Sujas Prabandh

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सुजस प्रबंध (गोहद के राणा शासकों की वीर गाथा) - नथन कवि
सुजस प्रबंध (गोहद के राणा शासकों की वीर गाथा) - नथन कवि
अर्थानुवाद - डॉ नत्थन सिंह
प्रकाशक - जाट वीर प्रकाशन ग्वालियर एफ- 13, डॉ राजेंद्र प्रसाद कोलोनी, तानसेन मार्ग, ग्वालियर-474002 , संस्करण 2005-06 मूल्य 100 रूपये
दूरभाष 0751- 2382130

पुस्तक परिचय

सुजस प्रबंध (Sujas Prabandh) गोहद के राणा शासकों की वीर गाथा, है जो नथन कवि द्वारा 18 वीं शताब्दी में काव्य के रूप में लिखी गयी है जिसका अर्थानुवाद - जाट इतिहासकार डॉ नत्थन सिंह द्वारा किया गया है. नथन कवि द्वारा लिखी गयी रचना की पाण्डुलिपि की खोज कर इसके प्रकाशन का श्रेय श्री रामवीर सिंह संस्थापक अध्यक्ष जाट समाज कल्याण परिषद्, जाट वीर प्रकाशन, ग्वालियर को जाता है. पुस्तक की प्रति उनसे प्राप्त की जा सकती है.

प्राक्कथन: डॉ बलराम जाखड़

इस रचना का प्राक्कथन डॉ बलराम जाखड़ ने लिखा है. वे लिखते हैं कि -

"सुजस-प्रबंध एक बहुमूल्य खोज ग्रन्थ है. आश्चर्य है कि इस पुस्तक से पूर्व कवि नथन की काव्य रचनाएँ प्रकाश में न आईं और साथ ही ग्वालियर दुर्ग पर वीर राणा शासकों का इतिहास भी अज्ञात रहा. शताब्दी पूर्व रचित कवि नथन की पाण्डुलिपि की खोज करना, उसे समझाना और उसका अर्थानुवाद करना सराहनीय कार्य है. यह निष्ठा धर्य और परिश्रम को प्रतिपादित करता है.
प्रस्तुत प्रकाशन जाट समाज के लिए ही नहीं वरन सभी के लिए एक देन है. इतिहास की घटनाएँ, वीरों की गाथाएँ किसी वर्ग विशेष की नहीं सारे समाज के लिए प्रेरणा की धारा प्रवाहित करती हैं. 'सुजस-प्रबंध' ऐसा ही प्रेरणादायक प्रकाशन है."

प्राक्कथन: राजस्थान की मुख्य मंत्री वसुंधरा राजे

इस पुस्तक के प्राक्कथन में राजस्थान की मुख्य मंत्री वसुंधरा राजे लिखती हैं कि -

"नथन कवि ने १८ वीं शताब्दी में गोहद (बाद में धोलपुर) के राणा राजवंश के राष्ट्रभक्त स्वाभिमानी राजाओं की इतिहासपरक वीरता और प्रजावत्सलता का काव्यात्मक वर्णन किया है. गोहद-धोलपुर रानावंश की यह तथ्यपरक काव्यात्मक ऐतिहासिक जानकारी जन-जन तक पहुँचाकर देशभक्ति और संस्कृति की रक्षा की भावना को सुद्द्रध किया जा सकता है.
ग्वालियर दुर्ग पर गोहद नरेश महाराजा भीमसिंह राणा की छत्री और प्रतिवर्ष रामनवमी के अवसर पर ग्वालियर जाट समाज कल्याण परिषद् द्वारा आयोजित अखिल भारतीय किसान राणा मेला राणा वंश के इन वीर शासकों का स्मरण कराते हैं. 'सुजस-प्रबंध' का अर्थानुवाद कर प्रकाशित करना अत्यन्त सराहनीय कार्य है."

प्रकाशक रामवीर सिंह का आलेख

प्रकाशक रामवीर सिंह संस्थापक अध्यक्ष जाट समाज कल्याण परिषद्, जाट वीर प्रकाशन, पुस्तक के बारे में लिखते हैं कि -

कवि नाथ/नथन द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ 'सुजस प्रबंध' गोहद के राणा शासकों की वीरता, देशभक्ति, स्वाभिमान, प्रजावत्सलता एवं क्षत्रिय धर्म व संस्कृति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का इतिहासपरक चित्रण है. कवि ने महाराजा भीमसिंह राणा, महाराजा छत्रसिंह राणा, महाराजा कीरत सिंह राणा तथा पोहप सिंह राणा की वीरता का विषद वर्णन किया है. इतने महान योद्धा, देशभक्त, दानशील, किसान हितैषी, स्वाभिमानी शूरवीर राणा शासक इतिहास से अभी तक ओझल हो रहे थे. वर्ष 1990 तक, देश व प्रदेश तो क्या, ग्वालियर के आसपास भी इन धर्म व संस्कृति के रक्षक राजाओं के बारे में हमें कोई विशेष जानकारी नहीं थी. इनका ग्वालियर दुर्ग पर अनेकों साल तक आधिपत्य रहा, इसका भी कोई इतिहास प्राप्त नहीं था. ग्वालियर किले पर बनी गोहद नरेश महाराजा भीमसिंह राणा की 60 फीट ऊंची (एतिहसिक धरोहर) छत्री का भी हमें अता-पता नहीं था. 'जाट समाज कल्याण पिरषद' ग्वालियर की एतिहासिक खोज में हमें इस छत्री का पता चला. परिषद् के सचिव डॉ प्रेमसिंह आर्यवीर और मैं (रामवीर सिंह) ग्वालियर दुर्ग पर अचानक एक बिना पढे-लिखे बुजुर्ग (अपन्जिकृत) गाइड से टकरा गए थे जिसने हमें इस छत्री के बारे में थोड़ी सी अपुष्ट एवम् अस्पष्ट जानकारी दी थी. तत्पश्चात हमने किले पर गूजरी महल में स्थित पुरातत्व विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क किया और उन्होंने भी उपरोक्त तथ्य का समर्थन किया, विशेषकर वहां के अधिकारी श्री लालबहादुर सिंह और पाण्डे जी ने हमारी मदद की. पुस्ताकालय में उपलब्ध पुस्तकों का भी अवलोकन कराया. फ़िर जाट समाज कल्याण परिषद् ने ग्वालियर दुर्ग पर प्रतिवर्ष चैत्रमास की रामनवमी को छत्री प्रांगण में अखिल भारतीय किसान राणा मेला तथा महाराजा भीमसिंह राणा श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन शुरू किया, जो आज पूरे देश जाना जाता है. अठारवीं शताब्दी में गोहद नरेश महाराजा भीमसिंह राणा तथा महाराजा छ्त्रसिंह राणा का "गोपाचल' (ग्वालियर दुर्ग) पर अनेक सालों तक शासन रहा था. इन वीर राणा शासकों ने कई बार मराठों को पराजित किया और ग्वालियर दुर्ग अपने अधिकार में रखा. अठारवीं शताब्दी में ग्वालियर दुर्ग राणा शासकों और मराठा के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा था. महाराजा भीमसिंह राणा को पैदल निहत्थे देखकर धोके से इसी किले की तलहटी में मारा गया था और रामनवमी के दिन किले पर उनका दाह संस्कार हुआ था. महाराजा छत्र सिंह को भी विपरीत परिस्थितियों में ग्वालियर किले पर ही विष देकर मारा गया था.

