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Laxman Burdak
Dr Pema Ram (डॉ पेमाराम), born on 1 March 1945, is a Historian from Jaipur in Rajasthan, India. He is an authority on History and Culture of Rajasthan as well as the Agrarian Movements in Rajasthan. He has written books on history of Rajasthan mainly in Hindi language though a number of books are in English language also. He was Professor and Head of History Department in Banasthali Vidyapith, a deemed University for Girls' Education in Rajasthan, for very long period. He is now retired and settled at Jaipur. He has authored many books and edited number of books. He was born on 1 March 1945 in the family of Shri Raju Ram Chaudhary of Bidiyasar gotra Hindu Jat family of village Jasnagar in Merta tehsil of Nagaur district in Rajasthan, India.
Education
He did M.A. and Ph. D. from University of Rajasthan and joined Banasthali Vidyapith in 1971. Served there as Lecturer from 1971 - 1986. He was promoted as Reader and served in that capacity from 1986 - 2002. He was Professor from 2002 till retirement.
Books published by him
He has published several research books, text books, edited number of books and research papers. Some of his published books are:
* Madhyakalin Rajasthan mein Dharmik Andolan, 1977, Archana Prakashan Ajmer
* Bharatiya Sabhyata avam Sanskrati ka Itihas, 1980, Vandana Prakashan, Alwar, Rajasthan.
* Agrarian Movements in Rajasthan, 1985, By Dr Pema Ram, Publisher - Panchsheel Prakashan, Chaura Rasta Jaipur [1] [2]
* Shekhawati Kisan Andolan Ka Itihas (Hindi:शेखावाटी किसान आन्दोलन का इतिहास), 1990, By Dr Pema Ram, Publisher - Sri Ganesh Sewa Samiti, Jasnagar, District Nagaur - 341518 First Edition 1990, Price Rs. 150/-
* Madhyakalin Bharat, 1991, Classic Publishing House Jaipur
* Rajasthan mein Swatantrata Sangram Ke Amar Purodha - Kumbha Ram Arya, 2004, Government of Rajasthan Publication
* Jaton ki Gauravgatha, 2004, By Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, First Edition 2004, Price Rs. 200/-[3]
* Rajasthan mein Kisan Andolan (Hindi:राजस्थान में किसान आन्दोलन), 2007, By Dr Pema Ram, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, First Edition 2007
Books edited by him
The important books edited By Dr Pema Ram are:
* Rahasthan mein Dharm, Sampraday va Asthaen, 2004, Banasthali Vidyapith Publication
* Some Aspects on Rajasthan History and Culture, 2002, Classic Publishing House Jaipur
Acievements
Research Projects completed by him
* Ph. D. Thesis: "Madhyakalin Rajasthan mein Dharmik Andolan"
* U G C supported short term research project: "Agriculture and Land Revenue System in Rajasthan 1818 - 1947 AD."
* I C H R supported short term research project: "Agrarian System of Rajasthan 1818 - 1947 AD."
* U G C supported major research project: " Freedom Movement in Rajasthan 1857 - 1949 AD."
* I C H R supported major research project: "Agrarian movement in Rajasthan 1913 - 1947 AD."
* U G C supported major research project: "Peasant Movement in Western Rajasthan with Special Reference to Jodhpur and Bikaner State 1920-1055 AD." [4]
Membership of Academic bodies
He is member of following Academic bodies:
* Rajasthan History Congress
* Indian History Congress
* Board of Studies, Faculty of Social Sciences and Academic Council of various Universities
National seminars
He was convener of following national seminars:
* "Rajasthan History and Culture": 15-17 March 2001, Organized by History Department
* "Rligion in Rajasthan - Ancient to Modern": 13-15 February 2003, Organized by History Department
* "Cultural Heritage of Rajasthan": 22-24 January 2005, Organized by History Department
Distinctions and Awards
* 2001 - He was awarded Rs. 175000/- by U G C, New Delhi, on his major research project entitled "Peasant movement in western Rajasthan."
* 1998 - He was awarded financial assistance on the research project "History of Peasant movement in Marwar 1920 - 1955 AD"
* 1989 - He was awarded Rs. 8000/- by Govt of Rajasthan on his research book - "Agrarian Movements in Rajasthan" [5]
* 1987 - He was awarded financial assistance from U G C, New Delhi, on the research project "Freedom Movement in Rajasthan 1857 - 1947 AD"
* 1986 - He was awarded financial support from Indian Council of Historical research, New Delhi, on the research project "Agrarian System of Rajasthan 1818 to 1949 AD".
* 1983 - He was awarded financial assistance from U G C, New Delhi, on the research project "Agrarian Movement in Rajasthan."
* 1979 - 1982 - He was awarded Post-Doctoral fellowship from Indian Council of Historical Research, New Delhi, on the project "Agrarian Movement in Rajasthan."
* 1972 - He was awarded financial assistance from U G C, New Delhi, on the research project "The religious Movement in Medieval Rajasthan."
