now....

cooljat
November 17th, 2008, 02:47 PM
In a very competitive environment & rat race, ppl tend to become utter workaholics, a different personality than their real self. This poem emerged, as if their subconscious warning them of the situation/consequences.Most of the ambitious youngsters of today, unfortunately, are facing similar predicament !!

जीने की तलाश मे - विश्व-नन्द

जिंदगी की राह मे, जीने की तलाश मे,
सब ही कुछ बदल गया, मै भी वो न मैं रहा,
औरों की ही तरह मै भी, इसी भीड़ दौड़ मे,
एक पहिये की तरह, रफ्तार बन के रह गया…

जाने जाना था कहां, जाने आ गया कहाँ,
इस बड़े जहान मे, मेरा ही हूँ मैं कहाँ,
आत्मारहित हूँ, काम मे मै व्यस्त यूं रहा,
सूर्य अस्त हो रहा या सूर्य उदय हो रहा,
ऐसी छोटी बातों का भ्रम मुझे सदा रहा…

काम करता ही रहा, रात सोता ही रहा,
दिल के अरमानों कों, सपनों मे भी ना जगा सका.
दिन सुबह से शाम तक, यूं ही बस चला गया…
एक पहिये की तरह, रफ्तार बन के रह गया…

जीते ऐसी जिंदगी देखो आगे क्या हुआ,
जीवन की शाम आ चुकी, सूर्य भी है ढल चुका,
सपनों की चिता की रोशनी मे कुछ न दिख रहा,
चलते चलते थक गया, फिर भी चलता ही रहा…

चलते चलते थक गया, फिर भी ना मै रुक सका,
एक पहिये की तरह, रफ्तार बन के रह गया…
क्या यही है मेरी जिंदगी? यही मेरा जीवन रहा?
एक पहिये की तरह, रफ्तार बन के रह गया…?

To be continued ...

Rock on
Jit

chandra16
November 18th, 2008, 12:13 PM
Ghere tha mujhe tumhari sanson ka pawan
Jan main balak abodh anjan tha

Yeh pawan tumhari sanson ka
Saurabh lata tha
Uske kandhon par chara
Main jane kahan-kahan
Akash main ghum aata tha

Srishti tab bhi shayad rahasya thi
Magar koi pari mere saath main thi
Mujhe malum to na tha
Magar tale ki kunji mere haath main thi

Jawan hokar main adami na raha
Khet ki ghas ho gaya

Tumhara pawan aaj bhi aata hai
Aur ghas ke saath athkheliyan karta hai
Uske kanon mein chupke-chupke
Koi sandesh bharta hai

Ghas urna chahti hai
Aur akulati hai
Magar uski jarein dharti mein
Betarah gari hui hain
Isliye hawa ke saath
Woh urr nahin pati hai

Shakti jo chetan thi
Aab jar ho gayi hai
Bachpan main jo kunji mere paas thi
Umra bharte-bharte
Woh kahin kho gayi hai...

cooljat
November 18th, 2008, 12:44 PM
Poet Says: This poem “जिन्दगी में सुकून” emerged after about 10 years, as an answer to the situation & question posed in the poem “जीने की तलाश मे”!!

What is mentioned in this poem became his approach to life thereafter. :)


जिन्दगी में सुकून - विश्व-नन्द

अब सुकून आ गया है जिन्दगी मे थोडा,
जब से मैंने औरों संग दौड़ना है छोडा…
जब से मैंने औरों जैसा दौड़ना है छोडा…l

अब तो वक्त मिल रहा है, कुछ तो ख़ुद के वास्ते,
सोचने मैं कौन हूँ, और कौन से हैं रास्ते.
लग रहा है सब नया, जो द्रष्टि कुछ नयी मिली,
पहले जैसी दुनिया भी है, लगती अब नई नई
भा रहा निसर्ग जैसे स्वर्ग ही यथार्थ ये,
मुक्त मन जो हो गया है, व्यर्थ के स्वगर्व से,
मुक्त मन जो हो गया है, अर्थहीन स्वार्थ से…..i

वक्त जो गुजर गया है, उसकी न परवाह है,
हाथ मे समय बचा है, पल पल उससे प्यार है.
हूँ अलिप्त मैं मगर, सर्व में जुटा हुआ,
दलदलों में देख कमल, सुंदर सा जी रहा……..l

