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PrashantHooda
December 20th, 2008, 07:11 PM
धन्यवाद अंजलि जी एक अत्यन्त विचारोत्तेजक कविता प्रस्तुत करने के लिए |



हम सब चुप क्यों हैं? कुछ कर क्यूँ नही गुजरते? हम लोग सदा इन सत्ता के भूखे भेड़ियों से डर कर कब तक जियेंगे. अब ये लडाई लड़ ही लेनी चाहिए आर या पार. कोई भी हमारे घर मैं घुस कर हमें थप्पड़ मार जाता है
और ये सरकार के तथाकथित नुमाइंदे अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं.
.


काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में।

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशोहवास में ।

htomar
December 21st, 2008, 11:52 AM
Subah subah ik khwab ki dastak par darwaza khola, dekha
Sarhad ke us paar se kuchh mehmaan aaye hain
Aankhon se maanoos the saarey

Chehre saarey sune sunaaye
Paanv dhoye, Haath dhulaye
Aangan mein aasan lagwaaye...
Aur tannoor pe makki ke kuchh mote mote rot pakaye
Potli mein mehmaan mere
Pichhale saalon ki faslon ka gud laaye the

Aankh khuli to dekha ghar mein koi nahin tha
Haath lagakar dekha to tannoor abhi tak bujha nahin tha
Aur hothon pe meethe gud ka jaayka ab tak chipak raha tha

Khwab tha shayad!
Khwab hi hoga! !
Sarhad par kal raat, suna hai, chali thi goli
Sarhad par kal raat, suna hai
Kuchh khwaabon ka khoon hua hai

htomar
December 21st, 2008, 11:59 AM
HUMDUM

Mod pe dekha hai wo boodha-sa ek ped kabhi ?
Mera waqif hai, bahut salon se mein use jaanata hoon

Jab mein chhota tha to ik aam udaane ke liye
Parli deewar se kandhon pe chadha tha uske
Jaane dukhti huee kis shaakh se jaa paanv lagaa
Dhaad se phenk diya tha muje neeche usne
Meine khunnas main bahut phenke the pathar us par

Meri shaadi pe mujhe yaad hai shaakhein dekar
Meri vedi ka hawan garm kiya tha usne
Aur jab haamla thi 'Biba' to dopahar main har din
Meri biwi ki taraf kairiyan phenki thi isi ne
Waqt ke saath sabhi phool, sabhi patti gaye

Tab bhi jal jaata tha jab Munne se kehti 'Biba'
'Haan,usi ped se aaya hai tu, Ped ka phal hai'
Ab bhi jal jaata hoon. jab mod se gujarte mein kabhi
Khaanskar kehta hai, 'Kyo, Sar ke sabhi baal gaye?'

'Subah se kaat rahe hain woh Kameti wale
Mod tak jaane ki himmat nahin hoti mujhko'

cooljat
December 22nd, 2008, 03:36 PM
Poornima Verman, one classy and deep touching poet that I admire a lot. Her pragmatic philosophical thought provoking creations always touches inner soul and gives inspiring msg.This very Poem also gives a beautiful msg to 'Stay Positive' against all odds. :)

खिड़की - पूर्णिमा वर्मन

बहुत दिनों बाद
खिड़की खोली थी
साफ-साफ दिखता काँच के उस पार

लगता था नयी धूप आएगी
फूल खिल जाएँगे
नई पत्तियाँ उगेंगी
वसंत फिर आएगा धीरे-धीरे

एक काँच खिसकाते ही
मिला शीतल झोंका
धीरे-धीरे क्यारी में फूल खिलने लगे
कि जैसे वसंत समाया था हर कण में

अचानक गहराया नभ
एक तेज़ झोंका आया
रेत ही रेत
बिखर गई फूलों पर - आँखों में
छितरायी पंखुड़ियाँ पत्तियाँ
छलछलायी आँखें

हम अक्सर भूल जाते हैं
मौसम बदला करते हैं
तो क्या मुझे
खिड़की खोलनी ही नहीं थी?
या सिखा गई मुझको
जीवन का एक अध्याय। ...


Rock on
Jit

Anjalis
December 22nd, 2008, 06:24 PM
दो नवयौवना सखियाँ आपस में पहलियाँ बुझती हुई
आप भी पढिये ये मजेदार पहेलियाँ


१.
खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन?
ना सखि कुत्ता!

२.
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

३.
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि तारा!

४.
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि जूता!

५.
ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चांद!

६.
जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा!

७.
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल!

८.
बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी!

९.
अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि तोता!

१०.
आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि पंखा!

११.
अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चंद!

१२.
शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि अंजन!

१३.
जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि नीर!

१४.
बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि पाती!

१५.
सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखी साजन? ना सखि हार!

१६.
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन? ना सखि बुखार!

१७.
सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन? ना सखि सपना!

१८.
बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन? ना सखि राम!

१९.
सरब सलोना सब गुन नीका
वा बिन सब जग लागे फीका
वा के सर पर होवे कोन
ऐ सखि ‘साजन’ना सखि! ,लोन(नमक)

२०.
सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’ ना,सखि! दिया(दीपक)



अमीर खुसरो

cooljat
December 22nd, 2008, 07:16 PM
One more from Poornima Ji for the day and this one is Fabulous Patriotic Poem that certainly fills sense of pride and patriotism. Kudos to Poornima ji ! :)

तिरंगा - पूर्णिमा वर्मन

गणतंत्र हर तूफ़ान से गुज़रा हुआ है
पर तिरंगा प्यार से फहरा हुआ है

ज़िन्दगी के साथ में
चलते ही जाना
हर गरीबी बेबसी में
ढूँढ पाना
अपने जीने का बहाना
जंग की कठिनाइयों से
उबर आना
फिर किसी परिणाम तक
जाने का रस्ता
एक बनाना
दर्द में विश्वास-सा ठहरा हुआ है ।
यह तिरंगा प्यार से फहरा हुआ है ।

कितना पाया और क्या खोया
इस गणित में कैसा जाना
स्वर्ण-चिड़िया उड़ गयी तो
कैसा उसका दुख मनाना
ताल दो मिलकर
कि कलयुग में
नया भारत बनाना
सिर उठाना
गर्व से जय हिन्द गाना
मुश्किलों की
धूप में ईमान-सा गहरा हुआ है ।
यह तिरंगा प्यार से फहरा हुआ है ।

जय हिंद !!..



Rock on
Jit

VPannu
December 23rd, 2008, 07:29 AM
१.
खा गया पी गया
दे गया बुत्ता

This is a really nice composition :).

cooljat
December 23rd, 2008, 02:32 PM
Sunshine in the chilly winters, Aah! .. feels like heaven isn't it? A wonderful poem once again from Poornima ji that depicts the beauty and warmth of 'winter sunshine' really well, Nostalgia at its best !! :)


जाड़े की धूप - पूर्णिमा वर्मन

अलसाई
इतराई
पेड़ों के पत्तों से
गिर-गिर के बिखरायी
किरनों का गुलदस्ता
जाड़े की धूप ।

अनमनी
गुनगुनी
नीले आकाश तले
धरती संग छुईमुई
सड़क-सड़क दूर तलक
जाड़े की धूप ।

सोने के
हिरनों-सी
सरपट चौकड़ी भरी
किसे पता कहाँ तलक
एकाकी सूना पथ
जाड़े की धूप ।

सरसों-सी
खिली-खिली
अनजाने रस्तों पर
खरहे-सी दौड़ पड़ी
क्वाँर का कुँआरापन
जाड़े की धूप ।

रौशनता
गतिमयता
चटकाती बढ़ी चली
यहाँ-वहाँ सभी कहाँ
पहियों की प्रतिद्वन्द्वी
जाड़े की धूप ।