स्वयं एक मराठा शासक बलवंतराव सिंधिया ने, जो एक योग्य, बुद्धिजीवी व विद्वान व्यक्तित्व के धनि थे, अपनी एक पुस्तक (ग्वालियर दुर्ग) में, जो सन् 1890 में प्रकाशित हुई थी, महादजी का वंशज होते हुए भी, और पूरी तरह यह जानते हुए भी कि ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य के लिए उनके पूर्वज महादजी सिंधिया और गोहद के जाट शासकों में निरंतर संघर्ष चलता रहा था, बड़ी इमानदारी से इन जाट शासकों की प्रशंसा की है.

"The people of Gwalior were well cared and more protected during the Rana’s regime.He was a young man of great promise and well known for his material exploits not only in Hindustan and the Deccan but also in countries inhabited by Europeans. When he became the master of the Fortress of Gwalior, performed several ritual rites on the fortress and completed several other constructions, he lost no time in proclaiming to the public by beat of drums that no one was to molested and disturbed in the pursuit of his peaceful avocation as long as he continued loyal and faithful to the state that protected him"

गोहद के इतिहास पर कोई किताब भी छपी है लेकिन उसमें न महाराजा भीमसिंह राणा की इस एतिहासिक छत्री का कोई उल्लेख है और न बलवन्तराव भईया की इस उपरोक्त पुस्तक की कोई चर्चा है. गोहद राणा शासकों के साथ इतिहास में प्रायः अन्याय किया जाता रहा है. हम प्रयासरत हैं कि गोहद राज्य का शोधपरक, तथ्यपरक, प्रामाणिक इतिहास समाज के सामने रख सकें.

गोहद इतिहास की खोज की अगली कड़ी में हमें इस काव्य-ग्रन्थ 'सुजस-प्रबंध' की पाण्डुलिपि प्राप्त हुई. इसके कुछ पृष्ठ, महाराजा छत्रसिंह की ग्रीष्मकालीन राजधानी बेहट (ग्वालियर से 30 किमी दूर) से हमें मिले. बाद में पूरी प्रति धौलपुर के स्व. अजयसिंह राणा के माध्यम से श्री जगदीश सिंह राणा (घंटाघर) ने हमें उपलब्ध कराई थी. इसकी लिपि पढने में हमें बड़ी कठिनाई आई.कवि, जैसी कि परम्परा व प्रचलन रहा होगा, पूरी पुस्तक एक साथ लिखते चले गए हैं; अक्षर व मात्राओं को मिलाकर शब्द व पंक्तियाँ व पद स्वयं बनने हैं. इसे अनेक बार पढने के बाद ही सही पढ़ा जा सका. इसमेंग्वालियर के श्री पूनमचंद तिवारी, संस्कृत व भाषा विज्ञान के विद्वान से हमने मदद ली. पूरी पुस्तक को पृथक-पृथक छंदों में लिख कर हमने अंत में डॉ नत्थन सिंह से निवेदन किया इसका अर्थ लिखने हेतु. डाक्टर साहब ने हमारा निवेदन स्वीकार किया और अर्थ लिखा. विपरीत व विकट परिस्थिति में, इस साहित्य के संत ने यह अनुवाद किया है. हम पर इनका दूसरा उपकार है. पहला उपकार इन्होने गतवर्ष हमारे आग्रह पर "तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में जाट-इतिहास" लिख कर किया था जिसकी पूरे देश के जाट समाज ने प्रशंसा की थी और डाक्टर साहब का आभार माना था.

"सुजस-प्रबंध" काव्य के रचयिता नथन/नाथ समथर के निवासी थे.

सिमथिर थिर महि मैं सुथिर राजा जह रनजीत ।।
तहाँ नाथ कवि रहत निजु जसी नरनि कौ मीत ।।

समथर के राजा रनजीत सिंह प्रथम के शासनकाल में नाथ कवि वहां रह रहे थे. गोहद रानाओं की वीरता, युद्ध कौशल, स्वाभिमान, देशभक्ति व प्राक्रम के यश से प्रभावित होकर वह गोहद आ गए थे. जब दिसम्बर 1805 में गोहद के रानाओं और सिंधिया के मध्य एक संधि हुई जिसके अंतर्गत गोहद राज्य सिंधिया के अधिकार में और बदले में धोलपुर (सरमथुरा, बाड़ी, बसेड़ी, राजाखेड़ा, धोलपुर आदि) राज्य रानाओं के अधिकार में आया और जब महाराजा कीरतसिंह राणा जनवरी 1806 में गोहद छोड़कर अपनी राजधानी लेकर धोलपुर पहुंचे कवि नथन भी साथ धौलपुर चले गए और अंत तक वहीं रहे.

राणा पोहप सिंह (महाराजा कीरत सिंह राणा के उत्तराधिकारी) जिनका शासनकाल उनकी अकाल मृत्यु हो जाने के कारण केवल कुछ माह तक रहा, के समय ही वृद्धवस्था के कारण कदाचित नाथ कवि का स्वर्गवास हो गया था. संभवतः इस काव्य ग्रन्थ का रचनाकाल सं 1790-1810 के बीच रहा होगा. महाराजा राणा पोहप सिंह के बारे में कवित्त कदाचित बाद की रचना है.

हमने समथर जाकर प्रयास किया कि कवि नथन के बारे में कुछ और जानकारी हमें प्राप्त हो सके लेकिन कुछ विशेष हाथ नहीं लगा. केवल इतना पता चल पाया कि वह गौसाई थे, अविवाहित थे और बाद में गोहद राजा के यहाँ रहने लगे थे. समथर, गोहद से लगभग 100 किमी दूर उत्तर प्रदेश में, झाँसी-जालौन के बीच एक गूजर रियासत थी, जिनके यहाँ अब धौलपुर महारानी श्रीमती वसुंधरा राजे के सुपुत्र सांसद दुष्यंत सिंह राणा का विवाह हुआ है.