अब जो राहें चल रहा हूँ, कुछ तो ख़ुद चुनी हुईं,
हर छलांग पे यहाँ हैं, मंजिलें नयीं नयीं .
बाजी ख़ुद से है यहाँ, इंसान पूर्ण बनने की,
दिन-ब-दिन नया नया प्रयोग, ख़ुद ही करने की…..l

है कठिन ये राह, फिर भी चलने में सुकून है,
ना किसीसे दोस्ती, न दुश्मनी की शर्त है.
पास कुछ नहीं, जो मेरे, खोने का मैं भय धरूँ,
ज्ञान ये हुआ, की ज्ञान ही बटोरता फिरूं………l

ये है ऐसी राहें, जिनको भी मेरी तलाश है,
मंजिलें ये ऐसी, जिनको मेरा इंतजार है,
मंजिलें ये ऐसी जो मेरे ही आसपास हैं…….l

अब सुकून आ गया है जिन्दगी मे थोडा,
जब से मैंने औरों संग दौड़ना है छोडा…
जब से मैंने औरों जैसा दौड़ना भी छोडा……l

Rock on
Jit


In a very competitive environment & rat race, ppl tend to become utter workaholics, a different personality than their real self. This poem emerged, as if their subconscious warning them of the situation/consequences.Most of the ambitious youngsters of today, unfortunately, are facing similar predicament !!

जीने की तलाश मे - विश्व-नन्द

जिंदगी की राह मे, जीने की तलाश मे,
सब ही कुछ बदल गया, मै भी वो न मैं रहा,
औरों की ही तरह मै भी, इसी भीड़ दौड़ मे,
एक पहिये की तरह, रफ्तार बन के रह गया…



To be continued ...

chandra16
November 18th, 2008, 05:10 PM
Jag mein rehkar nij naam akro
Yeh janam hua kis arth aho
Samjho jismein yeh vyarth na ho
Kuch to Upyukt karo tan ko
Nar ho na nirash karo maan ko

Sambhlo ki suyog na jaye chala
Kab hua vyarth sadupay bhala
Samjho jag ko na nira sapna
Path aap prashast karo apna
Akhileshwar hai awlamban ko
Nar ho na nirash karo maan ko

Jab prapt tumhe sab tatva yahan
Phir jaa sakta woh satva kahan
Tum swatva sudha raspan karo
Uth kar amratva vidhan karo
Dwaroop raho maan kanan ko
Nar ho na nirash karo maan ko

Nij gaurav ka nit gyan rahe
Hum hain kuch yeh dhayan rahe
Sab sab abhi par maan rahe
marnotar gunjit gyan rahe
Kuch ho na tajo nij sadhan ko
Nar ho na nirash karo maan ko

sunitahooda
November 19th, 2008, 10:12 AM
Has anybody posted " Woh toddti pather" i dont remember the poet/poetess's name. Can anyone search and post?

cooljat
November 19th, 2008, 12:25 PM
Few wonderful lines sent by gud friend of mine lately..deep touchin' indeed. :)

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
एक दोस्त है कच्चा पक्का सा
एक झूठ है आधा सच्चा सा
जज़बात के मन पे इक परदा सा
बस एक बहाना अच्छा सा
जीवन का ऐसा साथी है
जो दूर ना होकर भी पास नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं !..


Rock on
Jit

rlakra
November 19th, 2008, 02:15 PM
very nice.
Can u post the complete poem.



Few wonderful lines sent by gud friend of mine lately..deep touchin' indeed. :)

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
एक दोस्त है कच्चा पक्का सा
एक झूठ है आधा सच्चा सा
जज़बात के मन पे इक परदा सा
बस एक बहाना अच्छा सा
जीवन का ऐसा साथी है
जो दूर ना होकर भी पास नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं !..


