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Thread: The Historical Calendar of Jhajjar

  1. #1

    The Historical Calendar of Jhajjar

    (Post in Devanagari script - in case of difficulty in reading, please install ‘Mangal’ font)


    झज्जर का ऐतिहासिक कलैंडर

    झज्जर की वादियों में एक लहलहाता गरिमामय इतिहास है । यहां के जनमानस की सोच आंदोलित रही है और इसका प्रमाण इसका इतिहास है । झज्जर का दुर्भाग्य यह रहा है कि यह दिल्ली के इतना समीप है कि न तो यह राजधानी बन सका और न सत्ता की भागीदारी पा सका । इसे दिल्ली के आकाओं के अनुरूप ही रहना होता था । दिल्ली झज्जर के लिए एक बरगद का ऐसा पेड़ था, जिसके नीचे झज्जर रूपी वृक्ष फलने-फूलने पाया ही नहीं । दिल्ली-सरकार के अन्तर्गत एक परगना होने के कारण उत्तर-पश्चिम की ओर से कोई भी आक्रमण होता तो उसकी मार हर हाल में झज्जर को झेलनी पड़ती थी ।

    जब झज्जर बसाई गई थी, उस समय पृथ्वीराज चौहान दिल्ली और अजमेर का राजा था और झज्जर का इलाका दिल्ली सूबे का हिस्सा था । सन् 1192 में मुहम्मद गौरी ने जब पृथ्वीराज चौहान पर हमला किया तो झज्जर का सारा इलाका एक गहरा जंगल था और इसके पूर्व में था एक मलोकन गांव और उसमें बसता था एक बहादुर, बुद्धिमान और कूटनीतिज्ञ बकुलान का जाट झोझू । यहां के जाटों ने पृथ्वीराज के हक में लड़ाई लड़ी थी । इसलिये 1193 में शहाबुद्दीन गौरी ने सजा के तौर पर इस मलोकन गांव को तबाह कर दिया था । इसी बहादुर झोझू जाट ने इस महान् शहर की नींव रखी थी, इसे पहले झोझू नगर भी कहते थी । झज्जर के माता गेट के अंदर, घोसियान मोहल्ले में आज भी झोझू जाट के वंशज रहते हैं । वहां रह रहे पोकर सिंह गहलावत के पुत्र श्री अनूप सिंह और वयोवृद्ध श्री शम्भुराम गहलावत इसी वंश से हैं । उनका कहना है कि उसके वंशज झोझू, जोणा और देवा तीन भाई थे जो वास्तव में राजस्थान से आये थे । इनकी एक बहन थी जिसका नाम सुखमा था । इनके साथ केवल तीन जातियां ही आईं थीं - मुंदालिये नाई, बबेलिये ब्राह्मण और खेल के हरिजन । झज्जर क्षेत्र में उन दिनों भाटियों का अधिपत्य था । झोझू ने बांकुलान खेड़ा के पास झज्जर बसाई, दूसरे भाई जोणा ने जोणधी बसाई और तीसरे भाई देवा जो बेऔलाद था, ने देवालय बसाया जो आज झज्जर के नेहरू कालिज की पास भव्य मंदिर के रूप में मौजूद है । इनकी बहन सुखमा ने सुरखपुर बसाया । घोसिकान मोहल्ले को पहले झोझू मोहल्ला फिर माता गेट या घोसियान मोहल्ला के नाम से जाना जाता है । झज्जर के चारों तरफ मजबूत दीवार थी, बाकायदा मजबूत दरवाजे लगे नौ गेट होते थे जिनमें माता गेट, दिल्ली गेट, सिलाणी गेट, भठिया गेट, बेरी गेट, सीताराम गेट, दीवान गेट मशहूर हैं जिन्हें आज भी जाना जाता है । लेकिन इनके केवल नाम हैं, कोई गेट नहीं है और नही किसी दीवार का नामो-निशान है ।

    झज्जर के नामकरण का दूसरा ऐतिहासिक पहलू यह भी है कि यहां चारों तरफ पानी ही पानी था, इसे झरना गढ़ और झझरी के नाम से भी जाना जाता था । झज्जर के इर्द-गिर्द पानी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर होता था । इसके इर्द-गिर्द साहिबी, इन्दूरी और हंसोती या कंसौटी नदियां बहा करती थीं । चारों ओर पानी ही पानी होता था । झज्जर के चारों तरफ पानी की विशाल झील होती थी, झज्जर तो एक टापू सा होता था । एक विशाल झील कोट कलाल और सूरहा के बीच होती थी । दूसरी विशाल झील कलोई और दादरी के मध्य में और तीसरी झील जो कुतानी तक पहुंचती थी, वह सोंधी, याकूबपुर और फतेहपुर के बीचों-बीच एक झील बनती थे । इसके रास्ते में एक पुल सिलानी की थली में आज भी एक नए रूप में मौजूद है । झज्जर की सीमा से पांच मील तक नजफगढ झील होती थी जो और आठ मील बुपनिया और बहादुरगढ़ तक फैल जाया करती थी । सांपला को तो यह झील अक्सर डुबोये रखती थी, 15 से 30 फुट तक गहरा पानी इस झील में भर जाया करता था । उधर झज्जर के पश्चिम में जहाजगढ़, तलाव, बेरी, ढ़राणा, मसूदपुर तक के पानी का बहाव भी झज्जर की ओर ही होता था । झज्जर के दादरी सर्कल में इन्दूरी और साहिबी नदी अलग-अलग दिशाओं से बहा करती थीं । इस तरह इस शहर का नाम पहली झाज्जू नगर, फिर झरनागढ़ और झज्जरी होते-होते झज्जर हो गया ।

    सिन्धु घाटी की सभ्यता के बारे में हड़प्पा की खुदाई के अवशेषों से व प्राचीन हरयाणा के सन्दर्भ से पता चलता है कि सम्भवतः आर्यों के आगमन के कारण हड़प्पा के लोग दक्षिण-पूर्व की ओर आ गये । महाभारत के समय में इस क्षेत्र को बहुधान्यक नाम से जाना जाता था और मयूर इसका चिन्ह होता था । यौद्धेय जनपद गणराज्य यानी प्राचीन हरयाणा प्रदेश का हिस्सा था झज्जर प्रदेश ।

    1191-92 : गौरी और पृथ्वीराज की लड़ाई के कारण उजड़े गांव मलोकन के बांकुलान जाट झोझू (झाजू) ने झज्जर बसाई थी ।

    1192-93 : झज्जर देश की राजधानी दिल्ली के अन्तर्गत आता था । अजमेर और दिल्ली में राजा राय पिथौरा पृथ्वीराज राज करता था । गोविन्द राज झज्जर क्षेत्र का वास्तविक शासक था ।

    1193-1206 : सन् 1192 में तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज हार गया । मोहम्मद शाहबुद्दीन गौरी ने झज्जर पर राज किया ।

    1206-10 : गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने बतौर हिन्दुस्तान के सूबेदार झज्जर पर राज किया । दिल्ली में सल्तनत कायम की गई । इस समय में झज्जर क्षेत्र पर कुबाचा सूबेदार शासन करता था ।

    1210-11 : ऐबक की मृत्यु के बाद लाहौर के सरदारों ने उसके पुत्र आरामशाह को सत्ता सौंप दी, लेकिन वह अयोग्य साबित हुआ ।