सुजस प्रबंध पुस्तक का सार

Summary of the book Sujas Prabandh

'Sujas Prabandh' is a war history book about Rana Rulers of Gohad state in Madhya Pradesh. It was written by Shri Nathan, the court poet of the Rana rulers. It was in the form of poetry in local language and contains 158 chhandas. Dr Natthan Singh has translated it to Hindi. It was published by Dr Ram Vir Singh, Jat-Veer Prakashan, F-13, Dr Rajendra Prasad Colony, Tansen Marg, Gwalior-474002. The poet Nathan gives the names of Rana rulers as under

  1. Singhandev I,
  2. Singhandev II,
  3. Devi Singh,
  4. Udyaut Singh,
  5. Rana Anup Singh,
  6. Sambhu Singh,
  7. Abhay Chand,
  8. Ram Chand,
  9. Ratan Singh,
  10. Uday Singh,
  11. Bagh Raj,
  12. Gaj Singh,
  13. Jaswant Singh,
  14. Bhim Singh Rana,
  15. Girdhar Pratap Singh,
  16. Chhatra Singh Rana,
  17. Kirat Singh Rana,
  18. Pohap Singh Rana

सुजस प्रबंध (Sujas Prabandh) के रचनाकार कवि नथन के अनुसार गोहद नरेशों की सूची इस प्रकार है - सिंहनदेव, देवी सिंह , उद्योत सिंह, राणा अनूप सिंह, शंभू सिंह, अभयचंद, रामचंद, रतन सिंह, उदय सिंह, बाघ राज, गज सिंह, जसवंत सिंह, भीम सिंह, गिरधर प्रताप सिंह, छत्र सिंह, कीरत सिंह, और पोहप सिंह.

इस काव्य के प्रारंभिक चार छंदों में कवि नथन ने गोहद के कई राजाओं का स्मरण किया है. सर्वप्रथम, वह सिंहनदेव को तपस्वी, बलसाली तथा साधनारत कहता है. इसके बाद, बलि के समान बलसाली देवी सिंह का स्मरण करता है. तत्पश्चात उनके परिवार में उद्योत सिंह नामक राजा हुए, जिन्होंने युद्ध-भूमि में बड़े बलशाली राजाओं का मान-मर्दन किया था. इनका यश समुद्र की तरह विशाल था और इनके बल से शत्रुओं में भय उत्पन्न होता था. यह राजा नीति और स्नेह से सबको अपना बना लेते थे. इन्हीं के वंश में अभयचंद्र नामक राजा पैदा हुए थे जो सब के साथ पुत्रवत व्यवहार करते थे. [1]

पांचवें छन्द में, राणा रामचंद्र की बात करता है और अकबर के साथ, उनके युद्ध का उल्लेख करता है. अकबर ने उनको दंड देने का विचार किया था. इसलिए उन्होंने बढ़कर शाह से युद्ध प्रारम्भ कर दिया. दोनों के बीच भयंकर संग्राम हुआ था. इसी छंद में, राजा रतन सिंह का उल्लेख है. उन्होंने युद्ध-भूमि में शत्रु-दल को बुरी तरह हराया था. राजा रतन सिंह युद्ध-भूमि में क्रोधित होकर शत्रु पर प्रहार करते थे. फलतः शत्रु को अपने नगर की ओर भागना पड़ता था. इसी वंश में राजा उदय सिंह पैदा हुए थे. उनसे यदुकुल वंश धन्य हो गया था. वह अति निडर, वीर और सबल भुजाओं वाले थे. उनके भय से शत्रु की माताओं के ह्रदय में डर पैदा होता था. उनको विश्वास था कि वह उनकी संतान को युद्ध में मार सकते हैं. उनके प्रति अन्य राजाओं के मन में भी दुःख था. सुलतान लोग भी उनको वीर मानते थे. उनके बाद राजा गज सिंह गोहद राज्य में उभर कर आए. इन्होने युद्ध में पठानों को हराया. कई सैयद पठान तथा अमीरों के सामने वह युद्ध में गंभीरता के साथ जमे रहे और उनसे कई हाथी भी छीन लिए. इन्होने बड़ा भयंकर युद्ध किया था. इनके बाद जसवंत सिंह का वर्णन करता है. जसवंत सिंह को प्रखर-बुद्धि, रण-कुशल और ब्रह्म-विष्णु-महेश के आशिर्वाद से संपन्न बताता है. वे सागर के समान गंभीर थे. आपने कई राजाओं को हराया था और उनकी धरती पर भी अधिकार कर लिया था. इनके साथ युद्ध करते कई राजा स्वर्गवासी हो गए थे. उनका यश असीम हो गया था. इसके बाद, इस वंश में राजा भीम सिंह के अवतरण का उल्लेख करता है. [2]

राजा भीम सिंह

छठे छंद से 68 वें छंद तक राजा भीम सिंह राणा के युद्धों का विशद वर्णन किया है. इसमें बड़े विस्तार के साथ, अनिरुद्ध या अनुरुद्ध (अटेर का शासक), सिरजा (महादजी सिंधिया) आदि मराठा सरदारों के साथ राजा भीमसिंह राणा के भीषण संग्राम का वर्णन है. कवि राजा भीमसिंह और उनके सैनिकों को सूर्य के प्रकाश के समान और शत्रु सेना को अंधकार के समान बताता है. गोहद राजा भीम सिंह राणा ने अनुरुद्ध (अटेर का शासक) के दल पर जीत प्राप्त की. फलतः संसार में उनका यश असीम होकर स्थापित हुआ. [3] १६ वें छंद में, राजा भीमसिंह राणा के भावसिंह तथा मदन सिंह नामक दो सरदारों के रण कौशल का भी वर्णन किया गया है.

वाजीराव के हाथों से उन्होंने दक्षिण से राज्य छीना था. उनके बल के सामने अनेक राजा भयभीत हुए थे और बड़े बड़े किले वाले शासक हिल गए थे. उन्होंने युद्ध में संघर्ष करके विकट किलों के मालिकों को भी अपने बस में किया था और हिन्दुओं के तिलक के समान गोहद के किले की स्थापना की थी. [4]

गोहद नरेश भीमसिंह ने सिंधु और चम्बल नदी के बीच में एक छत्र राज्य गोहद में किया. महाराजा भीम सिंह राणा अपने तेज के बल पर आगे बढ़ते गए. फ़िर उन्होंने गोपाचल (ग्वालियर दुर्ग) को भी अपने अधिकार में कर लिया. कवि ने भीमसिंह द्वारा ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार करने का विशद वर्णन किया है.[5]

कुछ छंदों (छंद 19-31) में , मराठा सरदार ईठल (ईठ्ठल अर्थार्त विठ्ठल शिवदेव) के साथ राजा के युद्ध का वर्णन है इस वर्णन में, कवि ने ईठ्ठल को वर्षा ऋतु के समान कहा है, कहीं दु:शासन के समान और इसका संहार करने वाला भीमसिंह को बताया गया है. कुछ छंदों में, राजा के एक सेनापति फ़तेह सिंह का वर्णन है. राजा भीम सिंह ने कुछ सेना का संहार किया. तब बलसाली सेना को आगे की ओर लगाया. बीच में फतेहसिंह को खड़ा किया और उनकी पीठ पर अर्थात उसकी रक्षा के लिए स्वयम जम गए.[6] सिरजा (महादजी सिंधिया) के दल ने मैदान में दलों को देखा. परिणामस्वरूप तलवारें लड़ गई और विशेष भयंकर युद्ध होने लगा. [7] एक समय ऐसा आया जब जब यदुवंश के योद्धा अति क्रोधित हो गए थे. उनके सेनापति फौजदार फतेहसिंह थे. उन्होंने वागली काट कर घोर युद्ध किया और शत्रु-दल को मैदान से उखाड़ कर धरती पर सुला दिया. इस प्रकार भीमसिंह के सामंत सरदारों ने राजपुत्र की मर्यादा का निर्वहन किया. फलतः महादजी सिंधिया के सैनिकों के सिर मैदान में गिरने लगे. राजा भीम सिंह ने भी तलवार से युद्ध किया. इसका फल यह हुआ कि दक्षिण दिशा से आई सेना मैदान छोड़ गई. वह सेना पाँच कोस पीछे हट गई. [8] गोहद नरेश राजा भीमसिंह ने युद्ध जीत लिया. फतेहसिंह सुरपुर चले गए. [9] युद्ध में पूर्ण विजय पाकर गोहद नरेश राजा भीमसिंह का यदुवंशी दल घर लौट आया. इस विजय ने राजा का यश बहुत बढाया. ने युद्ध जीत लिया. फतेहसिंह सुरपुर चले गए. विजय के बाद राजा गोपाचल (ग्वालियर दुर्ग) आ गए. [10]

