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hemanthooda
July 27th, 2010, 11:17 PM
Came across few lines , would like to share----

Gita ki kasam tumhe, tumhe kasam Quran ki,
Bible ki hai kasam, tumhe kasam imaan ki.

Desh ki pukaar hai, pukaar hai samaaj ki.
Rashtra dharam ban gayi hai ekta hi aaj ki
Desh ki samridhi mein lagaa do baaji jaan ki.

Desh, bhasha, jatiyon ke beech na vivaad ho,
Har hridya vishaal ho ek samvidhan ho,
Aa gayi kathin ghadi parakh tere imaan ki.

Daav, pecho ne hamare dharam ko jakad liya,
Mook dharam, ho vivash tadap raha bilakh raha
Hato nahi svadharam se kasam tere jabaan ki.

- Sadashiv Pandey

Arunshokeen
July 28th, 2010, 06:16 PM
Din dhalne ko haan, suraj aanthim chand lamho ki roshni liye, adhkhule se darwajo se jhakhtha hua, shyad yehi kehna chahtha haan,

E- mushafir, na rahein khatem honi haan, na manzilo ki talash, na saahil khatam hone haan, na hi pyaas, pjir jaane kyon tu udhaas haan, h sagar pass tere phir kis chiz ki tujhe pyas haan, lahre pe sawar yeh zindagi ka safar kisi ke liye nahi rukhtha, waqt ka tham daman tu chala chal, milen lakh dukh raho main, tu badha chal, ki manzil na sahi rahi toh milenge, na mile moti e kamyabi toh kya,tu badha chal.


Kya hua jo chand sapne tuth bhi jayenge, kya hua jo kuch rahi chut jayenge, safar e zindagi issi ka naam haan, haan hum sab rahi iske, bas chalne ka kaam haan.

pawariya
September 16th, 2010, 11:33 AM
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pawariya
September 16th, 2010, 11:36 AM
जीवन में आ रही अब देरी जल्दी,
क्या खोना क्या ही कुछ पाना है,
आँखों से तेरी है जग सुन्दर सा,
अब है जाना और पहचाना भी,
विकल हो रही लहर मिल जाने को,
नहीं अकेली वो इस सागर में,
है वह जी रही सागर के संग,
पवन संग है प्रीत वो रखती,
सरसराती आती पवन,
गीत प्रेम के गाती पवन,
कैसे रहती चुप लहर भी,
आने लगी ध्वनी कल-कल,
अद्भुत नज़ारा इस प्रेम क्रीडा का,
मचलते रहे वे सारी रात,
अरमान दिलों से निकलते रहे,
हो रही अठखेलियाँ,
क्या जानते थे वे..
अब आनी है सुबह भी,
देख हकीकत लहर अपनी,
आ बैठी सकते से में,
कैसे भूली वह है जीना सागर के संग,
फिर चाहे हो अपना या ना भी हो,
टपक पड़ीं कुछ बूंदें नमकीन,
जो ढूँढा तो एक ना मिली,
खो बैठीं सागर तन में,
नहीं बस.. यूँ ही...!!
सोच रही थी,
आज या फिर कल,
कम से कम एक बार,
बात कर लेती पवन से,
पर कोई बात नहीं,
उसे पता है.. अच्छी तरह,
कि मेरे और उसके बीच,
कहीं कुछ ठीक नहीं होना,
फिर भी हो कब तक इंतजार,
हैं चुप ख़यालात अब उसके,
क्या कहती वह... बस "अलविदा"
हाँ अलविदा मेरे दोस्त मेरे हमदम......


THIS IS WRITTEN BY A JAT N I've COPIED IT.........

htomar
October 14th, 2010, 12:04 PM
भले किसी और की हो जाएं

ये गहरी काली आंखें

वे सितारे मेरी स्मृति के अलाव में

रह-रह कर चमकते रहेंगे जो

उस छोटी-सी मुलाकात में

चमके थे तुम्हारी आंखों में

भटकाव के बीहड़ वन में

वे ही होंगे पथ-संकेतक

गहन अंधियारे में

दिशासूचक ध्रुवतारा

तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो

अभौतिक अक्षांसों के

अलौकिक फेरे

संभव नहीं हैं तुम्हारे बिना

जीवन लालसा के तट पर

हांफ़ते रहने का नाम नहीं

किंतु अब निर्वाण भी

प्राथमिकता में नहीं है

मोक्ष के बदले

रहना चाहता हूं

तुम्हारी स्मृति के अक्षयवट में

पर्णहरित की तरह

स्नेह की वह सुनहरी लौ

नहीं चाहता – नहीं चाहता

वह बेहिसाब उजाला

अब तुम्हें पाने की

कोई आकांक्षा शेष नहीं

जगत-जीवन के

कार्य-व्यापार में

प्रेम का तुलनपत्र

अब कौन देखे !

अपने अधूरे प्रेम के

जलयान में शांत मन

चला जाना चाहता हूं

विश्वास के उस अपूर्व द्वीप की ओर

जहां मेरी और तुम्हारी कामनाओं

के जीवाश्म विश्राम कर रहे हैं ।

htomar
October 14th, 2010, 12:13 PM
किस तरह से और कैसे-कैसे
कितना प्यार करता हूं तुझसे
काश कि कह पाता मैं ये तुझको
या काश कि जानती तू बिना कहे


कहने को तो सारी पीड़ाएं
यूं तुझ से हम कह जाते
इस पागलपन का हाल सारा
और दीवानगी की सारी बातें


कहते-कहते लेकिन रुक जाऊं
मन ये जाने क्या-क्या सोचे
स्वीकार नहीं है इस दिल को
कि मैं कहूं और तु परेशान रहे


तू तो पूरी जिन्दगी है मेरी
नहीं महज एक हिस्सा है
जान न पाये तू कभी जो
वो मेरे रोने का किस्सा है


सुनते न वो ’हां’ जो तेरी तो
शायद अभी हम कुछ और होते
फ़र्क तुझे क्या पड़ता है लेकिन
आंसू ये बहते हैं तो बहे


रुला-रुला जाये उदासीनता तेरी
बेरुखी तेरी कर दे विकल
इतनी मुहब्बत किसी पर्वत से करुँ
वो भी अब तक जाता पिघल


इस अथाह पीड़ा से ऊबकर
जी चाहे अब जीना छोड़ दे
कब तक करें यूँ ही प्रतीक्षा
दर्द ये कब तक और सहें

sandydalal
October 17th, 2010, 02:19 PM
Inspiring poems

narendersingh
December 3rd, 2010, 09:10 PM
Anokha manzar

Zindgee kaa anokha manzar
Marney ko tayaar liye khanzar
Zameen ho rahee bilkul banzar
Insaan banta jaa raha kanzar

Insaaniyat ko ho raha eikdum Danger
Ped Bech rahe khulam khula Ranger
Agey kya hoga mein karu wonder
Jhooti shaan agey karoon surrender

narendersingh
December 3rd, 2010, 09:14 PM
Please post your poems in english,your views .One has to send request to get a log in password.Give ideas to develope the website in a lucrative look.
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htomar
December 5th, 2010, 12:30 PM
कब खामोश कर दे दिल को ये हिचकियाँ, पता
कब लगे भिनभिनाने, मक्खियाँ क्या पता

हादसों का शहर है, हादसों से भरी है जिंदगी
कब चीखकर माँग उठे बैसाखियाँ, क्या पता

उड़ जा रे पक्षी शाख छोड़कर, बेदर्द जमाना
कब आ जाये पर कतरने लेकर कैंचियाँ,क्या पता

जीवन है एक नदिया, तुम सीख ले उसमें तैरना
कब तक मिलेगी माँ की थपकियाँ,क्या पता

मत देर कर,लगा ले उससे नेह,दुखों के सैलाब में
कब बह जाये कागज की ये किश्तियाँ, क्या पता

narendersingh
December 5th, 2010, 11:02 PM
कब खामोश कर दे दिल को ये हिचकियाँ, पता
कब लगे भिनभिनाने, मक्खियाँ क्या पता

हादसों का शहर है, हादसों से भरी है जिंदगी
कब चीखकर माँग उठे बैसाखियाँ, क्या पता

उड़ जा रे पक्षी शाख छोड़कर, बेदर्द जमाना
कब आ जाये पर कतरने लेकर कैंचियाँ,क्या पता

जीवन है एक नदिया, तुम सीख ले उसमें तैरना
कब तक मिलेगी माँ की थपकियाँ,क्या पता

मत देर कर,लगा ले उससे नेह,दुखों के सैलाब में
कब बह जाये कागज की ये किश्तियाँ, क्या पता




Bahut khub Zanaab

htomar
December 6th, 2010, 12:12 PM
Thnx a lot........

htomar
December 15th, 2010, 08:52 PM
तुम्हें देखकर मुझे यूँ लग रहा है,
समर्पण में कोई कमी रह गयी है,


मधुर प्यारे के उन सुगन्धित क्षणों में,
तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं थी,
न कोई गिला था तुम्हारे हृदय में,
परस्पर कहीं कुछ अदावत नहीं थी,
बिना बात माथे की इन सलवटों में ,
उदासी की जो बेबसी दीखती है ,
सशंकित मेरा मन है, या बेरुख़ी है ,
या अर्पण में कोई कमी रह गयी है,


अगर दिल में कोई भी नाराज़गी थी,
तो खुल कर कभी बात करते तो क्या था,
दिखावे की ख़ातिर न यूँ मुस्कुराते,
मुझे देखकर न सँवरते तो क्या था,
मैं खोया रहा मंद मुस्कानों में ही,
न उलझन भरी भावना पढ़ सका मैं,
मेरी आँख ने कुछ ग़लत पढ़ लिया था,
या दर्पण में कोई कमी रह गयी है,


विगत में जो तारीकियों के सहारे,
उजालो की सद्कल्पना हमने की थी,
वचन कुछ लिए कुछ दिए थे परस्पर,
सवालों की शुभकामना हमने की थी,
उन्हीं वायदों में की शपथ के भरोसे,
मैं ख़ुशियों की बरात ले आ गया हूँ,
भटकती हैं यादों की प्रेतात्माएं,
या तर्पण में कोई कमी रह गयी है. 

narendersingh
December 17th, 2010, 12:34 AM
तुम्हें देखकर मुझे यूँ लग रहा है,
समर्पण में कोई कमी रह गयी है,





मधुर प्यारे के उन सुगन्धित क्षणों में,
तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं थी,
न कोई गिला था तुम्हारे हृदय में,
परस्पर कहीं कुछ अदावत नहीं थी,
बिना बात माथे की इन सलवटों में ,
उदासी की जो बेबसी दीखती है ,
सशंकित मेरा मन है, या बेरुख़ी है ,
या अर्पण में कोई कमी रह गयी है,


अगर दिल में कोई भी नाराज़गी थी,
तो खुल कर कभी बात करते तो क्या था,
दिखावे की ख़ातिर न यूँ मुस्कुराते,
मुझे देखकर न सँवरते तो क्या था,
मैं खोया रहा मंद मुस्कानों में ही,
न उलझन भरी भावना पढ़ सका मैं,
मेरी आँख ने कुछ ग़लत पढ़ लिया था,
या दर्पण में कोई कमी रह गयी है,


विगत में जो तारीकियों के सहारे,
उजालो की सद्कल्पना हमने की थी,
वचन कुछ लिए कुछ दिए थे परस्पर,
सवालों की शुभकामना हमने की थी,
उन्हीं वायदों में की शपथ के भरोसे,
मैं ख़ुशियों की बरात ले आ गया हूँ,
भटकती हैं यादों की प्रेतात्माएं,



या तर्पण में कोई कमी रह गयी है. 
Bahut umdaa zannab.


Mere paas Hindi ki kavitaun kee dhaang laag rahi hai.The problem to transliterate here.

htomar
December 20th, 2010, 04:02 PM
रोज़ सवेरे दिन का निकलना, शाम में ढलना जारी है
जाने कब से रूहों का ये ज़िस्म बदलना जारी है

तपती रेत पे दौड़ रहा है दरिया की उम्मीद लिए
सदियों से इन्सान का अपने आपको छलना जारी है

जाने कितनी बार ये टूटा जाने कितनी बार लुटा
फिर भी सीने में इस पागल दिल का मचलना जारी है

बरसों से जिस बात का होना बिल्कुल तय सा लगता था
एक न एक बहाने से उस बात का टलना जारी है

तरस रहे हैं एक सहर को जाने कितनी सदियों से
वैसे तो हर रोज़ यहाँ सूरज का निकलना जारी है

cooljat
December 21st, 2010, 03:21 PM
A very nice and simple poem about placidity with an hint of melancholy. It penetrates deep into the soul and you can easily feel the emptiness.


ख़ामोशी - वर्तिका

बरसों से ख़ामोशी खानाबदोश हुआ करती थी
मेरी कठोर हंसी उसे घर बनाने ही कहाँ देती.
जब भी उतरती फिज़ा में,
एक छनाके के साथ उतरती
और एक ही झटके में
चकनाचूर कर डालती,
चुप्पी की
आखिरी ईंट तक! पर देखो,
अब कैसे इत्मीनान से पसरी बैठी है
यह हमारे दरमयां ..
यकीं जो है इसे भी,
के अब जो तुम चले गए हो
कभी ना लौटने की खातिर,
तो रुख न करेगी इधर का
यह कमबख्त हंसी भी
दुबारा कभी,
ख़ामोशी को है घर मिल गया
और मेरी हंसी
खानाबदोश सी फिरा करती हैं अब ..


Cheers
Jit

htomar
December 21st, 2010, 06:57 PM
very nice..

A very nice and simple poem about placidity with an hint of melancholy. It penetrates deep into the soul and you can easily feel the emptiness.


ख़ामोशी - वर्तिका

बरसों से ख़ामोशी खानाबदोश हुआ करती थी
मेरी कठोर हंसी उसे घर बनाने ही कहाँ देती.
जब भी उतरती फिज़ा में,
एक छनाके के साथ उतरती
और एक ही झटके में
चकनाचूर कर डालती,
चुप्पी की
आखिरी ईंट तक! पर देखो,
अब कैसे इत्मीनान से पसरी बैठी है
यह हमारे दरमयां ..
यकीं जो है इसे भी,
के अब जो तुम चले गए हो
कभी ना लौटने की खातिर,
तो रुख न करेगी इधर का
यह कमबख्त हंसी भी
दुबारा कभी,
ख़ामोशी को है घर मिल गया
और मेरी हंसी
खानाबदोश सी फिरा करती हैं अब ..


Cheers
Jit

narendersingh
December 25th, 2010, 01:41 AM
A very nice and simple poem about placidity with an hint of melancholy. It penetrates deep into the soul and you can easily feel the emptiness.


ख़ामोशी - वर्तिका

बरसों से ख़ामोशी खानाबदोश हुआ करती थी
मेरी कठोर हंसी उसे घर बनाने ही कहाँ देती.
जब भी उतरती फिज़ा में,
एक छनाके के साथ उतरती
और एक ही झटके में
चकनाचूर कर डालती,
चुप्पी की
आखिरी ईंट तक! पर देखो,
अब कैसे इत्मीनान से पसरी बैठी है
यह हमारे दरमयां ..
यकीं जो है इसे भी,
के अब जो तुम चले गए हो
कभी ना लौटने की खातिर,
तो रुख न करेगी इधर का
यह कमबख्त हंसी भी
दुबारा कभी,
ख़ामोशी को है घर मिल गया
और मेरी हंसी
खानाबदोश सी फिरा करती हैं अब ..


Cheers
Jit


excellent very nice attempt.

narendersingh
December 25th, 2010, 01:42 AM
रोज़ सवेरे दिन का निकलना, शाम में ढलना जारी है
जाने कब से रूहों का ये ज़िस्म बदलना जारी है

तपती रेत पे दौड़ रहा है दरिया की उम्मीद लिए
सदियों से इन्सान का अपने आपको छलना जारी है

जाने कितनी बार ये टूटा जाने कितनी बार लुटा
फिर भी सीने में इस पागल दिल का मचलना जारी है

बरसों से जिस बात का होना बिल्कुल तय सा लगता था
एक न एक बहाने से उस बात का टलना जारी है

तरस रहे हैं एक सहर को जाने कितनी सदियों से
वैसे तो हर रोज़ यहाँ सूरज का निकलना जारी है

@tomar sahab bahut hi behatreen

Ankurbaliyan
December 30th, 2010, 01:10 PM
Kabhi, Sochta Hu Ki, Kash Vo Saath Hote Mere!
Jo Na Pass Hokar bhi, Hai Pass Itne Mere!!
Unko Bhula Kar Jeena Mukaddash-E-Tanhai Hoga!
Akhir, Vo Hai To, To Vo Hai, To, Apne Mere!!

htomar
January 1st, 2011, 12:38 PM
अखिल विश्व शुभ मंगलकारी आशा के प्रतिदर्श
शुभागमन से संभव हो संभवतः चहुदिश हर्ष
स्वागत हे नव वर्ष !

ज्ञान ध्यान विज्ञान विशारद मानवता कहती है
विषय भोग भौतिकता में कब कहाँ शान्ति रहती है
मूल्यों और आदर्शों से वंचित नस्लें थोथी हैं
अर्थ प्रधान जगत में भारती भारत को रोती है
तुम आओ तो मिट जायेगा शायद ये संघर्ष
स्वागत हे नव वर्ष !

संगणक संजाल का कैसा महाजाल विस्तृत है
मायावी कृत्रिम रिश्तों में कहाँ व्यक्ति रससिक्त है
घोर बुनावट महा बनावट का श्रृंगार शोभित है
हे शुभांक तेरे आगम पर कर प्रणाम अर्चित है
तुम आओ तो आये शायद सच्चा सा उत्कर्ष
स्वागत हे नव वर्ष !

दादी माँ की किस्सागोई सासू का उपदेश
बाबा नाना बुआ फूफा रिश्ते हुए विदेह
एकल और अधूरे संबंधों की सुलग अजब सी
डार से बिखरी रात की रानी दिखती बे रौनक सी
तुम आओ तो साथ ले आना थोडा संदल खस
स्वागत हे नव वर्ष !

सृष्टि से ही उपजे हैं हम पर दूर हुए स्रष्टा से
राम कृष्ण गौतम ईसा और गांधी सम द्रष्टा से
रामायण बाइबल अब केवल धर्मस्थल की शोभा
इस तटस्थता से विकास संस्कृति का कैसे होगा
तुम आओ तो संग संग आये स्वर्णिम भारत वर्ष
स्वागत हे नव वर्ष !

आगे आगे बढ़ने का आकर्षक विभ्रम फैला
ज्ञान चक्षु से देखो दीखता सबकुछ धुंधला मैला
अन्तःकरण की उन्नति का संकल्प हमें करना है
नाम हमारे मानवता का ऋण हमें भरना है
तुम आओ संग साथी लाओ धर्म मूल्य आदर्श
स्वागत हे नव वर्ष !

cooljat
January 3rd, 2011, 12:23 PM
.

Perfect start for A New Year with this nice and inspiring poem by Nirmla Joshi.


नया वर्ष - निर्मला जोशी

वर्ष!
हर्ष, उत्कर्ष
नव जीवन दो।
घुटन भरी
सांसों को
स्पन्दन दो।

बीत गईं यूँ ही
कितनी सदियाँ
विषभार वहन
करती हैं नदियाँ,
दूर दूर तक
यह मौन उदासी
इस पानी की
हर मछली प्यासी।
अब नूतन रस
पावन
सावन दो।

चिपके-चिपके
अंधियारे छूटें
विकल विषमता के
बंधन टूटें,
गीत नया
परिभाषित हो निखरे
छन्दों के घर
इन्द्र धनुष उतरे।
इतिहास
नया हो
संवेदन दो।


Happy New Year to All ..



Cheers
Jit

htomar
January 12th, 2011, 01:02 PM
मैं पिछले कुछ दिनों से
सुन रहा हूँ ,
तुम्हारी सरगोशी,
और अब
सच ये है के
तुम ही को सोचता हूँ .मैं
खिंच गयी हो तुम
मन में
एक लकीर
कच्चे कोलतार की सड़क पे
पड़े पहिये के न मिट्ने वाले निशान के जैसी
हाँ-हाँ मुझे स्वीकार है
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
और मुझे ये भी स्वीकार है
के तुम्हें पाने और ना पाने के बीच
बहुत सी दूरियां हैं,और कारण हैं
मसलन ,
तुम्हें जानता भी नहीं
तुमसे मिला भी नहीं
देखा भी कहाँ है तुमको
अलावा
उस एक धुंधली सी तस्वीर के
जो है मेरे ख्यालों में
और वैसे भी
तुम्हारे मेरे दर्मियां फ़ासला भी है
मीलों का,
प्रेम करना और उसे पाना
दो भिन्न-भिन्न बातें हैं
इस जनम में तो तुम्हें शायद पा ना सकूँ
और कई जनम लेने होंगे तुम्हें पाने को ...........
जनम तो शायद दुबारा हो भी जाएं
मगर प्रेम …
क्या
दुबारा हो सकेगा
तो क्या ये ख्वाब ये संकल्प अधूरा ही रहेगा
जनमों जनमों तक..???

htomar
January 14th, 2011, 08:52 PM
अपने दिल को पत्थर का बना कर रखना ,
हर चोट के निशान को सजा कर रखना ।

उड़ना हवा में खुल कर लेकिन ,
अपने कदमों को ज़मी से मिला कर रखना ।

छाव में माना सुकून मिलता है बहुत ,
फिर भी धूप में खुद को जला कर रखना ।

उम्रभर साथ तो रिश्ते नहीं रहते हैं ,
यादों में हर किसी को जिन्दा रखना ।

वक्त के साथ चलते-चलते , खो ना जाना ,
खुद को दुनिया से छिपा कर रखना ।

रातभर जाग कर रोना चाहो जो कभी ,
अपने चेहरे को दोस्तों से छिपा कर रखना ।

तुफानो को कब तक रोक सकोगे तुम ,
कश्ती और मांझी का याद पता रखना ।

हर कहीं जिन्दगी एक सी ही होती हैं ,
अपने ज़ख्मों को अपनो को बता कर रखना ।

मन्दिरो में ही मिलते हो भगवान जरुरी नहीं ,
हर किसी से रिश्ता बना कर रखना ।

मरना जीना बस में कहाँ है अपने ,
हर पल में जिन्दगी का लुफ्त उठाये रखना ।

दर्द कभी आखरी नहीं होता ,
अपनी आँखों में अश्को को बचा कर रखना ।

मंज़िल को पाना जरुरी भी नहीं ,
मंज़िलो से सदा फासला रखना ।

सूरज तो रोज ही आता है मगर ,
अपने दिलो में ' दीप ' को जला कर रखना

cooljat
January 15th, 2011, 11:01 PM
.

A B'ful n' thought rendering creation that touches deep inside the soul, you can easily feel Poet's conflict with-in and the introspection.


अर्थहीन - विकास कुमार

नहीं! मेरी भावनाएँ बंधन नहीं मानती.
शर्तें एवं वर्जनाएँ किसी और के लिये होंगी.
इन क्षुद्र सांसारिक नियमों पर
ना ही मेरी कोई आस्था है
और ना ही इनके प्रति कोई दायित्व.
व्यर्थ के भय मुझे भयभीत नहीं करते.
मैं डरता हूँ सिर्फ़ उस इंसान से
जो मेरे अंदर बैठता है, नित.
तुम्हारे कानून तुम्हारे लिये होंगे
मेरे विश्व में बस उसका कानून चलता है.
वादी, प्रतिवादी और न्यायाधीश -
सब यहाँ अर्थ खो देते हैं.
स्वत्व के आगे यदि कोई है – तो ब्रह्म.
और मेरा अंत:करण ’अहं ब्रह्मास्मि’ के राग गाता
सभी चुनौतियों को चुनौती देता है.
अभिमान एवं स्वाभिमान के मध्य की सूक्ष्म रेखा
सूक्ष्म होते-होते विलीन हो गयी है.




Cheers
Jit

htomar
January 16th, 2011, 06:22 PM
Realy wonderful lines Jit sahab...

.

A B'ful n' thought rendering creation that touches deep inside the soul, you can easily feel Poet's conflict with-in and the introspection.


अर्थहीन - विकास कुमार

नहीं! मेरी भावनाएँ बंधन नहीं मानती.
शर्तें एवं वर्जनाएँ किसी और के लिये होंगी.
इन क्षुद्र सांसारिक नियमों पर
ना ही मेरी कोई आस्था है
और ना ही इनके प्रति कोई दायित्व.
व्यर्थ के भय मुझे भयभीत नहीं करते.
मैं डरता हूँ सिर्फ़ उस इंसान से
जो मेरे अंदर बैठता है, नित.
तुम्हारे कानून तुम्हारे लिये होंगे
मेरे विश्व में बस उसका कानून चलता है.
वादी, प्रतिवादी और न्यायाधीश -
सब यहाँ अर्थ खो देते हैं.
स्वत्व के आगे यदि कोई है – तो ब्रह्म.
और मेरा अंत:करण ’अहं ब्रह्मास्मि’ के राग गाता
सभी चुनौतियों को चुनौती देता है.
अभिमान एवं स्वाभिमान के मध्य की सूक्ष्म रेखा
सूक्ष्म होते-होते विलीन हो गयी है.




Cheers
Jit

htomar
January 16th, 2011, 06:24 PM
पतझड़ का जब मौसम बीता
तुमको याद किया मैंने,
दिन गज़रा जब रीता-रीता,
तुमको याद किया मैंने।

जब दिल पर दस्तक होती थी,
ऐसा लगता था तुम आए,
फिर दिल को समझा देते थे,
धुंधली सी यादों के साए।

तन्हाई से जब की बातें,
तुमको याद किया मैंने,
और कटी जब तनहा रातें,
तुमको याद किया मैंने।

और कहें अब कैसे तुमसे,
अपने पागल दिल की हालत।
जिसने इसको कभी न समझा,
बस उसकी करता है चाहत।

जब दिल के अन्दर कुछ टूटा,
तुमको याद किया मैंने।
अपनों से जब अपना छूटा ,
तुमको याद किया मैंने।

आने वाला हर एक मौसम,
जाने वाला हर एक मौसम,
जाने क्या लेकर आएगा,
देकर जाएगा कितने ग़म।

फूलों को जब देखा गुमसुम,
तुमको याद किया मैंने।
याद आए मुझको हर लम्हा तुम,
तुमको याद किया मैंने।

htomar
January 17th, 2011, 01:58 PM
एक रहस्य




मन की सौ परतों के भीतर
है एक रहस्य छिपा मुझमें


वह किरनों-सा तीखा,पैना,
वह हिरनों-सा चचल, आतुर,
वह सपनों-सा मोहक, मादक,
वह अपनों-सा अपना, प्रियतर
मुझमें है एक रहस्य छिपा
मन की सौ परतों के भीतर ।

वह मुझे मूक कर देता है,
वह मुझमें अनगिन स्वर भरता,
निश्चल, निस्पन्द बनाता है,
जीवन भर की जड़ता हरता है,
मुझमें एक रहस्य छिपा
मन की सौ परतों के भीतर ।

कितना ही उसे दबाता हूँ
वह उभरा-उघरा आता है,
कितना ही उसे बताता हूँ
वह व्यक्त नहीं हो पाता है,
है छिपा हुआ मन के भीतर
सौ परतों में कोई रहस्य ।

फिर कभी-कभी ऐसा होता-
मन है ? परतें हैं ? या रहस्य ?:
यह जान नहीं मैं पाता हूं;
पर मुझे ज्ञात इतना अवश्य-
उसके ही कारण है मेरी
अनुरक्ति जगत में, जीवन में ।
है एक रहस्य छिपा मुझमें
सौ परतों के भीतर मन में ।
----अजित कुमार

cooljat
January 17th, 2011, 04:20 PM
.

An eye-opening thought-provoking deep poem that depicts the Real picture of Shining India.


इस्टेशन पर भीख मांगते भूखे बेबस बच्चे - सिद्ध नाथ सिंह

इस्टेशन पर भीख मांगते भूखे बेबस बच्चे.
आप फख्र से फरमाते हैं हाल शहर के अच्छे.

बोते बोते बीज बिदेसी देखें सपन सुनहले.
कीड़ामार दावा क्यूँ पीते कृषक फसल से पहले.

खेती गयी सड़क के नीचे भूमिहीन हो भटके
शूटर बने मुम्बई छानें छोरे गंगा तट के.

सूख गया पानी धरती का अंधे हुए इनारे.
बसे शहर आ होरी धनिया नाले गंद किनारे.

खींची खूब गरीबी की है किसने ऐसी रेखा.
अच्छे खाते पीतों को ही इसके नीचे देखा.

जो खानाबदोश हो घूमें हैं रिकार्ड से बाहर
और सब्सिडी भोग रहे हैं एक से एक धुरंधर.

सत्ता की साडी में लिपटी कपट नीति इठलाती
दल दल के दलदल में डूबी न्याय नियम की थाती.

गली गली में ड्रग मिलती है केवल दवा निठोहर,
पांच साल में फिर पूछेंगे कहाँ लगेगी मोहर.

सड़के सब फूटपाथ खा गयीं,हैराँ चलनेवारे.
बादशाह कारों में चलते पल पल प्यादे मारे.

लूट अपराध अपहरण बनते क्यों सत्ता की सीढी
क्यों ऐसे हालात बनी है मुलजिम सारी पीढी.

जनता का धन मिलीभगत से आये सारे खाने.
स्वयंसेवकों की सेवा से जनता लगी ठिकाने.

जन्म जयंती में शादी में करते खर्च करोड़ों.
दूर रहो ,जूठन पर आना भूखे निपट निगोड़ों.

गोरी चिट्टी चमड़ी लेकर करते धंधे काले.
ले शहीद का नाम बिल्डिंगें चढ़ें सैकड़ों माले.

बाप बिचारा लाता बेटा मरा हुआ रिक्शे पर.
हेलिकोप्टेरों में उड़ते हैं सत्ता के सौदागर.

क्या वसंत क्या पतझर प्यारे क्या सावन क्या भादों
हंसी ख़ुशी जी रहे जहां सब जाओ आग लगा दो.

तांडव के सारे अनुयायी तडपे त्यक्त तपस्या.
धनलक्ष्मी रहती तिजोरिओं में असूर्यम्पश्या .

अमन चैन का करते रहते इत उत रेज़ा रेज़ा.
चीत्कार चहुँ ओर सुनें तो इनका बढे कलेजा.

हाल हुआ बेहाल मुल्क का अब भगवान् बचाएं.
अंधे पीस रहे बेचारे केवल कुत्ते खाएं.




Cheers
Jit

upendersingh
January 18th, 2011, 02:48 AM
मेरा परिचय

हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

मै शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार-क्षार
डमरू की वह प्रलयध्वनि हूं, जिसमें नाचता भीषण संहार
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती में आग लगा दूं मैं
यदि धधक उठे जल थल अंबर, जड चेतन तो कैसा विस्मय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

मै आज पुरुष निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर
पय पीकर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पीकर
अधरों की प्यास बुझाई है, मैंने पीकर वह आग प्रखर
हो जाती दुनिया भस्मसात, जिसको पल भर में ही छूकर
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन
मै नर नारायण नीलकण्ठ बन गया, न इसमें कुछ संशय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

मै अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमर दान
मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर
मेरा स्वर्णाभा में गहरा-गहरा, सागर के जल में चेहरा-चेहरा
इस कोने से उस कोने तक कर सकता जगती सौरभ मैं
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

मैं तेजःपुन्ज तम लीन जगत में फैलाया मैंने प्रकाश
जगती का रच करके विनाश, कब चाहा है निज का विकास
शरणागत की रक्षा की है, मैंने अपना जीवन देकर
विश्वास नहीं यदि आता तो साक्षी है इतिहास अमर
यदि आज देहलि के खण्डहर सदियों की निद्रा से जगकर
गुंजार उठे उनके स्वर से हिंदू की जय तो क्या विस्मय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

दुनिया के वीराने पथ पर, जब जब नर ने खाई ठोकर
दो आँसू शेष बचा पाया जब जब मानव सब कुछ खोकर
मैं आया तभी द्रवित होकर, मैं आया ज्ञान दीप लेकर
भूला-भटका मानव पथ पर चल निकला सोते से जगकर
पथ के आवर्तों से थककर, जो बैठ गया आधे पथ पर
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढनिश्चय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥


मैने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के सुजित लाल
मुझको मानव में भेद नहीं, मेरा अन्तःस्थल वर विशाल
जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार
अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, पर अक्षय है धनागार
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरिट तो क्या विस्मय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

मैं वीरपुत्र मेरी जननी के जगती में जौहर अपार
अकबर के पुत्रों से पूछो क्या याद उन्हें मीना बझार
क्या याद उन्हें चित्तौड़ दुर्ग मे जलने वाली आग प्रखर
जब हाय सहस्त्रो माताएं तिल-तिल कर जलकर हो गईं अमर
वह बुझने वाली आग नहीं, रग-रग में उसे समाए हूं
यदि कभी अचानक फूट पड़े विप्लव लेकर तो क्या विस्मय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है, कर लूं सब को गुलाम
मैंने तो सदा सिखाया है, करना अपने मन को गुलाम
गोपाल राम के नामों पर, कब मैंने अत्याचार किया
कब दुनिया को हिंदू करने, घर-घर मे नरसंहार किया
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी
भूभाग नहीं शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

मै एक बिंदु परिपूर्ण सिंधु है यह मेरा हिंदू समाज
मेरा इसका संबंध अमर मैं व्यक्ति और यह है समाज
इससे मैंने पाया तन-मन, इससे मैंने पाया जीवन
मेरा तो बस कर्त्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण
मैं तो समाज की थाति हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय॥

-अटल बिहारी वाजपेयी

htomar
January 18th, 2011, 12:21 PM
तिल में किसने ताड़ छिपाया?

