Honey

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घरेलू औषध-६


मधु


लेखक


स्वामी ओमानन्द सरस्वती


प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)


अगस्त १९९६ ई०

श्रावण २०५३ वि०


Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


The author - Acharya Bhagwan Dev alias Swami Omanand Saraswati


भूमिका

मधु - आवरण पृष्ठ

प्रभुप्रद मधु (शहद) एक अमृततुल्य पदार्थ है । वह परमेश्वर की प्राणियों के कल्याण के लिए दिव्य देन है । जिस प्रकार यह जगत्प्रसिद्ध मान्यता है कि गंगाजल कभी सड़ता नहीं, पाचक व रोगनाशक है । इसी प्रकार मधु (शहद) भी एक ऐसी पवित्र वस्तु है जिसमें सड़ांद कभी उत्पन्न नहीं होती । यह शरीर से उत्पन्न होने वाली सड़ांद को भी रोकता है । फल आदि वस्तुओं को भी इसमें बहुत देर के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है ।


शहद के गुणों को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने जो अनुसंधान किये हैं, उनसे इस बात का भी पता चला है कि शहद कृमिनाशक है । डॉक्टर डब्ल्यू जी सैकट ने रोगकीटाणुओं को शहद में रखा, तो ये कीटाणु शीघ्र ही मर गए । इनमें टाईफाईड और पेचिस पैदा करने वाले कीटाणु भी थे । शहद में सड़ान्द को रोकने और कीटाणुओं का नाश करने की जो शक्ति विद्यमान है, उसने उसे भोजन में सर्वोत्तम (सर्वश्रेष्ठ) और पवित्र स्थान दिया है । हमारे पूर्वज शहद के इन गुणों से परिचित थे, इसलिए उन्होंने शहद पंचामृत का अंग माना है ।


शहद में विटामिन कम पाये जाते हैं । 'बी' वर्ग के विटामिनों के अतिरिक्त विटामिन 'सी' भी शहद में मिलता है । प्रत्येक साधारण चम्मच शहद से ४५ क्लोरीज शक्ति उत्पन्न होती है । इन तत्त्वों के अतिरिक्त शहद में अनेक प्रकार के पुष्पों की मनोरम सुगन्ध होती है जो अन्य किसी भी मिठाई में नहीं मिलती ।


सामान्य सफेद चीनी की तुलना में मधु एक उत्कृष्ट पदार्थ है । चीनी में ६६ प्रतिशत से अधिक श्वेत सार होता है जबकि मधु में केवल ५ प्रतिशत । चीनी में कोई धातुयिक तत्त्व नहीं होते और न विटामिन ही ।


मधु ७० डिग्री (फार्नहाइट) तापक्रम से नीचे रवेदार बन जाता है, उसमें गाढ़ापन आ जाता है और वह जमने लगता है । जाड़ों के दिनों में पिघलाने के लिए शहद के बर्तन को गर्म पानी में रखकर या धूप में रखकर पिघलाना चाहिए । १५० डिग्री फार्नहाइट से अधिक ताप देने से इसका स्वाद और रंग बिगड़ जाता है ।


भारत में राजयक्ष्मा अथवा क्षय रोग से एक मिनट में एक व्यक्ति मरता है । आज विश्व में क्षय रोग दिवस मनाया जा रहा है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत सहित सभी एशियाई देशों से कहा कि एशियाई देशों में विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा नये प्रकार का क्षय रोग (टी.बी.) फैलने की बहुत आशंका है । इस क्षय रोग का बहुत भयानक रूप है जो पूरे विश्व में ही फैल रहा है । इस भयंकर रोग से बचने के लिए शीघ्र ही कोई सफल पग नहीं उठाया गया तो इस रोग के रोगियों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी । अभी तक इसकी चिकित्सा में सफलता नहीं मिल रही है । ब्रह्मचर्य के पालन न करने से असाध्य रोग एड्स दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । लोगों के यत्‍न करने पर यह घटा नहीं किन्तु यह बहुत भयानक रूप धारण कर सम्मुख आ रहा है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का मत है कि क्षय रोग से ही सबसे अधिक लोगों की मृत्यु होती है । प्रतिवर्ष लगभग ३० लाख लोग इस क्षय रोग से मरते हैं । इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है । यह भयंकर रोग ब्रह्मचर्य का पालन न करने, आहार-व्यवहार के दूषित होने और अंडे-मास, मदिरा आदि नशीले पदार्थों के सेवन से क्षय एड्स आदि भयंकर रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं । प्रतिवर्ष लगभग ७० लाख नये क्षय के रोगी आते हैं । बाल्यकाल से ही माता-पिता व गुरुजन बालकों को ब्रह्मचर्य के पालन की शिक्षा दें और सर्वोत्तम भोजन मधु (शहद), गोदुग्ध आदि पदार्थों का सेवन करायें तो इन भयंकर रोगों से बचा जा सकता है ।


रूस व मध्य एशिया में पौष्टिक पदार्थों के सेवन से वहाँ के लोगों की आयु व कद बढ़ते जा रहे हैं । कई वर्ष पहले रूस में एक सम्मेलन हुआ जिसमें पाँच हजार से अधिक संख्या में दीर्घ आयु वाले लोगों ने दर्शन दिये । उन सबकी आयु १५० वर्ष से अधिक थी । जब बालक माँ के गर्भ में हो तो माता को गोदुग्ध के साथ मधु का सेवन कराना चाहिए और शिशु को उत्पन्न होते ही बालक का पिता स्वर्ण की शलाका से मधु से उसकी जिह्वा पर ओ३म् लिखे व मधु उसी शलाका से चटावे और बालक को प्रथम नौ मास तक मधु दिया जाये तो उसको छाती रोग, श्वास, कास, जुकाम, निमोनिया आदि नहीं होते ।


मधु कोई बहुमूल्य या दुर्लभ वस्तु नहीं है । साधारण मनुष्यों के लिए भी वह शुद्ध रूप में सुलभ हो सकता है । वे चाहें तो बड़ी सुगमता से मधुमक्खियों को अपने घरों में पाल-पोसकर उनसे मधु वैसे ही प्राप्‍त कर सकते हैं जिस प्रकार से अपने यहां गौ और बकरियों को पालकर उनसे दूध लेते हैं । गौ, बकरियों के चारे पर जो व्यय होता है, मधु-मक्खियों के लिए उसकी भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी । वे अपना आहार वन, जंगल के फूलों से संग्रह कर ले आती हैं । उनके रहने के लिए केवल लकड़ी के बने हुए मक्षिका कोष्टों की आवश्यकता पड़ेगी और उनकी देखभाल ही पालन-पोषण के रूप में अवश्य करनी पड़ेगी । हां, मधुमक्खियों की पालनकला को सीख लेना आवश्यक है ।


हमारे देश में चीनी का प्रयोग बहुत अधिक बढ़ता जा रहा है । प्राकृतिक चिकित्सकों ने तो चीनी को सफेद जहर माना है । चीनी के सेवन से आंतों में सड़ान्द व अल्सर पैदा होता है और अम्लपित्त (तेजाब) की उत्पत्ति होती है । इसके सेवन से सभी आयु के व्यक्तियों के यकृत खराब हो जाते हैं और उन्हें बहुत शीघ्र जुकाम होने लगता है और छाती में निमोनिया आदि रोगों की उत्पत्ति होती है और गले की ग्रन्थियां सूज जातीं हैं । इसके खाने से शरीर में चूने (कैल्शियम) की कमी हो जाती है । चीनी में कोई पोषक तत्त्व नहीं हैं और चीनी और मधु में उसी प्रकार का भेद है जैसा दूध और शराब में होता है । दुग्ध अमृत है । शराब विष है । इसी प्रकार मधु अमृत और चीनी विष है ।


इस चीनी ने मानव जाति के स्वास्थ्य का नाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । मधु (शहद) में वे सभी तत्त्व पाये जाते हैं जो कि शारीरिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं । प्रत्यामिन जो तन्तुओं का निर्माण करती है, लोह जो कि रक्त के लिए आवश्यक है, चूना जो हड्डियों को सुदृढ़ बनाता है । खाद्योज जिनकी पोषक महत्ता से सभी परिचित हैं, यह सभी पदार्थ शहद में पाए जाने वाली शर्करा में अधिकांश ग्लूकोज का होता है, जो बिना किसी पाचनक्रिया पर बोझ डाले शरीर में आत्मसात् हो जाता है । शहद किसी भी श्लेश्मिक कला में से गुजर कर रक्त में सीधा घुल जाता है । आप आश्चर्य में आ जायेंगे यदि मैं यह कहूँ कि शहद जब कि वह मुंह में होता है, पूर्व इसके वह हमारी भोजन नालिका द्वारा आमाशय में पहुंचे, वह रक्त में मिलना प्रारम्भ हो जाता है । मेदे में पहुंचकर शहद का आत्मीकरण भी बहुत जल्दी होता है । यही कारण है कि शहद हृदय के लिए शक्तिवर्द्धक माना गया है । थका-मांदा इन्सान चाय पीकर सुस्ती को दूर करता है, यदि वह चाय के स्थान पर शहद को पानी में घोलकर पिये तो उसे यह अनुभव कर बड़ा आश्चर्य होगा कि न केवल उसकी थकावट ही दूर हो गई है बल्कि उसके शरीर में नवीन स्फूर्ति आ गई है ।


जो देश कभी दूध की अधिकता के लिए प्रसिद्ध था, आज वह दूध के अभाव में शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से दिनप्रतिदिन अवनत होता जा रहा है । धनी और सम्पन्न व्यक्तियों को भी यथोचित मात्रा में दूध और घी नहीं मिलता । आज समाज के खान-पान की दृष्टि से इतने निकृष्ट स्तर पर पहुंचने का कारण प्रणघातक चीनी ही है । सब जानते हैं कि मिठाई बनाने के काम चीनी ही आती है । हलवाई के हाथ में अगर चीनी न हो तो आज दूध की इस प्रकार हत्या न की जाए । हमें खुरचन, मलाई, रबड़ी, पेड़ा और लड्डू नहीं प्राप्‍त हो सकें । दूध का प्रयोग अधिकतर इन मिठाइयों के बनने में हो जाता है । हमें शुद्ध घी व दूध पीने को नहीं मिलता । देश के स्वास्थ्य का हित इसमें है कि चीनी का सेवन बंद किया जावे । सरकार भी कानून बनाकर इस पर प्रतिबन्ध लगावे और जनता भी इसका कम से कम प्रयोग करे ।


रूसी लेखक डॉक्टर एड्वर्द कान्देल ने सोवियत भूमि में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा था कि जब वे मास्को के एक चिकित्सालय में गये तो उन्होंने वहां के रोगियों को एक गाढ़ी-गाढ़ी दवा को बहुत स्वाद से खाते देखा । प्रायः दवाओं का स्वाद कड़वा होता है लेकिन इस सुगन्धित फीके अंबर रंग के द्रव पदार्थ को बड़ी प्रसन्नता से गटकते देखा । यह दवा थी मधु । सारे इतिहास में रूस ने अपने शहद के लिए संसार में सर्वश्रेष्ठ इनाम पाया है । युद्ध में जख्मी सैनिकों को सौ वर्ष पुराना शहद स्वास्थ्य प्राप्‍ति के लिए देने की चर्चा आती है । प्राचीनकाल से ही रूस विभिन्न देशों में अपने मधु का निर्यात करता रहा है । आधुनिक चिकित्सकों ने रोगों पर मधु का प्रयोग किया । वे सभी इसी परिणाम पर पहुंचे कि मधु प्रत्येक रोग पर आश्चर्यजनक लाभ करता है ।