ईठ्ठल ने एक बार हारने के बाद कुछ दिन पूरी तरह संभलकर फ़िर से आक्रमण कर दिया. [11] संदेश वाहक ने सूचना दी कि ईठ्ठल ने सेना लेकर तथा अच्छे योद्धा एवं हथियारों के साथ फ़िर मैदान में आया है. [12] फ़िर लड़ाई की ख़बर पाकर राजा के सभी सरदार एकत्रित हुए. उनकी सेनाओं के बम्ब तथा नगाड़े बजने लगे. सबको विश्वास था कि फ़िर तीसरी बार महाभारत होगा. [13] स्वयं महादजी सिंधिया, उसके शूरवीर तथा समस्त सरदार आदि गोपाचल (ग्वालियर) और उसके राजा भीमसिंह की शक्ति को जानते थे. साथ ही इस बार उनकी परीक्षा लेने का इरादा रखते थे. [14]युद्ध भूमि में ऐसा अवसर आया की महादजी सिंधिया के दलों से गोपाचल के दलों की मुठभेड़ होने लगी. तब दक्षिण की मराठा सेनाओं का रंग देखकर राजा भीमसिंह भी मैदान में कूद पड़े. [15] इस प्रकार महाराजा भीमसिंह ने युद्ध में एक बार भी जीत अपने हाथों से बाहर नहीं जाने दी. उन्होंने दुष्ट आक्रमणकारियों के दलों को जीत कर पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया. उन्होंने दक्षिण से आए मराठा दलों को पीट कर गोपाचल (ग्वालियर) को ले लिया.[16] राजा भीमसिंह के साथ युद्धभूमि में भाग लेने वाले अनेक शूरवीर शहीद हो गए थे, लेकिन राजा ने उनको (शत्रुओं) को हराकर यश कमाया और रण में शहीद शूरवीर स्वर्ग को चले गए. [17]

वसंत ऋतू के चैत माह में राम का अवतार हुआ था. इसीलिए उस दिन को रामनवमी कहा गया है. इस दिन स्वर्ग के द्वार खुले हए थे. इसी दिन गोहद नरेश महाराजा भीमसिंह स्वर्ग सिधार गए थे. [18]

राजा भीमसिंह का बलिदान हो गया. मराठा दल को हनन के बाद राणा भीमसिंह ने ऐसा युद्ध रचा कि सागर के तटों के पार तक उनका यश गया.[19] सभी ने एकसाथ उस सम्पति की रक्षा की और दुःख को सहन करते हुए कमर बाँध कर यह कार्य किया और हरनाथ ने अपने समस्त यौद्धा सरदार और पंचों को बुलाकर बड़े संयम के साथ एक बात कही. अब दक्षिण के समस्त दल क्रोधित होकर हमारे ऊपर आक्रमण करेंगे. अतः हम सब का परम धर्म है कि अपनी मातृ-भूमि को दांतों से पकड़ कर अपने पास रखें. किसी भी स्थिति में शत्रु को उस पर अधिकार न करने दें. [20]

ईठ्ठल के नेतृत्व में दक्षिण के दल सज-धज कर, संगठित होने के बाद, गढ़ गोहद पर आक्रमण के लिए आ गए. उनके आक्रमण से अनेक राजा कांपने लगे. दक्षिण दिशा अर्थार्त मराठा क्षेत्र में यह ख़बर फैली हुई थी कि मध्यदेश में एक राजा ऐसा था, जो वीर एवं शक्ति शाली था. भीमसिंह उसका नाम था. तलवार के बल में उसकी आन थी. उसने सब देशों को जीता और इसमें नीति और मर्यादा का पालन भी किया. ...इस तरह गोहद देश के वीर संग्राम करते हैं. उनके यौद्धा भी मिलकर युद्ध में सामिल होते हैं. अतः उन वीरों के सामने महादजी सिंधिया का बल क्षीण हो जाता है. पराजित सेना निकल कर जाने का मौका तलाश करती है और अंततः दक्षिण की ओर वापिस हो जाती है. गोहद की वीरता का यश देश-देश में फ़ैल जाता है. [21]

गढ़ गोहद सब सिमिट लरि सिरजा कौ बल षोई ।।
राषी सब वम्हरोलियानि सार धार धर सोई ।।59।। [22]

अर्थ- गढ़ गोहद की रक्षा के लिए सब लोग एक होकर लड़े हैं और इस तरह सिंधिया के बल को ख़त्म किया है. इस तरह बमरौली से गोहद आए बमरौलियों ने तलवार की धार से अपनी मान-मर्यादा की शान रखी. ।।59।। [23]

गढ़ गोहद पर ईठल की हार हो जाती है. और इस प्रकार गोहद को जीतने का उसका गर्व ख़त्म हो जाता है. [24] शत्रुदल संघर्ष त्याग कर दक्षिण दिशा की ओर चला गया. वहां पर करबद्ध होकर पेशवा के सामने उपस्थित हुआ और हाथ जोड़कर प्रार्थना की, कि मैंने गोहद की शक्ति को न समझ कर खंग धारण करके उससे लड़ाई लड़ डाली थी, लेकिन बात बनी नहीं. मैंने जब रणभूमि में देखा सिर लुढ़क रहे हैं, शरीर कटे पड़े हैं और राजा को युद्ध में देखा तो समझ लिया कि इसको झुकाना और गोहद पर अधिकार करना सम्भव नहीं है. [25] ईठ्ठल की बातें सुनकर पेशवा के मन में इस बार एक खटक पैदा हो गई. वह सोचने लगा कि मैंने दसों दिशाओं में फैले राजाओं को हरा दिया है, लेकिन मेरी सेना गोहद पर हार गई है.[26]

छंद 63 से 68 तक में कवि राजा भीमसिंह के पचैरा युद्ध का वर्णन करते है. राजा भीमसिंह ने हाथी के कंधे पर बैठकर पचैरा का युद्ध किया था. जदुवंश के उस श्रेष्ठ राजा ने एक शूरवीर की भांति भली प्रकार पचैरा के क्षेत्र में उत्साहपूर्वक युद्ध किया. [27]