* 1970 - 1971 - He was awarded Departmental Research Scholarship from University of Rajasthan for Ph. D. work
His contact details
* Address - 67, Mahaveer Nagar - II, Maharani Farm, Durgapura, Jaipur - 302018
* Phone - 0141-2761192, Mob- 9414316002
References
1. ^ Book Reviews : PEMA RAM, Agrarian Movements in Rajasthan, Panchsheel Prakashan
2. ^ http://www.dkpd.com/servlet/dkSubjDi...ubname=History
3. ^ http://www.lib.berkeley.edu/SSEAL/So...a/newacq7.html
4. ^ http://www.banasthali.org/banasthali...5539CDFC9D2479
5. ^ Book Reviews : PEMA RAM, Agrarian Movements in Rajasthan, Panchsheel Prakashan
*************************************
Note - This article is also available at
http://en.wikipedia.org/wiki/Pema_Ram
http://www.jatland.com/home/Pema_Ram
Laxman Burdak
विधायक वीरेन्द्र बेनीवाल इंडियन फॉर्म जिस्ट एवार्ड-२००६ से सम्मानित
लूणकरणसर विधायक वीरेन्द्र बेनीवाल को इंडियन फॉर्म जर्नलिस्ट एवार्ड -२००६ में डॉ. पंजाबराव देशमुख पुरस्कार से गत दिनों दिल्ली में आयोजित एक समारोह में सम्मानित किया गया । कार्यक्रम में पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान राज्यसभा सांसद अनवरा तैमुर, राष्ट्रीय नाटक एकादमी के अध्यक्ष रामनिवास मिर्धा एवं सांसद कृष्णा तीर्थ द्वारा इस पुरस्कार से नवाजा गया।
यह पुरस्कार सम्पूर्ण देश से विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य कर रही प्रतिभाओं में से चयन कर दिया जाता है।
जिला बीकानेर के पिछडे मरूक्षेत्र से प्रतिनिधित्व करने वाले बेनीवाल का राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित होना समाज के लिए गौरव की बात है। ध्यातव्य है कि भूतपूर्व मंत्री स्व. श्री भीमसेन चौधरी के सुपुत्र वीरेन्द्र बेनीवाल को विधानसभा में प्रभावी वकतव्य के कारण राजस्थान पत्रिका द्वारा भी पूर्व में ’’सदन के सितारे‘‘ के रूप में चयनित किया जा चुका है।
*संदर्भ - http://www.jatduniya.com/ अगस्त, ०७ बीकानेर ।
Laxman Burdak
चौधरी मूलचन्द सियाग (1887 - 1978) राजस्थान में नागौर जिले के महान जाट सेवक, किसानों के रक्षक तथा समाज-सेवी महापुरुष थे। आपने अपने काम के साथ ही अपनी समाज-सेवा, ग्राम-उत्थान ओर शिक्षा प्रसार की योजनानुसार गांव-गांव में घूम-घूम कर किसानों के बच्चों को विद्याध्ययन की प्रेरणा दी। आपने मारवाड़ में छात्रावासों की एक श्रंखला खड़ी कर दी | आपने "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" और "मारवाड़ किशान सभा" नामक संस्थाओं की स्थापना की । आपने मारवाड़ जाट इतिहास की रचना करवाई ।
मारवाड़ में किसानों की हालत
जिस समय चौधरी मूलचन्द का जन्म हुआ, उस समय मारवाड में किसानों की हालत बडी दयनीय थी। मारवाड का ८३ प्रतिशत इलाका जागीरदारों के अधिकार में था इन जागीरदारों में छोटे-बडे सभी तरह के जागीदार थे। छोटे जागीरदार के पास एक गांव था तो बडे जागीरदार के पास बारह से पचास तक के गांवो के अधिकारी थें और उन्हें प्रशासन, राजस्व व न्यायिक सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे। ये जागीरदार किसानों से न केवल मनमाना लगान (पैदावार का आधा भग) वसूल करते थे बल्कि विभिन्न नामों से अनेक लागबों व बेगार भी वसूल करते थें किसानों का भूमि पर कोई अधिकार नहीं था और जागीरदार जब चाहे किसान को जोतने के लिए दे देता थां किसान अपने बच्चों के लिए खेतों से पूंख (कच्चे अनाज की बालियां) हेतु दो-चार सीटियां (बालियां) तक नहीं तोड सकता था। जबकि इसके विपरीत जागीरदार के घोडे उन खेतों में खुले चरते और खेती को उजाडते रहते थे और किसान उन्हें खेतों में से नहीं हटा सकते थे। इसके अलावा जागीरदार अपने हासिल (भूराजस्व) की वसूली व देखरेख के लिए एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी जो ‘कण्वारिया‘ कहलाता था, रखता था। यह कणवारिया फसल पकने के दिनों में किसानों की स्त्रियों को खतों से घर लौटते समय तलाशी लेता था या फिर किसानों के घरों की तलाशी लिया करता था कि कोई किसान खेत से सीटियां तोडकर तो नहीं लाया है। यदि नया अनाज घर पर मिल जाता था तो उसे शारीरिक और आर्थिक दण्ड दोनों दिया जाता था।
लगान के अलावा जागीरदारों ने किसान का शोषण करने के लिए अनेक प्रकार की लागें (अन्य घर) लगा रखी थी जो विभिन्न नामों से वसूल की जाती थी, जैसे मलबा लाग, धुंआ लाग आदि-आदि इसके अलावा बैठ-बेगार का बोझ तो किसानों पर जागीरदार की आरे से इतना भारी था कि किसान उसके दबाव से सदैव ही छोडकर जागीरदार की बेगार करने के लिए जाना पडता था। स्वयं किसान को ही नहीं, उनकी स्त्रियों को भी बेगार देनी पडती थी। उनको जागीरदारों के घर के लिए आटा पीसना पडता था। उनके मकानों को लीपना-पोतना पडता था और भी घर के अन्य कार्य जब चाहे तब करने पडते थे। उनका इंकार करने का अधिकार नहीं था और न ही उनमे इतना साहस ही था। इनती सेवा करने पर भी उनको अपमानित किया जाता था। स्त्रियां सोने-चांदी के आभूषण नहीं पहन सकती थी। जागीरदार के गढ के समाने से वे जूते पहनकर नहीं निकल सकती थी। उन्हें अपने जूते उतारकर हाथों में लेने पडते थे। किसान घोडों पर नहीं बैठ सकते थे। उन्हे जागीरदार के सामने खाट पर बैठने का अधिकार नहीं था। वे हथियार लेकर नहीं चल सकते थें किसान के घर में पक्की चीज खुरल एव घट्टी दो ही होती थी। पक्का माकन बना ही नहीं सकते थे। पक्के मकान तो सिर्फ जागीरदार के कोट या महल ही थे। गांव की शोषित आबादी कच्चे मकानों या झोंपडयों में ही रहती थी। किसानों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। जागीरदार लोग उन्हें परम्परागत धंधे करने पर ही बाध्य करते थे। कुल मिलाकर किसान की आर्थिक व सामाजिक स्थिति बहुत दयनीय थी । जी जान से परिश्रम करने के बाद भी किसान दरिद्र ही बना रहता था क्योंकि उसकी कमाई का अधिकांश भाग जागीरदार और उसके कर्मचारियों के घरों में चला जाता था। ऐसी स्थिती में चौधरी मूलचन्द ने मारवाड के किसानों की दशा सुधारने का बीडा उठाया।