    1211-35 : सुल्तान इल्तुतमिश ने आरामशाह को बन्दी बना लिया और दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया ।इस शासक ने झज्जर पर 26 वर्षों तक राज किया । वास्तव में यही शासक दिल्ली सल्तनत का संस्थापक था ।

    1235-36 : इल्तुतमिश के बेटे रुकनुद्दीन फिरोज ने झज्जर पर 6 महीने 29 दिन राज किया ।

    1236-40 : इल्तुतमिश की बेटी रजिया ने अपने प्रेमी याकूत और अल्तुनिया के बल पर झज्जर पर 3 साल 6 महीने राज किया । रजिया की कैथल में हत्या कर दी गई थी ।

    1240-42 : इल्तुतमिश के तीसरे पुत्र बहराम शाह को सत्ता मिली, लेकिन उसने इस क्षेत्र के कई प्रभावशाली अमीरों को मरवा दिया और इससे बगावत हुई और उसका वध कर दिया गया ।

    1242-46 : अलाउद्दीन मसूद शाह, जो इल्तुतमिश का पोता और रुकनुद्दीन का बेटा था को सशर्त सुल्तान बनाया गया । लेकिन अमीरों ने उसे जेल में डाल दिया और उसका भी वध कर दिया । तबकते-नासिरी के लेखक मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार उसने 4 वर्ष, एक महीना और एक दिन राज किया ।

    1246-66 : इल्तुतमिश के सबसे छोटे बेटे नसीरुद्दीन महमूद ने राज संभाला और बलबन को अपना प्रधानमन्त्री बनाया । इस शासक ने मेवात और दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में बहुत भारी नरसंहार किया ।

    1266-86 : बलबन एक दास से भिस्ती, भिस्ती से अमीरी-शिकार और फिर प्रधानमन्त्री के पद तक पहुंचा । अपनी बेटी का विवाह सुल्तान सेकिया । उसने रेवाड़ी और हांसी की जागीरें भी हासिल कीं । 1286 में बलबन के बेटे बुगरा खान की बजाय सत्ता मिली बुगरा खान के बेटे कैकुबाद को, जो योग्य शासक साबित नहीं हुआ । राज का सारा काम मलिक फखरुद्दीन देखता था । उसने अपने दामाद निजामुद्दीन को पहले दादबक (महान्यायवादी) और बाद में नायब--मुल्क बना कर झज्जर पर राज किया, जिससे तुर्क खुश नहीं थे । तब जलालुद्दीन खिलजी को समाना से बुलाया गया ।

    1286-90 : जलालुद्दीन ने बुगरा खान के बेटे सुल्तान कैकुबाद और कयुर्मस की हत्या कर दी और इस तरह 14 साल के राज के बाद गुलाम वंश का अंत हो गया ।

    1290-96 : 12 जून 1209 को जलालुद्दीन खिलजी ने दिल्ली का राज संभाला । उसने दिल्ली के कोतवाल वीरजतन, हतिया पायक, बलबनी पहलवान और फकीर सीद्दी मौला का दखल झज्जर के राज में सीधे रूप से कर दिया था ।


    1296-1316 : अपने ससुर व चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी ने राजसत्ता हासिल की । उसने अपने ससुर का सिर भाले पर टांग कर सेना में घुमाया था । इसी शासक ने एक हिजड़े मलिक काफुर को मलिक नायब की उपाधि दी । 7 जनवरी से 11 जनवरी 1316 तक वह केवल कुछ दिन ही यह राज कर पाया और उसका वध कर दिया गया ।

    .....continued.
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    Last edited by dndeswal; September 25th, 2007 at 02:45 PM.

  2. #2

    Jhajjar-II

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    1316-20 : काफुर का वध करके अलाउद्दीन के बेटे कुतुबुद्दीन मुबारक शाह ने सत्ता संभाली । लेकिन उसके विश्वासपात्र खुसरो खां ने छल से उसकी हत्या कर दी और तीस वर्ष राज करके खिलजी वंश का अंत हो गया । क्योंकि खुसरो खां भारतीय मुसलमान था, इसलिए तुर्क सरदारों ने दीपालपुर के गाजी मलिक से मिलकर उसकी हत्या करवा दी ।

    1320-25 : 8 सितंबर 1320 को गाजी गयासुद्दीन तुगलक शाह दिल्ली की राजगद्दी पर बैठ गया ।

    1325-51 : अपने पिता गयासुद्दीन तुगलक की हत्या करके फखरुद्दीन जौना मुहम्मद तुगलक की नाम से राजसत्ता पर काबिज हुआ । इस शासक ने दिल्ली से राजधानी बदल कर दौलताबाद (दिल्ली से 950 किलोमीटर दूर) बना दी थी । इस समय में हरयाणा के गुलचन्द्र खोखर, नीजू, मेव और सहज राय का दखल झज्जर की राजसत्ता पर था ।

    1351-88 : मुहम्मद तुगलक निःसन्तान था, इसलिये सुल्तान के चचेरे भाई फिरोजशाह तुगलक ने सत्ता संभाली । उस शासक ने झज्जर तक सतलुज नहर का निर्माण करवाया, जागीरदारी बहाल की, बेरोजगारी मिटाने के लिये दीवाने-खैरात जैसे कार्यक्रम चलाए ।

    1388-90 : फिरोज के दो पुत्रों फतेह खां और जफ़र खां की मृत्यु हो गयी । फतेह खान के पुत्र को सुल्तान बनाया गया, यह शासक अयोग्य था । अब जफ़र खां के पुत्र अबूबक्र को सुल्तान बनाया गया ।

    1390-94 : फिरोज खां के अन्य लड़के महमूद को राज दिया गया । उसकी भी 8 मार्च 1395 को मृत्यु हो गई । मुस्लिम लुटेरे गाजी मलिक ने खिलजी वंश का विनाश किया और लोधी वंश की स्थापना हुई । बहलोल लोधी का राज आया । बहलोल ने उस्मान को झज्जर का शिकदार बनाया ।

    1394-1412 : सन् 1395 में उसका पुत्र नसीरुद्दीन महमूद गद्दी पर बैठा । झज्जर नुसरत शाह के अधीन था । तैमूर के आक्रमण से डर कर यह शासक भाग गया था, लेकिन तैमूर के जाने के बाद सन् 1412 तक उसने राज किया । यह तुगलक वंश का अन्तिम शासक था । इस तरह तुगलक वंश का भी 92 साल के शासन के बाद अन्त हो गया ।

    1414-21 : तैमूर के आतंक के बाद खिज्रखां ने सैय्यद वंश की स्थापना की ।

    1421-34 : खिज्रखां की मृत्यु के बाद उसके बेटे मुबारक शाह ने राजसत्ता संभाली । मुबारक शाह की हत्या के बाद मुहम्मद शाह सैय्यद राजसत्ता पर काबिज हुआ । वह सैय्यद वंश का अन्तिम शासक था ।

    1445-51 : मुहम्मद शाह का बेटा अलाउद्दीन आलमशाह गद्दी पर बैठा । उसने भी दिल्ली को छोड़ कर बदायूं को अपनी राजधानी बनाया ।

    1451-89 : मुहम्मद शाह के सेनापति बहलोल लोधी ने आलम शाह की हत्या करके राजसत्ता संभाली और सैय्यद वंश के 37 साल के शासन का अन्त करके लोधी वंश की पुनः स्थापना हो गई । सन् 1451 में हसन मेवाती का पूरा दखल झज्जर की राजसत्ता पर था ।

