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I think this thread would remain incomplete without some details about Gurukul and its museum. Here are some inputs which have also been incorporated in Wiki section.
गुरुकुल झज्जर
स्वामी ओमानन्द सरस्वती ने झज्जर-रेवाड़ी रोड पर एक ऐसे गुरुकुल का संचालन किया कि आज झज्जर क्षेत्र में यह केन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शिक्षा संस्थान है । झज्जर गुरुकुल की स्थापना 16 मई 1915 में पं. विश्वम्भर दास झज्जर निवासी ने की । इसी दिन महात्मा मुंशीराम जी (श्रद्धानन्द) ने गुरुकुल की आधारशिला रखी । 138 बीघा जमीन पं. विश्वम्भर दास ने दान स्वरूप दी । गुरुकुल झज्जर का 20 वर्षों तक स्वामी परमानन्द जी संचालन किया । इस काल में गुरुकुल झज्जर ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे ।
अंततः 22 सितंबर 1942 को स्वामी ब्रह्मानन्द जी, जगदेव सिंह सिद्धान्ती और श्री छोटूराम के आग्रह पर स्वामी भगवान देव जी ने गुरुकुल झज्जर का कार्यभार संभाला । उस समय गुरुकुल में दो-चार छोटे ब्रह्मचारी, दो-तीन बूढ़े कर्मचारी थे । गोशाला में दो बैल और तीर-चार गायें थीं । गोशाला में दो-तीन छप्पर पड़े थे । एक बड़ा हाल कमरा व उसके साथ लगते दो छोटे कमरे थे, उनका शहतीर भी कुछ लोग उतार कर ले गये थे । खारे पानी का एक कुआं होता था । उसी में स्नान करना पड़ता था । बस यही सम्पदा मिली थी गुरुकुल झज्जर में आचार्य भगवान देव जी को, लेकिन गुरुकुल संभालने के बाद फिर क्या था, जैसे सोने का पारखी मिल गया हो और गुरुकुल झज्जर का प्रगति चक्र इतना तीव्र चला कि विलम्ब से मनाई गई 20 से 22 फरवरी 1947 के रजत जयन्ती समारोह में गोशाला की आधारशिला डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने रखी जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने ।
आज गुरुकुल झज्जर में महाविद्यालय, पुरातत्व संग्रहालय, विशाल पुस्तकालय, औषधालय और गोशाला, व्यायामशाला, यज्ञशाला, उद्यान, भोजनालय, छात्रावास, अतिथिशाला, वानप्रस्थी सन्यासी कुटी समूह आदि के विशाल भवन खड़े हैं । महाविद्यालय में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक द्वारा मान्यता प्राप्त महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित आर्य पाठ्य विधि का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है । पुरातत्व संग्रहालय में विपुल ऐतिहासिक पुरा अवशेष संग्रहीत हैं । औषधालय में असाध्य रोगों के निदान के लिए औषधियों का निरन्तर निर्माण चल रहा है । आयुर्वैदिक पद्धति से चिकित्सा कार्य होता है । अनेक औषधियों का आविष्कार करने की ख्याति प्राप्त की जिनमें संजीवनी तेल, बदलामर्त, स्वप्नदोषामृत, स्त्रीरोगामृत, अर्ष रोगामृत, सर्पदंशामृत और नेत्र ज्योति सुरमा जन-जन में लोकप्रिय हैं । कैंसर जैसे असाध्य रोगों का सफल इलाज गुरुकुल झज्जर में होता है । गुरुकुल झज्जर की हवन सामग्री रूहानी सुगन्धों से भरी होती है ।
अपने जीवन के कठोरतम, संघर्षमय क्षण, जेलों के संस्मरण, विदेशयात्रायें, संग्रहालय की स्थापना और उसमें एकत्रित दुर्लभ वस्तुओं का विवरण, शरीर पर घावों के निशान, हरयाणा बनने की कहानी में झज्जर का योगदान, आमरण अनशन, हिन्दी आंदोलन, अस्त्र-शस्त्रों का बीमा, हिन्दू-मुस्लिम मारकाट के संस्मरण, महाभारत काल के अस्त्र-शस्त्र, मुस्लिम भेष धारण करके लाहौर जाने का संस्मरण, 1947 में 1000 कारतूसों का प्रबन्ध, दिव्य अस्त्रों का जखीरा, हाथी दांत पर कशीदाकशी से शकुंतला की आकृति, चन्दन की जड़ में सर्प, चित्तौड़गढ़ का विजय स्तंभ, बादाम में हनुमान, झज्जर के नवाब फारुख्शयार का कलमदान और मोहर, नवाबों की चौपड़, गोटियां और पासे, माप-तोल के बाट और जरीब । गुरुकुल की इस विरासत और धरोहर को देखकर बस यही कहा जा सकता है कि :
