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Thread: AAK – The Magical Medicine

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  1. #1

    AAK – The Magical Medicine

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    AAK – The Magical Medicine

    I have earlier presented 3 threads in this forum on three wonder trees (Neem, Peepal and Badd) which have high medicinal value in Ayurvedic system of medicine – a place where all these three huge trees exist together, is called ‘Triveni’. God has blessed India with rare trees, plants and herbs which could give new life to any ailing human being. Unfortunately, our present-day school education does not teach us even a tiny particle of our traditional knowledge of medicine which has been continuing since Vedic times.

    One wild plant which is so commonly found all over India and has exceptional medicinal value, is ‘Aak’ which is a small to medium-sized shrub. The generic name of this plant is Calotropis and its two common varieties are Calotropis gigantean and Calotpropis Procera. There is not major difference between the two siblings – the first one has white flowers and the second one, pinkish white. Except for the common notion that this is a poisonous plant which could lead to blindness if its juice (milk) is put in the eyes of a human being, surprisingly, the same plant is used for preparing ayurvedic medicines for treatment of eyes! In our villages, the white liquid (which is called “milk”) of this plant is applied on the strings around a traditional spinning wheel (‘Charkha’) to maintain their flexibility.

    Again, the following excerpts have been picked up from the book “Aak” written by late Swami Omanand in his series of books titled “Bharatiya Jaddi-Booti” (published by Haryana Sahitya Sansthan, Gurukul Jhajjar). There is a special page under “WIKI” section of this site for late Swami Omanand, the great Jat leader and a famous Ayurvedic doctor of yesteryears.

    On my part, I feel that it is only a small tribute to that great soul – to present a tiny part of his great works to our Jatlanders. Hope all of you would like this thread and make use of its contents for the benefit of the health of your near and dear ones.

    (If you do not see Devanagari script below this line, you need to install ‘Mangal’ font on your computer. See my thread Tips for use of Hindi on your computer in Tech Talk forum or download it from this link.)


    अर्क (आक/ आख/ आखटा)

    अर्क भारत का एक प्रसिद्ध पौधा है जो आयुर्वेद के शास्त्रों में जानी मानी हुई औषध है, जिसे छोटे-छोटे वैद्य तथा ग्रामीण अनपढ लोग भी जानते हैं और औषधरूप में प्रयोग भी करते हैं । भारत में आक के पौधे (झाड़) सब स्थानों पर मिलते हैं, पर ऊंचे पर्वतों पर ये नहीं मिलते । आक का पौधा दो हाथ से लेकर दस हाथ तक की ऊंचाई में देखने को मिलता है । यह ऊंची शुष्क मरुभूमि व बागड़ में अधिक होता है । ऊसर भूमि में उत्पन्न होने के कारण अरबी में इसको ऊसर कहते हैं । आक चार प्रकार के होते हैं (१) श्वेतार्क अर्थात सफेद आक (२) रक्तार्क व लाल आक (३) लाल आक का ही दूसरा प्रकार है जो ऊंचाई में सबसे छोटा और सबसे विषैला होता है (४) पर्वतीय आक - यह पहाड़ी आक पौधे के रूप में नहीं, लता(बेल) के रूप में होता है जो उत्तर भारत में बहुत कम किन्तु महाराष्ट्र में पर्याप्त मात्रा में होता है ।

    लाल जाति का आक सर्वत्र सुलभता से प्राप्य है । गुणों की दृष्टि से औषध के रूप में दोनों प्रकार के आकों का प्रयोग होता है । दोनों में कुछ समान गुण भी मिलते हैं किन्तु श्वेत अर्क में अधिक उत्तम गुण होने से आयुर्वेद में यह वनस्पति दिव्य औषध मानी जाती है । लाल आक इसके समान तो नहीं किन्तु यह भी गुणों का भंडार है । जितना लाभ इस पौधे से वैद्यों और भारतीय चिकित्सकों ने तथा रसायनशास्त्रियों ने पहले उठाया था उतना किसी द्वितीय औषध से नहीं उठाया । वैसे आक का पौधा अपने आप में वात कफ आदि के सभी रोगों को नष्ट करने के लिए पूर्ण औषधालय है । अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार तथा एलोपैथी के प्रसार से इस दिव्य औषध की कुछ उपेक्षा करने लगे हैं फिर भी आज तक ग्रामीण लोगों में तो इसका प्रचुर मात्रा में औषध के रूप में प्रचलन और उपयोग होता है । शहरी लोग इसके लाभ से वंचित हो रहे हैं ।