यह सभी जानते हैं कि खाने की भोजन सामग्री अधिक दिन रखने से खराब हो जाती है । परन्तु क्या ऐसा भी कोई खाद्य पदार्थ है जो हजारों वर्षों तक रखा रहने पर भी न तो सड़े और न ही बिगड़े । वह केवल मधु ही है । १९३३ में मिश्र के पिरामिड में एक मधु का पात्र मिला जो ३३०० वर्ष पुराना था । पात्र के मधु का कोई स्वाद वा गुण नहीं बिगड़ा था क्योंकि मधु में कीटाणुनाशक बहुत गुण हैं । इतना ही नहीं, यह अनेक रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं का नाश करता है और इसका सेवन उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करता है । इस प्रकार मधु के जितने गुण गाए जायें, उतने थोड़े हैं । यह सर्वोत्तम भोजन व सर्वोत्तम औषध है ।


घरेलू औषध ग्रन्थमाला का यह छठा भाग पाठकों की सेवा में आ रहा है । इसमें सामान्य रूप से रोगों के निदान वा पहचान, चिकित्सा, उपचार, पथ्य और अपथ्य पर भी प्रकाश डाला है । आशा है प्रेमी पाठक इससे लाभ उठायेंगे । इस पुस्तक की प्रैस कापी ब्रह्मचारी सुभाषचन्द्र शास्त्री ने लिखकर तैयार की है । आशीर्वाद सहित धन्यवाद ।


- ओमानन्द सरस्वती

घरेलू औषध मधु

महर्षि धन्वन्तरि जी ने चरक शास्त्र में मधु के चार नाम व भेद लिखे हैं ।

माक्षिकं भ्रामरं क्षौद्रं पौत्तिकं मधुजातयः ।

माक्षिकं प्रवरं तेषां विशेषाद् भ्रामरं गुरु ॥

मधु के भेद - १. माक्षिक, भ्रामर, ३. क्षौद्र, ४. पौत्तिक - इतने प्रकार की शहद की जातियाँ (प्रकार) होती हैं ।


किन्तु धन्वन्तरि निघण्टु में मधु के आठ नाम व पर्याय दिये हैं ।

मधु क्षौद्रं तु माक्षीकं माक्षिकं कुसुमासवम् ।

पुष्पासवं सारघं च तच्च पुष्परसं स्मृतम् ॥


पर्याय - क्षौद्र, माक्षीक, माक्षिक, कुसुमासव, पुष्पासव, सारघ और पुष्परस - ये मधु के पर्याय हैं ।


राज निघन्टु में निम्नप्रकार के पर्याय व नाम दिये हैं ।

मधु क्षौद्रं च माक्षीकं माक्षिकं कुसुमासवम् ।

पुष्पासवं पवित्रं च पित्र्यं पुष्परसाह्वयम् ॥


पर्याय - मधु क्षौद्र, माक्षीक, माक्षिक, कुसुमासव, पुष्पासव, पवित्र और पित्र्य - ये मधु के पर्याय हैं ।


धन्वन्तरि निघन्टु में मधु की आठ जातियां निम्नप्रकार से दीं हैं । इन जातियों के भेद निम्न प्रकार से दिये हैं -

माक्षिकं तैलवर्णं स्यात्क्षौद्रं तु कपिलं भवेत् ।

पौत्तिकं घृतवर्णं तु श्वेतं भ्रामरमुच्यते ॥

आपीतवर्णं छात्राख्यं पिङ्गलं चार्घ्यनामकम् ।

औद्दालं स्वर्णसदृशं दालं च पाटलं स्मृतम् ॥


अर्थ - माक्षिक मधु तैल के समान, क्षौद्र मधु कपिल वर्ण का, पौत्तिक मधु घी के समान, भ्रामर मधु श्वेत वर्ण का, छात्र मधु ईषत् पीत वर्ण का, आर्घ्य मधु पिङ्गल वर्ण का, औद्दालक मधु स्वर्ण के समान तथा दाल मधु पाटलवर्ण (गुलाबी रंग का) होता है ।


सामान्यमधु गुणाः

कषायानुरसं रूक्षं शीतलं मधुरं मधु ।

दीपनं लेखनं बल्यं व्रणरोपणमुत्तमम् ।

सन्धानं लघु चक्षुष्यं स्वर्यं हृद्यं त्रिदोषनुत् ।

छर्दिहिक्काविषश्वास् कासशोषातिसारजित् ।

रक्तपित्तहरं ग्राहि कृमितृण्मोहहृत्परम् ।


मधु के सामान्य गुण


मधु कषायानुरस, रूक्ष, शीतवीर्य, मधुर, अग्नि दीपन, लेखन, बलवर्धक, व्रणरोपण, सन्धानजनन, लघु, नेत्रों के लिए हितकर, स्वर को उत्तम करने वाला, हृदय के लिए हितकर, त्रिदोषहर, वमन, हिचकी विष, श्वास, कास, शोथ, अतिसार और रक्तपित्त को नष्ट करने वाला, ग्राही, कृमि, तृष्णा तथा मूर्च्छा को दूर करने वाला है ।


विशिष्ठमधुगुणाः


१. भ्रामर मधु -

पैच्छिल्यात् स्वादुरूपत्वाद् भ्रामरं गुरुसंज्ञितम् ।

भ्रामरं कुरुते जाड्यमत्यन्तं मधुरं च तत् ॥

पिच्छिलता तथा माधुर्य के कारण भ्रामर मधु गुरु होता है । यह अत्यन्त मधुर होता है तथा जड़ता (जकड़न) उत्पन्न करता है ।


२. क्षौद्र मधु - क्षौद्रं विशेषतो ज्ञेयं शीतलं लघु लेखनम् । अर्थ - क्षौद्र मधु विशेषतः शीतल, लघु और लेखन होता है ।


३. माक्षिक मधु - तस्माल्लघुतरं रूक्षं माक्षिकं प्रवरं स्मृतम् । अर्थ - माक्षिक मधु क्षौद्र मधु की अपेक्षा लघुतर, रूक्ष तथा सभी प्रकार के मधुओं में श्रेष्ठ होता है ।


४. पौत्तिक मधु - इसका निर्माण पुत्तिका नामक मक्खियों के द्वारा किया जाता है । यह गाढा और घी के रंग जैसा होता है । यह उष्णवीर्य, किञ्चित् कसैला, वातवर्धक, रक्तपित्त को पैदा करने वाला, भेदक, मदकारक, मधुर और कुछ विषैला होता है ।


५. भ्रामर मधु - भ्रामर मधु भ्रमर नामक मक्खियों के द्वारा बनाया जाता है, यह बहुत गाढ़ा, सफेद, पारदर्शक और मिश्री के समान रवे वाला होता है । यह बहुत स्वादिष्ट, रक्तपित्तनाशक, मूत्ररोधक, भारी, पाक में मधुर और शीतल होता है ।


६. छात्र मधु - छत्र जाति की मक्खियों द्वारा तैयार किया हुआ मधु छात्रमधु कहलाता है । यह कुछ पीले रंग का और गाढ़ा होता है । यह मधु शीतल, भारी, पाक में मधुर, तृप्तिदायक और कृमि रोग, कुष्ठ, रक्तपित्त, प्रमेह, भ्रम, तृषा तथा विष को नष्ट करने वाला होता है ।


७. औद्दालक मधु - उद्दालक नामक मधु मक्खियों द्वारा बनाया हुआ मधु औद्दालक कहलाता है । यह सोने के समान रंग वाला, चमकदार और किञ्चित् गाढा होता है । यह रुधिर को बढाने वाला, कसैला, गर्म, अम्ल, पाक में कड़वा और पित्तकारक होता है ।


८. दाल मधु - पाक में हल्का, अग्निदीपक, कफ को नष्ट करने वाला, कसैला, रूखा, रुचिवर्धक, मधुर, चिकना, पौष्टिक, वजनदार और प्रमेह को नष्ट करने वाला होता है ।


९. आर्घ्य मधु - नेत्रों को अति हितकारक, कफ तथा पित्तनाशक, उत्तम, कसैला, पाक में चरपरा, कड़वा, पौष्टिक होता है ।

पुराना मधु -


एक वर्ष के बाद पड़ा रहने वाला मधु पुराना समझा जाता है । यह पुराना मधु संकोचक, रूखा और मेदोरोगनाशक समझा जाता है, कब्ज को दूर करता है ।


नवीन मधु


यह पौष्टिक और दस्तावर होता है ।


शालिग्राम निघण्टु के अनुसार नवपुराणमधुगुणाः -

बृंहणीयं मधु वनं वातश्लेष्महरं परम् ।

पुराणं लघु संग्राही निर्दोषं स्थौल्यनाशनम् ॥

अर्थ - नवीन मधु पुष्टिकारक और वातकफनाशक है, पुराना मधु हल्का, मलरोधक, दोषरहित और स्थूलतानाशक है ।


मधु के विभिन्न नाम

हिन्दी - मधु, शहद

संस्कृत - मधु माक्षिक

बंगला - मधु, मौ

कर्णाटकी - जेनतुष्प

मराठी, गुजराती - मद्य

तेलगू - तेनी

फारसी - शहद, अगबीन

अंग्रेजी - हनी (Honey)

लैटिन - मेल (Miel)

रूसी - मेद (Med)

अरबी - आसलुल, नहल


प्रचलित भारतीय हिन्दी भाषा में मधु को शहद कहते हैं । यह मधुमक्खियों के द्वारा निर्मित होता है । मधुमक्खियां भिन्न-भिन्न प्रकार के फूलों से उनका मकरन्द (मीठा रस) चूसकर उसको अपने पेट के समीप मधु वाली थैली में भरती रहती हैं और फिर अपने छत्तों में जाकर छत्ते में बनी हुई छोटी-छोटी कोठरियों में भर देती हैं । यह मधु पहले तो पानी के समान पतला और फीका होता है किन्तु मधुमक्खियों की थैली में कुछ समय रहने के पश्चात् कुछ गाढ़ा और मीठा हो जाता है और कुछ समय छत्ते में रहने के बाद और गाढ़ा हो जाता है तथा मधु का रूप धारण कर लेता है । छत्ते में मधुमक्खियां उसे मोम में सुरक्षित करके रख देती हैं । वैसे मधु चिपचिपा और कुछ पारदर्शक, वजनदार, सुगन्धियुक्त, हल्के भूरे रंग का अत्यन्त मीठा, गाढ़ा और जल में भली प्रकार घुल जाने वाला एक प्राकृतिक द्रव (बहने वाला) पदार्थ ही है ।


हम पहले लिख चुके हैं कि मधु आठ प्रकार का होता है । इनमें से छः प्रकार के मधु छः जातियों की मक्खियों द्वारा तैयार होते हैं किन्तु दाल और आर्घ्य जाति के मधु को सुश्रुत में वृक्ष उद्‍भव लिखा है । अर्थात् फूलों का रस स्वयं टपक-टपककर पत्तों पर गिरता है और कुछ काल पड़ा रहने पर जमकर मधु का रूप धारण कर लेता है । इसको दाल मधु कहते हैं । जिस वृक्ष के फूलों से यह रस टपकता है उसी वृक्ष के स्वभाव के अनुसार इसका मधु, रूप, रंग और स्वाद वाला होता है ।


आर्घ्य मधु - आर्घ्य नामक मधु महुवे के पेड़ से टपककर गाढ़ा हो जाता है । यह मधु जब महुवे के पेड़ से टपकता है तो बहुत गाढ़ा होता है परन्तु कुछ समय पश्चात् हवा और धूप लगते ही जमकर गोंद के समान हो जाता है । यह मधु बहुत ही साफ, महुवे के फूल के समान गंधवाला और स्वाद में अत्यन्त मीठा होता है ।


