आनर किलिंग और खाप

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रिशतों कत्ल और खाप

खाप को निशाना बनाने का ताजा प्रसंग कथित ऑनर किलिंग का बना। अभियान बीते लगभग पन्द्रह साल से चला है। किन्तु, देश-प्रदेश में खाप का चलन हजारों साल से है। कथित ऑनर किलिंग भी बीते बीस साल से ही होंने लगी हों, ऐसा नहीं है। इसलिए ऑनर किलिंग का प्रसंग लेकर खाप को निशाना बनाये जाने का यह समय चुनना खास मायने रखता है जो अभियान के मकसद को समझने के लिए काफी है।

पहली बात, ग्रामीण समाज में रिश्तों को जाने-अनजाने कत्ल करने वाले युवक-युवतियों के कत्ल की घटनाओं को ऑनर किलिंग की संज्ञा देना मीडिया की चालाकी का प्रयाप्त प्रमाण है। अपने मकसद के लिए मीडिया द्वारा शब्दों की बाजीगिरी इसकी सृजनशील कुव्वत असल में उस प्रशिक्षण कला का कारनामा है जो इन्हें सिखाया जाता है। मीडिया की सर्तकता को जमीनी स्तर के स्थानीय पत्रकार की बौद्धिक गरीबी से आंकना गलत है; मीडिया अब सरमायेदारों के हाथ में बेहद सतर्क औजार है। इसका चलन खास तरह के लक्ष्य को लेकर होता है जिसका जनहित से कुछ मतलब नहीं है।

ऑनर यानी इज्जत-आबरू इतना हल्का-फुलका मामला नहीं है जितना मीडिया अथवा इसके मददगार ‘बुद्धिजीवि’ लोग इन हत्याओं के वृतान्त में अक्सर जाहिर करते हैं। फिर इन हत्याओं का कारण इज्जत का सवाल नहीं है। असल मामला ग्रामीण आंचल में प्रचलित रिश्तों का कत्ल है। फिर, अपने जिग्र के टुकड़ों की अपने हाथ हत्या इतना हल्का मामला नहीं है जितना मीडिया कहता लगता है। कत्ल करना खेल जितना सरल कृत्य भी नहीं है कि किसी ने जीन पहन ली हो गया कत्ल। कत्ल के पीछे उकसावे की प्रकृति को न समझ कर या गलत बयान की आड़ में बात करने का तात्पर्य तब क्या है? रिश्तों का उलंघन गल्ती है किन्तु उनकी हत्या सामान्य बात नहीं है। इस अभियान में पूरा मीडिया जगत और उसके पीछे पूरा राजतन्त्र तब रास्ते से भटकने वाले अथवा जानबूझ कर इन्हें कत्ल करने वाले युवक युवतियों की हिमायत करके समाज में किस तरह के आचरण को बढावा दे रहे हैं, क्या इस पहलू को नजरन्दाज किया जा सकता है? इन लोगों का यह आचरण सामाजिक अपराध को उकसावा (चतवअवबंजपवद) व बढावा (ीमसच) ही माना जायेगा जिसका परिणाम कत्ल में होता हो। तब, मूल में कानून कौन तोड़ रहा है? यह नौजवान पीढी के साथ निपट खिलवाड़ है।

दूसरा पहलू ऐसी हत्याओं के साथ खाप को जोड़ने का है। जिन हत्याओं के साथ खाप को जोड़ने की चालबाजी मीडिया ने की है वे मामले परिवार व रिश्तेदारों द्वारा हत्या के है। एक मामला भी ऐसा सामने नहीं आया जिसमें कातिल खाप है। जब यह प्रश्न उठा तो खाप का शिकार करने निकले जिहादियों ने पल्टा मार कर कहना आरम्भ कर दिया कि खाप कत्ल को उकसावा देती हैं? जब इस पर भी सबूत नहीं मिला तो बात बदल ली और कहने लगे हैं कि खाप कातिलों की मदद करती हैं और इन्हें सम्मानित करती हैं। मिसाल में किसी कुरुक्षेत्र में हुई ‘खाप पंचायत’ को गिनाया जाता है।