    संस्कृत में अर्क, राजार्क, विभावसु, क्षीरदल, पुष्पी, प्रताप, क्षीरकाण्डक, विक्षीर, भास्कर, क्षीरी, खर्जूघ्न, शिवपुष्पक, भञ्जक, क्षीरपर्णी, स्यात्सविता, विकीरण, सूर्याश्व, सदापुष्पी, तूलफल, शुकफल, सविता आदि नाम हैं । शुक (तोते) की आकृति के समान आक का फल होता है, इससे शुकफल इसका नाम रख दिया गया, तथा तूल रूई वाला फल होता है, इसलिये तूलफल अर्क का नाम है । खरजू खाज को नष्ट करने वाला होने से इसका नाम गुणवाची खर्जूध्न है । इसके पुष्प कल्याणकारी हैं अत: शिवपुष्पक इसका नाम है । भञ्जक और विकीरण दोनों नाम गुणवाची हैं ।

    आक के अन्य भाषाओं में नाम :हिन्दी - आक, आख, आखटा, मन्दार । बंगाली पाकन्द । मराठी - रूई, रूचकी, पाठरी । तेलगू - नलि, जिल्ले, डेघोली, तेल जिल्लोडे । फारसी - खरक, दूध । अरबी - ऊसर ।

    इसके मुख्य कांड तथा मोटी-मोटी शाखाओं की त्वचा (छाल) अत्यन्त कोमल व नर्म होती है । इसकी कोमल शाखायें चपटी होतीं हैं । धुनी (पीनी) हुई रूई की भांति घने श्वेत लोमों से ढ़कीं रहतीं हैं ।

    आयुर्वेद भी वेद का एक उपवेद ही है । ऋग्वेद के कुछ मंत्रों में "अर्क" की दिव्यता की चर्चा है । अर्क शब्द के अनेक अर्थ हैं - सूर्य, अग्नि, रश्मि, किरण आदि ।


    यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद् बृहस्पतिरग्दिस्तपोभिरर्कै:
    (ऋग्वेद १०/५/६८)

    बृहस्पति जो सब से बड़ा विद्बान है, वेद, उपवेद (आयुर्वेद) आदि का महान् आचार्य है, वह अग्नितत्वप्रधान दिव्य औषध अर्क के द्वारा अपने शिष्यों रोगियों का वल आवरण चक्षु रोग, फोला, जाला, मोतियाबिन्द आदि को नष्ट करता है और अर्क के दिव्य गुणों के द्वारा ज्योति (प्रकाश) अर्थात् नेत्र दृष्टि प्रदान करता है । यह वह सत्य है जिसके कारण जितने संस्कृत भाषा में सूर्य से नाम हैं, वे सभी नाम इस आक के पौधे के हैं, जो सूर्य में प्रकाश ज्योति आदि गुण हैं, वे भी इसमें हैं ।

    Continued...
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    Last edited by dndeswal; August 2nd, 2006 at 01:32 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  2. #2

    AAK - Part-II

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    ... continued from previous post

    आक का सूर्य से विशेष सम्बन्ध है - गर्मी में जब पृथ्वी सूर्य के निकट आ जाती है और सूर्य की भयंकर गर्मी से तपने और जलने लगती है, जोहड़, तड़ाग, बावड़ी सब का जल सूख जाता है, बड़ वृक्ष सूखने लगते हैं, तब यही पौधा है जो मरुभूमि में भी खूब फलता और फूलता है । यह आग्नेयप्रधान पौधा उस भयंकर उष्णकाल में खूब हरा भरा रहता है । जैसे सूर्य के प्रकाश से अंधकार दूर भाग जाता है, इसी प्रकार आक की यह दिव्यौषधि प्राणियों के चक्षु संबन्धी विकारों को दूर करके दिव्य ज्योति प्रदान करती है ।

    विषैला आक - जो आक की जाति सबसे छोटी होती है अर्थात् इसका जो पौधा ऊंचाई में सबसे छोटा होता है उसको विद्वान लोग सबसे विषैला मानते हैं । यह मरुभूमि (बागड़) में ही होता है । अधिक विषैले की पहचान यह है कि उस आक के पौधे का दूध निकालकर अपने नाखून पर उसकी दो-चार बूंदें टपकायें । यदि दूध बहकर नीचे गिर जाये तो कम विष वाला है और यदि दूध वहीं अंगूठे के नाखून पर जम जाये तो अधिक विषैला है । अधिक विषैले दूध को सीधा खिलाने की औषध में प्रयोग नहीं करना चाहिये, अन्य भस्म आदि औषध बनाने में इसका प्रयोग कर सकते हैं ।

    आक का फल ('आख का डोडा')