चौधरी श्री मूलचन्दजी का जीवन परिचय
चौधरी श्री मूलचन्दजी का जन्म वि.सं. १९४४ (१८८७ई.) पौष कृष्णा ६ को नागौर से लगभग ६ मील उत्तर बालवा नामक एक छोटे-से गांव में चौधरी श्री मोतीरामजी सियाग के घर हुआ था। इनकी माताजी का नाम दुर्गादेवी था। जब ये ९ वर्ष के हुए तब आफ पिताजी ने इन्हें नजदीक के गांव अलाय में जैन यति गुरांसा अमरविजयजी के पास उपासरे में पढने हेतु भेज दिया। उपासरे में भोजन और निवास दोनों सुविधाएं थी। उपासरे के बाहर गांव में भी एक अन्य स्थान पर शिक्षक पुरानी पद्धति से हिन्दी भाषा और गणित के पहाडे व हिसाब करना आदि पढाते थे, मूलचन्दजी उपासरे के अलावा वहां भी पढने जाने लगे। जैन उपासरे की अनुशासित व संयमी दिनचर्या यथा समय पर उठना, शौच जान, उपासरे की सफाई करना, स्नान, भोजन और फिर पढने जाना आदि से मूलचन्दजी में समय का सदुपयोग व परिश्रम करने की आदत विकसित हुई। तीन वर्ष तक यही क्रम चलता रहा जिसेस आपको पढने-लिखने व हिसाब किताब का पूरा ज्ञान हो गया। प्रायः सब प्रकार की हिनदी पुस्तकों को आप पढने और समझने लगे थे। कुछ संस्कृत के लोक भी अर्थ सहित याद कर लिये गये थे। गणित के जटिल प्रश्नों को हल करने की क्षमता भी विकसित हो गयी थी। उपासरे में धर्म-चर्चा व उससे सम्बंधित प्राप्त पुस्तकें, प्रवासी जैन बंधुओं से मिलना व उनसे चर्चा करना आदि से आपका ज्ञान बढता ही गया, बुद्धि में प्रखरता और विचारों में व्यवहारिक पढाई में पारंगत हो जाने के बाद चौधरी मूलचन्दजी अपने अध्यापक व जैन गुरांसा से आर्शीवाद लेकर पास के एक गांव गोगे लाव में बच्चों को पढाने हेतु अध्यापक बनकर चले गये।
अलया में जहां चौधरी साहब विद्यार्थी थे, वहां गोगेलाव में अध्यापक होने के नाते इन्हें अपने व्यवहार में बदलाव लाना पडा। गांव में अब विद्यार्थियों के अलावा गांववासी भी आपका सम्मान व अभिवादन करते थे। आप वहां विद्यार्थियों को हिन्दी व गणित पढाने के साथ व्यवहारिक ज्ञान और सदाचरण की शिक्षा भी देते थे। पढने वाले बच्चों में ज्यादातर महाजनों के बच्चे थे। चौधरी सहाब का इन दिनों ऐसे व्यक्तियों से समफ हुआ। जो अंग्रेजी जानते थे। तब इन्हें भी अपने में अंग्रेजी ज्ञान की कमी महसूस होने लगी और धीरे-धीरे इनमें अंग्रेजी पढने की जिज्ञासा बढने लगी। गोगेलाव में अंग्रेजी पढना संभव नहीं था, क्योंकि एक तो वे स्वयं अध्यापक थे, और दूसरा यहां जो भी अंग्रेजी पढे-लिखे लोग आते थे, अधिक समय नहीं ठहरते थे और छुट्टी पर चले जाते थे। अन्त में अंग्रेजी पढने की इच्छा अधिकाधिक बलवती होने पर ढाई-तीन वर्ष गोगेलाव में रहने के बाद पुनः अलाव लौट आये।
चौधरी मूलचन्दजी अलाव में वापिस गुरांसा के पास जैन उपासरे में रहनें लगे और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने हेतु रेल्वे के बाबू और स्टेशन मास्टर के पास आने जाने लगे और अंग्रेजी पढने लगे। अब चौधरी साहब को उपासरे में भोजन करने से ग्लानि होने लगी तो उन्होंने रेल्वे गार्ड से कोई काम दिलाने की प्रार्थना की। गार्ड इन्हें सूरतगढ ले गया और वहां रेल्वे के पी.डब्ल्यू.आई. के यहां नौकर रखवा दिया। कुछ दिनों तक घर पर कार्य करने के बाद गार्ड ने इन्हें आठ रूपया मासिक पर रेल्वे की नौकरी मे लगा दिया, जहां टंकी में पानी ऊपर चढाने वाली मशीन पर काम करना था। इनके बडे भाई श्री रामकरणजी उस समय कमाने के लिए कानपुर गये हुए थें जब वह वापिस घर आये, चौधरी मूलचन्दजी को भी अपने साथ कानपुर ले गये ताकि ज्यादा कमाया जा सके। परन्तु जब वहां इनके लायक कोई काम नहीं मिला तो आप पुनः सूरतगढ लौट आये। चौधरी साहब अब यहां अस्पताल जाकर कपाउण्डरी का काम सीखने लगे। कुछ दिनों बाद यहीं पर आपका परिचय पोस्ट ऑफिस के संसपेक्टर महोदय से हुआ जिन्होने पोस्ट ऑफिस में मेल-पियोन के पद पर लगा दिया। कुछ दिनों तक काम सीखने के बाद आपको एक महीने में पोस्टमैन बनाकर महाजन (बीकानेर रियासत) स्टेशन भेज दिया। वहां चौधरी साहब डाक बांटने हेतु घर-घर और गांव-गांव घूमने लगे और अनेक व्यक्तियों के संफ मे आने लगें अत्यन्त मनोयोग व प्रसननतापूर्वक काम करने के कारण महाजन के सभी समाज और वर्गों के लोग इनसे बहुत खुश थें इसी बीच इनका तबादला सूरतगढ हो गया। वहां वह पहले भी रह चुके थे। सूरतगढ में आप कई वर्ष तक रहे। इस दौरान अनेक विषयों की पुस्तकों के पठन तथा मनन और विशिषटजनों के सत्संग के साथ पोस्टमैन का कार्य बडी इ्रमानदारी से करते रहें सूरतगढ से फिर आपका तबादला नोखा हो गया, जहां ढाई तीन वर्ष के लगभग रहें अन्त में नोखा से आपकी बदला अपने ही घर नागौर में हो गई।
इस दौरान चौधरी साहब के मन में समाज-सेवा का भव पैदा हो गया था और वह इस दिशा में कर्या करने लग गये थे। नागौर में आपको देहातो में डाक वितरण का कार्य सौंपा गया था। आप अपने काम के साथ् ही अपनी समाज-सेवा, ग्राम-उत्थान ओर शिक्षा प्रसार की योजनानुसार गांव-गांव में घूम-घूम कर किसानों के बच्चों को विद्याध्ययन की प्रेरणा देने लगे। इससे जागीरदारों को बडी तकलीफ होने लगी और उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तमाल कर इनका स्थनान्तरण गांवो से नागौर शहर की ड्यूटी पर करवा दियां फिर भी आप अपने मिशन में लगे रहे और जब समाज-सेवा के कार्य भार ज्यादा बढने लगा तो आपने १९३५ ई. में नोकरी से त्यागपत्र देकर पूरे जोश के साथ कृषक समाज के उत्थान के कार्य में जुट गये और अनेक कष्टों को सहते हुए अंतिम सांस तक इसी कार्य में लगे रहे।
शिक्षा के माध्यम से जन सेवा
चौधरी मूलचन्दजी जी के मन में शिक्षा के माध्यम से जन सेवा की प्रेरणा जाट स्कूल संगरिया से मिली । आपके प्रयास से ४ अप्रेल १९२७ को चौधरी गुल्लारामजी के मकान में "जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर" की स्थापना की । चौधरी मूलचन्दजी की इच्छा नागौर में छात्रावास खोलने की थी. आपने अपने घर पर कुछ छात्रों को पढ़ने के लिए रखा. बाद में बकता सागर तालाब पर २१ अगस्त १९३० को नए छात्रावास की नींव डाली । इस छात्रावास के खर्चे की पूरी जिम्मेदारी चौधरी मूलचन्दजी पर थी ।
