Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter II

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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द्वितीय अध्याय: जाट विषयक प्रसंग

जाट शब्द का मन में विचार आते ही या सुनते ही जाटवीर की चालढाल देखकर प्रत्येक मनुष्य को सहज ही बोध हो जाता है कि वास्तव में जाट एक कुशल योद्धा, निडर तथा वीर सैनिक, साहसी, परिश्रमी, चरित्रवान और देशभक्त नागरिक है।

इसमें तलवार चलाने व हल चलाने की समान चतुराई है। जाटवीरों के एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में हल की मूठ (हथेहली) रहती है। प्राचीनकाल में जाटवीरों ने तीर व तलवार का बल दिखाकर और हल चलाकर एशिया और यूरोप की भूमि पर, पूर्व में मंगोलिया और चीन, पश्चिम में स्पेन और इंग्लैण्ड, उत्तर में स्कैण्डेनिविया और नौवोगोर्ड और दक्षिण में भारतवर्ष, ईरान और मिश्र की भूमि पर जाट बलवान्, जय भगवान् का रणघोष लगाकर अपने नाम की प्रसिद्धि की।

जाटों की संख्या और आवास भूमि

जाटों की आवास भूमि

प्रो० उपेन्द्रनाथ के अनुसार - जाट जाति लगभग नौ करोड़ से अधिक संख्या में प्रगतिशील उत्पादक और राष्ट्ररक्षक सैनिकों के रूप में विशाल भूखण्ड पर बसी हुई है। इनकी उत्पादन भूमि स्वयं एक विशाल राष्ट्र का प्रतीक है। जनगणना (1901) से आभास मिलता है कि - जाट एक तिहाई मुसलमान, पांचवां भाग सिक्ख और आधे लगभग वैष्णव हिन्दू धर्म के कट्टर अनुयायी हैं1। फिर भी जाट “एक कट्टर जाट” है चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय अथवा मत का अनुयायी क्यों न हो, इनमें युद्ध और शांति के समय एकता की सामयिक लग्न होती है।

इस जाति के लोग उत्तर में हिमालय पर्वत की निचली तराई, पश्चिम में सिन्धु नदी का पूर्वी किनारा, दक्षिण में हैदराबाद (सिन्ध - आधुनिक पाकिस्तान), कच्छ-काठियावाड़, अजमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर से भोपाल तक और पूर्व में गंगा नदी का किनारा, दोआब, रूहेलखण्ड आदि उपजाऊ भूमि के बीच में आबाद हैं। सिन्धु नदी के पश्चिम में ये पेशावर, बलोचिस्तान तथा सुलेमान पहाड़ियों के पार तक फैले हुए हैं। किरमान और ईराक में जाट तथा जिप्सियों की बीस हजार मिश्रित आबादी है। मकराना और अफगानिस्तान में इनकी पचास हजार आबादी का अनुमान लगाया जाता है। (ए० एच० कीन कृत 'एशिया' सम्पादक सर रिचर्ड टेम्पिल, पृ० 210-218, इ० डा० भाग 1 परिशिष्ट) पृ० 508, टॉड भाग 1 पृ० 52, 88)।

सिन्धु नदी के दोनों ओर आबाद जिले और मुलतान के चारों ओर मिले-जुले जाट बलोचियों में


1. इसके अनुसार 9 करोड़ में से 4½ करोड़ हिन्दू जाट, 3 करोड़ मुसलमान और 1½ करोड़ सिक्ख जाट होते हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-68



प्रायः सामाजिक संसर्ग और रक्त एकता विद्यमान है। अफगानिस्तान और उसके पश्चिम में ये मुसलमान हैं। जेहलम से हांसी तक, हिसार, पानीपत तथा दीपालपुर में ये सिक्ख हैं और इस क्षेत्र में प्रायः इनकी पांच करोड़ आबादी आंकी जाती है। राजस्थान, मध्यभारत, उत्तरप्रदेश और हरयाणा राज्यों में ये कृषिप्रधान हिन्दू हैं। (जाटों का नवीन इतिहास पृ० 35-36, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा)।

पंजाब: आधुनिक पंजाब में सिक्ख जाटों की बड़ी भारी संख्या है जबकि वहां हिन्दू जाट कम संख्या में हैं। फिरोजपुर जिले की तहसील फाजिल्का में काफी हिन्दू जाट हैं। जिला भटिण्डा, संगरूर, पटियाला और रूपनगर में भी हिन्दू जाट हैं परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है।

हरयाणा: आधुनिक हरयाणा प्रान्त में दूसरी जातियों की तुलना में हिन्दू जाटों की संख्या अधिक है। रोहतक, सोनीपत, करनाल, जींद, हिसार, सिरसा, भिवानी जिले तो हिन्दू जाटों के गढ कहे जाते हैं जहां पर इनकी भारी संख्या है। गुड़गांव जिले में जाटों से मेव अधिक संख्या में हैं। महेन्द्रगढ जिले की रेवाड़ी तहसील में अहीर बहुतायत में हैं। फिर भी इस जिले में जाटों की संख्या और जातियों से अधिक है। शेष अन्य जिलों – फरीदाबाद, अम्बाला, कुरुक्षेत्र में जाट अन्य जातियों की तुलना में अधिक हैं।

दिल्ली: “क्षत्रियों का इतिहास” के अनुसार दिल्ली के तीन ओर जाट बसे हुए हैं किन्तु इसके पूर्वी भाग में गूजर यमुना के किनारे-किनारे रहते हैं।

राजस्थान: राजस्थान में धौलपुर, भरतपुर, अलवर, जयपुर की सीकरवाटी, झुन्झुनूवाटी, खेतड़ी से लुहारू तक, बीकानेर की सम्पूर्ण में से आधी जनसंख्या, जोधपुर का उत्तरी भाग पर्वतसर, खाटू, पाली से नागौर तक, अजमेर मेरवाड़ा से खण्डवा तक, नसीराबाद से भीलवाड़ा तक, चित्तौड़ के कपासन आदि क्षेत्रों में जाट बहुसंख्या में बसे हैं।

मध्यप्रदेश: मध्यप्रदेश के रतलाम शहर में तथा आस-पास में, इन्दौर के चारों ओर होशंगाबाद की हरदा तहसील तथा नरसिंहपुर से करेली तक, भोपाल में 15 गांव, ग्वालियर के गोहद क्षेत्र में जाटों की बहुत अच्छी संख्या आबाद है।

उत्तरप्रदेश: उत्तरप्रदेश के बरेली जिले की बहेड़ी तहसील, बदायूं की उफानी तहसील, रामपुर की विलासपुर तहसील तथा रुद्रपुर से हलद्वानी तक, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, अलीगढ, सहारनपुर, बुलन्दशहर, आगरा की करावली तहसील, मथुरा आदि जिले जाटों से भरे हुए हैं। (क्षत्रियों का इतिहास, प्रथम भाग, पृ० 48-49, लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री)।

ठाकुर देशराज के अनुसार

“सिन्ध, पंजाब (संयुक्त पंजाब), देहली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जाटप्रदेश के नाम से पुकारे जा सकते हैं। गुजरात और महाराष्ट्र प्रदेश में इनकी संख्या कम है। काठियावाड़ में जाट हैं किन्तु वे आजकल अपने को जाट नहीं कहते हैं। पटेलों के सम्बन्ध में हमें बताया गया है कि जाटों का और उनका अति निकट सम्बन्ध है। गुजरात में अंजना चौधरी रहते हैं जो कि जाट हैं। उत्तरी भारत के जाट चौधरी और गुजरात के अंजना (जाट गोत्र) चौधरी एक ही वंश के हैं। ठीक जाट सरदारों की तरह भटण्डार या इनामदार देशाई यानि गुजराती राजाओं के भिन्न-भिन्न सरदार हैं। देशाई भाइयों के साथ उत्तर भारत के जाट अपने वैवाहिक सम्बन्ध, अगर बन्द हो रहे हों, तो अवश्य प्रचलित कर देंगे, ऐसी हमें पूर्ण आशा है। इससे जनरल कनिंघम की यह बात बिल्कुल सही हो जाती है कि भारत की अनेकों जातियों की वंशावली की समालोचना करें तो उनमें जाटों के वंशज मिलेंगे। इस तरह इस समय भी भारत का ऐसा कोई कोना खाली नहीं

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-69



जहां जाट न हों। हां, दूर-दूर रहने के कारण कुछ लोगों के तो सम्बन्ध भी विच्छेद हो गए हैं1।”
“राजपूताने में जाटों की संख्या प्रायः सभी जातियों से अधिक है। अलग-अलग खास-खास रियासतें जिनमें जाट अधिक तादाद में बसते हैं -
भरतपुर, बीकानेर, जयपुर, मारवाड़, किशनगढ और मेवाड़ रियासतों में हर एक दूसरी जाति से इनकी संख्या अधिक है। किसी रियासत में इनकी संख्या कुल आबादी का 23 प्रति सैंकड़ा तक है। बिशनोई जाटों की, बीकानेर, जैसलमेर, और मारवाड़ (सांचौर इलाका) में बड़ी संख्या है।”
“भरतपुर राज्य की ड्योढी, डीग, कुम्हेर और नदवई, बीकानेर की प्रत्येक तहसील, जयपुर की मालपुरा, सांभर, शेखावाटी, तोरावाटी, खेतड़ी और सीकर, किशनगढ की अराई, किशनगढ, रूपनगर और सरवाड़, सरवाड़ की बिलाड़ा, डीडवाना, जोधपुर, मालानी, मेडता, नागौर, पर्वतसर और सांभर, मेवाड़ की भीलवाड़ा, कपासन और रसमिन तहसीलों और निजामतों में जाट मधुमक्खियों की भांति भरे पड़े हैं।”
“बिश्नोई जाटों को मिलाकर राजपूताने के जाटों की जो संख्या होती है, राजपूत उसके आधे के करीब होते हैं अर्थात् राजपूताने में जाट, राजपूतों से दुगुनी संख्या में बसे हुए हैं जो कि इस स्थान पर राजपूतों से बहुत पहले से आबाद हैं। (सन् 1931 की राजपूताना सैंसस रिपोर्ट के आधार पर)।”
“हमारे पास राजपूताने के 700 जाट गोत्रों की सूची है। इनमें से अनेक राजपूताने की भूमि के किसी न किसी हिस्से के शासक रह चुके हैं। राजस्थान में अनेक स्थानों पर जाटों की ओर से छोड़ी हुई गोचर भूमि, ब्राह्मण, साधुओं और मन्दिरों को दान दी हुई जमीन अब तक चली आती है, जो कि इनके शासक होने का प्रबल प्रमाण है2।”
“भारत में जातियों की विभाजन संख्या दो हजार से ऊपर है। इस तरह भारत की प्रत्येक जाति से जाट अधिक हैं। कहा जाता है कि ब्राह्मणों की संख्या इनसे अधिक है, किन्तु कश्मीर का ब्राह्मण और मद्रास का ब्राह्मण सामाजिक सम्बन्ध में एक दूसरे से बिलकुल अलग है। जाट चाहे जहां रहता है, जाट ही है। खान-पान और शादी-व्यवहार में ये परस्पर एक हैं3।”

अर्वाचीन मध्यप्रदेश में जाटसमाज के सदस्य प्रायः सभी जिलों में निवास करते हैं। कहीं अधिक, कहीं कम। चाहे शासकीय, अर्धशासकीय व अशासकीय सेवा में हों या अपने पुस्तैनी व्यवसाय कृषि में लगे हों, जाट जाति का कोई न कोई सपूत आपको अवश्य ही मिल जायेगा। मध्यप्रदेश में बसे जाट विभिन्न रीति-रिवाजों, पहरावों और बोलियों को अंगीकृत कर चुके हैं और यह प्रक्रिया निरन्तर रूप से क्रियाशील है। स्थानीय परिवेश में अपने आप को निमग्न कर उस वातावरण को संपूर्ण रूप से अंगीकार कर उन्होंने अपने संस्कारों को तिरोहित नहीं किया है। मालवा, निमाड़, खानदेश और बरार में मारवाड़ी और मेवाड़ी जाटों का बाहुल्य है। यहां उन्होंने लघु मारवाड़ ही बसा लिया। नर्मदा की घाटी में भी ये जाट बसे हुये हैं। हरदा तथा होशंगाबाद जिलों में पंजाब से आए हुए जाट आबाद हैं। (प्रथम विश्व युवा जाट सम्मेलन (कंझावला) 4 व 5 अक्टूबर 1986 स्मारिका पृ० 39-40, मध्यप्रदेश में जाटसमाज, लेखक - डॉ० श्रीमती सुशीला कश्यप)।


1, 2, 3. क्रमशः जाट इतिहास, पृ० 732-734, 690-691, 728 लेखक ठा० देशराज।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-70



जाट महान् के लेखक के अनुसार - महाराजा महादेव जटी कैलाशवासी थे। उनके पुत्र गणेश विनायक जी के गण, पाल के रूप में आज भी जाट विद्यमान हैं। प्रायः जहां-जहां जाट रहते हैं वहां-वहां खापों में बसे ग्रामों में हैं। जाटों की खाप 600 हैं। अन्य किसी जाति में इस रूप में रहने की पद्धति नहीं है। जाटों की संख्या - 6 करोड़ हिन्दू जाट, एक करोड़ मूळे जाट, 5 करोड़ सिक्ख जाट, 3 करोड़ पाकिस्तान तथा अन्य देशों में रहते हैं। कुल 15 करोड़ हैं। (जाट महान् पृ० 5, लेखक चौधरी श्री महेन्द्रकुमार शास्त्री)।

उपर्युक्त लेखकों के लेखों के अतिरिक्त भारतवर्ष में अन्य स्थानों में भी जाट आबाद हैं जो इस प्रकार हैं -

  1. जम्मू क्षेत्र में लगभग तीन लाख जाट हैं। जम्मू में युवा जाट सभा भी स्थापित है। (मासिक पत्र हरयाणा जाट सभा समाचार व सुझाव हिसार, 10 दिसम्बर 1987)।
  2. हिमाचल प्रदेश में भी जाट हैं। इस प्रदेश की कई जातियों के जवान सेना में सैनिक हैं, जो डोगरा नाम से हैं। पैदल सेना में डोगरे जवान बड़ी संख्या में हैं जिनमें डोगरे राजपूत अधिक हैं परन्तु डोगरे जाट भी हैं जिनकी संख्या कम है। मेरे सेना काल में जाट डोगरे मेरे साथ सैनिक थे। (लेखक)
  3. उत्तरी भारत के अतिरिक्त दक्षिणी भारत में भी जाटसभायें स्थापित हैं जैसे आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में विदर्भ जाटसभा। विदेशों में भी जाटमहासभायें हैं जैसे कनाडा, पश्चिमी जर्मनी, अमेरिका आदि।
  4. महाराष्ट्र प्रान्त - बौद्ध काल के बाद यहां के ब्राह्मण महाराष्ट्रीय और क्षत्रिय मराठा नाम से प्रसिद्ध हुये। इन मराठा कहलाने वाले क्षत्रियों के वंश आन्ध्र, यादव, राठ (राठी), चालूक्य, यवन, काम्बोज, भोज, पल्लव, मौर्य आदि हैं जो सब जाटवंश हैं। इन्होंने देश को आबाद किया तथा शासन किया। अतः मराठा इन क्षत्रियवंशों की ही सन्तान सिद्ध होते हैं। (इसका पूरा वर्णन षष्ठ अध्याय, मराठा जाति की उत्पत्ति एवं राज्य, प्रकरण में किया जाएगा)।
  5. इस समय केरल विधानसभा में चौधरी धारासिंह जाट एम० एल० ए० हैं जो महाराष्ट्र में 35 गांवों के प्रधान भी हैं। आप प्रथम विश्व युवा जाट सम्मेलन (कंझावला-दिल्ली) में पधारे थे जो 4 व 5 अक्तूबर 1986 को सम्पन्न हुआ था।
  6. महाराष्ट्र में हरदोई तहसील (मानमाड और चालीस गांव स्टेशन के बीच में) सारी जाटों की है। यहां पर आबाद जाटों का पहनावा हरयाणा एवं ब्रज के जाटों जैसा है। उनकी स्त्रियां दामन (घाघरा), चूंदड़ी, कुर्ता और जेवर पहनती हैं जैसा कि उत्तरी भारत में जाट स्त्रियां पहनती हैं। सन् 1761 ई० में हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई में हारे हुये मराठों को भरतपुर राज्य से दक्षिण तक पहुंचाने के लिए उनकी सुरक्षा हेतु भरतपुर राज्य के जाट उनके साथ गये थे जो कि यहां हरदोई आदि में बस गए।

मेरे विचार से यदि पूरे संसार में पूरी खोज के साथ निष्पक्ष जातीय जनगणना कराई जाये तो जाटों की लगभग संख्या निम्न प्रकार से होने का अनुमान है -

हिन्दू जाट 6 करोड़, मूले जाट एक करोड़, सिख जाट 2 करोड़, मुसलमान जाट 6 करोड़, ईसाई तथा अन्य धर्मी जाट 5 करोड़। कुल जाट संख्या 20 करोड़
नोट - (1) उपर्युक्त के अतिरिक्त भारतवर्ष की अन्य कई जातियों में जाट गोत्र बहुत मिलते हैं। वे

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-71



लोग इस जाट संख्या में शामिल नहीं हैं। यदि उनको भी शामिल किया जाये तो यह जाट संख्या कई करोड़ और बढ़ जाएगी। (2) विदेशों में जाटराज्य तथा इनके निवास का वर्णन चतुर्थ अध्याय में किया जाएगा।
पाठकों को जाट संख्या का अनुमान इस सारे इतिहास को पढने से हो जायेगा।

प्राचीन समय में जाटों की संख्या आज से बहुत अधिक थी। अब से लगभग अठारह सौ वर्ष पहले तक जाटों की संख्या कई करोड़ थी। जनरल कनिंघम के अनुसार जाटों का एक बड़ा हिस्सा राजपूत, अफगान और बिलोचों में बंट गया। यही क्यों, भारत की अन्यान्य जातियों के उत्पत्ति सम्बन्धी इतिहास पर विचार करें तो उनमें से अनेक जाटों में से ही निकली हुई साबित होंगी। जैसे खाती, नाई, सुनार, लोहार, रोड़, जोगी, बैरागी, विश्नोई, चमार, सैनी (माली) आदि जातियों में जाटों के बहुत गोत्र पाये जाते हैं जो क्रमशः 60% से 80% हैं। गुरु नानकदेव द्वारा प्रचलित तथा गुरु गोविन्दसिंह द्वारा सत्रहवीं सदी में नव रूप लेनेवाले सिख-धर्म ने यद्यपि जाटों में नव-जीवन का संचार किया किन्तु जातीयता को धक्का लगा। वे जाट जत्थे से एक प्रकार से अलग से ही जान पड़ते हैं। वे पहले सिक्ख और पीछे जाट हैं। अनेक छोटे-छोटे और भी धर्म-सम्प्रदायों ने जाटों की जातीयता और संख्या को घटाया है। विश्नोई, उदासी, वैरागी, राधास्वामी, दादू और कबीर प्रभृति मतों में भी जाट कई हजार की संख्या में दीक्षित हो गए हैं। जैन धर्म ने तो इनके कई खानदानों को क्षत्रिय से वैश्य बना दिया है। वे ज्ञातृ (जाट) लोग कहां गये जिनमें स्वयं भगवान् महावीर पैदा हुए थे। वे सब जैन धर्म के अनुयायी बन गये।

आर्यसमाज ने जाटों में बौद्धिक विकास को उत्तेजित अवश्य किया है किन्तु इनकी संख्या को घटाया है। 1931 ई० की जनगणना में कई हजार जाटों ने अपने को आर्य लिखवाया था।

इसी तरह से यूरोप की ओर गए हुए जाट समुदायों को ईसाइयत निगल गई और ईरान, अरब, तुर्किस्तान, अफगानिस्तान और बलोचिस्तान में रहने वाले जाटों को, जिनकी संख्या हजारों वर्ष तक वहां उतनी ही घनी रही थी जितनी कि इस समय मथुरा, मेरठ, रोहतक जिलों में अथवा शेखावटी और जांगल प्रदेशों में है, इस्लाम निगले हुए है।

पौराणिक धर्म के संघर्ष ने भी जाटों को राजपूत, गूजर और काठी आदि अनेक दलों में बांट दिया है।

यूरोप में जटलैंड तो निरा जाटों का था। स्कन्धनाभ (नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क), जर्मनी और स्पेन में भी जाटों की बहुत संख्या थी। प्राचीन समय में ये लोग भारतवर्ष से जाकर वहां के शासक बने और आबाद हो गए थे। इनके कुछ जत्थे तो भारत की ओर लौट आये परन्तु जो रह गये उनको ईसाइयत निगल गई। (जाट इतिहास लेखक ठा० देशराज पृ० 728-29)।

“रोमा”-जिप्सी (Roma Gypsy)
इसी तरह आज भी बहुत से भारतीय देश-विदेशों में रह रहे हैं जिनमें जाटों की संख्या अधिक है। इनको “भारतीय रोमा (जिप्सी)” नाम से पुकारा जाता है। आज यूरोप तथा अमेरिका में रोमा जिप्सियों की संख्या लाखों में हैं। ये लोग कई देशों में पाये जाते हैं जैसे - यूरोप, अमेरिका,

1. सन् 1911 ई० की जनगणना के अनुसार पंजाब में जाट साधुओं की संख्या 37,000 थी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-72



कनाडा, यूगोस्लाविया, बुल्गारिया, ग्रीस, [[Romania|रूमानिया], जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, रूस, आस्ट्रिया, हालैण्ड, नार्वे और स्वीडन। परन्तु विश्व में सबसे अधिक ‘रोमा’ लोग यूगोस्लाविया में बसे हुए हैं। इस देश में स्कोपिए (Skopje) रोमा लोगों का सुन्दर शहर है। यहां पर इनकी संख्या 40,000 है। ये लोग बेलग्रेड तथा निश शहरों में भी हजारों की संख्या में हैं। इसी प्रकार दक्षिणी फ्रांस में ‘ग्रास’ में भी एक सुन्दर रोमा बस्ती है। नार्वे, स्वीडन में भी ये लोग बड़ी संख्या में बसे हैं। ये भारतीय लोग कई सदियों से भारत से उन देशों में गये हुए हैं। इन लोगों पर प्रत्येक देश में बड़े-बड़े अत्याचार किए गये और बहुतों को मौत के घाट उतारा गया। विदेशों में रहते हुए आज भी ये लोग अपने को भारतीय वंशज मानते हैं और जो लोग जाट हैं वे अपने को जाट कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। ये लोग अपने प्राचीन धर्म, संस्कृति और भाषा को ज्यों का त्यों रखे हुए हैं चाहे वे ईसाई व मुसलमान बन गए हैं1। डैविड मैकरिटचे की सन् 1886 ई० में प्रकाशित एक पुस्तक से स्पष्ट है कि जिप्सी राजस्थान के जाट हैं जो भरतपुर से महाराजा सूरजमल के शासनकाल में अपना देश छोड़कर विदेश में चले गये थे। यहां पर एक बात लिखना उचित है कि दीनबन्धु सर छोटूराम जी ने एक पुरजोर नारा बुलन्द किया था कि धर्म (मजहब) बदल सकता है लेकिन खून नहीं बदल सकता। इससे पंजाब के हिन्दू जाट, सिक्ख जाट, मुसलमान जाट जाति पर एक जादू जैसा असर हुआ और सब ने एकजान होकर सर छोटूराम को अपना नेता मान लिया और उनके संयुक्त राष्ट्रवादी दल में शामिल हो गये थे। इस आधार पर देश विदेशों में जाट चाहे किसी भी धर्म को मानने वाले हों, सब एक ही खून और वंश के हैं और जाट होने का गौरव रखते हैं। इसी का एक उदाहरण वर्तमान काल का यह है -

दो जाट संसद अध्यक्षों की मुलाकात : 21 जुलाई 1983 ई० को भारत की लोकसभा के अध्यक्ष श्री बलराम जाखड़ जी लन्दन गये थे। वहां पर उनकी मुलाकात ब्रिटेन की संसद के अध्यक्ष श्री बर्नार्ड वैदर हिल से राष्ट्रमण्डलीय एसोसियेशनों के कार्यदल की बैठक में हुई। श्री हिल ने अपने भारतीय प्रवास के समय की याद को ताजा करते हुए हिन्दी में कहा - मैं भी जाट हूं। साथ ही उन्होंने पंजाब की अपनी सुखद स्मृतियों और उसके प्रसिद्ध स्थानों का भी उल्लेख किया। उल्लेखनीय है कि यह दोनों जाट किसान हैं और शाकाहारी भी हैं। (दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 22-7-83)।

भारतवर्ष में जातियों की विभाजन संख्या लगभग 2365 है। इस तरह भारत की प्रत्येक जाति से जाट अधिक हैं। कहा जाता है कि ब्राह्मणों की संख्या जाटों से अधिक है। इसका कारण एक और भी है कि बहुत सी हिन्दू उपजातियों ने अपने को ब्राह्मण कहना शुरु कर दिया है। जैसे - खात्ती, लोहार, नाई, छीपी, मनियार, डाकौत, बेरूपिये, ब्यास, जोगी, बैरागी, गुवारिये, कुम्हार, भड़भूजे, भाट, सुनार, झीमर आदि। वास्तविक प्राचीन ब्राह्मणों का इन पर कोई विरोध नहीं है। एक बात उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणों में आपस में रोटी-बेटी, खान-पान का, गोत्रों व प्रान्तों को


1. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 30 अक्तूबर 1983 ई० लेखक एक जाट डाक्टर श्यामसिंह शशि (जाट गोत्र)। आपने यूरोप देश में रहने वाले सभी रोमा जिप्सियों से मुलाकात की है। अधिक जानकारी के लिए इस साप्ताहिक हिन्दुस्तान को देखो।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-73



लेकर बड़ा मतभेद है। एक तमिलनाडु प्रान्त का रहने वाला नम्बूदरी ब्राह्मण, एक कश्मीरी ब्राह्मण की लड़की से विवाह नहीं करवायेगा। इसी तरह एक हरयाणा निवासी ब्राह्मण, बंगाली ब्राह्मण से खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध नहीं करेगा। इनमें अपने गोत्रों की ऊंच-नीच भी है जैसे गौड़ ब्राह्मण अपने को दूसरों से ऊंचा समझते हैं, तो भारद्वाज अपने को तथा कौशिक अपने को आदि। यही हाल राजपूत तथा अन्य जातियों में हैं। अब जाटों की ओर दृष्टि कीजिए -

भारतवर्ष के हर कोने में रहने वाले जाटों के लगभग 2500 गोत्र हैं। परन्तु हुक्का पानी तथा रोटी-बेटी वैवाहिक सम्बन्ध में वे परस्पर एक हैं। प्रान्तीय तथा गोत्रों के अनुसार उनमें कोई ऊंचा नीचा नहीं है। जाट चाहे कहीं भी रहता हो, वह सबके समान ही जाट है। कोई भी जाट गोत्र यह कहने का अधिकार नहीं रखता कि हमारा गोत्र अमुक गोत्रों से ऊंचा (बड़ा) है। संख्या के अनुसार कम व ज्यादा अवश्य है परन्तु प्रतिष्ठा (सम्मान) में बराबर है। जैसलमेर (राजस्थान) में रहने वाले जाट और हरयाणा या उत्तरप्रदेश में रहने वाले जाट के रोटी-बेटी तथा वैवाहिक सम्बन्ध बिना किसी रोक-टोक तथा हिचकिचाहट के होते हैं। इन बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में प्रत्येक जाति से जाट अधिक हैं।

जाटों की पहचान, चरित्र, स्वभाव और विशेषताएं

शारीरिक गठन

जाटों का शारीरिक गठन आर्यों के शारीरिक गठन के समान है। जाट जाति का प्रत्येक युवक अपने लम्बे डीलडौल, सुन्दर गोरे या गेहुएं चेहरे, घने काले बालों, लम्बी गर्दन, लम्बी सुथरी नाक, काली बड़ी-बड़ी आंखों, चौड़ा माथा, चौड़ी छाती, लम्बी भुजाओं, पतली कमर और रौबीली चाल से भली-भांति पहचाना जा सकता है। जाट का शरीर गठीला, और फुर्तीला होता है। जाटों का स्वभाव बड़ा सरल और दयालु है। किन्तु अन्याय होने पर मनमानी करने में वे अपने प्राणों को भी संकट में डाल देते हैं। पं० इन्द्र विद्यावचस्पति ने लिखा है कि जाटों को प्रेम से वश में करना जितना सरल है, आंखें दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है। गिड़गिड़ाते हुए शरणागत शत्रु की भी दीनवाणी जाट के भयंकर क्रोध को क्षणभर में शान्त कर सकती है। डाक्टर विटरेटन ने लिखा है कि जाटों में चालाकी और धूर्तता, योग्यता की अपेक्षा बहुत ही कम होती है। वे स्वामीभक्त और साहसी होते हैं। कालिकारंजन कानूनगो के शब्दों में जाट सच्चे भारत-पुत्र हैं। वे खेती करने और तलवार चलाने में एक बराबर रुचि रखते हैं। इनके एक हाथ में हल तथा दूसरे हाथ में तलवार रहती है। परिश्रम और साहस में भारत की कोई भी जाति इनकी तुलना नहीं कर सकती। “जाट बहादुरी के साथ-साथ ईमानदार भी हैं। ये मैदान में मरना जानते हैं।” (जाटों से प्रभावित होकर मि० एफ. एफ. यांग ने जाटों के लिए कहना पड़ा था)। जाट एक प्रथम श्रेणी का कृषक है जिसने भारत में ही नहीं, किन्तु एशिया व यूरोप के लोगों को भी खेती करना सिखाया। इस बारे में आज भी कहावत प्रसिद्ध है कि “कविता सोहे भाट की, खेती सोहे जाट की।” जाटों की तलवार के भय से यह कहावत प्रसिद्ध है कि “जाट मरयो तब जानियो


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-74



जब तेरामी हो जाये”1। जाट मुट्ठी भर चने खाकर महीनों तक शत्रु से युद्ध कर सकता है। इसके अनेक उदाहरण हैं जो आगे के अध्यायों में उचित स्थान पर दिए गए हैं। प्रो० कालिकारंजन कानूनगो के शब्दों में -

चारित्रिक गुण में जाट प्राचीन आंग्ल-सेक्सन (Anglo Saxon) तथा प्राचीन रोमवासियों (Ancient Roman) की तरह सहनशील, सोच विचार कर मन्दगति से आगे बढ़ने गाले, कल्पना-भावुकता तथा तड़क-भड़क से शून्य होने पर भी दृढ़-विचारक, शक्ति-सम्पन्न, धैर्यवान् अथवा प्रयत्नशील और अपने विचारों को विशिष्टरूप से सुरक्षित रखने वाले हैं। शब्द प्रमाण आनुमानिक तर्क की अपेक्षा ठोस क्रियात्मक कदम उठाने वाले और निश्चयात्मक प्रमाण के आधार पर निश्चित निर्णय लेने में सक्षम हैं। दृढ स्वाभिमान, प्रबल स्वाधीनता-प्रेमी जनतान्त्रिक परम्परा के पुजारी हैं। History of Jats P.2 by Kalika Ranjan Qanungo, M.A.)

1. विशेषरूप से अंग्रेज विद्वान् जैसे जार्ज कैम्पबैल तथा गब्बिन्ज ने निस्सन्देह जाट जाति को भारतवर्ष की सर्वोत्तम जाति माना है। इस कथन की पुष्टि एच० सी० फैन्शा तथा डब्ल्यू ई० पर्सर ने भी “रिपोर्ट ऑन दी रिवाईज्ड लैण्ड रिव्यन्यु सैटलमैंट ऑफ दी रोहतक डिस्ट्रिक्ट 1878-79 पृ० 53” पर अंकित की है। इसी धारणा का समर्थन डी० इब्बेट्सन ने “पुस्तक Op. cit” तथा एच० ए० रोज ने ग्लोसरी ऑफ दी ट्राइब्ज एण्ड कास्ट्स आफ दी पंजाब एण्ड नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्राविन्स (लाहौर 1914), एच० रिजले ने “पुस्तक Op. cit” तथा “दी सैन्सस ऑफ इंडिया 1901, पंजाब” में किया है।

इसके अतिरिक्त अन्य अंग्रेज विद्वान एम० एल० डार्लिंग ने अपनी चार पुस्तकों में, एच० कलवर्ट ने “वैल्थ एण्ड वैल्फेयर ऑफ पंजाब” में, एच० के० ट्रेवस्कीज ने “पुस्तक Op. cit I, II (लाहौर 1931)” में तथा “दी लैण्ड ऑफ फाईव रीवर्ज (ऑक्सफोर्ड 1928)” में भी इस मत की पुष्टि की है।

2. जोजेफ डेवी कनिंघम ने अपनी पुस्तक “सिक्खों का इतिहास” पृ० 12 पर लिखा है कि “उत्तर और पश्चिम भारत के जाट बड़े परिश्रमी और सफल कृषक हैं। वे खेती करने और शस्त्र चलाने में एक जैसे निपुण हैं। भारत की ग्रामीण आबादी में जाट सबसे श्रेष्ठ नागरिक हैं।”

3. पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक “डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” के पृष्ठ 58 पर लिखा है कि “मैं यू. पी. प्रान्त के उत्तरी तथा पश्चिमी जिलों के प्रबल जाटों के बारे में जानता हूं। वे मातृभूमि के आदर्श पुत्र, बहादुर, स्वतन्त्र स्वभाव वाले तथा बहुत उन्नतिशील हैं।” आगे आपने पृष्ठ 145-46 पर लिखा है - “भारतवर्ष में जाटों से बढ़कर कोई दूसरा अधिक शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ किसान नहीं है। वे अपनी भूमि के प्रति समर्पित हैं, इसके सम्बन्ध में किसी प्रकार की दखलन्दाजी सहन नहीं कर सकते।”

4. फील्ड मार्शल के० एम० करियाप्पा ने हिस्ट्री ऑफ दी जाट्स - लेखक रामसरूप जून, की प्रस्तावना पृष्ठ 1 पर जाटों को “भारत के महान् सपूत, प्राचीन तथा मर्दाना जाति” लिखा है। आगे आपने पृष्ठ 2 पर लिखा है कि “मेरे सैनिक काल के समय बहुत जाट


1. क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग, पृ० 45-46 एवं 37, लेखक श्री परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री।


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सैनिकों एवं जाट पलटनों ने मेरे नीचे काम किया है। इनकी कार्य-क्षमता, देश-भक्ति, सैनिक-निपुणता तथा बहादुरी अद्वितीय रही। भारत के इन महान् सपूतों की इन विशेषताओं को, मैं प्रसन्नतापूर्ण स्मरण रखता हूं।

5. जी० सी० द्विवेदी ने जनरल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री, 1970, पृ० 377 पर जाटों के विषय में लिखा है कि वे ऊंचे कद वाले, गठीले, बहादुर, परिश्रमी, रौबीले, सुन्दर, शुद्ध एवं शेखी न मारने वाले, हठी और दृढ़ होते हैं। ये सामान्य विशेषतायें सभी जाटों में हैं।

सुलतान महमूद गजनवी, तैमूरलंग, नादिरशाह या अहमदशाह अब्दाली आदि के साथ जाटों के किए गए युद्धों की ओर दृष्टि डालिये - हर एक से और हर जमाने में उनके जातीय चरित्र का पता चलता है। बड़े से बड़े विजेता की दिल दहला देने वाली प्रशंसा सुनकर भी उससे न डरना और बाद में हो जाने वाली हानि का ध्यान न करके मैदान छोड़कर भागते हुए शत्रु को खदेड़ते चले जाना, युद्ध में शत्रु से भिड़ जाने पर पूर्ण धैर्य धारण करना और अद्वितीय गम्भीर साहस का परिचय देना, युद्ध-क्षेत्र में तथा हार जाने पर आने वाली आपत्तियों का तनिक भी ध्यान न करना और अपने शत्रु की निर्दय तलवार के सिखाये हुए सबकों को बहुत जल्दी भूल जाना1 आदि जाटों के चरित्र के मुख्य अंग हैं (प्रो० कालिकारंजन कानूनगो हिस्ट्री ऑफ जाट्स)। पं० मदनमोहन मालवीय के शब्दों में - “जाट भारतीय राष्ट्र की रीढ हैं। भारत मां को इस साहसी वीर जाति से बहुत बड़ी आशायें हैं।” आदिकाल से अब तक शत्रुओं के आक्रमण जो भारतवर्ष पर हुए हैं, उनका मुंहतोड़ जवाब जाटों ने दिया है जिससे मालवीय जी की परख पर ये खरे उतरे हैं।

जाट अपने मित्र के साथ सच्ची मित्रता निभाता है और किसी से शत्रुता होने पर उसके साथ भी वैसा ही विवाद रखता है। कहावत है कि एक बूढ़ा जाट शांति से नहीं मरेगा जब तक कि वह अपनी सन्तान को भलाई व बुराई न सिखा दे। उसके साथ अच्छे व्यवहार करनेवालों का ऋण चुकाने और बुरे व्यवहार करनेवालों का बदला लेने ले किए अपनी सन्तान को अपनी मृत्यु समय तक भी कह जाता है2। जाट का एक विशेष चरित्र यह भी है कि किसी की धरोहर, उधार राशि को ठीक से लौटायेगा और भूखा मरने पर भी किसी से भीख नहीं मांगेगा। यह है जाट का आत्मगौरव। अतिथि सत्कार करना, भूखे को भोजन देना और समय आने पर दिल खोलकर अपनी शक्ति से भी अधिक दान देना आदि जाटों का पैतृक चरित्र है।

जाट अपनी तुरतबुद्धि के लिए भारत की सभी जातियों में श्रेष्ठ माना जाता है। जाट जाति के लिए कहावत है कि “अनपढ जाट पढे जैसा, पढा लिखा जाट खुदा जैसा।”

जाटों ने देश विदेशों में शत्रु को पराजित करके जहां भी अपना राज्य स्थापित किया वहां की जनता पर अत्याचार, दुर्व्यवहार और व्यभिचार, अन्याय आदि नहीं किये किन्तु उनके साथ सदव्यवहार और न्याय किया तथा उनकी स्त्रियों को अपनी बहिन समझकर उनको सम्मान दिया। इतना उच्च चरित्र का उदाहरण जाट जाति के लिए बड़े गौरव की बात है। जब जाटों ने रोम (इटली) में अपना राज्य स्थापित किया था तो इन व्यवहारों को देखकर ही तो वहां


1. इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे शत्रु से दोबारा मुठभेड़ हो जाने पर उससे भयभीत न होना। 2. हिस्ट्री ऑफ जाट्स - लेखक कालिकारंजन कानूनगो पृ० 3.