छिपा हुआ था जो कोने में,
शंका थी जिसके होने में,
वह बादल का टुकड़ा फैला, फैल समग्र गगन में छाया।
तिल में किसने ताड़ छिपाया?

पलकों के सहसा गिरने पर
धीमे से जो बिन्दु गए झर,
मैंने कब समझा था उनके अंदर सारा सिंधु समाया।
तिल में किसने ताड़ छिपाया?

कर बैठा था जो अनजाने,
या कि करा दी थी सृष्टा ने,
उस ग़लती ने मेरे सारे जीवन का इतिहास बनाया।
तिल में किसने ताड़ छिपाया?

---
हरिवंशराय बच्चन

htomar
January 20th, 2011, 12:57 PM
bachpan mai padhi thi ye poem.achi lagti hai.

हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!

htomar
January 20th, 2011, 12:59 PM
खुशियों के श्रोत का उदगम बता दो,
जीवन में आनंद का संगम करा दो.
देह के आत्मा को तृप्त कर दे जो,
उस मूल्यवान वस्तु से मिलन करा दो.

तलाश में जिसके संतो के भक्ति लीन,
दार्शनिको के विचार जिस आस्था में विलीन.
कृष्ण राधा के प्रेम संबंधो का यकीन,
उनके बीच का वो अमर बंधन हसीन.

अरस्तु के चमत्कारिक ज्ञान का भंडार,
आइन्स्टीन के काया पलट खोजो का अम्बार.
मायकल एंजलो की प्रतिभाशाली कला,
महात्मा बुद्ध को जिस शक्ति से ज्ञान मिला.

क्रिस्त्लर की मधुर वो वायलिन की तान,
कबीर के गूढ़ रहस्यवादी दोहो की शान.
सेक्सपीअर की जग प्रसिद्ध कविताये,
वो प्रेरणा जिससे लिखी महान रचनाये.

खुशियों के श्रोत का उदगम बता दो,
जीवन में आनंद का संगम करा दो.
देह के आत्मा को तृप्त कर दे जो,
उस मूल्यवान वस्तु से मिलन करा दो

htomar
January 21st, 2011, 12:49 PM
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगो से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह, तो जुटा कर ईंट, पत्थर, कंकडों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की नवेली लालिमा-सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा, हथेली हाथ की दोनो मिला कर,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता की समय पर मुस्कुराना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान मांगा
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबर अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया, तो मन बहलाने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे साथी की चुम्बक लौह से जो पास आए,
पास क्या आए, कि ह्र्दय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए, तो सोच कर ये लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?


क्या हवाएँ थी कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका?
किंतु ऎ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजडते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजडे हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

htomar
January 23rd, 2011, 12:38 PM
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।
दीप, स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते,
मंजिल ही बन गया मुसाफिर चलते-चलते,
गाते गाते गेय हो गया गायक ही खुद
सत्य स्वप्न ही हुआ स्वयं को छलते छलते,
डूबे जहां कहीं भी तरी वहीं अब तट है,
अब चाहे हर लहर बने मंझधार मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

अब पंछी को नहीं बसेरे की है आशा,
और बागबां को न बहारों की अभिलाषा,
अब हर दूरी पास, दूर है हर समीपता,
एक मुझे लगती अब सुख दुःख की परिभाषा,
अब न ओठ पर हंसी, न आंखों में हैं आंसू,
अब तुम फेंको मुझ पर रोज अंगार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

अब मेरी आवाज मुझे टेरा करती है,
अब मेरी दुनियां मेरे पीछे फिरती है,
देखा करती है, मेरी तस्वीर मुझे अब,
मेरी ही चिर प्यास अमृत मुझ पर झरती है,
अब मैं खुद को पूज, पूज तुमको लेता हूं,
बन्द रखो अब तुम मंदिर के द्वार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

अब हर एक नजर पहचानी सी लगती है,
अब हर एक डगर कुछ जानी सी लगती है,
बात किया करता है, अब सूनापन मुझसे,
टूट रही हर सांस कहानी सी लगती है,
अब मेरी परछाई तक मुझसे न अलग है,
अब तुम चाहे करो घृणा या प्यार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

htomar
January 24th, 2011, 12:51 PM
क्या क़ीमत है आज़ादी की
हमने कब यह जाना है
अधिकारों की ही चिन्ता है
फर्ज़ कहाँ पहचाना है

आज़ादी का अर्थ हो गया
अब केवल घोटाला है
हमने आज़ादी का मतलब
भ्रष्टाचार निकाला है

आज़ादी में खा जाते हम
पशुओं तक के चारे अब
‘हर्षद’ और ‘हवाला’ हमको
आज़ादी से प्यारे अब

आज़ादी के खेल को खेलो
फ़िक्सिंग वाले बल्लों से
हार के बदले धन पाओगे
‘सटटेबाज़ों’ दल्लों से

आज़ादी में वैमनस्य के
पहलु ख़ूब उभारो तुम
आज़ादी इसको कहते हैं?
अपनों को ही मारो तुम
आज़ादी का मतलब अब तो
द्वेष, घृणा फैलाना है ॥

आज़ादी में काश्मीर की
घाटी पूरी घायल है
लेकिन भारत का हर नेता
शान्ति-सुलह का कायल है
आज़ादी में लाल चौक पर
झण्डे फाड़े जाते हैं
आज़ादी में माँ के तन पर
चाक़ू गाड़े जाते है

आज़ादी में आज हमारा
राष्ट्र गान शर्मिन्दा है
आज़ादी में माँ को गाली
देने वाला ज़ीन्दा है

आज़ादी मे धवल हिमालय
हमने काला कर डाला
आज़ादी मे माँ का आँचल
हमने दुख से भर डाला

आज़ादी में कठमुल्लों को
शीश झुकाया जाता है
आज़ादी मे देश-द्रोह का
पर्व मनाया जाता है

आज़ादी में निज गौरव को
कितना और भुलाना है ?

देखो! आज़ादी का मतलब
हिन्दुस्तान हमारा है

htomar
January 27th, 2011, 02:36 PM
तुम अपनी हो, जग अपना है
किसका किस पर अधिकार प्रिये
फिर दुविधा का क्या काम यहाँ
इस पार या कि उस पार प्रिये ।


देखो वियोग की शिशिर रात
आँसू का हिमजल छोड़ चली
ज्योत्स्ना की वह ठण्डी उसाँस
दिन का रक्तांचल छोड़ चली ।


चलना है सबको छोड़ यहाँ
अपने सुख-दुख का भार प्रिये,
करना है कर लो आज उसे
कल पर किसका अधिकार प्रिये ।


है आज शीत से झुलस रहे
ये कोमल अरुण कपोल प्रिये
अभिलाषा की मादकता से
कर लो निज छवि का मोल प्रिये ।


इस लेन-देन की दुनिया में
निज को देकर सुख को ले लो,
तुम एक खिलौना बनो स्वयं
फिर जी भर कर सुख से खेलो ।


पल-भर जीवन, फिर सूनापन
पल-भर तो लो हँस-बोल प्रिये
कर लो निज प्यासे अधरों से
प्यासे अधरों का मोल प्रिये ।


सिहरा तन, सिहरा व्याकुल मन,
सिहरा मानस का गान प्रिये
मेरे अस्थिर जग को दे दो
तुम प्राणों का वरदान प्रिये ।


भर-भरकर सूनी निःश्वासें
देखो, सिहरा-सा आज पवन
है ढूँढ़ रहा अविकल गति से
मधु से पूरित मधुमय मधुवन ।


यौवन की इस मधुशाला में
है प्यासों का ही स्थान प्रिये
फिर किसका भय? उन्मत्त बनो
है प्यास यहाँ वरदान प्रिये ।


देखो प्रकाश की रेखा ने
वह तम में किया प्रवेश प्रिये
तुम एक किरण बन, दे जाओ
नव-आशा का सन्देश प्रिये ।


अनिमेष दृगों से देख रहा
हूँ आज तुम्हारी राह प्रिये
है विकल साधना उमड़ पड़ी
होंठों पर बन कर चाह प्रिये ।


मिटनेवाला है सिसक रहा
उसकी ममता है शेष प्रिये
निज में लय कर उसको दे दो
तुम जीवन का सन्देश प्रिये ।

---- भगवतीचरण वर्मा

htomar
January 27th, 2011, 02:43 PM
कल सहसा यह सन्देश मिला
सूने-से युग के बाद मुझे
कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर
तुम कर लेती हो याद मुझे ।


गिरने की गति में मिलकर
गतिमय होकर गतिहीन हुआ
एकाकीपन से आया था
अब सूनेपन में लीन हुआ ।


यह ममता का वरदान सुमुखि
है अब केवल अपवाद मुझे
मैं तो अपने को भूल रहा,
तुम कर लेती हो याद मुझे ।


पुलकित सपनों का क्रय करने
मैं आया अपने प्राणों से
लेकर अपनी कोमलताओं को
मैं टकराया पाषाणों से ।


मिट-मिटकर मैंने देखा है
मिट जानेवाला प्यार यहाँ
सुकुमार भावना को अपनी
बन जाते देखा भार यहाँ ।


उत्तप्त मरूस्थल बना चुका
विस्मृति का विषम विषाद मुझे
किस आशा से छवि की प्रतिमा !
तुम कर लेती हो याद मुझे ?


हँस-हँसकर कब से मसल रहा
हूँ मैं अपने विश्वासों को
पागल बनकर मैं फेंक रहा
हूँ कब से उलटे पाँसों को ।


पशुता से तिल-तिल हार रहा
हूँ मानवता का दाँव अरे
निर्दय व्यंगों में बदल रहे
मेरे ये पल अनुराग-भरे ।


बन गया एक अस्तित्व अमिट
मिट जाने का अवसाद मुझे
फिर किस अभिलाषा से रूपसि !
तुम कर लेती हो याद मुझे ?


यह अपना-अपना भाग्य, मिला
अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें
जग की लघुता का ज्ञान मुझे,
अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें ।


जिस विधि ने था संयोग रचा,
उसने ही रचा वियोग प्रिये
मुझको रोने का रोग मिला,
तुमको हँसने का भोग प्रिये ।


सुख की तन्मयता तुम्हें मिली,
पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे
फिर एक कसक बनकर अब क्यों
तुम कर लेती हो याद मुझे ?

--------- भगवतीचरण वर्मा

htomar
January 30th, 2011, 07:45 PM
बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामाद
सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद
कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ
मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ
कहॅं ‘ काका ' कविराय , सासरे पहुँची लाली
भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली

लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज
लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज
तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते
रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते
‘ काका ' स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू
चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू

जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट
जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट
तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी
भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी
कहॅं ‘ काका ', हो अपने यहाँ विवाह किसी का
तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका

कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?
अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली
नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली
कहँ ‘ काका ' कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता
मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता

और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल
आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल
इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा
छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा
‘ काका ' एक समान लगें , जम और जमाई
फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई

htomar
February 1st, 2011, 02:57 PM
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?

उम्र ढोने के लिए
कुछ साँस की सौगात ले
सुर्ख सूखी रेत बैठे
चिन्ह से जज़्बात ले
मैं जिया हूँ किस तरह ये राज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?

मौन हो कुछ बात हो,
वाचालता से क्षुब्ध हूँ
डर नहीं है साँझ का
मैं भोर से विक्षुब्ध हूँ
बिफरते आकाश में परवाज कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?

मैं वही हूँ किन्तु मेरा,
वो नहीं चेहरा रहा,
दस्तकों पर दस्तकें थी,
किन्तु मैं बहरा रहा,
दहकते माहौल का अन्दाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?

कौन जाने किस तरह से,
तय हुआ अब तक सफर,
कौन-सा वह आइना था,
जिसका मैं था रहगुज़र
द्वंद्व से व्याकुल समय का साज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ क़ैसे दूँ तुम्हे ?

प्यास से व्याकुल नदी के,
कुछ मुहाने पास है,
या समझ लो मेरे जग का
अनकहा इतिहास है,
कल तो कल है, कल का क्या? मैं 'आज' कैसे दूँ तुम्हे?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?



-----बुलाकी दास बावरा

nkumars83
February 1st, 2011, 04:50 PM
Bahoot Badiya tomer ji.

shivamchaudhary
February 1st, 2011, 09:24 PM
एक सुनील जोशी जी की कविता है ....

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम एम. ए. फ़र्स्ट डिवीजन हो, मैं हुआ मैट्रिक फ़ेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम फौजी अफ़्सर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ ।
तुम रबडी खीर मलाई हो, मैं सत्तू सपरेटा हूँ ।
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड के नीचे लेटा हूँ ।
तुम नयी मारूती लगती हो, मैं स्कूटर लम्बरेटा हूँ ।
इस कदर अगर हम छुप-छुप कर, आपस मे प्रेम बढायेंगे ।
तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जायेंगे ।
सब हड्डी पसली तोड मुझे, भिजवा देंगे वो जेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम अरब देश की घोडी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये ।
तुम दीवली क बोनस हो, मैं भूखों की हडताल प्रिये ।
तुम हीरे जडी तश्तरी हो, मैं एल्मुनिअम का थाल प्रिये ।
तुम चिकेन-सूप बिरयानी हो, मैन कंकड वाली दाल प्रिये ।
तुम हिरन-चौकडी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये ।
तुम चन्दन-वन की लकडी हो, मैं हूँ बबूल की चाल प्रिये ।
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मार मुझे गुलेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

मैं शनि-देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कन्चन काया हो ।
मैं तन-से मन-से कांशी राम, तुम महा चन्चला माया हो ।
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ ।
तुम राज घाट का शान्ति मार्च, मैं हिन्दू-मुस्लिम दन्गा हूँ ।
तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफ़ा अजन्ता की ।
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवन्ता की ।
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम-ठेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ ।
तुम ए. के.-४७ जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ ।
तुम चतुर राबडी देवी सी, मैं भोला-भाला लालू हूँ ।
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिडियाघर का भालू हूँ ।
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी. पी. सिंह सा खाली हूँ ।
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ ।
कल जेल अगर हो जाये तो, दिलवा देन तुम बेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

मैं ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पाँच सितारा होटल हो ।
मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड-लेबल की बोतल हो ।
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कॄषि-दर्शन की झाडी हूँ ।
तुम विश्व-सुन्दरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाडी हूँ ।
तुम सोनी का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन वाला हूँ चोंगा ।
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंघा ।
दस मन्ज़िल से गिर जाउँगा, मत आगे मुझे ढकेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम सत्ता की महरानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ ।
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं क्वारा अटल-बिहारी हूँ ।
तुम तेन्दुलकर का शतक प्रिये, मैं फ़ॉलो-ऑन की पारी हूँ ।
तुम गेट्ज़, मटीज़, कोरोला हो, मैं लेलैन्ड की लॉरी हूँ ।
मुझको रेफ़री ही रहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

मैं सोच रहा कि रहे हैं कब से, श्रोता मुझको झेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

cooljat
February 2nd, 2011, 12:24 PM
.

Gulzar's deep touching poem that focuses on emotional importance of the Books n' nostalgia attached with and also depicts how computer is killin' the Books n' their Beauty. Simply awesome! ..


किताबें - गुलज़ार

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अकसर ..
गुजर जाती है कंप्यूटर के परदे पर

बड़ी बैचेन रहती हैं किताबें
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गयी है
बड़ी हसरत से तकती हैं

जो कदरें वो सुनाती थीं
की जिन के सेल कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते सुनाती थीं
वोह सारे उधडे उधडे हैं

कोई सफहा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अलफ़ाज़

जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इस्तलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकोरों की तरह बिखरी पडी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला

जुबां पर जाइका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक
झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर

किताबो से जो जाती राबता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में ले लेते
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छुते थे ज़बीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबो में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
क़िताबे मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे ..


For the vdo of recite by himself, click - http://www.youtube.com/watch?v=tfJdEtiLZ5c




Cheers
Jit

htomar
February 5th, 2011, 11:19 AM
Bachpan bahut hi naughty hota hai.1-1 baat yaad rahti hai bachpan ki.enjoy this poem.1` baar fir se unhi dino mai kho jaoge.


पुरानी शिला के नीचे से निकल आती
बिच्छू-सी
अवचेतन में मारती हुई डंक
स्मृतियाँ बार-बार लौटती हैं
टहलते हुए निकल जाते हैं उनमें
दोहराते हुए घटनाओं को
बहुत सारा समय
थोड़ी देर में घूम जाता है भीतर

बचपन का वह मसूम चेहरा
पीछे छिपा शरारत भरा दिमाग़
फ़ज़ीहत रास्ते चलतों की
मनोरंजन हुआ करती हमारे लिए
तैर आती हैं घटनाएँ
अपनी शरारतों पर
बचपन की हँसी चेहरे के परदे पीछे

श्रेणियाँ हुआ करती थीं हमारी
जो तय होती थीं कारस्तानियों की बिना पर
अध्यापकों की छड़ियाँ
जानती थीं हमारे हाथों का स्वाद
उन छड़ियों का स्वाद
हमारे सभ्य होने के पीछे खड़ा है

स्मृतियाँ पीछा नहीं छोड़तीं
पड़ जाती हैं छड़ी लेकर पीछे
और हमें करनी पड़ती है याद
पहाड़ों, प्रश्नोत्तरों की तरह आज भी
वे बना लेती हैं जगह

स्मृति में माफ़ करते हैं
बचपन की शैतानियों को
कचोटने लगती हैं
इस समय की ऎसी घटनाएँ
जो तैयार होती हैं समझ के घालमेल से
स्मृतियाँ हैं ये भी
जिन्हें भुलाना हमारे वश का नहीं होता

हमारे भीतर स्मृतियों के लिए होती है बहुत सारी जगह।

htomar
February 16th, 2011, 02:10 PM
तुम हो मेरे पास निरंतर फिर यह अंतर क्या है?
जो न मुझे मिलने देता तुमसे जीवन-भर क्या है?

यद्यपि मन में मुस्काते हो
सम्मुख कभी नहीं आते हो
मुझे निरंतर भटकाते हो
जिस सुषमा के मोहजाल में बाहर-बाहर क्या है?

कभी रात के शेष प्रहर में
लगता है आये तुम घर में
कहो न चाहे कुछ उत्तर में
किन्तु स्पर्श-सा लगता जो अंगों में थर-थर क्या है?

एक लक्ष्य है, एक किनारा
कब होता पर मिलन हमारा!
मैं बहता जल हूँ तुम धारा
प्राणों का सम्बन्ध हमारा कुछ तो है पर क्या है?

तुम हो मेरे पास निरंतर फिर यह अंतर क्या है?
जो न मुझे मिलने देता तुमसे जीवन-भर क्या है?

htomar
February 16th, 2011, 08:00 PM
सबके अपने अपने दुःख हैं सबकी अपनी एक सफाई
जिसके मन के छाले फूटे वो ही समझे पीर पराई

आँखे फेर ली लहजा बदला दामन झटका भाग लिए
यारों खुद से खुद लड़ना है अपने खातिर आप लड़ाई

पथरीली धरती भी अपनी सपनीला आकाश भी अपना
जख्म भी अपने मरहम अपना खुद की खुद के पास दवाई

बाजू अपने गर्दन अपनी मुद्दे अपने कूवत अपनी
गीत भी अपने दर्द भी अपना भीड़ भरी अपनी तनहाई

बढ़ा शिखर पर मारी ठोकर पायदान को तोड़ दिया
जीवन की शतरंज में उसने कभी आज तक मात न खाई

खत्म करो ये किस्सा गोई, ये लफ्फाजी बंद करो
किसने चैन दिनों का खोया किसने अपनी नींद गवाई

htomar
February 16th, 2011, 08:14 PM
मेरे अन्दर कुछ है
चुभता फाँस-सा करता अस्थिर, बेचैन


कुछ यात्राएँ अधूरी उकसाती बार-बार
जीवन से बाहर हो गया कोई मूल्य
खड़े होने की कोशिश कर रहा एक कुचला हुआ शब्द
गुँथ गये हैं आपस में विचार
या कैशोर्य में पहले प्रेम के पकड़े जाने पर
पिताजी की बेतों की मार
टीस-टीस उठती वह


मैं समझ नहीं पाता
क्या है मेरे अन्दर
जन्म से ही साथ-साथ
या अटक गया टूटे पत्ते-से आकर


जीवन के जिस पड़ाव पर हूँ फिलहाल
बढ़ती ही जा रही गालों की सुर्खी
शेयरों में सुरक्षित है भविष्य
ऐसे में अपने अन्दर कुछ होने की बात करना
बेशर्मी की हद नहीं तो क्या !
सुनाई देती हैं पर मुझे अजीब-सी आवाजें
जलने और न जलने की दुविधा में
खदबदा रही जैसे चूल्हे में लकड़ी गीली


होता नहीं मन में विश्वास
जिया मैंने तो इस तरह जीवन
रखता चीजों के तापमान पर नजर चौकन्नी
रहा हर जुलूस में पंक्तिबद्ध अनुशासित
त्रासदी हो कितनी ही दारुण
संयम, शालीनता के अन्दर रही करुणा
नहीं खोदी खन्दकें
न गुजारे शरणार्थी कैप्पों में दिन
बावजूद इसके हो रही ये कैसी गड़बड़
चलता हूँ तो लगता है
कर रहा कोई दबे पाँव पीछा
एक अज्ञात दिशा की तरफ बार-बार संकेत करते हाथ
जारी नहीं मेरे नाम पर जबकि कोई फतवा


कुछ-न-कुछ है मेरे अन्दर
भटक गया है भीतर के बीहड़ में कोई परिन्दा
बढ़ रही धीरे-धीरे ऊब की लकीर
कूट रहा स्मृतियों को शायद कोई मूसल
दे रही मौत अपना आभास
या प्रकाशमान हो उठा अन्दर साक्षात् ईश्वर
स्वीकारना चाह रही कुछ जिसके सामने आत्मा


खँगालता हूँ बार-बार सारे संस्कार
इतिहास में लगाता छलाँगें लम्बी
पता नहीं लग पाता कहाँ है दरअसल वह
आप भले ही कहें इस संवेदनशीलता की अतिरिक्तता
या जीवनबोध की विद्रूपता
महसूस नहीं होती दोस्तों से मिलने में ज़रा भी ऊष्मा
रखता हूँ जहाँ-जहाँ होंठ
खरोंचों से भर जाती पत्नी की देह
यहाँ तक आ पहुँचे अब तो हालात
अपनी विराटता में भी सन्तुष्ट नहीं कर पाती चीजें
मेरी प्यास के ऊपर से गुजर जाती है बरसात
मेरे विलाप को नहीं पहचानता मेरा दुख


कहीं ऐसा तो नहीं
उत्कर्ष पर पहुँच गयी हो मेरी द्वन्द्वात्मकता
कोई नये ढंग का शोर है यह
या हदों को पार कर जाता सन्नाटा
होता ऐसे ही मुखर


मैं जानता हूँ
नहीं होगा आपको विश्वास
होती है महान उड़ानों में जैसे-हल्की-सी लड़खड़ाहट
मेरे अन्दर भी कुछ है

htomar
February 20th, 2011, 07:39 PM
veer ras ki bahut hi achi kavita hai..specialy highlighted lines.

प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी !
कौन कहता है कि तू
विधवा हुई, खो आज पानी?

चल रहीं घड़ियाँ,
चले नभ के सितारे,
चल रहीं नदियाँ,
चले हिम-खंड प्यारे;
चल रही है साँस,
फिर तू ठहर जाये?
दो सदी पीछे कि
तेरी लहर जाये?

पहन ले नर-मुंड-माला,
उठ, स्वमुंड सुमेस्र् कर ले;
भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी
प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!

द्वार बलि का खोल
चल, भूडोल कर दें,
एक हिम-गिरि एक सिर
का मोल कर दें
मसल कर, अपने
इरादों-सी, उठा कर,
दो हथेली हैं कि
पृथ्वी गोल कर दें?

रक्त है? या है नसों में क्षुद्र पानी!
जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी?

वह कली के गर्भ से, फल-
रूप में, अरमान आया!
देख तो मीठा इरादा, किस
तरह, सिर तान आया!
डालियों ने भूमि स्र्ख लटका
दिये फल, देख आली !
मस्तकों को दे रही
संकेत कैसे, वृक्ष-डाली !

फल दिये? या सिर दिये?त तस्र् की कहानी-
गूँथकर युग में, बताती चल जवानी !

श्वान के सिर हो-
चरण तो चाटता है!
भोंक ले-क्या सिंह
को वह डाँटता है?
रोटियाँ खायीं कि
साहस खा चुका है,
प्राणि हो, पर प्राण से
वह जा चुका है।

तुम न खोलो ग्राम-सिंहों मे भवानी !
विश्व की अभिमन मस्तानी जवानी !

ये न मग हैं, तव
चरण की रखियाँ हैं,
बलि दिशा की अमर
देखा-देखियाँ हैं।
विश्व पर, पद से लिखे
कृति लेख हैं ये,
धरा तीर्थों की दिशा
की मेख हैं ये।

प्राण-रेखा खींच दे, उठ बोल रानी,
री मरण के मोल की चढ़ती जवानी।

टूटता-जुड़ता समय
`भूगोल' आया,
गोद में मणियाँ समेट
खगोल आया,
क्या जले बारूद?-
हिम के प्राण पाये!
क्या मिला? जो प्रलय
के सपने न आये।
धरा?- यह तरबूज
है दो फाँक कर दे,

चढ़ा दे स्वातन्त्रय-प्रभू पर अमर पानी।
विश्व माने-तू जवानी है, जवानी !

लाल चेहरा है नहीं-
फिर लाल किसके?
लाल खून नहीं?
अरे, कंकाल किसके?
प्रेरणा सोयी कि
आटा-दाल किसके?
सिर न चढ़ पाया
कि छाया-माल किसके?

वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी,
धूल है जो जग नहीं पायी जवानी।

विश्व है असि का?-
नहीं संकल्प का है;
हर प्रलय का कोण
काया-कल्प का है;
फूल गिरते, शूल
शिर ऊँचा लिये हैं;
रसों के अभिमान
को नीरस किये हैं।

खून हो जाये न तेरा देख, पानी,
मर का त्यौहार, जीवन की जवानी।



-----माखनलाल चतुर्वेदी

htomar
February 21st, 2011, 08:34 PM
1.
मैंने कुछ समझा नहीं था ,तुमने कुछ सोचा नहीं
वरना जो कुछ भी हुआ है ,वो कभी होता नहीं

उससे मैं यूँ ही मिला था सिर्फ मिलने के लिए
उससे मिलकर मैंने जाना, उससे कुछ अच्छा नहीं

आप मानें या न मानें मेरा अपना है यक़ीन
ख़ूबसूरत ख्व़ाब से बढ़कर कोई धोखा नहीं

जाने क्यूँ मैं सोचता हूँ उसको अब भी रात दिन
मेरी ख़ातिर जिसके दिल में प्यार का जज़्बा नहीं

मेरी नज़रों से जुदा वो मेरे दिल में है 'तुषार'
वो मेरा सब कुछ मैं जिसकी सोच का हिस्सा नहीं

2.
मेरा अपना ये अनुभव है इसे सबको बता देना
हिदायत से तो अच्छा है किसी को मशवरा देना

अभी हम हैं, हमारे बाद भी होगी, हमारी बात
कभी मुमकिन नहीं होता किसी को भी मिटा देना

नई दुनिया बनानी है, नई दुनिया बसाएँगे
सितम की उम्र छोटी है जरा उनको बता देना

अगर कुछ भी जले अपना बड़ी तकलीफ़ होती है
बहुत आसान होता है किसी का घर जला देना

मेरी हर बात पर कुछ देर तो वो चुप ही रहता है
मुझे मुश्किल में रखता है फिर उसका मुस्करा देना

'तुषार' अच्छा है अपनी बात को हम खुद़ ही निपटा लें
ज़माने की है आदत सिर्फ शोलों को हवा देना

htomar
February 22nd, 2011, 11:31 AM
आ बतलाऊँ क्यों गाता हूँ ?

नभ में घिरती मेघ-मालिका,
पनघट-पथ पर विरह गीत जब गाती कोई कृषक बालिका !
तब मैं भी अपने भावों के पिंजर खोल उड़ाता हूँ !
आ बतलाऊँ क्यों गाता हूँ ?

जब सावन की रिमझिम बूँदें,
आती है हरिताभ धरा पर, गीति है पलकों को मूंदे !
धूमिल मेघों में तब मैं पदचाप किसी की सुन पाता हूँ !
आ बतलाऊँ क्यों गाता हूँ ?

आँधी में उड़ जाता है मन,
पथिक-पिया के विरह-गीत से गुंजित होते शैल-शिखर-वन !
अपने गीतों की पंखुड़ियाँ, अन्तरिक्ष में छितराता हूँ !
आ बतलाऊँ क्यों गाता हूँ ?

चंदा के दर्पण में आकर,
निशा झाँकती है निज यौवन तारों का शृंगार सजाकर !
तब छंदों में बाँध गगन से, स्वप्न-कुमारों को लाता हूँ !
आ बतलाऊँ क्यों गाता हूँ ?

-----मनुज देपावत

htomar
February 22nd, 2011, 11:42 AM
It may be my poem.isse pahle Dinkar ji ki @ line likhna chahunga.

जब साहित्य पढ़ो तब पहले पढ़ो ग्रन्थ प्राचीन,
पढ़ना हो विज्ञान अगर तो पोथी पढ़ो नवीन।
---------------------------------------------------------------------
---------------------------------------------------------------------
अधूरा है!
इसीलिए सुन्दर है!
दुधिया दांतों तोतला बोल
बुनाई हाथों के स्पर्श का अहसास!
ऊनी धागों में लगी अनजानी गांठें, उचटने
सिलाई के टूटे-छूटे धागे
चित्र में उभरी, बे-तरतीब रंगतें-रेखाएं

शायद इसीलिए
अभावों में भाव अधिक खिलते हैं,
चुभते आलते और खलते हैं

एक टीस की अबूझ स्मृति
जीवनभर सालने वाली
आकाश को ड़ो फांक करती तड़ित रेखा
और ऐसा ही और भी बहुत कुछ
जिसे लोग अधूरा या अबूझ मानते आए हैं
उसे ही सयाने लोग
पूरा और सुन्दर बखानते गए हैं

चाहे हुए रास्ते, जीवन और पूरे व्यक्ति
कहाँ मिलते हैं!
नियति के हाथों
औचक मिले
मानसिक घाव
पूरे कहाँ सिलते हैं!...

htomar
February 24th, 2011, 08:15 PM
घर वापस जाने की सुध-बुध बिसराता है मेले में
लोगों की रौनक में जो भी रम जाता है मेले में

किसको याद आते हैं घर के दुखड़े, झंझट और झगडे
हर कोई खुशियों में खोया मदमाता है मेले में

नीले-पीले, लाल-गुलाबी पहनावे हैं लोगों के
इन्द्र धनुष का सागर जैसे लहराता है मेले में

सजी सजाई हाट-दुकानें खेल - तमाशे और झूले
कैसा- कैसा रंग सभी का भरमाता है मेले में

जेबें खाली कर जाते हैं क्या बच्चे और क्या बूढे
शायद ही कोई कंजूसी दिखलाता है मेले में

तन तो क्या मन भी मस्ती में झूम उठता है हर इक का
जब बचपन का दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में

जाने अनजाने लोगों में फर्क नहीं दिखता कोई
जिस से बोलो वो अपनापन दिखलाता है मेले में

डरकर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपने बच्चे का
ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में

ये दुनिया और दुनियादारी एक तमाशा है भाई
हर बंजारा भेद जगत के समझाता है मेले में

रब ना करे कोई बेचारा मुहँ लटकाए घर लौटे
जेब अपनी कटवाने वाला पछताता है मेले में

राम करे हर गाँव - नगर में मेला हर दिन लगता हो
निर्धन और धनी का अन्तर मिट जाता है मेले में

htomar
February 25th, 2011, 02:32 PM
hum sab to ranmanch ke actor hai.jo is world mai apna-2 part nibha kar chale jaate hai.
koi achi acting kar leta hai and taaliya pata hai.koi buri acting karke gaaliya.
hai to sab kuchh usi Supreme Power ka.is poem mai iasa hi kuchh likha hai.
hope karta hu ki pasand aayengi.