    1489-1517 : बहलोल के बाद सिकंदर लोधी ने राजसत्ता संभाली ।

    1517-26 : इबाहीम लोधी ने राज किया । पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने विजय हासिल की और मुगल वंश की स्थापना की ।

    बाबर लिखता है कि "भारत की राजधानी दिल्ली है । सुल्तान शियाबुद्दीन गौरी के समय से सुल्तान फिरोज शाह तक हिन्दुस्तान का अधिकांश भाग दिल्ली के बादशाह के अधीन था । जब मैने इस देश को जीता, तब यहां पांच मुसलमान व दो काफिर (हिन्दू) शासकों का राज था । यूं तो जंगली और पहाड़ी प्रदेशों में अनेक राजा और रईस राज करते थे, लेकिन मेवाड़ के राणा सांगा (संग्राम सिंह) और चन्देरी के मेदिनी राय का हस्तक्षेप भी इस क्षेत्र में बहुत था ।"

    1526-30 : मुगलों के पहले बादशाह बाबर ने राज किया । उस शासक ने हरयाणा को चार प्रशासनिक सरकारों (सरहिन्द, हिसार--फोरोजा, दिल्ली और मेवात) में बांट दिया । झज्जर इस समय दिल्ली सरकार के अन्तर्गत आता था ।

    1530-40 : बाबर के बेटे हुमायूं ने राज किया । हुमायूं ने मिर्जा कामरान को हरयाणा और पंजाब का गवर्नर बना दिया ।

    1540-44 : हरयाणा में जन्मे और बाबर की सेवा में रहे शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर हिन्दुस्तान पर राज किया ।

    1544-56 : शेरशाह सूरी को हराकर हुमायूं दोबारा राजसत्ता पर काबिज हुआ । रेवाड़ी के हेमू ने विक्रमादित्य की उपाधि पा ली थी ।

    1556-1605 : हुमायूं की मृत्यु के बाद उसके बेटे अकबर ने राजसत्ता संभाली, जो उस समय केवल तेरह वर्ष का था । लन्दन की ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई, लेकिन प्रतिशासक के रूप में बैरम खान राज करता था । उसके शासनकाल में अजमेर के राजा मानसिंह व टोडरमल का दखल राजसत्ता में था । पानीपत की दूसरी लड़ाई में रेवाड़ी के हेमू की अकबर के हाथों हार हुई ।

    1605-27 : अकबर की मृत्यु के बाद राजकुमारी जोधाबाई के पुत्र शहजादा सलीम ने जहांगीर के नाम से राज किया । किरपाराम गौड़ को हिसार इकाई का हाकिम बनाया गया ।

    1628-58 : जहांगीर के बाद शाहजहां ने राज किया । उसके शासनकाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी और डच सूरत, हुगली और चिनसुरा में अपनी औद्योगिक इकाइयां स्थापित कर चुके थे ।

    1659-1707 : अपने पिता शाहजहां और भाई मुराद को कारागार में डाल कर तथा दूसरे भाई दारा शिकोह की हत्या करके औरंगजेब सत्ता पर काबिज हुआ ।

    1707-12 : बहादुरशाह, जिसे शाह-आलम भी कहा गया, की मृत्यु के बाद उसके बेटों जहांदार, आजिम-उस-शान, जहान शाह और रफी-उस-शान में सत्ता की खूनी जंग हुई । तीन पुत्र मारे गए । जुल्फिकार खान की मदद से जहांदार को सत्ता मिली ।

    1712-18 : मराठाओं ने झज्जर पर राज किया । अप्पा कांडीराव के पास सत्ता थी झज्जर की ।

    1718-50 : जहानदार लाल कुमारी नाम की एक हसीना के हुस्न में खो गया । राज सिंहासन को सुरा और सुन्दरी का अड्डा बना दिया । आखिरकार जहानदार वजुल्फिकार खान की हत्या करके उसका भतीजा अजीम-उस-शान का बेटा फरुख्सियार ने अपने आप को शहंशाह घोषित कर दिया ।

    1772-78 : वाल्टर रीन हर्टस और बेगम सामरू ने झज्जर पर राज किया ।

    1798-1803 : बेगम सामरू, ब्रिटिश नेवी, निजाम हैदराबाद, सिंधियाओं की सेवाओं में रहने के बाद जार्ज थामस ने झज्जर पर राज किया ।

    1803 : अहमद शाह, शाह आलम-II, अकबर-II ने 1837 तक शाही वंश का नाम बचाये रखा और इस तरह बहादुर शाह जफ़र-II की रंगून में 1862 में मौत के बाद 300 सालों के मुगल शासन का सूर्य डूब गया । झज्जर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया ।

    .....continued...
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    Last edited by dndeswal; September 25th, 2007 at 06:50 AM.

  3. #3

    Jhajjar-III

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    1806-1824 : मराठाओं की संधि के बाद झज्जर को एक रियासत बना कर निजाबत अली को सौंप दिया गया, जिसमें कनौड़ और नारनौल शामिल किये गये । निजाबत अली खान झज्जर का पहला नवाब था । क्योंकि निजाबत अली खान ने अंग्रेजों और मराठों की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था, इसलिये 4 मई 1806 को अंग्रेजों ने झज्जर की जागीर उसे सौंप दी और बादली, कनोड़ के सभी भाग, कांटी, बावल और नारनौल का क्षेत्र इसमें शामिल किया गया । हांसी व इसके किले, हिसार, महम, तोशाम, बरवाला, बहल, जमालपुर, अग्रोहा, रोहतक, बहू और नाहड़ भी इस नवाब को दिये गए । बहादुरगढ़ की जागीर नवाब निजाबत अली खान के भाई इस्माइल खान को दी गई और पटौदी की जागीर उसके जीजा बवाब तलत खान को दी गई । निजाबत अली खान ने दिल्ली में रहकर ही झज्जर पर राज किया और 1824 में उसकी मौत होने पर उसे महरौली में प्रसिद्ध सन्त कुतुबुद्दीन साहिब औलिया के मकबरे के साथ में दफनाया गया ।

    1824-1835 : अपने पिता निजाबत अली खान की मौत के बाद 1824 में फैज मुहम्मद खान ने झज्जर रियासत का स्वतन्त्र रूप से कार्य भार संभाला । उसने बंगाल के मुगल वाससराय अली वर्दी खान, अवध के नवाबों और उसके बाद मुगलों की शाही सेना की सैनिक परम्पराओं से बहुत कुछ सीखा था । उसने उजड़े हुए गावों को बसाया, 4 मील लम्बे बादली बांध का निर्माण करवाया और अनेक भवन बनवाये । उसे समय रोहतक को जिला बनाया गया जिसमें गोहाना, खरखौदा, बेरी, महम और भिवानी को शामिल किया गया । सन् 1824 में मैट्काफ ने फिरोजशाह कैनाल की मरम्मत करवाई । फैज मुहम्मद खान की 1835 में मृत्यु हो गई और इसी के साथ झज्जर के अच्छे दिन भी खत्म हो गए ।