यदुवंशियों की सेना आगे सामने की ओर चल रही थी और हरनाथ राजा की दाहिनी ओर का मोर्चा संभाल रहा था. गर्जना करते हुए तोपों के गोले सेना के बीच में गिर रहे थे. राजा के साथ लाल सिंह तथा चामुण्डराय जसे योद्धाओं का भी उल्लेख मिलता है.ये योद्धा शत्रु सेना के बीच घुस जाते थे. इस पर उनके साथ भयंकर युद्ध होने लगता था. इस युद्ध को बालि के साथ हुए युद्ध जैसा कहा जा सकता है. योद्धा लालसिंह कट कर मैदान में गिर गया. उसके साथ जितने शूरवीर थे, उन्होंने भी युद्ध भूमि में अपने शरीरों को समर्पित कर दिया. इन सब के बल पर राजा युद्ध में आया था और विजय प्राप्त की.[28] गोहद नरेश युद्ध भूमि में योद्धाओं को मारकर सुशोभित हुए. उन्होंने उदंड राजाओं को दण्डित करके नीति के तेज की रक्षा की. उनकी वीरता और नीति रक्षण की प्रकृति का यश, समुद्र पार के राजाओं तक भी पहुँच गया था. वे समझ गए थे कि गोहद नरेश दुर्बलों के प्रति सोचते हैं और सब के साथ नीति का पालन करते हैं. उनके सामने जो मैदान में खड़ा होता है उनके साथ संघर्ष करता है और जिस तरह पानी का बुलबुला थोडी देर में ख़त्म हो जाता है, उसी तरह रण भूमि में खड़ा होने वाला शत्रु का दल, थोडी देर में ख़त्म हो जाता है. ऐसे राजा समर भूमि में, शत्रु सेना का सफाया करके, एक बलशाली योद्धा की भांति गोहद लौट आए थे. [29]

राजा छत्र सिंह

सुजस प्रबंध काव्य के छंद 69 से 108 में कवि नथन ने महराजा छत्र सिंह का वर्णन किया है. छत्र सिंह राजा का राजतिलक बचपन में हो गया था. राजगद्दी पर शोभित थे और सब राजकाज चलता था. [30] राजा ने सुचारू शासन किया. उनके राज में कोई दुखी नहीं रहता था. [31]

राजा छत्र सिंह के मष्तिस्क में सुमति, भुजाओं में असीम बल और मुख में ईश आराधना है, ऐसा कवि का विचार है. उनका प्रत्येक पग पृथ्वी पर धर्म को धारण करता है और वह बलवान राजा वेणु की तरह राज करते हैं. वह अजानबाहू (घुटनों तक लम्बी बाँहों वाला) नर है. कई गढ़ों के प्रबल बलशाली मालिक शत्रुता का परित्याग करके राजा छतरसिंह के चरणों में झुकते हैं. [32]

कवि की धारणा है कि जिस दिन राजा छत्र सिंह घोड़े पर सवार होते थे, तो उनके शत्रु भय से काँप उठते थे. युद्ध में अत्यन्त जुझारू और क्रूर योद्धा भी उनके सामने मुख दिखाने में संकुचित होते हैं. कवि कहते हैं कि उनकी कविता को इस प्रकार पढ़ा जाएगा कि वह यदुकुल में पैदा हुए हैं और अत्यन्त बलशाली हैं उनके बल को पृथ्वी पर सब पढेंगे. [33] जिस प्रकार ग्वालियर दुर्ग में भीमसिंह से ईथल ने खून-खराबा किया था उसी प्रकार स्यामराय सूबेदार ने पूरी तैयारी करके छत्र सिंह से युद्ध ठान लिया.[34]

कवि यह भी कहता है कि जिस तरह लंका में हनुमान ने विनाश की होली खेली थी, उसी तरह छत्र सिंह ने सूबेदार श्यामराय के दल में संहार का अभिनय किया था. [35]

स्यामराय सूवा ने राजा छतरसिंह से पूरी तैयारी के साथ युद्ध किया था, लेकिन उनकी सारी तैयारियां असमर्थ रहीं. जीत यदुकुल नरेश की हुई. उनकी विजय ने राणा वंश को संसार में यश दिया, एक नया गौरव प्रदान किया.[36]

कवि के अनुसार महादजी सिंधिया की सेना भी छत्र सिंह के भय से कांपती थी. [37] शत्रु के खेमे में इस तथ्य से भय छा गया कि छतरसिंह अपनी अजेय शक्ति लिए हुए हैं. अतः उसने सोचा कि इस से लड़कर बैर क्यों किया जाए. यह सोचकर उसने देश को प्रस्थान किया. [38]

81 वें छंद में छत्र सिंह और रघुनाथराव के युद्ध का वर्णन करते हुए कवि का कथन है कि पेशवा ने उत्तेजित स्वर में बातें कहीं, जिनको सुनकर सूवा सरदार बुरी तरह लज्जित हुए. पेशवा ने दिल्ली पर राज्य पाने के लिए रघुनाथराव को सेनापति बनाया. उसको बहुत सा धन भी दिया. पेशवा ने रघुनाथराव को कई हजार श्रेष्ठ घोडे दिए थे, और अनगिनत तोपें भी दीं थीं. उनकी मारक क्षमता इतनी थी कि एक साथ तीन किलों को तोड़ा जा सकता था. उनके सम्मुख एक पठान आया था. उस पठान को कुर्बान होना पड़ा था. उसके बाद पेशवा की सेना ने मालवा पर कब्जा कर लिया. अब कोई अन्य राजा उनसे संग्राम करने का सहस नहीं कर पा रहा था. रघुनाथराव के आने पर वे दंड के रूप में धन देते थे और उसके साथ अपनी सेना को लेकर चल देते थे. चंदेरी का एक राजा बहुत चतुर था. उसने कुछ धन नजर में दिया और राज्य का एक भाग भी पेश कर दिया. ओरछा का राजा प्रमुख था उसका किला भी प्रमुख था. वहां के शासक वीर सिंह ने एक माह तक उनको आगे बढ़ने से रोका. रघुनाथराव ने दतिया के राजा से दुश्मनी मोल ली. उससे कुछ धन लिया और भूमि भी छीन ली. सिमथर के राजा के पास अकूत धन था. और अच्छे सैनिक भी. उनके बल पर रघुनाथ राव से युद्ध कर बैठा. लेकिन मल्हारराव होलकर के बीच में आने से वह बच गया. नरवर के राजा ने मराठों से युद्ध नहीं किया. उसने अपने किले को तो रख लिया, पर समूचे राज्य को उनको सौंप दिया. करौली के राजा ने अपना खजाना मराठों को सौंप दिया. राजा नवल सिंह के राज्य को नष्ट करके मराठों का सैनिक दल नदी की तरह उमड़ कर चल दिया.

