गणपति स्वामी की कविता

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
राजस्थान की मरुधरा की वीर माताएं अपनी कोख से साहसी बालक पैदा करने की अभिलासा रखती हैं। बड़े होते बच्चे से पग-पग पर वीरता की अपेक्षा बढती जाती है, जिसका एहसास गणपति स्वामी की कविता की निम्न पंक्तियों से होताहैः

बालो पांखा बाहर आयो, माता बैण सुणावै यूं ।

म्हारी कूख सिलाई रै बाला, मैं तनै सखरी घूंटी द्यूं।।

तेज कटारै नाळो काट्यो, नाळो काटत बोली यूं।

बैर्यां री फौजां रै बाला, शीस काट कर आजे तूं।।

मैड़ी चढ़ कर थाळ बजायो, थाळ बजावत बोलीयूं।

च्यार कूंट धरती पर बाला, डकडंकियो बजवाजे तूं।।

कूवो पूज घर पाछी आई, फळसै बड़तां बोली यूं।

फळसै में ढोलां रै ढमकै, आरतड़ो करवा जे तूं।।

बालो माय भुजा पर झेल्यो, भार वहन्ती बोली यूं।

धरती मां को भार हटाजे, मत ना बोझ्यां मारी तूं।।

बालो मा छाती कै चेप्यो, छाती चेपत बोली यूं।

दीन दुखी भायां नै रै बाला, छाती कै चिपका जे तूं।।

बालो गोदी दूदो चूंघै, माता कान सुणावै यूं।

धोल दूद पर कायरता रो, कालो दाग न ल्याजे तूं।।

सोन पालणै बालो झूलै, झोटै-झोटै बोली यूं।

अत्ती ई बार हलाजे धरती, मैं तनै जित्ता झोटा द्यूं।।

सगळा काम कर्या मेरा लाला, मै जाणूंगी जायो तूं।

पूत जनम कर रही बांझड़ी, नीतर मैं समझूं ली यूं।।

यह भी देखें


Back to Rajasthani Folk Lore