Rock on
Jit

Samarkadian
December 23rd, 2008, 03:54 PM
Hindi litreature would have been impotent without Ramdhari Singh .None of his contemporary match him in Philosophy,spirtiuality.prowess, mascualinity,soul searching sensibility, zeal for humanity as he does.Since his death no one even gives the vague glimpse of a little greatness which he showered 'aise hi'.Thaty I call him 'Nirala' .Here is one of his creation which is one of my favourite.true to the core of life.ENjoy................:)




~~~~~~Shakti aur Akshma~~~~~~


क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?



क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।



अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।



क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।


तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे ।



उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।


सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।



सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की ।



सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

It could be more than an everlasting gift to Indians that portrait of Veer-Ras Kavi Ramdhai Singh Dhankar is being put in Sansad Bhavan. This is a great reverance to his works and thinking and a great gift to poets n poetry lovers on the occassion of new year.His words are becoming more and more significant nowadays.Cheers!!

Anjalis
December 23rd, 2008, 04:49 PM
हास्य कवि श्री अशोक चक्रधर अपनी बेबाक कविताओं के लिए जाने जाते हैं
उनके द्वारा लिखी गई ऐसी ही एक कविता पढिये और लुत्फ़ उठाइए
इस कवित का शीर्षक है "दया"


भूख में होती है कितनी लाचारी,
ये दिखाने के लिए एक भिखारी,
लॉन की घास खाने लगा,
घर की मालकिन में
दया जगाने लगा।

दया सचमुच जागी
मालकिन आई भागी-भागी-
क्या करते हो भैया ?

भिखारी बोला
भूख लगी है मैया।
अपने आपको
मरने से बचा रहा हूं,
इसलिए घास ही चबा रहा हूं।

मालकिन ने आवाज़ में मिसरी घोली,
और ममतामयी स्वर में बोली—
कुछ भी हो भैया
ये घास मत खाओ,
मेरे साथ अंदर आओ।

दमदमाता ड्रॉइंग रूम
जगमगाती लाबी,
ऐशोआराम को सारे ठाठ नवाबी।
फलों से लदी हुई
खाने की मेज़,
और किचन से आई जब
महक बड़ी तेज,
तो भूख बजाने लगी
पेट में नगाड़े,
लेकिन मालकिन ले आई उसे
घर के पिछवाड़े।

भिखारी भौंचक्का-सा देखता रहा
मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा—
नर्म है, मुलायम है। कच्ची है
इसे खाओ भैया
बाहर की घास से
ये घास अच्छी है !


अशोक चक्रधर

Anjalis
December 23rd, 2008, 05:03 PM
गुलज़ार साहेब का अपना अलग ही अंदाज़ रहा है, वो रिश्तों को बहुत गहरे से देखते हैं, उनकी कविताओं नज़मो में आप ये बात हमेशा महसूस करेंगे


हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते

तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वरना
हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते


समपूरन सिंह ( गुलज़ार)

Anjalis
December 23rd, 2008, 05:37 PM
प्रस्तुत कविता श्री गोपालदास 'नीरज' के काव्य संग्रह " आसावरी" से ली गई है

हर दर्पन तेरा दर्पन है, हर चितवन तेरी चितवन है,
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाता हूँ !

नभ की बिंदिया चन्दावाली, भू की अंगिया फूलोंवाली,
सावन की ऋतु झूलोंवाली, फागुन की ऋतु भूलोंवाली,
कजरारी पलकें शरमीली, निंदियारी अलकें उरझीली,
गीतोंवाली गोरी ऊषा, सुधियोंवाली संध्या काली,
हर चूनर तेरी चूनर है, हर चादर तेरी चादर है,
मैं कोई घूँघट छुऊँ, तुझे ही बेपरदा कर आता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

यह कलियों की आनाकानी, यह अलियों की छीनाछोरी,
यह बादल की बूँदाबाँदी, यह बिजली की चोराचारी,
यह काजल का जादू-टोना, यह पायल का शादी-गौना,
यह कोयल की कानाफूँसी, यह मैना की सीनाज़ोरी,
हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है, हर पीड़ा तेरी पीड़ा है,
मैं कोई खेलूँ खेल, दाँव तेरे ही साथ लगाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

तपसिन कुटियाँ, बैरिन बगियाँ, निर्धन खंडहर, धनवान महल,
शौकीन सड़क, गमग़ीन गली, टेढ़े-मेढ़े गढ़, गेह सरल,
रोते दर, हँसती दीवारें नीची छत, ऊँची मीनारें,
मरघट की बूढ़ी नीरवता, मेलों की क्वाँरी चहल-पहल,
हर देहरी तेरी देहरी है, हर खिड़की तेरी खिड़की है,
मैं किसी भवन को नमन करूँ, तुझको ही शीश झुकाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

पानी का स्वर रिमझिम-रिमझिम, माटी का रव रुनझुन-रुनझुन,
बातून जनम की कुनुनमुनुन, खामोश मरण की गुपुनचुपुन,
नटखट बचपन की चलाचली, लाचार बुढ़ापे की थमथम,
दुख का तीखा-तीखा क्रन्दन, सुख का मीठा-मीठा गुंजन,
हर वाणी तेरी वाणी है, हर वीणा तेरी वीणा है,
मैं कोई छेड़ूँ तान, तुझे ही बस आवाज़ लगाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

काले तन या गोरे तन की, मैले मन या उजले मन की,
चाँदी-सोने या चन्दन की, औगुण-गुण की या निर्गुण की,
पावन हो या कि अपावन हो, भावन हो या कि अभावन हो,
पूरब की हो या पश्चिम की, उत्तर की हो या दक्खिन की,
हर मूरत तेरी मूरत है, हर सूरत तेरी सूरत है,
मैं चाहे जिसकी माँग भरूँ, तेरा ही ब्याह रचाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है!!

Anjalis
December 25th, 2008, 04:30 PM
दूर से दिखता है पेड़
पत्तियाँ नहीं, फल नहीं

पास से दिखती हैं डालें
धूल से नहाई, सँवरी ।

एक स्त्री नहीं दिखती कहीं से
न दूर से, न पास से ।

उसे चिता में
जलाकर देखो
दिखेगी तब भी नहीं ।

स्त्री को देखना उतना आसान नहीं
जितना तारे देखना या
पिंजरा देखना ।

htomar
December 27th, 2008, 12:02 PM
सूरज का गोला
इसके पहले ही कि निकलता
चुपके से बोला, हमसे - तुमसे, इससे - उससे
कितनी चीजों से
चिडियों से पत्तों से
फूलो - फल से, बीजों से-
"मेरे साथ - साथ सब निकलो
घने अंधेरे से
कब जागोगे, अगर न जागे, मेरे टेरे से ?"

आगे बढकर आसमान ने
अपना पट खोला
इसके पहले ही कि निकलता
सूरज का गोला

फिर तो जाने कितनी बातें हुईं
कौन गिन सके इतनी बातें हुईं
पंछी चहके कलियां चटकी
डाल - डाल चमगादड लटकी
गांव - गली में शोर मच गया
जंगल - जंगल मोर नच गया

जितनी फैली खुशियां
उससे किरनें ज्यादा फैलीं
ज्यादा रंग घोला
और उभर कर ऊपर आया
सूरज का गोला

सबने उसकी आगवानी में
अपना पर खोला

Anjalis
December 27th, 2008, 01:25 PM
वे हवा को क़ैद कर
कहते है कि-
मौसम का बयान करो

उस चरित्रहीन मौसम का
जिसको तमीज नही है
हरे और पीले पत्तों में अन्तर की
उसकी बदतमीजी का गवाह है
ये सूखी टहनियों वाला पेड़

ये केवल पैतींस वर्ष में
बूढ़ा हो गया पेड़
जिसके पत्ते अभी
ठंऽऽऽऽऽऽडी हवा में
झूम भी नही पाए थे कि
साजिश शुरू हो गई

इस पेड़ की जड़ो में
उन लोगों का ख़ून है
जो शब्दों को
हवा में विचरने की
आज़ादी चाहते थे

उन लोगों का ख़्वाब था कि
इस पेड़ से निकलने वाली
लोकतन्त्र, स्वतंत्रता, समानता की

टहनियाँ पूरे रेगिस्तान में फैल जाएगी
जिसके पत्तों की हवा से
शब्दों को एक नई ज़िन्दगी मिलेगी

लेकिन उनके उत्तराधिकारी
जंगल का दोहन कर
अपने शोंटों के घरों की
सुरक्षा मे व्यस्त हैं
हवा को क़ैद कर खुश हैं

वे नहीं जानते
हवा कभी क़ैद नही हो सकती
ये हवा प्रचंड आँधी बन कर
उनके शोंटो के घरों को
चूर कर देगी
शोंटो के करोड़ों टुकड़े
ख़ून के कतरों में बदल जाएंगे
ख़ून का हर कतरा
एक-एक शब्द होगा
बयान करेगा मौसम का
एक-एक शब्द
बदला लेगा हवा को
क़ैद करने की साजिश का।


"गोविंद माथुर"

neels
December 27th, 2008, 03:29 PM
जाड़े की धूप - पूर्णिमा वर्मन

अलसाई
इतराई
पेड़ों के पत्तों से
गिर-गिर के बिखरायी
किरनों का गुलदस्ता
जाड़े की धूप ।

सोने के
हिरनों-सी
सरपट चौकड़ी भरी
किसे पता कहाँ तलक
एकाकी सूना पथ
जाड़े की धूप ।

सरसों-सी
खिली-खिली
अनजाने रस्तों पर
खरहे-सी दौड़ पड़ी
क्वाँर का कुँआरापन
जाड़े की धूप ।


Nice One.. gives a warm feeling sply in these sunny days after fogggy mornings.

htomar
December 27th, 2008, 06:13 PM
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

htomar
December 28th, 2008, 12:48 PM
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ

आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ

cooljat
December 28th, 2008, 10:30 PM
Dear All,

Its a humble request to all the contributers of this very beautiful thread, that kindly search the thread with 'Search' feature of the thread, if the very Poem u want to post is already posted or not;..cuz I've been observing that for last sometimes poems are being re-posted again n again!

One more thing, please don't post Urdu Nazms, this thread is solely dedicated to quality 'Hindi Poems' only.

Thanks ! :)


Rock on
Jit

deependra
December 29th, 2008, 02:02 AM
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा अमर देशभक्ति गीत जो बाद में देशभक्तों के लिए महान प्रेरणा बना-

सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।

है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है।

हाथ जिन में हो जुनून कटते नहीं तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है।

हम तो घर से निकले ही थे बांध कर सर पे क़फ़न
जान हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये क़दम
ज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में है।

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़िलाब
होश दुशमन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज
दूर रह पाए जो हम से दम कहां मंज़िल में है।

यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।

htomar
December 29th, 2008, 11:45 AM
छेड़ ऐसी ग़ज़ल इस नए साल में
झूमे मन का कंवल इस नए साल में

कोई ग़मगीन माहौल क्यों हो भला
हर तरफ़ हो चहल इस नए साल में

गिर न पाए कभी है यही आरज़ू
हसरतों का महल इस नए साल में

याद आए सदा कारनामा तेरा
मुश्किलें कर सहल इस नए साल में

नेकियों की तेरी यूँ कमी तो नहीं
हर बदी से निकल इस नए साल में

पहले खुद को बदल कर दिखा हमसफ़र
फिर जग को बदल इस नए साल में

रोज इतना ही काफ़ी है तेरे लिए
मुस्करा पल दो पल इस नए साल में

cooljat
December 30th, 2008, 04:33 PM
As the year 2008 is about to over and again a brand new year is approaching with brand new hopes, dreams, aspirations etc ... just wanna wish all of the JL members a very Happy and Prosperous 2009 with this beautiful poem ! :)


फिर आया है नया साल - मानोशी चैटर्जी

सर्द रातों की एक हवा जागी
और बर्फ़ की चादर ओढ़
सुबह के दरवाज़े पर दस्तक दी उसने
उनींदी आँखों से सुबह की अंगड़ाई में भीगी ज़मीन से ज्यों फूटा
एक नया कोपल
नए जीवन और नई उमंग
नई खुशियों के संग
दफ़ना कर कई काली रातों को
झिलमिलाते किरनों में भीगता
नई आशाओं की छाँव में
नए सपनों का संसार बसाने
बर्फ़ीली रात की अंगड़ाई के साथ
बसंत के आने की उम्मीद लिए
आज सब पीछे छोड़
चला वो अपनाने नए आकाश को
नए सुबह की नई धूप में
नई आशाओं की नई किरन के संग
आज फिर आया है नया साल
पीछे छोड़ जाने को परछाइयाँ .


'नववर्ष के पावन अवसर पर हार्दिक शुभकामनायें !!'


Rock on
Jit

ysjabp
December 31st, 2008, 11:25 AM
http://www.geeta-kavita.com/images/naya_saal/naya_saal.gif

htomar
January 2nd, 2009, 05:57 PM
एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

htomar
January 2nd, 2009, 06:07 PM
मोको कहां ढूढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में

ना तीर्थ मे ना मूर्त में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में

मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में

ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किर्या कर्म में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में

खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालाश में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूँ विश्वास में

htomar
January 3rd, 2009, 12:01 PM
मुझको भी तरकीब सिखा यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोइ तागा टुट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिराह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई

मैनें तो ईक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहे
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा यार जुलाहे

Dharampalkaswan
January 3rd, 2009, 09:49 PM
If there is any poem suitable to retirement party, please share.

minichaudhary
January 4th, 2009, 10:06 PM
नीले गगन पर बैठे कब तक चाँद सितारों से झांकोगे
पर्वत की ऊंची चोटी से कब तक दुनिया को देखोगे
कब तक दुनिया और आदर्शों के ग्रंथों में आराम करोगे
मेरा छापर टपक रहा है बन कर सूरज इसे सूखाओ
खली है आटे का कनस्टर, बन कर गेंहू इसमे आओ
और टूट गया है माँ का चश्मा, बन कर शीशा इसे बनाओ
गुमसुम है आँगन में बच्चे, बन कर गेंद इन्हे बहलाओ
शाम हुई,चाँद उग आया..हवा चलाओ...हाथ बटाओ अल्लाह मियां
मेरे घर भी कभी आओ अल्लाह मियां ....!!!!!!!!!!!!!

htomar
January 5th, 2009, 12:06 PM
लीक तोड़ी तो चल नहीं पाए,
लोग, रस्ते बदल नहीं पाए।

उसने रातों में जुगनुओं की तरह,
भय से उन्मुक्त पल नहीं पाए।

सोच में थी कहीं कमी कोई,
दुःख से बाहर निकल नहीं पाए।

तुम समझते रहे जिन्हें उर्वर,
फूल के बाद, फल नहीं पाए।

हमने सत्ता के साथ मिल कर भी,
हर समस्या के हल नहीं पाए।

एक बच्चे को शक्ल मिल जाती,
भ्रूण साँचे में ढल नहीं पाए।

सूर्य की कोशिशें हुईं नाकाम,
हिम के पर्वत पिघल नहीं पाए।

htomar
January 5th, 2009, 12:07 PM
क्या पता था कि किस्सा बदल जाएगा,
घर के लोगों से रिश्ता बदल जाएगा।

हाथ से मुँह के अंदर पहुँचने के बाद,
एक पल में बताशा बदल जाएगा।

दो दशक बाद अपने ही घर लौट कर,
कुछ न कुछ घर का नक्शा बदल जाएगा।

वो बदलता है अपना नज़रिया अगर,
सोचने का तरीका बदल जाएगा।

चश्मदीदों की निर्भय गवाही के बाद।
खुद-ब-खुद ये मुकदमा बदल जाएगा।

लौट आया जो पिंजरे में थक-हार कर,
अब वो बागी परिंदा बदल जाएगा।

घर के अंदर दिया बालते साथ ही,
घुप अंधेरे का चेहरा बदल जाएगा।

htomar
January 5th, 2009, 12:08 PM
सबकी आँखों में नीर छोड़ गए।
जाने वाले शरीर छोड़ गए।

राह भी याद रख नहीं पाई
क्या... कहाँ राहगीर छोड़ गए?

लग रहे हैं सही निशाने पर,
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए।

एक रुपया दिया था दाता ने,
सौ दुआएँ फकीर छोड़ गए।

उस पे कब्ज़ा है काले नागों का,
दान जो दान-वीर छोड़ गए।

हम विरासत न रख सके कायम,
जो विरासत 'कबीर' छोड़ गए।

cooljat
January 5th, 2009, 02:57 PM
'Hope' is a big word and very Imp too, a nice n easy poem to ponder upon. :)


कोई आशा - रवींद्र स्वप्निल प्रजापति

मैं रात का मुसाफिर हूँ
मेरा सफ़र रात का सफ़र
तू आती है बनती है किरण

गुज़रती है आधी रात
तू सितारे की चमक बन कर
वक्त के चेहरे में नज़र आती है

मेरे सफ़र में उतरती है
जैसे उतरती है धरती पर सुबह की धूप
दिन तू तारे के पास से गुज़ारती है
जैसे ज़िंदगी स्वर्ग जाती है फिर जन्म लेने

संसार का शोर भरा दिन गुज़रता है
तू सूरज की किरणों में छुप कर देखती है
मेरे दुखों को, मेरे सुखों को

मैं सफ़र शुरू करता हूँ
तू फिर आती है फिर बनती है किरण


Rock on
Jit

ysjabp
January 5th, 2009, 06:07 PM
if there is any poem suitable to retirement party, please share.



यह कविता उन सब के प्रति आभार की अभिव्यक्ति है , जिन लोगो ने जीवन की राह पर उनका साथ बड़े ही स्नेह और आदर के साथ दिया है. इस विदाई की घड़ी पर उन सब से दूर होने का गम भी छुपा हुआ है. .


जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं



दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई



पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर



इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर



आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



"शिवमंगल सिंह 'सुमन'

Dharampalkaswan
January 5th, 2009, 07:27 PM
Yogendra Singh Ji thank you very much. It is realy a nice poem.
यह कविता उन सब के प्रति आभार की अभिव्यक्ति है , जिन लोगो ने जीवन की राह पर उनका साथ बड़े ही स्नेह और आदर के साथ दिया है. इस विदाई की घड़ी पर उन सब से दूर होने का गम भी छुपा हुआ है. .


जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं



दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई



पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर



इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर



आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



"शिवमंगल सिंह 'सुमन'

htomar
January 12th, 2009, 12:13 PM
दिल में राज़ दफ़न रखता है
उँगली में धड़कन रखता है।
पूछो मत तासीर जुनूँ की
सिर पर बाँध कफ़न रखता है।
वह मड़ई का राजकुँवर हैं
धारदार उसके सपने भी
देवदारु-सा पौरुष उसका
जलते हैं उससे अपने भी

दिखता भले शिला-सा शीतल
उर में तेज़ अगन रखता है।

वह खंडहर की मूरत, जलता
आँधी में दीप सरीखा
कंगन-कुंकुम बनकर उसने
शमशानों में पलना सीखा

पग में नृत्य प्रलय का, कर में
नूतन विश्व-सृजन रखता है।

वह उठता धरती से जैसे
अंकुर फूटा हो भूतल से
वह गिरता भी तो जैसे
आशीष बरसता गगनांचल से

सूरज-चाँद उसी के, मुट्ठी में
उनचास पवन रखता है।

htomar
January 12th, 2009, 12:15 PM
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है
सचमुच आज काट दी हमने
जंजीरें स्वदेश के तन की
बदल दिया इतिहास बदल दी
चाल समय की चाल पवन की

देख रहा है राम राज्य का
स्वप्न आज साकेत हमारा
खूनी कफन ओढ़ लेती है
लाश मगर दशरथ के प्रण की

मानव तो हो गया आज
आज़ाद दासता बंधन से पर
मज़हब के पोथों से ईश्वर का जीवन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

हम शोणित से सींच देश के
पतझर में बहार ले आए
खाद बना अपने तन की-
हमने नवयुग के फूल खिलाए

डाल डाल में हमने ही तो
अपनी बाहों का बल डाला
पात-पात पर हमने ही तो
श्रम जल के मोती बिखराए

कैद कफस सय्याद सभी से
बुलबुल आज स्वतंत्र हमारी
ऋतुओं के बंधन से लेकिन अभी चमन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

यद्यपि कर निर्माण रहे हम
एक नई नगरी तारों में
सीमित किन्तु हमारी पूजा
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में

यद्यपि कहते आज कि हम सब
एक हमारा एक देश है
गूँज रहा है किन्तु घृणा का
तार बीन की झंकारों में

गंगा जमना के पानी में
घुली मिली ज़िन्दगी हमारी
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

cooljat
January 12th, 2009, 12:49 PM
One fine deep touching melancholic poem that'll for sure penetrate the core of your soul, Classic ! :)


एक सूनी नाव - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।
रोशनी राख-सी
जल में घुली, बह गई,
बन्द अधरों से कथा
सिमटी नदी कह गई,
रेत प्यासी
नयन भर लाई।
भींगते अवसाद से
हवा श्लथ हो गईं
हथेली की रेख काँपी
लहर-सी खो गई
मौन छाया
कहीं उतराई।
स्वर नहीं,
चित्र भी बहकर
गए लग कहीं,
स्याह पड़ते हुए जल में
रात खोयी-सी
उभर आई।
एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।


Rock on
Jit

ysjabp
January 12th, 2009, 03:10 PM
प्रस्तुत कविता श्री रामधारी सिंह जी की तेजस्वी कलम से निकली हुई एक बहुत ही ओजस्वी कविता है.
यह कविता आज के सन्दर्भ में दुश्मनों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए शूरवीरों को ललकार देती है.


किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

cooljat
January 13th, 2009, 12:58 PM
One more gem of a poem from poet Saxena ji, that speaks volumes itself and touches deep inside; soulful and classy indeed ! :)


सब कुछ कह लेने के बाद - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

सब कुछ कह लेने के बाद,
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
यह सारी रचना का क्रम है,
बस इतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना।

यह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है - अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
यहा गति है - हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है - रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
यह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उनको मत वाणी देना।

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह आदी मानव की भाति है भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,

अन्तराल है वह - नया सूर्य उगा देती है,
नए लोक, नई सृष्टि, नए स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है,
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना।


Rock on
Jit

htomar
January 14th, 2009, 11:56 AM
फ्रंटियर न सही, ट्रिब्यून पढ़ें
कलकत्ता नहीं ढ़ाका की बात करें
आर्गेनेइजर और पंजाब केसरी की कतरने लाएँ
मुझे बताएँ
ये चीलें किधर जा रहीं हैं?
समय कोई कुत्ता नहीं
जंजीर में बाँध जहाँ चाहे खींच लें
आप कहते हैं
माओ यह कहता है, वह कहता है
मैं कहता हूँ कि माओ कौन होता है कहने वाला?
शब्द बंधक नहीं हैं
समय खुद बात करता है
पल गूंगे नहीं हैं

आप बैठें रैबल में, या
रेहड़ी से चाय पियें
सच बोलें या झूठ
कोई फरक नहीं पड़ता है
चाहे चुप की लाश भी फलाँग लें

हे हुकूमत!
अपनी पुलीस से पूछ कर बता
सींकचों के भीतर मैं कैद हूँ
या फिर सींकचों के बाहर यह सिपाही?
सच ए॰ आई॰ आर॰ की रखैल नहीं
समय कोई कुत्ता नहीं

Dharampalkaswan
January 15th, 2009, 10:15 PM
धमाकों के तमाचों से आंखें तो खुली होंगी,
गर अब भी न उठा हाथ तो यह बुज़दिली होगी।
चूहे-बिल्ली का यह खेल आखिर कब तक चलेगा,
आज दहली है मुंबई, कल ख़ाक में दिल्ली होगी।
है गफ़लत कि ऊंघती सरकारें जागेंगी धमाकों के शोर से,
सियासतदानों की कुछ देर को महज कुर्सी हिली होगी।
ज़ंग ज़रूरत है अमन की हिफाज़त के लिए वरना,
ख़िज़ा के साये तले सहमी चमन की हर कली होगी।
"सौ सुनार की तो एक लोहार की" याद रहे,
जब हम लेंगे हिसाब तो हर चोट की वसूली होगी

cooljat
January 16th, 2009, 02:50 PM
One more gem of a poem from the treasure of classy poet Saxena ji, This deep touching beautiful poem describes the helpless situations which we all go thro' now n then ... so true !

विवशता - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

कितना चौड़ा पाट नदी का
कितनी भारी शाम
कितने खोये खोये से हम
कितना तट निष्काम

कितनी बहकी बहकी-सी
दूरागत वंशी टेर
कितनी टूटी-टूटी-सी
नभ पर विहंगो की फेर

कितनी सहमी सहमी-सी
क्षिति की सुरमई पिपासा
कितनी सिमटी सिमटी-सी
जल पर तट तरु अभिलाषा

कितनी चुप-चुप गई रोशनी
छिप-छिप आई रात
कितनी सिहर सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात

चार नयन मुस्काये
खोये भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाए।


Rock on
Jit

sumitsehrawat
January 16th, 2009, 03:26 PM
kuch logo ki terah mera bhi copy-paste karne me kya jaa raha hai.... kuch bhi naa...!!

Ye lo... ye hai ek great poet "अल्लामा इक़बाल" ji ki baal kavita.... ek time me inke ancestors Kashmiri Pandit the fir unhone Musalmaan bane ne ki sochi around 200 years back...khair us baat se hume kya matlab... ye kavita sun ke main meri baal avastha me chala gaya tha jaise hi maine ye line padhi..."चमकदार कीडा जो भाया उसे ,तो टोपी में झटपट छुपाया उसे" wow!! maine bhi mere bachpan me aise hi kiya tha ek baar... asal me main bhi saalo baad ek 'नन्हे शिकारी' bana... par aap ye dekhiye ki inka bachpan kaun se baras me raha hoga 1880.... 1980 nahi.... 1880... bhot purane kavi hai ye...sann 1938 me in mahan kavi ka nidhan ho gaya tha... :(!

Aap ki khidmat me pesh hai ek mahan kavi ki mahan kalam se likhi gayi ek mahan kavita... please last two lines pe gaur karna...

here it goes...

सुनाऊं तुम्हे बात एक रात की,
कि वो रात अन्धेरी थी बरसात की,
चमकने से जुगनु के था इक समा,
हवा में उडें जैसे चिनगारियां.
पडी एक बच्चे की उस पर नज़र ,
पकड़ ही लिया एक को दौड़ कर.
चमकदार कीडा जो भाया उसे ,
तो टोपी में झटपट छुपाया उसे.
तो ग़मग़ीन कैदी ने की इल्तेज़ा ,
‘ओ नन्हे शिकारी ,मुझे कर रिहा.
ख़ुदा के लिए छोड़ दे ,छोड़ दे ,
मेरे कैद के जाल को तोड दे .
-”करूंगा न आज़ाद उस वक्त तक ,
कि देखूं न दिन में तेरी मैं चमक .”
-”चमक मेरी दिन में न पाओगे तुम ,
उजाले में वो तो हो जाएगी गुम.
न अल्हडपने से बनो पायमाल -
समझ कर चलो- आदमी की सी चाल”.

-अल्लामा इक़बाल.

neels
January 16th, 2009, 04:39 PM
Nice poems by all... gud going guys. Its alws refreshing to read Hindi Poems. KEEP IT UP !!!

htomar
January 16th, 2009, 06:33 PM
कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!

htomar
January 16th, 2009, 06:34 PM
ओ प्रीत भरे संगीत भरे!

ओ मेरे पहले प्यार !

मुझे तू याद न आया कर

ओ शक्ति भरे अनुरक्ति भरे!

नस नस के पहले ज्वार!

मुझे तू याद न आया कर।




पावस की प्रथम फुहारों से

जिसने मुझको कुछ बोल दिये

मेरे आँसु मुस्कानो की

कीमत पर जिसने तोल दिये

जिसने अहसास दिया मुझको

मै अम्बर तक उठ सकता हूं

जिसने खुदको बाँधा लेकिन

मेरे सब बंधन खोल दिये


ओ अनजाने आकर्षण से!

ओ पावन मधुर समर्पण से!

मेरे गीतों के सार

मुझे तू याद न आया कर।




मूझे पता चला मधुरे तू भी पागल बन रोती है,

जो पीङा मेरे अंतर में तेरे दिल में भी होती है

लेकिन इन बातों से किंचिंत भी अपना धैर्य नही खोना

मेरे मन की सीपी में अब तक तेरे मन का मोती है,




ओ सहज सरल पलकों वाले!

ओ कुंचित घन अलकों वाले!

हँसते गाते स्वीकार

मुझे तू याद न आया कर।

ओ मेरे पहले प्यार

मुझे तू याद न आया कर

htomar
January 16th, 2009, 06:35 PM
कुछ छोटे सपनो के बदले ,

बड़ी नींद का सौदा करने ,

निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे !

वही प्यास के अनगढ़ मोती ,

वही धूप की सुर्ख कहानी ,

वही आंख में घुटकर मरती ,

आंसू की खुद्दार जवानी ,

हर मोहरे की मूक विवशता ,चौसर के खाने क्या जाने

हार जीत तय करती है वे , आज कौन से घर ठहरेंगे .

निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे !


कुछ पलकों में बंद चांदनी ,

कुछ होठों में कैद तराने ,

मंजिल के गुमनाम भरोसे ,

सपनो के लाचार बहाने ,

जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे ,

उन के भी दुर्दम्य इरादे , वीणा के स्वर पर ठहरेंगे .

निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे

cooljat
January 16th, 2009, 10:48 PM
Gud one Harendra ,
keep contributing !! :)

Btw, wud look great if you add poem's title n poet name too.


Rock on
Jit
कुछ छोटे सपनो के बदले ,

बड़ी नींद का सौदा करने ,

निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे !

Dharampalkaswan
January 17th, 2009, 01:05 PM
भारति जय विजय करे!
कनक शस्य कमल धरे!
लंका पदतल - शतदल
गर्जितोर्मि सागर - जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तव कर बाहु अर्थ भरे!
तरु तृण वन लता वसन
अँचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल- कण
धवल धार हार गले!
मुकुट शुभ्र हिम - तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख - शतरव मुखरे!
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Dharampalkaswan
January 17th, 2009, 01:36 PM
भारति जय विजय करे!
कनक शस्य कमल धरे!
लंका पदतल - शतदल
गर्जितोर्मि सागर - जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तव कर बाहु अर्थ भरे!
तरु तृण वन लता वसन
अँचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल- कण
धवल धार हार गले!
मुकुट शुभ्र हिम - तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख - शतरव मुखरे!
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

rakeshsehrawat
January 17th, 2009, 03:57 PM
मैं शिव और तू मीरा बन के विष सदा पीते रहे
इक मौत थी इस प्रेम में हम मगर जीते रहे

दर्द मेरा ज़ख्म तेरा या ज़ख़्म मेरा दर्द तेरा
तू सूई मैं धागा बन के जो मिला सीते रहे

तूने ये आँखें चूम लीं अपने सपने में कभी
लोगों से मैं क्या कहूँ ये अश्क़ क्यों मीठे रहे

भक्ति भी तेरी किसी आशीष से तो कम नही
जिस को ये सर झुका दिया वो देव फिर जीते रहे

कड़वाहट आदत का हिस्सा हो जाती है एक दिन
तू अश्क़ उधर पीता रहा हम भी ज़हर पीते रहे

तुझ को मेरा साया हमे परछाई तेरी मिल गयी
तू उधर जीता रहा हम भी इधर जीते रहे

htomar
January 17th, 2009, 04:00 PM
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आँखों में, सादा सी जो बात मिली