    आक के फल देखने में अग्रभाग में तोते की चोंच के समान होते हैं । इसीलिए आक का एक नाम शुकफल है । ये फल ज्येष्ठ मास तक पक जाते हैं । इनके अंदर काले रंग के दाने वा बीज होते हैं और बहुत कोमल रूई से ये फल भरे रहते हैं । इसकी रूई भी विषैली होती है । फल का औषध में बहुत न्यून उपयोग होता है । क्षार बनाने वाले आक के पंचांग में फल को भी जलाकर औषध में उपयोग लेते हैं । चक्षु रोगों, कर्ण रोगों, जुकाम, खांसी, दमा, चर्मविकारों में, विष्मज्वर, वात और कफ के रोगों में इसके पुष्प, पत्ते, दूध, जड़ की छाल सभी का उपयोग होता है ।

    आक की जड़ और छाल

    औषध के रूप में आक की जड़ की छाल व छिलका बहुत प्रयोग में आता है । संस्कृत में इसे त्वक् वा वल्कल कहते हैं । आक की जड़ की छाल पसीना लाने वाली, श्वास को दूर करने वाली, गरम और वमनकारक है । उपदंश आतशक को नष्ट करने वाली है । यह छाल स्वाद में कड़वी तीखी होती है । उष्ण (गर्म) प्रकृति वाली, दीपन पाचन पित्त का स्राव करने वाली है, रसग्रन्थि और त्वचा को उत्तेजना देने वाली है, धातु परिवर्त्तक, उत्तेजक, बलदायक और रसायन है । थोड़ी मात्रा में यह आमाशय (मेदे) में दाह (जलन) उत्पन्न करती है, इसके उपयोग से बहुत पसीना आता है, इससे इसका स्वेद जनन धर्म बहुत उत्तम माना गया है । इसका रसायन धर्म भी पारे के समान है । इससे शरीर पुष्ट होकर बल की वृद्धि होती है । बढ़े हुए जिगर और तिल्ली को ठीक करती है । आंतों के रोगों को भी अर्क-छाल का प्रयोग ठीक करता है ।

    किसी औषध में आक की छाल की आवश्यक्ता हो तो किसी पुराने आक की जड़ की छाल लेनी चाहिये, क्योंकि आक जितना पुराना होगा उतनी ही अधिक उसकी जड़ वा जड़ की छाल अधिक उपयोगी और गुणकारी होगी । पुरानी जड़ में कड़वी छाल की मात्रा अधिक होती है । ग्रीष्म ऋतु में चैत्र वा वैशाख मास में बागड़ व मरुभूमि में उगे हुए पुराने आक की जड़ें खोदकर उस पर लगी हुई मिट्टी झाड़-पोंछ लें और हल्के हाथ से जल से इसकी जड़ें धो डालें और फिर छाया में ही सुखानी चाहियें । धूप में सुखाने से औषधियों के गुण घट जाते हैं । एक-दो दिन बाद इसके ऊपर की मुर्दा छाल तथा मिट्टी यदि कुछ हो तो झाड़कर हटा देवें और अन्तर्छाल को उतारकर छाया में सुखाकर अपने उपयोग में लावें । यदि कुछ समय पीछे उपयोग लेना हो तो कूट कपड़छान करके अच्छी डाट वाली शीशी में बंद करके रख देवें । आक की बढिया छाल के चूर्ण का रंग चावल के रंग के समान ही होता है और यह ज्वर, प्रतिश्याय (जुकाम), खांसी, अतिसार, कास, श्वास तथा गले के रोगों को ठीक करती है ।

    औषध की मात्रा

    जड़ की छाल व मूलत्वक की मात्रा सामान्य रूप में १ रत्ती से ४ रत्ती तक है । विशेष अवस्थाओं में आधा माशा से दो माशे तक । मात्रा देश, काल, रोगी की शक्ति और प्रकृति को देख कर देनी चाहिये । यदि किसी अवस्था में वमन कराना हो ३ माशे से ६ माशे तक अर्क की छाल दी जा सकती है किन्तु वैद्य से परामर्श लेकर ही अधिक मात्रा में देना चाहिए क्योंकि यह विष भी है, हानि भी हो सकती है । १ से २ रत्ती तक देने से हानि की कम संभावना है । आक के दूध की मात्रा एक से चार बूंद तक है । विषैला अर्थात् गाढ़ा हो तो खिलाने में उसका प्रयोग न करें । आक के पत्ते के रस की मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक है । अंकुर की मात्रा १ मासे से ३ माशे तक है । अन्तर्धूमदग्ध पत्ते की मात्रा २ माशे से ४ माशे तक दे सकते हैं । पुष्प का चूर्ण १ माशे से २ माशे तक है ।

