Asli Lutere Koun/Part-I

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असली लुटेरे कौन?
लेखक
हवासिंह सांगवान जाट

Contents

लेखक का कथन

पृष्ठ 7

अगस्त 2006 में जाटों को लुटेरा लिखे जाने का प्रकरण उछलने पर इस पुस्तिका का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था। उसके बाद पाठकों की भारी मांग पर दूसरा, तीसरा और चौथा संस्करण छपा, लेकिन इस पुस्तिका की मांग बढ़ती चली गई और पाठकों के बार-बार नये संस्करण की मांग पर यह पांचवां संस्करण आपके हाथों में है। जिसमें काफी कुछ नया है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सभी पाठकों ने इसे पसन्द किया हो। कुछ ऐसे भी थे जिन्हें पढ़कर इसे नापसंद किया, लेकिन मैं सभी पाठकों का समान रूप से आभारी हूं, जिन्होंने इस पुस्तक को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की परन्तु मेरी उन पाठकों से बड़ी शिकायत है जिन्होंने पुस्तक को पूरा नहीं पढ़ा और चुप बैठ गए।


कुछ भी लिखने से पहले मैं वर्तमान में जाट समाज के लिए नई आपत्ति गौत्र विवाद के बारे में संक्षेप में बताना चाहता हूं कि यह आपत्ति सन् 1955 से ही है। जबसे ‘हिन्दू विवाह कानून’ बना। लेकिन इसके परिणाम अभी आने शुरू हुए हैं। ‘हिन्दू विवाह कानून’ समगोत्र विवाह को वैध मानता है जबकि जाट समाज समगोत्र विवाह को पाप और व्यभिचार मानता है। इसलिए ‘हिन्दू विवाह कानून’ में संशोधन ही जाट समाज के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए एकमात्र समाधान है। लेकिन याद रहे यह समस्या केवल जाट समाज की नहीं है, उत्तर भारत में रहने वाली कई स्थानीय जातियों की है। इसलिए जाट कौम इन सभी जातियों को साथ लेकर चले और इसकी जिम्मेदारी जाट कौम अकेली न ले।


इसके बाद मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं न तो इतिहासकार हूं और ना ही कोई साहित्यकार। मैं अभी तक जो भी अध्ययन कर पाया हूं उसी के परिणामस्वरूप यह पुस्तक लिख रहा हूं जिसमें सुनी-सुनाई बातों की अपेक्षा प्रमाणिक तथ्य हैं। मेरा इस पुस्तक के लिखने का उद्देश्य किसी को खुश या नाराज करना तनिक भी नहीं और न ही किसी जाति विशेष की बुराई से है। मैंने वही तथ्य लिखे हैं जिनका ठोस धरातल है


पृष्ठ 8

और मेरी जाट कौम को इन्हें जानने का पूरा-पूरा अधिकार है। इस पुस्तक में जाट इतिहास की झलक मात्र है ताकि मेरी कौम और हमारी आने वाली संतानें जान सकें कि हमारे पूर्वज कितने महान् थे तथा इस महानता को बनाए रखने के लिए हमें आज के आधुनिक युग के परिपेक्ष्य में नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है। ताकि हमारी कौम हमारी मूल संस्कृति और इतिहास से भविष्य में भी जुड़ी रहे। इस पुस्तक का पंजाबी अनुवाद चौ० भलेराम नैन गांव भुल्लन जिला संगरूर (पंजाब) करवा चुके हैं और शीघ्र ही छपने वाली है। यह पुस्तक जाट इतिहास नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि जाट कौम का इतिहास संसार की किसी भी जाति के इतिहास से विशाल और महान् है, जिसे संगृहित करना मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए कठिन ही नहीं असंभव प्रतीत होता है। हालांकि जाट इतिहास को लिखने के दर्जनों सुंदर प्रयास हो चुके हैं और वे सभी इतिहासकार धन्यवाद और स्तुति के पात्र हैं, जिनके कारण इस पुस्तक का लिखना संभव हो पाया। लेकिन मेरा मानना है कि वे सभी प्रयास अधूरे हैं। इसलिए मैंने निजी तौर पर डॉ० धर्मचन्द्र विद्यालंकार, डॉ० सुखीराम रावत तथा प्रो० महीपाल आर्य आदि विद्वानों से आग्रह किया है कि वे जाटों के सम्पूर्ण इतिहास की रचना करें तथा इस महायज्ञ को करने का बीड़ा उठाएं। साथ-साथ मैंने यह भी अनुरोध किया है कि एक जाट लेखक संगठन का गठन किया जाए। वैसे जाटों ने कभी लेखकों का सम्मान नहीं किया, इसलिए आज जाट कौम अपने सम्पूर्ण इतिहास से महरूम है। मैंने अनुभव किया है कि जाट भाइयों को इतिहास पढ़ने व लिखने में बहुत ही कम रूचि है। सच कहा जाए तो धैर्य की बहुत बड़ी कमी है, इसी कारण अधिकतर जाट ऐसे विषयों को पूरा नहीं पढ़ पाते और तुरन्त ही कोई नतीजा निकालने के लिए बीच-बीच में पढ़कर छोड़ देते हैं। या फिर कहते हैं कि इसमें कोई विशेष नहीं। कहने का अर्थ है कि वे अपने रूढ़िवादी मानसिकता के अनुसार ही सोचते और विचारते हैं। बहुत ही दुःख की बात है कि जाट शहीद महाराजा नाहर सिंह तथा महान क्रान्तिकारी महाराजा महेन्द्र प्रताप तक के बारे में नहीं जानते।


पृष्ठ 9

किसी भी कौम का इतिहास केवल भूतकाल कहानियां ही नहीं, वह उस कौम की भविष्य की दिशा निर्धारित करते हुए उस कौम के बिखराव और पतन को रोकता है और आज हमारी कौम में यही सब कुछ हो रहा है। आज हमारी कौम में आपसी जलन और विरोध ने विशेष स्थान ले लिया है। जब कोई भी जाट किसी भी क्षेत्र में उठने का प्रयास करता है तो उसकी टांगें खींचने के लिए कई हाथ आगे बढ़ जाते हैं और जब वही जाट कुछ उठकर एक विशेष मुकाम पर स्थापित हो जाता है तो वही टांग खींचने वाले हाथ उसके पैर पकड़ने को तैयार हो जाते हैं। यही आज के जाट के चरित्र में एक त्रासदी है। मैंने अपने सामाजिक जीवन के अनुभव में पाया कि लगभग हर जाट पीछे से एक दूसरे की बुराई करते हैं अर्थात् आगे कुछ और पीछे कुछ। जो जाट चरित्र के एकदम विपरीत है। आज जाट कौम में अपनी कौम के लिए दिल और दिमाग से काम करने वालों का भारी टोटा है। अधिकतर जाट अपने नाम और फोटो छपवाने के इंतजार में रहते हैं। यदि किसी मंच से भाषण का अवसर मिल जाए तो अपने को बड़ा वक्ता समझकर विषय से हटकर भाषण झाड़ने की आदत सी बन गई है। जिससे प्रतीत होता है कि लोगों को अपनी कौम का ज्ञान कम तथा अपने ज्ञान पर विश्वास ज्यादा है। जाटों में कहीं भी एकता नजर नहीं आती, इसका मुख्य कारण जाटों में अनेक विचारधाराएं जन्म ले चुकी हैं, उदाहरणस्वरूप - कम्युनिस्ट, आर्यसमाजी, राधास्वामी, ब्रह्मकुमारी, निरंकारी तथा सच्चा सौदा आदि, जो सभी जात-पात का विरोध करते हैं। इसलिए फिर ऐसी विचारधाराओं के अनुसार जाट अपनी जाति ‘जाट’ को जाट कैसे कहेगा। परिणामस्वरूप जाट कौम अपने कौमी मुद्दे बनाने में असफल हो रही है जो कौमी एकता के लिए अनिवार्य है। यही हकीकत है कि जब तब किसी परिवार, गांव, समाज, कौम (जाति) व देश के लिए कोई मुद्दा नहीं होगा तो फिर वे कैसे इकट्ठे हो सकते हैं? आज हमारे साथ यही हो रहा है। हम चाहे किसी भी मत को मानने वाले हों, सबसे पहले अपने को जाट समझना होगा।


इसमें कोई अंदेशा नहीं कि जाट कौम हमेशा से ही राष्ट्रवादी रही है।


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जात-पांत का विरोध करने वाले जाट ही अपनी कौम का सबसे अधिक नुकसान कर रहे हैं जो वास्तव में स्वार्थी हैं या अज्ञानी हैं या समाज से बहिष्कृत हैं। इसलिए जब तक हम अपनी कौम की बात करके अपने कौमी मुद्दे नहीं बनाएंगे तब तक कौम का उत्थान सम्भव नहीं है। जबकि हम प्रायः दूसरे समाजों के ठेकेदार बनकर समाज सेवा का ढोंग करते रहते हैं। वहीं दूसरी ओर अन्य जातियों में प्रेसर ग्रुप अर्थात् दबाव समूह बने हुए हैं जो अपनी जाति की मांगों को मनवाने के लिए सरकारों पर दबाव बनाते रहते हैं और यही लोकतन्त्र में आवश्यक भी है। उदाहरण के लिए हर चुनाव से पहले लगभग हर जातियां अपनी जातियों के लिए अपनी जनसंख्या के अनुपात से कई गुणा अधिक सीटों की मांग करते रहते हैं, लेकिन जाट कौम इस बारे में बहुत पीछे है। जाटों में निजी स्वार्थ के लिए आज बड़ी राजनीतिक जागरूकता है। लेकिन यह स्वार्थी जागरूकता भी एक पागलपन तक नहीं होनी चाहिए। कभी कोई किसी भी पार्टी का शासन हो जाटों ने आपस में मिल जुलकर अपने तथा अपनी कौम के काम निकलवाने चाहिएं। इसी प्रकार हर जाट अधिकारी और कर्मचारी का यही फर्ज और धर्म है कि वह कौम की हर संभव सहायता करे जैसे कि ब्राह्मण और हिन्दू पंजाबी शरणार्थी करते हैं। केवल जाट के पैदा होने से जाट नहीं हो जाता, उसका आचरण भी जाट जैसा होना चाहिए। इस पुस्तक का मूल उद्देश्य है कि जाट कौम में प्रचार करके इतनी जागरूकता पैदा की जाए कि वे अपनी नजरें दिल्ली की कुर्सी तक गड़ाएं और बार-बार अपना दावा जताते रहें। भारत में ही नहीं पूरे संसार में सभी जातियों ने तरक्की की है, लेकिन हमारे देश में जाटों को जितनी तरक्की करनी चाहिए थी उतनी नहीं की यह धरातल पर सच्चाई है। इसका मुख्य कारण जाट कौम को एक्सपोजर (अनावृत) नहीं मिल पाया। उसका भी कारण है कि सभी आधुनिक सुविधाएं शहरीकरण के कारण शहरों में चली गई जबकि जाट कौम एक ग्रामीण कृषक कौम होने के कारण आज भी इसका 90 प्रतिशत भाग गांवों में रहता है। दूसरा हम सन् 1947 से ही भूल कर रहे हैं कि अभी तक हमारा कम से कम 50 प्रतिशत भाग शहरों में आ जाना चाहिए था जिससे हमारा एक्सपोजर भी


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बढ़ता और साथ-साथ शहरों के शासन पर कब्जा भी हो जाता। इसी के साथ-साथ गांव की जमीन (कृषि) पर इतना भारी दबाव भी नहीं आता और गांव में मारा-मारी भी कम होती। लेकिन इन सभी के बावजूद मुझे यह लिखने में गर्व का अनुभव होता है कि आज भी उत्तर भारत की किसी भी जाति से अधिक संकट के समय जाट कौम में इकट्ठा होने की ताकत है।


इसमें कोई दूसरी राय नहीं कि जाट कौम भारत वर्ष में शारीरिक तौर पर अधिक हष्ट-पुष्ट है और यह वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग रहता है। लेकिन आज गांव के जाटों की यह ऊर्जा आपसी झगड़ों, मुकदमों और मार-पिटाई में बर्बाद हो रही है। अर्थात् गांव का माहौल नकारात्मक और विनाशकारी बनता जा रहा है। जबकि स्वस्थ दिमागी ऊर्जा को शिक्षा में और स्वस्थ शारीरिक ऊर्जा को खेल में इस्तेमाल होना चाहिए जो दुर्भाग्यवश दोनों का पूर्ण इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। जाट कौम के युवा वर्ग के लिए खेल क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं जिसके दोहन की परम आवश्यकता है। साथ-साथ व्यवसायिक खेलों में जैसे कि गोल्फ तथा लॉन टेनिस आदि में भी जगह तलाशनी होगी। अभी समय आ गया है कि जाट कौम शिक्षा क्षेत्र और खेल क्षेत्र में ‘हल्ला-बोल’ अभियान चलाए।


जो जाट भाई जात-पांत का विरोध करते हैं उनसे अनुरोध है कि वे देश के सम्पूर्ण सामाजिक ढांचे को समझने का प्रयास करें। हमारे राष्ट्रपिता गांधी ने जात-पांत के बारे में कहा था-‘जात-पांत के कारण हिन्दू समाज स्थिर रहा है। यही नहीं, स्वराज के बीज भी जाति व्यवस्था में पाए जाते हैं।’ डॉ० अम्बडेकर को भारतीय संविधान का रचयिता कहा जाता है, ने कहा था- “जब तक जातीयता का अहसास न हो, राष्ट्रीयता हो ही नहीं सकती।” विनोबा भावे आदि भी जात-पांत के कट्टर समर्थक थे। पं० नेहरू तो ब्राह्मण सभा के सदस्य तक थे। पं० नेहरू ने सन् 1953 में गौड़ ब्राह्मण सभा का उदघाटन भी किया था। जब सन् 1947 में पं० नेहरू देश के प्रधानमन्त्री बने तो


पृष्ठ 12

ब्राह्मणों ने यज्ञ रचाकर उन्हें बुलाया और उन्हें गंगा जल पिलाकर ‘राजडंडा’ भेंट किया था। विद्वान् व विख्यात लेखक श्री वी.टी. राजेश्वर अपनी पुस्तक ‘राष्ट्र में अनेक राष्ट्र’ में इस सच्चाई को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - ‘हमारे देश में जाति विहीन समाज की स्थापना कभी नहीं हो सकती। जात-पांत विरोधी नारा आज वे ऊंची जातियां लगा रही हैं जिनकी पहले से ही प्रशासन पर मजबूत पकड़ रही है और उन्हें डर है कि कहीं दूसरी जातियां जागरूक होकर मजबूत हो गई तो उनकी पकड़ ढीली पड़ जाएगी।’ मैं जानता हूं कि यह पुस्तक नेहरू गांधी के नारे लगाने वालों को रास नहीं आएगी।


जाटों का देश के तीन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में भारत की किसी भी एक जाति से अधिक योगदान है - कृषि-क्षेत्र, खेल-क्षेत्र तथा रणक्षेत्र। केन्द्रीय अनाज भण्डार में जाटों का लगभग 70 प्रतिशत योगदान है तो खेलों में जाटों ने सबसे अधिक अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी दिये हैं। लड़ाई के मैदान में जाटों का कोई सानी नहीं है। कारगिल युद्ध को ही लें तो जहां भारत के 539 सपूत शहीद हुए जिनमें से 340 जाट पुत्र थे तथा 124 जटपुत्र तो केवल हरयाणा राज्य से ही थे। कहने का अर्थ है कि जब जाट कौम का योगदान देश के लोगों का पेट भरने और उनकी सुरक्षा करने में सबसे बड़ा है तो इनके लिए बोनस (सरकारी सहायता) भी उतना ही बड़ा होना चाहिए। जबकि बोनस की बात तो छोड़ो कोई प्रशंसा करने तक भी तैयार नहीं है। इसके विपरीत जिन जातियों का इन क्षेत्रों में नाममात्र का भी योगदान नहीं वे मलाई खा रहे हैं और साथ-साथ समय-समय पर हमें आंखें भी दिखा रहे हैं। जाट कौम जिस दिन इस अन्याय को समझ जाएगी और अपनी ताकत को पहचान जाएगी तो वह दिन दूर नहीं होगा जब जाट कामै ‘जटलैण्ड’ की मांग करेगी। क्योंकि आज इस देश में इसी संविधान के अधीन 12 लाख नागाओं का नागालैण्ड, 3 लाख बोडो का बोडोलैण्ड और 2 लाख गोरखाओं का गोरखालैण्ड हैं तो फिर चार करोड़ जाटों का ‘जटलैण्ड’ क्यों नहीं हो सकता?


याद रहे जिस जाति का इतिहास और ग्रन्थ नहीं होता वह जाति


पृष्ठ 13

भटकी हुई, दिशाहीन और गूंगी होती है।

जाटों को लुटेरे लिखने वाले भूल गए कि आज देश में एक ऐसा शोषक वर्ग है जिन्हें असली लूटेरा कहा जा सकता है। उन्होंने सन् 1947 के बाद विपुल धन-सम्पदा अर्जित कर ली है और वे जानते हैं कि उस सम्पदा की सुरक्षा केवल देश इकट्ठा रहने से ही हो सकती है इसलिए जब-जब भी देश पर संकट आने की आशंका होती है तो ये लोग देशभक्ति के तराने छेड़ने लगते हैं ताकि जाट कौम और कमेरा वर्ग देश की सुरक्षा में भी अपने आपको बलिदान करते हुए इनकी सम्पदा की सुरक्षा बनाए रखे। इसलिए इस तथ्य को मैंने अपनी पुस्तक में अनेक उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि ‘असली लुटेरे कौन हैं?’ जाट भाइयो, शिक्षित बनो ! संगठित रहो ! संघर्ष करो ! और गर्व से कहो कि हम जाट हैं।


भाई जोशपाल दहिया खजूरी (दिल्ली) का इस मिशन में विशेष सहयोग रहा है।

इस संस्करण को छपवाने के लिए कर्नल मेहर सिंह दहिया (शौर्य चक्र) ने एक हजार कापियों के लिए अग्रिम राशि देकर विशेष प्रोत्साहित किया। इसके अतिरिक्त चौ० उमराव सिंह सांगवान (पूर्व ए.सी.पी.), चौ० सुभाष श्योराण (पूर्व डिप्टी कमाडेंट), चौ० महावीर सिंह दहिया (पूर्व ए.सी.पी.), सुखबीर सांगवान, पुत्र बलवान सिंह सांगवान गांव डोहकी और चौ० जयसिंह राणा गांव पाकस्मा जिला रोहतक (निवास मीरा बाग, दिल्ली) का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक को छपवाने में योगदान दिया। चौ० ओमपाल आर्य ने भी इस पुस्तक के समापन पर अपना योगदान दिया है।


जो भरा नहीं भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।

वो जाट नहीं वो जाहिल है, जिसे अपनी कौम से प्यार नहीं।।


- हवासिंह सांगवान जाट

पूर्व कमांडैंट, सी.आर.पी.एफ.


पृष्ठ 14-15

प्रस्तावना

कमांडैन्ट हवासिंह सांगवान द्वारा लिखित असली लुटेरे कौन? नामक पुस्तक का पाँचवाँ संस्करण आ रहा है। इस पुस्तक के अब तक चार संस्करणों का छपना और बिकना इस की लोकप्रियता का पर्याप्त प्रमाण है। वैसे तो यह पुस्तक 2006-07 में उठे जाटों को लुटेरे लिखे जाने की प्रतिक्रिया स्वरुप ही लिखी गई थी। क्योंकि केन्द्रीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम की पुस्तकों में साम्यवादी लेखक विपिनचन्द्रा ने बृज के जाटों को लुटेरा लिख दिया था। उस समय सारे ही जाट जगत् में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। हरियाणा के तो लगभग सभी नगरों में स्थान-2 पर विरोध-प्रदर्शन भी हुए थे। जिस प्रकार पौराणिक कथा है कि समुद्र-मन्थन से अमृत निकला था, उसी भाँति उस विवाद की ही उपलब्धि प्रस्तुत पुस्तक ‘असली लुटेरे कौन?’ है।


इस पुस्तक में लेखक ने जाटों के जौहर नामक अध्याय लिखकर जाटों का वीरतापूर्ण इतिहास ही लिखा है। इस विषय में उन्होंने दिल्ली के पुरातत्वीय महत्त्व के कुतुब मीनार जैसे भवनों और स्वयं दिल्ली को विक्रमादित्य के उपराज्यपाल दिल्लेराम उर्फ दिल्लू के द्वारा निर्मित माना है। यह घटनाक्रम तीसरी-चौथी शताब्दी का है। इस काल के पूर्व के प्राचीन नगरों का परिचय नहीं मिलता, हाँ महाभारत ग्रन्थ में इन्द्रप्रस्थ का नाम अवश्य मिलता है लेकिन उसकी अब स्थिति निश्चित नहीं है। जबकि पौराणिक पण्डितों ने दिल्ली को तंवरों (राजपूतों) द्वारा ही आधारित बताया है जो कि बाद में हुए हैं। इस पुस्तक के आरम्भिक दस अध्यायों में विद्वान लेखक ने जाटों के देशों और विदेशों में किए गए प्रबल पराक्रमों एवं उनके साम्राज्यों का भी संक्षिप्त विवरण दिया है। ईरान,रुस, चीन, रोम (जिप्सी) और स्केन्डिनेवियन देशों तथा यूरोप महाद्वीप तक जाट जाति के गौरवशाली विजय अभियानों का संक्षिप्त इतिहास लेखक ने दिया है। इस प्रकार से उन्होंने जाटों को विश्वव्यापी एक योद्धा और कृषक प्रजाति (Race) ही सिद्ध किया है जो कि तर्कसंगत है। क्योंकि देशी और विदेशी नेतृत्व शास्त्रियों और इतिहासज्ञों के उदाहरणों के द्वारा भी सांगवान साहब ने अपने कथन को प्रमाणित किया है।


यही नहीं, लेखक ने जाटों के प्राचीन गांवों को वास्तविक उत्तराधिकारी


पृष्ठ 16

मानते हुए उन्हें ही पंचायत परम्परा के और वर्तमान प्रजातान्त्रिक प्रणाली के पुरो्धा भी माना है। भरतपुर का लोहागढ़ अंग्रेजों के लिए अजेय रहा और इस रियासत ने बर्तानिया सरकार को कभी खिराज नहीं दिया। इसी प्रकार से धौलपुर नरेश ने ही मालवीय जी की सभी शर्तों को पूरा करके 1932 में बिरला मन्दिर का शिलान्यास किया। क्योंकि किसी भी जाट-शासन ने समर्पण अथवा संधि करके अपने कुलों की कन्यायें मुगलों के साथ नहीं ब्याही थी। बल्कि उन्होंने उल्टे मुगलों को संधि के लिए विवश करके उनसे उनकी कमनीय कन्याओं के डोले लिए थे। दिल्ली और आगरा के मुगल राज्यसत्ता केन्द्रों को जाटों ने ही सर्वप्रथम विजित किया था यह हमें नहीं भूलना चाहिए।


इसके साथ ही साथ, सांगवान साहब ने जाट जाति की चरित्रगत विशेषताएँ भी स्पष्ट की हैं। उन्होंने शत्रु के सामने झुक कर समझौता करना नहीं सीखा। इस विषय में वीरवर गोकुला, राजा नाहर सिंह और मुरसान नरेश महान् त्यागी राजा महेन्द्रप्रताप सिंह एवं शहीद-ए-आजम भगतसिंह के उदाहरण सटीक ही दिये हैं। दूसरी उच्चतम विशेषता है कि जाटों ने धर्मनिरपेक्षता को ही माना है। क्योंकि आज भी जाट जनगण हमें वैदिकधर्मी आर्यसमाजियों से लेकर एकेश्वरवादी इस्लाम (पाकिस्तान) में मिलता है। तो यूरोप में वह बौद्धधर्मी से निष्कृत करूणामूलक ईसाई धर्म में दीक्षित हैं। कहने का भाव यह है कि जाट लोग बजाय धर्म और सम्प्रदाय के रक्तसम्बन्ध की एकता को ही अधिमान देते हैं। साम्प्रदायिक मुस्लिम जिन्ना पर संयुक्त पंजाब में चौधरी छोटूराम की विजय का यही कारण था।


इस पुस्तक के पन्द्रहवें प्रकरण में लेखक ने भारत की वास्तविक गुलामी के संस्थापक कौन? में वर्यस्ववादी शोषक वर्गों की कलई खोली है जिन्होंने देश के साथ विश्वासघात करके भारत को परतन्त्रता की बेडि़यों में जकड़ा था। इसके लिए उन्होंने सर्वप्रथम पौराणिक पुरोहितवाद को ही उत्तरदायी ठहराया है, जिसने बौद्धधर्मी, कश्मीरी शासक को पन्द्रहवीं शताब्दी में बलात मुस्लिम बनने के लिए बाध्य कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप हिन्दूबहुल काश्मीर मुस्लिमबहुल बन गया था। सिन्ध में भी ब्राह्मण पुरोहितों की इसी दमनकारी और देशद्रोहपूर्ण भूमिका का रहस्योघाटन लेखक ने किया है। विशेषकर बौद्धधर्मी जाट जनगण के विरुद्ध ब्राह्मण शासक चच-दाहिर का आचरण


पृष्ठ 17


प्रतिशोध मूलक था। यही स्थिति ब्राह्मण पुरोहितों की बौद्ध धर्मी शासकों के पतन में मगध और कन्नौज में भी रही थी।


जाट इतिहास के कुछ अनछुए अध्यायों का भी अनुसंधान सांगवान साहब ने किया है। जैसे कि जिस हेमचन्द्र विक्रमादित्य को प्रायः बनिया अथवा भार्गव ब्राह्मण माना जाता है, उन्होंने उसे सप्रमाण तिजारा के देवती गांव का जाट सिद्ध किया है। शोरे का व्यापारी होने से ही इतिहासकारों ने उसको बणिया मान लिया है। यह उनकी नई खोज ही है। इस पुस्तक के 16वें प्रकरण से लेखक का दृष्टिकोण बजाय विवरण के विचारात्मक अधिक हो गया है। उन्होंने कृषक केसरी चौ० छोटूराम जी की शिक्षाओं के आलोक में ही जाट किसानों की वर्तमान स्थिति का आकलन और अवलोकन किया है। यहाँ पर सांगवान साहब ने जाटों एवं अन्य किसान जातियों को शहरी और स्वर्णशोषकों के सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक एकाधिकार के प्रति सचेत किया है।


जहाँ पर उन्होंने शहरी और स्वर्ण ब्राह्मण-बनिया और पंजाबी खत्री गठजोड़ को किसान हितों के विरुद्ध पाया है, वहीं पर उन्होंने परिष्कृत पुरोहितवाद के रूप में स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाज की क्रान्तिकारी भूमिका पर भी उंगली उठाई है। विशेषकर हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट किसानों को पुनः ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था एवं जटिल कर्मकांड में उलझाने में आर्यसमाज की भूमिका भी निर्णायक बतलाई। विशेषकर अयोध्या आन्दोलन के सन्दर्भ में। स्वर्णशोषकों का किस प्रकार से इस देश में सरकारी सेवाओं से लेकर राजनीति तक अघोषित आरक्षण है,यह भी लेखक ने आंकड़ों के साथ दर्शाया है। इसीलिए उसने जाट जैसी किसान जातियों को आरक्षरण हेतु कटिबद्ध किया है। आज किसान लोग किस प्रकार अपनी ही कृषि भूमियों से आर्थिक नीतियों के चलते विस्थापित हो रहे हैं, यह भी लेखक ने दर्शाया है। पुस्तक पठनीय और विचारोत्तेजक है। इसका अध्यायों में वर्गीकरण तथा पुस्तकालय संस्करण भी हो तो और भी अच्छा है।

- डॉ० धर्मचन्द्र विद्यालंकार

वरिष्ठ प्रवक्ता, सनातन धर्म कालेज, पलवल।


पृष्ठ 18


भूमिका

एन.सी.ई.आर.टी. अर्थात् नेशनल कोंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एण्ड ट्रनिंग, जो केन्द्र सरकार के अधीन पूरे देश में शिक्षा की एक जिम्मेवार संस्था है, जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। यही संस्था सारे देश में केन्द्रीय विद्यालयों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करती है। छठी कक्षा की इतिहास की पुस्तक तथा 10+2 कक्षा की इतिहास की पुस्तक में जाट जाति को डाकू व लुटेरा लिखा गया है। यह कई वर्षों से लिखा चला आ रहा है। इस प्रकार की विचारधारा वाले लेखकों की एक मण्डली रही है जिसमें विशेष रूप से विपिनचन्द्र, डॉ. रोमिला थापर व मैडम दत्ता आदि जैसे कम्यूनिस्ट तथा ब्राह्मणवादी विचारधारा के लेखक रहे हैं, जिन्होंने जाटों के विरुद्ध ऐसी टिप्पणियाँ सरकारी तौर पर लिखकर बच्चों को जाटों के बारे में अनुचित जानकारी देने का प्रयास किया है।

इन लेखकों से मेरे कुछ निम्नलिखत प्रश्न हैं कि -

  • i) प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में अम्बालामेरठ आदि अंग्रेजी सैनिक छावनियों के शस्त्रगृहों से हथियार व गोला बारूद लूटने वाले क्रान्तिकारी क्या डाकू व लुटेरे थे?
  • ii) 9 अगस्त सन् 1925 को हरदोई से लखनऊ जाने वाली 6 डाउन यात्री रेलगाड़ी से काकोरी रेलवे स्टेशन पर इस गाड़ी में लदा अंग्रेजों का खजाना लूटनेवाले रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशनसिंह व मन्मथनाथ गुप्त आदि क्या डाकू व लुटेरे थे?
  • iii) देश की आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के अधीन पुलिस से हथियार व गोला बारुद लूटनेवाले सरदार अमर शहीद भगतसिंह संधु के साथी सरदार करतारसिंह ग्रेवाल व सरदार बन्तासिंह आदि क्या डाकू व लुटेरे थे?

यदि आप स्वीकार करते हैं कि ये सभी डाकू व लुटेरे थे तो मेरा कहना है कि आज भारत में रहने वाले लगभग 3 करोड़ 80 लाख जाट



पृष्ठ 19

जो अपने लगभग 4800 गोत्रों, 600 खापों के साथ लगभग 25000 गाँवों व कस्बों में रहने वाले सभी के सभी जाट डाकू व लुटेरे हैं, जिसका मुझे तथा मेरी जाति को गर्व है।


यदि नहीं, तो फिर आप अंग्रेजों के हथियार, गोलाबारूद व खजाना लूटनेवालों को क्रान्तिकारी और देशभक्त मानते हैं तो आपने मुगलशासकों व नवाबों के हथियार, असबाब व खजाना लूटने वाले जाटों को लुटेरा कैसे लिख दिया? जाटों ने मोहम्मद गजनी (सन् 1025) से लेकर बहुझौलरी के अदना नवाब (सन् 1865) तक व उनके सहायक, शुभचिन्तक व पिट्ठुओं तक को जी भरकर लूटा। एक बार नहीं, बार-बार लूटा और पीटा। एक दिन नहीं, लगभग 800 सालों तक लूटा-पीटा।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सन् 1857 का गदर कहें, जाटों ने अंग्रेजों के विरुद्ध उत्तर भारत में भयंकर लड़ाई लड़ी और अंग्रेजों को लगभग 9 महीने तक चैन से नहीं बैठने दिया। ये अपने आप में एक बहुत विशाल इतिहास है जिसका संक्षेप में वर्णन इस पुस्तक में आगे भी किया गया है।

जब संग्राम विफल हो गया तो अंग्रेजों ने केवल वर्तमान हरयाणा क्षेत्र में ही 134 गाँवों को जला दिया तथा 51 गाँवों को नीलाम कर दिया था। हजारों लोगों को सामूहिक फांसियों पर लटकाया गया। महम में चौ० आशाराम के नेतृत्व में जो क्रान्ति की लड़ाई लड़ी गई, विफल होने पर चौ० आशाराम व उनके साथियों को चौराहे पर फाँसी दे दी गई। इसी स्थान को आज आजाद चौक के नाम से जाना जाता है। सोनीपत जिले के गांव लिबासपुर के जाट उदमीराम की अगुवाई में इसी गांव के जाट वीर गुलाब, जसराम, रतिया आदि अनेक जाटों ने अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजाई। मुरथल के वीर योद्धा सुरताराम व उनके बेटे जवाहर, बाजा नम्बरदार, पृथ्वीराम, मुखराम, राधे तथा जैमल आदि ने अंग्रेजों पर कहर बरपाया। इसी प्रकार खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर व सराय आदि सैकड़ों गांवों का यही इतिहास है।


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अलीपुर के हंसराम व तोताराम की बहादुरी को भी भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन जाटों के इस स्वर्णिम और गौरवशाली इतिहास को पं० नेहरू व इसकी चाटुकार सरकार की नीतियों ने दफन कर दिया और देश आजाद होने पर भी अंग्रेजों को खुश रखने के लिए उन ऐेतिहासिक घटनाओं पर पानी फेर दिया। जबकि सैकड़ों गांवों के इन जाट वीरों को बेघर कर दिये जाने पर भी इतिहास में उनकी कभी कोई बात नहीं की गई। इसी प्रकार हांसी में एक सड़क का नाम ही खूनी सड़क या लाल सड़क पड़ा। यही कहानियाँ करनाल, जीन्द, हिसार, रोहतकझज्जर आदि की हैं।


उत्तर प्रदेश के जाटों का 1857 के विद्रोह में महान् योगदान था जिसका सम्पूर्ण इतिहास अलग से लिखा जा सकता है। इन्हीं कारणों से मुगलों व अंग्रेजों ने अपने ‘तारीखों’ तथा ‘गजटों’ में बार-बार जाटों को डाकू व लुटेरा लिखा है। जाटों के सांगवान गोत्र के प्रवर्तक चौ० संग्रामसिंह उर्फ सांगू को नवाब हिसार व झज्जर के तारीखों में एक खूंखार डाकू लिखा है क्योंकि उन्होंने मुगलों के खजाने दादरी क्षेत्र (हरयाणा) से पश्चिम में आने-जाने पर लूट लिये थे। (सांगवानों का मूल गोत्र कश्यप है) प्राचीन हरयाणा का अर्थ मुगलों व अंग्रेजों ने ‘हर-लेना’ निकाला अर्थात् लुटेरों का प्रदेश कहा। जबकि अर्थ है ‘हर+आना’ अर्थात् वह क्षत्रे जहाँ सबसे पहले हर (शिव) का आगमन हुआ। प्राचीन हरयाणा में इसका प्रवेशद्वार हरद्वार था, इसकी पूरी परिभाषा ही बदल डाली तथा सन् 1857 के बाद इस प्रदेश को छिन्न-भिन्न कर दिया गया और अंग्रेजों ने बंदरबाट में प्राचीन हरयाणा क्षेत्र के बावल क्षेत्र को नाभा रियासत, नारनौल क्षेत्र को पटियाला रियासत तथा दादरी क्षेत्र को जीन्द रियासत को इनामस्वरूप दे दिया गया। जमना पार का क्षेत्र (दोआबा क्षेत्र को) यूनाईटिड प्रोविन्स राज में मिला दिया गया तथा दिल्ली, गुडगांव, रोहतक, हिसारअम्बाला क्षेत्र को अंग्रेजों ने सीधे तौर पर अपने अधीन रख लिया। जिसका एक भाग 108 वर्ष बाद प्रथम नवम्बर 1966 को पुनः जीवित किया। आज की


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दिल्ली इसी प्राचीन हरयाणा का एक जिला था, इसी जिले को जार्ज पंचम के सन् 1911 में भारत आगमन पर अंग्रेजों ने कलकत्ता की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और उसी साल उन्होंने सर्वे करवाया जिसका पूरा विवरण आग जाटों की टूटती पीठ और बढ़ती पीड़ा में किया गया है। अंग्रेजों ने दिल्ली के स्वरूप को बिगाड़कर जाटों के भूगोल के साथ खिलवाड़ किया और इसी खिलवाड़ को भारत सरकार ने भी विकास के नाम पर आज तक जारी रखा है। यही आज का बिगड़ा हुआ भूगोल कल हमारा बिगड़ा हुआ इतिहास होगा। इतिहास तो फिर भी लिखा जा सकता है लेकिन भूगोल को बदलना असंभव है।


संसार का इतिहास गवाह है कि रूस, चीन, फ्रांस व भारत आदि के क्रान्तिकारी आंदोलनों का यही इतिहास है ‘जहाँ सरकारी खजानों व शस्त्रागार आदि को क्रान्तिकारियों ने लूटा, जबकि इतिहासकार जाटों को डाकू व लुटेरा कहते हैं।’ लेकिन जनता की स्वाधीनता तथा बहादुरी के लिए लड़नेवाले हर विद्रोही को सत्ता और शासन से टकराना पड़ता है, उसका खजाना, शस्त्रागार, बैल-घोड़े तथा युद्धसामग्री छीनकर या लूटकर अपनी सेना खड़ी करनी पड़ती है। जाट एक क्रान्तिकारी जाति रही, जिस कारण उसने यह कार्य सालों-साल किया, जो कोई बहादुर ही कर सकता है, जिसके सीने में सवा सेर का कलेजा तथा बाजुओं में ताकत हो। जाटों ने हमेशा अपनी इस ताकत का प्रयोग विदेशी सत्ताधारियों व आक्रमणकारियों के विरोध में भरपूर किया जो एक गौरव की बात है और जाटों को इस पर हमेशा गर्व होना चाहिए। याद रहे जाट कभी चोर नहीं थे, चोरी और लूट में दिन-रात का अन्तर है।

गुलामी का इतिहास है लम्बा, अभी कल ही की तो बात है ।

आजादी की यह जिन्दगी, जाट अमर शहीदों की सौगात है ॥

यहाँ विशेष बात ध्यान देने की है कि जिस प्रकार मुगलों व अंग्रेजों ने जाटों के बारे में जो टिप्पणियाँ कीं उसी लहजे में हमारे भारतीय इतिहासकारों ने टिप्पणियाँ कीं। हम जाट, मुगलों व अंग्रेजों के दुश्मन रहे,



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इसलिए उनसे हमें वही उम्मीद रखनी चाहिए थी जो एक दुश्मन दूसरे दुश्मन से रखता है। लेकिन भारतीय इतिहासकार भी यदि उसी तर्ज पर हमारे खिलाफ टिप्पणियाँ करते हैं तो मामला बड़ा संगीन बनता है। इसके दो कारण हो सकते हैं । प्रथम यह कि यह हमारे भारतीय इतिहासकार जो जाटों के विरोध में लिख रहे हैं इनके पूर्वज मुगलों व अंग्रेजों के चाटुकार रहे या दूसरा फिर केन्द्र सरकार की मिलीभगत से यह सब हो रहा है। यह आजादी के बाद से ही हो रहा है, लेकिन बिहार से भाजपा के सांसद श्री रविशंकरप्रसाद जी ने जब इस प्रकार की टिप्पणियों का मामला दिनांक 18.08.2006 को संसद में उठाया और इसी को टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया तो जाटों की थोड़ी नींद खुली और केवल हरयाणा में छुट-पुट प्रदर्शन हुए जिसमें कुछ राजनीतिज्ञ भी अपना स्वार्थ साधते नजर आये तथा प्रेस-नोट अखबारों में छपवाकर अपने कर्तव्य का निर्वाह कर लिया, वरना जाटों को प्रेस के पास जाने की आवश्यकता नहीं, प्रेसवाले खुद ही जाटों के पास पहुंच जाते। पंजाब के सिक्ख जाट जयपुर राजस्थान में एक सिक्ख बच्चे के केस काटने वाली घटना में उलझ गए, बाकी जाटों को सांप सूंघ गया। जाट मांग करते रहे हैं कि इन टिप्पणियों को पाठ्यक्रम से निकाला जाये। सवाल केवल पाठ्यक्रम से निकालने का ही नहीं था, बल्कि सवाल यह है कि किसने, कब, क्यों, कैसे और किस नीयत से इसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया? इसकी विस्तृत जांच हो, जिसके लिए एक जांच कमेटी नियुक्त हो, जिसमें जाट महासभा के भी सदस्य सम्मिलित हों। क्योंकि यह जाट जाति के स्वाभिमान का एक बड़ा प्रश्न है तथा इस सच्चाई को जानने का हर भारतीय को पूरा-पूरा अधिकार है। इसके अतिरिक्त पूरे भारतीय इतिहास का फिर से विश्लेषण किया जाये तथा सच्चे इतिहास को पाठ्यक्रम की पुस्तकों में सम्मिलित किया जाये ताकि आनेवाली भारतीय संतान हमारी कमियों व अच्छाइयों पर खुले दिमाग से विचार करके भविष्य में समय अनुसार योजनाएँ तय कर सके। क्योंकि झूठा इतिहास पढ़ाने से एक झूठे घटनाक्रम का अहसास