सच यह है कि कुरुक्षेत्र का वह जमावड़ा किसी अर्थ में खाप पंचायत नहीं थी न उसे किसी खाप ने बुलाया था, न ऐसा कोई एजेण्डा था। वह एक पत्रकार द्वारा अपनी पत्रिका के उत्सव के लिए बलाया गया जमावड़ा था जिसे एक खास माहौल में किन्ही ‘नेता’ नुमा लोगों ने प्रयोग करने की चेष्टा की, जो अन्तत सफल नहीं हो सकी थी। शिकार के लिए उत्सुक मीड़िया ने इसे खाप कहना आरम्भ कर दिया। बताने के बाद भी यही चित्रण जारी है! हर जमावड़ा खाप की पंचायत नहीं होती यह जानते हुए भी इसे दोहराते जाने का अर्थ गम्भीर है।

मीडिया किस तरह भ्रम-रचना का दोषी है उसकी ताजा मिसाल है। अभी रोहतक में मीडिया द्वारा घोषित दो ‘वीरांगनाओं’ की ताजा घटना को लेकर सीपीएम के अपने 18 संगठनों के 18 लोंगों द्वारा इन ‘वीरांगनाओं’ का समर्थन इस तरह पेश हुआ जैसे सारा सामाजिक-राजनीतिक जगत मीडिया के सच की हिमायत में उतर पड़ा हो जबकि सम्बंधित पत्रकार इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि ये सब एक ही राजनीतिक दल के अपने संगठनों के लोग हैं जिनकी नारीवादी बोली ये कमसिन लडकियां पहले दिन से ही बोलती आ रही हैं! इन्हें स्मझना चाहिए था कि ये एक खास अन्दाज से प्रेरित बच्चियां हैं जिन्हें गलत या सही, हर पुरुष में उत्पीडक नज़र आता है और यह ‘उत्पीडित होने की मानसिकता’ का उकसावा भी हो सकता है जिसे उद्धार करने के लिए कुछ वीरांगना निकली हैं!

रिश्तों को लेकर किसी घटना/दुर्घटना पर गांव में चर्चा अथवा मिल बैठना आम रिवाज है, व्यवहार है। इसे खाप की पंचायत कह कर चित्रित करना कौन सच्चाई का चित्रण है जो इन मामलों में मीडिया कर रहा है? तब, इस सब का मकसद क्या है और मीडिया क्या हासिल करना चाह रहा है?

गांव में अक्सर देखा जाता है कि किसी के किसी मामले में फंस जाने पर, यहां तक कि सही या गलत कत्ल के मामले में फंस जाने पर गांव में मिल कर चर्चा होने का सामान्य व्यवहार है। सही या गलत मामले में फंस जाने पर परिवार/रिश्तेदार अपनों की मदद करता है। गांव भी करता है। इसके ठोस कारण हैं जिन्हें परायों के हाथ न्याय पाने के अभ्यस्त लोग समझने की कुव्वत खो चुके हैं। ऐसे परिवार वालों या गांव वालों पर मीडिया क्या रुख अपनायेगा? खैर है कि अब तक ऐसे मामलों में इस कारस्तानी मीडिया द्वारा अथवा ‘प्रगतिशीलता’ का तमगा पाने हेतु अति उत्सुक सीपीएम के कार्यकर्त्ताओं द्वारा खाप को नहीं घसीटा है! आगे की कौन जाने? किन्तु इन्हें ये कथित ऑनर किलिंग के मामले बहुत लुभाते हैं और इनमें खाप हो न हो मीड़िया व प्रगतिशीलों को अवश्य दिखती रहती हैं। मामला मात्र दृष्टिदोष का नहीं बनता है। छिपे हुए इरादों का अधिक है।