मुझमे जो कुछ अच्छा है, सब उसका है
मेरा जितना भी चर्चा है, सब उसका है

उसका मेरा रिश्ता बड़ा पुराना है
मैंने जो कुछ सोचा है, सब उसका है

मेरी आँखे उसके नूर से रोशन है
मैंने जो कुछ देखा है, सब उसका है

मैंने जो कुछ खोया है, सब उसका था
मैंने जो कुछ पाया है, सब उसका है

जितनी बार मै टूटा हू , वो टूटा था
इधर उधर जो बिखरा है, वो उसका है

ravinderjeet
February 25th, 2011, 09:29 PM
हरेंदर भाई ,कवी का नाम भी लिख दिया कर |

htomar
February 25th, 2011, 10:03 PM
Ravinder ji jiska pta hota hai uska likh deta hu.


हरेंदर भाई ,कवी का नाम भी लिख दिया कर |

bhupendra
March 24th, 2011, 09:01 PM
Khatarnaak kavita thee bhai ...
thanks for sharing ..

bhupendra
March 24th, 2011, 11:21 PM
.


The earliest Hindi Kavita - by Amir Khusro !!


मुकरियाँ
( अमीर खुसरो )

रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥
यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

बिन आये सबहीं सुख भूले। आये ते अँग-अँग सब फूले॥
सीरी भई लगावत छाती। क्यों सखि साजन? ना सखि पाति॥


-



तोड़ पाड दिए ... धन्यवाद दयानंद जी
इसकी तो एक ऑडियो भी अपलोड कर दो अपनी आवाज में

bhupendra
March 25th, 2011, 12:42 AM
जीणा – किते किसा, किते किसा
जीणा
किते किसा, किते किसा
जिसा देखा सै, वो उसा
जीणा
जीणा जोहड़ के म्हां नंगे बालक की ऊहद-सा
थण पकड़ कै धार लेते नाक मैं लागै दूध-सा
जेठ के महीने मैं ठण्डे पाणी की औक-सा
नई बोड़िया के हाथां तैं लीपे साफ़-सुथरे चौके-सा
टेशण के लोहे के बैंच पै सोणा, किसे फकीर का
तख़्त की जड़ मैं बैठ कै देखणा सांग रांझे-हीर का
परस की बुर्जी पै साबण तैं नहाणा किसे जनेती का
सुःख-चैन तैं धन का आणा बोई फसल पछेती का
या फेर छः भाईयाँ की बहाण का
थके-हारे का ताते पाणी तैं नहाण का
सजनी का मिलणा रोज़ का
चाहे किसे साधू की मौज़ का
नाम जीणा तो सै
शहद का पीणा तो सै
हंसी के गेल्या छोह भी तो सै
एक जीणा वो भी तो सै


जीणा
पाणी के बार पै, लड़ै सांप के ज़हर-सा
घुप्प अन्धेरा, पौ का पॉला रात के आखरी पहर-सा
पायाँ मैं चुभती सूल-सा
बोदे डाहले की झूल-सा
याणे बालक की टोक-सा
घा कै चिपटी जोंक-सा
कुत्ते आले हाड्ड-सा
बांगर मैं आई बाढ़-सा
फसल उजड़ण की सोच-सा
घायल साँप की लोच-सा
थाम जग मैं टोहवोगे जिसा, पाओगे उसा
किते किसा, किते किसा
जिसा देखो सै, वो उसा
जीणा
किते किसा, किते किसा



भाई जगबीर रही की मर्मस्पर्शी कविता ... अगर आछी लगी हो to बतइयो और भी hain घनी सारी

deependra
March 26th, 2011, 03:39 AM
जिंदगी तेरे शिकवे सुनता हूँ,
हर रोज तेरे अधूरे सपने बुनता हूँ.
तूने कभी पुकारा ही नहीं,
इस भागदौड़ से उबारा ही नहीं.
हर किसी की उम्मीद थी मुझसे,
मौका ही नहीं दिया मिलनेका तुझसे.
इस भगदड़ में वक्त कटता ही गया,
दुनिया और तेरे बीच मैं बंटता ही गया.
फिर भी अधूरे रह ही गए हैं सपने,
छोड़ गए बीच में ही मुझको अपने.
अब सोचता हूँ थोडा सा ठहर जाऊं,
जिंदगी तुझको गले से लगाऊं.
बहुत हो गया था जो दूर तुझसे,
अब पास थोडा सा पास आ जाऊं.
हां तेरा अपराधी हूँ मैं, जो चाहे सजा दे,
चाहे तो रोक ले या फिर जाने दे.
पर इस बार आया हूँ तो एक दफा मिलने दे.
यादों के कमल फिर से खिलने दे....

Arunshokeen
March 26th, 2011, 08:20 AM
really nice lines bro.
Zindagi tujhe har lamha main yaad kartha hu, tujhe milne ki fariyaad kartha hu, tu milthi nahi mujhse3 phir bhi milne ki aas kartha hu, is ghathi hui zindgani main bas itna hi mera fasana h, kal tak tu tarasthi thi ,aaj mujhe aanshu bahana h, jab waqt tha tujhse mile nahi, teri bewafai ka gila nahi, jab tune pukara main kahin or tha, kaise kahun wo shama jawani ki rawani ka kuch or tha, ab maut ki saaiya pe tujhe yaad kartha hu, aakhir baar tujhse milne ki fariyaad kartha hu, aaj sab kuch haan pass mere bas tu nahi h, sach h ,jo jeeve zindagi ko wo log ab kam hi haan, wo log ab kam hi h.

जिंदगी तेरे शिकवे सुनता हूँ,
हर रोज तेरे अधूरे सपने बुनता हूँ.
तूने कभी पुकारा ही नहीं,
इस भागदौड़ से उबारा ही नहीं.
हर किसी की उम्मीद थी मुझसे,
मौका ही नहीं दिया मिलनेका तुझसे.
इस भगदड़ में वक्त कटता ही गया,
दुनिया और तेरे बीच मैं बंटता ही गया.
फिर भी अधूरे रह ही गए हैं सपने,
छोड़ गए बीच में ही मुझको अपने.
अब सोचता हूँ थोडा सा ठहर जाऊं,
जिंदगी तुझको गले से लगाऊं.
बहुत हो गया था जो दूर तुझसे,
अब पास थोडा सा पास आ जाऊं.
हां तेरा अपराधी हूँ मैं, जो चाहे सजा दे,
चाहे तो रोक ले या फिर जाने दे.
पर इस बार आया हूँ तो एक दफा मिलने दे.
यादों के कमल फिर से खिलने दे....

deependra
April 2nd, 2011, 02:05 AM
हाँ, उन्हें हक है कि मांग ले वो हमारी ख़ुशी का वरदान,
वो भी तो तिल तिल हुए हैं हमारे लिए बलिदान.
सारी जिंदगी जो जिए हैं बस हमारे ही वास्ते,
ताकि खुशियों से जगमगायें हमारे रास्ते.

खुद को जिन्होंने झोक दिया मेहनत की भट्टी में,
ताकि ये सुकोमल पौधे पनप सके उस मट्टी में.
जिन्होंने ना कभी गर्मी और सर्दी की परवाह की,
और ना कभी किसी सुख की ही चाह की.

जन्म से ही शुरू हुआ जो स्नेह का अटूट बंधन,
सिंचित करता ही गया वो मेरा बचपन और जीवन.
जिन्होंने पुष्पित किया ये मेरा जीवन रुपी सुमन,
उनको करता रहूँ मैं जीवन भर नमन,

अगर पूछोगे कि कौन है वो, लो बतलाता हूँ मैं,
राज ये भी खोलके दिखलाता हूँ मैं,
नहीं वो नहीं कोई देवपुरुष थे,
ना ही जन साधारण के लिए महापुरुष थे.

वो तो थे मेरे माता पिता,
परन्तु मेरे लिए थे विधाता....

htomar
April 2nd, 2011, 07:52 PM
अग्नि देश से आता हूँ मैं!

झुलस गया तन, झुलस गया मन,
झुलस गया कवि-कोमल जीवन,
किंतु अग्नि-वीणा पर अपने दग्*ध कंठ से गाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!

स्*वर्ण शुद्ध कर लाया जग में,
उसे लुटाता आया मग में,
दीनों का मैं वेश किए, पर दीन नहीं हूँ, दाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!

तुमने अपने कर फैलाए,
लेकिन देर बड़ी कर आए,
कंचन तो लुट चुका, पथिक, अब लूटो राख लुटाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!



----हरिवंशराय बच्चन

htomar
April 3rd, 2011, 12:30 PM
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुयों में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली हो धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
औ' फिर जीवन की साँसें ले
उसकी म्रियामाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।


रोमांच हुआ अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू के लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपिहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्*वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।



---------- हरिवंशराय बच्चन

htomar
April 4th, 2011, 11:00 AM
मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में

तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में

तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में

क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में

आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में

कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में

तू रूप कै किरन में सौंदर्य है सुमन में
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में

दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में

htomar
April 5th, 2011, 12:32 PM
Posting two poem.first one is a Najam rather than poem.Second poem is written by my all time favourite poet Ramdhari Singh Dinkar............

1.
क्यूँ ज़माने पे ऐतबार करूँ
अपनी आँखों को अश्कबार करूँ
सिर्फ़ ख्वाबों पे ऐतबार करूँ
दिल ये कहता है तुझसे प्यार करूँ

मेरी रग-रग में है महक तेरी
मेरे चेहरे पे है चमक तेरी
मेरी आवाज़ में खनक तेरी
ज़र्रे - ज़र्रे में है धनक तेरी

क्यूँ न मैं तुझपे दिल निसार करूँ
दिल ये कहता है तुझसे प्यार करूँ

तुझपे कुरबां करूँ हयात मेरी
तुझसे रोशन है कायनात मेरी
बिन तेरे क्या है फिर बिसात मेरी
जाने कब होगी तुझसे बात मेरी

कब तलक दिल को बेक़रार करूँ
दिल ये कहता है तुझसे प्यार करूँ

मेरी आँखों की रोशनी तू है
मेरी साँसों की ताजगी तू है
मेरी रातों की चांदनी तू है
मेरी जां तू है, ज़िन्दगी तू है

हर घड़ी तेरा इन्तिज़ार करूँ
दिल ये कहता है तुझसे प्यार करूं

तू ही उल्फ़त है, तू ही चाहत है
अब फ़क़त तेरी ही ज़रूरत है
हसरतों की ये एक हसरत है
इश्क़ से बढ़के भी इबादत है?

तुझको ख्वाबों से क्यूँ फरार करूँ
दिल ये कहता है तुझसे प्यार करूँ



2.
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं




समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं




जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं


कली की पंखडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं




मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं




मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं




न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं




सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं




दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं




बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं

htomar
April 10th, 2011, 11:36 AM
1.
अजनबी रास्तों पर
पैदल चलें
कुछ न कहें

अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए
सवालों के दायरों से निकलकर
रिवाज़ों की सरहदों के परे
हम यूँ ही साथ चलते रहें
कुछ न कहें
चलो दूर तक

तुम अपने माजी का
कोई ज़िक्र न छेड़ो
मैं भूली हुई
कोई नज़्म न दोहराऊँ
तुम कौन हो
मैं क्या हूँ
इन सब बातों को
बस, रहने दें

चलो दूर तक
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें।

2.
वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बग़ावत है तो है

सच को मैंने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है

कब कहा मैंने कि वो मिल जाये मुझको, मैं उसे
गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है

जल गया परवाना तो शम्मा की इसमें क्या ख़ता
रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है

दोस्त बन कर दुश्मनों- सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है

दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ
दूरियों के बाद भी दोनों में क़ुर्बत(सामीप्य) है तो है

cooljat
April 11th, 2011, 11:44 AM
A nice deep touching poem that depicts emptiness of the April month. Truly makes you feel Nostalgic !


एहसास - शीतल श्रीवस्तव

फिर वही महीना,
फिर वही मौसम
आँखों में उतरने लगा
यादों की दिल्लगी,
एहसासों का समुन्दर
हौले से साँसों में मचलने लगा
वे सूखे पत्ते,
वह पीपल की छाँव
दुपहरिया मे सुस्ताता ओसारे में गाँव
वह इमली,
वह बरगद वह बगीचे का पड़ाव
वह दादी की कहानी,
वह दुपहरिया मे सियार का विवाह
वह गेहूँ का कटना
वह रात का खलिहान
वह मन्दिर की घण्टी
वह मस्जिद का अजान
फिर वही उलझन,
फिर वही सवाल
एक बारगी फिर घाव करने लगा
फिर वही महीना,
फिर वही मौसम
आँखों में उतरने लगा।


Cheers
Jit

htomar
April 11th, 2011, 01:13 PM
भगवतीचरण वर्मा
बस इतना,अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें ।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें ।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे ।
तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे ।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें ।

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये ।

htomar
April 11th, 2011, 07:22 PM
ज़िन्दगी क्यों अजब इक पहेली सी है
क्षण में अंजान ,क्षण में सहेली सी है ।

है उल्लास थोडा, भय भी कुछ है मिला
काँपती नव-वधू की हथेली सी है ।

कोहरे मे रात के, भोर की ये किरण
तप्त मरु में जो खिलती चमेली सी है ।

नगर की धुंध में, स्वप्न बन रह गयी
गाँव की उस पुरानी हवेली सी है ।

मत्त श्रॄंगार में, प्रौढ से बेखबर
नार इतरा के चलती नवेली सी है ।

नीम की शाख के रस में लिपटी हुई
खट्टी ईमली, कभी गुड की भेली सी है ।

सूखे हैं पात सारे, रंग सबके उडे
लगती क्यों 'मन' को फिर भी रंगोली सी है ।

htomar
April 13th, 2011, 11:44 AM
श्यामनन्दन किशोर

चमड़ी मिली खुदा के घर से
दमड़ी नहीं समाज दे सका
गजभर भी न वसन ढँकने को
निर्दय उभरी लाज दे सका

मुखड़ा सटक गया घुटनों में
अटक कंठ में प्राण रह गये
सिकुड़ गया तन जैसे मन में
सिकुड़े सब अरमान रह गये

मिली आग लेकिन न भाग्य-सा
जलने को जुट पाया इन्जन
दाँतों के मिस प्रकट हो गया
मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन

किन्तु अचानक लगा कि यह,
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

श्वेत माँग-सी विधवा की,
चदरी कोई इन्सान दे गया
और दूसरा बिन माँगे ही
ढेर लकड़ियाँ दान दे गया

वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,
धन्य हुआ मानव का चोला
कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।

कहते मरे रहीम न लेकिन,
पेट-पीठ मिल एक हो सके
नहीं अश्रु से आज तलक हम,
अमिट क्षुधा का दाग धो सके

खाने को कुछ मिला नहीं सो,
खाने को ग़म मिले हज़ारों
श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में
भूखे-बेदम मिले हज़ारों

दाने-दाने पर पाने वाले
का सुनता नाम लिखा है
किन्तु देखता हूँ इन पर,
ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है

दास मलूका से पूछो क्या,
'सबके दाता राम' लिखा है?
या कि गरीबों की खातिर,
भूखों मरना अन्जाम लिखा है?

किन्तु अचानक लगा कि यह,
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया ।

जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,
भोज मनाने बन्धु चल पड़े
जहाँ न कल थी बूँद दीखती,
वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े

निर्धन के घर हाथ सुखाते,
नहीं किसी का अन्तर डोला
कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।

घरवालों से, आस-पास से,
मैंने केवल दो कण माँगा
किन्तु मिला कुछ नहीं और
मैं बे-पानी ही मरा अभागा

जीते-जी तो नल के जल से,
भी अभिषेक किया न किसी ने
रहा अपेक्षित, सदा निरादृत
कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने

बाप तरसता रहा कि बेटा,
श्रद्धा से दो घूँट पिला दे
स्नेह-लता जो सूख रही है
ज़रा प्यार से उसे जिला दे

कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,
एक-एक को मार गिराया
मन-मृग भोला रहा भटकता,
निकली सब कुछ लू की माया

किन्तु अचानक लगा कि यह,
घर-बार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी,
मरने पर उपकार हो गया

आश्चर्य वे बेटे देते,
पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण
नमक-तेल रोटी क्या देना,
कर न सके जो आत्म-समर्पण !

जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,
और स्वर्ग के द्वार न खोला !
कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।

htomar
April 14th, 2011, 04:01 PM
जो मेरे नयनों के सपने,
जो मेरे प्राणों के अपने ,
दे-दे कर अभिशाप चले सब-
क्या यह भी वरदान तुम्हारा ?

खुली हवा में पर फैलाता,
मुक्त विहग नभ चढ़ कर गाता
पर जो जकड़ा द्वंद्व-बन्ध में,-
क्या वह भी निर्माण तुम्हारा ?

बादल देख हृदय भर आया
'दो दो-बूँद' कहा, दुलराया ;
पर पपीहरे ने जो पाया, -
क्या वह भी पाषाण तुम्हारा ?

नीरव तम, निशीथ की बेला,
मरु पथ पर मैं खड़ा अकेला
सिसक-सिसक कर रोता है, जो -
क्या वह भी प्रिय गान तुम्हारा ?

----जानकीवल्लभ शास्त्री

htomar
April 14th, 2011, 04:04 PM
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।


कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।


जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।


इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।


मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।


साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।


फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

htomar
April 14th, 2011, 07:24 PM
हुल्लड़ मुरादाबादी


क्या बताये आपसे हम हाथ मलते रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए
भूख, महगाई, गरीबी इश्क मुझसे कर रहीं थीं
एक होती तो निभाता, तीनो मुझपर मर रही थीं
मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे
मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान् थे
रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए
हर तरफ़ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए
कुछ नहीं जब मिल सका तो भाव में बहने लगे
और चूहों की तरह ही दुम दबा भगने लगे
हमने तब लाईट जलाई, डायरी ले पिल पड़े
चार कविता, पाँच मुक्तक, गीत दस हमने पढे
चोर क्या करते बेचारे उनको भी सुनने पड़े
रो रहे थे चोर सारे, भाव में बहने लगे
एक सौ का नोट देकर इस तरह कहने लगे
कवि है तू करुण-रस का, हम जो पहले जान जाते
सच बतायें दुम दबाकर दूर से ही भाग जाते
अतिथि को कविता सुनाना, ये भयंकर पाप है
हम तो केवल चोर हैं, तू डाकुओं का बाप है

htomar
April 17th, 2011, 11:58 AM
1.
तुमने जो कहा
वो मैं समझा नही
मैने जो समझा
वो तुमने कहा नही

इस कहने-सुनने में
कितने दिन निकल गए
और फिर समझने में
शायद पूरी जिन्दगी
निकल जाए

लेकिन फिर भी अगर तुम
मेरी समझ को समझ सको
किसी दिन
ज़िन्दगी को शायद
अर्थ मिल जाए उस दिन

2.
लफ़्ज़ मेरे कह नहीं पाते
दिल की आवाज़
तुम भी नहीं सुन सकते
दोनों की
अपनी-अपनी मज़बूरियाँ हैं
पास होने पर भी शायद
इसलिए रहती दूरियाँ हैं
बोल कुछ अनकहे
क्यूँ नहीं हम समझ पाते
या फिर कहीं जानकर भी
अनजान बने रहते
अपने ही ख़यालों में खोए
आवारा बादल की तरह
अपने ही आकाश में
भटकते रहते
एक गहरी बदली बन कर
क्यूँ नहीं हम भी
कुछ पल के लिए बरस पाते

3.
जीवन के रंग भी
कोई समझ पाया है
बहते पानी को
कोई रोक पाया है

आज गम है
तो कल खुशी
आज दोस्त है
तो कल अजनबी

जितनी जल्दी
दिन नहीं ढलता है
उतनी जल्दी
चेहरे बदल जाते है

जो आज तुम्हारा है कल
किसी और का हो जाता है

सब कुछ मिट जाता है
चंद यादेंरह जाती हैं

जो सिर्फ़ तुम्हारी होती है
सिर्फ तुम्हारी

4.
कभी लगता जैसे पूरी ज़िन्दगी
कभी न ख़त्म होने वाली
अमावस की रात है

सैकड़ों सितारे टिमटिमा रहे
लेकिन चांद के न होने का
एक गहरा अहसास है

जो चीज़ खो जाती है
फिर क्यूँ वह
इतनी ज़रूरी हो जाती है
शायद पूरी ज़िन्दगी
कुछ खोई हुई चीज़ों के
पीछे की भटकन है
बाहर मुस्कुराहटें
भीतर वही तड़पन है ।

htomar
April 17th, 2011, 08:22 PM
जगदीश व्योम


इतने आरोप न थोपो

मन बागी हो जाए

मन बागी हो जाए,

वैरागी हो जाए

इतने आरोप न थोपो...


यदि बांच सको तो बांचो

मेरे अंतस की पीड़ा

जीवन हो गया तरंग रहित

बस पाषाणी क्रीडा

मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर

जब अकुलाती है

शब्दों की लहर लहर लहराकर

तपन बुझाती है

ये चिनगारी फिर से न मचलकर

आगी हो जाए

मन बागी हो जाए

इतने आरोप न थोपो... !!


खुद खाते हो पर औरों पर

आरोप लगाते हो

सिक्कों में तुम ईमान-धरम के

संग बिक जाते हो

आरोपों की जीवन में जब-जब

हद हो जाती है

परिचय की गांठ पिघलकर

आंसू बन जाती है

नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब

बैरागी हो जाए

मन बागी हो जाए

इतने आरोप न थोपो... !!


आरोपों की विपरीत दिशा में

चलना मुझे सुहाता

सपने में भी है बिना रीढ़ का

मीत न मुझको भाता

आरोपों का विष पीकर ही तो

मीरा घर से निकली

लेखनी निराला की आरोपी

गरल पान कर मचली

ये दग्ध हृदय वेदनापथी का

सहभागी हो जाए

मन बागी हो जाए

इतने आरोप न थोपो ... !!


क्यों दिए पंख जब उड़ने पर

लगवानी थी पाबंदी

क्यों रूप वहां दे दिया जहां

बस्ती की बस्ती अंधी

जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह

करते जीवन क्रीड़ा

वे क्या जाने सुकरातों की

कैसी होती है पीड़ा

जीवन्त बुद्धि वेदनापूत की

अनुरागी हो जाए

मन बागी हो जाए

इतने आरोप न थोपो... !!

htomar
April 18th, 2011, 02:21 PM
कुमार विश्वास

मैं तो झोंका हूँ हवा का उड़ा ले जाऊँगा
जागती रहना तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा

हो के कदमों पे निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक में मिल के भी मैं खुश्बू बचा ले जाऊँगा

कौन सी शै मुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा

कोशिशें मुझको मिटाने की भले हों कामयाब
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मजा ले जाऊँगा

शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त दुश्मन हो गये
सब यह रह जायेंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा

htomar
April 18th, 2011, 02:36 PM
मै तुम्हे ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक गया

रोज़ जाता रहा , रोज़ आता रहा

तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई

मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा


ज़िन्दगी के सभी रास्ते एक थे

सबकी मंज़िल तुम्हारे चयन तक रही

अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्

मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं

प्राण के प्रश्न पर प्रीति की अल्पना

तुम मिटाती रहीं मै बनाता रहा

तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई

मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा


एक खामोश हलचल बनी ज़िन्दगी

गहरा ठहरा हुआ जल बनी ज़िन्दगी

तुम बिना जैसे महलों मे बीता हुआ

उर्मिला का कोई पल बनी ज़िन्दगी

दृष्टि आकाश मे आस का एक दिया

तुम बुझाती रही, मै जलाता रहा

तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई

मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा


तुम चली तो गई मन अकेला हुआ

सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ

जब भी लौटी नई खुशबूऒं मे सजी

मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ

खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर

रूठती तुम रही मै मनाता रहा

तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई

मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा


मै तुम्हे ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक गया

रोज़ जाता रहा , रोज़ आता रहा

htomar
April 19th, 2011, 11:27 AM
सूरज पर प्रतिबंध अनेकों
और भरोसा रातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
सना झूठी बातों पर


हमने जीवन की चौसर पर
दाँव लगाए आँसू वाले
कुछ लोगो ने हर पल, हर दिन
मौके देखे बदले पाले

हम शंकित सच पा अपने,
वे मुग्ध स्वँय की घातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर


हम तक आकर लौट गई हैं
मौसम की बेशर्म कृपाएँ
हमने सेहरे के संग बाँधी
अपनी सब मासूम खताएँ

हमने कभी न रखा स्वयँ को
अवसर के अनुपातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

rakeshsehrawat
April 19th, 2011, 11:55 AM
सूरज पर प्रतिबंध अनेकों
और भरोसा रातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
सना झूठी बातों पर


हमने जीवन की चौसर पर
दाँव लगाए आँसू वाले
कुछ लोगो ने हर पल, हर दिन
मौके देखे बदले पाले

हम शंकित सच पा अपने,
वे मुग्ध स्वँय की घातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर


हम तक आकर लौट गई हैं
मौसम की बेशर्म कृपाएँ
हमने सेहरे के संग बाँधी
अपनी सब मासूम खताएँ

हमने कभी न रखा स्वयँ को
अवसर के अनुपातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

Nakal to ruh sar maar liya kar

htomar
April 19th, 2011, 11:58 AM
Tu maar le.
rok rakhha kisi ne nakal maarne te.
tere ji kare padh naa kare na apadh.
yaha tu nu hi maari jaa.
koi banadh ke laaya tha ke padhan ki liya.


Nakal to ruh sar maar liya kar

cooljat
April 21st, 2011, 10:15 AM
Few lines that describe me inside out -

..

लोग रूठ जाते हैं मुझसे
और मुझे मानना नहीं आता
मैं चाहता हूँ क्या
मुझे जाताना नहीं आता
आंसुओं को पीना पुरानी आदत है
मुझे आंसू बहाना नहीं आता,
लोग कहते हैं मेरा दिल है पत्थर का
इसलिए इसको पिघलाना नहीं आता
अब क्या कहूं मैं
क्या आता है, क्या नहीं आता
बस मुझे मौसम की तरह
बदलना नहीं आता !

..


Cheers
Jit

shivamchaudhary
April 21st, 2011, 11:26 AM
wah wah Jit bhai .. :)

htomar
April 21st, 2011, 12:35 PM
द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
सांसारिक व्यवहार न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
शक्ति न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
कुशल कलाविद् हूं न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार ।

मैंने कितने किए उपाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब विधि था जीवन असहाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब कुछ साधा, जप, तप, मौन
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
कितना घूमा देश-विदेश
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
तरह-तरह के बदले वेष
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम ।

उसकी बात-बात में छल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
माया ही उसका संबल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह वियोग का बादल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
छाया जीवन आकुल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर ।

htomar
April 26th, 2011, 06:50 PM
Bahut dino pahle doordarshan par Shyam Benegal ka 1 serial aaya karta "Bharat ek Khoj". usi ke starting mai ye poem aati thi.


स्रिष्टी से पहले सत् नहीं था, असत् भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ, किसने ढ़का था
उस पल तो अगम अटल जल भी कहाँ था
स्रिष्टी का कौन है कर्त्ता
कर्त्ता हैं या अकर्त्ता
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अदर्ष्ट बना रहता
वही सचमुच में जानता, या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
नहीं पता, नहीं है पता


वह था हिरण्यगर्भ, स्रिष्टी से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत-जात का स्वामी महान्
जो है अस्त्तिवमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

जिस के बल पर तेजोमेय है अंबर
प्रथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर, पैदा कर
व्यापा था जल, इधर उधर निचे उपर
जगा चुके वो कायेक-मेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

ॐ, स्रिष्टी निर्माता, स्वर्ग रचेता, पुर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बाहों जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

htomar
April 29th, 2011, 06:51 PM
सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चौकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!

बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियां.

कतई बुरे नहीं थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे
बन्द थे हमारे लिये.

इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद
और नींद में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.

बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम
और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियां सी.

बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
वि’वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.

लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

htomar
April 30th, 2011, 07:22 PM
wese to kumar viswas ki ye kavita sabhi ne padhi hogi.poori kavita mene pahli baar padhi hai.agar paghle se hi post hai complete poem to repeatation ke liye sorry.


भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूबकर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा

कभी कोई जो खुलकर हंस लिया दो पल तो हंगामा
कोई ख़्वाबों में आकार बस लिया दो पल तो हंगामा
मैं उससे दूर था तो शोर था साजिश है , साजिश है
उसे बाहों में खुलकर कास लिया दो पल तो हंगामा

जब आता है जीवन में खयालातों का हंगामा
ये जज्बातों, मुलाकातों हंसी रातों का हंगामा
जवानी के क़यामत दौर में यह सोचते हैं सब
ये हंगामे की रातें हैं या है रातों का हंगामा

कलम को खून में खुद के डुबोता हूँ तो हंगामा
गिरेबां अपना आंसू में भिगोता हूँ तो हंगामा
नही मुझ पर भी जो खुद की खबर वो है जमाने पर
मैं हंसता हूँ तो हंगामा, मैं रोता हूँ तो हंगामा

इबारत से गुनाहों तक की मंजिल में है हंगामा
ज़रा-सी पी के आये बस तो महफ़िल में है हंगामा
कभी बचपन, जवानी और बुढापे में है हंगामा
जेहन में है कभी तो फिर कभी दिल में है हंगामा

हुए पैदा तो धरती पर हुआ आबाद हंगामा
जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा
हमारे भाल पर तकदीर ने ये लिख दिया जैसे
हमारे सामने है और हमारे बाद हंगामा

htomar
May 5th, 2011, 08:56 PM
From Rashmirathi

है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में?
खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं, लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।

htomar
May 6th, 2011, 05:24 PM
जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा
हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना

जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका के मन में तेरी लालिमा
हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना

जितनी दूर प्यास पनघट से
जितनी दूर रूप घूंघट से
गागर जितनी दूर लाज की बाँह से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ
तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में
रहते जैसे मानस् में संगीत है

जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोख़ियाँ लट से
जितनी दूर किनारा टूटी नाव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

PARVYUG
May 10th, 2011, 01:04 PM
सुनहरे स्वप्नों को (http://parvyug.blogspot.com/2011/04/blog-post_23.html)



http://3.bp.blogspot.com/-pnnhFnkfK_I/TbL4FtvQtFI/AAAAAAAAACY/p1y8wv0OEQM/s200/ioluil.jpg (http://3.bp.blogspot.com/-pnnhFnkfK_I/TbL4FtvQtFI/AAAAAAAAACY/p1y8wv0OEQM/s1600/ioluil.jpg)सुनहरे उज्जवल स्वप्नों को
मानवता के नए रंगों से
सजा कर
बिखेर देना नव रंगों को
जग के उर्वर आँगन में
कर्म पथ में जब बढेगा
श्रम सीकर जब गिरेंगे
लहलहा उठेंगी नयी फसलें
नयी पीढ़ी नयी नस्लें
खिल उठेगी यह धरती
हँस उठेगी यह जगती
धीर हे ! कर्मवीर
होगा फिर एक नूतन
विश्व का निर्माण (स्वरचित)




http://1.bp.blogspot.com/-xIfK-McY-4A/TbL4JOTsbsI/AAAAAAAAACc/rOqTm772jA8/s1600/wgfe.jpg (http://1.bp.blogspot.com/-xIfK-McY-4A/TbL4JOTsbsI/AAAAAAAAACc/rOqTm772jA8/s1600/wgfe.jpg)

htomar
May 11th, 2011, 03:01 PM
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूं;
मत बुझाओ !
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी !!

पांव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूं
आंसूओं से जन्म दे-देकर हंसी को
एक मंदिर के दिये-सा जल रहा हूं;
मैं जहां धर दूं कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ
पांव मेरे देखकर दुनिया चलेगी !!

बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूं मैं
इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गांव दफनाता फिरूं मैं
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूं ।
मत बुझाओ ।
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी !!

जी रहो हो किस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूं,
मत सुखाऒ !
मैं खिलूंगा, तब नई बगिया खिलेगी !!

शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी
मैं जला हूं, तो सुबह लाकर बुझूंगा
ज़िंदगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूंगा देवता बनकर पूजूंगा;
आंसूओं को देखकर मेरी हंसी तुम
मत उड़ाओ !
मैं न रोऊं, तो शिला कैसे गलेगी !!