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होता है लेकिन जब सच्चाई का पता चलता है तो इसका प्रभाव ठीक इसके विपरीत पड़ता है। जाटों से सम्बन्धित कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन आगे किया है जिनको बगैर किसी विलम्ब के पाठ्य-पुस्तकों में सम्मिलित किया जाये ताकि भारतीय सन्तान गौरव का अनुभव कर सके। अक्तूबर 2006 के अखबारों में समाचार आया कि हरयाणा के मुख्यमंत्री व कुछ अन्य जाट नेता भारत के शिक्षामंत्री (एच.आर.डी. मंत्री) से मिले और उनको विश्वास दिलाया कि ये टिप्पणियाँ आगामी संस्करण से निकाल दी जायेंगी। शायद इस आश्वासन के बाद काफी जाटों का सीना फूल गया होगा और वे अपनी सफलता पर खुशी मनाकर केन्द्रीय सरकार के अहसानमंद हो गये होंगे, लेकिन न तो इसमें कोई खुशी मनाने की बात है और न ही कोई आश्वस्त होने की। प्रश्न यह है कि ये टिप्पणियाँ कैसे लिखी गईं जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है तथा भारत के शिक्षा मंत्री ने भारत वर्ष के इतिहास का सच्चा आकलन करने के लिए क्या आश्वासन दिया? अभी समय आ गया है कि समूचे जाट इतिहास को विस्तार से लिखकर जन-जन तक पहुंचाया जाए तथा इसके विशेष अध्यायों को स्कूलों में पढ़ाया जाए। अभी तक जाट इतिहास लिखने के लगभग दर्जनभर प्रयास हो चुके हैं लेकिन सम्पूर्ण इतिहास का आकलन होना शेष है। जो शायद 4-5 खण्डों में पूर्ण होगा, जिसे कोई महान् इतिहासकार ही पूरा कर पायेगा। वर्तमान में डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार, डॉ. सुखीराम रावत व महीपाल आर्य सरीखे लेखक ही इस कार्य को कर पाएंगे। (पुस्तक - इतिहास का अध्ययन)

जाटों के कुछ जौहर

जाटों की बहादुरी पर कवि ‘अब्दुल गफ्फार अब्बासी’ अपनी कविता इस प्रकार आरम्भ करते हैं -

जब शत्रु ने नजर मिलाई रूई समझ के उसे धुना है।

इसलिए इस देश में मैंने वीर बहादुर जाट चुना है ॥



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  • 1) जब सन् 1025 में (कुछ इतिहासकारों ने इसे सन् 1030 भी लिखा है) मोहम्मद गजनी सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने आया तो वहाँ के तत्कालीन राजा भीमदेव ने गजनी को संदेश भिजवाया कि उसे जितना धन चाहिए वह देने के लिए तैयार है लेकिन मंदिर को कोई नुकसान ना पहुंचाया जाये। इस पर गजनी ने उत्तर दिया “वह एक मूर्ति भंजक है, सौदागार नहीं और इसका फैसला उसकी तलवार करती हैं।” उस समय इस मंदिर में लगभग 1 लाख पण्डे पुजारी व देवदासियां उपस्थित थीं। पुजारियों ने कहा यदि गजनी की सेना मंदिर पर आक्रमण करती है तो वह अंधी हो जायेगी। लेकिन वही हुआ जो अंधविश्वास में होता आया। गजनी ने मंदिर को जी भरकर लूटा और मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग की मूर्ति को तोड़कर इसके तीन टुकड़े किए। मंदिर के मुख्यद्वार के किवाड़ (जो चन्दन की लकड़ी से सुन्दर चित्रकारी के साथ बने थे) समेत सभी लूट लिया और इस लूट के माल को 1700 ऊँटों पर लादकर गजनी के लिए चला तो रास्ते में सिंध के जाटों ने इस लूट के माल का अधिकतर हिस्सा ऊंटों समेत छीन लिया। गजनी ने शिवमूर्ति के तीनों टुकड़ों को गजनी, मक्का और मदीना में पोडि़यों के नीचे दबवा दिया ताकि आने-जाने वाले के पैरों तले रोंदे जाते रहें।

इस मन्दिर के वही किवाड़ लगभग 700 वर्षों बाद 6वीं जाट रॉयल बटालियन अफगान की लड़ाई जीतने पर इनको लूटकर लगभग 3000 कि.मि. खींचकर लाई जो आज भी जमरोद के किले (पाकिस्तान) में लगे हैं।

  • 2) ब्रज क्षेत्र में किसानों के लिए लड़ाई लड़ने वाले वीर योद्धा गोकला जाट को जब औरंगजेब ने प्रथम जनवरी 1670 में आगरा में लाल किले के सामने आरे से कटवाकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये तथा इनके साथी माड़ू जाट को जीते-जी खाल (चमड़ी) उतरवाकर शहीद किया, ये दोनों जाट वीर योद्धा इस प्रकार मुगल शासन में होने वाले भारत के

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पहले शहीद थे। लेकिन उस जगह पर आज तक उनकी न तो कोई यादगार है और न ही कोई स्मृतिचिन्ह है। इसके लिए जाट समुदाय भी तो कम दोषी नहीं है। उस समय तो जाटों ने इसका बदला लेने के लिए औरंगजेब की नाक के तले फतेहपुर सीकरी के किले व महल को वीर योद्धा राजाराम की अगुवाई में लूटा, फिर ताजमहल को लूटा। जब इस पर भी जाटों का गुस्सा ठण्डा नहीं हुआ तो उन्होंने फतेहपुर सीकरी में ही महान् अकबर के मकबरे को लूटकर उसकी कब्र को खोदा और उसकी अस्थियों को आग में जला डाला।

  • 3) इस लूट की पद्धति को ही छापामार पद्धति कहा गया, जिसे जाटों ने छठी सदी में ही सिंध में इजाद कर लिया था। इसी लड़ाई की पद्धति को आज गुरिल्ला वार-फेयर तथा जंगल वार फेयर आदि नामों से जाना जाता है। यह मौलिक रूप से जाटों की खोज थी जो अपने से अधिक ताकतवर के विरुद्ध लड़ने का एक तरीका है। इसी पद्धति के आधार पर आगरा, मथुरा व भरतपुर क्षेत्र में जाट व किसानों के नेता वीर योद्धा राजाराम के भाई चूड़ामन ने मुगलों का इस क्षेत्र से दक्षिण का रास्ता पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया। इस रास्ते से आने-जाने वाले मुगलों के खजानों, उनके कारिन्दों, शुभचिन्तकों व उनके पिट्ठुओं को बुरी तरह कई वर्षों तक जी भरकर लूटा-पीटा और एक दिन मुगलों ने हाथ खड़े कर दिए और चूड़ामन को उस क्षेत्र का नेता मान लिया। इन्होंने इसी लूट के बल पर एक शक्तिशाली सेना खड़ी कर दी, जिसने भरतपुर की एक महान् रियासत की स्थापना का रास्ता साफ कर दिया और वे ‘बेताज बादशाह’ कहलाये।
  • 4) छत्रपति शिवाजी (बालियान गोत्री जाट) मराठा ने इसी छापामार युद्ध की पद्धति के बल पर दक्षिण में मुगलों को खूब लूटा। शिवाजी के साथियों को इस छापामार युद्ध की पद्धति सिखलाने के लिए उनके धर्मगुरु रामदास के कहने पर इस पद्धति के विशेषज्ञ मोहनचन्द्र जाट तथा हरिराम जाट को प्राचीन हरयाणा से भेजा गया था। यही लोग

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दक्षिण के शक्तिशाली मराठा राज की नींव डालने के आधार बने। यही जाट लड़ाकू शिवाजी फिर ब्राह्मणवाद के जाल में फंस गये जिस कारण इनका राज बाद में पेशवा ब्राह्मणों के हाथ में चला गया। (विस्तार से इसके बारे में आगे पढें)। इसी प्रकार दक्षिण के एक प्रमुख राज विजयनगर की सेना को छापामार युद्ध पद्धति सिखलाने के लिए प्राचीन हरयाणा से सर्वखाप पंचायत ने शंकरदेव जाट, ऋषलदेव जाट, शिवदयाल गुर्जर, ओझाराम खाती, शीतलचन्द रोड़ तथा चण्डीराम राजपूत को वहाँ के राजा के आग्रह पर भेजा तथा इसी बल पर इस राज को मजबूती मिली जो 250 वर्षों तक चला।

  • 5) इतिहास साक्षी है कि सन् 1749 में मोती डूंगरी की लड़ाई में महाराजा सूरजमल ने एक साथ मराठों, चैहानों, सिसोदियों तथा हाड़ाओं को हराया था। याद रहे इस महान् राजा सूरजमल के पूर्वज बेताज बादशाह चूड़ामन ने जोधपुर के राजा अजीतसिंह की पुत्री इन्द्रा कुमारी पठानों के बादशाह फर्रुखसियर के हरमखाने से आजाद कराके राजा अजीतसिंह को सौंपी थी।
  • 6) जब 25 दिसम्बर 1763 को महाराजा सूरजमल को शाहदरा में मुगलों ने लड़ाई की तजवीज बनाते हुए धोखे से मार दिया जो अपने समय के सम्पूर्ण एशिया में एक महान् शासक माने जाते थे (पुस्तक - जाट और मुगल साम्राज्य - डॉ जी.सी. द्विवेदी) तो इसका बदला लेने के लिए उनके पुत्र महाराजा जवाहरसिंह ने सन् 1764 में लाल किले पर आक्रमण किया और 5 फरवरी को लगभग 11 बजे इस किले को फतेह कर लिया। राजा होलकर तथा पुरोहितों की जलन की वजह से दो दिन पश्चात् मुगलों से नजराना लेकर किले से अपनी सेनाएं हटाईं तथा मुगलों की शान कहे जानेवाला काले संगमरमर का मुगलों का सिंहासन तथा लाल किले के किवाड़ यादगार के तौर पर जाट छीन लाये और यह सिंहासन आज डीग के महलों की शोभा बढ़ा रहा है तथा लाल किले के किवाड़ भतरपुर में अजयगढ़ के किले में लगे हैं। भारतीय

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इतिहास इस सच्चाई को उजागर क्यों नहीं करता कि यही किवाड़ चित्तौड़गढ़ के किले को जीतने पर मुगल वहां से उठाकर लाए और लाल किले में लगवा दिये गए थे। लेकिन स्वाभिमानी जाट सरदार इन्हें लाल किले से उखाड़कर भरतपुर ले गए थे। इससे पहले भी एक बार गुस्साये जाटों ने मुगलों की दिल्ली (बाजारों) को 9 मई से 4 जून 1753 को जी भरकर लूटा जिसे ‘दिल्ली की लूट’ व ‘जाट गर्दी’ मे नाम से जाना गया। इसीलिए एक कहावत प्रचलित हुई “जाट जितना कटेगा, उतना ही बढ़ेगा।”

  • 7) पंजाब में 12 ‘मिसलें’ होती थीं जिनमें 10 ‘मिसलें’ जाटों की थीं। करोडि़या मिसल के सरदार बघेलसिंह ढिल्लों थे, जिन्होंने सन् 1790 में दिल्ली पर धावा बोल दिया और मुगलों की दिल्ली को जी भरकर लूटा और लालकिले पर जा धमका था, जिसकी तीस हजार फौज ने जहाँ कैम्प लगाया उसी जगह को आज तीस हजारी कहते हैं और आज वहीं दिल्ली का तीस हजारी कोर्ट है। इसी वीर योद्धा बघेलसिंह ने इससे पहले सन् 1766 में लुटेरे अब्दाली को पंजाब में घायल कर दिया था और उसके चंगुल से हजारों स्त्रियों को छुड़वाकर उसका कारवां लूटा। इतिहास गवाह है कि किसी भी विदेशी आक्रमणकारी को पंजाब के जाटों ने न तो आसानी से कभी उसे देश में घुसने दिया और ना ही कभी पूरे लूट के माल के साथ वापिस जाने दिया। यह पंजाब के जाट वीरों का एक विशाल इतिहास है जो आज तक भारतीय इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाया। इसी वीर योद्धा को आखिर में दिल्ली में मुगलों ने तीन लाख का नजराना भी दिया और इसी पैसे के बल पर सरदार बघेलसिंह ढिल्लों ने दिल्ली में दो साल रहकर गुरुद्वारे बनवाये। दिल्ली में जितने भी प्राचीन गुरुद्वारे हैं वे सभी उन्हीं के बनवाये हुए हैं। सिक्खों के 10वें गुरु गोविन्दसिंह जी ने भगाणी तथा नादोण की लड़ाइयों में मुगलों का काफी हथियार, गोलाबारूद व संपत्ति को छीना था।
  • 8) लगभग 230 इ.पू. महान् सिकन्दर की वापसी पर व्यास नदी

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पार करते समय खोखर जाटों ने उसे घायल किया, जो बेबीलोन में मर गया। इसकी फौज को वहाँ जाटों ने खूब लूटा। लेकिन इतिहास को तोड़मरोड़कर पेश किया गया तथा खोखर जाटों को एक जाति लिख दिया, जबकि संसार में कोई भी खोखर जाति नहीं। इसी प्रकार हमारे मंड या मेड गोत्र को भी इतिहास में जाति लिखा है। यह गोत्र सिख तथा मुस्लिम धर्मी जाटों में अधिक है। ये तो जाटों के बहादुर, लड़ाकू तथा शासक गोत्र रहे हैं, जिस गोत्र के यूरोप में ईसाई जाट, मध्य एशिया तथा पाकिस्तान में मुस्लिम जाट और भारत में हिन्दू व सिक्ख जाट हैं। भारत में पाकिस्तान के भूतपूर्व राजदूत श्री रियाज खोखर इसी गोत्र के मुसलमान जाट हैं। इसी प्रकार पृथ्वीराज चौहान के हत्यारे मुहम्मद गौरी, जिसे शाहबुद्दीन गौरी भी कहा जाता है, लाहौर के पास रामलाल खोखर नाम के वीर जाट योद्धा ने दिनांक 15 मार्च सन् 1206 को अपनी तलवार से उसका सिर कलम कर दिया। जिस पर उसकी सेना में भगदड़ मची, जिसको जाटों ने जी भरकर लूटकर दरबदर कर दिया।

  • 9) इसी प्रकार सन् 1834 में महाराजा रणजीतसिंह ने पेशावर के सुल्तान शाहशुजा को हराकर भारतवर्ष की अमानत ‘कोहिनूर हीरा’ 500 वर्षों बाद छीनकर वापिस लाये। यह हीरा अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह के नाबालिक राजकुमार दिलीप सिंह से बहला कर ले लिया और रानी विक्टोरिया के ताज से होते हुए आज इंग्लैण्ड के अजायब घर की शोभा बढ़ा रहा है। आजादी के समय पं० नेहरू ने इसे अंग्रेजों के साथ समझौते में शामिल क्यों नहीं किया। क्या यह देश के स्वाभिमान का प्रश्न नहीं था? यह हीरा महाभारत के कर्ण को नर्मदा नदी में मिला था। इस जट पुत्र को महाभारत में शूद्रजाति का कहने का प्रयास किया गया है। इस हीरे का बड़ा लम्बा इतिहास है लेकिन संक्षेप में इतना ही है कि महाभारत से आज तक (सन् 2005) यह हीरा केवल 830 वर्ष जाटों के पास नहीं रहा है। (इसका इतिहास उपलब्ध है) । क्या बोनापार्ट नेपोलियन इसी जाट राजा के डर से ईरान से ही वापिस नहीं चला गया था?

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इसलिए स्वयं फ्रांसिसी इतिहासकार जैक्सो ने इन्हें “भारत का नेपोलियन” लिखा है। जिन मुगलों ने हमारे घर आकर हमें पीटा, उसका बदला इसी शेर जाट ने उनको उनके घर अफगानिस्तानगजनी में जाकर लिया और उन पर शासन किया। इन्हीं के कारण पंजाब की जनता शेष भारत से 50 साल कम गुलाम रही। लेकिन भारतीय इतिहास ने इनको ‘हिन्दकेसरी’ न लिखकर ‘पंजाब केसरी’ बना दिया ताकि इनका इतिहास पंजाब तक ही सीमित रहे। यह भी इसलिए रहा क्योंकि ये सिक्खधर्मी थे, वरना इनके इतिहास का भी वही हाल होना था जो ब्राह्मणवाद ने महाराजा सूरजमल, महाराजा जवाहरसिंह, महाराजा रणजीतसिंह (पुत्र महाराजा सूरजमल), राजा महेन्द्रप्रताप व राजा नाहरसिंह आदि का किया। भला हो सिक्ख धर्म का जिसके कारण कम से कम पंजाब में तो इस बहादुर महाराजा के इतिहास को पूरा सम्मान दिया जाता है।

इतिहास गवाह है कि जिन मुगलों ने बहादुर कहे जाने वाले हिन्दू राजाओं की बहन व बेटियों के अनेक डोले़ लिये तथा हिन्दू जनता को रोंदा और बेइज्जत किया, उन्हीं मुगलों को जाटों ने लाल किले में पीटा, फिर भतरपुर से लेकर काबुल-कंधार तक पीटा।

  • 10) जब बहादुर कहलाये जानेवाले राजस्थान के शेष राजा अपनी बहन-बेटियों के रिश्ते मुगलों से जोड़ रहे थे तो इसी राजस्थान के पिराणा नामक स्थान पर वीर योद्धा जीवनसिंह तथा राममल टोंक गोत्री जाट अपने साथियों से मिलकर बादशाह जहांगीर की बेगम से उनके इस क्षेत्र से गुजरने पर टैक्स वसूल कर रहे थे। यह जाटों का जोहर भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। इतिहास साक्षी है कि शेरशाह लोहान गोत्री जाटों के यहां नौकरी करता था और इसी कारण राजप्राप्ति में जाटों ने उसका साथ दिया। नतीजन हिमायूं जाटों से जलने लगा था। दूसरा बिलग्राम की लड़ाई में जाटों ने उसे खूब लूटा भी था। लेकिन हिमायूं हरयाणा की अहीर जाति पर दयालु था क्योंकि जब सन् 1540 में वह लड़ाई में हारा तो मैदान छोड़कर चन्द साथियों के साथ रिवाड़ी की तरफ भागा था। जब भूखा

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प्यासा खेतों से गुजर रहा था तो उसको गांव पेठरावास के एक अहीर किसान रूढ़सिंह ने उसे न जानते हुए पानी पिलाया तथा अपना खाना भी उन्हें खाने को दिया। किसान की प्रवृत्ति त्याग की होती है। जब पांच साल बाद हिमायूं दिल्ली के सिहांसन पर बैठा तो उसने किसान रूढ़सिंह को याद किया और उसे पांच गांव जागीर में दिये। यही जागीर उसके वंशजों ने बढ़ाई और सन् 1857 में राव तुलाराम के समय 87 गांव की हो गई थी।

पुस्तक वाकए राजपुताना में लिखा है कि रजिया बेगम ने कई बार जाटों की शरण ली। जाटों के जगह-जगह अलग-अलग काल में अनेक छोटे-बड़े राज रहे। इतिहासकार लिखते हैं कि सिन्ध में सिंधराज, गान्धार में सुभागसेन, मालवे में यशोधर्मा, पंजाब में शालेन्द्र और दिल्ली में महाबल ऐसे जाट योद्धा राजा हुए जिन्होंने जाट शब्द को बनाये रखने के लिए एकतन्त्र शासन को अपनाया।

  • 11) इतिहास में जगह-जगह प्रमाण हैं कि भारतवर्ष के इतिहास का ‘स्वर्ण युग’ केवल जाटों के नाम है।

भले ही पौराणिक ब्राह्मणवाद ने जाटों के इतिहास को बदसूरत करने में कोई भी कमी नहीं छोड़ी। एक से बढ़कर एक षड्यंत्र किये और जाटों को म्लेच्छ, शूद्र व कुजात तक लिखने में परेहज नहीं किया। भविष्यपुराण व पद्मपुराण में जाटों को शूद्र लिखा है। “चचनामा” में जाटों को चाण्डाल जाति लिखा। फिर एक षड्यन्त्र के तहत लाला सर शादीलाल मु० न्यायाधीश उच्च न्यायालय लाहौर से सन् 1932 में जाटों को शूद्र जाति घोषित करवाया लेकिन यह बातें क्यों भूल गए कि जैन ग्रंथों में ब्राह्मणों को भी ‘तुच्छ’ ब्राह्मण व ‘नीच ब्राह्मण’ लिखा गया है। कालिदास के साहित्य में भी महाब्राह्मण शब्द का विदूषक या महामूर्ख के लिए प्रयोग किया गया है। इसे निकृष्ट ब्राह्मण अर्थात् महापात्र या बुरिया ब्राह्मण भी कहा जाता है। (पुस्तक - हिन्दी मानक कोष से, सम्पादक रामचन्द्र वर्मा) जाटों के ऐतिहासिक सबूत मिटाने का भरपूर प्रयास किया,


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लेकिन वे शत प्रतिशत कभी सफल नहीं हुए। इस पर डॉ. इकबाल का दोहा याद आता है -

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा ॥

महाराजा कनिष्क (कुषाणवंशीय जाट) से लेकर (सन् 73 ई०) से महाराजा हर्षवर्धन) (बैंस गोत्री जाट सन् 647 तक) सभी के सभी बौद्व धर्म के माननेवाले जाट राजा थे। कभी किसी हिन्दू राजपूत राजा ने बौद्व धर्म नहीं अपनाया क्योंकि यह कभी संभव नहीं था, क्योंकि उस समय तक इस जाति की उत्पत्ति नहीं हुई थी। सभी मौर्य राजा जाट मोरवंशज थे। गुप्त राजाओं ने अपने समय को भारतीय इतिहास का ‘स्वर्णकाल’ बना दिया। गुप्त इनको इसलिए कहा गया कि इनके पूर्वज मिल्ट्री गवर्नर थे, जिन्हें गुप्ता, गुप्ते व गुप्ती के नाम से जाना जाता था। इसलिए इस राज के संस्थापक राजा का नाम तो श्रीगुप्त ही था। इनके सिक्कों पर धारण लिखा पाया जाता है। क्योंकि इनका गोत्र व वंश धारण था, जो आज भी क्षत्रियवंशी जाटों में है। इनके राज प्रशासन से स्पष्ट हो जाता है कि इन्होंने कभी धर्म व जाति-पाति तथा ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं किया। साम्राज्य को प्रान्तों में बांटा गया था तथा पंचायतों को समुचित अधिकार थे। ब्राह्मणों को क्षत्रियों से श्रेष्ठ नहीं माना जाता था। इन्होंने शूद्र वर्ण की स्थिति का उल्लेखनीय सुधार किया। मांस व मदिरा से प्रायः परहेज था। एक आम आदमी का पहनावा धोती, पगड़ी और शाल था। यह पहनावा एक भारतीय इतिहासकार ने लिखा है। वरना जाटों में चूड़ीदार पायजामा, टोप, पगड़ी व दाढ़ी रखने का भी रिवाज रहा है। विधवा स्त्री को पुनः विवाह करने का पूरा अधिकार तथा कानूनी तौर पर वैध था, जो कभी भी अन्य किसी हिन्दूराज में नहीं हुआ।

इन राजाओं की जाति के बारे में आज तक अलग-अलग मत हैं क्योंकि पौराणिक ब्राह्मणवाद की विचारधारावाले लेखक कभी भी इनको जाट मानने के लिए तैयार नहीं, जबकि विद्वान् इतिहासकार


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डा. जे. पी. जायसवाल, विद्वान् एस.डी. गुप्त व विद्वान् इतिहासकार दशरथ शर्मा जैसे विद्वानों का स्पष्ट मत है कि ये पंजाब के जाट थे। राजस्थान इतिहास के रचयिता कर्नल जेम्स टॉड भी इन्हें जाट मानते हैं। डॉ० बी० एस० दहिया ने अपनी पुस्तक Jats the Ancient Rulers में अनेक तर्क देकर सिद्ध किया है कि वे जाट थे। प्रो० बी.एस. ढिल्लों (कनाडावासी) ने भी अपने शोध History and study of the Jats में सिद्ध किया है कि ये जाट थे। इसके अतिरिक्त गुप्तराजाओं की राजव्यवस्था से स्वयं सिद्ध है कि वे जाट थे, क्योंकि ऐसी व्यवस्था जाटों को छोड़ किसी भी अन्य हिन्दूराज में नहीं थी। धार्मिक कट्टरता व असमानता कभी भी जाट राजाओं के शासन के अंग नहीं थे। सम्राट् हर्षवर्धन उस समय के जाटों के अन्तिम बौद्ध राजा थे, जिनके पूर्वज पंजाब के जालंधर क्षेत्र से आकर थानेश्वर में बसे। इनका वंश वैसाति था जो जाटों के बैंस गोत्र में परिवर्तित हुआ। इन्होंने ही ‘सर्वखाप पंचायत’ की नींव सन् 643 में रखी। जिसके इतिहास का समुचित रिकार्ड 7वीं सदी से लेकर आज तक का, स्वर्गीय चौ० कबूलसिंह गाँव शोरम जिला मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के घर लगभग 40 किलो भार में जर-जर अवस्था में उपलब्ध है। जिसकी सहायता लेकर डा. एम.सी. प्रधान, डा. मोन फोर्ट, डा. जी.सी. द्विवेदी व डा. बालकृष्ण डबास आदि ने जाट विषयों पर पी-एच-डी की। इस रिकार्ड के आधार पर कई पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। [Yaudheya|प्राचीन यौधेय राज]] तो लगभग पूरे का पूरा ही जाटों का पंचायती राज रहा है। स्वामी ओमानन्द सरस्वती व वेदव्रत शास्त्री जी ने भी अपने ग्रंथ ‘देशभक्तों के बलिदान’ [[1]] में भी इसे सिद्ध किया है। माननीय विद्वान् डा. धर्मकीर्ति ने अपने शोध में सम्राट् कनिष्क से लेकर सम्राट् विजयनाग तक 17 राजाओं को बौद्धधर्मी जाट सिद्ध किया, जिसमें उनके शासनकाल तथा राजक्षेत्र का पूरा विवरण दिया है, बाकी इतिहासकारों को इन्हें जाट कहने में क्या शर्म है? इसी आधार पर भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय जाकीर हुसैन ने कहा था कि “भारतीय इतिहास जाट इतिहास है और जाट इतिहास ही भारतीय इतिहास है।”


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याद रहे जाट वीरों के पिताओं ने संसार में सबसे अधिक अपने जवान बेटों के दाह संस्कार किये हैं। शान्ति और युद्ध में यही अन्तर होता है कि शांति के समय बेटा बाप की अर्थी को कंधा देता है तो युद्ध के समय बाप बेटे की अर्थी को कंधा देता है।

  • 12) नैना देवी मन्दिर उत्तर भारत में एक विख्यात पूजनीय व पवित्र स्थान माना जाता है। यह हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के पहाड़ों में स्थापित है। चण्डीगढ़ से जब हम भाखड़ा बांध को जाते हैं तो दाहिनी ओर पहाड़ों पर यह भव्य मन्दिर चमकता नजर आता है। इस देवी की प्राचीन मूर्ति लगभग 4000 वर्ष पूर्व बेबीलोनिया के किसी मन्दिर में स्थापित थी। इसे नैना या नीना या नैनैन्ई भी कहा जाता है। बेबीलोनिया को हराकर इस देवी की मूर्ति को सूसा (ईरान में) ले जाया गया। जब 625 ई० पूर्व में बेनीपाल जाट सम्राट् ने सूसा को लूटा तो देवीमूर्ति को भी उरूक ले गया, जहां उसने इसे एक मन्दिर में स्थापित कर दिया। जब कुछ जाट इस्लाम के उदय के समय वापिस अपने प्राचीन देश भारत आये तो इस मूर्ति को भी अपने साथ लाए तथा इस पहाड़ी पर एक छोटा मन्दिर बनाकर स्थापित कर दिया जो आज भव्य मन्दिर है। इस पहाड़ की तलहटी में आज भी जाटों की अच्छी संख्या है।
  • 13) पं० मदन मोहन मालवीय के नाम से हम सभी भारतीय परिचित हैं। ये महान् पुरुष एक राजनीतिक, समाज-सुधारक, शिक्षा सुधारक तथा धर्मप्रिय नेता थे। इन्होंने ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इन्होंने विख्यात सेठ बिड़ला के सहयोग से सन् 1932 में दिल्ली में एक भव्य मन्दिर बनवाने की सोची। इसकी आधारशिला के अवसर पर भारत वर्ष के राजा-महाराजाओं को पधारने का न्यौता दिया गया। काफी राजा महाराजा सज-धजकर इस अवसर पर दिल्ली पहुंचे। जब आधारशिला रखने की बारी आई तो महामहिम मालवीय जी दुविधा में पड़ गए कि किस राजा के कर-कमलों से इस पवित्र मन्दिर की स्थापना की जाए। उन्होंने बहुत सोच विचार कर एक प्रस्ताव तैयार किया, जिसमें

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उन्होंने 6 शर्तें रखीं कि जो भी राजा इन शर्तों को पूरा करेगा वही इस मन्दिर की आधारशिला अर्थात् नींव का पत्थर रखेगा। ये शर्तों इस प्रकार थीं:-

  • क) जिसका वंश उच्चकोटि का हो।
  • ख) जिसका चरित्र आदर्श हो।
  • ग) जो शराब व मांस का सेवन न करता हो।
  • घ) जिसने एक से अधिक विवाह न किये हों।
  • ङ) जिसके वंश ने मुगलों को अपनी लड़की न दी हो।
  • च) जिसके दरबार में रण्डियां न नाचती हों।

इस प्रस्ताव को सुनकर राजाओं में सन्नाटा छा गया और जमीन कुरेदने लगे। जब बाकी राजा नीचे गर्दन किये बैठे थे तो धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानु सिंह राणा अपने स्थान से उठे जो इन सभी 6 शर्तों पर खरे उतर रहे थे। इस पर पं० मदन मोहन मालवीय ने हर्ष ध्वनि से उनके नाम का उदघोष किया तो शोरम गांव जिला मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश के जाट पहलवान हरज्ञान ने ‘नरेश धौलपुर जिन्दाबाद’ के नारे लगाये । इस पर मालवीय साहब ने कहा, महाराजा धौलपुर भानुसिंह राणा धौलपुर नरेश हमारे देश की शान हैं। इसके बाद पूरी सभा नारों से गूंज उठी। क्योंकि इन सभी शर्तों को पूर्णतया पूरी करने वाले वही एकमात्र राजा थे जो वहां पधारे थे।

इस जाट नरेश का नाम मन्दिर के प्रांगण में स्थापित शिलालेख पर इस प्रकार अंकित है:-


  • श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर - श्री महामना मालवीय पं० मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से मन्दिर की आधारशिला श्रीमान उदय भानुसिंह धौलपुर नरेश के कर कमलों द्वारा चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या रविवार विक्रमीय सम्वत् 1989 (अर्थात् सन् 1932) में स्थापित हुई।


जाट नरेश का नाम व चित्र मन्दिर के बाएं बगीचे में संगमरमर के


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एक पत्थर पर अंकित है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमन्त्री श्रीमती वसुंधरा राजे इसी महाराजा उदयभानु राणा के राजकुमार से ब्याही थी जो बड़े गर्व से कहती हैं - “वह वीर जाटों की बहू है।”

(पुस्तक - ‘भारत का इतिहास’ - एक अध्ययन, ‘जाट जाति प्रछन्न बौद्ध है’, ‘पंचायती इतिहास’ तथा Jats - The Ancient Rulers, ‘सिख इतिहास’, ‘जाट वीरों का इतिहास’ तथा ‘फ्रांस से कारगिल’ आदि-आदि) ।

इसी गौरवशाली जाट इतिहास पर मा० जयप्रकाश दलाल, गांव घुसकानी जिला भिवानी हरयाणावी रागनी में इस प्रकार गाते हैं -


http://www.jatland.com/forums/media.php?do=details&mid=277


टेक:- झूठ नहीं थे जाट लुटेरे जो तारीख के पाठां मैं,

लूटण खातिर ताकत चाहिए जो थी बस जाटां मैं..........


सोमनाथ के मन्दिर का सब धरा ढका उघाड़ लेग्या,

मोहम्मद गजनी लूट मचा कै सारा सोदा पाड़ लेग्या ।

हीरे पन्ने कणी-मणी चन्दन के किवाड़ लेग्या,

सब सामान लाद के चाल्या सत्राह सौ ऊंट लिए,

कोए भी नां बोल सका सबके गोडे टूट लिए ।

रस्ते मैं सिंध के जाटां नै ज्यादातर धन लूट लिए ।

मोहम्मद गजनी आया था एक जाटां की आँटां मैं.....॥1॥


व्रज का योद्धा जाट गोकुला औरंगजेब नै मार दिया,

सीकरी का महल किला जाटां नै उजाड़ दिया।

ताजमहल मैं लूट मचाई सारा गुस्सा तार दिया,

राजाराम जाट नै लड़कै दिल्ली की गद्दी हिला दई।

औरंगजेब की मरोड़ तोड़ कै माटी के म्हां मिला दई।

कब्र खोद अकबर की हड्डी चिता बणा कै जला दई।

एक चूड़ामण नै मुगलां की लई खाल तार सांटां तैं....॥2॥


भरतपुर के सूरजमल को मुगलां नै धोखे तैं मारा,

उसका बेटा होया जवाहरसिंह लालकिले पै जा ललकारा।

लालकिला जीत लिया लूट लिया माल सारा।


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धोखा पट्टी सीखी नहीं जंग में पछाड़ ल्याए,

मुगलां का सिंहासन जाट दिल्ली तैं उखाड़ ल्याए।

साथ मैं नजराना और किले के किवाड़ ल्याए,

देशभक्ति का खून बहै इन जाटां की गांठां मैं.....॥3॥

जाते-जाते सिकन्दर को करा भगोड़ा जाटां नैं,

मुगल और अंग्रेजों को नां बिल्कुल छोड़ा जाटां नैं।

कलानौर की बौर काढ़ दी कोला तोड़ा जाटां नैं,

जलालत की जिन्दगानी, नहीं गंवारा जाटां नैं।

जिसनै न्योंदा घाल्या राख्या नहीं उधारा जाटां नैं।

पृथ्वीराज का कातिल मोहम्मद गौरी मारा जाटां नैं।

कहै जयप्रकाश घुसकाणी के, थारै कमी नहीं ठाठां मैं.....॥4॥


इसी प्रकार चौ० पृथ्वीसिंह बेधड़क ने तो पूरा ही इतिहास गाया है। मा० हवासिंह (बेली) गांव धनाना जिला भिवानी ने भी ऐसी ही एक रागनी भेजी है। जाट इतिहास में ठाकुर देशराज कहते हैं -

”हरियाणा के बीच में एक गाँव धनाना,

सूही बांधें पागड़ी क्षत्रीपन का बाणा।

नासे नेजे भड़कते घुडि़यन का हिनियाना,.....

बापोड़ा मत जाणियो ये है गाँव धनाना।।

दिल्ली की कुतुब मीनार जाटों की यादगार

हमने तो इतिहास बनाया, लिखा नहीं।

मिटाने वालों ने बहुत किया, पर मिटा नहीं॥

आज तक यही प्रचारित किया जाता रहा है कि दिल्ली की कुतुब मीनार कुतुबुदीन ऐबक ने बनाई थी जो सच्चाई के कहीं भी पास नहीं है। कुतुबुदीन ने अवश्य 1206 से 1210 तक दिल्ली पर शासन किया, लेकिन इस अवधि में जाटों ने कभी उसे चैन से नहीं बैठने दिया। दिपालपुर रियासत के राजा जाटवान (मलिक गठवाला गोत्री जाट) ने ऐबक को पूरे


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तीन साल तक नचाये रखा, जब तक वह महान् जाट योद्धा लड़ाई में शहीद नहीं हो गये। जाटों की सर्वखाप पंचायत की सेना ने ऐबक की सेना को वीर योद्धा विजय राव ‘बालियान’ की अगवाई में उत्तर प्रदेश के भाजु और भनेड़ा के जंगलों में पछाड़ा, दूसरी बार वीर यौद्धा भीमदेव राठी की कमान में बड़ौत के मैदान में पीटा, तीसरी बार वीर यौद्धा हरिराय राणा की कमान में दिल्ली के पास टीकरी में भागने के लिए मजबूर किया। ऐबक को मीनार तो क्या अपने लिए महल व किला बनाने का समय तक जाटों ने नहीं दिया। इस मीनार को जाट सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (विक्रमादित्य) के कुशल इंजीनियर वराहमिहिर के हाथों चौथी सदी के चौथे दशक में बनवाया था। यह मीनार दिलेराज जाट दिल्ली के राज्यपाल की देखरेख में बना था। ग्रह नक्षत्र विज्ञान के आधार पर बनाया गया। यह मीनार जब साल में दो बार दिन-रात बराबर होते हैं तो इसकी छाया धरती पर नहीं पड़ती, क्योंकि यह पांच अंश दक्षिण में झुकी हुई है। मुसलमानों व मुगलों का शासन आया तो इसे दिशासूचक मीनार समझकर इसे ‘कुतुब मीनार’ कहा गया क्योंकि अरबी भाषा में दिशासूचक को कुतुब कहते हैं। आज भी समुद्री जहाजों में दिशासूचक को कुतुब कहते हैं। इसी के पास लगा लोहे का स्तम्भ भी उसी समय का है। इसलिए इस मीनार का नाम ‘धारण मिनार’ या ‘जौहिया मीनार’ या ‘जाट मीनार’ होना चाहिए।

यदि लोग यह मीनार कुतुबुदीन ऐबक की बनवाई मानते हैं तो मैं दावे से लिख रहा हूं कि ऐबक भी जौहिया गोत्री जाट था। इसका प्रमाण पाकिस्तान की पुस्तक “Extract from Distt. And States Gazetteer of Punjab Pakistan” के Vol-II (खण्ड दो) Research Society of Pakistan University of Punjab Lahore में दिया गया है, जिसके ‘मुलतान’ अध्याय के पेज नं० 132 पर है। यह ग्रन्थ पाकिस्तान सरकार की संस्था Trust Property Board of Pakistan का है। इसका दूसरा संस्करण नवम्बर 1983 में छपवाया जिसके प्रिंटर अफजल-लाहौर हैं। इसी पुस्तक में वहां के जाटों के सभी गोत्र भी लिखे हुए हैं, जो लगभग सारे हमारे गोत्रों से


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मिलते हैं। इसी पुस्तक में लिखा है कि शेख जलाल दाहिमा गोत्री जाट ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया था। इसी गोत्र का सादूल खां जाट शाहजहां का प्रधानमन्त्री था। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शहीद बन्तासिंह भी इसी गोत्र के सिख जाट थे। इसलिए यह प्रमाणित तथ्य है कि यह मीनार जाटों ने ही बनवाई थी। (पुस्तक - ‘सर्व खाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम’ व ‘भारतीय इतिहास का-एक अध्ययन’, जाट इतिहास पुस्तक आदि-आदि)


दिल्ली है बहादुर जाटों की, बाकी कहानियाँ भाटों की

इन चिरागों को जलना है, हवा कैसी हो।

फिर सूरज को निकलना है, घटा जैसी हो।

कहावत है “जिसने नहीं देखी दिल्ली वो कुत्ता न बिल्ली” गाँव वाले जाट तो आज तक दिल्ली को जाटों की बहू कहते आये हैं। अधिकतर इतिहासकार लिखते हैं कि दिल्ली तोमर राजपूतों ने बसाई, लेकिन तोमर इसका नाम दिल्ली क्यों रखते? जरूर तोमर नगर या तोमरवास रखते। यह भी एक कहावत प्रचलित है कि नौ दिल्ली, दस बादली, किला वजीराबाद अर्थात् नौ बार दिल्ली तथा दश बार बादली उजड़कर बस चुके हैं और इसी प्रकार वजीराबाद का किला उजड़ा था। अवश्य तोमर राजाओं ने दिल्ली पर शासन किया, लेकिन तोमर इसका नाम दिल्ली क्यों रखते? वास्तव में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध है कि ये तोमर राजा भी जाट थे।


इसका संक्षेप में इतिहास इस प्रकार है कि दिल्ली के अंतिम तोमर (तंवर) राजा अनंगपाल थे। इनसे 20 पीढ़ी पहले भी एक अनंगपाल तोमर राजा हुए थे। लेकिन बाद वाले इस 20वें अनंगपाल राजा का 1164 ई० में दिल्ली पर राज था। इनको कोई पुत्र न होने के कारण


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इन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र (दयोहते) पृथ्वीराज को अपनी सुविधा के लिए अपने पास रख लिया और एक दिन गंगास्नान के लिए चले गए। जब वापिस लौट कर आए तो पृथ्वीराज ने राज देने से मना कर दिया। इस पर तंवर और चौहान जाटों में आपस में युद्ध हुआ जिसमें चौहान जाट विजयी रहे। राजस्थान के चौहान जाट पहले से ही अपने को राजपूत (राजा के पुत्र) कहलाने लगे थे। इस प्रकार दिल्ली पर बाद में राजपूत चौहानों का राज कहलाया। लेकिन ऐसी कौन सी विपदा आई कि दिल्ली में जाट तो रह गए लेकिन राजपूत गायब हो गए? इससे यह प्रमाणित है कि जाट और राजपूत एक ही थे। यह सब काल्पनिक बृहत्यज्ञ का ही परिणाम है। इस प्रकार पृथ्वीराज बड़े धोखेबाज भी रहे। बाद में इन्हीं तंवरों में से एक सहारा नाम का प्रसिद्ध व्यक्ति हुआ जिससे जाटों का सहरावत गोत्र प्रचलित हुआ जिनके दिल्ली में आज 12 गांव हैं। याद रहे इतिहास से प्रमाणित है कि कुंतल, तंवर, सहरावत व डागर आदि जाट पांडवों के वंशज हैं। (पुस्तक - रावतों का इतिहास)


राजा अनंगपाल के सगे परिवार के लोग फिर मथुरा क्षेत्र में चले गए। इन्हीं लोगों ने सौख क्षेत्र की खुटेल पट्टी में महाराजा अनंगपाल की बड़ी मूर्ति स्थापित करवाई जो आज भी देखी जा सकती है। उसी समय इनके कुछ लोगों ने पलवल के पूर्व दक्षिण में (12 किलोमीटर) दिघेट गांव बसाया। आज इस गांव की आबादी 12000 के लगभग है। इन्हीं के पास बाद में चौहान जाटों ने मित्रोल और नौरंगाबाद गांव बसाए जिन्हें आज भी जाट कहा जाता है राजपूत नहीं।