neetu21
January 17th, 2009, 07:29 PM
Good one Harendra ji :)... Thanks for posting!


कुछ छोटे सपनो के बदले ,

बड़ी नींद का सौदा करने ,

निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे !

htomar
January 18th, 2009, 12:30 PM
''बडे पापी हुए जो ताज मांगा ,
किया अन्याय; अपना राज मांगा .
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं ,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?''

''हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे ?
कि दगे धर्म को बल अन्य जन भी ?
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी ?''

''न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था ,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था .''

''किये का जब उपस्थित फल हुआ है ,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है ,
चला है खोजने तू धर्म रण में ,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में .''

''शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू .
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू .
कडा कर वक्ष को, शर मार इसको ,
चढा शायक तुरत संहार इसको .''

हंसा राधेय, ''हां अब देर भी क्या ?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या ?
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों ?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों ?''

''कहा जो आपने, सब कुछ सही है ,
मगर, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है ?
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूं ,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूं .''

''वृथा है पूछना किसने किया क्या ,
जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या !
सुयोधन था खडा कल तक जहां पर ,
न हैं क्या आज पाण्डव ही वहां पर ?''

''उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोडा ?
किये से कौन कुत्सित कर्म छोडा ?
गिनाऊं क्या ? स्वयं सब जानते हैं ,
जगद्गुरु आपको हम मानते है .''

''शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन ,
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन ,
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था .
हरे ! कह दीजिये, वह धर्म ही था .''

''हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे ,
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे ,
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था ,
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था .''

''कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं ,
नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं ?
कुटिल षडयन्त्र से रण से विरत कर ,
महाभट द्रोण को छल से निहत कर ,''

''पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है ,
चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं .
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को ?
उठा मस्तक, गरज कर बोलने को ?''

''वृथा है पूछना, था दोष किसका ?
खुला पहले गरल का कोष किसका ?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है ,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है .''

htomar
January 18th, 2009, 12:35 PM
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है



अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।



दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

Dharampalkaswan
January 18th, 2009, 10:38 PM
दिल में राज़ दफ़न रखता है
उँगली में धड़कन रखता है।
पूछो मत तासीर जुनूँ की
सिर पर बाँध कफ़न रखता है। वह मड़ई का राजकुँवर हैं
धारदार उसके सपने भी
देवदारु-सा पौरुष उसका
जलते हैं उससे अपने भी
दिखता भले शिला-सा शीतल
उर में तेज़ अगन रखता है।
वह खंडहर की मूरत, जलता
आँधी में दीप सरीखा
कंगन-कुंकुम बनकर उसने
शमशानों में पलना सीखा
पग में नृत्य प्रलय का, कर में
नूतन विश्व-सृजन रखता है।
वह उठता धरती से जैसे
अंकुर फूटा हो भूतल से
वह गिरता भी तो जैसे
आशीष बरसता गगनांचल से
सूरज-चाँद उसी के, मुट्ठी में
उनचास पवन रखता है।

- बुद्धिनाथ

cooljat
January 19th, 2009, 11:12 AM
An amazing beautiful inspiring poem to ponder upon, read & inspire yourself ! :)


दूर क्षितिज पर सूरज चमका - गौतम राजरिशी

दूर क्षितिज पर सूरज चमका, सुबह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी, धूप खिलेगी, वक़्त नया है छाने को

प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुँजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडीव पे बाण चढ़ाने को

साहिल पर यूं सहमे-सहमे वक़्त गँवाना क्या यारों
लहरों से टकराना होगा पार समन्दर जाने को

पेड़ों की फुनगी पर आकर बैठ गई जो धूप जरा
आँगन में ठिठकी सर्दी भी आए तो गरमाने को

हुस्नो-इश्क पुरानी बातें, कैसे इनसे शेर सजे
आज गज़ल तो तेवर लाई सोती रूह जगाने को

टेढ़ी भौंहों से तो कोई बात नहीं बनने वाली
मुट्ठी कब तक भीचेंगे हम, हाथ मिले याराने को

वक़्त गुज़रता सिखलाता है, भूल पुरानी बातें सब
साज नया हो, गीत नया हो, छेड़ नए अफ़साने को

अपने हाथों की रेखाएँ कर ले तू अपने वश में
तेरी रूठी किस्मत "गौतम" आए कौन मनाने को ...


Rock on
Jit

htomar
January 19th, 2009, 11:47 AM
इस मुहल्ले में
नहीं मैदान
बच्चा कहाँ खेले?
घर बहुत छोटा
बिना आंगन
बिना छत और बाड़ी,
गली में
माँ की मनाही
तेज़ आटो तेज़ गाड़ी
हाथ में बल्ला
मगर मुँह म्लान
बचा कहाँ खेले?

एक नन्हें दोस्त
के संग
बाप की बैठक निहारे
एक गुंजाइश
बहुत संकरी लगे
सोफ़ा किनारे
बीच में पर
काँच का गुलदान
बच्चा कहाँ खेले?

खेल बिन बच्चा
बहुत निरुपाय
बहुत उदास है
खेल का होना
बिना बच्चा
नहीं कुछ ख़ास है
रुक गई है
बाढ़ इस दौरान
बच्चा कहाँ खेले?

htomar
January 19th, 2009, 11:50 AM
पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।

अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उंगली नम है।
हर बहार को
खींच-खींच कर
लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।

अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।

अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।

ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है

फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।

cooljat
January 21st, 2009, 11:40 AM
One more gem from the treasure of fine poet Sarveshwar Dayal Saxena; indeed a classy deep touching poem that depicts a lot in few words .. :)


तुम्हारे लिए - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

काँच की बन्द खिड़कियों के पीछे
तुम बैठी हो घुटनों में मुँह छिपाए।
क्या हुआ यदि हमारे-तुम्हारे बीच
एक भी शब्द नहीं।

मुझे जो कहना है कह जाऊँगा
यहाँ इसी तरह अदेखा खड़ा हुआ,
मेरा होना मात्र एक गन्ध की तरह
तुम्हारे भीतर-बाहर भर जाएगा।

क्योंकि तुम जब घुटनों से सिर उठाओगी
तब बाहर मेरी आकृति नहीं
यह धुंधलाती शाम
और आँच पर जगी एक हल्की-सी भाप
देख सकोगी
जिसे इस अंधेरे में
तुम्हारे लिए पिघलकर
मैं छोड़ गया होऊँगा।..


Rock on
Jit

htomar
January 21st, 2009, 04:19 PM
अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते

तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते


ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती

मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते


अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते

अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते


हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला

ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते


हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये

ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते


'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते

अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते

htomar
January 21st, 2009, 04:27 PM
हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले



आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले



किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले



दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले



हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले



हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले



अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले

cooljat
January 21st, 2009, 11:22 PM
Bhai Tomar,

Just for information, I already posted this wonderful poem way back.

You can find it here -
http://www.jatland.com/forums/showthread.php?p=174721 post no #341

Could you please try to use *search* option of the thread as it'll eliminate the chance of repetition, I think it'll also be gud for the betterment of this splendid thread. :)

Thanks,

Rock on
Jit



हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले



आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले



किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले



दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले



हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले



हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले



अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले

htomar
January 22nd, 2009, 12:01 PM
Thanks Jit for your kind information.I will use that option in future...
Bhai Tomar,

Just for information, I already posted this wonderful poem way back.

You can find it here -
http://www.jatland.com/forums/showthread.php?p=174721 post no #341

Could you please try to use *search* option of the thread as it'll eliminate the chance of repetition, I think it'll also be gud for the betterment of this splendid thread. :)

Thanks,

Rock on
Jit

htomar
January 22nd, 2009, 03:38 PM
जिसने छूकर मन का सितार,

कर झंकृत अनुपम प्रीत-गीत,

ख़ुद तोड़ दिया हर एक तार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?


बरसा जीवन में ज्योतिधार,

जिसने बिखेर कर विविध रंग,

फिर ढाल दिया घन अंधकार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?


मन को देकर निधियां हज़ार,

फिर छीन लिया जिसने सब कुछ,

कर दिया हीन चिर निराधार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?


जिसने पहनाकर प्रेमहार,

बैठा मन के सिंहासन पर,

फिर स्वयं दिया सहसा उतार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

Dharampalkaswan
January 26th, 2009, 10:12 PM
बस अंत करो इस सर्दी का, बसंत को अब आना है।
ऊनी वस्त्रों के अंबार को, लंबी छुट्टियों पर जाना है।
बस अंत करो छोटी रातों का, मेरे सूरज को अब आना है।
नन्हीं कलियों ने है खिलना, और भँवरों को भी गाना है।
बस अंत करो इस आलस का, अब खेलना और खिलाना है।
खिड़की दरवाज़े खोल सभी, स्वर्णिम किरणों को आना है।
बस अंत करो इस सन्नाटे का, चिड़ियों को अब चहचहाना है।
वो रात की रानी महकेगी, खेतों को भी जुत जाना है।
बस अंत करो इस अनभिज्ञता का, ऋतुएँ तो एक बहाना है।
कितने बसंत अब बीत गए, जीवन का कहाँ ठिकाना है?
बस अंत करो प्रतीक्षाओं का, बसंत को तो हर वर्ष आना है।
सुखी वही, समृद्ध वही, जिसने यह सच, सच में जाना है।
बस अंत करो, अब अंत करो, हर ऋतु का एक परवाना है।
तुम कर्म करो, बस कर्म करो, बसंत का रूप फिर, जानोगे और सुहाना है।
चलना है, मुझे चलते जाना है,
क्योंकि...यह तय है, बसंत को तो हर बार आना है।
बसंत ने तो हर बार आना है।
........अमरपाल सिंह

htomar
January 27th, 2009, 03:31 PM
जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|


अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |

sunitahooda
January 27th, 2009, 03:36 PM
Harender Ji....ati sunder:)
जिसने छूकर मन का सितार,

कर झंकृत अनुपम प्रीत-गीत,

ख़ुद तोड़ दिया हर एक तार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?


बरसा जीवन में ज्योतिधार,

जिसने बिखेर कर विविध रंग,

फिर ढाल दिया घन अंधकार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?


मन को देकर निधियां हज़ार,

फिर छीन लिया जिसने सब कुछ,

कर दिया हीन चिर निराधार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?


जिसने पहनाकर प्रेमहार,

बैठा मन के सिंहासन पर,

फिर स्वयं दिया सहसा उतार,

मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

htomar
January 28th, 2009, 04:18 PM
बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,


वहीं पाना चाहता हूँ
मैं अपने सवालों का जवाब
जहाँ लोग वर्षों से चुप हैं


चुप हैं कि
उन्हें बोलने नहीं दिया गया
चुप हैं कि
क्या होगा बोल कर
चुप हैं कि
वे चुप्पीवादी हैं,


मैं उन्हीं आँखों में
अपने को खोजता हूँ
जिनमें कोई भी आकृति
नहीं उभरती


मैं उन्हीं आवाज़ों में
चाहता हूँ अपना नाम
जिनमें नहीं रखता मायने
नामों का होना न होना,


मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।


बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,

sumitsehrawat
January 28th, 2009, 10:41 PM
Very nice lines...!!


क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|
जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|

htomar
February 1st, 2009, 02:38 PM
न तो मैं दीवाना हूं,
न तो मैं अफ़साना हूं,
मैं हूं एक आम इंसान,
इसलिए मैं हँसना चाहता हूं।,

जैसे चाट-पकौड़ी खा,
लोग करते हैं जायका परिवर्तन,
वैसे ही मन हँसने को करता है,
मगर हँसी का 'खोमचा',
नहीं लगता चौराहे पर,
बात अन्तर्मन की है,
कई दिनों से मन-,
कर रहा था हँसने को,
किन्तु-,
हँसी आती है मगर,
कितनी सतही? कितनी क्षणिक?,
अन्तस की हर कली के साथ,
मन तरस गया है हँसने को,
यूं तो हँसने के लिए,
नहीं कमी हालातों की,
किन्तु उन पर हँसना,
मुसीबत को दावत देना है।,

हँसने के लिए एक क्षेत्र-,
सुरक्षित है-,
आम आदमी की बेचारगी पर,
हँस सकते हैं,
किन्तु देखकर उसे,
हँसने की जगह रोना आता है।,

सोच समझ कर मैंने लिया निर्णय,
क्यों न हँसने की रिहर्सल की जाए?,
किन्तु प्रश्न था जगह का,
जहाँ कोई रिस्क न हो?,
आखिर में मैंने कहा,
अपने सहकर्मी से,
मैं आफिस के कमरे में,
हँसना चाहता हूं।,

सुनते ही वह बरस पड़ा,
आफिस में हँसना चाहते हो?,
क्या इसके लिए परमीशन ली है?,
तुरन्त मैंने परमीशन की अर्जी,
आगे भिजवा दी।,

कार्यालय में हंगामा हो गाया,
उच्चाधिकारी खफ़ा हो गया,
वे दौड़े-दौड़े आए और फ़रमाए,
अचानक आप को क्या हो गया है?,
आप क्यों हँसना चाहते हैं?,
मुसीबत में क्यों पड़ना चाहते हैं?,
और हमें भी मुसीबत में क्यों डालना चाहते हैं?,
मैंने सहजता से कहा-,
मुसीबत की क्या बात है?,
मैं तो सिर्फ हँसना चाहता हूं,
वे बोले यही तो मुसीबत है,
आप अधिकारी होकर हँसना चाहते हैं,,
यदि हँसेंगे आप-,
अन्य कर्मचारियों पर क्या पड़ेगा प्रभाव?,
सारा डेकोरम और डिसिप्लिन,
हो जायेगा बर्बाद ।,
मैंने कहा कुछ भी हो,
मैं हँसूंगा जरूर।,

वे बोले ठीक है, हँसने का फार्म,
दीजिए भर-,
और करिए प्रतीक्षा कुछ दिनों तक,
फार्म मंगवाया,गौर से पढ़ा,
नाम ,पद,श्रेणी,उचित कारण के साथ,,
हँसने का दिन ,समय, अवधि,
और लाभ बताना था।,

अंतिम कालम पर मैं ठिठक गया,
पिछली बार हँसने की तिथि भरनी थी,
मुझे याद नहीं ,
मैं पिछली बार कब हँसा था?,
शायद तब!,
जब मां ने गोद में ले,
दूध पिलाया था,या,
पिता ने उंगली पकड़ -,
चलना सिखाया था,
या प्रथम बार पाठ्शाला में जा,
नन्हे-नन्हे साथियों के साथ बैठ,
शायद ! अन्तस की हर कली के साथ-,
तब ही हँसा था।,
पश्चात ईर्ष्या,द्वेष,तनाव,
अंधी दौड़ के सिवा,कुछ याद नहीं,
पिछली बार हँसने की सही तिथि,
मुझे याद नहीं,
अत: मुझे हँसने की अनुमति,
मिल न सकी।,
अब आप ही बताएं,
मैं क्या करूं??क्योंकि-,
मैं हँसना चाहता हूं।,
मैं हँसना चाहता हूं॥,

sanjeev_balyan
February 1st, 2009, 02:54 PM
न तो मैं दीवाना हूं,
---------
तब ही हँसा था।,
पश्चात ईर्ष्या,द्वेष,तनाव,
अंधी दौड़ के सिवा,कुछ याद नहीं,
पिछली बार हँसने की सही तिथि,
मुझे याद नहीं,
,

nice poem tomar, thanx

cooljat
February 2nd, 2009, 03:18 PM
A fine precious gem from the treasure of Great poet Shiv Mangal Singh 'Suman' .. this deep touching describes the feeling of melancholy n loneliness which u often feel in the dusk period; dusky evening period often creates gloomy ambiance in which u feel lonesome n miss some of ur dear ones ..

सूनी साँझ - शिवमंगल सिंह 'सुमन'

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

पेड़ खड़े फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली! साथ नहीं हो तुम
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

कुलबुल कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह चहचह मीड़-मीड़ में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

जागी-जागी सोई-सोई
पास पड़ी है खोई-खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा, जैसी मुझपर -
बीती झेली, साथ नहीं हो तुम
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँखमिचौनी
खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।


Rock on
Jit

htomar
February 4th, 2009, 06:48 PM
मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥



तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥



मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥



बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥



बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥



मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥



बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥



तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥



तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥



क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।
तू अंत में हंसा था, महमुद के रुदन में॥



प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥



आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में।



कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥



तू रूप कै किरन में सौंदर्य है सुमन में।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥



तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥



हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥



कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥



दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥

smartjaatwe
February 6th, 2009, 08:14 PM
[ छूट चुकी है रेल]


जा चुके है सब और वही खामोशी छायी है,
पसरा है हर ओर सन्नाटा, तन्हाई मुस्कुराई है,
छूट चुकी है रेल ,
चंद लम्हों की तो बात थी,
क्या रौनक थी यहॉं,
जैसे सजी कोई महफिल खास थी,
अजनबी थे चेहरे सारे,
फिर भी उनसे मुलाक़ात थी,
भेजी थी किसी ने अपनाइयत,
सलाम मे वो क्या बात थी,
एक पल थे आप जैसे क़ौसर,
अब बची अकेली रात थी,
चलो अब लौट चलें यहॉं से,
छूट चुकी है रेल
ये अब गुज़री बात थी,
उङते काग़ज़, करते बयान्*,
इनकी भी किसी से
दो पल पहले मुलाक़ात थी,
बढ़ चले क़दम,
कनारे उन पटरियों
कहानी जिनके रोज़ ये साथ थी,
फिर आएगी दूजी रेल,
फिर चीरेगी ये सन्नाटा
जैसे जिन्दगी से फिर मुलाक़ात थी,
फिर लौटेंगे और,
भारी क़दमों से,जैसे
कोई गहरी सी बात थी,
छूट चुकी है रेल,
अब सिर्फ काली स्याहा रात थी |

cooljat
February 6th, 2009, 09:29 PM
Bhai, gud one but its already posted by me some times ago

http://www.jatland.com/forums/showpost.php?p=187286&postcount=450

keep contributing,





[ छूट चुकी है रेल]


जा चुके है सब और वही खामोशी छायी है,
पसरा है हर ओर सन्नाटा, तन्हाई मुस्कुराई है,
छूट चुकी है रेल ,
चंद लम्हों की तो बात थी,
क्या रौनक थी यहॉं,
जैसे सजी कोई महफिल खास थी,
अजनबी थे चेहरे सारे,
फिर भी उनसे मुलाक़ात थी,
भेजी थी किसी ने अपनाइयत,
सलाम मे वो क्या बात थी,
एक पल थे आप जैसे क़ौसर,
अब बची अकेली रात थी,
चलो अब लौट चलें यहॉं से,
छूट चुकी है रेल
ये अब गुज़री बात थी,
उङते काग़ज़, करते बयान्*,
इनकी भी किसी से
दो पल पहले मुलाक़ात थी,
बढ़ चले क़दम,
कनारे उन पटरियों
कहानी जिनके रोज़ ये साथ थी,
फिर आएगी दूजी रेल,
फिर चीरेगी ये सन्नाटा
जैसे जिन्दगी से फिर मुलाक़ात थी,
फिर लौटेंगे और,
भारी क़दमों से,जैसे
कोई गहरी सी बात थी,
छूट चुकी है रेल,
अब सिर्फ काली स्याहा रात थी |

ysjabp
February 7th, 2009, 10:18 AM
मेरे सपने मुझे सोने नहीं देते
कभी रात की चादर पर पड़ी
सलवटों से चुभते हैं
तो कभी दिन के आसमां से
जलती धूप से बरसते हैं

मैं अकसर रातों में उठकर
उन सलवटों को हटाता हूँ
और भरी दोपहर
काला चश्मा पहनकर निकलता हूँ।
यदि रात एक करवट में निकाल भी लूँ
तो पीठ का दर्द बनकर दिनभर सताते हैं
चश्मे से आँखें तो बचा ली
लेकिन बालों में चाँदी से चमचमाते हैं।

एक छोटी कैंची से
बालों में उग आए सपनों को काटता हूँ
और आइने के सामने फिर जवाँ हो जाता हूँ
पीठ का दर्द तो किसी को दिखाई नहीं देता
सो अकेले ही सहन कर जाता हूँ

मेरे सपने जो मुझे सोने नहीं देते
नींद की गोलियों से उन्हें भगाता हूँ
वो जब तक चले नहीं जाते
तब तक सोने का स्वाँग रचाता हूँ

वो जाते भी कहाँ हैं
कभी दराज़ में पुराने ख़त की तरह फड़फड़ाते हैं
तो कभी तकिए को गीला कर जाते हैं
और जब दुनिया से दूर
खुद को तन्हा पाता हूँ
तो मेरे सपने जो मुझे सोने नहीं देते
उन्हें अपने सिरहाने रखकर सो जाता हूँ।


"शेफाली नायिका"

smartjaatwe
February 7th, 2009, 07:55 PM
तिनके की उम्मीद में आप करते हैं टेलिफ़ोन
तो सब बाथरूम में होते हैं

आप जेब में सिक्के टटोलते हैं
राज्य परिवहन की बस से बहुत दूर
दोपहर में जाते हैं उनसे मिलने
वे सो रहे होते हैं

बीस साल पुराना बचपन का दोस्त नौकरी से बरख़ास्त होकर
अपने पिता का इलाज कराने आपके घर आ जाता है

कविताएँ जीवन स्तर की तरह ही
निकृष्ट हो जाती हैं
(उदाहरणार्थ यही कविता)

दुर्दिनों में कहीं नहीं मिलता उधार
फिर भी हम खोजते-फिरते हैं प्यार

Dharampalkaswan
February 10th, 2009, 10:26 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/common/joint_right.gifhttp://www.geeta-kavita.com/images/common/top_table_edge_01_bgd.gifhttp://www.geeta-kavita.com/images/common/home_page_lord_krishna.gifhttp://www.geeta-kavita.com/images/common/home_shalok.gif (http://www.geeta-kavita.com/audio/geeta_kavya_madhuri.mp3)

ysjabp
February 13th, 2009, 12:03 PM
जब भी रंग बदलता पानी.
खुद को खुद से छलता पानी.

पृथ्वी का अनमोल खज़ाना,
उगती फसलें-चलता पानी.

कहीं त्रासदी-कहीं ज़िन्दगी,
मीलों-मील उछलता पानी.

दुनिया भर ऐसे पसमंज़र,
भूखे पेट-उबलता पानी.

उस की मर्जी दे या ना दे,
आंखें और छलकता पानी.



"योगेन्द्र मौदगिल"

ysjabp
February 13th, 2009, 12:11 PM
अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।

ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।

चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।

मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए।

पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।




डॉ कुँअर 'बेचैन'

cooljat
February 16th, 2009, 11:59 AM
Finally, after long search I found the remaining part of this beautiful poem .. :)

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
एक दोस्त है कच्चा पक्का सा,
एक झूठ है आधा सच्चा सा
जज़बात के मन पे इक परदा सा,
बस एक बहाना अच्छा सा
जीवन का ऐसा साथी है,
जो दूर ना होकर भी पास नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं ...

Remaining part ...

हवा का एक सुहाना झोंका है ,
कभी नाजुक तो कभी तूफानों सा
शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले,
कभी अपना तो कभी बेगानों सा
जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र,
जो समंदर है, पर दिल को प्यास नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
एक साथी जो अनकही बातें कुछ कह जाता है,
यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है
यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं,
पर कभी - कभी आंखों में आंसू बन के बह जाता है
यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है,
पर इन आंखों को उसकी तलाश नही
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं ! ..


Rock on
Jit




Few wonderful lines sent by gud friend of mine lately..deep touchin' indeed. :)

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
एक दोस्त है कच्चा पक्का सा
एक झूठ है आधा सच्चा सा
जज़बात के मन पे इक परदा सा
बस एक बहाना अच्छा सा
जीवन का ऐसा साथी है
जो दूर ना होकर भी पास नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं !..

cooljat
February 19th, 2009, 12:02 PM
A very nice deep touching composition by poet Durgesh Gupt, a bit melancholic but describes restlessness of soul pretty well ! :)

मेरा जीवन बंजारा है - दुर्गेश गुप्त

मेरा जीवन बंजारा है
इक टूटा तारा है
सत्य मार्ग पर चलते-चलते
बेचारा हारा है।

बहुत किया विश्वास खुशी पर
लेकिन गम की जीत हुई है।
गुलशन फूलों लदा मिला था
पर काँटों से प्रीत हुई है।

कैसे समझाऊँ इस मन को
ये तो आवारा है।

सपनों के बादल से टुकड़े
आँसू बन कर बरस गए।
बैरागी मन के आँगन में
प्यासे अरमाँ तरस गए।

कैसे बुझाऊँ प्यास में अपनी
सारा जल खारा है।..


Rock on
Jit

ysjabp
February 21st, 2009, 02:03 PM
यह रचना उस व्यक्ति की मनोस्थिति को दर्शाती है जो अपनी मां और पिता जी के देहान्त के दो वर्ष बाद अपने गांव उस घर में लौटा है जहां वो अपने परिवार के साथ अक्सर आता जाता था जब मां और पिता जी जीवित थे. बंद पडे घर की दशा देख कर उसके मन में उठते भावों को शब्दों में बांधने का प्रयास है..

जहां से
झांका करता था
बचपन मेरा
वो अटारी
बंद पडी है

छत और आंगन
अटे हुये हैं
काई और सूखे पत्तों से
हर दम
खिलने वाली क्यारी
बदरंग पडी है

मां जी के हाथों नित
पुतने वाला चुल्हा
फ़टा-फ़टा
बदहाल पडा है

ताक पर धरी हांडियां
प्रतीक्षारत
आंच आलन औटन के
खाली घडा औंधे मुंह
एक तरफ़ पडा है

आटे दालो के डिब्बों में
घुन-पंखूं की
भरमार हो गई
पूरे घर में
चूहे मकडों की
सरकार हो गई

जहां जमाते बाबू जी
पूजा पाठ का आसन
वो तख्त
दिवार के साथ
खडा हुआ है

नहीं कोई स्वर गुंजता
मौन का आवरण
चढा हुआ है

कील पर टंगी
बाबूजी की टोपी में
छेद कर दिये कीटों ने
और बैठक की खिडकियां
सनी पडी पक्षी बीठों से

चार दिवारी की बाड से
लोग ले गये
ख्पची और खूंटे
कितना कुछ यहां

बदल गया है
देख कर दिल
दहल गया है
मन के तार हैं टूटे

छोटा सा घर
थोडा सा सामान
मगर संसार लगे

जिधर घुमाऊं
नजर मैं अपनी
यादों के अंबार लगे

यहां कोई नहीं अब
बाट जोहता
मन का मर्म
कौन टोहता

सब कहते
ईंटों का घर है
कैसे समझाऊं
जो मेरे भीतर है


'मोहिंदर कुमार'

cooljat
February 27th, 2009, 09:40 AM
One fine creation by great poet Poornima ji, her poems are so soothing and touching that sometimes it makes life feel lil easy n light ! :)


खत्म होता नहीं इंतज़ार - पूर्णिमा वर्मन

अब भी भर आती आँखें
यदा कदा
प्रेरणा के पंख
बन जाते सहारा
अब भी यादों की बाहें
सँभाल लेती लड़खड़ाते ही
बात होती नहीं
लेकिन
कोरे कागज़ पर उभर आते
हीरक शब्द
अब भी सन्नाटे में गूँजते साम
दिखा देता दिशा
विश्वास का ध्रुवतारा
अँधेरा अब भी बदलता सुबह में
समय बीतता है
पर
खत्म होता नहीं इंतज़ार
अब भी बाकी है दोस्ती पर भरोसा ! ..


Rock on
Jit

sachinb
February 27th, 2009, 10:04 AM
Mere priya kavi BornSeptember 23, 1908(1908-09-23)
Simariya village, Begusarai district mein hua

DiedApril 24, 1974 (aged 65)
In Begusarai districtOccupation,poet, essayist, academician,
Notable award(s)1959:Sahitya Akademi Award,,
1959: Padma Bhushan,,
1972: Bharatiya Jnanpith,,

mere ko ye panktiyaan ati sundar lagi,,,

"Re rok yudhhishthir ko na yahan jane de unko swarg dhir,
Par phira hamen gandeev gada lauta de arjun bheem veer"

neels
February 28th, 2009, 10:39 PM
अनुभूति / रमा द्विवेदी

हर अनुभूति परिभाषा के पथ पर बढे-
यह आवश्यक नहीं,
शब्दों की भी होती है एक सीमा,
कभी-कभी साथ वे देते नहीं
इसलिए बार -बार मिलने व कहने पर
यही लगता है जो कहना था, कहां कहा?
'प्रेम' ऐसी ही इक 'अनुभूति' है,
वह मोहताज नहीं रिश्तों की।

अनाम प्रेम आगे ही आगे बढता है,
किन्तु रिश्ते हर पल मांगते हैं-,
अपना मूल्य?
मूल्य न मिलने पर
सिसकते,चटकते,टूटते,बिखरते हैं