----रामावतार त्यागी

deependra
May 12th, 2011, 09:59 PM
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूं;
मत बुझाओ !
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी !!

पांव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूं
आंसूओं से जन्म दे-देकर हंसी को
एक मंदिर के दिये-सा जल रहा हूं;
मैं जहां धर दूं कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ
पांव मेरे देखकर दुनिया चलेगी !!

बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूं मैं
इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गांव दफनाता फिरूं मैं
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूं ।
मत बुझाओ ।
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी !!

जी रहो हो किस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूं,
मत सुखाऒ !
मैं खिलूंगा, तब नई बगिया खिलेगी !!

शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी
मैं जला हूं, तो सुबह लाकर बुझूंगा
ज़िंदगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूंगा देवता बनकर पूजूंगा;
आंसूओं को देखकर मेरी हंसी तुम
मत उड़ाओ !
मैं न रोऊं, तो शिला कैसे गलेगी !!

----रामावतार त्यागी

Tomar bhai,
I liked all of your poems posted in this thread. Poems are like our friends, they console us in our hard times, they motivate us when needed. Hats off to your poetry collection and thanks a ton for posting them here!!

PARVYUG
May 14th, 2011, 08:52 PM
बनिया होने के माने हैं
चोर और कमीना होना
एक गँवार आदमी होना
जो जिन्दगी जीना नहीं जानता है

खूबसूरत लड़कियाँ बनियों के लिए
नहीं होतीं हैं
और बौद्धिकों के लिए तो बनिया
बात करने के काबिल भी नहीं

बनिया होने के माने हैं
जिन्दगी ढोना
कोई बाप सीधा रुख नहीं करता है
बनियों की तरफ़
क्लर्कों के बाद आती है बनियों
की औकात

बनिया होने के माने हैं
अयोग्य होना
प्रगतिशीलों के लिए अछूत

मैं बनिया हूं और कविता लिखता हूँ .

-मुकेश जैन
21/03/1992

PARVYUG
May 21st, 2011, 01:19 PM
लिए सम्भावना
नवजीवन की
नव लय-लहरी नव
प्रभात की
नव स्वरों से
स्वारित स्वर मैं
शुभकामना तुम्हें
जन्मदिवस की
ह्रदय मैं
नव उल्लास हो
जीवन मैं
उज्जवल प्रभात हो
उमंग हो
निश्छल बचपन si

htomar
May 21st, 2011, 10:01 PM
Thans a lot for appriciation.

Tomar bhai,
I liked all of your poems posted in this thread. Poems are like our friends, they console us in our hard times, they motivate us when needed. Hats off to your poetry collection and thanks a ton for posting them here!!

htomar
May 22nd, 2011, 11:52 AM
मृत्यु तू आना
तेरा स्वागत करूँगा

किन्तु मत आना
कि जैसे कोई बिल्ली
एक कबूतर की तरफ़
चुपचाप आती
फिर झपट्टा मारती है यकबयक ही
तोड़ गर्दन
नोच लेती पंख
पीती रक्त उसका

मृत्यु तुझको
आना ही अगर है पास मेरे
तो ऐसे आना
जैसे एक ममतामयी माँ
अपने किसी
बीमार सुत के पास आए
और अपनी गोद में
सिर रख के उसका
स्नेह से देखे उसे
कुछ मुस्कुरा कर
फिर हथेली में
जगत का प्यार भर कर
धीरे से सहलाए उसका तप्त मस्तक
थपथपा कर पीर
कर दे शांत उसकी
और मीठी नींद में
उसको सुला दे

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

किन्तु मत आना
कि आता चोर जैसे
और ले जाता
उमर भर क़ी कमाई
तू दबे पाँव ही आना चाहती है
तो ऐसे आना
जैसे कोई भोला बच्चा
आके पीछे से अचानक
दूसरे की
अपने कोमल हाथ से
बंद आँख कर ले
और फिर पूछे
बताओ कौन हूँ मैं ?

तू ही बता
वह क्या करे फिर
मीची गई हैं आँख जिसकी
और जिससे
प्रश्न यह पूछा गया है
है पता उसको
कि किसके हाथ हैं ये
कौन उसकी पीठ के पीछे खड़ा है
किन्तु फिर भी
अभिनय तो करता है
थोड़ी देर को वह
जैसे बिल्कुल
जानता उसको नहीं है
और जब बच्चा वह
ख़ुश होता किलकता
सामने आता है उसके
क्या करे वह ?
खींच लेता अंक में अपने
पकड़ कर
एक चुम्बन
गाल पर जड़ देता उसके

मृत्यु
तू भी इस तरह आए अगर तो
यह वचन है
तुझको कुछ भी
यत्न न करना पड़ेगा
मै तुझे
ख़ुद खींच लूँगा
पास अपने
और
उँगली थाम
तेरी चल पडूँगा
तू जहाँ
जिस राह पर भी ले चलेगी

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

----- कुमार अनिल

htomar
May 25th, 2011, 07:56 PM
जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौडा अपने जीवन-भर,
जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!


जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!


मेरे पूजन-आराधन को
मेरे सम्पूर्ण समर्पण को,
जब मेरी कमज़ोरी कहकर मेरा पूजित पाषाण हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!



-----हरिवंशराय बच्चन

htomar
May 26th, 2011, 01:52 PM
वहाँ लहराता है नीला आसमान
सूरज की किरनें एक-एक कर
गिरती हैं झूमती गेहूँ की बालियों पर
और छिटकती हैं जाकर मस्जिद के सफ़ेद बुर्ज़ के पास
वहीं छत पर लेटा हुआ अली हुसैन
हल करने में लगा है एक सवाल
महज चाहिए उसे एक सूत्र
जिसमें समेट सके वह
अम्मींजान की पीड़ाओं को
अपने घर और मुल्क की ग़रीबी को
अण्डों में कसमसाते चूजों को
रोटी के संघर्ष की अनिवार्यता को
और उसी समीकरण में चाहिए उसे वजह
हुहुआती पृथ्वी के प्रति लहकते सूर्य की उदासीनता की
चंद्र और मंगल के बीच बढ़ते अंधकार की
ब्रह्माँड की नाभि में उठ रहे मरोड़ की
अरब के सुदूर कोने में
आँधियों में विलीन होते हुए एक काफ़िले की

डूबा हुआ था अली हुसैन
तभी कान में पड़ी आवाज़ अम्मी जान की......
मुँह में कुछ लगा ले अली
खराइ मार देगा

अली हुसैन के इस दुराग्रह का परिप्रेक्ष्य है
वहीं बगल में हल चलाता हुआ मंगरू
दूर झूमता हुआ सेमल
सरसराती हुई नहर कहीं पास
जाड़े की धूप में लहराता-पकता धान
और ऊपर चाय लेकर आती हुई
अम्मी की आहट

और अली हुसैन का वह एक सूत्र
जिसमें गर लिया जाए एक विराट परिप्रेक्ष्य ,
कैसे दिखेंगे मानव के जरूरी सरोकार
कुमारेन्द्र का बबुरीवन और
श्रोडींगर का वह मशहूर समीकरण....
भाँप रहा है अली हुसैन

चाँद से कैसा दिखता है
हल चलाता हुआ मंगरू
चूल्हे पर रोटी सेंकती अम्मीजान
दर-दर भटकता हुआ ओसामा
झेलती हुई लड़की एक बलात्कार
टूट कर गिरता हुआ गौतम बुद्ध

सूरज को क्या मतलब है
वह तो देखता है एक बड़ा संदर्भ
जिसमें ग्रह टकराता है ग्रह से
एक सन्तप्त प्रकाश वेग जो समय सन्दर्भ से बाहर निकलकर
बढ़ रहा है नन्हें सिद्धार्थ की ओर

उलझता जाता है अली हुसैन
श्रोडींगर समीकरणों के जाल में
उलझ रहा है उसका मैथेमेटिक्स
जितनी अधिक खिंचती है सन्दर्भों की सीमा
सरलीकरण नहीं हो पा रहा है एक सूत्र में
काफी नहीं है केवल E=MC2
छूट रही है कुछ एक चीज़
शायद एक किरन
नहीं पकड़ पाती जिसे हेजनबर्ग की अनिश्चितता

हक़ की लड़ाई और उसकी अनिवार्यता को देगा
वही सूत्र एक ठोस वैज्ञानिक आधार
और तब
करोड़ों-करोड़ हाथ उठेंगे
काले आसमान की तरफ
फटेगा तितर-बितर काला अंधकार
छोटी पड़ेगी पृथ्वी और
काँपेंगे रह-रह चंद्र और सूर्य ....
नानी मुस्कुराती दिखेगी चाँद पर
भींचता है पसीजती मुट्ठी में
हैली डे-रेसनिक की किताब
और उठाता है अली हुसैन
न जाने कब से ठण्डी पड़ी
अम्मीजान की चाय !


----- Ajay Krishna

htomar
May 27th, 2011, 08:33 PM
kavita to nahi hai ye .fir bhi share kar rha hu.


चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया


जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया


सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया


आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया


आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया


अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया


ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया


अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया

kuldeephmh
May 27th, 2011, 08:54 PM
kavita to nahi hai ye .fir bhi share kar rha hu.
चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया
.. ..

अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया


Clap Clap Clap Clap
http://www.gifs.net/Animation11/Hobbies_and_Entertainment/Theater/Hands_clap_2.gif

ravinderjeet
May 27th, 2011, 09:22 PM
kavita to nahi hai ye .fir bhi share kar rha hu.


चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया


जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया


सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया


आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया


आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया


अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया


ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया


अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया

कविता ना हो भले ,भावनाए तो हैं
भावनाओं को शब्दों में पिरोने का शुक्रिया |

htomar
May 28th, 2011, 07:15 PM
तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया, मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची, तेरी तस्वीर बना बैठा।

मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा, मैं तेरा नाम बता बैठा।

सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले, मैं तेरी अलख जगा बैठा।

मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया, मैं तेरा गीत बना बैठा।

मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला, तेरे ही दर पर जा बैठा।

मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते अपना भी होश भुला बैठा।

मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

htomar
May 29th, 2011, 08:29 PM
माना गम की रात बडी. है,
हृदय शूल सी सॉस गडी है
फिर भी मत घबरा ओ साथी
कुछ दूरी पर सुबह खडी है

तम से ओ घबराने वाले, तुझे अगर दरकार उजाले
जब तक किरण सुबह की फूटे, तब तक कोई दीप जला ले

माना तेरे मन आंगन में,
गम ने डेरा डाल दिया है
लेकिन यह तो सोच बावरे
कहां यह अतिथि सदा रूका है

जाने को ही यह आता है, फिर क्यों व्यर्थ ही घबराता है
जब तक है यह घर में तेरे, तब तक गीत कोई तू गा ले

गहरे से गहरे सागर में
तिनका भी सम्बल होता है
दो बॉंहें पतवार हैं तेरी
फिर क्यों अपना बल खोता है

माना कि प्रतिकूल है धारा, मगर दूर भी नहीं किनारा
और जरा से हाथ मार ले, और जरा से पैर चला ले

ओ सूनी राहों के पंथी
थक कर मत तू ढूँढ ठिकाना
कहता है मंजिल जिसको जग
तुझको उसके आगे जाना

क्या करना फिर खटिया बिस्तर, क्या करना फिर तकिया चादर
नींद जहां भी आये तुझको, गगन ओढ ले धरा बिछा ले

-----------Anil

htomar
June 3rd, 2011, 01:40 PM
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उज़बक अफ़लातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

htomar
June 10th, 2011, 03:40 PM
शीतल पवन, गंधित भुवन
आनन्द का वातावरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

शतदल खिले भौंरे जगे
मकरन्द फूलों से भरे
हर फूल पर तितली झुकी
बौछार चुम्बन की करे
सब ओर मादक अस्फुरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

संझा हुई सपने जगे
बाती जगी दीपक जला
टूटे बदन घेरे मदन
है चक्र रतिरथ का चला
कितने गिनाऊँ उद्धरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

नीलाभ जल की झील में
राका(पूर्णमासी) नहाती निर्वसन
सब देख कर मदहोश हैं
उन्मत्त चाँदी का बदन
रसरंग का है निर्झरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

कृष्ण शलभ

htomar
June 13th, 2011, 08:02 PM
हर दर्पन तेरा दर्पन है, हर चितवन तेरी चितवन है,
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाता हूँ !


नभ की बिंदिया चन्दावाली, भू की अंगिया फूलोंवाली,
सावन की ऋतु झूलोंवाली, फागुन की ऋतु भूलोंवाली,
कजरारी पलकें शरमीली, निंदियारी अलकें उरझीली,
गीतोंवाली गोरी ऊषा, सुधियोंवाली संध्या काली,
हर चूनर तेरी चूनर है, हर चादर तेरी चादर है,
मैं कोई घूँघट छुऊँ, तुझे ही बेपरदा कर आता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !


यह कलियों की आनाकानी, यह अलियों की छीनाछोरी,
यह बादल की बूँदाबाँदी, यह बिजली की चोराचारी,
यह काजल का जादू-टोना, यह पायल का शादी-गौना,
यह कोयल की कानाफूँसी, यह मैना की सीनाज़ोरी,
हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है, हर पीड़ा तेरी पीड़ा है,
मैं कोई खेलूँ खेल, दाँव तेरे ही साथ लगाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !


तपसिन कुटियाँ, बैरिन बगियाँ, निर्धन खंडहर, धनवान महल,
शौकीन सड़क, गमग़ीन गली, टेढ़े-मेढ़े गढ़, गेह सरल,
रोते दर, हँसती दीवारें नीची छत, ऊँची मीनारें,
मरघट की बूढ़ी नीरवता, मेलों की क्वाँरी चहल-पहल,
हर देहरी तेरी देहरी है, हर खिड़की तेरी खिड़की है,
मैं किसी भवन को नमन करूँ, तुझको ही शीश झुकाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !


पानी का स्वर रिमझिम-रिमझिम, माटी का रव रुनझुन-रुनझुन,
बातून जनम की कुनुनमुनुन, खामोश मरण की गुपुनचुपुन,
नटखट बचपन की चलाचली, लाचार बुढ़ापे की थमथम,
दुख का तीखा-तीखा क्रन्दन, सुख का मीठा-मीठा गुंजन,
हर वाणी तेरी वाणी है, हर वीणा तेरी वीणा है,
मैं कोई छेड़ूँ तान, तुझे ही बस आवाज़ लगाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !


काले तन या गोरे तन की, मैले मन या उजले मन की,
चाँदी-सोने या चन्दन की, औगुन-गुन की या निर्गुन की,
पावन हो या कि अपावन हो, भावन हो या कि अभावन हो,
पूरब की हो या पश्चिम की, उत्तर की हो या दक्खिन की,
हर मूरत तेरी मूरत है, हर सूरत तेरी सूरत है,
मैं चाहे जिसकी माँग भरूँ, तेरा ही ब्याह रचाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है!

htomar
June 24th, 2011, 01:22 PM
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..





अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..





शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..





फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..





मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

ravinderjeet
June 24th, 2011, 06:17 PM
गलतियों से जुदा
वो भी नहीं
में भी नहीं

दोनों इंसान हैं
भगवान् वो भी नहीं
में भी नहीं

वो मुझे
और में उस्से
इल्जाम देते हैं
पर अपने अन्दर झांकते
वो भी नहीं
में भी नहीं

गलत फहमियों ने
बढ़ा दी दूरियाँ
वरना इंसान तो बुरे
वो भी नहीं
में भी नहीं

इस घुमती दुनिया में
सफ़र जारी हे
एक लम्हे को रुके
वो भी नहीं
में भी नहीं

एक दुसरे को
मानते बहुत हैं
पर इस हकीकत को
जानते वो भी नहीं
में भी नहीं

htomar
June 24th, 2011, 07:29 PM
bahut hi badhiya kavita hai....thnx 4 sharing....
ravinder ji mujhe to tok-2 kar kavi ka naam likhne ki aadat daal di..khud bhi likh dete...


गलतियों से जुदा
वो भी नहीं
में भी नहीं

दोनों इंसान हैं
भगवान् वो भी नहीं
में भी नहीं

वो मुझे
और में उस्से
इल्जाम देते हैं
पर अपने अन्दर झांकते
वो भी नहीं
में भी नहीं

गलत फहमियों ने
बढ़ा दी दूरियाँ
वरना इंसान तो बुरे
वो भी नहीं
में भी नहीं

इस घुमती दुनिया में
सफ़र जारी हे
एक लम्हे को रुके
वो भी नहीं
में भी नहीं

एक दुसरे को
मानते बहुत हैं
पर इस हकीकत को
जानते वो भी नहीं
में भी नहीं

ravinderjeet
June 24th, 2011, 09:32 PM
bahut hi badhiya kavita hai....thnx 4 sharing....
ravinder ji mujhe to tok-2 kar kavi ka naam likhne ki aadat daal di..khud bhi likh dete...

manne bhi naa beraa

htomar
June 28th, 2011, 06:50 PM
बजरंगी हूँ नहीं कि निज उर चीर तुम्हें दरसाऊँ !
रस-वस का लवलेश नहीं है, नाहक ही क्यों तरसाऊँ ?
सूख गया है हिया किसी को किस प्रकार सरसाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
नभ के तारे तोड़ किस तरह मैं महराब बनाऊँ ?
कैसे हाकिम और हकूमत की मै खैर मनाऊँ ?
अलंकार के चमत्कार मै किस प्रकार दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
गज की जैसी चाल , हरिन के नैन कहाँ से लाऊँ ?
बौर चूसती कोयल की मै बैन कहाँ से लाऊँ ?
झड़े जा रहे बाल , किस तरह जुल्फें मै दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो कि कैसे झूठ बोलना सीखूँ और सिखलाऊँ ?
कहो कि अच्छा - ही - अच्छा सब कुछ कैसे दिखलाऊँ ?
कहो कि कैसे सरकंडे से स्वर्ण - किरण लिख लाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो शंख के बदले कैसे घोंघा फूंक बजाऊँ ?
महंगा कपड़ा, कैसे मैं प्रियदर्शन साज सजाऊँ ?
बड़े - बड़े निर्लज्ज बन गए, मै क्यों आज लजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
लखनऊ - दिल्ली जा - जा मै भी कहो कोच गरमाऊँ ?
गोल - मोल बातों से मै भी पब्लिक को भरमाऊँ ?
भूलूं क्या पिछली परतिज्ञा , उलटी गंग बहाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
चाँदी का हल , फार सोने का कैसे मैं जुतवाऊँ ?
इन होठों मे लोगों से कैसे रबड़ी पुतवाऊँ ?
घाघों से ही मै भी क्या अपनी कीमत कुतवाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
फूंक मारकर कागज़ पर मैं कैसे पेड़ उगाऊँ ?
पवन - पंख पर चढ़कर कैसे दरस - परस दे जाऊँ ?
किस प्रकार दिन - रैन राम धुन की ही बीन बजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
दर्द बड़ा गहरा किस - किससे दिल का हाल बताऊँ ?
एक की न, दस की न , बीस की , सब की खैर मनाऊँ ?
देस - दसा कह - सुनकर ही दुःख बाँटू और बटाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
बकने दो , बकते हैं जो , उन को क्या मैं समझाऊँ ?
नहीं असंभव जो मैं उनकी समझ में कुछ न आऊँ ?
सिर के बल चलनेवालों को मैं क्या चाल सुझाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
जुल्मों के जो मैल निकाले , उनको शीश झुकाऊँ ?
जो खोजी गहरे भावों के , बलि - बलि उन पे जाऊँ !
मै बुद्धू , किस भांति किसी से बाजी बदूँ - बदाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
पंडित की मैं पूंछ , आज - कल कबित - कुठार कहाऊँ !
जालिम जोकों की जमात पर कस - कस लात जमाऊँ !
चिंतक चतुर चाचा लोगों को जा - जा निकट चिढाऊँ !
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?

---------Baba Naagarjun

htomar
July 4th, 2011, 09:14 PM
जब कोई आदमी
करता है किसी से
सच्चा प्यार
तो सब कुछ बताना चाहता है

आसमान का रंग
इस समय कैसा है
कैसी हो रही है बारिश
अचानक उसके शहर में
कितनी उल्लसित हैं तरंगें
समुद्र में
कितना-कितना गर्जन
कितनी गहरी है रात
कितनी उदासी

वह अपनी हर ख़ुशी
बताना चाहता है
जब उड़ी आसमान पर पतंगें उसकी
तो वह इस ख़ुशी को फ़ौरन
एक संदेश की तरह चाहता है भेजना
यहाँ तक कि उसके घर के सामने
तार पर बैठी हो कोई चिड़िया
तो वह भी बताना चाहता है
चाहता है यह भी बताना
आज उसके आँगन में एक फूल खिला है
धूप निकली है बहुत दिनों के बाद
पार्क में

हालाँकि कुछ लोग यह भी
कहते हैं इसमें बताना क्या है
क्या नहीं है उसे मालूम
पर जब आदमी करता है
किसी से सच्चा प्यार
तो आटे दाल और
सब्ज़ियों के दाम भी
चाहता है बताना
किस तरह बढ़ गई है महंगाई
और प्याज के भाव
चढ़ गए आसमान पर

उफ! यह ट्रैफ़िक जाम
किस तरह झर रहा है पलस्तर
दीवार पर चल रही है
एक छिपकली
किस तरह जर्जर हो गया है
यह मकान
बढ़ गया है कितना
किराया
और स्कूल की फ़ीस

वह खाने के स्वाद
पानी का रंग
मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू
भी बताना चाहता है
अपने समय की राजनीति
और दुष्चक्र तो ज़रूर ही
झूठ और सच के भेद को भी
फ़रेब को भी
बताना चाहता है

बताना चाहता है
कोई गाना
किस तरह उसके दिल को छू गया एक दिन
पर यह भी बताना चाहता है
नौकरी करता किस तरह घुट-घुटकर
इन दिनों
और नहीं मिल पा रही
समय पर
तनख़्वाह....

वह यह भी बताना चाहता है
उसके मन में है
किस तरह की है गुत्थियाँ
किस तरह की उलझनें
किस तरह से विचलन-आकर्षण
वह अपनी कमज़ोरी या कमी को बताए
बताए अपने लालच
यह घृणा को
तो समझिए
वाकई वह प्यार करता है
आपसे सच्चा

अगर वह आदमी
नहीं बताना चाहता है
तो समझो वह कुछ
छिपा रहा है
सच्चा प्यार
करना है
तो किसी को
अपने पुण्य और पाप भी बताने चाहिए

प्यार में कुछ भी नहीं छिपाना चाहिए
अगर वह किसी और से प्यार करने लगा है
तो यह बात उसे सबसे पहले बतानी चाहिए
जितना पारदर्शी होगा प्यार
उतना ही होगा वह
मज़बूत
और तूफ़ान में भी वह टिकेगा
हरदम

कोई ताक़त
नहीं हिला सकती उसे ।

htomar
July 6th, 2011, 12:29 PM
गुण तो नि:संशय देश तुम्*हारे गाएगा,
तुम-सा सदियों के बाद कहीं फिर पाएगा,
पर जिन आदर्शों को तुम लेकर तुम जिए-मरे, कितना उनको कल का भारत अपनाएगा?
बाएँ था सागर औ' दाएँ था दावानल,
तुम चले बीच दोनों के, साधक, सम्*हल-सम्*हल,
तुम खड्गधार-सा पंथ प्रेम का छोड़ गए, लेकिन उस पर पाँवों को कौन बढ़ाएगा?
जो पहन चुनौती पशुता को दी थी तुमने,
जो पहन दनुज से कुश्*ती ली थी तुमने,
तुम मानवता का महाकवच तो छोड़ गए, लेकिन उसके बोझे को कौन उठाएगा?
शासन-सम्राट डरे जिसकी टंकारों से,
घबराई फ़*िरकेवारी जिसके वारों से,
तुम सत्*य-अहिंसा का अजगव तो छोड़ गए, लेकिन उस पर प्रत्*यंचा कौन चढ़एगा?

htomar
July 11th, 2011, 12:08 PM
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
बारिश सा शोर न था उसमें, सागर की तरह वो बहती थी
कोई उस को पढ़ न पाया, न कोई उसको समझा तब
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी

शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो देता था, रखता था उसको धोखे में
जितने पल रुकता था आकर, वो उस में सिमटी रहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी

इक दिन ऐसा भी आया, वो आया पर दर नहीं खुला
दरवाज़े पर हँसता था जो, इक चेहरा उस को नहीं मिला
आँसू के हर्फ़ वहाँ थे, और था वफ़ा का किस्सा भी
तब जान गये आख़िर, सब कैसे वो टूटी, कहाँ मिटी

समझा तब लोगों ने उसको, कैसे वो ताने सहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी


बाद उसके ख़त भी मिले, जिनमें कई प्यार की बातें थी
सौगातें थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातें थी
लिखा था उसने, सम्हल के रहना, इतना भी मत गुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तुम से जीना, तुम पर मरना
अब वो पागल लड़की नहीं रही, जो तुम को खूब समझती थी
हर गुस्से को हर चुप को, आसानी से जो पढ़ती थी

समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आँखें कहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी

htomar
July 24th, 2011, 12:16 PM
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

पंख उगे थे मेरे जिस दिन तुमने कन्धे सहलाए थे,
जिस-जिस दिशि-पथ पर मैं विहरा एक तुम्हारे बतलाये थे,
विचरण को सौ ठौर, बसेरे को केवल गल्बांह तुम्हारी,
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

ऊँचे-ऊँचे लक्ष्य बनाकर जब-जब उनको छू कर आता,
हर्ष तुम्हारे मन का मेरे, मन का प्रतिद्वन्दी बन जाता.
और जहाँ मेरी असफलता मेरी विव्हलता बन जाती,
वहाँ तुम्हारा ही दिल बनता मेरे दिल का एक दिलासा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

नाम तुम्हारा ले लूँ, मेरे स्वप्नों की नामावली पूरी,
तुम जिससे सम्बद्ध नहीं वह काम अधूरा, बात अधूरी,
तुम जिसमे डोले वह जीवन, तुम जिसमे बोले वह वाणी,
मुर्दा-मूक नहीं तो मेरे सब अरमान, सभी अभिलाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

तुमसे क्या पाने को तरसा करता हूँ कैसे बतलाऊँ,
तुमको क्या देने को आतुर रहता हूँ कैसे जतलाऊँ,
यह चमड़े की जीभ पकड़ कब पाती है मेरे भावों को,
इन गीतों में पंगु स्वर्ग में नर्तन करने वाली भाषा.
अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा.

htomar
July 26th, 2011, 10:45 AM
पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
"लो टूट चुका बन्धन मेरा!"
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

deependra
July 31st, 2011, 07:13 PM
An inspiring poem by Gopaldas Neeraj-

भूल गया है तू अपना पथ,
और नहीं पंखों में भी गति,
किंतु लौटना पीछे पथ पर अरे, मौत से भी है बदतर ।
खग ! उडते रेहना जीवन भर !


मत डर प्रलय झकोरों से तू,
बढ आशा हलकोरों से तू,
क्षण में यह अरि-दल मिट जायेगा तेरे पंखों से पिस कर ।
खग ! उडते रेहना जीवन भर !


यदि तू लौट पडेगा थक कर,
अंधड काल बवंडर से डर,
प्यार तुझे करने वाले ही देखेंगे तुझ को हँस-हँस कर ।
खग ! उडते रेहना जीवन भर !


और मिट गया चलते चलते,
मंजिल पथ तय करते करते,
तेरी खाक चढाएगा जग उन्नत भाल और आखों पर ।
खग ! उडते रेहना जीवन भर !

deependra
August 1st, 2011, 04:08 AM
A beautiful poem by Atal ji-

टूटे हुए तारों से फूटे वासन्ती स्वर,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,

झरे सब पीले पात,
कोयल की कुहुक रात,

प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ

गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी?
अन्तर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,

काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ

reenu
August 1st, 2011, 10:24 AM
Nice One...


इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
बारिश सा शोर न था उसमें, सागर की तरह वो बहती थी
कोई उस को पढ़ न पाया, न कोई उसको समझा तब
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी

शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो देता था, रखता था उसको धोखे में
जितने पल रुकता था आकर, वो उस में सिमटी रहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी

इक दिन ऐसा भी आया, वो आया पर दर नहीं खुला
दरवाज़े पर हँसता था जो, इक चेहरा उस को नहीं मिला
आँसू के हर्फ़ वहाँ थे, और था वफ़ा का किस्सा भी
तब जान गये आख़िर, सब कैसे वो टूटी, कहाँ मिटी

समझा तब लोगों ने उसको, कैसे वो ताने सहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी


बाद उसके ख़त भी मिले, जिनमें कई प्यार की बातें थी
सौगातें थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातें थी
लिखा था उसने, सम्हल के रहना, इतना भी मत गुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तुम से जीना, तुम पर मरना
अब वो पागल लड़की नहीं रही, जो तुम को खूब समझती थी
हर गुस्से को हर चुप को, आसानी से जो पढ़ती थी

समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आँखें कहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी

htomar
August 1st, 2011, 09:43 PM
रसोईघरों में तीन सौ साठ अंशों की व्यस्तता के फलक में
हर लम्हा-हर एक छोटे से कोण में मौजूद दिखतीं स्त्रियाँ
नमक-मिर्च, शक्कर, हल्दी-धनिया और
मसालों की खुशबुओं का अनुपात चुटकियों में
अपने अंदाज से साधती
वह भी गुनगुनाते हुए बदस्तूर
चाहे बच्चों की भूख-प्यास का समय हो या
मर्दों की तलब या बुज़ुर्गों के खाँसने में छुपे हुए इशारे
इन सबके अर्थ समाहित थे उनके अंदाजों की दिव्य-दृष्टि में
सारी स्त्रियों के अंदर
अंदाज की मशीन हमेशा ठीक-ठाक काम करती रही
और तो और उसमें लगातार संसाधित होते रहे
चूल्हे की आँच के तापमान से लेकर
मौसमों के पूर्वानुमान तक के आँकड़े
इस तरह तय समय पर आते रहे
एक के बाद एक वसंत इस धरती पर
और धीरे-धीरे भरता गया आकाश स्त्रियों के अंदाज से बने रंगों के इंद्रधनुष से
कई-कई बार तो हैरानी होती
कैसे कभी थर्मामीटर और माइक्रोवेव-ओवन जैसे कई उपकरण भी हुए फेल
परदे के पीछे रहकर महसूस करके अंदाज लगा लेने के उस नायाब हुनर के आगे
जो गुँजाता था व्योम में सधे हुए हाथ के करिश्मे का गान
कहना मुश्किल कहाँ से प्रवेश करती थी सटीक अंदाजों की अजस्र धारा अपने-आप
सास-माँ से लेकर तो बहू-बेटी तक की देहों के भीतर अनंत काल से
दुनिया के बारे में
कोई कहती नज़र से पहचानती हैं हम सबको
कोई कहती आवाज़ के लहज़े से
कोई कहती चाल-ढाल से
कोई कहती पता नहीं कैसे मगर हाँ
अपने-आप हो जाता है अंदाजा
यही आख़िरी बात
जो समीकरण है
अपने-आप लग जाने वाले अंदाजों के गणित का
इसी में दुनिया के ख़ूबसूरत बने होने का राज़ छुपा हुआ है ।

htomar
August 2nd, 2011, 06:40 PM
हंसी की इक
फिजूल सी कोशिश में
कई बार मैं
उसके चेहरे को टटोलती
जालों को उतारने की
नाकाम कोशिश में
बादबनखोलती
पर हवायें
और मुखालिफ़ हो जातीं
इर्द-गिर्द के घेरे
और कस जाते...

आँखें
एक लम्हे के लिए
आस की लौ में
चमक उठतीं
और दूसरे ही पल
तेज धूप की आंच लिए
बेमौसम की बरसात में
बोझल हो जातीं...

इक नक्श उभरता
चेहरा टूटता
जख्म हंसते
आसमां फिर एक
झूठी कहानी गढने लगता...

मैं...
पढने की कोशिश करती
मुझे यकीन था
वो लड़खडा़येगा
सख्त चट्टानों से टकराकर
सच उसके चेहरे पर
छलक आयेगा...

मैं पूछती
तुम्हें याद है....
इक बार जब तुम गिर पडे़ थे...
ऊपरी सीढी़ से....?
उसने कहा...
नहीं..
मुझे कुछ याद नहीं..
मैं कभी नहीं गिरा..
मैं गिरना नहीं जानता
मैं निरंतर चलना जानता हूँ
आखिरी सीढी़ तक...

मैंने फिर कहा...
जानते हो यह तुम्हारे
चेहरे पर का जख्म.....?
नहीं.......
मै किसी अतीत से नहीं बँधा
गिरना और चोट लगना
एक स्वभाविक क्रिया है
न वह अतीत है
न वर्तमान...
ज़िंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता...