दिल्ली का नाम तो दिलेराम उर्फ दिल्लू से बिगड़कर दिल्ली पड़ा। दिलेराम विक्रमादित्य के शासन काल में लगभग 21 वर्षों तक लगातार दिल्ली के राज्यपाल रहे, उन्होंने इसका प्रशासन इतना सुचारु रूप से चलाया कि जनता उनके नाम की ही कायल हो गई। इसी कारण विक्रमादित्य ने खुश होकर इस दिलेराम जाट को ‘दिलराज’ की उपाधि से नवाजा था। इनका गोत्र भी ढिल्लों था। याद रहे कभी भी कोई ढिल्लों


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गोत्री जाट मुस्लिम धर्मी नहीं बना। अधिकतर सिख बने, शेष हिन्दू जाट हैं। हरयाणा में भिवानी जिले के कई गांवों में इस गोत्र के हिन्दू जाट हैं। इसी दिलेराज को लोग इन्हें प्यार और इज्जत से दिल्लू कहने लगे, जिस कारण यह दिल्लू की दिल्ली कहलाई। यह तथ्यों से परिपूर्ण इतिहास सर्व खाप पंचायत के रिकार्ड में भी दर्ज है।


इसी दिल्ली पर जीवन जाट के वंशजों का राज 445 वर्ष रहा है। स्वामी दयानन्द जी ने भी सत्यार्थप्रकाश में जीवन के 16 वंशजों (पीढ़ी) का राज 445 वर्ष 4 महीने 3 दिन लिखा है। (पुस्तक - रावतों का इतिहास, सर्वखाप का राष्ट्रीय पराक्रम आदि-आदि)।

जाटों ने हूणों को भारत से भगाया

वे सोचे रहे थे तोप तमंचे हमें झुका देंगे।

झुकने वाले नहीं थे कभी हम, सारा मोल चुका देंगे।

चन्द्र व्याकरण में लिखा है अजयज्जट्टो हूणान् अर्थात् जाटों ने हूणों पर विजय पाई। छठी सदी में हूणों ने भारत पर ताबड़-तोड़ आक्रमण किये और पूरा भारत थर्रा उठा, जिनको हराने का श्रेय महाराजा यशोधर्मा वरिक को है, जो मालवा (मध्यप्रदेश) मन्दसौर के वरिक वंश के जाट राजा थे और आज भी जाटों का यही गोत्र प्रचलित है। वरिक गोत्र के सिख जाट अधिक हैं। हरयाणा के कैथल और करनाल के क्षेत्र में वरिक हिन्दू जाट भी हैं। इस नाम का गोत्र भारत में और कहीं भी प्रचलित नहीं है। यशोधर्मा के समय के तीन शिलालेख मन्दसौर से प्राप्त हो चुके हैं जिनमें स्पष्ट तौर पर इनका वंश (गोत्र) लिखा है। इस क्षेत्र पर इन जाट नरेशों का शासन 340 ई0 से 540 ई० तक था, जिसमें बंधुवर्मा तथा विष्णुवर्धन आदि प्रमुख राजा हुये। इसी यशोधर्मा की पुत्री यशोमती महाराजा हर्षवर्धन बैंस की माता थी। यह सब भारतीय इतिहास में दर्ज है। इस लड़ाई का पूरा ब्यौरा सेनापतियों के नाम सहित जिसमें दूसरी


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सहयोगी जातियाँ भी सम्मिलित थी, पंचायती इतिहास रिकार्ड में भी अंकित है।


इसी प्रकार संवत् 1510 में तुर्क सेना को करनाल के मैदान में हराने वाला बाल ब्रह्मचारी 58 धड़ी वजनी सेनापति वीर योद्धा सूरजप्रकाश दहिया जाट था। इस युद्ध का भी पूरा ब्यौरा सर्वखाप पंचायत रिकार्ड में भी दर्ज है। भारतीय सरकारी इतिहासकारों को और क्या प्रमाण चाहिए, हम देंगे कि भारतवर्ष की भूमि को जाटों ने हूणों से बचाया था। (पुस्तक - ‘सर्व खाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम’, ‘भारतीय इतिहास का एक अध्ययन’, पंचायती इतिहास व जाट वीरों का इतिहास आदि-आदि)

जब जाटों ने अंग्रेजों का सूर्य उदय होने से रोक दिया

एक कहावत है कि ‘अंग्रेजों के राज में उनका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था’ यह सच है कि इनके अधीन जमीन पर हमेशा कहीं ना कहीं दिन रहता था। भारत के इतिहास में अंग्रेजों के विरुद्ध केवल प्लासी की लड़ाई का वर्णन किया जाता है जबकि यह लड़ाई पूरी कभी लड़ी ही नहीं गई, बीच में ही लेन-देन शुरू हो गया था। सन् 1857 के गदर का इतिहास तो पूरा ही मंगल पाण्डे, नाना साहिब, टीपू सुलतान, तात्या टोपे तथा रानी लक्ष्मीबाई के इर्द-गिर्द घुमाकर छोड़ दिया गया है, लेकिन जब जाटों का नाम आया और उनकी बहादुरी की बात आई तो इन साम्यवादी और ब्राह्मणवादी लेखकों की कलम की स्याही ही सूख गई। इससे पहले सन् 1805 में भरतपुर के महाराजा रणजीतसिंह (पुत्र महाराजा सूरजमल) की चार महीने तक अंग्रेजों के साथ जो लड़ाई चली वह अपने आप में जाटों की बहादुरी की मिशाल और भारतीय इतिहास का गौरवपूर्ण अध्याय है। भारत में अंग्रेजों का भरतपुर के जाट राजा के साथ समानता के आधार पर सन्धि करना एक ऐतिहासिक गौरवशाली दस्तावेज है जिसे 'Permanent


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Friendship Treaty on Equality Basis' नाम दिया गया। इस प्रकार की सन्धि अंग्रेजों ने भारतवर्ष में किसी भी राजा से नहीं की। (वास्तव में दूसरों के साथ सन्धि करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी क्योंकि हमारे बहादुर कहे जाने वाले राजाओं ने जाटों को छोड़ अंग्रेजों की बगैर किसी हथियार उठाये गुलामी स्वीकार कर ली थी।) इतिहास गवाह है कि भारत के अन्य किसी भी राजा ने अंग्रेजों के खिलाफ प्लासी युद्ध व मराठों के संघर्ष को छोड़कर अपनी तलवार म्यान से नहीं निकाली और बहादुरी की डींग हाकनेवालों ने नीची गर्दन करके अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार की। पंजाब में जब तक ‘पंजाबकेसरी’ महाराजा रणजीतसिंह जीवित थे (सन् 1839), अंग्रेजों ने कभी पंजाब की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं की और सन् 1845 में उन्होंने पंजाब में प्रवेश किया, वह भी लड़ाई लड़कर। अंग्रेज इन लड़ाइयों के अन्त में विजयी रहे लेकिन कुछ हिन्दुओं की महान् गद्दारी की वजह से (आगे पढें)। भरतपुर की लड़ाई पर एक दोहा प्रचलित था -

हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी नौ गोरे।

लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे।

इस लड़ाई का विवरण अनेक पुस्तकों में लिखा मिलता है, जैसे कि ‘भारत में अंग्रेजी राज’ ‘जाटों के जोहर’ और ‘भारतवर्ष में अंग्रेजी राज के 200 वर्ष।’ लेकिन विद्वान् सवाराम सरदेसाई की पुस्तक “अजय भरतपुर” प्रमुख है। विद्वान् आचार्य गोपालप्रसाद ने तो यह पूरा इतिहास पद्यरूप में गाया है जिसका प्रारंभ इस प्रकार है -

अड़ कुटिल कुलिस-सा प्रबल प्रखर अंग्रेजों की छाती में गढ़,

सर-गढ़ से बढ़-चढ़ सुदृढ़, यह अजय भरतपुर लोहगढ़।

यह दुर्ग भरतपुर अजय खड़ा भारत माँ का अभिमान लिए,

बलिवेदी पर बलिदान लिए, शूरों की सच्ची शान लिए ॥

जब राजस्थान के राजपूत राजाओं ने अंग्रेजों के विरोध में तलवार


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नहीं उठाई तो जोधपुर के राजकवि बांकीदास से नहीं रहा गया और उन्होंने ऐसे गाया -

पूरा जोधड़, उदैपुर, जैपुर, पहूँ थारा खूटा परियाणा।

कायरता से गई आवसी नहीं बाकें आसल किया बखाणा ॥

बजियाँ भलो भरतपुर वालो, गाजै गरज धरज नभ भौम।

पैलां सिर साहब रो पडि़यो, भड उभै नह दीन्हीं भौम ॥

अर्थ है कि “है जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के मालिको ! तुम्हारा तो वंश ही खत्म हो गया। कायरता से गई भूमि कभी वापिस नहीं आएगी, बांकीदास ने यह सच्चाई वर्णन की है। भरतपुर वाला जाट तो खूब लड़ा। तोपें गरजीं, जिनकी धूम आकाश और पृथ्वी पर छाई। अंग्रेज का सिर काट डाला, लेकिन खड़े-खड़े अपनी भूमि नहीं दी।”


अंग्रेजों ने स्वयं अपने लेखों में भरतपुर लड़ाई पर जाटों की बहादुरी पर अनेक टिप्पणियाँ लिखीं। जनरल लेक ने वेलेजली (इंग्लैंड) को 7 मार्च 1805 को पत्र लिखा “मैं चाहता हूँ कि भरतपुर का युद्ध बंद कर दिया जाये, इस युद्ध को मामूली समझने में हमने भारी भूल की है।” इस कारण भरतपुर का लोहगढ़ का किला अजयगढ़ कहलाया। उस समय कहावत चली थी लेडी अंग्रेजन रोवें कलकत्ते में क्योंकि अंग्रेज भरतपुर की लड़ाई में मर रहे थे, लेकिन उनके परिवार राजधानी कलकत्ता में रो रहे थे। इतिहास गवाह है कि जाटों ने चार महीने तक अंग्रेजों के आंसुओं का पानी कलकत्ता की हुगली नदी के पानी में मिला दिया था। स्वयं राजस्थान इतिहास के रचयिता कर्नल टाड ने लिखा - अंग्रेज लड़ाई में जाटों को कभी नहीं जीत पाए।


इस प्रकार अंग्रेजों का सूर्य जो भारत में बंगाल से उदय हो चुका था भरतपुर, आगरा व मथुरा में उदय होने के लिए चार महीने इंतजार करता रहा, फिर भी इसकी किरणें पंजाब में 41 साल बाद पहुंच पाईं। पाठकों को याद दिला दें कि भारतवर्ष में केवल जाटों की दो रियासतों भरतपुरधौलपुर ने कभी भी अंग्रेजों को खिराज (टैक्स) नहीं दिया। यह भी


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ऐतिहासिक तथ्य है कि भरतपुर में लौहगढ़ का किला भारत में एकमात्र ऐसा गढ़ है जिसे कभी कोई दूसरा कब्जा नहीं कर पाया। इसलिए इसका नाम अजयगढ़ पड़ा। भरतपुर के महाराजा कृष्णसिंह ने भारतवर्ष में भरतपुर शहर में सबसे पहले नगरपालिका की स्थापना की थी। अंग्रेजों ने मद्रास, कलकता व बम्बई में सबसे पहले मुनिस्पल कार्पोरेशन की स्थापना की। इसी जाट राजा कृष्ण सिंह ने भरतपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन करवाया जिसमें रवीन्द्रनाथ टैगोर भी पधारे थे। सन् 1925 में राजा जी ने पुष्कर (राजस्थान) में जाट महासम्मेलन करवाया जहां चौ० छोटूराम जी भी पधारे थे। इन्होंने जनता के लिए ‘भारत वीर’ नाम का पत्र प्रकाशित करवाया था। (यह सभी तथ्य ऊपरलिखित पुस्तकों में हैं जिन्हें डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक ‘जाटों का नया इतिहास’ में इन्हें संजोया है।)

इस्लाम धर्म के पैगैम्बर हजरत मुहम्मद की जाटों ने की रक्षा, ईसाई धर्म का किया सुधार, सिक्ख धर्म के रहे ताबेदार और हिन्दू (ब्राह्मण) धर्म ने किया बेकार

महात्मा बुद्ध ने जहाँ, धम्म का राग गाया।

मसीह ने जहाँ-जहाँ प्यार का पैगाम पहुंचाया।

चिश्ती ने जिस चमन को अपना बतलाया।

नानक ने जिस जमीं पर वहदत का गीत गाया।

जाट का वतन वही है, जाट का वतन वही है ॥

इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि सातवीं सदी तक जाट बौद्धधर्मी थे, क्योंकि उनके राजा भी बौद्धधर्मी थे। यह एक शोध का विषय हो सकता है कि स्वयं महात्मा बुद्ध जाट जाति में पैदा हुए तथा भारतीय इतिहास लिखता है कि वे क्षत्रिय वंश के शाक्य-गोत्री थे। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी भी जाट क्षत्रिय जाति


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से थे। इसीलिए इन इतिहासकारों का कर्तव्य बनता है कि वे सिद्ध करें कि वे किस जाति के थे? हालांकि ‘जाट वीरों का इतिहास’ के लेखक कैप्टन दलीपसिंह अहलावत ने अपने ग्रन्थ में इन्हें जाट जाति का सिद्ध किया है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बौद्ध जाटों ने इस धर्म को संसार में फैलाया, जो आज लगभग 28 देशों में यह धर्म स्थापित है। लेकिन आज यह धर्म अपनी ही जन्मभूमि पर दम तोड़ रहा है। आज लोग इस बात से बड़े खफा हैं कि मुसलमानों ने हिन्दुओं के मन्दिरों को क्यों तोड़ा। क्या मैं कट्टरवादी हिन्दुओं से पूछ सकता हूँ कि उन बौद्धधर्मी जाटों के मठ किसने तोड़े? यह बड़ा लम्बा इतिहास है कि यह धर्म ब्राह्मणवाद का किस प्रकार शिकार हुआ। लेकिन संक्षेप में यह बतलाना आवश्यक है कि कई इतिहासकारों ने ‘हदीस’ के हवाले से लिखा है कि जब हजरत मुहम्मद करबला से मक्का लौटने लगे तो उन्होंने अपनी सुरक्षा की मदद जाटों से ली थी तथा करबला के खजाने की जिम्मेवारी जाटों के सहारे छोड़ी थी। इमाम बुखारी ने अपनी पुस्तक ‘किताबल अदबुल मुफरद’ में लिखा है कि जब पैगम्बर साहब की दूसरी बेगम आयशा बीमार पड़ी तो उसका इलाज एक जाट चिकित्सक ने किया था। पैगम्बर साहब ने अरब की रक्षा के लिए जाटों को ‘अन्तकिया’ क्षेत्र में बसाया था। अरब में जाटों को ‘जट्ट या जत’ नाम से पुकारा जाता है। ‘Rise of Islam’ अंग्रेजी की पुस्तक में यूरोपियन इतिहासकार मण्डली लिखती है कि दसवीं सदी में अरब व मध्य एशिया में ईसाई धर्म के प्रचारक पोप अपने प्रचार में लगे थे, लेकिन ये भ्रष्टाचारी हो गये थे, जिस कारण जाटों ने इन्हें वापिस यूरोप में धकेल दिया। बौद्ध ग्रन्थ ‘अभियान जातक’ में जाटों के समुद्री बेड़े का विस्तार से वर्णन मिलता है। मध्य एशिया में सबसे पहले इस्लाम धर्म अपनाने वाला जाट राजा गजन खान था जो एक बौद्ध नाम था। यही खान शब्द इस्लाम में लोकप्रिय बना जिसने पठानों को बड़ी शौहरत दिलवाई। इस इतिहास की सम्पूर्ण जानकारी Jats - The Ancient Rulers में भी दी गई है।


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मैंने स्वयं 31 अक्तूबर 1990 को प्रातः देखा जब बाबरी मस्जिद को तोड़ने गये हजारों लोगों को अयोध्या के सरयू नदी के पुल से गिरफ्तार किया गया तो उनमें हरियाणा और उत्तर प्रदेश के जाट क्षेत्र से हरियाणवी बोलने वाले लड़के भी थे। जाट तो शिवालय, बौद्ध मठ, मस्जिद, गिरजाघर व गुरुद्वारे आदि बनाने वाले थे, तोड़ने वाले कैसे हो गये? जाटों को नहीं भूलना चाहिए कि आज जो कट्टर हिन्दूपंथी मस्जिदों को तोड़ने की बात कर रहे हैं उन्हीं के पूर्वजों ने कभी मन्दिरों को लुटवाया और तुड़वाया था। गजनी व बाबर के सेनापति को रेमीदास और तिलक इन्हीं के पूर्वज थे।


पाठकों की जानकारी के लिए बाबरी मस्जिद की सच्चाई बतलाना आवश्यक है जो इस प्रकार है -

राम जन्मभूमि उर्फ बाबरी मस्जिद विवाद भारत वर्ष की एकता पर प्रश्न चिह्न है। इस विवाद के कारण भारतवर्ष की राजनीति ने सन् 1990 से एक नया मोड़ लिया, जिसके कारण भारत की गम्भीर समस्याएं गौण हो गईं। यह विवादित बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में सरयू नदी के साथ बसी मन्दिरों की नगरी अयोध्या में थी। इसको तोड़ने का पहला राजनीतिक प्रयास 31 अक्तूबर 1990 को हुआ। जिसमें दो लोगों की जानें गईं। दूसरा प्रयास 2 नवम्बर 1990 को हुआ जिसमें इसी नगरी की मनीराम छावनी के पास 9 लोगों की जानें गईं तथा 34 लोग घायल हुए। इन घटनाओं ने देश के राजनैतिक व धार्मिक उफान को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया जिसका पटाक्षेप 6 दिसम्बर 1992 को इस मस्जिद को गिराये जाने पर हुआ। जिसके परिणामस्वरूप भारत के हिन्दू व मुसलमानों के मजहबी संगठन और भी कट्टरपंथी हो गए और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं पर गहरा आघात पहुंचा। इसके परिणामस्वरूप उनकी सोच में बड़ा परिवर्तन आया। नतीजतन पहली बार देश ही के कुछ मुसलमानों ने मिलकर 23 मार्च 1993 को मुम्बई में बड़े पैमाने पर बम विस्फोट किए, जिसमें 296 आम भारतीय नागरिकों (सभी


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धर्मों के) की जानें गईं। इसी धार्मिक उन्माद के कारण देश में पहली बार केन्द्र में तथा कुछ राज्यों में भारतीय जनता पार्टी पर आधारित सरकारें बनी, इसी उन्माद के कारण देश में जगह-जगह सीमा पार से (जम्मू क्षेत्र के अतिरिक्त भी) जेहादी हमलों में भारतीय मुसलमान सम्मिलित पाए गए। जबकि पंजाब का उग्रवाद जिसमें पाकिस्तानी आई.एस.आई. का एक बहुत बड़ा हाथ था, सन् 1980 से लेकर 1991 तक कोई एक भी हिन्दुस्तानी मुसलमान कभी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्मिलित नहीं पाया गया। अर्थात् बाबरी मस्जिद के गिराये जाने से देश में अदृश्य अलगाववाद की नींव पड़ी। कहने का अर्थ है कि देश में सन् 1990 के बाद राजनैतिक परिवर्तन तथा जेहादी हमलों का एक बड़ा कारण बाबरी मस्जिद का गिराया जाना है। लेकिन वास्तव में बाबरी मस्जिद क्या थी, इसका सच क्या है?


इस मस्जिद की नींव इब्राहिम लोधी ने 17 सितम्बर 1523 (930 हिजरी) को अयोध्या में एक खाली पड़ी जमीन पर रखी जो 10 सितम्बर 1524 को बनकर तैयार हुई। इसका पत्थर (शिलालेख) भी इब्राहिम लोधी के नाम से लगाया गया था। यह मस्जिद लगभग 25 फुट लम्बी तथा 12 फुट चौड़ी, 3 दरवाजे तथा तीन गुम्बदों वाली बगैर मीनार की एक बहुत ही साधारण निर्मित मस्जिद थी। इब्राहिम लोधी अवश्य ही एक मुस्लिम धर्मी था लेकिन उसकी दादी हिन्दू धर्म की थी जिसका खून लोधी की रगों में बहता था। उसने भारत में कभी किसी मन्दिर को नहीं तुड़वाया। उस समय तक बाबर व तुलसीदास नाम का कोई भी व्यक्ति भारत में नहीं था।

लगभग सन् 1524 में बाबर नाम के व्यक्ति ने बुखारा व फरगना की अपनी सल्तनत लड़ाई में खो दी थी और अपनी नई सल्तनत बनाने के लिए भारत पर हमला किया। जिसका मुकाबला इब्राहिम लोधी ने पानीपत के मैदान में किया, जिसमें 20 अप्रैल 1526 को विजय बाबर के हाथ लगी जिसके नाम का खुतबा मौलाना महमूद और शेख जैन ने


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27 अप्रैल 1526 को पढ़ा। आगरा को अपनी राजधानी बनाया और मीरबाकी को अवध का अपना सूबेदार बनाया। यही अवध बाद में अयोध्या कहलाई और घाघरा नदी सरयू नदी कहलाई। इसी मीरबाकी के वंशज आज भी वहां के सनेहुआ गांव में रहते हैं, जो कभी इस मस्जिद में नमाज अदा करते थे। जो इस पूरी सच्चाई को जानते हैं लेकिन उनकी कोई सुने भी तो?


सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की सबसे बड़ी उपलब्धि थी -भारतीय हिन्दू व मुसलमानों की एकता। जिसमें भारतीयों ने बादशाह बहादुरशाह जफर को अपना नेता चुना था। इस एकता पर अंग्रेज भयभीत हो गए थे। इसी कारण अंग्रेजों ने बांटो और राज करो की नीति अपनाई थी। हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने के लिए अंग्रेजों ने कई षड्यन्त्रों से अपनी नीति को अंजाम दिया था जिसमें इब्राहिम लोधी की इस मस्जिद को बाबरी मस्जिद घोषित किया गया। सन् 1889 में आर्कियालॉजीकल सर्वे आफ इण्डिया के डायरेक्टर अंग्रेज ए० फ्यूहरर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह इस मस्जिद से इब्राहिम लोधी के नाम के शिलालेख को मिटवा दे तथा अंग्रेज गजेटियर लेखक एच.आर. नेविल से फैजाबाद गजेटियर में लिखवाया कि बाबर ने सन् 1528 की गर्मियों में अयोध्या में प्राचीन राममन्दिर को मिसमार करके वहां मस्जिद तामीर करवाई जहां 174000 हिन्दू मारे गए। इस षड्यन्त्र को प्रमाणित करने के लिए बाबरनामा के साढ़े पांच महीने अर्थात् 3 अप्रैल 1528 से 17 सितम्बर 1528 तक के दिनों के पन्ने गायब करवा दिये गए। लेकिन कहते हैं कि चोर कितनी भी होशियारी क्यों न करे फिर प्रमाण सूत्र अवश्य छोड़ जाता है। इसी प्रकार फ्यूहरर साहब अपनी आर्कियालॉजीकल सर्वे आफ इण्डिया की फाइलों को जलाना भूल गए, जिसमें यह सच्चाई अंकित है। इस षड्यन्त्र का दूसरा प्रमाण यह है कि सन् 1869 में फैजाबाद-अयोध्या की कुल आबादी 9949 थी जो 12 वर्षों में सन् 1881 में 11643 हो गई अर्थात् कुल 2000 आबादी बढ़ी तो फिर सन् 1528


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में 174000 हिन्दू कहां से आ गए थे? तीसरा प्रमाण है कि यदि बाबर को मन्दिर ही तोड़ना था तो हिन्दुओं का एक और भगवान श्रीकृष्ण जी का मन्दिर मथुरा में जो उसकी राजधानी आगरा से मात्र 50 किलोमीटर की दूरी पर है, को अवश्य तोड़ता।


बनारस के विश्वनाथ मन्दिर की कहानी तो बड़ी ही शर्मनाक है। औरंगजेब का शासन था। कच्छ की रानी इस मन्दिर में अपने दलबल के साथ विश्वनाथ भगवान के दर्शन करने आई थी। मन्दिर का पण्डा रानी को भगवान के साक्षात् दर्शन के बहाने मन्दिर के गर्भ गृह में ले गया और उसके साथ बलात्कार किया। वस्त्राभूषण विहीन भयभीत रानी तहखाने से बरामद हुई। इस घटना पर बड़ा बवाल मचा। इतिफाक से औरंगजेब उस समय गंगास्थान में ही था। उसे पण्डों की यह काली करतूत ज्ञात हुई तो वह बड़ा क्रोधित हुआ और उसने कहा ‘जहां बलात्कार हो वहां भगवान का घर नहीं हो सकता।’ उसने इस मन्दिर को तोड़ने का आदेश दे दिया जिस पर रानी को बड़ा दुख हुआ और उसने बादशाह को संदेश भिजवाया कि इसमें मन्दिर का क्या दोष है? दोष तो पण्डों का है। इसी कारण उस स्थान पर औरंगजेब ने मस्जिद बनवा दी जिसे ‘बनारस फरमान’ के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार औरंगजेब ने रानी की बात भी रख ली।


आज अयोध्या, बनारस तथा मथुरा के इन मन्दिर-मस्जिदों की सुरक्षा पर भारतीय जनता का सालाना करोड़ों रुपया खर्च हो रहा है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? इन्हीं कारणों से बढ़े धार्मिक उन्माद से देश का बड़ा भारी नुकसान हुआ और हो रहा है। इस उन्माद के कारण ही मुम्बई में विस्फोट हुए, गुजरात में नरसंहार हुआ तथा देश के अन्य हिस्सों में जैहादी हमले जारी हैं। इसी उन्माद की आड़ में सरकारें बनती रही हैं। मुम्बई विस्फोट करने वाले (सन् 1993) अपराधियों को सजा सुनाई जा चुकी है, लेकिन इब्राहिम लोधी की मस्जिद को तोड़ने वाले इसे बाबरी मस्जिद कहकर आज भी खुले घूम रहे हैं जो देश की एकता पर प्रश्न चिह्न है, यही इसकी सच्चाई है। भारत सरकार ने इस पर लिब्राहन


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आयोग बिठाया जिसने अपनी रिपोर्ट 16 मार्च सन् 1993 को देनी थी लेकिन इसकी अवधि 48 बार बढ़ानी पड़ी और लगभग 8 करोड़ रुपये खर्च होने पर आयोग ने अपनी रिपोर्ट जून 2009 में सरकार को सौंपी लेकिन प्रतीत होता है कि इस आयोग की रिपोर्ट का भी वही हाल होगा जो पहले से होता आया है। कुछ सालों से ‘हिन्दुत्व’ शब्द को बड़ा उछाला जा रहा है। हिन्दूत्व कुछ नहीं, केवल ब्राह्मणवाद का दूसरा रूप है। जाट कौम को इस छलावे में नहीं आना चाहिए। इस विषय की पूरी जानकारी के लिए मेरी आगामी पुस्तक अयोध्या में योद्धा को अवश्य पढ़ें ।

कच्छ की रानी का बलात्कार पहला ऐतिहासिक बलात्कार नहीं था। पौराणिक देवता इन्द्र ने ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या जो कि अपूर्व सुंदरी थी, पर आसक्त होकर गौतम का भेष धारण करके चन्द्रमा को साथ लिया और बलात्कार किया जो कि पहला ऐतिहासिक बलात्कार था। सिन्धु सभ्यता में ब्रह्मा ने अपनी पुत्री शतरूपा सरस्वती का आसक्त होकर बलात्कार किया यह दूसरा ऐतिहासिक बलात्कार था। सूर्य ने अपने भाई विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा को अपनी पत्नी बनाकर बलात्कार किया, यह तीसरा ऐतिहासिक बलात्कार था। देवताओं की गुरुपत्नी तारा का चन्द्र ने अपहरण किया और बलात्कार किया। यह चौथा ऐतिहासिक बलात्कार तथा प्रथम ऐतिहासिक अपहरण था। शान्तनु की दूसरी पत्नी सत्यवती ने भी विवाह से पूर्व पाराशर ऋषि से सहवास किया और वेदव्यास का जन्म हुआ जो ऋषि बन गए।


विषय की बात तो यह है कि इस बाबरी मस्जिद घटना के बाद हिन्दुओं व मुसलमानों के अनेक धार्मिक उन्मादी गुट पैदा हो गए और अधिक कट्टर होते चले गए। यह क्रिया अभी तक जारी है। जाटों को याद रखना होगा कि वे हिन्दू भी हैं, तो मुसलमान, सिख, ईसाई और बौद्ध भी हैं। आर्यसमाजी हैं तो राधास्वामी व निरंकारी भी हैं। इस बात को जो जाट नहीं समझ पाएगा वह जाट कहलाने का अधिकारी भी नहीं है। कट्टर धार्मिक संगठनों से दूर रहने वाला ही वास्तव में सच्चे अर्थों


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में सच्चा जाट है। मैं पाठकों को याद दिला दूं कि विश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष अशोक सिंघल का खानदान जैनी था, तो जिन्हा का खानदान लाला हिन्दू, शेख अब्दुल्ला व इकबाल के पूर्वज ब्राह्मण हिन्दू थे । यह नहीं भूलना चाहिए कि जब टीपू सुलतान के शासनकाल में ब्राह्मण मराठों ने उसके राजक्षेत्र पर आक्रमण किया तो हिन्दुओं के प्रसिद्ध मन्दिर श्री रंगापट्ट को लूटा और तोड़ा था। पाटलीपुत्र के हिन्दू शासक ने बुद्ध के बोधिवृक्ष को कटवा डाला था।

खुदाई में खलल होता अगर दो खुदा होते।

हजार सिजदे करो, बुत कभी खुदा नहीं होते ॥

(पुस्तक-साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत ‘कितने पाकिस्तान’ लेखक कमलेश्वर, ‘फैदर्स एण्ड स्टोन’ लेखक कांग्रेसी नेता पट्टाभिसीतारमैय्या, तथा ‘स्वदेशी और साम्राज्यवाद’ लेखक डा. धर्मचन्द्र विद्यालंकार)।


जाटों ने ईसाई धर्म को यूरोप में ही समेट दिया था लेकिन इस्लाम धर्म में आपसी फूट और मारकाट की वजह से यूरोप में जाटों ने इस्लाम धर्म छोड़कर 16वीं सदी में ईसाई धर्म अपनाया। यूरोप में जाटों को छोटे जाट तथा बड़े जाट के नामों से ही जाना गया। जो जाट पहले गये वे छोटे-छोटे दलों में गये जैसे कि तूड़, बल, खोखर व बैंस आदि-आदि। इन्हें छोटे जाट कहा गया। बाद में मौर जाटों आदि की अगवाई में जो जाट बड़े दलों में गये उन्हें बड़ा जाट कहा गया। Rise of Christianity में यूरोपियन लेखकों का हिन्दी अनुवाद संक्षप में इस प्रकार है यूरोप तथा इटली की संस्कृति पूर्णतया मोर जाटों की देन है। गणित में शून्य का प्रयोग जाट ही अरब से यूरोप लाये थे। मौर जाट स्थानीय लोगों से अधिक cultured (सभ्य) थे, जिन्होंने खेती के नये तरीके अपनाकर इन राज्यों को धनाढ्य बना दिया। यही इसका सार है। भारतीय इतिहासकार शिवदास गुप्ता जी का कथन है - “जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुर्कीस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनोविया, [[Kent Kingdom}इंग्लैंड]], ग्रीक, रोममिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ


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राज किया और वहाँ की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था।” (प्राचीन भारत के उपनिवेश पत्रिका अंक 4.5 1976)। स्वयं स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं कि आर्य लोग भारत से मिश्र, यूनान, रोम, यूरोप होते हुए अमेरिका पहुंचे थे तो जाटों को छोड़ यह आर्य फिर कौन थे? जाटों का तो स्वयं एक आर्य गोत्र भी है।


इन मोर जाटों ने 300 ई० पू० से लेकर 15वीं शताब्दी तक लगभग 1800 साल तक भारत, मध्य एशिया तथा यूरोप पर कहीं ना कहीं अपना परचम हमेशा लहराये रखा। यही यूरोपियन इतिहासकार आगे लिखते हैं “मोर जाटों ने 16वीं सदी में यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म अपनाया और चर्च के नियमों में जितने भी सुधार हुए वे इन्हीं जाटों की देन हैं।” इससे पहले यहाँ ईसाई धर्म में विधवा औरत को पुनः विवाह का अधिकार नहीं था जो इनके आने पर ही हुआ।’’ रोम वासियों के युद्ध के देवता के वाहन का नाम मोर पक्षी लिखा गया है। जबकि रोम में कभी मोर पक्षी था ही नहीं। यह वास्तव में भारत से जाने वाले ही जाट लोग थे जिनका गोत्र भी मौर्य था।


जाट यूरोप में प्राचीन समय में गये। इसके तीन ही उदाहरण देने पर्याप्त होंगे -

  • 1. जब सन् 1983 में चौ. बलराम जाखड़ भारतीय संसद के अध्यक्ष के बतौर इंग्लैंड गये और वहाँ के संसद अध्यक्ष डा. बर्नार्ड वैदर हिल से मिले जो इन्हीं की तरह लम्बे-तगड़े थे, वे इनको देखते ही तड़ाक से बोले कि ‘आप जाट हैं?’ इस पर चौ० बलराम जाखड़ ने जब हामी भरी तो उन्होंने कहा ‘कि वे भी जाट हैं और शाकाहारी हैं।’ यह था दो जाटवंशजों का हजारों साल बाद सात समुद्र पार मिलन। यह खबर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में दिनांक 12.07.1983 में विस्तार से छपी थी।
  • 2. दूसरा उदाहरण देखिए कि रोमानिया देश के संसद अध्यक्ष ने सन् 1993 में भारत भ्रमण के दौरान भोपाल में बयान दिया कि ‘उनके पूर्वज भारत में पंजाब व इसके आसपास के किसी क्षेत्र के रहनेवाले जाट

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या राजपूत थे (राजपूतों को पौराणिक ब्राह्मणवाद की वजह से भारत से बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी- लेखक।)’ यह खबर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के 30 दिसम्बर 1993 के अंक में विस्तार से छपी थी।

  • 3. तीसरा Published on January 11, 1980 - The New York Times.
The Origin of the Gypsies - There appears to be very reason for believing with Capt. Richard Burton that the Jats of North-Western India furnished so large a proportions of the emigrants or exiles who from the tenth century, went out of India westward, that there is risk assuming it as an hypothesis, at least that they formed the Haupotstamm of the gypsies of Europe......they dealt in horses were naturally familiar with them......their women were fortune tellers, specially by chiroancy......in several European countries they long monopolised them. Even they were master of agriculture. They had shown great skill of dancers, musicians, singers, acrobats and it is a rule almost without exception that there is hardly a Travelling Company of such perrformances...... their hair remains black to advanced age and retain longer than European. They speak Aryan tongue which agress in the main with that of Jats.....this was bold race of North Western India, which at one time had such power as to obtain important victories over caliphs. They were broken and dispersed in eleventh century.

अर्थात् यह विस्तृत रिपोर्ट अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के 11 जनवरी 1880 के अंक में छपी थी, जिसमे लगभग ग्यारहवीं सदी से जो जाट यूरोप में गए उन्हें जिप्सी कहा गया। इसका संक्षेप में अर्थ है कि ‘यूरोप में पाए जाने वाले जिप्सी जाति के लोग भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से दसवीं सदी में गए। जाट लोग स्वाभाविक तौर पर घोड़ों से जुड़े थे। इनकी औरतें भाग्यवादी कहानियां सुनाने में माहिर थी। वास्तव में ये लोग खेती-बाड़ी के मास्टर थे। इनके काले बाल लम्बी आयु तक रहते हैं और ये आर्यन जुबान बोलते हैं। ये भारत के उत्तर पश्चिम में रहने वाली दबंग जाट जाति से सम्बन्ध रखते हैं जिन्होंने एक समय खलीफों को भी हरा दिया था।’


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यह लेख सिद्ध करता है कि ग्यारहवीं सदी तक जाट दलों के रूप में यूरोप जाते रहे हैं और बाद में जाने वाले जाटों को जिप्सी के नाम से जाना जाता है। किसी पाठक ने इस पर एतराज उठाया कि जाट जिप्सी नहीं हो सकते क्योंकि जाट जहां भी गए, खेती बाड़ी का धंधा अपनाया। पाठक का विचार उचित हो सकता है लेकिन हमारे देश में ही प्राचीन में कई जाटों ने खेती न अपनाकर दूसरा धंधा अपनाया जिस कारण वे दूसरी जातियों में सम्मिलित होते चले गए। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं।

सन् 1998 में चौ० सोमपाल शास्त्री जी जब भारत सरकार के कृषि राज्यमन्त्री थे तो सरकारी कार्य से ईराक में गये थे। उस समय उनकी एक घण्टा और 20 मिनट ईराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन से वार्तालाप हुई। जिसमें उनके पूछने पर शास्त्री जी ने अपने को जाट बतलाया तो सद्दाम हुसैन ने कहा, “जाट तो एक मार्शल कौम है और वे भी एक मार्शल कौम से हैं तथा हमारा मूल वंश एक ही है।”


यहां एक हैरान करने वाली घटना का भी संक्षेप में वर्णन किया जाता है कि जब अंग्रेज भारत आए तो भारत में आने वाला पहला अंग्रेज डॉ० थॉमस मोर ईसाई जाट था जो भारत में भ्रमण के लिए आया था। यह लगभग सन् 1600 की घटना है। बादशाह जहांगीर की बेगम बीमार थी। डॉ० मोर साहब को पता चला तो वह दरबार में पेश हुआ और बादशाह से बेगम के इलाज की आज्ञा मांगी। आज्ञा मिलने पर उसने बेगम को जल्दी ठीक कर दिया जिस पर बादशाह ने इलाज के बदले इनाम मांगने को कहा तो डॉ० मोर ने अपने निजी लाभ व स्वार्थ को छोड़कर अपने देशहित में अपने देश ब्रिटेन से भारत में स्वतन्त्र व्यापार की आज्ञा मांगी जिससे खुश होकर बादशाह ने ‘शाही फरमान’ जारी किया और ब्रिटेन से कर मुक्त व्यापार आरम्भ हुआ। डॉ० मोर चाहता तो करोड़ों रुपया मांग सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। यह था जाट का चरित्र। (पुस्तक - किसान विद्रोह और संघर्ष)

एक और अंग्रेज लेखक थॉमस मोर ने अपनी पुस्तक में अपने को


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मौर गोत्र का जाट माना हैं, तो जर्मन विद्वान् लेखक थॉमस मान ने अपने को मान गोत्री जाट माना है । डॉ० रिसले ने मिश्र के नेता गमल अब्दुल नाशर को निशर गोत्र का जाट कहा, वे अन्त में लिखते हैं - ‘When a Jat runs wild it needs God to hold him back. अर्थात् जब एक जाट बिगड़ जाए तो उसे भगवान ही संभाल सकता है।


भारतीय फौज में अंग्रेज अफसर सर ले० जनरल जेम्स उट्रम (जाट)हुक्के के पियक्कड़ और उसके जबरदस्त फैन थे, जो यात्रा के दौरान भी हमेशा अपनी जीप में हुक्का रखते थे। (पुस्तक - वीरभोग्या वसुन्धरा तथा फौजियों की जबानी)। इसी प्रकार 139 जाट गोत्रों का मध्य एशिया व यूरोप में पाये जाने का पूरा विवरण डॉ. बी.एस. दहिया ने अपनी पुस्तक Jats-The Ancient Rulers में किया है। फिर भी भारतीय इतिहासकारों को क्या प्रमाण चाहिये? प्रो. बी.एस. ढिल्लो (कनाडा वासी) ने भी एक बहुत गहन शोध करके पुस्तक लिखी है- ‘History and Study of the Jats’ जिसमें सैकड़ों विदेशी इतिहासकारों के विचार देकर डॉ. बी.एस. दहिया के विचारों को उचित सिद्ध किया है। जाट जाति एक विश्व जाति है, अर्थात् Jat is a Global Race.


सिक्ख धर्म के सभी दस गुरु खत्री जाति से संबंध रखते थे तथा आपस में सभी के सभी रिश्तेदार थे। लेकिन गुरु नानक जी के दो परम शिष्य बाबा बुड्ढा जी, रणधावा गोत्री तथा बाबा बाला जी संधु गोत्री जाट थे। सिक्खों के छठे गुरु हरगोविन्दसिंह जी के समय सिक्ख धर्म के लिए शहीद होनेवाले पहले शहीद वीर योद्धा बाबा बीरसिंह जी घुम्मन गोत्री जाट थे। सिखों के दसवें गुरु गोविन्दसिंह जी के पंच प्यारों में दूसरे प्यारे धर्मचन्द गाँव जटवाड़ा जिला सहारनपुर उत्तरप्रदेश के मलिक गठवाला गोत्री जाट थे। गुरु तेग बहादुर जी का शीश चाँदनी चौंक से किरतपुर ले जानेवाले दोनों वीर जैतो और दुल्लो जाट थे। गुरु गोविन्दसिंह जी के बच्चों की रक्षा जान पर खेलकर करनेवाली वीरांगना योद्धामाई भागो भी भराइच गोत्र की जाटनी थी। (लेकिन गंगाराम ब्राह्मण की करतूत आगे


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पढ़ें)। गुरुओं के अखाड़ों की परम्परा जाटों ने ही डाली जो वहाँ कुश्ती और मार्सलआर्ट का अभ्यास करते थे। गुरु गोविन्दसिंह जी की सेना में अधिक संख्या जाटों की थी। आज भी सिक्ख धर्म की शान जाट हैं। याद रहे देश और विदेश के सिक्खों में 70 प्रतिशत संख्या सिक्ख जाटों की है। (History and Study of the Jats)


जाट हिन्दू धर्म में ब्राह्मणवाद के जटिल कर्मकाण्डों व अन्धविश्वासों के कारण हमेशा छटपटाता रहा है और उसे जब भी मौका मिला हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) से मुक्ति पाकर दूसरे धर्म अपनाता रहा है। इसी कड़ी में उसने हिन्दू धर्म के अन्दर रहते हुए भी आर्यसमाज को अपनाया। लेकिन आज यही आर्यसमाज फिर चक्कर काटकर वापिस रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद में लुप्त होता जा रहा है। क्योंकि यह फैसला जाटों का उचित नहीं था। (किसान विद्रोह, संघर्ष, सिक्ख इतिहास, राईज ऑफ इस्लाम, राईज ऑफ क्रिस्चनेटी तथा ‘भारतीय इतिहास का एक अध्ययन’ आदि-आदि)।

और ये कौन जाट थे? पढ़ो तो जानो!