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की जनता ने कहा था - “क्या ही अच्छा होता कि अब से बहुत समय पहले जाट लोग हमारे शासक होते!” उन्होंने जाट-राज्य को रामराज्य की संज्ञा दी थी।

धर्म

आदिकाल से ही जाट आर्य हैं और वैदिक धर्म को मानते आ रहे हैं। महाभारत काल के बाद ये बौद्ध धर्म के अनुयायी अवश्य रहे परन्तु उस धर्म के विनाश होने पर जब पौराणिक धर्म (नवीन हिन्दू धर्म) उन्नति पर हुआ तो उसमें दीक्षित न होकर अपने प्राचीन वैदिक धर्म पर चलने लगे। बहुत से जाटों ने ईसाई, इस्लाम, सिक्ख धर्म अपना लिया है और बड़ी संख्या में हिन्दू जाट हैं किन्तु वह किसी भी धर्म में सम्मिलित हों, जाट एक जाट ही है।

जाट एक ईश्वर की ही उपासना करने पर विश्वास रखता है जैसी कि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संसार के मनुष्यों को शिक्षा दी थी। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि “यदि जाटजी जैसे मनुष्य इस संसार में हों तो पोपलीला संसार से मिट जाये1।” साफ है कि महर्षि दयानन्द जी जाटों को वैदिक धर्म पर चलने वाले आर्य मानते हैं। जाट लोग देवी-देवताओं, भूत-प्रेत आदि के चक्कर में नहीं पड़ते और पौराणिक धर्म के पाखण्डों को, जिसमें मूर्ति-पूजा, पशुओं की बलि आदि, ईश्वर और प्रकृति के नियमों के विरुद्ध बातें अन्धविश्वास करके मानना आदि हैं, को नहीं मानते। किन्तु एक ही ईश्वर की पूजा करना अपना परम धर्म समझते हैं। इसी कारण पौराणिक ब्राह्मणों ने इनको नास्तिक, राक्षस और शूद्र तक का दर्जा दे दिया2। आज भारत में हिन्दू जाट ऋषि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्यसमाज के अनुयायी हैं और ऋषि दयानन्द जी को अपना गुरु मानने का गौरव रखते हैं।

स्वतन्त्रता तथा समानता की जाटभावना ने ब्राह्मणप्रधान हिन्दू धर्म के सम्मुख झुकने से इन्कार कर दिया और इसके बदले उन्हें गंगा के मैदानों के विशेषाधिकार-सम्पन्न ब्राह्मणों की भर्त्सना का शिकार होना पड़ा। ऊंची जातियों के हिन्दुओं द्वारा की गई जाट की अवमानना जाट को उसकी अपनी दृष्टि में जरा भी नहीं गिरा पायी। इसके विपरीत, उसने ब्राह्मण के प्रति, जिसे वह ज्योतिषी या भिक्षुक से अधिक कुछ नहीं मानता था, एक कृपालु संरक्षक का-सा रुख अपना लिया।

शारिरिक लक्षणों, भाषा, चरित्र, भावनाओं, शासन तथा सामाजिक संस्थाविषयक विचारों की दृष्टि से आज का जाट निर्विवाद रूप से हिन्दुओं के अन्य वर्णों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वैदिक आर्यों का अधिक अच्छा प्रतिनिधि है4

दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले मुस्लिम शासकों की निद्रा जाटों के कारण ही लुप्त होती थी। इन पवित्र वीर जाट क्षत्रियों की एक विशेषता और थी कि कुछ क्षत्रियों ने तो विधर्मी


1. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 228.
2. जाट इतिहास पृ० 74-76 लेखक ठा० देशराज
3. महाराजा सूरजमल जीवन और इतिहास, पृ० 18, लेखक कुं० नटवरसिंह।
4. महाराजा सूरजमल जीवन और इतिहास, पृ 18-20 लेखक कुंवर नटवरसिंह और हिस्ट्री आफ दी जाट्स पृ० 3, लेखक के० आर० कानूनगो।


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शासकों को अपनी कन्यायें दे दीं थीं, किन्तु जाटों ने यह पाप नहीं किया1

इन उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जाटों ने अपने प्राचीन वैदिक आर्य धर्म को किसी प्रकार की कठिन स्थिति में भी नहीं छोड़ा और आज भी उसी धर्म के अनुयायी हैं। यह जाटों की श्रेष्ठ विशेषता (गुण) है।

जाट अन्याय व अत्याचार करनेवालों के विरुद्ध अपनी तलवार उठाते हैं और दूसरों पर अत्याचार व अन्याय नहीं करते हैं। अपने साथ रहनेवाली अन्य जातियों के पुरुषों तथा स्त्रियों के साथ अपने भाई-बहिन के समान व्यवहार करते हैं। ये जाटों के पैतृक स्वाभाविक गुण हैं।

समाज

जाटसमाज में स्त्रियों को पूरा सम्मान दिया जाता है। वे घर की बानी या लक्ष्मी समझी जाती हैं। खेती-बाड़ी तथा हर घरेलू कार्य में स्त्री की सलाह ली जाती है। जाट स्त्री अपने समाज में स्वतन्त्र रूप से रहकर अपने कर्त्तव्य का पालन करती है। जाट पुरुष अपनी धर्मपत्नी को अर्धांगिनी समझता है। आर्यों के परम्परागत रीति-रिवाज के अनुसार प्रत्येक कार्य आरम्भ करने के लिए पुरुष के साथ उसकी स्त्री की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती है। जाट स्त्रियां भी अपने पतियों का प्रत्येक काम में हाथ बंटाती हैं। वे खेती तथा घरेलू कामों में पूरी सहायता देती हैं। यहां तक कि किसी के साथ लड़ाई झगड़ा होने पर अपने पति को पूरा सहयोग देती है। वे पति की सेवा करना अपना परम धर्म समझती हैं और अपने पतिव्रता धर्म का पालन करने का गौरव रखती हैं। माता पिता तथा सास ससुर की सेवा करना अपना सौभाग्य समझती हैं जिसका गौरव जाट स्त्रियों को प्राप्त है। जाट समाज में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार है। दोनों का पालन पोषण, पढ़ाई-लिखाई तथा खानपान आदि में समान व्यवहार किया जाता है। जाटों का भोजन शाकाहारी है। घी, दूध, दही और अपने खेत का अन्न, सब्जी इनका रोचक भोजन है। आदि काल से ये लोग मांस और शराब, सुल्फा, गांझा आदि नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करते हैं। कुछ समय से हुक्के में तम्बाकू पीना जाट-समाज में प्रचलित है। सेना में भर्ती कुछ जाट जवान मांस और शराब का भी सेवन कर लेते हैं। बड़े खेद के साथ लिखना पड़ता है कि आजकल जाट लोग बहुसंख्या में शराब का सेवन करने लगे हैं, जो कि पापों की जड़ है और विनाश करने वाली है। हमारे वेद शास्त्रों में मांस, मद्य, अफीम, भांग, गांझा आदि सेवन करने का निषेध है। आशा है जाट जगत् इस ओर ध्यान देकर इनका सेवन करना छोड़ देगा।

विवाह

विवाह आठ प्रकार के होते हैं। 1. ब्राह्म 2 दैव 3 आर्ष 4 प्राजापत्य 5 आसुर 6 गान्धर्व 7 राक्षस 8 पैशाच। वर कन्या यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान्, धार्मिक और सुशील हों। उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ब्राह्म कहाता है। विस्तृत यज्ञ करने में ऋत्विक् कर्म करते हुए जामाता को अलंकारयुक्त कन्या का देना दैव

वर से कुछ लेके विवाह होना आर्ष। दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना प्राजापत्य। वर और कन्या को कुछ देके विवाह होना आसुर। अनियम, असमय किसी


1. जाट इतिहास पृ० 26, लेखक श्रीनिवासाचार्य महाराज।


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कारण से इच्छापूर्वक वर कन्या का परस्पर संयोग होना गान्धर्व। लड़ाई करके, बलात्कार अर्थात् छीन झपट व कपट से कन्या का ग्रहण करना राक्षस। शयन व मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार संयोग करना पैशाच1

इन सब विवाहों में ब्राह्म विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष, असुर और गन्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है2। जाटजनता व जाट राजा महाराजाओं में पहले छः प्रकार के विवाह करने की प्रथा आदिकाल से अब तक है। ये लोग वर से कुछ न लेकर उसको धन-सम्पत्ति देकर विवाह करने में अपनी शान समझते हैं। सातवें और आठवें प्रकार के विवाह के उदाहरण जाटों में नहीं सुने गये हैं। हां! ऐसे उदाहरण तो मिलते हैं जैसे महाराजा जवाहरसिंह ने सन्धि की शर्त के अनुसार दिल्ली के मुगलसम्राट् की लड़की का डौला लिया था। जाट जाति में विधवा-विवाह प्राचीनकाल से अब तक चालू है। एक स्त्री का पति मरने पर उसका विवाह उसके पति के छोटे या बड़े भाई के साथ हो जाता है। यह प्रथा किसी दूसरी जाति में नहीं थी। अब यह अन्य जातियों में भी चालू हुई है। विधवा-विवाह तथा पुनर्विवाह और नियोग मनु० 9/176; ऋ० मं० 10 सू० 40 मं० 2; ऋ० मं० 10, सू० 18 मं० 8 में लिखे हैं। आदि सृष्टि से अब तक जिन जिन राजाओं महाराजाओं ने ये विवाह किये उनका वर्णन इसी अध्याय के अन्तिम पृष्ठों में किया गया है।

पंचायत

यह पहले लिखा गया है कि आदि सृष्टि में गणराज्य या पंचायतराज्य के प्रथम निर्माता या संस्थापक शिवजी महाराज थे। आर्य लोगों का पंचायतराज्य आदि सृष्टि से रहता आया है। जाट लोगों में भी यह प्रथा शुरु से ही प्रचलित है। इनके गणराज्य देश-विदेशों में रहे हैं। आज भी जाटों में पंचायतों का संगठन है जो संसार की दूसरी किसी जाति में नहीं है। पश्चिम सीमा (पाकिस्तान) के पठानों के जत्थे भी पंचायत के तौर पर एकत्र हो जाया करते हैं। जाट लोग आज भी अपने बहुत से आपसी झगड़े पंचफैसले से निपटा लेते हैं। जाटसमाज में ग्राम पंचायत, गोहांड पंचायत, गोत्र खाप पंचायत, बड़ी खाप पंचायत और सर्वखाप पंचायतें स्थापित हैं।

चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत ग्राम डा० शोरम, जिला मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) के पूर्वज सर्वखाप पंचायत के नेता रहते आये हैं। आज भी आप के घर में जाट्सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल से यानि लगभग 1350 वर्ष पुराना इतिहास सुरक्षित है। आपके पास पर्याप्त तांबे की प्लेटें और लेख प्रमाण मौजूद हैं जो बादशाहों से अहदनामे (Agreements) जाट खापों के साथ होते रहे थे। आपत्तिकाल में देश के राजाओं ने भी सर्वखाप पंचायत से सहायता ली थी। इनका विवरण आगे किया जायेगा। 12 जून सन् 1983 ई० को यह सर्व जाति सर्वखाप पंचायत गोहाना (जि० सोनीपत) में हुई थी। इसका उद्देश्य समाज में कुरीतियों जैसे विवाह-शादियों में फिजूल खर्च, दहेज प्रथा, शराब पीना आदि को रोकना था। मूले जाटों के साथ रिश्ते नाते जारी करने का भी प्रस्ताव रखा गया। इस अवसर पर लगभग 300 खापों ने भाग लिया। गंगा से लेकर सतलुज तक और हिमालय की तराई से चम्बल की घाटी तक की लगभग सभी खापों के प्रतिनिधि उपस्थित हुए। ऊपरलिखित सब प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किए गए। कहीं कम


1-2. मनु० 3/21 और सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृ० 65।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-79



कहीं ज्यादा इन सभी नियमों का पालन हो रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि आर्यों की भांति बड़ी बड़ी पंचायत करने की प्रथा आज भी केवल जाटों में ही विद्यमान है, किसी अन्य जाति में नहीं है। यह ग्राम व खाप पंचायतें सामाजिक या धार्मिक नियमों के उल्लंघन करने वाले मनुष्य के विरुद्ध निष्पक्ष होकर निर्णय देती हैं। दोषी पाने पर उनको दोष के अनुसार दण्ड दिया जाता है, जो कि क्षमा मांगना, जुर्माना, पंचायत में न बोलने, जात बाहर हुक्का पानी बन्द (समाज-दोषी से सब प्रकार के सम्बन्ध तोड़ लेती है) और ग्राम छोड़ने (गांव से कढ़िया देना) तक का दण्ड दिया जाता है। इस सामाजिक पंचायत का निर्णय पूरे समाज और दोषी को मानना पड़ता है। जाट समाज में इस प्रकार के उदाहरण प्रत्येक गांव या खाप में मिलते हैं। ऊपरलिखित के अतिरिक्त जब दो पक्षों में लड़ाई झगड़ा होने से मनुष्य घायल या कोई मर भी जाता है तो बहुत मौकों पर उनको सरकारी न्यायालय तक पहुंचने से रोककर, यह पंचायत उन पक्षों का राजीनामा करवा देती है। ऐसे पंचायती फैसले जाटों के अतिरिक्त किसी दूसरी जाति में नहीं हैं। अपने देश भारत को स्वतन्त्रता मिलने के बाद सरकार ने चुनाव के आधार पर ग्राम पंचायतें स्थापित कीं। यह ग्राम पंचायत दोषी को ऊपरलिखित प्रकार के दण्ड नहीं दे सकतीं। जब इस पंचायत के सामने कोई ऐसा गम्भीर मुकद्दमा आ जाता है जिसका यह निर्णय करने में असफल रहती है तो इसे भी ग्राम या खाप की लोकल पंचायत का ही सहारा लेना पड़ता है।

भाषा

इस समय सारे भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा हिन्दी और अंग्रेजी है। किन्तु जाट या तो ब्रजभाषा (शूरसेनी) बोलते हैं या खड़ी बोली।

भरतपुर पर सिनसिनवार गोत्र के जाट राजाओं का राज रहा था। डीग के पास सिनसिनी एक गांव है जो पहले यही इसकी राजधानी थी। सिनसिनी का पहला नाम शूरसेनी था और शौरसेन जाट लोगों की यह राजधानी थी। फिर शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा रही1। यह नगर रामायण काल में आबाद हुआ था। शौरसेन लोगों का प्रभाव व सभ्यता यहां तक बढ़ी चढ़ी थी कि उत्तरी भारत में बोली जाने वाली भाषा ही उनके नाम से शौरसेनी कहलाती है। शौरसेन लोग चन्द्रवंशी क्षत्रिय हैं। शौरसेन (शूरसेनी) भाषा इटावा से लेकर मन्दसौर तक और पलवल से लेकर रतलाम तक बोली जाने वाली भाषा है।

जाटों की भाषा में अधिकांश शब्द ठेठ हिन्दी अथवा संस्कृत के अपभ्रंश होते हैं। इनमें हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी (गुरमुखी), उर्दू और अंग्रेजी आदि भाषाओं को जानने वाले बड़े-बड़े अनेक विद्वान् हैं। परन्तु इनमें से बहुत कम यह जानते होंगे कि किसी समय जाटों ने, जबकि वे सभ्यता के शिखर पर थे, अनेक ग्रन्थ लिखे थे। यही नहीं, बल्कि एक लिपि का भी निर्माण किया था। इस समय वह लिपि कहीं सिन्धी, कहीं जाटवी, कहीं खुदावादी, कहीं शहाबादी और कहीं महाजनी कही जाती है। प्रायः उत्तरी भारत में सभी महाजन इसी लिपि का प्रयोग अपने कागजात व बहियों में करते हैं और इसे शराफी बोलते हैं। इसका असली नाम लुण्डा है। इस भाषा के अक्षर गुरुमुखी से मिलते-


1. बौद्ध काल में।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-80



जुलते हैं। हिन्दी (नागरी) अक्षरों से भी इसकी पूर्णतः समानता है। इस लिपि के चित्र इसी पृष्ठ पर नीचे दिए हुए हैं। इस पर जाट की लिपि लिखा है1

पेशावर से डेराजाट और सुलेमान पर्वतमाला के पार कच्छ गोंडवा में बोली जाने वाली भाषा हिन्दकी या जाटकी भाषा के नाम से प्रसिद्ध है2। पश्चिमी प्रान्त के जाटों की प्राकृत (प्रान्तीय) भाषा जो वे प्रयोग में लाते हैं, लुण्डा कहलाती है।


Jatki Script.jpg


यद्यपि एक बार भारत में उर्दू भाषा का साम्राज्य रह चुका है फिर भी शौरसेनी भाषा या जाटों की प्राकृत भाषा पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। उर्दू भाषा और अंग्रेजी भाषा का भी जाटों पर कोई असर नहीं पड़ा। वे चाहे पढ़े हों या अनपढ़, अपने घर में तथा अपने समाज में इसी शौरसेनी (अपनी मातृभाषा) का प्रयोग करते हैं। स्त्री-पुरुष अपनी ही भाषा में अपने बच्चों को कहानियां सुनाते हैं। उर्दू भाषा के शब्द : जरा, मगर, लेकिन, अलबत्ता - अब तक उनसे तनिक, पर, किन्तु, यदि - शब्दों को नहीं छुडा पाये हैं।

जाटों में कहीं-कहीं शब्दों का भेद अवश्य है जैसे - हिन्दी में यहां, वहां, कहां के स्थान पर


1. जाट इतिहास पृ० 134 लेखक ठाकुर देशराज।
2. डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थ-वेस्टर्न प्राविंशेज ऑफ इंडिया, लेखक मिस्टर सर हेनरी एम. इलियट के. ई. बी.।
3. Journal of Social Research 1964 : By M.K. Kurdryavtsev (Russian) - On the role of the Jats in Northern India's Ethnic History.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-81



हरयाणा में आड़ै, उड़ै, कड़ै; राजस्थान में अठै, उठै, कठे और मथुरा क्षेत्र में इंग्घे, उंग्घे, किंग्घे तथा पंजाबी में इत्थे, उत्थे, कित्थे।

मन्दसौर और अजमेर के निकट के जाट से स्थान पर का प्रयोग करते हैं। वे साथ को हाथ और सासु को हाहु कहते हैं। माधुरी वर्ष 4 खण्ड 2 संख्या 3 पृ० 366 पर आनन्द बन्धु लिखते हैं -

“हमें इस बात का पूर्ण ज्ञान है कि पंजाबी हिन्दू-आर्य भाषाओं के मध्यप्रान्त की भाषा है और यह निरी मिश्रित भाषा है। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि लुण्डा, पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी और सिन्धी - ये सारी भाषायें प्राकृत से निकली हैं। उदाहरण के तौर पर भक्त संस्कृत शब्द का अपभ्रंश प्राकृत में भट्ट है जो पश्चिमी हिन्दी में ज्ञात, सिन्धी में भट्ट कहलाता है। इस प्रकार ये सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं। प्राकृत भाषा जब प्रचलित हुई इस बात का पूरा पता नहीं। परन्तु यह तय हो चुका है कि संस्कृत भाषा पूर्व काल में समस्त भारत में कहीं नहीं बोली जाती थी। जिस प्रकार अंग्रेजी में बोलचाल की भाषा और लिपिबद्ध अंग्रेजी में बहुत भेद है अर्थात् कई शब्द ऐसे हैं जो केवल बोल-चाल में ही व्यवहृत होते हैं परन्तु लिखने पढने में प्रयुक्त नहीं होते हैं। इसी प्रकार जब संस्कृत भाषा का प्रचार था तो प्राकृत बोलचाल की भाषा थी। प्राकृत भाषा संस्कृत का रूपान्तर है और शेष सारी भाषाएं1 प्राकृत से निकली हैं।”

संक्षेप में जाट - धर्म, भाषा, संस्कृति, सभ्यता, शासनपद्धति के आधार पर पूर्णरूप से वैदिकधर्मी आर्य हैं। एक ईश्वर में विश्वास, गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर छोटा-बड़ा समझना, स्त्री जाति का पूर्ण सम्मान करना, प्रान्तीय भेदभाव से दूर रहना, विद्वानों का सम्मान, युद्ध और कृषि के लिए अपना सर्वस्व नयौछावर करना, सम्मान के साथ जीना और सम्मान के साथ मरना जाटों की विशेषतायें हैं, ये सब विशेषतायें आर्यों की हैं। मि० क्रूक साहब ने जाटों को शुद्ध भारतीय आर्य सिद्ध करते हुए लिखा है - "The argument derived from language is large in favour of the pure Aryan origin of the Jats". जाटों की भाषा के प्रत्येक शब्द का मूल संस्कृत भाषा में मिलता है। जैसे - सै (अस्ति), कड़ै (कुत्र), आड़ै (अत्र), खेत (क्षेत्र), बुल्हद (वृषभ) आदि आदि।

मनु महाराज से लेकर आज पर्यन्त जितने भी महापुरुष हुए हैं, समय-समय पर जो भी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आन्दोलन हुए हैं, उनमें जाटों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है। महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, हजरत मुहम्मद, गुरु नानकदेव, महर्षि दयानन्द को बड़ी संख्या में जाट शिष्य मिले। आर्यसमाज में तो प्रायः सभी हिन्दू जाट सम्मिलित हैं। ये ही गुरुकुल शिक्षाप्रणाली को सफल कराने में सबसे आगे हैं। जाट लोग समाज-धर्मसुधार में सबसे आगे रहते हैं। मानवसमाज सेवा के गुण और वीरता के कारण ही इन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रधान, चौधरी, ठाकुर, पटेल, सरदार, मिर्धा, मलिक, फौजदार, राणा आदि नाम से सम्मान के साथ सम्बोधित किया जाता है। इन उपाधियों से भी जाटों की पहचान होती है। इसका संक्षेप में वर्णन निम्न प्रकार है -


नोट - जैसे संस्कृत भक्त का प्राकृत भट्ट है, उसी भांति संस्कृत ज्ञात का प्राकृत जाट अथवा जट्ट है। (लेखक)
1. संसार की सब भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा है। (ऋषि दयानन्द सरस्वती के पूना प्रवचन उपदेशमंजरी, पांचवां प्रवचन, पृ० 28-29)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-82



1. प्रधान

प्रधान शब्द वेदों में ईश्वर के लिए आया है। शिवजी महाराज ने गणराज्यों की स्थापना की। उन गणों के नेता को गणपति या प्रधान कहते थे। जाटों के बड़े-बड़े गणराज्य रहे हैं जिनका संचालक प्रधान कहलाता था। आजकल खापों की पंचायत के मुखिया को या किसी समूह-समारोह के प्रमुख व्यक्ति को प्रधान नाम से पुकारा जाता है । चुनी हुई ग्राम पंचायत के मुखिया को 'सरपंच' और कई जगह 'प्रधान' भी कहते हैं। प्रधान शब्द का प्रयोग प्रमुख वंशों के लिए भी होता आया है। मुरादाबाद, बिजनौर में (12 गांवों के चौधरियों को छोड़कर), सभी जाटों को 'प्रधान' के नाम से पुकारा जाता है।

मुजफ्फरनगर का पूर्वी भाग (भोकरहेड़ी को छोड़कर), मेरठ में मवाना की सारी तहसील, दौराला के अहलावत, ढकौली के ढाका, छपरौली के खोखर, बृज के डागुर, टीकरी (मेरठ) के राठियों का चौगांवा, गांवों के जाट 'प्रधान' की उपाधि से सम्बोधित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त जाटों में प्रधान उपाधि का कहीं प्रचलन नहीं।

2. ठाकुर

ठाकुर शब्द का प्रयोग मध्यकाल में ईश्वर, स्वामी या मन्दिर की प्रतिमा (मूर्ति) के लिए किया जाता था। मुगलकाल में शासकवर्ग ने इसका व्यवहार अपने नाम के साथ करना प्रारम्भ कर दिया। अक्तूबर 1720 ई० में देहली के सम्राट् मुहम्मदशाह ने चूड़ामन जाट को ठाकुर की पदवी तथा अधिकार देकर सम्मानित किया था। ठाकुर, परगने का शासक प्रबन्ध और शान्ति सुरक्षा के लिये जिम्मेदार होता था। इसी तरह राजा बदनसिंह को 18 मार्च 1723 ई० के दिन जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने अपने आमेर दरबार में ठाकुर की उपाधि से सम्मानित किया था।

राजपूतों में इस समय इसका प्रयोग अधिक है। राजस्थान, इलाहाबाद, आगरा, बरेली कमिश्नरी के राजपूत ठाकुर कहलाते है। राजस्थान और अवध में तो तमाम राजपूतों की उपाधि ठाकुर है और ठाकुर कह देने से ही राजपूत का पता लग जाता है। जाट लोग मथुरा, आगरा, अलीगढ़, बुलन्दशहर, भरतपुर, धौलपुर के सिनसिनवार, राणा, सिकरवार, भृंगुर, गोधे, चापोत्कट, ठकुरेले, ठेनवा, रावत - इन गोत्रों के जाट ही ठाकुर कहलाते हैं। यू० पी०, बिहार के पूर्वी भागों के राजपूत, ठाकुर के स्थान पर बाबू लिखते हैं। बंगाल के कुछ ब्राह्मण वंशों को भी ठाकुर कहा जाता है। राजपूताना, हरयाणा, मालवा, मध्यप्रदेश, पंजाब में कोई भी जाट अपने को ठाकुर नहीं लिखता है। जाट अपने ग्राम में जैसे कुम्हार को प्रजापति कहते हैं, वैसे ही अपने नाइयों को ठाकुर कहते हैं।


3. चौधरी

यह उपाधि केवल मुगलकाल से ही प्रचलित है। इसका अर्थ भी 'प्रमुख' है। बादशाहों ने प्रमुख वंशों व व्यक्तियों को यह उपाधि दी थी।

भरतपुर राजपरिवार के रिश्तेदारों, मथुरा के नौवार, हंगा, खड़ई गोत्र, मेरठ एवं अम्बाला कमिश्नरी के सभी जाटों को चौधरी कहलाने का गौरव प्राप्त है। बिजनौर में बारह गांव - बिजनौर, झालो, कुम्हेड़ा, आलमसराय, वलदिया, इस्मायलपुर, नांगल, सुवाहेड़ी, कीरतपुर, आदमपुर आदि


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के जाट चौधरी कहलाते आये हैं। हरयाणा के सब हिन्दू जाट और पंजाब में हिन्दू व मुसलमान जाट भी चौधरी कहे जाते हैं। चौधरी के साथ साहब भी कहलाने का गौरव जाटों को प्राप्त है। आम बातचीत करते समय जाट को चौधरी साहब कहकर पुकारा जाता है। चौधरी शब्द सुनते ही 'जाट' का बोध हो जाता है। चौधरी शब्द की बड़ी प्रतिष्ठा है। यहां तक कि 'सर' की ऊंची उपाधि मिलने पर भी सर छोटूराम को सर चौधरी छोटूराम कहा जाता है। इसी प्रकार चौधरी कहलाने वाले और भी हैं जैसे - सर सेठ छाजूराम जी चौधरी, सर चौधरी शहाबुद्दीन साहब विधानसभा अध्यक्ष, सर चौधरी जफरुल्ला खां (जाट गोत्र शाही), चीफ जज फेडरेल कोर्ट, राव बहादुर कैप्टन चौधरी लालचन्द जी आदि। फतेहपुर के दीक्षित, सहारनपुर-मेरठ के सभी राजपूत, कानपुर की घाटमपुर तहसील के ब्राह्मण तिवारी, शिकारपुर-बुलन्दशहर के रईस ब्राह्मण, बंगाल के कायस्थों का एक दल, यू० पी० के तगा, गूजर, अहीर मण्डियों के प्रमुख वैश्य भी चौधरी कहलाते हैं। इसी तरह हिन्दुओं की बहुत-सी अन्य जातियां भी अपने पुत्र व पुत्री के ससुर को या अपने सम्बन्धी को सम्मान के तौर पर चौधरी कह दिया करते हैं जो कि उनकी यह स्थायी उपाधि नहीं है।

4. सरदार

दसवें गुरु गोविन्दसिंह जी ने जब नानक-पंथ को वीर खालसा का रूप दिया तब सभी सिक्ख शिष्यों को उन्होंने सरदार की उपाधि से सम्मानित किया। यानि जो वीर अपना सिर (सर) बलिदान करने के लिए सदा तैयार रहे, उसको सरदार कहा गया। यद्यपि पंजाब में रामदासिये, कलाल, भंगी, तरखान, रामगढिये आदि सभी को सिक्ख होने पर सरदार की उपाधि मिल जाती है। परन्तु जाटों के राज्य थे व इनकी बड़ी-बड़ी जमीदारियां अधिक होने और इनका खास प्रभाव होने के कारण ही गांवों में जाटों को ही सरदार कहा जाता है, छोटी जातियों को नहीं। सेना में जूनियर आफिसरों (JCOs) को भी सरदार कहा जाता है, विशेषकर हिन्दू जाट जे० सी० ओ० को। इन सैनिक जाट जे० सी० ओ० को सरदार बहादुर की उपाधि दी गई, जैसे - सरदार बहादुर मलिक भोरनसिंह, सूबेदार मेजर कुरमाली, सरदार बहादुर कैप्टन रघबीरसिंह ए० डी० सी० वायसराय आदि आदि।

5. मिर्धा

नागौर, जो जोधपुर राज्य में है, के राजवंशी जाटों को मिर्धा कहा जाता है। इस राज्य का डाक विभाग इनके हाथ में था। इस वंश को यह उपाधि राव जोधा जी ने दी थी। इस राज्य के जाटों में मिर्धा ही सर्वाधिक शिक्षित हैं।

6. मलिक

मलिक का अर्थ मालिक है। मालिक की उपाधि मुस्लिम शाही काल में तुषारवंशी, लल्ल गोत्री तिवाना, गठवाला गोत्री जाटों को दी गई थी जो आज तक इस वंश में चली आती है। एक समय गठवारे (गठवाले) जाटों का राज्यशासन अफगानिस्तान में गजनी के चारों ओर था। सबसे पहले वहां पर इनकी प्रचण्ड वीरता के कारण इनको मालिक कहने लग गए यानि मलिक की उपाधि से सम्मानित किये गए। डबल्यू क्रूक साहब इस भांति लिखते हैं - “रोहतक जिले में गोहाना के पास


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इनका मुख्य स्थान आहुलाना है। पड़ौसी राजपूतों के साथ युद्ध में यह पूर्ण सफल रहे। इसलिए चारों ओर के अन्य जाटों ने इनको प्रधान मान लिया। दिल्ली के बादशाह ने मंदहार राजपूतों को दबाने के लिए इनको सहायतार्थ बुलाया था। विजयी होने पर बादशाह ने इनको मालिक (मलिक) की उपाधि दी।”

सरगोधा, झंग, मधियाने के तिवाना गोत्री मुसलमान जाट, हरयाणा और मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद के गठवाला लल्ल गोत्र के जाट मलिक कहलाते हैं। इस गोत्र के जाट अपने गोत्र गठवाला के स्थान पर मलिक लिखने और कहने का अधिक गौरव रखते हैं। लल्ल गठवाला मलिकों का विस्तार से वर्णन तृतीय अध्याय में लिखा जायेगा।

7. पटेल

यह उपाधि दक्षिण में मरहठों की ओर से पट्टीदार जमींदारों को दी गई थी। गुजरात में गूजर, कोली, कुनवी आदि कृषक जातियों में पटेल उपाधि का अत्यधिक प्रचलन है। उदयपुर, मेरवाड़ा, खान्देश, बरार, इन्दौर, भोपाल, मध्यप्रदेश, मन्दसौर, ग्वालियर के जाटों को पटेल उपाधि से सम्बोधित किया जाता है।

भारत के भूतपूर्व गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल जी सरदार और पटेल दोनों उपाधियों से सम्मानित थे।

8. फौजदार

यह उपाधि मुगल शासनकाल में उन शाही उच्च अधिकारियों को दी जाती थी जो कई परगनों या प्रान्त की शासन व्यवस्था करते थे। जाटों को यह उपाधि भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल ने देनी आरम्भ की थी। प्राचीन राजवंशज जाट जो महाराजा की सेना में बड़ी संख्या में भरती थे, उनको महाराजा सूरजमल ने यह फौजदार की उपाधि प्रदान की थी। भरतपुर के सभी सिनसिनवार गोत्र के जाट, अलीगढ, मथुरा के खूंटेल (कुन्तल), डागुर, चाहर, गंड और भगौर गोत्रों के जाट फौजदार कहलाते हैं।

9. राणा

यह एक खिताब या उपाधि है जो जाटों, राजपूतों तथा गोरखों में है। उदाहरणार्थ जाट क्षत्रियों में काकराणा, आदराणा, तातराणा, शिवराणा, चौदहराणा आदि वंश अपनी राणा उपाधि पर गर्व करते हैं। गोहद और धोलपुर राज्य नरेशों की उपाधि राणा की थी। जाटों में इस राणा उपाधि वाले गोत्रों तथा उनकी जनसंख्या बहुत है। मेवाड़, उदयपुर के राजपूत नरेशों की उपाधि राणा की थी जैसे महाराणा प्रतापसिंह आदि।

जाटों के भिन्न-भिन्न देशों में पुकारे जाने वाले नाम

जाटों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई इसका वर्णन करने से पहले यह बताने की आवश्यकता है कि जाट को भिन्न भिन्न देशों में किस किस नाम से पुकारा जाता है। यूरोप, एशिया, चीन आदि देशों में जाट लोग भारत से गये थे और वहां पर भाषाभेद के कारण उनको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा गया। वे सब जाटवंशज हैं। अलग अलग देशों में जाटों को जिन जिन नामों से पुकारा जाता है, उसका ब्यौरा इस प्रकार से है -


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रिसाला जिहाद के लेखक और आर्यसमाज के प्रकांड विद्वान् पं० लेखराम जी ने यदु से यादव, यादव से जादव (जादू) फिर जात और फिर जाट होना सिद्ध किया है और ज्ञात से हिन्दी जात होने के नियम से साधारण लोग भी जानकार हैं। वैसे भी ज्ञ अक्षर ज् + ञ् का संयोजन ही तो है। जाट के भिन्न-भिन्न नाम ज्ञात और जात से ही बने हैं। रोमन लिपि में ज्ञात शब्द को Giota अथवा Giate अक्षरों से लिखा जाता है जो पढ़ने में गेटा, जेटा, गियाट (गात), जिओटी और जिआती सहज ही हो सकता है। उच्चारणभेद से वे सब शब्द इसी Giote के पढे जा सकते हैं जो कि देसी विदेशी इतिहासों में पाये जाते हैं। जैसे भारत में जाट शब्द को लोग जट, जट्ट और जाट नाम से बोलते हैं। वैसे ही इस शब्द को अरबी लोगों ने जत, चीनी लोगों ने यूती-यूची, यूरोपियन लोगों ने जेटी, जेटा और रोमन लोगों ने गात, गाथ नामों से पुकारा है। ईरानी और अरबी लोग जिनका पड़ौसी होने के कारण गांधारी और सिंधी जाटों से काफी सम्बन्ध था, जात शब्द की जगह जत शब्द का प्रयोग करते थे और यूरोपियन लोग जिनका कैस्पियन और जगजर्टिस नदियों के किनारों से जाने वाले जाटों से पाला पड़ा था उन्हें ज्ञात, जात अथवा जाट की अपेक्षा उच्चारण भेद से जेटा, गेटा और गाथ आदि नामों से पुकारा1

चीनियों ने श्यूची, यूहची, अथवा यूती नाम से पुकारा है। श्यूची शब्द भारतीय जाटों की शिवि शाखा के कारण प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इनका गिरोह मानसरोवर और कश्मीर के पार काफी दूर तक पहुंच गया था। प्राप्त ब्यौरा इस प्रकार है2 -

नं० उच्चारण हिन्दी अंग्रेजी देश
1 जाट, जट जट्ट Jat, Jat Jatt भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान
2 जाट, जिट, जुट, जट, जट्ट Jàts, Jits, Juts, Jàt, ईरान और रूस
3 जट्ट Jàtts मिश्र और तुर्की
4 जोत, जोद, जत Jotts, Zotts अरब देश
5 जट्टे, जट्टेह Jattehs, Jetteh मंगोलों में (मंगोलिया देश) मध्य देश
6 गोट, गोथ Got, Goths स्वीडन गाटलैंड (बाल्टिक सागर)
7 गाथ, गेटे, गेटी, जेटी, जेटा Got, Goths, Gotas जर्मनी और यूरोप
8 जूटी Guti सुमेरयंज (Sumerians)
9 गेटा, जेटा, गिट, गाथ Getai, Gatae यूनान, लेटिन (Latin), थ्रेश मध्य एशिया
10 गाथ, गात, गोथ Gooths, Goth रोम, इटली, गाटलैण्ड (स्वीडन)
11 जट्टी Jatti (Pliny and Ptolemy) पलिनी और पटोलेमी (इतिहासकार)
12 ज्याती Djati Pharaohs of Egypt
13 यूची, यूति, जुट्टी Yueche (Gut-ti) Yetha, Yeta..... चीन
14 जुट, जूट Jutes Jutland (Denmark) जुटलैंड (डेनमार्क)
15 गुट, गेट, जिट Gut, Get, Jit कई अन्य देशों में

1. जाट इतिहास : लेखक ठाकुर देशराज। पृ० 71-72।
2. जाट्स द एन्शेन्ट रूलर्स लेखक बी० एस० दहिया आई० आर० एस० पृ० 1, 4, 5, 6, 25, 55 और जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज पृ० 65।


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जाट शब्द को चीनी लोग यूची (Yue che) बोलते हैं। कर्ल-ग्रीन (Karl Gren) के अनुसार यूची (Yue che) शब्द का उच्चारण गुट-टी (Gut-tia) होता है। इनकी एक शाखा (भाग) का नाम "ता-यूची" (Ta Yue-che) पड़ गया जिसका अर्थ है "महान् जूट-टी" (Great Guttia) या महान् जाट (Great Jats)। "ता-यूची" शब्द ठीक वही है जो कि यूनान और फारस (Persians) में बोले जाने वाला शब्द "महान् जेटा" (Massa Getae) है। उसका अर्थ भी महान् जाट है। यूची (Yue-che) की यह बड़ी शाखा पश्चिम की ओर बढ गई और Dahia (दहिया) (या Tahia - तहिआ, बल्ख, बैक्ट्रिया) पर अधिकार कर लिया। यूची की दूसरी शाखा दक्षिण की ओर तिब्बत तक बढी जो कि "Siao Yue-che" (सियो सूची) कहलाई जिसका अर्थ "Little Yue-che" (या घटिया यूची) या घटिया जाट है। जाटों की इन शाखाओं को ऊपर बताये हुए ये नाम बेशक दिये गये, इसकी कोई बात नहीं। उनकी केवल एक ही नाम संसार में है और वह है जट या जाट1

कुछ लोगों को भ्रम है कि शब्द Jats/ Gaetae/ Goths एक दूसरे से भिन्न हैं और एक नहीं हो सकते। उनके एक होने का उदाहरण इस प्रकार से है। चीनी और कुछ यूरोपियों की भाषा में पहले अक्षर जे (J) के स्थान पर अक्षर जी (G) का प्रयोग होता है। यह "Grimm's Law of Variation" (गरिम्ज के परिवर्तन के सिद्धान्त) के अनुसार है। इसी सिद्धान्त के अनुसार संस्कृत का अक्षर (S), फारसी में (H) और जर्मनी का अक्षर एफ (F) लैटिन में पी (P) बन जाते हैं। इसी तरह से संस्कृत भाषा का शब्द हंस (Hans) का अक्षर 'H' (ह) जर्मनी भाषा 'G' बन जाता है जैसे (Gans या Goose) गूज। दोनों का अर्थ हंस ही है। बिल्कुल साफ है कि इसी सिद्धान्त के अनुसार जाटों को चीनियों ने Yue-che, Gut-ti (जुट-टी) यूनानियों ने Getae (जेटा) और जर्मनी ने Got/Goth (जेटा-जेटी) कहा है। किन्तु डेनमार्क के डेन लोगों ने जाटों को जुट (Jute) ही कहा और अपने देश को जट्लैंड (Jutland) कहते हैं, क्योंकि यह देश जाटों ने ही आबाद किया था। इसी तरह से यूरोप के शब्द George और Georgia का उच्चारण, अक्षर G (जी) से नहीं परन्तु J (जे) से किया जाता है2

इसी तरह सम्राट् उशनायाट से जाट नाम प्रचलन का सिद्धान्त लिखा है3

जट से जाट शब्द

जिस समय भाषा-क्षेत्र में अन्धकार छा गया था, उस समय युधिष्ठिर से लगभग 800 वर्ष पश्चात् आज से लगभग साढे चार हजार वर्ष पूर्व सिन्ध के अधीन प्रान्त गांधार में व्याकरण-सूर्य महर्षि पाणिनि का जन्म हुआ। उन्होंने अपने समय तक की संस्कृत-भाषा के सम्पूर्ण शब्दों की व्युत्पत्ति एवं अर्थबोधक एक व्याकरण की रचना की जिसका नाम अष्टाध्यायी है। यह देखने में एक छोटी सी पुस्तक है, परन्तु आपकी रचना-शैली इतनी विचित्र है कि इसका श्री महर्षि पतञ्जलि ने भाष्य किया है जो एक पूरा ग्रंथ हो गया। इसीलिए उसका नाम महाभाष्य रखा गया। पाणिनि ने अपने समय के प्रचलित शब्दों और प्रायः प्रत्येक राजनैतिक संघ का अनेक


1, 2. जाट्स द एन्शेन्ट रूलर्स - लेखक बी० एस० दहिया। पृ० 25, 55।
3. जातीय लेखक चौ० रामलाल हाला।


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स्थलों पर वर्णन किया है। इसी कारण विद्वानों का मत है कि “पाणिनि धार्मिक की अपेक्षा राजनैतिक बुद्धि का ऋषि था।” तदनुसार अष्टाध्यायी के भ्वादिगण में एक परस्मैपदी धातु लिखी गई - जट झट संघाते अर्थात् जट शब्द समूह के लिए प्रयुक्त होता है। इस धातु के “जट” शब्द का अर्थ है कि “जिसके द्वारा या जिसमें बिखरी हुई शक्तियां एकत्र हो जायें।” जट का ही दूसरा रूप जाट है और यह दोनों शब्द एकार्थवाची हैं अर्थात् जिसके द्वारा बिखरी हुई शक्तियां एकत्रित हो जायें अथवा जिसमें बिखरी हुई एकत्रित हो जायें, ऐसे संघ व जाति और प्रत्येक व्यक्ति को “जट” या “जाट” कहते हैं1। जट शब्द से जाट इस प्रकार बन जाता है - अष्टाध्यायी के अध्याय 3, पाद 3, सूत्र 19 अकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम् से जट धातु से संज्ञा में घञ् प्रत्यय होता है। जट् + घञ् प्रत्यय के घ और ञ् की इत्संज्ञा होकर लोप हो जाता है। 'अ' रह जाता है अर्थात् जट् + अ ऐसा रूप होता है। फिर पाणिनीयाष्टकम् के अध्याय 7, पाद 2, सूत्र 116, अतः उपधायाः से उपधा अर्थात् जट में के 'ज' अक्षर के 'अ' के स्थान पर बुद्धि अर्थात् दीर्घ आ हो जाता है। जाट् + अ = जाट ऐसा शब्द बन जाता है2

यह अन्तिमरूप से सिद्ध हो चुका है कि स्वयं 'जट' शब्द अत्यन्त प्राचीन एवं शुद्ध है। यदि ऊपर कहे शब्दों का अपभ्रंश होता तो उन शब्दों की भांति उसका अर्थ भी सीमित होता और 'जट' शब्द की व्यापक अर्थशक्ति प्रायः नष्ट हो जाती। इसलिए 'जट' शब्द को किसी भी अन्य शब्द की परम्परा में अपने कई पूर्व रूप देखने नहीं पड़े। यही कारण है कि 'जट' शब्द के प्राचीन अर्थ का महत्त्व आज भी अक्षुण्ण है3

Grimm's Law of Variation” (गरिमज के परिवर्तन के सिद्धान्त के अनुसार कुछ और उदाहरण -

English (अंग्रेजी) German (जर्मन) Latin (लेटिन) Greek (यूनानी) French (फ्रेंच) Armenian (अरमेनियन) Sanskrit (संस्कृत)
Father फादर (पिता) Vater (वेटर) Pater (पेटर) Pater (पेटर) Pere (पेरे) Hair (हेयर) Pittar (पितृ)
Mother मदर (माता) Mutter (मटर) Mater (मेटर) Meter (मेटर) Mere (मेरे) Mair (मेयर) Matar (मातृ)

शब्द माता पिता का भिन्न-भिन्न भाषाओं में उच्चारण तो अलग अलग है परन्तु अर्थ एक ही है4

'जाट' शब्द को प्राकृत भाषा से मिलती-जुलती सिन्धी और पंजाबी आदि भाषाओं में 'जट' ही लिखा और बोला जाता है। परन्तु हिन्दी भाषा बोलने वाले प्रान्तों में जैसे राजस्थान, हरयाणा, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश आदि में 'जाट' बोला जाता है। कुछेक ऐसे शब्दों के उदाहरण जो भिन्न


1. क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 259-260 (लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री); जाट इतिहास उर्दू पृ० 33 लेखक ठाकुर संसारसिंह।
2. क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग पृ० 264 लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री।
3. प्राचीन राज्यवंश एवं जाट क्षत्रिय इतिहास और क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 258 लेखक कविराज योगेन्द्र शास्त्री।
4. अन्टिक्विटी ऑफ जाट रेस लेखक उजागरसिंह माहल पृ० 11.