शुद्ध मधु की पहचान

अन्य वस्तुओं के समान मधु के अंदर भी अन्य वस्तुओं का मिलाव बहुत होने लगा है । नगरों में असली मधु की प्राप्ति होती ही नहीं । मधु में लोग चीनी, गुड़, मैदा आदि पदार्थ और अरारोट आदि वस्तुओं को मिला देते हैं । बनावटी शहद तो केवल गुड़ या चीनी के शीरे में नीम्बू का सत्व मिलाकर बनाया जाता है । नट जाति के लोग बनावटी शहद के बनाने में अत्यंत कुशल होते हैं । उनके बनाए हुए शहद की कितनी ही परीक्षायें कर लो, वह कभी फेल नहीं होता, किन्तु नकली मधु तो नकली ही होता है । आयुर्वेद शास्त्र में असली मधु के गुण व लक्षण बताये हैं, वे निम्न हैं -


१. असली शुद्ध मधु को कुत्ता नहीं खाता ।

२. मधु में रुई की बत्ती भिगोकर उसे जलाने से वह बत्ती घी और तेल की बत्ती के समान जलती है ।

३. सामान्य मक्खी को पकड़कर उसे शहद में डुबो दीजिये । न वह मक्खी मरेगी और न ही डूबेगी - लेकिन कुछ देर बाद तैरती हुई ऊपर आ जायेगी और उड़ जायेगी ।

४. चौथी परीक्षा मधु की उसकी गंध, रूप और स्वाद से की जाती है किन्तु यह सब परीक्षायें पूर्ण और पर्याप्त नहीं हैं । सहारनपुर में नकली शहद बनाने के बड़े-बड़े कारखाने हैं जो नकली शहद ऐसा बनाते हैं कि सामान्य आदमी तो क्या, विशेष व्यक्ति भी उसे पहचानने में फेल हो जाते हैं । उपरलिखित सभी परीक्षायें कर लेने के बाद भी शहद के खरीदने में धोखा हो जाता है ।


नकली शहद बनाने वाले इतने चतुर होते हैं कि उनका बनाया हुआ शहद ऊपर वाली परीक्षाओं में सरलता से उत्तीर्ण हो जाता है । परन्तु उनके जाने के दो-चार दिन बाद उस शहद की पोल खुल जाती है । इसलिए शहद विश्वसनीय स्थान व व्यक्तियों से खरीदना उत्तम है ।


मधु उत्पत्ति की आधुनिक योजनाएं


इस विज्ञान के युग में मधुमक्खियों का पालन और उनके द्वारा मधु की प्राप्‍ति एक रुचिकर व मनोरंजक विषय है । इस विषय में मनुष्य जितना प्रयास कर रहा है, वैसे-वैसे मधुमक्खियों के विषय में उसका ज्ञान बढ़ता जा रहा है । यह विज्ञान मनोरंजन की सीमा से निकलकर आर्थिक सीमा में प्रवेश कर गया है । अब यूरोप में भी प्रविष्ट हो गया है और बहुत से स्थानों पर आर्थिक दृष्टि से मधुमक्खियों के पालन ने व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है । इस प्रकार व्यवसाय करने वाले लोग लकड़ी के बनावटी छत्ते बनाते हैं और चतुराई से उन छत्तों में मधुमक्खियों को लाकर पालते हैं । भारतवर्ष में भी मधुमक्खियों के पालन का कार्य बढ़ता जा रहा है ।


सामान्य रूप से मधु के गुण-दोष और प्रभाव

हमारे प्राचीन ऋषियों के मत से मधु मीठा, स्वादिष्ट, शीतल, रूखा, स्वर को शुद्ध करने वाला, ग्राही, नेत्ररोग हितकारी, नस-नाड़ियों को शुद्ध करने वाला, सूक्षम, वर्णशोधक, कान्तिवर्धक, मेधा बुद्धि को बढ़ाने वाला, रुचिकारक, आनन्दक, कसैला, वातकारक, कुष्ट, बवासीर, खांसी, रुधिरविकार, चर्म रोग, कफ, प्रमेह, कृमि, मद, ग्लानि, तृषा, वमन, अतिसार, दाह, क्षतक्षय, हिचकी, त्रिदोष, अफारा, वायु विकार और कब्ज का नाश करने वाला है ।


सब प्रकार के मधु व्रण, जख्मों को भरने वाले और टूटी हड्डियों को जोड़ने वाले होते हैं । इसका अधिक सेवन कामोद्दीपक भी है ।


चरक शास्त्र के अनुसार - मधु भारी, शीतल, कफनाशक, छेदक, रूक्ष, मीठा और कसैला होता है ।


हारीत के मतानुसार - मधु शीतल, कसैला, मधुर, हल्का, अग्निदीपक, शरीर को शुद्ध करनेवाला, ग्राही, नेत्रों का हितकारी, अग्निदीपक, व्रणशोधक, नाड़ी को शुद्ध करने वाला, घाव को भरने वाला, हृदय को हितकारी, बलकारक, त्रिदोषनाशक, पौष्टिक तथा खांसी, क्षय, मूर्च्छा, हिचकी, भ्रम, शोष, पीनस, प्रमेह, श्वास, अतिसार, रक्तातिसार, रक्तपित्त, तृषा, मोह, हृदयरोग, नेत्ररोग, संग्रहणी और विषविकार में लाभदायक होता है ।


भिन्न-भिन्न प्रकार के मधु

यह विशेष ध्यान में रखने की बात है कि मधु के गुण देश और काल के भेद से पृथक्-पृथक् होते हैं । शहद एक स्वतन्त्र व एक ही समान गुण वाली वस्तु नहीं है । भिन्न-भिन्न काल में और भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न प्रकार के फूलों से मधुमक्खियां इसको ग्रहण करती हैं । इसलिए देश, काल और वस्तु के अनुसार इसके गुणों में भिन्नता होना निश्चय से स्वाभाविक ही है । इसलिए मधु को ग्रहण करते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए । देश के अनुसार तो उत्तम मधु हिमालय प्रदेश का होता है जहां सहस्रों प्रकार के पुष्पों वाले वृक्ष अपने सौरभ से वायुमंडल को व्याप्‍त किए होते हैं । तेज गर्मी के कारण भी वहां उष्णता का अनुभव नहीं होता, वहां का मधु शुद्ध, गाढ़ा, स्वादिष्ट, शीतल, विषरहित और निर्दोष होता है । विन्ध्याचल प्रदेश का मधु हिमालय की अपेक्षा कुछ कम गुण वाला होता है क्योंकि वहां का जलवायु विशेष रूप से गर्म होता है । मारवाड़ आदि मरुभूमि वाले प्रदेशों का मधु जहां फूलों के वृक्ष कम होते हैं, और भी कम गुणवत्ता वाला होता है । काल के अनुसार तो शीतकाल का संग्रह किया हुआ मधु सर्वोत्तम होता है क्योंकि इन दिनों सब वनस्पतियां पककर रसपूर्ण हो जाती हैं । इन निर्दोष और पुष्ट वनस्पतियों द्वारा रसों का संग्रह करके मधुमक्खियां मधु का निर्माण करती हैं । ग्रीष्म और वर्षाकाल का संग्रह किया मधु उत्तम नहीं होता । इसके अतिरिक्त जिन जंगलों में जिन जाति के वृक्षों की बहुलता होती है उस मधु में भी उन्हीं वृक्षों के गुण पाये जाते हैं । संकुचित धर्म वाले वृक्षों से जो मधु मिलेगा वह कब्ज करेगा । इसी प्रकार विरेचक गुण वाले वृक्षों से संग्रह किया मधु विरेचक गुण वाला होगा ।


नीम मधु - नीम के फूलों से एकत्र किया हुआ मधु शीतल, रक्तशोधक, अर्शनाशक और कुछ कटु स्वादवाला होगा ।


पद्म मधु - कमल के फूलों से मधुमक्खियों द्वारा प्राप्‍त किया हुआ शहद नेत्र रोगों और हृदय रोगों के लिए प्रभु का आशीर्वाद ही समझिये । जिन तालाबों और झीलों में कमल के फूल बहुत अधिक होते हैं, मधुमक्खियां उन्हीं कमल के पौधों पर अपने छत्ते बना लेती हैं और उन्हीं फूलों से अपने छत्ते में मधु इकट्ठा करती रहती हैं । यह मधु पद्म मधु के नाम से संसार में प्रसिद्ध है । काश्मीर की डल झील में बड़े परिणाम से कमल की खेती होती है । यह शहद काश्मीर में ही पैदा होता है ।

गुलाब मधु - पुष्कर (अजमेर) आदि क्षेत्रों में जहां गुलाब के बाग बहुत बड़ी संख्या में हैं, वहां पर मधुमक्खियों के लगे छत्तों से गुलाब मधु प्राप्‍त हो सकता है । यह भी आंखों के लिए अमृततुल्य होता है । इसका सेवन कब्ज को भी दूर करता है ।


मधु (शहद) ही अमृत है

परमपिता परमात्मा की कृपा से अनेक गुणकारी वस्तुऐं हमें ऐसी प्राप्त हुईं हैं जिन्हें हम अमृत नाम दे सकते हैं । जैसे मधु (शहद) जीवन में सबको अमृतपान करा देता है । यह आबाल, वृद्ध, सभी आयु वर्ग के लिए समान रूप से सुपाच्य और शक्तिवर्धक है । स्वास्थ्यप्रद होने से मधु में रोग निवारण शक्ति भी विद्यमान है । इसी कारण आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति में मधु को विशेष स्थान दिया गया है । भगवान ने छोटी मधुमक्खियों को जन्म दिया और उनको वह शक्ति प्रदान की कि सहस्रों फूलों से रस चूस-चूसकर उन्होंने एक स्वादिष्ट सन्तुलित आहार की रचना कर डाली । उसने जहां मधु को स्वास्थ्यवर्धक बनाया, साथ ही मधु में रोग निवारण की अद्भुत शक्ति उसने प्रदान कर डाली । शहद का रंग-रूप और गंध भी आकर्षक है । इसमें शक्तिप्रद शर्करा, अतिरिक्त लोहा, तांबा, डाक्टरों के मतानुसार फासफोरस, पोटाशियम, कैल्सियम सहित अनेक खनिज तत्त्वों, प्रोटीन तथा विटामिन बी एवं सी सहित कुछ अन्य विटामिनों का ऐसा विशिष्ट अनुपात डाल दिया कि विज्ञान का दम भरने वाले वैज्ञानिकों के लिए ऐसा खाद्य पदार्थ बनाना असंभव नहीं तो सहज भी नहीं है । यह कौशल परमात्मा ने विशेष रूप से मधुमक्खियों को ही प्रदान किया है । इन्हीं नन्हीं-नन्हीं मधुमक्खियों द्वारा सहस्रों फूलों का रस चूसकर प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी औषध मधु व शहद के रूप में तैयार कर डाली । निःसन्देह मधु परमात्मा की अनमोल निधि है ।


शहद के अद्‍भुत गुण जान लेने के बाद मनुष्य ने प्रकृति के साथ मिलकर शहद की उत्पादकता बढ़ाने की दिशा में कार्य किया और वर्तमान में बाक्स टाइप छत्तों में मधुमक्खियां पालकर शहद प्राप्‍त किया जाने लगा है । इन बाक्सों को नर्सरी अथवा फूल से युक्त फसलों के मध्य रखकर अधिक मात्रा में शहद प्राप्‍त किया जा सकता है । इन बक्सों में एकत्रित शहद की यह विशेषता होती है कि आस-पास जैसे परागकण होते हैं वैसे ही स्वाद का शहद एकत्र होता है । उदाहरण के तौर पर सरसों और सूरजमुखी की फसल के दौरान एकत्रित शहद के स्वाद, रंग में अन्तर होगा । बादाम के बगीचों में एकत्र किया गया शहद अलग स्वाद का होगा, परन्तु गुण की दृष्टि से शहद शहद ही होता है ।