फिर भी रिश्तों की जकडन को,
लोग प्रेम कहते हैं।

कैसी है विडम्बना जीवन की?
सच्चे प्रेम का मूल्य,
नहीं समझ पाता कोई?
फिर भी वह करता है प्रेम जीवन भर,
सिर्फ इसलिए कि-
प्रेम उसका ईमान है,इन्सानियत है,
पूजा है॥

vijay
March 1st, 2009, 02:30 AM
अनुभूति / रमा द्विवेदी

हर अनुभूति परिभाषा के पथ पर बढे-
यह आवश्यक नहीं,
शब्दों की भी होती है एक सीमा,
कभी-कभी साथ वे देते नहीं
इसलिए बार -बार मिलने व कहने पर
यही लगता है जो कहना था, कहां कहा?
'प्रेम' ऐसी ही इक 'अनुभूति' है,
वह मोहताज नहीं रिश्तों की।

अनाम प्रेम आगे ही आगे बढता है,
किन्तु रिश्ते हर पल मांगते हैं-,
अपना मूल्य?
मूल्य न मिलने पर
सिसकते,चटकते,टूटते,बिखरते हैं
फिर भी रिश्तों की जकडन को,
लोग प्रेम कहते हैं।

कैसी है विडम्बना जीवन की?
सच्चे प्रेम का मूल्य,
नहीं समझ पाता कोई?
फिर भी वह करता है प्रेम जीवन भर,
सिर्फ इसलिए कि-
प्रेम उसका ईमान है,इन्सानियत है,
पूजा है॥




बहुत सुन्दर कविता है ! :)

कुछ लिखने का दिल किया इसिलिये लिख रहा हूँ :



शब्दों की सीमाओं में प्रेम नहीं बंधता
शब्द तो होते हैं
सिर्फ़ कहने भर के लिये ।
कभी कहने को सब कुछ कह देते हैं
सुनने वाले को सुनाई नहीं देता ।
कभी हम कुछ भी नहीं कह्ते
और वही मौन सब कुछ कह जाता है ।
विडम्बनाओं सा जीवन है
आकांक्षाओं सी है अनूभुति ।

रिश्ते अवश्य समय मांगते है
परन्तु अनूभुति नहीं ।
अनूभुति बदल जाती है समय के साथ
लेकिन रिश्ते नहीं बदलते॥
क्योंकि रिश्ते जीवन की सच्चाई हैं
ओर अनूभुति सपनों का संसार ।

प्रेम जितना ही सरल है
उतना ही जटिल है मनुष्य ।
प्रेम का मूल्य कैसे समझे कोई ?
सामने आ ही जाता है कोई विकार
प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ?
जब भौतिक है सारा संसार ।

अध्यातमिक प्रेम अधूरा ही है
जब तक न हो यथार्थ का समावेश ।
छलिया सा जीवन जी कर
नहीं कर सकते प्रेम की आस ।
सच्चाई यही है कि
हर कोई यह चाहता है
प्रेम सब लोग हमेंशा सच्चा ही करें
परन्तु मेरा हिस्सा रहा उधार ।


.

neels
March 2nd, 2009, 03:16 PM
बहुत सुन्दर कविता है ! :)

कुछ लिखने का दिल किया इसिलिये लिख रहा हूँ :

शब्दों की सीमाओं में प्रेम नहीं बंधता
शब्द तो होते हैं
सिर्फ़ कहने भर के लिये ।
कभी कहने को सब कुछ कह देते हैं
सुनने वाले को सुनाई नहीं देता ।
कभी हम कुछ भी नहीं कह्ते
और वही मौन सब कुछ कह जाता है ।
विडम्बनाओं सा जीवन है
आकांक्षाओं सी है अनूभुति ।

रिश्ते अवश्य समय मांगते है
परन्तु अनूभुति नहीं ।
अनूभुति बदल जाती है समय के साथ
लेकिन रिश्ते नहीं बदलते॥
क्योंकि रिश्ते जीवन की सच्चाई हैं
ओर अनूभुति सपनों का संसार ।

प्रेम जितना ही सरल है
उतना ही जटिल है मनुष्य ।
प्रेम का मूल्य कैसे समझे कोई ?
सामने आ ही जाता है कोई विकार
प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ?
जब भौतिक है सारा संसार ।

अध्यातमिक प्रेम अधूरा ही है
जब तक न हो यथार्थ का समावेश ।
छलिया सा जीवन जी कर
नहीं कर सकते प्रेम की आस ।
सच्चाई यही है कि
हर कोई यह चाहता है
प्रेम सब लोग हमेंशा सच्चा ही करें
परन्तु मेरा हिस्सा रहा उधार ।


.



WAH WAH Shayar ji,, aap ko kavitaen bhi khoob kerne lage.. good attempt and b'ful kavita.

vijay
March 2nd, 2009, 03:27 PM
wah wah shayar ji,, aap ko kavitaen bhi khoob kerne lage.. Good attempt and b'ful kavita.


धन्यवाद नीलम,
आजकल कविता लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ । उम्मीद करता हूँ कि पढ्ने वालों को पसन्द आयेगी ।

cooljat
March 6th, 2009, 06:36 PM
Life is indeed one of the fav topic of Philosopher and Poets as well; Poornima Ji tried to touch its deep, mysterious n unpredictable nature thro' this beautiful poem. :)

ज़िदगी - पूर्णिमा वर्मन

चाहे बाँचो, चाहे पकड़ो, चाहे भीगो
एक आवाज़ है बस दिल से सुनी जाती है
कभी पन्ना, कभी खुशबू, कभी बादल
ज़िंदगी वक्त-सी टुकड़ों में उड़ी जाती है।

कभी अहसास-सी
बहती है नसों में हो कर
कभी उत्साह-सी
उड़ती है हर एक चेहरे पर
कभी बिल्ली की तरह
दुबकती है गोदी में
कभी तितली की तरह
हर ओर उड़ा करती है

चाहे गा लो, चाहे रंग लो, चाहे बालो
हर एक साँस में अनुरोध किए जाती है
कभी कविता, कभी चित्रक, कभी दीपक
आस की शक्ल में सपनों को सिये जाती है

कभी खिलती है
फूलों की तरह क्यारी में
कभी पत्तों की तरह
यों ही झरा करती है
कभी पत्थर की तरह
लगती है एक ठोकर-सी
कभी साये की तरह
साथ चला करती है

कभी सूरज, कभी बारिश, कभी सर्दी
आसमानों में कई रंग भरा करती है
कभी ये फूल, कभी पत्ता, कभी पत्थर
हर किसी रूप में अपनी-सी लगा करती है |


Rock on
Jit

cooljat
March 10th, 2009, 05:53 PM
One fine creation with a hint of solitude n melancholy by Anurag Ranjan, indeed a class apart that penetrates deep inside your soul ! ..


ढूंढ़ता तन्हाइयों को इक खुले आकाश में - अनुराग रंजन

ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|
देखता परछाइओं को,
मौत की तलाश में|

आसमां भी रो पड़ा,
ये सोच तनहा है सफ़र|
एक टक वो देखता,
आए कहीं कोई नज़र|
देरों तलक निहारता,
शायद किसी की आस में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

चाँद-तारे सब के सब,
जानते हर बात को|
देखा है सबने साथ ही,
आसमां की बरसात को|
भींगतें हैं वो सभी,
रह आसमां के पास में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

चातक को है क्या पड़ा?
स्वाति की इक बूंद का|
चकोर भी है बावड़ा,
चाँद की इक धुन्द का|
जाने क्यूँ परेशां हैं सब?
गुमनाम-से इक प्यास में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

बुझती चिराग अब,
जोर है तूफान का|
टूटती दिवार अब,
हर पक्के मकान|
पत्थरों में देख करुणा,
जाने जीतें हैं क्यूँ विश्वास में?
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

ऐ दिल तूँ सुन यूँ ना मचल,
ये असर है उनके साथ का|
वादा किया करतें हैं वो,
क्या भरोसा बात का?
तूँ गुम है इतना क्यूँ भला?
दो पल के एहसास में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में | ...


Rock on
Jit

neels
March 10th, 2009, 11:31 PM
Nice poem Jit with few real life lines

Rmandaura
March 12th, 2009, 10:24 PM
Dinesh Raghuvanshi is a renowned Jat international poet. This is one of his good poems for the younger lot.
It is named ‘Ek Ladki’
for more of his poems see following link
http://dineshraghuvanshi.com/

इक लड़की भोली-भाली सी
महके फूलों की डोली – सी
निश्छल, निर्मल, चंचल धारा
जैसे तोड़ के चले किनारा
नेह के अमरित कलश से मेरी
जीवन बगिया को सींचे
जिसके पीछे दुनिया पागल
वो पागल मेरे पीछे…

वो दुनिया का गणित न जाने
सबकी बातें सच्ची माने
जागी आँखों में कुछ सपने
उसको सब लगते हैं अपने
झील-सी गहरी आँखें सुहानी
जैसे कहें अनकही कहानी
मौन निमन्त्रण मुझको जिसका
कोई अर्थ स्वयं गढ़ लूँ
उसकी चाहत बस मैं उसकी
आँखों में चेहरा पढ़ लूँ
उससे कुछ कहना चाहूँ तो
हँसकर अँखियों को मींचे
जिसके पीछे दुनिया पागल
वो पागल मेरे पीछे…

उसका जीवन खुली हथेली
वो क्या जाने प्यार पहेली
वेद ॠचाओं-सी वो पावन
उससे महके प्रीत का चंदन
सारा खालीपन भर देगी
जीवन वृंदावन कर देगी
देह-सृष्टि ऐसी कि जैसे
लाखों वंदनवार सजे
उसकी मादक छुवन से पल में
मन – वीणा के तार बजे
इक अनदेखे-से बंधन में
मुझको अपनी ओर खींचे,
जिसके पीछे दुनिया पागल
वो पागल मेरे पीछे…

आँचल में खुश्बू भर लाई
उससे महक उठी अँगनाई
मौसम की पहली बारिश वो
अब मेरी भी हर ख्वाहिश वो
डरता हूँ कुछ कर ना जाये
ना बोलूँ तो मर ना जाये
सोच रहा हूँ आखिर कैसे
अब मैं उसको समझाऊँ
उसको समझाते –समझाते
खुद पागल ना हो जाऊँ
मन करता है रख दूँ दिल को
उसकी पलकों के नीचे
जिसके पीछे दुनिया पागल
वो पागल मेरे पीछे…

You can listen to the above poem in Dinesh ji's voice in the link given above under 'Audio Video' section.

neels
March 13th, 2009, 10:12 PM
रिश्ते भी मुरझाते हैं /रमा द्विवेदी

पल-पल रिश्ते भी मुरझाते हैं
उम्र बढते-बढते वे घटते जाते हैं।
मानव कुछ और की चाह बढाते हैं,
इसलिए वे कहीं और भटक जातेहैं॥


रिश्ते का जो पक्ष कमजोर है,
समय उसको ही देता झकझोर है।
अतीत की गवाही नहीं चलती वहां,
मानव सुख की पूंजी का जमाखोर है॥


मानव एक रिश्ते को तोड,दूसरे को अपनाता है,
अब तक के सारे कसमें-वादे भूल जाता है।
मानव से अधिक स्वार्थी न कोई होगा जहां में,
अपनी तनिक खुशी के लिए वो दूसरों के घर जलाता है॥

neels
March 13th, 2009, 10:15 PM
इक लड़की भोली-भाली सी
महके फूलों की डोली – सी
निश्छल, निर्मल, चंचल धारा
जैसे तोड़ के चले किनारा
नेह के अमरित कलश से मेरी
जीवन बगिया को सींचे
जिसके पीछे दुनिया पागल
वो पागल मेरे पीछे…

.

Very meaningful poem..... And I liked your Signature Sir. Its all about thinking....positive or negative,,,,that decides the course of life.

htomar
March 24th, 2009, 10:50 AM
जीवन कभी सूना न हो

कुछ मैं कहूँ, कुछ तुम कहो।


तुमने मुझे अपना लिया

यह तो बड़ा अच्छा किया

जिस सत्य से मैं दूर था

वह पास तुमने ला दिया


अब ज़िन्दगी की धार में

कुछ मैं बहूँ, कुछ तुम बहो।


जिसका हृदय सुन्दर नहीं

मेरे लिए पत्थर वही।

मुझको नई गति चाहिए

जैसे मिले वैसे सही।


मेरी प्रगति की साँस में

कुछ मैं रहूँ कुछ तुम रहो।


मुझको बड़ा सा काम दो

चाहे न कुछ आराम दो

लेकिन जहाँ थककर गिरूँ

मुझको वहीं तुम थाम लो।


गिरते हुए इन्सान को

कुछ मैं गहूँ कुछ तुम गहो।


संसार मेरा मीत है

सौंदर्य मेरा गीत है

मैंने कभी समझा नहीं

क्या हार है क्या जीत है


दुख-सुख मुझे जो भी मिले

कुछ मैं सहूं कुछ तुम सहो।

Anjalis
March 24th, 2009, 01:44 PM
मकडियों नें हर कोने को सिल दिया है
उलटे लटके चमगादड
देख रहें हैं
कैसे सिर के बल चलता आदमी
भूल गया है अपनी ज़मीन
दीवारों पर की सीलन का
फफूंद की आबादी को
दावत पर आमंत्रण है
दरवाज़ों पर दीमक की फौज़
फहराती है आज़ादी का परचम
दाहिने-बांयें थम...

मैडम का जनमदिन है
जनपथों के ट्रैफिक जाम है
साहब का मरणदिन है
रेलडिब्बे के ट्वायलेट तक में लेट कर
आदमी की खाल पहने सूअर
बढे आते हैं रैली को
थैली भर राशन उठायें
कि दिहाडी भी है, मुफ्त की गाडी भी है
देसी और ताडी भी है..

और तुम भगतसिंह?
पागल कहीं के
इस अह्सान फरामोश देश के लिये
"आत्म हत्या” कर ली?
अंग्रेजी जोंक जब यह देश छोड कर गयी
तो कफन खसोंट काबिज हो गये
अब तो कुछ मौतें सरकारी पर्व हैं
जिनके बेटों पोतों को विरासत में कुर्सियाँ मिली हैं
निपूते तुम! किसको क्या दे सके?
फाँसी पर लटक कर जिस जड को उखाडने का
दिवा-स्पप्न था तुम्हारा
वह अमरबेल हो गयी है

आज 23 मार्च है...
आज किसी बाग में फूल नहीं खिलते
कि एक सरकारी माला गुंथ सके
मीडिया को आज भी
किसी बलात्कार का
लाईव और एक्सक्लूसिव
खुलासा करना है
सारे संतरी मंत्री की ड्यूटी पर हैं
और सारे मंत्री उसी भवन में इकट्ठे
जूतमपैजार में व्यस्त हैं
जिसके भीतर बम पटक कर तुम
बहरों को सुनाना चाहते थे...
बहरे अब अंधे भी हैं

तुम इस राष्ट्र के पिता-भ्राता या सुत
कुछ भी तो नहीं
तुम इस अभागे देश के कौन थे भगतसिंह?

राजीव रंजन प्रसाद

Samarkadian
March 24th, 2009, 01:52 PM
मकडियों नें हर कोने को सिल दिया है
उलटे लटके चमगादड
देख रहें हैं
कैसे सिर के बल चलता आदमी
भूल गया है अपनी ज़मीन
दीवारों पर की सीलन का
फफूंद की आबादी को
दावत पर आमंत्रण है
दरवाज़ों पर दीमक की फौज़
फहराती है आज़ादी का परचम
दाहिने-बांयें थम...

मैडम का जनमदिन है
जनपथों के ट्रैफिक जाम है
साहब का मरणदिन है
रेलडिब्बे के ट्वायलेट तक में लेट कर
आदमी की खाल पहने सूअर
बढे आते हैं रैली को
थैली भर राशन उठायें
कि दिहाडी भी है, मुफ्त की गाडी भी है
देसी और ताडी भी है..

और तुम भगतसिंह?
पागल कहीं के
इस अह्सान फरामोश देश के लिये
"आत्म हत्या” कर ली?
अंग्रेजी जोंक जब यह देश छोड कर गयी
तो कफन खसोंट काबिज हो गये
अब तो कुछ मौतें सरकारी पर्व हैं
जिनके बेटों पोतों को विरासत में कुर्सियाँ मिली हैं
निपूते तुम! किसको क्या दे सके?
फाँसी पर लटक कर जिस जड को उखाडने का
दिवा-स्पप्न था तुम्हारा
वह अमरबेल हो गयी है

आज 23 मार्च है...
आज किसी बाग में फूल नहीं खिलते
कि एक सरकारी माला गुंथ सके
मीडिया को आज भी
किसी बलात्कार का
लाईव और एक्सक्लूसिव
खुलासा करना है
सारे संतरी मंत्री की ड्यूटी पर हैं
और सारे मंत्री उसी भवन में इकट्ठे
जूतमपैजार में व्यस्त हैं
जिसके भीतर बम पटक कर तुम
बहरों को सुनाना चाहते थे...
बहरे अब अंधे भी हैं

तुम इस राष्ट्र के पिता-भ्राता या सुत
कुछ भी तो नहीं
तुम इस अभागे देश के कौन थे भगतसिंह?

राजीव रंजन प्रसाद



Had he not died that way, this poet won't have got this poem.Crux, he did know the art of dying but certainly not the pain of living.Morever, genius dont have longer life span.

htomar
March 25th, 2009, 11:42 AM
आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !

मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आंगन;
हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?
मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे !

मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है,
पूछ रहे शायद कैसा हूं
कुछ कुछ बादल के जैसा हूं;
मेरा गीत सुन सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई,
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे !

तुमने मुझे अदेखा कर के
संबंधों की बात खोल दी;
सुख के सूरज की आंखों में
काली काली रात घोल दी;
कल को गर मेरे आंसू की मंदिर में पड़ गई ज़रूरत
लगता है आंचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे !

परिचय से पहले ही, बोलो,
उलझे किस ताने बाने में ?
तुम शायद पथ देख रहे थे,
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!

cooljat
March 25th, 2009, 11:25 PM
A wonderful deep touching poem that does somewhat psychological analysis of poetry itself. Its true u always can relate urself with poems and they just ease ur pain n make u feel light ! :)


अनछुई - गौरव

भाव जब कविता बने,
कुछ झूठ आ मिले,
रिश्ता जोडा,
मूल बदल गया,
कविता का रुप वो न रहा,
कुछ था जो उभर नही पाया,
या कवि ने उभरने ना दिया,
सब ने दर्द छुपा रखे हैं,
अपनी अपनी कविता में,
तो क्यों न कहूं,
पिटारी भावों की,
सपनो की,
इसी कविता को।

जब भी खुली,
किसी और के हाथ,
उसने अपना ही चेहरा देखा,
किसी और की कविता में,
सब को अपनी सी लगी,
सब का दर्द एक,
असंतोष,
कभी अपनों से कभी गैरों से,
वो मिली मुझे,
बोली मेरा रुप लौटा दो मुझे,
झुठलाओ नही मुझे,
निकलने दो आंसुओं कि तरह,
प्राकृतिक और अनछुई,
मैं बदल जाउंगी,
तो मुझे दर्पण कौन कहेगा?
मेरा दर्प कहाँ रहेगा?
कविता ने दर्पण बन जाना चाहा,
मैंने बन जाने दिया,
सब को अपनी सी लगी,
प्राकृतिक और अनछुई |


Rock on
Jit

Anjalis
March 26th, 2009, 03:54 PM
नाखुश इतने, नफरत कर कर.
रक्त पीपासा, उर में भर कर.
अपना नया ईश्वर रच कर,
जीना चाहते हैं वह मर कर.

हाथ नहीं हथियार हैं उनके,
मस्तक धड से अलग चले है.
ईच्छा और विवेक से अनबन,
आस्तीन में सांप पले हैं.
काम धर्म का मान लिया है.
जाने कौन किताब को पढ कर.

अपना नया, ईश्वर रच कर.
जीना चाहते, हैं वह मर कर.

खून और चीतकार का जिसने,
अर्थ बदल कर उन्हे बताया.
निर्दोशों को मौत का तौहफा,
दे कर जिसने रब रिझाया.
मां के खून को किया कलंकित,
झूंठे निज गौरव को गढ कर.

अपना नया ईश्वर रच कर.
जीना चाहते हैं वह मर कर.

बचपन की मुस्कान है जीवन,
कांश उन्हें भी कोई बताये.
रास रस उलास है जीवन,
कोई उनको यह समझाये.
क्यों खुद को आहूत कर रहे,
भ्रमित उस संसार में फंसकर.

अपना नया ईश्वर रच कर.
जीना चाहते हैं वह मर कर.


योगेश समदर्शी

ksangwan
March 26th, 2009, 05:11 PM
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्लै है सोय।
लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

Bhartendu

neels
March 26th, 2009, 10:52 PM
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्लै है सोय।
लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

Bhartendu

Oh wow...wonderful poem.. we used to quote lines from this in school/college in language essays. Thanks for reminding n sharing.

htomar
March 28th, 2009, 10:07 AM
यह जीवन है संग्राम प्रबल
लड़ना ही है प्रतिक्षण प्रतिपल

जिस ने मन में गीता गुनली वह हार–जीत के पार गया
वह हार गया रण में जिस का लड़ते–लड़ते मन हार गया

संख्या बल कभी नहीं लड़ता
लड़ते हैं सौ या पाँच कहाँ
सच के पथ पर निर्भीक बढ़ो
नहीं साँच को आँच यहाँ

जो चक्रव्यूह गढ़ते, उन के माथे पर लिखा मरण देखा
जो सुई नोंक भर भूमि न दें, उन का भी दीन क्षरण देखा
छल के साथ छली का तन, मन, चिंतन, अशुभ विचार गया
वह हार गया रण में जिस का लड़ते–लड़ते मन हार गया

संकल्पों से टकराने में
हर बार झिझकती झंझायें
झरने की तूफ़ानी गति को
कब रोक सकीं पथ–बाधायें

जो लड़ते हैं वे कल्पकथा बनकर जीते इतिहासों में
सदियों के माथे का चुंबन बनकर जीते अहसासों में
कवि का संवेदन विनत हुआ जब–जब भी उनके द्वार गया
वह हार गया रण में जिसका लड़ते–लड़ते मन हार गया

htomar
March 28th, 2009, 04:34 PM
तेरी कोशिश, चुप हो जाना,
मेरी ज़िद है, शंख बजाना ...

ये जो सोये, उनकी नीदें
सीमा से भी ज्यादा गहरी
अब तक जाग नहीं पाये वे
सर तक है आ गई दुपहरी;
कब से उन्हें, पुकार रहा हूँ
तुम भी कुछ, आवाज़ मिलाना...

तट की घेराबंदी करके
बैठे हैं सारे के सारे,
कोई मछली छूट न जाये
इसी दाँव में हैं मछुआरे.....
मैं उनको ललकार रहा हूँ,
तुम जल्दी से जाल हटाना.....

ये जो गलत दिशा अनुगामी
दौड़ रहे हैं, अंधी दौड़ें,
अच्छा हो कि हिम्मत करके
हम इनकी हठधर्मी तोड़ें.....
मैं आगे से रोक रहा हूँ -
तुम पीछे से हाँक लगाना ....

ksangwan
March 30th, 2009, 11:00 AM
अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए

आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी
कोई बतलाए, कहाँ जाकर नहाया जाए

मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही
खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का, तुझपर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाए

जिस्म दो होके भी, दिल एक हो अपने ऐसे
मेरा आँसू, तेरी पलकों से उठाया जाए

गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में,‘नीरज’ को बुलाया जाए

नीरज

cooljat
March 30th, 2009, 11:44 AM
A nice poem to ponder upon ! ..


यह क्या कम है - विनोद निगम

इन चलते फिरते लोगों में, भीड़ भाड़ में
याद तुम्हारी आ जाती है, यह क्या कम है

कितनी हैं उलझनें यहाँ, रोटी पानी की
नहीं नशीले छन्द जिन्दगी रख सकते हैं
मौसम की रंगीनी, पेट नहीं भर सकती
और न ही ये सपने, तन को ढंक सकते हैं
इतनी उड़ती गर्द धूल में, अन्धकार में
छवि न तुम्हारी मिट पाती है, यह क्या कम है

कोई उत्सव नहीं, व्यर्थ की चहल पहल है
दौड़ रहे हैं लोग, नहीं फिर भी थकते हैं
छिड़ा हुआ संघर्ष, यहाँ आगे जाने का
गिर जाने की छूट, न लेकिन रुक सकते हैं
इतने शोर तमाशे में, इस कोलाहल में
हर ध्वनि तुमको गा जाती है, यह क्या कम है

आवागमन बहुत है लेकिन प्रगति नहीं है
अन्त और प्रारम्भ कि जैसे जुड़े हुए हैं
पहुँच रहे हैं लोग सभी बस एक बिन्दु पर
यों सारे पथ, जगह जगह पर मुड़े हुए हैं
इतनी कुंठाओं में, इतने बिखरेपन में
हवा तुम्हें दुहरा जाती है, यह क्या कम है

इन चलते फिरते लोगों में, भीड़ भाड़ में
याद तुम्हारी आ जाती है, यह क्या कम है |


Rock on
Jit

htomar
March 31st, 2009, 05:03 PM
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

रंग पंखुरी केसर टहनी नस-नस के सब ताने-बाने,
उनमें कोमल फूल बना जो, भोली आँख उसे ही जाने,
मन ने सौरभ के वातायन से--
असली रस भाँप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था
मन ने उसको छाप लिया।

छवि की गरिमा से मंडित, उस तन की मानक ऊँचाई को,
स्नेह-राग से उद्वेलित उस मन की विह्वल तरुणाई को,
आँखों ने छूना भर चाहा,
मन ने पूरा नाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

आँख पुजारी है, पूजा में भर अँजुरी नैवेद्य चढ़ाए,
वेणी गूँथे, रचे महावर, आभूषण ले अंग सजाए,
मन ने जीवन-मंदिर में-
उस प्रतिमा को ही थाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

htomar
April 2nd, 2009, 10:59 AM
बदले भला कहाँ सेहालात इस शहर के।।

वादे तुम्हारे सारे आँसू हुए मगर के।।




ऐसी पड़ी डकैती, चौपट हुई है खेती

केवल बची है रेती पैंदी में इस नहर के ।




घी-दूथ आसमाँ पर, पानीगया रसातल

बस, सामने हमारा प्याले बचे जहर के।




डूबी हमारी कश्ती, टूटी हमारी नावें

बहना पड़ेगा सबको अब साथ में लहर के।




सब जल गए हैं पत्ते, फल-फूल बिक चुके हैं

मौसम भला करे क्या इस बाग में ठहर के।




तूफान क्या उठ बस, ज्वालामुखी फटा है

संकेत हो रहे हैं, सब आखरी प्रहर के।

htomar
April 3rd, 2009, 03:05 PM
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये।

थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये ॥


यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का ।

थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये ।।


वक्त का पहिया किसे कब कहां कुचले क्या पता ।

थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये ।।


देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं ।

जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये ।।


देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो ।

बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये ।।


प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले ।

घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये ॥


कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को ।

तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये ॥


सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा ।

देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये ॥

Anjalis
April 7th, 2009, 11:47 AM
हो गए जज्बात सब पत्थर मगर बोलूंगा मैं,
है तुम्हारे हाथ में खंजर मगर बोलूंगा मैं|


तू समझ दीवानगी या और कोई नाम दे,
वो गया है बात ये कहकर मगर बोलूंगा मैं|


भीड़ से कोई अलहदा बात होनी चाहिए,
सब रहे खामोश बुत होकर मगर बोलूंगा मैं|


बेबसी हो मुफलिसी या दूसरी मजबूरियां,
रोकती हैं ये सभी अक्सर मगर बोलूंगा मैं|


बोलने की सजा जो यह हुआ माहौल है,
कत्लो-गारत लाश का मंजर मगर बोलूंगा मैं|





प्रताप सोमवंशी

Anjalis
April 7th, 2009, 11:49 AM
ख्वाब तो देखे परी की तरफ नही देखा
जिसको सब देखें उसी की तरफ नहीं देखा


वो जो आकाश से लौटा है अब कहां जाए
शख्स जिसने की जमीं की तरफ नहीं देखा


एड़ियों से रगड़ के हमने निकाला पानी
खुद कमाया है नदी की तरफ नहीं देखा


तुमको लगता है उदासी तुम्हारे साथ ही है
दोस्त मैने भी खुशी की तरफ नहीं देखा


देख तो उसकी नजर भी कमाल है साहेब
खूबियां देखी कमी की तरफ नहीं देखा

प्रताप सोमवंशी

cooljat
April 13th, 2009, 11:57 AM
A beautiful inspiring poem that gives wonderful msg to keep up the HOPE even in troubled times. :)

आस न छोड़ो - हरे राम समीप

मुश्किल आई है
तो क्या है
यह भी जल्दी हट जाएगी

घुप्प अँधेरे कमरे में यों
मुश्किल ओढ़े
अवसादों से
घिरे हुए तुम
घबराए-से
क्यों बैठे हो

ज़रा टटोलो
दीवारों को
उम्मीदों की अँगुलियों के
कोमल ज़िंदा इन पोरों से
आहिस्ता-आहिस्ता खोजो
हाथों से दीवार न छोड़ो

कमरे की इन दीवारों में
कोई खिड़की निश्चित होगी
जिसके बाहर
बाँह पसारे स्वागत करने
नई रोशनी मिल जाएगी
जुगनू होंगे, दीपक होगा
चाँद–सितारे कुछ तो होंगे
सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो

मुश्किल में तुम
आस न छोड़ो ..


Rock on
Jit

Anjalis
April 17th, 2009, 07:28 PM
बरसों पहले नानी ने
माँ से कहा था
तुम फलांगना चाहती हो पहाड़
झाँकना चाहती हो बादलों के पार
पाना चाहती हो सागर के पानियों की थाह
मुई! तुझे कैसे समझाऊँ ?
आकाश से लटके रहते हैं कुछ उक़ाब
पलक झपकते ही पंजों में दबोच ले जाएँगे
पहाड़ों की खोहों में छिपे कुछ जिन्न
सूँघ लेंगे तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू.
सागर के पानियों में बैठे हैं
कुछ घड़ियाल.
सच तो यह है कि पानी , पहाड़
आकाश किछ भी नहीं है
औरत के लिए.
उसे झूलने हैं केवल इन्द्रधनुषी झूले.
माँ ने अपनी नन्हीं -सी छाती में सहेज लिया था
यह कड़वा-सा सच.
बरसों बाद माँ ने अपनी
बेटी से कहा
तुझे फलाँगने हैं पहाड़
तुझे जाना है बादलों के पार
तुझे पानी है पानियों की थाह
तुझे नहीं झूलने इन्द्रधनुषी झूले.
तुझे लिखना है आकाश की छाती पर
अपने तर्जनी से एक इतिहास
तुझे पालना है सागर की कोख में
अनन्त विश्वास
तुझे फलाँगना है हिमालय का अभिमान
तुझे तोड़नी है मिथक
औरत की हर सफलता का रास्ता
जिस्म से हो कर नहीं गुज़रता.


सरोज परमार

cooljat
April 20th, 2009, 12:00 PM
Silence, describes all the colors of emotions, a wonderful deep touching poem to ponder upon hush ! :)


मौन का सागर - शशि पाधा

मौन का सागर बना अपार
मैं इस पार - तू उस पार

कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
शब्दों की नैया को बाँधे
खड़े रहे मंझधार ।

शाख मान की झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठाओं के गहन भंवर में
छूट गई पतवार ..

सुनो पवन का मुखरित गान
अवसादों का हो अवसान
संग ले गई स्वप्न सुनहले
खामोशी पतझार ..

लहरें देती नम्र निमंत्रण
संध्या का स्नेहिल अनुमोदन
अस्ताचल का सूरज कहता
खोलो मन के द्वार ।


Rock on
Jit

Anjalis
April 22nd, 2009, 12:44 PM
बहुत ही सुंदर रचना लिखी है ज़नाब ज़ाहिर कुरैशी साहेब ने
भीड़ से अलग हटकर हमें सोचना होगा




अनैतिकता के चश्मों को बदलकर देखना होगा
गलत राहों पे वो कैसे गई ये सोचना होगा

कहाँ तक याद रखिए —खट्टी, मीठी, कड़वी बातों को
हमें आगत की खतिर भी विगत को भूलना होगा

विरोधी दोस्त भी है, रोज मिलता है, इसी कारण
विरोधी के इरादों को समझना —बूझना होगा

बहुत उन्मुक्त हो कर जिन्दगी जीना भी जोखिम है
नदी की धार को अनुशासनों में बाँधना होगा

लड़ाई में उतर कर, भागना तो का—पुरुषता है,
लड़ाई में उतर कर, जीतना या हारना होगा

मनोविज्ञान की भाषा में अपने मन की गाँठों को
अकेले बंद कमरे में किसी दिन खोलना होगा

बचाना है अगर इस मुल्क की उजली विरसत को
हमें अपनी जड़ों की ओर फिर से लौटना होगा

Anjalis
April 22nd, 2009, 12:48 PM
एक और बहुत ही सटीक रचना ज़हिर साहेब की कलम से

‘लिंग निर्धारण’ समस्या हो गई
कोख में ही कत्ल कन्या हो गई

लोग कर पाए नहीं खुल कर विरोध
सिर्फ अखबारों में निन्दा हो गई

चल रहा है माफिया —गुंडों का राज
इस कदर कमजोर सत्ता हो गई !

क्या पता किस वक्त अणुबम फट पड़े
ये हमारे युग की चिन्ता हो गई

साधु—संतों ने मचाया इतना शोर
भंग भक्तों की तपस्या हो गई

राज करने के लिए नेता हुए
वोट देने भर को जनता हो गई

मन में मिसरी की तरह घुलती नही
सिर्फ भाषा—जाल कविता हो गई

Anjalis
April 23rd, 2009, 11:49 AM
घिरी लंका के चारों ओर गहरा गूढ़ खाई थी
इन्हीं गड्ढों से महलों की गगनभेदी ऊँचाई थी
हज़ारों अस्मतों को लूटकर वह खिलखिलाता था
स्वयं सूरज तमस से तुप गया था, तिलमिलाता था


सभी भूखे थे नंगे थे, तबाही ही तबाही थी
मगर अन्याय का प्रतिरोध करने की मनाही थी
किसी ने न्याय माँगा तो समझ लो उसकी आफ़त थी
न जीने की इजाज़त थी न मरने की इजाज़त थी


धरा को क़ैद कर आराम से वह रह न सकता था
मनुज इस क्रूर शोषण को बहुत दिन सह न सकता था
स्वयं अन्याय ने पीड़ित दलित को ला जुटाया था
प्रवासी राम ने विद्रोह का बीड़ा उठाया था


नये संघर्ष की यह शक्ति धरती ने जगायी थी
किसी अवधेश या मिथिलेश की सेना न आयी थी
सुबह से शाम तक जो राक्षसी अन्याय सहते थे
जिन्हें सब जंगली हैवान बन्दर भालु कहते थे


नयी जनशक्ति की हर साँस से हुंकार उठती थी
प्रबल गतिरोध के विध्वंस की धधकार उठती थी
कि बर्बर राक्षसों का जंगली वीरों से पाला था
महीधर फाँद डाले थे समुन्दर बाँध डाला था


उधर थी संगठित सेना अनेकों यन्त्र दुर्धर थे
इधर हुंकारते हाथों में केवल पेड़-पत्थर थे
मगर था एक ही आदर्श जीने का जिलाने का
विगत जर्जर व्यवस्था को स्वयं मिटकर मिटाने का


नयी थी कामना, नवभावना, संदेश नूतन था
नयी थी प्रेरणा, नव कल्पना, परिवेश नूतन था
नया था मोल जीवन का विषमता ध्वंस करने का
नया था कौल मानव का, धरा को मुक्त करने का


चली क्या राम की सेना कि धरती बोल उठती थी
अखंडित शक्ति का भण्डार अपना खोल उठती थी
धरा की लाड़ली की जब अभय आशीष पायी थी
किसी हनुमान ने तब स्वर्ण की लंका जलायी थी


कँगूरे स्वर्ण-सौधों के धरा लुंठित दिखाते थे
नुकीले अस्त्र दुश्मन के निरे कुंठित दिखाते थे
अमन का शंख बजता था दमन की दाह होती थी
मनुज की दानवों को आज खुल करके चुनौती थी


विजय का बिगुल बजता था, अनय का नाश होता था
अँधेरा साँस गिनता था, सबेरा पास होता था
सिसकती रात के अंचल में रजनीचर बिलखते थे
उभरती उषा की गोदी में नव अंकुर किलकते थे