आपने जाट नेताओं के सहयोग से अनेक छात्रावास खुलवाए । बाडमेर में १९३४ में चौधरी रामदानजी डऊकिया की मदद से छात्रावास की आधरसिला राखी । १९३५ में मेड़ता छात्रवास खोला । आपने जाट नेताओं के सहयोग से जो छात्रावास खोले उनमें प्रमुख हैं:- सूबेदार पन्नारामजी धीन्गासरा व किसनाराम जी रोज छोटी खाटू के सहयोग से डीडवाना में, इश्वर रामजी महाराजपुरा के सहयोग से मारोठ में, भींयाराम जी सीहाग के सहयोग से परबतसर में, हेतरामजी के सहयोग से खींवसर में छात्रावास खुलवाए । इन छात्रावासों के अलावा पीपाड़, कुचेरा, लाडनुं, रोल, जायल, अलाय, बीलाडा, रतकुडि़या, आदि स्थानों पर भी छात्रावासों की एक श्रंखला खड़ी कर दी । इस शिक्षा प्रचार में मारवाड़ के जाटों ने अपने पैरों पर खड़ा होने में राजस्थान के तमाम जाटों को पीछे छोड़ दिया ।
मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा के संस्थापक
सन् १९३७ में चटालिया गांव के जागीरदार ने जाटों की ८ ढाणियों पर हमला कर लूटा और अमानुषिक व्यवहार किया । चौधरी साहब को इससे बड़ी पीड़ा हुई और उन्होंने तय किया की जाटों की रक्षा तथा उनकी आवाज बुलंद करने के लिए एक प्रभावसाली संगठन आवश्यक है । अतः जोधपुर राज्य के किसानों के हित के लिए २२ अगस्त १९३८ को तेजा दशमी के दिन परबतसर के पशु मेले के अवसर पर "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" नामक संस्था की स्थापना की । चौधरी मूलचंद इस सभा के प्रधानमंत्री बने और गुल्लाराम जी रतकुडिया इसके अध्यक्ष नियुक्त हुए ।
Last edited by lrburdak; November 22nd, 2007 at 10:17 AM.
Laxman Burdak
मारवाड़ किसान सभा की स्थापना
किसानों की प्रगती को देखकर मारवाड़ के जागीरदार बोखला गए । उन्होंने किसानों का शोषण बढ़ा दिया और उनके हमले भी तेज हो गए । जाट नेता अब यह सोचने को मजबूर हुए की उनका एक राजनैतिक संगठन होना चाहिए । सब किसान नेता २२ जून १९४१ को जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर में इकट्ठे हुए जिसमें तय किया गया कि २७ जून १९४१ को सुमेर स्कूल जोधपुर में मारवाड़ के किसानों की एक सभा बुलाई जाए और उसमें एक संगठन बनाया जाए । तदानुसार उस दिनांक को मारवाड़ किसान सभा की स्थापना की घोषणा की गयी और मंगल सिंह कच्छवाहा को अध्यक्ष तथा बालकिशन को मंत्री नियुक्त किया गया.
मारवाड़ किशान सभा का प्रथम अधिवेशन २७-२८ जून १९४१ को जोधपुर में आयोजित किया गया । मारवाड़ किसान सभा ने अनेक बुलेटिन जारी कर अत्याधिक लगान तथा लागबाग समाप्त करने की मांग की । मारवाड़ किसान सभा का दूसरा अधिवेशन २५-२६ अप्रेल १९४३ को सर छोटू राम की अध्यक्षता में जोधपुर में आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में जोधपर के महाराजा भी उपस्थित हुए । वास्तव में यह सम्मेलन मारवाड़ के किसान जागृति के इतिहास में एक एतिहासिक घटना थी । इस अधिवेशन में किसान सभा द्वारा निवेदन करने पर जोधपुर महाराज ने मारवाड़ के जागीरी क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्त शु्रू करवाने की घोषणा की । मारवाड़ किसान सभा जाटों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी ।
मारवाड़ जाट इतिहास के रचयिता
१९३४ में सीकर में आयोजित जाट प्रजापति महायज्ञ के अवसर पर ठाकुर देशराज ने 'जाट इतिहास' प्रकाशित कराया, तब से ही चौधरी मूलचन्दजी के मन में लगन लगी कि मारवाड़ के जाटों का भी विस्तृत एवं प्रमाणिक रूप से इतिहास लिखवाया जाए क्योंकि 'जाट इतिहास' में मारवाड़ के जाटों के बारे में बहुत कम लिखा है । तभी से आप ठाकुर देशराज जी से बार-बार आग्रह करते रहे । आख़िर में आपका यह प्रयत्न सफल रहा और ठाकुर देशराज जी ने १९४३ से १९५३ तक मारवाड़ की यात्राएं की, उनके साथ आप भी रहे, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गांवों व शहरों में घूमे, शोध सामग्री एकत्रित की, खर्चे का प्रबंध किया और १९५४ में "मारवाड़ का जाट इतिहास" नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराने में सफल रहे । मारवाड़ के जाटों के लिए चौधरी मूलचंदजी की यह अमूल्य देन थी ।
जाट जाति के गौरव को प्रकट करने वाले साहित्य के प्रकशान व प्रचार में भी चौधरी मूलचंदजी की बड़ी रूचि थी । ठाकुर देशराज जी द्वारा लिखित 'जाट इतिहास' के प्रकाशन व प्रचार में आपने बहुत योगदान दिया एवं जगह-जगह स्वयं ने जाकर इसे बेचा । 'जाट वीर तेजा भजनावाली' तथा 'वीर भक्तांगना रानाबाई' पुस्तकों का लेखन व प्रकाशन भी आपने ही करवाया था । आपने जाट जाति के सम्बन्ध में उस समय तक जितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ था, उसे मंगवाकर संग्रह किया तथा उसके लिए नागौर के छात्रावास में एक पुस्तकालय स्थापित किया । अब यह पुस्तकालय आपके नाम से "श्री चौधरी मूलचंदजी सीहाग स्मृति जाट समाज पुस्तकालय" किशान केसरी श्री बल्देवराम मिर्धा स्मारक ट्रस्ट धर्मशाला नागौर में स्थित है ।
चौधरी मूलचन्द जी का मूल्यांकन
चौधरी मूलचन्द जी सीहाग का मूल्यांकन करें तो वे अपने आप में एक जीवित संस्था थे, उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं तो केवल उनकी छाया मात्र थी । वे भारत के अन्य प्रान्तों में 'राजस्थान के महारथी' के नाम से प्रसिद्ध थे । उन्होंने अपना पूरा जीवन जातीय सेवा व मारवाड़ के किसानों की दशा सुधारने व उन्हें ऊंचा उठाने में लगा दिया और जीवन के अन्तिम समय तक उसमें लगे रहे । उनकी सेवाओं के लिए १७ जनवरी १९७५ को विशाल समारोह में मारवाड़ के कृषक समाज की और से आपको एक अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया जिसमें आपको "किशान जागृति के अग्रदूत" और 'कर्मठ समाज सुधारक' के रूप में याद किया
चौधरी बलदेव राम जी मिर्धा तो यहाँ तक कहा करते थे की मुझे जनसेवा के कार्य को करने में यदि किसी एक व्यक्ति ने प्रेरणा दी तो वह चौधरी मूलचन्द जी सीहाग थे । ऐसे महान जाट सेवक, किसानों के रक्षक तथा समाज-सेवी चौधरी मूलचन्द जी सीहाग का देहावसान पौष शुक्ला १३ संवत २०३४ तदनुसार शनिवार २१ जनवरी १९७८ को हो गया.