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भिन्न भाषाओं में भिन्न भिन्न प्रकार से लिखे व बोले जाते हैं परन्तु उनका अर्थ एक ही निम्न प्रकार से है -

संस्कृत भाषा प्राकृत भाषा' हिन्दी भाषा
1. कर्णः कुन्न कान
2. हस्तः हत्थ हाथ
3. अस्थि हड्ड हाड़
4. दन्तः दन्त दांत

इसी सिद्धान्त से संसार की सबसे आदि भाषा संस्कृत से ही सारी दूसरी भाषाओं की उत्पत्ति हुई है। 'जट' शब्द का दूसरे देशों में परिवर्तन कैसे हुआ, इसका उदाहरण संसार की चार प्रसिद्ध भाषाओं के कुछ शब्दों से दिया जाता है।

संस्कृत अंग्रेजी' फारसी हिन्दी
1. ओ३म् आमीन (Amin) अल्म परमेश्वर, ईश्वर
2. अस्ति इस (is) अस्त है
3. नाम नेम (Name) नाम नाम
4. तारकम् स्टार (Star) सतारा तारा
5. दुहितृ डॉटर (Daughter) दुखतर पुत्री
6. मातृ मदर (Mother) मादर माता
7. पितृ फादर (Father) पिदर पिता
8. भ्रातृ ब्रादर (Brother) ब्रादर भाई
9. अभ्यन्तर अंडर (Under) अन्दर भीतर

इसी तरह संस्कृत का 'जट' शब्द प्राकृत भाषा में 'जत्थ' या जट्ट, अरबी-फारसी में जात, चीनी में यूति-यूची, यूरोप में जेटी-जेटा, रोम में गात-गाथ, लेटिन में गिटी (Giate) और हिन्दी में जाट नाम प्रसिद्ध हुआ।

ययात और याट शब्द से 'जाट' शब्द बन जाना बिल्कुल साधारण है। प्राचीनकाल में जिन शब्दों का उच्चारण 'य' से होता था, आधुनिक समय में 'ज' से होता है। इनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -

प्राचीन शब्द वर्तमान शब्द' प्राचीन शब्द वर्तमान शब्द
1. यश जस 10. यम जम
2. यज्ञ जज्ञ 11. योनि जोनि
3. यत्न जत्न 12. यटी जटी
4. योग जोग 13. याट जाट
5. योगी जोगी 14. युक्ति जुक्ति
6. यमुना जमना 15. योद्धा जोद्धा
7. यतन जतन 16. युद्ध जुद्ध
8. योग्य जोग्य 17. यमदूत जमदूत
9. यौवन जोबन

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जाट वीरों की उत्पत्ति

अब हम जिस जाट जाति के इतिहास पर लेखनी चलाने लगे हैं उसके बारे में भारतीय इतिहास साक्षी है कि देश को जब जब क्षात्रभावनाप्रधान वीर युवकों की आवश्यकता हुई तब तब इस जाट जाति ने देश की सेवा में अपने नौनिहालों का उत्सर्ग करने के अमर उदाहरण उपस्थित किए। अब देखना यह है कि उन महान् क्षत्रियसमुदायों का जाट नाम कब से और कैसे पड़ा जो कि वैदिक, रामायण और महाभारत काल व इसके पश्चात् आज तक भी अपनी वीरता, धीरता और योग्यता के कारण लोकप्रिय हुये तथा जिनके वैभव और ऐश्वर्य की पवित्र गाथायें आज भी संसार के इतिहास में श्रद्धा और शोभा की चीज समझी जाती हैं। कर्नल जेम्स टॉड के शब्दों में - “आज के जाटों को देखकर अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि ये जाट उन्हीं प्रचण्ड वीरों के वंशज हैं, जिन्होंने एक दिन एशिया और यूरोप को हिला दिया था।”

जाट शब्द और जाट जाति की उत्पति के सम्बन्ध में अपनी तरफ से विचार लिखने से पहले दूसरे इतिहासकारों तथा विद्वानों के मत लिखता हूं जो कि निम्नलिखित हैं -

1.

राजा साहिब श्री गिरिप्रसादसिंह वेसमा (अलीगढ) के प्रोत्साहन से पं० अंगद शास्त्री ने संवत् वि० 1920 (सन् 1872 ई०) में 'जाठरोत्पत्ति' नामक एक संस्कृत पुस्तक जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखी थी। “उसमें पुराणों1 की परशुराम, सहस्रबाहु अर्जुन वाली कथा का उल्लेख करके कहा गया है कि परशुराम जी (सुपुत्र श्री जमदग्नि) ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने हेतु 21 बार क्षत्रियों से युद्ध करके उनको समाप्त कर दिया। इस तरह से पृथ्वी क्षत्रियविहीन हो गई तो सहस्रों राजकन्याओं ने ब्राह्मणों से वीर्यदान लिया। उन क्षत्राणियों के पेट से पैदा होने के कारण वे सन्तानें जाठर कहलायीं। उनके वंशज ही जाट हैं। (संस्कृत में पेट को जठर कहते हैं) और वे जाठर दक्षिण भारत को छोड़कर उत्तर में हिमालय के अंचल में जठर देवकूट पहाड़ में रहने लगे। जाठर लोगों के बसने से ही इस पहाड़ का नाम जठर पड़ गया।” (जाट इतिहास, पृ० 77-78 लेखक ठाकुर देशराज

पं० अंगद शास्त्री के इस विचार की ताईद चौधरी लहरीसिंह बी० ए० एल० एल० बी० वकील मेरठ ने अपनी पुस्तक 'इंथनोलोजी ऑफ दी जाट्स' (The Ethnology of the Jats) में की है। यह पुस्तक आपने सन् 1883 ई० के जनगणना अधिकारियों की प्रार्थना पर लिखी थी। यह लेखक भी जाट शब्द की उत्पत्ति जाठर से लिखता है परन्तु उसने जाठरों को विदेशी कहा है जिनके इस नाम की उत्पत्ति जाठर पर्वत से हुई, जिसका नाम महाभारत, विष्णु पुराण और भागवत में है।

जाट क्षत्रिय इतिहास (हिन्दी में) 1944, लेखक वाई० पी० शास्त्री ने पृ० 40 और कालिकारंजन कानूनगो op. cit, P 14-17 पर लिखा है कि “अंगद शास्त्री और लहरीसिंह की यह कल्पना मूर्खतापूर्ण है कि परशुराम ने जब सब क्षत्रियों को समाप्त कर दिया तो क्षत्रिय माताओं और ब्राह्मण पिताओं के मिलाप से जाट पैदा हुए।”

इसी विषय में डी. डी. कोसम्बी का कहना इस प्रकार है - “ब्राह्मणों की विशेष कल्पना यह थी कि जब परशुराम जी ने क्षत्रियों को 21 बार नष्ट कर दिया तब पृथ्वी क्षत्रियों से खाली


1. पद्म पुराण ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-90



हो गई। ऐसा होने पर क्षत्रियों की पत्नियां सन्तान पैदा करने हेतु ब्राह्मणों के पास गईं। इस तरह मिलाप करने से उनके जाठर (गर्भाश्य) से जो बालक उत्पन्न हुए वे जाठर यानी जाट कहलाए। पं० अंगद शास्त्री की यह कल्पना करने का विचार स्पष्ट मूर्खतापूर्ण है। सबसे प्रथम बात तो यह है कि यह पृथ्वी क्षत्रियों से कभी भी खाली नहीं रही। परशुराम के समय में भी अयोध्या के क्षत्रियों राम व लक्ष्मण के सामने परशुराम ने झुककर अपने शस्त्र डाल दिये थे। दूसरी बात - क्षत्रियों का कभी भी अन्त नहीं हुआ, विशेषकर यादू या उसकी हैहय-शाखा के उत्तराधिकारी निरन्तर प्रचलित रहे जिनका प्रमाण पुराणों तथा दूसरे लेखों से मिलता है।” इस घटना का उल्लेख करते हुए डी. डी. कोसम्बी ने लिखा है कि “क्षत्रिय योद्धाओं द्वारा ब्राह्मणों के पूर्व पुरुषों का संहार करने पर यह ब्राह्मणों के मन की केवल एक विपरीत अद्भुत कल्पना है।” (“The study of Indian Tradition”, Indica 1953, Silver Jubilee Issue, P. 212), जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 16, लेखक बी० एस० दहिया)

ग्राउस के मतानुसार इस कल्पना में कोई बड़ी असम्भावना नहीं है कि जाठर शब्द जाट में घटा दिया गया हो, किन्तु यह अत्यधिक विचित्र है कि ऐसा तथ्य पहले कभी उल्लिखित नहीं किया गया1। शास्त्री के मत का ठीक-ठीक उत्तर देते हुए कानूनगो लिखते हैं - “ध्वनि-साम्यता के अलावा जाट व जाठर को जोड़ने का कोई भी सूत्र या परम्परा नहीं है। इसके अलावा जाठर अगर पूर्णतः विलुप्त रहे होते तो कोई भी इस दावे की विसंगति की ओर से आंखें मूंद लेता, किन्तु वे अब भी जाटों के साथ बिना किसी सम्पर्क का दावा करते हुए दक्षिण भारत में उपस्थित हैं। इन जाठरों का सम्बन्ध दक्षिणी मराठा ब्राह्मणों के एक छोटे वंश के साथ है जो करहद (Karhadas) कहलाते हैं।2।” अंगद शास्त्री ने बृहत् संहिता अध्याय 14 14, 8 (Brihat Sanhita xiv. 8) का हवाला देकर अपनी उसी पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है कि जाठरों का रहने का स्थान दक्षिण पूर्व है। जबकि प्रमाणित है कि जाट पश्चिम से आये3। इसका उत्तर उनके पास कुछ नहीं है4

अंगद शास्त्री जी की यह कल्पना अवैज्ञानिक, निराधार और असत्य है। पहले तो पुराणों का यह कथन ही गलत है कि परशुराम जी ने भारत को क्षत्रियविहीन कर दिया था। परशुराम के समय उत्तर भारत में जनक, दशरथ, कौशिक, केकय आदि अनेक राजाओं के राज्य थे। वास्तव में तो परशुराम अर्थात् ब्राह्मणों का यह संघर्ष दक्षिण के यदुवंशी राजाओं से हुआ था जो दक्षिण भारत पर राज्य करते थे। इस युद्ध में शक्तिशाली राजा सहस्रबाहु अर्जुन मारा गया था जो ययाति के बड़े पुत्र यदु से 14वीं पीढ़ी में था। परशुराम का युद्ध उत्तरी भारत के राजाओं के साथ कभी नहीं हुआ। पुराणों की कथानुसार सम्पूर्ण क्षत्रियों को परास्त करनेवाले परशुराम ने अपराजित नागवंशियों से सन्धि करनी पड़ी थी और ब्राह्मणों को आज्ञा दी गई थी कि तुम सब नामों का आदर करो। यह नागवंशी जाट थे (पूरी जानकारी के लिए देखो लेखक का इतिहास, अध्याय 3 नागवंश)।


1. एफ० एस० ग्राउस, मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर भाग 1, पृष्ठ 21-22।
2. कानूनगो, जाट पृ० 17।
3. जाट भारत से विदेशों में गये और किसी कारण से वापस भारत अपने देश लौट आये। इनका यह आना भारत के पश्चिम से था। (लेखक)
4. विष्णु पुराण अध्याय XI, यदु की वंशावली (देखो)।


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यह सर्वविदित है कि सीता जी के स्वयंवर के समय क्षत्रिय राजकुमार श्री रामचन्द्र जी ने परशुराम को नीचा दिखाकर उसका अभिमान भंग कर दिया था। अगली बात, कि हजारों राजकुमारियों का अपने कुलघातकों से सन्तान उत्पत्ति की इच्छा से वीर्यदान लेने का उन पर लांछन नहीं लगाया जा सकता। वास्तव में तो क्षत्राणियां अपने पतियों के साथ युद्ध में लड़ी हैं, उनके पति मरने पर सती हो गईं हैं। पुराणों ने तो ब्राह्मणों पर भी लांछन लगा दिया है। उस समय रामायण काल में तो ब्राह्मणों का बड़ा आदर मान था। जनता और क्षत्रिय राजे महाराजे उनके चरणों में मस्तिष्क टेकते थे और उनको राज-दरबार में रखा जाता था। एक तरह से राजनीति की बागडोर ब्राह्मणों के हाथों में थी। मनु की वर्ण-व्यवस्था का पालन पूरे स्तर पर था। ब्राह्मण वेदमार्ग पर चलकर अपने धर्म पर अडिग थे। पुराणों की यह कथा मनगढन्त और बेबुनियाद है। इस कथा से तो सब क्षत्रिय जाति और ब्राह्मणों का भी अपमान है। उनको भी सांड बना दिया गया। वास्तव में यह कथा पौराणिक पण्डितों ने क्षत्रियों पर अपना रौब डालने और उनको अपमानित करने के लिए घड़ी है। एक और भी बिन सार की बात लिख डाली कि क्षत्राणियों के पेट से पैदा होने के कारण वे संतानें जाठर कहलाईं। सिद्धान्त तो यह है कि ब्राह्मणों के वीर्य से पैदा होने वाली सन्तान ब्राह्मण कहलाती। सो साफ जाहिर है कि यह बातें असत्य हैं।

अंगद शास्त्री जी का कहना है कि जाठर लोगों के बसने से ही उस पहाड़ का नाम जठर पड़ गया था। शास्त्री जी का यह विचार इसलिए असत्य है कि भागवत के वर्णन के अनुसार महान् हिमालय के मध्य (पेट) में जठर देवकोट का नाम उस समय भी था, जबकि प्रथम मनु स्वायम्भव के पौत्रों में पृथ्वी का बंटवारा हुआ था। उस समय परशुराम के बाप-दादा भी पैदा नहीं हुए थे। व्याकरण नियम के अनुसार मूल शब्द से जो नया शब्द बनता है वह उससे माप-तोल में भारी और बड़ा होता है। जैसे पुत्र से पौत्र, मधु से मधुर आदि। इसी प्रकार जाठर से जाठरान, जाठरा, जाठरिया, जाठरम् आदि। अतः यह कथन असत्य है कि जाठर लोगों के बसने से उस पहाड़ का नाम जठर हुआ। फिर यह कैसे माना जा सकता है कि जाठर से जाट हैं जबकि जाटों में पाण्डु, कौरव, गान्धार, मद्र, जादू, मौर्य, जतरान (अत्रि), सिन्धु, यादू, शिवि आदि अनेक ही प्राचीन राजवंश भी हैं। पाठक समझ गए होंगे कि श्री अंगद शास्त्री व उनका समर्थन करने वाले चौ० लहरीसिंह वकील के विचार व लेख असत्य और बेबुनियाद हैं। (जाट इतिहास पृ० 78 लेखक ठाकुर देशराज)।

2.

दूसरा मत श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य का है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'महाभारत मीमांसा' में लिखा है कि महाभारत के कर्ण पर्व में शाकल नगरी के जर्तिक का वर्णन है, जाट उन्हीं के उत्तराधिकारी हैं। कालिकारंजन कानूनगो ने वैद्य के इस मत का प्रमाणों के साथ जोरदार खण्डन किया है। उनका कहना है कि जाटों को जर्तिकाओं का वंशज कहना कपट की बात है। (के० आर० कानूनगो (जाट) चेप्टर 1 पृ० 7)। “देशी राजाओं का इतिहास” के लेखक श्री सुखसंपत्तिराय भंडारी, “तवारीख राजस्थान (उर्दू)” के लेखक देवतास्वरूप भाई परमानन्द और श्री यदुनाथ सरकार ने भी सी० सी० वैद्य की इस राय का खण्डन किया है।

महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिकाओं की कथा इस प्रकार है - कौरव सेनापति द्रोणाचार्य के मरने पर कर्ण को सेनापति नियुक्त किया गया। उसका सारथि महाराजा शल्य को नियुक्त किया गया, जो माद्री का भाई और पांडवों का मामा था। जब कर्ण का रथ रणभूमि में आ रहा था तब


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कर्ण ने अपनी शक्ति की डींग मारते हुए शल्य से कहा - “आज मैं अर्जुन को मार डालूंगा, यदि यम, वरुण, कुबेर और इन्द्र भी एक साथ मिलकर अर्जुन की रक्षा करें तो उन सबको भी साथ ही जीत लूंगा।1।” शल्य ने उत्तर में कहा कि - “कर्ण ! बस, बढ चढकर बातें न कर, भला कहां नरश्रेष्ठ अर्जुन और कहां मनुष्यों में अधम तुम। याद है वह घटना जबकि गन्धर्वों ने दुर्योधन को कैद कर लिया था। उस युद्ध में तू सबसे पहले भाग गया था। अर्जुन ने ही तो दुर्योधन को शत्रुओं की कैद से छुड़ाया था। विराट नगरी में गोहरण के समय तुम सबको अर्जुन ही ने तो परास्त कर दिया था। उस समय तुमने अर्जुन को क्यों नहीं मारा2?”

कर्ण ने शल्य को फटकारते हुए कहा - “शल्य, तू भी बातें करता है? एक वृद्ध ब्राह्मण ने धृतराष्ट्र को तेरे देश मद्र और वाहीक की निन्दा करते हुए वहीं की सब बातें बताईं, जिनको मैंने भी सुना था। उसने बताया कि वहां शाकल नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है जहां 'जर्तिक' नाम वाले वाहीक निवास करते हैं। उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है। वे भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते हैं और मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं। वहां की स्त्रियां भी मांस-मदिरा का सेवन करती हैं और नंगी होकर नाचती हैं और गधों और ऊंटों की तरह की आवाजों में गीत गाती हैं। वे मैथुनकाल में परदे के भीतर नहीं रहती हैं और खड़ी-खड़ी मूतती हैं (पेशाब करती हैं)। शल्य ! ऐसी मद्रनिवासिनी स्त्रियों के पुत्र होकर तुम मुझसे बढ-चढकर बातें करते हो3? ”

सी० वी० वैद्य ने जर्तिका के सम्बन्ध के इस वर्णन को अतिरंजित बताया है और इसी जर्तिका को तथा उसके समूह को जाट माना है। हम कहते हैं यह वर्णन एक पुरुष का है, जाति का नहीं। संभव है वह पुरुष “जरत्कारु” हो जो उस समय एक ऋषि था और बहुत सी स्त्रियों के साथ सहगमन उसकी आदत थी। वास्तव में तो कर्ण पर्व का यह वर्णन व्यास का लिखा हुआ नहीं, सौति ने जो जैन-बौद्ध काल में हुआ, महाभारत की बढौतरी की है। यह हो सकता है कि महावीर के कुल “ज्ञातृ” के विरुद्ध अथवा जैन नरेश महाराजा जरत्कुमार के विरुद्ध यह आक्षेप कर्ण द्वारा सौती ने कहलाया हो4

आरम्भ से महाभारत ग्रन्थ में बड़ा हेर-फेर और वृद्धि हुई है। महाभारत के रचयिता तीन हैं -

1. कृष्ण द्वैपायन व्यास जिन्होंने भारतीय युद्ध के बाद जय नाम के ग्रन्थ की रचना की। उसमें केवल युद्ध और पाण्डवों के हिमालय की ओर जाने तक का वर्णन है।
2. वैशम्पायन ने उसमें जनमेजय तक के समय की घटनायें और जोड़ दीं और उसका नाम भारत हो गया।
3. आगे बौद्ध काल में सूतपुत्र सौति ने उसमें काफी वृद्धि की और उसमें बौद्ध-जैन-चार्वाक आदि धर्मों और उसके अनुयायियों की खूब खबर ली है। व्यास जी के 'जय' ग्रन्थ के श्लोकों की संख्या 10,000 थी और वैशम्पायन ने अपने ग्रन्थ 'भारत' में बढाकर श्लोकों की संख्या 24,000 कर दी। सौति ने अपने ग्रन्थ 'महाभारत' में बढाकर श्लोकों की कुल संख्या 100,000 कर दी। इससे सिद्ध है कि महाभारत ग्रन्थ में समय-समय पर काफी बढौतरी हुई है। नतीजा

1, 2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 37, श्लोक 30-38;
3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 44, श्लोक 4-12,
4. ठाकुर देशराज जाट इतिहास, पृ० 79.


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साफ है कि कर्ण पर्व में जर्तिका और उसकी शाकल नगरी तथा वहां के पुरुष-स्त्रियों की निन्दा जो कर्ण के मुंह से कहलाई है, वह सौति के उन लोगों के प्रति धार्मिक विद्वेष को प्रकट करती है। शल्य और कर्ण के समय में न जर्तिका जाति थी, न पुरुष। यह झूठी कथा घड़ी गई, वरना ठीक युद्ध के समय कर्ण और उसके सारथि शल्य में ऐसी जली-कटी बातें हुई हों, यह बिल्कुल असम्भव है।1

अब सी० वी० वैद्य की ओर ध्यान दीजिए जो एक तरफ तो गोमांस और मदिरा का सेवन करने वाले जर्तिका को तथा उसके समूह को भाट मानते हैं। दूसरी तरफ वह जाटों को क्षत्रिय न मानकर वैश्य लिखते हैं। वैद्य जी के इन विचारों पर बड़ा खेद है कि उनको यह भी ज्ञात नहीं कि वैदिककालीन सभी आर्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) मांस मदिरा का सेवन नहीं करते थे। बौद्ध और जैन धर्म तो पशुहिंसा तथा मांस-भक्षण के पूर्ण विरोधी थे जिनसे कि जाटों का कुछ काल तक सम्बन्ध रहा है। भारतवर्ष की प्रायः सभी क्षत्रियजातियों में आज मांसभक्षण बुरा नहीं समझा जाता है परन्तु थोड़े से फौजी जाटों को छोड़कर के सभी जाट मांस-भक्षण को पाप समझते हैं और गाय को तो माता कहते हैं और किसी बात को सत्य प्रमाण सिद्ध करने के लिए गोमाता की सौगन्ध खाते हैं। पाठक समझ गये होंगे कि कर्ण पर्व की यह कथा मनघड़न्त है और सी० वी० वैद्य का जर्तिका को जाट मान लेने का विचार भ्रमपूर्ण तथा असत्य है। जाट इतिहास उर्दू पृष्ठ 31 पर ले० ठा० संसारसिंह जी ने सी० वी० वैद्य के विचारों का जोरदार खण्डन करते हुए कहा है कि “वह अपनी इस गलती को, अपनी लिखित पुस्तक 'महाभारत मीमांसा' के दूसरे प्रकाशन में ठीक कर लें।” कानूनगो ने भी इसका खण्डन करते हुए लिखा है कि केवल जातीय नामों की ध्वनिगत समानता के अलावा प्रस्तावित पहचान का कोई ठोस आधार नहीं है। (कानूनगो, जाट पृ० 8)

3.

कोई-कोई इतिहासकार व विद्वान् यह भी मानते हैं कि जाट हैहय क्षत्रियों की उन शाखाओं में से हैं जो सुजात और जात नाम से प्रसिद्ध थीं। देशी इतिहासकारों में भाई परमानन्द जी इसी मत के समर्थक थे। वे लिखते हैं कि - “ऐसा मालूम पड़ता है यादु नस्ल की एक शाखा जाट कहलाने लगी। जाट और यादु शब्द एक दूसरे से बहुत मिलते जुलते हैं। यादुओं के हैहय कबीले की एक शाखा का नाम जात या सुजात था।” विष्णु पुराण विल्सन अध्याय 11 पृष्ठ 335 पर लिखा है कि ययाति के बड़े पुत्र यदु की 14वीं पीढ़ी में सहस्रबाहु अर्जुन (कार्त्तवीर्य अर्जुन) (जिसका युद्ध परशुराम से हुआ) राजा था। उसके 100 पुत्रों में से एक का नाम जयध्वज था जिसके पुत्रों से हैहय शाखा (वर्ग) के पांच शक्तिशाली विभाग प्रचलित हुए। उनके नाम इस प्रकार से बने - 1. तालजंघ, 2. वीतिहोत्र, 3. अवन्ता, 4. तुनदिकर, 5. जाट्स (Jatas)। वायु पुराण, पद्म, ब्रह्म, अग्नि, मत्स्य आदि पुराण भी इससे सहमत हैं। जाट्स को संजात या सुजात कहा गया है। संजात या सुजात शब्द से जाट शब्द का बनना संभव समझकर शायद भाई जी ने सुजात लोगों को ही जाट मान लिया है और इसमें भी सच्चाई है कि जात शब्द से आगे चलकर जाट शब्द बन गया। किन्तु यह कथन गलत है कि परशुराम वाले सुजात या जात लोग ही अब के जाट हैं। परशुराम और हैहय लोगों का युद्ध रामायण काल से पहले हुआ था। यदि सुजात लोग ही जाट कहलाने लग गए होते तो महाभारत के


1. ठाकुर देशराज जाट इतिहास, पृ० 83.


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समय अवश्य इनकी हस्ती होती। लेकिन लाखों वर्षों के अन्तर में सुजात लोगों को पैतृक गौरव प्राप्त करने की चेष्टा (साम्राज्य स्थापना) करते हम कहीं नहीं पाते। यहां यह कहना काफी होगा कि जाट गोत्र जो कि पांडवों, शैव्यों, गान्धारों, मालवों आदि राजवंशों से निकले हुए हैं, वे भला सुजात के वंशज कैसे कहला सकते हैं? यहां तक कि जाटों में नागवंशी तथा सूर्यवंशी (काश्यप, काकुस्थ, गौर, बल, लाम्बा, नेहरा आदि) गोत्र भी हैं। जाटों के गोत्र व कुल न तो हैहय क्षत्रियों से मिलते हैं और न हैहयों की आदिभूमि दक्षिण में उनका कोई नाम निशान ही पाया जाता है।

4.

कुछ लोग जाट शब्द की उत्पत्ति का इतिहास इस प्रकार से मानते हैं कि - “महाभारत युद्ध के पश्चात् राजसूय यज्ञ के समय पर भारत के सभी राजाओं ने महाराज युधिष्ठिर को ज्येष्ठ की पदवी दी थी। उन्हीं के वंश के लोग आगे चलकर के 'ज्येष्ठ' से 'जाट' कहलाने लगे।” कुछ किम्वदन्तियां ऐसी भी हैं कि ज्येष्ठ की पदवी महाभारत से पहले श्रीकृष्ण जी को मिली थी। यह वही दिन था जिस दिन कृष्ण जी ने शिशुपाल का वध किया था। कहा जाता है कि इसी दिन से भगवान् कृष्ण ने भविष्य में शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और इसी प्रतिज्ञा के कारण उन्होंने महाभारत में शस्त्र धारण नहीं किया था। बहुत समय बीतने पर कृष्ण जी के साथी और वंशज यादव लोग दो दलों में विभक्त हो गए। एक वे जो अपने लिए 'यादव' ही कहते रहे और दूसरे वे जो ज्येष्ठ के अपभ्रंश से 'जाट' कहलाने लगे। यह सत्य है कि जाटों में युधिष्ठिर वंशी और कृष्णवंशी दोनों ही तरह के लोग शामिल हैं1

5.

पण्डित लेखराज जी आर्य मुसाफिर ने 'रसालाजिहाद' में जाट शब्द के यदु अपभ्रंश जादू, जाद, जात और जाट बताया है। कर्नल टॉड ने भी इस बात को माना है कि जाट यादव हैं। मि० नेशफील्ड और विलसन साहब ने भी टॉड की राय को दाद दी है। मि० नेशफील्ड जी भारतीय जातीय शास्त्र के एक अद्वितीय ज्ञाता माने जाते हैं, लिखते हैं - “जाट, यदु या जदु के वर्तमान हिन्दी उच्चारण के सिवा कोई दूसरा शब्द नहीं है। यह वही जाति है जिसमें श्रीकृष्ण पैदा हुए थे।” The word Jat is nothing more than the modern Hindi pronounciation of Yadu or Jadu. The tribe in which Krishna was born). यदु और ज्येष्ठ से जाट शब्द बन गया, भाषा शास्त्र के अनुसार इसमें कोई ऐतराज नहीं हो सकता और यह कल्पना तथा धारणा बहुत अंश तक ठीक भी है।2

युधिष्ठिर और कृष्ण दोनों ही चन्द्रवंशी राजा हैं। किन्तु जाटों में कुछ कुल अथवा गोत्र सूर्य वंश के भी पाये जाते हैं। यह प्रमाणित बात है कि कोई भी जाति या राजवंश या तो राजनैतिक कारणों से एक दूसरे में मिलते हैं या धार्मिक कारणों से। एक तीसरा कारण आकस्मिक क्रान्तियों का भी है। सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी दोनों प्रकार के राज्यवंशों का जाट से प्रसिद्ध हो जाने का जो इतिहास है वही जाट शब्द की व्युत्पत्ति का भी है3। इसके अगले पृष्ठों में उदाहरण लिखे गये हैं।

6.

समानवाची देशी विदेशी नामों ने भी यूरोप के कई इतिहासकारों को खूब धोखे में डाला है। यूरोप के गाथ, गेटि, जेटी, चीन के यूची, यूती ऐसे नाम हैं जो जाट शब्द से मिलते हैं4 और इस


1, 2, 3. जाट इतिहास, पृ० 84 - लेखक ठाकुर देशराज.
4. जाट शब्द के भिन्न-भिन्न देशों में पुकारे जाने वाले नामों का ब्यौरा, देखो अध्याय द्वितीय।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-95


शब्द-समानता के मिलते ही उन्होंने जाटों को इन्हीं जातियों के वंशज अथवा विदेशों से आकर भारत में बस गये, लिख डाला। ये लेखक, हेरोडोटस, स्ट्रैबो, कनिंघम आदि हैं।

जाटों को कुछ लोग आक्सस के किनारे से, कुछ सिकन्दरिया से, कुछ बैक्ट्रिया से और कुछ स्कैण्डनेविया से आया हुआ बताते हैं। मेजर बिंगले “हैण्डबुक ऑफ जाट्स, गुजर्स एण्ड अहीरस” पृ० 7 पर लिखते हैं कि “ईसा की पहली शताब्दी में जाट लोग आक्सस के किनारे से चलकर दक्षिणी अफगानिस्तान होकर के भारत आये।” इस कथन का खण्डन मि० नेशफील्ड, सर हर्बर्ट रिजले, डॉक्टर रम्प, वीम्स और अनेक अरब इतिहासकारों ने किया है। देशी इतिहासकारों में श्री चिन्तामणि वैद्य ने तो बड़े मजबूत प्रमाणों के साथ उक्त विचारों का खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि न किसी विदेशी इतिहास में ऐसा वर्णन है कि जाट अमुक देश से भारत में गये और न जाटों की दन्तकथाओं में। पं० इन्द्र विद्यावाचस्पति “मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण” नामक इतिहास पुस्तक में यही बात लिखते हैं कि - “जब से जाटों का वर्णन मिलता है वे भारतीय ही हैं और यदि भारत के बाहर कहीं भी उनके निशान मिलते हैं तो वे भी भारत से ही गये हुए हैं।” कर्नल टॉड ने स्कन्धनाभ में जाटों की बस्तियों का वर्णन किया है। किन्तु जिस समय स्कन्धनाभ में उनके प्रवेश का वर्णन आता है, उनसे कई शताब्दी पहले जाटों का भारत में अस्तित्व पाया जाता है। जाट भारत से बाहर गये थे। ईसा से कई सौ वर्ष पहले गये और कई सौ वर्ष पीछे तक जाते रहे, इसका विस्तृत वर्णन आगे के पृष्ठों में करेंगे1

विदेशी लेखकों को यह ज्ञान होना चाहिए कि गेटि, जेति, श्युचि, गात आदि समूह जिनके यूरोप व चीन में निशान पाये गये हैं वे उन जाटों के वंशज हैं जो कि परिस्थितियों के कारण भारत से बाहर गये थे और वहां जाकर उन्होंने उपनिवेश स्थापित किये2

7.

चौधरी रामलाल हाला का मत है कि सम्राट् उशना याट से जाट जाति का प्रारम्भ हुआ। इसका वर्णन इस तरह से है - राजा ययाति के पांच पुत्रों में से एक यदु था। उसके चार पुत्रों में से एक का नाम करोक्षत्री था जिसकी छठी पीढी में सम्राट् शशबिन्दु हुआ जिसका शासन विदर्भ देश पर था। उसने अश्वमेध यज्ञ किया और अपने बड़े पुत्र पृथुश्रवा को राज्य सोंप दिया। इस सम्राट् के धर्म नामक एक पुत्र से सम्राट् उशना हुए। उन्होंने 101 अश्वमेध यज्ञ किए थे। याज्ञिकशिरोमणि होने से ही उन्हें याट की उपाधि मिली। इनकी अड़तीसवीं पीढी बाद श्रीकृष्ण जी महाराज हुए। इस याट से जाट जाति का होना चौधरी रामलाल हाला का मत है। इससे सहमत होने वालों में ले० रामसरूप जून (लेखक जाट इतिहास) हैं। परन्तु ठाकुर संसारसिंह और कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री इस मत का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि इसका कोई प्रमाण नहीं है। हमारी राय भी यही है कि जाट जाति एक मनुष्य की संतान नहीं है परन्तु संघों या गणों का नाम जाट हुआ है जिसका आगे के पृष्ठों में वर्णन किया जायेगा। हां, यदु के वंशजों से समय-समय पर जाटों के गोत्र अवश्य चले हैं जिसका वर्णन आगे किया गया है।

8.

ठाकुर देशराज (लेखक जाट इतिहास) का मत है कि जाट शब्द ज्ञात शब्द का रूपान्तर है। वे लिखते हैं कि - यह जान लेना चाहिए कि ज्ञात शब्द साहित्यिक संस्कृत का है और जाट


1,2. जाट इतिहास, पृ० 95 - लेखक ठाकुर देशराज.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-96


शब्द प्राकृतिक बोल-चाल की संस्कृत का है। उसी प्राकृतिक भाषा में ज्ञात (जात) का जाट हो गया। किन्तु पंजाब वालों की बोल-चाल में साथ को सथ/सत्थ, और हाथ को हथ/हत्थ कहते हैं, जाट को भी जट, जट्ट कहकर पुकारते हैं। ज्ञात से जात और फिर जाट और जट शब्द भाषा (उच्चारण) भेद से बन गये। रिसाला जिहाद के लेखक तथा आर्यसमाज के प्रकाण्ड विद्वान् पं० लेखराम जी ने जात का रूपान्तरण जाट किया है। उन्होंने जादू से जाद फिर जात और इसके बाद जाट बनाया है। कहने का मतलब यह है कि जात से जाट शब्द बनाने की दलील में बहुत विद्वानों का मत है। ज्ञात से हिन्दी जात होने के नियम से साधारण लोग भी जानकार हैं। वैसे भी 'ज्ञ' अक्षर ज् + ञ् + अ का संयोजन ही तो है।

यह ज्ञात शब्द भगवान् कृष्ण द्वारा स्थापित ज्ञाति संघ के सदस्यों के लिए व्यवहरित होता था। भगवान् कृष्ण ने द्वारिका में ज्ञाति-राष्ट्र की स्थापना की थी। (भगवान् कृष्ण व नारद उवाच) महाभारत के उस संदर्भ का सारांश यह है कि - यदुवंश के दो कुलों अंधक और वृष्णियों ने एक राजनैतिक (संघ) स्थापित किया था। उस संघ में दो राजनैतिक दल थे। ये प्रजातन्त्री दल थे जिनकी कृष्ण जी ने नींव डाली थी। अंधकों की ओर से उग्रसेन और वृष्णियों की ओर से श्रीकृष्ण निर्वाचित सभापति या प्रधान थे। श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित संघ 'ज्ञाति' कहलाता था। कोई भी राजकुल या जाति संघ में शामिल हो सकती थी। क्योंकि यह संघ ज्ञातिप्रधान था, व्यक्तिप्रधान नहीं, इसलिए इस संघ में शामिल होते ही उस जाति या वंश के पूर्व नाम की कोई विशेषता न रहती थी। वह 'ज्ञाति' संज्ञा में आ जाता था। हां, वैवाहिक सम्बन्धों के लिए वे अपने वंशों के नाम स्मरण रखते थे जो कालान्तर में गोत्रों के रूप में परिणत हो गये। ज्ञाति के स्थापन से एक बात यह और हुई कि एक ही राजवंश के कुछ लोग साम्राज्यवादी और कुछ प्रजातंत्रवादी विचार रखने से दो श्रेणियों में विभाजित हो गए। एक साम्राज्यवादी अथवा राजा, दूसरे प्रजातन्त्रवादी (ज्ञातिवादी) या राजन्य (लोकतंत्रवादी)। ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले आगे चलकर के 'ज्ञात' कहलाने लगे अर्थात् ज्ञातिवादी ही ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमें यह प्रश्न किया जा सकता है कि ज्ञाति के सम्बन्ध रखने वाले 'ज्ञात' कैसे कहलाने लगे? इसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कम्युनिज्म के मानने वाले 'कम्युनिष्ट' और सोशियलिज्म के अनुयायी 'सोशियलिस्ट', कांगेस वाले 'कांग्रेसी', आर्यसमाज वाले 'आर्यसमाजी' कहे जाते हैं। पहले भी ऐसा होता था। विष्णु के उपासक 'वैष्णव', शिव के अनुयायी 'शैव' और शक्तियों में विश्वास रखने वाले 'शाक्त' कहलाते थे। बस जैसे संस्कृत 'भक्त' का प्राकृत 'भट्ट' है, उसी भांति संस्कृत 'ज्ञात' का प्राकृत 'जात' अथवा 'जट्ट' है। और उसी को उत्तर भारत के प्रसिद्ध व्याकरणरचयिता पाणिनि ने जो कि जाटों के पूर्व इतिहास से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है, अपने धातुपाठ में जट झट संघाते सूत्र लिखा है, जिससे जट शब्द जाट में बदल जाता है1

लगे हाथों कुछ संघों का वर्णन किया जाता है - श्रीकृष्ण के इस संघ का अनुसरण कर पूर्वोत्तर भारत में अनेक क्षत्रिय जाति अथवा राजवंशों ने ज्ञाति (संघ) की स्थापनायें कीं। पाणिनि ने 5, 3, 114 से 117 तक वाहीक देश के संघों के सम्बन्ध में तद्धित के नियम दिये हैं। उन नियमों से यही


1. जाट इतिहास, पृ० 105-106 - लेखक ठाकुर देशराज.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-97


सिद्ध होता है कि आर्य जाति और राजवंशों के सम्मिलन से संघ स्थापित होते थे। श्रीकृष्ण जी प्रजातन्त्रवादी विचार के थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासन्ध, कंस, शिशुपाल, दन्तवक्र आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। कृष्ण जी के साथ उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने नवराष्ट्र, गोपराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाली थी। मगध में जरासंध ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया था। उसने लगभग 158 राजाओं का राज्य छीनकर उनको बन्दी बना दिया था। कंस ने बहुत से छोटे-छोटे राज्य अपने अधीन कर लिए थे। बृज के स्वतंत्र राजाओं की सत्ता नष्ट कर दी गई थी। उन्हें केवल गोप (ग्रामाध्यक्ष) के रूप में रहने दिया गया था। कंस इनसे भारी टैक्स लेता था। वृष्णि राज्य का अधिपति वासुदेव केवल विचार-भिन्नता के कारण जेल में डाल दिया गया था। इनके पुत्र श्रीकृष्ण जी ने बृज के वृष्णि, अन्धक, नव, और गोप लोगों का संगठन किया और कंस को इस संसार से उठा दिया। कंस के मारे जाने की सूचना मिलने पर उसके सम्बन्धी जरासंध ने एक बड़ी शक्तिशाली सेना के साथ बृज पर चढ़ाई कर दी। पहली लड़ाई में उसको मुंहतोड़ जवाब मिला। फिर भी उसने अटूट ताकत के बल पर बृज का ध्वंस कर दिया। कांमा1 के पास घाटे की पहाड़ियों में जो लड़ाई हुई, उसमें उसको बहुत क्षति हुई। साथ ही उसे यह भी यकीन हो गया कि बृजवासियों के दल को जिस पहाड़ पर घेरकर आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर दिया है, उसमें कृष्ण बलदेव भी जल गए होंगे, वह अपने देश को लौट गया। जरासन्ध के लौट जाने पर भी श्रीकृष्ण जी ने बहुत सोच-विचार के बाद बृज को छोड़ दिया। वहां से जाकर काठियावाड़ में उन्होंने द्वारिका नगरी बसाई। बृज से उनके साथ समस्त वृष्णि, अन्धक, शूर और माधव लोग चले गए थे। वहां पर जाकर कृष्ण जी ने ज्ञाति-राज्य की स्थापना की। वे चाहते थे कि सारे देश में ज्ञाति-राष्ट्र स्थापित हो। यहां यह बता देना जरूरी है कि कि भारत उस समय अनेक कुल-राज्यों (कबीलों के राज्य) में बंटा हुआ था। केवल बृज ही जो कि चौरासी कोस में सीमित है, 9 नन्दवासियों के, 7 वृष लोगों के, 2 शूरों के राज्य थे। इनके अतिरिक्त अन्धक, नव, कारपर्शव और वृष्णि भी इसी 84 कोस के भीतर राज्य करते थे। ये सब जाट थे। द्वारिका में जाति अथवा ज्ञाति-राज्य के आरम्भ में अन्धक और वृष्णि लोग शामिल हुए थे। ये दोनों ही कुल या कबीले थे। मालूम ऐसा होता है कि यादव जाति का प्रायः सारा ही समूह चाहे वे शूर, दशार्ण, भोज, कुन्तिभोज, काम्भोज कुछ भी कहलाते हों, जाति राष्ट्र के रूप में परिणत हो गया था। महाभारत के युद्ध में भी बहुत संख्या में यही लोग थे। द्वारिका के अतिरिक्त मध्यभारत, पंजाब और मगध में जाति-राष्ट्रों की स्थापना हो गई थी। महाभारत में मालवा के बिन्दु और अनुबिन्दु दो राजा शामिल हुए थे, जो जाति-राष्ट्र के ही प्रतिनिधि थे। इस तरह की ज्ञाति (संघ) सबसे अधिक 'वाहीक' देश (पंजाब, सिन्ध, गान्धार) में बनी थी2। काशीप्रसाद जायसवाल ने 'वाहीक' को नदियों का प्रदेश माना है। जो प्रदेश हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र सीमा से बाहर है, तथा जो सतलुज, व्यास, रावी, चिनाव, जेहलम और सिन्धु नदी के बीच स्थित है, उन्हें “वाहीक” कहते हैं। (महाभारत कर्ण पर्व 44 अध्याय, श्लोक 6-7)।

महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को 'वाहीक' कहा है और वाल्हीक प्रतीक का


1. भरतपुर के उत्तर में 32 मील।
2. ठाकुर देशराज लिखित जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड), पृ० 85-87।.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-98


पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे साफ है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और बृजियों तथा लिच्छवि आदि के संघ थे। यहां पर एक ऐसे राज्यवंश का भी पता चलता है जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समानवाची है जिसमें कि भगवान् महावीर पैदा हुए थे।

ज्ञाति अथवा जाति-राष्ट्रों के सम्बन्ध में “भारत शासन पद्धति” के लेखक और पटना कालिज के प्रोफेसर पं० राधाकृष्ण झा ने इस प्रकार लिखा है - “बौद्धकाल के बाद जातीय राष्ट्रों का अन्त हो गया। एक जातीय राष्ट्र दूसरे से या तो मिल-जुल गया या आपस में लड़-झगड़ कर जातीय राष्ट्र को नष्ट कर दिया।”

ठाकुर देशराज जी का मत है कि ज्ञाति संघ के सदस्यों को ज्ञात कहा जाता था और ज्ञात से जाट शब्द बना और पं० लेखराम जी ने भी जात से जाट किया है, उन्होंने यदु-यादव-जादु से जद-जात-जाट बनकर ठा० देशराज का समर्थन किया है। नेशफील्ड के अनुसार जाट शब्द यदु या जदु का ही आधुनिक हिन्दी उच्चारण है1। “क्षत्रियों का इतिहास” प्रथम भाग के लेखक श्री परमेश शर्मा एम० ए० तथा श्री राजपालसिंह शास्त्री भी इस मत से सहमत हैं। ले० रामसरूप जून ने तो जोरदार शब्दों में कहा है कि 95% जाट गोत्र ययातिवंशी हैं2कालिकारंजन कानूनगो लिखते हैं कि “जाटों से इस बात को स्वीकार कराना कि वे पुराने यादवों की सन्तान नहीं हैं, बहुत कठिन है।” ठाकुर देशराज व पं० लेखराम जी के इस मत का खण्डन करने वालों में से एक लेखक मुख्य है - कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री, लेखक “क्षत्रियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष" पृ० 258 पर। यही लेखक “भारत में जाटराज्य उर्दू” पृ० 31 पर।

हम पीछे भी लिख चुके हैं कि साहित्यिक संस्क्रुत का शब्द ज्ञात, प्राकृतिक संस्कृत में जाट व जट शब्द हो गया। स्वर्गीय जगमोहन जी वर्मा ने 'माधुरी' के पांचवें वर्ष के पहले खंड की पांचवीं संख्या में 'भाषा का विकास' नामक लेख में लिखा है कि पंजाबी (पैशाची) प्राकृत में 'ज्ञ' और 'ञ' के स्थान पर 'ज' होता है। और किसी-किसी के मत से 'त' वर्ग के स्थान में 'ट' हो जाता है। इस साक्षी के पश्चात् इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि 'ज्ञ' का 'ज' और 'त' का 'ट' हो गया। इस तरह शब्द ज्ञात का जाट बन गया। श्री आनन्दबन्धुओं ने भी माधुरी के चौथे वर्ष के दूसरे खंड की तीसरी संख्या में ऐसी ही बात लिखी थी कि प्राकृत में के स्थान पर हो जाता है। वे लिखते हैं कि - पंजाबी भाषा, हिन्दू आर्यभाषाओं के मध्य की भाषा है और यह निरी मिश्रित भाषा ही है। परन्तु लुण्डा, पंजाबी पश्छिमी हिन्दी तथा सिंधी - ये सारी भाषायें प्राकृत से निकली हैं। उदाहरण के तौर पर भक्त संस्कृत शब्द का अपभ्रंश प्राकृत में भट्ट, पच्छिमी हिन्दी में भात और सिंधी में भट है। अब इसी तरह संस्कृत शब्द ज्ञात, पच्छिमी हिन्दी जात, प्राकृत जट्ट और सिंधी (प्राकृत का सुधरा रूप) जट बन गया3। इन उदाहरणों से ठा० देशराज के मत की पुष्टि होती है। केवल कृष्ण जी के ज्ञाति संघ से ही जाट नाम प्रचलित नहीं हुआ। परन्तु समय-समय पर


1. एम० सी० प्रधान, दि पोलिटिकल सिस्टम ऑफ दी जाट्स ऑफ नार्दर्न इण्डिया - पृ० 3.
2. लेफ्टिनेंट रामसरूप जून, लेखक जाट इतिहास, पृ० 20 पर।
3. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड पृ० 68-69, लेखक ठाकुर देशराज।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-99


और भी संघों (गणों) अथवा व्यक्ति और स्थान के नाम पर जट वंश प्रचलित हुए जिनका वर्णन अगले पृष्ठों में किया जायेगा।

9.

“ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज एण्ड अवध” में लेखक मिस्टर डब्ल्यू कुर्क साहब लिखते हैं - “दक्षिणी पूर्वी प्रान्तों के जाट अपने को दो भागों में विभक्त करते हैं - शिवगोत्री या शिव के वंशज और कश्यपगोत्री।” इससे यह नतीजा तो नहीं निकालना चाहिए कि शिवि लोग ही जाट हैं। हां, यह अवश्य है कि शिवि लोग भी महान् जाट जाति का एक अंग हैं। इसी तरह कश्यपगोत्री भी हैं।

10.

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महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी - कई एक विद्वानों का मत है कि द्वापर के अन्तकाल तक भारत में किसी भी जाति का निर्माण नहीं हुआ था। देश के शासक और शासित अपना परिचय वंशों के नाम उच्चारण करके देते थे। बौद्धकाल से पूर्व, चारों वर्णों को नियन्त्रण में रखने वाले सम्राट् और उनके अधीन राजागण पारस्परिक राग-द्वेष में विनष्ट हो जाने के कारण तथा चार आश्रमों के व्यवस्थापक परिपूर्ण-सन्यासी के त्यागी भावों की समाप्ति से प्राचीन वैदिक धर्म पतन के अथाह गर्त में गिर गया। ब्राह्मणों ने देश के राजनैतिक एवं धार्मिक क्षेत्र पर अपना एकाधिपत्य स्थिर कर लिया था। भारतीय समाज की इस विरूपता के साथ जहां वैदिक विधि विधानों में अन्तर आया, वहां वेद की भाषा का रूप द्वापरान्त तक साधारण संस्कृत से इस युग में प्राकृत होने जा रहा था। भाषा विषयक लिखित नियमों का कोई संग्रह न था। इस प्रकार भाषा क्षेत्र में अन्धकार था। उस समय युधिष्ठिर से 800 वर्ष पश्चात् आज से लगभग साढे चार हजार वर्ष पूर्व सिंध के अधीन प्रान्त गांधार के व्याकरणसूर्य महर्षि पाणिनि का जन्म हुआ। वे चन्द्रगुप्त के समकालीन व्याडि और शौनक ऋषि से 11 गुरुपीढी पहले पदम मुनि के समय में हुये थे और पदम मुनि युधिष्ठिर की 8वीं शताब्दी में हुये थे।

उन्होंने अपने समय तक के संस्कृत भाषा के सम्पूर्ण शब्दों की व्युत्पत्ति एवं अर्थबोधक एक व्याकरण की रचना की जिसका नाम अष्टाध्यायी है। इस संक्षिप्त सी पुस्तक पर महर्षि पतञ्जलि ने इतने विशाल भाष्य की रचना की कि यह ग्रन्थ ही महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया। पाणिनि ने अपने समय के प्रचलित शब्दों और प्रायः प्रत्येक राजनैतिक संघ का अनेक स्थलों पर वर्णन किया है। इसी कारण विद्वानों का मत है कि “पाणिनि धार्मिक की अपेक्षा राजनैतिक बुद्धि का ऋषि था।” तदनुसार अष्टाध्यायी के भ्वादिगण में एक परस्मैपदी धातु लिखी गई - जट झट संघाते - अर्थात् जट शब्द समूह के लिए प्रयुक्त होता है। इस धातु से “जट” शब्द का अर्थ है कि “जिसके द्वारा या जिसमें बिखरी हुई शक्तियां एकत्र हो जायें।” जट का ही दूसरा रूप जाट है, यह दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। जट शब्द से जाट जिस प्रकार बन जाता है यह (देखो द्वितीय अध्याय में)। जट संघ का रूप भी उस समय तक ऐसा ही था। उसमें धार्मिक दासताओं से दूर रहकर देश की राजनीति में पुनः क्षात्रधर्म की प्रतिष्ठा करने के लिए प्रमुख राज्यवंशों का सुदृढ संगठन किया हुआ था। जैसा कि ब्रिटिशकालीन नरेशों का संगठन नरेन्द्र मण्डल था। राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने में इस जट-संघ ने निर्विवाद रूप से युगान्तरकारी कार्य किये। इस जट संघ के उद्देश्य एवं संगठन अवश्य ही आदर्श रहे हैं तभी तो पाणिनि ने संघ का सम्पूर्ण अर्थबोध कराने के लिए उदाहरण देने को “जट” शब्द ही चुना। महात्मा बुद्ध ने अपना धर्मप्रचार करने के लिए देश के राजनैतिक संघों


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-100


को धर्म संघों में बदल देने का निरन्तर प्रयास किया। बौद्ध धर्म की यह विचारधारा संघ को उचित प्रतीत हुई इसलिए वे सब संघ रूप से बौद्ध हो गए किन्तु यह उनका धर्म था - राजनैतिक दलबन्दी भी बराबर बनी ही रही। यही दलबन्दियां बाद में जाति नाम धारण करती गईं। जट-संघ का संगठन भी शनैः-शनैः हुआ। इसलिए भारत के राजनैतिक रंगमंच पर ये जाट नाम से अचानक नहीं चमके। बहुत समय उदय-विकास में व्यतीत होने का कारण केवल यही माना जा सकता है कि क्रमशः नए-नए सम्प्रदाय प्रवर्तित होते चले गए। उन सबने भरसक यही प्रयत्न किया कि धर्म के नाम पर जाति का सम्बन्ध मिटकर प्रेमभाव का विस्तार हो। यही कारण था कि मौर्य, कुषाण, गुप्त एवं वैस सम्राटों ने अपने धर्म की आज्ञाओं के सामने अपने जाति संघ के नाम को महत्त्व नहीं दिया, जबकि वे जाट थे। उनके वंश (गोत्र) और वंशधर आज भी जाटों में ही हैं। इसका समीपी उदाहरण पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह का जाटराज्य है, जिसे सब ही इतिहासकारों ने सिक्ख राज्य लिखा।

सारांश यह है कि पाणिनि के व्याकरण में जट शब्द आने से स्पष्ट पता चलता है कि अब से साढे चार हजार वर्ष पहले जट (जाट) शब्द प्रसिद्ध हो चुका था। इसके बाद बराबर जाट शब्द का प्रयोग होता रहा है जिसके हमें कई उदाहरण मिलते रहे हैं। ईसा से 800 वर्ष पहले देहली में जीवनसिंह जाट का पूर्वज राजा वीरमहा जाट राज करता था। भगवान् महावीर का खानदान ज्ञातृ और (ञात) णांत के नाम से प्रसिद्ध था। ज्ञातृ तो उसी संस्कृत भाषा के ज्ञात का रूपान्तर है और णांत सिर्फ बोलचाल का अन्तर है। मागधी प्राकृत णांत का हिन्दी जाट ही होता है। इसे भाषा-शास्त्री अच्छी तरह से जानते हैं। उत्तरी प्राकृत के सिद्धान्त से ज्ञ, न, ण और ज अपढों की भाषा में परस्पर बदल जाते हैं। इसके बाद अभिधान जातक, मणि मेखले ग्रन्थ और चन्द्र के व्याकरण में भी हम जाट शब्द का प्रयोग पाते हैं।

11.

जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा और भी कही जाती है। वह इस तरह से है कि “महादेव जी के श्वसुर दक्ष, जो कनखल1 के राजा थे, ने यज्ञ रचा और प्रायः सब देवताओं, ऋषियों और राजाओं को तो यज्ञ में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया, परन्तु न तो महादेव जी को ही बुलाया और न अपनी पुत्री सती को ही निमन्त्रित किया। उस समय शिवजी महाराज ऋषिकेश से 2 या 3 मील नीचे गंगा के किनारे योगाभ्यास कर रहे थे और सती जी उनके साथ थी2। पिता का यज्ञ समझकर सती बिना बुलाये ही पहुंच गई। किन्तु जब वहां उसने देखा कि यज्ञ में न तो उसके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका आदर सत्कार ही किया गया है, यह दुःख मानकर सती यज्ञ अग्नि में कूद गई और वहीं पर जलकर मर गई। महादेव जी को जब यह समाचार मिला तो क्रोध में आकर उसने अपनी एक जटा को उखाड़कर पर्वत पर दे मारा जिसके दो टुकड़े हो गए। एक टुकड़े में से वीरभद्र नामक योद्धा और दूसरे में से सेना उत्पन्न हुई। महादेव जी ने वीरभद्र को दक्ष और उसके साथियों को दण्ड देने का आदेश दिया। वीरभद्र अपने गणों के साथ कनखल पहुंचा और राजा दक्ष का सिर काट दिया और उसके साथियों को भी


1. हरद्वार के निकट।
2. यह स्थान हरद्वार से लगभग 14 मील पर है।


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कठोर दण्ड दिया3। शिव जी की जटा से उत्पन्न होने से जाट कहलाये।” (यह कथा शिव पुराण अध्याय 25 में से है)

यह कथा किम्वदन्ती के रूप में ही नहीं रही है, किन्तु संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गई है जो देवसंहिता के नाम से है। उस पुस्तक में लिखा है कि विष्णु ने आकर के शिवजी को प्रसन्न करके उनके वरदान से दक्ष को जीवित किया और दक्ष शिवजी में समझौता कराने के बाद शिवजी से प्रार्थना की कि महाराज! आप अपने मतानुयायी जाटों का यज्ञोपवीत संस्कार क्यों नहीं करा लेते? ताकि हमारे भक्त वैष्णव और आपके भक्तों में कोई झगड़ा न रहे। लेकिन शिवजी ने विष्णु की इस प्रार्थना पर यह उत्तर दिया कि मेरे अनुयायी ही प्रधान हैं।

देवसंहिता के कुछेक श्लोक निम्न प्रकार हैं -

पार्वत्युवाच

भगवन् सर्वभूतेश ! सर्वधर्मविदांवरः !

कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम्।।12।।

अर्थ पार्वती ने कहा - हे भगवन्! हे भूतेश! हे सर्वधर्मविशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन् ! आप कृपा करके मेरे ताईं जट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिए।।12।।

का च माता पिता ह्येषां का जातिर्वद किं कुलम्।

कस्मिन् काले शुभे जाता प्रश्नानेतान् वद प्रभो! ॥13॥

अर्थ - हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है? ॥13॥

श्रीमहादेव उवाच

श्रृणु देवि जगद्वन्द्ये सत्यं सत्यं वदामि ते ।

जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्वप्रकाशितं ॥14॥

अर्थ - श्री महादेवजी ने पार्वती से कहा कि हे जगजननी भगवती ! जाट जाति के जन्म कर्म के विषय में उस सत्यता का वर्णन करता हूं जो अभी तक किसी ने प्रकाशित नहीं की ॥14॥

महाबला महावीर्या महासत्व पराक्रमाः ।

सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्टा देवकल्पा दृढ़व्रताः ॥15॥

अर्थ - शिवजी बोले कि जट्ट महाबली, अत्यन्त वीर्यवान् और प्रचण्ड पराक्रमी हैं। सम्पूर्ण क्षत्रियों में यही जाति सर्वप्रथम पृथ्वी पर शासक हुई। ये देवताओं के समान दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं ॥15॥

सृष्टेरादौ महामाये वीरभद्रस्य शक्तितः।

कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी ॥16॥


3. आज भी दक्ष प्रजापति मन्दिर कनखल में है जिसकी दीवारों पर इस घटना में मरे व कटे अंगों के मनुष्यों के चित्र हैं। मन्दिर के पुजारी यात्रियों को यह घटना बताया करते हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-102


अर्थ - सृष्टि के आदि में वीरभद्र की योगमाया के प्रभाव से दक्ष की कन्याओं से जाटों की उत्पत्ति हुई। ॥16॥

गर्वखर्वोऽत्र विप्राणां देवानां च महेश्वरी।

विचित्रं विस्मयं सत्यं पौराणिकैः संगोपितम् ॥17॥

अर्थ - शंकरजी बोले हे देवि ! जट्ट जाति का इतिहास अत्यन्त विचित्र एवं आश्चर्यमय है। इनके इस शानदार इतिहास से ब्राह्मणों और देवताओं के मिथ्याभिमान का विनाश होता है, इसीलिए इस जाति के इतिहास को पौराणिकों ने अभी तक छिपाया हुआ था। ॥17॥

ऊपरलिखित कथा के अनुसार जटा से वीरभद्र व सेना (गण) उत्पन्न होना असम्भव बात है और वरदान से मरे हुए राजा दक्ष का जीवित होना असम्भव है, ये सृष्टि नियम के विरुद्ध बातें हैं। वास्तव में बात यह है कि शिवजी महाराज का राज्य कैलाश पर्वत से काशी तक जिसमें शिवालक (शिवजी की जटायें - राज्य की जटायें) पहाड़ी क्षेत्र और हरद्वार शामिल थे।

उसी समय पुरुवंशी राजा वीरभद्र हरद्वार के निकट तलखापुर का राजा था। यह क्षेत्र भी शिव की जटा कहलाता था। राजा वीरभद्र शिवजी का अनुयायी था। शिवजी महाराज को जब सती के मरने का समाचार मिला तो वे राजा वीरभद्र के दरबार में पहुंचे और क्रोध में आकर उसके सामने अपनी जटा खसोट डाली और वीरभद्र को, दोषी राजा दक्ष को दण्ड देने का आदेश दिया। राजा वीरभद्र ने अपनी सेना तथा गणों को लेकर कनखल पर चढाई कर दी और दक्ष को मार दिया। आज भी उस महान् योद्धा वीरभद्र के उस स्थान पर, उसके नाम का एक रेलवे स्टेशन वीरभद्र है जो हरद्वार से ऋषिकेश को जाने वाली रेलवे लाइन पर ऋषिकेश से दो मील पहले है। इस वीरभद्र नाम के स्थान पर भारत सरकार ने दवाइयां बनाने का एक बड़ा कारखाना स्थापित कर रखा है। राजा वीरभद्र का राज्य वह स्थान था, जहां पर गंगा नदी पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्र में बहने लगती है । पुराणों की कथानुसार गंगा का निकास शिव की जटाओं से है। इसका अर्थ भी साफ है कि शिवजी के राज्य की जटाओं या पहाड़ियों से सम्राट् भगीरथ खोदकर इस गंगा को लाया था और वह पहाड़ियों से बहती हुई हरद्वार में आकर मैदान में बहने लगती है। लगे हाथों जाटगंगा का वर्णन करना उचित है जो इस प्रकार से है –

भैरों घाटी जो कि गंगोत्री से 6 मील नीचे को है, यहां पर ऊपर पहाड़ों से भागीरथी गंगा उत्तर-पूर्व की ओर से और नीलगंगा (जाटगंगा) उत्तर पश्चिम की ओर से आकर दोनों मिलती हैं। इन दोनों के मिलाप के बीच के शुष्क स्थान को ही भैरों घाटी कहते हैं। जाटगंगा के दाहिने किनारे को 'लंका' कहते हैं। इस जाटगंगा का पानी इतना शुद्ध है कि इसमें रेत का कोई अणु नहीं है। भागीरथी का पानी मिट्टी वाला है। दोनों के मिलाप के बाद भी दोनों के पानी बहुत दूर तक अलग-अलग दिखाई देते हैं। जाटगंगा का पानी साफ व नीला है इसलिए इसको नीलगंगा कहते हैं। महात्माओं और साधुओं का कहना है कि भागीरथी गंगा तो सम्राट् भगीरथ ने खोदकर निकाली थी और इस नीलगंगा को जाट खोदकर लाये थे इसलिए इसका नाम जाटगंगा है। इसके उत्तरी भाग पर जाट रहते हैं। इस कारण भी इसको जाटगंगा कहते हैं। इस जाट बस्ती को, चीन के युद्ध के समय, भारत सरकार ने, वहां से उठाकर सेना डाल दी और जाटों को, हरसल गांव के पास, भूमि के


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बदले भूमि देकर आबाद किया। जाटों ने यहां गंगा के किनारे अपना गांव बसाया जिसका नाम बघौरी रखा। यह गांव गंगा के किनारे-किनारे लगभग 300 मीटर तक बसा हुआ है जिसमें लगभग 250 घर हैं। लोग बिल्कुल आर्य नस्ल के हैं। स्त्री-पुरुष और बच्चे बहुत सुन्दर हैं। ये लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं। इनके गांव में बौद्ध मन्दिर है। ये लोग भेड़ बकरियां पालते हैं। और तिब्बत से ऊन का व्यापार करते हैं। ये अपने घरों में ऊनी कपड़े बुनते हैं।1

नोट - हरसल गांव दोनों गंगाओं के मिलाप से लगभग 7 मील नीचे को गंगा के दाहिने किनारे पर है। बघौरी गांव हरसल से लगा हुआ है2

जटाओं से उत्पन्न हुए वीरभद्र आदि गणों को जाट मान लेने की कथा के अन्दर जो ऐतिहासिक तत्त्व छिपा हुआ है, वह यह है –

चन्द्रवंशी सम्राट ययाति के पुत्र अनु की 9वीं पीढी में राजा उशीनर जिसके कई पुत्रों में एक का नाम शिवि था (देखो प्रथम अध्याय, अनु की वंशावली)। इसी प्रसिद्ध दानी सम्राट् शिवि से शिविवंश प्रचलित हुआ जो कि जाटवंश (गोत्र) है। इस चन्द्रवंशी शिवि जाटवंश का विस्तार से वर्णन तृतीय अध्याय में लिखा जायेगा।

पुरुवंशी राजा वीरभद्र जाट राजा था जिसके शिविवंशी गण (संघ) शिव की जटा (शिवालक पहाड़ियों) में थे। इसकी राजधानी हरद्वार के निकट तलखापुर थी। शिवपुराण में लिखा है कि वीरभद्र की संतान से बड़े-बड़े जाट गोत्र प्रचलित हुए

वीरभद्र की वंशावली राणा धौलपुर जाट नरेश के राजवंश इतिहास से ली गई है जो निम्नलिखित हैं।

राजा वीरभद्र के 5 पुत्र और 2 पौत्रों से जो जाटवंश चले (जाट इतिहास पृ० 83 लेखक लेफ्टिनेंट रामसरूप जून) -

ययाति
वीरभद्र

(1) पौनभद्र (पौनिया या पूनिया गोत्र) (2) कल्हनभद्र (कल्हन गोत्र) (3) अतिसुरभद्र (अंजना गोत्र) (4) जखभद्र (जाखड़ गोत्र) (5) ब्रह्मभद्र (भिमरौलिया गोत्र) (6) दहीभद्र (दहिया गोत्र)


1, 2. उत्तराखण्ड हिमालय के प्रसिद्ध योगी संसार की योग संस्थान के अध्यक्ष श्री योगेश्वरानन्द जी महाराज (ब्रह्मचारी व्यासदेव जी) के शिष्य ब्रह्मचारी सदाराम योगाचार्य ग्राम लोहारहेड़ी जिला रोहतक (हरयाणा) ने यह वर्णन मुझे मौखिक बताया। वह वहां पर काफी समय तक रहकर आये हैं। (लेखक)


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  1. पौनभद्र के नाम से पौनिया (पूनिया) गोत्र चला। यह जाट गोत्र हरयाणा, राजस्थान, बृज, उत्तरप्रदेश, पंजाब तथा पाकिस्तान में फैला हुआ है।
  2. कल्हनभद्र के नाम से कल्हन जाट गोत्र प्रचलित हुआ। इस गोत्र के जाट काठियावाड़ एवं गुजरात में हैं।
  3. अतिसुरभद्र के नाम से अंजना जाट गोत्र प्रचलित हुआ। ये लोग मालवा, मेवाड़ और पाकिस्तान में हैं।
  4. जखभद्र के नाम से जाखड़ जाट गोत्र चला। ये लोग हरयाणा, राजस्थान, पंजाब, कश्मीर और पाकिस्तान में फैले हुए हैं।
  5. ब्रह्मभद्र के नाम से भिमरौलिया जाट गोत्र चला। जाट राणा धौलपुर इसी गोत्र के थे। धौलपुर की राजवंशावली में वीरभद्र से लेकर धौलपुर के नरेशों तक सब राजाओं के नाम लिखे हुए हैं। इस जाट गोत्र के लोग हरयाणा, हरद्वार क्षेत्र, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान में हैं।
  6. दहीभद्र से दहिया जाट गोत्र प्रचलित हुआ। दहिया जाट हरयाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब तथा मध्य एशिया में फैले हुए हैं।
नोट - ऊपरलिखित नामों पर, चन्द्रवंशी क्षत्रिय आर्यों के संघ से ये जाट गोत्र प्रचलित हुए।

जट व जाट शब्दों की प्राचीनता

(1) व्याकरणभास्कर महर्षि पाणिनि जी रचित धातुपाठ में जट व जाट शब्दों की विद्यमानता इसका एक अकाट्य प्रमाण है। धातुपाठ में इन शब्दों की विद्यमानता का उल्लेख कर दिया गया है।

(2) इसके अतिरिक्त देवसंहिता के कुछ श्लोक लिख दिए गए हैं जिनमें यह भी लिखा है कि जट्ट महाबली, अत्यन्त वीर्यवान् और प्रचण्ड प्राक्रमी हैं। सम्पूर्ण क्षत्रियों में यही जाति सर्वप्रथम पृथ्वी पर शासक हुई। ये देवताओं के समान दृढप्रतिज्ञा वाले हैं।

इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाण निम्न प्रकार से हैं -

(3) शिवस्तोत्र एक प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें कि शिव परमात्मा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है। यह शिवस्तोत्र महाभारत ग्रन्थ के शल्य पर्व में भी उद्धृत है, उसमें परमात्मा व परमेश्वर का एक नाम जट भी है जो 489वीं संख्या पर आया हुआ है। महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 89 में अंकित है कि महानख, महारोग, महाकोश, प्रसन्न, महाजट, प्रसाद, प्रत्यय, गिरिसाधन - यह शिव परमात्मा के नाम हैं। यह संख्या 486 से प्रारम्भ होकर 493 पर समाप्त होती है। महा विशेषण है कि असली नाम जट ही है क्योंकि परमात्मा नित्य है इसलिए उसका नाम जट भी नित्य ही हो सकता है।

(4) एक प्राचीन गाथा है कि श्री ब्रह्मा जी ने स्वामिकार्तिकेय को सब प्राणियों का सेनापति निश्चित करके उनको उस पद पर अभिषिक्त किया था। अभिषेक के समय स्वामिकार्तिकेय को विविधजनों ने विविध वस्तुयें भेंट में दी थीं। उनमें एक जट नामक सब सेनाध्यक्षों का अधिपति भी था। इस कथा का उल्लेख महाभारत नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के शल्य पर्व में 44 और 45वें अध्यायों में हुआ है। महाभारत शल्य पर्व अध्याय 45 श्लोक 53-58 में


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अंकित है कि -

“हे राजन्! अज्ञ, अन्तर्जन, कुन्दीक, तमोन्न्कृत, घ्राणश्रवा, कपिस्कन्ध, कांचनाक्ष, एकाक्ष, द्वाद्वशाक्ष और एक 'जट' सबका प्रभु अर्थात् अध्यक्ष (स्वामिकार्तिकेय) को भेंट में दिये गये।”

(5) हिन्दुओं का एक बड़ा समूह मानता है कि ब्रह्मा जी आदि सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे। और आज सन् 1988 ई० (वि० संवत् 2045) में सृष्टि की उत्पत्ति को 1,96,08,53,088 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। यह तो स्पष्ट है, इस कथा का सम्बन्ध ब्रह्मा जी से है, इसलिए 'जट' नामक सेनापति को लगभग उतना ही समय हो चुका, जितना कि ब्रह्मा जी को। सम्राट् जाट बड़े प्रबल तथा प्रतापी नरेश थे। उनके नाम पर उनके यादव वंश का दूसरा नाम जाट पड़ गया था। सम्राट् जाट, योगिराज श्रीकृष्ण महाराज से पूर्व अड़तीसवीं पीढ़ी में उनके पूर्वजों में से थे। इससे पाठकगण जाट शब्द की प्राचीनता का स्वयं अनुमान लगा लेवें। (जाट इतिहास, पृ० 3-5, सम्पादक निरंजनसिंह चौधरी, जाट हितकारी प्रकाशन, गोपीनाथ बाजार, वृन्दावन)।

जाटवीरों की उत्पत्ति के विषय में अनेक इतिहासकारों और विद्वानों के मत लिख दिए हैं। कुछ इतिहासज्ञ, जिनमें कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री मुख्य हैं, ने पीछे लिखे विद्वानों के सभी मतों का खण्डन करके केवल पाणिनि ऋषि की अष्टाध्यायी में लिखा 'जट' से 'जाट' शब्द बन जाना माना है। (कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री लिखित पुस्तक “जाटों का उतकर्ष” पृ० 258-260, एवं जाट क्षत्रिय इतिहास उर्दू पृ० 33)। उनके विचार से जाट शब्द इससे पहले नहीं था तथा जातियां भी महाभारत काल के पश्चात् बनीं।

हमारा विचार यह है कि महर्षि पाणिनि ने जब अपने समय के प्रचलित शब्दों और प्रत्येक राजनैतिक संघ का वर्णन लिखा जिसमें 'जट' शब्द को महत्व दिया है तो साफ है कि 'जट' या 'जाट' शब्द पहले से प्रचलित था। जाट शब्द कब से और कैसे प्रचलित हुआ इस विषय में कोई प्रमाणित तिथि व वर्ष तो नहीं मिलता है परन्तु जाट शब्द तो भिन्न-भिन्न समय में आया है जिसके कुछ संक्षिप्त उदाहरण निम्नलिखित हैं -

  • 1. जाट जाति आदि सृष्टि से है जैसा कि शिवजी महाराज ने पार्वती को बतलाया कि “जाट जाति सम्पूर्ण क्षत्रियों में सर्वप्रथम पृथ्वी पर शासक हुई।” (देवसंहिता श्लोक 15 पृ० 102 पर देखो)।
  • 2. श्रीमदाचार्य श्रीनिवासाचार्य महाराज लिखित 'जाट इतिहास' पुस्तक के पृ० 14 पर लिखा है कि “यदु और यदुओं के वंशज जाटों का इस भूमि पर एक अरब चौरानवें करोड़ वर्ष से शासन है।” आगे यही महाशय पृष्ठ 15 पर लिखते हैं कि “यदु के वंशज कुछ समय तो यदु के नाम से प्रसिद्ध थे, किन्तु भाषा में 'य' को 'ज' बोले जाने के कारण जदू-जद्दू-जट्टू-जाट कहलाये। कुछ लोगों ने अपने को 'यायात' (ययातेः पुत्राः यायाताः) कहना प्रारम्भ किया जो 'जाजात' दो समानाक्षरों का पास ही में सन्निवेश हो तो एक नष्ट हो जाता है अतः 'जात', फिर 'जाट' हुआ।”
  • 3. सिन्ध मुजमिल-अल-तवारीख वाकात-ए-पंज हजारी साला का हवाला देकर ले० रामसरूप जून ने जाट इतिहास अंग्रेजी अनुवाद पृ० 6 पर लिखा है कि “दुर्योधन के शासन से 5000 वर्ष पूर्व मांडा जाट सिन्ध में उन्नति के पथ पर थे।”

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  • 4. महाभारत काल में सिन्धु नदी के आस-पास जाटों का निवास था। इस समय सिन्ध में मूलतः जट (प्राकृत जट्ट, संस्कृत जर्त = जाट) और मांडा जाट नामक दो वंशों का राज्य था। दोनों का घमासान युद्ध हुआ। अन्त में उन्होंने संयुक्त प्रस्ताव महाराज दुर्योधन को भेजा जिसमें मांग की गई कि किसी को सिन्ध का प्रशासक बनाकर भेज दो। सम्राट् दुर्योधन ने अपनी बहिन दुःशला को सिन्ध का प्रशासन सौंप दिया। दुःशला एवं उसके पति जयद्रथ ने सिंध पर राज्य किया। (मुजमिल-अल-तवारीख) का हवाला देकर जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 40-41, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा, जाट इतिहास पृ० 13, लेखक कालिकारंजन कानूनगो)
नोट - अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस लेखक उजागरसिंह माहिल ने पृ० 4-6 पर प्रमाणों से सिद्ध किया है कि मेद (Mede) शब्द भाषाविज्ञान रीति से अशुद्ध है। जब भी किसी प्राचीन वा नवीन साहित्य में यह शब्द (Mede) आये तो इसका अर्थ मांडा जाट (Manda Jat) समझना चाहिए।
अतः महाभारत काल में सिन्ध में दो जाटवंशों का राज्य था जिनमें से एक मांड (Manda Empire) स्थापित किया। इसका वर्णन चौथे अध्याय में किया जायेगा।
  • 7. अर्जुन के साथ द्वारका से आने वाले यादवकुलीन जाटों (जर्त या जर्तृ) का समूह था और यह परिवार घुमक्कड़ कबीलों के रूप में भारतीय सीमाओं के बाहर इधर-उधर बिखर गए। (क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग पृ० 30 लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री)।
  • 8. 7700 ई० पू० में मध्य एशिया में जाटों का निवास एवं शक्ति थी (‘रेसिज ऑफ मेनका-इण्ड’ पृ० 228-29 लेखक कलविन केफर्ट)। इसका पूरा वर्णन चतुर्थ अध्याय, सीथिया तथा मध्य एशिया में जाटों का राज्य प्रकरण में किया जायेगा।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि पाणिनि ऋषि से पहले जाट शब्द था और प्राचीन समय से था। परन्तु व्यवहार में कम ही आया। हां! महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी बनने पर 'जट' शब्द या 'जाट जाति' का नाम खुलकर संसार के सामने आ गया, जो पहले उनके वंसों के नाम से जाने जाते थे। महर्षि पाणिनि के समय के पश्चात् देश-विदेश के इतिहासकारों ने ‘जाट शब्द’ एवं ‘जाट जाति’ का उल्लेख खुलकर किया है। इनके उदाहरण देश-विदेशों में जाट राज्य के अध्याय में दिए जायेंगे।

जाट जाति क्षत्रिय आर्यों तथा उनके राजवंशों के सम्मिलन से बना संघ (गण) है। इसकी पुष्टि में पाणिनि ने 5/3/114 से 117 तक वाहीक देश के वंसों के सम्बन्ध में तद्धित के नियम दिये हैं। इन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्यजाति तथा राजवंशों के सम्मिलन से संघ स्थापित होते थे।

जाट जाति आदि सृष्टि से इन ही संघों के रूप में उत्पन्न हुई और ये संघ, वंशों के नाम से


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प्रसिद्ध हुए। ये जाटवंश व्यक्ति, देश या स्थान, काल (समय), उपाधि और भाषा के नाम पर प्रचलित हुए। (देखो प्रथम अध्याय, वंशप्रचलन प्रकरण)।

जाटवंशों का निर्माण तथा देश विदेशों में इनका राज्य आदिसृष्टि या वैदिककाल से रामायण काल, महाभारत काल, बौद्ध काल तथा वर्तमान काल तक होता आया है। संसार के द्वीपों में जाटों ने अपने नाम पर अनेक देश, बस्तियां, नगर, दुर्ग आदि बनाए। बहुत से नदियां, पर्वत तथा प्रान्त इनके नाम पर थे और आज भी कुछ हैं। इन सब बातों के बारे में अध्याय 3 एवं 4 में लिखा जायेगा।

आदि सृष्टि में ईश्वर ने अनेक मनुष्य उत्पन्न किये। वे सब एक ही मनुष्य या मानव जाति हैं। वैदिक काल में वेदों के अनुसार मनुष्यमात्र प्रथम दो भागों में विभक्त हो गये - आर्य और दस्यु। आर्य नाम धार्मिक, विद्वान्, श्रेष्ट और आप्त पुरुषों का और इससे विपरीतजनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् हुआ। इसके कुछ समय के पश्चात् स्वायम्भव मनु ने वेदों के आधार पर आर्यों के चार वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मनुष्यों के गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार बनाये। यह वर्ण-व्यवस्था सामाजिक संगठन भली-भांति स्थिर रखने हेतु आरम्भ की गई। उस समय वर्ण बदले जा सकते थे। शूद्र ब्राह्मण के कर्म करने से ब्राह्मण, और शूद्र के कर्म करने से ब्राह्मण भी शूद्र बन जाता था1

वर्ण बनने पर शासन की बागडोर क्षत्रिय आर्यों के हाथ में आ गई। प्रसिद्ध सम्राटों व ऋषियों के नाम पर आर्यों के संघों के वंश वैदिक काल से प्रचलित होने लगे और वर्तमान काल तक होते आये हैं। इसका पूर्ण विवरण अध्याय 3 और एकादश अध्याय में लिखा जायेगा। यहां कुछ उदाहरण दिये जाते हैं -

केवल जाटवंश ही लिखे जाते हैं। आदि सृष्टि से बड़े-बड़े 3 वंश प्रचलित हुए -
  1. ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम अत्रि था। उसका पुत्र चन्द्र (सोम) था। उसके नाम से चन्द्रवंश प्रचलित हुआ।
  2. ब्रह्मा का पुत्र मरीचि था जिसके पौत्र जिसके पौत्र विवस्मान् से सूर्यवंश चला।
  3. नागवंश - चन्द्रवंशी सम्राट् आयु की नवीं पीढी में एलरवा के पुत्र नगस से नागवंश की उत्पत्ति हुई। प्रजापति दक्ष की कन्या सरमा, जो सूर्यवंशी कश्यप की पत्नी थी, से नाग जाति का पुत्र उत्पन्न हुआ, जिससे नागवंश प्रचलित हुआ।

जाटवंश (गोत्र) इन तीनों वंशों के हैं। ले० रामस्वरूप जून जाट इतिहास पृ० 20 पर लिखते हैं कि 95 प्रतिशत जाट गोत्र चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के वंशज हैं। हमारा भी मत यही है कि अधिकतर जाटवंश (गोत्र) ययाति तथा उसके पांचों पुत्रों के वंशज हैं। परन्तु जाट गोत्र सूर्यवंशी तथा नागवंशी भी हैं। इसी तरह जाटवंश वैदिक, रामायण, महाभारत, बौद्धकाल में बनते रहे और बहुत से जाटवंशों के शाखा-गोत्र भी समय समय पर बने। जैसे वैदिक काल में सम्राट् ययाति के पुत्र तुर्वसु से तंवर जाटवंश प्रचलित हुआ। वर्तमान काल में इस तंवर वंश की बड़ी-बड़ी शाखायें हैं। जैसे - ठेनुआ, चाबुक, रावत, आन्तल, सराव, भिण्ड, तंवर, सहरावत और जंघारा आदि। इसी तरह के बहुत उदाहरण हैं जो उचित स्थान पर लिखे जायेंगे। इस तरह से जाट गोत्रों की बढौतरी होती गई। काफी खोज करके हमने 2500 जाट गोत्रों के


1. शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ॥ (मनुस्मृति 10-65)


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नाम लिखे हैं। ये आज भी विद्यमान हैं। (देखो जाट गोत्रावली)

सारांश -

1. प्रश्न - जाट की परिभाषा क्या है?

उत्तर - जाट वह नस्ल है जो कि क्षत्रिय आर्यों तथा उनके राजवंशों के सम्मिलन से बना संघ है जो वंशों (गोत्रों) के नाम से प्रसिद्ध है।

2. प्रश्न - जाट गोत्रों की उत्पत्ति कब हुई?

उत्तर - आदि सृष्टि या वैदिक काल, रामायण काल, महाभारत काल, बौद्धकाल तथा वर्तमान काल में बड़े-बड़े जाटवंश (गोत्र) एवं शाखा-गोत्र प्रचलित हुए।

3. प्रश्न - तब फिर जाट जाति तथा उसके सब गोत्र एक ही रक्त के कैसे हुए?

उत्तर - समय-समय पर बने जाटवंश क्षत्रिय आर्यों के वंशज हैं। आदिकाल में धार्मिक, विद्वान्, श्रेष्ठ मनुष्यों का नाम आर्य हुआ। आर्यों के चार वर्णों में एक क्षत्रिय वर्ण बना जो क्षत्रिय आर्य कहे गये। सब के सब जाटवंश (गोत्र) के मनुष्यों की रगों में उन ही श्रेष्ठ क्षत्रिय आर्यों का रक्त बह रहा है। सो उत्तर साफ है कि सब जाट गोत्र एक ही रक्त के हैं।

4. प्रश्न - प्रतिष्ठा या सम्मान के अनुसार कौन सा जाट गोत्र सब अन्य जाट गोत्रों से बड़ा (ऊँचा) है?

उत्तर - सम्मान के अनुसार सब जाट गोत्र बराबर हैं चाहे वह किसी भी प्रान्त में रहते हों। सभी गोत्रों की आपस में रोटी बेटी लेने-देने में कोई अन्तर नहीं है। एक जाट गोत्र का मनुष्य किसी भी दूसरे जाट गोत्र के मनुष्य को यह नहीं कह सकता कि तुम्हारा गोत्र हमारे गोत्र से घटिया है इसलिए तुम्हारा रिश्ता नहीं ले सकते। यह जाटों में ही एक महान् विशेषता है। हां! जाट गोत्र संख्या के अनुसार कम या अधिक अवश्य हैं। जैसे पूनिया गोत्र के जाटों की संख्या अन्य जाट गोत्रों की अलग-अलग जनसंख्या से अधिक है। अब इससे आगे जाटों को आर्य सिद्ध करने के प्रमाण लिखते हैं।

जाट आर्य हैं - इस विषय में देशी व विदेशी इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न मत निम्न प्रकार से हैं -

जाट आर्य हैं

1.

यह पिछले पृष्ठों पर लिखा गया है कि पाणिनि ऋषि ने अपने धातुपाठ के भ्वादिगण में एक परमैस्पद धातु लिखी है - जट झट संघाते - अर्थात् जट शब्द समूह के लिए प्रयुक्त होता है। इस धातु में 'जट' शब्द का अर्थ है कि जिसके द्वारा या जिसमें बिखरी हुई शक्तियां एकत्र हो जायें। जट का दूसरा रूप जाट है। ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। यह जाट संघ (गण) आर्य राजवंश के क्षत्रियों के संगठन से बने, जो आर्य थे। इसके कुछ उदाहरण उन जाट गोत्रों (वंशों) के दिए गए हैं जो चन्द्रवंशी


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आर्य चक्रवर्ती सम्रआट् ययाति के वंशज हैं और कुछ Suryavansh|सूर्यवंशी]] तथा नागवंशी आर्य सम्राटों के वंशज1। अधिकतर जाट गोत्र चन्द्रवंशी यानि ययाति वंशी हैं जिनके उदाहरण तृतीय अध्याय में दिए गए हैं। जाटों के आर्य होने के ये दृढ़ प्रमाण हैं।

2.

“The Jats are not only a Hindu caste; of course they are a race.” (John Seymore, a well known British author and B.B.C. commentator writes in his book “Round about India 1953”.