    1835-1845 : नवाब मुहम्मद खान के बेटे नवाब फैज अली खान को 1835 में झज्जर का नवाब बनाया गया । वह बहुत क्रूर शासक था और जमीन का लगान बहुत सख्ती से वसूलता था । उसकी अय्याशी के खर्चे इतने बढ़ गए थे कि उसने साल में कई बार लगान वसूलना शुरू कर दिया और झज्जर के गांवों में बगावत हुई । छारा गांव के लोगों ने लगान देना बंद कर दिया, बौखला कर नवाब गुड्ढ़ा गांव में गया और गांव का पिंड तब छोड़ा जब गुड्ढ़ा गांव ने छारा का भी लगान अदा कर दिया । इसी तरह डावला गांव का लगान रैय्या से वसूला । यह नवाब कामुक चरित्र का था, कई बेगमों के साथ नहाने के लिये खास तालाब बनवाया था । वह एक विशेष बग्गी, जिसमें काले हिरण जुते होते थे, को दस कोस दूर छुछकवास तक दौड़ाया करता था । 1838-1840 में नियमित बंदोबस्त के तहत रोहतक जिले का दर्जा खत्म करके इसके क्षेत्र गोहाना को पानीपत में और बाकी सभी तहसीलें दिल्ली जिले में शामिल कर दीं गईं । अब झज्जर फिर दिल्ली का हिस्सा बन गई । अंग्रेजों ने बहादुरगढ़ की जागीरी झज्जर में मिला दी और इसे निबाजत अली खान के भाई मुहम्मद इस्माइल खान को सौंप दिया ।

    1845-1857 : सन् 1845 में झज्जर के आखिरी नवाब अब्दुर्रहमान खान ने नवाबी संभाली । उसने जहांआरा बाग में महल का निर्माण करवाया और छुछकवास में एक भव्य महल और एक विशाल तालाब बनवाया । छुछकवास की एक लड़की का विवाह नवाब से हुआ था, उस लड़की के पुत्र होने पर यह गांव नवाब को छुछक में दिया था, तभी से इसका नाम छुछकवास पड़ा । नवाब के राज संभालने के समय झज्जर के दरबारियों ने उसकी नाजायज वंशावली का विरोध किया जिससे वह कभी उभर नहीं पाया । राजस्व इकट्ठा करने में यह नवाब अपने पिता से भी दो कदम आगे था और लोगों में इस मामले में बड़ी अफरा-तफरी थी । इसने अपने पिता के समय के वजीर बदल कर झज्जर के पं. रिछपाल सिंह, कुतानी के ठाकुर स्यालू और बादली के चौ. गुलाब सिंह को अपना दीवान बनाया था । झज्जर में आज भी इन दीवानों के नाम का दीवान गेट है । उस समय झज्जर के गांवों में काफी खुशहाली थी, आम आदमी का सम्मान था । झज्जर रियासत में बादली समेत 360 गांव थे, 14 लाख की सालाना आमदनी थी । नवाब ने झज्जर के दक्षिण में अपनी फौज के लिए एक छावनी बनाई, किलों पर तोपें चढा दीं गईं । सिलाणी गांव की बणी में नवाब की फौजों की परेड हुआ करती थी और छुछकवास की बीड़ में गोलाबारी का अभ्यास हुआ करता था । जल्दी ही हवा बदली - आजादी की पहली चिंगारी मेरठ से उठी और उसने सारे उत्तरी भारत को समेट लिया - यह एक अचम्भित करने वाली बगावत थी ।

    1857 :

    10 मई 1857 को मेरठ के सैनिकों ने बगावत की लेकिन 11 मई को दिल्ली तथा रोहतक को अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया । बंगाल सिविल सेवा से कलेक्टर जोन आदम लोच को यहां का चार्ज दिया गया । उसने छुट्टी पर गये सभी सैनिकों को रोहतक बुलवाया लेकिन झज्जर के नवाब ने इस नोटिस पर कोई कार्यवाही नहीं की । एक हफ्ते बाद एक और नोटिस नवाब के पास भेजा गया । झज्जर के नवाब ने दो बंदूकों सहित कुछ सैनिकों व घुड़सवारों को रोहतक भेज दिया, इससे गांव के लोग और भड़क गए । आखिर 23 मई 1857 को दिल्ली के शहंशाह बहादुर शाह ने तफजल हुसैन को बहादुरगढ़ के रास्ते छोटी सी फौज के साथ झज्जर भेजा । यहां पर पहले से ही तैनात तहसीलदार बखतावर सिंह ने तफाजल हुसैन का साथ दिया लेकिन इससे यह आंदोलन नहीं संभला और वह भी रोहतक भाग गया ।

    आदम लोच ने अब कुद कमान संभाली लेकिन तफाजल हुसैन और यहां के रांघड़ों, राजपूतों और जाटों के सामने कलैक्टर टिक नहीं पाये और उसे खुद गोहाना भागना पड़ा, 24 मई को तफाजल हुसैन ने अंग्रेजों के दफ्तर, अदालतें, निवास और जेलें जला डालीं, कैदियों को आजाद करवा लिया । महम, मदीना और मांडोठी के कस्टम बंगले जला दिये गए । सांपला में भारी तबाही मचाई गई । जहां भी अंग्रेज रहते थे, उनके घर, बंगले सब नष्ट कर दिये गए । बादली गांव में कई अंग्रेजों को पकड़ कर जाटों ने बैलों की जगह गंहटों पर जोड़ दिया और सांटे मार-मार कर उनको अधमरा कर दिया । उसके बाद सांपला तक पैदल और फिर कलानौर के रिसलदार संदल खां व उसके पिता की मदद से बहादुरगढ़ होता हुआ घोड़े पर दिल्ली भाग गया । गोहाना के चौ. रुस्तम अली खान ने तहसील बिल्डिंग का चार्ज ले लिया और यहां के रिकार्ड और धन को बचाया । उधर महम का तहसीलदार लछमन सिंह गायब हो गया और तहसील कार्यालय और रिकार्ड को जला दिया गया, सारा धन लूट लिया गया । आपसी झगड़े और लूट-खसोट भी चली । सांपला के दहिया और दलाल हसनगढ़ में इकट्ठे हुए । सांपला पर अहलावत जाटों ने हमला किया, इस्माईला गांव ने सांपला की मदद की और अहलावतों को हराया । इसी तरह गुड़गांव के कलैक्टर क्लिफोर्ड की बहन को दिल्ली के दरबार में नंगा घुमाया गया और बाद में उसे गन-वाहन से बांध कर दिल्ली के चांदनी-चौक में घसीटा गया, बहादुरशाह के बेटों के सामने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गए । अब तो अंग्रेजी सरकार झज्जर और गुड़गांव से थर्रा गई थी और यह भय हो गया था कि कहीं ये रांघड़ और मेव बाबर खान के नेतृत्व में फिरोजपुर झिरका की ओर से दिल्ली पर धावा न बोल दें ।

    ....continued..
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    Last edited by dndeswal; September 25th, 2007 at 12:14 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  4. #4

    Jhajjar-IV

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    4 अक्तूबर को ब्रिगेडियर शाबर्स और कैप्टन हुड्सन जे 13 दिन रांघड़ों से लड़ाई की लेकिन झज्जर और रोहतक को नहीं ले पाये । अब्दुर्रहमान खान के ससुर अब्दुस समद खान ने दिल्ली में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा ले लिया, बादली की सराय की लड़ाई में झज्जर के नवाब ने बहुत धन और सैनिक दिये । अब तो अंग्रेजों के सामने सारा हिन्दुस्तान एक तरफ और झज्जर एक तरफ - अंग्रेजों ने पूरी ताकत झोंक दी और सितंबर 1857 में जनरल वान कोर्टलैंड के नेतृतव में रांघड़ आखिरकार परास्त हो गये, उनकी जमीनें कुर्क कर ली गईं । क्रांतिकारियों और बहादुरशाह जफर का साथ देने के जुर्म में झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान खान को कर्नल लारेन्स ने छुछकवास के किले में आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया । उस समय नवाब के साथ उसके खजांची लाला बस्तीराम और दूसरे सलाहकार भी थे । लाला बस्तीराम के नाम पर आज भी झज्जर में मोहल्ला बस्तीराम है । 14 सितंबर 1857 को अंग्रेजों का दिल्ली पर पुनः कब्जा हो गया ।