मैंने
फिर एक कोशिश की...
कहा...
कुछ बोझ मुझे दे दो
हम साथ-साथ चलेंगें तो
हवायें सिसकेंगी नहीं...!

हुँह...!
तुम्हारी यही तो त्रासदी है
ज़िंदगी भर
गिरने का रोना...
खोने का रोना...
पाने का रोना...
दर्द का रोना...
रोना और सिर्फ रोना...

मैंने देखा
उसके चेहरे के निशान
कुछ और गहरे हो गए थे
अब कमरे में घुटन साँसे लेने लगी थी
मुझे अजीब सी कोफ्त होने लगी
खिड़की अगर बंद हो तो
अंधेरे और सन्नाटे
और सिमट आते हैं
मैंने उठकर
बंद खिड़की खोल दी
सामने देखा...
धूप की हल्की सी किरण में
मकडी़ इक नया जाल
बुन रही थी

htomar
August 3rd, 2011, 07:19 PM
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख क़े,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया

मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया -

मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया
और रूह बचा ली

पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी

htomar
August 6th, 2011, 12:36 PM
आओ चलें - अपने गाँव
जहाँ है बचपन की ठंडी छाँव

गाँव के उस पुराने प्राइमरी स्कूल की तरफ
जिसके नाम के भी मिट गए थे हरफ
जहाँ हर रोज सुबह हम घर से लाते थे
और अपने हाथों से बिछाते थे
एक लम्बी सी दरी
स्याही के धब्बों से भरी
उस बूढ़े पीपल के पेड़ के नीचे
दीवार पर रंगे ब्लैक बोर्ड के पीछे
और फिर शुरू हो जाती थी पाठशाला
रोज का मिर्च मसाला
मास्टरजी के हाथ में छड़ी का लहराना
और हमारा जोर जोर से चिल्लाना
दो एकम दो......दो दूनी चार .......
दो तीये छः.....दो चौके आठ ....

थोड़ी दूर और चलें
चल कर मिलें
जोहड़ से गाँव की
मचलते पाँव की
जहाँ लगाते थे छलांग
होती हवा में टाँग
पास ही बनी मुंडेर से
इंटों के बने घेर से
हमेशा यही फ़िराक
की बनना है तैराक
बिना किसी सोच के
बिना किसी कोच के

और वो नीम का घना दरख़्त
अन्दर से नर्म बाहर से सख्त
कडवाहट के बीच लगती थी
पीली हो पकती थी
मीठी निमोली
भर भर के झोली
जिसका कोई मोल नहीं था
जिसका कोई तोल नहीं था
आज नहीं मिलती किसी शहरी बाज़ार में
रुपैये, डॉलर या पौंड के व्यवहार में

और वहीँ पास में वो पुराना शिवाला
जिसके पीछे थी गौशाला
जिसकी आरती में हम बैठते थे
आँखे बंद कर भक्ति में पैठते थे
भगवान से ज्यादा पुजारी के लिए
मखानों और बताशों की रोजगारी के लिए

और शाम को वो घर को लौटना
नंगे पावँ मिटटी में लोटना
कभी भैंसों की पीठ पर
कभी ऊंटों की रीढ़ पर
कभी बछड़ों की पूँछ पकड़ कर
कभी पिल्लों को बाँहों में जकड कर
मिटटी से भरे बालों को खुजलाते
टूटी फूटी भाषा में कुछ न कुछ गाते

वो दृश्य यादों से न जाते हैं
वो दिन कितने याद आते हैं
आओ फिर एक बार चले गाँव
और ढूंढें अपना ठांव

cooljat
August 17th, 2011, 10:12 AM
A touching poem that describes well .. the loneliness of self in overcrowded lifeless city, B'ful!


शहर के एकांत में - यश मालवीय

भीड़ ,केवल
भीड़ मिलती
शहर के एकांत में
रूह के संग
देह छिलती
शहर के एकांत में

साइबर कैफ़े
हमारी बात
कह पाते नहीं
हम स्वयं से
बिना बोले
तनिक रह पाते नहीं
एक पत्ती
नहीं हिलती
शहर के एकांत में

टूट जाता है
भरोसा
टूट जाते आइने
गिनतियों के
शोर में कोई
किसी को क्या गिने
धूप खुलकर
नहीं खिलती
शहर के एकांत में

चूर हो
लहरें बिखरती
और शक्लें जागतीं
ट्रेन के पीछे
गठरियाँ लिए
अपनी भागतीं
याद,गहरे
जख्म सिलती
शहर के एकांत में ! ..



Cheers
Jit

htomar
August 20th, 2011, 06:53 PM
अंशु मालवीयकर्ज़ की हमको दवा बताई
कर्ज़ ही थी बीमारी
साधो !
करमन की गति न्यारी ।

गेहूँ उगे शेयर नगरी में
खेतों में बस भूख उग रही
मूल्य सूचकांक पे चिड़िया
गाँव शहर की प्यास चुग रही
करखानों में हाथ कट रहे
मक़तल में त्यौहारी
साधो !
करमन की गति न्यारी ।


बढ़ती महंगाई की रस्सी
ग्रोथ रेट बैलेन्स बनाए
घट-बढ़ के सर्कस के बाहर
भूखों के दल खेल दिखाए
मेहनत-क़िस्मत-बरकत बेचें
सरकारी व्योपारी
साधो !
करमन की गति न्यारी ।


शहर-शहर में बरतन मांजे
भारत माता ग्रामवासिनी
फिर भी राशनकार्ड न पाए
हर-हर गंगे पापनाशिनी
ग्लोबल गाँव हुई दुनिया में
प्लास्टिक की तरकारी
साधो !
करमन की गति न्यारी !

htomar
August 23rd, 2011, 07:56 PM
कृष्णमोहन झा
मैं उन कहावतों और दंतकथाओं को नहीं मानता
कि अपनी अंतिम यात्रा में आदमी
कुछ भी नहीं ले जाता अपने साथ

बड़े जतन से जो पृथ्वी
उसे गढकर बनाती है आदमी
जो नदियाँ उसे सजल करती है
जो समय
उसकी देह पर नक्काशी करता है दिन-रात
वह कैसे जाने दे सकता है उसे
एकदम अकेला?

जब पूरी दुनिया
नींद के मेले में रहती है व्यस्त
पृथ्वी का एक कण
चुपके से हो लेता है आदमी के साथ
जब सारी नदियाँ
असीम से मिलने को आतुर रहती हैं
एक अक्षत बूँद
धारा से चुपचाप अलग हो जाती है
जब लोग समझते हैं
कि समय
कहीं और गया होगा किसी को रेतने
अदृश्य रूप से एक मूर्तिकार खड़ा रहता है
आदमी की प्रतीक्षा में।

हरेक आदमी ले जाता है अपने साथ
साँस भर ताप और जीभ भर स्वाद
ओस के गिरने की आहट जितना स्वर
दूब की एक पत्ती की हरियाली जितनी गंध
बिटिया की तुतलाहट सुनने का सुख
जीवन की कुछ खरोंचें,थोड़े दुःख
आदमी ज़रूर ले जाता है अपने साथ-साथ।

मैं भी ले जाऊँगा अपने साथ
कलम की निब भर धूप
आँख भर जल
नाखून भर मिट्टी और हथेली भर आकाश
अन्यथा मेरे पास वह कौन सी चीज़ बची रहेगी
कि दूसरी दुनिया मुझे पृथ्वी की संतति कहेगी!

anuragsunda
August 28th, 2011, 05:54 PM
मुलाकातों से डरता हू
मूलाकाते सिलसिलों में उलझाती है
उलझने वाक्यातों से पहचानी जाती है |

वाक्यातों से मुश्किलों की डोर किची चली आती है -

डरता हूँ !

कही ये डोर टूट न जाए,
कही मुलाकातों और मुश्किलों में उलझन की गाँट न पद जाए ||

डरता हू!
...........मुलाकातों से,
...........................मुलाकातों से डरता हूँ ||

htomar
September 2nd, 2011, 02:13 PM
मत मंसूबे बाँध बटोही, सफर बड़ा बेढंगा है।
जिससे मदद मांगता है तू, वह ख़ुद ही भिखमंगा है।

ऊपर फर्राटा भरती हैं, मोटर कारें नई - नई,
पुल के नीचे रहता, पूरा कुनबा भूखा नंगा है.

नुक्कड़ के जिस चबूतरे पर, भीख मांगती है चुनिया,
राष्ट्र पर्व पर वहीं फहरता, विजई विश्व तिरंगा है.

कला और तहजीबों वाले, अफसानें, बेमानी हैं ,
शहरों की पहचान, वहां पर होनें वाला दंगा है।

मुजरिम भी सरकारी निकले, पुलिस खैर सरकारी थी,
अन्धा तो फिर भी अच्छा था, अब कानून लफंगा है।

शहर समझता उसके सारे पाप, स्वयं धुल जायेंगे
एक किनारे बहती जमुना, एक किनारे गंगा है.

यहाँ कुछ लोग चाहते, पैदा होना सौ-सौ बार
जहाँ फरिस्ते भी डरते हों, मूर्ख वहां पर चंगा है।

upendersingh
September 5th, 2011, 04:13 PM
अंधेरा, वीरान सफ़र
हालात की तपिश ने बना दिया है मुझे एक खौलता लावा,
झुलस न जाना कहीं राह में आकर, ऐ खिलते फूलो!
राह बदलना इस दहकती आग की नहीं होती है फितरत,
तुम्हीं को करना होगा जतन बचने का, ये मत भूलो!
मुझे तो होता है अफ़सोस बहुत, जब झुलसते हैं गुलाब,
तुम्हीं क्यों नहीं करते कुछ उपाय, ऐ डाल में लगे शूलो!
न जाने कहां अंत होगा मेरे इस अंधेरे, वीरान सफ़र का,
तुम दो ख़ुशी अपनी गोद में बैठी प्यारी को, ऐ बाग़ के झूलो.
-उपेन्द्र सिंह

upendersingh
October 1st, 2011, 02:38 AM
ये अरमान अभी बाकी है
अंतर्मन की खामोश बदहवासी अभी बाकी है,
बहुत से अनसुलझे सवालात अभी बाकी हैं.
सोचा था अब ख़त्म हो गया आजमाइशों का दौर
मगर पुराने जख्मों के निशानात अभी बाकी हैं,
अंधेरों से निकल, मुड़ना चाहा जो उजालों की तरफ
पाया कि वहां पहले जैसे हालात अभी बाकी हैं

खुद में रहते हैं खोए, लोग समझने लगे हैं दीवाना
खुद से खुद की ही पहचान अभी बाकी है
बेचारगी के इनाम में मिलने लगी है मोहब्बत भी अब तो
मेरी रूह पर ये नए अहसान अभी बाकी हैं
उम्मीद तो पूरी है कि पा ही लेंगे मंजिल एक दिन
जिन्हें करना है पार, वे भयावह श्मशान अभी बाकी हैं

मेरी राह के चिरागों, कैसे करूं शुक्रिया अदा तुम्हारा
आ सकूं तुम्हारे किसी काम, ये अरमान अभी बाकी है
-उपेन्द्र सिंह

deependra
October 8th, 2011, 12:20 PM
हम दीवानों की क्या हस्ती,

आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उड़ाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास कभी,
आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए,
अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले

किस ओर चले? मत ये पूछो,
बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले,
जग को अपना कुछ दिए चले

दो बात कहीं, दो बात सुनी,
कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को,
हम एक भाव से पिए चले

हम भिखमंगों की दुनिया में,
स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर,
ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित,
जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ,
प्राणों की बाजी हार चले

अब अपना और पराया क्या,
आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं,
हम अपने बन्धन तोड़ चले

-भगवती चरण वर्मा

kuldeeppunia25
November 15th, 2011, 02:13 PM
बुझा बुझा सा है,
मेरा रंगीन बगीचा.
मानो लाल पीला नीला,
Daisy और hydangea ,
सब बदल गए मुरझाए सफ़ेद में.

तुम आओ,
मुस्काओ,
बगीचे में रंग भर दो.

हे मेरी तुम,
अपने रस से,
मुझे फिर से जीवित कर दो..

santoshbenaam
November 15th, 2011, 02:45 PM
bahut ache




santosh benaam

yogeshdahiya007
November 15th, 2011, 05:05 PM
Hum nazuk nazuk dil walay bas

aisay hi hotay hain,

kabhi hanstatay hain kabhi rotay hain,

kabhi dil mian khawab protay hain,

kabhi mehfil mehfil phirtay hain

kabhi zaat main tanha hotay hain,

kabhi chup ki mohar sajatay hain,

kabhi geet laboon par laatay hain,

kabhi sub ka dil behlatay hain,

kabhi khud main tanha hotay hain

kabhi shub bhar jaagtay rehtay hain,

kabhi lambi taan kay sotay hain,

hum nazuk nazuk dil walay

bus aisay hi to hotay hain...

narendar
November 15th, 2011, 07:06 PM
Neelem ji this poet gives inspiration for do hard work then you will success 100%

kuldeeppunia25
November 20th, 2011, 12:55 AM
आओ चलें,
भोर के उमंग-भरे द्रष्टा,
बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर
उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने
जिसे तुम इतना प्यार करते हो ।

आओ चलें,
अपने माथों से
--जिन पर छिटके हैं दुर्दम बाग़ी नक्षत्र--
अपमानों को तहस--नहस करते हुए ।

वचन देते हैं
हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे ।
जब पहले ही धमाके की गूँज से
जाग उठेगा सारा जंगल
एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में
तब हम होंगे वहाँ,
सौम्य अविचलित योद्धाओ,
तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए ।

जब चारों दिशाओं में फैल जाएगी
तुम्हारी आवाज़ :
कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,
तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,
उसी स्वर में बोलते ।

और जब दिन ख़त्म होने पर
निरंकुश तानाशाह के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई
पहुँचेगी अपने अन्तिम छोर तक,
तब वहाँ तुम्हारे साथ-साथ,
आख़िरी भिड़न्त की प्रतीक्षा में
हम होंगे, तैयार ।

जिस दिन वह हिंस्र पशु
क्यूबाई जनता के बरछों से आहत हो कर
अपनी ज़ख़्मी पसलियाँ चाट रहा होगा,
हम वहाँ तुम्हारी बग़ल में होंगे,
गर्व-भरे दिलों के साथ ।

यह कभी मत सोचना कि
उपहारों से लदे और
शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू
हमारी एकता और सच्चाई को चूस पाएँगे ।
हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और
एक चट्टान चाहते हैं । बस,
और कुछ नहीं ।

और अगर हमारी राह में बाधक हो इस्पात
तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक
कफ़न चाहिए
जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ,
अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर ।
और कुछ नहीं ।


चे ग्वेवारा

jaatdesi
November 20th, 2011, 02:45 PM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash4/382228_230219093711710_135841329816154_590811_1902 343375_n.jpg

jaatdesi
November 20th, 2011, 02:57 PM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash4/311091_219809224752697_135841329816154_556678_2011 062449_n.jpg

htomar
November 24th, 2011, 02:51 PM
पर्वत के सीने से,
झरता है झरना
हमको भी आता है, भीड़ से
गुज़रना ।

कुछ पत्थर, कुछ रोड़े
कुछ हंसों के जोड़े
नींदों के घाट लगे
कब दरियाई घोड़े

मैना की पाँखें हैं
बच्चों की आँखें हैं
प्यारी है नींद, मगर शर्त है
उबरना ।

खेतों से, मेड़ों से
साखू के पेड़ों से
कुछ ध्वनियाँ आती हैं
नदी के थपेड़ों से

वर्दी में, सादे में
बाढ़ के इरादे में
आगे-पीछे पानी, देख के
उतरना ।

गूँगी है, बहरी है
काठ की गिलहरी है
आड़ में मदरसे हैं
सामने कचहरी है

बँधे-खुले अँगों से
भर पाया रंगों से
डालों के सेव हैं, सँभाल के
कुतरना ।

samirsingh01
November 26th, 2011, 12:35 PM
dil mein ho tum aankho mein tum
bolo tumhe kaise chaahu

puja karu,
sajada karu,
... jaise kahu
vaise chaahu
jaanu,
mere jaanu,
jaane jaana jaanu
akela hu mein akela,
tumhe phir dil ne pukaara
tumhari yaadein sataye yahi hai koyi hamaara

tumhara saath mila hai,
jara main dil ko sambhalu
najar lage na kahi meri tumhe mein dil mein chhupalu

suhaane sapane dikhaaye hamaare naina deewaane
gale se abb toh lagaalo,
milan ke aaye jamaane

hamesha dekha yahi hai milan ke sang hai judaayi
shaayad vo hoga deewaana chaahat ye jisane banaayi
har dum yahi dar hai mujhe tumase juda ho na jaau

dil mein ho tum aankho mein tum bolo tumhe kaise chaahu -
puja karu,
sajada karu,
jaise kahu vaise chaahu

jaanu, mere jaanu, jaane jaana jaanu

Song by majnu for laila just 300years back and repeated in pic satya mev jayte

htomar
November 29th, 2011, 01:53 PM
तस्वीर कुछ न कह कर भी
बहुत कुछ कह डालती हैं

उनमें दिखाई नहीं पड़ती
मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें
फिर भी वे सहेजी जाती हैं
एक अविस्मरणीय दस्तावेज़ के रूप में

ऐसी ही तुम्हारी एक तस्वीर
सहेज रखी है मैंने
मैं चाहता हूँ उभर आएँ उस पर
तुम्हारे मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें
ताकि
तस्वीर की जगह
सहेज सकूँ उन्हें

और
तुम नज़र आओ
उस निश्छल बच्चे की तरह
जिस के मुँह पर
दूध की कुछ बूंदे
अब भी बाक़ी हैं।

htomar
December 7th, 2011, 12:39 PM
चंदा जब आँचल सरकाए, याद तुम्हारी आती है।
कोयल जब पंचम में गाए, याद तुम्हारी आती है।

रजनी का आँचल जब–जब खोकर अपनी स्याही को,
ऊषा के रंग में रंग जाए याद तुम्हारी आती है।

घर, बाहर व दफ्तर के इस रपटीले जीवन में,
एक पल जब सुकून का आए, याद तुम्हारी आती है।

संत्रासों, सघर्षों के जंगल में जब कभी – कभी,
मलय पवन का झोंका आए, याद तुम्हारी आती है।

छल–प्रपंच के चक्रव्यूह में फंस कर टूट रहा हो मन,
और कोई हौसला बढ़ाए, याद तुम्हारी आती है।

किसी पार्क का कोना हो हम हों और तनहाई हो,
हंसों का जोड़ा दिख जाए याद तुम्हारी आती है।

deependra
December 11th, 2011, 11:39 PM
When the world says, "Give up," Hope whispers, "Try it one more time". A lovely poem by Hare Ram Sameep-

आस न छोड़ो
मुश्किल आई है
तो क्या है
यह भी जल्दी हट जाएगी
घुप्प अँधेरे कमरे में यों
मुश्किल ओढ़े
अवसादों से
घिरे हुए तुम
घबराए-से
क्यों बैठे हो
ज़रा टटोलो
दीवारों को
उम्मीदों की अँगुलियों के
कोमल ज़िंदा इन पोरों से
आहिस्ता-आहिस्ता खोजो
हाथों से दीवार न छोड़ो
कमरे की इन दीवारों में
कोई खिड़की निश्चित होगी
जिसके बाहर
बाँह पसारे स्वागत करने
नई रोशनी मिल जाएगी
जुगनू होंगे, दीपक होगा
चाँद–सितारे कुछ तो होंगे
सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो
मुश्किल में तुम
आस न छोड़ो

htomar
December 13th, 2011, 12:26 PM
जगदीश गुप्त

सच हम नहीं सच तुम नहीं
सच है सतत संघर्ष ही ।


संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झर कर कुसुम।


जो पंथ भूल रुका नहीं,
जो हार देखा झुका नहीं,


जिसने मरण को भी लिया हो जीत, है जीवन वही।

सच हम नहीं सच तुम नहीं।

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आपसे लड़ता रहे।


जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
काँटें चुभें, कलियाँ खिलें,

टूटे नहीं इन्सान, बस सन्देश यौवन का यही।

सच हम नहीं सच तुम नहीं।

हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मँझधार को।


जो साथ कूलों के चले,
जो ढाल पाते ही ढले,

यह ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी जो सिर्फ़ पानी-सी बही।

सच हम नहीं सच तुम नहीं।

अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।


आकाश सुख देगा नहीं,
धरती पसीजी है कहीं,

हर एक राही को भटक कर ही दिशा मिलती रही

सच हम नहीं सच तुम नहीं।

बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता।
आदर्श हो सकती नहीं तन और मन की भिन्नता।


जब तक बंधी है चेतना,
जब तक प्रणय दुख से घना,

तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।

सच हम नहीं सच तुम नहीं।

htomar
December 14th, 2011, 08:10 PM
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है

vijaykajla1
December 22nd, 2011, 02:13 AM
कितनी द्रुपदा के बाल खुले, कितनी कलियों का अंत हुआ ? ?
कह हरदम खेल गुजरता यहाँ , कितने दिन ज्वाल -वसंत हुआ ? ?

तू पूछ ... अवध से राम कहा ? वृंदा , बोलो घनश्याम कहा ?
ओ मगध , कहा तेरे अशोक ? वो चन्द्रगुप्त बलधाम कहा ?
रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ , जाने दे उसको स्वर्ग धीर
पर फिर हमे गांडीव गदा , लौटा दे, अर्जुन भीम वीर ....

कह दे शंकर से आज कर, वे " प्रलय - नृत्य " फिर एक बार ,
सरे भारत में गूंज उठे हर - हर , बम बम का मंत्रोच्चार ! !

htomar
December 23rd, 2011, 12:54 PM
चाँदनी की नदी में नहाऊँ कभी,
बादलों की पतंगें उड़ाऊँ कभी,
तुम मुझे जो खुला एक आकाश दो
तो परिन्दे-सा उड़कर दिखाऊँ अभी ।

फूलों पर नाचती तितलियाँ देख कर,
मेरा मन जा रहा हाथों से छूट कर,
सोचता हूँ हवाओं के कंधे पर चढ़
सारी दुनिया का चक्कर लगाऊँ कभी ।

एक सपना था कल रात आया मुझे,
पर्वतों ने हो जैसे बुलाया मुझे,
दोस्त हों मेरी जो बर्फ़ की चोटियाँ
लौटकर अपने घर फिर न आऊँ कभी ।

ख़ूबसूरत है दुनिया ये कहते हैं सब,
चैन से पर कहाँ इसमें रहते हैं सब,
एक पल की भी फुरसत किसी को नहीं
मन की बातें ये किसको सुनाऊँ अभी ?

htomar
December 27th, 2011, 02:56 PM
अगर बहारें पतझड़ जैसा रूप बना उपवन में आएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

वातावरण आज उपवन का अजब घुटन से भरा हुआ है
कलियाँ हैं भयभीत फूल से, फूल शूल से डरा हुआ है
सोचो तो तुम, क्या कारण है दिल, दिल के नज़दीक नहीं है
जीवन की सुविधाओं का बँटवारा शायद ठीक नहीं है
उपवन में यदि बिना खिले ही कलियाँ मुरझाने लग जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


यह अपनी-अपनी क़िस्मत है कुछ कलियाँ खिलती हैं ऊपर
और दूसरी मुरझा जातीं झुके-झुके जीवन भर भू पर
माना बदक़िस्मत हैं लेकिन, क्या वे महक नहीं सकती हैं
अगर मिले अवसर, अंगारे-सी क्या दहक नहीं सकती हैं ?
धूप रोशनी अगर चमन में ऊपर-ऊपर ही बँट जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


काँटे उपवन के रखवाले अब से नहीं, ज़माने से हैं
लेकिन उनके मुँह पर ताले अब से नहीं, ज़माने से हैं
ये मुँह बंद, उपेक्षित काँटे अपनी कथा कहें तो किससे?
माली उलझे हैं फूलों से अपनी व्यथा कहें तो किससे?
इसी प्रश्न को लेकर काँटे यदि फूलों को ही चुभ जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


सुनते हैं पहले उपवन में हर ऋतु में बहार गाती थी
कलियों का तो कहना ही क्या, मिट्टी से ख़ुश्बू आती थी
यह भी ज्ञात हमें उपवन में कुछ ऐसे भौंरे आए थे
सारा चमन कर दिया मरघट, अपने साथ ज़हर लाए थे
लेकिन अगर चमन वाले ही भौंरों के रंग-ढंग अपनाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


बुलबुल की क्या है बुलबुल तो जो देखेगी, सो गाएगी
उसकी वाणी तो दर्पण है असली सूरत दिखलाएगी
चूँकि आज बुलबुल पर गाने को रस डूबा गीत नहीं है
सारा चमन बना है दुश्मन कोई उसका मीत नहीं है
गाते-गाते यदि बुलबुल के गीत आँसुओं से भर जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

vijaykajla1
December 29th, 2011, 04:18 PM
from FB

अब मुझे भी एक घोटाला करना है

अपना स्विस एकाउन्ट भरना है

क्या रखा है इस देशभक्ति मेँ
...
आखिर सबको एक दिन मरना है

अब मुझे भी एक घोटाला करना है

हमारा पेशा तो पहले से ही बदनाम है

रिश्वतखोरी तस्करी हाँथ जोड़ना यही हमारा काम है

कौन रखता याद देशभक्तोँ को एक वक्त गुजर जाने के बाद

जहाँ देखो वहाँ हम नेताओँ का ही फोटो और नाम है

इस दुनिया अपना नाम अमर करना है

अब मुझे भी एक घोटाला करना है

मेरे साथ पले बड़े राजा कलमाड़ी निकल गये बहुत आगे

कर ना सके हम उनका पीछा वो बहुत तेज भागे

पवार को देखकर लगता है कोई कुबेर हो जैसे

और मुझे मिलते सिर्फ वेतन और भत्ते के पैसे

मुझे भी अपनी सात पीढ़ियोँ का इन्तजाम करना है

अब मुझे भी एक घोटाला करना है

हमारी सरकार आई फिर भी न कर सके एक भी एक भी घोटाला

इन लोगोँ ने तो 7 सालोँ मेँ ही कर दिया देश को खोखला

काँग्रेस का नियम है "भ्रष्टाचार करेँ, 10 जनपथ पूँजेँ फिर बिल्कुल न डरेँ"

अब हमारी पार्टी मेँ कोई 10 जनपथ ही नहीँ तो हम भ्रष्टाचार कैसे करेँ

अब मुझे भी काँग्रेस ज्वॉइन करना है

अब मुझे भी एक घोटाला करना है

---एक BJP नेता की व्यथा___Created by अंकित बाबा

htomar
January 2nd, 2012, 12:36 PM
लौटा दो मेरा बचपन
उसके बदले क्या लोगे?
माँ की थपकी माँ का चुबंन
उसके बदले क्या लोगे?

जिसके आँचल की छाया में
मैंने घुटनों चलना सीखा
वो कच्चा-सा टूटा आंगन
उसके बदले क्या लोगे?

सुबह-सुबह जगना रोकर
स्कूल चले बस मुँह धोकर
वही नाश्ता रोज़ सुबह
बासी रोटी, ताज़ा मक्खन
उसके बदले क्या लोगे?

हाथों में तख्ती और खड़िया
बस्ते में स्याही की पुड़िया
पट्टी पर सिमटा-सा बैठा
बूढ़ा भारत नन्हा बचपन
उसके बदले क्या लोगे?

दिन भर रटते फिरना पोथी
गहरी बातें और कुछ थोथी
फिर छह ऋतुओं बाद दिखे
जाता पतझड़ आता सावन
उसके बदलें क्या लोगे?

रस्ते भर करना मस्ती
गूंजे चौराहा, हर बस्ती
लटक पेड़ो से ले भगना
कच्ची अमिया पक्के जामुन
उसके बदले क्या लोगे?

गिट्टे, कंचे, गुल्ली, डंडा
भगना-छिपना लेना पंगा
गुड्डे-गुड़ियों के खेलों में
बिन दहेज ले आना दुल्हन
उसके बदले क्या लोगे?

फिर थके बदन घर की खटिया
इक परीलोक नन्हीं दुनिया
लोरी गाते चंदा-तारे
बुनता सपने बिखरा जीवन
उसके बदले क्या लोगे?

jaatdesi
January 14th, 2012, 06:33 PM
श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
... पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना - बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्*त काट लेना - बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

htomar
January 15th, 2012, 12:58 PM
महादेवी वर्मा


दीप मेरे जल अकम्पित,
घुल अचंचल!
सिन्धु का उच्छवास घन है,
तड़ित, तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आंसुओं से सिक्त अंचल!
स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें,
मीड़, सब भू की शिरायें,
गा रहे आंधी-प्रलय
तेरे लिये ही आज मंगल

मोह क्या निशि के वरों का,
शलभ के झुलसे परों का
साथ अक्षय ज्वाल का
तू ले चला अनमोल सम्बल!

पथ न भूले, एक पग भी,
घर न खोये, लघु विहग भी,
स्निग्ध लौ की तूलिका से
आंक सबकी छांह उज्ज्वल

हो लिये सब साथ अपने,
मृदुल आहटहीन सपने,
तू इन्हें पाथेय बिन, चिर
प्यास के मरु में न खो, चल!

धूम में अब बोलना क्या,
क्षार में अब तोलना क्या!
प्रात हंस रोकर गिनेगा,
स्वर्ण कितने हो चुके पल!
दीप रे तू गल अकम्पित,
चल अंचल!

htomar
January 16th, 2012, 02:13 PM
आरसी प्रसाद सिंह


मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया।
मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला?
मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला?
हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया।
मैंने एक किरण मांगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

अपने मन के दर्पण में मैं किस सुन्दर का रूप निहारूँ?
नव-नव गीतों की यह रचना किसके इंगित पर बलिहारूँ?
मानस का मोती लेगी वह कौन अगोचर राजमराली?
किस वनमाली के चरणों में अर्पित होगी पूजा-थाली?
एक पुष्प के लोभी मधुकर को वसन्त-उद्यान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

मलयानिल होता, तो मेरे प्राण सुमन-से फूले होते।
पल्लव-पल्लव की डालों पर हौले-हौले झूले होते।
एक चाँद होता, तो सारी रात चकोर बना रह जाता।
किन्तु, निबाहे कैसे कोई लाख-लाख तारों से नाता?
लघु प्रतिमा के एक पुजारी को अतुलित पाषाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

ओ अनन्त करुणा के सागर, ओ निर्बन्ध मुक्ति के दानी।
तेरी अपराजिता शक्ति का हो न सकूँगा मैं अभिमानी।
कैसे घट में सिन्धु समाए? कैसे रज से मिले धराधर।
एक बूँद के प्यासे चातक के अधरों पर उमड़ा सागर।
देवालय की ज्योति बनाकर दीपक को निर्वाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

मुँहमांगा वर देकर तूने मेरा मंगल चाहा होगा।
शायद मैंने भी याचक बन अपना भाग्य सराहा होगा।
इसीलिए, तूने गुलाब को क्या काँटों की सेज सुलाया?
रत्नाकर के अन्तस्तल में दारुण बड़वानल सुलगाया?
अपनी अन्ध वन्दना को क्यों मेरा मर्मस्थान दे दिया?
मैंने एक किरण मांगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

cooljat
January 25th, 2012, 06:47 PM
A fine touching poem by famous Punjabi poet Amrita Pritam that reflects emptiness, you get a haunting sinking feeling after reading it.


धूप का टुकड़ा - अमृता प्रीतम


मुझे वह समय याद है—
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ : सहम का और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोए बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है
अंधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी ख़ामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा...






RIP Amrita Ji ..

htomar
January 27th, 2012, 01:09 PM
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।
गड्ढे, काँटे और ठोकर भी, है दृष्य कहीं चमकीला भी।


पथ के अवरोध हटाने में, कुछ हार गये कुछ जीत गये,
चलते - चलते दिन माह वर्ष सदियाँ बीतीं युग बीत गये,
फिर भी यह अगम पहेली सा रोमांचक और नशीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।

चलना उसको भी पड़ता है चाहे वह निपट अनाड़ी हो,
चक्कर वह भी खा जाता है चाहे वह कुशल खिलाड़ी हो,
संकरी हैं गलियाँ, मोड़ तीव्र, है पंथ कहीं रपटीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।

जादूगर, जादूगरी भूल जाते हैं इसके घेरे में
बनते मिटते हैं विम्ब कई इस व्यापक घने अंधेरे में,
रंगों का अद्*भुत मेल, कि कोई खेल, लगे सपनीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।

कौतूहल हैं मन में अनेक, उठते हैं संशय एक एक,
हम एक गाँठ खोलते कहीं, गुत्थियाँ उलझ जातीं अनेक,
निर्माता इसका कुशल बहुत, पर उतना ही शर्मीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।

deependra
January 27th, 2012, 09:17 PM
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।
गड्ढे, काँटे और ठोकर भी, है दृष्य कहीं चमकीला भी।


पथ के अवरोध हटाने में, कुछ हार गये कुछ जीत गये,
चलते - चलते दिन माह वर्ष सदियाँ बीतीं युग बीत गये,
फिर भी यह अगम पहेली सा रोमांचक और नशीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।



Awesome poem bhai, thanks for sharing!

deependra
January 27th, 2012, 09:33 PM
क्यूंकि
मैं ग़रीब का बेटा हूँ ...