अर्थात् जाट केवल एक हिन्दू जाति ही नहीं, वास्तव में एक नस्ल है। जातियों की पहचान के लिए अंग्रेज अन्वेषकों ने कई साधन निकाले हैं जिनमें से दो मुख्य हैं। (1) शारीरिक बनावट (2) भाषा विज्ञान। शरीर शास्त्र के साधन से अन्वेषकों ने मनुष्य जाति को पांच भागों में विभक्त कर दिया है2 - (1) आर्य (2) मंगोलियन (3) हबशी (4) मलय (मलायायन) (5) अमेरिकन। रंग के हिसाब से यही जातियां गोरी, पीली, काली, बादामी और लाल कहलाती हैं। आर्य लोग रंग के गोरे या उजले, उंचे ललाट वाले, सुआसारी नाक, चौड़ी छाती, काली आंखें, लम्बी बाहें व टांगें रखने वाले होते हैं। मंगोलियन अर्थात् तातारियों की चिपटी नाक, पीला रंग और चिपटा माथा होता है। शक सिथियन और हूण मंगोलियन टाइप के ही बताये जाते हैं। हमारे विचार से उनकी शक्ल आर्य और मंगोलियन दोनों टाइपों की है। अब प्रश्न उठता है कि जाट इन पांच भागों में से किस टाइप के हैं। इसका उत्तर प्रत्येक विद्वान् ने यही दिया है कि जाट सोलह आने आर्य टाइप हैं। जौन सेमूर (John Seymore) का मत बिल्कुल ठीक है कि “जाट वास्तव में एक नस्ल है।” और यह आर्य नस्ल है।

इसी प्रकार जोजेफ डेवी कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक सिक्खों का इतिहास पृष्ठ 299 पर वर्णित परिशिष्ठ में जाटों के विषय में लिखा है कि “शब्दकोशों के अनुसार जाट का अर्थ एक नस्ल, एक वर्ण अथवा एक विशेष प्रकार की जाति है, जबकि जाट का अर्थ शिष्टाचार, वर्ग तथा जटाजूट है।”

3.

“हिस्ट्री ऑफ आर्यन रूल इन इण्डिया” नामक ग्रन्थ में लिखा है3 कि मानवतत्त्वविज्ञान की खोज से सिद्ध हुआ है कि भारतीय आर्यजाति, जिसको आर्य साहित्य में लम्बे कद, सुन्दर चेहरा, पतली लम्बी नाक, चौड़े कन्धे, लम्बी भुजायें, शेर की सी पतली कमर, हिरण की सी पतली टांगों वाली जाति बतलाया है (जैसी कि वह प्राचीन समय में थी), वह आजकल पंजाब, राजस्थान, हरयाणा, उत्तरप्रदेश और कश्मीर में जाट, खत्री, राजपूत नाम से पुकारी जाती है4। जाट जाति का प्रत्येक युवक अपने लम्बे डीलडौल, सुन्दर गोरे या गेहुंए चेहरे, घने काले बालों, ऊंची गर्दन, काली आंखों, सुथरी पतली नाक से भली-भांति पहचाना जा सकता है। जाट युवक का शरीर गठीला और फुर्तीला होता है। इस प्रकार के लक्षणों को देखकर ही मि० नेसफील्ड ने बलशाली शब्दों में कहा है - “If appearance goes for anything, Jats could not but be


1. अध्याय 3 में देखो।
2. कई ऐतिहासिक अन्वेषकों ने संसार की सारी मानव जाति को आर्य, मंगोल, सैमेटिक, हैमेटिक नामक चार भागों में बांटा है।
3. ई० बी० हैवल पृ० 32।
4. भारतीय इतिहास द्वितीय संस्करण पृ० 13/6 लेखक जयचन्द्र विद्यालंकार।


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Aryans.” अर्थात् रंग, रूप यदि कुछ समझे जाने वाली कसौटी है तो जाट आर्यों के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकते। वास्तविकता भी यही है कि वैदिक आर्यों के वंशधर जाट अपने पुरुषाओं के प्राचीन लक्षणों से आज भी मिलते जुलते हैं।

सन् 1901 की जनगणना की रिपोर्ट सफा 500 पर सर एच० रिजले साहब ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि जाट शारीरिक बनावट के अनुसार आर्य हैं।

4.

कुछेक विदेशी तथा देशी इतिहासकारों ने मानवतत्त्वरचना अथवा शारीरिक गठन1, प्रकृति स्वभाव2, भाषा3, सामाजिक रहन-सहन, रीति-रिवाज, धार्मिक परम्परायें4, प्रशासनिक प्रबन्ध पटुता, राजनैतिक विकास पर विशद विचार न करके केवल शब्द-साम्य तथा ध्वनि-साम्य, साहसिक प्रवृत्ति और भूमि उत्पादन अनुसन्धान5 को अपना बिन्दु मानकर भारतीय जाटों को यूरोप के प्राचीन गाथ, गेटी, मेसे-गेटी (महान् जाट), जथरा, श्यूची, यूची, यति और जर्तिका आदि जातियों के साथ सम्बन्ध करने की कल्पना की है6। भारतीय सीमाओं का भौगोलिक अंग होने के बाद भी भारतीय आर्य जाति के प्रतिनिधियों7 (जाटों) के शकद्वीप (सिन्धु पंचनद प्रदेश) में जाकर बसने के कारण ही विदेशी शक अथवा इण्डोसीथियन (भारतीय शक) प्रमाणित करने का प्रयास किया है। भारतीय सीमान्त प्रदेश कन्धार, गजनी और यदु की पहाड़ियों (मुलतान के पास नमक की पहाड़ियों को निकास का केन्द्रबिन्दु माना है8। लेकिन जाट आर्यपुत्र भारत की सन्तान हैं और


1. रिसले पृ० 33, 49; हैवेल पृ० 33; इम्पी० गजे० खण्ड 1, पृ० 293-322, सी० वी० वैद्य पृ० 87।
2. कनिंघम पृ० 14; डा० सरकार (मुगल) भाग 2, पृ० 308: इवेटसन भाग 2, 366.
3. एम० इलिएट तथा बीम्स, पृ० 137.
4. रिसले पृ० 93, क्रुक पृ० 95, तथा (ट्राइव) 3/36; इम्पी० गजे० 1/322, 2/308-9.
5. क्रुक (ट्राइव) 3/92.
6. टॉड 1/50, 53; ग्राउस 21-22
7. क्रुक (ट्राइव) 3/92, इम्पी० गजे० 1,293, 299, हैवेल 33.
नोट - टीका नं० 1, 3, 4, 5, 7 के सामने लिखित इतिहासकार जाटों को आर्यवंशज मानते हैं जबकि नं० 6 के सामने लिखित इतिहासकारों ने जाटों का यूरोप की जातियों (जो लिखी हैं) से सम्बन्ध किया है और नं० 2 के सामने लिखित कनिंघम व इवेटसन ने कर्नल टॉड की इस बात का समर्थन किया है कि जाट इण्डोसीथियन वंश के हैं और ऑक्सस घाटी से पंजाब में आये हैं। (जाटों का नवीन इतिहास, लेखक उपेन्दनाथ शर्मा; महाराजा सूरजमल और उनका युग; लेखक डॉ० प्रकाशचन्द्र चान्दावत)।
8. टॉड 1/52; जनरल कनिंघम की धारणा है कि बयाना और भरतपुर के हिन्दू जाटों की परम्परा कन्धार को अपना पैतृक स्थान मानते हैं जबकि मुसलमान जाट प्रायः गजनी अथवा गढ गजनी बताते हैं।
आर्के० सर्वे खण्ड 20; इ० डा० भाग (परिशिष्ठ) पृ० 507 क्रुक (ट्राइव) 3/25 का कहना है कि मथुरा के जाट बयाना से हिसार और वहां से यमुना के समीप आकर बसे थे। नैसफील्ड (क्रुक पृ० 26) का विचार है कि जाट शब्द आधुनिक जातो या यादो शब्द का हिन्दी उच्चारण मात्र है और आजकल ये जादो राजपूत कहलाते हैं। मिलर (डिस्ट्रिक्ट गजेटियर मुजफ्फरनगर 1920 ई पृ० 79) का विचार है कि जाटों को सीथियन प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त कल्पनाशक्ति का प्रयोग किया गया है। यदि मुखमाण्डलिक सामुद्रिक शास्त्र का कोई अस्तित्व हो सकता है तो कोई भी प्रतिभासम्पन्न लेखक जाटों के भारतीय आर्य होने पर सन्देह नहीं कर सकता।


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बृजमण्डल अथवा मालवा के मूल निवासी हैं9। सम्पूर्ण जाट अपने आपको एक स्वर से यादव (चन्द्रवंशी) सन्तान मानते हैं, जबकि इनमें सूर्यवंशी और नागवंशी शाखाओं के जाट भी मिलते हैं10। (देखो अध्याय 3)। विदेशों में विभिन्न नामों से मिलने वाली जातियां, कुटुम्ब, कबीलों को यदि इन्हीं यादववंशज जाटों की सन्तान मानने की भूल की जाए तो यह सर्वमान्य होगा कि यूरेशिया के अन्धकार युग में यादवों ने ही भारतीय सीमाओं से बाहर जाकर नवीन उपनिवेश तथा साम्राज्य स्थापित किये थे11

5.

कर्नल जेम्स टॉड का मत है कि जाट इण्डो-सीथियन कुल के हैं, जो ईसा से एक सदी पूर्व अपने निवास-स्थान ऑक्सस घाटी से पंजाब में प्रविष्ट हो गये थे। इसका समर्थन करने वालों में कनिंघम12, इब्बेट्सन13, विसेन्ट स्मिथ14 आदि विद्वान् हैं। अन्य विद्वान् जैक्सन15 व कैम्पबेल16 इनको कुषाण अथवा यूची जाति से सम्बद्ध करते हैं। डॉ ट्रम्प तथा वीम्स ने शारीरिक तथा भाषा दोनों दृष्टि से जाटों को शुद्ध इण्डो-आर्यन वंशज होने का दावा किया है17। मिलर के अनुसार जाटों को सीथियन प्रमाणित करने में अभी काफी शोध करने की आवश्यकता है, जबकि आकृतिविज्ञान को महत्त्व दिया जाये तो उनकी आर्य उत्पत्ति पर कोई सन्देह नहीं कर सकता18। नेसफील्ड के अनुसार जाट शब्द यदु या जदु का ही आधुनिक हिन्दी उच्चारण है, जिसे आधुनिक जादव राजपूतों के रूप में देखा जा सकता है19

6.

टॉड (1/52) जाटों को 36 राजकुलों में मानता है। कानूनगो (जाट) पृ० 20 और एम० इलियट तथा वीम्स (पृ० 128) का विचार है कि जादो शूरसेन की पुरानी सीमाओं को छोड़कर कभी नहीं गये। सी० वी० वैद्य पृ० 87-88।


9. टॉड (1/52) जाटों को 36 राजकुलों में मानता है। कानूनगो (जाट) पृ० 20 और एम० इलियट तथा वीम्स (पृ० 128) का विचार है कि जादो शूरसेन की पुरानी सीमाओं को छोड़कर कभी नहीं गये। - सी० वी० वैद्य पृ० 87-88।
10. क्रुक पृ० 93-95।
11. शिवदास गुप्ता का कथन है कि “जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुर्किस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनेविया. इंग्लैंड, ग्रीक, रोम, स्पेन व मिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज्य किया था और वहीं की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था” - प्राचीन भारत के उपनिवेश, प्रकाशन 'स्वार्थ' मासिक पत्रिका अंक 4-5 सन् 1976 ई०।
12. कनिंघम, हिस्ट्री ऑफ दी सिख, पृ० 5।
13. इब्बेटसन, पंजाब कास्ट्स पृ० 220।
14. जनरल आफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1899 ई०, पृ० 534.
15. गजेटियर ऑफ दी बम्बई प्रेसिडेन्सी जिल्द 1, भाग 1, पृ० 2.
16. वही, जिल्द IX, जिल्द 1, भाग 46.
17. इलियट, मेमॉयर्स ऑफ दि रेसेज जिल्द 1, 135-37।
18. डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ मुजफ्फरनगर 1920 ई०, पृ० 79.
19. एम० सी० प्रधान, दी पोलिटिकल सिस्टम ऑफ दी जाट्स ऑफ नार्दर्न इण्डिया, पृ० 3.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-112


7.

कानूनगो के अनुसार शारीरिक विशेषताओं, भाषा, चरित्र, विचारों, सरकार के आदर्शों और सामाजिक संस्थाओं में वर्तमान काल के जाट असंदिग्ध रूप से हिन्दुओं की तीन उच्च जातियों के किसी सदस्य की अपेक्षा वैदिक आर्यों के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि हैं20। इतिहास में जाट परिश्रमी कृषक और निर्भीक लड़ाकू के रूप में काफी प्रचलित रहे हैं21। जाट मुख्यतः कृषक हैं, यही कारण है कि इस प्रजाति ने सिन्ध, पंजाब, राजस्थान और गंगा के दोआब के पश्चिमी हिस्से में कृषि वर्ग के आधारस्तम्भ का निर्माण किया22। मजबूत वर्गीय गठबन्धन तथा शासन के अपने प्रजातांत्रिक विचारों की अटूट परम्परा के साथ, ज्येष्ठ भ्राता की विधवा के साथ विवाह का रिवाज और नियोग की मान्यता जाटों की कुछ ऐसी सामाजिक विशेषतायें हैं जो उन्हें हिन्दुओं की किसी भी उच्च जाति की अपेक्षा वैदिक आर्यों के सच्चे प्रतिनिधि होने के दावे को मान्य ठहराती हैं। इरविन के अनुसार जाट अपने गांवों की सरकार में राजपूतों की अपेक्षा अधिक प्रजातांत्रिक लगते हैं। वंशागत अधिकार के प्रति उनका लगाव कम है और चुने हुए मुखिया को वे प्राथमिकता देते हैं जो आर्यों की रीति अनुसार है23

8.

समानवाची देशी विदेशी नामों ने भी ऐसे इतिहासकारों को खूब धोखे में डाला है। यूरोप के गाथ, गेटि, जेटी, चीन के यूची, यूनान में गिट, जेटा, गाथ, स्वीडन में गोट, गोथ, जर्मनी और यूरोप में गाथ, गेटी, जेटी, जुटलैण्ड में जुट आदि ऐसे नाम हैं जो जाट शब्द से मिलते हैं। इन शब्द समानता के मिलते ही फौरन ही उन्होंने जाटों को मंगोलियन, सीथियन, शक और हूण आदि जातियों के उत्तराधिकारी अथवा विदेशों से भारत में आये हुए लिख दिया। यदि वे संस्कृत साहित्य अथवा पाली साहित्य और पारसी, अरबी अथवा चीनी इतिहासों को परिश्रम के साथ पढते और कुछ खोज करने की चेष्ठा करते तो उन्हें मालूम हो जाता कि यदि यूरोप, एशिया और चीन में कहीं भी जाटों के भाई-बन्धु (गेटी, गाथ, यूची आदि) पाये जाते हैं तो भारत से गये हुए ही हैं न कि उन स्थानों से आकर भारत में बसे हैं। 'जाटों की उत्पत्ति' प्रकरण में हमने पिछले पृष्ठों पर लिखा है कि 'जाट' को भिन्न-भिन्न देशों में किस-किस नाम से पुकारा जाता है24। वे भारत से ही वहां जाकर बसे थे और उन नामों से उन देशों में पुकारे गये हैं।

कर्नल टॉड ने स्कन्धनाभ में जाटों की बस्तियों का वर्णन किया है। किन्तु जिस समय स्कन्धनाभ में उनके प्रवेश का वर्णन आता है उससे कई शताब्दी पहले भारत में जाटों का अस्तित्व पाया जाता है। जाट भारत से बाहर गये थे, ईसा से कई सौ वर्ष पहले गये और कई सौ वर्ष पीछे तक जाते रहे25। इसका विस्तृत वर्णन आगे के पृष्ठों में करेंगे।


20. कानूनगो, जाट पृ० 5; मेरे विचार से संसार की सब जातियों से भी जाट शुद्ध आर्य हैं (लेखक।
21. कानूनगो, हिस्टोरिकल एसेज, पृ० 5.
22. कानूनगो, हिस्ट्री ऑफ दी जाट्स, पृ० 2
नोट - डॉक्टर ट्रम्प व बीम्स जाटों को शुद्ध आर्य मानते हैं (जाट्स दी एन्शेन्ट रूलर्ज, पृ० 85, लेखक बी० एस० दहिया)
23. विलियम इरविन, लेटर मुगल्स, जिल्द 1, पृ० 83.
24. देखो द्वितीय अध्याय; जाटों के भिन्न-भिन्न नाम प्रकरण।
25. ठाकुर देशराज जाट इतिहास पृ० 65 पर। जाटवंश तो भारत से बाहर आदिसृष्टि यानि वैदिककाल में गये और विदेशों में राज्य किया (लेखक)।


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यहां पर यह लिखना उचित होगा कि श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य मानते हैं कि “न किसी विदेशी इतिहास में ऐसा वर्णन है कि जाट अमुक देश से भारत में आए और न जाटों की दन्तकथाओं में ऐसा कहा जाता है।” पं० इन्द्र विद्यावाचस्पति “मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण” नामक इतिहास पुस्तक में यही बात लिखते हैं कि “जब से जाटों का वर्णन मिलता है वह भारतीय ही हैं और यदि भारत से बाहर कहीं भी उनके निशान मिलते हैं तो वह भी भारत से ही गये हुए हैं” (जाट इतिहास पृ० 65-66, लेखक ठाकुर देशराज)।

9.

शक, सिथियन, तुरुष्क, कुषाण, हूण, तातार आदि विदेशी विजेता जातिसमूह भारत में आकर आबाद हुए और आज उनका भारत में कोई अलग अस्तित्व नहीं है। तब अवश्य ही भारत की जातियों में कुछ जातियां ऐसी हैं जो आर्य नस्ल से अन्य नस्ल हैं। इसी आधार को लेकर कुछ देशी विदेशी इतिहासज्ञों ने जाटों को भी राजपूत, मराठे और गूजरों के प्रसंग में शक, सिथियन और हूण आदि जातियों के उत्तराधिकारी प्रमाणित करने की व्यर्थ चेष्टा की है। ऐसे लोगों में मि० स्मिथ और उनके अनुयायियों का पहला नम्बर है। स्मिथ महोदय का अनुमान है कि “विजेता हूणों में से जिनके पास राजशक्ति आ गई वे राजपूत और जो कृषि करने लग गए वे जाट और गूजर हैं1।”

हम कहते हैं कि स्मिथ की यह धारणा जहां निर्मूल है, वहां बगैर सोचे समझे और अनुसंधान किये बिना ही जल्दबाजी में बनाई हुई है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री सी० वी० वैद्य ने “हिस्ट्री ऑफ मिडीवल हिन्दू इण्डिया” में स्मिथ जैसे ख्याल के लोगों के विचारों की काफी आलोचना की है। पहले हम उन्हीं के उदाहरण अपने कथन की पुष्टि में लिखते हैं -

10.

“अन्त में हम जाटों के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहते हैं कि उनके मानव-तत्त्व-अनुसंधान के लक्षण जैसा कि हम देख ही चुके हैं, साफ तौर से आर्य हैं। वे सुन्दर, लम्बे और बड़ी नाक वाले हैं। क्या उनके इतिहास उन्हें अनार्य बताते हैं? यह एकदम कहा जा सकता है कि जाटों का अपना कोई भी इतिहास उस समय से पहले का नहीं है (है तो सही, किन्तु लेखबद्ध नहीं - लेखक) जबकि वर्तमान हिन्दू, सिख जाटों के राज्य यू० पी० और पंजाब में कायम हुए। (राजस्थान में भी - लेखक) जाट, गूजर और मराठा - इन तीनों में (बल्कि राजपूतों में भी - लेखक) जाटों का वर्णन सबसे पुराना है2। जाटों का वर्णन हमें अजयज्जर्टो हूणान् वाक्य में मिलता है जो कि पांचवीं शताब्दी के चन्द्र के व्याकरण में है और यह प्रकट करता है कि जाट हूणों के सम्बन्धी नहीं, किन्तु शत्रु थे। जाटों ने हूणों का सामना किया और उनको परास्त किया। अतः वे पंजाब के निवासी थे और धावा करने वाले और घुस पड़ने वाले नहीं। क्या उपर्युक्त वाक्य यह साबित करता है कि मन्दसौर के शिलालेख वाला यशोधर्मन जिसने कि लगातार हूणों को परास्त किया था, जाट था? वह वरिक गोत्र का जाट था। यह मालूम हो चुका है कि जाट मालवा


1. राजस्थान का इतिहास वाल्यूम 1, पृ० 127 पर लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि “राजपूत और जाट दोनों मध्य एशिया से आने वाले आक्रमणकारी हैं। जिनके पास राजशक्ति आ गई वे राजपूत और जो कृषि करने लग गये वे जाट कहलाये।”
2. जैसा कि पिछले पृष्ठों पर लिखा है कि अनेक जाट सम्राट् ययातिवंशी हैं (लेखक)।


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मध्यभारत में सिंध की भांति पहुंच चुके थे। यह वाक्य प्रकट करता है कि जाट हूणों के साथ धावा करने वाले नहीं, किन्तु उनके विरोधी थे। जाट भारत में सबसे शुद्ध आर्य हैं। और हमारी दृष्टि के अनुसार वे भारत में वापिस आने वाले आर्यों में सबसे पहले वंश के हैं1।”

11.

अतः यह अचम्भे की बात है कि इस सच्चाई के होते हुये भी, कि हरेक मनुष्य जो कि पंजाब के रहने वालों से पूरी जानकारी रखता है और जिसने जाट, गूजर एवं राजपूतों की मानव-तत्त्व अनुसंधान की तुलना को देख लिया है, कि वे स्पष्टतया सिथियन नहीं किन्तु आर्य हैं, तो भी अन्वेषकों ने आमतौर पर उनको सिथियन, गेटाई, यूची और खिजर न मालूम क्या-क्या होने के सिद्धान्त बना लिये हैं। यह भी निर्णय कर लिया है कि वे ऐतिहासिक काल में भारत में आये हैं और सन् ईस्वी का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार के आ बसने के प्रमाण के लिए किञ्चित् भी ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है।

जाटों का भारत में आने का न तो कोई विदेशी वर्णन ही है और न उनकी अपनी ही कोई दन्तकथा ही है कि भारत में आने का उनका समय बताया जा सके। न ही ऐतिहासिक व शिलालेख के प्रमाण हैं। हम ऐसे सिद्धान्तों को देशी व यूरोपियन अन्वेषकों के दिमाग का केवल भ्रम ही कह सकते हैं, जो कि भारत की हर एक अच्छी और उत्साही जाति को विदेशी और सिथियन साबित करते हैं2

12.

जाट न हूणों की सन्तान हैं और न ही शक सिथियनों की, किन्तु वे विशुद्ध आर्य हैं3। “यदि जाटों का निकास ठीक तौर से मालूम करना है तो हमें मुख्य धार में चलना चाहिए, शाखाओं में नहीं। यह कहना कि जाटों का निकास बाहर से आने वाली कौमों से है, क्योंकि बाहर से आने वाली कुछ कौमें जाटों में शामिल हो गईं, उसी प्रकार असम्भव है जैसा कि गंगा को निकलने के लिए हिमालय से निकलने के बजाय विन्ध्याचल से निकला बताया जाये, क्योंकि सोन नदी जो उसमें गिरती है, विन्ध्याचल से भी पानी लाती है4। ”

यही महानुभाव जाट हिस्ट्री के दूसरे पृष्ठों में लिखते हैं कि “हम इतना जानते हैं कि कोई भाषावैज्ञानिक कारण (फिलालोजिकल) इनके भारतीय आर्य होने के विपक्ष में नहीं है। न सीथियन हैं, न जथरा हैं, ये मध्य एशिया के जथरा पहाड़ों से आने वाले नहीं हैं, किन्तु सच्चे भारतपुत्र हैं जिन्होंने मालवा और राजपूताना को पंजाब से जाने के पहले ही अपने पुरुषों का घर बतलाया था। जाटों से इस बात को स्वीकार कराना कि वे पुराने यादवों की सन्तान नहीं हैं, बहुत मुश्किल है5।”

13.

अब मानवतत्त्व अनुसन्धान शास्त्र के अनुसार जाटों के आर्य होने के कुछ उदाहरण लीजिये - “अर्थात् मानव तत्त्वविज्ञान की खोज बतलाती है कि भारतीय आर्य जाति जिसको कि हिन्दू युद्ध ग्रन्थों में लम्बे कद, सुन्दर चेहरा, पतली लम्बी नाक, चौड़े कन्धे, लम्बी भुजायें, शेर की सी कमर और हिरण की सी पतली टांगों वाली जाति बतलाया है (जैसी कि यह प्राचीन समय में


1, 2. सी० वी० वैद्य हिस्ट्री ऑफ मिडीवल हिन्दू इण्डिया पृ० 87-88; जाट इतिहास पृ० 56-59 लेखक ठाकुर देशराज।
3. ठाकुर देशराज जाट इतिहास पृ० 59
4, 5. श्री कालिकारंजन कानूनगो जाट इतिहास; जाट इतिहास पृ० 731-732 लेखक ठाकुर देशराज।


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थी) आधुनिक समय में पंजाब, राजस्थान, हरयाणा, उत्तरप्रदेश और कश्मीर के खत्री, जाट और राजपूत जातियों के नाम से पुकारी जाती है1।”

आगे के पृष्ठों में यही महानुभाव लिखते हैं कि - “अर्थात् भारतीय आर्य जाति जिसके कि वंशधर आज राजपूत, खत्री और जाट हैं, पंजाब, राजस्थान और कश्मीर में बसी हुई है। जाट जाति उस प्राचीन आर्य जाति से बहुत अधिक मिलती जुलती है जो भारत में आकर बसी थी।” (यह प्राचीन आर्य जाति भारत की ही निवासी थी, यहां से विदेशों में जाकर राज्य स्थापित किए और कई कारणों से वापिस अपने देश भारत में आ गये - लेखक)।

“इनकी शारीरिक बनावट, अधिकतर लम्बा कद, सुन्दर चेहरा, काली आंखें, चेहरे पर पर्याप्त बाल, लम्बा सिर और ऊँची पतली नाक जो अधिक लम्बी नहीं होती थी 2।” आगे लिखते हैं - “अर्थात् यह बात नितान्त सत्य है कि पंजाब और राजपूताना में जो जाट और राजपूत जातियां बसती हैं वे अपने लम्बे सिर, सीधी सुन्दर नाक, लम्बे और पतले चेहरे अच्छे ऊँचे मस्तिष्क, क्रमबद्ध गठन और ऊँचे घुटने होने के कारण पहचानी जाती है। उनका कद लम्बा होता है। उनका साधारण शरीर-गठन क्रमबद्ध सुन्दर होता है। हां, जाटों का शरीर कुछ मोटेपन और राजपूतों का कुछ पतलेपन पर होता है3।”

14.

भाषाविज्ञान के अनुसार जातियों के पहचानने की जो तरकीब है, उसके अनुसार जाट आर्य हैं। इसके प्रमाण में मिस्टर सर हेनरी एम. इलियट के० सी० वी० “डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थवेस्टर्न प्राविंशेज ऑफ इण्डिया” में लिखते हैं कि - “बहुत समय हुआ मैंने कराची से पेशावर तक यात्रा करके स्वयम् अनुभव कर लिया है कि जाट लोग कुछ खास परिस्थितियों के सिवा अन्य शेष जातियों से अधिक पृथक् नहीं है। भाषा से जो कारण निकाला गया है वह जाटों के शुद्ध आर्य वंश में होने के जोरदार पक्ष में हैं। यदि वे सिथियन विजेता थे तो उनकी सिथियन भाषा कहां चली गई? और ऐसे कैसे हो सकता है कि वे अब आर्यभाषा को, जो कि हिन्दी की एक शाखा है, बोलते हैं तथा शताब्दियों से बोलते चले आये हैं। पेशावर से डेराजाट और सुलेमान पर्वतमाला के पार कच्छ गोंडबा में यह भाषा हिन्दकी या जाटकी भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। जाटों के आर्य वंश में होने के सिद्धान्त को यदि कतई एक ओर फेंक दिया जाये तो इसके विरुद्ध बहुत ही जोरदार प्रमाण दिये जायेंगे, जैसे कि अब तक कहीं नहीं दिये गये हैं। शारीरिक गठन और भाषा ऐसी चीज है जो कि केवल क्रियात्मक समानता के आधार पर एक तरफ नहीं रक्खे जा सकते। खासकर जबकि वे शब्द जिन पर कि समानता अवलम्बित (आश्रित) है, हमारे सामने आते हैं तो वे यूनानी या चीनियों से भिन्न पाये जाते हैं।” (जाट इतिहास पृ० 62, लेखक ठाकुर देशराज)।

ऊपर दी गई पहचानें ऐसी हैं जिन पर देशी विदेशी दोनों भांति के इतिहासकार और मानव तत्त्व अनुसंधानकर्त्ता विश्वास करते हैं। इन पहचानों के अतिरिक्त धार्मिक भावनाओं और रस्म रिवाजों की भी एक पहचान है जिस से प्रत्येक जाति का पता चल जाता है कि आया वह किस नस्ल व


1, 2, 3. हिस्ट्री ऑफ आर्यन रूल इन इण्डिया पृ० 32-33 लेखक इ० बी० हैवल; जाट इतिहास जाट इतिहास पृ० 60-61 लेखक ठा० देशराज।


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देश की है। इस सिद्धान्त के अनुसार भी जाट आर्य नस्ल से हैं। अतः धार्मिक भावनायें और रस्म रिवाज उन्हें वैदिक आर्यों का सच्चा उत्तराधिकारी सिद्ध करती हैं। यह निर्विवाद सही बात है कि जाट विशुद्ध आर्य हैं1

15.

यदि राजपूत अपनी वीरता व साहस के लिये प्रसिद्ध रहे हैं तो जाट उनसे किसी भी भांति कम नहीं रहे हैं। जाट जाति सम्पूर्णतया भारतीय एवं आर्य है2

16.

राजस्थान में वंशावली रखने वाली कौम को व्यास, जागा, चारण या भाट कहते हैं। इनकी बहियों में जाट गोतों के लिए लिखा हुआ है कि अमुक राजपूत ने जाटनी से शादी कर ली, अतः वह जाट हो गया। इनकी सन्तान से जाटवंश बने, ऐसे व्यास या भाट हरयाणा, पंजाब, यू० पी० सभी जगह हैं। उनसे किसी भी जाट गोत्र की उत्पत्ति का हाल पूछिये, ऐसी ही वाहियात और निर्मूल कथा का हवाला देते हैं। हम चैलेंज पूर्वक कहते हैं कि भाटों और व्यासों की बहियों में जाटों को राजपूतों में से होने की जो कथा लिखी हुई है वह सफेद झूठ है। यहां केवल जस्टिस कैम्पबेल का मत इस विषय में लिखा जाता है -

“अर्थात् यह संभव हो सकता है कि राजपूत जाट हैं जो कि भारत में आगे बढ़ गये हैं। और यहां हिन्दू जातियों से परस्पर मिल गये हैं तथा ऊंचे और कट्टर हिन्दू हो गये हैं, उन्होंने अपने प्राचीन बल वैभव को प्राप्त कर लिया है। लेकिन यह कि जाट राजपूत हैं और ऊंचे दर्जे से घट गए हैं, यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसके लिए बिल्कुल कोई सबूत (पक्ष) नहीं है और जो आज वर्तमान उन्नतशील जाटों के बाहिरी-वर्तमान आचरण से स्पष्ट तौर से प्रकट होता है3।”

चारण या भाटों की बहियों के आधार पर कई एक इतिहासकारों ने बड़े-बड़े जाटवंशों को राजपूतों की सन्तान लिखा है। जिनमें से मुख्य मेजर ए० एच० बिंगले है। उसने अपनी पुस्तक 1937 “हैण्डबुक ऑफ जाट्स, गूजर्स एण्ड अहीर्स” (Jats, Gujars and Ahirs by Major A.H. Bingley) में निम्न प्रकार से लिखा है।

1. गठवाला-मलिक - राजपूत की सन्तान हैं (पृ० 26)।
2. जाखड़, श्योराण, सांगवान, चौहान राजपूत जाकू के पुत्रों की सन्तान हैं। उन पुत्रों ने जाट स्त्रियों से विवाह कर लिया। उनसे जो सन्तान हुई वे ये तीनों जाटवंश कहलाये (पृ० 26)।
3. मान और दलाल ये दोनों, राठौर राजपूत धन्नाराव के पुत्र मान और दिल्ले की सन्तान हैं। धन्नाराव ने एक बड़गूजर जाट स्त्री से विवाह किया था (पृ० 26)।
4. नैन - तँवर राजपूत के वंशज हैं (पृ० 26)।
5. बैनीवाल - चौहान राजपूत की सन्तान हैं । (पृ० 27)।
6. गुल्या - ब्राह्मणों की सन्तान हैं (पृ० 27)।
7. राठी तथा धनखड़ - तँवर राजपूत जिसने विधवा (करेवा) विवाह कर लिया था, उसके दो पुत्र भागा और जोगीदास हुए। भागा से राठी गोत्र तथा जोगीदास से धनखड़ जाट गोत्र चला। (पृ० 27)।

1. Jat History Thakur Deshraj/Chapter II|ठाकुर देशराज जाट इतिहास पृ० 63-64]]।
2. राजस्थान के जाटवंशों का इतिहास पृ० 77, ले० जगदीशसिंह गहलोत।
3. जाट इतिहास - लेखक ठाकुर देशराज, पृ० 66-67


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-117


8. दहिया - मानिकराज एक चौहान राजपूत था। उसने एक धनखड़ जाट गोत्र की स्त्री से विवाह कर लिया। उनसे एक पुत्र दहला नामक हुआ। उस दहला से दहिया वंश (गोत्र) चला (पृ० 27-28)।
9. हुड्डा (हूडा) - चौहान राजपूत सूदाह की सन्तान हैं (पृ० 28)।
10. जाखड़ तथा कादियान - ये चौहान राजपूत की सन्तान हैं। इनके पूर्वपुरुष ने विधवा विवाह (करेवा) कर लिया जिससे चार पुत्र हुए। सबसे बड़े का नाम लादा था जिससे जाखड़ वंश (गोत्र) प्रचलित हुआ। दूसरा कादी था जिससे कादियान गोत्र चला (पृ० 28)।
11. अहलावत - चौहान राजपूत की संतान हैं। उनकी पत्नी एक अपरिचित स्त्री थी जिससे अहलावत, ओलाह, ब्रमा तथा दूलाह चार पुत्र हुए। माडे और जून इनके मूसेर (मौसी भाई) थे (पृ० 28)।
12. देशवाल - ये दलालवंश के पूर्वपुरुष धन्नाराव राठौर राजपूत के दूसरे पुत्र देसल की सन्तान हैं (पृ० 28)।
13. सहरावत - ये तंवर राजपूत सहारा जो कि राजा अनंगपाल का पुत्र या पौत्र था, की सन्तान हैं (पृ० 28)।

खण्डन - राजपूत संघ (जाति) छठी शताब्दी में बनी है। राजपूतों के अध्याय में इनका पूरा वर्णन लिखा जायेगा। ऊपरलिखित जाखड़, दहिया, अहलावत जाटवंशों का निर्माण तथा राज्य वैदिककाल में हुआ और मान, राठी जाटवंशों का राज्य महाभारत काल में था। गठवाला, मलिक जाटवंश रामायणकाल से प्रचलित हैं (इनका पूरा ब्यौरा अध्याय 3 में किया जायेगा)।

ऊपरलिखित शेष जाट गोत्र राजपूत संघ (जाति) बनने से बहुत पहले से प्रचलित है। इनके बारे में जाट गोत्रावली अध्याय में लिखा जायेगा। पिछले पृष्ठ पर जस्टिस कैम्पबेल का मत लिखा है कि - जाटों से राजपूत बने परन्तु राजपूतों से एक भी जाटवंश प्रचलित नहीं हुआ।

पाठक समझ गए होंगे कि चारण तथा भाटों की बहियों के लेख तथा ए० एच० बिंगले जैसों के लेख असत्य, बेहूदे, प्रमाणशून्य हैं। ये लेख जाटों की प्रतिष्ठा गिराने हेतु लिखे गए हैं। सो, जाट समाज तथा अन्य जाति के लोगों को ऐसे लेख झूठे समझने चाहिएं (लेखक)।

17.

“कारनामा राजपूत” का लेखक श्री नजमुल गनी रामपुरी लिखता है - “जाट जाति के अभ्यास, स्वभाव एवं रीति-रिवाज से उनका रहन-सहन सिन्ध नदी के पश्चिम में पाया जाता है और यादवों में से इनका निकास साबित होता है। इस जाति को कृष्णवंशी होने का गौरव ठीक ही है।” इसी भांति श्री सुखसंपत्तिराय जी भंडारी ने अपने “भारत के देशी राज्य” नामक महाग्रन्थ में लिखा है - “जाट आर्य्यवंश के हैं और प्राचीनकाल में भारत में उनके निवासी होने के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं। यह भी पता चला है कि उस समय जाट अन्य क्षत्रियों की तरह उच्चवंशीय माने जाते थे। किन्तु सामाजिक मामलों में अधिक उदार (श्रेष्ठ) होने के कारण (पिछले समय में) ये पौराणिक-ब्राह्मणों की आंखों में खटकने लगे और उन्होंने इनका जातीय पद नीचे गिराने का यत्न किया।” इसके अतिरिक्त अनेक अरब इतिहासकारों ने इसी बात को कहा है कि जाट भारत के आर्य्यों में से हैं। यही क्यों, वे तो सारे भारत को ही जाटों के देश के नाम से पुकारते थे। इलियट साहब ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' में अरब इतिहासों के हवाले से


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-118


इसी बात को दोहराया है। डा० ट्रम्प, बीम्स, सर रिजले, सर जेम्स, सर ग्रियर्सन, भाई परमानन्द, जदुनाथ सरकार, प्रो० इन्द्र, स्वर्गीय राजा लक्ष्मणसिंह, कालिकारंजन कानूनगो, योगेन्द्रपाल शास्त्री, ले० रामस्वरूप जून साहब, यू० एन० शर्मा, ठाकुर देशराज, पं० लेखराज आदि सुप्रसिद्ध विद्वानों ने एक स्वर से इस बात को स्वीकार किया है जाट नस्ल से आर्य हैं।

ऊपर के उदाहरणों से यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि जाट न हूणों की सन्तान हैं, न शक-सिथियनों की। किन्तु वे विशुद्ध आर्य हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि बेचारे हूण और शकों सिथियनों के भारत पर आक्रमणों का जब तक नाम-निशान भी न था, जाट उस समय भी भारत में आबाद थे और इनसे बहुत से राज्य स्थापित थे, जिनका वर्णन अगले अध्यायों में किया गया है।

18.

प्रामाणिक इतिहास की कमी ने जाटों को उनके स्थान से गिराने में बहुत सहायता दी है। मथुरा मेमायर्स के लेखक मि० ग्राउस ने जाटों को अपना इतिहास न लिखने पर काफी फटकार बताई है। वास्तव में उनकी कोई इतिहास पुस्तक न पाकर दूसरे लोगों से जैसा उन्होंने सुना या बताया गया, वे लिखने को विवश हुए। यह सिद्ध करना कुछ भी कठिन नहीं है कि जाट 'इंडोआर्यन' हैं जिन्हें किसी किसी इतिहासकार व गजेटियर के संपादक ने 'इंडोसिथियन' लिख दिया है। चूंकि वे जाटों के भारतीय इतिहास से अनभिज्ञ थे। यद्यपि जाटों में कुछ एक व्यक्ति या समूह ऐसे थे, जिन्होंने एकतंत्र या साम्राज्यशाही को पसन्द किया और ऐसे शासन भी स्थापित किये। किन्तु पूरा समुदाय गणतंत्र (प्रजातंत्रशाही) को मानने वाला था। इनमें से कोई-कोई समुदाय तो बिल्कुल अराजकवादी थे। वे वंशानुगत राजा और सरदार प्रथा को नहीं चाहते थे। अराजकवादी लोगों में न किसी धर्म का प्रचार हो सकता था और न किसी जाति का दूसरी जाति पर प्रभुत्व स्थापित हो सकता था। इसीलिये ब्राह्मण वर्ग सदैव अराजकवाद के विरुद्ध रहा है। उन्होंने यादव और तक्षक आदि जातियों को इसलिए अनार्य और शूद्र करार दे दिया। प्रजातंत्र और एकतंत्र भी भिन्न हैं। नया हिन्दू-धर्म तो प्रजातन्त्र के नितान्त विरुद्ध था क्योंकि एकतंत्र में उन्हें धर्मप्रचार की सुविधा रहती थी। एक राजा के धर्म बदलते ही सारी प्रजा धर्म बदल लेती थी। किन्तु गणतंत्र में अनेक सरदारों का शीघ्र धर्म परिवर्तन करा देना कठिन था। नवीन हिन्दू-धर्म ने प्रजातंत्र को इसलिये भी बुरा समझा कि बौद्ध-धर्म के संघों का संगठन गणतंत्र प्रणाली के अनुसार ही हुआ था। ब्राह्मण, धर्म के मामले में एक पुजारी या आचार्य को सर्वाधिकारी होने के पक्षपाती थे। बौद्ध-संघों में सब बातें वोट द्वारा तय होती थीं। ब्राह्मणों ने अथवा नवीन हिन्दू-धर्म ने आखिर गणतंत्री जाति-समूहों को राजतंत्री समूहों से पतित घोषित कर ही दिया। इस घरेलू संघर्ष का आधार भी जल्दबाज इतिहासकारों के लिए जाटों को इंडो-सिथियन बनाने के लिए काफी हुआ पर ऐसे लेखक प्रति सैंकड़ा 10 हैं। 90 प्रतिशत लेखकों ने मुक्तकंठ से जाटों को प्राचीन आर्यों के विशुद्ध वंशज बताया है। जाटों ने इस बात के विरुद्ध न तो आवाज उठाई कि कोई उनके विरुद्ध क्या प्रचार करता है, न ही प्रतिवाद किया। फिर भी निष्पक्ष और मननशील विद्वान् अन्वेषकों और इतिहासकारों को यह स्पष्टतौर से मानना पड़ा कि जाट आर्य हैं और प्राचीन आर्यों के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं1


1. जाट इतिहास पृ० 67-68 लेखक ठाकुर देशराज


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-119


19.

डाक्टर ट्रिम्प साहब कहते हैं कि “सिन्ध की आदि निवासी जाति जाट हैं। इसमें संशय नहीं कि य जाट जो कि इस देश में निवासी जाति दिखलाई देते हैं, विशुद्ध आर्य-वंश में से हैं।” बैक्ट्रिया और हरकानिया तथा खुरासानिया के मध्य सारसंग नदी के किनारों पर एक बहुत उपजाऊ प्रदेश है। यहां के निवासी जिट्टी लोगों का वर्णन करते हुए प्टोलेमी और प्लिनी कहते हैं कि जाटों की यही आदि-भूमि है। यदि ये दोनों यूनानी लेखक भारत की ओर आये होते तो उन्हें डा० ट्रिम्प की राय माननी पड़ती। साथ ही सहज में वे समझ लेते कि वहां के जाट, भारतीय भारतीय जाटों के वंशज हैं जो कि यहां अपना प्रजातंत्र चलने के लिए तथा उपनिवेश स्थापना के लिए आये हैं। यह प्रदेश उनके नाम से जाटालि प्रसिद्ध हुआ1

20.