विश्व की किसी भी एक जाति से अधिक जाट जाति में अधिक साधु, सन्त, फकीर व संन्यासी व त्यागी हुये, जो भारत व पाकिस्तान में पूजनीय हैं। वैसे तो उत्तर भारत के पंथ व विचार तथा डेरे लगभग जाटों के ही रहे है। जैसे कि राधा स्वामी दिनौद डेरा मल्हान जाटों का, राधा स्वामी ब्यास डेरा ग्रेवाल जाटों का, सिरसा का सच्चा सौदा डेरा बासी जाटों का । इसी प्रकार स्वामी निश्चल दास दहिया गोत्री जाट ने वैदिक धर्म की व्याख्या पर ‘विचार सागर’ ग्रंथ लिखकर अपने डेरे की महता बढ़ाई। रोहतक के अस्थल बोहर नाम का नाथ डेरा भी जाटों द्वारा स्थापित डेरा है। वर्तमान में प्रसिद्ध जैन साधु उपेन्द्र मुनि जो एक जैन मुख्यालय के मुखिया हैं, सोनीपत जिले के गांव रिढाना के नरवाल गोत्री जाट परिवार से हैं। वैसे तो जाट जीवन ही सन्त जीवन के एकदम पास रहा है -


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तुम चले गये पर चरण चिन्ह क्या मिट सकते हैं।
कोई भी काल आये क्या आपके कर्म घट सकते हैं॥
  • (29) जट्ट ज्योना - मौर गोत्री, लेकिन इनको ब्राह्मणवाद ने ज्यानी चोर कहकर बदनाम किया, क्योंकि ये दक्षिण एशिया में अपने समय के महान् बुद्धिमान् व्यक्ति थे जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। इन्होंने ही राजकुमारी महकदे की रक्षा की थी।
  • (32) भक्त फूलसिंह - मलिक गोत्री। इनके नाम पर हरियाणा के सोनीपत जिले के खानपुर गांव में महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है।

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  • (35) बाबा शिवनाथ - खत्री गोत्री, अस्थल बोहर जिला रोहतक के मुखिया रहे।

(नोट- याद रहे हरयाणा के पूर्व मुख्यमन्त्री चौ० भजनलाल का भी यही गोत्र है जो हरयाणवी बिश्नोई जाट हैं न कि शरणार्थी पंजाबी।) इनके परिवार ने अवश्य कुछ दिन पाकिस्तान की भारत सीमा के साथ बहावलपुर स्टेट में अपने रिश्तेदारों के यहां खेती की थी। लेकिन ये सन् 1946 में ही वापिस अपने गांव आ गए थे।

  • (39) चूअरजी जाट जूझा - जिनकी मूर्ति राजस्थान में भगवान् की तरह पूजी जाती है।
  • (43) गोगामेड़ी वाले - चहल गोत्री जाट, राजस्थान के गजरेरा गांव के रहने वाले थे, जिनके नाम पर मेड़ीधाम विख्यात है। यहां सभी धर्मों के लोग इन्हें पूजने जाते हैं।
  • (45) संत गंगा दास - ये महान् कवि संत थे जिनकी रचना ‘गंगा सागर’ संत सूरदास की रचनाओं के समक्ष मानी जाती है। ये गाजियाबाद के पास रसलपुर-बहलोलपुर के मुंडेर गोत्री जाट थे।

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  • (48) राधा स्वामी ताराचन्द - मल्हान गोत्री - राधा स्वामी दिनोद सत्संग के संस्थापक।
  • (50) सन्त जरनैलसिंह भिण्डरवाला - बराड़ गोत्री जिन्होंने सन् 1984 में विद्रोह किया।

कुछ अन्य वीर योद्धा व विख्यात जाट, जिन्हें इतिहास ने भुलाया

कह न सकेगा देव भी, जाट वंश की गौरव कहानी ।
प्रेम से जिसने मिटा दी, देश हित में अपनी निशानी ॥
यह प्रामाणित सत्य है कि जो व्यक्ति अपने पूर्वजों के साहसिक कार्य पर गर्व नहीं करेगा वह अपने जीवन में ऐसा कुछ नहीं कर पायेगा जिस पर उसके वंशज गर्व कर सकें।
  • (1) वीर जाट द्रह्म - ये चन्द्रवंशी जाट थे जिन्होंने 2207 ईसा पूर्व चीन के तातार प्रदेश में पहुंचकर राज की स्थापना की, जिसे बाद में यूती जाति के नाम से जाना गया। यही चीन के पहले राजा हुए हैं।
  • (2) जाट योद्धा स्कन्दनाभ - ये चन्द्रवंशी जाट थे जो सबसे पहले अपने दल के साथ 500 ईसा पूर्व एशिया माइनर से होते हुए यूरोप पहुंचे तथा इसी नाम पर स्कंदनाभ राज बनाया जो बाद में स्कैण्डीनेविया कहलाया तथा जटलैण्ड की स्थापना की जिसे आज भी जटलैण्ड ही कहा जाता है। इसके बाद बैंस, मोर, तुड् आदि अनेक गोत्रीय जाट गए जो पूरे यूरोप में फैले जिन्हें बाद में गाथ व जिट्स आदि नामों से जाना गया।

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ऐतिहासिक स्तूप बनवाया था जिसे सन् 2001 में सभी विरोधों के बावजूद तालिबानियों ने डायनामाइट से उड़वा दिया। राजा गज के वंशज राजा बालन्द ने इस्लाम धर्म अपनाया। इसके बाद वहां के सभी जाट मुस्लिम धर्मी हो गए और इन जाटों ने चंगताई नामक मुगलवंश की स्थापना की।
  • (4) राजा वीरभद्र - इन्हें जाटों का प्रथम राजा कहा जाता है, जिन्होंने हरद्वार पर राज किया। इनके नाम पर हरद्वार के पास रेलवे स्टेशन है। इनका वर्णन देव संहिता में है। नील गंगा को जाट खोद कर लाये थे जिसे आज भी जाट गंगा कहा जाता है।
  • (8) नरेश मूसक सेन - मौर गोत्र के जाट राजा जिन्होंने सिन्ध पर राज किया। इन्होंने सिकन्दर को सिन्ध से ब्यास तक पहुंचने पर 19 महीने तक उलझाए रखा।
  • (10) महाराजा जगदेव पंवार - अमरकोट के प्रसिद्ध राजा हुए जो पंवार गोत्री थे। गुजरात के जाट राजा सिद्धराज सोलंकी ने अपनी सुन्दर कन्या वीरमती का इनसे विवाह किया था। लोहचब पंवार गोत्र भी इन्हीं के वंशज हैं।
  • (12) नरेश कंवरपाल - कंसवा गोत्री जाट, जिन्होंने जांगल प्रदेश (राज.) पर राज किया। इनका राज सातवीं सदी तक था। ये महान् प्रशासक थे।

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  • (13) नरेश कान्हा देव - ये पूनियां गोत्री जाट राजा थे। इनका पश्चिमी राजस्थान पर राज था। इन्हें कभी नहीं हारनेवाला राजा कहा गया है।
  • (14) राजा जयपाल - दसवीं सदी के महान् जाट राजा हुए, जिनका विशाल राज्य था। इन्हीं का पुत्र राजा आनन्दपाल तथा इनका पौत्र सुखपाल हुआ, जिसने मुस्लिम धर्म अपनाया और नवाबशाह कहलाये।
  • (19) राजा भोज - पंवार गोत्री जाट, जिनका इतिहास आज भी गांव के लोगों की जनश्रुतियों में है।
  • (23) सम्राट् चकवाबैन - इनका पूरे पंजाब पर राज रहा, इन्हीं के पौत्र मघ ने स्वप्नसुन्दरी राजकुमारी निहालदे से विवाह किया। इसी चकवाबैन से जाटों के बैनीवाल गोत्र की उत्पत्ति हुई।

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  • (25) सरदार झूंझा - नेहरा गोत्री जाट योद्धा जिसके नाम पर झूंझनू (राजस्थान) शहर बसाया। नेहरा जाटों का राज राजस्थान में नरहड़ और नाहरपुर पर था। इसलिए इस क्षेत्र (राज.) को पहले नेहरावाटी कहते थे, जो बाद में शेखावाटी कहलाया।
  • (26) कंवरपाल जाट - कसवां गोत्री जाट, जिसने राजस्थान में राठौर राजपूतों से आखिर तक लोहा लिया।
  • (27) तोला सरदार - तोयल गोत्री योद्धा जाट जिसने नागौर (राज.) जिले के खारी क्षेत्र पर राज किया। यहां शिलालेख मिला है जिस पर लिखा है-
अकबर सूं तोला मिला करके बात करारी।
पट्टी रहू मैं नगौररी घर म्हारा खारी।।
  • (30) वीर योद्धा हेमू उर्फ बसन्त राय जाट - भारतीय इतिहास में इस महान् जाट को बार-बार बनिया और बकाल लिखा गया है। लेकिन सच्चे इतिहास को दबा दिया गया और इन्हें जाट कहने से परहेज किया गया। इसी प्रकार विष्णु-प्रभाकर की पुस्तक ‘शहीद भगतसिंह’ में चौ० छाजूराम को बार-बार सेठ लिखा गया है और कहीं भी चौधरी, लाम्बा या जाट नहीं लिखा गया। आने वाले 500 सालों के बाद इन्हें भी बनिया या बकाल मान लिया जाएगा। जैसा कि आज हेमू जाट के साथ

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हो रहा है। अंग्रेज लेखक सर एडवर्ड सुलीवान की पुस्तक ‘मुगल इम्पायर इन इण्डिया’ के पेज नं० 259-260 में यह सच्चाई दर्ज है, जो इस प्रकार है -
हेमू का असली नाम बसंत राय था जो अलवर क्षेत्र में तिजारा के पास देवती गांव का रहने वाला जाट जमींदार का लड़का था, जिनके पिता का नाम परणपाल था। इनके बड़े भाई का नाम जुझारूपाल तथा बहिन का नाम पूनम बाई था। बड़ा होने पर इन्होंने शौरे का व्यापार शुरू किया जो बारूद बनाने में काम आता है। इसने शेरशाह सूरी के लड़के सलीम शाह को शौरा सप्लाई करना आरम्भ किया, जिसके कारण उसके साथ उसकी मित्रता हो गई। शेरशाह सूरी के खानदान का जाटों से भावनात्मक लगाव था क्योंकि हुमायूं के साथ लड़ाई में जाटों ने शेरशाह का साथ दिया था जिसका कारण था कि शेरशाह ने बचपन में जाटों के यहां नौकरी की थी। (शेरशाह शूरी खत्री जाति से सम्बन्ध रखता था।) बसन्त राय उर्फ हेमू में जाट होने के कारण क्षत्रिय गुण स्वाभाविक थे, रिवाड़ी कस्बे में रविदास नाम के ब्राह्मण से इनकी मित्रता थी जहां वे अक्सर आते-जाते ठहरा करते थे। सलीम शाह के बाद शेरशाह सूरी का साला आदिलशाह गद्दी पर बैठा तो उसके साथ भी बसन्त राय की व्यापार और मित्रता घनिष्ठ होती चली गई। एक दिन आदिलशाह बीमार पड़ गया तो कालिंजर किले की कमान बसन्त राय उर्फ हेमू को संभालनी पड़ी। बसन्त राय को युद्ध कला से बाल्यकाल से लगाव था जिस कारण उसने एक दिन सेनापति का कार्यभार संभाल लिया।
एक दिन उन्होंने अपनी सेना के साथ दिल्ली के लिए कूच किया और 7 अक्तूबर 1556 को दिल्ली को जीत लिया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। 7 अक्तूबर 1556 से 5 नवम्बर 1556 तक अर्थात् एक महीना दिल्ली पर राज किया। इसी बीच पानीपत की दूसरी लड़ाई लड़नी पड़ी जिसमें बसन्त राय उर्फ हेमू ने एक सेनापति के बतौर शौर्य के साथ युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होकर भारतीय इतिहास में विख्यात हुए।

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इससे स्प्ष्ट है कि हेमू एक वीर जाट था लेकिन व्यापार करने के नाते उसे बनिया कहा जाता है तथा ब्राह्मण से मित्रता होने के कारण एक ब्राह्मण भी बतलाया जाता है। लेखक ने मालूम किया कि देवती गांव आज भी जाटों का गांव है।


  • (32) चूड़ामन जाट - ये बहादुर चूड़ामन जाट सिनसीनवार जाट खाप के प्रधान थे जिन्होंने बहादुर जाटों की अपनी एक सेना बना ली थी जो मुगलों के दक्षिण से आने वाले खजानों को लूट लेती थी और अपने क्षेत्र से मुगलों को जमीन की कोई भी मालगुजारी नहीं देते थे। यही वीर चूड़ामन जाट वास्तव में भरतपुर रियासत के आधार रखने वाले थे, जिन्हें ‘बेताज बादशाह’ कहा जाता है। जाटों को लुटेरा कहे जाने का एक कारण चूड़ामन जाट है जिन्होंने केवल मुगलों को ही जी भर कर लूटा था।
  • (33) महाराजा बदनसिंह - जैसा कि ऊपर लिखा है कि भरतपुर रियासत का आधार चूड़ामन जाट ने रखा था, लेकिन इस रियासत के विधिवत् पहले राजा बदनसिंह थे, जिन्होंने इसको एक विशाल रियासत का पूर्ण रूप देकर अपनी सीमाओं का विस्तार किया।

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  • (39) सेनापति कीर्तिमल - लड़ाई में राणा सांगा का मुख्य सेनापति, जो राणा सांगा को घायल अवस्था में युद्धभूमि से खींचकर बाहर लाये तथा उनका ताज पहनकर लड़ते हुए शहीद हुए। ये वीर योद्धा धौलपुर के भम्भरोलिया गोत्री जाट थे।
  • (43) भीमसिंह राणा - जाटों की गोहद रियासत के राजा जिन्होंने ग्वालियर किले को फतेह किया- राणा इनकी उपाधि थी, गोत्र भम्भरोलिया था। इसी विजय को मध्यप्रदेश के जाट आज भी हर वर्ष राम नवमी के दिन एक विजय दिवस के रूप में मनाते हैं। ग्वालियर के चारों ओर जाटों की अनेक गढि़या हैं।
  • (44) छत्तरसिंह राणा - ग्वालियर के आखरी जाट राजा, भम्भरोलिया गोत्र के जाट थे। जाटों ने गवालियर पर सन् 1755 से 1785 तक शासन किया।

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  • (60) दयानल - रणधावा गोत्री जाट जिसने ‘खंदा’ (पंजाब) रियासत की स्थापना की।
  • (67) वीर कैलाश - बाजवा गोत्री जाट जिसने कैलाश बाजवा (पंजाब) रियासत की स्थापना की।

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  • (72) तीलोका - सिन्धु गोत्री जाट फूलसिंह का लड़का जिसके दो पुत्रों ने नाभा (पंजाब) व जीन्द (हरयाणा) रियासतों की स्थापना की। फूलसिंह के वंशजों ने ही नाभा, जीन्द और पटियाला रियासतों की स्थापना की, इसलिए ये फूलकिया रियासत कहलाई।
  • (75) बाबा आलासिंह - सिन्धु बराड़ गोत्री जाट जिसने ‘पटियाला’ रियासत की स्थापना की। नोटः- बराड़ गोत्र का निकास संधु, सिन्धु, सिधु व सिन्धड़ गोत्र से है। सिंधु गोत्र के 36 गांव हैं । रामपुरा फूल जिला भटिण्डा (पंजाब) में है।
  • (76) स्वामी केशवानन्द - ये राजस्थान के रहने वाले ढाका गोत्री जाट थे जो अत्यन्त गरीबी में पैदा हुए जिनके पास बचपन में पहनने के लिए जूते भी नहीं होते थे। इन्होंने अपने महान् तप और तपस्या से राजस्थान के संघरिया शिक्षण संस्थानों की नींव डाली। सन् 1927 में गुरु ग्रंथसाहिब का हिन्दी में अनुवाद करवाया तथा 1945 में सिक्ख इतिहास का हिन्दी में अनुवाद किया। राजस्थान में जाटों की शिक्षा की उन्नति में स्वामी जी का बड़ा हाथ है जिससे राजस्थान के जाट इनके बहुत ही ऋणी अनुभव करते हैं। जाट जाति को इन पर गर्व है।
  • (77) भरतपुर नरेश कृष्ण सिंह - ये अंग्रेजों के समय 26 अगस्त 1900 को भरतपुर रियासत के राज्याधिकारी बने जिन्होंने अपनी प्रजा के लिए अनेक सार्वजनिक कार्य किए। इन्हें हमारी जाट कौम से विशेष स्नेह था।
  • (78) जननायक राजा मानसिंह - राज मानसिंह एक जननायक कर्मठ और शेर-ए-दिल इंसान थे जिनकी निर्मम हत्या दिनांक 21 फरवरी 1985 को डींग की अनाज मण्डी में राजस्थान के मुख्यमन्त्री

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शिव चरण माथुर के हेलीकाप्टर को अपनी जीप से टक्कर मारकर तोड़ डालने के कारण की गई, जिसका कारण था चुनाव में इनके पोस्टर और बैनर फाड़ दिए गए थे।
  • (79) आला-उद्दल-मलखान - वत्स गोत्री जाट जिनके साथ युद्ध में पृथ्वीराज चौहान का पुत्र पारस मारा गया था।
  • (82) वीर कान्हा रावत - मेवात के रहने वाले रावत गोत्री जाट जो औरंगजेब के विरुद्ध लड़कर शहीद हुए। इस वीर जाट को औरंगजेब ने जिंदा जमीन में गड़वा दिया था जिनका इतिहास बहुत लम्बा है।
  • (83) क्रांतिकारी राजा महेन्द्रप्रताप - ठेनुवा गोत्री मुरसान (उ०प्र०) के जाट राजा जिसने देश की आजादी के लिए अपनी रियासत की बलि चढ़ा दी और 32 साल विदेशों में रहकर ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना करके आजादी का बिगुल बजाते रहे। आई.एन.ए. के वास्तविक संस्थापक वही थे, नेता जी इसके सेनापति थे तो राजा जी इसके राष्ट्रपति थे। लेकिन अफसोस है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र को छोड़कर जाट भी उनके बारे में नहीं जानते।
  • (85) वीर योद्धा पदमसिंह जाट - आई.एन.ए. में वीरता की सबसे बड़ी उपाधि ‘वीर-ए-हिन्द’ थी, जिसमें एकमात्र हिन्दू को यह उपाधि मिली बाकी दो मुसलमानधर्मी गैर जाट थे। नेता जी को इन पर बड़ा गर्व था।

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  • (91) ताना जाट - मलसूरा गोत्री जाट जिसने शिवाजी व उसके पुत्र सम्भाजी को औंरगजेब की जेल से मिठाई के टोकरों में बाहर निकाला।
  • (96) हीर-रांझा - दक्षिण एशिया के महान् जाटयुगल प्रेमी हुए जिसमें लड़की का नाम हीर तथा गोत्र ‘स्याल’ था, लड़के का नाम ढिढ़ो तथा गोत्र रांझा था।
  • (97) मिर्जा और साईबा - महान् प्रेमीयुगल हुए, जिसमें मिर्जा खरल गोत्री जाट तथा साईबा भराईच गोत्री जट्ट पुत्री थी।

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  • (100) भाई मनीसिंह - ‘दौलत’ गोत्री योद्धा। एक लेखक और शहीद जिन्होंने मौलिक ‘गुरुग्रंथ’ को लिपिबद्ध किया।
  • (101) भाई महताबसिंह - भंगू गोत्री वीर योद्धा जाट – जिसने स्वर्ण मन्दिर को अपवित्र करने वाले रांघड़ों से बदला लिया।
  • (102) राजा राव नैनसिंह - ये कश्यप गोत्री जाट थे, राव इनकी उपाधि थी। इनका छोटा सा व आखिरी राज 12वीं सदी में ब्यावर (राज.) के लहरीग्राम में था। जो आज रैबारी जाति का ग्राम है। ये चौ. संग्रामसिंह जिनके नाम पर सांगवान गोत्र का प्रचलन हुआ, के पिता थे। पहले इन कश्यप गोत्री जाटों का बड़ा पंचायती राज सारसू जांगल (राज.) पर था। राव व सांघा इन जाटों की उपाधि रही हैं। 14वीं सदी में चरखी दादरी (हरयाणा) क्षेत्र में आए।
  • (103) धौलपुर नरेश उदयभानुसिंह - इन्होंने दिल्ली के बिरला मन्दिर की नींव अपने करकमलों से सन् 1932 में रखी थी। इसका पत्थर मन्दिर के बायीं तरफ पार्क में लगा हुआ है।
  • (105) वीर नल्ह विजयराणिया - इतिहासकार लिखते हैं कि इनके पूर्वज सिकन्दर की सेना में भारत आये थे। ये स्वयं भी सिकन्दर के एक सेनापति थे। ये विजयराणा इनकी पदवी थी, इन्हीं के वंशज योद्धा जगतसिंह, वीरसिंह व देवराज आदि हुए। यह पदवी इनके गोत्र में बदल गई और आज गलत उच्चारण करके इन्हें लोग बिजाणियां बोलते हैं।
याद रहे सिकन्दर की सेना में काफी जाट थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमेशा जाट ही जाट से लड़ते रहे। जब सिकन्दर की सेना ने ब्यास से आगे बढ़ने से मना कर दिया तो सिकन्दर ने कहा था “मैं जाटों के साथ आगे बढ़ जाऊंगा”।

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  • (106) वीर खेमसिंह - भूखर गोत्री जाट, जिसका सांभर प्रदेश (राज.) पर राज था। इन्हीं के वंशज योद्धा उदयसिंह हुए।
  • (108) शेर जाट रणमल - इस योद्धा जाट ने जहां रणखंभ गाड़ा था वही बाद में राजस्थान में रणथम्भौर कहलाया। बाद में यह राज चौहान राजपूतों के हाथ चला गया।
  • (110) सरदार लाडसिंह - यह जाखड़ गोत्री जाट थे, जिन्होंने हरयाणा में लाडान गांव बसाया। ये योद्धा जाखड़ गोत्र के कुछ जाटों को राजस्थान से हरयाणा क्षेत्र में लाये।
  • (111) वीर बादल और गौरा - राणा रायमल के दो जाट सेनापति थे जिनके नाम पर चितौड़ में दो गुम्बजदार मकान हैं। ये चाचा भतीजे थे।
  • (115) वीर योद्धा पाखरिया - महाराजा जवाहरसिंह भरतपुर नरेश के सेनापति। खुटेल गोत्री जाट जिसने लाल किले के किवाड़ उतारकर भरतपुर पहुंचाये।

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सेनापति थे। इन्हीं के पूर्वजों ने उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर का निर्माण करवाया।
  • (118) योद्धा रामकी चाहर - चाहर गोत्री जाट, जिसने ब्रज क्षेत्र में मुगलों का छाया की तरह पीछा किया। मुगल औरतें अपने बच्चों को इनका नाम लेकर डराया करती थीं।
  • (120) राजा सरकटसिंह - शेखपुरा (पंजाब) के जाट राजा जो लड़ाई में दुश्मन का सिर काटने में माहिर थे, जिस कारण इनका नाम सरकटसिंह पड़ा।
  • (124) वीर शहीद हरबीर गुलिया - बादली (हरयाणा) के गुलिया गोत्री जाट योद्धा जिसने तैमूरलंग की छाती में भाला मारकर सख्त घायल किया। लेकिन स्वयं 52 घाव होने पर लड़ते हुए शहीद हुए।

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  • (133) बलराम जाट - रानी किशोरी का भाई, जो लाल किले की लड़ाई में किले के दरवाजों पर पीठ लगाकर हाथी से टक्कर मरवाकर शहीद हुए।
नोट - इस कुप्रथा के बारे में लोगों ने बहुत अनाप-शनाप लिखा ह। इसे ‘कलानौर का कोला पूजा प्रथा’ कहा जाता था। कोला का अर्थ है मुख्य दरवाजे के दोनों तरफ के हिस्से, जिसको वहां से गुजरनेवाली नई नवेली दुल्हन को नवाब की कोठी (गढ़ी) के दरवाजे के साथ दीपक जलाकर साथ पतासे रखकर दोनों तरफ कोलों पर पानी के छीटें मारकर पूजा करनी पड़ती थी। इसके अलावा जो बतलाते हैं कोरी बकवास है जिसके प्रमाण हैं। चौधरी सूरजमल सांगवान ने भी इसका पूरा सच्चा वर्णन अपनी पुस्तक ‘किसान संघर्ष और विद्रोह’ में किया है।

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सेनापति थे, जिसने कलानौर नवाबी का नाश किया। इनकी यादगार गांव गढ़टेकना (रोहतक) में बनी है।
  • (136) बीबी साहिबकौर - सरदार जाट गुलाबसिंह की पुत्री, जिसने सन् 1787 में राजगढ़ के मैदान में मराठों को लड़ाई में धूल चटाई।
  • (139) सम्राट् अवन्ती वर्मन - उत्पल गोत्री महान् सम्राट्, जिसने नौवीं सदी में सम्पूर्ण काश्मीर पर दृढ़ता से शासन किया तथा अवन्तीपुर शहर बसाया, जहां उसके बौद्ध मन्दिरों के खण्डरात आज भी मौजूद हैं।
  • (140) हरिसिंह नलवा - खत्री गोत्री जाट, जो महाराजा रणजीत सिंह के एक मुख्य सेनापति थे। कुछ इतिहासकारों ने इनको खत्री जाति का भी लिखा है।
  • (141) करणीराम जाट - झूंझनूं (राजस्थान) में अपनी जाति के लिए शहीद होने वाले पहले वकील।
  • (142) भूरा तथा निघाइया नम्बरदार - लजवाना (हरयाणा) गांव के दलाल गोत्री जाट, जिन्होंने राजा जीन्द से 6 महीने तक छापामार युद्ध किया।
  • (143) कर्नल दिलसुख - मान गोत्री जाट, जो आई.एन.ए. में नेता जी के साथ रहे, वरना ये इतने सीनियर थे कि ये भारतीय थल सेना के अध्यक्ष बन सकते थे।

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  • (148) कैप्टन भोला सिंह - हिन्दू डोगरा जाट, जो भारतीय सेना के प्रथम योद्धा जिन्हें ओ.बी.आई. (आर्डर आफ ब्रिटिश इण्डिया) का वीरता का पदक मिला जिनकी मूर्ति देवलाली आर्मी सैन्टर में लगी है। इन्हें जम्मू क्षेत्र के जाटों को जम्मू काश्मीर लाईट इन्फैन्टरी में स्थान दिलाने का श्रेय है।
सन् 1856 से लेकर सन् 1947 तक कुल 1346 सैनिकों को ‘विक्टोरिया क्रास’ मिला, इनमें 40 भारतीय थे और इनमें से 10 ‘विक्टोरिया क्रास’ जाटों के नाम हैं। नाम इस प्रकार हैं - 1-रिसलदार बदलूसिंह धनखड़ (पहले भारतीय जिनको यह पदक मिलाद), 2-सिपाही ईश्वर सिंह, 3-सूबेदेदार रिछपाल राम लाम्बा, 4-हवलदार प्रकाश सिंह, 5-हवलदार छैल्लूराम कोठारी, 6-नायक नन्दसिंह, 7-सिपाही कमलराम, 8-जमादार ज्ञानसिंह (इन्हें 1948 की लड़ाई में महावीर चक्र भी मिला था।) 9-कैप्टन परमजीत, 10-जमादार अब्दुल हमीज (यह प्रथम जाट बटालियन के थे. वैसे जाति से रांघड़ थे)।
  • (151) डा. रामधनसिंह - जिसने सबसे पहले गेहूं की नई नस्ल का आविष्कार किया, लेकिन नोबल पुरस्कार डा. बोरलंग ले उड़े।

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  • (152) डॉ. पी.एस. गिल - पहले भारतीय जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के समय अमेरिका की ‘एटम बम्ब मैनहैटन योजना’ में कार्य किया।
  • (153) कैप्टन भगवान सिंह - हिन्दू जाटों के पहले आई. सी. एस. अधिकारी थे। ये राजदूत भी रहे तथा कई वर्षों तक अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष भी थे।
  • (154) मेजर जनरल सूभेगसिंह - भंगू गोत्री जाट, भाई महताबसिंह के वंशज- जिन्होंने सन् 1984 के विद्रोह में सन्त जनरेलसिंह भिन्डरवाला का साथ दिया।
  • (155) ए.एस.चीमा - प्रथम भारतीय जो ‘माउंट एवेरेस्ट’ पर चढ़े।
  • (157) शेरसिंह ढिल्लों - ढिल्लों गोत्री जाट, जिन्होंने हिन्द महासागर को पैडल बोट से पार करने में विश्व रिकार्ड कायम किया।
  • (158) कृष्ण कुमार चहल - चहल गोत्री जाट, जिसने मैमोरी (यादगार) में सन् 2006 में विश्व रिकार्ड बनाया।
  • (159) नवीन गुलिया - गुलिया गोत्री जाट, जिसने शतप्रतिशत विकलांग होते हुए कार चलाने में विश्व रिकार्ड बनाया।
  • (161) साइना नेहवाल - नेहवाल गोत्री जट पुत्री, जो बैडमिंटन में विश्व में अब दूसरे स्थान पर है इन्हें भी ‘खेल रत्न’ से नवाजा गया है।


आज हम भारतवासी ओलम्पिक गोल्ड मैडल के लिए तरस रहे हैं जबकि जाटों के नाम पूरे 36 ओलिम्पिक गोल्ड मैडल हैं जिसमें उधमसिंह तथा बलवीर सीनियर के नाम तीन-तीन मैडल हैं। अभी हम कहेंगे कि ये तो हाकी खेल के गोल्ड मैडल हैं, तो क्या हाकी भारत का राष्ट्रीय खेल नहीं रहा है? आज भी दूसरे खेलों में जट पुत्रों का बड़ा नाम है। उदाहरण के लिए क्रिकेट में वीरेन्द्र सहवाग, आशीष नेहरा,

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युवराज, प्रवीण कुमारप्रदीप सांगवान तथा इसी प्रकार कुश्ती में बिजिंग ओलम्पिक कुश्ती से सुशील कुमार सौलंकी तथा विश्व कुश्ती में रमेश कुमार गुलिया मैडल लेकर आए हैं। अभी-अभी कुछ दिन पहले वर्ल्ड बाक्सिंग में भी दिनेश सांगवान मैडल लेकर आया है। कहने का अर्थ है कि जाटों ने सैकड़ों अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी दिये हैं (सूची उपलब्ध है)। अभी 2010 के कामनवैल्थ खेलों के लिए ब्राण्ड अम्बेस्डर बनाए तो 6 में से 3 जाट हैं। लेकिन जिस प्रकार जाटों के साथ भारत रत्न आदि अवार्ड में भेदभाव चला आ रहा है उसी क्रम में दिनांक 26 जनवरी 2009 को इन महान् खिलाडि़यों को छोड़ दिया गया, जिन्होंने भारत का नाम दुनिया में रोशन किया। जबकि नाचकूद करने वालों को पद्मश्री व पद्म-विभूषण से अलंकृत किया गया। जैसे कि अक्षय कुमार, ऐश्वर्य राय बच्चन आदि-आदि। अभी-अभी दिनांक 10-2-2009 को भारत का सबसे बड़ा सिविल सम्मान ‘भारत रत्न’ एक वादक, पं. भीमसेन जोशी को प्रदान किया गया। जबकि आज तक इनके वादक और सुर को कितने भारतीय सुनते और जानते हैं, यह सोच का विषय है?


विशेष सूचना - पाकिस्तान में वीरता की सबसे बड़ी उपाधि ‘निशान-ए-हैदर’ है जो आज तक केवल पाकिस्तान के दस सैनिकों को मिली है जिनमें से आठ जाट हैं। लेकिन भारत में वीरता का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ आज तक केवल 20 वीर सैनिकों को मिला, जिनमें केवल मात्र तीन जाट हैं। (हमारे पास भारत व पाकिस्तान के सभी जाट वीरों के नाम उपलब्ध हैं) (पुस्तकें - ‘सिक्ख इतिहास, जाट इतिहास व भारतीय इतिहास की अनेक पुस्तकें) तथा (Jattworld website)
हारा नहीं जाट रण में, तीर तोप तलवारों से।
हारा है जाट गद्दारों से और दरबारों से ॥

नोट-

  • 1. कई इतिहासकारों ने शहीद उधमसिंह को जाट जाति से लिखा है। वे कम्बोज जाति से थे।

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  • 2. स्थानीय जाटों से प्रार्थना है कि जहां भी संभव हो सम्बन्धित जगह पर हमारे इन वीर पूर्वजों की यादगार/ मूर्तियां लगवाएं ।

मल्लयुद्ध (कुश्ती) जाटों का अपना खेल

‘जाट तो जाट है लड़ाई हो या खेल,
जंग-ए-मैदान में दुश्मन को पछाड़ा तो प्रतिद्वंद्वी की बनाई रेल।।’

कुश्ती का जन्म भारत में प्राचीन हरयाणा क्षेत्र में हुआ, जिसके जन्मदाता जाट थे, इसे आज भारत में ‘फ्री स्टाइल’ कुश्ती का नाम दिया गया। लेकिन जब ये जाट यूरोप पहुंचे तो ये कुश्ती आधी ही रह गई अर्थात् टांगों का इस्तेमाल होना बन्द हो गया और इसे ‘ग्रीको रोमन’ नाम से जाना गया। इसी मल्लयुद्ध से कबड्डी का जन्म हुआ और यह खेल भी जाटों में उतना ही लोकप्रिय है जितनी कुश्ती। पिछले दिनों सन् 2006 में दोहा एशियाड में भारतीय कबड्डी टीम के पांच खिलाड़ी जाट थे। जिनमें सांगवान गोत्र के गांव आदमपुर ढाड़ी जिला भिवानी (हरयाणा) से विकास और सुखबीर दोनों चचेरे भाई एक साथ थे। इसी एशियाड में 25 जाट खिलाडि़यों के गले में तगमे पहनाए गए (पत्रिका जाट ज्योति) तथा पूरे एशिया में परचम लहराया। कई कबड्डी खिलाडि़यों को ‘अर्जुन अवार्ड’ से सम्मानित किया जा चुका है। जाट संसार के पूर्वी देशों में नहीं गये तो यह कुश्ती खेल वहाँ नहीं पनप पाया और इसकी नकल पर वहाँ सूमो, साम्बो, ज्मू-जित, जूड़ो व कराटे आदि खेलों ने जन्म लिया। यह जाटों का खेल रहा। इसके लिए विस्तार से न लिखते हुए इतना ही प्रमाण देना काफी होगा कि सन् 1961 से लेकर सन् 2000 तक भारत सरकार ने कुल 29 पहलवानों को ‘अर्जुन अवार्ड’ दिये, जिनमें 22 अवार्ड जाटों के नाम हैं अर्थात् 4 प्रतिशत लोगों के पास 75.9 प्रतिशत अवार्ड हैं। दारासिंह (रणधावा) तथा मा० चन्दगीराम (कालिरामण) का नाम तो आज लगभग हर शिक्षित भारतीय जानता है। सातवें दशक के प्रारम्भ में हवलदार उदयचन्द हल्के वजन के बहुत ही तेज और फुर्तीले पहलवान


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हुए जिनका ओलम्पिक खेलों में चौथा स्थान था और अभी हाल में ही सुशील कुमार सौलंकी ओलम्पिक से मैडल लेकर आया तो रमेश कुमार गुलिया ने सन् 2009 की विश्व कुश्ती प्रतिस्पर्धा में 46 साल के अकाल के बाद मैडल प्राप्त किया। जाटों के लगभग हर गांव में अच्छे पहलवान हैं। सेना और अर्धसेना बलों में एक से एक बढ़कर पहलवान हुए हैं जिसमें सी.आर.पी.एफ. के द्वितीय कमांड अधिकारी ईश्वर सिंह हिन्द केसरी व अन्तर्राष्ट्रीय पहलवान रहे। तथा इसी प्रकार मथुरा से शहीद दिवान सिंह डिप्टी कमांडैंट हिन्द केसरी तथा अन्तर्राष्ट्रीय रेफरी थे।


हजारों साल बाद आनेवाली पीढि़यों को विश्वास नहीं होगा कि कभी इस धरती पर कीकरसिंह, दारासिंह, चन्दगीराम, लीलाराम, सतपाल व करतारसिंह आदि जैसे भारी भरकम जाट इंसान भी थे। क्योंकि आज हमें विश्वास नहीं होता की रुस्तम जैसे 58 धड़ी वजनवाले जाट पहलवान इस धरती पर थे। यह पहलवान ईरान का रहनेवाला था जिसने भारत में रहकर पहलवानी का अभ्यास किया और संसार का एक महान् शक्तिशाली पहलवान हुआ, जिसके पिता जी का नाम जयलाल तथा दादा का नाम श्याम था, जिसका परिवार बाद में मुस्लिमधर्मी होगया। आज भी प्राचीन हरयाणा में एक कहावत प्रचलित है कि ‘‘इसा के तू राना सै’’ ये कहावत इसी रूस्तम पहलवान जो ईरान का रहनेवाला था को पहले ईराना कहा गया तथा समय आते ‘ई’ अक्षर लुप्त होगया और केवल ‘राना’ ही रह गया। इतिहासकारों ने ईरान को जाटों की दूसरी मां लिखा है। जाटनियां आपसी झगड़े के समय प्रायः ‘हिरकनी’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं जो ईरानी भाषा का शब्द है। दूसरा जाटों में, ऐसा के तूं टीरी खां सै कहने का आम प्रचलन है। ये टीरी खां मैसोपोटामिया (बेबीलोन) के एक महान् जाट बादशाह हुए जो युद्ध में कभी नहीं हारे और मुस्लिम धर्मी हो गए थे। इसका सम्बन्ध भी ईरान से ही है। (पुस्तकें - हमारे खेल, हरयाणा के वीर यौधेय, पंचायती इतिहास तथा, 'Play and learn wrestling' आदि-आदि)।


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प्रजातंत्र की जननी पंचायत और इसके जन्मदाता जाट थे

‘संसार के पंचों के पंच और उनके सरपंच जाट रहे।
पंचायत व प्रजातन्त्र के आदि-जनक भी जाट रहे॥’

यह बात किसी भी सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरती है और संसार में बिखरे जाटों के इतिहास से यह प्रमाणित है कि पंचायत प्रणाली जाटों की अपनी एक सोच, विचारधारा तथा इनकी अपनी एक पद्धति रही है। डा. एम.सी. प्रधान ने भी अपने शोध में माना है कि जाटों जैसी पंचायती पद्धति संसार में और कहीं नहीं रही। इसलिए प्राचीन भारत में जगह-जगह जाटों के पंचायती राज रहे। जिसे यौधेय राज भी कहा जाता है। इसी पंचायती प्रणाली से आज के प्रजातंत्र का यूरोप में जन्म हुआ, जिसके पीछे वहाँ जाटों का, विशेषकर मोर जाटों का भारी योगदान रहा है। जिन्हें वहाँ आज ‘मूर’ नाम से जाना जाता है। भारत में भी जाटों के राज हमेशा परोक्ष रूप से प्रजातांत्रिक राज थे, जिस बारे में विदेशी इतिहासकारों ने भी बार-बार टिप्पणियाँ लिखी हैं। महाराजा हर्षवर्धन का राज तो लगभग पूर्ण ही एक प्रजातांत्रिक राज था जहाँ राज के फैसले पंचायतों में लिये जाते थे। इसके अतिरिक्त ‘सर्वखाप पंचायत’ तथा इसका रिकार्ड स्वयं में एक प्रमाणित अध्याय है जिसमें इस पंचायत के पास अपराधी को दण्ड देने तथा अपनी सेना रखने तक का अपना अधिकार था, जिसका लिखित रूप में 7वीं सदी से सम्पूर्ण इतिहास उपलब्ध है। भारत के प्राचीनकाल में यौधेय गणतन्त्र तो प्रमुख रहे हैं, जो एक तरह से प्रजातान्त्रिक राज थे, जो अधिकतर जाटों के थे। उस समय तक यूरोप के प्रजातन्त्र का जन्म नहीं हुआ था, लेकिन बीच में फिर से भारत में ब्राह्मणवाद की वजह से एकतन्त्र का जन्म हो गया था। प्रख्यात विद्वान् तथा पत्रकार व लेखक सरदार खुशवन्त सिंह ने सिक्ख इतिहास में बड़ा जोर देकर लिखा है - पंचायत संस्था और प्रणाली जाटों की