गोहद के राजा छत्र सिंह धन्य हैं, जिन्होंने संपूर्ण भार को सहन किया. उसके आक्रमण को रोकने के लिए गोहद के राजा छत्र सिंहयुद्ध किया था. उनके सहस और प्रयत्न के लिए कवि कहते हैं कि राजा ने नीले आकाश तक उमड़ते सागर अर्थार्त रघुनाथराव के सैन्यदल को सीमित कर दिया था. कवि रघुनाथराव को तूफानी सागर के पानी के समान और छात्र सिंह को संत के समान बताता है. [39]

गोहद नरेश छत्र सिंह को इस बात का बहुत बड़ा श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के विशाल दल को उसी प्रकार रोक लिया था, जिस प्रकार सागर के तूफ़ान को बढ़वानल सोख लेता है. यदुकुल में अवतार लेकर पैदा हुए छत्र सिंह धन्य हैं कि अनेक राजाओं को पराजित करके गोहद की शान रखी. [40]

गोहद नरेश ने मराठा सेनापति के साथ युद्ध के लिए अपने समस्त सहयोगियों और राजभक्त लोगों को बुलाकर मंत्रणा की और उनको अपने साथ जोड़ लिया. इन लोगों में हरनाथ, राजधर जैसे विशुद्ध युद्ध और सौपुर नमक सुभट योद्धा मंत्री थे. एक चतुर माधव नामक मंत्री थे, जो अवसर के अनुरूप राजकाज करते थे. राजाने अपने मर्यादित, शूरवीर तथा युद्ध के मैदान में प्रचंड संघर्ष करने वाले भाइयों को भी अपने साथ खड़ा किया. इसके अलावा युद्ध में विकट साहस करने वाले, बलवान भुजाओं को रखने वाले अपने सेनापति तथा फौजदारों को संघर्ष करने की योजना में शामिल कर लिया. नरश्रेष्ठ अपने काका कन्हरम को भी राजा ने अपने साथ ले लिया. इसके अतिरिक्त अनेक राजाओं को भी मराठा आक्रमण का सामना करने के लिए खड़ा किया. इन राजाओं में एक अत्यन्त भयंकर तथा घोर युद्ध में पारंगत अर्जुन सिंह थे, जो मर्यादा की रक्षा करने वाले एवं प्राण के साथ गहरे से जुड़े थे. चारों और रहने वाले सेवक तथा सिपाही जो गोहद की मान मर्यादा की रक्षा कर रहे थे, राजा के साथ थे. [41]

राजा छत्र सिंह ने समस्त दलों से कहा कि महादजी सिंधिया के दलों के साथ उत्साहपूर्वक उलझ जाओ, बलपूर्वक और क्रोद्ध में भर कर शत्रु को मार गिराओ और उनके सिरों को झुकादो.[42]

गोहद नरेश का दल जब सिंधिया की सेना से मिला तो दोनों के बीच विकराल युद्ध होने लगा. शत्रु सेना का प्रमुख भाग टूटने लगा. सब से पहले युद्ध राजा छत्र सिंह ने किया था, जिसके कारण सिंधिया का दल पीठ दिखा गया था. कवि के अनुसार गोहद के मैदान में, रघुनाथराव को हराकर राजा ग्वालियर दुर्ग पर भी अधिकार कर लेता है.[43]

रघुनाथराव तथा छत्र सिंह के व्यक्तित्वों की तुलना करते हुए कवि कहते हैं कि रघुनाथ राव समुद्र के तूफानी पानी की तरह हैं और मुनि के समान धैर्य वाले राजा छत्र सिंह हैं. मराठा सरदार दुर्योधन के समान हैं तो राजा छत्र सिंह अर्जुन के समान हैं.[44] रघुनाथराव गोहद के राजा से रपमंडिनी (मराठों द्वारा लिया जाने वाला कर) मांग रहा है.[45] कवि मराठा सरदार रघुनाथराव और यदुवंशी जाट राजा छत्र सिंह के युद्ध की तुलना कलियुग के महाभारत से करते हैं.[46]

गोहद के मैदान में मराठा सेना के पराजय के बाद, रघुनाथराव अपने दल-बल का विनाश करके, छत्र सिंह राजा के सामने से हट गया. मराठा शक्ति की पराजय से यदुवंशी गोहद नरेश छत्र सिंह की वीरता का यश सारे संसार में व्याप्त हो गया. [47]

मराठा सरदार रघुनाथराव को गोहद राज्य की भूमि पर हराकर दक्षिण की दिशा में भगा देने के बाद, गोहद नरेश राजा छत्र सिंह ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया. दस बीस राज्यों को अपने अधिकार में और कर लिया उसने समस्त अपने विरोधियों को दबाकर बस में कर लिया था. कई राजा ऐसे थे जो अपनी रक्षा के लिए राजा छत्र सिंह की भुजाओं का सहारा चाहते थे. इसे राजाओं में कई कछवाहा, वैस, तोमर तथा पंवार गोत्र के थे.[48]

कवि नथन लिखते हैं कि एक छत्रसाल नामक राजा बुंदेलखंड का था, जिसने दिल्ली के शासक की सेना को नियंत्रित किया था. दूसरा छत्रसाल (छत्रपति शिवाजी) थे जिन्होंने मुस्लिम शासकों का वध किया था. तीसरा छत्र सिंह गोहद का स्वामी है, जिसने महादजी सिंधिया की समस्त सेना का संहार कर दिया था. कलियुग में ये तीन छत्रपति हुए हैं, जिन्होंने अपने छत्र की छांह में भूमि को सुरक्षित रखा है. [49]

गोहद के राजा छत्र सिंह ने आक्रमणकारी ईठल के अभिमान को नष्ट किया. उसने ग्वालियर को बार-बार छीन कर उसके गर्व को चूर-चूर किया. उसके अनेक योद्धाओं को रणभूमि में ठेलकर मार डाला. उसने एक वर्षभर मराठा सरदार रघुनाथराव से संघर्ष किया. और वह गोहद में अपने पराजय के अपमान को छोड़ गया. राजा छत्र सिंह ने अपनी विशाल तीनों पणों कि रक्षा शान के साथ की. तात्पर्य यह है की उसने तीन प्रबल सेनापतियों को हराया. वह ईठल को भी हराता है और सतारा के सुल्तान के साथ भी दो-दो हाथ करता है. कवि के अनुसार, रघुनाथराव, महादजी सिंधिया और ईठल को पराजित करने का श्रेय छत्र सिंह को प्राप्त है. [50]

गोहद की जनता को शान्ति से रहते केवल कुछ वर्ष ही व्यतीत हुए थे कि एक सरदार बड़ी विशाल तथा शक्तिशाली सेना लेकर, जो युद्ध में अड़ने तथा जमने वाली थी, फ़िर आ गया. [51] उस पटेल सरदार से रजा छत्र सिंह ने सात वर्ष तक संघर्ष जरी रखा. वह राजा अन्य लोगों से कितने वर्षों तक अपने राज्य की रक्षा में लड़ता रहा, इसकी कोई गणना नहीं है. [52]

एक वर्ष आधे युग का समय, उस राजा को आक्रमणकारी शत्रुओं से लड़ते-लड़ते बीत गया था, तब उसके यहाँ अन्न की कमी पड़ गई थी. उसके निवारण के लिए क्या उपाय किया जाय? इस और राजा का ध्यान गया. [53]

खाद्दान्न का आभाव और उसके कारण सैनिकों की दुर्बलता देखकर गोहद नरेश ने श्रेष्ठ विचार बनाकर निर्णय लिया कि इस भूमि को (संभवतः गोपाचल की भूमि) शत्रुओं के पेट फाड़कर फ़िर ले लूंगा. ऐसा विचार करके युद्ध रोक दिया. उस भूमि को छोड़ दिया गया. [54]

राजा कीरत सिंह

सुजस प्रबंध के छंद 109 से लेकर 151 तक राजा कीरत सिंह की वीरता का गायन किया गया है.