संदर्भ
*
* Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933
*जाट दुनिया
*http://www.jatland.com/home/%E0%A4%A...A4%BE%E0%A4%97
Laxman Burdak
Can somebody do Translation to English of the Hindi article on Chaudhary Mool Chand Sihag? It is also requested to post some photos about his life and activities.
Regards,
Laxman Burdak
yes
sir
I
will
translate
it
Last edited by ravileo; November 22nd, 2007 at 05:31 PM. Reason: uncomplete
Trust one who has tried
Friends we can also add the name Of Mr. Kusal Pal Singh of DLF Group who is biggest real estate developer in the world.
We have his name and details on Jatland Wiki. See the link
http://www.jatland.com/home/Kushal_Pal_Singh_Tewatia
Regards,
Laxman Burdak
चौधरी भींया राम सिहाग (1891-1954) का नाम मारवाड़ की दशा सुधारने वाले महानुभावों में अग्रणी है. आपका जन्म भादवा सुदी ११ विक्रम संवत १९४८ तदनुसार १४ सितम्बर १८९१ को नागौर जिले के परबतसर नामक शहर में हुआ था. आपके पिताजी का नाम चौधरी जेतारामजी सियाग और माता का नाम श्रीमती कंवरी देवी था. जब वे १८ वर्ष के थे तब इनका विवाह खोखर गाँव के चौधरी श्री पन्नाराम जी मून्डवाड़िया की पुत्री झम्कू से हो गया. साधारण पढ़ने-लिखने के बाद आप काम-धंधे की तलाश में जोधपुर चले गए और वहाँ हमीरसिंह मेड़तिया की सिफारिश पर जोधपुर मिलिट्री के सुमेर केमल कोर में साइकल सवार के पद पर १४ फरवरी १९१८ को नियुक्त हुए. उस समय जोधपुर में काफी जाट अधिकारी थे, वहां आप उनके सम्पर्क में आए जिससे आपकी भावनाएँ उच्च कोटी की बनी और धीरे धीरे आपका मन समाज सेवा की और बढ़ा.
शिक्षा प्रचार
अक्टूबर १९२५ में कार्तिक पूर्णिमा को अखिल भारतीय जाट महासभा का एक अधिवेसन पुष्कर में हुआ था उसमें मारवाड़ के जाटों में जाने वालों में चौधरी गुल्लारम जी, चौधरी मूलचंद जी सियाग, मास्टर धारासिंह, चौधरी रामदान जी, आदि के साथ आप भी पधारे थे. इन सभी ने पुष्कर में अन्य जाटों को देखा तो अपनी दशा सुधारने का हौसला लेकर वापिस लौटे. उनका विचार बना की मारवाड़ में जाटों के पिछड़ने का कारण केवल शिक्षा का आभाव है.
मारवाड़ में किसानों की हालत
जिस समय भींया राम सियाग का जन्म हुआ, उस समय मारवाड में किसानों की हालत बडी दयनीय थी। मारवाड़ का ८३ प्रतिशत इलाका जागीरदारों के अधिकार में था इन जागीरदारों में छोटे-बडे सभी तरह के जागीदार थे। छोटे जागीरदार के पास एक गांव था तो बडे जागीरदार के पास बारह से पचास तक के गांवो के अधिकारी थें और उन्हें प्रशासन, राजस्व व न्यायिक सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे। ये जागीरदार किसानों से न केवल मनमाना लगान (पैदावार का आधा भग) वसूल करते थे बल्कि विभिन्न नामों से अनेक लागबों व बेगार भी वसूल करते थें किसानों का भूमि पर कोई अधिकार नहीं था और जागीरदार जब चाहे किसान को जोतने के लिए दे देता थां किसान अपने बच्चों के लिए खेतों से पूंख (कच्चे अनाज की बालियां) हेतु दो-चार सीटियां (बालियां) तक नहीं तोड सकता था। जबकि इसके विपरीत जागीरदार के घोडे उन खेतों में खुले चरते और खेती को उजाडते रहते थे और किसान उन्हें खेतों में से नहीं हटा सकते थे। इसके अलावा जागीरदार अपने हासिल (भूराजस्व) की वसूली व देखरेख के लिए एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी जो ‘कण्वारिया‘ कहलाता था, रखता था। यह कणवारिया फसल पकने के दिनों में किसानों की स्त्रियों को खतों से घर लौटते समय तलाशी लेता था या फिर किसानों के घरों की तलाशी लिया करता था कि कोई किसान खेत से सीटियां तोडकर तो नहीं लाया है। यदि नया अनाज घर पर मिल जाता था तो उसे शारीरिक और आर्थिक दण्ड दोनों दिया जाता था।
लगान के अलावा जागीरदारों ने किसान का शोषण करने के लिए अनेक प्रकार की लागें (अन्य घर) लगा रखी थी जो विभिन्न नामों से वसूल की जाती थी, जैसे मलबा लाग, धुंआ लाग आदि-आदि इसके अलावा बैठ-बेगार का बोझ तो किसानों पर जागीरदार की आरे से इतना भारी था कि किसान उसके दबाव से सदैव ही छोडकर जागीरदार की बेगार करने के लिए जाना पडता था। स्वयं किसान को ही नहीं, उनकी स्त्रियों को भी बेगार देनी पडती थी। उनको जागीरदारों के घर के लिए आटा पीसना पडता था। उनके मकानों को लीपना-पोतना पडता था और भी घर के अन्य कार्य जब चाहे तब करने पडते थे। उनका इंकार करने का अधिकार नहीं था और न ही उनमे इतना साहस ही था। इनती सेवा करने पर भी उनको अपमानित किया जाता था। स्त्रियां सोने-चांदी के आभूषण नहीं पहन सकती थी। जागीरदार के गढ के समाने से वे जूते पहनकर नहीं निकल सकती थी। उन्हें अपने जूते उतारकर हाथों में लेने पडते थे। किसान घोडों पर नहीं बैठ सकते थे। उन्हे जागीरदार के सामने खाट पर बैठने का अधिकार नहीं था। वे हथियार लेकर नहीं चल सकते थें किसान के घर में पक्की चीज खुरल एव घट्टी दो ही होती थी। पक्का माकन बना ही नहीं सकते थे। पक्के मकान तो सिर्फ जागीरदार के कोट या महल ही थे। गांव की शोषित आबादी कच्चे मकानों या झोंपडयों में ही रहती थी। किसानों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। जागीरदार लोग उन्हें परम्परागत धंधे करने पर ही बाध्य करते थे। कुल मिलाकर किसान की आर्थिक व सामाजिक स्थिति बहुत दयनीय थी । जी जान से परिश्रम करने के बाद भी किसान दरिद्र ही बना रहता था क्योंकि उसकी कमाई का अधिकांश भाग जागीरदार और उसके कर्मचारियों के घरों में चला जाता था। ऐसी स्थिती में चौधरी भींया राम सिहाग ने मारवाड के किसानों की दशा सुधारने का बीडा उठाया।
"जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर" की स्थापना
आपके प्रयास से ४ अप्रेल १९२७ को चौधरी गुल्लारामजी के मकान में "जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर" की स्थापना की । आप इसके उपमंत्री चुने गए. आपने शुरू से ही इस संस्था के लिए बड़ा परिश्रम किया. इसकी सहयते के लिए आपने एक दिन में ४५-४५ मील की यात्रा साईकिल पर कच्चे रास्तों से संस्था के स्थापित होते समय की. शुरू में संस्था की सहायता के लिए धन उगाकर लाने वालों में आपका ही दूसरा स्थान था. आप जीवन पयंत इस संस्था की सहायता के लिए जुटे रहे.