    18 अक्तूबर 1857 को झज्जर के नवाब ने छुछकवास के किले से आत्मसमर्पण कर दिया, झज्जर की जागीर जब्त कर ली गई । जहाजगढ़, कनोड़ और झज्जर के किलों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया, धनधान्य से पूर्ण शहर झज्जर को लूट लिया गया, चारों तरफ लाशें ही नजर आने लगीं थी । झज्जर कर्नल लारेन्स के अधिकार में सौंप दी गई, 600 पैदल और 200 घुड़सवार पटियाला रियासत से अंग्रेजों की सहायता के लिए झज्जर में तैनात कर दिये । नवाब के परिवार की औरतों, जो कि जीनत-उन-निशा बेगम, जैबुन-उन-निशा बेगम, जुमिद-उन-निशा बेगम और जीनत-उन-निशा बेगम की बेटी उमराव बेगम के नाम 25000 रुपये प्रत्येक के नाम के एक लाख के प्रोमिसिरी नोट्स जो कि उन्होंने जनवरी 1853 में खरीदे थे, जब्त कर लिये गए । साथ ही 31 अक्तूबर को फरुखनगर और बहादुरगढ़ के नवाबों को भी पकड़ लिया गया था । इनकी जायदादें कुर्क कर लीं गयीं । राव तुलाराम रेवाड़ी छोड़ कर जा चुके थे । नवाब मुहम्मद अली और उसके ग्यारह साथियों को गुस्साये अंग्रेजों ने तोप के मुंह से बांध कर उड़ा दिया । 16 नवंबर 1857 को झज्जर नवाब की बची-खुची फौजों, रेवाड़ी के राव तुलाराम, हिसार के शहजादा मुहम्मद आजम और जोधपुर के अपदस्थ राजा की फौजों ने मिलकर नारनौल के पास नसीबपुर में आखिरी लड़ाई लड़ी - कर्नल जिराड़, कैप्टन वालेस के साथ, जिनके साथ पटियाला की फौजें भी थीं । दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार कर के काला पानी भेज दिया गया ।


    8 दिसंबर 1857 को दिल्ली में यूरोपियन मिलिटरी कमीशन की कार्यवाही दिल्ली के एक महल Imperial Hall of Audience में शुरू हुई जिसमें पंजाब के चीफ कमिश्नर सर लारेंस के निर्देशानुसार मेजर जनरल पैरों ने नवाब पर मुकदमा चलाये जाने का आदेश पेश किया । सिर्फ चार दिन की सुनवाई के बाद ही 11 दिसंबर 1857 को झज्जर के नवाब को फांसी पर लटकाने का हुक्म दे दिया गया । एक अनूठे दस्तावेज "The Trial of Abdul Rahman Khan, Nawab of Jhajjar" की मूल प्रति National Archives, New Delhi में है जिसमें नवाब की फांसी का प्रामाणिक और हू--हू वर्णन है । नवाब की पैरवी राम रिछपाल सिंह ने की थी । फैसले की चंद लाइनें ये हैं :


    The Board, having found the prisioner guilty of the charge preferred against him, to sentence Abdoor Rahman Khan, Nawab of Jhajjar to be hanged by the neck until he be dead, and board further sentence him to forfeit all his property and effect of any discription".


    इस तरह 23 दिसंबर 1857 को लालकिले के सामने अंग्रेजों ने झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान को फांसी पर लटका दिया । फांसी जैसी सजा का निपटारा इतने थोड़े समय में किया जाना एक ऐतिहासिक कानूनी मजाक था ।

    इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त करके ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासन की बागडोर संभाल ली । फरवरी 1858 में नई प्रशासनिक व्यवस्था के अनुसार हरयाणा रेगुलेशन जिलों से अलग कर पंजाब के साथ जोड़ दिया गया और इसके इलाकों को पंजाब के उन राजाओं में बांट दिया गया, जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों का साथ दिया था । महाराजा पटियाला को दो लाख रुपये सालाना आमदनी का नारनौल डिवीजन और भादौर की रियासत मिल गई । जींद के राजा को 103000 रुपये की आमदनी का दादरी का इलाका और 13800 रुपये की आमदनी के परगने और 13 गांव मिल गए । नाभा के राजा को 106000 रुपये की आमदनी का झज्जर का इलाका मिल गया । इन राजाओं ने इन रियासतों के बदले अंग्रेजी सरकार के वफादार रहने और मदद करने का वचन दिया । इस तरह झज्जर का इतिहास पंजाब और दिल्ली के इतिहास का अंग बन गया ।


    ---------------------------------------------
    Main Excerpts:

    1. "Jhajjar: Itihas ke Aaine se" by Azad Singh Chahar. Published by Haryana Sahitya Akademi, Panchkula (2005).

    2. Rohtak District Gazeteer - various pages.
    .
    Last edited by dndeswal; September 25th, 2007 at 12:04 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  5. #5
    Great sir.... kahan se ikkathhi ki ye sab information... sara nahi padh paya... pehla post padha keval... kaafi achha hai...

  6. #6
    Salutations to u DND uncle for the vaulable info!!

    keep posting!!

    Thx a lot for ur time n efforts!!


    Rock on
    Jit
    .. " Until Lions have their historians, tales of the hunt shall always glorify the hunter! " ..



  7. #7

    Great contribution

    Great contribution Deswalji !!!

    I have linked this article with Jatland wiki. Can you add some facts from here to Jhajjar article on link given here.

    http://www.jatland.com/home/Jhajjar

    Regards,
    Laxman Burdak

  8. #8

    Lightbulb Very informative

    Dayanand ji bahut aacha thread likhya aapne .... kitab padhan ka to issae ee soot baithe hai par aadmi hade isse rochak thread padh ke ee apni history ki knowledge update kar le hai .....

    One point I wish to ask ..... Maharaja Jawahar singh/Surajmal ne bhi shayad is ilake pe 1750-1760 ke aas paas raaj kiya tha?? aap thoda parkash daliyo.

  9. #9
    From your post it is clear that the RANGHADs were great worriors. I have seen some Dharamshala or person towards Karnal but could you put some light on these too. Who are they, from where and now a days what is their status?

  10. #10
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    Quote Originally Posted by dndeswal View Post
    (Post in Devanagari script - in case of difficulty in reading, please install ‘Mangal’ font)


    झज्जर का ऐतिहासिक कलैंडर

    झज्जर की वादियों में एक लहलहाता गरिमामय इतिहास है । यहां के जनमानस की सोच आंदोलित रही है और इसका प्रमाण इसका इतिहास है । झज्जर का दुर्भाग्य यह रहा है कि यह दिल्ली के इतना समीप है कि न तो यह राजधानी बन सका और न सत्ता की भागीदारी पा सका । इसे दिल्ली के आकाओं के अनुरूप ही रहना होता था । दिल्ली झज्जर के लिए एक बरगद का ऐसा पेड़ था, जिसके नीचे झज्जर रूपी वृक्ष फलने-फूलने पाया ही नहीं । दिल्ली-सरकार के अन्तर्गत एक परगना होने के कारण उत्तर-पश्चिम की ओर से कोई भी आक्रमण होता तो उसकी मार हर हाल में झज्जर को झेलनी पड़ती थी ।

    ............. 11 जनवरी 1316 तक वह केवल कुछ दिन ही यह राज कर पाया और उसका वध कर दिया गया ।

    .....continued.
    .
    bahut khoob Sir

    me tte pahle hi sochun than ukk aap dayanad hi koni deswal bhi so!!!!!