    नेत्र रोग और आक

    अनुपम काजल - १ तोला शुद्ध (साफ) पुरानी रुई लेकर पिनवा लें और उसकी अंगुली के समान मोटी बत्ती बना लें और उसे आक के दूध में भिगो दें । अगले दिन २४ घंटे के पश्चात् उस रुई की बत्ती को आक के दूध में पुन: भिगो दें । इसी प्रकार सात बार भिगोयें और छाया में सुखायें । जब सर्वथा सूख जाये तो इसे तीन दिन गाय के एक पाव घी में भिगोयें और फिर तीन दिन के पश्चात निर्वात (वायु रहित) स्थान पर दीपक को जलायें और उसके ऊपर मिट्टी वा धातु का शुद्ध पात्र लेकर काजल पाड़ें, जब सारा घी जल जाये तो पात्रों के ठण्डा होने पर काजल झाड़कर किसी शीशी में रख लें । इस काजल को सलाई से सोते समय नेत्रों में डालें । रोग अधिक हो तो प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व भी प्रतिदिन डालते रहें । इस प्रकार निरन्तर कुछ मास इस काजल के सेवन से आंखों के सभी रोग दूर होंगे । दूर का न दीखना, निकट का न दीखना, रोहे, फोला, आँखों में पानी आना, पढने से आँखों का थकना, आँखों की खुजली, आँखों का दुखना आदि सभी नेत्र रोगों को यह अनुपम काजल दूर करता है । यह चक्षु रोगों के लिए अद्वितीय औषध है । इससे नयनक (चश्मे) उतर जाते हैं । चेचक के फोले भी दूर होकर अंधों को भी दिखाई देने लगता है । यदि इसके साथ त्रिफला घृत तथा महात्रिफलादि घृत का सेवन किया जाये तो सोने पर सुहागे का कार्य करेगा । आँखों में लगाने के लिए यह काजल और खाने के लिए त्रिफलादि घृत दोनों ही चक्षु रोगों के लिए रामबाण औषध हैं । जहां पर यह औषध विफल हो जाती है, वहां इस काजल ने लाभ किया है । यह अत्यंत प्रभावशाली है, पहले-पहले एक ही सलाई काजल लगाना चाहिये, कुछ समय पश्चात एक समय पर तीन सलाई तक लगाई जा सकती है - उससे और भी लाभ होता है । आजमाओ, लाभ उठाओ और ऋषियों के गुण गाओ ।

    फोला और आक की जड़ - (१) आक की जड़ को जल में घिसकर आँखों मे लगाने से नाखूना व फोला नष्ट हो जाता है ।(२) पुरानी रूई को तीन बार आक के दूध में सुखायें । तीन बार इस क्रिया को करें । छाया में सुखाना चाहिये, सर्वथा सूखने पर सरसों के तैल में भिगोकर सीप में रखकर जला लें । इस राख को खूब बारीक पीस कपड़छान करके सुर्मे की भांति सलाई से डालें तो कुछ समय में फोला कट जायेगा । यदि तैल पीली सरसों का हो तो अधिक लाभ करेगा । यदि आक के दूध में भिगोई रुई को गोघृत में रखकर जलाकर भस्म करें तो अधिक लाभदायक होगी । (३) श्वेत आक की जड़ को गौ के मक्खन के साथ पीसकर सुर्मे की भांति आँखों में डालने से नेत्र-ज्योति बढती है ।

    मोतियाबिंद - (१) जंगली कबूतर की बीठें आक के दूध में भिगोकर सुखा लें । फिर तांबे के पात्र में डालकर नींबू के रस में डाल दें । सात दिन भिगोये रखें, फिर खरल करके एक भावना मेंहदी के रस की देवें, फिर सुर्मे के समान बारीक पीस लें । इसको आँख में डालने से मोतियाबिन्द, जाला-फोला कट जाता है । (२) पुरानी ईंट को बारीक पीस लेवें तथा आक के दूध में भिगोकर खराल करें । यदि यह चूर्ण १ छ्टांक हो तो इसमें ३० लौंग मिलाकर खरल करके सुर्मा बना लेवें और इसको थोड़ा नाक के द्वारा सूंघने से मोतियाबिंद कट जायेगा । यह मान्यता यूनानी हकीमों की है ।

    Continued....
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    Last edited by dndeswal; August 1st, 2006 at 09:37 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  3. #3

    AAK - Part-III

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    ....continued from previous post