श्री क्रुट्रयात्सेव का मत है कि “जनगणना की सूचना, दूसरे सरकारी पत्र-प्रमाण, नृवंशविद्या की जांच (इबस्टन, क्रुक, रोज़, वर्तमान ग्रन्थकार) परम्परा से जाटों को एक अलग कुल या कुल-वंशों का संघ (गण) मानते हैं।” आगे वे ही लिखते हैं कि “कुछ लेखकों का कहना है कि भारत पर सिथियनों के आक्रमण से काफ़ी समय पहले जाट लोग सिंध प्रान्त में आबाद थे और उनका सम्बन्ध महाभारत के यौधों से किया है1।”

21.

जहां भी रक्षा का प्रश्न उठता है, बलिदान की आवश्यकता होती है वहां इन जाट वीरों को सबसे पहले याद किया जाता है। महामना पं० मदनमोहन मालवीय जी ने जाटों की गौरवपूर्ण बल-शक्ति पर भारतीयों का ध्यान आकर्षित करते हुए अपने एक भाषण में कहा था कि “जाट भारत राष्ट्र की रीढ़ हैं। भारत को इस साहसी वीर जाति से बहुत बड़ी आशाएं हैं।”

22.

अरब यात्री अनुलरिहा मुहम्मदबिन अहमद अलबुरूनी ने “तहरीक-ए-हिन्द” में भगवान् कृष्ण को जाट लिखा है। स्पष्ट है जाट, संघ के नाम से जाट, किन्तु जाति के नाम से आर्य हैं3

जाट्स दी एन्शन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृष्ठ 81 पर भविष्य पुराण का हवाला देकर लिखा है कि जाट आर्य हैं

आगे इसी लेखक ने पृष्ठ 97-98 पर जाटों के विष्य में लिखा है कि “प्रसिद्ध इतिहासकारों के शब्दों में वर्तमान समय के जाट शारीरिक बनावट, भाषा, चरित्र, बुद्धि, शासन की योग्यता तथा सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से निस्सन्देह प्राचीन वैदिक आर्यों के उच्चतर प्रतिनिधि हैं, बनिस्बत (तुलना में) हिन्दू जाति के उन तीन ऊंचे वर्णों के किसी भी सदस्य से, जिन्होंने अवश्य ही अपना मौलिक चरित्र बहुत कुछ खो दिया है।”

23.

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने जाटों को विशुद्ध आर्य माना है। तब ही तो उन्होंने अपनी लिखित पुस्तक सत्यार्थप्रकाश पृ० 227-28 पर जाटजी और पोपजी की घटना का एक उदाहरण देकर जाट जी का बड़ा सम्मान किया है। दृष्टान्त इस प्रकार है - एक जाट था । उसके घर में एक गाय बहुत अच्छी और बीस सेर दूध देने वाली थी । दूध उसका बड़ा स्वादिष्‍ट होता था । कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था । उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढ़ा बाप मरने लगेगा तब इसी गाय का संकल्प करा लूंगा । दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। तब पोपजी ने पुकारा कि यजमान! अब तू इसके हाथ से गोदान करा। जाट जी ने 10 रु० निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला - 'पढो संकल्प'।


1. राजपूत भाग 27 संख्या 8 ।
2. On the role of the Jats in Northern India's Ethnic History, Journal of Social Research 1964, 1-2 by M.K. Kurdryavtsev USSR.
3. क्षत्रियों का इतिहास पृ० 249 पर श्री मास्टर मांगेराम (एम० ए० इतिहास) बांकनेर, दिल्ली का लेख।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-120


पोपजी बोला - “वाह वाह ! क्या बाप बारम्बार मरता है? इस समय तो दूध देने वाली अच्छी गाय का दान करो। तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? क्या बाप को वैतरणी नदी में डुबाकर दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए!” जाट जी के अस्वीकार करने पर भी उसके परिवार वालों ने मिलकर हठ से उसी गाय का दान उसी पोप जी को दिला दिया।

उसका पिता मर गया और पोपजी बच्छा सहित गाय और दोहने की बटलोही को ले अपने घर में गाय-बच्छे को बाँध बटलोही धर पुनः जाट के घर आया और मृतक के साथ श्मशानभूमि में जाकर दाहकर्म्म कराया । वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई । पश्‍चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा । महाब्राह्मणों ने भी लूटा और भुक्खड़ों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग निर्वाह किया । जाटजी चौदहवें दिन प्रातः-काल पोपजी के घर पहुँचा । देखा तो पोपजी गाय दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी । इतने में ही जाटजी पहुँचे । उसको देख पोपजी बोला, आइये ! यजमान बैठिये !

जाटजी - तुम भी पुरोहित जी इधर आओ। उसको दूध की बटलोई सहित अपने पास बुला लिया।

पोपजी - अच्छा दूध धर आऊँ ।

जाटजी - नहीं-नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ ।

पोपजी बिचारे जा बैठे और बटलोई सामने धर दी ।

जाटजी - तुम बड़े झूठे हो ।

पोपजी - क्या झूठ किया ?

जाटजी - कहो, तुमने गाय किसलिए ली थी ?

पोपजी - तुम्हारे पिता के वैतरणी नदी तरने के लिए ।

जाटजी - अच्छा तो तुमने वहाँ वैतरणी के किनारे पर गाय क्यों न पहुँचाई ? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम अपने घर बाँध बैठे । न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे ?

पोपजी - नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बनकर उसको पार उतार दिया होगा ।

जाटजी - वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है ?

पोपजी - अनुमान से कोई तीस करोड़ कोश दूर है । क्योंकि उञ्चास कोटि योजन पृथ्वी है और दक्षिण नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) में वैतरणी नदी है ।

जाटजी - इतनी दूर से तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ ?

पोपजी - हमारे पास 'गरुड़पुराण' के लेख के बिना डाक वा तारवर्की दूसरा कोई नहीं ।

जाटजी - इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें ?

पोपजी - जैसे हम सब मानते हैं ।

जाटजी - यह पुस्तक तुम्हारे पुरषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिए बनाया है । क्योंकि पिता को बिना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं । जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुंचा दूंगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ !

दूध की भरी हुई बटलोही, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला ।

पोपजी - तुम दान देकर लेते हो, तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा ।

जाटजी - चुप रहो ! नहीं तो तेरह दिन लों दूध के बिना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूंगा । तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले अपने घर पहुँचे ।

जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले । (महर्षि दयानन्द सरस्वती)

साफ है कि ऋषि जी ने जाट को जाट जी कहकर उसका सम्मान किया है और निःसन्देह जाटों को विशुद्ध आर्य माना है। इसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि भारत की पूरी जाट जाति स्वामी जी के सिद्धान्तों को मानकर उनकी स्थापित की गई आर्यसमाज में मिल गई। जाट अपने को हिन्दू कहलाते हुए भी दिल से आर्यसमाजी ही हैं। (लेखक)

24.

जाट धर्म, भाषा, संस्कृति, सभ्यता, शासनपद्धति के आधार पर पूर्णरूप से वैदिकधर्मी आर्य हैं। एक ईश्वर में विश्वास, गुण कर्म स्वभाव के आधार पर छोटा बड़ा समझना, जगत् जननी स्त्री जाति का पूर्ण सम्मान करना, प्रान्तीय भेदभाव से दूर रहना, विद्वानों का सम्मान,


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-121


युद्ध के लिए, कृषि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करना - संक्षेप में “सम्मान के साथ जीना और सम्मान के साथ मरना” जाटों की विशेषताएं हैं जो सब आर्यों की ही हैं। जाट समाज-धर्म सुधार में सबसे आगे रहते आये हैं। इनकी समाज में मानव-समाज सेवा के गुण के कारण ही इन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों पर चौधरी, ठाकुर, पटेल, सरदार, मिर्धा, प्रधान, फौजदार, मलिक आदि नामों से सम्मान के साथ सम्बोधित किया जाता है। ये उपाधियां जाटों का क्षत्रिय होना सिद्ध करती हैं (इनका वर्णन ऊपर-लिखित जाटों की उपाधियां प्रकरण में देखो)।

पिछले पृष्ठों में जाटों की पहचान, चरित्र, स्वभाव और विशेषताओं के प्रकरण में जाटों का शारीरिक गठन, धर्म, समाज, विवाह, पंचायत, भाषा आदि के विषय में काफी विषय लिख दिया गया है। वहां लेखकों के उदाहरण देकर यह सिद्ध किया गया है कि जाट विशुद्ध आर्य हैं और क्षत्रिय हैं। अब उससे आगे जाटों की अन्य वे विशेषतायें लिखेंगे जो जाटों को विशुद्ध आर्य होना सिद्ध करती हैं और वे जाटों के अतिरिक्त आज किसी दूसरी जाति में नहीं हैं। जैसे एकमात्र ईश्वर को ही मानना, गुण कर्मानुसार छोटा बड़ा मानना, स्त्रियों को समान अधिकार, विधवा विवाह, संघ रूप से निरामिष भोजी होना, प्रान्तीय भेदभाव से परे रहना आदि।

25.

एकमात्र ईश्वर को ही मानना - जाट एक ईश्वर को ही मानते हैं। वेदों के आधार पर ईश्वर के एकत्व के लिये सम्पूर्ण आर्य साहित्य ने बल दिया है। किन्तु ईश्वर की सत्ता पर भी अविश्वास प्रकट करने वालों की संख्या बहुत बड़ी रही है। एकत्व के स्थान पर अज्ञानवश अवतारवाद का इस रूप में प्रचलन हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सरस्वती, शक्ति, लक्ष्मी, राम, कृष्ण, हनुमान, काली, कराली, मनोजवा, चण्डी, चामुण्डा, भवानी आदि को ईश्वर के स्थान पर मानकर इष्टसिद्धि का साधन निश्चित किया गया। बौद्धकाल की समाप्ति पर तो ईश्वर अनेकता का भरपूर प्रचार हो गया। सारे देश ने अपने देवों की मूर्तिकल्पना करके मन्दिरों की स्थापना की और विपुल धनराशि उनके नाम पर अर्पित कर दी। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अश्वमेध1, गोमेध2, नरमेध3 यज्ञों जैसे उच्चादर्शों के विपरीत भ्रान्तिवश पशु और मनुष्यों तक की बलि दी जानी प्रारम्भ हुई तो देशभर में घृणित हिंसावृत्ति का प्रचार हो गया। आर्यसभ्यता की इस विपन्नावस्था में महात्मा बुद्ध ने इन ढौंग ढकोसलों के विरुद्ध घोषणा की तो जाट संघ रूप से बौद्ध हो गए। जब अरब की मरुभूमि से उठते हुए - “लाइलाह इल्लिल्लाह खुदा एक ही है” के नारे को पश्चिमी भारत के सीमान्त प्रदेश की एक-ईश्वर विश्वासी जाट जनता ने सुना तो उधर सामूहिक रूप से मुसलमान होकर एक खुदा की इबादत करने लगे। शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट आदि के प्रयत्नों से जब नवीन हिन्दू धर्म की स्थापना की गई तब जाट उन पौराणिकों की ओर आकर्षित न होकर उनके फंदे में न फंसे। उनके विचारों में एकेश्वरवाद के विपरीत अस्थिरता


घोड़े, गाय आदि पशु तथा मनुष्य को मारकर के होम करना कहीं नहीं लिखा है । देखो! इसका अर्थ -

1. अश्वमेध यज्ञ - राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना।
2. गोमेध - अन्न, इन्द्रियां, किरण, पृथ्वी आदि को पवित्र रखना।
3. नरमेध - जब मनुष्य मर जाये तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना। (सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 188)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-122


आना ही चाहती थी कि ऋषिवर श्री दयानन्द सरस्वती ने अपना दिव्य सन्देश सुनाकर उन्हें शुद्ध वैदिक मत का मार्ग दिखाया। हिन्दू जाटों ने उनके उपदेशों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। आज परिणाम यह है कि हिन्दू कहलाने वाले सम्पूर्ण जाट वैदिक मतानुयायी आर्यसमाजी हैं। इसी प्रकार एकेश्वर विश्वासी गुरु नानक जी ने जब सिक्ख सम्प्रदाय की नींव डाली तो पंजाब के जाटों ने पौराणिकों द्वारा दी हुई विचारों की दासता का त्याग करके सर्वथा सामूहिक रूप से सिक्ख धर्म को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार सिन्ध सीमाप्रान्त का जाट मुसलमान, पंजाब का जाट सिक्ख, राजस्थान, मध्यभारत, हरयाणा, आगरा व अवध उत्तरप्रदेश का जाट वैदिकधर्मी रूप में एक ही ईश्वर को मानता और उसका ध्यान करता है। यह जाटों की अपनी निराली विशेषता है जो वैदिक आर्यों में थी।

26.

गुणकर्मानुसार छोटा बड़ा मानना - आर्य संस्कृति की प्रबल पोषक वर्णव्यवस्था का ह्रास होने पर वंशों की ऊंच-नीच की इतनी प्रबलता हुई कि वर्ण के नीचे जाति-पाति में पारस्परिक घृणा के भाव घर कर गये। हुआ यह कि राम के वंशज बनने वालों ने दूसरों को तुच्छ, कृष्ण की परम्परा वालों ने यदुवंश को ही सब कुछ मानकर जो भाव प्रसारित किए उससे वातावरण विषाक्त होता गया। इसी आधार पर ब्राह्मणों के गौड़ों में आदिगौड़, गूजर गौड़, कन्नौजियों में बीस बिस्से, अठारह बिस्से वालों के शुक्ल, वाजपेयी तथा सनाढ्य, सारस्वत, गौतम, मद्रासी, बंगाली, पहाड़ी, मैथिल, गुजराती, कश्मीरी आदि इतने अधिक भेद हुए जोकि गणना से भी परे हैं। उनकी ऊँच-नीच का परिणाम यह है कि प्रयत्न किए जाने पर भी आज तक कभी भी ब्राह्मणों का कोई संगठन सम्पन्न नहीं हुआ। अहीरों में नन्दवंशी और यादव, गूजरों में बड़गूजर, मराठों में भोंसले, सब अपने को वंश के बड़पन से ही ऊँचा माने बैठे हैं। वैश्य, खत्री और शूद्रों में भी यही स्थिति हुई। गोत्रप्रवरों की दलदल में सम्पूर्ण देश ऐसा बुरी भांति जकड़ा गया कि व्यक्तिगत उन्नति में भयंकर बाधाएँ उपस्थित हो गईं। आदर्श समाज के उदाहरणस्वरूप एक जाट क्षत्रिय जाति ही ऐसी सुव्यवस्थित पाई जाती है कि जिसके प्रत्येक नर-नारी ने वंशों में उत्पन्न हुए उन्हीं नरपुंगवों की उच्च सत्ता स्वीकार की जो अपने गुण कर्मों से देश जाति को जीवित (जागृत) बना गए। जाटों में किसी भी जातीय नेता की प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा, वंश (गोत्र) के कारण कभी नहीं हुई। उनकी कमनीय कीर्ति ही ख्याति के लिए कारण बनी। इस प्रकार वैदिक रीत्यानुसार जाटों में आज भी गुणकर्मानुसार ही आदर प्राप्त होता है। यह उनकी आर्यों की भांति दूसरी विशेषता है। जाटों के लगभग आज 2500 गोत्र हैं परन्तु इस आधार पर कोई गोत्र छोटा-बड़ा नहीं कहा जाता, सब समान हैं। सब ही गोत्रों की रोटी-बेटी लेने देने में कोई अन्तर नहीं है। यह विशेषता किसी दूसरी जाति में नहीं है।

27.

स्त्रियों को समानाधिकार - प्राचीन समय में भारत में नारियां सभी क्षेत्रों में पुरुषों की भांति ही उन्नति करती थीं। वेदादि श्रुति स्मृति शास्त्र एवं शस्त्र सभी दिशाओं में अपना अभ्यास बढ़ा सकती थीं। भारतीय ऋषियों की भांति घोषा, विश्ववारा, लोपामुद्रा, सुलभा आदियों ने भी ऋषि का पद प्राप्त किया था। सती, सीता, दमयन्ती, विदुला, कुन्ती, गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी देवियों ने त्याग तप के जो उदाहरण उपस्थित किए उनसे भारत का सिर सदा गर्वोन्नत रहेगा। किन्तु जब भारत का सर्वतोमुखी पतन हुआ तो इस आदिशक्ति मातृजाति के भी शिक्षा एवं विकास पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उनके उपयोग को रमणी, निवास को महिला,


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-122


उनके महत्त्व को अबला नाम रखते हुए शंकराचार्य ने नरक की नाली और बाद में हिन्दुओं को पैर की जूती, मोल की बांदी सिद्ध कर दिया। उनकी शिक्षा के साथ स्वास्थ्य पर भयानक कुठाराघात करते हुए उन्हें बाल-विवाह द्वारा सर्वथा अशक्त कर दिया। उसका स्वाभाविक परिणाम अकाल मृत्यु एवं विधवाओं की संख्या में वृद्धि होना ही था। पौराणिक शास्त्रों ने विधुरों को तो पुनर्विवाह की आज्ञा दे दी किन्तु स्त्रियों को आज्ञा दी गई कि या तो वे पति के शव के साथ ही अग्निचिता में भस्म हो जायें या आजन्म चिन्ता-चिता में झुलसती रहें। इसका परिणाम यह हुआ कि विधवा होते ही उस पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। पूरा जीवन चिन्ताओं की अग्नि में जलती रहीं। इस दुष्परिणामस्वरूप इस युग में असंख्य विधवा स्त्रियां वेश्यायें बन गईं। स्त्री जाति की अपमानजनित स्थिति उन क्षत्रियों में और भी देखी जाती है जहां दास-दासी प्रथा का बोलबाला है। राजस्थान आज इन दासीपुत्रों की समस्या से भी चिन्तित है। इस प्रकार देश का क्षत्रिय वर्ग अपने ह्रास के ओर बढ़ता जा रहा है।

जगज्जननी स्त्री जाति का सच्चे अर्थों में यदि किसी क्षत्रिय जाति ने सम्मान करना सीखा है तो निर्विवाद रूप से जाटों ने। जाट जाति का कोई युवक यदि अन्य जाति में विवाह कर भी ले तो उस स्त्री को दायभाग का पूर्ण अधिकार मिलता है। जिस प्रकार मानसरोवर से निकल कर भागीरथी गंगा मार्ग में मिलने वाली प्रत्येक छोटी नदी के पानी को गंगाजल बनाती हुई चलती है उसी प्रकार जाट के घर आई, जाटनी कहलाई लोकश्रुति के अनुसार वीर जाट जाति अपने जैसे ही वीरपुत्रों को जन्म देती है। इस प्रकार के सभी सम्मान से जाट जाति क्षत्रियों में वह पारसमणि है जो लोहे को सोना बनाने की क्षमता रखती है। जाटों ने घर, बाहर सभी क्षेत्रों में स्त्रियों को सम्मानित समानता प्रदान की हुई है। ये अपने भाई की विधवा स्त्री से बिना हिचकिचाये विवाह कर लेते हैं, जो कि वैदिक शास्त्रों के अनुकूल है। आर्यों के अनुसार जाटों की यह तीसरी बड़ी विशेषता है। लगे हाथों यहां पर मैं विधवा विवाह का वर्णन करना उचित समझता हूँ।

विधवाविवाह (करेवा), नियोग

जाटों में यह प्रथा वेद शास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल से प्रचलित है। परन्तु पौराणिक ब्राह्मणों और उनके पटु-शिष्य लोगों की निगाह में जाटों की यह रिवाज खटकती थी। इस रिवाज के कारण कहीं प्रत्यक्ष और कहीं अप्रत्यक्ष तौर से इन लोगों ने जाटों को शूद्र कहने तक की नीचता की। हालांकि “कमलाकर” ग्रन्थ में जिसमें शूद्र जाति का वर्णन है, जाटों का नाम नहीं है। फिर भी उन्हें जलील करने में इन लोगों ने कसर न छोड़ी1। यह इन लोगों की जाटों से ईर्ष्या (द्वेष) है। अगले पृष्ठों में उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया जाएगा कि जाट भारतवर्ष के सच्चे क्षत्रिय सपूत हैं।

विधवा विवाह-नियोग के प्रमाण निम्नलिखित हैं -

देवर - उसको कहते हैं जो कि विधवा का दूसरा पति होता है चाहे छोटा भाई या बड़ा भाई अथवा अपने वर्ण या अपने से उत्तम वर्ण वाला हो, जिससे नियोग करे उसी का नाम देवर है। विधवा स्त्री के लड़के वीर्यदाता के न पुत्र कहलाते, न उसका गोत्र होता, न उसका स्वत्व उन लड़कों पर रहता। किन्तु वे मृतपति के पुत्र कहे जाते हैं। उसी का गोत्र रहता है और उसी के पदार्थों के दायभागी होकर उसी के घर में रहते हैं। (सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृ० 77-82)


1. जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज पृष्ठ 74-75


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-124


जैसे विवाह में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण है, वैसे नियोग में भी बहुत प्रमाण हैं -

(क)
कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ॥2॥
(ऋ० मं० 10, सू० 40, मं० 2)
भावार्थ - गृहस्थी नर-नारियों को अपना जीवन सदैव प्रेमयुक्त बनाना चाहिए। जिस भांति विवाह के समय वर-वधू में स्नेह होता है, वह सदैव बना रहना चाहिए। यदि मृत्यु के कारण पति का पत्नी से वियोग हो जाए तो पत्नी सन्तान की इच्छा होने पर देवरतुल्य पुरुष से नियोग द्वारा सन्तान प्राप्त कर सकती है॥2॥
(ख)
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधितोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ॥
(ऋ० मं० 10, सू० 18, मं० 8)
भावार्थ - हे नारी! तू जीवित जनों को लक्षय कर उठ खड़ी हो। तू तो इस निष्प्राण के समीप पड़ी है। उठकर आ, पाणिग्रहण करने वाले और पोषण करने वाले तथा पालक पति की इस सन्तान को लक्ष्य करके तू उसके साथ रह। यदि सन्तान जीवित न हो तो केवल सन्तान के लिए नियोग विधि से पुत्र को जन्म दे॥8॥
(ग)
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि॥
(ऋ० मं० 10, सू० 85, मं० 45)
अर्थ - हे वीर्य सींचने में समर्थ ऐश्वर्ययुक्त पुरुष! तू इस विवाहित स्त्री व विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर। इस विवाहित स्त्री में दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष व नियुक्त पुरुषों से दस सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवां पति को समझ। इस वेद की आज्ञा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णस्थ स्त्री और पुरुष दस-दस सन्तान से अधिक उत्पन्न न करें क्योंकि अधिक करने से सन्तान निर्बल, निर्बुद्धि, अल्पायु होती हैं और स्त्री तथा पुरुष भी निर्बल, अल्पायु और रोगी होकर वृद्धावस्था में बहुत से दुःख पाते हैं।
(घ)
तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः। (मनु० 9, 69)
अर्थ - जो अक्षतयोनि स्त्री विधवा हो जाये तो पति का निज छोटा भाई भी उससे विवाह कर सकता है।
(ङ)
सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तर।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः॥
(ऋ० मं० 10, सू० 85, मं० 40)
अर्थ - हे स्त्री! जो तेरा पहला विवाहित पति तुझको प्राप्त होता है उसका नाम सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से ‘सोम’, जो दूसरा नियोग से प्राप्त होता है वह एक स्त्री से संभोग करने से ‘गन्धर्व’, जो दो के पश्चात् तीसरा पति होता है, वह अत्युष्णतायुक्त होने से ‘अग्निसंज्ञक’ और तेरे चौथे से लेकर ग्यारहवें तक नियोग से पति होते हैं, वे ‘मनुष्य’ नाम से कहाते हैं। जैसा इस मंत्र से ग्यारहवें पुरुष तक स्त्री नियोग कर सकती है वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री तक नियोग कर सकता है।
(च)
मनु ने लिखा है कि (सपिण्ड) अर्थात् पति की छः पीढियों में पति का छोटा या

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-125


बड़ा भाई अथवा स्वजातीय तथा अपने से उत्तम जातिस्थ पुरुष से विधवा स्त्री का नियोग होना चाहिए। परन्तु वह जो मृतस्त्रीक पुरुष और विधवा स्त्री सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करती हो तो नियोग होना उचित है और सब सन्तान का सर्वथा क्षय हो, तब नियोग होवे। जो आपत्काल अर्थात् सन्तानों के होने की इच्छा न होने में बड़े भाई की स्त्री से छोटे भाई का और छोटे की स्त्री से बड़े भाई का नियोग होकर सन्तानोत्पति हो जाने पर भी पुनः वे नियुक्त आपस में समागम करें तो पतित हो जायें अर्थात् एक नियोग में दूसरे पुत्र के गर्भ रहने तक नियोग की अवधि है। उसके पश्चात् समागम न करें और जो दोनों के लिए नियोग हुआ हो तो चौथे गर्भ तक अर्थात् पूर्वोक्त रीति से दस सन्तान तक हो सकते हैं। पश्चात् विषयासक्ति गिनी जाती है। इससे वे पतित गिने जाते हैं और जो विवाहित स्त्री पुरुष भी दसवें गर्भ से अधिक समागम करें तो कामी और निन्दनीय होते हैं। अर्थात् विवाह व नियोग सन्तान ही के अर्थ किये जाते हैं, पशुवत् कामक्रीडा के लिए नहीं। (मनु० 9-58, 59, 159)
(छ)
नियोग मरे पीछे ही नहीं, परन्तु पति के जीते हुए भी होता है -
अन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्॥ (ऋ० मं० 10, सू० 10, मं० 10)
जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री! तू मुझसे दूसरे पति की इच्छा कर क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी। तब स्त्री दूसरे से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करे। परन्तु उस विवाहित पति की सेवा में तत्पर रहे। वैसे ही स्त्री भी जब रोगादि दोषों से ग्रस्त होकर सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ हो तो अपने पति को आज्ञा देवे कि हे स्वामी! आप सन्तानोत्पत्ति की इच्छा मुझसे छोड़कर किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कीजिए। (विवाह, पुनर्विवाह, विधवाविवाह, नियोग के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती जी कृत सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास देखिये)।

अब विधवाविवाह व नियोग के वैदिक काल से इस युग तक के कुछेक उदाहरण दिए जाते हैं -

(ज)
सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी हुये। उनके पुत्र अत्रि थे। अत्रि के पुत्र चन्द्र ने राजसूय यज्ञ करके आचार्य बृहस्पति की पत्नी तारा को छीनकर अपनी पटरानी बना ली जिससे बुध नामक पुत्र हुआ। जोकि देवों द्वारा चढाई करने पर आचार्य की पत्नी के लौटा देने पर भी तारा से पैदा हुआ पुत्र (बुध) चन्द्र ही के पास रहा। फिर भी आचार्य बृहस्पति ने तारा को पत्नी रूप में ही रखा1
(झ)
मछुआ की पुत्री सत्यवती से कन्यावस्था में ही महर्षि पराशर द्वारा कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) उत्पन्न हुआ। उसी सत्यवती से सम्राट् शान्तनु ने विवाह किया जिससे विचित्रवीर्य और चित्रांगद दो पुत्र हुए जिनका विवाह काशिराज की पुत्रियों अम्बिका और अम्बालिका से हुआ।

1. विष्णु पुराण, महाभारत आदिपर्व : क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री पृ० 282.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-126


चित्रांगद युद्ध में एक गन्धर्व द्वारा मारा गया। उसकी रानी अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य से ही हुआ। फिर विचित्रवीर्य भी निःसन्तान मर गया। अब सत्यवती ने भीष्म की सलाह से अपने पुत्र व्यास जी को बुलाया। व्यास जी ने नियोग से अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और अम्बिका की दासी (बांदी) से विदुर - इन तीन पुत्रों को उत्पन्न किया। धृतराष्ट्र और पाण्डु व्यासपुत्र नहीं कहलाए बल्कि विचित्रवीर्य के पुत्र कहलाये1
(ञ)
पाण्डु राजा की रानी कुन्ती और माद्री थीं। पाण्डु रोगी होने के कारण सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ था। सो उसने अपनी दोनों रानियों को नियोग से सन्तान पैदा करने की आज्ञा दे दी। नियोग से कुन्ती ने धर्म से युधिष्ठिर, वायु से भीम और इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न किये और इसी तरह माद्री ने अश्विनीकुमारों से नकुल और सहदेव को पैदा किया। वे पांचों पाण्डु के ही पुत्र कहलाये2
(ट)
नल और दमयन्ती का स्वयंवर विवाह हुआ था। नल और पुष्कर निषध देश के राजा वीरसेन के पुत्र थे। पुष्कर ने जुआ खेलकर नल का सब राजपाट लेने पर, नल दमयन्ती के साथ वन को चला गया। एक रात नल, दमयन्ती को सोती हुई छोड़कर वन में किसी ओर चला गया। जब दमयन्ती की आंख खुली तो वह रोती-पीटती अपने पति की खोज करने लगी। अन्त में वह अपने पिता भीम के घर में पहुंच गई जो कि विदर्भ देश का राजा था जिसकी राजधानी कुण्डिनपुर थी।
उधर नल, अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के यहां बाहुक नाम से अश्वशाला का अध्यक्ष बनकर नौकरी करने लगा। दमयन्ती ने अपने माता-पिता को कहा कि नल के बिना मैं मर जाऊंगी। तब राजा भीम ने अपने ब्राह्मण नल की खोज करने चारों ओर भेजे। एक दिन पर्णाद नामक ब्राह्मण ने आकर दमयन्ती से कहा कि अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के दरबार में बाहुक नामक सारथी है। नल के चित्र से उसका आकार मिलता है। दमयन्ती ने सुदेव ब्राह्मण को कहा कि “आप शीघ्र ही अयोध्या पहुंचकर राजा ऋतुपर्ण से कहें कि राजा भीम की पुत्री दमयन्ती, नल के जीने या मरने का कुछ पता न लगने के कारण, कल सवेरे सूर्योदय के समय दूसरा स्वयंवर करना चाहती है। राजा भीम ने आदर सहित कहा है कि आप अवश्य पधारिये।” सुदेव द्वारा सन्देश सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने कहा - “जैसी राजा भीम की बेटी, वैसी मेरी बेटी, मैं जरूर पहुंचूंगा।” राजा ऋतुपर्ण की आज्ञा से बाहुक सबसे तेज घोड़े रथ में जोतकर, राजा ऋतुपर्ण को रथ पर बैठाकर वायु के वेग के समान चल पड़ा और अयोध्या से सौ योजन दूर विदर्भ में सूर्योदय से पहले ही पहुंच गया। दमयन्ती ने अपने पति नल को पहचान लिया और दोनों को मिलकर बड़ी खुशी हुई।3। (राजा ऋतुपर्ण नल की विद्या-शक्ति से एक ही दिन में विदर्भ पहुंच गया। घोड़ों से रथ में जाने की कुछ भी सच्चाई नहीं।) (उपदेशमंजरी स्वामी दयानन्द जी का दसवां प्रवचन पृ० 77)।
(ठ)
बाली ने सुग्रीव की पत्नी रूमा को अपनी महारानी बना लिया था। परन्तु बाली के मरने पर सुग्रीव ने अपनी स्त्री रूमा को फिर पत्नी स्वीकार कर लिया और बाली की विधवा रानी तारा से विवाह कर लिया।

1, 2. विष्णु पुराण, पृ० 126, महाभारत आदिपर्व पृ 288-294, सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृ० 82.
3. ज्ञान सरोवर भाग 7 पृ० 92-102 लेखक श्यामजी गोकुल वर्मा। महाभारत वनपर्व अ० 7, श्लोक 23-23.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-127


#वानरसेना के स्वामी पराक्रमी सुग्रीव ने महात्मा श्री रामचन्द्र जी के पास जाकर अपने महाभिषेक का समाचार निवेदन किया और अपनी पत्नी रूमा को पाकर उन्होंने उसी प्रकार वानरों का साम्राज्य प्राप्त किया जैसे देवराज इन्द्र ने त्रिलोकी का। (किष्किन्धा काण्ड, सर्ग 26, श्लोक 42, पृ० 746)।
#लक्ष्मण तारा से कहता है कि “अपने स्वामी के हित में संलग्न रहने वाली तारा! तुम्हारा यह सुग्रीव पति विषयभोग में आसक्त होकर धर्म और अर्थ के संग्रह का लोप कर रहा है। तुम इसे समझाती खों नहीं?” (वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड, तेतीसवां सर्ग, पृ० 773, श्लोक 43)।
(ड)
सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रामादित्य ने अपने कायर भाई रामगुप्त, जिसने शत्रु हूणों से डरकर अपना राज्य रखने के लालच में, कई शर्तों के साथ उनको अपनी रानी ध्रुवदेवी देना भी स्वीकार कर लिया था, को मारकर उसकी विधवा रानी ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया था। सारी जनता इससे बड़ी प्रसन्न हुई (जाट इतिहास पृ० 18 लेखक रामस्वरूप जून)।
(ढ)
सन् 1300 ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ को जीतकर वहां पर अपने पिट्ठू स्वधर्मत्यागी मालदेव राठौर को सूबेदार नियुक्त कर दिया था। उस समय भीमसेन व उसकी रानी पद्मिनी के वंशज राणा हमीर ने चित्तौड़ को छोड़कर, तमाम मेवाड़ शत्रु से जीत लिया था। मालदेव ने हमीर की प्रतिष्ठा खोने के लिए धोखे से अपनी विधवा लड़की का विवाह हमीर से कर दिया। हमीर उसे अपनी पत्नी स्वीकार करके ले आया। उसी लड़की के षड्यन्त्र से राणा हमीर ने चितौड़ को जीत लिया। कर्नल जेम्स टॉड: Tales of the Indian Cavaliers by C.A.K. Page 37-40)

ये इतने प्रमाण देने का हमारा तात्पर्य यह है कि पाठक भलीभांति समझ जायें कि विधवा-विवाह नियोग पुनर्विवाह और स्त्रियों का सम्मान, वेद-शास्त्रों के अनुसार वैदिककाल से आर्य लोग करते आये हैं और जाटों में यह प्रथा आदिकाल से आज तक प्रचलित है जो भारत की अन्य किसी जाति में नहीं है। जाटों की यह तीसरी बड़ी विशेषता है जो जाटों का निर्विवाद विशुद्ध आर्य होना सिद्ध करती है।

टीका - यह बड़ी खुशी की बात है कि आजकल जाटों की देखा देखी ही हिन्दुओं की अन्य तमाम जातियों ने भी विधवाविवाह-नियोग अपनी-अपनी जातियों में चालू कर दिया है। नवीन हिन्दू-धर्मी ब्राह्मणों ने जाटों को विधवा-विवाह करने के कारण शूद्र कहने तक की नीचता की। (ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 74-75) और बड़े-बड़े शास्त्रों व ग्रन्थों में भी जाटों को ही नहीं अपितु अन्य क्षत्रिय जातियों को भी शूद्र एवं म्लेच्छ आदि लिख मारा। आज वही ब्राह्मण जाति अपने भाई की विधवा से जाटों से उदाहरण लेकर, विधवाविवाह व नियोग करती है।

28.

संघ रूप से निरामिष भोजी होना - मानव जाति के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिए आत्मिक शुद्धि का आधार आहारशुद्धि है। इसीलिए वेदशास्त्रों के आधार पर ऋषि मुनियों ने मनुष्यों के लिए मांस खाना निषेध और पाप कहा है। ईश्वर ने मांस-भक्षी और शाकाहारी प्राणी की रचना में भी अन्तर रक्खा है। इसीलिए मांसाहारी पशु घास पात और शाकाहारी पशु मांस की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। ईश्वर ने मांसाहारियों में विशेष गुण दिये हैं जो निम्न प्रकार से हैं -

(1) मांसाहारी जीभ से पानी पीते हैं। (2) उनके शरीर से पसीना नहीं निकलता। (3) उनके


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-128


बच्चों की पैदा होते समय आंखें बन्द रहती हैं। (4) इनके दांत चुभने वाले, नुकीले होते हैं। (5) मांसाहारी प्राणी अंधेरे में भी देख सकते हैं। (6) ये सहवास (मैथुन) के बाद जुड़ जाते हैं। (7) इनका मैदा बड़ा होता है। (8) आंखें शरीर की लम्बाई से बड़ी होती हैं। (9) मांसभोजी स्वभावतः मनुष्य से डरते हैं। (10) इनके शरीर एवं आकृति की रचना भयानक होती है।

इन युक्ति प्रमाणों से मनुष्य मांसभक्षी प्राणी नहीं है और न ही प्राचीन आर्य मांस खाते थे। किन्तु महाभारत के बाद पौराणिक काल में यज्ञों के विधि विधान और देवी देवताओं की सन्तुष्टि के लिए सहस्रों प्राणियों का नित्य ही वध किया जाने लगा। बुद्ध के सन्देश, जैनियों के सिद्धान्त भी उसे न रोक सके। काली कलकत्ते वाली के मन्दिर से राजपूताने की रियासतों के पर्व उत्सवों पर बिहार, बंगाल, आसाम, पहाड़ी जिलों के देहात में, कन्नौजियों एवं राजपूतों के घरों में जाकर देखने से हिंसा का ताण्डव नृत्य दिखाई दे रहा है। इसका भयंकर दुष्परिणाम देश के स्वास्थ्य एवं आर्थिक स्थिति पर पड़ा है। भारत की असंख्य जातियों, उपजातियों में यदि किसी ने प्रारम्भ से पशुहिंसा और मांसभक्षण से अपने संघ को बचाया तो वह केवल जाटों ने ही। जबकि दूसरे क्षत्रिय शैव शाक्त बनकर मन्दिरों में बकरों, भैंसों आदि की बलि दे रहे थे। उस समय यह जाट आदर्श संघ बौद्ध, जैन, वैष्णव बनकर देश में अहिंसकभावों का प्रसार कर रहा था। सेना का कारण कुछ अपवाद हो जाने पर भी जाटों की विशाल जनसंख्या मांस भोजन के सदा विपरीत रही है। जाट जमींदार-किसान अपने बूढ़े, दुर्बल या किसी भी आयु के पशु को कसाई के हाथ बेचना नीच कार्य समझते हैं। जाट मांसाहारी नहीं हैं और गाय, भैंस का दूध, दही, घी और अपने हाथ से अपने खेतों में पैदा किया हुआ अन्न व सब्जियों का सेवन करते आये हैं और आदि काल से ही मांसाहारी जातियों से बढ चढ कर इन्होंने वीरता एवं साहस के आदर्श उदाहरण दिए हैं, जो कि इनके क्षत्रिय होने के ठोस प्रमाण हैं। इनके कुछ उदाहरण अगले पृष्ठों में लिखे गये हैं। यह जाटों की चौथी विशेषता है जो इनका आर्य होने का दृढ़ प्रमाण है।

29.

प्रान्तीय भेद-भाव से परे रहना - बौद्धकाल के पश्चात् नवीन हिन्दू धर्म के समय हिन्दुओं की लगभग सभी जातियों में ऊंच-नीच के भेदभाव की प्रबलता हो उठी। क्षत्रिय जातियों में भी इसी विषमता ने स्थान ग्रहण किया। ब्राह्मणों में प्रान्तीयता तो दूर रही, सरयू नदी के द्वारा पारीण और वारीण का ही बड़ा भेदभाव हो गया। मारवाड़ी अपने ही प्रान्तवासियों को श्रेष्ठतम समझने लगे। राजपूतों ने स्थानविशेषों की सीमाओं में अपना रोटी-बेटी का क्षेत्र अत्यन्त संकीर्ण कर लिया। इन अनुचित भ्रान्तस्थितियों से अन्तःप्रान्तीय सार्वजनिक कार्य कर सकना जातियों के लिए असम्भवप्रायः हो गया। प्राचीन भारत की सभी विशेषताओं की सच्ची स्मारक जाट जाति में ही आज भी अखिल भारतीय अटूट सम्बन्ध बना हुआ है। केवल जाट कह देने से ही सारे भारतवर्ष में बिना भेदभाव के खान-पान और रोटी बेटी का सम्बन्ध आज तक भी विद्यमान है। सामाजिक संगठन के प्रेमभाव से सभी स्थानों के हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जाट एक हैं। आज की जाति परिभाषाओं के अनुसार सीमाबन्धनों से परे वंशगत ऊंच-नीच से दूर यदि कोई संगठन में आदर्श जाति है, तो वह केवल जाट है। यह उनकी पांचवीं विशेषता है जो जाटों को आर्य नस्ल होना सिद्ध करती है।

30.