शहद के विषय में एक बड़ा भ्रम

प्रायः अधिकतर लोगों में यह बड़ा भारी भ्रम है कि शुद्ध शहद जमता नहीं किन्तु शीतकाल में अधिक सर्दी से असली शुद्ध शहद भी जम जाता है । शहद का न जमना शुद्धता की कसौटी नहीं । शहद को थोड़े गर्म पानी या धूप में रखकर तरल किया जा सकता है क्योंकि शुद्ध शहद में शक्कर, चीनी, ग्लुकोज आदि की मिलावट भी हो सकती है । अतः शुद्धता के बारे में सन्तुष्टि कर लेनी चाहिये । इसकी शुद्धता की जांच के विषय में पहले लिख चुके हैं ।


शहद की एक और विशेषता है कि यह वर्षों तक पड़ा रहने पर भी खराब नहीं होता क्योंकि इसमें जीवाणु-नाशक शक्ति होती है । प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि शहद नमी को सोख लेता है और किसी भी प्रकार के जीवाणु को पनपने के लिए नमी की आवश्यकता होती है । इसलिए शहद में जीवाणु पनप नहीं सकते । यही कारण है कि हर समय हरे रहने वाले घाव को भरने व सुखाने के लिए मधु का प्रयोग किया गया तो थोड़े दिनों के शहद के प्रयोग से घाव ठीक हो गया । इसी प्रकार अगर किसी घाव से रक्त बंद नहीं हो रहा हो तो मधु का लेप लगाने से रक्त तुरन्त बंद हो जाता है ।


उदर रोगों की सर्वोत्तम औषध मधु

आमाशय भोजन का पाचन करता है जिससे रक्त उत्पन्न होकर शरीर के अंग-प्रत्यंग की पुष्टि होती है । अतः स्वास्थ्य आमाशय के ठीक होने पर ही निर्भर है । आमाशय दुर्बल होने से पाचनशक्ति न्यून हो जाती है और भोजन को ठीक नहीं पचा सकती । अतः शरीर के सभी अवयवों को यथोचित बल नहीं मिलता । इसलिए व्यक्ति दुर्बलता का ग्रास बन जायेगा । अतः चतुर वैद्य आमाशय की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखते हैं और मधु आमाशय को बल देता है । पाचनशक्ति का सहायक है । आमाशय के दोषों और दूषित मल का नाशक है । वमन, हिचकी, अतिसार को मिटाता है । मधु में यह भी गुण है कि जब तक उदर में दूषित मल होता है, उल्टी (कै) और दस्त अधिक आने लगते हैं । उदर के भली-भांति साफ होने पर यह स्वतः बन्द हो जाते हैं और रोगी ठीक हो जाता है ।


उदर और आंतों के रोग


गन्ने से चीनी, खांड, गुड़, शक्कर जो बनते हैं इनका सेवन आजकल प्रायः सभी लोग अधिक मात्रा में करते हैं । ये उदर में पड़े रहते हैं और देर से पचते हैं । शरीर इसको पचाकर बहुत देर में उसको शरीर का अंग बनाता है । इसलिए कभी-कभी इस शर्करा पर सूक्ष्म जीवाणु आक्रमण कर देते हैं और तब आंतों में सड़न पैदा हो जाती है और साथ-साथ अपान वायु बिगड़कर गैस बनने लग जाती है । पेट में अफारा हो जाता है । खट्टी डकार आतीं हैं । डकार के साथ सड़ने से उत्पन्न अम्ल मुख में आते हैं जो मार्ग में छाती और गले में जलन पैदा करते हैं । बोलचाल में इसे कलेजे की जलन और चिकित्सकों के शब्दों में दाह कहा जाता है, यद्यपि इसका हृदय से कोई संबन्ध नहीं होता । जिन व्यक्तियों का पाचन संस्थान इस प्रकार का हो, अगर वे खांड के स्थान पर मधु खाऐं तो उन्हें कोई कष्ट न हो, क्योंकि मधु की शर्करायें इतनी जल्दी शरीर द्वारा ग्रहण कर रक्तसंचार में मिल जातीं हैं । इसलिए सड़ान्द पैदा होने का अवसर ही नहीं मिलता और कोई विकार पैदा नहीं होता । पेट रोगों में चरक हल्के व दीपक पथ्यों में शहद देने का आदेश देते हैं । आमाशय और आंत्रशोध जैसी अन्न मार्गों की शोथयुक्त अवस्थाओं में मधु देने में भय नहीं होता और ग्रीष्म में अतिसार के रोगियों के लिए भी यह लाभप्रद है । गर्मी में अतिसार के सब रोगियों को आधा पाव जौ के पानी में छः माशे शहद डालकर दिया जा सकता है । इससे लाभ होगा ।


उदर रोगनाशक शर्बत


विधि - बालछड़, मस्तगी रूमी, दालचीनी, बड़ी इलायची, ऊद, हल्दी कच्ची, जावित्री - प्रत्येक सात माशे, लौंग साढ़े तीन माशे इन सबको जौकुट करके तीन सेर पानी मिलाकर उबालें । दो सेर जल रहने पर छान लें । इसमें चार सेर शुद्ध मधु डालकर पकावें । ऊपर का झाग उतारते जावें । शर्बत की चाशनी ठीक पकने पर उतार लें । शीतल होने पर शीशियों में भर दें । इसको अधिक गुणकारी बनाने के लिए इसे आग से उतारने के पीछे इसमें मस्तगी रूमी का बारीक चूर्ण अच्छी तरह मिला लें ।

सेवन विधि - इस शर्बत को प्रातःकाल खाली पेट व सायंकाल एक तोला चाट लिया करें और धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ाते जायें । यह शर्बत आमाशय और यकृत के सभी रोगों को दूर करता है ।


पाचनशक्तिवर्धक योग


भोजन करने के पीछे दोनों समय एक-दो तोला शहद चाट लिया करें । इससे खाया-पिया भोजन भली प्रकार से पच जाता है और पाचनशक्ति बढ़ती है ।


उदर पीड़ा नाशक योग


शुद्ध मधु दो तोला, बड़े पीपल को खूब बारीक पीसकर एक तोला मधु में मिला लें । इसकी एक मात्रा छः माशे रोगी को खिलाएं । यदि एक मात्रा से पीड़ा ठीक हो जाय तो अच्छा है अन्यथा एक घण्टे बाद छः माशे की एक खुराक और दे दें । इससे उदर पीड़ा अवश्य शान्त हो जायेगी ।


आँत रोग


आँतड़ियों की बनावट बड़ी ही कोमल है । यदि आँतों में रोग उत्पन्न हो तो वे बड़ी कठिनता से अच्छे होते हैं । पीड़ा इतनी होती है कि रोगी बेहोश हो जाता है । मधु इन रोगों के लिए अनुपम दवा है । यह कब्ज को खोल देता है । बच्चों की कब्ज को तोड़ने के लिए केवल मधु देना ही पर्याप्‍त है ।


कई बार इससे पेट में मरोड़े होने लगते हैं और अजीर्ण हो जाता है । छोटे बच्चों को अरण्ड का तैल देने के लिए यह उपयुक्त अनुपान है । अतः इस तैल में आधा या बराबर मधु मिलाकर चटा दिया करते हैं । परन्तु यदि इसमें थोड़ा-सा अनीसों या सौंफ का अर्क मिला दिया जाय तो अच्छा है । इससे पेट में मरोड़े पैदा होने की आशंका नहीं रहती ।


आंतों के घाव


जब आँतों में घाव पड़ जाते हैं तो पेट में सदैव पीड़ा बनी रहती है । मरोड़े से दस्त लगते हैं और रोगी हर समय पीड़ा से व्याकुल रहता है । यदि साथ में आँतों में सूजन भी हो जाए तो पीड़ा की कोई सीमा ही नहीं रहती । इसकी औषधि यह है -


विधि - बारतंग (Ribwort) के दो तोला बीजों को एक सेर पानी में उबालें । जब पानी तीन पाव रह जाये तो इसे खूब मलकर छान लें । इसमें पाँच तोला पानी मिलाकर बस्ती अर्थात् एनीमा करें । इसको कुछ दिन करने से आंतों के घाव व सूजन मिट जाती है । निरन्तर प्रयोग से सब घाव भर जाते हैं । औषध सेवन के समय शीघ्र पचने वाला भोजन करना चाहिए ।


पेट के कीड़े (कृमि रोग)


ढाक के बीज, पलास पापड़ा सात माशे पीसकर इसमें दो तोला शहद मिलकर पिला दें । इसके पिलाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं । इसके पीछे रेचक औषध देवें जिससे मृत कीड़े पेट से निकल जावें ।


अन्य योग - नीम के पत्ते, धतूरे के पत्ते, अरण्ड के पत्ते प्रत्येक छः माशे - इन सबको घोटकर इनका रस निकालें और इसमें दो तोले मधु मिलाकर रोगी को पिलावें । इससे पेट के कीड़े नष्ट हो जाते हैं ।


अतिसार नाशक औषध


अतिसार कई प्रकार के होते हैं । जैसे यकृत सम्बन्धी, पित्तज, कफज, वातज, खूनी, मरोड़ेदार इत्यादि । प्रत्येक के लिए विभिन्न प्रकार की चिकित्सा और विभिन्न प्रकार के योग प्रयुक्त किये जाते हैं, किन्तु निम्न गोलियां सबके लिए लाभप्रद हैं ।


विधि - भूना हुआ सुहागा १ भाग, शिंगरफ २ भाग, अफीम ४ भाग - इनको पीसकर मधु के साथ ज्वार के दानों के बराबर गोलियां बनावें । प्रत्येक दस्त के बाद एक गोली खिलावें । कुछ गोलियों के प्रयोग से दस्त बंद हो जायेंगे । कुछ वैद्य नीम्बू के रस के साथ गोलियां बनाते हैं परन्तु ये केवल दिन में आने वाले अतिसार के लिए विशिष्ट हैं ।


कब्ज नाशक


मधु मृदु विरेचक औषध है इसलिए जिन रोगियों को जुलाब या रेचक औषधि देना हानिकारक समझो तो गर्म दूध में दो चम्मच मधु देने से कब्ज दूर हो जाता है । स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए मधु एक अनुपम औषध है ।


यह एक शुद्ध रोगनाशक मीठा पदार्थ है जो पुष्प व फलों के प्राकृतिक मिठास का गुणकारक सम्मिश्रण है । इसलिए प्रातःकाल मधु का सेवन करने से अग्नि प्रदीप्‍त होती है । साथ ही कब्ज का नाश होने से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं ।


यकृत् एवं प्लीहा (तिल्ली) रोग की औषध


यकृत् भोजन के रस से खून बनाता है और प्लीहा इसमें रासायनिक परिवर्तन उत्पन्न करती है । जब यकृत् दुर्बल हो जाता है तो शरीर में शुद्ध रक्त कम मात्रा में तैयार होता है । कमजोरी नित्य बढ़ती जाती है । भुस, पांडु रोग जैसे भयंकर रोग आ घेरते हैं । कभी तिल्ली बढ़ जाती है जिससे खून कम होकर दुर्बलता बढ़ती है और उपरोक्त रोगों में वृद्धि हो जाती है ।


मधु का यदि उपर्युक्त मात्रा में नित्य सेवन किया जाए तो इन भयंकर रोगों के होने की आशंका नहीं रहती है । यदि असावधानी से रोग हो जाए तब भी मधु से इसका उपचार आसानी से हो सकता है । मधु पाण्डु, तिल्ली बढ़ी हुई को दूर करता है । यकृत् को शक्ति देता है जिससे खून में वृद्धि होती है । शरीर में शक्ति आने से सब रोग लुप्‍त हो जाते हैं ।