    उदर रोगों पर

    बिन्दुघृत - आक का दूध ८ तोले, थोहर का दूध ४ तोले, त्रिवृत (निसोत) ४ तोले, बड़ी हरड़ का छिलका ४ तोले, कमेला ४ तोले, जमालगोटे की जड़ ४ तोले, अमलतास का गूदा ४ तोले, शंख्पुष्पी ४ तोले, नील की जड़ ४ तोले इन सबको बारीक पीस कर जल के साथ घोटकर गोला बनायें और कढाई में एक सेर जल चढावें, मन्दाग्नि जलायें, सब वस्तु जल जायें केवल घृत रह जाये तब उतारकरछान लेवें, यही बिन्दुघृत है । इसकी मात्रा १ बून्द (बिन्दु) से १० बूंद तक है, गर्म जल के साथ सेवन करने से पेट के सभी रोग, कब्ज, गोला, पीड़ा, तिल्ली, जिगर आदि दूर होते हैं । इस घृत की जितनी बूंदें रोगी को देंगे उतने ही दस्त होंगे तथा पेट के सभी रोग नष्ट होते हैं । यह आयुर्वेद शास्त्र का प्रसिद्ध योग है, सभी वैद्य इसका प्रयोग करते हैं । पथ्य-सूजन के रोग में खटाई और लवण न खायें ।

    श्वास रोग पर आक

    (१) आक का पत्ता १, काली मिर्च ५२ इस दोनों को खरल करके माष के दाने के समान गोलियां बनायें - इनमें से छह गोलियां उष्ण जल के साथ कुछ दिन प्रयोग करने से श्वास रोग दूर होता है । छोटे बच्चे को एक गोली देनी चाहिये ।

    (२) आक की जड़ का छिलका तीन तोले, अजवायन देशी दोतोले, पुराना गुड़ ५ तोले - सब रगड़कर जंगली बेर के समान गोली बनायें । ताजे जल के साथ एक-एक गोली लेवें, दिन में कई बार लेवें, श्वास रोग की उत्तम औषधि है ।

    (३) भुने हुए जौ (यवों) को आक के रस में १४ दिन तक निरन्तर रखें । फिर धूप में सुखाकर बारीक पीस लें । इनमें से १ माशे से ३ माशे तक छ: माशे शहद में मिलाकर लेवें । यह अत्यन्त लाभप्रद औषध है, विचित्र प्रभाव डालती है ।

    (४) आक की कोमल-कोमल कोंपलें, पीपल बड़ा, सैंधा लवण सब सम भाग लेकर खूब बारीक पीसकर जंगली बेर के समान गोली बनायें । एक गोली गर्म पानी के साथ प्रतिदिन लेने से दमा दूर होगा ।

    (५) आक का पत्ता एक, काली मिर्च पांच - इन दोनों को खूब बारीक पीसकर जंगली बेर के समान गोली बनायें । इनमें से ७ गोलियां प्रयोग करने से ही लाभ हो जायेगा । ये सभी प्रयोग कफ वाले दमे को लाभ करते हैं ।

    अपस्मार (मिरगी)

    अपस्मार वा मिरगी के रोग में रोगी को दौरा पड़ने पर शिर में चक्कर सा आता है । आंखें टेढी कर लेताहै, वह अचेत होकर भूमि पर गिरकर हाथ-पांव मारने लगता है । मुख में झाग आ जाते हैं । कई बार तो रोगी की जिह्वा (जीभ) भी कट जाती है । कुछ समय के पश्चात स्वयं चेतना (होश) में आ जाता है । इसके रोगी की मस्तिष्क की शक्ति नष्ट हो जाती है ।

    (१) आक की जड़ का छिलका, बकरी वा गाय के दूध में पीसकर नाक में टपकाने से मिरगी का दौरा दूर हो जाता है ।

    (२) आक के ताजे फूल और काली मिर्च समभाग लेकर पीसकर ढ़ाई-ढ़ाई रत्ती की गोलियां बनायें और दिन में एक-एक गोली ३-४ बार देवें । मृगी, श्वास, रुधिर विकार और स्नायु-रोग (रक्तचाप) नष्ट हो जाते हैं ।

    (३) आठ-दस साल पुराना गाय का घी एक तोला गर्म करके और इसमें ६ माशे मिश्री मिलाकर पिलाने से उन्माद तथा मिरगी का रोग दूर होता है ।

    सर्प विष की चिकित्सा

    (१) आक की जड़ का छिलका १ तोला ठंडाई के समान जल में घोटकर पिलाने से सर्प विष उतर जाता है ।

    (२) आक की कोंपल चबाकर खाने से भी सर्प विष दूर हो जाता है ।

    (३) आक की जड़ और बाड़ी (कपास) की जड़ दोनों साथ साथ समान भाग लेकर पीस लें और थोड़ा जल मिलाकर पिलायें । इससे सर्प विष में लाभ होता है ।

    (४) सर्प जिस स्थान पर काटे उस स्थान को पोंछ कर आक का दूध टपकाते रहें, जब तक विष रहेगा, आक का दूध साथ साथ सूखता रहेगा, जब दूध सूखना बंद हो जाए तो समझ लो विष समाप्त हो गया और दूध टपकाना बंद कर दें ।