जाटों का शारीरिक गठन, धर्म, समाज, विवाह, पंचायत और भाशा के विषय में विस्तार


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-129


से अध्याय 2 के आरम्भ में लिखकर वहां भी सिद्ध किया गया है कि जाट विशुद्ध आर्य नस्ल से हैं, और कुछ उदाहरण क्षत्रिय एवं भारतीय सुपुत्र होने के भी दिये हैं।

विवाह का समय और प्रकार कौन सा अच्छा है, इस विषय में कुछ और लिखना उचित है -

सोलहवें वर्ष से लेकर चौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेकर अड़तालीसवें वर्ष तक पुरुष का विवाह उत्तम है। उसमें जो सोलह और पच्चीस वर्ष में विवाह करे तो निकृष्ठ, अठारह-बीस की स्त्री, तीस-पैंतीस व चालीस वर्ष के पुरुष का मध्यम, चौबीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह होना उत्तम है। (सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास, पृ० 58)

गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि ।
उद्वहेत द्विजो भार्या सवर्णा लक्षणान्विताम् ॥मनु० 3-4॥

गुरु की आज्ञा ले, स्नान कर गुरुकुल से अनुक्रमपूर्वक आके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करे।

असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ॥मनु० 3-5॥

जो कन्या माता के कुल की छः पीढियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो उस कन्या से विवाह करना उचित है। (अधिक जानकारी के लिए देखो सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृ० 58-68)।

ऊपर लिखित विवाह शादी के शास्त्रों में लिखित नियमों का आर्यों की भांति उचित पालन करने वाली एक जाट जाति ही है जबकि दूसरी जातियों में इस प्रथा का शास्त्रीय विधि के अनुसार पालन नाममात्र ही है। यह जाटों की छठी विशेषता है जो इनके आर्य नस्ल होने का दृढ प्रमाण है। आजकल जाटों में लड़का या लड़की का विवाह करने की रीति इस प्रकार है -

जो गोत्र छोड़ते हैं - अपने पिता, माता, दादी, नानी (नानी का कई जगह नहीं भी छोड़ते) और यदि पिता ने दूसरा विवाह कर लिया हो तो माता की तरह उस मौसी का गोत्र भी छोड़ते हैं। अपनी भांजी, भुआ की लड़की और मौसी जो अपनी माता की बहन होती है, उसकी लड़की, अपने बहनोई की बहन को स्वयं अपनी बहन बेटी समझ कर उससे विवाह नहीं करते। कई गोत्रों में भाईचारा है। वे आपस में विवाह नहीं करते। जैसे दलाल, देसवाल, मान, सुहाग ! अहलावत, ओहलाण, पेहलाण और ब्रह्माण चारों गोत्र तो भाई हैं जो आपस में एक-दूसरे से विवाह शादी नहीं करते और एक दूसरे की भांजी तथा भांजा के साथ भी विवाह नहीं करते हैं1। कुछ अन्य हिन्दू जातियां जैसे सैनी, बैरागी, माली, चमार, धानक, सुनार, लोहार, खात्ती आदि विवाहों में अपना गोत्र, माता और दादी का गोत्र छोड़ते हैं। मद्रास में नायडू हिन्दू तो खुद अपनी भांजी से विवाह करने में अपना गौरव समझते हैं। ब्राह्मण अपना, माता व दादी का गोत्र छोड़ते हैं। परन्तु इनमें शासन गोत्र के अनुसार इनका आपस में अपने गोत्र में विवाह हो जाता है। जैसे बेरी गांव में ब्राह्मण शासन गोत्र कौशिक फटवारये हैं और ग्राम डीघल में ब्राह्मण शासन गोत्र कौशिक दीक्षित हैं। इस शासन आधार पर बेरी गांव के कौशिक गोत्री ब्राह्मण की पुत्री का विवाह डीघल गांव के कौशिक गोत्री ब्राह्मण लड़के के साथ हो जाता है। इस तरह की हालत में फटवारये व दीक्षित ब्राह्मण अपना,


1. नोट - जाट अपने गांव के साथ लगने वाली सीमा के साथ सभी गांवों में आपस में विवाह शादी नहीं करते हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-130


माता और दादी का गोत्र छोड़ते हैं। परन्तु कौशिक ब्राह्मण लड़की का विवाह, कौशिक गोत्र ब्राह्मण लड़के से हो जाता है (यदि उनके शासन गोत्र अलग-अलग हों)।

बनिया जाति में केवल अपना गोत्र ही छोड़ते हैं, और कोई नहीं छोड़ते हैं। अपनी माता, दादी आदि के गोत की लड़की से विवाह करते हैं। यहां तक भी विवाह हो जाता है कि आपस में साला, बहनोई एक दूसरे की बहन के साथ विवाह कर लेते हैं। जैनी भी बनियों की तरह ही रिश्ते नाते करते हैं। पंजाबी हिन्दू, जो पाकिस्तान से यहां आये हैं, वे तो केवल एक अपना ही गोत्र छोड़ते हैं और मुसलमानों की तरह माता, दादी के गोत की लड़की, अपनी भानजी, बुवा की लड़की, मामा की लड़की आदि सबसे विवाह कर लेते हैं। राजपूत भी केवल अपना ही गोत्र छोड़ते हैं।

जाटों की भाषा

जाटों को भाषा के आधार पर पहले ही आर्यवंशज सिद्ध किया जा चुका है। फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ और तथ्य प्रस्तुत किये जाते हैं -

मिस्टर डब्ल्यू. क्रुक ने जाटों को शुद्ध भारतीय आर्य सिद्ध करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है -

“The argument derived from language is largely in favour of the pure Aryan origin of the Jats. If they were Scythian Conquerors, where has their Scythian language gone to and how it came that they now speak and have, for centuries, spoken an Aryan language - a dialect of Hindi?” अर्थात् - “भाषा द्वारा उत्पन्न हुए तर्क-वितर्क ने जाटों को पूर्णरूप से विशुद्ध आर्य नस्ल सिद्ध किया है। यदि वे सिथियन विजेता थे तो उनकी सिथियन भाषा कहां चली गई? ऐसा कैसे हो सकता था कि वे अब आर्यभाषा को बोलते हैं जिसे वे सदियों से बोलते आये हैं, जो एक प्राकृतिक हिन्दी भाषा है।”

जाटों की भाषा के प्रत्येक शब्द का मूल संस्कृत भाषा में मिलता है। इन शब्दों के कुछेक उदाहरण नीचे दिये जाते हैं। जैसे -

नं० जाटों की भाषा के शब्द संस्कृत शब्द हिन्दी अर्थ
1 सै अस्ति है
2 कड़ै (कित) कुत्र कहां
3 आड़ै अत्र यहां
4 उड़ै तत्र वहां
5 जड़ै यत्र जहां
6 इसा एतादृश ऐसा
7 के किम् क्या
8 किसा कीदृश् कैसा
9 उसा तादृश् वैसा
10 त्यार तत्पर तैयार
11 क्यूं कथम् क्यों
12 ईब अधुना अब
13 जिसा यथा जैसा
14 फेर पुनः फिर
15 सारा सर्वस्व समूचा, सम्पूर्ण
16 नेम नियाम नियम
17 नाच नर्त नृत्य
18 नया नव, नूतन नवीन
19 नाज अन्न अनाज
20 जतन यत्न यत्न
21 जी जीव जीव
22 दोफारा मध्याह्नम् दोपहर
23 सांझ सायं शाम
24 पखेरू पक्षिन् पक्षी
25 काग काकः कौआ
26 गिर्ज गृध्र गिद्ध
27 बुगला बकः बगुला
28 चूंच चञ्चु चौंच
29 बुल्हद वृषभः बैल
30 म्हैंस महिषी भैंस
31 थण स्तन थन
32 गौ, गावड़ी गौ गाय
33 हेरण हरिण हिरन
34 बिला बिडाल बिलाव
35 मूसा मूषक चूहा
36 सूर सूकर सूअर
37 मच्छी मत्स्य मछली
38 न्योल नकुल नेवला
39 सासु श्वश्रू सास
40 सुसरा श्वसुर ससुर
41 बाहण भगिनी बहन
42 मां मातृ माता

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-131


जाट भारतीय हैं

हमने प्रथम अध्याय में उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि आर्यों का मूल निवासस्थान आर्यावर्त्त (भारतवर्ष) है। ये यहां के आदिवासी हैं, यहां से जाकर विदेशों में भी उपनिवेश तथा राज्य स्थापित किये। आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल तक आर्यों का संसार में चक्रवर्ती राज्य रहा और वेदों का प्रचार भी रहा। यह भी सिद्ध किया गया है कि जाट विशुद्ध आर्य नस्ल के हैं (द्वितीय अध्याय)। जब आर्य क्षत्रियों का मूल निवास स्थान भारतवर्ष है और वैदिककाल से महाभारत तक इनका भारत एवं संसार के देशों पर चक्रवर्ती राज्य रहा और प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि जाट आर्य नस्ल के हैं और उन्हीं आर्यों के वंशज हैं तो साफ है और दृढ़ प्रमाण हैं कि जाट लोग भारत के आदिवासी एवं क्षत्रिय हैं।

जाटों को आर्यवंशज सिद्ध करते हुए बहुत से इतिहासकारों ने अपने निर्देश दिए हैं। कई एक स्थानों पर जाटों को भारतीय एवं क्षत्रिय लिख देने के भी वर्णन किए हैं। इनके अतिरिक्त जाटों के मूल निवास स्थान एवं क्षत्रिय वर्णन के विषय में अनेक इतिहासकारों ने अपने-अपने विचार लिखे हैं जिनके उदाहरण निम्नलिखित हैं –

1. - यूरोप व एशिया के कई देशों में जाट शब्द से मिलते-जुलते गाथ, गेटी, मेसेगेटी (महान् जाट), जूटी, जथरा, श्यूची, युची, यति, जरित्का आदि शब्दों को देखकर विदेशी इतिहासकारों ने, जिनमें हेरोडोटस, स्ट्रेबो, कनिंघम, टॉड1 और ग्राउस2 शामिल हैं, इन शब्दों के आधार पर यह साबित करने की चेष्टा की है कि जाट अवश्य ही उन्हीं जातियों के उत्तराधिकारी हैं जो विदेशों से भारत में आकर आबाद हुए। कुछ लोग ऑक्सस के किनारे से, कुछ सिदिया से, कुछ बैक्ट्रिया से और कुछ स्कैण्डिनेविया से आया हुआ बताते हैं। मेजर बिंगले3 लिखते हैं कि “ईसा से पूर्व पहली और दूसरी शताब्दी में जाट लोग ऑक्सस के किनारे से चलकर दक्षिण अफगानिस्तान होकर भारत आये।” इस कथन का खण्डन मि० नेशफील्ड, सर हर्बर्ट रिजले, डाक्टर ट्रम्प और वीकस तथा अनेक अरब


1. टॉड 1/50, 2. ग्राउस 21-22, 3. सेविन्थ ड्यूक ऑफ राजपूत्स।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-132


इतिहासकारों ने किया है। देसी इतिहासकारों में श्री चिन्तामणि वैद्य ने तो बड़े ठोस प्रमाणों के साथ उक्त विचारों का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि - “न किसी विदेशी इतिहास में ऐसा वर्णन है कि जाट अमुक देश से भारत में गये और न जाटों की दन्तकथाओं में।” पं० इन्द्र विद्यावाचस्पति “मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण” नामक इतिहास पुस्तक में वही बात लिखते हैं कि “जब से जाटों का वर्णन मिलता है, वह भारतीय ही हैं और यदि भारत से बाहर कहीं भी उनके निशान मिलते हैं तो वह भी भारत से ही गये हुए हैं।”

दूसरी बात यह है कि गाथ, गेटी, गात, जूटी, श्यूची, युची आदि समूह जिनके यूरोप और चीन में निशान पाये जाते हैं, वे उन जाटों मे वंशज1 हैं जो कि परिस्थितियों के कारण भारत से बाहर गये थे और वहां जाकर उन्होंने उपनिवेश व राज्य स्थापित किये। इस बात के विदेशी साहित्य में भी काफी प्रमाण भरे पड़े हैं कि भारतीय क्षत्री जाट यहां से बाहर गये और वहां जाकर उन्होंने अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

2. - कर्नल टॉड ने स्कन्धनाभ में जाटों की बस्तियों का वर्णन किया है। किन्तु जिस समय स्कन्धनाभ में उनके प्रवेश का वर्णन आता है उससे कई शताब्दी पहले भारत में जाटों का अस्तित्व पाया जाता है। जाट भारत से बाहर गये थे। वे ईसा से कई सौ वर्ष पहले गये और कई सौ वर्ष पीछे तक जाते रहे2

कर्नल जेम्स टॉड का मत है कि जाट इण्डो-सिथियन कुल के हैं, जो ईसा से एक सदी पूर्व अपने निवास स्थान ऑक्सस घाटी से पंजाब में प्रविष्ट हो गये थे। इसका समर्थन करने वालों में कनिंघम3, इब्बेसटन4, विसेन्ट स्मिथ5 आदि विद्वान् हैं। अन्य् विद्वान् जैक्सन6 व कैम्पबेल7 इनको कुषाण अथवा यूची जाति से सम्बद्ध करते हैं। डा० ट्रिम्प तथा बीम्स ने शारीरिक तथा भाषा दोनों दृष्टि से जाटों को शुद्ध इण्डोआर्यन वंशज होने का दावा किया है8। मिलर ने जाटों को सिथियन बताने वालों का खण्डन करते हुए इनको निःसन्देह आर्य वंशज कहा है9। भाषा से जो कारण निकाला गया है, वह जाटों को शुद्ध आर्यवंशज होने के जोरदार पक्ष में है। यदि वे सिथियन विजेता होते तो उनकी सिथियन भाषा कहां चली गई? और ऐसा कैसे हो सकता है कि वे अब आर्य भाषा को, जो कि हिन्दी की एक शाखा है,


1. “जाटों की उत्पत्ति” जाटों को भिन्न-भिन्न देशों में किस-किस नाम से पुकारा जाता है और किस सिद्धान्त से (देखो द्वितीय अध्याय)।
2. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 65.
3. कनिंघम, हिस्ट्री ऑफ दी सिक्ख पृ० 5.
4. इ० बेटसन, पंजाब कास्ट्स पृ० 220.
5. जनरल ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1899 ई० पृ० 534.
6. गजेटियर ऑफ दी बम्बई प्रेसीडेन्सी, जिल्द 1, भाग

1, पृ० 2.

7. गजेटियर ऑफ दी बम्बई प्रेसीडेन्सी, जिल्द IX, भाग 1, पृ० 461.
8. इलियट, मेमायर्स ऑफ दि रेसेज, जिल्द 1, 135-37.
9. डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ मुजफ्फरनगर 1920 ई०, पृ० 79.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-133


बोलते हैं और शताब्दियों तक बोलते आये हैं10

3. - बैक्ट्रिया और हरकानिया तथा खुरासानिया के मध्य मारगंस नदी के किनारों पर एक बहुत उपजाऊ प्रदेश है। यहां के निवासी जिट्टी (जाट) लोगों का वर्णन करते हुए प्टोलेमी और प्लिनी कहते हैं कि जाटों की यही आदि भूमि है। यदि ये दोनों यूनानी लेखक भारत की ओर आये होते तो उन्हें डॉ. ट्रिम्प की राय माननी पड़ती। साथ ही समझ लेते कि वे वहां के जाट, भारतीय जाटों के वंशज हैं, जो कि वहां अपना प्रजातंत्र राज्य चलाने के लिये तथा उपनिवेश स्थापना के लिये आये हैं। यह प्रदेश उन जाटों के नाम से जाटालि प्रसिद्ध हुआ11

4. - हूणों और शक-सिथियनों के आक्रमणों का जब तक नाम-निशान न था उस समय भी जाट भारत में आबाद थे और उनके आक्रमणों से काफी समय पहले जाट लोग सिन्ध प्रान्त में आबाद थे और उनका सम्बन्ध महाभारत के यौधों से था12

ऊपरलिखित विदेशियों के आक्रमणों से कई शताब्दी पहले दिल्ली पर जाटों का राज्य था। वाक़आत पंचहजारी रिसाला जो कि अनेक फारसी तवारीखों के आधार पर लिखा गया था, के लेखक ने उसमें देहली के शासकों में वीरमहा के वंशज जीवनलोक को जीवनजाट करके लिखा है। यह वीरमहा महाराजा युधिष्ठिर से 2371 वर्ष 2 मास 17 दिन बाद दिल्ली के राजसिंहासन पर राव वीरसालसेन को मारकर बैठा था अर्थात् वीरमहा ईसा से लगभग 800 वर्ष पूर्व देहली पर राज्य करता था। जीवन वीरमहा की 13वीं पीढी में उससे लगभग 300 वर्ष बाद में राज्याधिकारी हुआ है। इस तरह जीवन का समय भी ईस्वी सन् से लगभग 500 वर्ष पूर्व बैठता है। इस जाटवंश ने दिल्ली पर 16 पीढी राज्य किया जिसका समय 445 वर्ष, 5 मास 3 दिन रहा13। शक और हूणों के आक्रमण ईसा की तीसरी एवं चौथी शताब्दी से आरम्भ हुए थे। ऐसे प्रबल प्रमाणों को देखते हुए यही कहना पड़ता है कि जाटों को हूण-शक सिथियन आदि विदेशी लोगों में गिनने वालों ने बिना गहरी छानबीन किये ही धारणा बनाने में जल्दबाजी और भयंकर भूल की है।

ऊपर दिये गये उदाहरणों से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि जाट न हूणों की और न शक-सिथियनों की सन्तान हैं, किन्तु वे विशुद्ध आर्य हैं, जिनका मूल स्थान भारतवर्ष है14

जाटों के भारतीय मूल निवासी होने के कुछ और उदाहरण निम्न प्रकार से हैं -

  • (1) टॉड 1/52 - “जनरल कनिंघम की धारणा है कि बयाना और भरतपुर के हिन्दू जाटों की परम्परा कन्धार15 को अपना पैतृक-स्थान मानती है, जबकि मुसलमान जाट प्रायः गजनी15 अथवा गढ गजनी बतलाते हैं।” (आर्के सर्वे, खण्ड 20, इ० डा० भाग 1 परिशिष्ट पृ० 507)

10. मिस्टर सर हेनरी एम० इलियट के० सी० बी० “डिस्ट्रीब्यूशन आफ दी रेसेज आफ दी नार्थ प्राविंशेज आफ इण्डिया” और मि० डबल्यू क्रुक साहब।
11. राजपूत भाग 27 संख्या 8.
12. On the Role of the Jatts in Northern India's Ethnic History, Journal of Social Research 1964, by M.K. Kurdryavatsev USSR.
13, 14. ठा० देशराज जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड) पृ० 12-13.
15,16. गजनी को जाट राजा गजसिंह ने बसाया था और वहां कन्धार पर प्राचीन समय से जाटों का राज्य रहा। ये प्रदेश प्राचीन भारत के ही अंग थे । (लेखक)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-134


  • (2) क्रुक (ट्राइब 3/25) का कहना है कि मथुरा के जाट बयाना से हिसार और वहां से यमुना के समीप आकर बसे थे।
  • (3) नैसफील्ड (क्रुक पृ० 26) का विचार है कि “जाट” शब्द आधुनिक जादौ या यादौ शब्द का हिन्दी उच्चारण मात्र है और आजकल ये जादौ राजपूत कहलाते हैं।
  • (4) मिलर1 का विचार है कि जाटों को सिथियन प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त कल्पनाशक्ति का प्रयोग किया गया है। यदि मुखमाण्डलिक सामुद्रिक शास्त्र का कोई अस्तित्व हो सकता है तो कोई भी प्रतिभासम्पन्न लेखक उनके भारतीय आर्य होने पर सन्देह नहीं कर सकता।
  • (5) टॉड (1/52) जाटों को 36 राजकुलों में मानता है।
  • (6) कानूनगो (जाट) (पृ० 20) और एम० इलियट तथा बीम्स (पृ० 128) का विचार है कि जादौ (जाट) शूरसेन की पुरानी सीमाओं को छोड़कर कभी नहीं गये। सी० वी० वैद्य (पृ० 87-88) लिखते हैं कि जाट आर्यपुत्र भारत की सन्तान हैं और बृजमंडल तथा मालवा के मूल निवासी हैं।
  • (7) विदेशों में विभिन्न नामों से मिलने वाली जातियों, कुटुम्ब-कबीलों को यदि इन्हीं यादव-वंशज जाटों की सन्तान मानने की भूल की जाए तो यह सर्वमान्य होगा कि यूरेसिया के अन्धकार युग में यादवों (जाटों) ने ही भारतीय सीमाओं के बाहर जाकर नवीन उपनिवेश स्थापित किये थे। शिवदास गुप्ता का कथन है कि “जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुर्किस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनेविया, इंग्लैंड, ग्रीक, रोममिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज्य किया था और वहीं की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था2।”
  • (8) आर्य जाति और उनके वंशज जाट भारतवर्ष के मूलनिवासी हैं। जाट लोग भारत से विदेशों में गए और बस्तियां बसाईं। जाटों के नाम पर या इनके द्वारा बसाए गये बहुत नगर हैं जैसे - (क) स्पेन में जाटा (Jata), जाटवा (Jatwa) (ख) स्वीडन में जाटीनडल (Jatendal) (ग) पर्शिया में जाटिनगन (Jatingan) (घ) थरीश में जाट देश (The land of Jata) (ङ) डालमीटिया में जटन (Jaton) (च) जर्मनी में जाटिनगिलन्बस (The Jathingilnbs) (छ) डेनमार्क में जटलैण्ड आदि। (पौरथोलेन) (Portholan) - नामक पुराना तहकीकत किताब के संकेत से लिखनेवाला ठाकुर संसारसिंह जाट इतिहास उर्दू (पृ० 32)।
  • (9) जाटों का निकास व शक्ति शाकद्वीप3 (सिन्धु प्रान्त) में प्राचीनकाल से रहता आया है।

1. डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, मुजफ्फरनगर 1920 ई० पृ० 79.
2. प्राचीन भारत के उपनिवेश, प्रकाश 'स्वाथ' मासिक पत्रिका अंक 4-5 सं० 1976 ई०।
3. प्रारम्भिक अरब लेखकों के अनुसार सिन्ध प्रान्त की सीमायें पूर्व में राजस्थान के मरुस्थल से मिलतीं थीं। दक्षिण में समुद्र तट, पश्चिम में बलोचिस्तान का अधिकांश भाग और मकरान का किनारा, किरमान मनसूरा (आधुनिक तुर्किस्तान) और ईरान की सीमाओं से मिलतीं थीं। उत्तर में कन्धार, सीस्तान, सुलेमान पर्वत और कैकनान (बलोचिस्तान में आधुनिक किलात नामक स्थान) से मिली थीं। राय पृ० 1, 3.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-135


महाभारत काल से 5000 वर्ष पहले यहां जाट उन्नति के पथ पर थे1। यहां सीमान्त प्रहरी के रूप में जाटों ने भारतवर्ष की रक्षा के लिये विदेशी आक्रमणकारियों का बड़े साहस के साथ सामना किया। इन्होंने पश्चिमोत्तर मार्ग से भारत में प्रविष्ट होने वाले हूण, शक और यूनानियों से लोहा लिया2

  • (10) इस्लाम धर्म की स्थापना के समय शाकद्वीप (सिन्धु प्रान्त) में जाट जनशक्ति का बाहुल्य था (इ० तथा डा० 2/508) (परिशिष्ट)। जाट परिवार यहां के शासक, जागीरदार, उपजाऊ भूमि के स्वामी और विशुद्ध आर्य वैदिक संस्कृति के रक्षक थे।3। सीमान्त प्रदेश में यादव संस्कृति का अरब और ईरान के नवोदित शासक तथा नागरिकों से सर्वप्रथम संघर्षात्मक परिचय हुआ और वहां के लेखक भारतवर्ष के हिन्दुओं को जाट (जट) नाम से सम्बोधित करने लगे। (ई० तथा डा० भाग 1, पृ० 14, 449, भाग 2, पृ० 247)। मुस्लिम राष्ट्रों में यह धारणा परम्परागत चलती रही कि जाट यादव संस्कृति के वंशज और युद्धवीर हैं। महाभारत काल में सिन्धु नदी के आस पास जाटों का निवास था। (अरब इतिहासकार अलबुरूनी)
  • (11) यदि राजपूत अपनी वीरता एवं साहस के लिये प्रसिद्ध रहे हैं तो जाट उनसे किसी भी भांति कम नहीं रहे हैं। जाट जाति सम्पूर्णतया भारतीय एवं आर्य है। (राजस्थान के राजवंशों का इतिहास पृ० 77, लेखक जगदीशसिंह गहलावत)।
  • (12) “कारनामा राजपूत” के लेखक श्री नजमुल गनी रामपुरी ने जाटों का रहन-सहन सिंधु नदी के पश्चिम में लिखा है। श्री सुखसंपत्तिराय भंडारी ने अपनी पुस्तक “भारत के देशी राज्य” में जाटों को आर्यवंशज और भारत के निवासी लिखा है, और भी अनेक प्रसिद्ध इतिहासकारों ने इसकी पुष्टि की है।
  • (13) ईसा के प्रारम्भिक वर्षों में ‘युहची’ सिंध प्रदेश में आकर बसे, उनका अब भी नाम जीत या जाट है और अब भी वे सिंधु के दोनों किनारों पर काफी संख्या में हैं4
  • (14) पंजाब के सभी जाट गोत्रों की परम्परा पूर्व या दक्षिण-पूर्वी राजपूताना एवं केन्द्रीय प्रान्तों को अपने मूल स्थान के रूप में इंगित करती है5
  • (15) लोक परम्परा की दृष्टि से जाट इण्डो-आर्यन हैं, जो पूर्व से पश्चिम की ओर निष्क्रमित हुए, न कि इण्डो-सिथियन जो कि ऑक्सस घाटी से उतरे थे। निःसन्देह जाटों का एक निश्चित वर्ग भाटियों (जाटवंश) के साथ भारत के बाहर निष्क्रमित हुआ और अनेक शताब्दियों के पश्चात् ईरान की सीमाओं से होकर सिन्धु के पूर्व में पुनः प्रविष्ट हुआ। किन्तु इसी कारण वे विदेशी

1. देखो, जाट वीरों की उत्पत्ति।
2. 5वीं शताब्दी के चान्द्र व्याकरण के सूत्र 'अजयज्जर्टो हूणान्' से विदित होता है कि जाटों ने हूणों का विरोध किया था। (सी० वी० वैद्य पृ० 87)
3. टॉड 2/53, 89.
4. एल्फिन्स्टन, हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृ० 249; इलियट अपने इण्डियन ग्लासरि के सप्लीमेंट में यह दावा करते हैं कि सिन्धु के जाट और भरतपुर के जाट एक ही उत्पत्ति से हैं (पृ० 489).
5. रोज, पंजाब ग्लासरि, जिल्द II, पृ० 56 व 472, जिल्द III पृ० 56.


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आक्रान्ता नहीं कहे जा सकते1कानूनगो लिखते हैं - “अगर केन्द्रीय एशिया के गेटे किसी प्रकार आर्यन जदू या जाट हो सकते हैं, तो विपरीत क्रिया के भारतीय जदू (जाट) भी केन्द्रीय एशिया के गेटे के रूप में विकृत हो सकते हैं2।”

  • (16) “यदि जाटों का निकास ठीक तौर से मालूम करना है तो हमें मुख्य धारा में चलना चाहिये, शाखाओं में नहीं। यह कहना कि जाटों का निकास बाहर से आने वाली कौमों से है, क्योंकि बाहर से आने वाली कुछ कौमें जाटों में शामिल हो गईं, उसी प्रकार असम्भव है जैसा कि गंगा को निकलने के लिए हिमालय से निकलने के बजाय विन्ध्याचल से निकलना बताया जाए, क्योंकि सोन नदी जो उसमें गिरती है, विन्ध्याचल से भी पानी लाती है।” (कालिकारंजन कानूनगो लेखक जाट इतिहास)।
  • (17) यही महानुभाव कानूनगो जाट हिस्ट्री के दूसरे पृष्ठों में लिखते हैं कि - “हम इतना जानते हैं कि कोई वैज्ञानिक कारण (फिलालोजिकल) या (एंथोलोजिकल)जाटों के भारतीय आर्य होने के विपक्ष में नहीं है। वे न सिथियन हैं न जथरा हैं, ये मध्य एशिया के जथरा पहाड़ों से आने वाले नहीं हैं किन्तु सच्चे भारतपुत्र हैं जिन्होंने मालवा और राजपूताना को पंजाब से जाने से पहले अपने पुरुषों का घर बतलाया था। जाटों से इस बात को स्वीकार कराना कि वे पुराने यादवों की संतान नहीं हैं, बहुत मुश्किल है।”
  • (18) राजस्थान के जिट (जाट) अपने आपको यदुवंशी मानते हैं और वह काबुल (जबलिस्थान) से यहां आकर बसे थे (टॉड भाग 1, पृ० 88)। पिछले पृष्ठों में लिख दिया है कि जाट भारत के आदिवासी हैं। वे विदेशों में गए और वहां राज्य स्थापित किया। राजस्थान के जाट यहां के आदिनिवासी हैं। यहां से कुछ बाहर गये और जबलिस्तान में जाटों का राज्य रहा। मुसलमान आक्रमणकारियों के दबाव से ये वापिस अपने देश भारत में आ गए और राजस्थान के बहुत से जाट अपने पैतृक प्रान्त राजस्थान में आकर आबाद हो गये। (लेखक)


  • (19) आर्य जाटों का मूल निवास भारतवर्ष है। मि० नेसफील्ड लिखते हैं कि “भारतीयों में आर्य विजेता और मूल निवासी जैसा कोई विभाग नहीं है। वे बिल्कुल आधुनिक हैं।” यह अंग्रेजों की कुचाल है जो उन्होंने इस वीर जाति को आक्रान्ता कहा है। आर्य जाट भारत से बाहर भी गए हैं। पुनः बाहर से वापिस आये भी हैं तो अपने व्यापार और शासन के लिए अपने घर लौट आये। (लेखक)
  • (20) जाट वंश (गोत्र) अनेक आर्य क्षत्रियों एवं राज्यवंशों के संघ (गण) से प्रचलित हुए हैं, जिनका राज्य, आदि सृष्टि या वैदिक काल, रामायण, महाभारत, बौद्धकाल में, देश-विदेशों में रहा। बौद्धकाल के बाद से स्वतन्त्रता प्राप्ति तक भी भारत में कई एक छोटे-बड़े प्रान्तों पर जाटों का शासन रहा। इनका वर्णन अगले अध्यायों में लिखा जाएगा। जाटों का शासन विदेशों में भी रहा परन्तु अधिकतर इनका राज्य भारत में रहा। उपर्युक्त उदाहरणों से यह प्रमाणित है कि जाटों का आदि मूल निवास स्थान भारतवर्ष ही है। साफ है कि जाट भारतीय क्षत्रिय आर्य हैं, न कि बाहर से आए हुए।

1. कानूनगो, जाट, परिशिष्ट 'अ' पृ० 324.
2. कानूनगो, जाट, परिशिष्ट 'अ' पृ० 327.


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जाट क्षत्रिय वर्ण के हैं

पिछले पृष्ठों में उदाहरण देकर सिद्ध कर दिया है कि जाट आर्य नस्ल (वंशज) तथा भारतवर्ष के मूल निवासी हैं। अब इनके क्षत्रिय होने के प्रमाण दिए जायेंगे। परन्तु इससे पहले यह लिखने की आवश्यकता है कि कुछ थोड़े से इतिहासकारों एवं लेखकों ने जाटों के लिए क्षत्रिय के स्थान पर शूद्र और नास्तिक आदि शब्दों का प्रयोग किया है जिसमें सबसे बड़ा हाथ उन पौराणिक ब्राह्मणों का है जो जाटों से घृणा करते थे। एकाध ने इनको वैश्य वर्ण के बताया है। अब ऐसे लेखकों के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं -

महाभारत काल तक सब वैदिक धर्मी और एक-ईश्वरवादी थे। वर्ण-व्यवस्था प्रौढ अवस्था में पहुंच चुकी थी। ब्राह्मणों ने वर्ण को न बदलने वाला करार दे दिया था। परन्तु तीनों वर्ण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस बात को मानने को तैयार न थे। युधिष्ठिर जैसे धर्मात्माओं का तो दावा यही था कि वर्ण परिवर्तनशील हैं। अर्थात् - “शूद्र में ब्राह्मण के लक्षण दिखाई दें और ब्राह्मण में शूद्र के लक्षण हों तो न वह शूद्र, शूद्र है और न वह ब्राह्मण, ब्राह्मण है।” (शान्ति पर्व)।

किन्तु ब्राह्मण वर्ण पूरा प्रयत्न कर रहा था कि अन्य वर्णों में से अब ब्राह्मण बनना बन्द हो जायें। यज्ञों का उस समय भी पूरा महत्त्व था। किन्तु यज्ञ राष्ट्र की अपेक्षा व्यक्ति के लाभ के लिए अधिकांशतः किये जाने लगे थे।

महाभारत युद्ध में क्षत्रियों के सर्वनाश के बाद भारत की राष्ट्रीयता ध्वंस हो गई। आर्य जाति के मत-मतान्तरों ने टुकड़े-टुकड़े कर दिये। ऋषियों की सन्तान दुराचारियों और पाखण्डियों की वंशज जान पड़ने लगी। नागरिकता के अधिकार नष्ट हो गये। समाज बिल्कुल अन्धविश्वासी और मूढ हो गया। वे लोग आंख बन्द कर पुजारी, पण्डे, जोशी, भरारे और शाकुनि लोगों के दास हो गये। मानसिक स्वतन्त्रता को एकदम खो दिया। यद्यपि राजा थे किन्तु देश में पूर्णतः अराजकता थी। ढोंगी लोगों के हाथ में नेतृत्व चला गया था, जो सारे राष्ट्रवासियों को नचा रहे थे1। उस समय गौतमबुद्ध शाक्यों (जाट गोत्र) के प्रजातंत्र के सभापति शुद्धोधन के यहां पैदा हुए2

भगवान् बुद्ध का जन्म शुद्धोधन की रानी मायादेवी के गर्भ से कपिलवस्तु नगर के निकट ग्राम लुम्बिनीवन में 567 वर्ष ईसा पूर्व हुआ। बुद्ध जन्म के पूर्व जो धर्म भारत में प्रचलित था, उससे लोग ऊब उठे थे। वे अशांत थे। किसी ऐसे धर्म को चाहते थे जो उनकी आत्मा को शान्ति दे सके। ब्राह्मणों ने यज्ञों की दक्षिणा के भार से समाज को तंग कर रखा था। पशु-वध की यज्ञ प्रणाली से लोग व्याकुल हो रहे थे। यज्ञ कराते समय इसी देश में गोरखपुर के राजा की प्रिय रानी का समागम घोड़े के साथ इन ब्राह्मण पोपों ने करा दिया जिससे उस रानी की मृत्यु हो गई। ऐसा होने पर राजा वैराग्यवान् होकर अपने पुत्र को राज्य दे, साधु हो गया और इन पोपों की पोल निकालने लगा। इसी की शाखारूप चार्वाक और आभाणक मत भी हुआ था3। हिन्दू धर्म के सन्यासी स्वयं इस धर्म के विरुद्ध प्रचार


1. जाट इतिहास पृ० 29-30, लेखक ठाकुर देशराज।
2. बौद्धकालीन भारत - द्वितीय अध्याय तथा जाट इतिहास पृ० 32, लेखक ठा० देशराज।
3. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 189.


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करते थे। ऐसे ही कारणों से बौद्ध धर्म बड़े वेग के साथ भारत में फैल गया। इसी धर्म से मिलता-जुलता जैन-धर्म भी यौवन धारण कर रहा था। इन दोनों धर्मों में बलिदानों से खुश होने वाले तथा यज्ञ के द्वारा ढेर का ढेर घी, मिष्ठान्न खाने वाले एवं ब्राह्मणों को खिलाये जाने से खुश होनेवाले ईश्वर के लिए न कोई स्थान था और न उन धर्म-पुस्तकों के लिए स्थान था जिनसे ब्राह्मण, हिंसामय यज्ञों का समर्थन करते थे। ये दोनों धर्म, ब्राह्मण-धर्म के स्थान पर अपनी नवीन शिक्षाओं के प्रभाव से जनता को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे1। जैन धर्म के अनुयायी जैनमत को बहुत प्राचीन मानते हैं। वे अपने धर्म की उत्पत्ति ऋषभदेव से मानते हैं। उनको वे पहला तीर्थंकर (धार्मिक नेता गुरु) मानते हैं। उनके बाद 23 अन्य तीर्थंकर हुए। पार्श्वनाथ 23वें और वर्द्धमान महावीर 24वें तीर्थंकर गिने जाते हैं। भगवान् महावीर का जन्म लगभग 599 ई० पू० वैशाली के पास ही कुण्ड ग्राम में हुआ। आपके पिता ज्ञातृवंश (जाटवंश) के राजा थे2। भगवान् महावीर जी ने जैन धर्म को बड़ा बल दिया तथा दूर-दूर तक फैलाया।

बौद्ध और जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण धार्मिक आन्दोलन ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में हुए। इन दोनों ने ब्राह्मण धर्म में आई अनेक बुराइयों तथा कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। बुद्ध भगवान् और भगवान् महावीर के सिद्धान्त बड़े सरल थे जिनमें सत्य और अहिंसा मुख्य थे। भगवान् बुद्ध ने वर्ण भेद को उठा दिया था। पर वह पूर्ण सफल नहीं हुए। बौद्ध-धर्म क्षत्रियों को ब्राह्मणों से ऊंचा मानता था। एक स्थान पर स्वयं बुद्ध कहते हैं कि बौद्धों का जन्म सदैव ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वंश में हुआ है, परन्तु इस समय क्षत्रिय वंश उच्चतम है। अतः मैं इसी वंश में जन्म लूंगा3। एक जगह महात्मा बुद्ध फिर कहते हैं कि चतुर्वर्ण में वंश प्रतिष्ठा की दृष्टि से क्षत्रिय सर्वोच्च हैं4

जैनियों में पहले क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीन ही वर्ण थे। जब राजा भरत जैनियों के धार्मिक कृत्य कराने के लिए चौथा वर्ण ब्राह्मण बना चुके, तो अधीन राजा, उमराव और प्रजाजनों को एकत्रित कर कहने लगे, कि पुराने ब्राह्मण अक्षर म्लेच्छ हैं। ये नये ब्राह्मण तुम्हारे पूज्य हैं तथा जो लोग अक्षर म्लेच्छ देश (जहां ब्राह्मण धर्म फैला हुआ है) में रहते हैं, राजाओं को चाहिए कि उन पर सामान्य प्रजा के समान कर लगावें।

जो वेदों के द्वारा अपनी आजीविका करते हैं और अधर्म अक्षरों को सुना-सुनाकर लोगों को ठगा करते हैं, वे अक्षर म्लेच्छ कहलाते हैं। क्योंकि वे अपने अज्ञान के बल से अक्षरों से उत्पन्न हुए अभिमान को धारण करते हैं। हिंसा में प्रेम मानना, जबरदस्ती दूसरों का धन अपहरण करना और भ्रष्ट होना, यही म्लेच्छों का आचरण है। सो ये ही सब आचरण इनमें मौजूद हैं5। राजाओं को उत्तम जैन ब्राह्मणों के सिवाय किसी की पूजा नहीं माननी चाहिए6। पुराने ब्राह्मणों को


1. जाट इतिहास प्रथम अध्याय पृ० 34, लेखक ठाकुर देशराज।
2. जाट इतिहास पृ० 43, लेखक ठा० देशराज।
3. जातक 1,49.
4. अम्बाटठसुत्त, दीर्घ निकाय 3 ।
5. जैन आदि पुराण पर्व 42 ।
6. ये जैन ब्राह्मण, तीन वर्ण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों में से बनाये गये थे। (ठा० देशराज पृ० 45-46)


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तुच्छ ब्राह्मण और नीच ब्राह्मण कहा गया। जैन ग्रन्थों में ब्राह्मणों को अक्षर म्लेच्छ लिखा गया है1। वास्तव में देखा जाये तो बौद्ध और जैन धर्म क्षत्रियों के धर्म थे, जो कि ब्राह्मण-धर्म की गुलामी के प्रतिरोध में पैदा हुए थे।

पुराने ब्राह्मणों ने भी बौद्ध धर्म और जैन धर्म की काफी आलोचना की और उनको नष्ट करने के लिए बहुत उपाय किए। उनको म्लेच्छ व नीच तक कहा। जिस भांति जैन, ब्राह्मणों के दर्शन की मनाही करते थे उसी भांति ब्राह्मणों ने भी किया। जैसे - जैनियों के (नंगों का) श्राद्ध का भोजन न करें। इनके पास न बैठें, इनके साथ हंसी भी न करें, इनका सत्संग न करें, व्रत के दिन नंगे (जैन साधु) का दर्शन न करें, न उनसे बातचीत करें2। ब्राह्मणों ने पुराणों में जैनियों के तीर्थंकरों को दैत्य, असुर, के नाम से अथवा माया मोह के नाम से उल्लेख किया है। इसके प्रत्युत्तर में जैन पुराणों ने श्रीकृष्ण जी की निन्दा की है3। ब्राह्मणों ने पुराणों में लिखा है कि हाथी के पैर के नीचे कुचला जाना श्रेष्ठ है, किन्तु जैन मन्दिर में घुसकर उससे बच जाना श्रेष्ठ नहीं4। जब पौराणिक ब्राह्मणों का बौद्ध मत व जैन मत के साथ धार्मिक विवाद शुरू हुआ तो उस समय जिसको बौद्धकाल कहते हैं, भारतवर्ष में जाटों के बहुत से प्रजातन्त्र राज्य थे। जाट राजाओं ने और जाट जनता ने संघरूप से बौद्ध-धर्म अपना लिया। और भी क्षत्रिय राजाओं ने बौद्ध-धर्म व जैन-धर्म अपनाया। जाट राजाओं ने बौद्ध-धर्म को भारत व लगभग पूरे एशिया में फैलाने का योगदान सबसे अधिक दिया। अब ब्राह्मण धर्म की पूरे तौर से गिरावट हो गई। उन्होंने क्षत्रियों के विरुद्ध घोषणा कर दी कि कलियुग में कोई क्षत्रिय ही नहीं है और बड़ी-बड़ी क्षत्रिय योद्धा जातियों को म्लेच्छ, यवन, शूद्र और व्रात्य करार देकर उन्होंने आर्यजाति को बलहीन कर दिया। यथा -

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ 43 ॥
पौंड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।
पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः ॥ 44 ॥
मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः ॥
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः ॥ 45 ॥ (मनु० 10)5

अर्थात्

  • (1) “पौण्ड्रक*, औड्र, द्रविड़, काम्बोज*, यवन*, शक* पारद, पह्लव*, चीमा*, किरात, दरद*, खश - यह क्षत्रिय जातियां हैं। किन्तु ब्राह्मणों के दर्शन न करने और क्रियालोप होने से वृषल (हीनता) हो गईं और शूद्र, म्लेच्छ कहलाने लगीं। इस देश से बाहर रहने के कारण यह ब्राह्मण या क्षत्रिय होते हुए भी चाहे ये आर्यभाषा बोलती थीं, चाहे म्लेच्छभाषा, सब दस्यु कहलाईं।” (जाट इतिहास पृ० 76 लेखक ठाकुर देशराज); (मनुस्मृति अ० 10 श्लोक 43, 45)

1. जैन आदि पुराण पर्व 42; जाट इतिहास पृ० 45-46, लेखक ठा० देशराज।
2. विष्णु पुराण अंश 3 अध्याय 18 ।
3. जैन हरिवंश पुराण ।
4. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 47 ।
5. मनुस्मृति में ऐसी बातें ब्राह्मणों ने बाद में लिखी हैं । (ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 77 ।
(*). ये जाटवंश हैं। उस समय इनके प्रजातन्त्र राज्य थे।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-140