झज्जर तेरे आंगन में इस स्थान को सलाम ।
विरासत में दे गया एक अहतराम को सलाम ।
हरयाणा पुरातत्व संगृहालय
गुरुकुल झज्जर के प्रांगण में एक अद्भुत, अनूठा और आश्चर्यचकित कर देने वाला पुरातत्व संग्रहालय है, जो हरयाणा में सबसे विशाल है । इसका उदघाटन 13 फरवरी 1961 को राजस्थान के चौ. कुम्भाराम आर्य ने किया था । इस अवसर पर एक छोटे से कमरे में पुरातत्व सामग्री फैला कर रखी गयी थी । उस समय केवल थोड़े से सिक्के, ठप्पे और प्राचीन ईंटें ही संग्रहालय में संग्रहीत की जा सकी थी । कल्पना से परे था इसका वर्तमान स्वरूप । आज गुरुकुल झज्जर का संग्रहालय विश्वविख्याती प्राप्त है ।
इसमें पुरातत्व संग्रहालय द्वारा किये जाने वाले शोध कार्य की सहायता के लिए इतिहास विषयक ग्रन्थों का एक पुस्तकालय है । 427 ताम्र-पत्रों पर खुदाई करके लिखे गये स्वामी दयानन्द रचित सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश इस संग्रहालय का एक अनूठा और दुर्लभ कार्य है । एक ताम्रपत्र का वजन ढ़ाई किलोग्राम है । इन्हें लिखवाने में लगभग 250000 रुपयों का खर्च आया था । यहां पर अनेकों हस्तलिखित ग्रन्थ व पत्र भी उपलब्ध हैं, जिनमें रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, धर्मदर्शन, पत्तों पर लिखी ज्योतिष और विविध विषयों पर लेख और अभिलेख उपलब्ध हैं ।
सिक्कों का एक बहुत बड़ा भंडार संग्रहीत किया गया है, जिनको शीशों के बक्सों में करीने से रखा गया है । इनमें आजुर्नापन और तुम्बर, कुणिद, यौद्धेय, आग्रेह, कृषणि, रोमन, यूनानी, तुगलकी, खिलजी वंश, गुप्त पल्लव कुशा, गुर्जर, चोल, प्रतिहार, तोर और मुगलों सहित सभी वंशों, राजसत्ताओं और शासकों की मुद्राएं संगृहीत की गयीं हैं । कुछ मुद्राओं के तो ठप्पे भी मौजूद हैं, जिनसे मुद्राएं तैयार की जाती थीं । इनमें विशेष अंटी, अल्किदश, एरमेयस, कासरापन, लिसियस, अन्टिमाक्स, गुर्जर, फिलाक्सन्स आदि के अति दुर्लभ ठप्पे मौजूद हैं ।
इस संग्रहालय में एक अजूबा है जिस पर विश्वास करना तक कल्पना से परे है - लोचदार पत्थर । कलियाणा (दादरी) से प्राप्त हुआ एक लचीला पत्थर संग्रहीत है जो अद्भुत है । संग्रहालय में रामायणकालीन छोटी-बड़ी 33 मूर्तियां हैं । मूर्तियां इतनी अमूल्य हैं कि इन्हें जापान में मनाए गये 'भारत महोत्सव' में प्रदर्शित करने के लिए इनका बीमा 72 लाख रुपये में हुआ था । पांच फुट ऊंची विष्णु भगवान की मूर्ति, गणेश जी की दो फुट ऊंची मूर्ति, सीताहरण के समय हिरण वाली मूर्ति, गुप्तकालीन शिवलिंग, शकुंतलापुत्र भरत की एक दुर्लभ मूर्ति विशेष आकर्षण का केन्द्र हैं ।
इसके अलावा रामप्रसाद बिस्मिल का कम्बल, चाकू और यज्ञ कुण्ड, चन्दगीराम की कस्सी, हाथीदांत पर नक्काशी, चंदन की जड़ में सर्प, चित्तौड़गढ़ के विजय स्तम्भ का स्मारक, बादाम के दानों पर लघु हनुमान प्रतिमा । फरुखशियार का कलमदान, नवाबों की चौपड़, पासे, गोटियां, ब्राह्मी अक्षर, चीन, ताइवान, हांगकांग की लिपियां, प्राचीन माप-तोल के बाट आदि धरोहर और हमारी विरासत अपनी गोद में लेकर रोज रात को सो जाता है यह संग्रहालय ।
गुरुकुल झज्जर में 28 फरवरी 1960 में शिवरात्रि के दिन हरयाणा साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी । अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन इस माटी से हुआ, जिसमें 'वीरभूमि हरयाणा', 'प्राचीन भारत के मुद्रांक', 'हरयाणा के प्राचीन लक्षणस्थान', 'हरयाणा के वीर यौद्धेय' आदि प्रमुख हैं ।
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