घड़ी अन्तिम समझ दनुकुल जले शोले गिराता था
प्रबल जनबल उन्हें फिर मोड़ उन पर ही फिराता था
नयी गंगा विषमता के कगारों को ढहाती थी
नयी धारा, नयी लहरें उसे समतल बनाती थी


युगों की साधना-सी राम ने जब शक्ति छोड़ी थी
किसी जर्जर व्यवस्था की विकट चट्टान तोड़ी थी
कटे सिर-सा पड़ा रावण धरा पर छटपटाता था
विगत युग मर्सिया गाता, नया युग गान गाता था


बहुत दिन बाद दलितों की हँसी की आज पारी थी
कि फिर से मुक्त था मानव कि फिर से मुक्त नारी थी
बँधी मुट्ठी दिखा जन-टोलियाँ जय-गान गाती थीं
कि नव निर्माण के जंगल में भी मंगल मनाती थी


धरा की लाड़ली प्रिय से लिपटने को ललकती थी
नयी कोंपल के होठों से, नयी कलिका किलकती थी
चपल चपला-सी आँखों में नयी आभा झलकती थी
सुधा के युगकटोरों से मदिर छलकन छलकती थी


सबेरे का भटकता शाम को घर लौट आया था
नयी उन्मुक्त जनता ने नया उत्सव मनाया था
छिनी धरती मिली फिर से नये सपने सँजोए थे
सभी ने खेत जोते थे सभी ने बीज बोए थे


घिरा काली घटाएँ थीं अमा की रात काली थी
मगर मानव-धरा के सम्मिलन की बात ही ऐसी निराली थी


अयोध्या में नये युग को बुलाने की बेहाली थी
कि जिसके साज स्वागत में सजी पहली दिवाली थी
धरा की लाड़ली ने स्वयं जिसकी ज्योति बाली थी
विकल सूखे हुए अधरों में नव मुस्कान ढाली थी


कि अस्त-व्यस्त तारों में नयी स्वर तान ढाली थी
धरा में स्वर्ग से बढ़कर सरसता थी, खुशहाली थी
वही पहला जनोत्सव था वही पहली दिवाली थी


लहलहाती जब धरा थी, शस्य-श्यामल
गुनगुनाती जब गिरा थी गीत कल-कल
छलछलाते स्नेह से जब पात्र छ्लछल
झलमलाते जब प्रभा के पर्व पल-पल


आज तुम दुहरा रहे हो प्रथा केवल
आज घर-घर में नहीं है स्नेह सम्बल
आज जन-जन में नहीं है ज्योति का बल
आज सूखी वर्त्तिका का सुलगता गुल
दीप बुझते जा रहे हैं विवश ढुल-ढुल


शेष खण्डहर में विगत युग की निशानी
सुन रहे हो स्वपन में जैसे कहानी
बन गई हो जिस तरह अपनी बिरानी


किंतु जन-जागृति धधकती जा रही है
जल उठेगी फिर नयी बाती सुहानी
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी

शिवमंगल सिंह 'सुमन'

cooljat
April 23rd, 2009, 12:55 PM
Ardh Satya, A wonderful thought provoking poem by Dilip Chitre that inspired many even filmmakers to make truly classy epic movie of same name. Poem leaves a deep impact on the inner soul. Read n think bout it ! ..


अर्ध सत्य - दिलीप चित्रे

चक्रव्यूह में घुसने से पहले,
कौन था में और कैसा था,
यह मुझे याद ही ना रहेगा .

चक्रव्यूह में घुसने के बाद,
मेरे और चक्रव्यूह के बीच,
सिर्फ़ एक जानलेवा निकटता थी,
इसका मुझे पता ही ना चलेगा .

चक्रव्यूह से निकलने के बाद,
मैं मुक्त हो जाऊं भले ही,
फिर भी चक्रव्यूह की रचना में,
फ़र्क ही ना पड़ेगा .

मरुँ या मारूँ ,
मारा जाऊँ या जान से मार दूं,
इसका फैसला कभी ना हो पायेगा .

सोया हुआ आदमी जब,
नींद से उठकर चलना शुरू करता है,
तब सपनों का संसार उसे,
दोबारा दिख ही ना पायेगा .

उस रौशनी में जो निर्णय की रौशनी है,
सब कुछ सामान होगा क्या?
एक पलड़े में नपुंसकता,
एक पलड़े में पौरुष,
और ठीक तराजू के कांटे पर,
अर्ध सत्य !!


Rock on
Jit

sachinb
April 23rd, 2009, 01:38 PM
I really like poems.....Dinkar, Nirala,,,,,kyaa likhte the.......there r some books which have very good collection of poems

ksangwan
April 23rd, 2009, 04:03 PM
जो तुम आ जाते एक बार ।

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार ।

हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार ।

- महादेवी वर्मा (http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884585696500124.html)

jakharanil
April 23rd, 2009, 06:19 PM
Dr. gi, ye sun ke to MURDE me b jan aa jaye........

Thanks & Rgds

Anil Jakhar
Jaipur,India
jakhar.anilk@gmail.com

Anjalis
April 25th, 2009, 12:11 PM
राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की पुण्य तिथि पर

देश-प्रेम और राष्ट्रीय भावना भारत में सदैव से किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। राष्ट्रीय या राष्ट्रवाद से केवल तात्पर्य मात्र हिन्दू राष्ट्र की कल्पना नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत की सांस्कृतिक स्थिति से है। राष्ट्रीय भावना का यह स्वरूप हिन्दी साहित्य के इतिहास के विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्फुटित होता रहा है। इसी विचारधारा से प्रभावित हो कवियों ने राष्ट्रीय स्वर प्रदान किये, जिनमें माखनलाल चतुर्वेदी, सोहन लाल द्वविेदी एवं रामधारी सिंह दिनकर के नाम महत्वपूर्ण हैं। इन कवियों ने सम्पूर्ण भारत के प्रति आस्था, संस्कृति के प्रति निष्ठा, मानवता के प्रति आग्रह, सामन्तवाद के प्रति आक्रोश, स्वतंत्रता के लिये संकल्प, निर्माण एवं सृजन के लिये प्रेरणा तथा शोषकों के प्रति क्रांति को जन्म देकर साहित्य को एक नयी दिशा दी - जो प्रगतिवाद के सहारे अधिक विकसित हो सकी, राष्ट्रीय भावना एवं विचारधारा के प्रमुख कवियों में दिनकर का विशिष्ट स्थान रहा है।
जन्म: 30 सितंबर 1908
निधन: 24 अप्रैल 1974



सूखे विटप की सारिके !
उजड़ी-कटीली डार से
मैं देखता किस प्यार से
पहना नवल पुष्पाभरण
तृण, तरु, लता, वनराजि को
हैं जो रहे विहसित वदन
ऋतुराज मेरे द्वार से।


मुझ में जलन है प्यास है,
रस का नहीं आभास है,
यह देख हँसती वल्लरी
हँसता निखिल आकाश है।
जग तो समझता है यही,
पाषाण में कुछ रस नहीं,
पर, गिरि-हृदय में क्या न
व्याकुल निर्झरों का वास है ?


बाकी अभी रसनाद हो,
पिछली कथा कुछ याद हो,
तो कूक पंचम तान में,
संजीवनी भर गान में,
सूखे विटप की डार को
कर दे हरी करुणामयी
पढ़ दे ऋचा पीयूष की,
उग जाय फिर कोंपल नयी;
जीवन-गगन के दाह में
उड़ चल सजल नीहारिके।
सूखे विटप की सारिके !

__________________________________________________ __________

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।


तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।


तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।


पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।


जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।


कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।


हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?


हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !


जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,


रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

cooljat
April 28th, 2009, 02:43 PM
A nice 'feel good' poem by Shyamal Suman .. :)


हाल पूछा आपने - श्यामल सुमन

हाल पूछा आपने तो, पूछना अच्छा लगा
बह रही उल्टी हवा से, जूझना अच्छा लगा

दुख ही दुख जीवन का सच है, लोग कहते हैं यही
दुख में भी सुख की झलक को, ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा

हैं अधिक तन चूर थककर, खुशबू से तर कुछ बदन
इत्र से बेहतर पसीना, सूँघना अच्छा लगा

रिश्ते टूटेंगे बनेंगे, जिन्दगी की राह में
साथ अपनों का मिला तो, घूमना अच्छा लगा

घर की रौनक जो थी अबतक, घर बसाने को चली
जाते जाते उसके सर को, चूमना अच्छा लगा

कब हमारे, चाँदनी के बीच बदली आ गयी
कुछ पलों तक चाँद का भी, रूठना अच्छा लगा

दे गया संकेत पतझड़, आगमन ऋतुराज का
तब भ्रमर के संग सुमन को, झूमना अच्छा लगा ..


Rock on
Jit

stokas
May 1st, 2009, 12:28 AM
By: Dr.Anuj Narwal Rohtaki

कई लोग कहते मिलेंगे
कि
वोट दो
किसी का दो
पर वोट दो
ये हमारा अधिकार है
इससे बनती सरकार है
पर मैं पूछता हूं
अगर
चुनाव में उठे हुए
सभी उम्मीदवारों में से
मुझे कोई काम का न लगे
तो मैं क्*या कंरू ?
वोटिंग मशीन का
कौन-सा बटन दबाउं
मैं किसकी सरकार बनाउं
वोटिंग मशीन में
नकारने का ऑप्शन नहीं है
किसी कोई टेंशन नहीं है
वोट एक पड़े या हजार
किसी न किसी की तो बनेगी सरकार
ये सरकार ही देश चलाएगी
और जनता को बरगलाएगी।
काश! अगर ये होता
वोटिंग मशीन में नकारने का ऑप्शन होता
मैं भी वोट देने के लिए लाईन में खड़ा होता
और मेरे जैसे करोड़ों का सपना सच होता
ऐसे में लोकतांत्रिक सरकार का सही परीक्षण होता।

stokas
May 1st, 2009, 12:30 AM
मुद्*दा है तो सियासत है

सियासत है तो ताकत है
नफरत है दिल में बगावत है
सबको सबसे शिकायत है
साधु-डाकू , नेता-अभिनेता
सबका सपना सियासत है
कुर्सी बाबत नफरत बोना
इनकी पुरानी आदत है
हर गुनाह है काबिले-मुआफी
गर नेता की ईनायत है
वो अपने सिवा किसी का नहीं
चापलूसी जिसकी आदत है



By: Dr. Anuj Narwal Rohtaki

rajeshchowdhary
May 9th, 2009, 11:18 PM
बेहतरीन! धन्यवाद पेश करने के लिए, और हिंदी को हिंदी में पढने की अनुभूति के लिए भी..:).




लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती...

नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ्ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन् का विश्वास रगों में साहस बनता है
चढ़ कर गिरना , गिर कर चढ़ना ना अखरता है
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती....

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगता है
जा जा कर खाली हाथ लौट आता है
मिलते ना सहज ही मोती पानी में
बहता दूना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती....

असफलता एक चुनौती है स्वीकार करो
क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो
जब तक ना सफल हो नींद चैन की त्यागो तुम
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती....

neels
May 10th, 2009, 02:46 PM
विदा के क्षण



मैं अपने
इस तुच्छ एकाकीपन से ही
इतना विचलित हो जाता हूँ
तो सागर!
तुम अपना यह विराट अकेलापन
कैसे झेलते हो?


समय के अन्तहीन छोरों में
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
यह साँ-साँ करता हुआ
फुफकारता सन्नाटा -
युगों की उड़ती धूल में
अन्तहीन रेगिस्तान का
निपट एकाकी सफ़र -
सदियों से जागती
खुली हुई आँखों में
महीन रेत-सी किरकिराती
असीम प्रतीक्षा!
- सचमुच
सागर, तुम्हें यों
अकेला छोड़ कर जाने का
मन नहीं होता
लेकिन तुम्हारे पास रह कर भी
क्या कोई
तुम्हारे अकेलेपन को बाँट सकता है?


वह कौन है
जो अनादि से अनन्त तक
तुम्हारा हाथ थामे चल सके,
गहरे निःश्वासों के साथ
उठते-गिरते तुम्हारे वक्ष को सहलाये?
किस के कान
तुम्हारी धड़कनों को सुन सकेंगे,
कौन से हाथ
तुम्हारे माथे पर पड़ी
दर्द की सलवटों को हटायेंगे
या बिखरे हुए बालों को
सँवारने का साहस जुटा पायेंगे?
किस का अगाध प्यार
तुम्हारे एकाकीपन को भी भिगो पायेगा?


मुझे तो लगता है
ओ सागर,
अकेला होना
हर विराट् की नियति है।
वह एक से अनेक होने की
कितनी ही चेष्टा करे
अपनी ही माया से, लीला से,
लहराती लहरों से
खुद को बहलाये
पर अनन्तः रहता एकाकी है।


- फिर भी
तुम्हें छोड़ कर जाते हुए
मन कुछ उदास हुआ जाता है -
(शायद यही मोह है, शायद यही अहं है!)


- तुम्हारे पास
एक अजनबी-सी
पहचान लिये आया था
एक विराट् अकेलेपन का
एक अकिंचन-सा कण ले कर जा रहा हूँ!



- कुलजीत

neels
May 10th, 2009, 02:47 PM
बेहतरीन! धन्यवाद पेश करने के लिए, और हिंदी को हिंदी में पढने की अनुभूति के लिए भी..:).

Thanks Mr. Chowdhary

neels
May 10th, 2009, 02:54 PM
Read this quote by Napolean Hill - " You are searching for the magic key that will unlock the door to the source of power, and yet you have the key in your own hands, and you may make use of it the moment you learn to control your thoughts.” , and it reminded of this great poem by Dinker.




http://tbn3.google.com/images?q=tbn:tpQzOtG5SYkcnM:http://www.beingmagazine.com/web/images/stories/art/shutterstock_1347627.jpg (http://www.beingmagazine.com/web/images/stories/art/shutterstock_1347627.jpg)


कुंजी

घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन,
जब मैं बालक अबोध अनजान था।

यह पवन तुम्हारी साँस का
सौरभ लाता था।
उसके कंधों पर चढ़ा
मैं जाने कहाँ-कहाँ
आकाश में घूम आता था।

सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।
मगर कोई परी मेरे साथ में थी;
मुझे मालूम तो न था,
मगर ताले की कूंजी मेरे हाथ में थी।

जवान हो कर मैं आदमी न रहा,
खेत की घास हो गया।

तुम्हारा पवन आज भी आता है
और घास के साथ अठखेलियाँ करता है,
उसके कानों में चुपके चुपके
कोई संदेश भरता है।

घास उड़ना चाहती है
और अकुलाती है,
मगर उसकी जड़ें धरती में
बेतरह गड़ी हुईं हैं।
इसलिए हवा के साथ
वह उड़ नहीं पाती है।

शक्ति जो चेतन थी,
अब जड़ हो गयी है।
बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,
उम्र बढ़ते बढ़ते
वह कहीं खो गयी है।

- दिनकर

ksangwan
May 12th, 2009, 04:32 PM
आज बस यूं ही बचपन की कुछ कविताएं याद आ गई।थोडी बेसिर पैर की है पर बचपन मे इन्हे जोर-जोर से बोलने मे बड़ा मजा आता था।

लालाजी ने केला खाया
केला खाकर मुंह बिचकाया।
मुंह बिचकाकर तोंद फुलाई
तोंद फुलाकर छड़ी उठाई।
छड़ी उठाकर कदम बढ़ाया
कदम के नीचे छिलका आया ।
लालाजी गिरे धड़ाम से
बच्चों ने बजाई ताली।

चलिए एक और ऐसी ही छोटी सी मस्ती भरी कविता पढिये।

मोटू सेठ सड़क पर लेट
गाड़ी आई फट गया पेट
गाड़ी का नम्बर ट्वेन्टी एट
गाडी पहुँची इंडिया गेट
इंडिया गेट पर दो सिपाही
मोटू मल की करी पिटाई।

लगे हाथ इसे भी पढ़ लीजिये।

मोटे लाला पिलपिले
धम्म कुंयें मे गिर पडे
लुटिया हाथ से छूट गई
रस्सी खट से टूट गई।

:rock:rock:rock:rock

arvindsinghrot
May 13th, 2009, 12:30 AM
Interesting poet from Uttam Nagar, New Delhi

ISTeotia9
May 13th, 2009, 11:20 AM
Thnx neelam........for posting the whole poem..............really nice!!!!

Anjalis
May 18th, 2009, 05:33 PM
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

गोपालदास व्यास

Anjalis
May 20th, 2009, 03:44 PM
श्री प्रकाश बादल द्वारा रचित ईश्वर के लिए


शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं।
ख़ुदा है तो रगों में दौड़ता क्यों नहीं।

लहूलुहान हुए हैं लोग तेरी ख़ातिर,
ख़ामोशी के आलम को तोड़ता क्यों नहीं।

कहदे की नहीं है तू गहनों से सजा पत्थर,
आदमी की ज़हन को झंझोड़ता क्यों नहीं,

पेटुओं के बीच कोई भूखा क्यों रहे,
अन्याय की कलाई मरोड़ता क्यों नहीं।

झुग्गियाँ ही क्यों महल क्यों नहीं,
बाढ़ के रुख को मोड़ता क्यों नहीं।

arvindsinghrot
May 21st, 2009, 01:04 AM
bahoot khoob


श्री प्रकाश बादल द्वारा रचित ईश्वर के लिए


शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं।
ख़ुदा है तो रगों में दौड़ता क्यों नहीं।

लहूलुहान हुए हैं लोग तेरी ख़ातिर,
ख़ामोशी के आलम को तोड़ता क्यों नहीं।

कहदे की नहीं है तू गहनों से सजा पत्थर,
आदमी की ज़हन को झंझोड़ता क्यों नहीं,

पेटुओं के बीच कोई भूखा क्यों रहे,
अन्याय की कलाई मरोड़ता क्यों नहीं।

झुग्गियाँ ही क्यों महल क्यों नहीं,
बाढ़ के रुख को मोड़ता क्यों नहीं।

Anjalis
May 26th, 2009, 01:22 PM
इतिहास की क़ब्रों में दबे हुए
पृष्ठ कहते हैं कि
जन्म होते ही मेरा
गला दबा देते थे।
पलंग के पाए तले रखकर
पितृसत्ताक के सत्ताधारी
उस लोक पहुँचा देते थे।

एक ज़र्रा हशीश
तिल भर अफीम
या
एक कण विष देकर
मेरा इहलोक सँवार देते थे
क्योंकि वे जानते थे
कि
इहलोक दुखों से भरा है
और
मेरा कोमल मन
कोमल गात
उन दुखों से जूझ नहीं पाएगा।

वे जानते थे
कि मैं
पुराण-कथाओं की तरह
अपने सत्यवान के लिए
चार सौ साल की
उम्र नहीं मांग पाऊंगी
इसीलिए मुझे
धधकती चिता में
आत्मदाह करना होगा।

उन्हें पता था
कि धरती की बेटियाँ
सीता माता की तरह
अग्नि परीक्षा नहीं दे सकती।
मेरे संरक्षक और शुभचिंतक
इस तरह मुझे
स्वर्गारोहण का
सुरक्षा कवच देते थे।

ऐसे सुरक्षा कवच
आज भी
मिल रहे हैं मुझे।

वैज्ञानिक उपलब्धियों ने
भूण-हत्याओं का आविष्कार करके
मुझे पितृसत्ताक दुखों के
उस पार जा फेंका है।

आकांक्षाएँ
युगों से पूरे विश्व में
पूरी होती रही हैं मेरी
पर
पिता, भाई, पुत्र के माध्यम से।

लेकिन
आज मैंने उनके माध्यम से
उच्चाकांक्षाओं की पूर्ति के
स्वप्न देखने बंद कर दिए हैं।

चिर दमित आकांक्षाएँ पनपती हैं-
मेरी सोलह वर्षीय आकांक्षा है
कि
मैं फेमिना से
मिस इंडिया चुनी जाऊँ।

मिस वर्ल्ड और मिस यूनीवर्स बनकर
विज्ञापन की दुनिया में
परचम उड़ाऊँ।
केवल चैनल्ज की दिव्य दृष्टि से
हर अनजाने कोने में पहचानी जाऊँ।

मेरे अंदर बैठी
वैज्ञानिक स्त्री की आकांक्षा है
कि सुनीता विलियम्स बन
सातवें आसमान की
बुलंदियों को छू आऊँ।

या फिर
राजकुमारी डायना बन
गरीबों अनाथों को कपड़े बाँटूँ।
हिलेरी क्लिंटन बन
देश-विदेश की सैर करूँ।

इंदिरा गांधी बन
राजनीति का संचालन करूँ।
बिजनेस मैगनेट बन
विश्व बाजार की ऊठक-बैठक कराऊँ।

सतरंगे स्वप्न पूरे करके भी
मेरे पैर
धरती पर
जमे रहें
जमे रहें...


डॉ० मधु सन्धु

Anjalis
May 29th, 2009, 01:21 PM
ये किसकी चाल है, मोहरे हैं, किसका है पत्ता
हिली कुर्सी, हिले सब लोग, हिल गयी सत्ता

ये किसने रंग दिए, दीवारों दर संसद भवन के
ये किसका पान है, चूना है, किसका है कत्था

ये किसकी चाह थी, मिट जाये या फांसी चढ़े
भगत सिंह, राज, और सुखदेव का बागी जत्था

ये कैसा न्याय है जो मर मिटा इस देश की खातिर
नहीं मिलता है उस परिवार को राशन भत्ता

शहद की प्यास रखते हो तो कुछ हिम्मत करो
चुरा लो फूल से या तोड़ लो मधु का छत्ता



दिगंबर नासवा

Anjalis
May 29th, 2009, 04:11 PM
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।


फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।


एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग इस संसार में
है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।


प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।


और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह का
फिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।




हरिवंशराय बच्चन

cooljat
June 11th, 2009, 12:22 PM
One deep thought provoking poem that epitomizes the eternal questions about dreams, failure, hard work and ofcourse, success. Indeed a masterpiece by young poet Vikas Kumar.


जीना - विकास कुमार

यहीं खड़ा था ना?
और उम्मीद भी कुछ ज्यादा नहीं थी.
तो क्या हुआ यदि मेरे झोले में एक मजबूरी और आ गयी.
खाली झोले की बोरियत से अच्छा
तो इस बोझ का पसीना है.
बिन संघर्ष जीना भी कोई जीना है?

चेहरे की लाली को
तपिश बनते देखने के अनुभव का अनुभव
दुःखद सा प्रतीत होते हुए भी
अज्ञान के सुख से तो बेहतर ही होगा.
ज्ञानाभाव में तो हर मैदान, मदीना है.
बिन संघर्ष जीना भी कोई जीना है?

झुके हुए कंधे, तुम्हें ना भाएँ, मुझे तो प्यारे है.
जमीन दिखती रहे, के लिये झुकने की ताकत जरूरी है.
और पैर सीधे पड़ें, के लिये
धरती का दिखना आवश्यक है.
माथे पे बूँदें तुम्हारी होंगी, मेरी नगीना है.
बिन संघर्ष जीना भी कोई जीना है?

टूटे हुए सपनों का चुभन
क्या केवल दुःख देता है? अनुभव क्या है फिर?
टूटने के बाद आँखें क्या आँसू देती हैं? आशा क्या है फिर?
मैं तो दुआ करता हूँ, उनके लिये
जिन्होंने मुझसे सपनों को छीना है.
बिन संघर्ष जीना भी कोई जीना है?


Rock on
Jit

cooljat
June 15th, 2009, 12:32 PM
Time changes, changes everything! But does it change for sure? A deep touching and thought provoking poem that describes it, indeed a fine poem that makes you ponder ..



समय से अनुरोध - अशोक वाजपेयी


समय, मुझे सिखाओ
कैसे भर जाता है घाव? -पर
एक अदृश्य फांस दुखती रहती है
जीवन-भर।

समय, मुझे बताओ
कैसे जब सब भूल चुके होंगे
रोज़मर्रा के जीवन-व्यापार में
मैं याद रख सकूँ
और दूसरों से बेहतर न महसूस करूँ।

समय, मुझे सुझाओ
कैसे मैं अपनी रोशनी बचाए रखूँ
तेल चुक जाने के बाद भी
ताकि वह लड़का
उधार लाई महँगी किताब एक रात में ही पूरी पढ़ सके।

समय, मुझे सुनाओ वह कहानी
जब व्यर्थ पड़ चुके हों शब्द,
अस्वीकार किया जा चुका हो सच
और बाकी न बची हो जूझने की शक्ति
तब भी किसी ने छोड़ा न हो प्रेम,
तजी न हो आसक्ति,
झुठलाया न हो अपना मोह।

समय सुनाओ उसकी गाथा
जो अंत तक बिना झुके
बिना गिड़गिड़ाए या लड़खड़ाए,
बिना थके और हारे, बिना संगी-साथी,
बिना अपनी यातना को सबके लिए गाए,
अपने अंत की ओर चला गया।

समय, अंधेरे में हाथ थामने,
सुनसान में गुनगुनाहट भरने,
सहारा देने, धीरज बँधाने,
अडिग रहने, साथ चलने और लड़ने का
कोई भूला-बिसरा पुराना गीत तुम्हें याद हो
तो समय, गाओ
ताकि यह समय,
यह अंधेरा,
यह भारी
यह असह्य समय कटे!...


Rock on
Jit

cooljat
June 23rd, 2009, 02:21 PM
A b'ful and serene poem that depicts the restlessness of heart with the hint of nature's beauty and also carves imaginary picture of some beloved one you longing for. Deep touching and lil romantic indeed, one more precious gem from collection of young talented poet Vikas Kumar. :)

गोधूलि - विकास कुमार

गोधूलि में,
जब कभी यह एकाकी मन -
नीड़ों की ओर लौटते पंछियों के उल्लास में भी,
देखता है थकन.

जब शाम का सूरज बूढ़ा नजर आता है
और पवन के झोंकों से मन,
बोझिल सा हो जाता है.

बाहर होता है कुछ और,
और अंदर? अंदर कुछ और ही सूरत होती है,
ठीक उसी अंधियारे में मुझे तेरी जरूरत होती है.

और फिर मेरी नजरें जाती हैं उस छत पर
जहाँ मैंने तुम्हें खेलते देखा था.
हँसते, मुस्कुराते
काँधे से जुल्फ़ों को पीछे धकेलते देखा था.

बसंत के खिलते गुलाब में -
गुलाब जब नश्वर नजर आता है
अस्थायी सुंदरता से मन जब उद्विग्न सा हो जाता है.

कांटों की शाश्वत चुभन ही
जब दिल को लगे लुभाने.
फीके लगने लगे जब सारे सपने सुहाने.

जिंदगी में मौत, और मौत में..?
मौत में जिंदगी का पुट नजर आता है
ठीक उसी वक्त दिल में तेरा चेहरा उभर आता है.

और तेरे चेहरे की हर अदा,
ऐसी खूबसूरत होती है -
कि हर तन्हाई में मुझे तेरी जरूरत होती है.

और फिर मेरी नजरें जाती हैं उसी छत पर
जहाँ मैंने तुम्हें खेलते देखा था.
हँसते, मुस्कुराते
काँधे से जुल्फ़ों को पीछे धकेलते देखा था.


Rock on
Jit

Anjalis
June 30th, 2009, 10:49 AM
बारिश के आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं, किसान परेशां हैं,
इसी सन्दर्भ में 'किरण सिन्धु ' की यथार्थ वादी कविता :




तपती धरती खोज रही है
सीने में दरार लिए,
बाट देख रहे सभी किसान
आँखों में इक आस लिए;
कहाँ गए तुम काले मेघ?

सूखी खेती देख - देख कर
नयनों में जल भरने लगा है,
कैसे जलेगा घर का चूल्हा
सोंच - सोंच मन डरने लगा है;
कब आओगे काले मेघ?

नदी - नहर सब थम से गए हैं
वृक्ष सभी कुम्हलाये हुए,
कैसे चैन पड़े प्राणी को
बिना तुम्हारे आये हुए;
तरस भी खाओ काले मेघ!

अब जो देर हुई आने में
यम के दूत डराने लगेंगे,
पशुओं के बाडों के ऊपर
गिद्ध चील मंडराने लगेंगे
सुनो गुहार हे काले मेघ!

ksangwan
June 30th, 2009, 03:49 PM
भरी गर्मी में जहाँ सावन का, रिमझिम फुहारों का इंतजार हो रहा है,



कितने दिन के बाद सखी तुम दी फिर दिखलाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
बदली से सुधियाँ घिर-घिर जब उमडी़ आँगन में,
दो छन को ज्यों दौलत मैंने, दो जग की पायी।
नयनों की सुधियों में रच-बस, जब तुम आती हो,
अधरों की रेशमी छुअन सी क्यों छिप जाती हो?
साँसों की,दिल की घबराहट, आँखों से खेता हूँ।
प्रीत, गीत में गूंथ, हृदय में तुमको रख लेता हूँ।
गर्म हवाऔं ने भी देखो क्या पलटी खाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।

जा बदली जा जा कुछ बूँदें उस पर भी बरसा,
मैं तो कब से तरस रहा, कुछ उस को भी तरसा।
हमने सब कुछ जीत लिया, पर तुमको हार गये।
सपने,सपने रहे न हम सपनों के पार गये।
दो प्यारे से सपने आखिर रह गये परछाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।

जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
प्राकथ्थन पर रुकी कहानी पूर्ण न हो पाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।

anilsangwan
July 1st, 2009, 09:24 AM
.

कोए कॉपीराईट का रोल्ला कोणी होता के न्यू दूसरे कविया की कविता जाटलैंड पे चैप्पन में .........?

Just curious to know so that I can also post........Some IPR specialist around?



.

cooljat
July 3rd, 2009, 12:21 PM
Ocean, always been mysterious deep and salty but keeps alluring poets n artists for long; A wonderful philosophical poem in which a young talented poet tries to relate himself with ocean. Indeed a touching poem that leaves you pondering ..


मैं अब समंदर हूँ - गौरव

रोज रोज चले आते हैं जो तूफां मुझ तक,
तो क्या कुसूर उनका,
गुनहगार तो मैं ... समंदर हूँ,

शौक क्या, और क्या मजबूरी,
गहराइयों में तो उतरना ही था,
तो अब मैं ... समंदर हूँ,

लहरें भी दिखें और, जुम्बिश भी न हो,
तो गहरा हूँ अब ... मैं समंदर हूँ,

एक कतरे तक की जगह न थी,
अब सूरज भी बुझते हैं मुझमे,
मैं अब समंदर हूँ,

कोई तो कश्ती साहिल पे आएगी,
कुछ तो मोती उगेंगे,
तो बस मैं ... समंदर हूँ,

ज़माने भर के और अपने,
अश्क पी कर,
कड़वा हूँ, खारा हूँ ... अब समंदर हूँ,

गहरा हूँ, दर्द हूँ,
पर अपने ही अन्दर हूँ,
मैं समंदर हूँ ! ..


Rock on
Jit

cooljat
July 6th, 2009, 04:02 PM
A really nice poem that carves the feelings and restless, you generally feel in Summers. B'ful ! :)


गर्मी के दिन - शशि पाधा

कुछ अलसाये
कुछ कुम्हलाये
आम्रगन्ध भीजे, बौराये
काटे ना
कटते ये पल छिन
निठुर बड़े हैं गर्मी के दिन

धूप-छाँव
अँगना में खेलें
कोमल कलियाँ पावक झेलें
उन्नींदी
अँखियां विहगों की
पात-पात में झपकी ले लें
रात बिताई
घड़ियाँ गिन-गिन
बीतें ना कुन्दन से ये दिन

मुर्झाया
धरती का आनन
झुलस गये वन उपवन कानन
क्षीण हुई
नदिया की धारा
लहर- लहर
में उठता क्रन्दन
कब लौटेगा बैरी सावन
अगन लगायें गर्मी के दिन।

सुलग- सुलग
अधरों से झरतीं
विरहन के गीतों की कड़ियाँ
तारों से पूछें दो नयना
रूठ गई
क्यों नींद की परियाँ
भरी दोपहरी
सिहरे तन-मन
विरहन की पीड़ा से ये दिन !..


Rock on
Jit

Anjalis
July 9th, 2009, 04:01 PM
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!

मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव -सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!

मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!



हरिवंश राय बच्चन

htomar
July 21st, 2009, 12:01 PM
आओ मंदिर मस्जिद खेलें खूब पदायें मस्जिद को

कल्पित जन्मभूमि को जीतें और हरायें मस्जिद को




सिया-राममय सब जग जानी सारे जग में राम रमा

फिर भी यह मस्जिद, क्यों मस्जिद चलो हटायें मस्जिद को




तोड़ें दिल के हर मंदिर को पत्थर का मंदिर गढ़ लें

मानवता पैरों की जूती यह जतलायें मस्जिद को




बाबर बर्बर होगा लेकिन हम भी उससे घाट नहीं

वह खाता था कसम खुदा की हम खा जायें मस्जिद को




मध्यकाल की खूँ रेज़ी से वर्तमान को रंगें चलो

अपनी-अपनी कुर्सी का भवितव्य बनायें मस्जिद को




राम-नाम की लूट मची है मर्यादा को क्यों छोड़ें

लूटपाट करते अब सरहद पार करायें मस्जिद को




देश हमारा है तोंदों तक नस्लवाद तक आज़ादी

इसी मुख्य धारा में आने को धमकायें मस्जिद को




धर्म बहुत कमजोर हुआ है लकवे का डर सता रहा

अपने डर से डरे हुए हम चलो डरायें मस्जिद को




गंगाजली उठायें झूठी सरयू को गंदा कर दें

संग राम को फिर ले डूबें और डूबायें मस्जिद को

Anjalis
July 23rd, 2009, 10:55 AM
शान बघारें, शोर मचायें
चिल्ल-पों, चीखें चिल्लायें
तोडें फोडें, आग लगायें
हमसे आजादी का मतलब
पूछ समंदर डूब गया था
आशाओं का बरगद सूखा
हम पानी के वही बुलबुले
उगते हैं, फट फट जाते हैं
हम खजूर के गाछ सरीखे
गूंगे की आवाज सरीखे
बेमकसद बेगैरत बादल
अंधे की आँखों का काजल
सूरज को ढाँप रहा,
काला धुवां हैं
निर्लज्ज युवा हैं....

हमें ढूंढो, मिलेंगे हम
कोनों में, किनारों में
अगर कुछ शर्म होगी तो
तुम्हें मुँह फेरना होगा
नयी पीढी हैं, बेची है
यही एक चीज तो हमनें
वही हम्माम के भीतर
वही हम्माम के बाहर
जो नंगापन हकीकत है
हमारी सीरत है....

बहुत ताकत है बाहों में
बदन कसरत से गांठा है
बाँहों पर उभरते माँस के गोले
मगर बस ठंडे ओले हैं
वो कमसिन बाँह में आये
यही बाहों का मक्सद है
नयन दो चार हो जायें,
निगाहों का मक्सद है
वही डिगरी है, जिसमें
तोड कुर्सी लूट खाना है
मकसद ज़िन्दगी का
एक आसां घर बसाना है
न पूछो, चुल्लुओं पानी है
फिर भी जी रहे क्यों हैं....

मगर तुम पाओगे हमको
जहाँ भी आग पाओगे
कभी दूकान लूटोगे अगर
या बस जलाओगे
हम ही तो भीड हैं
जो भेड हो कर बहती जाती है
हम ईमान के चौकीदार हैं
धर्म के सिक्युरिटी गार्ड हैं हम....

लेकिन उम्मीद न रखना
वृद्ध, तिरस्कृत से देश मेरे
तुम्हारी आवाज हम सुन नहीं पाते
नमक हराम, अहसान फरोश,
नपुंसक हैं हम
तुम चीख चीख कर यह कहोगे
तो क्या हम जाग जायेंगे?
तुम डूबता जहाज हो
हम अमरीका भाग जायेंगे...


'राजीव रंजन प्रसाद'

Anjalis
July 23rd, 2009, 11:00 AM
[QUOTE=htomar;217791]आओ मंदिर मस्जिद खेलें खूब पदायें मस्जिद को

कल्पित जन्मभूमि को जीतें और हरायें मस्जिद को


अति सुंदर !!!!

Anjalis
July 23rd, 2009, 11:02 AM