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देन है। जाटों का हर गांव एक छोटे गणतन्त्र के समान है। पौराणिक ब्राह्मणवाद पंचायतों व प्रजातंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन रहा जो हमेशा अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए पुरोहितवाद की कुर्सी ढूंढ़ता रहा। इसी कारण जाट और राजपूत अलग करवाये तथा इन्होंने राजपूतों के रजवाड़ों में पनाह लेकर सलाहकार की भूमिका निभाई। जिन्होंने ब्राह्मणवाद की सलाह मानी वे राजपूत कहलाये और न माननेवाले जाट के जाट रह गये। लेकिन जाटों की इन प्राचीन संस्थाओं को मुगल और अंग्रेज भी कभी न छू पाए थे। आज भारत सरकार ने हमला बोल दिया है। (विद्वान् लार्ड ब्रेसी, विद्वान् हरबर्ट मैरीसन तथा "Democratic Civilization" by L. Lipsen, ‘पंचायती इतिहास’, ‘जाटों का उत्तरी भारत में पंचायती प्रशासन तथा सर्वखाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम’, ‘सिक्ख इतिहास’ आदि आदि) ।

सन् 1947 तक जाटों की रियासतें

15 अगस्त 1947 तक जाटों की निम्नलिखित रियासतें थीं -

(क) हिन्दू जाट रियासतें 
भरतपुर, धौलपुर, मुरसान, सहारनपुर, कुचेसर, उचागांव, पिसावा, मुरादाबाद, गोहद और जारखीबल्लभगढ़ व टप्पा राया को अंग्रेजों ने 1858 में जब्त किया तथा हाथरस को 1916 में।
(ख) जाट सिक्ख रियासतें 
पटियाला, नाभा, जीन्द, (फूलकिया रियासत) और फरीदकोट। इसके अतिरिक्त कैथल, बिलासपुर, अम्बाला, जगाधरी, नोरडा, मुबारिकपुर, कलसिया, भगोवाल, रांगर, खंदा, कोटकपूरा, सिरानवाली, बड़ाला, दयालगढ़/ममदूट तथा कैलाश बाजवा आदि को महाराजा रणजीतसिंह के राज में विलय किया तथा कुछ को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया।

अक्सर कहा जाता है कि जाट फूलकिया रियासतों ने सन् 1857 में अंग्रेजों का साथ दिया, जिसका कारण था दिल्ली का बादशाह बहादुरशाह जफर। क्योंकि इस लड़ाई में भारतीयों ने इन्हें नेता चुना था। लेकिन सिख


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इसलिए नाराज थे कि मुगलों ने सिख गुरुओं को बहुत सताया और शहीद किया, जिस कारण सिखों ने उनका साथ नहीं दिया। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान की भी ऐसी तीन रियासतें थी - बीकानेर, जयपुर तथा अलवर जिन्होंने अंग्रेजों की पूरी सहायता की। महाराजा सिंधिया और टेहरी में टीकमगढ़ के राजाओं ने अंग्रेजों की फौजों के लिए पूरा राशन-पानी का प्रबन्ध किया और जी भरकर चापलूसी की। यह तो इतिहासकारों व लेखकों पर निर्भर रहा है कि उनकी नीयत क्या थी। ‘हरयाणा की लोक संस्कृति’ नामक पुस्तक के लेखक डॉ. भारद्वाज अपनी पुस्तक, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा स्वीकृत है, में एक ही हरयाणवी कहावत लिखते हैं “जाट, जमाई, भाणजा, सुनार और रैबारी (ऊँटों के कतारिये) का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।” जबकि हरयाणा में तो ये भी कहावतें प्रचलित हैं “काल बागड़ से तथा बुराई ब्राह्मण से पैदा होती है”, दूसरी “ब्राह्मण भूखा भी बुरा तो धापा भी बुरा” तीसरी “ब्राह्मण खा मरे, तो जाट उठा मरे” अर्थात् ब्राह्मण खाकर मर सकता है और जाट बोझ उठाकर मर सकता है आदि-आदि। विद्वान् लेखक ने अपनी पुस्तक में दूसरी जातियों के सैंकड़ों गोत्रों का वर्णन भी किया है, कुम्हार जाति के भी 618 गोत्र लिखे हैं, लेकिन जाटों के 4800 गोत्रों में से केवल 22 गोत्र ही उनको याद रहे। “हरियाणा का इतिहास” के विद्वान् लेखक डा. के.सी. यादव अपनी पुस्तक में सिक्खों को बार-बार एक जाति लिखते हैं जबकि हम सभी जानते हैं कि सिक्ख जाति नहीं एक धर्म है। उनका लिखने का अभिप्राय सिक्ख जाटों को हिन्दू जाटों से अलग करने का प्रयास है। जबकि सभी जाटों का आपसी खूनी रिश्ता है और सभी सिक्ख जाट और हिन्दू राजाओं में आपसी रिश्तेदारियां रही हैं। बल्लभगढ़ नरेश नाहरसिंह फरीदकोट के राजा की लड़की से ब्याहे थे। मुरसान (उ.प्र.) नरेश महेन्द्र प्रताप जीन्द की राजकुमारी से तथा भरतपुर के नरेश कृष्ण सिंह फरीदकोट के राजा की छोटी बहन से ब्याहे थे। भरतपुर के अन्तिम नरेश बिजेन्द्र सिंह पटियाला की राजकुमारी से


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ब्याहे थे। पूर्व विदेश मन्त्री नटवरसिंह पटियाला रियासत के वंशज अमरेन्द्र सिंह की बहन से विवाहित हैं आदि-आदि। पंजाब के उग्रवाद तथा मीडिया के दुष्प्रचार ने हमारे आपसी रिश्तों पर कड़ा प्रहार किया है। इस प्रकार की पक्षपाती विचारधारा अनेक पुस्तकों में लिखी मिलेगी।

(ग) मुस्लिम जाट रियासत 
करनाल मण्ढ़ान गोत्र की मुस्लिम जाट रियासत थी जिसके अन्तिम नवाब लियाकत अली थे जिसको पंत ब्राह्मणों ने अपनी लड़की ब्याही तथा ये पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री बने। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री चौ. फिरोज खाँ नून गोत्री, चौ. सुजात हुसैन भराइच गोत्री तथा चौ. आरिफ नक्कई सिन्धु गोत्री जो सिक्ख मिसल के सरदार हीरासिंह के वंशज थे। राष्ट्रपति चौ. रफिक तरार - तरार गोत्री जाट थे। चौ. छोटूराम के समय संयुक्त पंजाब में उनकी जमींदारा पार्टी (यूनियनिष्ट) के दोनों ही मुख्यमंत्री (प्रीमियर) सर सिकन्दर हयात खाँ - चीमा गोत्री तथा खिजर हयात खाँ ‘तिवाना’ गोत्री जाट थे। पूर्व में पंजाब पाकिस्तान के मुख्यमंत्री चौ. परवेज इलाही भराईच गोत्री जाट हैं। चौ. छोटूराम के समय संयुक्त पंजाब के अन्तिम प्रीमियर चौ. खिजर हयात खां तिवाना के पोते ने हमें बतलाया कि वहां पाकिस्तान में जाट मुसलमान रिश्ते के समय आज भी अपने मां व बाप का गोत्र छोड़ते हैं। उन्होंने हमें पाकिस्तान में आने का न्यौता दिया कि पाकिस्तान में आकर उन जाटों की लाइब्रेरियां और उनके संगठन देखें। चौ. उमर रसूल करांची (पाकिस्तान) ने बतलाया कि पाकिस्तान का मुस्लिम जाट चौ. छोटूराम का आज भी उतना ही भक्त है जितना सन् 1945 से पहले था। उनके घरों में सरदार भगतसिंह, चौधरी छोटूराम के चित्र तथा डा. बी. एस. दहिया की पुस्तक The Jat Ancient Rulers के उर्दू अनुवाद का मिलना आम बात है। जबकि हमारे यहां जाटों के घरों में या तो किसी बाबा का चित्र मिलेगा जिसका परिवार ने नाम दान दे रखा है या किसी वर्तमान राजनेता के साथ चित्र या किन्हीं देवताओं का चित्र मिलेंगे। यदि

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आज कोई नेता किसी जाट के घर में आकर चाय या नाश्ता आदि ले लेता है तो उस घर वाले अपने को धन्य समझने लग जाते हैं। यही आज के हमारे जाट की पहचान रह गई है। (पुस्तक - सिख इतिहास, जाट इतिहास)

जाटों का ज़मीन पर जीवंत बिखरा पड़ा इतिहास

इतिहास पर शोध चलते रहते हैं और खोजी शिक्षार्थी पी. एच. डी. करते रहते हैं। पुरातत्त्व विभाग लाखों व करोड़ों रुपये खर्च करके जमीन की चीरफाड़ करता रहता है, जहां कभी जैन साधुओं की तो कभी महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ मिलती रहती हैं और फिर अनुमान पर ज्यादा जोर लगाया जाता है कि ये फलाँ युग व सन् की थी, जबकि ऐसा पाया जाने के पीछे पौराणिक ब्राह्मणवाद ही कारण है, जिसका विवरण कभी भी नहीं बतलाया जाता कि ये जमीन में इतनी नीचे कैसे पहुंच गई। जाटों का इतिहास जीवंत अवस्था में आज भी देश भर में फैला है, जिसकी कभी किसी इतिहासकार, पत्रकार व सरकार ने सुध नहीं ली। इसके यहाँ मैं तीन उदाहरण पेश कर रहा हूँ -

(1) दक्षिण में हैदराबाद के गोलकुण्डा किले को फतह करना औरंगजेब के लिए एक बड़ी चुनौती थी। इसके लिए उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। अन्त में उसने एक तोपखाना खड़ा करने तथा छापामार टुकड़ी बनाने का निर्णय लिया। लेकिन इसके लिए उसे दिलेर सैनिकों की आवश्यकता थी। जब उसने इसके लिए अपनी नजर दौड़ाई तो उसको दिल्ली तथा इसके आसपास केवल बहादुर जाट ही नजर आये और उसने इसके लिए जाटों से आह्वान किया। दिल्ली व उसके आसपास से इस उद्देश्य के लिए 700-800 जाटों की अलग से एक सेना बनाई। इस लड़ाई में जाटों ने चमत्कारिक बहादुरी दिखलाई और गोलकुण्डा किले को फतह कर लिया। गोलकुण्डा की स्थाई सुरक्षा तथा जीत की खुशी में औरंगजेब ने इन जाटों को हैदराबाद के पास मुफ्त में जमीन देकर उन्हें यहाँ बसाया। समय अपनी गति से चलता रहा, राज-रजवाड़े बदलते रहे


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और वहीं जमीन घटती रही, लेकिन जाट बढ़ते रहे और वह समय आ गया जब ये जाट छोटे किसान और मजदूर बनकर रह गये। आज यही जाट लगभग 50 हजार की जनसंख्या में हैदराबाद के रामदेवगुड़ा से नलगुण्डा तक लगभग 65 कि. मी. में फैले अपनी बहादुरी का इतिहास अपने सीने में छिपाये हैं और भारत सरकार व आन्ध्र प्रदेश की बेवफाई पर आंसू बहा रहे हैं। अभी-अभी की सरकार ने इनको पिछड़े वर्ग में शामिल किया है। इनके गोत्र हैं गुलिया, माथुर, खैनवार, नूनवार, जकोदिया, ब्यारे, हतीनजारदुर्वासा आदि। जैसे इनका रंग बदलता गया वैसे गोत्र भी, लेकिन जाट ‘Genes’ (रक्त) इनमें आज भी कायम है। श्रीमती रेणुका चौधरी पूर्व में केन्द्रीय मन्त्री इसी समाज से सम्बन्धित हैं। इन गोलकुण्डा विजेताओं के इतिहास को भूला दिया गया जबकि मुगलों के हिन्दू सेनापतियों का इतिहास पढ़ाया जा रहा है। इस समाज में पर्दाप्रथा नहीं है। आज इस जाट समाज के प्रधान दुर्वासा कासीराम सिंह हैं जिनका पता हैः- मकान नं. 9-5-106 गाँव - रामदवे गुड़ा व डॉक. - सिविल लाइन्स, हैदराबाद -31 (आन्ध्र प्रदेश) । सम्पूर्ण इतिहास इन्हीं से जानें।

(2) महम चौबीसी से तो हम सभी परिचित हैं, ये जाटों के 24 गाँवों की खाप है जिसमें सह-जातियाँ भी सम्मिलित होती हैं। लेकिन जाट बाईसी का नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा । जाट बाईसी पूरी ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। बम्बई से 180 कि. मी. दूर महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले की मालेगांव तहसील में जाटों के इकट्ठे छोटे-छोटे 22 गाँव हैं। पानीपत की तीसरी लड़ाई में पेशवा ब्राह्मण मराठे लगभग 4 हजार परिवार अपने साथ लाये थे। जब लड़ाई में इनकी हार हुई तो कुछ परिवार मारे गये और बचे-खुचे परिवारों ने भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल के राज क्षेत्र व किलों में पनहा ली थी। महाराजा सूरजमल ने कड़कती सर्दी (जनवरी 1761) में इनको पूरे अतिथि सत्कार के तहत घायलों आदि की देखभाल की तथा इन परिवारों को इनके घरों तक


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सकुशल पहुंचाने के लिए अपनी सेना के सिपाही साथ भेजे जो उन्हें बड़ी इज्जत और सम्मान के साथ वहाँ उनके घरों तक ले गये, जो उस समय किसी भी कल्पना से परे था। महाराजा सूरजमल और रानी किशोरी की शानदार मेहमानबाजी तथा इन सिपाहियों की जिन्दादिली इंसानियत पर मराठा समाज कायल हो गया और इस समाज ने ऐसे नेक सिपाहियों, जिनकी शादियां नहीं हुई थी, को अपनी बेटियां देकर अपनी जम़ीन पर बसाने का फैसला लिया। समय अपनी गति से चलता रहा और आज लगभग 250 वर्ष बाद इनके 22 गाँव आबाद हो गये जो आज किसानी करके अपना निर्वाह करते हैं। इनके साथ भी वही हुआ जो आन्ध्रप्रदेश के गोलकुण्डा किले के विजेताओं के साथ हुआ या हो रहा है। क्या विश्व के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा भी उदाहरण हैं? महाराजा सूरजमल की आलोचना करनेवालों के मुंह पर यह एक तमाचा है।

यहाँ के तोखड़ा गाँव में फिल्म अभिनेता व नेता धर्मेन्द्र जी ने अपनी माता सन्तकौर देवी के नाम हाई स्कूल बनवाया है। धर्मेन्द्र जी ने मुम्बई महानगर में पहली बार जाट सभा व जाट भवन की स्थापना की जिस पर जाट जाति को गर्व होना चाहिए। इन जाटों के गोत्र हैं - मान, जाखड़, सिहाग, सहरावत, दहिया, बिजानियां, झिंझर, नीमड़िया, पूनिया, गिल, बैनीवाल और सांगवान (70 परिवार) आदि, इस जाट बाईसी के वर्तमान में चौ. धनसिंह सहरावत प्रधान हैं जिनका पता हैं:- गाँव - नारादाना, डाकखाना - कलवाड़ी, तहसील - मालेगांव जिला नासिक (महाराष्ट्र राज्य) (एक शोध प्रयास - लेखक)।

(3) अभी सन् 2007 में पता चला है कि बिहार के कई जिलों में जैसे कि पटना, सहरसा, मधेपुरा, सुपौल, अररिया, कटिहार, पूर्णिया, गया, औरंगाबाद तथा भागलपुर जिलों में जाट बिखरे पड़े हैं। इनकी आबादी चौरासी गांवों में पाई जाती है, इन्हें ये चौरासी जाट कहते हैं। इनके प्रमुख गोत्र हैं-महलौत, चौपड़, खंगूरा, बालियाण, रावत, कुण्डल, भूरा, गेमर, मीठा आदि-आदि। ये जाट वहां प्राचीन समय से आबाद हैं।


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इनमें पर्दा रिवाज नहीं है। इन जाटों को वहां बिहार राज्य में पिछड़ी जाति का आरक्षण मिला हुआ है। पटना जिले के गांव चवरा में एक जाट विद्यालय भी है। 8 फरवरी 2009 को मेरठ में आयोजित जाट महासम्मेलन में बिहार से कुछ जाट आए हुए थे जिसमें वहां की जाट महासभा के प्रधान चौ० शिवप्रताप सिंह खंगूरा तथा महासचिव चौधरी उत्तमकुमार सिंह बालियान प्रमुख थे। जिनके फोन नं० क्रमशः 09934036873 तथा 09973013964 हैं।

नोट - देश के दूसरे हिस्सों में भी जाट हैं, जिन्हें जोड़ना शेष है। एक अनुमान के अनुसार भारत वर्ष में जाटों की वर्तमान में जनसंख्या इस प्रकार हैः-

1. राजस्थान - 1.20 करोड़

2. पंजाब - 85 लाख

3. उत्तरप्रदेश - 80 लाख

4. हरयाणा - 75 लाख

5. दिल्ली - 16 लाख

6. मध्यप्रदेश - 8 लाख

7. गुजरात - 8 लाख

8. जम्मू-काश्मीर - 7 लाख

9. उत्तरांचल - 2.5 लाख

10. हिमाचल - 1.5 लाख

11. आन्ध्र प्रदेश - 50 हजार

12. महाराष्ट्र - 50 हजार

13. बिहार - 1 लाख।

(मुम्बई को छोड़कर) कुल योग - 4,02,00,000


लेकिन जाटों से छिटक कर दूसरी जातियां बन गई, को मिलाने से भारत में लगभग 7-8 करोड़ जाट होंगे। राजस्थान में बिश्नोई जाटों को मिलाकर जाटों की कुल संख्या राजपूतों से दोगुनी है। इसलिए राजस्थान को राजपूताना कहना अनुचित है। इसे जाटिस्तान या जटवाड़ा कहना चाहिए। इसी प्रकार झुंझनू को शेखावाटी क्षेत्र कहना अनुचित है इसे जटवाटी क्षेत्र कहना चाहिए। वैसे भी शेखावाटी से पहले इसे नेहरावाटी कहा जाता था। मैं आज इस लेख में दावे से लिख रहा हूं कि राजस्थान का जाट इसी सदी में शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा तरक्की करके फिर से अपना खोया हुआ प्राचीन गौरव प्राप्त करेगा। क्योंकि इतिहास अपने


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को दोहराता है। दूसरा जाट जितना कटा है उतना बढ़ा भी है।


जाट लोग निम्नलिखित देशों में निवास करते हैं:- 1. भारत, 2- पाकिस्तान, 3 - चीन, 4 - अफगानिस्तान, 5 - तुर्की, 6- अजबेकिस्तान, 7- कजाकिस्तान, 8- ईरान, 9- ईराक, 10- ग्रीस, 11-मिश्र, 12- अर्मेनिया, 13- जोर्जिया, 14- सऊदी अरब, 15- लिबिया, 16- अलजिरिया, 17- मराको, 18- रोमानिया, 19- स्वीडन, 20- जर्मनी, 21- इटली, 22- इंग्लैण्ड, 23- तिब्बत, 24- साईबेरिया, 25- बेलारूस। (इसके अतिरिक्त यूरोप के कई और देश भी हैं।)

भाषा व उच्चारण भेद के कारण इनको अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। जैसे कि जट्ट - जाट - जत - जोत - गोत - गोथ - गाथ - जिट - जटी आदि आदि।

यह उच्चारण के भेद के कारण है। उदाहरण के लिए हिन्दी के शब्द ‘कहां’ को हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र में ‘कठै’, रोहतक क्षेत्र में ‘कड़ै़’, भिवानी क्षेत्र में ‘कित’ हिसार क्षेत्र में ‘कड़ियां’ बोला जाता है। इसी शब्द को पंजाब में ‘किथै’ तो डोगरी में ‘कुत्थे’ बोलते हैं। हम हरयाणा में चारपाई को खाट कहते हैं तो पंजाब और जम्मू क्षेत्र में ‘खट्ट’ बोला जाता है। हम जाट कहते हैं तो पंजाब, हिमाचल व जम्मू क्षेत्र में इसे जट्ट बोला जाता है। हमारे इसी शब्द को शेष उत्तर भारत में जाट बोला जाता है। हरयाणा के पलवल क्षेत्र में जाट के लिए ‘जाट्टन’ शब्द का प्रयोग होता है। पूरे भारतवर्ष में जाट अपनी जाटू भाषा ही बोलते हैं। अन्तर केवल उच्चारण का है। हमारे देश के उत्तरी पूर्वी राज्यों में ट की जगह त का इस्तेमाल होता है। ये लोग ‘ट्रेन’ को ‘त्रेन’ बोलते हैं। इसी प्रकार बिहार के मैथिली क्षेत्र में ‘ड़’ की जगह ‘र’ का इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में ‘ज’ की जगह ‘श’ का इस्तेमाल होता है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं।


सन् 1989 के एक अध्ययन के आधार पर संसार में जाटों की जनसंख्या 45 करोड़ थी। जाटों की जनसंख्या देश और विदेश में कितनी


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है इसका सिरे से अनुसंधान करने की आवश्यकता है। जाट ऊपरलिखित इन सभी देशों में हैं, का प्रमाण निम्नलिखित विदेशी इतिहासकारों की इतिहास पुस्तकों व ग्रन्थों में उपलब्ध है -

1- यूनानी इतिहासकार यूसीडीइडस, 2- यूनानी इतिहासकार हैरोटोडस, 3- यूनानी लेखक स्ट्रैबो, 4- परशिया इतिहास के लेखक कनिघम, 5- अरबी ग्रन्थ तिरमिजी अबवाबुल इम्पाल, 6- सूलेमान नदवी का अरबी ग्रन्थ ‘तारीखे तबरी’, 7- स्कैंडिनेविया की धर्म पुस्तक ‘एड्डा’, 8-चीन के इतिहासकार डिगियान आदि-आदि। (पुस्तक - जाट इतिहास व सिक्ख इतिहास का अध्ययन) ।

विदेशी तथा स्वदेशी इतिहासकारों व विद्वानों का जाटों के बारे में क्या कहना है?

स्वयं को महान् कहने से कोई महान् नहीं बनता । महान् किसी भी व्यक्ति व कौम को उसके महान् कारनामे बनाते हैं और उन कारनामों को दूसरे लोगों को देर-सवेर स्वीकार करना ही पड़ता है। देव-संहिता को लिखने वाला कोई जाट नहीं था, बल्कि एक ब्राह्मणवादी था जिसके हृदय में इन्सानियत थी उसने इस सच्चाई को अपने हृदय की गहराई से शंकर और पार्वती के संवाद के रूप में बयान किया कि जब पार्वती ने शंकर जी से पूछा कि ये जाट कौन हैं, तो शंकर जी ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया -

महाबला महावीर्या महासत्यपराक्रमाः |

सर्वांगे क्षत्रिया जट्टा देवकल्पा दृढ़व्रताः ||15||

(देव संहिता)


अर्थात् - जाट महाबली, अत्यन्त वीर्यवान् और प्रचण्ड पराक्रमी हैं । सभी क्षत्रियों में यही जाति सबसे पहले पृथ्वी पर शासक हुई । ये देवताओं की भांति दृढ़ निश्चयवाले हैं ।

इसके अतिरिक्त विदेशी व स्वदेशी विद्वानों व महान् कहलाए जाने वाले महापुरुषों की जाट कौम के प्रति समय-समय पर दी गई


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अपनी राय और टिप्पणियां हैं जिन्हें कई पुस्तकों से संग्रह किया गया है लेकिन अधिकतर टिप्पणियां अंग्रेजी की पुस्तक हिस्ट्री एण्ड स्टडी ऑफ दी जाट्स से ली गई है जो कनाडावासी प्रो० बी.एस. ढ़िल्लों ने विदेशी पुस्तकालयों की सहायता लेकर लिखी है -


  • 1. इतिहासकार मिस्टर स्मिथ - राजा जयपाल एक महान् जाट राजा थे । इन्हीं का बेटा आनन्दपाल हुआ जिनके बेटे सुखपाल राजा हुए जिन्होंने मुस्लिम धर्म अपनाया और ‘नवासशाह’ कहलाये । (यही शाह मुस्लिम जाटों में एक पदवी प्रचलित हुई । भटिण्डाअफगानिस्तान का शाह राज घराना इन्हीं के वंशज हैं - लेखक) ।


  • 2. बंगला विश्वकोष - पूर्व सिंध देश में जाट गणेर प्रभुत्व थी । अर्थात् सिंध देश में जाटों का राज था ।


  • 3. अरबी ग्रंथ सलासीलातुत तवारिख - भारत के नरेशों में जाट बल्हारा नरेश सर्वोच्च था । इसी सम्राट् से जाटों में बल्हारा गोत्र प्रचलित हुआ - लेखक ।


  • 4. स्कैंडनेविया की धार्मिक पुस्तक एड्डा - यहां के आदि निवासी जाट (जिट्स) पहले आर्य कहे जाते थे जो असीगढ़ के निवासी थे ।


  • 5. यात्री अल बेरूनी - इतिहासकार - मथुरा में वासुदेव से कंस की बहन से कृष्ण का जन्म हुआ । यह परिवार जाट था और गाय पालने का कार्य करता था ।


  • 6. लेखक राजा लक्ष्मणसिंह - यह प्रमाणित सत्य है कि भरतपुर के जाट कृष्ण के वंशज हैं ।


इतिहास के संक्षिप्त अध्ययन से मेरा मानना है कि कालान्तर में यादव अपने को जाट कहलाये जिनमें एकजुट होकर लड़ने और काम करने की प्रवृत्ति थी और अहीर जाति का एक बड़ा भाग अपने को यादव कहने लगा । आज भी भारत में बहुत अहीर हैं जो अपने को यादव नहीं मानते और गवालावंशी मानते हैं ।


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  • 7. मिस्टर नैसफिल्ड - The Word Jat is nothing more than modern Hindi Pronunciation of Yadu or Jadu the tribe in which Krishna was born. अर्थात् जाट कुछ और नहीं है बल्कि आधुनिक हिन्दी यादू-जादु शब्द का उच्चारण है, जिस कबीले में श्रीकृष्ण पैदा हुए।


दूसरा बड़ा प्रमाण है कि कृष्ण जी के गांव नन्दगांव व वृन्दावन आज भी जाटों के गांव हैं । ये सबसे बड़ा भौगोलिक और सामाजिक प्रमाण है । (इस सच्चाई को लेखक ने स्वयं वहां जाकर ज्ञात किया ।)


  • 8. इतिहासकार डॉ० रणजीतसिंह - जाट तो उन योद्धाओं के वंशज हैं जो एक हाथ में रोटी और दूसरे हाथ में शत्रु का खून से सना हुआ मुण्ड थामते रहे ।


  • 9. इतिहासकार डॉ० धर्मचन्द्र विद्यालंकार - आज जाटों का दुर्भाग्य है कि सारे संसार की संस्कृति को झकझोर कर देने वाले जाट आज अपनी ही संस्कृति को भूल रहे हैं ।


  • 10. इतिहासकार डॉ० गिरीशचन्द्र द्विवेदी - मेरा निष्कर्ष है कि जाट संभवतः प्राचीन सिंध तथा पंजाब के वैदिक वंशज प्रसिद्ध लोकतान्त्रिक लोगों की संतान हैं । ये लोग महाभारत के युद्ध में भी विख्यात थे और आज भी हैं ।


  • 11. स्वामी दयानन्द महाराज आर्यसमाज के संस्थापक ने जाट को जाट देवता कहकर अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में सम्बोधन किया है । देवता का अर्थ है देनेवाला । उन्होंने कहा कि संसार में जाट जैसे पुरुष हों तो ठग रोने लग जाएं ।


  • 12. प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ तथा हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस के संस्थापक महामहिम मदन मोहन मालवीय ने कहा - जाट जाति हमारे राष्ट्र की रीढ़ है । भारत माता को इस वीरजाति से बड़ी आशाएँ हैं । भारत का भविष्य जाट जाति पर निर्भर है ।

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  • 13. दीनबन्धु सर छोटूराम ने कहा - हे ईश्वर, जब भी कभी मुझे दोबारा से इंसान जाति में जन्म दे तो मुझे इसी महान् जाट जाति के जाट के घर जन्म देना ।


  • 14. मुस्लिमों के पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने कहा - ये बहादुर जाट हवा का रुख देख लड़ाई का रुख पलट देते हैं । (सलमान सेनापतियों ने भी इनकी खूब प्रतिष्ठा की इसका वर्णन मुसलमानों की धर्मपुस्तक हदीस में भी है - लेखक) ।


  • 15. हिटलर (जो स्वयं एक जाट थे), ने कहा - मेरे शरीर में शुद्ध आर्य नस्ल का खून बहता है । (ये वही जाट थे जो वैदिक संस्कृति के स्वस्तिक चिन्ह (卐) को जर्मनी ले गये थे - लेखक)।


(i): उत्तरी भारत में आज जो जाट किसान खेती करते पाये जाते हैं ये उन्हीं जाटों के वंशज हैं जिन्होंने एक समय मध्य एशिया और यूरोप को हिलाकर रख दिया था ।

(ii): राजस्थान में राजपूतों का राज आने से पहले जाटों का राज था ।

(iii): युद्ध के मैदान में जाटों को अंग्रेज पराजित नहीं कर सके ।

(iv): ईसा से 500 वर्ष पूर्व जाटों के नेता ओडिन ने स्कैण्डेनेविया में प्रवेश किया।

(v): एक समय राजपूत जाटों को खिराज (टैक्स) देते थे ।


(i) There was no nation in the world equal to the jats in bravery provided they had unity अर्थात्- संसार में जाटों जैसा बहादुर कोई नहीं बशर्ते इनमें एकता हो । (यह इस प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार ने लगभग 2500 वर्ष पूर्व में कहा था । इन दो लाइनों में बहुत कुछ है । पाठक कृपया इसे फिर एक बार पढें । यह जाटों के लिए मूलमंत्र भी है – लेखक )


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(ii) जाट बहादुर रानी तोमरिश ने प्रशिया के महान राजा सायरस को धूल चटाई थी ।

(iii) जाटों ने कभी निहत्थों पर वार नहीं किया ।


  • 18. महान् सम्राट् सिकन्दर जब जाटों के बार-बार आक्रमणों से तंग आकर वापिस लौटने लगे तो कहा- इन खतरनाक जाटों से बचो ।


  • 19. एक पम्पोनियस नाम के प्राचीन इतिहासकार ने कहा - जाट युद्ध तथा शत्रु की हत्या से प्यार करते हैं ।


  • 20. हमलावर तैमूरलंग ने कहा - जाट एक बहुत ही ताकतवर जाति है, शत्रु पर टिड्डियों की तरह टूट पड़ती है, इन्होंने मुसलमानों के हृदय में भय उत्पन्न कर दिया।


  • 21. हमलावर अहमदशाह अब्दाली ने कहा - जितनी बार मैंने भारत पर आक्रमण किया, पंजाब में खतरनाक जाटों ने मेरा मुकाबला किया । आगरा, मथुराभरतपुर के जाट तो नुकीले काटों की तरह हैं ।


  • 22. एक प्रसिद्ध अंग्रेज मि. नेशफील्ड ने कहा - जाट एक बुद्धिमान् और ईमानदार जाति है ।


  • 23. इतिहासकार सी.वी. वैद ने लिखा है - जाट जाति ने अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति को अभी तक कायम रखा है । (जाटों को इस प्रवृत्ति को छोड़ना भी नहीं चाहिए, यही भविष्य में बुरे वक्त में काम भी आयेगी - लेखक)


  • 24. भारतीय इतिहासकार शिवदास गुप्ता - जाटों ने तिब्बत,यूनान, अरब, ईरान, तुर्कीस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनोविया, इंग्लैंड, ग्रीक, रोममिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज किया । और वहाँ की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था । (प्राचीन भारत के उपनिवेश पत्रिका अंक 4.5 1976)


  • 25. महर्षि पाणिनि के धातुपाठ (अष्टाध्यायी) में - जट झट संघाते - अर्थात्

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जाट जल्दी से संघ बनाते हैं । (प्राचीनकाल में खेती व लड़ाई का कार्य अकेले व्यक्ति का कार्य नहीं था इसलिए यह जाटों का एक स्वाभाविक गुण बन गया - लेखक)


  • 26. चान्द्र व्याकरण में - अजयज्जट्टो हूणान् अर्थात् जाटों ने हूणों पर विजय पाई ।


  • 27. महर्षि यास्क - निरुक्त में - जागर्ति इति जाट्यम् - जो जागरूक होते हैं वे जाट कहलाते हैं ।

जटायते इति जाट्यम् - जो जटांए रखते हैं वे जाट कहलाते हैं ।


  • 28. अंग्रेजी पुस्तक Rise of Islam - गणित में शून्य का प्रयोग जाट ही अरब से यूरोप लाये थे । यूरोप के स्पेन तथा इटली की संस्कृति मोर जाटों की देन थी ।


  • 29. अंग्रेजी पुस्तक Rise of Christianity - यूरोप के चर्च नियमों में जितने भी सुधार हुए वे सभी मोर जाटों के कथोलिक धर्म अपनाये जाने के बाद हुए, जैसे कि पहले विधवा को पुनः विवाह करने की अनुमति नहीं थी आदि-आदि । मोर जाटों को आज यूरोप में ‘मूर बोला जाता है – लेखक ।


  • 30. दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार पर जर्मन जनरल रोमेल ने कहा- काश, जाट सेना मेरे साथ होती । (वैसे जाट उनके साथ भी थे, लेकिन सहयोगी देशों की सेना की तुलना में बहुत कम थे

- लेखक)


  • 31. सुप्रसिद्ध अंग्रेज योद्धा जनरल एफ.एस. यांग - जाट सच्चे क्षत्रिय हैं । ये बहादुरी के साथ-साथ सच्चे, ईमानदार और बात के धनी हैं ।




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कहा- मुझे पूरा अभिमान है कि मेरा जन्म उस महान् जाट जाति में हुआ जो सदा बहादुर, उन्नत एवं उदार विचारों वाली है । मैं अपनी प्यारी जाति की जितनी भी सेवा करूँगा उतना ही मुझे सच्चा आनन्द आयेगा ।

  • 34. डॉ. विटरेशन ने कहा - जाटों में चालाकी और धूर्तता,योग्यता की अपेक्षा बहुत कम होती है ।


  • 35. मेजर जनरल सर जॉन स्टॉन (मणिपुर रजिडेंट) ने अपने एक जाट रक्षक के बारे में कहा था - ये जाट लोग पता नहीं किस मिट्टी से बने हैं, थकना तो जानते ही नहीं ।


  • 36. अंग्रेज हर प्रकार की कोशिशों के बावजूद चार महीने लड़ाई लड़कर भी भरतपुर को विजय नहीं कर पाये तो लार्ड लेकेक ने लिखा है - हमारी स्थिति यह है कि मार करने वाली सभी तोपें बेकार हो गई हैं और भारी गोलियाँ पूर्णतः समाप्त हो गई हैं । हमारे एक तिहाई अधिकारी व सैनिक मारे जा चुके हैं । जाटों को जीतना असम्भव लगता है ।

उस समय वहाँ की जनता में यह दोहा गाया जाता था-


यही भरतपुर दुर्ग है, दूसह दीह भयंकार |

जहाँ जटन के छोकरे, दीह सुभट पछार ||


  • 37. बूंदी रियासत के महाकवि ने महाराजा सूरजमल के बारे में एक बार यह दोहा गाया था -

सहयो भले ही जटनी जाय अरिष्ट अरिष्ट |

जापर तस रविमल्ल हुवे आमेरन को इष्ट ||

अर्थात् जाटनी की प्रसव पीड़ा बेकार नहीं गई, उसने ऐसे प्रतापी राजा तक को जन्म दिया जिसने आमेर व जयपुर वालों की भी रक्षा की (यह बात महाराजा सूरजमल के बारे में कही गई थी जब उन्होंने आमेर व जयपुर राजपूत राजाओं की रक्षा की) ।


  • 38. इतिहासकार डॉ० जे. एन. सरकार ने सूरजमल के बारे में लिखा है - यह जाटवंश का अफलातून राजा था ।

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  • 39. इतिहासकार डी.सी. वर्मा:- महाराजा सूरजमल जाटों के प्लेटो थे।


  • 40. बादशाह आलमगीर द्वितीय ने महाराजा सूरजमल के बारे में अब्दाली को लिखा था - जाट जाति जो भारत में रहती है, वह और उसका राजा इतना शक्तिशाली हो गया है कि उसकी खुली खुलती है और बंधी बंधती है ।


  • 41. कर्नल अल्कोट - हमें यह कहने का अधिकार है कि 4000 ईसा पूर्व भारत से आने वाले जाटों ने ही मिश्र (इजिप्ट) का निर्माण किया ।


  • 42. यूरोपीयन इतिहासकार मि० टसीटस ने लिखा है - जर्मन लोगों को प्रातः उठकर स्नान करने की आदत जाटों ने डाली । घोड़ों की पूजा भी जाटों ने स्थानीय जर्मन लोगों को सिखलाई । घोड़ों की सवारी जाटों की मनपसंद सवारी है ।


  • 43. तैमूर लंग - घोड़े के बगैर जाट, बगैर शक्ति का हो जाता है । (हमें याद है आज से लगभग 50 वर्ष पहले तक हर गाँव में अनेक घोडे, घोड़ियाँ जाटों के घरों में होती थीं । अब भी पंजाब व हरयाणा में जाटों के अपने घोड़े पालने के फार्म हैं - लेखक)


  • 44. भारतीय सेना के ले० जनरल के. पी. कैण्डेय ने सन् 1971 के युद्ध के बाद कहा था - अगर जाट न होते तो फाजिल्का का भारत के मानचित्र में नामोनिशान न रहता ।


  • 45. इसी लड़ाई (सन् 1971) के बाद एक पाकिस्तानी मेजर जनरल ने कहा था - चौथी जाट बटालियन का आक्रमण भयंकर था जिसे रोकना उसकी सेना के बस की बात नहीं रही । (पूर्व कप्तान हवासिंह डागर गांव कमोद जिला भिवानी (हरयाणा) जो 4 बटालियन की इस लड़ाई में थे, ने बतलाया कि लड़ाई से पहले बटालियन कमाण्डर ने भरतपुर के जाटों का इतिहास दोहराया था जिसमें जाट मुगलों का

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सिहांसन और लाल किले के किवाड़ तक उखाड़ ले गये थे । पाकिस्तानी अफसर मेजर जनरल मुकीम खान पाकिस्तानी दसवें डिवीजन के कमांडर थे ।)


  • 46. भूतपूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन ने जाट सेण्टर बरेली में भाषण दिया - जाटों का इतिहास भारत का इतिहास है और जाट रेजिमेंट का इतिहास भारतीय सेना का इतिहास है । पश्चिम में फ्रांस से पूर्व में चीन तक ‘जाट बलवान्-जय भगवान्’ का रणघोष गूंजता रहा है ।


  • 47. विख्यात पत्रकार खुशवन्तसिंह ने लिखा है - (i) "The Jat was born worker and warrior. He tilled his land with his sword girded round his waist. He fought more battles for the defence for his homestead than other Khashtriyas" अर्थात् जाट जन्म से ही कर्मयोगी तथा लड़ाकू रहा है जो हल चलाते समय अपनी कमर से तलवार बांध कर रखता था। किसी भी अन्य क्षत्रिय से उसने मातृभूमि की ज्यादा रक्षा की है । (ii) पंचायती संस्था जाटों की देन है और हर जाटों का गांव एक छोटा गणतन्त्र है ।


  • 48. जब 25 दिसम्बर 1763 को जाट प्रतापी राजा सूरजमल शाहदरा में धोखे से मारे गये तो मुगलों को विश्वास ही नहीं हुआ और बादशाह शाहआलम द्वितीय ने कहा - जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो जाये । (यह बात विद्वान् कुर्क ने भी कही थी ।)


  • 49. टी.वी History Channel ने एक दिन द्वितीय विश्वयुद्ध के इतिहास को दोहराते हुए दिखलाया था कि जब सन् 1943 में फ्रांस पर जर्मनी का कब्जा था तो जुलाई 1943 में सहयोगी सेनाओं ने फ्रांस में जर्मन सेना पर जबरदस्त हमला बोल दिया तो जर्मन सेना के पैर उखड़ने लगे । एक जर्मन एरिया कमांडर ने अपने सैट से अपने बड़े अधिकारी को यह संदेश भेजा कि ज्यादा से ज्यादा गुट्ठा सैनिकों की टुकड़ियाँ भेजो । जब उसे यह मदद नहीं मिली तो वह अपनी गिरफ्तारी के डर में स्वास्तिक

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निशानवाले झण्डे को सेल्यूट करके स्वयं को गोली मार लेता है । याद रहे जर्मनी में जाटों को गुट्टा के उच्चारण से ही बोला जाता है । - (लेखक)


  • 50. एक बार अलाउद्दीन ने देहली के कोतवाल से कहा था - इन जाटों को नहीं छेड़ना चाहिए । ये बहादुर लोग ततैये के छत्ते की तरह हैं, एक बार छिड़ने पर पीछा नहीं छोड़ते हैं ।


  • 51. इतिहासकार मो० इलियट ने लिखा है - जाट वीर जाति सदैव से एकतंत्री शासन सत्ता की विरोधी रही है तथा ये प्रजातंत्री हैं ।


  • 52. संत कवि गरीबदास - जाट सोई पांचों झटकै, खासी मन ज्यों निशदिन अटकै । (जो पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, बुरे संकल्पों से दूर रहकर भक्ति करे, वास्तव में जाट है ।


  • 53. महान् इतिहासकार कालिकारंजन कानूनगो -
(क) एक जाट वही करता है जो वह ठीक समझता है । (इसी कारण जाट अधिकारियों को अपने उच्च अधिकारियों से अनबन का सामना करना पड़ता है - लेखक)
(ख) जाट एक ऐसी जाति है जो इतनी अधिक व्यापक और संख्या की दृष्टि से इतनी अधिक है कि उसे एक राष्ट्र की संज्ञा प्रदान की जा सकती है ।
(ग) ऐतिहासिक काल से जाट बिरादरी हिन्दू समाज के अत्याचारों से भागकर निकलने वाले लोगों को शरण देती आई, उसने दलितों और अछूतों को ऊपर उठाया है । उनको समाज में सम्मानित स्थान प्रदान कराया है। (लेकिन ब्राह्मणवाद तो यह प्रचार करता रहा कि शूद्र वर्ग का शोषण जाटों ने किया - लेखक)
(घ) हिन्दुओं की तीनों बड़ी जातियों में जाट कौम वर्तमान में सबसे बेहतर पुराने आर्य हैं।