ज़िन्दगी को सितम मैं कहता हूँ
मजबूरियों में भी खुश रहता हूँ .
चंद बूंदों से पेट भर लेता हूँ.

क्यूंकि
मैं ग़रीब का बेटा हूँ ...

ठंडी में ठिठुर लेता हूँ ,
बरसात में भीग लेता हूँ,
गर्मी पाँव जलाती है
तो पत्थरो पे मैं सो लेता हूँ .

क्यूंकि
मैं ग़रीब का बेटा हूँ ...

कभी सब्जी , तो कभी कुछ न मिले,
नमक , रोटी पे मैं जी लेता हूँ,
ज़ख़्म चाहे जैसा भी हो,
थोड़ी हल्दी मैं लगा लेता हूँ ,

क्यूंकि
मैं ग़रीब का बेटा हूँ ...

एक कमीज़ , एक पतलून ,
रोज़ बिना साबुन मैं धोता हूँ ,
भरी दुकानों की रोनक देख ,
अक्सर खुश मैं हो लेता हूँ ,

क्यूंकि
मैं ग़रीब का बेटा हूँ ...

ग़म भी बहुत हैं .. दर्द भी हैं.
दिल में सब दबा लेता हूँ ,
कभी अकेले , तो कभी सब के सामने ,
आँखों से अंगूठा भिगो लेता हूँ ,

क्यूंकि
मैं ग़रीब का बेटा हूँ ...

htomar
January 28th, 2012, 12:19 PM
ठंडी में ठिठुर लेता हूँ ,
बरसात में भीग लेता हूँ,
गर्मी पाँव जलाती है
तो पत्थरो पे मैं सो लेता हूँ .



Bahut achi poem hai.intzaar ka fal meetha hi mila.thnx dear.

htomar
January 31st, 2012, 12:17 PM
यादों को धूप दिखाओ कि
सर्द तन्हाई का मौसम है।
धीरे-धीरे
एक-एक याद की पर्त खोलो,
गर्द झाड़ो,
कोई याद बिसर न जाए ध्यान रहे,
कोई याद बिखर न जाए भान रहे,
कोई याद टूट न जाए कहीं,
कोई याद फूट न जाए कहीं,
कोई याद रूठ न जाए कहीं,
कोई याद छूट न जाए कहीं।

हर याद हथेली पर रखो
वह छोटी हो या बड़ी,
मीठी हो या कड़वी ,
उजली हो या काली,
उसकी वज़ह से
ख़ुशी कि कोई रात मिली हो,
या बिना वज़ह मात मिली हो,
वह कोई भयावह सपना हो
या कि डर अपना हो

जिसकी याद इतनी पुरानी कि
जैसे पिछले जनम से
साथ चली आ रही हो
और अब यह डर कि
मर कर भी साथ रहेगी जैसे।

वे अब जैसी भी हैं सारी यादें
ज़रा सूरज तो दिखाओ उन्हें कि
सर्द तन्हाई का मौसम है।

jaatdesi
January 31st, 2012, 12:25 PM
एक भारतीय सियाचिन सैनिक का अपनी मरी हुई
माँ को लिखा हुआ खत-
प्रणाम माँ,
माँ बचपन में मैं जब भी रोते रोते
सो जाया करता था तो तू चुपके से मेरे
सिरहाने खिलोने रख दिया करती थी और
कहती थी की ऊपर से एक परी ने आके रखा
है और कह गई है की अगर मैं फिर कभी रोया तो और
खिलोने नहीं देगी ! लेकिन
इस मरते हुए देश का सैनिक बनके रो तो मैं आज
भी रहा हूँ पर अब ना तू आती
है और ना तेरी परी ! परी क्या .. यहाँ ढाई हजार
मीटर ऊपर तो परिंदा भी नहीं मिलता !
मात्र कुछ हज़ार रुपए के लिए मुझे कड़े अनुशासन में
रखा जाता है, लेकिन वो
अनुशासन ना इन भ्रष्ट नेताओं के लिए है और ना इन
मनमौजी देशवासियों के लिए !
रात भर जगते तो हम भी हैं लेकिन अपनी देश के
सुरक्षा के लिए लेकिन वो
जगते हैं लेट नाईट पार्टी के लिए !
हम इस -12 डिग्री में आग जला के अपने आप
को गरम करते हैं . लेकिन हमारे
देश के नेता हमारे ही पोशाकों, कवच, बन्दूकों,
गोलियों और जहाजों में
घोटाले करके अपनी जेबे गरम करते हैं !
आतंकियों से मुठभेड़ में मरे हुए
सैनिकों की संख्या को न्यूज़ चैनल नहीं
दिखाया जाता लेकिन सचिन के शतक से पहले आउट
हो जाने को देश के राष्टीय
शोक की तरह दिखाया जाता है !
हर चार-पांच सालों ने हमें एक जगह से दुसरे जगह
उठा के फेंक दिया जाता है
लेकिन यह नेता लाख चोरी करलें बार बार
उसी विधानसभा - संसद में पहुंचा दिए जाते हैं !
मैं किसी आतंकी को मार दूँ तो पूरी राजनितिक
पार्टियां वोट के लिए उसे बेकसूर बना के मुझे कसूरवार बनाने में लग जाती हैं
लेकिन वो आये दिन अपने अपने भ्रष्टाचारो से देश को आये दिन मारते हैं,
कितने ही लोग भूखे मरते हैं, कितने ही किसान आत्महत्या करते हैं, कितने ही बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं.
लेकिन उसके लिए इन नेताओं को जिम्मेवार नहीं ठहराया जाता.
निचे अल्पसंख्यको के नाम पर आरक्षण
बाटा जा रहा है लेकिन आज तक मरे हुए
शहीद सैनिकों की संख्या के आधार पर
कभी किसी वर्ग को आरक्षण नहीं दिया गया.
मैं दुखी हूँ इस मरे हुए संवेदनहीन देश का सैनिक
बनके ! यह हमें केवल याद करते हैं 26 जनवरी को और 15 अगस्त को !
बाकी दिन तो इनको शाहरुख़, सलमान,
सचिन, युवराज की फ़िक्र रहती है !
हमारी हालत ठीक वैसे ही उस पागल किसान
की तरह है जो अपने मरे हुए बेल पर
भी कम्बल डाल के खुद ठंड में ठिठुरता रहता है !
मैंने गलती की इस देश का रक्षक बनके !
तू भगवान् के ज्यादा करीब है तो उनसे कह
देना की अगले जन्म में मुझे अगर
इस देश में पैदा करे तो सेनिक ना बनाए और अगर
सैनिक बनाए तो इस देश में
पैदा ना करे !
यहाँ केवल परिवार वाद चलता है,
अभिनेता का बेटा जबरदस्ती अभिनेता बनता है
और नेता का बेटा जबरदस्ती नेता!
प्रणाम-
xxx सिंह (मरे हुए देश का जिन्दा सेनिक) !
भारतीय सैनिक सियाचिन .

cooljat
February 2nd, 2012, 11:55 AM
Tale of a lonely life with hint of melancholy .. feels a bit low but portray by poet is placidly B'ful n' deep touching!


अपनी कहानी - विकास कुमार


देखते देखते बीत जाता है दिन -
हो जाती है शाम.
अख़बार के पन्ने बे पलटे रह जाते हैं.
फिर से नहीं धुल पाती परसों रात की थाली.
कपडे मुड़े चुमड़े बेतरतीब पड़े ही रह जाते हैं.
सब कुछ कर लेने की कोशिश में
रह जाती है कई चीजें अधूरी.


आकाश के एक कोने को पकड़ कर
तारों की गिनती करने की जिद -
जिद से आदत में तब्दील हो जाती है.


बारिश की बूंदें शरीर के दायें हिस्से को
धीरे धीरे गीली कर रही हैं -
देखकर भी शरीर अपनी जगह से नहीं हिलता.


बारिश न तो अच्छी लगती है ना ही बुरी.
बुरे और अच्छे के बीच की सीमारेखा का होना
ना होना औचित्यहीन हो जाता है.
कोई भी अच्छी चीज उतनी ही बुरी लगती है
जितनी कोई भी बुरी चीज अच्छी.


सड़क के किनारे पड़े कुत्ते
बड़े विद्वान दार्शनिक से जान पड़ते हैं.
एक के बाद एक यादें आती रहती हैं.
आँखों की नमी महसूसने की इच्छा भी महसूस नहीं होती.


कुछ था कभी जो छूट गया था -
की सोच में वक्त फिसल जाता है -
वैसे ही जैसे थोड़ी देर पहले
कच्ची सड़क पर एक बच्चा फिसला था.


कई चेहरे
खयालों में आ आ कर
गुम हो जाते हैं.


जीवन
एक काली सफ़ेद ईरानी फिल्म की तरह
चलता प्रतीत होता है.
भाव दिखते हैं,
भाषा समझ नहीं आती.
दूर कहीं बाख का संगीत बजता है -
नेपथ्य ध्वनि की तरह.


बिखरे हुए संगीत और सिमटे हुए संसार में
अपना होना -
एक फिल्म में चुपचाप खड़े रहने जैसा लगने लगता है.


अपनी ही कहानी में
आप अजनबियों की तरह पड़े रह जाते हैं.
देखते देखते बीत जाता है दिन
और शाम बहने लगती है.


Cheers,
Jit

htomar
February 5th, 2012, 12:41 PM
अंधकार में जीते हैं-------अमित

अपने दोष दूसरों के सिर पर मढ़ कर
रोज घूँट-दो-घूँट दम्भ के पीते हैं।
ज्योति-पुंज के चिह्न टाँगकर दरवाजों पर
अपने-अपने अंधकार में जीते हैं।

प्रायः तन को ढकने में असमर्थ हुई,
कब की जर्जर हुई या कहें व्यर्थ हुई,
किन्तु मोह के आगे हम ऐसे हारे
रोज उसी चादर को बुनते सीते है।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

जीवन एक पहेली है सबके आगे,
परिभाषाओं मे भी उग आते धागे,
निज मत की अनुशंसा में हैं व्यस्त सभी
सबके अपने साधन और सुभीते है।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

महाबली भी यहाँ काल से छले गये,
विश्वविजयआकांक्षी कितने चले गये
किन्तु आज भी रक्त रक्त का प्यासा है,
शायद हम अनुभव के फल से रीते हैं
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

प्रवृत्तियाँ शिक्षा देतीं निर्लोभन की
जोंक बताती बात रक्त के अवगुन की.
असमंजस मे निर्विकार हो बैठे ज्यों
गीता के उपदेश हमी पर बीते हैं।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

ravinderjeet
February 10th, 2012, 12:19 PM
"ऐ नौजवां जाट तू इक अलग पहचान बन के चल,
जो भर दे जोश मुर्दों में वो जान बन के चल!
हर तरफ दिखने लगी मायावी इमारतें,
ढह जाए इक पल में सब,वो तूफान बन के चल...!!!!!!


दूर कर सदियों बनी ये नफरत की कड़वाहट,
तू खुद कभी 'भाई' , कभी 'सहारा' , बन के चल,
माँ बाप की बेटों से अब ख्वाहिश ही ना रही,
तू हर माँ-बाप के दिल का अरमान बन के चल...!!!!!!!


रूठ जाए तुझसे तेरा मुक़दर भी तो क्या.?
तू खुद ही हर मंज़िल का आह्वान बन के चल,
ना मंदिर, ना मस्ज़िद, ना गिरजाघर कभी बनना,
बनना चाहो गर कभी कुछ, तो खुला आसमान बन के चल...!!!!!!


किताबों में ना सिमट जाए ,
हो ऐसी जिंदगी तेरी,
इतिहास भी ना लिख पाए कभी,
वो दास्तान बन के चल,........!!!!!!!!


हर पलकें बिछी हो राह में आने के तेरे,
तू हर दिल अज़ीज ऐसा मेहमान बन के चल...!!!!!!!


ऐ नौजवां जाट तू इक अलग पहचान बन के चल,
जो भर दे जोश मुर्दों में वो जान बन के चल..."!!!!!!!!


(फेसबुक के नवदीप चौधरी के अकाउंट तें लिया स ,लिखी किः ने स बेरा ना ,पर भोत बढ़िया लागी )

cooljat
February 10th, 2012, 06:53 PM
One fine piece of poetry that portrays helplessness, despair and sorrow of the poet due to unrequited love. Penetrates deep into the soul, B'ful.


तुम चले गए - विकास कुमार

तुम चले गए
अपने साथ सारी संभावनाएं समेटे.
वो पल,
जो कई सुनहरे पलों के बीज हो सकते थे
रह गए अकेले - मेरी तरह.

फिर भी कुछ चीजें बची हैं मेरे पास.

मेरी आजादी -
जो एक बहाना है,
तुमसे कुछ ना कह पाने की कमजोरी के शर्म से बचने का.

यादें -
जो चुभती तो हैं कभी कभी
लेकिन साथ ही तुम्हारा अहसास भी दे जाती हैं, जो दवा है.

और फिर
अब मेरी भावनाएं असुरक्षित नहीं!
दिल को भी टूटने का डर नहीं!

आख़िर जब तुम ही नहीं हो -
तो डरूं भी तो किससे?
किसी और में इतना सामर्थ्य कहाँ?
किसी और को इतना अधिकार ही नही दिया मैंने.

आधी दुनिया दूर बैठे तुम - कहो!
क्या तुम्हारे अन्दर भी भावनाएं थी?
क्या तुम्हारे अन्दर भी वही डर था -
जिसने मुझे चुप बना दिया?

और क्या तुम्हे भी अफ़सोस होता है -
चुप्पी का?

और क्या तुम भी समझाते हो ख़ुद को
कि जो होता है भले के लिए होता है?


Cheers,
Jit

ravinderjeet
February 11th, 2012, 11:51 AM
बाज़ार मैं घर खटाया ना करते

बेअक्लाँ नै समझाया ना करते
बेप्रीत गेल निभाया ना करते
ज़िन्दगी नै न्यू सताया ना करते
बाज़ार मैं घर खटाया ना करते

चाहे बरसै नैनाँ नीर-नीर
चाहे तन की होज्या लीर-लीर
चित्या-माण्ड्या हर चीर-चीर
चाहे रोवै माँ-बाप, बाहण-बीर
बस आगले-ए घर मैं सै सीर-सीर
बेटी नै घराँ बिठाया ना करते
बाज़ार मैं घर खटाया ना करते

चाहे बिगड़ै सारा हाल-चाल
चाहे बदलै दुनिया चाल-चाल
चाहे बिखा मैं बितैं साल-साल
मन पावै कितणा कॅाल़-कॅाल़
अर तन की उतरै छाल़-छाल़
सत तैं ध्यान हटाया ना करते
बाज़ार मैं घर खटाया ना करते

स्यान ना भूतल मैं सै शान-शान
बड़याँ का कहणा तू माऩ-माऩ
बालकां का राखै ध्यान-ध्यान
तेरी ताक मैं बैठ्या सारा ज़हान
बोल़ बख़त कै पिछाण-पिछाण
रोते नै और रूलाया ना करते
बाज़ार मैं घर खटाया ना करते

बात तेरी जाणो बणी-बणी
कितका बणर्या तू धनी-धनी
कदे बिक ना ज्या तेरी कणी-कणी
पीया कर बस छणी-छणी
नी तो बख़्त की लाठी तणी-तणी
भैंस बेच कै घोड़ी बिसाया ना करते
बाज़ार मैं घर खटाया ना करते


-----by jagbir rathi

ravinderjeet
February 11th, 2012, 03:17 PM
परिवर्तन तो होगा लेकिन , ख़ूनी परिवर्तन होगा
-----------------------------------------------
छीना झपटी , लूट मार , और चारों और तबाही है
चोर ही चोर की अदालत में देता यहाँ गवाही है
चोरी और सीना चोरी, ये सबकुछ सरकारी है
चोर चोर मौसेरे भाई, चोर ही जांच अधिकारी है
हर कुर्सी अंधी बहरी है, हर कुर्सी हत्यारी है
देश की गर्दन के ऊपर सिसायत का खुनी पंजा है
पुलिस और अफसरशाही का बढ़ता रोज शिकंजा है
संसद से ले कर सड़कों का, जंगले के कानून यहाँ
जिसने भी आवाज़ उठाई , होता उसका खून यहाँ
अब तो लगता है भारत में चंडी का नर्तन होगा
परिवर्तन तो होगा लेकिन, ख़ूनी परिवर्तन होगा

कितनी बार हमने तमाशा देखि परिवर्तन की आंधी का
हर कुर्सी पर बैठा देखा , चेहरा एक अपराधी का
इनको देखा, उनको देखा, देखा हर दरबार यहाँ
जिसको भी दिल्ली पहुचाया, निकला वो गद्दार यहाँ
सत्ता के ऊपर पूँजी का नाग देखी पड़ता है
हर मंत्री के चेहरे पर, एक दाग दिखाई पड़ता है
एक रात में ही सत्ता बईमान बना दी जाती है
अरबों खरबों की थैली ऊपर पहुचाई जाती है
महगाई का सच यही है, राज यही बर्बादी का
देश लूट कर खाना, मतलब बना आज़ादी का
रिश्वत खोर दलालों का, अब जूतों से वंदन होगा
परिवतन तो होगा लेकिन , ख़ूनी परिवर्तन होगा ..
By: Vivek Nyol

htomar
February 18th, 2012, 02:24 PM
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस / गोपालप्रसाद

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।।
अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं।
लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।।
यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है।
जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है।।
प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था ।
पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।।
यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी।
जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी।।
सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था ।
पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।।
बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।
काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं।।
वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।
जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे।
जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे ।।
बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा , तोते-सा बेदाग़ गया।
जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया।।
वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे,ये धूमिल अभी कहानी है।
हमने तो उसकी नयी कथा,आज़ाद फ़ौज से जानी है।।

kuldeeppunia25
February 18th, 2012, 04:07 PM
सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।

यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।

-राम प्रसाद बिस्मिल

kuldeeppunia25
February 18th, 2012, 04:16 PM
उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?

हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?

दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,

सारा जहाँ अदू सही,
आओ मुकाबला करें।

कोई दम का मेहमान हूँ,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
बुझा चाहता हूँ।

मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
रहे रहे न रहे।-

शहीद ए आज़म भगतसिंह

cooljat
February 22nd, 2012, 05:17 PM
Maestro at its best, recitation at Jaipur Lit Festival 2010 ..



मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे - गुलज़ार

अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोइ तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो,तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता है कोई
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे,
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे ||


Cheers
Jit

cooljat
February 23rd, 2012, 02:25 PM
Life - an illusion, delusion or a mirage? Poet in hindsight tries to awaken, with the help of this B'ful philosophical creation.


जीवन मूल्य - एस. जे.


कभी यूँ ही राह चलते मैं सोच पड़ा
की कौन है ये, और कौन है वो
ये भीड़ है कैसी, ये झमघट कैसा |

सब चलते अपने भुलावे में
समेटे जीवन को चंद पहलुओं में
मान के खुद को कुछ और
दूसरे को कुछ और ही अनजाने में,
खींच एक छोटी सी गोल रेखा
यूँ करते अपना उसमे जीवन व्यतीत,
पर एक पल भी सोचा है क्या
की बंद जीवन की घुटती साँसे
क्या बादलों को छू पायेंगी ?
ये झूट-मूट की सीना जोरी
प्रतिदिन खुद से लड़ते रहना
भला कब तक ख़ुशी पहुँचाएगी ?

किसका क्या है, किसे पता है
बादल धुएँ का और चंद टुकड़े डोरी के
जिनके सहारे लटकता जीवन
कभी इस टहनी पे, कभी उस टहनी पे,
फिर भी समेटते हैं जीवन भर
वाष्प-बूंदों को स्वर्ण-लोटे में
पर प्यास का क्या है, वो न बुझेगी
भले समेट लो समंदर झोली में

क्या सचमुच फर्क पड़ता है आखिर
इन झूठे नामों और फीके रिश्तों से
ये लोभ नहीं, मन की माया है
क्या कोई भला इसको समझे,
भले जीवन भर आँसूं टपके
खुशियों के भ्रम में फिर भी जीते
ये मेरा है – ये मेरा है,
यही रट-रट पूर्ण जीवन बीते

तो इस निद्रा सी जीवन का क्या
जब बीत रहा सम्मुख असली जीवन
एक पल के लिए भी न पलकें खोली
बेरस सपनो का फिर खालीपन,
क्या मोल लगाएँ फिर इन सब का
कंकड़, मोती या सोने के भाव
जब जीवन का मोती ही न फूटा
मोल लगाने का फिर क्या रहा हिसाब ||


Cheers
Jit

bazardparveen
February 24th, 2012, 10:38 PM
My Favorite. Thanks for sharing :) :)
Got the idea of this thread from the movie "Maine Gandhi Ko Nahin Mara" directed by Jahnu Barua, with lead characters played superbly by Anupam Kher and Urmila Matondkar. It is a gripping tail of a family's struggle to treat the delusional dementia of their old father. A poem that runs through the movie is very inspirational and I thought I should share it with the readers. Here is the poem, especially for those who get disheartened by failures. The poem is by the famous Hindi poet Suryakant Tripathi Nirala.

But the idea behind this thread is not to share just this one poem,, rather I feel there are many more very meaningful, good hindi kavita,,, which is treat to read. So I request all the fellow members, who are interested in Hindi Poetry to post any gud "kavita" with poet name n other reference. I ll also keep coming with my fav. poems (n there r many....:)).

So here is Nirala's "Himmat Kerne Walon Ki Kabhi Haar Nahin Hoti"...

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती...

नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ्ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन् का विश्वास रगों में साहस बनता है
चढ़ कर गिरना , गिर कर चढ़ना ना अखरता है
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती....

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगता है
जा जा कर खाली हाथ लौट आता है
मिलते ना सहज ही मोती पानी में
बहता दूना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती....

असफलता एक चुनौती है स्वीकार करो
क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो
जब तक ना सफल हो नींद चैन की त्यागो तुम
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती....

jaatdesi
February 26th, 2012, 07:16 AM
दिग्विजय के बेटे की व्यथा?

पापा तुम कब मरोगे?

दुनिया के बाप मर रहे हैं, तुम्ही रह गए बस...
चमचई के सर्वोत्तम शिखर पर पहुँच गए हो भला अब क्या चाहिए
पहले ही इतने कुकर्म कर ही चुके हो की आराम से बीस तिस साल तक गालिया सुनते रहोगे !!
फिर ज़िंदा रह के भी क्या उखाड़ लोगे ..

पापा तुम कब मरोगे?

आप मर जाते तो हमें अनाथ होने की सहानुभूति मिलती,
आपकी तेरहवी पर कपडे सपड़े मिलते...
कही और से ना सही मगर ओसामा अंकल और पकिस्तान भी हमें कुछ जकात फितरा मिल जाता ...
आप कब तक हमें इन सुविधाओं से मरहूम रखोगे ?

पापा तुम कब मरोगे

आप को कसाब भैया की कसम आपको मरना पडेगा !
आप शान्ति से मर जाए वरना शहीदों की विधवाओं से इतनी बददुवा मिल रही की अगले साल आपका कुत्ते की मौत मरना तय है
हे पिताजी इन पवित्र बददुवाओं से कैसे बचोगे ?

पापा तुम कब मरोगे

आपको तो पता ही है की आपको लोग कुत्ता कहने लगे हैं ...
पता नहीं क्यों पर मुझे भी आपके कुत्ता होने का यकीन होने लगा है ....
क्या मै कुत्ते की औलाद हूँ ??....
हे पिताजी आप ही बताएये की क्या मै कुत्ते की औलाद हू ???....
आप हमें "कुत्ते के बच्चे" की गालियों से मुक्त कब करोगे?

पापा तुम कब मरोगे
-------------Jay Shree Kant Shreevastava

jaatdesi
February 26th, 2012, 07:20 AM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash4/394033_368903906453006_242514602425271_1455204_976 860830_n.jpg

jaatdesi
February 26th, 2012, 07:26 AM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash4/431050_367500946593302_242514602425271_1452032_207 8301533_n.jpg

deshi-jat
February 26th, 2012, 08:02 AM
Just Excellent!!!


https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash4/394033_368903906453006_242514602425271_1455204_976 860830_n.jpg

htomar
February 28th, 2012, 12:30 PM
तंग गलियों से होकर
गुज़रता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

फटा लिबास ओढ़े
कहता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

पैरों में नहीं चप्पल उसके
काँटों भरी सेज पर
चलता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

आँखें हो गई हैं अब
उसकी बूढ़ी
धँसी हुई आँखों से
देखता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

एक रोज़ पूछा मैंने
उससे,
कौन हो तुम
‘तेरे देश का कानून’
बोला आहिस्ता-आहिस्ता !!

jaatdesi
March 2nd, 2012, 12:47 PM
रावण कंस कहो कब उपदेशो से से माने हैं
सच्चाई को सदा इन्होने मारे ताने हैं
काम सांप का डसना है ,मौके पर डस लेगा..
कुचले बिना काल अपने पंजे में कस लेगा..
मांगे से गरीब को कब मिलती मजदूरी है
दुष्ट नहीं माने तो हिंसा बहुत जरुरी है..........

शांति शांति को जपते जपते,हम जड़ हो बैठे,
कोहिनूर सा दुर्लभ हिरा तक भी खो बैठे
खो बैठे कैलाश कबूतर श्वेत उड़ाने में...
अचकन की जेबों पर लाल गुलाब लगाने में..
पर झंडा ऊँचा है ,यदि डंडे की मंजूरी है...
दुष्ट नहीं माने तो हिंसा बहुत जरुरी है..........

सोमनाथ का मंदिर टूटा,कहा अहिंसा थी..
शक हूणों ने हमको लुटा,कहा अहिंसा थी..
भिछुणियों की छाती काटी,कहा अहिंसा थी...
लाशों से व्यभिचार किया,क्या वहां अहिंसा थी....
हिंसक पशु के लिए अहिंसा हलवा पुड़ी है...
दुष्ट नहीं माने तो हिंसा बहुत जरुरी है..

साधू संत की खातिर हिंसा,भले अधूरी है
दुष्ट नहीं माने तो हिंसा बहुत जरुरी है..

बिना शक्ति के भक्ति भावना पंगु अधूरी है
आज बांसुरी नहीं सुदर्शन चक्र जरुरी है
हरी मंडप में जब तक हाहाकार नहीं होगा
शत्रु पक्ष में जब तक भला पार नहीं होगा
गद्दारों का जब तक खुला शिकार नहीं होगा
तब तक माता का सपना साकार नहीं होगा
कौवों को दी जाती नहीं कभी अंगूरी है
आज बांसुरी नहीं सुदर्शन चक्र जरुरी है

साधू संत की खातिर हिंसा,भले अधूरी है
दुष्ट नहीं माने तो हिंसा बहुत जरुरी है..

.
.
.
"अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तदैव च"....

ये वाक्य लोगों को कायर बनाने के लिये हमेशा अधूरा पढाया जाता है.....

...हाँ अहिंसा पहला धर्म है....लेकिन धर्म की रक्षा के लिये हिंसा उतनी ही जरुरी है

jaatdesi
March 4th, 2012, 09:46 AM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-snc7/p480x480/314486_251910714862311_100001301543111_676317_1253 339050_n.jpg

htomar
March 4th, 2012, 07:32 PM
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हु*ए है;
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बना*ए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लि*ए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिका*ओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहया*ई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

kamnanadar
March 4th, 2012, 08:47 PM
बैचैनी का सबब (विमल कुमार)

मेरे लिए तुम्हारा प्रेम कोई सौदा नहीं था
नहीं था कोई अनुबन्ध, करार, घोषणापत्र
ज़रूरत पड़ने पर सिर्फ़’ काम के काम भी नहीं था
नहीं थी कोई वासना, लिप्सा
था तो सिर्फ़ इतना
तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ सीढ़ियों पर बैठ जाती
मैं तुम्हारी छाया के साथ थोड़ी देर
सुस्ता लेना चाहता था
अपना सुख और दुख बताना ही
मेरे लिए प्रेम था
इसलिए मैं कहता हूँ
तुम ज़रा अपनी माँ और पिता और भाई के बारे में बताती
बताती अपने बच्चों के बारे में
कितनी जकड़न है उसके सीने में
कितना कफ़’ जमा है

इसलिए मैं यह भी बार-बार तुमसे कहता हूँ
मैं तुम्हें प्यार नहीं कर रहा था
मैं तो इस दुनिया को जानने का
जीवन को पहचानने का उपक्रम कर रहा था
मैं तो अपनी ज़ि“न्दगी जी रहा था
जो मुझे छोड़कर चली गई थी कहीं
इस शहर में
मेरे पंख नोच लिए गए थे
मेरी इच्छाएँ कुतर दी गई थीं
छीन ली गई थी साँसे मुझसे
नथुनों में आक्सीजन नहीं
ढेर सारा कार्बन-डाइक्साइड भर गया था

सब्ज़ी ख़रीदने निकला था
निकला था दूध लाने
तो रास्ते में ही बेहोश हो चुका था
गिरा पड़ा था सड़क के किनारे
मेरा चेहरा भी मेरी पत्नी नहीं पहचान पा रही थी
मेरी लिखावट भी मेरी बेटी पहचान नहीं पा रही थी
उस अँधेरे में
ऐसे में मैं और कर क्या सकता
इस बुढ़ापे में
एक पुलिया पर बैठा
तेज अँधड़ को आते-जाते देखकर
चाँद को ढलते देखकर
सूरज को रोज़ पसीने से तर-बतर निकलते देखकर
किस तरह चीज़ें ख़रीदी जा रही हैं
किस तरह बेची जा रही हैं
इसलिए मैं कहता हूँ
मेरे लिए प्रेम कोई सौदा नहीं था
वह दिल को बहलाने का
ग़ालिब ख़याल भी नहीं था
वह एक ऐसी पुकार थी
जो किसी पुराने कुएँ के भीतर से
या किसी ढह गए किले के अन्दर से
आती थी और मुझे बेचैन कर जाती थी
मैं तो केवल इस बेचैनी का सबब ढूँढ़ रहा हूँ ।

htomar
March 14th, 2012, 06:52 PM
http://www.geeta-kavita.com/images/suryaki/suryaki.gif

htomar
March 29th, 2012, 08:09 PM
काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

ये अग्नीगंधा मौसम की बेला है
गंधों के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूँ
आँसू के अधिकारों का उदबोधन हूँ
मैं अभिधा की परम्परा का चारण हूँ
आजादी की पीड़ा का उच्चारण हूँ

इसीलिए दरबारों को दर्पण दिखलाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

बस नारों में गाते रहियेगा कश्मीर हमारा है
छू कर तो देखो हिम छोटी के नीचे अंगारा है
दिल्ली अपना चेहरा देखे धूल हटाकर दर्पण की
दरबारों की तस्वीरें भी हैं बेशर्म समर्पण की

काश्मीर है जहाँ तमंचे हैं केसर की क्यारी में
काश्मीर है जहाँ रुदन है बच्चों की किलकारी में
काश्मीर है जहाँ तिरंगे झण्डे फाड़े जाते हैं
सैंतालिस के बंटवारे के घाव उघाड़े जाते हैं
काश्मीर है जहाँ हौसलों के दिल तोड़े जाते हैं
खुदगर्जी में जेलों से हत्यारे छोड़े जाते हैं

अपहरणों की रोज कहानी होती है
धरती मैया पानी-पानी होती है
झेलम की लहरें भी आँसू लगती हैं
गजलों की बहरें भी आँसू लगती हैं

मैं आँखों के पानी को अंगार बनाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

काश्मीर है जहाँ गर्द में चन्दा-सूरज- तारें हैं
झरनों का पानी रक्तिम है झीलों में अंगारे हैं
काश्मीर है जहाँ फिजाएँ घायल दिखती रहती हैं
जहाँ राशिफल घाटी का संगीने लिखती रहती हैं
काश्मीर है जहाँ विदेशी समीकरण गहराते हैं
गैरों के झण्डे भारत की धरती पर लहरातें हैं

काश्मीर है जहाँ देश के दिल की धड़कन रोती है
संविधान की जहाँ तीन सौ सत्तर अड़चन होती है
काश्मीर है जहाँ दरिंदों की मनमानी चलती है
घर-घर में ए. के. छप्पन की राम कहानी चलती है
काश्मीर है जहाँ हमारा राष्ट्रगान शर्मिंदा है
भारत माँ को गाली देकर भी खलनायक जिन्दा है
काश्मीर है जहाँ देश का शीश झुकाया जाता है
मस्जिद में गद्दारों को खाना भिजवाया जाता है

गूंगा-बहरापन ओढ़े सिंहासन है
लूले - लंगड़े संकल्पों का शासन है
फूलों का आँगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है

मै इस कोढ़ी कायरता की लाश उठाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

हम दो आँसू नहीं गिरा पाते अनहोनी घटना पर
पल दो पल चर्चा होती है बहुत बड़ी दुर्घटना पर
राजमहल को शर्म नहीं है घायल होती थाती पर
भारत मुर्दाबाद लिखा है श्रीनगर की छाती पर
मन करता है फूल चढ़ा दूं लोकतंत्र की अर्थी पर
भारत के बेटे निर्वासित हैं अपनी ही धरती पर

वे घाटी से खेल रहे हैं गैरों के बलबूते पर
जिनकी नाक टिकी रहती है पाकिस्तानी जूतों पर
काश्मीर को बँटवारे का धंधा बना रहे हैं वो
जुगनू को बैसाखी देकर चन्दा बना रहे हैं वो
फिर भी खून-सने हाथों को न्योता है दरबारों का
जैसे सूरज की किरणों पर कर्जा हो अँधियारों का

कुर्सी भूखी है नोटों के थैलों की
कुलवंती दासी हो गई रखैलों की
घाटी आँगन हो गई ख़ूनी खेलों की
आज जरुरत है सरदार पटेलों की

मैं घाटी के आँसू का संत्रास मिटाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

जब चौराहों पर हत्यारे महिमा-मंडित होते हों
भारत माँ की मर्यादा के मंदिर खंडित होते हों
जब क्रश भारत के नारे हों गुलमर्गा की गलियों में
शिमला-समझौता जलता हो बंदूकों की नालियों में

अब केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
दिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैय्यारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी ग़ैर नहीं होगी
जहाँ तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी

जिनको भारत की धरती ना भाती हो
भारत के झंडों से बदबू आती हो
जिन लोगों ने माँ का आँचल फाड़ा हो
दूध भरे सीने में चाकू गाड़ा हो

मैं उनको चौराहों पर फाँसी चढ़वाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

अमरनाथ को गाली दी है भीख मिले हथियारों ने
चाँद-सितारे टांक लिये हैं खून लिपि दीवारों ने
इसीलियें नाकाम रही हैं कोशिश सभी उजालों की
क्योंकि ये सब कठपुतली हैं रावलपिंडी वालों की
अंतिम एक चुनौती दे दो सीमा पर पड़ोसी को
गीदड़ कायरता ना समझे सिंहो की ख़ामोशी को

हमको अपने खट्टे-मीठे बोल बदलना आता है
हमको अब भी दुनिया का भूगोल बदलना आता है
दुनिया के सरपंच हमारे थानेदार नहीं लगते
भारत की प्रभुसत्ता के वो ठेकेदार नहीं लगते
तीर अगर हम तनी कमानों वाले अपने छोड़ेंगे
जैसे ढाका तोड़ दिया लौहार-कराची तोड़ेंगे

आँख मिलाओ दुनिया के दादाओं से
क्या डरना अमरीका के आकाओं से
अपने भारत के बाजू बलवान करो
पाँच नहीं सौ एटम बम निर्माण करो

मै भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन निकला हूँ ||

jaatdesi
March 30th, 2012, 03:58 PM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-snc7/429051_3080424287793_1179380712_32500463_969896163 _n.jpg

cooljat
March 30th, 2012, 05:05 PM
B'ful poem from the movie Udaan, touches deep into the soul ..