ocean, always been mysterious deep and salty but keeps alluring poets n artists for long; a wonderful philosophical poem in which a young talented poet tries to relate himself with ocean. Indeed a touching poem that leaves you pondering ..


मैं अब समंदर हूँ - गौरव

रोज रोज चले आते हैं जो तूफां मुझ तक,
तो क्या कुसूर उनका,
गुनहगार तो मैं ... समंदर हूँ,


rock on
jit


कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति है !!!
बहुत उम्दा रचना है

htomar
July 23rd, 2009, 12:24 PM
सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है



समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है



बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है



वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है



सब जीवन बीता जाता है.

Anjalis
July 23rd, 2009, 04:09 PM
[QUOTE=htomar;218059]सब जीवन बीता जाता है

see post # 432

Samarkadian
July 23rd, 2009, 06:30 PM
शान बघारें, शोर मचायें
चिल्ल-पों, चीखें चिल्लायें
तोडें फोडें, आग लगायें
हमसे आजादी का मतलब
पूछ समंदर डूब गया था
आशाओं का बरगद सूखा
हम पानी के वही बुलबुले
उगते हैं, फट फट जाते हैं
हम खजूर के गाछ सरीखे
गूंगे की आवाज सरीखे
बेमकसद बेगैरत बादल
अंधे की आँखों का काजल
सूरज को ढाँप रहा,
काला धुवां हैं
निर्लज्ज युवा हैं....

हमें ढूंढो, मिलेंगे हम
कोनों में, किनारों में
अगर कुछ शर्म होगी तो
तुम्हें मुँह फेरना होगा
नयी पीढी हैं, बेची है
यही एक चीज तो हमनें
वही हम्माम के भीतर
वही हम्माम के बाहर
जो नंगापन हकीकत है
हमारी सीरत है....

बहुत ताकत है बाहों में
बदन कसरत से गांठा है
बाँहों पर उभरते माँस के गोले
मगर बस ठंडे ओले हैं
वो कमसिन बाँह में आये
यही बाहों का मक्सद है
नयन दो चार हो जायें,
निगाहों का मक्सद है
वही डिगरी है, जिसमें
तोड कुर्सी लूट खाना है
मकसद ज़िन्दगी का
एक आसां घर बसाना है
न पूछो, चुल्लुओं पानी है
फिर भी जी रहे क्यों हैं....

मगर तुम पाओगे हमको
जहाँ भी आग पाओगे
कभी दूकान लूटोगे अगर
या बस जलाओगे
हम ही तो भीड हैं
जो भेड हो कर बहती जाती है
हम ईमान के चौकीदार हैं
धर्म के सिक्युरिटी गार्ड हैं हम....

लेकिन उम्मीद न रखना
वृद्ध, तिरस्कृत से देश मेरे
तुम्हारी आवाज हम सुन नहीं पाते
नमक हराम, अहसान फरोश,
नपुंसक हैं हम
तुम चीख चीख कर यह कहोगे
तो क्या हम जाग जायेंगे?
तुम डूबता जहाज हो
हम अमरीका भाग जायेंगे...


'राजीव रंजन प्रसाद'

Sama analogy is found in the Song by Piyush Mishra.

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है .
देखना है जोर कित्तना बाजुवे कातिल में है
वक़्त आने पे बतादेंगे तुझे इ आस्मां
हम अभी से क्या बताये क्या हमारे दिल में है

ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दुस्तान
देखते की मुल्क सारा क्या टशन क्या चिल्ल में है
आज का लौंडा यह कहता हम तो बिस्मिल थक गए
अपनी आजादी तो भैया लौंडिया के दिल में है .

आज के जलसों में बिस्मिल एक घुंगा गा रहा.
और बहरों का वो रेला नाचता महफिल में है
हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्डी भी सिलती एन्ग्लिशो की मिल में है

htomar
July 23rd, 2009, 07:42 PM
thanks anjali ji.....
[QUOTE=htomar;218059]सब जीवन बीता जाता है

see post # 432

Anjalis
July 24th, 2009, 10:55 AM
sama analogy is found in the song by piyush mishra.

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है .
देखना है जोर कित्तना बाजुवे कातिल में है
वक़्त आने पे बतादेंगे तुझे इ आस्मां
हम अभी से क्या बताये क्या हमारे दिल में है

ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दुस्तान
देखते की मुल्क सारा क्या टशन क्या चिल्ल में है
आज का लौंडा यह कहता हम तो बिस्मिल थक गए
अपनी आजादी तो भैया लौंडिया के दिल में है .

आज के जलसों में बिस्मिल एक घुंगा गा रहा.
और बहरों का वो रेला नाचता महफिल में है
हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्डी भी सिलती एन्ग्लिशो की मिल में है

समरसिंह जी
कल 'आजाद' जी का जन्मदिवस था. बड़े ही अफ़सोस की बात है की किसी ने उनका जिक्र तक नहीं किया . ना ही किसी समाचार के चेनलों ने कुछ जुर्रत की ( उन्हें और महतवपूर्ण मसलों से फुर्सत मिले तो ???)
सिर्फ आस्था चॅनल पर डॉ हरी ॐ पवार जी की कविता सुनने को मिली , क्या ओजस्वी वाणी है उनकी
कोई कमज़ोर भी खडा हो के तलवार तान ले दुश्मन के सीने पर .

उनकी एक कविता यहाँ पर आप सुन सकते हैं ;

http://www.youtube.com/watch?v=RiAP35Fgvdw&feature=related

cooljat
July 24th, 2009, 11:53 AM
Anjaliji,

Indeed a matter for shame for all Indians. We keep forgetting our real Heros nowadays. That's really bad. Even not on tv, news nowhere it is mentioned about the great son of soil's Bday, paying tribute is a far cry! :mad:

No excuses, even I forgot the same. :(

Anyways, Thanks a lot Anjaliji to remind and let us know about this Great Personality.

Chander Shekhar Azad sada amar rehe !!



समरसिंह जी
कल 'आजाद' जी का जन्मदिवस था. बड़े ही अफ़सोस की बात है की किसी ने उनका जिक्र तक नहीं किया . ना ही किसी समाचार के चेनलों ने कुछ जुर्रत की ( उन्हें और महतवपूर्ण मसलों से फुर्सत मिले तो ???)
सिर्फ आस्था चॅनल पर डॉ हरी ॐ पवार जी की कविता सुनने को मिली , क्या ओजस्वी वाणी है उनकी
कोई कमज़ोर भी खडा हो के तलवार तान ले दुश्मन के सीने पर .

उनकी एक कविता यहाँ पर आप सुन सकते हैं ;

http://www.youtube.com/watch?v=RiAP35Fgvdw&feature=related

Anjalis
July 24th, 2009, 12:08 PM
डॉ हरी ओम पंवार जी के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते है

http://omkar-chaudhary.sulekha.com/blog/post/2007/07/hariom-panwar-se-khas-batcheet.htm

Anjalis
July 24th, 2009, 12:09 PM
anjaliji,

indeed a matter for shame for all indians. We keep forgetting our real heros nowadays. That's really bad. Even not on tv, news nowhere it is mentioned about the great son of soil's bday, paying tribute is a far cry! :mad:

No excuses, even i forgot the same. :(

anyways, thanks a lot anjaliji to remind and let us know about this great personality.

chander shekhar azad sada amar rehe !!

मुझे आप से उम्मीद थी की आप तो शायद याद रखेंगे

htomar
July 24th, 2009, 12:36 PM
भारतभर में विस्फोटों का शोर सुनाई देता है,
हिजबुल लश्कर के नारों का शोर सुनाई देता है,
मलय समीर मौसम आदमखोर दिखाई देता है
लालकिले का भाषण भी कमजोर दिखाई देता है,
इन कोहराम भरी रातों का ढालना बहुत ज़रूरी है
भोर तिमिर में शब्द ज्योति का जलना बहुत ज़रूरी है
नए युगों के कलमकार की कलम नहीं बिकने दूंगा
चाहे मेरा सर कट जाये कलम नहीं बिकने दूंगा
इसलिए केवल अंगार लिए फिरता हूँ मैं गीतों में
आंसू से भीगा अख़बार लिए फिरता हूँ मैं गीतों में,
ये जो आतंको पर चुप रह जाने की लाचारी है
ये हमारी कायरता है, अपराधिक गद्दारी है
ये शेरों का चरण पत्र है भेड़ सियारों के आगे
वाट वृक्षों का शीश नमन है खर पतवारों के आगे
जैसे कोई ताल तलय्या गंगा जमुना को डांटे
चार तमंचे मार रहे एटम के मुह पर चांटे
किसका खून नहीं खौलेगा पढ़ सुनकर अख़बारों में
शेरों की पेशी करवा दी चूहों के दरबारों में
इन सब षड्यंत्रों से पर्दा उठाना बहुत ज़रूरी है
पहले घर के गद्दारों का हटना बहुत ज़रूरी है
पांचाली के चिर हरण पर जो चुप पाए जाते हैं
इतिहास के पन्नो में वो सब कायर कहलाते हैं ……..

cooljat
July 24th, 2009, 07:03 PM
A commendable effort by poet Neeraj Guru to describe the Life and its very meaning thro' this b'ful and thought-provoking poem. Nice one indeed !


जीवन के अर्थ - नीरज गुरु

एक जगह खड़े होकर -
जहाँ तक हाथ फैला सकता हूँ,
जीवन को उसके सही अर्थों में -
वहीँ तक समझ पाता हूँ,
और शेष तो -
जीवन तट है सागर का,
लहरों के थपेडों से सराबोर,
जिसके तट पर आह्लादित जन -
और तट बना आहत मैं,
अतः -
अपने फैलाये हाथों की सीमा से परे -
क्या जान पाऊगाँ मैं,
अपनी सीमा से परे -
कहाँ जा पाऊगाँ मैं,
इन्हीं सीमाओं में हैं -
सब अपने-पराये,
प्रेम-पीड़ा,
पाप-पुण्य,
फूल-कांटें,
यह – वो – सारी दुनिया,
पूरा ब्रह्माण्ड,
इन्हें जितना समझ पाता हूँ,
समझ लेता हूँ,
और इसीलिए -
एक जगह खड़े होकर -
जहाँ तक हाथ फैला सकता हूँ,
जीवन को उसके सही अर्थों में -
वहीँ तक समझ पाता हूँ!..


Rock on
Jit

htomar
July 25th, 2009, 10:43 AM
कौन तुम मेरे हृदय में ?



कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित ?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित ?



स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में !
कौन तुम मेरे हृदय में ?



अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर ?
चूमने पदचिन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर



कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?



एक करूण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत,



पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?



गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या ?
आज खो निज को मुझे
खोया मिला, विपरीत सा क्या



क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन-मधु-दिन के उदय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?



तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित ?



सुन रहीं हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?



मूक सुख दुख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार सा क्या ?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या ?



आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में
कौन तुम मेरे हृदय में ?

cooljat
July 27th, 2009, 05:16 PM
Some times we look at the world just as an observer. We see all the colors, beauty and joy, but just as an outside observer and not as a participant. There is an acute sense of loneliness, as if nothing belongs to us. Great Poet Dharamvir Bharati conveys the very feelings by this classy b'ful creation. :)


एक धुंधली नदी में - धरमवीर भारती

आज में भी नहीं अकेला हूँ
शाम है, दर्द है, उदासी है.

एक खामोश सांझ-तारा है
दूर छुटा हुआ किनारा है
इन सबों से बड़ा सहारा है.

एक धुंधली अथाह नदिया है
और भटकी हुई दिशा सी है.

नाव को मुक्त छोड़ देने में
और पतवार को तोड़ देने में
क्या अजब-सी, निराशा-सी
सुख-प्रद एक आधारहीनता-सी है.

प्यार की बात ही नहीं साथी
हर लहर साथ-साथ ले आती
प्यास ऐसी की बुझ नहीं पाती
और ये जिंदगी किसी सुन्दर
चित्र में रंगलिखी सुरा-सी है.

आज में में भी नहीं अकेला हूँ
शाम है, दर्द है, उदासी है !...


Rock on
Jit

Anjalis
July 28th, 2009, 11:03 AM
संवेदनाओं को इस कविता में जिस प्रकार से उतारा गया है, उससे यह कविता अपने आप में बहुत कुछ कहती है । भावनाओं के समंदर में बहा ले जाने वाली रचना के लिए 'रचना' जी बधाई की पात्र हैं ।



पापा तुम क्यों तारा बन गए
हमसे दूर ईश्वर का सहारा बन गए
पार्क में बच्चे पापा के साथ खेलते हैं
कभी दौड़ते कभी कंधे पर चढ़ते हैं
मै दूर बैठा उनको देखा करता हूँ
बस तुम को ही सोचा करता हूँ
पहले से जीने के ढंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

माँ काम करते करते थक जाती है
कहानी रात को कभी कभी ही सुनती है
ब्रश मे फस्ट आने का कॉम्पटीशन कोई करता नहीं
सच पापा अब तो ब्रश करने का ही मन करता नहीं
मेरे जीवन के तो सारे रंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

मै अकेले स्कूल जाता हूँ
आप कि कही बातो को मन मे दोहराता हूँ
किनारे चलो ऊँगली पकडो मत दौडो
पर ऊँगली पकड़ने को जो हाथ बढ़ता हूँ
तुम को वहां नहीं पाता हूँ
मेरे तो सब सहारे गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

रोज मै तुम से बात करता हूँ
तारों मे तुम को खोजा करता हूँ
जब छाते हैं बादल तो बहुत रोता हूँ
तुम को नहीं देख पाउँगा बस यही कहता हूँ
आंसूं अब मेरे साथी बनगए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

शाम आती है पर तुम आते नहीं
कैसे हो बेटे कह के गोद में उठाते नहीं
एक बार कहो
क्या मिला होमवर्क रहा कैसा स्कूल
दो हाई फाई लग रहे हो कितने कूल
मस्ती भरे सारे वो पल गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

जब कहता हूँ चॉकलेट लाने को
बहला के मुझे दे देती है गुड खाने को
दो वक्त कि रोटी मिलजाए तू स्कूल जा पाए
बस इतना कमा पाती हूँ मै
इसी लिये तेरा कहा नहीं कर पाती हूँ
अब मेरी खाव्हिशों के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

मै माँ से माँ मुझ से छुप के रोती है
अक्सर खाने की ३ प्लेट धरती है
मै उसके लिये हसीं कमाना चाहता हूँ
आप जैसा घर का ख्याल रखना चाहता हूँ
मै जल्दी से बड़ा होना चाहता हूँ
मेरे खेलने के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

‘रचना ‘

Anjalis
July 30th, 2009, 10:46 AM
श्यामल सुमन द्वारा रचित एक खुबसूरत रचना, सरल शब्दों में कही गयी यथार्थ वादी बातें .

बाहर बारिश अन्दर आग
अभी शेष भीतर अनुराग

परदेशी बालम आयेंगे
कुछ बोला है छत पर काग

सब रिश्तों के मोल अलग हैं
नारी माँगे अमर सुहाग

भाव इतर और शब्द इतर हैं
रंग मिलेगा गाकर राग

खोने का संकेत है सोना
छोड़ नींद को उठकर जाग

उदर भरण ही लक्ष्य जहाँ हो
मची वहाँ पर भागमभाग

इक दूजे का हक जो छीना
लेना अपना लड़कर भाग

घाव भले तन पर लग जाये
कभी न रखना मन पर दाग

देखो नजर बदल के दुनिया
लगता कितना सुन्दर बाग

सुमन खिले हैं सबकी खातिर
लूट रहा क्यों भ्रमर पराग

cooljat
August 6th, 2009, 11:36 AM
An easy yet pragmatic poem that describes the phases of bliss n blues in life, good one indeed. :)

सुख-दुख आना-जाना - अमित

सुख-दुख आना-जाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख की है कल्पना पुरानी
स्वर्गलोक की कथा कहानी
सत्य-झूठ कुछ भी हो लेकिन
है मन को भरमाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख के साधन बहुत जुटाए
सुख को किन्तु ख़रीद न पाए
थैली लेकर फिरे ढूँढते
सुख किस हाट बिकाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

आस-डोर से बँधी सवारी
सुख-दुख खीचें बारी-बारी
कहे कबीरा दो पाटन में
सारा जगत पिसाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जब-जब किया सुखों का लेखा
सुख को पता बदलते देखा
किन्तु सदा ही इसके पीछे
दुख पाया लिपटाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जीवन की अनुभूति इसी में
द्वेष इसी में प्रीति इसी में
इसी खाद-पानी पर पलकर
जीवन कुसुम फुलाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।


Rock on
Jit

htomar
August 6th, 2009, 02:13 PM
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्*य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्*यंग्*य मलिन उपहास

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्*ज्*वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिलाकर हँसते वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्*वप्*न देकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्*या कर जो भाग गया।

जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्*दर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्*मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्*यों मेरी कंथा की?

छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?

क्*या यह अच्*छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्*या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्*मकथा?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्*यथा।

Anjalis
August 11th, 2009, 10:37 AM
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की लिखी हुई यथार्थ वादी रचना


खोटे सिक्के हैं प्रचलन में.
खरे न बाकी रहे चलन में.

मन से मन का मिलन उपेक्षित.
तन को तन की चाह लगन में.

अनुबंधों के प्रतिबंधों से-
संबंधों का सूर्य गहण में.

होगा कभी, न अब बाकी है.
रिश्ता कथनी औ' करनी में.

नहीं कर्म की चिंता किंचित-
फल की चाहत छिपी जतन में.

मन का मीत बदलता पाया.
जब भी देखा मन दरपण में.

राम कैद ख़ुद शूर्पणखा की,
भरमाती मादक चितवन में.

स्नेह-'सलिल' की निर्मलता को-
मिटा रहे हम अपनेपन में.

htomar
August 11th, 2009, 10:55 AM
bahut achi poem post ki hai.. thanxs a lot....
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की लिखी हुई यथार्थ वादी रचना


खोटे सिक्के हैं प्रचलन में.
खरे न बाकी रहे चलन में.

मन से मन का मिलन उपेक्षित.
तन को तन की चाह लगन में.

अनुबंधों के प्रतिबंधों से-
संबंधों का सूर्य गहण में.

होगा कभी, न अब बाकी है.
रिश्ता कथनी औ' करनी में.

नहीं कर्म की चिंता किंचित-
फल की चाहत छिपी जतन में.

मन का मीत बदलता पाया.
जब भी देखा मन दरपण में.

राम कैद ख़ुद शूर्पणखा की,
भरमाती मादक चितवन में.

स्नेह-'सलिल' की निर्मलता को-
मिटा रहे हम अपनेपन में.

htomar
August 11th, 2009, 11:14 AM
अक्सर मुझको अपने से ही डर लगता है
अपना ही व्यवहार बहुत बर्बर लगता है

बेजाना पहचाना अपना घर लगता है
रिश्तों का ये राजमहल खँडहर लगता है

तन अपनी ही बस्ती का दुत्कारा जोगी
मन परदेशी-वन का राजकुँवर लगता है

इतनी तेज़ हवाएँ आँगन में घुस आईं
पूरा घर दरवाजे से बाहर लगता है

जब उन्मुक्त बज़ारों की बातें होती हैं
अपना छोटा-सा छप्पर अम्बर लगता है

आवारा मौसम की मनमानी के चलते
मधुमासों में भी मुझको पतझर लगता है

सुनकर कर्मफलों की उलटी-सीधी बातें
क़िस्मत का लेखा बस आडम्बर लगता है।

होनी अनहोनी की इस खींचातानी में
अपना होना भी बस एक ख़बर लगता है

मज़हब के मतभेदों, संघर्षों में उलझा
अपनी रचना से रूठा ईश्वर लगता है

sanjaymalik
August 11th, 2009, 11:37 AM
Heart toching ...........


अक्सर मुझको अपने से ही डर लगता है
अपना ही व्यवहार बहुत बर्बर लगता है

बेजाना पहचाना अपना घर लगता है
रिश्तों का ये राजमहल खँडहर लगता है

तन अपनी ही बस्ती का दुत्कारा जोगी
मन परदेशी-वन का राजकुँवर लगता है

इतनी तेज़ हवाएँ आँगन में घुस आईं
पूरा घर दरवाजे से बाहर लगता है

जब उन्मुक्त बज़ारों की बातें होती हैं
अपना छोटा-सा छप्पर अम्बर लगता है

आवारा मौसम की मनमानी के चलते
मधुमासों में भी मुझको पतझर लगता है

सुनकर कर्मफलों की उलटी-सीधी बातें
क़िस्मत का लेखा बस आडम्बर लगता है।

होनी अनहोनी की इस खींचातानी में
अपना होना भी बस एक ख़बर लगता है

मज़हब के मतभेदों, संघर्षों में उलझा
अपनी रचना से रूठा ईश्वर लगता है

cooljat
August 17th, 2009, 05:13 PM
Do something diffrent, make your own way and leave a trail behind is the message this wonderful inspiring poem is conveying. Indeed a classic from senior poet Mukut Bihari Saroj ! :)


कुछ हटके चलो - मुकुट बिहारी सरोज

भीड़-भाड़ में चलना क्या?
कुछ हटके-हटके चलो
वह भी क्या प्रस्थान कि जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत, बेहद जिसकी, कोई वजह न हो,
एक-दूसरे को धकेलते, चले भीड़ में से-
बेहतर था, वे लोग निकलते नहीं नीड़ में से

दूर चलो तो चलो
भले कुछ भटके-भटके चलो

तुमको क्या लेना-देना ऐसे जनमत से है
ख़तरा जिसको रोज़, स्वयं के ही बहुमत से है
जिसके पाँव पराये हैं जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे, लेकिन इतिहास नहीं

भले नहीं सुविधा से -
चाहे, अटके-अटके चलो

जिनका अपने संचालन में अपना हाथ न हो
जनम-जनम रह जायें अकेले, उनका साथ न हो
समुदायों में झुंडों में, जो लोग नहीं घूमे
मैंने ऐसा सुना है कि उनके पाँव गए चूमे

समय, संजोए नहीं आँख में,
खटके, खटके चलो !...



Rock on
Jit

Samarkadian
September 5th, 2009, 04:08 PM
एक भाषा हुआ करती है-


जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं `आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार


एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएं और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं


बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती,
गाती-बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूंख़ार,
सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा,
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और ग़रीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा,
वह भाषा जिसे वक़्त ज़रूरत तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंड़ुए, रंडियां और कुछ जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं


वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएं
`ईश्वर´ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध


जिसमें पान की पीक है, बीड़ी का धुआं, तम्बाकू का झार,
जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के मंहगे लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय अखबार
सिफ़त मगर यह कि इसी में चलता है कैडबरीज, सांडे का तेल, सुजूकी, पिजा, आटा-दाल और स्वामी
जी और हाई साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाज़ार


एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीने वाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के
आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बांटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिटि्ठयां


वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश
और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं
जिसकी लिपियां स्वीकार करने से इंकार करता है इस दुनिया का समूचा सूचना संजाल
आत्मा के सबसे उत्पीड़ित और विकल हिस्से में जहां जन्म लेते हैं शब्द
और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूंगे कुएं में डूब जाते हैं चुपचाप
अतीत की किसी कंदरा से एक अज्ञात सूक्ति को अपनी व्याकुल थरथराहट में थामे लौटता है कोई जीनियस
और घोषित हो जाता है सार्वजनिक तौर पर पागल
नष्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ की स्मृति
नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद भविष्य भर के लिए अंधा हो जाता है
सिर्फ हमारी नींद में सुनाई देती रहती है उसकी अनंत बड़बड़ाहट...मंगल..शुक्र..
बृहस्पति...सप्त-ॠषि..अरुंधति...ध्रुव..
हम स्वप्न में डरे हुए देखते हैं टूटते उल्का-पिंडों की तरह
उस भाषा के अंतरिक्ष से
लुप्त होते चले जाते हैं एक-एक कर सारे नक्षत्र


भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दण्डनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां
वर्जित हैं विचार


वह भाषा जिसमें की गयी प्रार्थना तक
घोषित कर दी जाती है सांप्रदायिक
वही भाषा जिसमें किसी जिद में अब भी करता है तप कभी-कभी कोई शम्बूक
और उसे निशाने की जद में ले आती है हर तरह की सत्ता की ब्राह्मण-बंदूक


भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे, चाकर टांगते हैं तमगे
जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं किसी अफसर या हुक्काम या किसी पंडे के सफेद दांत और
तमाम मठों पर नियुक्त होते जाते हैं बर्बर बुलडॉग


अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि


यह वही भाषा है जिसको इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी, कोई तिजारती, कोई फिरंग
अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौंदता
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में
और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षो तक आर्तनाद


सुनो दायोनीसियस, कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल, एक अपराजेय हत्यारे
हर छठे मिनट पर तुम काट देते हो इस भाषा को बोलने वाली एक और जीभ
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों, गूंगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के
तुम स्वामी हो अंतरिक्ष में तैरते कृत्रिम उपग्रहों, ध्वनि तरंगों,
संस्कृतियों और सूचनाओं
हथियारों और सरकारों के


यह सच है


लेकिन देखो,
हर पांचवें सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी


और
कहता है - `मां ´ !



Uday Prakash

nehasinghaz
September 5th, 2009, 06:09 PM
जहाँ डाल-डाल पर
जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा
जहाँ सत्य, अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा ये धरती वो जहाँ ऋषि मुनि जपते प्रभु नाम की माला
जहाँ हर बालक एक मोहन है और राधा हर एक बाला
जहाँ सूरज सबसे पहले आ कर डाले अपना फेरा
वो भारत देश है मेरा
अलबेलों की इस धरती के त्योहार भी हैं अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग है कहीं हैं होली के मेले
जहाँ राग रंग और हँसी खुशी का चारों ओर है घेरा
वो भारत देश है मेरा
जब आसमान से बातें करते मंदिर और शिवाले
जहाँ किसी नगर में किसी द्वार पर कोई न ताला डाले
प्रेम की बंसी जहाँ बजाता है ये शाम सवेरा
वो भारत देश है मेरा
- राजेंद्र किशन

cooljat
September 24th, 2009, 04:32 PM
A very nice n' creative poem that depicts poet's conflict n' confusion with in self, praiseworthy indeed !


मंजिलें और रास्ते - राजेश गुप्ता

कुछ मंजिलें हैं सामने, पर रास्ते अनजान हैं,
जो रास्ते मैं हूँ जानता, वो रास्ते नादान हैं;
मुझे ज़िन्दगी दिखती नहीं, मुझे मौत भी मिलती नहीं,
मेरे हाथ हैं बंधे हुए, मेरी जुबां हिलती नहीं,
मैं हूँ खड़ा अनभिज्ञ सा, मेरे कदम परेशान हैं,
कुछ मंजिलें हैं सामने, पर रास्ते अनजान हैं;
मैं खुद ही खुद को क्या कहूँ, खुद को नहीं पहचानता,
दुश्मन मुझे ये कह चले कि मैं दुश्मनी नहीं जानता,
मेरे सिवा मुझ पर सभी, हर हाल में मेहरबान हैं,
कुछ मंजिलें हैं सामने, पर रास्ते अनजान हैं;
तुझको खुदा मेरी कसम, इक और कर दे बस वफ़ा,
मुझे वक़्त से ये पूछ दे कि क्यों है ‘वो’ मुझसे खफा,
उस ही त्रिशंकु की तरह, मेरा भी अब मचान है,
कुछ मंजिलें हैं सामने, पर रास्ते अनजान हैं;
जो रास्ते मैं हूँ जानता, वो रास्ते नादान हैं |


Rock on
Jit

htomar
September 27th, 2009, 04:23 PM
धूप ही क्यों छांव भी दो
पंथ ही क्यों पांव भी दो
सफर लम्बी हो गई अब,
ठहरने को गांव भी दो ।

प्यास ही क्यों नीर भी दो
धार ही क्यों तीर भी दो
जी रही पुरुषार्थ कब से,
अब मुझे तकदीर भी दो ।

पीर ही क्यों प्रीत भी दो
हार ही क्यों जीत भी दो
शुन्य में खोए बहुत अब,
चेतना को गीत भी दो ।

ग्रन्थ ही क्यों ज्ञान भी दो
ज्ञान ही क्यों ध्यान भी दो
तुम हमारी अस्मिता को,
अब निजी पहचान भी दो ।

- ----कनकप्रभा

htomar
September 27th, 2009, 04:36 PM
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चांद औ' तारे,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

गगन में गर्व से उठउठ,
गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं,
नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

तिमिर के राज का ऐसा
कठिन आतंक छाया है,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय का सब समां बांधे
प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस
तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय की रात में सोचे
प्रणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पथ में पलकें बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

------ बच्चन

htomar
October 8th, 2009, 11:20 AM
Tu rooth jaaye mujh se aisa kabhi na ho,
main ek nazar ko tarson aisa kabhi na ho,

main pooch pooch haroon so so sawal kar ke,
tum jawab na do aisa kabhi na ho,

kuch main bhi hun janooni kuch meri mohabbat bhi,
yeh junoon tham na jaaye aisa kabhi na ho,

meray hi saath hasna,mujh se hi mil ke rona,
mujh se bichad ke jee lo aisa kabhi na ho,

tum chand ban kar nikalna main dekhta rahoonga,
kisi raat tum na niklo
aisa kabhi na ho !!!!!!!!!

spdeshwal
October 9th, 2009, 07:57 AM
पगली लड़की
डॉ कुमार विश्वाश

अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग घुलता है
जब पिछवाडे के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं, अकेले होते हैं
जब घडियां टिक टिक चलती हैं , सब सोते हैं, हम रोते हैं
जब बार बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं
जब उंच नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती हैं
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस लड़की बिन मरना भी भारी लगता है

जब पोथे खाली होते हैं, जब हर्फ़ सवाली होते हैं
जब गजलें रास नहीं आती, अफ़साने गाली होते हैं
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है
जब कालेज से घर जाने वाली पहली बस छुट जाती है
जब बेमन से खाना खाने से माँ गुस्सा हो जाती हैं
जब लाख मना करने पर भी पारो पढने आ जाती है
जब अपना मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस लड़की बिन मरना भी भारी लगता है