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फ्रांस एवं जर्मनी की भूमि पर बाहदुरी दिखाकर सिद्ध किया कि जाट महान् क्षत्रिय हैं ।


  • 55. पं० इन्द्र विद्यावाचस्पति- जाटों को प्रेम से वश में करना जैसा सरल है, आँख दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है ।


  • 56. कवि शिवकुमार प्रेमी -

जाट जाट को मारता यही है भारी खोट ||

ये सारे मिल जायें तो अजेय इनका कोट ||

(कोट का अर्थ किला)

इसीलिए तो कहा जाता है - जाटड़ा और काटड़ा अपने को मारता है । (लेखक)


  • 57. विद्वान् विलियम क्रूक -

(i) जाट विभिन्न धार्मिक संगठनों व मतों के अनुयायी होने पर भी जातीय अभिमान से ओतप्रोत हैं । भूमि के सफल जोता, क्रान्तिकारी, मेहनती जमीदार तथा युद्ध योद्धा हैं ।

(इसीलिए तो जाटों या जट्टों के लड़के अपनी गाड़ियों के पीछे लिखवाते हैं - ‘जट्ट दी गड्डी’, ‘जाट की सवारी’ ‘जहाँ जाट वहाँ ठाठ’, ‘जाट के ठाठ’ तथा ‘Jat Boy’ आदि-आदि - लेखक ।


(ii) स्पेन, गाल, जटलैण्ड, स्काटलैण्ड और रोम पर जाटों ने फतेह कर बस्तियां बसाई ।


  • 58. विद्वान् ए.एच. बिगले - जाट शब्द की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है । यह ऋग्वेद, पुराण और मनुस्मृति आदि अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों से स्वतः सिद्ध है । यह तो वह वृक्ष है जिससे समय-समय पर जातियों की उत्पनि हुई ।


  • 59. विद्वान् कनिंघम - प्रायः देखा गया है कि जाट के मुकाबले राजपूत विलासप्रिय, भूस्वामी गुजर और मीणा सुस्त अथवा गरीब, कास्तकार तथा पशुपालन के स्वाभाविक शोकीन, पशु चराने में सिद्धहस्त हैं, जबकि जाट मेहनती जमीदार तथा पशुपालक हैं ।

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  • 60. विख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार - जाट समाज में जाटनियां परिश्रम करना अपना राष्ट्रीय धर्म समझती हैं, इसलिए वे सदैव जाटों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य करती हैं । वे आलसी जीवन के प्रति मोह नहीं रखती ।


  • 61. प्राचीन इतिहासकार मनूची - जाटनियां राजनैतिक रंगमंच पर समान रूप से उत्तरदायित्व निभाती हैं । खेत में व रणक्षेत्र में अपने पति का साथ देती हैं और आपातकाल के समय अपने धर्म की रक्षा में प्रोणोर्त्सग (प्राणत्याग) करना अपना पवित्र धर्म समझती हैं ।


  • 62. जैक्मो फ्रांसी इतिहासकार व यात्री लिखता हैमहाराजा रणजीतसिंह पहला भारतीय है जो जिज्ञासावृत्ति में सम्पूर्ण राजाओं से बढ़ाचढ़ा है । वह इतना बड़ा जिज्ञासु कहा जाना चाहिए कि मानो अपनी सम्पूर्ण जाति की उदासीनता को वह पूरा करता है । वह असीम साहसी शूरवीर है । उसकी बातचीत से सदा भय सा लगता है। उन्होंने अपनी किसी विजययात्रा में कहीं भी निर्दयता का व्यवहार नहीं किया ।


  • 63. यूरोपीय यात्री प्रिन्सेप - एक अकले आदमी द्वारा इतना विशाल राज्य इतने कम अत्याचारों से कभी स्थापित नहीं किया गया । अद्भुत वीरता, धीरता, शूरता में समकालीन सभी भारतीय नरेशों के शिरमौर थे । दूसरे शब्दों में पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह भारत का नैपोलियन था।


  • 64. महान् इतिहासकार उपेन्द्रनाथ शर्मा - जाट जाति करोड़ों की संख्या में प्रगितिशील उत्पादक और राष्ट्ररक्षक सैनिक के रूप में विशाल भूखण्ड पर बसी हुई है। इनकी उत्पदाक भूमि स्वयं एक विशाल राष्ट्र का प्रतीक है ।


  • 65. विद्वान् सर डारलिंग - ‘‘सारे भारत में जाटों से अच्छी ऐसी कोई जाति नहीं है जिसके सदस्य एक साथ कर्मठ किसान और जीवंत जवान हों।’’


  • 66. महान् इतिहासकार सर हर्बट रिसले - जाट और

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राजपूत ही वैदिक आर्यों के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं ।


  • 67. फील्ड मार्शल माउंट गुमरी - “Jat is true soldier. I will be happy to die with dignity amongst Jats Regt. My soul will be bless with peace.” अर्थात् ‘‘जाट एक सच्चा सैनिक है । मुझे खुशी होगी यदि मैं जाटों के बीच रहकर इज्जत से मर जांऊ ताकि मेरी आत्मा को शान्ति मिल सके ।”


  • 68. अंग्रेज प्रमुख जनरल ओचिनलैक (बाद में फील्ड मार्शल) - ‘‘If things looked back and danger threatened I would ask nothing better than to have Jats beside me in the face of the enemy” अर्थात “हालात बिगड़ते हैं और खतरा आता है तो जाटों को साथ रखने से बेहतर और कुछ नहीं होगा ताकि मैं दुश्मन से लड़ सकूं ।”


  • 69. क्रान्तिदर्शी राजा महेन्द्रप्रताप - “हमारी जाति बहादुर है । देश के लिए समर्पित कौम है । चाहे खेत हो या सीमा । धरतीपुत्र जाटों पर मुझे नाज़ है ।”


  • 70. पं. जवाहरलाल नेहरू - ‘‘दिल्ली के आसपास चारों ओर जाट एक ऐसी महान् बहादुर कौम बसती है, वह यदि आपस में मिल जाये और चाहे तो दिल्ली पर कब्जा कर सकती है ।”

(यह पंडित नेहरू ने सन् 1947 से पहले कहा था, लेकिन पंडित जी देश आजाद होने के बाद जाटों को भूल गये और उन्होंने अपने जीते जी कभी किसी हिन्दू जाट को केन्द्रीय सरकार में किसी भी मंत्री पद पर फटकने नहीं दिया - लेखक)


  • 71. स्वामी ओमानन्द सरस्वती तथा वेदव्रत्त शास्त्री - (देशभक्तों के बलिदान ग्रंथ में) - ‘‘ईरान से लेकर इलाहाबाद तक जाटों के वीरत्व व बलिदानों का इतिहास चप्पे-चप्पे पर बिखरा पड़ा है । क्या कभी कोई माई का लाल इनका संग्रह कर पाएगा ? काश ! जाट तलवार की तरह कलम का भी धनी होता।”


  • 72. डॉ० बी.एस. दहिया ने अपनी पुस्तक

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Jats- The Ancient Rulers अर्थात्- ‘‘जाट प्राचीन शासक हैं’’ में लिखा है -‘‘There is no battle worth its name in The World History where the Jat Blood did not irrigate The Mother Earth’’ अर्थात्- ‘‘विश्व में ऐसी कोई भी लड़ाई नहीं हुई, जिसमें जाटों ने अपनी मातृभूमि के लिए खून न बहाया हो ।”

(काश ! यह देश और इस देश के इतिहासकार इसे समझ पाते- लेखक)


  • 73. विद्वान् इतिहासकार डॉ० धर्मकीर्ति -

(i) आगरा के ताजमहल और लाल किले को लूट ले जाना, सिकन्दरा में अकबर की कब्र के भवन और एत्माद्दौला की कब्र के ऐतिहासिक भवन में भूसा भरकर आग लगा देना, जिसके परिणामस्वरूप इन भवनों के काले पड़े हुए पत्थर आज भी (बौद्ध) जाटों के शौर्य की वीरगाथा गा रहे हैं ।

(ii) “वर्तमान जाट जाति को इस बात का गर्व से अनुभव करना चाहिए कि उनके पूर्वज बौद्ध नरेश असुवर्मा नेपाल के प्रसिद्ध राजा हो चुके हैं।” (इन्हीं विद्वान् ने सम्राट् कनिष्क से लेकर सम्राट् विजयनाग तक 17 बौद्ध जाट राजाओं का उनके काल तथा संसार में उनके राज्य क्षेत्र का वर्णन किया है - लेखक)


  • 74. विद्वान् मोरेरीसन - “The Jats and Rajputs of the Doab are descendents of the late Aryans” अर्थात् दोआबा के जाट और राजपूत आर्यों के वंशज हैं।


  • 75. विद्वान् नेशफिल्ड - “जाटों से राजपूत हो सकते हैं परन्तु राजपूतों से जाट कभी नहीं हो सकते हैं ।”


  • 76. प्रो० मैक्समूलर - “सारे भूमण्डल पर जाट रहते हैं और जर्मनी इन्हीं आर्य वीरों की भूमि है ।”


  • 77. इतिहासकार बलिदबिन अब्दुल मलिक - “अरब की हिफाजत के लिए हमने जाटों का सहारा लिया ।”


  • 78. सुल्तान मोहम्मद - “जाट कौम का डर मेरे ख्वाब में भी रहता है । इन्होंने मुझे कभी खिराज नहीं दिया ।”

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  • 79. प्रो० बी. एस. ढिल्लों - “मोहम्मद गजनी ने जाटों को खुश करने के लिए साहू जाटों से अपनी बहिन का विवाह किया था ।” (पुस्तक - ‘हिस्ट्री एण्ड स्टडी ऑफ दी जाट’- मूलस्रोत - सर ए. कनिंघम) ।


  • 80. कैप्टन फॉलकॉन - (i) “The Jats are throughly independent in character and assert personal and indivisual freedom as against communal or tribal control more strongly than other people.” अर्थात् जाट चारित्रिक रूप से पूर्णतया आजाद होते हैं जो निजी तौर पर दूसरों की तुलना में साम्प्रदायिक विरोधी होते हैं । (ii) गोत्र प्रथा को कैनेडा, अमरीका व इंग्लैण्ड में बसने वाले जाट भी मानते हैं ।


  • 81. प्रो० पी.टी. ग्रीव - “जाट केवल भगवान के सामने ही अपने घुटनों को झुकाता है क्योंकि वह नेता होता है, अनुयायी नहीं ।”


  • 82. विद्वान् टॉलबोट राईस - “याद रहे चीन ने 1500 मील लम्बी और 35 फिट ऊंची दीवार जाटों से बचने के लिए ही बनाई थी ।”


  • 83. इतिहासकार जे.सी. मोर - “जाट वास्तव में हिन्दुओं की जाति नहीं है, यह एक नस्ल है।”


  • 84. विद्वान् डॉ० वाडिल - “गुट, गोट, गुट्टी, गुट्टा, गोटी और गोथ आदि जाटों के नाम के ही शाब्दिक उच्चारण के विभिन्न रूप हैं, जो मध्यपूर्व में महान् शासक हुए हैं ।”


  • 85. विद्वान् जनरल सर मैकमन - (i) जाट बहुत ताकतवर और कठिन परिश्रमी किसान हैं जो हाथ में हल लेकर पैदा होता है । (ii) जाटों ने हमेशा अपनी लड़ने की योग्यता को कायम रखा, इसी कारण प्रथम विश्वयुद्ध में केवल जाटों की छटी रेजीमेंट को रॉयल की उपाधि मिली ।


  • 86. विद्वान् लेनेन पूले - “गजनी ने अपने कमांडर नियालटगेन को

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पंजाब में तैनात किया तो जाट उसका सिर काट ले गए और वही सिर उन्होंने गजनी को चांदी के सैकड़ों-हजारों सिक्कों के बदले वापिस किया ।”


  • 87. विद्वान् ब्री० सर साईक्स - “आठवीं सदी के आरम्भ में बसरा-बगदाद की लड़ाई में जाटों ने खलीफा को हराया तो वहां के प्रसिद्ध जाट कवि टाबारी ने पर्सियन भाषा में इस प्रकार गाया-

(अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद)

ओह ! बगदाद के लोग मर गए,

तुम्हारा साहस भी हमेशा के लिए ।

हम जाटों ने तुम्हें हराया,

हम तुम्हें लड़ने के लिए मैदान में घसीट लाए ।

हम जाट तुम्हें ऐसे खींच लाए,

जैसे पशुओं के झुंड से कमजोर पशु को ।


  • 88. विद्वान् मेजर बरस्टो - “जाटों की विशेषता है कि वे अपने गोत्र में शादी नहीं करते चाहे वह हिन्दू जाट हो या पंजाबी । क्योंकि जाट इसे व्यभिचार मानते हैं ।”


  • 89. डॉ० रिस्ले - “When Jat runs wild it needs God to hold him back अर्थात् यदि जाट बिगड़ जाए तो उसे भगवान ही काबू कर सकता है ।”


  • 90. रूसी इतिहासकार के.एम. सेफकुदरात ने अगस्त 1964 में मास्को में एक भाषण दिया जो भारतीय समाचार पत्रों में भी छपा था और उसने कहा “I studied the histories of various sects before I visited India in 1957. It was found that Jats live in an area extending from India to Central Asia and Central Europe. They are known by different names in different countries and they speak different languages but they are all one as regards their origin.”

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अर्थात् “मैंने 1967 से पहले भारत की यात्रा करने से पहले इतिहास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया और पाया कि जाट भारत से मध्य एशिया और मध्य यूरोप तक रहते हैं वे अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं और वे भाषाएं भी अलग बोलते हैं । लेकिन उन सभी का निकास एक ही है ।” इसलिए जाट कौम एक ग्लोबल नस्ल है ।


  • 91. इतिहासकार डॉ० सुखीराम रावत (पलवल) - “राजा गज ने गजनी के पास वर्तमान में अफगानिस्तान में बामियान के पास बुद्ध का विश्वप्रसिद्ध स्तूप बनवाया जिसे तालिबानियों ने सन् 2001 में संसार के सभी देशों की परवाह न करते हुए डाइनामाइट से उड़वा दिया ।”



  • 93. चौ० ओमप्रकाश पत्रकार (रोहतक) - “मकौड़ा, घोड़ा और जठोड़ा पकड़ने पर कभी छोड़ते नहीं ।”


  • 94. चौ० ईश्वरसिंह गहलोत (विख्यात जाट गायक) - “आज भी काबुल चिल्ला रहा है, बंद करो फाटक रणजीत आ रहा है ।”


  • 95. पंजाब केसरी पत्र ने अपने धारावाहिक सम्पादकीय दिनांक 25.09.2002 को झूठा इतिहास - झूठे लोग में लिखा - “जाटों का इतिहास देख लें ! बड़ा ही गौरवपूर्ण इतिहास है ! इतना गौरवपूर्ण कि वैसा इतिहास खोजना मुश्किल हो जाए । इतिहासकारों

ने इसे इतना तरोड़-मरोड़ कर लिखा है कि जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है । क्या यह सब महज इत्तिफाक है ?”

(यह इतिफाक नहीं था, जाटों के इतिहास के साथ इसलिए हुआ कि पहले जाट बौद्धधर्मी थे और भारत का ब्राह्मणवाद बौद्ध धर्म का दुश्मन


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रहा जो स्वयं इतिहासकार थे, इसलिए ऐसा करना ही था । क्योंकि यदि भारत का सच्चा इतिहास सामने आयेगा तो ऐसे लोगों का गर्व-खर्व होना निश्चित है - लेखक) ।


  • 96. बी.बी.सी. लंदन (जयपुर संवाददाता) “जाट जब अपने असली रूप में आ जाये तो वह हिमालय को भी चीर सकता है । हिन्दमहासागर को भी पार कर सकता है । थार के रेगिस्तान में बसे करोड़ों धरतीपुत्रों ने रैली को रैला बनाकर हिन्दुस्तान की सत्ता को थर्रा दिया था और आज 20 अक्तूबर 1999 को राजस्थान सरकार को जाटों को ओ. बी. सी. का आरक्षण देना ही पड़ा ।” (क्या शेष भारत के जाट, जाट नहीं हैं ? रोजाना रैलियों में दौड़ते भागते रहते हैं अपने हक के लिए (आरक्षण के लिए) नहीं लड़ सकते हैं ? - लेखक)


  • 97. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे सिधिंया ने दिनांक 07.05.2004 को हांसी में संसद चुनाव में वोट मांगते हुए कहा- “मैं बहादुर जाटों की बहू हूँ इसलिए उनसे वोट मांगने का मेरा अधिकार है ।”


  • 98. गुर्जर इतिहास (पेज नं० 3, लेखक राणा अली हसन चौहान, पाकिस्तान) - “जाट शुद्ध आर्यों की जाति है ।”


  • 99. विख्यात फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र ने सन् 2005 में बिजनौर (उत्तर प्रदेश) की एक जनसभा में कहा- “मैं जाट जाति में पैदा होकर गौरव का अनुभव करता हूँ ।”


  • 100. लेखक - “जाट इतिहास कोई भंगेड़ियों, भगोड़ों व भाड़े का इतिहास नहीं, यह सच्चे वीरों का इतिहास है।” इन टिप्पणियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जाट जाति का चरित्र कैसा रहा है तथा यह कितनी महान् जाति रही ।


इसलिए गर्व से कहो हम जाट हैं ।



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जाट इतिहास व जाट शासन की विशेषतायें तथा जाट इतिहास नहीं लिखे जाने के कारण

क. जाट शासन की कुछ विशेषतायें

जाट इतिहास व उनके शासन की कुछ विशेषताएं हैं जो किसी भी अन्य राज-प्रशासन से मले नहीं खाती हैं। क्योंकि यह एक अन्तर्राष्ट्रीय (Global) नस्ल रही है, जिसको आज हम जाट कहते हैं। जाटों के इतिहास की कुछ विशेषताएं इस प्रकार रही हैं:-

(1) जाट शासन चाहे बौद्ध धर्म के समय या बाद में सभी के सभी प्रजातांत्रिक थे जिसमें सभी धर्मों व जातियों को समान अधिकार दिये गये। उदाहरण के तौर पर मौर्य (मोर) गुप्त (धारण), हर्षवर्धन, सूरजमल तथा रणजीतसिंह आदि-आदि। उदाहरण के लिए महाराजा सूरजमल की सेना में 30 प्रतिशत मुस्लिम तथा रणजीत सिंह की सेना में इससे भी अधिक मुसलमान थे जिनमें बहुत से औहदेदार थे।

(2) जाट शासक कभी धार्मिक तौर पर रूढि़वादी नहीं रहे और इन्होंने सभी धर्मों को बराबर का सम्मान दिया। इसी कारण गद्दारों के शिकार भी हुये। लेकिन अपनी इंसानियत को कभी नहीं छोड़ा।

(3) किसी भी जाट राजा ने कभी भी किसी बाहरी आक्रमणकारी या मुगल व अंग्रेज सत्ता के सामने घुटने टेककर अपनी बहू-बेटियों के ‘डोले’ नहीं दिये, बल्कि दूसरों की लड़कियों के ‘डोल़े’ लेने में कभी हिचकिचाये भी नहीं। उदाहरण के तौर पर ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ ने सिकन्दर के सेनापति सल्यूकस की बेटी हैलन का ‘डोल़ा’ पंडित ‘चाणक्य’ के आग्रह पर लिया तथा महाराजा रणजीतसिंह की 17 रानियों में एक रानी गुलबेगम एक मुसलमान जागीरदार की बेटी थी। इसके अतिरिक्त महाराजा सूरजमल के पिता महाराजा बदनसिंह के हरम में भी कुछ मुसलमान जागीरदारों व नवाबों की बेटियां थीं। इसलिए कहावत चली ‘जाट के घर आई तो जाटनी कहलाई’। जाटों के लिए ‘खेत के डोळे की तथा बेटी के डोळे की’ का विशेष महत्त्व रहा है।


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(4) जाटों ने कभी अपने देश से गद्दारी नहीं की, चाहे वह भारत हो या मध्य एशिया या फिर यूरोप का देश और ना ही कभी किसी युद्ध में जट्टपुत्रों ने पीठ दिखलाई। जबकि भारत का अन्य इतिहास गद्दारों व षड्यंत्रों से सना पड़ा है और किसी न किसी रूप में यह क्रम आज भी जारी है।

(5) इतिहास गवाह है कि जाटों ने हमेशा दूसरों पर विश्वास किया, जिस कारण वे हमेशा धोखे के शिकार हुये और ये धोखा-धड़ी करनेवाले हमारे ही देश के सम्माननीय कहे जानेवाली जातियों के लोग थे।

(6) जाटों ने कभी पैसे देकर इतिहास नहीं लिखवाया (केवल छत्रपति शिवाजी को छोड़कर, जिन्हें आमतौर पर इतिहासकार भी जाट नहीं मानते हैं)

ख. इतिहास में जाट नाम न लिखे जाने के कारण

वैसे तो भारत का मुख्य इतिहास ही जाट इतिहास है, लेकिन प्रायः इससे जाट शब्द को हटाया दिया गया है जिसके निम्नलिखित कारण हैं:-

(1) जाट 7वीं सदी तक बौद्धधर्मी थे, जो ब्राह्मणवाद के सबसे बड़े आँख की किरकरी रहे। इसलिए स्वाभाविक था कि जो ब्राह्मणवाद प्राचीन इतिहास का लेखक रहा जिसने इतिहास को पूरा ही तोड़-मरोड़ कर पेश किया तथा जाटों का नाम गायब करने का पूरा प्रयास किया।

(2) जाटों ने हमेशा पाखण्डवाद का विरोध किया जैसे कि ‘स्कन्द पुराण’ आदि का जिसमें किसी भी विधवा लड़की को पुनः विवाह की आज्ञा नहीं थी। लेकिन जाटों ने पुनः विवाह को एक धार्मिक कर्तव्य समझा, जिसको आज यही पौराणिक ब्राह्मणवाद भी मानने पर बाध्य है। अर्थात् ये ब्राह्मणवाद भी आज इसके कारण शूद्र हो गया है।

(3) जाटों ने हमेशा समानता के सिद्धान्त को अपनाया जबकि ब्राह्मणवाद अपनी ‘श्रेष्ठता की पट्टी’ को कभी हटाना नहीं चाहता था। क्योंकि जाट बीच के एजेण्ट को पसन्द नहीं करता। वह चित्र की जगह चरित्र को महत्त्व देनेवाला रहा। जाट का सिद्धान्त ‘आत्मा ही परमात्मा


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है’ का रहा है। जहां ब्राह्मणवाद के लिए कोई स्थान नहीं था। इसलिए इन्हें जाट हमेशा बुरे लगे। यह स्थिति आज भी है।

(4) जाटों की संस्कृति पंचायत और प्रजातंत्र पर आधारित रही जिसमें पण्डा व पुरोहित का कोई स्थान नहीं था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि ब्राह्मणवाद ने हमेशा जाटों को नकारा तथा जाटों ने स्वयं कभी अपने इतिहास लिखने व लिखवाने में दिलचस्पी नहीं दिखलाई। क्योंकि उनका विश्वास रहा कि ‘वे इतिहास बनाते हैं लिखते नहीं’ इसलिए कई विदेशी इतिहासकारों ने इस बारे में जाटों को बहुत लताड़ा है जिसमें प्रमुख मिस्टर ग्रिमस अंग्रेज हैं। स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी व श्री वेदव्रत शास्त्री जी ने अपने ग्रंथ देशभक्तों के बलिदान में लिखा है - ‘जाटों ने कभी भी लेखकों का सम्मान नहीं किया और न ही कभी स्वयं लिखने का प्रयास किया।’

(5) जब पण्डित शंकराचार्य ने नया हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) चलाया तो पहले इन्होंने प्रचार किया कि कलयुग में कोई क्षत्रिय नहीं होता, लेकिन पहले इन्होंने जाटों को शूद्र कहकर नकारा और जब बगैर क्षत्रिय के इनकी दुकान नहीं चली तो इन्होंने ‘बृहत्तर यज्ञ’ में ‘अग्नि से राजपूत पैदा करने का षड्यन्त्र रचा तो फिर इन्होंने राजपूतों को क्षत्रिय माना। लेकिन शेष जाटों ने इस नये धर्म को नहीं स्वीकारा तो ब्राह्मणों ने जाटों के इतिहास को गुप्त बना दिया तथा इन्हें म्लेच्छ कहने लगे। इसी कारण सम्राट् अशोक मोर को भी इन्होंने म्लेच्छ (शूद्र) जाति का लिखा है। हम देखते हैं कि जाट आज तक भी हिन्दू धर्म के जटिल कर्मकाण्डों में निपुण नहीं हो पाये हैं, क्योंकि उनकी जड़ें बौद्ध धर्म में रही हैं। अभी जाट भी ब्राह्मणवादी ढोंग करने लगे हैं। जैसे कि कांवड़ लाना, जगह-जगह मन्दिर बनवाना आदि-आदि। याद रहे सम्राट् अशोक मोर के बेटे राजा बृहद्रथ का धोखे से वध उसी के विश्वासपात्र सेनापति पुष्यमित्र ब्राह्मण ने किया था, जिसने राज्य पर अधिकार करने के बाद बौद्ध धर्म की जगह हिन्दू धर्म (पौराणिक धर्म या ब्राह्मण धर्म) को सरकारी धर्म बना दिया। इसी


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धर्म को बाद में सनातन धर्म कहने लगे। शशांक ब्राह्मण शासक ने तो जाट बौद्धों के मठ भी तुड़वा डाले इसलिए जाट आज तक कहते फिरते हैं, ‘मठ मार दिया-मठ मार दिया।’ लेकिन अफसोस है जाट आज इस पौराणिक धर्म को (पाखण्डवाद को) अपनाने के लिए लालायित हैं। दिनांक 27-10-2007 को विश्व हिन्दू परिषद् के सचिव तोगडिया जी ‘आपकी की अदालत’ में कह रहे थे ‘95 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे।’ तो क्या तोगडिया साहब को यह मालूम नहीं कि 85 प्रतिशत हिन्दुओं के पूर्वज बौद्ध भी थे?

(6) जाटों में प्राचीन युग में नाम के साथ वंश व उपवंश का इस्तेमाल करने की परम्परा रही जिसमें कुछ वंश व उपवंश बाद में जाटों के गोत्रों में परिवर्तित हुए तथा जाटों में गोत्रों का इस्तेमाल लगभग 1000 साल से प्रारंभ हुआ तथा एक गोत्र से दूसरे गोत्रों की उत्पत्ति होती रही जो क्रम आज तक जारी है, इसी कारण प्राचीन इतिहास में जाटों की जाति ढूंढ़ना कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए वर्तमान युग में भी हम देखते हैं कि महाराजा सूरजमल व उनका पूरा राजवंश सिसीनवारी गोत्री था। महाराजा रणजीत शिव गोत्री थे। चौ० चरणसिंह का भी यही वंश था। लेकिन जब सन् 1705 में इनके पूर्वज चौधरी गोपाल सिंह पंजाब के भटिण्डा के पास तिरपत गांव छोड़कर बल्लभगढ़ के पास सिंही गांव में बसे तो लोग इन्हें तिरपतिया कहने लगे जो बाद में बिगड़कर तेवतिया हो गया। इसी प्रकार महाराजा नाहर सिंह भी तेवतिया गोत्री कहलाए। मुरसान के राजा महेन्द्र प्रताप ठेनुवां गोत्री थे। छोटूराम (ओहलान), चौ० चरणसिंह (तेवतिया), चौ० देवीलाल (सिहाग), तथा चौ० बंसीलाल (लेघा) ने तो अपने गोत्र तक का इस्तेमाल नहीं किया। इसी प्रकार सिक्ख जाटों में भी यही प्रथा रही। उन्होंने अपने गोत्र की बजाये अपने गाँव के नाम का ज्यादा इस्तेमाल किया। जैसे सरदार ज्ञानसिंह राड़ेवाला (गिल), प्रतापसिंह कैरो (ढिल्लों गोत्री) तथा सरदार प्रकाशसिंह बादल (ढिल्लों गोत्री) आदि-आदि। लेकिन दूसरे ब्राह्मणवादी अपने जातिसूचक शब्दों का


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खुलकर आज तक इस्तेमाल करते रहे हैं, उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है।

इसके अतिरिक्त देवेवसंहिता का श्लोकेक नं. 17 तो स्थिति को बिल्कुल ही स्पष्ट कर देता है -

गर्वखर्वोऽत्र विप्राणां देवेवानां च महेश्श्वरी।
विचित्रं विस्मयं सत्वं पौरैराणिकैः संगोपितम्॥

अर्थात् - “जट जाति का जो इतिहास है वह अत्यन्त आश्चर्यमय तथा रहस्यमय है इस इतिहास के प्रकाशित होने पर देव-जाति का गर्व खर्व होता है।” (यह देव जाति पौराणिक ब्राह्मणवाद है और जाट इतिहास के प्रकाशित होने पर इस ब्राह्मणवाद के द्वारा प्रचारित इतिहास का भांड़ा-फोड़ होने का हमेशा डर बना रहा। यही मुख्य कारण है जिसकी वजह से जाटों का इतिहास से नाम लुप्त करने का प्रयास होता रहा है - लेखक। (पुस्तकें - सिख इतिहास, जाट इतिहास तथा भारतीय इतिहास का अध्ययन।)

भारतवर्ष की गुलामी के संस्थापक कौन थे?

भारत को गुलाम किसने किया? जब से हमने होश संभाला और पढ़ना शुरू किया तो हमें यही पढ़ाया जाता रहा कि हमारा देश 1000 साल तक आपसी फूट के कारण गुलाम रहा। लेकिन हमारे सरकारी इतिहासकारों ने इस तथ्य को कभी उजागर नहीं किया कि यह आपसी फूट डालनेवाले लोग कौन थे? इन्होंने कैसे फूट डाली? इतिहास गवाह है कि मामला फूट का नहीं था। ये गद्दारियों से भरा इतिहास है जिसने इस देश को कमजोर किया और यही कारण है कि देश 1000 साल तक गुलामी की बेडि़यों में जकड़कर अपनी किस्मत पर आंसू बहाता रहा। यह सिलसिला आजादी के बाद भी नहीं रुका और एक दूसरे रूप में हमारे सामने आया। हमारा देश ‘परमाणु बम्ब’ बनाकर तथा दर्जनों राकेट आसमान में छोड़कर भी आज नैतिक पतन व भ्रष्टाचार के कारण औंधे


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मुंह पड़ा है क्यों और कैसे? इसके पीछे भी हमारा एक शर्मनाक इतिहास हमारे संस्कारों का दुश्मन बना बैठा है। उदाहरण के लिए यहाँ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया जाता है -


(1) अशोक महान् के नाम से हम सभी परिचित हैं। यह मोर गोत्र का बौद्धधर्मी जाट राजा था जिसका लगभग समस्त भारत पर अधिकार था तथा उस समय भी यह भारत वर्ष एक देश था। याद रहे इसके राज में संस्कृत भाषा का कोई भी चलन नहीं था। इनके बाद इनका पुत्र बृहद्रथ राजगद्दी पर बैठा तो उसके ही विश्वासपात्र ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या करवा दी और सत्ता हथिया ली। लेकिन ये पुष्यमित्र ब्राह्मण पूरे भारत वर्ष को इकट्ठा रखने में पूर्णतया असफल रहा क्योंकि उसने अपने शासन में धर्म के नाम पर असमानता के बीज बोये जिस कारण अशोक महान् का महान् भारत वर्ष छिन्न-भिन्न हो गया। कुछ रही सही कमी ब्राह्मण शशांक ने जाट बौद्धों के मठ तुड़वा कर पूरी कर दी थी। यह ब्राह्मणवाद की भारतवर्ष की गुलामी के लिए पहली चकबन्दी थी। इसी पौराणिक ब्राह्मणवाद ने सम्राट् मोर को शूद्र लिख दिया ताकि जाट और दलित आपस में उलझते रहें। यही छत्रपति शिवाजी के साथ हो रहा है। मैंने स्वयं बहुजन समाज पार्टी के भाषणों में लोगों को कहते सुना है कि ढाई हजार वर्ष पहले उनका अपना राज था। इनका कहने का अर्थ है कि पूरा मौर्यवंश ही शूद्र था। लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि उस समय का चाणक्य ब्राह्मण कैसे एक शूद्र वंशीय चन्द्रगुप्त मौर्य को राज दिला सकता था और उनके आधीन मंत्री रह सकता था? ये कभी भी उस काल में संभव नहीं था और न ही ऐसा उस समय सोचा जा सकता था। नहीं तो वे अपनी जाति के दलित लोगों को क्यों गांव से बाहर एक कोने में फैंकते जो चाणक्य के कहने पर ही हुआ था। इसी प्रकार यह लोग अपनी पार्टी के मंचों पर छत्रपति शिवाजी को शूद्र मानकर उनका चित्र लगाते हैं। क्योंकि ब्राह्मणों ने उनको शूद्र लिखा। जबकि प्रमाण स्पष्ट हैं कि वे बलवंशी जाट थे। इस देश में जब से वर्ण


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व्यवस्था प्रचलित हुई और स्थायी हुई तब से लेकर सन् 1947 तक शूद्र वंश से न कभी कोई राजा बना और न कभी कोई राज वंश चला। अफसोस है कि जाट कौम इन महापुरुषों को शूद्र लिखने पर पीछे हट गई और अपने ही जाट महापुरुषों को नहीं अपनाया।

(2) ‘चाणक्य’ महाराज (कौटिल्य) को चाहे इतिहास में कितना ही महिमामण्डित किया गया लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू उतना ही बदरंग है। इन्होंने ही एक जाट के हाथ (चन्द्रगुप्त मौर्य) से दूसरे जाट (धन नन्द जिससे जाटों का नादंल गोत्र प्रचलित हुआ) की हत्या करवाई। ये चन्द्रगुप्त मौर्य महाभारत के यौद्धा जरासंध के ही वंशज थे और इस चाणक्य को राजा धनानन्द ने सरेआम अपने दरबार से अपमानित करके निकाल दिया जिस कारण उसने अपना बदला लिया तथा धनानन्द जाट राजा की हत्या करवाकर राजा चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाकर स्वयं मन्त्री बन बैठे। शूद्र वर्ण के लोगों को गाँव से बाहर बसाया। वैदिक संस्कृति के अनुसार भूमि लगान को समाप्त करके किसानों पर दुगुना भूमिकर लगाया। ब्राह्मणों को दान देनेवालों को कर से मुक्त किया। दूसरी तरफ जूए को सरकारी मान्यता देकर उस पर कर लगा दिया। अर्थात् एक बुराई को मान्यता दे दी गई। देश में जो परोक्षरूप से संघों के तौर पर एक प्रजातंत्र प्रणाली, जो बौद्ध राजाओं के समय से चली आ रही थी, उसको समाप्त कर दिया गया तथा ब्राह्मणवाद को फिर से श्रेष्ठ बना दिया और देश में छूआछूत को स्थायी कर दिया। इसी ब्राह्मण ने षड्यन्त्र करके तोरण द्वार गिरवाकर तीर्थराज की हत्या करवाई। यह तोरण से मारने की प्रथा ऐसी चली कि महाराजा रणजीतसिंह के पुत्र नोनिहालसिंह की हत्या के बाद बंद हुई। भारत में जाति द्वेष और अछूत प्रथा चाणक्य जी की चतुर और पक्षपाती बुद्धि की उपज है जिसने देश को पक्षाघात कर दिया। (पुस्तक - किसान संघर्ष और विद्रोह)

इसी प्रकार इस देश को गुलाम रखने में ब्राह्मणग्रंथों का बहुत बड़ा योगदान है। उदाहरण के लिए-


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ऐतरेय ब्राह्मण (3/24/27) - वही नारी उत्तम है जो पुत्र को जन्म दे। (35/5/2/47) पत्नी एक से अधिक पति ग्रहण नहीं कर सकती, लेकिन पति चाहे कितनी भी पत्नियां रखे। आपस्तब (1/10/51/52) बोधयान धर्म सूत्र (2/4/6) शतपथ ब्राह्मण (5/2/3/14) जो नारी अपुत्रा है उसे त्याग देना चाहिए। तैत्तिरीय संहिता (6/6/4/3) पत्नी आजादी की हकदार नहीं है। शतपथ ब्राह्मण (9/6) केवल सुन्दर पत्नी ही अपने पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी है। बृहदारण्यक उपनिषद् (6/4/7) यदि पत्नी सम्भोग के लिए तैयार न हो तो उसे खुश करने का प्रयास करो। यदि फिर भी न माने तो उसे पीट-पीट कर वश में करो। मैत्रायणी संहिता (3/8/3) नारी अशुभ है। यज्ञ के समय नारी, कुत्ते व शूद्र को नहीं देखना चाहिए। अर्थात् नारी और शूद्र कुत्ते के समान हैं। (1/10/11) नारी तो एक पात्र (बरतन) समान है। महाभारत (12/40/1) नारी शॆ बढ़कर अशुभ कुछ नहीं है। इनके प्रति मन में कोई ममता नहीं होनी चाहिए। (6/33/32) पिछले जन्मों के पाप से नारी का जन्म होता है । मनुस्मृति (100) पृथ्वी पर जो भी कुछ है वह ब्राह्मण का है। मनुस्मृति (101) दूसरे लोग ब्राह्मणों की दया के कारण सब पदार्थों का भोग करते हैं। मनुस्मृति (11-11-127) मनु ने ब्राह्मण को संपत्ति प्राप्त करने के लिए विशेष अधिकार दिया है। वह तीनों वर्णों से बलपूर्वक धन छीन सकता है अथवा चोरी कर सकता है। मनुस्मृति (4/165 - 4/166) जान बूझकर क्रोध से जो ब्राह्मण को तिनके से भी मारता है वह इक्कीस जन्मों तक बिल्ली योनि में पैदा होता है। मनुस्मृति (5/35) जो मांस नहीं खाएगा वह इक्कीस बार पशु योनि में पैदा होगा । मनुस्मृति (64 श्लोक) अछूत जातियों के छूने पर स्नान करना चाहिए। गौतम धर्म सूत्र (2-3-4) यदि शूद्र किसी वेद को पढ़ते सुन ले तो उसके कानों में पिंघला हुआ शीशा या लाख डाल देनी चाहिए। मनुस्मृति (8/21-22) ब्राह्मण चाहे अयोग्य हो उसे न्यायाधीश बनाया जाए नहीं तो राज मुसीबत में फंस जाएगा। इसका अर्थ है कि वर्तमान में भारत के उच्चतम न्यायालय के


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न्यायाधीश श्री जी. बाला कृष्ण जो शूद्र हैं को इस पद से हटा देना चाहिए? मनुस्मृति (8/267) यदि कोई ब्राह्मण को दुर्वचन कहेगा तो वे मृत्युदण्ड के अधिकारी हैं। मनुस्मृति (8/270) यदि कोई ब्राह्मण पर आक्षपे करे तो उसकी जीभ काट कर दण्ड दें। मनुस्मृति (5/157) विधवा का विवाह करना घोर पाप है। विष्णुस्मृति में स्त्री को सती होने के लिए उकसाया गया है तो ‘शंख स्मृति’ में दहेज देने के लिए प्रेरित किया गया है। ‘देवल स्मृति’ में किसी को भी बाहर देश जाने की मनाही है। ‘बृहदहरित स्मृति’ में बौद्ध भिक्षु तथा मुण्डे हुए सिर वालों को देखने की मनाही है। ‘गरुड़ पुराण’ पूरे का पूरा अंधविश्वास का पुलिंदा है जिसमें ब्राह्मण को गाय दान करने तथा उसके हाथ मृतकों का गंगा में पिण्डदान करने के लिए कहा गया है। कहने का अर्थ है कि इस पुराण में ब्राह्मणों की रोजी-रोटी का पूरा प्रबन्ध किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह ब्राह्मण साहित्य इस देश को कितना पीछे ले गया और भारत की गुलामी की एक बड़ा कारण रहा। इस पर एक अंग्रेज इतिहासकार एडमंड बर्क लिखते हैं, ‘हिन्दू समाज क्योंकि आर्थिक तौर पर भ्रष्ट और अन्यायी था। अतः वे अपने देश को स्वतन्त्र नहीं रख पाए और भारत को सदियों तक गुलामी के कष्ट भोगने पड़े।’ इस सम्बन्ध में भारतवर्ष के महान् विचारक तथा विद्वान् स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘एक देश जहां लाखों लोगों को खाने को कुछ नहीं, जहां कुछ हजार व्यक्ति तथा ब्राह्मण गरीबों का खून चूसते हैं। हिन्दुस्तान एक देश नहीं, जिंदा नरक है। यह धर्म और मौत का नाच है।’ स्कन्द पुराण की तो पूरी शिक्षा ही देशद्रोही है। कहते हैं कि नारी के विधवा होने पर उसके बाल काट दो, सफेद कपड़े पहना दो और उसको खाना केवल इतना दो कि वह जीवित रह सके। उसका पुनः विवाह करना पाप है। ऐसे नियमों को पौराणिक ब्राह्मणों ने हमारी राजपूत जैसी जातियों से मनवाया, इसी कारण सती प्रथा का प्रचलन हुआ। विधवा औरत ने सोचा कि इससे अच्छा तो पति के साथ ही जलकर मरना


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अच्छा है। लेकिन मैं जाट जाति की इस पर प्रशंसा करने पर विवश हूं कि उन्होंने स्कन्द पुराण की शिक्षाओं को नहीं माना और हमेशा से विधवाओं के पुनः विवाह किये। इसी कारण मैं जन्म ले पाया। धन्य हो मेरी महान् जाट जाति, मेरी मां को भी दूसरा जन्म दिया। दूसरा यह स्पष्ट प्रमाण है कि जाटों की जड़ें बौद्ध धर्म में थी और उन्होंने इस नवीन हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) को नहीं माना, इसी कारण इनके इतिहासों ने जाटों को शूद्र माना और आज तक सम्राट् अशोक मोर को शूद्र लिखते हैं।

पाठकों ने देखा होगा कि ‘मीरा’ टी.वी. सीरियल में मीरा बाई जब पुरोहित के लिए थाल में मिठाई लेकर आती है तो पुरोहित उसे ठुकरा देता है और कहता है, “नहीं, मेरा अनादर मत करो! मांस का थाल लाओ।” इन्हीं पौराणिक ब्राह्मणों ने शूरवीर हनुमान (बाना गोत्री) को बन्दर का मुंह लगाया तो गणों के राजा गणेश जिसका एक हाथ दूसरे हाथ से लम्बा था को हाथी का सूंड लगा दिया। मन्दिरों में धन इकट्ठा करके ब्राह्मण वहां टल्ली बजाते रहे और वहीं मन्दिर और देश लुटता रहा और गुलाम होता चला गया। याद रहे ब्राह्मणों ने मन्दिरों में विपुल धन-सम्पत्ति इकट्ठी की जिसने आक्रमणकारियों को ललचाया और देश गुलाम हुआ।

इतिहास में इन ऋषियों का बड़ा गुणगान किया जाता है जबकि कईयों में भारी खानदानी अभाव था। उदाहरणस्वरूप वशिष्ठ ऋषि स्वयं एक निम्न जाति की अप्सरा (वैश्या) उर्वशी की संतान थे। महर्षि व्यास धीवरी (झीमरी) सत्यवती के गर्भ से पराशर से उत्पन्न हुए थे। मदन पाल व मातंग ऋषि चंडाल माताओं से थे। नारद मुनि भी दासी पुत्र थे। उनके वास्तविक पिता का नाम अज्ञात था। जाबाली, सत्यकाम (उपनिषद) की भी यही स्थिति है फिर भी ये लोग स्वाभाविक रूप से ब्राह्मण ही माने जाते हैं। अपितु वेदों के महत्त्वपूर्ण सूक्तों-अध्यायों और काण्डों तथा मंत्रों के प्रणेता गैर ब्राह्मण भी हैं। गुरु मंत्र गायत्री मंत्र के रचयिता वशिष्ठ व भारद्वाज न होकर क्षत्रिय विश्वामित्र थे। कठोपनिषद्, छान्दोग्य,


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श्वेताश्वेतोपनिषद्, ऐतरेय तथा माण्डूक्य आदि उपनिषद् की गैर ब्राह्मणों द्वारा ही रचना की गई है। पौराणिक ग्रन्थों में लिखा गया है कि ‘मनुस्येषु ब्राह्मण श्रेष्ष्ठः’ अर्थात् मनुष्य जाति में ब्राह्मण सबसे उच्च हैं जबकि यही लोग हमारे शिवजी, श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री हनुमान जी व श्री गणेश जी आदि क्षत्रिय जाति के देवों को पूजकर सदियों से अपनी संतानों के पेट भरते आए हैं। फिर किस बात में श्रेष्ठ हैं? ब्राह्मण ग्रन्थ गवाह हैं कि पहले श्रीकृष्ण जी को तथा उनकी माता देवकी को शूद्र बतलाया लेकिन जब कृष्ण जी के चाहने वाले करोड़ों दीखे तो उनको पूजकर ब्राह्मणों ने अपनी पेट पूजा आरम्भ कर दी। कई पाठकों ने ‘शर्मा’ शब्द के बारे में पूछा है तो मेरी जानकारी के अनुसार, “गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास” लेखक राणा अली हसन चौहान (पाकिस्तान) हिन्दी अनुवाद पेज नं० 3 के अनुसार, “रावण का पिता विश्रवा एक ऋषि था, विभीषण को छोड़कर पूरा खानदान श्री रामचन्द्र के विरुद्ध लड़ा इसलिए बाकी सभी राक्षस कहलाए। विभीषण की पत्नी का नाम ‘शर्मा’ था।” (पुस्तक ‘स्वदेशी और साम्राज्यवाद’)

आज फिर वर्तमान युग में अन्धविश्वास व पाखण्ड का बोलबाला होता जा रहा है। संसार के लगभग 660 करोड़ लोगों को हमारे पाखण्डी 12 राशियों में बांटकर अर्थात् प्रत्येक राशि में 55 करोड़ लोगों का टी.वी. व समाचार पत्रों में भविष्य बतला रहे हैं जबकि इन्हें पता होना चाहिए कि राम और रावण की राशि एक थी तो कृष्ण व कंष की भी एक ही थी। एक मार तथा दूसरा मर रहा था। ईराक और ईरान की राशि भी एक होते हुए ईराक तबाह हो रहा है तो ईरान ईद मना रहा है। कन्याकुमारी और काश्मीर की राशियां भी एक हैं तो कश्मीर बर्बाद हो रहा है लेकिन कन्याकुमारी में होटल पर होटल बनते जा रहे हैं। अभी वर्तमान अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा तथा खूंखार आतंकवादी ओसामा की भी एक राशि हैं तो भविष्यकर्ता इनका भविष्य बतलाएं ?