..

जो लहरों से आगे नज़र देख पाती, तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ
वो आवाज़ तुमको भी जो भेद जाती, तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ

जिद का तुम्हारे जो परदा सरकता, खिडकियों से आगे भी तुम देख पाते
आँखों से आदतों की जो पलकें हटाते, तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ

मेरी तरह होता अगर खुद पे जरा भरोसा, तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते
रंग मेरी आँखों का बाँटते ज़रा सा, तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते

नशा आसमान का जो चूमता तुम्हे, हसरतें तुम्हारी नया जाम पाती
खुद दुसरे जन्म में मेरी उड़ान छूने, तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते

..




Cheers
Jit

shivamchaudhary
April 1st, 2012, 01:55 PM
Some of my creations:

1. पलकें (http://mylifeasiwatch.blogspot.in/2011/07/poem.html)
अपनी ही एक भाषा को कहती है पलकें,
प्यार और नाराजगी दोनों को समझती है पलकें,
दूरीयाँ हो दिल की या जुबान की बने न हिम्मत,
सन्देश तब भी दूसरे तक पहुंचाती है पलकें,


जाने कितने समझे और कितने न समझ पाए,
कुछ ने कदम बढ़ाये और कुछ बढने से डर गए
कुछ ने लिखी कहानियां और कुछ आश करते पाए
लेकिन कदम कदम पे साथ रहा, और याद आई पलकें,


प्रेम की शुरुआत, पलक झुकने से कही जाती है,
और जब बंद हो पलकें तो वीरानी छा जाती है,
हर आश के दीप यहाँ जलाये जातें है,
और कुछ पलको के झोंके से बुझ जातें है,


आखों में डूबने को हर दिल की तमन्ना होती है,
हर वो गहरायी तलाशने की जिद सी होती है,
पर जब डूबने लगता है दिल गहरायी में,
तो इन्ही पलकों का साहिल, और किस्तिया होती है,


हर मुस्किल में, जब एक हाँ की जरुरत होती है,
हर मोड़ में, जब एक नयी डगर चुननी होती है,
जब हर आश में जब किसी की आश तलाशी जाती है,
तब राही, हमसफ़र की पलकें ही याद आती है !!

shivamchaudhary
April 5th, 2012, 06:38 AM
2. पलकें - '2 (http://mylifeasiwatch.blogspot.in/2011/07/poem-2.html)'


नाम तो याद नहीं, लेकिन याद आती है पलकें,
बचपन की यादो से, कही चमक जाती है पलकें,
वो फाग में, किसी के रंग में, सराबोर होने की चाह में,
किसी और ही के रंग में, रंग जाती है ये पलकें !!


हर उजाले में भी, दिवाली तलाशती रहती है पलकें,
जब दिल खो जाये तो, चेहरा तलाशती है पलकें,
मजबूरीयाँ कर देती है जब दूर दो चाहतों को,
हर आने वाली राह पे, हमसफ़र तलाशती है पलकें !!


चाह तो बहुत थी हमें भी, की सहारा दे किसी की पलकें,
कभी अपनों ने, कभी परायो ने भिगोई हमारी पलकें,
जाने क्यूँ कुछ ऐसा हो गया है हमें भी ज़माने में,
अनजाने में हम भी, भिगो जातें है किसी की पलकें !!

sombirnaamdev
April 11th, 2012, 12:12 AM
जाने क्या खोया क्या पाया मैंने तुमसे दिल लगा के
नींद आँखों की खोयी ,दर्द ज़माने का पाया मैंने तुमसे दिल लगा के

आँखों में नींद का नाम नहीं.
दिल में चैन का काम नहीं ..
... बेदर्द ज़माने में जज्बातों का कोई दाम नहीं ...
जाने कौन सा दर्द जगाया मैंने तुमसे दिल लगा के
जाने क्या खोया क्या पाया मैंने तुमसे दिल लगा के
नींद आँखों की खोयी ,दर्द ज़माने का पाया मैंने तुमसे दिल लगा के

दिल को सुकून मिले ना मिले .
आँखों को चैन मिले न मिले ..
जख्म दिल के सिले न सिले ...
फिर भी जाने क्यू हर वकत जख्मों को सहलाया मैंने तुम से दिल लगाके
जाने क्या खोया क्या पाया मैंने तुमसे दिल लगा के
नींद आँखों की खोयी ,दर्द ज़माने का पाया मैंने तुमसे दिल लगा के

सोचा था उनसे मिलकर थोडा सा चैन मिले.
वो जब भी मिले मुझसे हर वक़्त बेचैन मिले ..
दिल के सारे जख्म ही मुझे उनकी ही देन मिले...
दर्द ज़माने कम पड़ गया जितना पाया मैंने तुझसे दिल लगा के

जाने क्या खोया क्या पाया मैंने तुमसे दिल लगा के
नींद आँखों की खोयी ,दर्द ज़माने का पाया मैंने तुमसे दिल लगा के

navdeepkhatkar
April 11th, 2012, 06:46 AM
B'ful poem from the movie Udaan, touches deep into the soul ..


..

जो लहरों से आगे नज़र देख पाती, तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ
वो आवाज़ तुमको भी जो भेद जाती, तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ

जिद का तुम्हारे जो परदा सरकता, खिडकियों से आगे भी तुम देख पाते
आँखों से आदतों की जो पलकें हटाते, तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ

मेरी तरह होता अगर खुद पे जरा भरोसा, तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते
रंग मेरी आँखों का बाँटते ज़रा सा, तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते

नशा आसमान का जो चूमता तुम्हे, हसरतें तुम्हारी नया जाम पाती
खुद दुसरे जन्म में मेरी उड़ान छूने, तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते

..




Cheers
Jit

one of my fav...

Moar
April 11th, 2012, 08:21 AM
मधुशाला ~ हरिवंशराय बच्चन

हुज़ूर, पढ़िए - मधुशाला.... मधुशाला.... मधुशाला.... मधुशाला....

* http://hindipanna.blogspot.in/2007/04/blog-post_26.html

>>>> "मेरे शव पर वह रोए, हो जिसके आंसू में हाला, आह भरे वह, जो हो सुरभित मदिरा पीकर मतवाला.... दें मुझको कन्धा वे, जिनके पद मद-डगमग होतें हो, और जलूं उस ठौर, जहां पर कभी रही हो मधुशाला |

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला.... भी वृद्धों से जब पूछा, एक यही उत्तर पाया, अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला |"

* http://www.hindikunj.com/2010/01/madhushala-lyrics.html

>>>> "मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला, अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे, रहे ना हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला |"

हुज़ूर, चलिए - मधुशाला.... मधुशाला.... मधुशाला.... मधुशाला....

htomar
April 12th, 2012, 11:21 AM
रामधारी सिंह दिनकर

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

sombirnaamdev
April 24th, 2012, 12:20 PM
geeta ka it sankaran ,


mast hai

cooljat
April 28th, 2012, 11:11 AM
A B'ful lively inspiring poem by legend Gulzaar.

एक सुबह इक मोड़ पर - गुलज़ार

एक सुबह इक मोड़ पर
मैने कहा उसे रोक कर
हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर

रोज़ तेरे जीने के लिये,
इक सुबह मुझे मिल जाती है
मुरझाती है कोई शाम अगर,
तो रात कोई खिल जाती है
मैं रोज़ सुबह तक आता हूं
और रोज़ शुरु करता हूं सफ़र

हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर


तेरे हज़ारों चेहरों में
एक चेहरा है, मुझ से मिलता है
आँखो का रंग भी एक सा है
आवाज़ का अंग भी मिलता है
सच पूछो तो हम दो जुड़वां हैं
तू शाम मेरी, मैं तेरी सहर

हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर

मैने कहा उसे रोक कर


Cheers
Jit

jaatdesi
April 28th, 2012, 12:58 PM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-prn1/531288_289550477795404_114095252007595_670184_7737 85332_n.jpg

vijaykajla1
May 6th, 2012, 11:43 PM
डाइनिंग टेबल पर खाना देखकर बच्चा भड़का

फिर वही सब्जी,रोटी और दाल में तड़का....?
...
मैंने कहा था न कि मैं पिज्जा खाऊंगा

रोटी को बिलकुल हाथ नहीं लगाउंगा

बच्चे ने थाली उठाई और बाहर गिराई.......?

बाहर थे कुत्ता और आदमी

दोनों रोटी की तरफ लपके .......?

कुत्ता आदमी पर भोंका

आदमी ने रोटी में खुद को झोंका
और हाथों से दबाया
कुत्ता कुछ भी नहीं समझ पाया

उसने भी रोटी के दूसरी तरफ मुहं लगाया

दोनों भिड़े
जानवरों की तरह लड़े

एक तो था ही जानवर, दूसरा भी बन गया था जानवर.....

आदमी ज़मीन पर गिरा, कुत्ता उसके ऊपर चढ़ा
कुत्ता गुर्रा रहा था

और अब आदमी कुत्ता है या कुत्ता आदमी है कुछ भी नहीं समझ आ रहा था

नीचे पड़े आदमी का हाथ लहराया, हाथ में एक पत्थर आया

कुत्ता कांय-कांय करता भागा........

आदमी अब जैसे नींद से जागा

हुआ खड़ा और लड़खड़ाते कदमों से चल पड़ा.....

वह कराह रहा था रह-रह कर

हाथों से खून टपक रहा था बह-बह कर

आदमी एक झोंपड़ी पर पहुंचा.......

झोंपड़ी से एक बच्चा बाहर आया और ख़ुशी से चिल्लाया

आ जाओ, सब आ जाओ
बापू रोटी लाया, देखो बापू रोटी लाया, देखो बापू रोटी लाया........... ..

nasib19
May 7th, 2012, 01:06 PM
achi h ji aap ki

jaatdesi
May 15th, 2012, 03:18 PM
पुष्प की अभिलाषा
- माखनलाल चतुर्वेदी (Makhanlal Chaturvedi)

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।

Join anti corruption movement and support them

jaatdesi
June 19th, 2012, 11:17 AM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash3/575278_376252612431780_424010093_n.jpg

htomar
June 25th, 2012, 03:09 PM
A very touchy poem(at least for me).


माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस

reenu
June 25th, 2012, 05:55 PM
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।


- दुष्यन्त कुमार

htomar
June 27th, 2012, 11:13 AM
हर पल हलचल, पल-पल हलचल

कहे ज़िन्दगी चल आगे चल,

चल आगे चल, चल आगे चल



सुबह हुई सूरज उग आया

नई उमंग तरंगें लाया

चारों तरफ उत्साह नया है

घोर अँधेरा अभी गया है

चिड़िया चहके गुलशन महके

कूंके कोयल यूँ रह रहके

मिल ही गया हो मेहनत का फल

हर पल हलचल पल-पल हलचल



हर पल जीवन का जीना है

ज़हर बना, अमृत पीना है

फूल-शूल की फ़िक्र भूलकर

हरेक जख्म दिल का सीना है

ज़ख़्म मिले जहाँ सिले भी हैं वहाँ

आज नहीं तो आयेगा वो कल

हर पल हलचल पल-पल हलचल



है तो सब-कुछ मगर नहीं कुछ

अगर नहीं संतोष कहीं है

स्वर्ग कही नहीं आसमान में

ढूँढो वो तो यही-कही है

मन खुश है तो तन भी है खुश

तन खुश पर काहे का अंकुश

अंकुश सदा ही बुरा न रहता

बुरे-भले की समझ वो कहता

इससे शिक्षा लेता तू चल

हर पल हलचल पल-पल हलचल



शुद्धि मन की, है सिद्धि तन की

अशोक ये सब से कहता है

तब तक शांति-समृद्धि न मिलती

जब तक मन मैला रहता है

जन सेवा भारी बलशाली

किन्तु सोच न हो छल वाली

छल से गल जाती है आत्मा

निश्छल चाल होए मतवाली

यही चाल देती सबको बल

हर पल हलचल पल-पल हलचल



कहे ज़िन्दगी, चल आगे चल,
चल आगे चल, चल आगे चल
हर पल हलचल पल-पल हलचल

htomar
June 27th, 2012, 12:08 PM
कुछ मत पूंछो इस जीवन का, क्या-क्या रंग है हमने देखा

हो सकता है यह वही हो, कहें जिसे किस्मत का लेखा


चोर को खोर में लेटे देखा, शाह को टाट लपेटे देखा
सात साल के बच्चे को है, झुंटे बर्तन धोते देखा
कुछ मत पूंछो इस जीवन का................



सास को बहू डराए देखा, बेटा नज़र चुराए देखा
मज़बूरी में गलत बहू की, सास बघारे शेखी देखा
कुछ मत पूंछो इस जीवन का.................



गाँव को देखा नगर को देखा, लाचारी की डगर को देखा
ग़ुरबत में लड़की के बाप को घर-घर खाते ठोकर देखा

कुछ मत पूंछो इस जीवन का, क्या-क्या रंग है हमने देखा
हो सकता है यह वही हो, कहें जिसे किस्मत का लेखा


धर्म के पावन मर्म को देखा, पांडाओं के कर्म को देखा

देवी चरणों में चढ़ा नारियल, दोबारा फिर बिकते देखा
कुछ मत पूंछो इस जीवन का.................



इंसानों को बिकते देखा, यौवन को है सिसकते देखा
साठ साल के बुड्ढ़े को, रोमांस में खाते गोते देखा


कुछ मत पूंछो इस जीवन का, क्या-क्या रंग है हमने देखा

हो सकता है यह वही हो, कहें जिसे किस्मत का लेखा

htomar
July 14th, 2012, 10:47 AM
मैंने कभी किसी गरीब को नहीं देखा
मैंने गरीबी को कभी महसूस भी नहीं किया
मैं गरीबी की परिभाषा से भी अनजान हूँ
पर देखा है कुछ नाशाद लोगों को राह चलते
अपनी समस्याओं को सुलझाते, उन्हीं में उलझते
और शायद जिन्दगी का ताना-बाना बुनते
वैसे मैंने कभी किसी गरीब को नहीं देखा

देखा है मैंने झोपड़ी में रहने वाले उस बूढे को
जिसके पास तन और छत ढांकने कुछ भी नहीं है।
है, तो केवल एक झीनी सी धोती।
जिसे पह पहनता भी है, और ओढ़ता भी।
उसके झोपड़े में है,
एक चूल्हा, हांडी, लोटा, कनस्तर और चंद लकड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं।
हाँ, मैंने झाककर तो देखा है, उसके झोपड़े में
पसीना और रोटी आज भी उसके लिए पूरक हैं
वैसे मैंने कभी किसी गरीब को नहीं देखा

देखा है मैंने धंधे/ कोठे पर बैठी उस औरत को
जिसे कभी उसकी परम्परा/ कभी मजबूरी ने
इस नर्क में ढकेल दिया है।
देखा है मेसे सभ्य समाज के नकाबपोश चेहरों को
गिध्दों की तरह उसका बदन नोचते।
और उसे किसी बेजान प्राणी की तरह,
टकटकी लगाये शून्य में झांकते हुए।
मैंने देखा है उसे
तिल-तिल जीते हुये, रोज-रोज मरते हुये।
वैसे मैंने कभी किसी गरीब को नहीं देखा

देखा है मैंने रेलवे स्टेशन पर घूमते मासूम को,
जिसे उसकी सौतेली मां और अपने ही बाप ने घर से निकाला है।
वो कभी गाड़ियों में भुट्टा बेचता है तो कभी झाड़ू लगाता है।
कभी-कभी मुसाफिरों के सामने हाथ फैलाये गिड़गिड़ाता भी है।
उसके अपने घर के नाम पर यही स्टेशन है,
और रिश्*तेदारों के नाम पर संग फिरते चंद मासूम।
मैंने देखा है उसे सांझ ढले, पेट से पांव लगाये भूखे सोते हुए,
देखा है मैंने पुलिस वालों को उससे पैसा छुड़ाते हुए।
वैसे मैंने कभी किसी गरीब को नहीं देखा

देखा है मैंने गांव के उस किसान को
जिसकी जमीन तो बहुत है पर सींचने के लिए पानी नहीं है।
एक फसल लेता है और परती पड़ी रहती है जमीन,
10 बच्चे भी हैं, कहना था मनोरंजन का साधन नहीं था, इसलिए हो गये।
छोटा मां का दूध पीता है और बड़ी सयानी हो गई है,
कर्ज से बदन दुहरा हो चला है ओर घर में खाने के लाले पड़े हैं।
मैंने देखा है वहां जमींन फट गई है इस बार सूखा जो पड़ गया है।
वैसे मैंने कभी किसी गरीब को नहीं देखा

सुना है मैंने गरीबी कम हो रही है, सरकारी ऑंकडे भी यही कहते हैं
पर देखा है रोज किसी
झोंपड़ी के बूढ़े को भूखे सोते हुए
किसी की आबरू उतरते हुए
किसी किसान को आत्महत्या करते हुये
और सुना है
कल स्टेशन पर फिर आया है कोई नया मासूम

jaatdesi
July 30th, 2012, 01:56 PM
https://fbcdn-sphotos-a.akamaihd.net/hphotos-ak-ash4/486622_178852245580136_1539370347_n.jpg

htomar
August 3rd, 2012, 02:33 PM
कैलाश वाजपेयी
ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए |

काँटों बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी ,
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पाई फुलवारी |
ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन !
ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए |

चाहे मन में हो या राहों में
हर अँधियारा भाई-भाई है ,
मंडप-मरघट जहाँ कहीं छायें
सब किरणों में सम गोराई है |
पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन !
ऐसा कुछ भी नहीं चाँदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाये |

साँप नहीं मरता अपने विष से
फिर मन की पीड़ाओं का डर क्या ,
जब धरती पर ही सोना है तो
गाँव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या |
प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन !
ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए |

सूरज की सोनिल शहतीरों ने
साथ दिया कब अन्धी आँखों का ,
जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो
दोष भला फिर क्या सूराखों का |
अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन !
ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए |

htomar
August 7th, 2012, 12:30 PM
सौ बातों की एक बात है

रोज़ सवेरे रवि आता है
दुनिया को दिन दे जाता है
लेकिन जब तम इसे निगलता
होती जग में किसे विकलता
सुख के साथी तो अनगिन हैं
लेकिन दुःख के बहुत कठिन हैं

सौ बातो की एक बात है


अनगिन फूल नित्य खिलते हैं
हम इनसे हँस-हँस मिलते हैं
लेकिन जब ये मुरझाते हैं
तब हम इन तक कब जाते हैं
जब तक हममे साँस रहेगी
तब तक दुनिया पास रहेगी

सौ बातों की एक बात है


सुन्दरता पर सब मरते हैं
किन्तु असुंदर से डरते हैं
जग इन दोनों का उत्तर है
जीवन इस सबके ऊपर है
सबके जीवन में क्रंदन है
लेकिन अपना-अपना मन है

सौ बातो की एक बात है

--------- रमानाथ अवस्थी

htomar
August 8th, 2012, 03:07 PM
exact to yaad nahi..shayad 10 ya 12 ki book mai padhi thi ye kavita(mene aahuti bankar dekha).truly a masterpiece.

अज्ञेयमैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?


मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?


पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !


अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है


मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ


मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

ndalal
August 29th, 2012, 08:56 PM
बेहतरीन पंक्तियाँ
One really gem of a poem from Great Bachaan saab, that describes 'Real Love' & distinguish between Love & Infatuation in sucha simple n sweet manner!! Truly matchless poem that touches to the core of soul!! :):):)


आदर्श प्रेम - डॉ. हरिवंश राय बच्चन


प्यार किसी को करना लेकिन
कहकर उसे बताना क्या,
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या |

गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गाकर उसे सुनाना क्या,
मन के कल्पित भावो से
औरों को भ्रम में लाना क्या |

ले लेना सुगंध सुमनों की
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या,
प्रेम हार पहनना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या |

त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनमे स्वार्थ बताना क्या,
देकर हृदय हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या |

Rock on
Jit

cooljat
September 4th, 2012, 03:59 PM
One fine creation by great maestro Gulzar sa'ab .. Really hard to describe his imagination n' creativity but it simply touch deep inside and make you feel.



ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा - गुलज़ार

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफ़र तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा

Cheers
Jit

htomar
September 5th, 2012, 11:47 AM
Raamdhari Singh 'Dinkar'

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं

समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं

कली की पंखुडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं

न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं

Moar
October 3rd, 2012, 01:13 PM
' दो आवाज़ें ' ~ जावेद अख्तर :


एक हमारी और इक उनकी मुल्क में हैं आवाज़ें दो
अब तुम पर है कौन सी तुम आवाज़ सुनो, तुम क्या मानो

हम कहते हैं जात धर्म से इन्सां की पहचान गलत
वो कहते हैं सारे इन्सां एक हैं ये एलान गलत

हम कहते हैं नफरत का जो हुक्म दे वो फर्मान गलत
वो कहते हैं ये मानो तो सारा हिन्दुस्तान गलत

हम कहते हैं भूल के नफ़रत, प्यार की कोई बात करो
वो कहते हैं खून खराबा होता है तो होने दो

हम कहते हैं इन्सानों में इन्सानों से प्यार रहे
वो कहते हैं हाथों में त्रिशुल रहे तलवार रहे

हम कहते हैं बेघर बेदर लोगों को आबाद करो
वो कहते हैं भुले बिसरे मन्दिर मस्ज़िद याद करो

एक हमारी और इक उनकी मुल्क में हैं आवाज़ें दो
अब तुम पर है कौन सी तुम आवाज़ सुनो, तुम क्या मानो

jaatdesi
October 7th, 2012, 11:32 AM
बड़ा भोला बड़ा सादा बड़ा सच्चा है।
तेरे शहर से तो मेरा गाँव अच्छा है॥

वहां मैं मेरे बाप के नाम से जाना जाता हूँ।
और यहाँ मकान नंबर से पहचाना जाता हूँ॥

वहां फटे कपड़ो में भी तन को ढापा जाता है।
यहाँ खुले बदन पे टैटू छापा जाता है॥

यहाँ कोठी है बंगले है और कार है।
वहां परिवार है और संस्कार है॥

यहाँ चीखो की आवाजे दीवारों से टकराती है।
वहां दुसरो की सिसकिया भी सुनी जाती है॥

यहाँ शोर शराबे में मैं कही खो जाता हूँ।
वहां टूटी खटिया पर भी आराम से सो जाता हूँ॥

मत समझो कम हमें की हम गाँव से आये है।
तेरे शहर के बाज़ार मेरे गाँव ने ही सजाये है॥

वह इज्जत में सर सूरज की तरह ढलते है।
चल आज हम उसी गाँव में चलते है.....
........ उसी गाँव में चलते॥

rskankara
October 7th, 2012, 12:44 PM
शहरीकरण के भूत ने, मंहगाई की भूख ने, सरकार की लूट ने
सांचा बदल दिया...
हँसते-डोलते गाँव का ढांचा बदल दिया।

आह! वो उल्लास के दिन, तंगी में भी बेहद उन्माद के दिन, वो मिलना-मिलाना
भाईचारा सदभाव का रस....
कठिन परिश्रम, शांति और प्रेम में
डूबा रहता था गाँव बरबस

अब याद आता है, रह-रह के वो बचपन
जब आस पड़ोस से निकलता था चुल्हे का धुंआ
मां देती थी उपला, और कहती चाची से, जरा सी आग लेके आ।
पड़ोस की दादी भी आती, कहती, दुल्हन जरा सा देना धनिया।

तब पूरा गाँव एक परिवार होता था, अलग ही रास होता था
गाँव मैं बधुत्व था, आपसी सहयोग का वास होता था।

नौजवान भागे शहर कमाने को
पेट में दाना, घर मैं सुख -धन लाने को
कभी कहा जाता रहा होगा, भारत गाँवों को देश
अब सरकार ने भी बदल दिया यह अभिलेख
संयुक्त परिवार का क्या कहे भाई
अब तो परदेशी हो गया माँ का सपूत
वाह रे शहरीकरण का भूत॥

htomar
October 18th, 2012, 12:26 PM
तुम मुझे दुख-दर्द की सारी विकलता सौंप देना,
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

मैं सफ़र में चल पड़ा हूँ,
दूर जाऊँगा समझ लो।
व्यर्थ है आवाज़ देना,
आ न पाऊँगा समझ लो।
जोगियों से मन लगाना,
छोड़ दो मुझको बुलाना।
राह में दुश्वारियाँ हो. . . मैं सरलता खोज लूँगा,
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

एक रचनाकार हूँ,
निर्माण करने में लगा हूँ।
मैं व्यथा का सोलहों-
सिंगार करने में लगा हूँ।
यह कठिन है काम लेकिन,
श्रम अथक अविराम लेकिन।
इस थकन में ही सृजन की मैं सबलता खोज लूँगा।
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

फूल की पंखुड़ियों पर,
चैन से तुम सो न पाए।
जग तुम्हारा हो गया पर,
तुम किसी के हो न पाए।
तुम अधर की प्यास दे दो,
या सुलगती आस दे दो।
मैं हृदय की फाँस में अपनी तरलता खोज लूँगा,
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

रात काली है मगर यह,
और गहरी हो न जाए।
फिर तुम्हारी चेतनायें,
शून्य होकर खो न जाए।
इसलिए मैं फिर खड़ा हूँ,
स्याह रातों से लड़ा हूँ।
मैं तिमिर में ही कहीं, सूरज निकलता खोज लूँगा।
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

sivach
October 19th, 2012, 06:44 PM
एक आदमी ने धरती से किया प्रस्थान
यमराज के कक्ष में घड़ियाँ देखकर रह गया हैरान
हर देश की अलग घड़ी थी, कोई छोटी कोई बड़ी थी
कोई दौड़ रही, कोई थी बंद, कोई तेज, कोई थी मंद
उनकी अलग अलग रफ़्तार देखकर आदमी चकराया
उसने कारण पूछा, तो यमराज ने बताया
हर घडी की उसी हिसाब से है रफ़्तार
जिस हिसाब से हो रहा है उस देश में भ्रष्टाचार
आदमी ने चारो तरफ नज़र दौड़ायी
लेकिन भारत की घडी कहीं भी नज़र नहीं आयी
आदमी मुस्कुराया, यमराज के कान में फुस्फुसाया
भारत वाले भ्रष्टाचार यहाँ भी ले आये
सच - सच बताओ, घडी न रखने के कितने पैसे खाए
यमराज बोले, तेरे शक की सुई तो बिना बात उछल रही है
मेरे बेडरूम में जाकर देखो, पंखे की जगह भारत की घडी चल रही है

(Copied)

htomar
October 25th, 2012, 10:23 AM
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।


कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।


जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।


इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।


मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।


साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।


फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

----- शिवमंगल सिंह 'सुमन'

htomar
October 26th, 2012, 06:59 PM
kal kuchh frnd mere dharmik vishwaso par ungli utha rahe the .tab unhe ye kavita sunayi thi..hope karta hu ki aap sabko bhi achi lagegi..