कवि नथन की मान्यता है कि गोहद नरेश छत्र सिंह के बाद कीर्ति अथवा यश का उपार्जन राजा कीरत सिंह ने किया. उनकी दीप्ति समस्त द्वीपों में वर्तमान है और अनेक कवि उसका गायन करते हैं. [55] कीरत सिंह ने अनेक मारधाड़ें की जिसका सुफल यह हुआ कि छीनी गई गद्दी को शत्रु से फ़िर छीन लिया. [56]

राका कीरत सिंह ने अपनी भुजाओं के बल पर बीस वर्ष तक राज किया था . वह राजा कुल परिवार की गरिमा को बढ़ाने वाला और सब के सिरों के ताज के समान गौरवशाली है. [57]

राजा कीरत सिंह ने कुल २१ वर्ष बहुत तेज तलवार धारण की और उसके बल पर वह दक्षिण से आने वाले आक्रमणकारियों से लोहा लेते रहे और अनेक बलशाली आक्रांताओं पर विजय पाई. [58] जहाँ-जहाँ मराठा सेनाओं के साथ उनका युद्ध हुआ, वहां वहां उन्होंने शत्रु दल का संहार किया. कभी एक क्षण के लिए भी गोहद राज्य की सुरक्षा की और से ध्यान नहीं हटाया और शत्रुओं से फ़िर अपनी भूमि को छीन लिया.[59] उनके किले की चहार दिवारी बहुत ऊंची थी. उनके डर से शत्रु थर-थर काँपता था. उनका यश, प्रभाव, और भय व्यापक था. यदुवंशी गोहद नरेश राजा कीरत सिंह ने इस प्रकार अपने यश और प्रभाव को सारे संसार में स्थापित कर दिया था. [60]

कवि गोहद नरेश कीरत सिंह की विशेषताओं, गुणों, संघर्ष क्षमताओं, उपलब्धियों और योजनाओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उनकी भुजाओं में प्रचंड बल है. वह प्रथ्वी पर अवतार हैं और अनेक राजाओं के राजा हैं. वह खंग संचालन, दान प्रदान करने, मान रक्षण और युद्ध भूमि में वीरता प्रदर्शन में पूर्ण सक्षम हैं. वह साम, दाम, दंड, और भेद की नीतियों को भली प्रकार जानते हैं तथा प्रयोग करते हैं. वह श्रेष्ठ राजा के साक्षात् अंश हैं. उनके पास कभी न हारने वाले वीरों के दल हैं और अच्छे योद्धाओं के समूह भी उनके पास हैं. इसलिए वह अटूट किलों को गिरा देते हैं तथा अटूट दीवाओं को खंडित कर देते हैं. उनके पास साधनों का भंडार है पर वह उनका अपव्यय नहीं करते हैं. वह दोषियों को दंड देने में अचूक हैं और संहार करने में शिव की भांति हैं. कीरत सिंह के पास राजनीती के मर्मज व्यक्तियों का समूह रहता है. वह विक्रमादित्य के समान अजेय, वीर, शत्रु दमनकारी, न्यायप्रिय, संत उपासक, और जन हितैषी राजा हैं. वह दान प्रिय और मधुर वाणी बोलने वाले हैं. वह नौ रसों के मर्मज्ञ हैं.[61] जिस दिन गोहद नरेश कीरत सिंह अश्व पर स्वर होते हैं, उस दिन भयभीत होकर उनके शत्रु घर छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं. [62] राजा कीरत सिंह ने कुशलता पूर्वक अपनी शेना का संचालन करके, पेशवा द्वारा अधिकार में की गई अपनी भूमि रुपी मक्खन को निकाल लिया जैसे हरि ने समुद्र को मंथन कर लक्ष्मी को निकला था. [63]

राजा ने अनेक बार युद्धों में भाग लिया. उनकी वीरता का यश, देश तथा विदेशों तक फैला. सारा संसार राजा कीरत सिंह के कार्यों को जानता है उनकी वीरता भरे कार्यों की कहानियाँ राज्यों के कवि गाते हैं. दक्षिण दिशा कि भूमि पर शत्रुओं का अधिकार था. सुना गया है कि वह कारिन्दों को दान में मिली थी. (इसका संकेत इस तथ्य के साथ है कि मराठा पेशवा अपने राजाओं के सामने कागजात, विचाराधीन मामले तथा न्यायादेश के लिए तथ्य पेश करने वाले लोग थे, इसीलिए उनको पेशवा कहा गया है, बाद में वे राजा बन बैठे) उन्होंने पूरे देश के राज्यों पर आक्रमण किए थे. राजाओं से खंडिनी सार देसाई तथा चौथ नामक कर वसूल किए थे. इस कार्य में उन्होंने घृणित कदम भी उठाये थे. फलतः अधिकांश राजा उनके शत्रु बन गए थे. अतः जब अंग्रेजों ने उन पर हमला किया था तो कोई राजा उनकी सहायता के लिए नहीं आया था. उनकी भूमि पर फिरंगी अर्थार्त अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था. राजा कीरत सिंह ने बड़े बौधिक कौशल के साथ, सप्रेम लोगों के सहयोग से, दक्षिण के मराठा सरदारों से युद्ध जीत कर अपनी भूमि वापस ले ली थी. इस कार्य में बड़े दुर्जेय दुर्गों का दलन करके विजय पाई थी. इस उपलब्धि के कारण वह यदुवंशी हिंदू राजा शोभा पाते हैं. [64] कवि कहते हैं की राजा कीरत सिंह का यश अटक की सीमाओं के पार भी पहाड़ की तरह ऊंचा फैला हुआ है. [65] राजा कीरत सिंह की बराबरी कोई राजा नहीं कर पता. राणा ताराचंद का यह सुपुत्र कीर्ति सिंह इतना बुद्धिमान है कि उसकी समता कोई नहीं कर पाता.[66]

कवि नथन की मान्यता है कि गोहद नरेश राजा कीरत सिंह ने अपने यशस्वी पूर्वज राजा गजसिंह, जसवंतसिंह, और भीमसिंह द्वारा स्थापित होहद राज्य की गौरवशाली परम्परा को बनाये रखा है. उन्होंने दखिनी शक्तियों के साथ संग्राम करके अपनी वीरता का परिचय दिया है. राजा कीरत सिंह ने इसी उज्जवल कीर्ति का अर्जन किया है, जैसी राजा छत्र सिंह को प्राप्त हुई है. अर्थार्त छत्र सिंह की कीर्ति को और निखारा है. [67]