१९३० तक जब जोधपुर के छात्रावास का काम ठीक ढंग से जम गया और जोधपुर सरकार से अनुदान मिलने लग गया तब चौधरी मूलचंद जी, बल्देवराम जी मिर्धा, भींया राम सियाग, गंगाराम जी खिलेरी, धारासिंह एवं अन्य स्थानिय लोगों के सहयोग से बकता सागर तालाब पर २१ अगस्त १९३० को नए छात्रावास की नींव नागौर में डाली ।
मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा की स्थापना
सन् १९३७ में चटालिया गांव के जागीरदार ने जाटों की ८ ढाणियों पर हमला कर लूटा और अमानुषिक व्यवहार किया । चौधरी साहब को इससे बड़ी पीड़ा हुई और उन्होंने तय किया कि जाटों की रक्षा तथा उनकी आवाज बुलंद करने के लिए एक प्रभावशाली संगठन आवश्यक है । अतः जोधपुर राज्य के किसानों के हित के लिए २२ अगस्त १९३८ को तेजा दशमी के दिन परबतसर के पशु मेले के अवसर पर "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" नामक संस्था की स्थापना की । चौधरी मूलचंद इस सभा के प्रधानमंत्री बने, गुल्लाराम जी रतकुडिया इसके अध्यक्ष नियुक्त हुए और भींया राम सिहाग कोषाध्यक्ष चुने गए । इस सभा का उद्देश्य जहाँ किसानों में फ़ैली कुरीतियों को मिटाना था, वहीं जागीरदारों के अत्याचारों से किसानों की रक्षा करना भी था.
मारवाड़ किसान सभा की स्थापना
किसानों की प्रगती को देखकर मारवाड़ के जागीरदार बोखला गए । उन्होंने किसानों का शोषण बढ़ा दिया और उनके हमले भी तेज हो गए । जाट नेता अब यह सोचने को मजबूर हुए की उनका एक राजनैतिक संगठन होना चाहिए । सब किसान नेता २२ जून १९४१ को जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर में इकट्ठे हुए जिसमें तय किया गया कि २७ जून १९४१ को सुमेर स्कूल जोधपुर में मारवाड़ के किसानों की एक सभा बुलाई जाए और उसमें एक संगठन बनाया जाए । तदानुसार उस दिनांक को मारवाड़ किसान सभा की स्थापना की घोषणा की गयी और मंगल सिंह कच्छवाहा को अध्यक्ष तथा बालकिशन को मंत्री नियुक्त किया गया.
मारवाड़ किशान सभा का प्रथम अधिवेशन २७-२८ जून १९४१ को जोधपुर में आयोजित किया गया । मारवाड़ किसान सभा ने अनेक बुलेटिन जारी कर अत्याधिक लगान तथा लागबाग समाप्त करने की मांग की । मारवाड़ किसान सभा का दूसरा अधिवेशन २५-२६ अप्रेल १९४३ को सर छोटू राम की अध्यक्षता में जोधपुर में आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में जोधपर के महाराजा भी उपस्थित हुए । वास्तव में यह सम्मेलन मारवाड़ के किसान जागृति के इतिहास में एक एतिहासिक घटना थी । इस अधिवेशन में किसान सभा द्वारा निवेदन करने पर जोधपुर महाराज ने मारवाड़ के जागीरी क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्त शु्रू करवाने की घोषणा की । मारवाड़ किसान सभा जाटों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी । जब मारवाड़ में किसान सभा जागीरों में भूमि बंदोबस्त शुरू कराने में सफल हुई और परबतसर परगने में सेटलमेंट शुरू हो गया तो भींया राम सिहाग ने ईसके लाभों का गाँवों में जाकर प्रचार किया तथा सेटलमेंट की जानकारी किसानों को देकर सही रिकार्ड तैयार करवाने तथा किसानों को पट्टे वितरित कराने में पूरा सहयोग देकर किसानों की बड़ी सेवा की. पुराने किसान गाँवों में आज भी इनका खूब गुणगान करते हैं.
वीर तेजाजी जाट बोर्डिंग हाउस परबतसर के संस्थापक
चौधरी भींया राम सिहाग इस समय महकमा ख़ास में साइकल सवार के पद पर थे. आपकी नौकरी का समय अब पूरा होने के नजदीक था. आपने नौकरी छोड़ने से पहले ही रात-दिन कठोर परिश्रम करके अपने गाँव परबतसर में किसानों के बच्चों को पढाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए एक नई संस्था 'श्री वीर तेजाजी जाट बोर्डिंग हाउस परबतसर' की स्थापना ५ मई १९४५ में की. शुरू में बच्चों को आपने अपने घर में रखा और बाद में चन्दा करके १ मई १९४६ को व्यास धनराजजी पन्नालालजी शंकरलालजी का एक मकान ८५०० रूपये में खरीद कर छात्रावास को उसमें स्थानांतरित कर दिया. आप १४ सितम्बर १९४६ को ५५ वर्ष पूरे होने पर सेवानिवृत होने वाले थे और जोधपुर सरकार आपकी सेवाओं से खुश होकर एक वर्ष की सेवा-वृधी देना चाहती थी, परन्तु आपने स्वीकार नहीं की और ३० सितम्बर १९४६ को सेवानिवृत हुए.
स्वर्गवास
समाज व किसानों की सेवा करते हुए अक्टूबर १९५४ में आपका स्वर्गवास हो गया.