  11. #11
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    manne ek ber aa lt general KK singh ne batayi thi ukk aa jo gazetteer hoya karte us me ek ek baat baddi soch samajh ke aa angrez likhya karte. aur un angrezan nne likhya tha bombay gazeteer me ukk jattan nne sumunder me samudri dakuan ke roop me issya bhay vyapt kiya jishya ke koi kabhi koni kar paya tha.

    aur Muttra (not mathura) gazetteer bhi ek. jo angrez likhyan karte. aa me angrezan nne maharaja kanishick nne Jat bolya tha.

    "By all looks he seemed to be a Jat. Ek gathe badan ka vyakti prateet hota hai ye kanishka. Even if we dnt have his head but all his looks seemed to be like Jats. Later Guptas followed his long boots and trousers as the dress of their armies. Even all system of army in Gupta period was that of Kanishka"

    Aur katti ek panchayti ruler sya dikkhe tha, ya kanishka. koi ghar khodo muttra ka udde nne koi na koi murty thya jaye sse kanishka ki.

    the question is there whether Guptas were following Kushanas system. But, no ...... A Jat was following the Jat's traditions. Here I oppose the findings of Dr. K P Jaiswal that Guptas were Jats from Punjab. In fact Guptas were Jats from Mathura, The Dharan ones.

  12. #12
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    aa pharswal/perswal Jat rhaya kare tha aa KK Singh, rohtak ka. aa ek din gummann likad gaya and saw the sindh river in Trans-chambal area. he could identify it with bigger sindh river. and wrote an impressive article on "Jats in Trans-chambal area" like gohad naresh who were later the rulers of dhaulpur, the ranas.

  13. #13

    A short essay on Maharaja Suraj Mal

    Quote Originally Posted by jitendershooda View Post
    Dayanand ji bahut aacha thread likhya aapne .... kitab padhan ka to issae ee soot baithe hai par aadmi hade isse rochak thread padh ke ee apni history ki knowledge update kar le hai .....

    One point I wish to ask ..... Maharaja Jawahar singh/Surajmal ne bhi shayad is ilake pe 1750-1760 ke aas paas raaj kiya tha?? aap thoda parkash daliyo.
    महाराजा सूरजमल की सही जन्मतिथि का अभी तक पता नहीं, पर वे फरवरी 1707 में पैदा हुए थे । ठीक उसी समय (3 फरवरी 1707) को औरंगजेब की मौत हुई । मैं तो कहता हूं कि औरंगजेब से ज्यादा दुष्ट, पापी बादशाह और कोई नहीं हुआ ।

    महाराजा सूरजमल ने जयपुर के महाराजा जयसिंह से भी दोस्ती बना ली थी । 21 सितम्बर 1743 को जयसिंह की मौत हो गई और उसके तुरन्त बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधो सिंह में गद्दी के लिये झगड़ा हुआ । महाराजा सूरजमल बड़े बेटे ईश्वरी सिंह के पक्ष में थे जबकि उदयपुर के महाराणा जगत सिंह माधो सिंह के पक्ष में थे । बाद में जहाजपुर में दोनों भाईयों में युद्ध हुआ और मार्च 1747 में ईश्वरी सिंह सिंह की जीत हुई । एक साल बाद मई 1748 में पेशवाओं ने ईश्वरी सिंह पर दबाव डाला कि वो माधो सिंह को चार परगना सौंप दे । फिर मराठे, सिसोदिया, राठौड़ वगैरा सात राजाओं की फौजें माधोसिंह के साथ हो गई और ईश्वरीसिंह अकेला पड़ गया । महाराजा सूरजमल दस हजार सैनिकों के साथ ईश्वरी सिंह की मदद के लिये जयपुर पहुंचे और अगस्त 1748 में सातों फौजों को हरा दिया । इसी के साथ सूरजमल की तूती सारे भारत में बोलने लगी थी ।

    मई 1753 में महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला पर कब्जा कर लिया । दिल्ली के नवाब गाजी-उद-दीन ने फिर मराठों को सूरजमल के खिलाफ भड़काया और फिर मराठों ने जनवरी 1754 से मई 1754 तक भरतपुर जिले में सूरजमल के कुम्हेर किले को घेरे रखा । मराठे किले पर कब्जा नहीं पर पाए और उस लड़ाई में मल्हार राव का बेटा खांडे राव होल्कर मारा गया । मराठों ने सूरजमल की जान लेने की ठान ली थी पर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की मदद से मराठाओं और सूरजमल में संधि करवा दी ।

    बाद में 1760 में सदाशिव राव भाऊ और सूरजमल में कुछ बातों पर आनाकानी हुई थी । मथुरा की नबी मस्जिद को देखकर भाऊ ने गुस्से में कहा - सूरजमल जी, मथुरा इतने दिन से आपके कब्जे में है, फिर इस मस्जिद को आपने कैसे छोड़ दिया ? सूरजमल ने जवाब दिया - अगर मुझे यकीन होता कि मैं सारी उम्र इस इलाके का बादशाह रहूंगा तो शायद मैं इस मस्जिद को गिरवा देता, पर क्या फायदा ? कल मुसलमान आकर हमारे मंदिरों को गिरवायें और वहीं पर मस्जिदें बनवा दें तो आपको अच्छा लगेगा? बाद में फिर भाऊ ने लाल किले के दीवाने-खास की छत को गिरवाने का हुक्म दिया था, यह सोच कर कि इस सोने को बेचकर अपने सैनिकों की तनख्वाह दे दूंगा । इस पर भी सूरजमल ने उसे मना किया, यहां तक कहा कि मेरे से पांच लाख रुपये ले लो, पर इसे मत तोड़ो, आखिर नादिरशाह ने भी इस छत को बख्श दिया था । पर भाऊ नहीं माना - जब छत का सोना तोड़ा गया तो वह मुश्किल से तीन लाख रुपये का निकला । सूरजमल की कई बातों को भाऊ ने नहीं माना और यह भी कहा बताते हैं - मैं इतनी दूर दक्षिण से आपकी ताकत के भरोसे पर यहां नहीं आया हूं ।

    14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई । मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए । मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती । पर उसने यह बेवकूफी की और उस जंग में अपनी जान भी गंवा बैठा । महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया । तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था । जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे । दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया । महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया । सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए । जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें । कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे । उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं । बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए । महाराष्ट्र में 'डांगे' भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरयाणा में 'दांगी' भी उन्हीं की शाखा है ।

    मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते । 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया । वीरों की सेज युद्धभूमि ही है । 25 दिसंबर 1763 को नवाब नजीबुदौला के साथ युद्ध में महाराज सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए ।

    और विस्तार के लिए देखिये जाटलैंड wiki का यह पेज :
    http://www.jatland.com/home/Maharaja_Suraj_Mal

    .
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  14. #14
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    aa surajmal nne badda samjhaya aa bhau nne ukk bhai aa phaltu ke pange koni lye. aa koi masjid toddann challe tha bhau, tte surajmal nne aapni jeb tte us jamane me us nne raapiye diye, ukk bhai is masjid nne koni tod, is tte mhara deen-imaan judya sse. is ke peessye tu mhare tte le le bhai.

    tte phir aa mhara bada bhai bolya ukk pahle tte is mulle (abdali) nne dekh lunn tte phir is Jatt (surajmal) nne dekhunga.

    maharaja surajmal turant samajh gya ukk bhai is great maratha ka uddeshya tte manne bhi bandi bannann ka sse. tte bhai tu kukkar pachavit karre sse. tte bhai aa tatasth rahya, ukk dono luterann nne aapas me bhidden de.
    Last edited by psgahlaut; September 27th, 2007 at 02:21 AM.