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज सुने देती है
जब दर्पण में आँखों के निचे झाई दिखाई देती है
जब बडकी भाभी कहती है, कुछ सेहत का भी ध्यान करो
क्या लिखते हो लल्ला दिनभर, कुछ सपनो का भी सम्मान करो
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाने में घबराते हैं
जब साड़ी पहने लड़की का एक फोटो लाया जाता है
जब भाभी हमें मानती है, फोटो दिखलाया जाता है
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है

दीदी कहती हैं कि उस पगली लड़की कोई औकात नहीं
उसके दिल में भैया, तेरे जैसे प्यारे जज्बात नहीं
वो पगली लड़की मेरे लिए नो दिन भूखी रहती है
चुप चुप सारे व्रत करती है, पर मुझसे कभी न कहती है
जो पगली लड़की कहती है में प्यार तुम्ही से करती हूँ
लेकिन हूँ मजबूर बहुत , अम्मा बाबा से डरती हूँ
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा
ये कथा कहानी किस्से हैं कुछ भी तो सार नहीं बाबा
बस उस पगली लड़की के संग जीना फुलवारी लगता है
और उस पगली लड़की बिन मरना भी भारी लगता है

आप इस कविता को इस विडियो में सुन भी सकते हैं!



http://www.youtube.com/watch?v=nLguUMngR0k


चियर्स

Anjalis
October 11th, 2009, 12:17 PM
हम अखबार उठाते हुए भी डरते हैं, क्योंकि हमें मालूम है, मुख पृष्ठ पर कुछ भी अच्छा नहीं लिखा होगा . इस सब के जिम्मेदार हैं आज के कमज़ोर और बेईमान राजनेता . जिनको सिर्फ पैसा दिखता है
इसी सन्दर्भ में श्री सतपाल ख्याल जी एक कविता यहाँ छाप रही हूँ

खौफ़ से सहमी हुई है खून से लथपथ पड़ी
अब कोई मरहम करो घायल पड़ी है ज़िंदगी।

पुर्जा-पुर्जा उड़ गए कुछ लोग कल बारुद से
आज आई है खबर कि अब बढ़ी है चौकसी।

किस से अब उम्मीद रक्खें हम हिफ़ाजत की यहाँ
खेत की ही बाड़ सारा खेत देखो खा गई ।

यूँ तो हर मुद्दे पे संसद में बहस खासी हुई
हल नहीं निकला फ़कत हालात पर चर्चा हुई।

कौन अपना दोस्त है और कौन है दुश्मन यहाँ
बस ये उलझन थी जो सारी ज़िंदगी उलझी रही।

अपना ही घर लूटकर खुश हो रहें हैं वो ख्याल
आग घर के ही चरागों से है इस घर मे लगी।

सतपाल 'ख्याल'

htomar
October 11th, 2009, 12:58 PM
जीवकी न आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
------ harivansh rai bachchan

lalit_nashier
October 11th, 2009, 01:47 PM
संवेदनाओं को इस कविता में जिस प्रकार से उतारा गया है, उससे यह कविता अपने आप में बहुत कुछ कहती है । भावनाओं के समंदर में बहा ले जाने वाली रचना के लिए 'रचना' जी बधाई की पात्र हैं ।



पापा तुम क्यों तारा बन गए
हमसे दूर ईश्वर का सहारा बन गए
पार्क में बच्चे पापा के साथ खेलते हैं
कभी दौड़ते कभी कंधे पर चढ़ते हैं
मै दूर बैठा उनको देखा करता हूँ
बस तुम को ही सोचा करता हूँ
पहले से जीने के ढंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

माँ काम करते करते थक जाती है
कहानी रात को कभी कभी ही सुनती है
ब्रश मे फस्ट आने का कॉम्पटीशन कोई करता नहीं
सच पापा अब तो ब्रश करने का ही मन करता नहीं
मेरे जीवन के तो सारे रंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

मै अकेले स्कूल जाता हूँ
आप कि कही बातो को मन मे दोहराता हूँ
किनारे चलो ऊँगली पकडो मत दौडो
पर ऊँगली पकड़ने को जो हाथ बढ़ता हूँ
तुम को वहां नहीं पाता हूँ
मेरे तो सब सहारे गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

रोज मै तुम से बात करता हूँ
तारों मे तुम को खोजा करता हूँ
जब छाते हैं बादल तो बहुत रोता हूँ
तुम को नहीं देख पाउँगा बस यही कहता हूँ
आंसूं अब मेरे साथी बनगए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

शाम आती है पर तुम आते नहीं
कैसे हो बेटे कह के गोद में उठाते नहीं
एक बार कहो
क्या मिला होमवर्क रहा कैसा स्कूल
दो हाई फाई लग रहे हो कितने कूल
मस्ती भरे सारे वो पल गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

जब कहता हूँ चॉकलेट लाने को
बहला के मुझे दे देती है गुड खाने को
दो वक्त कि रोटी मिलजाए तू स्कूल जा पाए
बस इतना कमा पाती हूँ मै
इसी लिये तेरा कहा नहीं कर पाती हूँ
अब मेरी खाव्हिशों के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

मै माँ से माँ मुझ से छुप के रोती है
अक्सर खाने की ३ प्लेट धरती है
मै उसके लिये हसीं कमाना चाहता हूँ
आप जैसा घर का ख्याल रखना चाहता हूँ
मै जल्दी से बड़ा होना चाहता हूँ
मेरे खेलने के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

‘रचना ‘

रुला दिया ........

lalit_nashier
October 11th, 2009, 01:56 PM
पगली लड़की
डॉ कुमार विश्वाश

अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग घुलता है
जब पिछवाडे के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं, अकेले होते हैं
जब घडियां टिक टिक चलती हैं , सब सोते हैं, हम रोते हैं
जब बार बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं
जब उंच नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती हैं
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस लड़की बिन मरना भी भारी लगता है

जब पोथे खाली होते हैं, जब हर्फ़ सवाली होते हैं
जब गजलें रास नहीं आती, अफ़साने गाली होते हैं
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है
जब कालेज से घर जाने वाली पहली बस छुट जाती है
जब बेमन से खाना खाने से माँ गुस्सा हो जाती हैं
जब लाख मना करने पर भी पारो पढने आ जाती है
जब अपना मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस लड़की बिन मरना भी भारी लगता है

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज सुने देती है
जब दर्पण में आँखों के निचे झाई दिखाई देती है
जब बडकी भाभी कहती है, कुछ सेहत का भी ध्यान करो
क्या लिखते हो लल्ला दिनभर, कुछ सपनो का भी सम्मान करो
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाने में घबराते हैं
जब साड़ी पहने लड़की का एक फोटो लाया जाता है
जब भाभी हमें मानती है, फोटो दिखलाया जाता है
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है

दीदी कहती हैं कि उस पगली लड़की कोई औकात नहीं
उसके दिल में भैया, तेरे जैसे प्यारे जज्बात नहीं
वो पगली लड़की मेरे लिए नो दिन भूखी रहती है
चुप चुप सारे व्रत करती है, पर मुझसे कभी न कहती है
जो पगली लड़की कहती है में प्यार तुम्ही से करती हूँ
लेकिन हूँ मजबूर बहुत , अम्मा बाबा से डरती हूँ
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा
ये कथा कहानी किस्से हैं कुछ भी तो सार नहीं बाबा
बस उस पगली लड़की के संग जीना फुलवारी लगता है
और उस पगली लड़की बिन मरना भी भारी लगता है

आप इस कविता को इस विडियो में सुन भी सकते हैं!



http://www.youtube.com/watch?v=nlguumngr0k


चियर्स

मन की बात कह दी !

sjakhars
October 11th, 2009, 02:12 PM
संवेदनाओं को इस कविता में जिस प्रकार से उतारा गया है, उससे यह कविता अपने आप में बहुत कुछ कहती है । भावनाओं के समंदर में बहा ले जाने वाली रचना के लिए 'रचना' जी बधाई की पात्र हैं ।



पापा तुम क्यों तारा बन गए
हमसे दूर ईश्वर का सहारा बन गए
पार्क में बच्चे पापा के साथ खेलते हैं
कभी दौड़ते कभी कंधे पर चढ़ते हैं
मै दूर बैठा उनको देखा करता हूँ
बस तुम को ही सोचा करता हूँ
पहले से जीने के ढंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

माँ काम करते करते थक जाती है
कहानी रात को कभी कभी ही सुनती है
ब्रश मे फस्ट आने का कॉम्पटीशन कोई करता नहीं
सच पापा अब तो ब्रश करने का ही मन करता नहीं
मेरे जीवन के तो सारे रंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

मै अकेले स्कूल जाता हूँ
आप कि कही बातो को मन मे दोहराता हूँ
किनारे चलो ऊँगली पकडो मत दौडो
पर ऊँगली पकड़ने को जो हाथ बढ़ता हूँ
तुम को वहां नहीं पाता हूँ
मेरे तो सब सहारे गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

रोज मै तुम से बात करता हूँ
तारों मे तुम को खोजा करता हूँ
जब छाते हैं बादल तो बहुत रोता हूँ
तुम को नहीं देख पाउँगा बस यही कहता हूँ
आंसूं अब मेरे साथी बनगए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

शाम आती है पर तुम आते नहीं
कैसे हो बेटे कह के गोद में उठाते नहीं
एक बार कहो
क्या मिला होमवर्क रहा कैसा स्कूल
दो हाई फाई लग रहे हो कितने कूल
मस्ती भरे सारे वो पल गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

जब कहता हूँ चॉकलेट लाने को
बहला के मुझे दे देती है गुड खाने को
दो वक्त कि रोटी मिलजाए तू स्कूल जा पाए
बस इतना कमा पाती हूँ मै
इसी लिये तेरा कहा नहीं कर पाती हूँ
अब मेरी खाव्हिशों के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

मै माँ से माँ मुझ से छुप के रोती है
अक्सर खाने की ३ प्लेट धरती है
मै उसके लिये हसीं कमाना चाहता हूँ
आप जैसा घर का ख्याल रखना चाहता हूँ
मै जल्दी से बड़ा होना चाहता हूँ
मेरे खेलने के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

‘रचना ‘

My feelings are same like Lalit's for this poem, "rula diya..."

Thanks Anjali Ji, how could I miss this this one earlier?

ravinderjeet
October 13th, 2009, 04:45 PM
संवेदनाओं को इस कविता में जिस प्रकार से उतारा गया है, उससे यह कविता अपने आप में बहुत कुछ कहती है । भावनाओं के समंदर में बहा ले जाने वाली रचना के लिए 'रचना' जी बधाई की पात्र हैं ।



पापा तुम क्यों तारा बन गए
हमसे दूर ईश्वर का सहारा बन गए
पार्क में बच्चे पापा के साथ खेलते हैं
कभी दौड़ते कभी कंधे पर चढ़ते हैं
मै दूर बैठा उनको देखा करता हूँ
बस तुम को ही सोचा करता हूँ
पहले से जीने के ढंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

माँ काम करते करते थक जाती है
कहानी रात को कभी कभी ही सुनती है
ब्रश मे फस्ट आने का कॉम्पटीशन कोई करता नहीं
सच पापा अब तो ब्रश करने का ही मन करता नहीं
मेरे जीवन के तो सारे रंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

मै अकेले स्कूल जाता हूँ
आप कि कही बातो को मन मे दोहराता हूँ
किनारे चलो ऊँगली पकडो मत दौडो
पर ऊँगली पकड़ने को जो हाथ बढ़ता हूँ
तुम को वहां नहीं पाता हूँ
मेरे तो सब सहारेगए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

रोज मै तुम से बात करता हूँ
तारों मे तुम को खोजा करता हूँ
जब छाते हैं बादल तो बहुत रोता हूँ
तुम को नहीं देख पाउँगा बस यही कहता हूँ
आंसूंअब मेरे साथी बनगए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

शाम आती है पर तुम आते नहीं
कैसे हो बेटे कह के गोद में उठाते नहीं
एक बार कहो
क्या मिला होमवर्क रहा कैसा स्कूल
दो हाई फाई लग रहे हो कितने कूल
मस्ती भरे सारे वो पल गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

जब कहता हूँ चॉकलेट लाने को
बहला के मुझे दे देती है गुड खाने को
दो वक्त कि रोटी मिलजाए तू स्कूल जा पाए
बस इतना कमा पाती हूँ मै
इसी लिये तेरा कहा नहीं कर पाती हूँ
अबमेरी खाव्हिशों के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

मै माँ से माँ मुझ से छुप के रोती है
अक्सर खाने की ३ प्लेट धरती है
मै उसके लिये हसीं कमाना चाहता हूँ
आप जैसा घर का ख्याल रखना चाहता हूँ
मै जल्दी से बड़ा होना चाहता हूँ
मेरे खेलने के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

‘रचना‘
bhaawenaaon kaa samunder hei ye kavitaa.dil ki gehraai tek jhekjhor diyaa.

Anjalis
October 14th, 2009, 11:48 AM
my feelings are same like lalit's for this poem, "rula diya..."

thanks anjali ji, how could i miss this this one earlier?

ललित जी, सीताराम जाखड जी और रविंदर जीत सिंह जी

यह कविता है ही इतनी भावनात्मक किसी भी संवेदनशील मनुष्य को रुला दे .

]मैं माँ से माँ मुझ से छुप कर रोती हैं ...[/size]....
कितनी संवेदना है इन शब्दों में

ravinderjeet
October 14th, 2009, 02:46 PM
anjali ji last month i lost my wife and when i read this kavitaa i was not able to control myself.i know that how i and my childern are couping with this.

Anjalis
October 14th, 2009, 03:08 PM
anjali ji last month i lost my wife and when i read this kavitaa i was not able to control myself.i know that how i and my childern are couping with this.

इश्वर आपको हौंसला दे
मुझे माफ़ कर दें , बहुत दुःख हुआ आपकी अर्धांगिनी की दुखद खबर से
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे

Anjalis
October 14th, 2009, 03:29 PM
anjali ji last month i lost my wife and when i read this kavitaa i was not able to control myself.i know that how i and my childern are couping with this.



कभी एक पर्वत थी जिदंगी
सूनी-अकेली-अबोली-सी,
किसी ने छुआ फूल बन गई,
किसी ने झटक दिया
पाँखुरी-सी बिखर गई।
तब जाना:
न कभी वह फूल थी,
न राई-पर्वत,
एक खिलौना भर थी
टूट बिखर कर
होती रही आहत।
कोई और जिदंगी
पास आई तो
वह प्रभावित हुई
और किसी बिछोह के साथ
रह गई छुईमुई।

TARACHAUDHARY
October 19th, 2009, 02:02 AM
(1)
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
(2)
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
(1)
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
(2)
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
(3)
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी। है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
(3)
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

TARACHAUDHARY
October 19th, 2009, 02:06 AM
कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,
नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ?

[1]

बताएँ भेद क्या तारे ? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?
यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।

[2]

सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,
नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ?

[3]

धुओं का देश है नादान ! यह छलना बड़ी है,
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,
किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।

[4]

गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में,
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,
शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ?

[5]

नया स्वर खोजनेवाले ! तलातल तोड़ता जा,
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?
वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।

[6]

वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,
उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?

[7]

हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,
गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।

TARACHAUDHARY
October 19th, 2009, 02:08 AM
उसकी चूड़ी, उसकी बेंदी, उसकी चुनर से अलग।
मैं सफर में भी न हो पाया कभी घर से अलग।


गो कि मेरी ‘पास-बुक’ से भी बड़े थे उनके ख्वाब
फिर भी उसने पाँव फैलाये न चादर से अलग।


मुझसे वो अक्सर लड़ा करती है, मतलब साफ है
वो न भीतर से अलग है, वो न बाहर से अलग।


पत्रिकायें उसके पढ़ने की मैं लाया था कई
फिर भी उसने कुछ न देखा मेरे स्वेटर से अलग।


सोच में उसके भरी हैं मेरी लापरवाहियाँ
यों वो सोने जा रही हैं मेरे बिस्तर से अलग।
उसकी चूड़ी, उसकी बेंदी, उसकी चुनर से अलग।
मैं सफर में भी न हो पाया कभी घर से अलग।


गो कि मेरी ‘पास-बुक’ से भी बड़े थे उनके ख्वाब
फिर भी उसने पाँव फैलाये न चादर से अलग।


मुझसे वो अक्सर लड़ा करती है, मतलब साफ है
वो न भीतर से अलग है, वो न बाहर से अलग।


पत्रिकायें उसके पढ़ने की मैं लाया था कई
फिर भी उसने कुछ न देखा मेरे स्वेटर से अलग।


सोच में उसके भरी हैं मेरी लापरवाहियाँ
यों वो सोने जा रही हैं मेरे बिस्तर से अलग।


उम्र ढलते ही बनेगा कौन मेरा आइना
हो न पाया मैं कभी उससे इसी डर से अलग।


दोस्तों, हर प्रश्न का उत्तर तुम्हें मिल जायेगा
सोचना कुछ देर घर को अपने दफ्तर से अलग।

उम्र ढलते ही बनेगा कौन मेरा आइना
हो न पाया मैं कभी उससे इसी डर से अलग।


दोस्तों, हर प्रश्न का उत्तर तुम्हें मिल जायेगा
सोचना कुछ देर घर को अपने दफ्तर से अलग।

ysjabp
October 19th, 2009, 01:51 PM
जब से मन घनश्याम हो गया
तन वृंदावन धाम हो गया

राधा के मुख से जो निकला
वही कृष्ण का नाम हो गया

तन की तपन मिली है तन को
जख़्मों में आराम हो गया

प्रीति रही बदनाम सदा से
लेकिन मेरा नाम हो गया

वे कालिख पीकर भी उजले
वक्त स्वयं बदनाम हो गया

तुम ने जिस क्षण छुआ दृष्टि से
सारा जग अभिराम हो गया

अल्प विराम मृत्यु को जग ने
समझा पूर्ण विराम हो गया

सब गुलाम राजा बन बैठे
राजा मगर गुलाम हो गया

तुम ने आँखों से क्या ढाली
'यायावर' ख़ैयाम हो गया


राम सनेहीलाल शर्मा 'यायावर'

htomar
October 28th, 2009, 12:45 PM
क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!


पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!


जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

अटल बिहारी वाजपेयी (http://soties.blogspot.com/2009/04/blog-post_9802.html)

htomar
October 30th, 2009, 01:54 PM
जा चुके है सब और वही खामोशी छायी है,
पसरा है हर ओर सन्नाटा, तन्हाई मुस्कुराई है,
छूट चुकी है रेल ,
चंद लम्हों की तो बात थी,
क्या रौनक थी यहॉं,
जैसे सजी कोई महफिल खास थी,
अजनबी थे चेहरे सारे,
फिर भी उनसे मुलाक़ात थी,
भेजी थी किसी ने अपनाइयत,
सलाम मे वो क्या बात थी,
एक पल थे आप जैसे क़ौसर,
अब बची अकेली रात थी,
चलो अब लौट चलें यहॉं से,
छूट चुकी है रेल
ये अब गुज़री बात थी,
उङते काग़ज़, करते बयान्*,
इनकी भी किसी से
दो पल पहले मुलाक़ात थी,
बढ़ चले क़दम,
कनारे उन पटरियों
कहानी जिनके रोज़ ये साथ थी,
फिर आएगी दूजी रेल,
फिर चीरेगी ये सन्नाटा
जैसे जिन्दगी से फिर मुलाक़ात थी,
फिर लौटेंगे और,
भारी क़दमों से,जैसे
कोई गहरी सी बात थी,
छूट चुकी है रेल,
अब सिर्फ काली स्याहा रात थी |

Anjalis
November 4th, 2009, 03:03 PM
जब काली रात बहुत गहराती है,
तब सच कहूँ, याद तुम्हारी आती है !
जब काले मेघों के ताँडव से,सृष्टि डर डर जाती है,
तब नन्हीं बूँदों में, सारे,अंतर की प्यास छलकाती है.
जब थक कर, विहंगों की टोली, साँध्य गगन मे खो जाती है,
तब नीड में दुबके पंछी -सी, याद, मुझे अक्स्रर अकुलाती है!
जब भीनी रजनीगंधा की लता, खुद-ब- खुद बिछ जाती है,
तब रात भर, माटी के दामन से, मिलकर, याद, मुझे तडपाती है !
जब हौले से सागर पर , माँझी की कश्ती गाती है,
तब पतवार के सँग कोई, याद दिल चीर जाती है!
जब पर्बत के मँदिर पर, घंटियाँ नाद गुँजातीं हैं
तब मन के दर्पण पर पावन माँ की छवि दिख जाती है!
जब कोहरे से लदी घाटियाँ , कुछ पल ओझल हो जाती हैं
तब तुम्हें खोजते मेरे नयनों के किरन पाखी में समातीं हैं
वह याद रहा,यह याद रहा, कुछ भी तो ना भूला मन!
मेघ मल्हार गाते झरनों से जीत गया बैरी सावन!
हर याद सँजो कर रख ली हैं मन में,
याद रह गईं, दूर चला मन! ये कैसा प्यारा बँधन!

लावण्या शाह

htomar
November 4th, 2009, 06:12 PM
very nice anjali ji........


हर याद सँजो कर रख ली हैं मन में,
याद रह गईं, दूर चला मन! ये कैसा प्यारा बँधन!

लावण्या शाह

htomar
November 9th, 2009, 06:33 PM
हुई है जबसे ये हालत मेरी
मैने विश्वास करना छोड़ दिया
लौटा हूं जबसे हर दर से तनहा
मैने आस लगाना छोड़ दिया।

जलाता हूं विश्वास का आज भी दिया
मगर दिल में मेरे रोशनी नहीं होती
बढ़ाता हूं राहों पे आज भी कदम
मगर सफर है कि मेरी पूरी नहीं होती।

लगाया है जब से फरेब को दिल से
मैने दोस्त बनाना छोड़ दिया
खाया है जबसे नज़र का धोखा
मैने प्यार जताना छोड़ दिया।

करता हूं लोगों से आजमी बातें, पर
निगाहों की खामोशी मिटा नहीं सकता
छुपाता हूं आज भी दिल का दर्द
मगर आंखों के आंसू छुपा नहीं सकता।

टूटा है जबसे मेरा हर ख्वाब
मैने उम्मीद लगाना छोड़ दिया
जब से उठा भगवान से विश्वास
मैने पूजा करना छोड़ दिया।

अब अंधेरा ही दिन है
अंधेरी है रातें
अब अंधेरों से ही करता हूं
दिल की बातें।

अब है न कोई रास्ता
न मेरी कोई मंज़िल
मुझमें है खामोशी
मैं खामोशी में शामिल।

छोड़ा है जबसे किसी ने मेरा साथ
मैने हाथ बढ़ाना छोड़ दिया
उठा है जबसे इंसां से निश्वास
मैने सांस लेना छोड़ दिया।

--------सौरभ कुणाल (http://syaah.blogspot.com/search/label/%E0%A4%B8%E0%A5%8C%E0%A4%B0%E0%A4%AD%20%E0%A4%95%E 0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A4%BE%E0%A4%B2)

Anjalis
November 10th, 2009, 11:15 AM
अमेरिका की पतझड़
कितनी सुहानी है,
गिरते पत्तों की भी
एक कहानी है.

हर पत्ता,
राजनीति की तरह,
कई रंग बदलता है.
रंग- बिरंगे सूखे पत्ते
गिरते -गिरते
धरती भर जाते हैं,
नेता जाते -जाते
देश को खाली कर जाते हैं.

दूर -दूर तक लोग ड्राईव कर
पत्तों के रंगों को देखने जाते हैं.
पतझड़ की उदासी छोड़
ढेर सी खुशियाँ साथ लाते हैं.
काश! मानव प्रकृति से
कुछ सीख पाता
अपनी ज़िन्दगी के थोड़े से रंग
दूसरों की ज़िन्दगी में भर पाता.

htomar
November 10th, 2009, 02:43 PM
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

यह जो रात चुरा बैठी है चांद सितारों की तरुणाई,
बस तब तक कर ले मनमानी जब तक कोई किरन न आई,
खुलते ही पलकें फूलों की, बजते ही भ्रमरों की वंशी
छिन्न-भिन्न होगी यह स्याही जैसे तेज धार से काई,
तम के पांव नहीं होते, वह चलता थाम ज्योति का अंचल
मेरे प्यार निराश न हो, फिर फूल खिलेगा, सूर्य मिलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

सिर्फ भूमिका है बहार की यह आंधी-पतझारों वाली,
किसी सुबह की ही मंजिल है रजनी बुझे सितारों वाली,
उजड़े घर ये सूने आंगन, रोते नयन, सिसकते सावन,
केवल वे हैं बीज कि जिनसे उगनी है गेहूं की बाली,
मूक शान्ति खुद एक क्रान्ति है, मूक दृष्टि खुद एक सृष्टि है
मेरे सृजन हताश न हो, फिर दनुज थकेगा, मनुज चलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!


व्यर्थ नहीं यह मिट्टी का तप, व्यर्थ नहीं बलिदान हमारा,
व्यर्थ नहीं ये गीले आंचल, व्यर्थ नहीं यह आंसू धारा,
है मेरा विश्वास अटल, तुम डांड़ हटा दो, पाल गिरा दो,
बीच समुन्दर एक दिवस मिलने आयेगा स्वयं किनारा,
मन की गति पग-गति बन जाये तो फिर मंजिल कौन कठिन है?
मेरे लक्ष्य निराश न हो, फिर जग बदलेगा, मग बदलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!


जीवन क्या?-तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है।
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

गोपाल दास नीरज

cooljat
November 13th, 2009, 04:47 PM
A deep touching poem by Pratap Narayan Singh, which actually reflects n' describes his own Book of life, as the title says.
Very simple but full of emotions that penetrates deep into the soul.


जीवन की किताब - प्रताप नारायण सिंह

मेरे जीवन की किताब से जाने कब
प्यार का पन्ना फट कर निकल गया था
जब से होश सँभाला
उसे तलाशता रहा यहाँ वहाँ
भटकता रहा उसकी खोज में गलियों और कूचों में
ढूँढ़ता रहा उसे विभिन्न आकृतियों में
बौराया फिरता रहा हर पल
पर वह नही मिला
मैं हार बैठा
समझा लिया मन को
फिर एक दिन
कुछ जानी पहचानी शक्लों वाले
शब्दों ने आवाज़ दी
पास गया तो पाया कि
ये मेरे ही गुम हुए पन्ने के शब्द हैं
मैं एक पल खुश हुआ, बहुत खुश
दूसरे पल उदास हो गया
वह पन्ना अब एक किताब बन चुका था
कैसे जोड़ पाऊँगा उसे फिर
अपने जीवन की किताब से?


Rock on
Jit

cooljat
November 14th, 2009, 10:18 PM
Ppl keep expectations n' they feel satisfied after fulfilling of one or few, but sometimes after givin' in too much efforts still you don't receive the due in return, n' it is when the frustration creeps in. But that's life anyways .. all the great expectations, few hope against hope don't actually fullfill. The poet here describes his frustration n' the irritation in very deep touching way thro' this b'ful creation! :)


कोई फाँस चुभी हैं मन में - गौरव

शब्दों का एक अविरल प्रवाह,
अवचेतन में,
एक फाँस चुभी है, तर्जनी में,
और एक मन में ...

विचित्र हैं पर सत्य यही,
कल सुख देती थी, आज पीड़ा,
कदापि यही भाग्य,
यही प्रारब्ध की क्रीडा …

समय बीता तो बन गई,
अंश अस्तित्व का
आधा भाग जीवन का,
आधा व्यक्तित्व का …

साथी बनी थी, आकुलता बन कर,
आज शत्रु सद्रश, व्याकुलता बन कर ...

प्रेम, ईर्ष्या, मोह के आवेगों में बहता,
नवरूप को खोजता …

वर्षों की पीड़ा मन में,
और मन की पीड़ा वर्तनी में,
एक फाँस चुभी हैं, तर्जनी में …

शीश अब भी झुके, समक्ष ईश के,
थोडी वितृष्णा ह्रदय में,
पूरी श्रृद्धा नमन में,
पर कोई फाँस चुभी हैं, मन में ! ...


Rock on
Jit

gaganjat
November 14th, 2009, 11:05 PM
wah jeet, kya sundar rachna hai kavi ki. koi bhi vyakti is uttam rachna ko sun kar bhawvibhoor ho jaye.

aisa laga ki koi subah oos ka tapka phool se tapak hai ik pyase ke muh me tapak kar uski pyas bhuja rah ho.

ati uttam . sarwashresth kavita

narendrasinghad
November 15th, 2009, 11:48 AM
very encouraging poem writen by you, please keep on writting on social side also which can reflect our current status in society.

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

यह जो रात चुरा बैठी है चांद सितारों की तरुणाई,
बस तब तक कर ले मनमानी जब तक कोई किरन न आई,
खुलते ही पलकें फूलों की, बजते ही भ्रमरों की वंशी
छिन्न-भिन्न होगी यह स्याही जैसे तेज धार से काई,
तम के पांव नहीं होते, वह चलता थाम ज्योति का अंचल
मेरे प्यार निराश न हो, फिर फूल खिलेगा, सूर्य मिलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

सिर्फ भूमिका है बहार की यह आंधी-पतझारों वाली,
किसी सुबह की ही मंजिल है रजनी बुझे सितारों वाली,
उजड़े घर ये सूने आंगन, रोते नयन, सिसकते सावन,
केवल वे हैं बीज कि जिनसे उगनी है गेहूं की बाली,
मूक शान्ति खुद एक क्रान्ति है, मूक दृष्टि खुद एक सृष्टि है
मेरे सृजन हताश न हो, फिर दनुज थकेगा, मनुज चलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!


व्यर्थ नहीं यह मिट्टी का तप, व्यर्थ नहीं बलिदान हमारा,
व्यर्थ नहीं ये गीले आंचल, व्यर्थ नहीं यह आंसू धारा,
है मेरा विश्वास अटल, तुम डांड़ हटा दो, पाल गिरा दो,
बीच समुन्दर एक दिवस मिलने आयेगा स्वयं किनारा,
मन की गति पग-गति बन जाये तो फिर मंजिल कौन कठिन है?
मेरे लक्ष्य निराश न हो, फिर जग बदलेगा, मग बदलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!


जीवन क्या?-तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है।
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

गोपाल दास नीरज

htomar
November 15th, 2009, 01:10 PM
देखो आज फिर वह मूर्ख
दमभर नाच रहा है,
दीवाली तो हाल ही में बीती है
फिर भी पटाखे छोड़ रहा है,
होली आने में देर है
पर गुलाल उड़ा रहा है,
ईद भी आसपास नहीं
फिर भी गले मिल रहा है।
नाचता है हर साल
चुनाव परिणाम घोषित होने पर
खुश होता है इसी तरह
अपने नेता के जीतने पर।

पीढ़ियों से वह नाच रहा है
परंपरा को निभा रहा है,
पिता से मिली विरासत को
अपने बेटे को सिखा रहा है।
आंखों का पानी सूख चुका है
पर फाड़कर होंठ मुस्का रहा है
भूखे पेट, चिथड़ों में लिपटा हुआ
देखो वह मूर्ख फिर नाच रहा है।

sudhirsejwal
December 5th, 2009, 11:47 AM
God's Masterpiece Is Mother

God took the fragrance of a flower...
The majesty of a tree...
The gentleness of morning dew...
The calm of a quiet sea...
The beauty of the twilight hour...
The soul of a starry night...
The laughter of a rippling brook...
The grace of a bird in flight...
Then God fashioned from these things
A creation like no other,
And when his masterpiece was through
He called it simply - Mother.

Anjalis
December 29th, 2009, 03:03 PM
इश्क़ की बूटी
डाल के लूटी,
ओ री झूठी,
सच कह -
तूने पाई कहाँ से
प्यार-मोहब्बत की यह घुट्टी,
खुद तो हुई बावरी फिरती,
मेरी भी कर दी है छुट्टी।
अब जो तेरे जाल में हूँ तो
नैनन से हीं घायल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।

बोल रसीले,
छैल-छबीले,
थोड़े ढीले,
बह कर-
मेरी ओर जुबाँ से
बने बनाए बाँध को छीले,
खुद तो मुझमें प्यास जगाए,
फिर मेरी चुप्पी को पी ले।
अब जो तेरी झील में हूँ तो
सावन का हीं बादल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।

रूप की गठरी,
रंग की मिसरी,
लेके ठहरी,
मुझ तक-
तेरी आन पड़ी है
जान-जिया की माँग ये दुहरी,
खुद तो चाल चले है सारी,
फिर मुझसे पूछे क्या बहरी।
अब जो तेरे साथ में हूँ तो
जोबन का हीं कायल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।


विश्वदीपक ' तनहा'

htomar
January 11th, 2010, 01:51 PM
क्या वह भी अरमान तुम्हारा ?

जो मेरे नयनों के सपने,
जो मेरे प्राणों के अपने ,
दे-दे कर अभिशाप चले सब-
क्या यह भी वरदान तुम्हारा ?


खुली हवा में पर फैलाता,
मुक्त विहग नभ चढ़ कर गाता
पर जो जकड़ा द्वंद्व-बन्ध में,-
क्या वह भी निर्माण तुम्हारा ?


बादल देख हृदय भर आया
'दो दो-बूँद' कहा, दुलराया ;
पर पपीहरे ने जो पाया, -