राजा पोहप सिंह

छंद 152 से लेकर अंत तक नरेश पोहप सिंह की वीरता का गायन किया गया है. गोहद नरेश कीरत सिंह के उत्तराधिकारी राजा पोहप सिंह की प्रशंसा में कवि नाथन का कहना है कि उनके तेज से बैरियों की रानियाँ बुरी तरह तप रही हैं. वे रति के सामान सुंदर और लता के सामान मधुर हैं. [68] राजा पोहप सिंह जिस दिन सेना सजाकर चढाई करते हैं उस दिन सेना निरंतर आगे की और बढ़ती रहती है. सेना के गदर्भों की पीठ पर रखे गद्दों, डंडों, कोतिलों (घोडों) कतारों आदि के समूहों की भारी भीड़, अति संदर दीख पड़ती है. राजा पोहप सिंह उदंड शत्रुओं को मारने के लिए तत्पर रहते हैं. इससे उनकी प्रचंड प्रभुता रात दिन दुगुनी हो जाती है. [69] नक्षत्रों के बीच जो महत्वपूर्ण स्थान चंद्रमा का है वही स्थान राजाओं के बीच राजा पोहप सिंह का है. दान तथा मान आदि देने में उनका अनोखा स्थान है. उनका यश, दूसरों के प्रति हितकारी भावना के साथ मिला-जुला है. यदुवंश में उत्पन्न पोहप सिंह के कार्यों से परिवार तथा वंस के मान-मर्यादा की रक्षा हुई है. [70]

उनके द्वार पर कई हजार गजराज तथा अश्वों की भीड़ देखी जा सकती है. उनके भवन प्रचुर मात्र में विभूति, धन तथा रत्नादी से भरे हैं. यह राजा दूसरों के दुखों का निवारण करने वाले तथा शरणहीनों को शरण देने वाले हैं. [71]

सिमथिर थिर महि मैं सुथिर राजा जह रनजीत ।।
तहाँ नाथ कवि रहत निजु जसी नरनि कौ मीत ।।[72]

अर्थ- पृथ्वी पर समथर एक सुद्रढ़ राज्य है जहाँ राजा रणजीत सिंह राज करते हैं. वहीं यशस्वी पुरुषों का मित्र कवि नाथ निवास करता है. [73]

इति श्री सुजस प्रबंध - ग्रन्थ वंस वर्नन नाम

References

  1. सुजस प्रबंध:छन्द 4, p. 10
  2. सुजस प्रबंध:छन्द 5, p. 20-21
  3. सुजस प्रबंध:छन्द 16, p. 31
  4. सुजस प्रबंध:छन्द 17, p. 32
  5. सुजस प्रबंध:छन्द 18, p. 33
  6. सुजस प्रबंध:छन्द 30, p. 40
  7. सुजस प्रबंध:छन्द 32, p. 42
  8. सुजस प्रबंध:छन्द 33, p. 45
  9. सुजस प्रबंध:छन्द 34, p. 45
  10. सुजस प्रबंध:छन्द 35, p. 46
  11. सुजस प्रबंध:छन्द 37, p. 47
  12. सुजस प्रबंध:छन्द 39, p. 49
  13. सुजस प्रबंध:छन्द 40, p. 49
  14. सुजस प्रबंध:छन्द 44, p. 51
  15. सुजस प्रबंध:छन्द 45, p. 51
  16. सुजस प्रबंध:छन्द 51, p. 55
  17. सुजस प्रबंध:छन्द 52, p. 55
  18. सुजस प्रबंध:छन्द 53, p. 55
  19. सुजस प्रबंध:छन्द 54, p. 56
  20. सुजस प्रबंध:छन्द 56, p. 57
  21. सुजस प्रबंध:छन्द 58, p. 60
  22. सुजस प्रबंध:छन्द 59, p. 60
  23. सुजस प्रबंध:छन्द 59, p. 60
  24. सुजस प्रबंध:छन्द 60, p. 61
  25. सुजस प्रबंध:छन्द 61, p. 61
  26. सुजस प्रबंध:छन्द 62, p. 62
  27. सुजस प्रबंध:छन्द 64, p. 63
  28. सुजस प्रबंध:छन्द 65, p. 63-67
  29. सुजस प्रबंध:छन्द 68, p. 68-69
  30. सुजस प्रबंध:छन्द 69, p. 69
  31. सुजस प्रबंध:छन्द 70, p. 69
  32. सुजस प्रबंध:छन्द 71, p. 70
  33. सुजस प्रबंध:छन्द 72, p. 71
  34. सुजस प्रबंध:छन्द 73, p. 71
  35. सुजस प्रबंध:छन्द 75, p. 73
  36. सुजस प्रबंध:छन्द 77, p. 75
  37. सुजस प्रबंध:छन्द 79, p. 76
  38. सुजस प्रबंध:छन्द 80, p. 77
  39. सुजस प्रबंध:छन्द 81, p. 77-83
  40. सुजस प्रबंध:छन्द 82, p. 83
  41. सुजस प्रबंध:छन्द 86, p. 88
  42. सुजस प्रबंध:छन्द 87, p. 88
  43. सुजस प्रबंध:छन्द 88, p. 89
  44. सुजस प्रबंध:छन्द 90, p. 91
  45. सुजस प्रबंध:छन्द 93, p. 94
  46. सुजस प्रबंध:छन्द 94, p. 95
  47. सुजस प्रबंध:छन्द 96, p. 96
  48. सुजस प्रबंध:छन्द 97, p. 97-98
  49. सुजस प्रबंध:छन्द 98, p. 99
  50. सुजस प्रबंध:छन्द 99, p. 100
  51. सुजस प्रबंध:छन्द 101, p. 101
  52. सुजस प्रबंध:छन्द 102, p. 101
  53. सुजस प्रबंध:छन्द 103, p. 102
  54. सुजस प्रबंध:छन्द 105, p. 102
  55. सुजस प्रबंध:छन्द 109, p. 104
  56. सुजस प्रबंध:छन्द 110, p. 105
  57. सुजस प्रबंध:छन्द 111, p. 105
  58. सुजस प्रबंध:छन्द 112, p. 105
  59. सुजस प्रबंध:छन्द 113, p. 106
  60. सुजस प्रबंध:छन्द 114, p. 107
  61. सुजस प्रबंध:छन्द 116, p. 108-114
  62. सुजस प्रबंध:छन्द 120, p. 116
  63. सुजस प्रबंध:छन्द 126, p. 122
  64. सुजस प्रबंध:छन्द 128, p. 125
  65. सुजस प्रबंध:छन्द 144, p. 138
  66. सुजस प्रबंध:छन्द 145, p. 139
  67. सुजस प्रबंध:छन्द 147, p. 141
  68. सुजस प्रबंध:छन्द 151, p. 143
  69. सुजस प्रबंध:छन्द 152, p. 144
  70. सुजस प्रबंध:छन्द 153, p. 145
  71. सुजस प्रबंध:छन्द 154, p. 146
  72. सुजस प्रबंध:छन्द 158, p. 148
  73. सुजस प्रबंध:छन्द 158, p. 148

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