मानवीय शरीर पर मधु के प्रभाव

आधुनिक खोजों से इस बात का पता चला है कि मधु में शरीर के पोषक विटामिनों में से विटामिन ए और बी पाए जाते हैं । विटामिन ए इसमें कुछ कम मात्रा में रहती है । मगर विटामिन बी इसमें प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । इस विटामिन बी के प्रभाव से रक्त शुद्ध होता है । रक्त विकृति और रक्त की स्वल्पता दूर होती है और आँखों की ज्योति बढ़ती है । रक्त की विकृति और विटामिन बी के अभाव से पैदा होने वाले सुप्रसिद्ध बेरी-बेरी नामक रोग में भी शहद का प्रयोग बहुत सरलता-पूर्वक किया जाता है ।


आँतों के ऊपर शहद के प्रभाव


शहद पेट के अन्दर जाकर आँतों की बिगड़ी हुई क्रिया को सुव्यवस्थित करके उनके अन्दर जमे हुए विजातीय द्रव्यों को दूर कर देता है । इसलिए पुरातन अतिसार, प्रवाहिका तथा पुरानी कब्जियत में मधु की वस्ति देना लाभदायक होता है । इससे आँतों का कुपित कफ शमन होकर उनसे भलीभांति रस निकलना प्रारम्भ हो जाता है और रस निकलने से आहार रस का ठीक से शोषण होता है जिससे कब्जियत अतिसार इत्यादि उपद्रव दूर हो जाते हैं ।


आँतों की तरह आमाशय और पक्वाशय पर भी इसकी क्रिया बड़ी सन्तोषजनक होती है । प्रकृति विरुद्ध और भारी भोजन बहुत अधिक समय तक करने की वजह से आमाशय और पक्वाशय में खराबी हो जाय तो मधु का स्वतन्त्र रूप से या किसी दूसरी अनुकूल औषधियों के साथ सेवन करने से आमाशय की रस ग्रन्थियां क्रियाशील होकर अधिक पाचक रस निकालना प्रारम्भ कर देती हैं जिससे सूजन दूर हो जाती है, जठराग्नि तीव्र हो जाती है और भूख अधिक लगने लगती है । यकृत् की क्रिया शिथिल होने के कारण यदि रोगी पोषक आहार - दूध, दही, घृत या शक्कर की जाति के दूसरे पदार्थों को पचाने में असमर्थ हो तो ऐसी हालत में मधु का सेवन करने से यकृत् की क्रिया सुधर कर पाचनक्रिया दुरुस्त हो जाती है ।


आँतों के रोग


आँतों के लगभग सभी रोगों में आँवले के रस के साथ शहद का प्रयोग करने से लाभ पहुंचता है । ताजा आँवला न मिले तो सूखे आँवले के चूर्ण के साथ शहद मिलाकर चाटने से लाभ होगा ।


आँतों के घाव (अल्सर) व अजीर्ण रोग में मधु के प्रयोग से बढ़कर दूसरी कोई औषधि नहीं ।


जलोदर रोग


इस रोग में पेट में पानी पैदा होकर पेट बढ़ जाता है । हाथ-पांवों पर सूजन आ जाती है । रोगी दुर्बल होकर जीवन की अपेक्षा मौत से प्रेम करने लगता है । इसके लिए सैंकड़ों दवायें प्रयुक्त करने पर कोई लाभ नहीं होता । अन्त में निराश होकर ऑपरेशन ही इसका एकमात्र उपचार रह जाता है । इससे पेट का पानी निकाला जाता है । रोगी समझता है कि उसे जीवन मिला । ऑपरेशन के बाद पानी फिर पैदा होना शुरू होता है और दो-चार दिन में पेट फूल जाता है । वही संकट पुनः आ उपस्थित होता है । किन्तु मधु इसका सर्वोत्तम उपचार है ।


विधि - दो तोला मधु पानी में घोलकर लंबे समय तक लगातार पीते रहें ।


चर्म रोगों पर मधु का प्रभाव


चर्म रोगों पर मधु का लेप करने से बहुत लाभ होता है किन्तु चौबीस घंटे में इसका एक बार लगाना उचित है । चर्म रोगों पर मधु का आंतरिक प्रयोग तब तक करना चाहिये जब शरीर की रासायनिक क्रिया बिगड़कर विकार पैदा हो और फोड़े आदि निकलने लगें । बड़े-बड़े कठिन फोड़े मधु के बाहरी प्रयोग से अच्छे हो जाते हैं । इन फोड़ों में पहले किसी साधारण तेज चाकू से पके हुए फोड़े पर छोटा सा छिद्र करके फिर फोड़े पर मधु का लेप कर दें । इससे आश्चर्यजनक लाभ होगा, इसके लेप से जख्म में पीप पैदा नहीं होने पाता और घाव का निशान भी नहीं रहने पाता । किसी कपड़े पर मधु लगाकर चिपकाने से पट्टी भी अच्छी हो जाती है और अन्य मरहम आदि लगाने की आवश्यकता नहीं होती । बिगड़े हुए घाव को साफ करने में भी मधु एक अद्वितीय औषधि है । डाक्टरों के मतों के अनुसार मधु में विटामिन बी की प्रधानता होती है और इस कारण त्वचा और रक्त की विनिमय क्रिया को मधु का सेवन सुधारता है । चर्म और रक्त संबन्धी रोगों में मधु का आंतरिक सेवन अत्यन्त लाभदायक है । आंतों के जख्मों में भी जिसे अल्सर कहते हैं, चाहे बच्चों या बड़ों का हो, सबके लिए अति उत्तम औषधि है । यदि मधु के साथ शुद्ध गंधक का थोड़ी मात्रा में सेवन कराया जाये तो बहुत ही लाभदायक है ।


बाल रोगों की चिकित्सा

पेट दर्द व वमन - दो तीन बार तीन चार शहद की बूंदें सौंफ या पौदीने के अर्क में मिलाकर आध-आध घंटे में देते रहें, तीन चार बार देने से पेट की पीड़ा शान्त हो जाती है । पोदीने की सूखी पत्ती व हरी पत्ती छः माशे अजवायन व छः माशे सौंफ आध पाव पानी में डालकर उबालें । ठंडा होने पर मल छानकर इसी पानी की कुछ बूंदें लेकर थोड़ा मधु मिलाकर बच्चे को देना चाहिये ।


कब्ज - बच्चे को कब्ज रहता हो तो सन्तरे के रस में मधु की चार-पांच बूंद मिलाकर दिन में तीन बार दें । यह कब्ज की अनुपम औषध है ।


खांसी-जुकाम - सर्दी या किसी कारण से भी खाँसी-जुकाम का कष्ट हो तो माँ के दूध में आधा चम्मच शहद मिलाकर दिन में तीन-चार बार देवें । बड़े बच्चों को गाय के दूध में दो चम्मच मधु मिलाकर दिन में तीन-चार बार देवें । शहद को निम्बू के रस में बराबर मात्रा मिलाकर थोड़ा गर्म करें और ठंडा करके रख लें और जल में मिलाकर बच्चों को चटाने से खाँसी के रोग दूर होते हैं । दिन में कई बार चटाना चाहिये ।


अदरक का रस आधा ग्राम और मधु दो ग्राम मिलाकर बालक को कई बार चटाने से खाँसी-जुकाम व सर्दी का बुखार भी चला जाता है ।


बढ़े हुए गंठू (टांसिल) - मीठे सेब के रस में बराबर का शहद मिलाकर दिन में चार-पाँच बार चटावें और बढ़ी हुई गांठों पर शहद का लेप करें ।


सभी कण्ठ रोगों की औषध - सितोपलादि चूर्ण या वृहत् सितोपलादि चूर्ण एक दो रत्ती लेकर शहद मिलाकर दिन में तीन-चार बार चटावें । इससे खांसी-जुकाम, शीत ज्वर और निमोनिया में भी लाभ होता है । कण्ठ के सभी रोग दूर होते हैं ।

निमोनिया - मोम देसी को पिघलाकर उस में शहद मिला लें और गर्म-गर्म से छाती पर सेक करें । निमोनिया में सितोपलादि चूर्ण चार रत्ती में एक रत्ती शृंगभस्म मिलावें और उसे एक तोला शहद में मिला लें । आध-आध घंटे पश्चात् इसे थोड़ा-थोड़ा बालक को चटाते रहें ।


बालकों के सब रोगों की रामबाण औषध


काकड़ासिंगी, अतीस मीठा, छोटा पीपल, छोटी इलायची के दाने, नागरमोथा, जायफल, शंख भस्म, जवित्री, मस्तगीरूमी इन सबको मिलकर कपड़छान कर लें । इन सबके ब्राबर मिश्री वा खाण्ड को बारीक पीसकर मिला लें । यह बालकों मे सभी रोगों की रामबाण औषध है । जिस के बच्चे सूख-सूखकर मर जाते हैं, इसके सेवन से वे भी बच जाते हैं ।


मात्रा - इसकी मात्रा एक वर्ष के बाद तक एक रत्ती है । इसे दिन में तीन-चार बार देना चाहिए । जब दें तो मधु (शहद) में मिलाकर दें । एक वर्ष के पीछे प्रति वर्ष एक रत्ती की मात्रा बढ़ाते चले जायें अर्थात् एक वर्ष के बालक को एक रत्ती से दो वर्ष के बालक को दो रत्ती, चार वर्ष के बालक को चार रत्ती, इस प्रकार सदैव मधु में मिलाकर चटाना चाहिए । अगर बच्चे को सूखनेवाला रोग हो तो महालाक्षादि तैल की मालिश भी करनी चाहिए और गर्म पानी से स्नान कराना चाहिए । बच्चों के सब प्रकार के रोगों पर शहद के साथ इसका प्रयोग करने से सभी रोग ठीक होते हैं ।


दाँत निकलना - जब बच्चों के दाँत निकलते हों तो उन्हें बहुत कष्ट होता है । मसूडे सूज जाते हैं । ऐसी अवस्था में मसूडों पर चार-पांच बार नियमपूर्वक शहद लगाने से लाभ होगा ।


कनफेड़ - इस रोग में कान के पास से एक तरफ का या दोनों तरफ का सारा मुंह सख्त होता है । पीड़ा भी बहुत होती है, रोगी को ज्वर तक आ जाता है । दिन में पाँच-छ: बार शहद की नौ-दस बूंदें हलके गर्म जल में मिलाकर पिलावें और काला जीरा छ: माशे शिल पर पीसकर शहद में मिलाकर कनफेड़ों पर लेप करें और इसकी सिकाई करें ।


इरिमेद वृक्ष जिसे हरयाणे में रोंझ कहते हैं, उसके काली-काली सख्त गांठ वाला फल लगता है, उसे तोड़कर गर्म पानी में घिसकर शहद मिलाकर लेप करें । इससे भी लाभ होता है ।


काली खांसी - एक या दो बादाम पानी में भिगोयें और बाद में उसका छिलका उतारकर घिसें और शहद में मिलाकर बच्चे को चटावें । गाय के दूध की शुद्ध मलाई में शहद मिलाकर बच्चे को चटायें । इसके बार-बार खिलाने से काली खांसी में लाभ होता है । बच्चों को कोई भी रोग हो, गाय के ताजा दूध में शुद्ध शहद मिलाकर दिन में दो-तीन बार पिलावें । बालक को दुर्बलता का रोग हो, मसूड़ों में छिद्र हों और चर्म के भीतर रक्तस्राव होता हो तो निम्बू का रस एक चम्मच एक कटोरी पानी में घोलें और उसमें एक चम्मच शहद मिलाकर दिन में तीन-चार बार पिलावें ।


दाद - नीम के पत्तों को उबालकर उनका पानी लें । उससे जख्म को साफ करें व शुद्ध शहद लगाकर पट्टी बांध दें । दिन में तीन बार मधु को पानी में घोलकर पिलाते रहें ।


दौरा (विक्षेप) - इसमें रोगी के हाथ-पाँव अकड़ते हैं और वह बेहोश होकर गिर जाता है और शरीर भी सारा अकड़ जाता है । मिर्गी, मूर्च्छा और हिस्टीरिया रोग में ऐसा होता है । दिन में कई बार छः माशे से लेकर एक तोला तक शहद जल में मिलाकर प्रातः-सायं नियमित रूप से सेवन करें । इस प्रकार निरन्तर कई मास सेवन करने से यह रोग नष्ट हो जाता है ।