मैं कभी मंदिर न जाता
और न चन्दन लगाता,
मंदिरों-से लोग मिल जाते जहां पर
बस वहीं पर सिर झुकाता
देर थोड़ी बैठ जाता
मुस्कुराता, गुनगुनाता, गीत गाता |

जिनके होठों पर हमेशा
प्रेम के हैं फूल खिलते
देख जिनको हैं हृदय में
प्रार्थना के दीप जलते
स्नेह, करुणा से भरी जो आत्मा
हैं हमारे वास्ते परमात्मा
मैं कभी गीता न पढता
और न ही श्लोक रटता
कृष्ण-से कुछ लोग मिल जाते जहां पर
बस वहीँ पर सिर झुकाता
देर थोड़ी बैठ जाता
मुस्कुराता,गुनगुनाता, गीत गाता |

जिनकी आहट से सदा
मिलती हमें ताजी हवा
दृष्टि जिनकी उलझनों के
मर्ज की प्यारी दवा,
इंसान के दिल में जहाँ
इंसान का सम्मान है
सच कहूँ मेरे लिए
वह दृश्य चरों धाम हैं,
मैं न रामायण ही पढता
और न धुनी रमाता
राम-से कुछ लोग
मिल जाते जहाँ पर
बस वहीं पर सिर झुकाता
देर थोड़ी बैठ जाता
मुस्कुराता, गुनगुनाता, गीत गाता |


वेद की बातें समझ में हैं नहीं आतीं
चर्चा पुराणों की तसल्ली दे नहीं पातीं
देश –दुनिया के लिए जो जिंदगी
बस उन्ही के ही लिए ये बंदगी
मैं कभी काशी न जाता
और न गंगा नहाता
लोग गंगाजल सदृश मिलते जहाँ पर
बस वहीं पर सिर झुकाता
देर थोडी बैठ जाता
शब्द-गंगा में नहाता
मुस्कुराता, गुनगुनाता, गीत गाता |

htomar
October 29th, 2012, 04:43 PM
मैं कहता हूँ चीज पुरानी घर के अंदर मत रखो
वो कहती है कौन जानता बादल कब घिर आ जाये |

कभी तो बूढी माँ बन जाती, डाट-डपट भी करती है
छोटी बहन कभी बन जाती, छीन-झपट भी करती है
कभी मित्र बन बातें करती, हँसती और हँसाती है
कभी बहाने कोई ढूढकर रोती और रुलाती है

मैं कहता हूँ बात पुरानी मन के अंदर मत रखो
वो कहती है कौन जानता, काम वक्त पर आ जाये |

दो युग बीत गये हैं उनके साथ-साथ चलते-चलते
कितने दिन और कितनी रातें साथ बात करते-करते
मस्त रहा हूँ मैं चलनी में पानी बस भरते-भरते
मगन रही है वो चावल में कंकड कुछ चुनते-चुनते

मैं कहता हूँ दर्द पुराना तन के अंदर मत रखो
वो कहती है कौन जानता दर्द दवा ही बन जाये |

हाय, नहीं पहचान सके हम एक दूसरे को अब भी
कभी-कभी सोचा करता हूँ बैठ अकेले में अब भी
जीवन के सारे दुःख-सुख का जोड़ शून्य ही होता है
पता नहीं फिर क्यों मानव अपनी किस्मत पर रोता है

मैं कहता हूँ दृष्टि पुरानी अपने अंदर मत रखो
वो कहती है कौन जानता कब क्या किसको भा जाये |

SandeepSirohi
October 31st, 2012, 01:26 PM
तेरी प्यारी बाते सुनके
मिट जाती मेरी थकान |
मेरी प्यारी गुडिया तू है
अपने पापा कि जान ||
छोटी -२ उंगलियों से
पकड़ के मेरा हाथ |
मुझसे कहती पापा तुम
मुझे भी ले चलो साथ ||
रोज मेरे आने पर
भाग कर दरवाजा खोलती |
आँखों से कर लेती बाते
मुह से कुछ ना बोलती ||
रोज मुझसे कहती
पापा ऑफिस क्यों जाते हो |
जब आप चले जाते हो तो
मुझे याद बहुत आते हो ||
नन्हे नन्हे पैरो से
सारे घर मे वो भागे |
तुझे पकड़ने को दोडू
पर तू रहे हमेशा आगे ||
रोज तू मुझसे पूछे
ना जाने कितने सवाल |
जवाब देते देते मेरा भी
हो जाता है बुरा हाल ||
बाय करे मुझसे ओर कहे
पापा जल्दी आना |
पर आते हुए आप मेरी
चोकलेट जरुर ले आना ||
कभी अगर हो उदास तू
घर मे सन्नाटा छा जाए |
सब कुछ लगे सूना सूना
किसी को कुछ ना भाए ||
तेरे मासूम से चेहरे पर
सदा खिली रहे मुस्कान |
मेरी प्यारी गुडिया तू है
अपने पापा कि जान ||
-संदीप

sivach
November 7th, 2012, 05:46 PM
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ
अपने खेतो से बिछड़ने की सजा पाता हूँ

इतनी महंगाई में बाज़ार से कुछ लाता हूँ
अपने बच्चों में उसे बाँट के शर्माता हूँ

अपनी नींदों का लहू पोंछने की कोशिश में
जागते जागते थक जाता हूँ सो जाता हूँ

कोई चादर समझ के खींच न ले फिर से कहीं
मैं कफ़न ओड़ के फुटपाथ पे सो जाता हूँ ...

लहलहाते खेतो में चमकता था जुगनु की तरह
अब मैं बुझे चिराग सा नजर आताहूँ ...

sivach
November 10th, 2012, 02:19 PM
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
तुम एम. ए. फ़र्स्ट डिवीजन हो, मैं हुआ मैट्रिक फ़ेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम फौजी अफ़्सर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ ।
तुम रबडी खीर मलाई हो, मैं सत्तू सपरेटा हूँ ।
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड के नीचे लेटा हूँ।
तुम नयी मारूती लगती हो, मैं स्कूटर लम्बरेटा हूँ।
इस कदर अगर हम छुप-छुप कर, आपस मे प्रेम बढायेंगे ।
तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पुरी बनजायेंगे ।
सब हड्डी पसली तोड मुझे, भिजवा देंगे वो जेलप्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम अरब देश की घोडी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये ।
तुम दीवली क बोनस हो, मैं भूखों की हडताल प्रिये ।
तुम हीरे जडी तश्तरी हो, मैं एल्मुनिअम का थाल प्रिये ।
तुम चिकेन-सूप बिरयानी हो, मैन कंकड वाली दाल प्रिये ।
तुम हिरन-चौकडी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये ।
तुम चन्दन-वन की लकडी हो, मैं हूँ बबूल की चाल प्रिये ।
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मार मुझे गुलेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

मैं शनि-देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कन्चन काया हो ।
मैं तन-से मन-से कांशी राम, तुम महा चन्चला माया हो ।
तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफ़ा अजन्ता की ।
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवन्ता की ।
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम-ठेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेलप्रिये ।

तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ ।
तुम ए. के.-४७ जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ।
तुम चतुर राबडी देवी सी, मैं भोला-भाला लालू हूँ ।
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिडियाघर का भालू हूँ ।
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी. पी.सिंह सा खाली हूँ ।
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ ।
कल जेल अगर हो जाये तो, दिलवा देन तुम बेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

मैं ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पाँच सितारा होटल हो ।
मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड-लेबल की बोतल हो ।
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कॄषि-दर्शन की झाडी हूँ ।
तुम विश्व-सुन्दरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाडी हूँ ।
तुम सोनी का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन वाला हूँ चोंगा ।
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंघा ।
दस मन्ज़िल से गिर जाउँगा, मत आगे मुझे ढकेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।

तुम सत्ता की महरानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ ।
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं क्वारा अटल-बिहारी हूँ ।
तुम तेन्दुलकर का शतक प्रिये, मैं फ़ॉलो-ऑन की पारी हूँ ।
तुम गेट्ज़, मटीज़, कोरोला हो, मैं लेलैन्ड की लॉरी हूँ ।
मुझको रेफ़री ही रहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
मैं सोच रहा कि रहे हैं कब से, श्रोता मुझको झेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये।

(डा सुनील जोगी )

sivach
November 16th, 2012, 08:07 PM
" दोस्ती "

आकर बिना मिले जाना तेरा
पल में उजाला पल में अँधेरा
एक वो भी दौर था दोस्ती में
जब क्या तेरा और क्या मेरा
तेरी आँखें तो वो आईना थी
जिनमे संवरता था ये चेहरा
तुझको यूँ मोती सा रखता
कि ज़ज्बा है सागर सा गहरा
सुन ! यूँ ही हम दोस्त बने
कि तू कुछ-कुछ मुझसा ठहरा
जब से तू खामोश हुआ है
सारा जग लगे बहरा-बहरा
मुझ से दूर नही हो पायेगा
कि पगले मैं हूँ साया तेरा ,,

SALURAM
December 1st, 2012, 09:37 AM
कोई टोपी तो कोई अपनी पगड़ी बेच देताहै,
मिले गर भाव अच्छा जज भी कुर्सी बेच देता है,
तवायफ फिर भी अच्छी है के वो सीमित है कोठे तक,
पुलिस वाला तो चौराहे पे वर्दी बेच देता है,
जला दी जाती है ससुराल में अक्सर वहीबेटी,
जिस बेटी की खातिर बाप किडनी बेच देता है,
कोई मासूम लड़की प्यार में कुर्बान है जिस पर,
बना कर विडियो उसकी वो प्रेमी बेचदेता है,
ये कलयुग है कोई भी चीज नामुमकिन नहीं इसमें,
कलि, फल, पेड़, पौधे, फूल माली बेच देता है,
जुए में बिक गया हु मैं तो हैरत क्यों है लोगो को,
युधिष्ठर तो जुए में अपनी पत्नी बेच देता है ।

DrRajpalSingh
December 2nd, 2012, 10:38 PM
" दोस्ती "

आकर बिना मिले जाना तेरा
पल में उजाला पल में अँधेरा
एक वो भी दौर था दोस्ती में
जब क्या तेरा और क्या मेरा
तेरी आँखें तो वो आईना थी
जिनमे संवरता था ये चेहरा
तुझको यूँ मोती सा रखता
कि ज़ज्बा है सागर सा गहरा
सुन ! यूँ ही हम दोस्त बने
कि तू कुछ-कुछ मुझसा ठहरा
जब से तू खामोश हुआ है
सारा जग लगे बहरा-बहरा
मुझ से दूर नही हो पायेगा
कि पगले मैं हूँ साया तेरा ,,


Aati Sunder !!!!

htomar
December 6th, 2012, 12:35 PM
Ek pagal pagal si ladki…
dil toornay se darti thi…….
har pal har lamha khud se woh jhagarti thi…
ansoo kiun aye kisi ankh main
mujrim khud ko samujhti thi…
ghuut ghuut k jeeti rehti thi…
har sans ulajhti rehti thi…
soo baar kaha aaay nadan larki..!!!
dunya ko dekhna choor day…
khud se ulajhna choor day…
pal pal bikherna choor day..
yahan HAASSASS DIl to koi nahi….
yahan NAZUKi say kaam na lay…
yahan pather banna parta hai…
yahan rehumdilli say kaam na lay…
soo barr kaha par kaisay nasamjhi…. !!!
dunya ko sub samujhti thi…
phir wohi hoa jo hona tha…..
dil toota uska jiska ussay roona tha…
BHAROSAY ki deewar girri …
SARD LEHJI haar baar mili….
phir simat gaye apni zaat main…
tamaam dukhon ko samaitay anchal main…
ankhon main jazbaat nahi..
pahlay say halaaat nahi…
Farq srif itna hoa…
khud apni zaaat ko TOOR dia…
tanhayeyoun se rishta jorr dia..
phir tanha tanha rehni lagi…
phir khud ko PATHEr kahnay lagi…
WOH IK PAGAL PAGAL SI LARKI….
JO DIL TOORNAY SE DARTI THI …

mahendra13
December 6th, 2012, 01:07 PM
Khudi ko kar buland itna ke har taqder se pehle
Khuda bande se ye poche bata teri raza kia hai

Khudi ko kar buland itna ke har taqder se pehle
Khuda bande se ye poche bata teri raza kia hai

Sitaron se age jahan aur bhi hai aur bhi hai
Abhi ishq ke Imtehan aur bhi hai aur bhi hai
Sitaron se age jahan aur bhi hai aur bhi hai
Abhi ishq ke Imtehan aur bhi hai aur bhi hai

Khudi ko kar buland itna ke har taqder se pehle
Khuda bande se ye poche bata teri raza kia hai

Tu shaheen hai, Tu shaheen hai, Tu shaheen hai
Tu shaheen hai, Tu shaheen hai Parvaz hai kam tera kam tera
Tere samne Aasman aur bhi hai
Tu shaheen he Basera kar Paharon ki chatano per
Tu shaheen hai tu Shaheen hai tu shaheen hai

Khudi ko kar buland itna ke har taqder se pehle
Khuda bande se ye poche bata teri raza kia hai

Khudi ko kar buland itna ke har taqder se pehle
Khuda bande se ye poche bata teri raza kia hai
bata teri raza kia hai
bata teri raza kia hai!!

By : Allana Iqbal

SandeepSirohi
December 6th, 2012, 06:11 PM
मै रोया यहां दूर देस वहां भीग गया तेरा आंचल
तू रात को सोती उठ बैठी हुई तेरे दिल में हलचल

जो इतनी दूर चला आया ये कैसा प्यार तेरा है मां
सब ग़म ऐसे दूर हुए तेरा सर पर हाथ फिरा है मां

जीवन का कैसा खेल है ये मां तुझसे दूर हुआ हूं मै
वक़्त के हाथों की कठपुतली कैसा मजबूर हुआ हूं मै

जब भी मै तन्हा होता हूँ, मां तुझको गले लगाना है
भीड़ बहुत है दुनिया में तेरी बाहों में आना है

जब भी मै ठोकर खाता था मां तूने मुझे उठाया है
थक कर हार नहीं मानूं ये तूने ही समझाया है

मै आज जहां भी पहुंचा हूँ मां तेरे प्यार की शक्ति है
पर पहुंचा मै कितना दूर तू मेरी राहें तकती है

छोती छोटी बातों पर मां मुझको ध्यान तू करती है
चौखट की हर आहट पर मुझको पहचान तू करती है

कैसे बंधन में जकड़ा हूँ दो-चार दिनों आ पाता हूँ
बस देखती रहती है मुझको आँखों में नहीं समाता हूँ

तू चाहती है मुझको रोके मुझे सदा पास रखे अपने
पर भेजती है तू ये कह के जा पूरे कर अपने सपने

अपने सपने भूल के मां तू मेरे सपने जीती है
होठों से मुस्काती है दूरी के आंसू पीती है

बस एक बार तू कह दे मां मै पास तेरे रुक जाऊंगा
गोद में तेरी सर होगा मै वापस कभी ना जाऊंगा

sivach
December 8th, 2012, 06:25 PM
तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था
कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा था !!

बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था
मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था !!

वो हमको देखता रहता था, हम तरसते थे
हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था !!

कुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं
हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा था !!

ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जाते
तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था !!

हैं दायरे में क़दम ये न हो सका महसूस
रहे-हयात में यारो घुमाव ऐसा था !!

कोई ठहर न सका मौत के समन्दर तक
हयात ऐसी नदी थी, बहाव ऐसा था !!

बस उसकी मांग में सिंदूर भर के लौट आए
हमारा अगले जनम का चुनाव ऐसा था !!

फिर उसके बाद झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़
तुम्हारी सिम्त हमारा झुकाव ऐसा था !!

वो जिसका ख़ून था वो भी शिनाख्त कर न सका
हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था !!

ज़बां से कुछ न कहूंगा, ग़ज़ल ये हाज़िर है
दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था !!

फ़रेब दे ही गया ‘नूर’ उस नज़र का ख़ुलूस
फ़रेब खा ही गया मैं, सुभाव ऐसा था !!

cooljat
December 12th, 2012, 05:07 PM
A subtle satire on so called Growth. B'ful depiction by a Jat friend of mine, really impressive!


ग्रोथ - अनुराधा बेनीवाल

सर-जी कौनसी ग्रोथ की आप बात करते हैं,
चार बड़े लोगो से जान-पहचान,
कुछ बड़ी पार्टियों मैं दुआ-सलाम?

बड़े लोगो की जी हजूरी,
छोटो पे कसे लगाम?

नीले गगन से परे एक चारदीवारी,
नया नवेला फर्निचर, कुछ हरे काग़ज़?

खुले क्षतिज़ के बदले ये धुँए के बादल,
और ये खोखली नकली हँसी?

एक चपरासी की बेटी बीमार,
दिल पत्थर, गले मैं सोने का हार?

एक साहिब की कुर्सी,
एक दब्बु ले खिसियाई हँसी?

करे मॅनेजरी डाँट फटकार,
उपर लगाए मखन, नीचे सुखी रोटी आचार?

हो गयी बड़ी नालेज हुमको,
दो ओर दो आठ भी जान गये,

छोटे-बड़े, तेरे-मेरे का फ़र्क भी सीखा
बस थोड़ी-सी इंसानियत भूल गये,

बेच रहे हैं दीवानगी को अपनी,
लोहे के सुरक्षा क्वॅच के बदले,

के लाल ईंटों ने खरीदा है मेरी जवानी को,
के हिसाब करना सीखे हैं अब!

ना ना ना ये ग्रोथ, अपने पास ही रखो,
हमारा गुज़ारा है इसके बिना.

हैं कुछ चिंगारिया,
जिनको बचा के रखा था, तेरे बर्फ़ीले तूफ़ानो से.

हैं कुछ चमकीले सपने, सफेद मोती जो सहेजे थे,
हैं कुछ खवाब तेरी नींदो के परे,

के हमने चुपके से फेक दी थी,
तेरी बेहोशी की दवा!!

बिन लीबाज़ के आए थे,
बहुत कुछ जोड़ लिया....
है दो आने की रोटी, चार आने की दाल

कहने को दो गज़ ज़मीन काफ़ी थी,
अभी तो दो दो घर पे क़ब्ज़ा है!

Cheers
Jit

sivach
December 16th, 2012, 02:34 PM
कहने को दो गज़ ज़मीन काफ़ी थी,
अभी तो दो दो घर पे क़ब्ज़ा है!

Cheers
Jit


वाह बहुत ही उम्दा

sivach
December 16th, 2012, 02:43 PM
मै रोया यहां दूर देस वहां भीग गया तेरा आंचल
तू रात को सोती उठ बैठी हुई तेरे दिल में हलचल

जो इतनी दूर चला आया ये कैसा प्यार तेरा है मां
सब ग़म ऐसे दूर हुए तेरा सर पर हाथ फिरा है मां

जीवन का कैसा खेल है ये मां तुझसे दूर हुआ हूं मै
वक़्त के हाथों की कठपुतली कैसा मजबूर हुआ हूं मै

जब भी मै तन्हा होता हूँ, मां तुझको गले लगाना है
भीड़ बहुत है दुनिया में तेरी बाहों में आना है

जब भी मै ठोकर खाता था मां तूने मुझे उठाया है
थक कर हार नहीं मानूं ये तूने ही समझाया है

मै आज जहां भी पहुंचा हूँ मां तेरे प्यार की शक्ति है
पर पहुंचा मै कितना दूर तू मेरी राहें तकती है

छोती छोटी बातों पर मां मुझको ध्यान तू करती है
चौखट की हर आहट पर मुझको पहचान तू करती है

कैसे बंधन में जकड़ा हूँ दो-चार दिनों आ पाता हूँ
बस देखती रहती है मुझको आँखों में नहीं समाता हूँ

तू चाहती है मुझको रोके मुझे सदा पास रखे अपने
पर भेजती है तू ये कह के जा पूरे कर अपने सपने

अपने सपने भूल के मां तू मेरे सपने जीती है
होठों से मुस्काती है दूरी के आंसू पीती है

बस एक बार तू कह दे मां मै पास तेरे रुक जाऊंगा
गोद में तेरी सर होगा मै वापस कभी ना जाऊंगा

उत्तम अति उत्तम। दिल की छू गयी।

sivach
December 16th, 2012, 02:46 PM
हर ख़ुशी है लोगों के दामन में
पर एक हँसी के लिए वक़्त नहीं
दिन रात दौड़ती दुनिया में
ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं

माँ की लोरी का एहसास तो है
पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके
अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं

सारे नाम मोबाइल में हैं
पर दोस्ती के लिए वक़्त नहीं
गैरों की क्या बात करें
जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं

आँखों में है नींद बड़ी
पर सोने का वक़्त नहीं
दिल है ग़मों से भरा हुआ
पर रोने का भी वक़्त नहीं

पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े
कि थकने का भी वक़्त नहीं
पराये एहसासों की क्या कद्र करें
जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नहीं

तू ही बता ऐ ज़िन्दगी
इस ज़िन्दगी का क्या होगा
कि हर पल मरने वालों को
जीने के लिए भी वक़्त नहीं .......

navdeepkhatkar
December 17th, 2012, 04:47 PM
हर ख़ुशी है लोगों के दामन में
पर एक हँसी के लिए वक़्त नहीं
दिन रात दौड़ती दुनिया में
ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं

माँ की लोरी का एहसास तो है
पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके
अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं

सारे नाम मोबाइल में हैं
पर दोस्ती के लिए वक़्त नहीं
गैरों की क्या बात करें
जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं

आँखों में है नींद बड़ी
पर सोने का वक़्त नहीं
दिल है ग़मों से भरा हुआ
पर रोने का भी वक़्त नहीं

पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े
कि थकने का भी वक़्त नहीं
पराये एहसासों की क्या कद्र करें
जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नहीं

तू ही बता ऐ ज़िन्दगी
इस ज़िन्दगी का क्या होगा
कि हर पल मरने वालों को
जीने के लिए भी वक़्त नहीं .......



Quite true .. :):)

SandeepSirohi
December 21st, 2012, 03:16 PM
पापा तुम क्यों तारा बन गए
हमसे दूर ईश्वर का सहारा बन गए
पार्क में बच्चे पापा के साथ खेलते हैं
कभी दौड़ते कभी कंधे पर चढ़ते हैं
मै दूर बैठा उनको देखा करता हूँ
बस तुम को ही सोचा करता हूँ
पहले से जीने के ढंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

माँ काम करते करते थक जाती है
कहानी रात को कभी कभी ही सुनती है
ब्रश मे फस्ट आने का कॉम्पटीशन कोई करता नहीं
सच पापा अब तो ब्रश करने का ही मन करता नहीं
मेरे जीवन के तो सारे रंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

मै अकेले स्कूल जाता हूँ
आप कि कही बातो को मन मे दोहराता हूँ
किनारे चलो ऊँगली पकडो मत दौडो
पर ऊँगली पकड़ने को जो हाथ बढ़ता हूँ
तुम को वहां नहीं पाता हूँ
मेरे तो सब सहारे गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

रोज मै तुम से बात करता हूँ
तारों मे तुम को खोजा करता हूँ
जब छाते हैं बादल तो बहुत रोता हूँ
तुम को नहीं देख पाउँगा बस यही कहता हूँ
आंसूं अब मेरे साथी बनगए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

शाम आती है पर तुम आते नहीं
कैसे हो बेटे कह के गोद में उठाते नहीं
एक बार कहो
क्या मिला होमवर्क रहा कैसा स्कूल
दो हाई फाई लग रहे हो कितने कूल
मस्ती भरे सारे वो पल गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

जब कहता हूँ चॉकलेट लाने को
बहला के मुझे दे देती है गुड खाने को
दो वक्त कि रोटी मिलजाए तू स्कूल जा पाए
बस इतना कमा पाती हूँ मै
इसी लिये तेरा कहा नहीं कर पाती हूँ
अब मेरी खाव्हिशों के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

मै माँ से माँ मुझ से छुप के रोती है
अक्सर खाने की ३ प्लेट धरती है
मै उसके लिये हसीं कमाना चाहता हूँ
आप जैसा घर का ख्याल रखना चाहता हूँ
मै जल्दी से बड़ा होना चाहता हूँ
मेरे खेलने के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

sivach
December 21st, 2012, 03:45 PM
बहुत ही मार्मिक !!!!

दिल को छू गयी और ये आँखों ने बयाँ कर दिया
भगवान क्यों ऐसा एक बच्चे के साथ कर दिया



पापा तुम क्यों तारा बन गए
हमसे दूर ईश्वर का सहारा बन गए
पार्क में बच्चे पापा के साथ खेलते हैं
कभी दौड़ते कभी कंधे पर चढ़ते हैं
मै दूर बैठा उनको देखा करता हूँ
बस तुम को ही सोचा करता हूँ
पहले से जीने के ढंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

माँ काम करते करते थक जाती है
कहानी रात को कभी कभी ही सुनती है
ब्रश मे फस्ट आने का कॉम्पटीशन कोई करता नहीं
सच पापा अब तो ब्रश करने का ही मन करता नहीं
मेरे जीवन के तो सारे रंग गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

मै अकेले स्कूल जाता हूँ
आप कि कही बातो को मन मे दोहराता हूँ
किनारे चलो ऊँगली पकडो मत दौडो
पर ऊँगली पकड़ने को जो हाथ बढ़ता हूँ
तुम को वहां नहीं पाता हूँ
मेरे तो सब सहारे गए
पापा तुम क्यों तारा बन गए

रोज मै तुम से बात करता हूँ
तारों मे तुम को खोजा करता हूँ
जब छाते हैं बादल तो बहुत रोता हूँ
तुम को नहीं देख पाउँगा बस यही कहता हूँ
आंसूं अब मेरे साथी बनगए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

शाम आती है पर तुम आते नहीं
कैसे हो बेटे कह के गोद में उठाते नहीं
एक बार कहो
क्या मिला होमवर्क रहा कैसा स्कूल
दो हाई फाई लग रहे हो कितने कूल
मस्ती भरे सारे वो पल गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

जब कहता हूँ चॉकलेट लाने को
बहला के मुझे दे देती है गुड खाने को
दो वक्त कि रोटी मिलजाए तू स्कूल जा पाए
बस इतना कमा पाती हूँ मै
इसी लिये तेरा कहा नहीं कर पाती हूँ
अब मेरी खाव्हिशों के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

मै माँ से माँ मुझ से छुप के रोती है
अक्सर खाने की ३ प्लेट धरती है
मै उसके लिये हसीं कमाना चाहता हूँ
आप जैसा घर का ख्याल रखना चाहता हूँ
मै जल्दी से बड़ा होना चाहता हूँ
मेरे खेलने के दिन गए
पापा तुम क्यों तारा बनगए

cooljat
December 24th, 2012, 09:16 PM
.

Rage, grief, frustration and many more strong emotions on sorry state of women in India, expressed in B'ful n' strong words. Kudos to you Anirudha Beniwal.



शुरुआत तो सीता ने की थी, मूक बन जाने की,
न छिनने की अपना हक, चुपचाप धरती मैं सामने की।
रही सही कसर पूरी की राधा ने, एक रसीले को भगवान बनाने की,

अरे अब तो ये षड़यंत्र समझ जाओ,
छोड़ पाँव विष्णु के लक्ष्मी, कभी तो तुम भी आराम फरमाओ।
बड़ी चालाकी से गुलाम बनाया गया है स्त्री तुझे,
दे धरम का नाम, गुलामी पाठ पढाया गया तुझे।

बहुत बनी शहनशील, क्षमावान, बलिदानी,
क्या मिला? लुटी आबरू अपने ही बगीचे मैं।
बेच दिया भाई ने, बाप मुछो पे ताव देता खड़ा है,
कोन खरीदेगा तेरी बोली है, बाज़ार मैं झगड़ा है।

माना के गुस्सा बहुत है, खून का रंग अभी तक है लाल,
तो तोड़ ये जेवरों के बेड़िया, गुलामी के सब यंत्र जलाओ।
अरे आवाज़ उठाओ, चिल्लाओ, कुछ तोड़ फोड़ मचाओ,
बहुत कर लिया करवा-चौथ, अब तांडव नाच दिखाओ।

फ़ेंक दो ये सीता, राधा, मीरा अपने मंदिरों से,
अब काली को अपनाओ, अब दुर्गा को ले आओ।


Cheers
Jit

SandeepSirohi
January 1st, 2013, 12:51 PM
चाँदनी को क्या हुआ कि आग बरसाने लगी
झुरमुटों को छोड़कर चिड़िया कहीं जाने लगी

पेड़ अब सहमे हुए हैं देखकर कुल्हाड़ियाँ
आज तो छाया भी उनकी डर से घबराने लगी

जिस नदी के तीर पर बैठा किए थे हम कभी
उस नदी की हर लहर अब तो सितम ढाने लगी

वादियों में जान का ख़तरा बढ़ा जब से बहुत
अब तो वहाँ पुरवाई भी जाने से कतराने लगी

जिस जगह चौपाल सजती थी अंधेरा है वहाँ
इसलिए कि मौत बनकर रात जो आने लगी

जिस जगह कभी किलकारियों का था हुजूम
आज देखो उस जगह भी मुर्दानी छाने लगी

sivach
January 7th, 2013, 02:03 PM
उठ के कपड़े बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ॥

जब तलक साँस है
भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के कांधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ॥

खून से तर-ब-तर
कर के हर राहगुज़र
थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह
फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ॥

जो मरा क्यों मरा
जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ॥

मंदिरों में भजन
मस्ज़िदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिए
एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ।।

cooljat
January 8th, 2013, 08:14 PM
Another gem from Gulzar's treasure -

..

धुप लगे आकाश पे जब
दिन में चाँद नज़र आया था
डाक से आया एक मुहर लगा
एक पुराना सा तेरा, चिट्ठी का लिफाफा याद आया
चिट्ठी ग़ुम हुये तो अरसा बीत चुका
मुहर लगा, बस मटयाला सा
उसका लिफाफा रखा है !

..



Cheers
Jit

sivach
January 10th, 2013, 04:26 PM
जिंदगी में जब भी, तुम्हारे "साथ" की जरुरत होती है
हरसूं क्यूँ तुम, मुझसे "अगणित" अनंत दूर होती है

तेरे "कोमल" शब्दों की ध्वनी से,
मन "तनाव" रहित हो जाता है
जब तुम "किलकारियां" लगाती हो
किसी बच्चे की तरह मेरे "होंटों" में
अजब "संतुष्टि" भरा "मुस्कान" स्वतः ही आ जाता है

तेरी "दुरी" मुझे इतना क्यूँ सताता है
मन "अधीर" हो जाता है बहुत तडफाता है
हर "लम्हा" तेरे आने का "ख्वाब" ये सजाता है

फिर भी तुम क्यूँ नही आती
क्यूँ मुझे नही अपनाती

शायद "तुम्हे" भी इन्तिज़ार है मेरी "मैय्यत" का
मैं तो "दफ़न" हो जाऊंगा उम्मीदे मेरी "जिन्दा" रहेगी
जब भी किसी "नादाँ" की बात चलेगी
तेरे "लबों" में मेरी "कहानी" जिन्दा रहेगी

SandeepSirohi
January 18th, 2013, 04:58 PM
ताक पर रख दो चिंताए |
खूंटी पै टांग दो परेशानी ||

कुछ नहीं स्थिर दुनिया में |
हर चीज है आनी जानी ||

व्यर्थ में क्यों रोते हो |
रोने से ना कुछ पाओगे ||

हँस लो है जीवन छोटा सा |
वरना रो रो मर जाओगे ||

htomar
February 1st, 2013, 04:39 PM
काजल की कोठरी में मैं
और मेरे साथ मेरा मन |
अनगिनत मछलियां और कुछ मछेरे
चल रहे हैं साथ-साथ साँझ और सबेरे
मछलियों की कोठरी में मैं
और मेरे साथ मेरा मन |
एक ओर पर्वत और एक ओर कूआँ
नजर जिधर जाए उधर धूआँ ही धूआँ
धुएँ के आर-पार मैं
और मेरे साथ मेरा मन |
मूंद लीं आँखें तो नाच उठे कोयल
नाच उठे भौंरे और खिल गए फूल
फूलों की टोकड़ी में मैं
और मेरे साथ मेरा मन |

htomar
February 1st, 2013, 04:40 PM
काँटों का फूल से मिलन
है अजीब ये समीकरण |
बादल के नाम पर आँधियां चलीं
सरसों के खेत में बिजलियाँ गिरीं
आंसुओं से है भरा चमन
है अजीब ये समीकरण |
खाली हैं आज साधुओं की झोलियां
निकल रहीं तिजोरियों से मात्र गोलियां
बच्चों के सर पे ये कफन
है अजीब ये समीकरण |
बरगद के पेड़ पर मेढ़क चढे
सूरज की जगह आज काजल उगे
नाव और नदी का ये चयन
है अजीब ये समीकरण |

htomar
February 2nd, 2013, 10:53 AM
जब नहीं थे राम बुद्ध ईसा मोहम्मद
तब भी थे धरती पर मनुष्य
जंगलों में विचरते आग पानी हवा के आगे झुकते
किसी विश्वास पर ही टिका होता था उनका जीवन

फिर आए अनुयायी
आया एक नया अधिकार युद्ध
घृणा और पाखण्ड के नए रिवाज़ आए
धरती धर्म से बोझिल थी
उसके अगंभीर भार से दबती हुई

सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का
जैसे फूलों को घूरती हिंसक आंख
हमने रंग से नफ़रत पैदा की
सिर्फ़ उन दो रंगों से जो हमारे पास थे
उन्हें पूरक नहीं बना सके दिन और रात की तरह
सभ्यता की बढ़ती रोशनी में
प्रवेश करती रही अंधेरे की लहर
विज्ञान की चमकती सीढ़ियां
आदमी के रक्त की बनावट
हम मस्तिष्क के बारे में पढ़ते रहे
सोच और विचार को अलग करते रहे

मनुष्य ने संदेह किया मनुष्य पर
उसे बदल डाला एक जंतु में
विश्वास की एक नदी जाती थी मनुष्यता के समुद्र तक
उसी में घोलते रहे अपना अविश्वास
अब गंगा की तरह इसे भी साफ़ करना मुश्किल
कब तक बचे रहेंगे हम इस जल से करते हुए तर्पण

htomar
February 2nd, 2013, 10:55 AM
मुझे अच्छी लगती है पुरानी कलम
पुरानी कापी पर उल्टी तरफ़ से लिखना
शायद मेरा दिमाग पुराना है या मैं हूं आदिम
मैं खोजती हूं पुरानापन
तुरत आयी एक पुरानी हंसी मुझे हल्का कर देती है
मुझे अच्छे लगते हैं नए बने हुए पुराने संबंध
पुरानी हंसी और दुख और चप्पलों के फ़ीते
नयी परिभाषाओं की भीड़ में
संभाले जाने चाहिए पुराने संबंध
नदी और जंगल के
रेत और आकाश के
प्यार और प्रकाश के।

system
February 14th, 2013, 09:11 AM
Thread is too big.
Continued here: http://www.jatland.com/forums/showthread.php?35582