क्या वह भी पाषाण तुम्हारा ?


नीरव तम, निशीथ की बेला,
मरु पथ पर मैं खड़ा अकेला
सिसक-सिसक कर रोता है, जो -
क्या वह भी प्रिय गान तुम्हारा ?


जानकीवल्लभ शास्त्री (http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4% 95%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0 %A4%AD_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4% A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80)

htomar
February 7th, 2010, 01:56 PM
अगर रख सको तो एक निशानी हूँ मैं,
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मैं ,
रोक पाए न जिसको ये सारी दुनिया,
वोह एक बूँद आँख का पानी हूँ मैं…..

सबको प्यार देने की आदत है हमें,
अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे,
कितना भी गहरा जख्म दे कोई,
उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें…

इस अजनबी दुनिया में अकेला ख्वाब हूँ मैं,
सवालो से खफा छोटा सा जवाब हूँ मैं,
जो समझ न सके मुझे, उनके लिए “कौन”
जो समझ गए उनके लिए खुली किताब हूँ मैं,

आँख से देखोगे तो खुश पाओगे,
दिल से पूछोगे तो दर्द का सैलाब हूँ मैं,,,,,
अगर रख सको तो निशानी,
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मैं.....

deepshi
February 7th, 2010, 02:51 PM
आस्मां के तारे अक्सर पूछते हैं हमसे
क्या तुम्हे आज भी इंतज़ार है उसके लौट आने का
और ये दिल मुस्कुरा के कहता है
मुझे तो अब तक यकीन नही उसके चल जाने का

VirJ
February 7th, 2010, 03:13 PM
लोड करके राईफल, जब जीप पे सवार होते... बाऩध साफा जब गाबरू तयार होते..... देखती है दुनिया छत पर चढके..... और कहते "काश हम भी जाट होते"..... He he

pawariya
February 14th, 2010, 01:46 PM
jo bhara nahin hai bhawon se , behti jisme rasdhar nahin.....
hardya nahin wo pathhar hai, jisme swadesh ka pyar nahin................:thappad:thappad


Jai hind, Jai Bharat...........................

htomar
March 10th, 2010, 03:27 PM
नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?

नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और

शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने

बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने

कहँ ‘ काका ‘ कवि , दयाराम जी मारें मच्छर

विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर



मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप

श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप

जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -

ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में

कहँ ‘ काका ‘ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे

पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे



देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट

सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ

मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे

धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे

कहँ ‘ काका ‘ कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे

बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे



पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल

बिना सूँ ड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल

मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी

बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी

कहँ ‘ काका ‘ कविराय , करें लाखों का सट्टा

नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा



चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध

श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध

रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते

इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते

कहँ ‘ काका ‘, बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं

थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं

htomar
March 11th, 2010, 10:09 AM
अमावस की काली रातों में, दिल का दरवाज़ा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में, गम आँसू के संग घुलता है,
जब पिछवाड़े के कमरे में, हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक टिक चलती हैं, सब सोते हैं हम रोते हैं,
जब बार बार दोहराने से, सारी यादें चुभ जाती हैं,
जब ऊँच नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती है,
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।



जब पोथे खाली होते हैं, जब हर्फ़ सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नहीं आतीं, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे, दिन जल्दी ढल जाता है,
जब सूरज का लश्कर छत से, गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा, मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली, पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ, गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी, पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना मनचाहा हर काम, कोई लाचारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।



जब कमरे में सन्नाटे की, आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आँखों के नीचे, झांई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो लल्ला दिन भर, कुछ सपनों का सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में, कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते में घबराते हैं,
जब साड़ी पहने लड़की का, एक फ़ोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फ़ोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना, हम को फ़नकारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।



दीदी कहती हैं कि, उस पगली लड़की की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैय्या, तेरे जैसे प्यारे जस्बात नहीं,
वो पगली लड़की मेरे खातिर, नौ दिन भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, पर मुझ से कभी न कहती है,
जो पगली लड़की कहती है, मैं प्यार तुम्हीं से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना, कुछ भी अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा कहानी किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लड़की के संग, जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।



--------------------डा० कुमार विश्वास--------------------

prash
April 25th, 2010, 10:35 AM
मेरी यह पहली पोस्ट है इस फोरम में. मैं आप सभीका बहुत बहुत धन्यवाद करता हूँ इतना अच्छा संकलन बनाया. मैंने आज यहाँ कम से कम ४ घंटे बिताए.

मेरा एक ब्लॉग है जहाँ मैंने सबसे पसंदीदा कवितायेँ संकलित करना शुरू किया है, लेकिन उनमें से कुछ अज्ञात हैं क्यूंकि लेखक / लेखिका का नाम नहीं पता. अगर आप में से किसी को ऐसी कविता दिखे तो कृपया वहाँ कमेन्ट करके मेरी मदद करें. अगर आप इच्छुक हैं तो मुझे ईमेल कीजिये मैं ब्लॉग का पता बता दूंगा.

धन्यवाद!

deependra
April 28th, 2010, 10:24 PM
Hi Prash,
Welcome to the Jatland!!
Will be better if you post the link of the blog here itself.

madhvi
April 30th, 2010, 05:39 AM
माँ कह एक कहानी
"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।"
"जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।"
"सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"


- मैथिलीशरण गुप्त

madhvi
April 30th, 2010, 05:45 AM
Ek BooNd

jyoN nikal kar baadloN ki god se
thii abhii ek booNd kuchh aage baDi
sochne phir-phir yahii jii meiN lagii
aah! kyoN ghar chhoD kar maiN yooN kaDii


dev! mere bhagya meiN kayaa badaa
maiN bachooNgii ya milooNgii dhool meiN
ya jalooNgii gir aNgaare par kisii
choo paDoogiiN ya kamal ke phool meiN

bah gayii us kaal ek aisii hawaa
veh samunder oar aayii anmanii
ek sunder siip ka moohN thaa khulaa
vah usii meiN jaa paDii moti banii

log yooN hii haiN jhijhakte, sochte
jab ki unko chhoDnaa paDta hai ghar
kintoo ghar ko chhoDnaa aksar unheN
booNd loN kucch aur hii detaa hai kar

deependra
April 30th, 2010, 07:52 PM
मरना पड़े देशहित अगर मुझको सहश्त्रो बार भी,
तो भी ना इसे निज ध्यान में लाऊं कभी,
हे ईश शत बार भारत वर्ष में मेरा जन्म हो
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपरक कर्म हो.

-अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

cooljat
May 3rd, 2010, 04:19 PM
What's life? a poem or a poet itself .. this wonderful n' touching poem try to explain it n' clear the confusion.


ज़िन्दगी : कविता या कवयित्री - सुरेन्द्र प्रताप सिंह


सोचता हूँ पल प्रति पल
कि ज़िन्दगी एक कविता है
या, स्वयं एक कवयित्री !

जन्म से मरण तक
न जाने कितने उतार-चढ़ाव,
कितने हादसे, कितने ग़म, कितनी खुशियाँ !
कभी इच्छाओं की मौत
कभी मौत की इच्छा !
कभी ह्रदय को बहलाते क्षण
कभी दहलाते !

संदेह, विश्वास, भय, प्रेम,
वात्सल्य, करूणा, ममता आदि
रसों और भावों को
अपने में संजोए
ज़िन्दगी एक कविता ही तो है !
परन्तु कौन, किस पर,
कैसे लिखता है?
क्या स्वयं ज़िन्दगी ?
शायद हाँ !
शायद नहीं !

फिर बार-बार
सोचता हूँ पल प्रति पल
कि ज़िन्दगी एक कविता है
या स्वयं एक कवयित्री ?
प्रश्न है अब तक
अनुत्तरित,
अनिर्णीत !


Rock on
Jit

deependra
May 4th, 2010, 12:31 AM
What's life? a poem or a poet itself .. this wonderful n' touching poem try to explain it n' clear the confusion.


ज़िन्दगी : कविता या कवयित्री - सुरेन्द्र प्रताप सिंह


सोचता हूँ पल प्रति पल
कि ज़िन्दगी एक कविता है
या, स्वयं एक कवयित्री !

जन्म से मरण तक
न जाने कितने उतार-चढ़ाव,
कितने हादसे, कितने ग़म, कितनी खुशियाँ !
कभी इच्छाओं की मौत
कभी मौत की इच्छा !
कभी ह्रदय को बहलाते क्षण
कभी दहलाते !

संदेह, विश्वास, भय, प्रेम,
वात्सल्य, करूणा, ममता आदि
रसों और भावों को
अपने में संजोए
ज़िन्दगी एक कविता ही तो है !
परन्तु कौन, किस पर,
कैसे लिखता है?
क्या स्वयं ज़िन्दगी ?
शायद हाँ !
शायद नहीं !

फिर बार-बार
सोचता हूँ पल प्रति पल
कि ज़िन्दगी एक कविता है
या स्वयं एक कवयित्री ?
प्रश्न है अब तक
अनुत्तरित,
अनिर्णीत !


Rock on
Jit

Dear Jeet beautiful poem, Thanks for Sharing.

deependra
May 4th, 2010, 04:04 AM
An Inspirational poem by RashtraKavi Ramdhari Singh Dinkar-

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नही विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं
मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
खम ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब ज़ोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
है छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नही जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।

urvashipawar
May 4th, 2010, 09:10 AM
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

by Harivansh Rai Bachchan

htomar
May 10th, 2010, 09:36 AM
मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें
उनमें एक तुम हो।

चाहूँ या न चाहूँ :
जब ज़रूरत हो तुम,
तो तुम हो मुझ में
और पूरे अन्त तक रहोगी।

इससे यह सिद्ध कहाँ होता कि
मैं भी तुम्हारे लिए
उसी तरह ज़रूरी।

देखो न!
आदमी को हवा चाहिए ज़िन्दा रहने को
पर हवा तो
आदमी की अपेक्षा नहीं करती,
वह अपने आप जीवित है।

डाली पर खिला था एक फूल,
छुआ तितली ने,
रस लेकर उड़ गई।
पर
फूल वह तितली मय हो चुका था।

झरी पँखुरी एक : तितली।
फिर दूसरी भी : तितली।
फिर सबकी सब : तितली।
छूँछें वृन्त पर बाक़ी
बची ख़ुश्की जो : तितली।

कोमलता
अंतिम क्षण तक
यह बताकर ही गई :
'मैं वहाँ भी हूँ,
जहाँ मेरी कोई ज़रूरत नहीं।'



------ अजित कुमार (http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4% BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE_/_%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0 %A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0)

htomar
May 11th, 2010, 07:42 PM
एक सुनहली किरण उसे भी दे दो
भटक गया जो अंधियारे के वन में,
लेकिन जिसके मन में,
अभी शेष है चलने की अभिलाषा
एक सुनहली किरण उसे भी दे दो

मौन कर्म में निरत
बध्द पिंजर में व्याकुल
भूल गया जो
दुख जतलाने वाली भाषा
उसको भी वाणी के कुछ क्षण दे दो

तुम जो सजा रहे हो
ऊंची फुनगी पर के ऊर्ध्वमुखी
नव पल्लव पर आभा की किरनें
तुम जो जगा रहे हो
दल के दल कमलों की ऑंखों के
सब सोये सपने

तुम जो बिखराते हो भू पर
राशि राशि सोना
पथ को उद्भासित करने

एक किरण से
उसका भी माथा आलोकित कर दो

एक स्वप्न
उसके भी सोये मन में
जागृत कर दो।

------कीर्ति चौधरी

Anjalis
June 11th, 2010, 11:46 AM
अथक प्रयास के उजले विचार से निकली
हमारी जीत, निरंतर जुझार से निकली

हरेक युद्ध किसी संधि पर समाप्त हुआ
अमन की राह हमेशा प्यार से निकली

जो मन का मैल है, उसको तो व्यक्त होना है
हमारी कुण्ठा हजारों प्रकार से निकली

ये अर्थ—शास्त्र भी कहता है, अपनी भाषा में—
नकद की राह हमेशा उधार से निकली

नजर में आने की उद्दंड युक्ति अपनाकर ,
वो चलते—चलते अचानक कतार से निकली

हमारी चादरें छोटी, शरीर लंबे है
हमारे खर्च की सीमा पगार से निकली

ये सोच कर ही तुम्हें रात से गुजरना है
सुहानी भोर सदा अंधकार से निकली



जहीर कुरैशी

Anjalis
June 11th, 2010, 11:50 AM
घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए


अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए


मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए


धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए


होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए


इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए


बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.



जहीर कुरैशी

Anjalis
June 11th, 2010, 11:52 AM
मुस्कुराना भी एक चुम्बक है,
मुस्कुराओ, अगर तुम्हें शक है!

उसको छू कर कभी नहीं देखा,
उससे सम्बन्ध बोलने तक है।
डाक्टर की सलाह से लेना,
ये दवा भी ज़हर-सी घातक है।

दिन में सौ बार खनखनाती है
एक बच्चे की बंद गुल्लक है।
उससे उड़ने की बात मत करना,
वो जो पिंजरे में अज बंधक है।

हक्का-बक्का है बेवफ़ा पत्नी,
पति का घर लौटना अचानक है!
'स्वाद' को पूछना है 'बंदर' से,
जिसके हाथ और मुँह में अदरक है।






जहीर कुरैशी

hamendra
June 11th, 2010, 04:45 PM
Bahut Dino ke baad aaj jatland par aaya aur aap kee kavita padee, Greate collection Anjali. Simply Greate!!!!!!!!!!!!!!

hemanthooda
June 11th, 2010, 05:10 PM
maile ho jaatein hain rishte bhi libaason ki tarah
dosti har din ki mehnat hai chalo yun hi sahi
bhool thi apni ... aadmi ko farishta samjha
aadmi mein aadmiyat hai chalo yun hi sahi

sunillathwal
July 4th, 2010, 04:19 PM
आसमान लाल-लाल हो रहा,
धरती पर घमासान हो रहा।

हरियाली खोई है,
नदी कहीं सोई है,
फसलों पर फिर किसान रो रहा।

सुख की आशाओं पर,
खंडित सीमाओं पर,
सिपाही लहू लुहान हो रहा।

चिनगी के बीज लिए,
विदेशी तमीज लिए,
परदेसी धान यहाँ बो रहा।

-- भारतेंदु मिश्र

Anjalis
July 10th, 2010, 03:24 PM
कब ऐसा सोचा था मैंने मौसम भी छल जाएगा
सावन-भादों की बारिश में घर मेरा जल जाएगा

रंजोग़म की लम्बी रातों इतना मत इतराओ तुम
निकलेगा कल सुख का सूरज अंधियारा टल जाएगा

अक्सर बातें करता था जो दुनिया में तब्दीली की
किसे ख़बर थी वो दुनिया के रंगों में ढल जाएगा

नफ़रत की पागल चिंगारी कितनों के घर फूँक चुकी
अगर न बरसा प्यार का बादल सारा शहर जल जाएगा

दुख की इस नगरी में आख़िर रैन-बसेरा है सबका
आज रवाना होगा कोई और कोई कल जाएगा





देवमणि पाण्डेय

sanjaymalik
July 10th, 2010, 03:48 PM
कब ऐसा सोचा था मैंने मौसम भी छल जाएगा
सावन-भादों की बारिश में घर मेरा जल जाएगा

रंजोग़म की लम्बी रातों इतना मत इतराओ तुम
निकलेगा कल सुख का सूरज अंधियारा टल जाएगा

अक्सर बातें करता था जो दुनिया में तब्दीली की
किसे ख़बर थी वो दुनिया के रंगों में ढल जाएगा

नफ़रत की पागल चिंगारी कितनों के घर फूँक चुकी
अगर न बरसा प्यार का बादल सारा शहर जल जाएगा

दुख की इस नगरी में आख़िर रैन-बसेरा है सबका
आज रवाना होगा कोई और कोई कल जाएगा




देवमणि पाण्डेय


Really touching & amazing. I found all your poems pasted here very senstive.

Anjalis
July 10th, 2010, 04:38 PM
Really touching & amazing. I found all your poems pasted here very senstive.

संजय जी, शुक्रिया कुछ कविताये दिल को छू जाती हैं , तो यहाँ पर छाप देते हैं

Anjalis
July 10th, 2010, 04:41 PM
बड़ी होती बेटी के माध्यम से कवि बहुत कुछ कह गया है, आप भी पढ़िए

अभी पिछले फागुन में
उसकी आंखों में कोई रंग न था
पिछले सावन में
उसके गीतों में करुणा न थी
अचानक बड़ी हो गयी है बेटी
सेमल के पेड़ की तरह
हहा कर बड़ी हो गयी है
देखते ही देखते।

जब वह जन्मी थी
तब कितना पानी होता था
कुआं तालाब में
नदी तो हरदम लबालब भरी रहती थी
भादों में कैसी झड़ी लगती थी
वैसी ही एक रात में पैदा हुई थी
ऐसी झपासी थी कि एक पल के लिए भी
लड़ी नहीं टूट रही थी

अब बड़ी हुई बेटी
तब तक सूख चुके हैं सारे तालाब
गहरे तल में चला गया है कुएं का पानी
नदी हो गयी है बेगानी
कांस और सरकंडों के जंगल में
कहीं कहीं बहती दिखती हैं पतली पतली धाराएं।

पलकें झुका कर
सपनों को छोटा करो मेरी बेटी
नींद को छोटा करो
देर से सूतो
पर देर तक न सूतो
होठों से बाहर न आये हंसी
आंखों तक पहुंच न पाये कोई खुशी
कलेजे में दबा रहे दुःख
भूख और विचारों को मारना सीखो
अपने को अपने ही भीतर गाड़ना सीखो

कोमल कोमल शब्दों में
जारी होती रहीं क्रूर हिदायतें
फिर भी बड़ी हो गयी बेटी
बड़े हो गये उसके सपने!

_____________


बड़ी हो रही है बेटी
बड़ा हो रहा है उसका एकांत

वह चाहती है अब भी
चिड़ियों से बतियाना
फूलों से उलझना
पेड़ों से पीठ टिका कर सुस्ताना
पर सब कुछ बदल चुका है मानो

कम होने लगी है
चिड़ियों के कलरव की मिठास
चुभने लगे हैं
फूलों के तेज रंग
डराने लगी हैं
दरख्तों की काली छायाएं

बड़ी हो रही है बेटी
बड़े हो रहे हैं भेड़िए
बड़े हो रहे है सियार

मां की करुणा के भीतर
फूट रही है बेचैनी
पिता की चट्टानी छाती में
दिखने लगे हैं दरकने के निशान
बड़ी हो रही है बेटी!

______________

बाबा बाबा
मुझे मकई के झौंरे की तरह
मरुए में लटका दो

बाबा बाबा
मुझे लाल चावल की तरह
कोठी में लुका दो

बाबा बाबा
मुझे माई के ढोलने की तरह
कठही संदूक में छुपा दो

मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कण और भूसी
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचायेगा मेरी बेटी !!!!!


मदन कश्यप

Anjalis
July 10th, 2010, 04:44 PM
Bahut Dino ke baad aaj jatland par aaya aur aap kee kavita padee, Greate collection Anjali. Simply Greate!!!!!!!!!!!!!!

Thank you Hemendra ji !!!!!

Anjalis
July 10th, 2010, 05:37 PM
अंधविश्वासों से पूर्ण वह देश दयनीय है
जो जागृतावस्था में
सपनों में तिरस्कृत इच्छाओं के वशीभूत हो जाता है

दयनीय है वह देश
जो अपना अन्न स्वयं नहीं उगाता
अपना कपड़ा स्वयं नहीं बुनता

वह देश भी दयनीय है
जहां जुलूस केवल मृत्यु का निकलता है
और नारे केवल 'रामनाम सत्त है' के लगते हैं
जहां बगावत कभी नहीं होती

तब भी नहीं
जब गर्दन बलिवेदी पर रख दी जाती है


दयनीय है वह देश भी
जिसके राजनीतिज्ञ लोमड़ी हैं

दार्शनिक बाजीगर
और कलाकार बहुरूपिए

दयनीय है वह देश
जिसके महात्मा इतिहास के साथ गूंगे हो गए हैं
और शूरवीर अभी पालने में झूल रहे हैं!

मदन कश्यप

Anjalis
July 15th, 2010, 12:14 PM
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है,
सारे जग में सबसे सुंदर,
माँ की मूरत क्यूँ होती है॥

जब नन्हे-नन्हे नाजु़क हाथों से,
तुम मुझे छूते थे...
कोमल-कोमल बाहों का झूला,
बना लटकते थे...
मै हरपल टकटकी लगाए,
तुम्हें निहारा करती थी...
उन आँखों में मेरा बचपन,
तस्वीर माँ की होती थी,
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥

जब मीठी-मीठी प्यारी बातें,
कानों में कहते थे,
नटखट मासूम अदाओं से,
तंग मुझे जब करते थे...
पकड़ के आँचल के साये,
तुम्हें छुपाया करती थी...
उस फ़ैले आँचल में भी,
यादें माँ की होती थी...
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥

देखा तुमको सीढ़ी दर सीढ़ी,
अपने कद से ऊँचे होते,
छोड़ हाथ मेरा जब तुम भी
चले कदम बढ़ाते यों,
हो खुशी से पागल मै,
तुम्हे पुकारा करती थी
कानों में तब माँ की बातें,
पल-पल गूँजा करती थी...
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥

आज चले जब मुझे छोड़,
झर-झर आँसू बहते हैं,
रहे सलामत मेरे बच्चे,
हर-पल ये ही कहते हैं,
फ़ूले-फ़ले खुश रहे सदा,
यही दुआएँ करती हूँ...
मेरी हर दुआ में शामिल,
दुआएँ माँ की होती हैं,...
माँ बनकर ये जाना मैने,
माँ की ममता क्या होती है॥


सुनीता

ravinderjeet
July 16th, 2010, 07:07 PM
iss duniyaa me maa sey payaaraa,kuchh bhi nahi.

deependra
July 16th, 2010, 07:59 PM
[COLOR=Magenta]माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है,
सारे जग में सबसे सुंदर,
माँ की मूरत क्यूँ होती है॥


सुनीता

Very beautiful poem Sunita ji, Thank you so much for sharing.
few lines from my side-

माँ तो माँ क्या दूं उपमा,
हर उपमा उप रह जाती है.
माँ तुझको उपमा देने में,
मेरी वाणी चुप रह जाती है.

hemanthooda
July 16th, 2010, 11:58 PM
Very beautiful poem Sunita ji, Thank you so much for sharing.
few lines from my side-

माँ तो माँ क्या दूं उपमा,
हर उपमा उप रह जाती है.
माँ तुझको उपमा देने में,
मेरी वाणी चुप रह जाती है.

Bahut umda bhai...

Anjali Ji thanks for bringing out one of the best poems!!!!

Anjalis
July 17th, 2010, 01:39 PM
वैसे तो एक शरीफ इंसान हूँ,
आप ही की तरह श्रीमान हूँ,
मगर अपनी आँख से,
बहुत परेशान हूँ।

अपने आप चलती है,
लोग समझते हैं -चलाई गई है,
जान-बूझ कर चलाई गई है,
एक बार बचपन में,
शायद सन पचपन में,
क्लास में ,
एक लड़की बैठी थी पास में,
नाम था सुरेखा,
उसने हमें देखा,
और बाईं चल गई,
लड़की हाय-हाय कहकर,
क्लास छोड़ बाहर निकल गई,
थोड़ी देर बाद
प्रिंसिपल ने बुलाया,
लम्बा-चौड़ा
लेक्चर पिलाया,
हमने कहा कि जी भूल हो गई,
वो बोले-ऐसा भी होता है,
भूल में,
शर्म नहीं आती ऐसी गन्दी हरकतें करते हो,
स्कूल में?

और इससे पहले कि,
हकीकत बयां करते,
कि फिर चल गई,
प्रिंसिपल को खल गई,
हुआ यह परिणाम,
कट गया नाम,
बमुश्किल तमाम,
मिला एक काम,
इंटरव्यू में खड़े थे क्यू में,
एक लडकी थी सामने अड़ी,
अचानक मुड़ी,
नज़र उसकी हम पर पड़ी,
और हमारी आँख चल गई,
लड़की उछल गई,
दूसरे उम्मीदवार चौंके,
फिर क्या था,
मार मार जूते-चप्पल
फोड़ दिया बक्कल,
सिर पर पाँव रखकर भागे,
लोगबाग पीछे हम आगे।

घबराहट में,
घुस गये एक घर में,
बुरी तरह हाँफ रहे थे,
मारे डर के काँप रहे थे,
तभी पूछा उस गृहणी ने-
कौन?
हम खड़े रहे मौन
वो बोली
बताते हो या किसी को बुलाऊँ ?
और उससे पहले,
कि जबान हिलाऊँ,
आँख चल गई,
वह मारे गुस्से के,जल गई,
साक्षात् दुर्गा- सी दीखी,
बुरी तरह चीखी,
बात कि बात में जुड़ गये अड़ोसी-पडौसी,
मौसा-मौसी, भतीजे-मामा
मच गया हंगामा,
चड्डी बना दिया हमारा पजामा,
बनियान बन गया कुर्ता,
मार मार बना दिया भुरता,
हम चीखते रहे,
और पीटने वाले, हमे पीटते रहे।

भगवान जाने कब तक,
निकालते रहे रोष,
और जब हमें आया होश,
तो देखा अस्पताल में पड़े थे,
डाक्टर और नर्स घेरे खड़े थे,
हमने अपनी एक आँख खोली,
तो एक नर्स बोली,
दर्द कहाँ है?
हम कहाँ कहाँ बताते,
और उससे पहले कि कुछ,कह पाते,
आँख चल गई,
नर्स कुछ न बोली,
बाई गाड ! (चल गई) ,
मगर डाक्टर को खल गई,
बोला इतने सिरियस हो,
फिर भी ऐसी हरकत कर लेते हो,
इस हाल में शर्म नहीं आती,
मोहब्बत करते हुए,
अस्पताल में,
उन सबके जाते ही आया वार्ड बॉय,
देने लगा आपनी राय,
भाग जाएँ चुपचाप नहीं जानते आप,
बढ़ गई है बात,
डाक्टर को गड़ गई है,
केस आपका बिगाड़ देगा,
न हुआ तो मरा बताकर,
जिंदा ही गड़वा देगा.
तब अँधेरे में आँखें मूंदकर,
खिड़की के कूदकर भाग आए,
जान बची तो लाखों पाए।

एक दिन सकारे,
बापूजी हमारे,
बोले हमसे-
अब क्या कहें तुमसे?
कुछ नहीं कर सकते,
तो शादी कर लो ,
लडकी देख लो।
मैंने देख ली है,
जरा हैल्थ की कच्ची है,
बच्ची है फिर भी अच्छी है,

जैसी भी, आखिर लड़की है
बड़े घर की है, फिर बेटा
यहाँ भी तो कड़की है
हमने कहा-
जी अभी क्या जल्दी है?
वे बोले- गधे हो
ढाई मन के हो गये
मगर बाप के सीने पर लदे हो
वह घर फँस गया तो सम्भल जाओगे।

तब एक दिन भगवान से मिलके
धडकते दिल से
पहुँच गये रुड़की, देखने लड़की
शायद हमारी होने वाली सास
बैठी थी हमारे पास
बोली-
यात्रा में तकलीफ़ तो नहीं हुई
और आँख मुई चल गई
वे समझी कि मचल गई

बोली-
लड़की तो अंदर है,
मैं लड़की की माँ हूँ ,
लड़की को बुलाऊँ?
और इससे पहले कि मैं जुबान हिलाऊँ,
आँख चल गई दुबारा ,
उन्हों ने किसी का नाम ले पुकारा,
झटके से खड़ी हो गईं।

हम जैसे गए थे लौट आए,
घर पहुँचे मुँह लटकाए,
पिताजी बोले-
अब क्या फ़ायदा ,
मुँह लटकाने से ,
आग लगे ऐसी जवानी में,
डूब मरो चुल्लू भर पानी में
नहीं डूब सकते तो आँखें फोड़ लो,
नहीं फोड़ सकते हमसे नाता ही तोड़ लो।

जब भी कहीं आते हो,
पिटकर ही आते हो ,
भगवान जाने कैसे चलते हो?
अब आप ही बताइए,
क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?
कहाँ तक गुण आऊँ अपनी इस आँख के,
कमबख़्त जूते खिलवाएगी,
लाख दो लाख के,
अब आप ही संभालिये,
मेरा मतलब है कि कोई रास्ता निकालिए।

जवान हो या वृद्धा, पूरी हो या अद्धा
केवल एक लड़की जिसकी आँख चलती हो,
पता लगाइए और मिल जाये तो,
हमारे आदरणीय काका जी को बताइए।


शैल चतुर्वेदी

sukharam
July 17th, 2010, 03:32 PM
very nice....shareef logo ko aesi automatic aankhe paresan jaroor karti he...........jaroori bhi he verna har kisi ki chalne lagegi........very nice poem..

sukharam
July 17th, 2010, 03:39 PM
ma ki mamta....karti nahi kabhi khata....nibhati he nata...isliye hi ma se kabhi man nahi bharta...

rajeevtomar
July 20th, 2010, 04:44 PM
how are you anjalis

bhut lumbi kavita likh di


but isme me kuch or jood deta hu

Khubsoorat hain woh lub
Jo pyari batein kartey hain
Khubsoorat hai woh muskurahat
Jo doosron ke chehron per bhi muskan saja de
Khubsoorat hai woh dil
Jo kisi ke dard ko samjhey
Jo kisi ke dard mein tadpey
Khubsoorat hain woh jazbat
Jo kisi ka ehsaas karein
Khubsoorat hai woh ehsaas
Jo kisi ke dard ke me dawa baney
Khubsoorat hain woh batein
Jo kisi ka dil na dukhaein
Khubsoorat hain woh ansoo
Jo kisi ke dard ko mehsoos kerke beh jae
Khubsoorat hain woh hath
Jo kisi ko mushkil waqat mein tham lein
Khubsoorat hain woh kadam
Jo kisi ki madad ke liye aagey badhein !!!!!
Khubsoorat hai woh soch
Jo kisi ke liye acha sochey
Khubsoorat hai woh insan
Jis ko khuda ne ye
Khubsoorati ada ki.
Or woh khusnaseeb hai,
Jinhe aap jaise khubsoorat DOST milein
jaise aap

Rajeev tomar

rajeevtomar
July 20th, 2010, 04:58 PM
Dosto Maa ko kuch iss trah samjh lo na

Maa to Maa hoti haaaaaaaa

M-O-T-H-E-R
M is for the million things she gave me,
O means only that she’s growing old,
T is for the tears she shed to save me,
H is for her heart of purest gold;
E is for her eyes, with love-light shining,
R means right, and right she’ll always be,
Put them all together, they spell “MOTHER,”
A word that means the world to me.

samjh sako to samjh lo
Rajeev tomar

Anjalis
July 21st, 2010, 04:48 PM
अजनबी अपना ही साया हो गया है
खून अपना ही पराया हो गया है

मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है

बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है

बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है

बात घर की घर में थी अब तक 'किरण'
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है


कविता किरण

rana1
July 23rd, 2010, 04:11 PM
बैखोफ हू , इस ज़माने से मैं क्यों डरु |
इरादे हो जिनके मजबूत वो रुकते नहीं |
लड़ जाते हैं वो हर चीज से डरते नहीं |
बैखोफ हू , इस ज़माने से मैं क्यों डरु||

कर देते हैं हर चीज को वो आसान |
इरादों के साथ जो चलते रहें |
बैखोफ हू , इस ज़माने से मैं क्यों डरु ||

डर-डर के जीने का मैं आदि नहीं |
लड़ लड़ के बढ़ने का आदि हू मैं |
बैखोफ हू , इस ज़माने से मैं क्यों डरु ||

पूछता हू आज तुमसे मैं एक बात |
डर-डर के जीने का क्या है राज |
बैखोफ हू , इस ज़माने से मैं क्यों डरु |
बैखोफ हू , इस ज़माने से मैं क्यों डरु ||

Manish Rana ...