निद्रा में मूत्र त्याग - जिन बच्चों को माता का दूध या गऊ, बकरी का दूध आरम्भ में नहीं मिलता वे शीघ्र ही अन्न-फल आदि का भोजन करने लगते हैं । इन्हीं बच्चों को बहुधा यह रोग होता है । इस रोग में मधु के प्रयोग से बहुत लाभ होता है क्योंकि मधु में जल के सुखाने की बड़ी शक्ति होती है । अत: शहद के सेवन से बच्चों के रात्रि समय सोते हुए को पेशाब करने का स्वभाव शीघ्र नष्ट हो जाता है । दो-तीन वर्ष की आयु के बाद बच्चों को यह रोग हो तो बच्चे की माता को बड़ा कष्ट होता है । अत: बालक को रात्रि में सोने से पूर्व एक चम्मच शहद चटा दें । इस बात का ध्यान भी रखें कि सायंकाल बच्चे को पानी या दूध का पिलाना बंद रखना चाहिये । सोने से दो-तीन घंटे पहले खाने की चीज देनी चाहिये । छ: माशे से एक तोला शहद थोड़े से जल में मिलाकर दिन में दो-तीन बार देना चाहिये । मधु के प्रयोग से यह रोग ठीक हो जाता है ।


सिर की पीड़ा


जिसके आधे सिर या पूरे सिर में दर्द या पीड़ा का दौरा हो उसे आधा छटाँक मधु थोड़े गर्म जल में घोलकर पिला देवें । दौरे को सर्वथा दूर करने के लिए एक अखरोट की गिरी को बारीक पीसें और एक चम्मच मधु में मिलाकर प्रात: सायं डेढ़ महीने तक सेवन कराने से रोग जड़ मूल से नष्ट हो जायेगा ।


अन्य योग - महालक्ष्मीविलारस (स्वर्णयुक्त) एक रत्ती मधु में मिलाकर प्रातः-सायंकाल देवें । इससे सब प्रकार के सिर के दर्द नष्ट होते हैं ।


दिमागी रोग

ये कई प्रकार के होते हैं जैसे अपस्मार (मिर्गी), उन्माद (पागलपन), मस्तिष्क में चक्कर आना व थके रहना, सुस्ती, प्रमाद, सदैव आलस्य का बना रहना, स्मरणशक्ति का घटना, सदैव निराश व हताश रहना, भय का बना रहना, सर्वथा असन्तुष्ट होकर आत्महत्या करने की सोचना । इनमें अनार के रस में मधु डालकर पीवें व पाँच-छ: बादाम की गिरी भिगोकर छिलका उतारकर पानी के साथ घोलकर मधु मिलाकर पीवें । इसके निरन्तर सेवन से स्मरणशक्ति बढ़ जाती है । स्मृतिसागर रस १ रत्ती प्रात:-सायं शहद में मिलाकर चाटें व ऊपर से गाय का दूध पीवें । इससे भी स्मरणशक्ति बढती है ।


ब्राह्मीघृत ५ ग्राम, मधु १ तोला मिलाकर प्रात:-सायं चाटें, ऊपर से गाय का दूध पीवें । इससे दिमागी रोग नष्ट होते हैं और स्मरणशक्ति बढ़ती है ।


सारस्वतारिष्ट का सेवन भी साथ करने से बहुत लाभ होता है । कुमुदासव, अश्वगन्धारिष्ट और गुरुकुल झज्जर का बना हुआ बलदामृत भी इन रोगों में अच्छा लाभ करता है ।


खाँसी-जुकाम शीत रोगों की सरल औषध

शहद, अदरक और नीम्बू के रस को समान मात्रा में मिलाकर रख लें और थोड़ा गर्म जल ठंडा करके आधी छटांक जल में छ: माशे मधु मिलाकर दिन में तीन-चार बार लेवें । इससे गले के सभी रोग दूर होते हैं । पुरानी खांसी भी चली जाती है । इससे पाचन-शक्ति भी बढ़ती है ।


इसके साथ गेहूँ का चोकर एक तोला एक पाव जल में उबालें । छानकर शहद मिलाकर दिन में तीन-चार बार पीवें । मरवे के पत्तों का रस शहद में मिलाकर चाटने से मुंह के छाले दूर हो जाते हैं । तुलसी के पत्ते, अदरक का रस तीन-तीन माशे मिलावें । एक तोला शहद मिलाकर दिन में तीन-चार बार चाटें । इससे जुकाम-खांसी आदि गले के सभी रोगों में लाभ होता है ।


आँखों के रोग

नेत्र रोगों में मधु का प्रयोग बाह्य और अभ्यान्तर दोनों तरफ से किया जाता है । दूर या नजदीक की दृष्टि कमजोर हो तो एक तोला छोटी मक्खी का शहद और इसमें तीन-चार नींबू का रस मिलावें । शीशी में सुरक्षित रखें और सलाई से प्रात: सायं लगावें । मोतियाबिन्द के आरम्भ में छोटी मक्खी का शहद एक तोला और सफेद प्याज का रस नौ-दस बूंद मिला लें । सलाई से प्रतिदिन लगावें । आँख के साधारण रोगों में शुद्ध मधु डालकर उपचार किया जाता है ।


नेत्र रोगों की उत्तम औषध


सफेद प्याज का रस एक छटाँक, अदरक का रस एक छटाँक, शुद्ध मधु चार छटाँक । इन सबको मिला लें और एक बड़ी शीशी में कार्क लगाकर रख दें । दिन में दो-तीन बार इसको हिला दिया करें । दो-तीन दिन के पश्चात यह निथर जायेगा । निथर जाने के बाद ऊपर की औषध निकाल लें । इसकी एक-दो बूंद सोते वक्त आंख में डाल लिया करें । इससे मोतियाबिंद, जाला आदि सब कट जाते हैं । यह आंख में लगता है क्योंकि यह लेखन में काटने की क्रिया करता है । बड़ी आयु के लोगों के लिए अच्छी औषध है ।


श्वेत पुनर्नवा


सफेद फूल वाली सांठी की जड़ आँखों के लिए बहुत ही लाभदायक है । इसको शहद में घिसकर लगाने से फोला, जाला, सफेद मोतिया आदि सब कट जाते हैं । यह अंधों को भी ज्योति देता है । अहमदाबाद में एक वृद्ध साधु थे जिनको मोतियाबिन्द का रोग था और दीखना बिल्कुल बन्द हो गया था, आप्रेशन कराने से बहुत डरते थे । मैं इन दिनों वहां आर्यसमाज का प्रचार करने हेतु गया हुआ था । मैं जब जंगल में घूमने गया तो मैं श्वेत पुनर्नवा (सफेद सांठी) की जड़ उखाड़ लाया और उस साधु को शहद में घिसकर लगाने को दे दी । कुछ समय इसका सेवन करने से उसका सफेद मोतिया कट गया और उसे अच्छी प्रकार दीखने लगा । शहद का प्रयोग आंखों के लिए अमृत तुल्य है ।


सप्‍तामृतलौह

हरड़, बहेड़ा, आँवला तीनों की छाल एक-एक तोला, मुलहटी एक तोला, लोहभस्म एक तोला सबको कूट-छानकर खरल में पीसकर कपड़छान कर लें और इसमें १० तोले गौ दूध मिलावें और ३० (तीस) तोले शुद्ध मधु मिला लें और शीशी में सुरक्षित रखें ।


मात्रा - एक तोला या १० ग्राम प्रात: सूर्योदय के पश्चात् व सायंकाल सूर्यास्त के समय एक तोला खाकर ऊपर से गाय का दूध पी लें । यह चक्षु रोगों के लिए अमृततुल्य औषध है । जवानी में चढे हुए चश्मे इसके दो-तीन मास के सेवन से सब उतर जाते हैं । बनी हुई आँखों में और वृद्धावस्था में भी आँखों के सभी रोगों में यह अत्यन्त लाभदायक है ।


गुरदासपुर का एक वकील जिसकी आंखें बिगड़ने लगी थी, वह अपने पुत्र, जो कि डॉक्टर था कनाडा में, वहाँ पर चिकित्सा हेतु गया । किन्तु वहां के सभी प्रसिद्ध डॉक्टरों ने एक स्वर में यह कह दिया कि सरदार जी, अब तो अन्धा ही रहना पड़ेगा, दुनियां में इसकी कोई दवाई नहीं । वह निराश व दुःखी होकर भारत लौट आए । यह निराश-हताश होकर हमारे पूज्य गुरु स्वामी सर्वानन्द जी महाराज की शरण में पहुंच गए । उन्होंने कृपा करके इसी सप्‍तामृत लौह का सेवन सरदार जी को कराया । ईश कृपा से पुनः ज्योति आ गई और ये जवानों की तरह सब काम फिर से करने लगे । ये सरदार जी मुझे दयानन्द मठ दीनानगर में मिले थे । इन्होंने सारा वृत्तान्त मुझे अपने मुख से सुनाया और गुरु जी के गुण गाते हुए थकते नहीं थे । इस सरदार ने प्रसन्न होकर ५१००० रुपये का चैक स्वामी जी महाराज के पास भेज दिया । पूज्य स्वामी जी ने यह कहकर लौटा दिया कि हम संन्यासियों को क्यों लोभी-लालची बनाते हो । हमने औषध का मूल्य ले लिया था, हमें और कुछ नहीं चाहिये । यह पंजाब में आतंकवाद के दिन थे, वह सरदार हाई कोर्ट का वकील था, उसने स्वामी जी का एक राईफल लाइसेंस बनवाया और एक राईफल व कारतूस खरीद कर पूज्य स्वामी जी के चरणों में भेज दिया ।


मैंने भी इस औषध का अनेक आंख के रोगियों पर प्रयोग करके अनुभव किया । इसकी जितनी प्रशंसा की जाये, थोड़ी ही है ।


नेत्र विकारों में मधु का प्रयोग सर्वत्र होता है । सामान्य लोग भी दुखती हुई आंखों में शहद डालते हैं । शहद को पानी में घोलकर इसमें आंखें धोई जाती हैं । रात को सोते समय सलाई से शहद को लगाते हैं । आँख दूखना, धूल-धुँआ, मिट्टी के कण आंख में गिर जाना, रेलगाड़ी में यात्रा करते समय कोयला पड़ जाने आदि से आंख में घाव हो जाते हैं और पीड़ा होने लगती है । शहद को पानी में डालकर दो बार धोना चाहिए । रात्रि में सोने से पूर्व शहद सलाई से डालें । इससे बड़ा लाभ होता है । मधु में रोपक गुण हैं । इस कारण यह शीघ्र आंखों के जख्म को अच्छा कर देता है ।


गोरखमुण्डी


गोरखमुण्डी का गोल-गोल फूल वा फल होता है । एक फूल को निगलकर छः माशे या एक तोला शहद चाटने से एक वर्ष तक आंख नहीं दुखती । इसी प्रकार दो फल दो वर्ष । इसी प्रकार तीन फल खाकर एक तोला शहद चाटने से तीन वर्ष तक आंख में कोई विकार पैदा नहीं होता । अगर चैत्र मास में प्रतिदिन निराहार गोरखमुण्डी के चार पांच फूल प्रतिदिन जल से निगलें, ऊपर से एक तोला शहद चाट लें, फिर सारी उम्र आंखें नहीं दुखतीं और नेत्र ज्योति बढ़ती है और रक्त भी शुद्ध हो जाता है ।