लेकिन दुःख की बात है कि आज की जाट कौम इन


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पाखण्डियों के बहकावे में आने लगी है और कावड़ लाने में जुटे हुए हैं। सुनने मे आया है कि वहां गांजा और भांग के सेवन की भी आदत डाली जाती है।। एक अनुमान के अनुसार 8 लाख जाट प्रतिवर्ष कावड़ लाकर औसतन 40 करोड़ रुपये अंधविश्वास में तबाह कर रहे हैं। और यह अंधविश्वास बढ़ता ही जा रहा है। इसी प्रकार गंगा में मृतकों का पिण्डदान, मृत्युभोज, सवामणि व भण्डारों आदि पर जाट कौम का प्रतिवर्ष औसतन 8 से 9 अरब रुपया अंधविश्वास की भेंट चढ़ रहा है। जबकि यह कार्य जाट के बिल्कुल नहीं थे। गांव के हर पान्ने में होड़ लगी है कि कौन कितना ऊंचा मन्दिर बनवाता है। अपने बुजुर्गों की मृत्यु पर मृत्युभोज (काज) करके उसको किस स्वर्ग की सैर कराना चाहते हैं? ये सब पैसा जो हमारी संतानों की पढ़ाई पर खर्च होना था, आज सरेआम मूर्खता में बर्बाद किया जा रहा है। यही अंधविश्वास और पाखण्डवाद किसी कौम और देश के पतन के कारण बनते हैं। जाट कौम इसमें क्यों पागल हो रही है? यह जाट धर्म नहीं, ब्राह्मण धर्म है।


(3) महाराजा अशोक के राज के बाद महाराजा हर्षवर्धन का वर्णन मिलता है जो अपने समय (सन् 606 से सन् 647) के महान् राजा हुये, जो बैंस गोत्री, बौद्धधर्मी जाट राजा थे। इन्होंने 40 वर्ष तक लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत व उड़ीसा और बंगाल तक राज किया, लेकिन इनके राज में ब्राह्मणवाद ने एक के बाद एक षड्यंत्र किये तथा इनकी हत्या करने के लिए एक बार एक हत्यारे ने भी इनको चाकू से मारने का प्रयास किया। जब हमलावर को पकड़ लिया गया और उससे पूछताछ की गई तो उसने बतलाया कि महाराजा को मारने के लिए ब्राह्मणों ने उसे पैसा दिया था। महाराजा हर्ष के धर्म सम्मेलनों के पण्डालों में उनकी हत्या करने के लिए ब्राह्मणों ने आग तक लगवाई तथा इसके शासन को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयास किया। इनका कोई वंशज न होने के कारण


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इनकी मृत्यु के पश्चात् इनका शासन समाप्त हुआ और उसके बाद इनके राज के टुकड़े हो गये क्योंकि इन्होंने अपने सगे-सम्बन्धियों व रिश्तेदारों में वैराग्य पैदा कर दिया था और इसके बाद भारतवर्ष का शर्मनाक इतिहास प्रारंभ हुआ।

डा० अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “ब्राह्मणवाद की विजय” में लिखा है, “भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के मध्य संघर्ष का इतिहास है।”


(4) सातवीं सदी में सिंध में भारत की मजबूत दीवार महाराजा सिहासीराय मोर गोत्री जाट का शासन था। चच नाम का एक ब्राह्मण का लड़का नौकरी के लिए इनके मंत्री के संतरी से मिलकर वहाँ मुन्शी लगा। कुछ समय पश्चात् यह राजा बीमार पड़ा तो उसका मंत्री राजा की डाक (पत्राचार) स्वयं राजा के निवास पर ले जाकर उनको पढ़कर सुनाते तथा आदेशानुसार उत्तर देते। एक दिन मंत्री को कोई कार्य हो गया, इसलिए उसने अपने मुन्शी चच को राजा के निवास पर भेज दिया। चच एक बड़ा सुन्दर और वार्ताकुशल चालाक लड़का था, जैसे आमतौर पर ब्राह्मण होते हैं, उसने राजा को बहुत अच्छी तरह से पत्र पढ़कर सुनाये तथा उनका उत्तर भी उतनी ही चतुराई से बनाया। इस प्रकार इस चच मुन्शी का राजनिवास पर आना-जाना शुरू होगया। राजा और रानी सुहानन्दी का इस पर विश्वास बढ़ता चला गया और वह बेरोक-टोक राजनिवास में आने-जाने लगा। राजा की बीमारी का लाभ उठाते हुए इस ब्राह्मण के बेटे ने एक दिन रानी को ही अपने प्यार-मोहब्बत के जाल में फंसा लिया और रानी से मिलकर राजा को जहर देकर मरवा डाला। वह परोक्षरूप से रानी के नाम से राजपाट चलाने लगा और एक दिन रानी से विवाह कर लिया। उसने जाट सेनापति व अन्य उच्च अधिकारियों का धोखे से एक-एक करके वध करवा दिया। जब इस बात का भेद खुला तो राजा सिहासीराय के रिश्तेदार एक-एक करके चच ब्राह्मण को मारने के लिए आये लेकिन घर की भेदी रानी ने एक-एक करके उसी प्रकार उनको लड़ाई में हरवा


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दिया। इसके बाद यही चच ब्राह्मण सिंध (आलौर) का सम्राट् बन बैठा और अपने राज का शिकंजा कसते हुए जाटों पर अमानवीय जुल्म ढ़ाये जिसमें जाटों को मलमल का कपड़ा न पहनना, सिर पर छतरी न लगाना, घोड़े पर काठी न कसना, जाट औरतों को घाघरे में नाड़ा न डालकर उसे रस्सी से बांधना, राजा की रसोई के लिए केवल जाटों द्वारा ही जंगल से लकड़ी लाना, वह भी नंगे पैरों तथा अपने कुत्तों को साथ ले जाना आदि आदेश जारी किये और उनको बड़ी शक्ति से मनवाया। यह कर्म इसके बाद इनके वंशज चन्द्र ने भी जारी रखा तथा इनके पौत्र राजा दाहिर ने इन नियमों को ओर भी कठोर बना दिया। याद रहे इसी दाहिर ब्राह्मण राजा ने अपनी सगी बहन से विवाह किया था क्योंकि इन्हें किसी पाखण्डी ने बहकाया था कि यदि वह अपनी बहन से शादी करेगा तो उससे उत्पन्न पुत्र छत्रपति सम्राट होगा। यूरोपीयन इतिहासकार लिखते हैं कि चच राजा का राज आने तक सिंध के जाट गुलामी का अर्थ भी नहीं जानते थे। यही चच ब्राह्मण राजा था जिसने अपने “चचनामा” में जाटों को चाण्डाल जाति लिखा है। (पुस्तक - हिस्ट्री एण्ड स्टडी आफ दी जाट्स)

सन् 712 में अरब के खलीफे इज्जाम ने अपने 22 साला भतीजे बिन-कासिम को इस धनाढ्य सम्पन्न राज को अपने अधीन करने के लिए एक भारी सेना के साथ सिंध में भेजा। वहाँ 8 दिन भयंकर लड़ाई हुई और जब बिन कासिम के पैर उखड़ने ही वाले थे तो दाहिर का ब्राह्मण मंत्री ज्ञानबुद्ध व पुजारी मनसुख तथा हरनन्दराय रात्रि में बिन-कासिम से मिले और घूस के लालच में बिन-कासिम को लड़ाई जीतने के लिए एक युक्ति बतलाई कि लड़ाई के मैदान से दिखने वाले एक मन्दिर के ऊपर लहराते ‘केसरिया ध्वज’ (झण्डा) को गिरा दिया जाये ताकि हिन्दू सेना अपना साहस छोड़ दे। अगले दिन प्रातः जब लड़ाई शुरु हुई तो हिन्दू सेना को अपने मन्दिर का झण्डा नहीं दिखने पर अपने होंसले छोड़ बैठी और विजय बिन-कासिम के साथ रही। इस लड़ाई में बिन-कासिम के सिपाहियों ने राजा दाहिर का सिर काट दिया। इन्हीं गद्दार ब्राह्मणों ने बिन-कासिम


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को गुप्त खजाने का रास्ता बतलाया जो 40 देगों में उस समय के लगभग 72 करोड़ रुपये की कीमत का था। इसके बाद उसी मन्दिर के पुजारियों ने बिन कासिम से खाने में खीर की मांग की। बिन-कासिम ने खीर तो क्या उन सभी गद्दारों के सिर कलम करवा दिये और राजा दाहिर की रानी व दोनों लड़कियों स्वरूप देवी और बीरलदेवी तथा हिन्दुओं की सैंकड़ों अन्य लड़कियों (कुछ इतिहाकारों ने इनकी संख्या हजारों में भी लिखी है) को पकड़कर अरब भिजवा दिया। इस प्रकार भारतवर्ष की गुलामी की नींव का दूसरा पत्थर रख दिया गया। आज उन्हीं ब्राह्मणों के वंशज गुजरात में कनागतों (श्राद्ध) के समय खीर की जगह ‘पिज्जा’ की मांग करते हैं। (टी.वी. ‘आज तक’ 2005) यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि फिर भी जाटों ने ब्राह्मणों का साथ दिया। (पुस्तक चचनामा व सर्वखाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम आदि-आदि)।

यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि इस लड़ाई में दाहिर का साथ देने के लिए सर्वखाप पंचायत ने अपने 20 हजार सैनिक भेजे थे और चच तथा दाहिर के अन्याय के बावजूद जाटों ने ब्राह्मणों का साथ दिया।

याद रहे सिंध के जाटों ने चच के जुल्मों के कारण इस्लाम धर्म अपनाया था न कि बिन कासिम व औरंगजेब के कारण।


(5) इतिहास में लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान जयचन्द की लड़की संयोगिता से प्यार करता था जो उसकी मौसी की लड़की थी। जब लड़ाई में जयचन्द को हराकर पृथ्वीराज चैहान संयोगिता को लेगया तो जयचन्द के पुरोहितों ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज पर चढ़ाई करने का न्यौता दिया और उसे लड़ाई में अपना पूरा सहयोग देने का वायदा किया और इस वायदे को जयचन्द ने तरावड़ी की लड़ाई में मोहम्मद गौरी का साथ देकर पूरा किया, जिस पर भारत के एक और महान् राजा पृथ्वीराज चौहान की हार और मौत हुई। यही लड़ाई भारतवर्ष की गुलामी की नींव का तीसरा पत्थर साबित हुई। वही जयचंद बाद में गौरी के हाथों लड़ाई में मारा गया। (इसे नदी में डुबोकर


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मारा गया था)


(6) मुगलराज की स्थापना में बाबर का सबसे बड़ा सहयोग करने वाला हिन्दू ब्राह्मण वजीर रेमीदास था जिसने बाबर को उत्तर भारत की पूरी जानकारियां दीं, जो एक बहुत ही बुद्धिमान् और चतुर आदमी था। इसी प्रकार गजनी की सेना में तिलक नाम का हिन्दू ब्राह्मण था जिसने भारतवर्ष के मन्दिरों की पूरी जानकारियां देकर इनको गजनी के हाथों लुटवाया। अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे बार्बर (नाई) भी लिखा है। इतिहासकार विपिनचन्द्र तथा डा. रोमिला थापर आदि इतिहासकारों को बतलाना चाहिए कि ये गद्दार कौन थे? यही कहानी अंग्रेज शासन आने पर दोहराई गई। जब अंग्रेजों ने सूरत में अपना पहला कारखाना लगाने की सोची तो वहां के पाखण्डियों ने अंग्रेजों के सामने अपना मांग पत्र रखा और उसके मानने पर ही अंग्रेजों ने वहां कारखाना लगाया।


(7) चच और दाहिर ब्राह्मण ने जो प्रयोग जाटों के विरुद्ध सिंध में किया वही प्रयोग फिर माउंट आबू पर्वत (राजस्थान) पर ‘वृहद् यज्ञ’ रचाकर, जाटों में फूट डालकर राजस्थान में 8वीं सदी से लेकर भारतवर्ष में दोबारा से सन् 1947 में आजाद होने तक दोहराया गया। इसी कारण राजस्थान के जाटों ने एक साथ चौहरी गुलामी को झेला। (भरतपुर क्षेत्र को छोड़कर)। पहली मुगल या अंग्रेज, दूसरी हिन्दू राजपूत राजा, तीसरे जागीरदार तथा चौथे कोठडि़या राजपूत। यदि इस विषय पर गहराई से अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजस्थान में सारे ही उलटपुलट का जिम्मेवार ब्राह्मणवाद था जिसने फिर राजपूतों को आपस में लड़ाने व बर्बाद करने में भी कोई कमी नहीं छोड़ी। शूरवीर महाराणा प्रताप (गहलोत गोत्री) को पकड़वाने के लिए भी गद्दारों ने कोई कमी नहीं छोड़ी और उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए भी मजबूर किया गया। याद रहे जब राणा प्रताप का कत्ल कर दिया तो उसके परिवार की रक्षा भीलों ने की थी।

यदि उस समय के इतिहास को हिन्दू और मुसलमान के नजरिये से


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देखा गया तो इतिहास के साथ अन्याय होगा। क्योंकि सभी लड़ाईयां सत्ता के लिए या सत्ता बढ़ाने के लिए थी, यही आज भी है लेकिन प्रजातन्त्र में इसका स्वरूप अलग है कि हाथ में हथियार नजर नहीं आता वोट नजर आती है। उस समय इस देश में हिन्दू-मुस्लिम का कोई सवाल नहीं था। इसका स्पष्ट उदाहरण देखिए कि मोहम्मद गजनी का एक सेनापति तिलक ब्राह्मण तो बाबर का सेनापति रेमीदास ब्राह्मण था। जब बाबर ने इब्राहिम लोधी से लड़ाई की तो राणा सांगा इब्राहिम लोधी के साथ था। अकबर ने जब राणा प्रताप पर चढ़ाई की तो राजा मानसिंह अकबर के साथ था। राणा का सगा भाई शक्तिसिंह भी अकबर के साथ था। लेकिन राणा प्रताप की सेना का सेनापति हाकिम खान शूर था। औरंगजेब और शिवाजी के युद्ध में राजा जयसिंह औरंगजेब के साथ तो शिवाजी के तोपखाने का सेनापति एक पठान था। इसी प्रकार जैसे कि पहले लिखा है कि महाराजा सूरजमल और महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं में काफी लोग मुसलमान थे। याद रहे सन् 1790 तक हिन्दू धर्म प्रचलन में नहीं था। ये तो अंग्रेजों ने हिन्दू और मुस्लिम में स्थाई दुश्मनी पैदा करने के लिए इलियट तथा डाउसन को ऐसा इतिहास लिखने की जिम्मेवारी सौंपी थी, जैसे कि बाबरी मस्जिद की कहानी हैं। (पुस्तक - मध्यकालीन इतिहास तथा साम्प्रदायिकता पेज नं० 34-35)


जहां तक महाराणा प्रताप के वंश की बात है तो संक्षेप में बतला दें कि वे गुहिल वंशी जाट थे। सन् 728 में 15 वर्ष की आयु में सूर्य वंश की गुहिल (गहलोत) शाखा के बप्पा रावल ने अपने मामा मान मौर्य से चित्तौड़ राज जीत लिया था। इसी गहलौत वंश की एक उपशाखा चित्तौड़ के पास सिसोदा नामक स्थान पर बसने के कारण सिसोदिया कहलाई जो प्रामाणिक सत्य है कि यह जाट वंश था जो बाद में बृहत् यज्ञ के कारण राजपूत कहलाए जिसमें अग्निवंश दंत कथा जुड़ी है। वास्तविकता यह है कि इसका मूल वंश बल था और इसी वंश से सज्जन सिंह ने महाराष्ट्र में सतारा आदि रियासत की स्थापना की और भौसलमेर पर कब्जा होने


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पर इनका वंश भौंसले कहलाया। इसी वंश में छत्रपति शिवाजी महायौद्धा हुए और इसी महायौद्धा शब्द से मराठा मरहठा और मराठवाड़ा शब्दों की उत्पत्ति हुई। इसी चित्तौड़ खानदान से समरसिंह का पुत्र नेपाल गया और वहां राणा की उपाधि धारण करने पर अपना राज स्थापित किया और यह नेपाल में इसी बलवंशीय गहलौत गोत्र का राज रहा जिसमें पिछले वर्षों मारामारी हुई। उदयपुर का राज भी इसी खानदान से था। इसलिए मैं बड़े विश्वास और गर्व से लिख रहा हूं कि बप्पा रावल, महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी जैसे यौधा जाट थे और चित्तौड़, उदयपुर, मराठवाड़ा और नेपाल में जाटों ने अपने झण्डे लहराए जिसके ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। मैंने केवल सुना है कि वर्तमान में केन्द्र में मंत्री प्रफूल्ल पटेल के पूर्वज हरयाणा के हिसार जिले के रहने वाले जाट थे। यह विषय शोध का है। (पुस्तक - रावतों का इतिहास व जाट वीरों का इतिहास तथा गहलौत वंशावली आदि।)

ब्राह्मणवाद ने राजपूत जाति को ही वास्तविक क्षत्रिय माना है और यही ब्राह्मणवाद कहता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों का विनाश किया अर्थात् जिसको अपना समझा उसी का सर्वनाश किया। यदि नकली क्षत्रियों का विनाश किया तो इसमें गौरव की कौन सी बात है और फिर उन्हें 21 बार फिर से पैदा करने की क्या आवश्यकता थी? फिर यह भी कहा जाता है उन्होंने अग्नि से क्षत्रिय पैदा कर दिये जबकि अग्नि से कोई चींटी भी पैदा नहीं कर सकता। अग्नि से केवल राख पैदा हो सकती है। यह भी एक संसार के सबसे बड़े गप्पों में से एक बड़ा गप्प है और ब्राह्मणवाद की वास्तविकता है। ब्राह्मणवाद ने एक बार जाटों को भी खुश करने के लिए लिख दिया था कि जाट शिव की जटाओं से उत्पन्न हुए हैं। जबकि जट्टाओं से केवल जुएं या ढेरे पैदा हो सकते हैं।

यह प्रचार किया जाता है कि परशुराम भगवान थे तो फिर लड़ाई में भीष्म से क्यों हारे? उन्होंने अपनी मां की हत्या क्यों की थी? फिर उन्हें किस आधार पर अवतार कहा जा रहा है?


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यदि अग्नि यज्ञ या हवन से क्षत्रिय पैदा होते तो सन् 1999 के कारगिल युद्ध में वहीं पर यज्ञ करके क्षत्रिय पैदा क्यों नहीं किये? आज देश में यज्ञ सामग्री और ऐसे पण्डितों की कौनसी कमी है जो सुबह से शाम तक दुनिया का भविष्य बतलाते रहते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञ करते रहते हैं। लेकिन उन्होंने इस लड़ाई की भविष्यवाणी कभी नहीं की और ये नहीं बतला पाए कि हमारी ही पहाडि़यों में पाकिस्तानी घुसपैठिये छुपे बैठे हैं। वैसे सुबह से शाम तक हथेली में पूरा भविष्य पढ़ते हैं। यदि यज्ञ या हवन से कोई पैदा होता या मरता तो हम अब तक पाकिस्तान को 25 बार मार चुके होते। इसी साल 2007 में भारतीय क्रिकेट टीम विश्व क्रिकेट प्रतियोगिता में जाने से पहले लोगों ने बहुत यज्ञ और हवन किये जिसका परिणाम यह निकला कि भारतीय टीम जाते ही हार गई। यदि यह लोग यज्ञ व हवन नहीं करते तो हो सकता था कि दो-चार मैच जीत जाती। बाद में यही टीम 20-20 विश्व मैच में गई तो प्रथम रही। उस समय किसी ने हवन यज्ञ नहीं किया था। हवन से वातावरण अवश्य सुगंधित हो जाता है जो वैज्ञानिक है बाकी कुछ नहीं। भारतीय क्रिकेट के कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी जैसे अंधविश्वासी खिलाड़ी भी अपने खेल को संवारने के लिए बकरों की बलि चढ़ा रहे हैं। (एन.डी.टी.वी.)

पौराणिक ब्राह्मणों ने कई लेखों में लिखा है कि फलां जाटनी ने राजपूत से विवाह किया तो उसकी संतान जाट कहलाई तो फिर बगैर जाट के जाटनी कैसे पैदा हुई? कोई जरा इनसे पूछे कि जोधाबाई से पैदा होने वाली संतान राजपूत क्यों नहीं कहलाई? इस राजपूत राजकुमारी की वीरता का गुणगान होना चाहिए जिसने मुगलों के महलों के बीच मन्दिर बनवाए तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाकर अपनी कोख से मुगल खानदान का वंश चलाया। लेकिन इतिहास तो चेतक घोड़े को शहीद और बहादुर कह रहा है जबकि जानवर कभी भी शहीद व बहादुर नहीं हो सकता। वह तो वफादार और ताकतवर हो सकता है। उदयपुर से जब हम हल्दी घाटी


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में प्रवेश करते हैं तो ढलान पर इस घोड़े की यादगार (छतरी) बनी है। जहां कोई नाला नहीं, एक बरसाती पानी की नाली है। जिसे कोई भी जीव आसानी से पार कर सकता है। लेकिन इस देश में शेर अली अफरीदी को लोग नहीं जानते, जिसने देश की आजादी के लिए भारत में अंग्रेजों के सबसे बड़े अधिकारी वायसराय ‘लोर्ड माओ’ को दिनांक 18-2-1872 को सन् 1857 के नरसंहार का बदला लेने के लिए अण्डेमान निकोबार में मार दिया था। जिनकी याद में अंग्रेजों ने अजमेर में ‘माओ कालेज’ बनवाया। लेकिन वीर शहीद शेर अली अफरीदी फांसी पर चढ़कर आज भी गुमनाम है जबकि चेतक घोड़े के नाम से दिल्ली से चित्तौड़गढ़ तक रेलगाड़ी चलती है।

हम यहां यह स्पष्ट कर दें कि जोधाबाई का असली नाम यह नहीं था, यह नाम तो अकबर ने रखा था। सन् 2008 में जोधा अकबर फिल्म पर उठा विवाद कुछ हद तक उचित है। ऐतिहासिक तथ्य बतला रहे हैं कि आमेर (जयपुर) के राजा भारमल की लड़की हरखा बाई का अकबर से विवाह हुआ जिससे सलीम (जहांगीर) पैदा हुए। इसके बाद अकबर ने बीकानेर व जैसलमेर की राजकुमारियों से विवाह किए। इसी राजा भारमल की पोती मानबाई का विवाह जहांगीर से हुआ जिनसे खुसरो पैदा हुआ। इस बारे में विस्तार से जानना है तो लेखक राणा अली हसन चौहान (पाकिस्तान) द्वारा लिखित गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास का हिन्दी अनुवाद की कापी गुर्जर कन्या विद्या मन्दिर देवधर (यमुनानगर) से लेकर अवश्य पढ़ें (पेज नं० 191 से 199)। क्योंकि यहां इसका उल्लेख करना तर्कसंगत नहीं होगा।

मि० आर.सी. लेघम अपनी पुस्तक ‘एथनोलोजी आफ इण्डिया’ के पेज नं. 254 पर लिखते हैं - “The Jat in blood is neither more nor less than a converted Rajput and Vice Versa, A Rajput may be a Jat of ancient faith.” अर्थात् रक्त में जाट परिवर्तन किये हुए राजपूत से न तो अधिक है और न ही कम है। इसमें अदल-बदल भी है। एक राजपूत


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प्राचीन धर्म का पालन करनेवाला जाट हो सकता है।

विशेष नोट - राजपूत कहते हैं कि जाट राजपूतों से बने हैं जबकि जाट कहते है कि राजपूत जाटों से बने हैं। लेकिन दोनों ही इस वास्तविकता को भूल जाते हैं कि कोई भी किसी से बना हो दोनों का खून तो एक है और खून का रिश्ता दुनियाँ में सबसे बड़ा होता है। इस बात को जाट और राजपूत को कभी नहीं भूलना चाहिए जबकि ब्राह्मणवाद ने इनमें हमेशा फूट डाली और अपना स्वार्थ सिद्ध किया। (बाकी जाट-राजपूतों के रिश्ते की पूरी सच्चाई जाननी है तो पाठक कृपया कर्नल टाड का राजस्थान इतिहास भाग नं.-1 का पेज नं. 73 से 96, भविष्य पुराण पेज नं. 171-175 और जस्टिम कैम्पबैल तथा डिस्ट्रब्यूशन आफ दी रेसेज आफ दी नार्थ वेस्टर्न इण्डिया आदि-आदि पुस्तकें पढ़ें)


(8) कश्मीर में तो बगैर किसी मुसलमान आक्रमणकारी के आये ही वहाँ ब्राह्मणों ने मुसलमान राज स्थापित कर लिया। लगभग 14वीं सदी की घटना है जब वहाँ सहदेव नाम का राजा राज करता था। पंडित रामचन्द्र उनका मंत्री था। लद्दाख का बौद्ध राजकुमार रिनचिन लड़ाई में हारकर राजा सहदेव की फौज में भर्ती होकर एक दिन सेनापति बन गया। उस समय घाटी में मुट्ठीभर मुसलमान थे। शाहमीर नाम का एक अफगानी मुसलमान वहाँ धर्म का प्रचार करता था और लोगों को ताबीज बगैरा बनाकर दिया करता था जिस कारण वह वहाँ की जनता में काफी चर्चित व लोकप्रिय हो रहा था। एक दिन किस्तवाड़ के राजा ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया। राजा सहदेव एक डरपोक किस्म का संतानहीन व्यक्ति था, जो आक्रमण की बात सुनकर जंगलों में भाग गया और कभी लोटकर वापिस नहीं आया। सेनापति रिनचिन ने यह लड़ाई जीत ली। अभी पंडित रामचन्द्र का राजा बनने का अधिकार था लेकिन तुरन्त रिनचिन ने उसका वध कर दिया और स्वयं राजगद्दी पर बैठ गया। पंडित रामचन्द्र की एक सुन्दर और गुणवती लड़की कुट्टा थी। रिनचिन ने उसे


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धमकी दी कि वह उससे विवाह करले नहीं तो वह उसको भी उसके पिता के पास पहुंचा देगा। लड़की ने शर्त रखी की वह बौद्ध धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म अपनाये। रिनचिन ने इसे स्वीकार कर लिया। घाटी में ब्राह्मणों ने शंकराचार्य के आह्वान पर नौवीं तथा दसवीं सदी में लगभग इन 200 सालों में बौद्ध धर्म का लगभग सर्वनाश तो पहले ही कर दिया था। इसलिए रिनचिन के लिए धर्म परिवर्तन करना वैसे भी आवश्यक था। इसी कश्मीर में पहले बौद्ध धर्म के विश्वविद्यालय भी हुआ करते थे। (इसी ब्राह्मण शंकराचार्य का काश्मीर घाटी में ‘डल-झील’ के सामने वाली पहाड़ी पर नौंवी सदी का एक मन्दिर बना है। इसी पहाड़ी को बाद में तख्त-ए-सुलेमान नाम से जाना गया।)

जब बौद्धधर्मी राजा रिनचिन को हिन्दू बनाने का मामला वहाँ की ब्राह्मणसभा में ले जाया गया तो ब्राह्मणों ने अपना फैसला सुनाया कि “कभी कोई हिन्दू बन नहीं सकता, हिन्दू तो केवल हिन्दू के पैदा होता है”। इस प्रकार राजा रिनचिन को हिन्दू बनने से मना कर दिया गया। इस पर शाहमीर ने वक्त की नजाकत देखते हुए तथा मौके का फायदा उठाते हुए राजा के समक्ष पेश हुआ और उसने इस्लाम धर्म की विशेषताओं का व्याख्यान करके रिनचिन को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए राजी कर लिया। इस प्रकार रिनचिन काश्मीर का प्रथम मुसलमान धर्मी राजा बना, जिसने शाहमीर को अपना मंत्री बनया। कुछ दिन के पश्चात् राजौरी-पूंछ के राजा ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, जिस लड़ाई में रिनचिन (हैदर) मारा गया लेकिन लड़ाई का फैसला कश्मीरियों के हक में रहा। इस पर कुट्टा रानी ने राजसत्ता संभाली और काश्मीर पर लगभग डेढ़ वर्ष तक राज किया। एक रात शाहमीर ने कुट्टा रानी के शयनकक्ष में घुसकर उसकी हत्या कर दी और स्वयं कश्मीर का शासक बन बैठा। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि उसने शाहमीर की करतूतों से बचने के लिए अपने सिराहने रखी कटार से आत्महत्या की थी। इसी मक्कार शाहमीर के वशंजों ने कश्मीर पर 150 वर्षों तक राज किया, जिसमें इसके


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वंशजों के दो शासक इतने क्रूर और अत्याचारी हुये जिन्होंने हिन्दुओं को डराकर मुसलमान बनाने के लिए बोरियों में बन्द करके ‘डल झील’ में डलवा दिया था और इस प्रकार काश्मीर में हिन्दू अल्पमत में आगये। बादशाह अकबर की सेना से पहले तो 16वीं सदी तक वहाँ कभी कोई मुसलमान सेना नहीं गई थी। इस प्रकार ब्राह्मणों ने भारतवर्ष की गुलामी की नींव का चौथा पत्थर स्थापित कर दिया। इन्हीं ब्राह्मणों के लगभग ढ़ाई लाख वंशज आज कश्मीर छोड़कर बंतलाव, नगरोटा व चण्डीगढ़ आदि के शरणार्थी कैम्पों में रहकर अपने पूर्वजों द्वारा बोई गई फसल काट रहे हैं। आज इसी काश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के पहले दो अक्षर तथा शाहमीर के नाम के आखरी दो अक्षरों से मिलकर कश्मीर बना। काश्य+मीर = काश्मीर। याद रहे जाटों का काश्मीर पर चार बार राज रहा। जिसमें सबसे पहले रानी कुट्टा जाटनी, दूसरा अवंती वर्मन तथा उसके वंशज, तीसरा तातरान जाट तथा चौथी बार महाराजा रणजीत सिंह (पहले तीनों के राज का वर्णन राजतरंगिणी में है।)

जब औरंगजेब ने सन् 1675 में शेष कश्मीरी ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने के लिए बाध्य किया तो ब्राह्मणों का एक दल पंडित कृपाराम की अगवाई में सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी से मिले जिन्होंने ब्राह्मणों की रक्षा के लिए दिनांक 11 नवम्बर 1675 को चाँदनी चैंक में अपना बलिदान दिया। जिन्हें ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है। लेकिन इस शहीदी गुरु के बेटे गुरु गोविन्दसिंह जी के साथ ब्राह्मणों ने अपनी वफादारी को किस प्रकार निभाया? पढ़ें।


9) सिखों के दसवें गुरु गोविन्दसिंह के दोनों बड़े बेटे अजीतसिंह और झुझारसिंह दोनों ही चमकोर की लड़ाई में लड़ते हुए शहीद हुए। गुरु जी के पंजाब से निकलने के समय उनकी माता जी ने रोपड़ के गाँव खेड़ी में पंडित गंगाराम के घर शरण ले ली जो गुरुजी का कई सालों से रसोइया था। यही गंगाराम ब्राह्मण माता जी के पास कुछ गहने देखकर लालच में आया और सूबा सरहिन्द के अधिकारी नवाब जानी खाँ को


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सूचना दी की गुरु जी के दोनों छोटे बेटे जोरावरसिंह (9 वर्ष) तथा फतेसिंह (7 वर्ष) उसके पास हैं। सूबा सरहिन्द ने दोनों बच्चों को अपने कब्जे में लेकर कत्ल का आदेश दिया तो नवाब मलेरकोटला शेर मोहम्मदखाँ ने बार-बार कहा ‘सूबा सरहिन्द अपनी शत्रुता का बदला इन निर्दोष बच्चों से ना लें।’ इस पर दीवान सुच्चानन्द खत्री (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने नवाब को समझाया कि “भेड़िया के बच्चे भेड़िया ही बनते हैं, सांप के बच्चों को पालने पर भी वे सांप ही कहलाते हैं” आदि-आदि। इस प्रकार इन बहादुर बच्चों को मुसलमान बनने के लिए कहा तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। इस पर इन्हें जीवित ही दीवार में चिनवा दिया। माता गूजरी यह समाचार सुनते ही सदमे से मर गई। इस घटना पर गुरु गोविन्दसिंह जी पर क्या बीती होगी, कोई भी इंसान बड़ी आसानी से महसूस कर सकता है।

इन बच्चों की बहादुरी जैसा शायद ही विश्व के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण हो। लेकिन जब आजाद भारतवर्ष में बच्चों के नाम बहादुरी का पुरस्कार स्थापित करने की बात आई तो यह पुरस्कार नौसेना के एक अधिकारी ‘चोपड़ा’ (हिन्दू पंजाबी खत्री) के दो बच्चों जो गुरु जी के बच्चों से बड़े थे, जिन्हें गुण्डों ने मार दिया था (लगभग सन् 1982 में) के नाम स्थापित किया गया, यह कौनसा न्याय था? इससे पहले पता नहीं कितने बच्चों को गुंडों ने इस देश में मार दिया था। इसी प्रकार एक व्यापारी ‘पुरी’ के बच्चे का अपहरण होने पर मामला संसद में गूंजा, जबकि यहां रोजाना बच्चों के अपहरण होते रहते हैं। क्या विपिनचन्द्र व डा. प्रमिला थापर जैसों ने ऐसी घटनाओं की सत्य जानकारियां देने के लिए इन्हें स्कूल के पाठ्यक्रमों में शामिल किया? ब्राह्मणों की गद्दारी पर लेखक एल. आर. बाली इतिहासकार दौलतराम के हवाले से इस प्रकार लिखते हैं। (पुस्तक - हिन्दुइजम पेज नं. 253) -

“ब्राह्मण एक ऐसेसी जाति है जो लम्बे समय से हिन्दुओं के शरीर से जोंक की भांति खून चूसकर निर्वाह करती आई है।

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इनको अपने स्वार्थ और पेटे के लिए अपने स्वामी, राजा, जाति और देश से गद्दारी करने में तनिक भी संकोच नहीं है। भारत का समस्त इतिहास इनकी धोखेबाजियों, नमकहरामियों, स्वार्थों और लालचों से परिपूर्ण है। इनको न मांगने में शर्म है और न भीख मागने में कोई लज्जा। न इनमें मैत्री है और न कृतज्ञता का गुण।”

याद रहे कि सिखों ने पंजाब में सन् 1947 की मारकाट में मलेरकोटला के मुसलमानों के साथ एक भाई की तरह बरताव करके मलेरकोटला के नवाब की गुरु जी के बच्चों के साथ सहानुभूति को अपनी वफादारी से सिद्ध कर दिया, जिस कारण आज मलेरकोटला पंजाब में मुस्लिम-बाहुल्य कस्बा है।


(10) यह लगभग सन् 1340 की बात है जब चित्तौड़ के बलवन सिंह गहलौत गोत्री सज्जन सिंह ने महाराष्ट्र में सतारा नाम की रियासत की स्थापना की और इसी खानदान से एक और योद्धा भीमसिंह लड़ाई हारकर महाराष्ट्र चले गए और वहां भौंसलमेर पर कब्जा करने पर इनका वंशज भौंसले कहलाया। वरना ये बलवंशी बाल्याण थे। इन्हीं के वंशज शिवाजी हुये जिनका इतिहास तो हम सभी जानते ही हैं। यही छत्रपति शिवाजी बाद में ब्राह्मणवाद के जाल में बुरी तरह फंसे कि उन्हें समझाया गया कि इतिहास उन्हें शूद्र लिखेगा, इसलिए काशी के ब्राह्मणों से फतवा जारी करवा के क्षत्रिय घोषित करवाये। इस प्रकार शिवाजी ने इस कर्म के लिए काशी के ब्राह्मणों को बुलवाकर 1 करोड़ 42 लाख हून (1 हून 3 रुपये के बराबर) अर्थात् 4 करोड़ 26 लाख रुपये दान दक्षिणा के तौर पर दिनांक 6 जून 1666 में रायगढ़ में ब्राह्मणों को दिये। इस घूस में ब्राह्मणों के मुखिया गंगाभट्ट ब्राह्मण के हाथ 1 लाख 21 हजार रुपये लगे और इस प्रकार शिवाजी शूद्र नाम से डरकर जाट से क्षत्रिय मराठा होकर हीरो बन गये। जबकि इसी ब्राह्मण गंगाभट्ट ने शिवाजी का राजतिलक अपने हाथ की बजाए पैर के अंगूठे से किया था। इन्हीं ब्राह्मणों ने इसके लड़के सम्भा जी को नशेड़ी बनाया और फिर उसके पिता शिवाजी के विरोध में मुगलों