    कण्ठमाला

    गले व ठोडी पर बडी व छोटी सख्त न घुलने वाली गोल गांठ हो जातीं हैं, इनको कंठमाला, गलगंड व बेल कहते हैं । इसे गलग्रन्थी भी कहते हैं । यह कष्टसाध्य रोग है, रोगी को बड़ा कष्ट देता है ।

    (१) पीपल बड़ा बारीक चूर्ण कर लें और इसको आक के दूध व थोहर के दूध में लेप करने से कंठमाला दूर होती है । आक के दूध का लेप दोपहर पश्चात करना चाहिये । दोपहर लेप करने से आक का दूध चढता है । यह सूर्य के चढ़ने के साथ चढ़ता है, इसीलिये आक के सभी नाम सूर्य के नाम सार्थक हैं ।

    (२) आक का फूल, गढल के फूल, तिल का तैल, अपामार्ग का क्षार और जल सम भाग लेकर इकट्ठे करके कूट पीस रगड़ कर कंठमाला पर लेप करें । प्रतिदिन लेप करने से एक सप्ताह में यह रोग दूर होता है ।
    (३) गुंजादि तैल, श्वेत घूंघची (गुंजा) की जड़, कनेर की जड़ का छिलका, बिधारा के बीज, आक का दूध, सिरसों सब पांच पांच तोले लेवें, सब को गोमूत्र के साथ पीसकर गोले बना लेवें और पांच सेर गोमूत्र डेढ सेर सरसों का तेल सबको कलीदार बर्तन में पकावें और जब तैल रह जाये तो दो-तीन बार यहां तक कि दस बार उपरोक्त वस्तुओं को पुन: पुन: नई-नई लेकर डालें । मंदाग्नि में पकावें । केवल तैल रह जाने पर इसे निथार छान लें । इसको कंठमाला पर बार बार लगाने से यह नष्ट हो जाती है । यह गलगंड, अपची और प्रत्येक प्रकार की कंठमाला के लिए रामबाण औषधि है ।

    मुटापा : (१) आक की जड़ का छिलका, अरंड की जड़ का छिलका, त्रिफला - तीनों सम भाग करके कपड़छान कर लें और रात्रि को आधा पाव गर्म जल में ६ माशे भिगो देवें । प्रात:काल मल छानकर इसमें चार तोले शहद मिलाकर पिलायें । यह औषध चालीस दिन देने से मोटापा दूर होगा । औषध की मात्रा थोड़ी-थोड़ी बढाकर १ तोले तक कर लेवें । (२) सौंठ, काली मिर्च, पीपल बड़ा, हरड़, बहेड़ा, आंवला, आक की जड़ का छिलका - सब एक-एक तोला और काला नमक दो तोले कपड़छान कर लेवें । इसमें से चार माशे तक उष्ण जल के साथ लेने से मोटापा दूर होगा ।

    Continued....
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    Last edited by dndeswal; August 1st, 2006 at 10:04 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  4. #4

    AAK - Part-IV

    ....From previous post

    कर्ण रोगों पर आक : (१) पीले रंग के पके हुए आक के पत्तों पर घी चुपड़ कर आग पर सेकें - फिर इनका रस निचोड़कर और इस रस को थोड़ा गर्म करके कानों में डालने से कर्ण पीड़ा दूर होती है । (२) आक के नर्म-नर्म पत्तों को कांजी के साथ पीसकर इसमें सैंधा लवण और सरसों का तैल मिलाकर डंडा थोहर के खोल में भर दें और ऊपर से सम्पुट करके आग पर सेंक लें और फिर निचोड़ कर रस निकालें । इस रस को कानों में डालने से पीड़ा तुरन्त दूर होगी । (३) तिल का तेल एक पाव, धतूरे का रस १ सेर और आक के पत्ते १४ - तीनों को कढ़ाई में चढ़ाकर अग्नि जलायें । तेल शेष रहने पर उतार लेवें । इस तेल को कानों में डालने से कान के सभी रोग - बहना, पीड़ा, बहरापन आदि दूर होते हैं ।

    एड़ियों की पीड़ा - यह पीड़ा जो ऐड़ी में हो जाती है, वह किसी औषध से दूर नहीं होती, कुछ दिन आक के फूलों को जल में खूब पकायें तथा इसको भापों से खूब सेकें तथा पीछे फूलों को भी गर्म-गर्म हालत में ऐड़ियों पर बांधकर सो जायें । कुछ दिन यह चिकित्सा करने से यह रोग दूर होता है ।

    नाक के रोग - एक छटांक चावलों व आरणों की राख को आक के दूध में भिगो लें । सूख जाने पर बारीक पीस लें । इसके सूंघने से छीकें आयेंगीं, बंद नाक खुलकर बहने लगेगा, जुकाम, सिरदर्द दूर होगा । यह नसवार लाभदायक और सस्ती है, इस पर एक कौड़ी भी व्यय नहीं होता, सूंघने से खूब छींकें आतीं हैं ।