लेखक - लक्ष्मण बुरडक
संदर्भ - Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933
* http://www.jatland.com/home/Bhinya_Ram_Siyag
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Laxman Burdak
Ranabai (रानाबाई) (1504-1570) was a Jat warrior girl and a Hindu mystical poetess whose compositions are popular throughout Marwar region of Rajasthan, India. She is known as "Second Mira of Rajasthan". She was a disciple of sant Chatur Das also known as Khojiji. Ranabai composed many poems (padas) in Rajasthani Language. [1]
Birth
Ranabai was born in the family of Chaudhari Jalam Singh of village Harnawa in Parbatsar pargana of Marwar. [2] Jalam Singh was a Hindu Jat chieftain of Ghana gotra. [3] Sagar Mal Sharma in his book 'Rajasthan Ke Sant' has mentioned that her father was Jalam Jat. [4] But as per Dr Pema Ram she was of Dhoon gotra Jat vansha. [5] According to Dr Pema Ram[6] Ranabai was born on vaishakh shukla tritiya somwar samvat 1561 (1504 AD). This is also clear from a doha by Birdhichand, which reads as under in Rajasthani Language:
पन्द्रह सौ इकसठ प्रकट, आखा तीज त्यौहार
जहि दिन राना जन्म हो, घर-घर मंगलाचार
According to Dr Pema Ram [7] Ranabai's father was Ram Gopal and Jalam Singh was his grandfather. This is also clear from a doha by Birdhi Chand, which reads as under in Rajasthani Language:
जाट उजागर धून जंग, नामी जालम जाट ।
बस्ती रचक ओ दौ विगत, गण हरनावो ग्राम ।।
जालम सुत रामो सुजन, जा का राम गोपाल ।
उनका पुत्र भुवन ओरू, बाई बुद्धि विशाल ।। [8]
According to Karnisharan Charan of village Indokli also, as mentioned in 'Bā Rānā Jas Bāīsī' (बा राना जस बाईसी), Ram Gopal was father of Ranabai:
पन्द्रह सौ इकसठ प्रत्यक्ष, तीज अक्षय त्यौहार ।
पिता राम गोपाल घर, राना को अवतार ।।[9]
Chandra Prakash Dudi in his book 'Shri Ranabai Itihas' writes that Ranabai's father was Ram Gopal. [10]
Her family
Jalam Singh, grandfather of Ranabai, had two sons namely, Ramoji (elder) and Ram Gopal (younger). Ram Gopal was married to Gangabai of Garhwal Jat Gotra. He had one son - Buwanji and three daughters namely Dhaanibai, Ranabai and Dhapubai. Thus Ranabai was the daughter of Ram Gopal and his wife Gangabai. [11]
Jalam Singh was grandfather of Ranabai and was a powerful sardar of about twenty villages around Harnawa. He was under Bidiyasar Chaudhary of Khinyala. Jalam Sing used to collect tax (lagan) from farmers and deposited with Chaudhary of Khinyala, who in turn used to send the taxes to Delhi Badshah.[12]
Ranabai's father Ram Gopal, being younger, was not that popular. He was not educated and so was Ranabai.
Mystical powers
Ranabai after initiation by his guru Chaturdasji Maharaj, also known as Khojiji, completely devoted herself to the bhakti. When her parents became worried about her developments in spiritual matters, she tried to find a place where no body disturbs her in devotion of god. One day she found such place in a jungle behind her house in a cave, locally known as bhanwra. Without telling any body she went inside the cave and completely engrossed herself in devotion. She remained for about 9-10 months in this cave without any food and water. People believe that god himself provided water and food to her during this period. Her parents searched her every where and at last left the hope of finding her thinking that she might have died. At last when people found her in the bhanwra, they requested to come out before people. After asceticism and concentrating on meditation Ranabai attained Enlightenment. Her fame spread all around and people started coming to her for getting ashirvad. She attained the status of a devi. [13] [14]
Story of her bravery
A subedar of Badsah Akbar heard about the fame of unparalleled beauty of Ranabai and her devotion. Once he was stationed near Gechholāv pond at distance of 6 km from village Harnawa with a force of 500 horse-riders. He was a man of bad conduct. One day Jalam Singh was returning from Khinyala after paying tax, when the subedar invited Jalam Singh with a bad intention and pressurized him to marry Ranabai with him. Jalam Singh refused his offer and abused him. The muslim subedar arrested Jalam Singh and attacked Harnawa. When Ranabai learnt that muslim subedar had attacked Harnawa with a bad intention to marry her she took sword in her hands and attacked the muslim soldiers like a tigress. She attacked the muslim subedar and chopped his head off. She also killed many of the soldiers. Looking to her bravery the rest of soldiers ran away. She thus got freed his grandfather Jalam Singh. The story of the bravery of Ranabai spread in the entire Marwar region. [15] [16]
Follower of the Bhakti tradition
Ranabai was a brahmcharini (observer of celebacy), a strong devotee of God Gopinath and follower of the Bhakti tradition. The tendency of Ranabai of bhajan-pujan since childhood had worried her father. Her parents started searching a suitable boy for marring with her but she refused and said she had selected god as her husband. When her father persuaded for marriage she replied in Rajasthan as under:
राना कहे राम वर मेरा, सतगुरु मेट्या सब उलझेरा ।
अमर सुहाग अमर वर पाया, तेज पुंज की उनकी काया ।। [17][18]
Ranabai had visited the pilgrimage of Mathura, Vrindavana with Nimbarkacharya Parsuramdev of Salemabad. She is said to have apparently seen Krishna at Vrindavan. She requested god Gopinath to come to her marudhardesh. It is believed that Gopinath accepted her requests and wished to go in the form of sculpture. Ranabai brought sculptures of Gopinath along with Radha and established them in temple at Harnawa. [19] One of Ranabai's pada mentions as under in Rajasthani:
राना की अरदास नाथ थासूं, राना री अरदास ।
जनम मरण री फेरी मिट गयी, पायो परम परकास ।
बिन्दरावन बंशीबत जमना, भलो करायो बास ।
उछव नित नया ही बिरज में, रमै साँवरो रास ।
म्हारे संगडे़ मुरधर चालो, पुरवो म्हारी आस ।
बिनवै 'राना' सतगुरु खोजी, परसराम परकास ।। [20]
ओ महारा मनड़े रा ठाकुर, गोपीनाथ दयाल ।
ओ महारा कुञ्ज बिहारी, मो संग मुरधर चहल । [21]
मुरधर देस सुवावणों रे, आवड़ ज्यासी लाल ।
आतो जातो रही भला ही, एकर तो तूं चाल ।
बिन्दरावन रो पंथ बतायो, परसा करी निहाल ।
'राना' सतगुरु खोजी शरणे, ले आई गोपाल ।। [22]
Thus Ranabai brought Gopinath and Radha to Harnawa. She always remained busy in worshiping them. She has composed many poems (padas) for the god Gopinath. She spent most of her time in prayer and worship of Gopinath i.e. Krishna. She left behind a legacy of many soulful and prayerful songs, which are still sung in Marwar region in India today. She is regarded as a saint in the tradition of the Bhakti Movement. The 16th century Bhakti Movement showed the path to salvation by devotion. She is known as second Mira of Rajasthan. [23]
Ranabai's poem
Ranabai's poem is traditionally called a pada, a term used by the 14th century preachers for a small spiritual song. This is usually composed in simple rhythms and carries a refrain within itself. Her collection of songs is called the Padavali. The typicality of Indian love poetry of those days was used by Ranabai but as an instrument to express her deepest emotions felt for her ishta-devata Gopinath. Her typical medium of singing was Rajasthani.