सिर के रोग


सिर के बालों के लिए मधु का प्रयोग अच्छा लाभप्रद है । एक तोला शहद और दो तोला निम्बू का रस मिला लें और इस घोल को सिर पर लगाकर कुछ देर रगड़ें, फिर आध घंटे बाद जल से भली प्रकार धो डालें और तोलिये से पोंछ लें । इससे बालों का झड़ना आदि रोग समाप्‍त हो जाते हैं और उसके लेपों से सिर के बालों की खूब वृद्धि होती है ।


विषैले डंक


मधुमक्खी, ततैया आदि के लड़ने से तथा अन्य भी किसी प्रकार के कीड़े के डंक मारने से जो कष्ट होता है, जहां विषैले कीड़े ने काटा है उस स्थान पर शहद के मलने से सूजन नहीं आता और पीड़ा भी शान्त हो जाती है । यदि उनके काटने से शरीर पर सूजन आ गया हो और पीड़ा हो तो नीम के पत्तों को पानी में उबालें और उसमें मधु मिलाकर निकलती हुई गर्म-गर्म भांप से कुछ देर सिकाई करें । इससे सूजन और पीड़ा शान्त हो जाती है ।


शीतपित्त


छपाकी शीतपित्त या पित्त उपड़ने पर हरे पोदीने को पीसकर रस निकालें । दो तोले रस में छः माशे शहद मिलावें और रोगी को दिन में तीन बार पिलावें । यदि रोग बहुत पुराना हो तो कई मास तक इसको पिलावें ।


हाथ-पांव की जलन

पांच-छ: इमली के फलों को रात को मिट्टी के बर्तन में एक पाव जल में भिगो दें । प्रात:काल मल छानकर दो चम्मच मधु मिलाकर रोगी को पिलावें । एक-दो सप्ताह ऐसा करने से रोग नष्ट हो जायेगा ।


दूसरी विधि - कासनी छः माशे कूटकर रात्रि में जल में भिगो दें । प्रातःकाल पीस-छान कर इसमें एक तोला मधु मिलाकर पिलावें । जलन से छुटकारा मिल जायेगा । इसे दिन में चार बार पिलाना चाहिए ।


मुंह के कील और मुंहासे


प्रातःकाल उठने पर दो चम्मच मधु जल में घोलकर पीवें । एक चम्मच बादाम-रोगन में एक चम्मच शहद मिलावें और इसको अच्छी तरह मिला लें । मुंह को छाछ या बेसन से धोवें और मिले हुए शहद बादाम रोगन को चेहरे पर हल्का-हल्का लगायें और आध घंटा तक लगा रहने देना चाहिये । फिर थोड़े गर्म पानी से मुंह को धो लें और फिर ठंडे पानी से अच्छी तरह धो लें और फिर तोलिये आदि से पौंछ लें ।


दूसरा प्रयोग - एक बड़ा चम्मच मैदा लें और उसे मधु में मिला लें । गुलाब जल में मिलाकर इसका एक नर्म घोल बना लें और उसको चेहरे पर लगावें और आध घंटा पश्चात् ठंडे पानी से धो लें और किसी नर्म तोलिए से पोंछ लें । ऐसा कुछ दिन करने से चेहरे की फुंसियां, कील-मुंहासे नष्ट हो जाते हैं और निखर कर चेहरा सुन्दर बन जाता है ।


संजीवनी तैल


गुरुकुल झज्जर का बना हुआ संजीवनी तैल एक तोला लें और उसमें एक तोला मधु मिलावें और इसका आधा घंटा चेहरे पर लेप करें । आध घंटा पश्चात् ठंडे पानी से धो डालें और कोमल तौलिये से पोंछ डालें । इस रोग में एक मास तक दो तोले अमृतारिष्ट समान जल और एक तोला शहद मिलाकर भोजन के आध घंटे पश्चात् पिलाने से दो-तीन सप्‍ताह में मुंह के फोड़े-फुंसियां समूल नष्ट हो जाते हैं । संजीवनी तैल लगाने से इनके दाग व निशान भी समाप्‍त हो जाते हैं । यह हमारा बहुत बार का अनुभव किया हुआ योग है ।


पीलिया


यह भयानक रोग है । इसकी ठीक समय पर चिकित्सा न होने पर यह रोग प्राणघातक का रूप धारण कर लेता है । कुछ सूखे आलूबुखारे को मिट्टी के बर्तन में एक पाव जल में भिगो दें और छानकर एक तोला मधु मिलाकर रोगी को पिलावें । इसी प्रकार इसको दिन में तीन-चार बार पिलाना चाहिये ।


दूसरा उपचार - बागड़ में मतीरा होता है । उसका रस एक पाव एक तोला मधु मिलाकर दिन में कई बार पिलावें । यह भी पीलिये की बहुत अच्छी औषध है । गुरुकुल झज्जर में इसी मतीरे के रस से कालिन्दासव बनाया जाता है जिसमें शहद पड़ता है । यह पीलिये की सर्वोत्तम औषध है । यह अम्लपित्त में भी बहुत लाभ करता है । यह रक्त की वृद्धि करके निर्बलता को भी दूर करता है ।


लकवा


लकवा फाजील व वायु रोग में जब ऐसी दशा हो कि इसका प्रभाव जबान पर भी हो तो रोगी को खाने को कुछ न दें और अंधेरे में रखें और एक-एक घंटा के पश्चात् दो तोले शहद जल में मिलाकर बार-बार पिलावें । इससे यह रोग बहुत शीघ्र ठीक हो जाता है । यदि शहद के साथ रसराज रस, योगेन्द्र रस वा वृहत् वातचिन्तामणि रस इनमें से किसी एक का प्रयोग मधु के साथ रोगी को करावें तो इस दुःखप्रद रोग से शीघ्र छुटकारा मिल जाता है ।


रक्तचाप


बढ़े हुए रक्तचाप (हाई ब्लडप्रेशर) में मधु का प्रयोग लहसुन के साथ करें । लहसुन के तीन-चार जवे बारीक पीसें और एक तोला मधु में मिलावें और एक पाव जल में घोलकर दिन में दो बार पीवें । यदि कम रक्तचाप हो तो चार बादाम की गिरी पीसकर शहद में मिलावें । इसे चाटकर एक पाव गाय का गर्म दूध पीवें ।


रक्त संचार


यदि शरीर में रक्त संचार ठीक नहीं हो रहा हो तो प्रातःकाल उठकर एक तोला शहद चाट लें और रात्रि में सोने से पूर्व इसी प्रकार शहद का प्रयोग करें और स्नायु की दुर्बलता में भी मधु का प्रयोग लाभदायक है ।

उन्माद, पागलपन की औषध

दो छटांक मुलहटी को कूट पीस कर कपड़छान कर लें । इसमें से दो माशे मुलहटी एक तोला शहद में मिलाकर चाट लें । ऊपर से गाय का दूध पिलायें । इसी प्रकार सायंकाल भी लें । न्यून से न्यून दस दिन तक इसका प्रयोग करें । भोजन में मूंग चावल की खिचड़ी खावें । सारस्वत चूर्ण का भी प्रयोग उन्माद, पागलपन व मिर्गी में लाभदायक होता है ।


ब्राह्मी रसायन


छाया में सुखाई हुई ब्राह्मी का चूर्ण पांच तोले, मुलहटी का चूर्ण ५ तोले, शंखपुष्पी का चूर्ण ५ तोले, गिलोय का चूर्ण ५ तोले, स्वर्णभस्म आधा तोला - इन सबको पीस कपड़छान करके शीशी में सुरक्षित रखें ।


मात्रा - एक माशा से तीन माशे तक लेकर इसमें छः माशे गोघृत व एक तोला शहद मिला लें और इसको प्रातः-सायं रोगी को चटाकर ऊपर से गाय का दूध पिला दें । इसी प्रकार सायंकाल दें । इसके एक दो मास श्रद्धापूर्वक सेवन करने से उन्माद, पागलपन, अपस्मार, मिर्गी, स्मृतिनाश आदि रोगों का नाश होता है । यह इन रोगों की सर्वोत्तम औषध है । अकेली ब्राह्मी व शंखपुष्पी का चूर्ण ३ माशे, गौदुग्ध छः माशे व मधु एक तोला - इनको मिलाकर इसके प्रयोग से उन्माद, अपस्मार, मिर्गी आदि नष्ट होते हैं ।

घोड़ा बच, कूठ, शंखपुष्पी व ब्राह्मी समभाग लेकर सबको कूटकर बारीक छलनी से छान लें । इस चूर्ण की मात्रा तीन माशे, गौ दूध छः माशे व मधु एक तोला रोगी को प्रातः सायंकाल दें और ऊपर से गाय का दूध पिलावें । यह मिर्गी, पागलपन आदि मस्तिष्क रोगों की उत्तम औषध है ।


नोट - यह ध्यान रखें कि इन रोगों से पहले रोगी को तीव्र रेचक औषध देकर रोगी का पेट साफ करवा दें । फिर इन औषधियों का प्रयोग करें । रोगी को कब्ज नहीं रहना चाहिए ।


शक्तिवर्धक औषध


एक सेर प्याज के छोटे-छोटे टुकड़े कर लें और इन टुकड़ों से दुगुना शहद लेकर किसी ढक्कन वाले बर्तन में डालकर मिला दें । ढ़क्क्न बंद करके भूमि में गड्ढ़ा खोदकर पन्द्रह दिन के लिए इसे भूमि में गाड़ दें । पन्द्रह दिन के पीछे निकाल कर इसमें से एक तोला प्रात: सायं खावें । यह बड़ा शक्तिप्रद औषध है ।


उपदंश की औषध


ताजे आँवले का रस एक तोला, मधु दो तोले मिलाकर प्रातः सायंकाल पीवें । यदि ताजे आँवले का रस न मिले तो सूखा आँवला का चूर्ण ३ माशे से ६ माशे लें व द्विगुण शहद मिलाकर प्रातः सायं रोगी को चटावें । ऊपर से गोदुग्ध पिला दें । इसके एक दो मास सेवन से यह भयंकर उपदंश का रोग नष्ट हो जाता है ।


रक्तविकार की औषध


एक तोला मेंहदी के पत्ते दो तोले शहद में मिलाकर पीस लें और इसका एक दो मास सेवन करें । प्रात: सायंकाल इसे दोनों समय सेवन करना चाहिये । भोजन में चने की रोटी और मूंग की छिलके वाली दाल व चावल खायें । फोड़े, दाद-खाज आदि रक्तविकार के सभी रोग दूर हो जायेंगे ।


पेट का दर्द


अदरक का रस व प्याज का रस एक-एक तोला लें । दो तोले शहद मिलाकर रोगी को दिन में दो-तीन बार दें । इससे उदरशूल व पेट की सभी पीड़ा दूर होगी ।


जुकाम-खांसी कभी नहीं होगा

औषध रूप में मधु बहुत गुणकारी है । किसी प्रकार की हानि नहीं करता । जहां शक्तिप्रद है, वहां रोग विनाशक है । मृदु विरेचक होने से कब्ज नहीं होने देता । यह कफ निसारक है । इसकी मात्रा शिशुओं के लिए छः माशे व बालकों के लिए आठ माशे है । युवकों के लिए एक तोला या डेढ़ तोले तक दे सकते हैं । जो व्यक्ति मधु का नित्य प्रति सेवन करते हैं, उनके मस्तिष्क व शरीर शक्तिशाली हो जाते हैं । जो बालकों को रोगों से सुरक्षित रखना चाहें वे भूलकर भी खांड, चीनी, गुड़, शक्कर, मिश्री आदि न देवें, आवश्यकता पड़ने पर अकेले मधु का सेवन करावें या गाय या बकरी के दूध में सेवन करायें । मधु का सेवन करने वालों को जुकाम, खांसी कभी नहीं होती । मधु एक उपयोगी पदार्थ है । वेद भगवान ने भी ऋग्वेद (२०/९०) में लिखा है -


मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ॥६॥

मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥७॥

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥८॥


हम सत्य की खोज करने वालों के लिए वायु मधुर बहे, नदियों से हमें मधुर जल प्राप्‍त हो, औषधियां मधुरता से परिपूर्ण हों । रात, प्रातः और संध्या मधुरता का प्रसार करें । धरती का प्रत्येक रजकण मधुमय हो । आकाश जो पितास्वरूप है, दूध की वर्षा करे । वृक्षों से मधुमय फल मिलें, सूर्य मधुमय किरणों का प्रसार करे और गायें हमें मधुमिश्रित दूध दें । यह है मधु के माहात्म्य का वर्णन ऋग्वेद में ।


अग्नि से जलना


शरीर का कोई भाग अग्नि से जल जाए तो जले हुए भाग पर मधु लगावें । जलन और पीड़ा तुरन्त दूर हो जायेगी और जख्म भी जल्दी ही भर जायेगा ।


अर्श (बवासीर)


इस रोग में प्रायः सभी रोगियों को कब्ज रहता है । छः माशे त्रिफला का बारीक चूर्ण लें और एक तोला शहद में मिलाकर चाट लें । ऊपर शीतल जल पिला देवें । शहद मस्सों पर लगाना चाहिए । बवासीर खूनी हो या बादी हो, दोनों में ही लाभ होता है ।


बादाम रोगन एक तोला और मधु एक तोला - दोनों को मिलाकर गाय के दूध के साथ लेने से अच्छा लाभ होता है ।


खूनी बवासीर में छः माशे नागकेशर और छः माशे खांड वा मिश्री मिला लें । इसको दो तोले गाय के मक्खन में मिलावें और इसे चाटकर ऊपर से गाय का दूध पिलाएं । इसके सेवन से मस्सों से खून आना तो दो-तीन दिन में ठीक हो जायेगा, एक मास के सेवन से बवासीर समूल नष्ट हो जाती है । बादी बवासीर में मस्से फूलकर बाहर आ जाते हैं । रोगी को बहुत कष्ट होता है । कभी तो पेशाब व पाखाना दोनों का बन्धा पड़ जाता है । रोगी तड़फने लगता है । रोगी चल फिर भी नहीं सकता । ऐसी अवस्था में ऊपरवाली औषध रोगी को देनी चाहिए और दो प्याज भूभल (गर्म राख) में भून लें । उनके छिलके उतारकर साफ पत्थर पर रगड़कर बारीक चटनी सी बना लें । उसकी टिकिया सी बना कर गाय के घी में भून लें । फिर इन टिकियों से मस्सों की सिकाई करके इनको बांधकर सो जाएं । कुछ दिन इसका प्रयोग करने से सब कष्ट दूर हो जाएंगे ।


वात रोग


वात रोग के रोगी को तीन दिन का उपवास करावें । इन दिनों में मधु एक तोला पानी में घोलकर दिन में पांच-छः बार देवें । सायंकाल सोते समय पञ्चगव्यघृत या बादाम रोगन एक तोला गाय के दूध में मिलाकर पिला दें । तीन दिन के पश्चात् रोगी को फलों के रस व शाक-सब्जी पर ही रखें । मधु का प्रयोग पूर्ववत् चलता रहे । यदि रोगी को सर्वथा दूर करना हो तो गाय के दूध के साथ योगराज गुग्गुल आधा ग्राम अथवा वातगजेन्द्रसिंह रस आधा ग्राम प्रातः-सायं देते रहें । महानारायण तैल व विषगर्भ तैल मिलाकर उसकी मालिश व सिकाई करें । अभयारिष्ट का प्रतिदिन सेवन भी इसमें बहुत लाभदायक है । आलू, गोभी, चावल, उड़द की दाल, टमाटर, पेठा आदि वायु को बढ़ाने वाली चीजों का प्रयोग न करें ।


ज्वर और राजयक्ष्मा


मलेरिया ज्वर में खूब गर्म पानी के एक छोटे गिलास में दो छोटे चम्मच शहद घोलकर गर्म-गर्म घूट कर पीवें, पसीना आकर बुखार उतर जाता है । अगर इसके साथ त्रिभुवनकीर्ति रस की एक आध गोली दें तो और अधिक लाभ होगा । इस प्रकार कई दिन इसका प्रयोग करना चहिए । राजयक्ष्मा में आँवले का रस एक तोला, शहद एक तोला मिलाकर सेवन करें । शहद का सेवन गाय या बकरी के दूध के साथ भी बहुत लाभ करता है । यह प्रयोग कई मास तक चलना चाहिये । शहद में स्वर्णबसन्तमालती रस एक रत्ती शहद में मिलाकर दिन में दो बार दें । यदि खांसी हो तो बृहत् सितोपलादि चूर्ण शहद में मिलाकर देना चाहिए । राजयक्ष्मा में विशेष च्यवनप्राश का भी प्रयोग अच्छा रहता है । रोगी ब्रह्मचर्य का पालन करें व इस औषध का सेवन करें तो इस बीमारी से छुटकारा मिल सकता है ।


मोटापा


मधु शक्तिप्रद और स्फूर्ति देने वाला भोजन है । शर्करा की गिनती शक्तिवर्धक तथा स्फूर्तिदायक भोजनों में की जाती है । शहद में पाई जाने वाली शर्करा आसानी से और शीघ्रता से पच जाती है । वास्तव में पाचन रोगों की एक महत्त्वपूर्ण क्रिया इस प्रकृति द्वारा ही हो चुकी होती है अर्थात् इसका आंशिक कृत्रिम पाचन हो चुका होने के कारण शरीर को इसे पचाने में श्रम नहीं करना पड़ता । कठिनाई नहीं पड़ती । यही कारण है कि शहद प्रकृति की वह अनुपम देन है जो शरीर को थोड़े से थोड़े समय में अधिक से अधिक शक्ति प्रदान करता है । गन्ने के रस से बनी चीनी में ऐसी बात नहीं । यह तत्त्वहीन होती है । शरीर में पचाने के लिए अंगूरी शक्कर में परिवर्तित करना होता है । ऐसा करने के लिए शरीर की शक्ति का व्यय होता है और उसके बदले में मिलती है हानि ।


भारतीय मधु के विषय में वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित पदार्थों का मिश्रण लिखा है । भारतीय शहद के रासायनिक तत्त्व इस प्रकार हैं -


जल (१९.१०%)

फल शर्करा (Loevulose) (४२.२०%)

अंगूरी शर्करा (Glucose) (३४.७१%)

चीनी (Sugrose) (०.८५%)

लाख या मांड (Albuminois) (१.१८%)

खनिज पदार्थ (१०.६%)

अन्य पदार्थ (०.६०%)


ऊपर की तालिका के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शहद के घोल में ३ प्रकार की शर्करा पाई जाती है । गन्ने की शक्कर नाम मात्र की ही है । यह शर्करा शरीर में आत्मसात् होने से पहले पाचनक्रिया से गुजरती है, फलशर्करा को भी शरीर में मिलने से पहले कुछ रासायनिक क्रियाओं का सामना करना होता है । यकृत् में पहुंचकर इसे ग्लाईकोजन में परिवर्तित होना होता है और तत्पश्चात् अंगूरी शर्करा में बदलकर इसका आत्मीकरण होता है । जबकि मधु में पाई जाने वाली अंगूरी शर्करा (Glucose) सीधी ही रक्त में घुल जाती है । शहद का यही वह अंश है कि आपने शहद मुंह में रखा और इसका अंश रक्त में मिलना आरम्भ हो गया । शहद के रंग व गंध में जो अन्तर दृष्टिगोचर होता है उसका आधार व माध्यम वह है जिससे मधुमक्खियां इस अमृत को एकत्र करती हैं ।


आयुर्वेद और मधु

संक्षेप में मधु के गुण-दोष प्रभाव पर कुछ लिखा जावे तो आयुर्वैदिक मत से मधु शीतल, स्वादिष्ट, रूखा, स्वर को शुद्ध करने वाला, ग्राही, नेत्रों को हितकारी, अग्निदीपक, व्रणशोधक, नाड़ी को शुद्ध करने वाला, सूक्ष्म, कांतिवर्धक, मेधाजनक, कामोद्दीपक, रुचिकारक, आनन्दजनक, कसैला, कुछ वातकारक तथा कुष्ठ, बवासीर, खांसी, रुधिर विकार, कफ, प्रमेह, कृमि, मद, ग्लानि, तृषा, वमन, अतिसार, दाह, मेद, क्षय, हिचकी, त्रिदोष, अफारा, वायु, विष और कब्जियत को नष्ट करने वाला होता है । सब प्रकार के मधु व्रणों को भरने वाले, शोधक और टूटी हड्डियों को जोड़ने वाले होते हैं ।


आग पर गर्म किया हुआ मधु अथवा ग्रीष्मकाल में उष्ण द्रव्यों के साथ खाया हुआ मधु विष के समान संताप को पैदा करता है ।


हारीत के मतानुसार मधु शीतल, कसैला, मधुर, हल्का, अग्निदीपक, शरीर को शुद्ध करनेवाला, वर्ण शोधक, घाव को भरने वाला, नाड़ी को शुद्ध करने वाला, हृदय को हितकारी, बलकारक, त्रिदोषनाशक, पौष्टिक तथा खांसी, क्षय, मूर्च्छा, हिचकी, भ्रम, शोष, पीनस, प्रमेह, श्वास, अतिसार, रक्तातिसार, रक्तपित्त, तृषा, मोह, हृदयरोग, नेत्ररोग, संग्रहणी और विषविकार में लाभदायक है ।


चरक शास्त्र के अनुसार मधु वातकारक, भारी, शीतल, कफनाशक, छेदक, रूक्ष, मीठा तथा कसैला होता है ।


मधु के अनेक प्रकारों के विषय में पहले लिखा जा चुका है कि वैसे शहद की मक्खियां बड़ी और छोटी दो ही प्रकार की होतीं हैं । बड़ी मक्खी को पहाड़ी मक्खी कहते हैं । इसका स्वभाव हिंसक होता है । किन्हीं कारणों से बिगड़ जाये तो मनुष्य और सभी पशु-पक्षियों का जीना दूभर कर देती है । छोटी मक्खी का मधु सर्वोत्तम होता है । छोटी मक्खी के शहद की अपेक्षा बड़ी मक्खी के शहद में गुण कम होते हैं ।


नवीन मधु - वात और कफ का नाश करने वाला होता है और पुष्टिकारक होता है ।


यूनानी मत के अनुसार


शहद शरीर को शुद्ध करता है । पुराने और लेशदार कफ को छांटता है । हर प्रकार की वायु का शमन करता है । पेशाब अधिक लाता है । बन्द हुए मासिकधर्म को पुनः खोलकर जारी कर देता है । दूध को खूब बढ़ाता है । मशाने और गुर्दे की पत्थरी को तोड़ता है । पाचनशक्ति और जिगर को बलवान बनाता है । छाती को शुद्ध व साफ करता है । शीत के कारण उत्पन्न हुए जुकाम, खाँसी व निमोनिया की इससे अच्छी कोई औषध नहीं है । कान में भी किसी प्रकार की कड़कड़ाहट की आवाज आती हो तो शहद की चार पांच बूंद में थोड़ा सा उष्ण जल मिलाकर कान में डालने से यह रोग दूर होता है । यदि इसमें थोड़ा कलमी शोरा और मिला लिया जाये तो सोने में सुहागा है । यह संक्षेप में मधु के विषय में पाठकों के लाभार्थ लिख दिया है ।


मुझे पूर्ण आशा है कि जनता को इस छोटी सी पुस्तक के पढ़ने से पर्याप्‍त लाभ होगा । इस विषय में बहुत विस्तार से भी लिखा जा सकता है किन्तु बड़ी पुस्तकों के पढ़ने में बहुत कम पाठकों की रुचि होती है । इसलिए लेखनी को विराम देता हूँ ।


(समाप्‍त)



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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल



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