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के कमांडर दलेर खाँ के नेतृत्व में सन् 1678 में भूपलगढ़ की लड़ाई में लड़वाया और इसी वंशज को ब्राह्मणों ने सतारा के किले में कैद कर उस पर नजर रखने का काम महाक्रूर निर्दयी त्रिंबकजी डेंगले को सौंपा था। इसी शिवाजी को इन्हीं पेशवा ब्राह्मणों ने औरंगजेब की कैद में डलवाया जिसे मिठाइयों के बहाने टोकरों में ताना जाट ने बाहर निकाला (इनका गोत्र मोलसूरा था) जिस पर एक दोहा है -

“देखा है बहुत जमाना, है कहीं-कहीं याराना,
वह जाट बहादुर ताना, शिवाजी को कैद से छुड़ाना”

इन्हीं पेशवा ब्राह्मणों ने बाद में इनके राज पर अधिकार किया तथा शिवाजी की संचित की हुई ताकत का उपयोग लूटमार में किया। पानीपत की तीसरी लड़ाई का हवाला देते हुए लोग महाराजा सूरजमल पर लांछन लगाते हैं कि उन्होंने पेशवा मराठा ब्राह्मणों का साथ नहीं दिया जबकि ऐसे लोग सच्चाई से बिल्कुल भी वाकिफ नहीं हैं। पहली बात तो महाराजा सूरजमल उस समय भारत के एकमात्र राजा नहीं थे। राजा होलकर को छोड़कर बाकी देश के हिन्दू राजा क्या कर रहे थे? जब अहमदशाह अब्दाली दुर्रानी चौथी बार भारत आये थे तो उन्होंने सूरजमल के राजक्षेत्र में लूटपाट की, उस समय यही मराठा सेना राजस्थान में मटरगस्ती क्यों करती रही और बचाव में क्यों नहीं आई? क्या मराठों ने भी सूरजमल के क्षेत्र में पहले दो या तीन बार लूटमार नहीं की थी? महाराजा सूरजमल के सामने सन् 1761 में दो लुटेरे थे। पहले स्वदेशी लुटेरे पेशवा ब्राह्मण तथा दूसरा विदेशी लुटेरा अब्दाली दुर्रानी। इतिहास गवाह है कि महाराजा सूरजमल ने आखिर तक पेशवा ब्राह्मणों की सहायता की लेकिन लड़ाई में लड़कर साथ नहीं दिया। क्योंकि घमण्डी सेनापति भाऊ ब्राह्मण ने सूरजमल की एक भी सलाह नहीं मानी। जिसमें सबसे पहली सलाह थी कि वे अपने चार हजार परिवारों को जो लड़ाई के मैदान में हैं उनको वहाँ से हटाकर उनके किलों डींग व भरतपुर आदि में भिजवा दें। दूसरी मुख्य सलाह थी कि अब्दाली से छापामार पद्धति से ही लड़ा जाये जिसमें


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जाट माहिर थे तथा अब्दाली की विशाल सेना से सीधा ना लड़ा जाये आदि-आदि। भाऊ इतना घमण्डी था कि उसने सलाह मानना तो दूर, महाराजा सूरजमल को आँखें दिखानी शुरू कर दी जिसे कोई भी आत्मसम्मानी जाट बरदाश्त नहीं कर सकता था, वे तो महाराजा सूरजमल थे। इस युद्ध को कोई मुसलमान और हिन्दुओं के मध्य युद्ध समझता है तो उसकी यह अज्ञानता है। यह सरासर ब्राह्मणवादी प्रचार है। वास्तव में अब्दाली लुटेरा उसी क्षेत्र में लूटमार करने आता था जिस क्षेत्र में पेशवा ब्राह्मण कर रहे थे। इसलिए यह तो दो लुटेरे दादाओं की आपसी लड़ाई थी। हिन्दू-मुस्लिम या देश के लिए नहीं थी। महाराजा सूरजमल को सहयोग इसलिए देना पड़ा कि इससे उसका क्षेत्र प्रभावित हो रहा था। वरना वे भी तमाशा देखते रहते, जैसे देश के सैकड़ों राजा देख रहे थे। इसकी सम्पूर्ण जानकारी के लिए डा० जी.सी. द्विवेदी की शोध पुस्तक ‘जाट और मुगल साम्राज्य’ के पेज नं. 236 से 265 तक पढ़ना चाहिये।


(11) ‘पंजाब केसरी’ महाराजा रणजीतसिंह से हम सभी परिचित हैं जिनका राज काबुल व कन्धार तक था, जब तक वे जीवित रहे अंग्रेजों ने उनके राज की तरफ आँख उठाकर देखने का साहस तक नहीं किया। लेकिन 27 जून 1839 को बुखार के कारण इस महान् सम्राट् का निधन होगया तो गद्दारों ने इनका राज अंग्रेजों के हाथ सौंपने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। पंजाब को अंग्रेजों की गुलामी से बचाने के लिए पंजाब के सिक्ख व सिक्ख जाट लगभग 6 साल तक अपना खून बहाते रहे लेकिन गद्दारी करनेवाले सोहनलाल सूरी (हिन्दू पंजाबी खत्री) अंग्रेजों का भी वेतनभोगी खुफिया ऐजण्ट बना रहा। जो उनसे 125 रुपये वार्षिक वेतन लेता था तथा पंजाब से गद्दारी तथा अंग्रेजों की वफादारी की कीमत उनके वंशज पैंशन के तौर पर सन् 1947 तक वसूलते रहे। राजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद डोगरा बन्धुओं गुलाबसिंह, ध्यानसिंह और सूचेतसिंह जो कभी राजा के पहले सैनिक और फिर सेनापति बनते चले गये (काश्मीर इन पैराडाईज अंग्रेजी की पुस्तक में लिखा है कि ये पहले महाराजा के


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अर्दली थे जो उनकी मालिश किया करते थे) जिन्होंने अपनी वफादारी का परिचय रणजीतसिंह के वंशजों के साथ गद्दारी करके दिया, जिसमें जम्मू को अपनी रियासत बनाने के लिए इस खानदान को तबाह करने में इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसमें उसके छोटे पुत्र दलीपसिंह को अंग्रेजों के पैरों में डलवा दिया, जिस पूरे इतिहास को पढ़कर किसी भी इंसान की आँखों में आंसू छलक आयेंगे। लेकिन इन विश्वासघातों व बेईमानियों का एक लम्बा इतिहास है। अंग्रेजों के साथ सिखों की लड़ाई के समय सिक्ख सेना की तोपों में बारूद की जगह सरसों का दलिया तक भरवा दिया। इसके बाद अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी करके गुलाब सिंह डोगरा ने जम्मू कश्मीर को अंग्रेजों से ढ़ाई लाख पौण्ड में खरीदा।

याद रहे यह पैसा भी महाराजा रणजीत सिंह के खजाने का था जो उनकी मृत्यु के समय 12 करोड़ था। जिसे बाद में विश्वासघातियों ने धीरे-धीरे उड़ा लिया। इतिहास साक्षी है कि पहले भी इन लोगों ने गद्दारियां की थी। सभी जानते हैं कि शाहजहां के चारों बेटों में गद्दी के लिए लड़ाई हुई जिसमें बड़ा लड़का दारशिकोह बड़ा ही खुद्दार व विद्वान् और हिन्दू परस्त था। औरंगजेब ने जब इसके विरुद्ध लड़ाई की ठानी तो दारा की बेगम नादिरा ने जम्मू के राजपूत रामरूप डोगरा को अपनी छातियों का दूध भेजा तथा दारा ने साथ में लाखों मोहरें इस विश्वास के साथ भेजी कि लड़ाई में वह उसका साथ देगा। रूपराम ने नादिरा को मुंह बोली मां माना लेकिन यही रूपराम दिनांक 3 जुलाई 1658 को ब्यास नदी के तट पर औरंगजेब से मिल गया। यह दुनिया का सबसे बड़ा विश्वासघात था जिसने अपनी मुंहबोली मां के दूध की कसम खाकर भी अपमान किया। इसलिए गुरु गोविन्द सिंह जी ने कहा था कि ये पहाड़ी राजा विश्वास के योग्य नहीं हैं। बाकी आपने ऊपर कश्मीर विषय में पढ़ ही लिया हैं इस लड़ाई में सर्वखाप पंचायत ने दारा शिकोह की मदद के लिए अपने 20 हजार सैनिक भेजे थे। यह सच्चाई भारतीय इतिहास क्यों नहीं लिखता?


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कमलेश्वर अपनी पुस्तक ‘कितने पाकिस्तान’ के पेज नं० 227 पर लिखते हैं कि ‘हिन्दुओं ने चाहे जितनी कायरता दिखाई हो और कितना भी विश्वासघात किया हो, यह साफ जाहिर है कि क्षत्रिय धर्म और राजपूती की चाहे कितनी शौर्य गाथा गाएं - शिवाजी और राणा प्रताप को छोड़कर बाकी शौर्य निर्वीर्य और नपुंसक रहा।’ यह प्रमाणित सत्य है कि राणा प्रताप गहलोत गोत्री और शिवाजी भौंसले गोत्री जाट थे। लेकिन इतिहास ने महाराजा सूरजमल और महाराजा रणजीत सिंह को कैसे भूला दिया जिन्होंने अपने जीवन में कभी कोई लड़ाई नहीं हारी। यही तो भारतीय इतिहास का खोखलापन है। रानी झांसी का गुणगान किया जाता है जिसके लिए अंग्रेजों ने स्वयं माना कि 1857 के गदर में उसका कोई हाथ नहीं था और होडल की रहने वाली महाराजा सूरजमल की बहादुर रानी किशोरी जिसने 1764 में हाथी पर चढ़कर लाल किले पर चढ़ाई की, को इतिहास ने कैसे भूला दिया? जिसके आज तक हरियाणा के गांवों में लोकगीत प्रचलित हैं -

ना रेशमी सलवार ना कुर्ता जाली का।
था मर्दाना बाना होडल वाली का......॥

इसी प्रकार हम देखते हैं कि सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ और सरदार पटेल के आह्वान पर भारतवर्ष के तीन रियासतों के शासकों ने अपनी रियासतों का भारतसंघ में विलय करने से मना कर दिया जिसमें हैदराबाद और जूनागढ़ के मुसलमान शासक थे तथा जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह ही केवल हिन्दू (राजपूत डोगरा) थे। क्या यह राजा हरिसिंह की देश के साथ गद्दारी नहीं थी कि उन्होंने भारतवर्ष में मिलने से मना कर दिया था? मैं यहां यह स्पष्ट कर दूं कि सन् 1947 में जब सरदार पटेल जी ने भारतीय संघ में देशी रियासतों के विलय का आह्वान किया तो उनमें सबसे पहले विलय होने वाली रियासतों में जाटों की रियासत भरतपुर उनमें से एक थी। जब 27 अक्टूबर सन् 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर में कबाईलों की घुसपैठ करवाई और महाराजा


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हरिसिंह की कश्मीर में ब्रिगेडियर राजेन्द्रसिंह के अधीन कुल 165 सैनिकों की सेना लड़ते-लड़ते शहीद हुई तो वही राजा हरिसिंह भागकर दिल्ली पहुंचे और पंडित नेहरू तथा लार्ड माउंटबैटन से काश्मीर को संभालने की लिखित में प्रार्थना की। जब 18 सितम्बर 1948 को सरदार पटेल ने जूनागढ़ को फतेह करने के बाद मेजर जनरल जे.एन. चैधरी की अगवाई में हैदराबाद को फतेह कर लिया तो पंडित नेहरु ने समझ लिया अब पटेल का अगला निशाना जम्मू काश्मीर है तो उन्होंने तुरन्त जम्मू कश्मीर रियासत का विभाग जो पहले पटेल के गृहमंत्रालय के अधीन था, छीन लिया। जब 27 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी कबाईलों को खदेड़ते हुए भारतीय सेना पाक अधिकृत कश्मीर की ओर बढ़ रही थी तो पं. नेहरू ने दूसरी मूर्खता करते हुए एकतरफा युद्धविराम का ऐलान कर दिया जिस कारण आधा कश्मीर पाकिस्तान के पास रह गया। इसी बीच पं. नेहरू ने संयुक्त राष्ट्रसंघ (यू.एन.ओ.) में लिखित रूप में देकर तीसरी गलती की कि कश्मीरियों को यह अधिकार दिया जाये कि वो किस देश के साथ रहना चाहते हैं। आज वही लिखित पत्र हमारे गले की हड्डी बनकर फंसा है, यदि हम उस पत्र के अनुसार चलते हैं तो निश्चित है आज कश्मीरी भारत के साथ नहीं आयेंगे। इसीलिए पाकिस्तान बार-बार उस पत्र पर अमल की बात करता है तो हमें पीछे खिसकना पड़ता हैं। परिणामस्वरूप आज हर तीसरे दिन उत्तर भारत की एक माँ का लाडला पूत, बहन की राखी का रक्षक, पत्नी के माथे का सिन्दूर व चूडियों का पहरेदार लकड़ी के खोखे में बन्द होकर और तिरंगे झण्डे में लिपटकर अपने घर पहुंच रहा है। इस दर्द को केवल ऐसी विधवा ही समझ सकती है। मेरी माँ आज से 65 साल पहले अपने गौने (मुकलावा) के तुरंत बाद दूसरे विश्वयुद्ध के समय विधवा हुई, हालांकि उन्होंने बाद में अपने पति के छोटे भाई (मेरे पिता जी) की चादर ओढ़ी (पुनर्विवाह) लेकिन उन्हें देहांत (6 जुलाई 2009) तक अपने पति (मेरे शहीद ताऊ बलदेवसिंह जी) छत पर खड़े नजर आते थे। हम इससे


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बड़ी आसानी से समझ सकते हैं कि उन पर कितना बड़ा मनोवैज्ञानिक दबाव रहा था। जीवन जीने और जीवन बिताने में बहुत अन्तर है। पं. नेहरू ने अपने कश्मीरी प्रेम (रिस्ता) के कारण स्वयं संविधान में धारा 370 सम्मिलित करवाई। पं. नेहरू की मूर्खताओं व कायरता की वजह से आज तक हम उसकी क्या कीमत चुका चुके हैं, चुका रहे हैं और चुकाते रहेंगे? ये सब किन लोगों की गद्दारियां थीं? देश के क्रांतिकारी कवि हरिओम पंवार बिल्कुल सही गाते हैं आज मरे पड़े हैं नेहरू के सफेद कबूतर घाटी में। वास्तव में ये सफदे कबूतर नेहरू जी के ही हैं। इन्हें जिन्दा करना है तो अभी एक ही रास्ता है कि आज जो नेता और लोग नेहरू का गुण-गान कर रहे हैं उनके जवान बच्चों के हाथों में हथियार देकर काश्मीर घाटी में हमारी सेना व अर्धसेना के आगे उग्रवादियों से लड़ने के लिए लगा दिया जाये। यह इस समस्या के समाधान की गारंटी है।


(12) जिस प्रकार कुछ भाड़े के इतिहासकार पहले नकली हीरो पैदा करते रहे वैसे ही इतिहासकारों ने कुछ नकली हीरो 1857 की क्रांति के समय भी पैदा किये जिस कारण 1857 के बाद भारत बुरी तरह से अंग्रेजी सत्ता में जकड़ा गया। उसका मुख्य जिम्मेवार एक व्यक्ति था, जो बंगाली ब्राह्मण था। जब नई ‘इन फिल्ड राईफल’ आई तो उनको ग्रीस देने के लिए अंग्रेजी सरकार ने भेड़-बकरी की चर्बी का आदेश दिया। लेकिन इस बंगाली ब्राह्मण ठेकेदार ने गाय की चर्बी सप्लाई की जो ज्यादा सस्ती पड़ती थी। इसी कारण सब बवाल मचा जिसमें मंगल पाण्डे जैसे हीरो बनाये गये, जबकि सच्चाई यह है कि वह बेचारा आजादी की परिभाषा तक नहीं जानता था। उसने तो गाय की चर्बी के कारण भांग के नशे में एक अंग्रेज अफसर ह्मसन को गोली मार दी थी। जो स्पष्ट तौर पर एक धार्मिक कारण था जिसे भारत की स्वतंत्रता से जोड़ दिया गया और उनका चित्र एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में संसद भवन के हाल तक पहुंचा दिया गया।


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यदि ईमानदारी से कहा जाये तो मंगल पांडे का सन् 1857 की क्रान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था। यदि था तो केवल इसके विफल होने के बड़े कारण थे। क्योंकि क्रान्ति का दिन 31 मई 1857 निश्चित था जिसका मंगल पांडे को कोई पता नहीं था। इससे स्पष्ट है कि उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं था। इसलिए उसने कारतूस में लगी गाय की चर्बी के कारण 15 फरवरी 1857 को गोली चलाकर अंग्रेज लैटिनेंट अंग्रेज ह्मसन को गोली मारने के कारण उसे 8 अप्रैल 1857 को फांसी हो चुकी थी फिर इसमें आजादी की बात कहां से आ गई? मंगल पांडे को धर्म भगत तो कहा जा सकता है लेकिन देशभगत नहीं। इनका देशभक्ति का इतिहास पूरा मनघड़न्त है।

इसी प्रकार रानी लक्ष्मीबाई की कहानी है। जब वह अपने दत्तकपुत्र दामोदर राव को झांसी की गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं बनवा पाई तो चुप बैठकर पूजा पाठ करने लग गई। उसकी विद्रोह करने की कोई योजना नहीं थी और ना ही उसने स्वेच्छा से इसमें भाग लिया। जब झांसी के किले को क्रांतिकारी सैनिकों ने घेर लिया तो अंग्रेज कैप्टन गोर्डन भी घिर गये तो उसने रानी से मदद मांगी जिस पर रानी ने पत्र लिखकर उत्तर दिया ‘मुझे भी सैनिकों ने घेर लिया है, मैं क्या मदद करूं, फिर भी मैंने आपकी मदद के लिए गोला, बारुद व सिपाही भेज दिये हैं।’ इन लेखों से प्रमाणित है कि रानी ने गुप्त रूप से गोर्डन को 50-60 बन्दूकें, गोला बारूद और 50 अंगरक्षक दिये थे। जब 67 अंग्रेज किले में मारे गये तो इस बारे में इतिहासकार लेखक सर जान लिखते हैं, “इस हत्याकाण्ड में रानी लक्ष्मीबाई का कोई हाथ नहीं था। न तो उसका कोई आदमी मौके पर विद्यमान था और न ही उसने हुक्म दिया था।” एक लेखक मिश्रा जी ने अपनी पुस्तक में यहां तक लिखा है कि रानी झांसी कैप्टन गार्डन की प्रेमिका थी। यह पुस्तक उसी समय 2008 में प्रतिबंध हो गई। यदि हम इन बातों को भी असत्य मानें तो भी हमें इतिहास के नजरिये से यह मानना होगा कि यह क्रान्ति सन् 1857 के अंत तक विफल हो चुकी थी


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और लगभग सभी क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने जनवरी 1858 तक सजाएं दे दी थी तो रानी जी इस अवधि में चुप क्यों बैठी रही। एक लेखक का तो यह कहना है कि जब 1857 में क्रान्तिकारी उससे गोली बारूद मांगने के लिए गए तो उसने एक भी गोली देने से मना कर दिया तो फिर रानी को अचानक मार्च 1858 में कैसे देश प्रेम हो गया? कई लेखकों ने तो लिखा है कि उसकी लड़ाई के अपने निजी कारण थे। यह पूरा ही विषय विरोध का नहीं शोध का है क्योंकि इसके पीछे दत्तक पुत्र वाली कहानी स्पष्ट हैं। जैसे कि कुछ लेखकों ने लिखा है स्थानाभाव के कारण यह किस्सा इस पुस्तक में यहीं छोड़ा जा रहा है। लेकिन यह सच्चाई है कि रानी का इस संग्राम में कोई योगदान नहीं था। यह सरासर झूठ है कि वह पीठ पर बच्चे को बांधकर लड़ी। वह कोई पहाड़ की रहने वाली नहीं थी कि बच्चे को पीठ पर बांधकर चल भी सके। बच्चे को पीठ पर बांधकर कोई फसल भी नहीं काट सकता लड़ाई की बात तो छोड़ो। इसमें शोध की आवश्यकता है। 1857 के सच्चे हीरो तो राजा नाहरसिंह, उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी, नाना साहिब, तात्या टोपे, अब्दुल रहमान नवाब झज्जर आरै राजा कुंवरसिंह आदि थे। जिसमें नाना जी जब महाराजा सिंधिया की शरण में आये तो उन्होंने उसे अंग्रेजों के सुपर्द कर दिया तथा तांत्या टोपे को महाराजा सिंधिया ने गिरफ्तार करवा दिया। क्या यह सिंधिया की गद्दारी नहीं थी? महाराजा नाहरसिंह बल्लभगढ़ व उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी ने दिल्ली के खूनी दरवाजे से लेकर बल्लभगढ़ के किले तक अंग्रेजों को नचा-नचा कर मारा और हार नहीं मानी। महाभारत का युद्ध तो केवल 18 दिन चला था, हल्दी घाटी की लड़ाई तो मात्र साढ़े तीन घण्टे चली जिसमें कुल 59 सैनिक शहीद हुए थे। लेकिन नाहरसिंह का युद्ध तो पूरे 134 दिन चला। इसके बाद भी अंग्रेज उसे पराजित नहीं कर पाये, तो अंग्रेजों ने संसार का सबसे बड़ा अधर्म किया कि शांति के प्रतीक सफेद झण्डे दिखलाकर अंग्रेज अफसर हैण्डरसन ने वार्तालाप के बहाने बुलाकर राजा नाहरसिंह व उनके सेनापति


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गुलाबसिंह सैनी को गिरफ्तार कर लिया। इस पूरे समय में ब्राह्मण गंगाधर कौल क्रांतिकारियों की मुखबरी करके अंग्रेजों की सेवा करता रहा। जब अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को विफल कर दिया तो इसी गद्दार पंडित गंगाधर कौल को पदोन्नत करके दिल्ली का कोतवाल बना दिया। राजा नाहरसिंह व उसके साथियों पर 20 दिन मुकदमे का ड्रामा रचकर अंग्रेजों ने इन्हें 9 जनवरी सन् 1858 को इनके प्रिय व महान् योद्धा सेनापति गुलाबसिंह सैनी, साथी भूरासिंह व खुशालसिंह को फांसी देने के लिए दिल्ली के चांदनी चौंक में पंडित गंगाधर कौल उन्हें शृंगार कर लाया। समय का तकाजा देखिये कि इसी गंगाधर कौल का सगा पौत्र पंडित नेहरू देश का प्रथम प्रधानमंत्री बना। क्या पं० नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ जिसका मीडिया ने आज तक जोरदार प्रचार किया है अपने दादा गंगाधर कौल का जिक्र किया? कहीं नाम तक भी नहीं लिखा? इसी प्रकार इनकी पुत्री भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल के समय लाल किले में इतिहास के ताम्रपत्र दबवाए तो अपने खानदान के वर्णन में अपने परदादा गंगाधर कौल का इतिहास क्यों नहीं लिखवाया? पाठकों को देश के गद्दारों के बारे में पढ़ना है तो यह पुस्तकें अवश्य पढ़ें - ‘Letters of Spies and Delhi was Lost’ और ‘Jeevan Lal Traitor of Mutiny’ ये जीवनलाल कायस्थ जाति से सम्बन्ध रखते थे जो गंगाधर कौल तथा राजा सिंधिया की तरह 1857 के बड़े गद्दार थे। जिस आत्मसम्मान और इस जमीन के लिए राजा नाहरसिंह 34 वर्ष की आयु में शहीद हुये उनकी न तो चांदनी चैंक में मूर्ति है न ही संसद में कोई चित्र और ना ही किसी प्रकार की दिल्ली में यादगार जबकि गद्दार गंगाधर कौल के वंशजों के नाम हजारों बीघा जमीन पर राजघाट से लेकर शांन्तिवन तक शानदार स्मारक बने हैं। जबकि इस देश का नारा है ‘सत्यमेवेव जयते।’ न ही सत्य था आरै न ही कहीं जीत थी। मेरा देश वाकई में महान् है और इस प्रकार ‘शहीद’ की परिभाषा ही बदल डाली और जो शहीद नहीं थे उनको शहीद कहा जा रहा है।


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(पुस्तक ‘राजा नाहरसिंह का बलिदान’ लेखक रणजीतसिंह सैनी।)

1857 का इतिहास गवाह है कि जाटों ने इस स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य बलिदान दिये जिसमें अंग्रेजों ने उनके गाँव के गाँव उजाड़ दिये तथा सड़कों पर सरे आम उन पर बुलडोजर चलवाकर या पेड़ों पर फांसी देकर शहीद कर दिया। जाट पुरुष ही नहीं, जाटनियां व उनकी लड़कियां भी पीछे नहीं रहीं। यहाँ केवल दो ही उदाहरण दिये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बड़ौत के पास बिजवाड़ा में एक जाट लड़की धर्मबीरी ने 18 अंग्रेज सैनिकों की गर्दन कलम करके परलोक पहुंचा दिया था और वह स्वयं लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुई। इसी प्रकार इसी क्षेत्र में घर में चरखा कातने वाली तीन लड़कियां ज्ञानदेवेवी, सूखबीरी तथा शांति को जब मालूम हुआ कि उनके गाँव में अंग्रेज सैनिक घुस आये हैं तो ये तीनों लड़कियां पड़ोसी खातियों के घरों से कुल्हाड़े ले आई और गली में कोने पर घात लगाकर बैठ गईं। जैसे-जैसे अंग्रेज सैनिक आते गये उनको काटती रही। इस प्रकार उन्होंने कुल 64 सैनिकों पर वार किया जिसमें 36 वहीं मर गये बाकी संगीन रूप से घायल हो गये। फिर छतों पर चढ़कर अंग्रेज सैनिकों ने इन्हें गोलियों से शहीद किया। पूरे गाँव को बाद में अंग्रेजों ने आग लगवादी थी। उस क्षेत्र में आज भी ऐसे अनके गीत प्रचलित हैं -

‘एक कहानी अजब सुनो, सन् अठारह सौ सत्तावन की।
एक लड़की देश खाप में ब्याही थी, गठवाला बावन की॥,
नाम था धर्मबीरी इसकी उम्र थी अठाईस साल की।
बड़ोत तहसीली गार्द के, ठारहा गौरों की तेग से गर्दन उड़ाई॥
आदि-आदि


लेकिन अन्तर यह है कि इस विशाल इतिहास को विपिनचन्द्र व डॉ. रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने प्रमाण-पत्र नहीं दिया, जबकि रानी लक्ष्मीबाई का गुणगान करते रहे। लेकिन इन बहादुर लड़कियों की कहीं कोई यादगार नहीं। यही बहादुरी का इतिहास राजस्थान की जटपुत्री राणाबाई का है जबकि लक्ष्मी बाई की जगह-जगह मूर्तियां लगी हैं। यह


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अन्याय है और जाटों की लापरवाही भी।

यह प्रमाणित इतिहास है कि आगरा के लालकिले पर जाटों का अधिकार रहा है। महाराजा जवाहर सिंह तो यहां बैठकर राजपाट भी चलाते थे। यहां से मात्र दो किलोमीटर दूर ताजमहल है जो इन्हीं के अधीन था। लेकिन आगरा के इन किलों पर जाटों का आज कोई चिह्न तक नहीं छोड़ा गया जबकि अंग्रेजों के नाम भी लिखे हैं। सबसे बड़ी ताज्जुब की बात तो यह है कि इस किले और ताजमहल के बीच रानी झांसी की घोड़े के साथ बड़ी मूर्ति लगी है जबकि रानी का इस क्षेत्र से कभी कोई रिश्ता नहीं था। जबकि जाटों का राज दिल्ली की चारदीवारी तक फैल चुका था। इसलिए एक मुगल शायर ने कहा था - दिल्ली का शाह आलम सीमा दिल्ली से पालम। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि भरतपुर के लौहगढ़ के किले में जाट शासकों की कोई मूर्ति नहीं लेकिन पं० नेहरू की मूर्ति तो वहां भी स्थापित कर दी गई है। क्यों? जाट कौम उत्तर दे? आज भरतपुरडींग के किले अपनी किस्मत और जाट कौम को रो रहे हैं। उन पर सजी तोपें गिरने वाली हैं। पत्थर चूना उखड़ रहा है। वहां मातम जैसा माहौल है। लेकिन इस बहादुर कौम जाट को पता नहीं क्यों लकवा मार गया कि इन्हें देखने का समय भी नहीं। इसलिए मैं जाट कौम के लोगों से प्रार्थना करता हूं कि जब भी किसी को समय मिले तो कम से कम एक बार अपनी आंखों से इस अपने उजड़ते हुए चमन को अवश्य देखे।

लेकिन यही इतिहासकार टीपू सलतान को बहादुरी का प्रमाण-पत्र देते रहे और इसके नाम से ‘टीपू सुलतान की तलवार’ आदि टी.वी. धारावाहिक बनते रहे और हम भारतवासी बड़े चाव से देखते रहे हैं। जबकि उसी तलवार ने हजारों हिन्दुओं का जबरदस्ती खतना करवाया और उनको गौमाँस तक खिलाया। दो हजार नायर स्त्रियों को पकड़कर अपने सैनिकों को पेश किया तथा दस हजार पुरुषों को दास बनाया। सचमुच मेरा देश महान् है।


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विशेष बात है कि हमारे देश ने वर्ष सन् 2007 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ मनाई, इसके लिए जो कमेटी भारतीय सरकार ने बनाई है उसमें कोई भी जाट सदस्य नहीं था। कहने का अर्थ है कि इस वर्षगांठ को भी वही लोग मनाने जा रहे थे, लगभग जिनके पूर्वजों ने इसी संग्राम में भारतवर्ष के साथ गद्दारी की। हो सकता है ये इसे अंग्रेजों के हक में एक खुशी के रूप में मनाया हो।

इस अवसर पर हरयाणा सरकार की बेशर्मी देखिए कि जब सन् 2008 में फतेहाबाद में स्वतन्त्रता संग्राम के शहीदों की याद में प्रदर्शनी लगी तो राजा नाहरसिंह का चित्र और नाम गायब था। फतेहाबाद से चौ० सतबीर सिंह डागर ने उचित मांग की है कि फरीदाबाद के स्टेडियम का नाम ‘नाहर सिंह स्टेडियम’ की बजाए ‘राजा नाहर सिंह स्टेडियम’ कर दिया जाए क्योंकि फरीदाबाद के वर्तमान सांसद अवतार सिंह भडाना ने प्रचार करना शुरू कर दिया है कि यह उसके पिता नाहर सिंह के नाम से है। विशेषकर फरीदाबाद व बल्लभगढ़ के जाटों को जाग जाना चाहिए। (द ट्रिब्यून - दोनों ही खबरें)


(13) हम सभी जानते हैं कि सन् 1962 में चीन के साथ लड़ाई में हमारी शर्मनाक हार हुई थी। जब चीन ने ‘मैकमोहन लाइन’ को मानने से इंकार कर दिया तब भी पंडित नेहरू ने सन् 1954 में चीन के साथ ‘पंचशील’ समझौता किया। चीन हमारी सीमा के नजदीक सड़क बनाता रहा और अपनी सेना का जमावड़ा करता रहा। 21 अक्टूबर सन् 1959 को सी.आर.पी.एफ. के दस जवानों को हमारी जमीन पर शहीद कर दिया, जिनकी याद में इसी दिन आज हमारी सभी भारतीय पुलिस ‘शहीदी दिवस’ मनाती है। चीन ने अक्टूबर सन् 1960 से अगस्त 1962 तक भारतीय वायुसीमा का 52 बार उल्लंघन किया, इन सभी हालातों को देख कर हमारे पश्चिमी कमान के चीफ ले. जनरल दौलतसिंह (सिक्ख जाट) ने बार-बार दिल्ली मुख्यालय को पत्र लिखे लेकिन दिल्ली में


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पंडित नहेरू की मण्डली आर्मी चीफ जनरल पी.एन. थापर और रक्षासचिव सरीन आदि (दोनों ही हिन्दू खत्री पंजाबी) अपनी खिचड़ी पकाते रहे और उनकी एक बात भी नहीं सुनी और भारतीय फौज की हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती चली गई। जब 20 सितम्बर 1962 को चीन ने धोला पोस्ट पर कब्जा किया तो मामला संसद में गूँजा लेकिन नेफा में तैनात चौथी कोर के कमांडर ले. ज. बी. एम. कौल (कश्मीरी ब्राह्मण) बीमारी का बहाना बनाकर लड़ाई का मैदान छोड़कर दिल्ली पहुंच गये। यही कौल साहब पहले दिल्ली को सूचित करते रहे कि हमें चीन से किसी प्रकार का खतरा नहीं है। चीन हमें गोलियों से मार रहा था और हम उसका जवाब पत्र लिखकर दे रहे थे और साथ-साथ ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा भी लगाते रहे। यह जानकर पाठकों को हैरानी होगी कि पं. नेहरू ने जुलाई 1962 के पहले 10 दिनों में कुल 378 पत्र चीन को लिखे थे। जहाँ जवाब गोलियों से देना था वहाँ पत्रों से दिया जा रहा था। ले. जनरल कौल जिसने कभी एक बटालियन (लगभग 1000 सैनिक) की कमान नहीं की थी उनको लड़ाई के मैदान में लगभग 27 हजार सैनिक कमान के लिए दे दिये। पं. नेहरू ने इन्हें नेफा में चौथी कोर का कमांडर बनाया था लेकिन दुर्भाग्य से बाद में चीन ने हमला कर दिया तो कौल साहब बुरे फंसे, वरना ये शेख अब्दुला की मुखबरी करके नेहरू के विश्वासपात्र बने थे। कौल साहब नेहरू के गोत्र भाई थे।

ब्रिगेडियर होशियारसिंह (राठी गोत्री हिन्दू जाट) का 62वां ब्रिगेड शैला (Tsela) नामक स्थान पर तैनात था जो चीन को हर तरह से कारगर जवाब देने में सक्षम था। इसी बीच शायद लज्जा के कारण (वैसे नेहरू जी में लज्जा थी तो नहीं) नेहरू जी ने कौल साहब को फिर से मौर्चे पर धकेल दिया। जब ब्रिगेडियर होशियारसिंह तथा उसके मातहत कमांडर व सैनिक लड़ाई के लिए तैयार थे तो अचानक 17 नवम्बर की रात का को उनका आदेश मिला कि “वह अपना स्थान छोड़कर डिविजनल मुख्यालय दोरेरांग जोंग में पहुंचें” क्योंकि कौर कमांडर कौल तथा


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डिविजनल कमांडर मे. जनरल ए.एस. पठानिया (हिन्दू राजपूत डोगरा) को अपने-अपने मुख्यालयों की सुरक्षा की पड़ी थी। क्योंकि दोनों ही जनरल चीन से बुरी तरह भयभीत हो गये थे और वे ब्रिगेडियर होशियारसिंह की सुरक्षा पाकर अपने को सुरक्षित करने में लगे थे। वीर ब्रिगेडियर होशियारसिंह एक आदर्श कमांडर के तौर पर आदेश का पालन करते हुये अपने साथ दो कम्पनी लेकर रात में चल पड़े और दूसरे दिन प्रातः रास्ते में चीन के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। शुरु में तो ब्रिगेडियर साहब पर लांछन लगे कि वे स्वयं लड़ाई का मैदान छोड़ गये, लेकिन जब हकीकत सामने आने लगी तो दोनों जनरल एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगे। यही मूर्खतापूर्ण आदेश भारत की शर्मनाक हार का दूसरा कारण बना। लड़ाई की समाप्ति पर ‘हैण्ड्रसन ब्रुक्स’ नाम से एक रिपोर्ट तैयार करवाई जिसके अनुसार जनरल कौल तथा जनरल पठानिया के बयान इस प्रकार हैं -

जनरल कौल इसका दोष जनरल पठानिया पर इस प्रकार लगाते हैं -

"Pathania is solely responsible for the Tsela debacle, who lost his nerve and all the time seemed concerned to pull Hoshiar Singh's Brigade form Tsela to Dirong Zong, his divisional HQ, so as to give himself greater protection". अर्थात् - “शैला की लड़ाई की हार का एकमात्र कारण जनरल पठानिया हैं जिन्होंने अपना धैर्य खो दिया था और अपनी तथा अपने डिविजनल मुख्यालय की विशेष सुरक्षा के लिए होशियारसिंह ब्रिगेड को शैला से डिरोंग जोंग बुलाया।”

जनरल पठानिया कौल पर दोष इस प्रकार लगाते हैं -

“I had not ordered Hoshiar Singh to withdraw from Tsela that night. Hoshiar Singh had withdrawn because Kaul had earlier told them that Hoshiar Singh might have to withdarw from Tsela and must keep ready for such eventuality.” अर्थात् “होशियारसिंह का शैला छोड़ने का आदेश उस रात मैंने नहीं दिया, बल्कि कौल ने मुझे पहले बतलाया था कि होशियारसिंह को शैला छोड़कर अगले किसी हालात के लिए तैयार रहना चाहिये।”

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यह पूरी रिपोर्ट एक गंभीर लीपापोती थी क्योंकि जिस मेजर जनरल पी.एस. भगत (हिन्दू पंजाबी खत्री) को बयान दर्ज करने की जिम्मेवारी दी गई वे सभी जरनलों से जूनियर थे जिन्हें अपने सीनियर से बयान लेने का अधिकार नहीं था, इसलिए उन्होंने केवल प्रश्नावलियां भेजकर उत्तर मंगवाये जो नियम के विरुद्ध था और ये कभी भी प्रमाणित नहीं किया गया कि वास्तव में इन दोनों जनरलों में से दोषी कौन था? लेकिन सभी ने यह माना है कि ब्रिगेडियर होशियारसिंह एक महान् अनुभवी कमांडर थे जो पहले ही आई.ओ.एम. तथा आई.डी.एस.एम. जैसे वीरता के पुरस्कारों से सम्मानित थे। ब्राह्मणवादी समर्थक मीडिया आदि ने आज तक धुआंधार प्रचार किया है कि पंडित नेहरु विदेश नीति में बड़े विशेषज्ञ थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि इस लड़ाई के समय उनकी विदेश नीति की धज्जियां उड़ गईं जब 55 अफ्रो-एशियन देशों में से केवल 2 ही देशों ने भारत का समर्थन किया। पंडित नेहरू की विदेश नीति की सोच के बारे में एक बार नेताजी सुभाष ने भी सन् 1937 में पत्र लिखकर उनको सचेत किया था। जो भी हो, ब्रिगेडियर होशियारसिंह के साथ कभी भी न्याय नहीं किया गया और आज उनकी रूह हमें बार-बार पुकार कर न्याय की गुहार कर रही है। यदि नेता जी सुभाष की मृत्यु पर तीन बार जांच हो सकती है तो चीन की लड़ाई पर दो बार क्यों नहीं?

डा. रोमिला थापर को स्पष्ट करना चाहिये कि उस समय भारतीय सेना के सेनापति उनके रिश्तेदार पी.एन. थापर ने लड़ाई के मैदान से 2500 किलोमीटर दूर बैठकर अपने पद से त्याग-पत्र क्यों दिया या उनसे त्याग-पत्र लिया गया? क्या उन्हें भगोड़ा सेनापति कहना उचित नहीं होगा? इन इतिहासकारों को चाहिये कि इस लड़ाई का सच्चा इतिहास आने वाली संतानों तक पहुंचायें ताकि वे उचित विश्लेषण करके ऐसे समय में भविष्य की राह तय कर सकें।

पुस्तक Unfought War 1962 में लै० कर्नल सहगल लिखते हैं


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कि ब्रि. होशियार सिंह के शहीद होने के बाद वहां फौज के सभी सीनियर अफसर नदारद थे। जवानों ने बड़ी निराशा में मोर्चे में वापिसी की और रास्ते में हताश होकर अपनी बन्दूकों की लकड़ी फाड़कर ठंड में अपने हाथ सेके।


इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार की मण्डली सन् 1845 में पंजाब का महाविनाश करने के लिए कार्यरत थी उसी प्रकार की मण्डली ने चीन की लड़ाई में भी देश को अपमानित किया और आज हमारे देश की लगभग ढाई हजार वर्गमील जमीन चीन के अधीन गुलाम है और इस गुलामी का मुख्य कारण पं. नेहरू व उसकी मण्डली है। इसी कारण आज चीन की हिम्मत बढ़ी है कि उसने कहना शुरू कर दिया ‘पूरा अरूणाचल प्रदेश (नेफा) चीन का भाग है।’ इसका दोषी केवल और केवल पण्डित नेहरू है। यही लोग सन् 1962 में चीन के साथ लड़ाई में भारत की हार के जिम्मेवार हैं और सजा के हकदार थे जो सजा अभी तक देय है। (पुस्तकें - Guilty Men of 1962- Unfought War 1962)

इसी प्रकार अनेक शर्मनाक घटनायें हमें आज भी कचोट रही हैं कि स्वामी दयानन्द व गांधी की हत्याएं भी ब्राह्मणवाद के कारण हुई तथा इसी ब्राह्मणवाद ने क्रांतिकारी चन्द्रशेखर को इलाहबाद के ‘एल्फ्रेड पार्क’ में पुलिस के हाथों शहीद करवाया। हम आमतौर पर मुसलमान व मुगल शासकों तथा इस्लाम धर्म की ऐसी बातों के लिए आलोचना करते हैं लेकिन हमारा स्वयं का हिन्दू इतिहास ऐसी गद्दारियों व नमकहरामियों से सना पड़ा है।


प्रथम भाग समाप्त


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