  15. #15
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    but Jat always remained the most logistic person. the kind of which was never born b4!

  16. #16
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    udde nne kitti nne kabhi Jat rhya karte un ki neev aaj tuck koni haali. Sorry, to comment on great reformer Mahrishi Dayanad. Aa nne Jathed puja (ancestor worship) pe bhi rok lagwa di thi. Aa murti pooja or Jathed puja me thoda sa fark tha. Its due to our ancestral regards only that Jats are bearing gots which are thousands of years old.

    Though I'm also staunch Arya samaji.

    aa kabir marya tha. tte musalman bole ukk humm is nne dafnayenge aur hindu bole ukk hum is ne phunkenge. tte pher bhai us ki arthi tte jo parda tthyaya us me phool hi phool the. aa nne hindu/muslim ne aapas me baant liya.

    my nanaji once told me that some Jats are Kabirpanthi also? But whether anybody saw any Kabirpanthi Jat?

    I read original Herodotus history, who said that Jats practiced Canibalism and used to eat their parents and grandparents.
    "No man dies natural death here. When a man grows too old then all his kinsfolk collect togather and offer him up in sacrifice. His flesh is distributed among kinsfolk. Those who die like this are called fortunate. But if a man falls sick and can not be sacrificed then he dies cursing himself for his ill fortune"

    I feel that it was ancestral love of jats towards their ancestors and the over affection of Jats elders for their generation, which was mis-interpretted by Herodotus as cannibalism. This love for ancestors is seen among Jats in the form of Jather puja.

    In my mother village I saw sahi-dada bagichi wala.

    Jathed puja was invariably practiced everywhere among Jats and I think this is the reason why Jats have most ancient clans.

    Jat always was in majority for thousands of years around Delhi,. but the rulers were always, at least most of the times, were non-Jats. Why???????????????????????
    Last edited by Samarkadian; December 28th, 2008 at 01:01 PM. Reason: One concrete post

  17. #17

    Swami Dayanand's popularity among Jats

    Quote Originally Posted by psgahlaut View Post
    udde nne kitti nne kabhi Jat rhya karte un ki neev aaj tuck koni haali. Sorry, to comment on great reformer Mahrishi Dayanad. Aa nne Jathed puja (ancestor worship) pe bhi rok lagwa di thi. Aa murti pooja or Jathed puja me thoda sa fark tha. Its due to our ancestral regards only that Jats are bearing gots which are thousands of years old.

    Though I'm also staunch Arya samaji.
    अरै रहने दे प्रमोद - बेचारे स्वामी दयानन्द ने तो न कोई नया पंथ चलाया और न ही किसी काम पर रोक लगवाई, उसने तो बस लोगों को समझाया था । जाटों ने उसकी बातों को अच्छी तरह समझा क्योंकि जाट तो सदा से ही वैदिक संस्कृति में विश्वास करते आये हैं । आर्यसमाज केवल एक संस्था है, कोई अलग मजहब या संप्रदाय नहीं, इसकी स्थापना सामाजिक बुराइयों को मिटाने और वैदिक संस्कृति के प्रचार के लिये की गई थी । आर्यसमाज भी वहीं फैला जहां जाट बहुतायत में रहते थे - यानि कि उत्तर भारत में । स्वयं गुजरात में, जहां स्वामीजी का जन्म हुआ था, वहां भी उसे इतनी लोकप्रियता नहीं मिल पाई ।

    और तू खुश रह भाई - झज्जर भी एक गहलावत जाट की बसाई हुई है !
    .
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  18. #18
    The Hindi content provided by Dayanand Ji Deswal about Jhajjar and Maharaja Suraj Mal has been transferred and integarted with Jatland Wiki Articles with a view that it may not be lost with the thread. Members may see there -

    http://www.jatland.com/home/Maharaja_Suraj_Mal

    http://www.jatland.com/home/Jhajjar

    Regards,
    Laxman Burdak

  19. #19
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    The Hindi content provided by Dayanand Ji Deswal about Jhajjar and Maharaja Suraj Mal has been transferred and integarted with Jatland Wiki Articles with a view that it may not be lost with the thread. Members may see there -

    http://www.jatland.com/home/Maharaja_Suraj_Mal

    http://www.jatland.com/home/Jhajjar

    Regards,
    Thanks, Burdak ji. Shortly, I will expand both these WIKI pages with Hindi content, by adding more inputs about the happenings after 1857 (in case of Jhajjar) and some other facts about Maharaja Suraj Mal.
    .
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  20. #20
    .
    I think this thread would remain incomplete without some details about Gurukul and its museum. Here are some inputs which have also been incorporated in Wiki section.

    गुरुकुल झज्जर

    स्वामी ओमानन्द सरस्वती ने झज्जर-रेवाड़ी रोड पर एक ऐसे गुरुकुल का संचालन किया कि आज झज्जर क्षेत्र में यह केन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शिक्षा संस्थान है । झज्जर गुरुकुल की स्थापना 16 मई 1915 में पं. विश्वम्भर दास झज्जर निवासी ने की । इसी दिन महात्मा मुंशीराम जी (श्रद्धानन्द) ने गुरुकुल की आधारशिला रखी । 138 बीघा जमीन पं. विश्वम्भर दास ने दान स्वरूप दी । गुरुकुल झज्जर का 20 वर्षों तक स्वामी परमानन्द जी संचालन किया । इस काल में गुरुकुल झज्जर ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे ।

    अंततः 22 सितंबर 1942 को स्वामी ब्रह्मानन्द जी, जगदेव सिंह सिद्धान्ती और श्री छोटूराम के आग्रह पर स्वामी भगवान देव जी ने गुरुकुल झज्जर का कार्यभार संभाला । उस समय गुरुकुल में दो-चार छोटे ब्रह्मचारी, दो-तीन बूढ़े कर्मचारी थे । गोशाला में दो बैल और तीर-चार गायें थीं । गोशाला में दो-तीन छप्पर पड़े थे । एक बड़ा हाल कमरा व उसके साथ लगते दो छोटे कमरे थे, उनका शहतीर भी कुछ लोग उतार कर ले गये थे । खारे पानी का एक कुआं होता था । उसी में स्नान करना पड़ता था । बस यही सम्पदा मिली थी गुरुकुल झज्जर में आचार्य भगवान देव जी को, लेकिन गुरुकुल संभालने के बाद फिर क्या था, जैसे सोने का पारखी मिल गया हो और गुरुकुल झज्जर का प्रगति चक्र इतना तीव्र चला कि विलम्ब से मनाई गई 20 से 22 फरवरी 1947 के रजत जयन्ती समारोह में गोशाला की आधारशिला डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने रखी जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने ।