Laxman Burdak
Samadhi of Ranabai
Ranabai took a live samadhi at village Harnawa on falgun shukla trayodashi samvat 1627 (1570 AD). Birdhi Chand has mentioned in one doha about her taking of samadhi:
सौला सौ विक्रम सही, सताईस शुभ साल ।
ली समाधी राना समझ, जग झूठा जंजाल ।।
Similarly Karnisharan Charan also mentions in a doha about Ranabai leaving this world as under:
सौला सौ सताईस में, फागन तेरस सुदी स्याम ।
बा राना बैकुंठ में, रमिया ज्योति राम ।।
Ranabai's brother Bhuwanji built a kachchi samadhi after she left the world. The samadhi is still present near the temple of Gopinath in Harnawa. The worship of samadhi and the Gopinath temple is done traditionally by the descendants of her family.
On the samadhi site at Harnawa village there is an annual grand fair organized every year on the Hindu calender date bhadva sudi teras, when devotees come from far off places. There is a grand dharamshala near the samadhi site in Harnawa for stay arrangements of the devotees.
See also
The article is also available at Jatland Wiki at URL -
* http://www.jatland.com/home/Ranabai
* http://www.jatland.com/home/Ranabai Ke Pad रानाबाई के पद
References
1. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 40-41
2. ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 1992 (pp – 610)
3. ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 1992 (pp – 610)
4. ↑ Sagar Mal Sharma: 'Rajasthan Ke Sant', Part-1, Chirawa, 1997, p. 193
5. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 39
6. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 33
7. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
8. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
9. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
10. ↑ Chandra Prakash Dudi: 'Shri Ranabai Itihas', Jaipur, 1999, p. 3
11. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
12. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
13. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
14. ↑ Sagar Mal Sharma:Rajasthan Ke Sant, Part-1, p. 194
15. ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 1992 (pp – 610)
16. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 36
17. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, pp. 37
18. ↑ Sukhsaran: Ranabai Ki Parchi, pada 10
19. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, pp. 36-37
20. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, pp. 37
21. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, pp. 37
22. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, pp. 37
23. ↑ Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, pp. 40-41
Laxman Burdak
Ranabai (रानाबाई) (1504-1570) was a Jat warrior girl and a Hindu mystical poetess whose compositions are popular throughout Marwar region of Rajasthan, India. She is known as 'Second Mira of Rajasthan". She was a disciple of sant Chatur Das also known as Khojiji. Ranabai composed many poems (padas) in Rajasthani Language. [1] Ranabai's poem is traditionally called a pada, a term used by the 14th century preachers for a small spiritual song. This is usually composed in simple rhythms and carries a refrain within itself. Her collection of songs is called the Padavali. The typicality of Indian love poetry of those days was used by Ranabai but as an instrument to express her deepest emotions felt for her Gurudev Khojiji and ishta-devata Gopinath. Her typical medium of singing was Rajasthani. Some of the padas by Ranabai are produced below.
राग - भूपाली
वारी वारी वारी वारी वारी वारी म्हारा परम गुरूजी ।
आज म्हारो जनम सफल भयो , मैं गुरुदेवजी न देख्या । टेक ।
भाग हमारा हे सखी, गुरुदेवजी पधारया ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, ने ये, म्हारा दूर निवारया ।।1।।
सोव्हन कलश सामेलसा ये, मोतीड़ा बधास्यां ।
पग मंद पधरावस्यां ये, मिल मंगल गास्यां ।।2।।
बंदन वार घलावस्यां ये, मोत्यां चौक पुरावस्यां ।
पर दिखानां परनाम स्यूं ये, चरनां शीश निवास्यां ।।3।।
ढोल्यो रतन जड़ावरो ये, रेशम गिदरो बिछावस्यां ।
सतगुरु ऊंचा बिराजसी ये, दूधा चरण पखास्यां ।।4।।
भोजन बहुत परकार का ये, कंचन थाल परोसां ।
सतगुरु जीमे आंगणे ये, पंखा बाय ढुलास्यां ।।5।।
चरण खोल चिरणामृत ये, सतगुरुजी का लेस्यां ।
तन मन री हेली बातड़ली ये, म्हारा गुरूजी ने कह्स्यां ।।6।।
आज सुफल म्हारा नेणज ये, गुरुदेवजी ने निरखूं ।
कान सुफल सुन बेणज ये, दूरी नहीं सरकूं ।।7।।
आज म्हारे आनंद बधावणा ये, बायां मन भाया ।
'राना' रे घरां बधावणा ये, गुरु खोजीजी आया ।।8।।
*************************
Note:- Members may read more poems of Ranabai at Jatland Wiki at
http://www.jatland.com/w/index.php?title=Ranabai_Ke_Pad
Laxman Burdak
EK JAT JAT
DO JAT MAUJ
TEEN JAT COMPANY
CHAAR JAT FAUJ
JAI JAT, JAI HIND
We have this content about Dr. N.P.Singh Verma ji on Jatland Wiki as under
http://www.jatland.com/home/Dr_N.P.Singh_Verma
Please add more info and expand it.
Regards,
Laxman Burdak
I have attempted the English translation of this article and have put it on the relevant wiki page :
http://www.jatland.com/home/Mool_Chand_Siyag
Please make corrections, if any, into the English spellings of names of villages and places of Marwar region, with which I am not quite familiar.
Does somebody have a photo of Ch. Mool Chand Siyag? It can be put on the above wiki page.
.
Last edited by dndeswal; December 16th, 2007 at 08:44 PM.
तमसो मा ज्योतिर्गमय
dear Sumit Chautala saab and his family is not so corrupt but afew jats like u who advt this much . They have not taken a singal rupee in naukris .Whatever they earn is only through property. They use only buisnessman not poor farmers. in naukris saab se jayada jat lagaye hai . this is the propaganda of these bhamans and other non jats and the bhole jats like u support them. Bajanlal is the most corrupt man all the non jats are his followers. Why they dont oppose him why Ch Omprakash. in bhramano ko dukh hai ki sab akele kha gaye unke haath kuch nahi aaya or hum unki ha me ha mila rahe hai are bahi hamra ek admi to majbut hua bhai plz taarif nahi to buraai to mat karo