Rock on
Jit

cooljat
November 19th, 2008, 02:34 PM
One great composition by Great poet 'Nirala' ... the wonderful touching poem that describes plight of a labor woman !! .. :)


तोड़ती पत्थर - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैने इलाहबाद के पथ पर -
वह तोड़ती पत्थर |

नहीं छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन,
गुरु हथौडा हाथ,
करती बार बार प्रहार -
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकार |
चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिंदी छा गई
प्राय: हुई दोपहर -
वह तोड़ती पत्थर |

देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की और देखा, छिन्न तार,
देख कर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दॄष्टि से,
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहम सितार,
सुनी मैंने वो नहीं जो थी सुनी झंकार |
एक छन के बाद वो कांपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
"मैं तोड़ती पत्थर |"


Rock on
Jit

Anjalis
November 20th, 2008, 10:42 AM
मैं मौन रहूँ
तुम गाओ
जैसे फूले अमलतास
तुम वैसे ही
खिल जाओ

जीवन के
अरुण दिवस सुनहरे
नहीं आज
तुम पर कोई पहरे

जैसे दहके अमलतास
तुम वैसे
जगमगाओ

कुहके जग-भर में
तू कल्याणी
मकरंद बने
तेरी युववाणी

जैसे मधुपूरित अमलतास
तुम सुरभि
बन छाओ
मैं मौन रहूँ तुम गाओ



'अनिल जन विजय'

cooljat
November 20th, 2008, 02:40 PM
Ravin, That was all, what I got from that friend, am sorry ! :(


very nice.
Can u post the complete poem.

minichaudhary
November 23rd, 2008, 02:04 PM
सहानुभूति की मांग
आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मांगती है
पुण्य मांगता है पसीना और आंसू पोंछने के लिए
एक तौलिया


कर्म मांगता है रोटी और कैसी भी सब्जी


ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ


और तो और
फ़कीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख मांगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उनके गले से निकलती है
उनके ग़रीब फेफड़ों की हवा


चलिए मैं भी पूछता हूं


क्या मांगूं इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना
दौलतमंद को सोना हत्यारे को हथियार
बीमार को बीमारी] कमज़ोर को निर्बलता


अन्यायी को सत्ता
और व्यभिचारी को बिस्तर


पैदा करो सहानुभूति
मैं अब भी हंसता हुआ दिखता हूं
अब भी लिखता हूं कविताएं

Anjalis
December 6th, 2008, 12:38 PM
पुरुष वीर बलवान,
देश की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं।

कहते हैं, ये पुष्प, दीप,
अक्षत क्यों लाये हो?
हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,
फूलों के हारों की, जय-जयकार की।

तड़प रही घायल स्वदेश की शान है।
सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।
ले जाओ आरती, पुष्प, पल्लव हरे,
ले जाओ ये थाल मोदकों ले भरे।

तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो,
दे सकते हो तो गोली-बन्दूक दो।


राष्ट्र कवि- श्री रामधारी सिंह दिनकर

Anjalis
December 6th, 2008, 12:41 PM
In tribute to people who have lost their lives in Mumbai Attacks


बिखर गये हैं जिन्दगी के तार-तार
रुद्ध-द्वार, बद्ध हैं चरण
खुल नहीं रहे नयन
क्योंकि कर रहा है व्यंग्य
बार-बार देखकर गगन !

भंग राग-लय सभी
बुझ रही है जिन्दगी की आग भी
आ रहा है दौड़ता हुआ
अपार अंधकार
आज तो बरस रहा है विश्व में
धुआँ, धुआँ !

शक्ति लौह के समान ले
प्रहार सह सकेगा जो
जी सकेगा वह
समाज वह —
एकता की शृंखला में बद्ध
स्नेह-प्यार-भाव से हरा-भरा
लड़ सकेगा आँधियों से जूझ !

नवीन ज्योति की मशाल
आज तो गली-गली में जल रही
अंधकार छिन्न हो रहा
अधीर-त्रस्त विश्व को उबारने
अभ्रांत गूँजता अमोघ स्वर
सरोष उठ रहा है बिम्ब-सा
मनुष्य का सशक्त सर !


- महेन्द्र भटनागर

Anjalis
December 6th, 2008, 01:02 PM
यहाँ प्रस्तुत कविता कुरुक्षेत्र कविता संग्रह के तृतीय सर्ग / भाग पॉँच से ली गई है, जो आज के सन्दर्भ में भी उतनी ही सटीक है , जैसी तब रही होगी ( महाभारत काल में) l


भूल रहे हो धर्मराज तुम
अभी हिन्स्त्र भूतल है l
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है l

मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे मिटे जिघान्सा,
किस प्रकार धरती पर फैले
करुणा, प्रेम, अहिंसा l

जिए मनुज किस भाँति
परस्पर होकर भाई भाई l
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?
कैसे रुके लड़ाई?

धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष गरल हो l

बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोए,
एक दूसरे के उर में,
नर बीज प्रेम के बोए.

किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
पहुँच सका यह जग है,
अभी शांति का स्वप्न दूर
नभ में करता जग-मग है l

भूले भटके ही धरती पर
वह आदर्श उतरता,
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता l

किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा कर,
रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
लौह-द्वार को पा कर l

घृणा, कलह, विद्वेष विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन, एक दो
का ही हृदय भिगो कर l

क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
अगणित अभी यहाँ हैं,
बढ़े शांति की लता, कहो
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?

शांति-बीन बजती है, तब तक
नहीं सुनिश्चित सुर में l
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
उठे नहीं उर-उर में l

शांति नाम उस रुचित सरणी का,
जिसे प्रेम पहचाने,
खड्ग-भीत तन ही न,
मनुज का मन भी जिसको माने l

शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रान्त निस्प्रह में l

घृणा-कलह-विफोट हेतु का
करके सफल निवारण,
मनुज-प्रकृति ही करती
शीतल रूप शांति का धारण l

जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
भय न शेष रह जाता l
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता l

शांति, सुशीतल शांति,
कहाँ वह समता देने वाली?
देखो आज विषमता की ही
वह करती रखवाली l

आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है.
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
विष से भरा दशन है l

वह रखती परिपूर्ण नृपों से
जरासंध की कारा,
शोणित कभी, कभी पीती है,
तप्त अश्रु की धारा l

कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिसकी वह शांति नहीं थी,
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी l

थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
वह जो जली समर में l
असहनशील शौर्य था, जो बल
उठा पार्थ के शर में l

हुआ नहीं स्वीकार शांति को
जीना जब कुछ देकर.
टूटा मनुज काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर l

पापी कौन? मनुज से उसका,
न्याय चुराने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न
का सीस उड़ाने वाला?


श्री रामधारी सिंह जी की कलम से .....

cooljat
December 8th, 2008, 01:17 PM
An Inspiring poem to ponder upon, gives very imp message .. :)


साहिल को अपनाना हो तो - मदन मोहन अरविन्द


साहिल को अपनाना हो तो तूफ़ानों से हाथ मिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

किसे पता सुनसान सफर में कितने रेगिस्तान मिलेंगे।
कौन बताए किस पत्थर के सीने से झरने निकलेंगे।
प्यास अगर हद से बढ़ जाए आँसू पीकर काम चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

मंज़िल तक तो साथ न देंगे आते जाते साँझ सवेरे।
अपनी-अपनी चाल चलेंगे कभी उजाले कभी अँधेरे।
रातें राह दिखाएँगी तू बस छोटा-सा दीप जलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

ज़ोर-शोर से उमड़-घुमड़ कर मौसम की बारात उठेगी।
धीरे-धीरे रिमझिम होगी लेकिन पहले उमस बढ़ेगी।
सावन जम कर बरसेगा दो पल झूलों की बात चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

घड़ी बहारों की आने दे भर लेना चाहत की झोली।
आवारा पागल भँवरे से मस्त पवन इठलाकर बोली।
कलियों का मन डोल उठेगा ज़रा सँभल कर डाल हिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।...


Rock on
Jit

neels
December 8th, 2008, 02:19 PM
साहिल को अपनाना हो तो तूफ़ानों से हाथ मिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

किसे पता सुनसान सफर में कितने रेगिस्तान मिलेंगे।
कौन बताए किस पत्थर के सीने से झरने निकलेंगे।
प्यास अगर हद से बढ़ जाए आँसू पीकर काम चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

मंज़िल तक तो साथ न देंगे आते जाते साँझ सवेरे।
अपनी-अपनी चाल चलेंगे कभी उजाले कभी अँधेरे।
रातें राह दिखाएँगी तू बस छोटा-सा दीप जलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।



Very meaningful n realistic poem Jit...thnx for sharing.

sandeeprathee
December 9th, 2008, 01:25 PM
An Inspiring poem to ponder upon, gives very imp message .. :)