    भिरड़, ततैया, मक्खी का विष : ततैये, मधुमक्खी के काटने पर काटे हुए स्थान पर आक का दूध लगायें । विष और पीड़ा दूर होगी, सूजन भी नहीं चढेगी । भिरड़, ततैये के डंक को निकालकर दूध लगाने से शीघ्र लाभ होता है । मच्छर आदि काट जाये तो उस स्थान पर लगाने से विष तथा पीड़ा खुजली दूर होती है ।

    नजला/ आंधासीसी : अनार की छाल ४ तोले खूब महीन पीसकर आक के दूध में भिगोकर आटे के समान गूंधकर रोटी सी बना लें । ३ माशे जटामासी, ३ माशे छरीला, डेढ़ माशा कायफल - इन सबका चूर्ण बनाकर उस रोटी पर रख लें । इस औषध के सूंघने से सख्त छींकें आकर नजला, जुकाम, मूर्छा, बेहोशी आदि रोग दूर होते हैं ।

    पथरी : (१) आक के फूल को गाय के दूध में पीसकर तीस दिन प्रात:काल प्रतिदिन लेने से जलन युक्त पथरी रोग नष्ट होता है । (२) छाया में सुखाये हुए आक के फूल, यवक्षार, कलमी शोरा और कुसुंभ बीज - इन तीनों को समान भाग लेकर हरी दूब (घास) के रस में खरल करें । इस का तीन माशा चूर्ण बकरी के दूध के साथ लेने से बस्ति और गुर्दे की पथरी तथा मूत्रावरोध (पेशाब की रुकावट) दूर होती है ।

    रिसोली की गांठ : ग्रन्थी वा रिसोली की गांठ प्राय: चर्बी और कफ की अधिकता से होती है । पहले इसका सूजन दूर करना चाहिये । आक का दूध, जमालघोटे की जड़, चित्रक की छाल और गुड़ मिलाकर सबको रगड़कर लेप तैयार करें और बढी से बढी गांठ पर लेप करें । इस लेप के लगाने से गांठ पक कर फूट जाती है और गंदा (मवाद) निकलकर रिसोली व अंबुद गांठ नष्ट हो जाती है । यह इसकी सर्वोत्तम चिकित्सा है ।

    विषम ज्वर (मलेरिया) - नौशादर, गोदन्ती, सुहागा, फिटकड़ी (भुनी हुई) सब एक-एक छटांक - सबको कूट-छानकर आक के दूध में भिगोकर सुखा लें और कपड़-छान कर आक के दूध में भिगोकर सुखा लें और कप्पड़-मिट्टी करके भस्म के समान फूंक लें । फिर मात्रा ३ रत्ती खांड में मिलाकर एक बार ही देवें । पसीना आकर ज्वर उतर जायेगा । ज्वर उतारने के लिए सर्वोत्तम औषध है तथा ज्वर को समूल नष्ट करती है ।

    कफ ज्वर (निमोनिया) - आक के पत्तों का स्वरस निकालकर उसमें गेहूं का आटा भिगोकर रबड़ी सी बनाकर गर्म करके रोगी के शरीर पर लेप कर दें, उसी समय पीड़ा दूर हो जाती है । लेप को कुछ घंटे लगा ही रहने दें, उसके बाद गर्म जल से स्नान करवा दें ।

    सारांश

    सूर्य जिस प्रकार संसार की सारी मलनिता गंदगी को नष्ट करता है, उसी प्रकार आक पामा, दाद, चर्मदल (चम्बल) तथा भयंकर गंदे कुष्ट आदि रोगों को नष्ट करने वाला है, सर्व प्रकार के कृमिरोग पीड़ाओं, वायु, कफ रोगों तथा आंखों के रोगों का आक परम शत्रु है । आक अपने रोगियों को संबोधित करके कहता है -

    जीवितुं यदि वाञ्छन्ति सत्यर्के मयि भूतले ।
    अन्धा: कुतोऽवसीदन्ति श्वासश्वित्रकफार्दिता: ॥
    वातोदरक्षयपीडां चक्षूरोगांश्च मूलत: ।
    त्वग्दोष कण्ठमालां च क्षणे हन्मि प्रयुंक्तव माम ॥

    अर्थ : "हे मनुष्यो ! यदि नेत्रज्योति खोकर अंधे हो गये हो, श्वास, कास, श्वेत कुष्ठ और कफ के रोगों से पीड़ित हो और अब भी तुम्हारे जीने की इच्छा है तो मुझ आक के रहते हुए तुम कष्ट क्यों उठा रहे हो ? मैं वायुविकार, उदर, क्षय (तपेदिक), सभी प्रकार के नेत्र रोग, चर्मविकार और कंठमाला आदि रोगों को क्षणमात्र में नष्ट कर देता हूं, अत: विधिपूर्वक तुम मेरा सेवन करके रोगरहित हो जाओ ।"