    आज गुरुकुल झज्जर में महाविद्यालय, पुरातत्व संग्रहालय, विशाल पुस्तकालय, औषधालय और गोशाला, व्यायामशाला, यज्ञशाला, उद्यान, भोजनालय, छात्रावास, अतिथिशाला, वानप्रस्थी सन्यासी कुटी समूह आदि के विशाल भवन खड़े हैं । महाविद्यालय में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक द्वारा मान्यता प्राप्त महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित आर्य पाठ्य विधि का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है । पुरातत्व संग्रहालय में विपुल ऐतिहासिक पुरा अवशेष संग्रहीत हैं । औषधालय में असाध्य रोगों के निदान के लिए औषधियों का निरन्तर निर्माण चल रहा है । आयुर्वैदिक पद्धति से चिकित्सा कार्य होता है । अनेक औषधियों का आविष्कार करने की ख्याति प्राप्त की जिनमें संजीवनी तेल, बदलामर्त, स्वप्नदोषामृत, स्त्रीरोगामृत, अर्ष रोगामृत, सर्पदंशामृत और नेत्र ज्योति सुरमा जन-जन में लोकप्रिय हैं । कैंसर जैसे असाध्य रोगों का सफल इलाज गुरुकुल झज्जर में होता है । गुरुकुल झज्जर की हवन सामग्री रूहानी सुगन्धों से भरी होती है ।

    अपने जीवन के कठोरतम, संघर्षमय क्षण, जेलों के संस्मरण, विदेशयात्रायें, संग्रहालय की स्थापना और उसमें एकत्रित दुर्लभ वस्तुओं का विवरण, शरीर पर घावों के निशान, हरयाणा बनने की कहानी में झज्जर का योगदान, आमरण अनशन, हिन्दी आंदोलन, अस्त्र-शस्त्रों का बीमा, हिन्दू-मुस्लिम मारकाट के संस्मरण, महाभारत काल के अस्त्र-शस्त्र, मुस्लिम भेष धारण करके लाहौर जाने का संस्मरण, 1947 में 1000 कारतूसों का प्रबन्ध, दिव्य अस्त्रों का जखीरा, हाथी दांत पर कशीदाकशी से शकुंतला की आकृति, चन्दन की जड़ में सर्प, चित्तौड़गढ़ का विजय स्तंभ, बादाम में हनुमान, झज्जर के नवाब फारुख्शयार का कलमदान और मोहर, नवाबों की चौपड़, गोटियां और पासे, माप-तोल के बाट और जरीब । गुरुकुल की इस विरासत और धरोहर को देखकर बस यही कहा जा सकता है कि :

    झज्जर तेरे आंगन में इस स्थान को सलाम ।
    विरासत में दे गया एक अहतराम को सलाम ।

    हरयाणा पुरातत्व संगृहालय

    गुरुकुल झज्जर के प्रांगण में एक अद्भुत, अनूठा और आश्चर्यचकित कर देने वाला पुरातत्व संग्रहालय है, जो हरयाणा में सबसे विशाल है । इसका उदघाटन 13 फरवरी 1961 को राजस्थान के चौ. कुम्भाराम आर्य ने किया था । इस अवसर पर एक छोटे से कमरे में पुरातत्व सामग्री फैला कर रखी गयी थी । उस समय केवल थोड़े से सिक्के, ठप्पे और प्राचीन ईंटें ही संग्रहालय में संग्रहीत की जा सकी थी । कल्पना से परे था इसका वर्तमान स्वरूप । आज गुरुकुल झज्जर का संग्रहालय विश्वविख्याती प्राप्त है ।

    इसमें पुरातत्व संग्रहालय द्वारा किये जाने वाले शोध कार्य की सहायता के लिए इतिहास विषयक ग्रन्थों का एक पुस्तकालय है । 427 ताम्र-पत्रों पर खुदाई करके लिखे गये स्वामी दयानन्द रचित सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश इस संग्रहालय का एक अनूठा और दुर्लभ कार्य है । एक ताम्रपत्र का वजन ढ़ाई किलोग्राम है । इन्हें लिखवाने में लगभग 250000 रुपयों का खर्च आया था । यहां पर अनेकों हस्तलिखित ग्रन्थ व पत्र भी उपलब्ध हैं, जिनमें रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, धर्मदर्शन, पत्तों पर लिखी ज्योतिष और विविध विषयों पर लेख और अभिलेख उपलब्ध हैं ।

    सिक्कों का एक बहुत बड़ा भंडार संग्रहीत किया गया है, जिनको शीशों के बक्सों में करीने से रखा गया है । इनमें आजुर्नापन और तुम्बर, कुणिद, यौद्धेय, आग्रेह, कृषणि, रोमन, यूनानी, तुगलकी, खिलजी वंश, गुप्त पल्लव कुशा, गुर्जर, चोल, प्रतिहार, तोर और मुगलों सहित सभी वंशों, राजसत्ताओं और शासकों की मुद्राएं संगृहीत की गयीं हैं । कुछ मुद्राओं के तो ठप्पे भी मौजूद हैं, जिनसे मुद्राएं तैयार की जाती थीं । इनमें विशेष अंटी, अल्किदश, एरमेयस, कासरापन, लिसियस, अन्टिमाक्स, गुर्जर, फिलाक्सन्स आदि के अति दुर्लभ ठप्पे मौजूद हैं ।

    इस संग्रहालय में एक अजूबा है जिस पर विश्वास करना तक कल्पना से परे है - लोचदार पत्थर । कलियाणा (दादरी) से प्राप्त हुआ एक लचीला पत्थर संग्रहीत है जो अद्भुत है । संग्रहालय में रामायणकालीन छोटी-बड़ी 33 मूर्तियां हैं । मूर्तियां इतनी अमूल्य हैं कि इन्हें जापान में मनाए गये 'भारत महोत्सव' में प्रदर्शित करने के लिए इनका बीमा 72 लाख रुपये में हुआ था । पांच फुट ऊंची विष्णु भगवान की मूर्ति, गणेश जी की दो फुट ऊंची मूर्ति, सीताहरण के समय हिरण वाली मूर्ति, गुप्तकालीन शिवलिंग, शकुंतलापुत्र भरत की एक दुर्लभ मूर्ति विशेष आकर्षण का केन्द्र हैं ।

    इसके अलावा रामप्रसाद बिस्मिल का कम्बल, चाकू और यज्ञ कुण्ड, चन्दगीराम की कस्सी, हाथीदांत पर नक्काशी, चंदन की जड़ में सर्प, चित्तौड़गढ़ के विजय स्तम्भ का स्मारक, बादाम के दानों पर लघु हनुमान प्रतिमा । फरुखशियार का कलमदान, नवाबों की चौपड़, पासे, गोटियां, ब्राह्मी अक्षर, चीन, ताइवान, हांगकांग की लिपियां, प्राचीन माप-तोल के बाट आदि धरोहर और हमारी विरासत अपनी गोद में लेकर रोज रात को सो जाता है यह संग्रहालय ।

    गुरुकुल झज्जर में 28 फरवरी 1960 में शिवरात्रि के दिन हरयाणा साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी । अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन इस माटी से हुआ, जिसमें 'वीरभूमि हरयाणा', 'प्राचीन भारत के मुद्रांक', 'हरयाणा के प्राचीन लक्षणस्थान', 'हरयाणा के वीर यौद्धेय' आदि प्रमुख हैं ।
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    Last edited by dndeswal; January 18th, 2008 at 11:17 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

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