साहिल को अपनाना हो तो - मदन मोहन अरविन्द


साहिल को अपनाना हो तो तूफ़ानों से हाथ मिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

किसे पता सुनसान सफर में कितने रेगिस्तान मिलेंगे।
कौन बताए किस पत्थर के सीने से झरने निकलेंगे।
प्यास अगर हद से बढ़ जाए आँसू पीकर काम चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

मंज़िल तक तो साथ न देंगे आते जाते साँझ सवेरे।
अपनी-अपनी चाल चलेंगे कभी उजाले कभी अँधेरे।
रातें राह दिखाएँगी तू बस छोटा-सा दीप जलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

ज़ोर-शोर से उमड़-घुमड़ कर मौसम की बारात उठेगी।
धीरे-धीरे रिमझिम होगी लेकिन पहले उमस बढ़ेगी।
सावन जम कर बरसेगा दो पल झूलों की बात चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

घड़ी बहारों की आने दे भर लेना चाहत की झोली।
आवारा पागल भँवरे से मस्त पवन इठलाकर बोली।
कलियों का मन डोल उठेगा ज़रा सँभल कर डाल हिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।...


Rock on
Jit


Too Gud Jeet bhai. Read such a refreshing nice poem after long time and that also in very simple words. Good find :)

dkumars
December 11th, 2008, 03:32 PM
मेरे भारत की आजादी, जिनकी बेमौल निशानी है।
जो सींच गए खूं से धरती, इक उनकी अमर कहानी है।


वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे।
खुद अपने घर को जला-जला, मां को उजियारा देते थे।


उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी।
हर तूफानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी।


मॉ की खातिर लडते-लडते, जब उनकी सांसें सोई थी।
चूमा था फॉंसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी।


ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की।
है कौन कलम जो लिख सकती, गाथा उनकी कुर्बानी की।


पर आज सिसकती भारत मां, नेताओं के देखे लक्षण।
जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण।


जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं।
फिर निकल रात के साए में, ये खूनी खंजर बोते हैं।


अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा।
रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा।


डाकू भी अब लड़कर चुनाव, संसद तक में आ जाते हैं।
हर मर्यादा को छिन्न भिन्न, कुछ मिनटों में कर जाते हैं।


यह राष्ट्र अटल, रवि सा उज्ज्वल, तेजोमय, सारा विश्व कहे।
पर इसको सत्ता के दलाल, तम के हाथों में बेच रहे।


ये भला देश का करते हैं, तो सिर्फ कागजी कामों में।
भूखे पेटों को अन्न नहीं ये सडा रहे गोदामो में।


अपनी काली करतूतों से, बेइज्जत देश कराया है।
मेरे इस प्यारे भारत का, दुनिया में शीश झुकाया है।


पूछो उनसे जाकर क्यों है, हर द्वार-द्वार पर दानवता।
निष्कंटक घूमें हत्यारे, है ज़ार-ज़ार क्यों मानवता।


खुद अपने ही दुष्कर्मों पर, घडियाली आंसू टपकाते।
ये अमर शहीदों को भी अब, संसद में गाली दे जाते।


खा गए देश को लूट-लूट, भर लिया ज़ेब में लोकतंत्र।
इन भ्रष्टाचारी दुष्टों का, है पाप यज्ञ और लूट मंत्र।


गांधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, देखो छाई ये वीरानी।
अशफाक, भगत, बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी।


है कहॉं वीर आजाद, और वो खुदीराम सा बलिदानी।
जब लालबहादुर याद करूं, आंखों में भर आता पानी।


जब नमन शहीदों को करता, तब रक्त हिलोरें लेता है।
भारत मां की पीड़ा का स्वर, फिर आज चुनौती देता है।


अब निर्णय बहुत लाजमी है, मत शब्दों में धिक्कारो।
सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर चाबुक मारो।


हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे।
विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें।


मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूं।
यह परिवर्तन का क्रांति गीत, मां का चारण बन गाता हूं।
-अरुण मित्तल ‘अद्भुत‘`

hoodarajesh
December 11th, 2008, 05:59 PM
मेरे भारत की आजादी, जिनकी बेमौल निशानी है।
जो सींच गए खूं से धरती, इक उनकी अमर कहानी है।


वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे।
खुद अपने घर को जला-जला, मां को उजियारा देते थे।


उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी।
हर तूफानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी।


मॉ की खातिर लडते-लडते, जब उनकी सांसें सोई थी।
चूमा था फॉंसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी।


ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की।
है कौन कलम जो लिख सकती, गाथा उनकी कुर्बानी की।


पर आज सिसकती भारत मां, नेताओं के देखे लक्षण।
जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण।


जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं।
फिर निकल रात के साए में, ये खूनी खंजर बोते हैं।


अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा।
रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा।




हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे।
विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें।


मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूं।
यह परिवर्तन का क्रांति गीत, मां का चारण बन गाता हूं।
-अरुण मित्तल ‘अद्भुत‘`
good... bahut badiya bhai aaj kal asi kavitaye kam hi sun ne ko
milti hai

cooljat
December 18th, 2008, 02:51 PM
Poem that express the sheer grief and pain of the poet, who's soldier friend just sacrificed his life on the battlefield. Depicts the real picture aftermath.

A poem that ll moist your eyes for sure ! ...

सैनिक की मौत - अशोक कुमार पाण्डेय

तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त

अखबारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन

सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी

कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है

और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के

अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग

या फिर केवल योग
कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
’शहादत!

बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था

बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?


वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा

एक दूसरे चैनल पर
दोनों दे’शों के म’शहूर ’शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी गजलें

तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहा’शा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम ला’शों



अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
’शाति भी लहू पीती है! ...



Jit

dhakadchora
December 18th, 2008, 03:00 PM
Poem that express the sheer grief and pain of the poet, who's soldier friend just sacrificed his life on the battlefield. Depicts the real picture aftermath.

A poem that ll moist your eyes for sure ! ...

सैनिक की मौत - अशोक कुमार पाण्डेय

तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त

अखबारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन

सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी

कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है

और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के

अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग

या फिर केवल योग
कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
’शहादत!

बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था

बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?


वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा

एक दूसरे चैनल पर
दोनों दे’शों के म’शहूर ’शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी गजलें

तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहा’शा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम ला’शों



अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
’शाति भी लहू पीती है! ...



Jit


Superb man u made my day. well done and keep it up

mukeshkumar007
December 18th, 2008, 03:17 PM
Poem that express the sheer grief and pain of the poet, who's soldier friend just sacrificed his life on the battlefield. Depicts the real picture aftermath.

A poem that ll moist your eyes for sure ! ...

सैनिक की मौत - अशोक कुमार पाण्डेय

तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त

अखबारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन

सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी

कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है

और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के

अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग

या फिर केवल योग
कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
’शहादत!

बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था

बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?


वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा

एक दूसरे चैनल पर
दोनों दे’शों के म’शहूर ’शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी गजलें

तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहा’शा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम ला’शों



अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
’शाति भी लहू पीती है! ...



Jit



Excellent.....

PrashantHooda
December 18th, 2008, 05:51 PM
....अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
’शाति भी लहू पीती है! ...






Very true.

Anjalis
December 19th, 2008, 11:00 AM
मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे


श्री दुश्यंत कुमर जी

Anjalis
December 19th, 2008, 12:00 PM
आज नहीं तो कल होगा
हर मुश्किल का हल होगा

जंगल गर औझल होगा
नभ भी बिन बादल होगा

नभ गर बिन बाद्ल होगा
दोस्त कहां फ़िर जल होगा

आज बहुत रोया है दिल
भीग गया काजल होगा

आँगन बीच अकेला है
बूढ़ा सा पीपल होगा

दर्द भरे हैं अफ़साने
दिल कितना घायल होगा

छोड़ सभी जब जाएंगे
‘तेरा ही संबल होगा

झूठ अगर बोलोगे तुम
यह तो खुद से छल होगा

रोज कलह होती घर में
रिश्तों मे दल-दल होगा



श्याम सखा 'श्याम'

cooljat
December 19th, 2008, 12:05 PM
Very Inspiring n touching poems Anjaliji, Keep pouring !! .. :)


मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे



आज नहीं तो कल होगा
हर मुश्किल का हल होगा
जंगल गर औझल होगा
नभ भी बिन बादल होगा

Anjalis
December 19th, 2008, 12:37 PM
मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार

हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है

हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल

टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर

शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है

नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज

कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही

हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं

दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया

स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें

क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा

क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया

भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई

पंव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी

अकबर इलाहाबादी (सैयद हुसैन)
(१८४६-१९२१ )

Anjalis
December 19th, 2008, 06:30 PM
एक पति और पत्नी के बीच का रिश्ता परस्पर विश्वास पर आधारित रिश्ता है. लड़की अपने परिवार को छोड़कर अपने पति के परिवार को अपनाती है. उसे उम्मीद होती है कि उसका पति उसे पुरे विश्वास के साथ अपनाएगा और अपनी सभी भावनाओं और विचारों को उसके साथ में बाटेगा .
राजकुमार SIDDHARTH ने (जो बाद में गौतम बुद्ध बन गए), अपनी पत्नी YASHODHARA और बेटे को छोड़ दिया जब वे सो रहे थे, बिना एक शब्द कहे , सच की खोज के लिए अपनी यात्रा शुरू करने के लिए.
लेकिन वह वह उसे बिना बताए जाने के अपने फैसले का बचाव करने की कोशिश करता है उसे और उसकी पीड़ा में भी प्यार करता है. एक बहुत ही मार्मिक कविता वास्तव में. Yashodhara पीड़ा का BEHAD ACHCHHE DHANG से VARNAN किया है RASHTRA कवि MAITHLISARAN GUPT जी ने

सखी वो मुझसे कह कर जाते
कह तो, क्या वो मुझको अपनी पग बाधा ही पाते ?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?
मैंने मुख्य उसी को माना
जो वे मन में लाते
सखी वो मुझसे कह कर जाते

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में
प्रियतम को प्राणों के पण में
हम ही भेज देती हैं रण में
क्षात्र धर्म के नाते

सखी वो मुझसे कह कर जाते

हुआ न यह भी भाग्य अभागा
किस पर विफल गर्व अब जागा
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते

सखी वो मुझ से कह कर जाते

नयन उन्हें है निष्ठुर कहते
पर उनसे आंसू जो बहते
सदय ह्रदय वे कैसे सहते ?
गए तरस ही खाते !

सखी वो मुझ से कह कर जाते

जाए, सिध्धि पावें वो सुख से,
दुखी न हो इस जन के दुःख से
उपालंभ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते !

सखी वो मुझ से कह कर जाते

गए, लौट भी वे आवेंगे
कुछ अनुपम अपूर्व भी लावेंगे
रोते प्राण उन्हें पावेंगे
पर क्या गाते -गाते?

सखी वो मुझ से कह कर जाते

htomar
December 20th, 2008, 12:13 PM
अब तो सुबह शाम रहते हैं
जबड़े कसे हुए
जाने कितने साल हो गए
खुल कर हँसे हुए
हर अच्छे मज़ाक की कोशिश
खाली जाती है
हँसी नाटकों में
पीछे से डाली जाती है

काँटे कुछ दिल से दिमाग़ तक
भीतर धँसे हुए
जाने कितने साल हो गए
खुल कर हँसे हुए

खा डाले खुदगर्ज़ी ने
गहरे याराने भी
आप आप कहते हैं अब तो
दोस्त पुराने भी

मेहमानों से लगते रिश्ते
घर में बसे हुए
जाने कितने साल हो गए
खुल कर हँसे हुए

Anjalis
December 20th, 2008, 05:15 PM
कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।

किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।

आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अंधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;

हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।

आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’



श्री अटल बिहारी वाजपेयी

Anjalis
December 20th, 2008, 05:18 PM
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।



श्री अटल बिहारी वाजपेयी

Anjalis
December 20th, 2008, 05:37 PM
हम सब चुप क्यों हैं? कुछ कर क्यूँ नही गुजरते? हम लोग सदा इन सत्ता के भूखे भेड़ियों से डर कर कब तक जियेंगे. अब ये लडाई लड़ ही लेनी चाहिए आर या पार. कोई भी हमारे घर मैं घुस कर हमें थप्पड़ मार जाता है
और ये सरकार के तथाकथित नुमाइंदे अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं.
.


काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में।

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशोहवास में ।