    Some Internet links about Aak plant:

    http://www.tribuneindia.com/2003/20031215/agro.htm#6

    http://www.fs.fed.us/global/iitf/pdf/shrubs/Calotropis%20procera.pdf

    http://ecoport.org/ep?Plant=598&entityType=PL****&entityDisplayCatego ry=Photographs
    .
    Last edited by dndeswal; August 1st, 2006 at 10:07 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  5. #5
    Deswal ji i must thank you from the bottom of my heart for such a detailed write up on this phenomenal plant and its medical value.I remember my old days while we used to loiter bare footed in the village aur jab kantte chubh jyaya karte....old people used to prescribe AAKHh ka rass..........It must be a pains taking write up.You are really doing a great service to the people and this portal.Kindly keep it up!
    "LIFE TEACHES EVERY ONE IN A NATURAL WAY.NO ONE CAN ESCAPE THIS REALITY"

  6. #6
    Dhaynand ji,

    Aapka post bahut achha aur vistaar se likha hooaa tha, mane lab-bhag poora pad liya... Hum bachpan mein Aak ke tote jasse fruits se khelte the... Koi kanta (bilayti kikar ka khaskar) lag jata tha to Aak ka doodh daal ke nikalte the...

    Aur marusathli ped-podhe jo jahreele ya khatte hote par jinko paryog dwaiyon mein ho sakta hai wo hain...

    -Dhatura (loud speaker jasse fool hote hein)
    -Gawar-patha (kind of cactus)
    -Arrand (oil is useful)
    -Ek aur bel hoti hein jiska naam bhool gya. Es bhel ke chhote kharbuje jasse fal lagte hein lekin bahut kadwe hoten hein. En fruits ko sukhakar aur phir piss kar faki (medicine) banayi jati hai. Ye pet-dard ke liye bahut labhdayak hoti hein. Mere papa banate hein, jab US aa raha tha to unhone jabardasti bag mein daal di thi ki kha lena. Pet dard ke liye nahi kam se kam yaad rakhne ke liyte:-)). Wasse kafi asardaar faki hai.

    -Vinod
    PS: You wrote as one place that summer is hot because Earth is nearest to the Sun. Its not true. In summer Earth is fartherst from Sun but since Earth is tilted at 23 angle it upper hemisphere faces directly towards sun only when its fartherest. So summer is hot not because Earth is nearest to Sun but because Upper Hemishpere get more DIRECT light. Its opposite in southern hemisphere, May-August is winter time there. This is counter-intuitive.
    Check http://en.wikipedia.org/wiki/Season
    Last edited by vinodks; August 1st, 2006 at 11:40 PM.
    It may be that universal history is the history of the different intonations given to a handful of metaphors. -J L Borges

  7. #7
    Neem/Badd/Peepal ke baad aapney ek aur chamatkari podhey Aak ke barey me itni detail me likh kar hairan kar diya hai....aak ka mujhe to ek hi upyog malooom tha....soot kaatney ke liye taaku par lagana, iska itna vilakshan upyog ho sakta hai ye bataney ke liye dhanyawad. Ek baat samjh nahi aayi ki kajal bananey ke liye vayurahit kamra kaise ho sakta hai?
    I AM WHAT I AM....JAT.... 16X2=8

  8. #8
    Quote Originally Posted by sunitahooda View Post
    Ek baat samjh nahi aayi ki kajal bananey ke liye vayurahit kamra kaise ho sakta hai?
    बिना वायु तो अग्नि जल ही नहीं सकती । यह भाषा स्वामी ओमानन्द की लिखी हुई है । वायुरहित कमरे का अर्थ है जहां दीपक को हवा का झोंका न लगे और उसकी लौ सीधी जलती रहे । एक देसी मकान का ओबरा ही इसके लिए उपयुक्त होता है, जहां कोई रोशनदान नहीं होता और बाहर से सीघी हवा नहीं लगती ।
    .
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  9. #9
    Yes....this is what i guessed...thanks Sir
    Quote Originally Posted by dndeswal View Post
    बिना वायु तो अग्नि जल ही नहीं सकती । यह भाषा स्वामी ओमानन्द की लिखी हुई है । वायुरहित कमरे का अर्थ है जहां दीपक को हवा का झोंका न लगे और उसकी लौ सीधी जलती रहे । एक देसी मकान का ओबरा ही इसके लिए उपयुक्त होता है, जहां कोई रोशनदान नहीं होता और बाहर से सीघी हवा नहीं लगती ।
    .
    I AM WHAT I AM....JAT.... 16X2=8

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