  • (2) व्रात्य क्षत्रिय से (समान जाति की स्त्री से) उत्पन्न झल*, मल्ल*, नट, करण, खश, लिच्छवि*, द्रविड़ कहलाते हैं (मनु० अ० 10, श्लोक 22) - ये सब राजवंश बौद्ध-काल में प्रजातंत्री शासक थे। भगवान् महावीर स्वयं लिच्छवियों में पैदा हुए थे।
  • (3) विष्णु पुराण में लिखा है - अर्थात् “यह सब क्षत्रिय धर्म और ब्राह्मणों को त्याग देने से म्लेच्छ बन गये हैं”। (विष्णु पुराण 4-3)।
  • (4) यह बात तो जातियों की है, ब्राह्मणों ने उन देशों को भी पतित करार दे दिया जिनमें उनके सम्प्रदाय के आदमी न थे। ब्राह्मण लोग मगध1 को म्लेच्छों का देश मानते थे और जैन लोग ब्रह्मावर्त और काशी को अपवित्र देश कहते थे। जब बौद्धधर्म अपने पूरे जोरों पर था और जैन धर्म भी उन्नति कर रहा था तब ब्राह्मणों ने उन को गिराने के षड्यन्त्र रचने आरम्भ कर दिये। इनके पास क्षत्रिय व राजशक्ति नहीं थी जिनके बिना ये अपने को उभार नहीं सकते थे। कुछ षड्यंत्रों के उदाहरण निम्नलिखित हैं। मौर्यवंश के अन्तिम राजा बृहद्रथ को उसके सेनापति पुष्यमित्र ब्राह्मण ने मारकर राज्य अपहरण कर लिया। यह ब्राह्मणों के षड्यंत्र से ऐसा हुआ। यह घटना ई० पू० 184 की है। पुष्यमित्र ने नवीन ब्राह्मण-धर्म को उत्तेजना देने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया। बौद्धग्रन्थों में लिखा है कि पुष्यमित्र ने बौद्धों पर बड़े-बड़े अत्याचार किये। उनके आश्रम जलवा दिये, उन्हें कत्ल किया गया, शान्ति के स्थान पर तलवार के जोर से उसने ब्राह्मण-धर्म का प्रचार किया2। पुष्यमित्र का वंश शुंग वंश कहलाता था। इस वंश के अन्तिम राजा देवभूति को उसके मंत्री वासुदेव ब्राह्मण ने ई० पू० 72 में मार डाला और आप राजा बन बैठा। इनका वंश कण्व वंश कहलाता था। उस समय दक्षिण में नवीन ब्राह्मण धर्म की खूब ही उन्नति हुई। लोग बौद्धधर्म को छोड़कर ब्राह्मणधर्म की शरण में आने लगे। इस वंश का भी खात्मा ई० पू० 27 में अंधवंश ने कर दिया3

इसी तरह सिन्ध पर जाटों का राज्य काफी समय से चला आ रहा था। इसका अन्तिम सम्राट् साहसीराय द्वितीय था जिसको उसका ब्राह्मण वजीर चच षडयंत्र से मारकर, स्वयं राजा बन बैठा। इसने 40 वर्ष सिन्ध पर शासन किया। वहां पर जाटों की बड़ी भारी आबादी थी। इसने जाटों पर बड़े-बड़े अत्याचार किए। जाटों को दास व गुलाम बनाकर रक्खा। उनकी आत्मिक, मानसिक, आर्थिक स्थिति व स्वतन्त्रता को बुरी तरह से कुचल दिया गया। इनकी भावनाओं को कुचलकर रख दिया और जाटों को घृणा की निगाह से देखा गया। चच के मरने पर उनके बेटे दाहिर को यह राज मिला। उसने भी जाटों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया4। पौराणिक ब्राह्मणों के ऐसे अनेक षड्यंत्र हैं जो उचित प्रकरण में लिख दिए जायेंगे।

बौद्धकाल के अन्तिम समय में कनिष्क और हर्ष जैसे सम्राटों ने इस धर्म की उन्नति की। ये


(*). ये जाटवंश हैं।

1. मगध राज्य की नींव डालने वाला वसु का पुत्र बृहदश्व था। चन्द्रवंशियों का यह समूह ईरान से आकर यहां आबाद हुआ। ईरान में क्षत्रिय की संज्ञा मगध थी। मगध क्षत्रियों के नाम पर ही यह देश मगध कहलाया। यह जाटवंश है। (ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 25)।
2. जाट इतिहास पृ० 41 लेखक ठा० देशराज ।
3, 4. इनका विस्तार से विवरण उचित स्थान पर किया जायेगा ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-141


दोनों जाट राजा थे। दोनों ने ही इस धर्म की महासभायें कराईं। स्तूप बनवाये। भिक्षु संघ खोले। किन्तु शशांक जैसे राजा ने बौद्ध भिक्षुओं को भूनकर मार डाला। उनके साथ अमानुषिक अत्याचार किये। अर्जुन नाम के ब्राह्मण राजा ने भी इस धर्म के अनुयायियों के नाश करने में कोई कसर न छोड़ी। इस काल में कुमारिलभट्ट, शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने बौद्ध धर्म की जड़ें खोखली कर दीं1। पुराने क्षत्रियों के मुकाबले में ब्राह्मणों को नये क्षत्रिय बनाने की आवश्यकता थी, जो इनके अनुयायी बनकर रहे और राज्यसत्ता लेकर बौद्धों व जैनियों को समाप्त कर दें।

इस उद्देश्य से ब्राह्मणों ने छठी शताब्दी में आबू (राजस्थान) में एक यज्ञ की रचना की। उसमें भारत के सब राजे महाराजे आये, विशेषकर उत्तरी भारत से। इनमें जाट, अहीर, गूजर आदि अनेक क्षत्रिय जातियां थीं।

ब्राह्मणों ने अपने धर्म के सिद्धान्त बताकर लोगों से इनके अनुयायी होने की प्रार्थना की। जिन क्षत्रिय और दूसरी हिन्दू जातियों ने इस नवीन ब्राह्मण धर्म को मान लिया, उस संघ का नाम ब्राह्मणों ने राजपुत्र रख दिया, क्योंकि राजवंश या राजकुमार इस संघ में अधिक संख्या में थे। राजपुत्र का अर्थ है राजा के बेटे। आगे चलकर कुछ समय के पश्चात् (7वीं शताब्दी में) इनका नाम राजपूत रख दिया। जाट, अहीर, गूजर भी इस नवीन हिन्दू धर्म में दीक्षित हो गये। परन्तु बहुत कम संख्या में जाटों के अनेक वंश या गोत्र इसमें दीक्षित हुए।

ब्राह्मणों के सिद्धान्त निम्नलिखित प्रकार के थे। कुछेक के उदाहरण ये हैं –

(1) विधवा विवाह निषेध, (2) पर्दा प्रचलन, (3) विधवा को सती कर देना, (4) श्राद्ध और उत्सवों और यज्ञों में पशुओं का बलिदान करना और चामुंडदेवी पर बकरा, भैंसा काटकर चढाना। (5) छुआछूत का मानना। (6) खानपान की पाबन्दी - किसी दूसरे के हाथ का बना भोजन न खाना। (7) बहुदेव पूजा करना। (8) एक ईश्वर की बजाए अनेक देवताओं को ईश्वर मानकर पूजा करना यानि देवताओं की मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजना। (9) वर्णव्यवस्था जन्म के आधार पर होगी और वर्ण बदले नहीं जायेंगे। (10) ब्राह्मणों को ईश्वर के समान मानकर उनका सम्मान करना व इनके आदेशों पर चलना। आदि-आदि।

जाट क्षत्रियों को ये सिद्धान्त बिलकुल पसन्द नहीं आये क्योंकि वे तो वैदिक सिद्धान्त को मानने वाले शुद्ध क्षत्रिय आर्य हैं। इस विषय को पिछले पृष्ठों पर विस्तार से लिखा है।

जाटों ने नवीन धर्म को स्वीकार नहीं किया। यही कारण था कि ब्राह्मणों ने जाटों को शूद्र कहा और मौखिक और लेखबद्ध इनको क्षत्रिय न मानकर नास्तिक, म्लेच्छ और पतित कहा। अहीर, गूजरों को भी शूद्र, नास्तिक, म्लेच्छ और पतित कहा2

ब्राह्मणों के सेवक राजपूतों ने भी जाटों के साथ यही व्यवहार किया जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक-कालिमा लगा सकता है। राजपूतों के सहारे से इन पौराणिक ब्राह्मणों, भाटों और चारणों ने जाट, गूजर और अहीरों को क्षत्रिय न कहने और न मानने के काफी प्रचार और लेख लिख डाले। राजपूतों को तो यह मालूम था कि वे अधिकांशतः जाट, गूजर और अहीरों में से निकले हुए हैं अथवा उन्हीं की भांति क्षत्रिय वृक्ष की शाखाएं हैं। राजपूतों को इन जातियों के साथ निकृष्ट


1. जाट इतिहास पृ० 42 लेखक ठाकुर देशराज ।
2. जाट इतिहास पृ० 52-53 लेखक ठा० देशराज ।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-142


बर्ताव नहीं करना चाहिये था। वर्तमान में राजस्थान कहे जाने वाली भूमि पर जहां के जाट, गूजर और अहीर बहुत पहले से आबाद थे और वहां पर इनका राज्य था, जब नवीन हिन्दू धर्म से मंडित यह राजपूत समुदाय आया तो जाटों ने इनका कोई अधिक विरोध नहीं किया क्योंकि जाट इन्हें गैर नहीं मानते थे, अपना ही मानते थे। (जाट इतिहास पृ०72 लेखक ठा० देशराज)

इसी विषय में जस्टिस कैम्पवेल का मत है - “अर्थात् यह संभव होसकता है कि राजपूत, जाट हैं जो कि भारत में आगे बढ़ गये हैं और वहां हिन्दू जातियों से परस्पर मिल गये हैं तथा ऊँचे और कट्टर हिन्दू हो गये हैं। उन्होंने अपने प्राचीन बल वैभव को प्राप्त कर लिया है। लेकिन यह कि जाट राजपूत हैं और ऊँचे दर्जे से घट गये हैं, यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसके लिए बिल्कुल सबूत (पक्ष) नहीं है और जो आज वर्तमान उन्नतशील जाटों के बाहरी वर्तमान आचरण से स्पष्ट तौर से प्रकट होता है1।”

“कमलाकर” ग्रन्थ जिसमें शूद्र जातियों का वर्णन है, जाटों का नाम नहीं है। फिर भी इन विरोधियों ने जाटों को जलील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। श्री सी० वी० वैद्य ने जाटों के विरुद्ध ऐसे भाव फैलानेवालों की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है। वे लुहानों और जाटों के सम्बन्ध में लिखते हैं - “इन दोनों जातियों ने अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति को अब तक कायम रखा है। परन्तु इतिहासज्ञ देख सकते हैं कि कट्टर हिन्दुत्व ने प्रभुता संचय करने में कुछ जातियों की सैनिक शक्ति को नष्ट कर दिया, जिसका कि आगे की घटनाओं पर बुरा असर हुआ।” (हिस्ट्री ऑफ मिडिवल हिन्दू इण्डिया पृ० 161) ब्राह्मणों को राजपूतों की और अनेक राजाओं की राजशक्ति मिल गई। इनको ब्राह्मणों ने अपने प्रभाव में करके बौद्ध-धर्म को अत्याचार के साथ भारत से खो दिया।

विशेष बातें

बौद्धकाल का इतिहास ईसा से लगभग सवा पांच सौ वर्ष पूर्व से आरम्भ होकर ईस्वी सन् 650 में समाप्त हो जाता है। इसी समय को बौद्धकाल के नाम से पुकारा जाता है। इन्हीं 1200 वर्षों में बौद्धधर्म का प्रकाश हुआ, ब्राह्मण-धर्म धराशायी हुआ, जैन-धर्म का विकास हुआ, हिंसा-द्वेष दूर हुए, प्रेम, परोपकार फले-फूले और इन्हीं बाहर सौ वर्षों में बौद्ध-धर्म भारत से बहिष्कृत हो गया। उसके मानने वाले निर्दयतापूर्वक पीस डाले गये। ब्राह्मण-धर्म के षड्यन्त्र सफल हुए। जैन-धर्म सिसकियां भरने लगा। यही 1200 वर्ष थे जिनमें ब्राह्मण-धर्म को कतई उड़ा दिया गया। उन्हें अक्षर म्लेच्छ के नाम से पुकारा गया। क्षत्रियों को सर्वश्रेष्ठ कहा गया। शूद्रों व पतितों के उद्धार की घोषणा की गई। फिर इन्हीं बारह सौ वर्षों में यह काया पलटी कि ब्राह्मण ही ईश्वर हैं, कलियुग में कोई क्षत्रिय है ही नहीं, कहकर पुराने क्षत्रियों को पतित और शूद्र ठहराया गया। जैन मन्दिरों को गणिका के घर से भी पतित साबित किया गया। पतित तो पतित ही है, इस वाक्यरूपी विषैली गैस को फैलाया गया। पाठकों की जानकारी के लिए कुछ थोड़ी सी और भी बातें लिखते हैं। बौद्ध-धर्म सर्व मानव समूह का ही नहीं किन्तु यह समस्त प्राणि-वर्ग का धर्म था। बौद्ध काल में भारत की सभ्यता बहुत बढी। उसने संसार को भारत का शिष्य बना दिया। राष्ट्रीयता का प्रचार बौद्ध-धर्म के द्वारा जितना हुआ उसे ब्राह्मण-धर्म न पहले कभी कर सका था और न भविष्य में करने के कोई लक्षण


1. जाट इतिहास पृ० 67 लेखक ठाकुर देशराज ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-143


हैं। भारत ने बौद्ध-काल में जो सम्मान प्राप्त किया था, नवीन ब्राह्मण-काल में उसे खो दिया। बौद्ध-धर्म की ही विशेषता थी कि यह सारे एशिया का धर्म हो गया। चीन, जापान, तिब्बत, लंका, श्याम, कंबोडिया और बर्मा आज भी उसके प्रकाश से आलोकित हैं। बौद्ध-काल ने शिल्पकला और व्यापार को इतना बढाया था कि रोम और अरब तक उसके जहाज समुद्र में चलते थे। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि मौजूदा हिन्दू-धर्म जिसका आधार पुराण हैं, भारत की राष्ट्रीयता के लिए बड़ा विघातक सिद्ध हुआ है1। इस्लाम और ईसाईयत ने भारत में हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई प्रश्न खड़े करके देशनिर्माण में अवश्य बाधा डाली है। किन्तु जब हम इस पौराणिक धर्म की जाति-विषयक व्यवस्थाओं पर दृष्टि डालते हैं, तो इसे राष्ट्र का हितैषी नहीं पाते। इसने बड़ी-बड़ी योद्धा जातियों को म्लेच्छ, यवन, शूद्र, दस्यु, व्रात्य करार देकर आर्य जाति को बलहीन कर दिया। (इस का वर्णन पिछले पृष्ठों पर देखो)। सन्तोष यहीं पर नहीं हुआ, किन्तु इन वीर जातियों की उत्पत्ति का वर्णन भी बड़े ही घृणाजनक और अपमानकारी शब्दों में किया। इन पौराणिक ब्राह्मणों की बदौलत आज भारतवर्ष की हिन्दू जाति में लगभग 2365 मत हैं। 19वीं शताब्दी में जबकि यह पौराणिक धर्म पूरे शिखर पर था उस समय ईश्वर की कृपा से एक ब्राह्मण-कुल में महर्षि दयानन्द सरस्वती उत्पन्न हुए। उन्होंने भारतवर्ष में वेदों का डंका बजाया और इन पौराणिकों के पाखण्डों का खण्डन करके देश की हिन्दू जाति को वैदिकधर्म का सही रास्ता बताया जो संसार के सब मनुष्यों के लिए है। आपने आर्यसमाज की स्थापना की। देश के करोड़ों लोग आर्यसमाज के अनुयायी बन गये। जाट जाति तो सारी ही आर्यसमाजी बन गई और अब भी है। यद्यपि कहने में ये हिन्दू हैं परन्तु मन से आर्यसमाज के ही सिद्धान्तों पर चलते हैं। इसका कारण साफ है कि जाट आर्य नस्ल है, जिनकी रगों में शुद्ध क्षत्रिय आर्यों का रक्त बह रहा है।

अब कुछ विदेशी इतिहासकारों के उदाहरण दिये जाते हैं जिन्होंने पौराणिक ब्राह्मणों के मौलिक व लेखबद्धों के आधार पर जाटों को शूद्र लिखा है।

1. प्रोफेसर कानूनगो (जाट) पृ० पर लिखते हैं कि सिन्ध के जाटों को नवीन ब्राह्मणों के धर्म सिद्धान्तों को न मानने पर ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर जातिच्युत कर दिया। कट्टर ब्राह्मणत्व की दृष्टि में काबुल के अल्प-संख्यक हिन्दुओं2 की तरह जाटों को भी अर्द्ध-म्लेच्छ कहा गया। इसी कारण से चीनी यात्री हवानत्सांग जो कि भारत में 631 ई० से 644 ई० तक रहा, ने सिन्ध देश के (जाट) राजा को शूद्र3 कहा।

2. ग्यारहवीं शताब्दी में आने वाले अरब यात्री अलबेरूनी ने यहां तक लिखा था कि “श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव शूद्र थे और वह जट्टवंश के पशुपालक थे।” (अलबेरुनाज इण्डिया - सचाऊ द्वारा अनूदित - पृ० 401) । [यही लेखक पृ० 405 पर इन परिवारों को यादव (जाट) लिखता है।] (देखो जाटों का नवीन इतिहास पृ० 40 पर लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा)


1. जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज पृ० 40-41 ।
2. ब्राह्मणों ने काबुल में रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं को अर्द्ध-मुसलमान माना और जातिच्युत कर दिया।
3. Beal, Buddhist Records of the Western World, ii 272.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-144


3. प्रारम्भिक लेखकों के आधार पर ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ का लेखक एलिफिन्स्टन (भाग 2, पृ० 518) जाटों को शूद्र मानता है। प्राचीन लेखकों (अलबेरुनीज, पृ० 102-4) के अनुसार कृषक तथा पशुपालक शूद्र कोटि में आते हैं, क्योंकि वह भारतीय जातियों को सात वर्णों में विभक्त मानते हैं। (यू० एन० शर्मा लेखक जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 42)।

पौराणिक ब्राह्मणों के लेख अनुसार विदेशियों ने भी श्रीकृष्ण जी के पिता वसुदेव को भी शूद्र लिख मारा जो कि विशुद्ध आर्य थे। अतः जाटों को शूद्र कहने वालों की धारणा सफेद झूठ और बेबुनियाद है।

4. पाठकों की जानकारी के लिए लिखा जाता है कि इन पौराणिक-ब्राह्मणों के कारण ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में जाटों को शूद्र माना गया। इसका प्रमाण निम्नलिखित है -

काण्ठ राज्य मुरादाबाद के राजा निधानसिंह जी वैष्णोयी (बिशनोई) मत को मानते थे। इस राजा ने जिला मुजफ्फरनगर के जाट बिशनोई चौ० धर्मसिंह मलिक ग्राम सौंहजनी , जो आर्यसमाजी भी था, को अपनी जायदाद राज्य सम्पत्ति का मैनेजर (अधिकारी) बना दिया था। दुर्भाग्य से राजा साहिब को कोई सन्तान नहीं थी। तब उन्होंने भाईचारे के पंचायती नियमानुसार चौ० धर्मसिंह मलिक के सुपुत्र जिसकी आयु 19 वर्ष की थी, को गोद ले लिया, क्योंकि वह मरणासन्न हो गए थे। दूसरी ओर राणी ने अपने भतेजे को गोद लेने की रस्म करवाई जिसमें मजिस्ट्रेट आदि सरकारी अधिकारी बुलाये थे। इस अवसर पर यज्ञ कराया और सब उपस्थितों के फोटो लिये थे। अब दोनों पक्षों की ओर से मुकदमा मुरादाबाद की अदालत में चला। दोनों पक्षों में केस चलने पर बड़े-बड़े सज्जन साक्षी के रूप में अदालत में पेश किए गये थे। राणी का भतीजा दुर्व्यसनी था। साक्षी रूप में सर छोटूराम जी, पं० नेकीराम जी शर्मा, राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री ओझा जी, ठाकुर देशराज जघीना (भरतपुर) लेखक जाट इतिहास, ठाकुर संसारसिंह जी कन्या गुरुकुल कनखल, श्री ठाकुर झम्मनसिंह एडवोकेट प्रसिद्ध आर्यनेता अलीगढ और श्री जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती शास्त्री तर्कवाचस्पति कट्टर आर्यसमाजी नेता, पेश हुए थे1। एक जैनमतस्थ मान्य जवाहरलाल जज की अदालत थी।

सर तेज बहादुर सप्रू भारत में प्रसिद्ध वकील थे। चौ० धर्मसिंह ने उनसे सम्मति मांगी तो उन्होंने कहा कि इलाहाबाद की हाईकोर्ट ने गांव भवीसा (जि० मुजफ्फरनगर) के फैसले में यह निर्णय दिया था कि जाट शूद्र हैं, द्विज नहीं। यदि आप अपने को शूद्र कहो तो मुकद्दमे में जीतने की आशा हो सकती है2। इस पर चौ० धर्मसिंह ने आर्यसमाजी होते हुए भी काण्ठ की लाख रुपये की स्थिर सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए शूद्र पक्ष लिया। विपक्ष में राणी के भतीजे ने जायदाद प्राप्ति के लिए दूसरा पक्ष यह लिया कि जाट शूद्र नहीं हैं, वे द्विज हैं। राणी के भतीजे के पक्ष में भी बड़े-बड़े छः नामवर वकील पेश हुए। अदालत में भी श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी की गवाही लगातार छः छः घण्टे दो दिन तक चली। एक वकील साहब ने उनसे जिरह में पूछा कि आर्यसमाज कितने संस्कार मानता है, उनके नाम बताओ? सिद्धान्ती जी ने उत्तर दिया कि 16 संस्कार इस प्रकार हैं - 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन 3. सीमन्तोन्नयन 4. जातकर्म 5. नामकरण 6. निष्क्रमण


1. ये साक्षी बनकर यह सिद्ध करने गये थे कि जाट शूद्र नहीं हैं बल्कि द्विज हैं।
2. शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं, अतः यज्ञवेदी पर गोद लेने के फोटो झूठे पड़ जायेंगे।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-145


7. अन्नप्राशन 8. चूड़ाकर्म 9. कर्णवेध 10. उपनयन (जनेऊ) 11. वेदारम्भ 12. समावर्त्तन 13. विवाह (गृहस्थाश्रम) 14. वानप्रस्थ 15. सन्यास 16. अन्त्येष्टि संस्कार (मृत्यु पर दाहकर्म करना)।

ये 16 संस्कार आर्यसमाज मानता है। वकील जी ने बड़ी चतुराई से पूछा कि गोद लेना तो इसमें नहीं आया। सिद्धान्ती जी ने उसके उत्तर में कहा कि गोद की रस्म जातकर्म संस्कार है। क्योंकि जिस दिन गोद की रस्म अदा होती है उस समय जिसकी गोद में बच्चा दिया गया, वह पिता बनता है और जो बच्चा गोद लिया जाता है वह उस दिन पुत्र बनता है। यह सुनकर विपक्ष के वकीलों में सन्नाटा छा गया। सिद्धान्ती जी ने अदालत की मेज के सामने वेद, स्मृतियां, जातिभास्कर आदि ग्रन्थ रखकर माननीय अदालत से निवेदन किया कि मैंने वेद और दर्शनशास्त्र पढ़े हैं तो मैं शूद्र कैसे हो सकता हूं? जज साहब ने कहा कि मैं आपको शूद्र नहीं कह सकता। तब सिद्धान्ती जी ने निवेदन किया कि जब मैं जाटवंश में पैदा होने के कारण शूद्र नहीं हूं तो जाट जाति शूद्र कैसे हो सकती है। प्रत्येक जाति में चारों वर्ण रहते हैं। इसी तरह जाटों में भी चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। बड़ी संख्या में दर्शक अदालत में आये थे। उनमें यह चर्चा थी कि एक जाट शास्त्री आया है। बड़े ध्यान से सुन रहे थे। अन्त में माननीय अदालत ने निर्णय में लिखा कि मैं नहीं कह सकता कि जाट शूद्र हैं अथवा द्विज और अपनी अदालत का यह केस उच्च अदालत में भेज दिया1। वहां पौराणिक विद्वान् भी दर्शक थे। बाहर आने पर उन्होंने पूछा कि आपने जो कहा उसका कोई प्रमाण देवें। सिद्धान्ती जी ने उत्तर दिया कि मनुस्मृति में यह लिखा है कि -

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥
(मनुस्मृति अध्याय 10, श्लोक 65)

अर्थात् - जो शूद्रकुल में उत्पन्न हो के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय, वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण कर्म स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाय। वैसे क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न हो के ब्राह्मण या शूद्र के समान होने से ब्राह्मण या शूद्र हो जाता है अर्थात् चारों वर्णों में जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो वह-वह उसी वर्ण में गिनी जाये। ऐसे अन्यत्र प्रमाण भी वेदादि सत्यशास्त्रों में मिलते हैं। पाठक समझ गए होंगे कि वेदों के विद्वान् शास्त्री सिद्धान्ती जी ने वेदशास्त्रों के उदाहरण देकर यह सिद्ध कर दिया कि जाट शूद्र नहीं हैं। जगदेवसिंह सिद्धान्ती शास्त्री, तर्कवाचस्पति का जन्म गांव बरहाणा (रोहतक) में सन् 1900 ई० में जाटवंश चौ० प्रीतराम अहलावत के घर हुआ। जाट जाति को आप पर बड़ा गर्व है। (यह ऊपरवाला लेख स्वयं सिद्धान्ती जी का है जो कि क्षत्रियों के इतिहास प्रथम भाग सम्पादक श्री परमेश शर्मा एम० ए० तथा राजपालसिंह शास्त्री पृ० 261-63 पर है।)

दिनांक 26.2.78
विनीत - जगदेव सिद्धान्ती, तर्कवाचस्पति, सम्राट् प्रैस, पहाड़ी धीरज, देहली-110006.

कुछ इतिहासकारों ने जाटों को वैश्य लिखने की भूल की है। श्री सी० वी० वैद्य ने जहां अपने


1. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मान लिया कि जाट शूद्र नहीं, बल्कि द्विज हैं। (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को द्विज कहा गया है)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-146


“हिन्दू मिडीवल इण्डिया” में जाटों को विशुद्ध आर्य वंश के लिखा है, वहां उन्हें वैश्य वर्ण के अन्तर्गत शामिल किया है। एक तो उनके उत्तम खेतीहर होने से और दूसरे जाट नरेश यशोधर्मा के पिता विष्णुवर्द्धन के साथ वर्द्धन शब्द होने से उन्हें यह भ्रम हुआ है कि जाट वैश्य हैं। जैसा कि वैद्य जी ने लिखा है कि “शायद वे वेदों के विशू (वैश्य) हों।” उनका यह अनुमान निराधार एवं निर्मूल है। उनके नगरों की रचना, पंचायतों के नियम, विवाह-शादी के नियम, शरीर की बनावट व मजबूती, आपत्ति का सामना करने की शक्ति व शत्रु से टक्कर लेने का साहस, बदला लेने की प्रवृत्ति, खेलकूद जैसे कुश्ती, कबड्ड़ी, भागना-कूदना आदि, उत्सव और त्यौहारों के मनाने का ढंग, खेती-बाड़ी करना, वेश-भूषा आदि कोई भी वैश्यों से नहीं मिलती। फिर कैसे और किस आधार पर मान लिया जाये कि जाट वैश्य हैं? जाटों के सब के सब गोत्र क्षत्रिय आर्य वंश के हैं। उनमें वैश्य गोत्र जैसे जघीनिया, सोंखिया, बन्सल, गर्ग, पालीवाल, मित्तल, गोयल, ओसवाल, अग्रवाल, महेश्वरी आदि कोई नहीं है। जाट क्षत्रिय वर्ण से हैं। यह बिल्कुल बेबुनियाद बात होगी कि जाटों को क्षत्रियों के अलावा वैश्य या अन्य किसी वर्ण से माना जाये। यदि कोई जाटों को खेती करने तथा पशु पालने के कारण वैश्य कहे तो भी उसकी मूर्खता है। आर्य लोग आदिसृष्टि से ही खेती करते और पशु पालते हैं। ब्राह्मण और ऋषियों के आश्रमों में बहुत सी गायें रहतीं थीं। प्रत्येक वर्ण का यह प्रिय धन्धा था। राजे-महाराजे और क्षत्रिय आर्य लोग अपने हाथ से खेती करते और पशुपालन करते आये हैं । वेद शास्त्रों में इनके अनेक उदाहरण हैं। राजा जनक ने अपने हाथ से हल चलाकर खेती की और वे हजारों गौ रखते थे। शास्त्रार्थ में जीतने वालों को कई-कई गायें इनाम के तौर पर देते थे। ऐसे-ऐसे अनेक क्षत्रिय राजाओं के उदाहरण हैं। क्षत्रिय आर्य शान्ति के समय खेती करते थे और युद्ध के समय शस्त्र उठाकर शत्रु से लोहा लेते थे। इसी भांति जाट क्षत्रिय का एक हाथ हल की हथेली पर और दूसरे हाथ में तलवार रहती है। आज के वर्तमानकाल के उदाहरण देख लीजिए - जाट बालक खेती करने व पशुपालन में अपने माता-पिता को सहयोग देते हैं और युवा होने पर अपनी इच्छा अनुसार सेना में भर्ती होते हैं। वहां जाकर देशरक्षा के लिये समय आने पर शत्रु से युद्ध करते हैं। जैसे पहला व दूसरा महायुद्ध, भारत-पाक युद्धों में और आई० एन० ए० में जाट सैनिकों ने बड़ी वीरता व साहस से शत्रु के दांत खट्टे किये और अनेक युद्धों में ऐसी बहादुरी से शत्रु पर विजय प्राप्त की जिसके मुकाबले में संसार-भर में किसी जाति व देश में ऐसी बहादुरी के उदाहरण नहीं मिलते हैं। इसके बारे में आगे के अध्यायों में लिखा जायेगा।

सेना से घर छुट्टी आने तथा पैन्शन आने पर अपने खेतों में काम करते हैं। इन प्रमाणों से साफ तौर से जाहिर है कि श्री सी० वी० वैद्य और उन जैसे लोगों का यह विचार कि जाट वैश्य हैं, निराधार व निर्मूल है। जाट तो वैदिककालीन क्षत्रियों के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं।

अज्ञानांधकार सदैव नहीं रहता, प्रकाश होता है, सांच को आंच नहीं, धर्म की सदा जीत होती है और झूठ को एक दिन परास्त होना पड़ता है। वह समय आ गया है कि जाटों ने जिन बातों को आर्ष-विधान समझ कर प्राचीनकाल से अब तक पालन किया है, और जिनके कारण विरोधी लोगों ने उन्हें धर्महीन, शूद्र, म्लेच्छ, वैश्य न मालूम क्या-क्या कहा। अब वही विधान विरोधी लोग विधवा-विवाह को वैदिक मर्यादा, खेती और पशुपालन को शुभ कर्म, पर्दा-बहिष्कार को मानवता, अन्तर्जातीय विवाह को राष्ट्रीयता के पवित्र नामों से पुकारते हैं। ईश्वर की कृपा से वह समय भी


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आएगा जब जनता का अज्ञान दूर होगा और भारतवर्ष के लोग पौराणिक धर्म के पाखण्डों को छोड़कर वैदिक धर्म पर चलने लगेंगे।

अब जाट क्षत्रिय हैं के कुछ ठोस प्रमाण संक्षेप में दिए जाते हैं।

जाटों के क्षत्रिय होने के कुछ ठोस प्रमाण

पिछले पृष्ठों में हमने यह सिद्ध किया है कि जाट आर्य नस्ल से हैं और इनका मूल निवासस्थान भारतवर्ष है। अब इनके क्षत्रिय होने के विषय में लिखा जाता है। किसी मनुष्य अथवा जाति की युद्धों में दिखाई गई बहादुरी के आधार पर ही उसको क्षत्रिय कहा जाता है। आदि सृष्टि से वर्तमान काल तक जाटवंशों की वीरता के विषय में अनेक देशी-विदेशी इतिहासकारों ने पुस्तकें व ग्रन्थ लिखे हैं। किसी भी ऐतिहासिक पुस्तक को देख लो, उसमें यह लिखा मिलेगा कि जाट वास्तव में एक लड़ाका व बहादुर जाति है। जाटों की हार-जीत तो होती रही है। परन्तु यह लेख नहीं मिलेगा कि जाट शत्रु से डरकर भाग गये हों या डरकर हथियार डाल दिये हों। ये जाटों के क्षत्रिय होने के वास्तविक प्रमाण हैं। इनकी वीरता के सबके सब प्रमाण लिखना एक असम्भव सी बात है। केवल मैं कुछ ही उदाहरण दूंगा जो निम्नलिखित हैं।

1. 
According to Greek historian Herodotus* and others, there was no nation in the world equal to Jats in bravery provided they had unity1. अर्थात् - यूनान के हैरोडोटस और अन्य इतिहासकारों के कथन अनुसार जाटों में जब भी एकता हुई तब संसार की कोई जाति बहादुरी में इनका मुकाबला नहीं कर सकी ।
2.
Great Greek historian Thucydides deckared that there was no nation either in Asia or Europe that was able to stand against the Scythian Jats2. अर्थात् - महान् यूनानी इतिहासज्ञ थूसिड्डियस ने घोषणा की थी कि एशिया अथवा यूरोप में कोई भी जाति (राष्ट्र) नहीं थी जो सिथियन जाटों के मुकाबले में खड़ी रह सके।
3. 
महान् सम्राट् सिकन्दर ने अपना विजयी अभियान एशिया में कूच किया और 328-327 B.C. में Sogdiana (सोगदियाना) पर आक्रमण कर दिया। यह Scythia देश का एक प्रान्त था जिस पर जाटों का शासन था। इस युद्ध में संसार-विजेता सिकन्दर को जाटों ने करारी हार दी, जिसके कारण वह बीमार भी पड़ गया था3। सिकन्दर की केवल यही एक बार हार हुई थी।

नोट. राजे-महाराजे, आर्यों, क्षत्रियों के खेती करने व पशु पालने के उदाहरण, वेदशास्त्रों के निर्देश देकर अध्याय 3 में, आदि सृष्टि से कृषि विज्ञान के प्रकरण में लिखे गये हैं।
(*) - हैरोडोटस 484 ईस्वी पूर्व यूनान में पैदा हुआ। इसको इतिहास का पिता कहा जाता है।
1. Jats the Ancient Rulers P.2, B.S. Dahiya IRS.
2, 3. Antiquity of Jat Race P. 47 by Ujagar Singh Mahil (Vide Historians' History of the World Vol. 3-4, Page 348-351).


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4. 
दसवीं शताब्दी में स्पेन के अन्तिम जाट सम्राट् का पौत्र अलवारो था। एक मजमून में Alvaro (अलवारो) को स्पष्टरूप से बहुत ऊँचे स्तर की पुरानी Getae (जाट) गेटी जाति का वंशज कहा गया है (JRAC, 1954, P. 138)। अलवारो कहता है कि मैं उस जाट जाति का हूं जिसके लिए (1) सिकन्दर महान् ने घोषणा की थी कि जाटों से बचो। (2) जिनसे Pyrrhus (पाईर्रस) डरा। (3) Caesar (जूलियस सीजर) कांप गया। (4) और हमारे अपने स्पेन के सम्राट् Jerome (जेरोम) ने जाटों के विषय में कहा था कि उनके आगे सींग हैं, सो बचकर दूर रहो1।. (Episola XX, Nigne, Vol. 121, Col. 514)
5.
एक जाट महाराणी Tomyris (तोमिरिस) एक छोटे राज्य Massagetae|मैसागेट]] पर स्वतंत्र राज्य करती थी। यह जाटों की रियासत थी। फारस एवं माण्डा (मंडा) राज्य के महान् सम्राट् Cyrus (सायरस) ने बहुत बड़ी सेना के साथ इस जाट राज्य पर आक्रमण कर दिया। जाट सेना ने शत्रु के साथ वीरता और साहस से युद्ध किया। हैरोडोटस का कहना है कि यह एक बड़ी भयंकर लड़ाई थी जो इससे पहले कभी नहीं लड़ी गई। जाट बहादुर सेना ने Cyrus का सिर उतार दिया और उसकी सेना को करारी हार दी। राणी ने सम्राट् Cyrus का सिर एक खून से भरे बर्तन में डलवा कर कहा - “मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार, तुम अपना ही खून पीओ2।”
6. 
हैरोडोटस के अनुसार थ्रेश देश की सब जातियों से जाट सबसे बहादुर और बहुत उन्नत थे। थ्रेश के जाट इतने शक्तिशाली थे कि सिकन्दर महान् को एशिया पर आक्रमण करने से पहले उनसे भिड़ना पड़ा था। आगे आने वाले समय में जाटसंघ ने यूनान पर आक्रमण करके एथेन्स (Athens) पर अधिकार कर लिया था3
7.
एक प्रसिद्ध प्राचीन इतिहासज्ञ पोम्पोनियस मेला ने सिथियन जाटों के विषय में लिखा है कि वे युद्ध तथा शत्रु की हत्या से प्यार करते हैं4
8. 
कर्नल जेम्स टॉड के शब्दों में - “आज के जाटों को देखकर अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि ये जाट उन्हीं प्रचण्ड वीरों के वंशज हैं जिन्होंने एक दिन आधे एशिया और यूरोप को हिला दिया था।”
9.
शिवदास गुप्ता का कथन है कि “जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुर्किस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनेविया, इंग्लैंड, रोम व मिश्र आदि में कुशलता, दृढता और साहस के साथ राज्य किया था और वहां की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था।” (प्राचीन भारत के उपनिवेश, प्रकाशन 'स्वार्थ' मासिक पत्रिका अंक 4-5, सं० 1976) व जाटों का नवीन इतिहास पृ० 13, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा)

1. Jats The Ancient Rulers P. 58-59 B.S. Dahiya IRS.
2. Jats The Ancient Rulers P. 131-133 B.S. Dahiya IRS; Antiquity of Jat Race P. 40-41 by Ujagar Singh Mahil.
3, 4. Antiquity of Jat Race P. 15-16 by Ujagar Singh Mahil.


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10.
23-11-1967 को बरेली में जाट रेजीमेंट को ध्वज प्रदान करते समय भारतवर्ष के तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर जाकिर हुसैन जी का भाषण था कि “जाटों का इतिहास भारत का इतिहास है और इसी तरह जाट रेजिमेंट का इतिहास भारतीय सेना का इतिहास है। सदियों से ये अपने स्वतन्त्रता-प्रेम के लिए मशहूर हैं। इनकी आजादीपसन्दी और आजादी के लिए मर मिटने की मिसालों से इतिहास भरा पड़ा है। पश्चिम में फ्रांस से लेकर पूर्व में चीन तक जाट बलवान्, जय भगवान् का रणघोष गूंजता रहा है।” (जाट बलवान् जाट रेजिमेंट की वीर गाथा पुस्तक लेखक लेफ्टिनेंट कर्नल गौतम शर्मा)।
11.
श्री सी० वी० वैद्य ने लिखा है कि जाट जाति ने अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति को अब तक कायम रखा है। (हिस्ट्री ऑफ मिडीवल हिन्दू इण्डिया पृ० 165)।
12.
झुंझनू में जाट महासभा के महोत्सव पर सन् 1931 ई० में सुप्रसिद्ध अंग्रेज योद्धा मि० एफ० एस० यांग (F.S. Yang) इन्स्पेक्टर जनरल पुलिस ने अपने भाषण में कहा था - “जाट सच्चे क्षत्रिय हैं, हमने जर्मन युद्ध के समय उनकी वीरता को देख लिया है। वे मैदान में मरना जानते हैं। अंग्रेज सरकार की ओर से उनकी पलटन1 को रायल2 की उपाधि मिली है। मैं यह भी कहता हूँ कि जाट बहादुरी के साथ ही सच्चे, ईमानदार और बात के पक्के होते हैं। वे दगा नहीं करते हैं। मैंने स्वयं कुछ जाटों को परखा है, वे पूरे उतरे हैं।”
13.
तैमूर ने कहा था कि - “जाट एक अत्यन्त मजबूत जाति है। देखने में वे दैत्य जैसे, चींटी और टिड्डियों की तरह बहुत संख्या वाले और शत्रुओं के लिए सच्ची महामारी हैं।”
14.
प्रसिद्ध नेता भाई परमानन्द जी ने जाटों के सम्बन्ध में लिखा है - “एक शब्द में इतना कह देना जरूरी है कि पंजाब में खालसा राज्य स्थापित करके सीमा-प्रान्त की तमाम पठान जातियों को अपने अधीन करना और अफ़गानिस्तान के पठानों को कई बार हरा देना, जो कि हमारी जाति के इतिहास में अचम्भा समझा जाता है, जाट जाति के वीरों का ही काम था। इस देश में क्षत्रिय के कर्त्तव्य का जाटों ने यदि राजपूतों से बढ़कर नहीं तो कम भी पालन नहीं किया है।” (तारीख पंजाब)
15.
“जाट भारतीय राष्ट्र की रीढ हैं। भारत मां को इस साहसी वीर जाति से बहुत बड़ी आशायें हैं। भारत का भविष्य जाट जाति पर निर्भर हैं।” (पं० मदनमोहन मालवीय “पुष्कर का भाषण”)
16.
“जितनी बार भी मैंने भारत पर हमला किया, पंजाब के दुर्दान्त जाटों ने हमारी फौज का मुकाबला किया। लड़ाई के समय पर हर बार वे निडर दिखाई दिये।” (अहमदशाह अब्दाली)
17. 
“गजनवी जहाद पुस्तक” में हसन निज़ामी को विवश होकर लिखना पड़ा - “राजा विजयराव (जाट) की फौज महमूद की फौज के साथ ऐसी वीरता और साहस से लड़ी कि इस्लामियों के छक्के छूट गये। इस युद्ध में महमूद ने अपना साहस छोड़कर दरगाह में खुदा के आगे घुटने टेक दिये।” (ठा० देशराज पृ० 213)।

1. यह पलटन 6 जाट थी, जिसका नाम आजकल पहली बटालियन (एल० आई०) “दी जाट रेजीमेंट” है।
2. रॉयल (Royal) - Kingly राजकीय, नृपयोग्य, शिष्ट। सम्राट् की ओर से दी गई उपाधि।


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18.
“जाट नामक जाति में कुछ बातें अभी तक प्राचीन चन्द्रवंशी क्षत्रियों अर्थात् कौरव, पाण्डवों से टक्कर खाती हैं।” (धर्म इतिहास रहस्य)
19.
तमिल भाषा में “मणि मेखला” नामक ग्रन्थ में जाट जाति के अभिमान और शौर्य का वर्णन किया हुआ है जिससे इनका क्षत्रिय व बहादुर होना सिद्ध होता है1
20.
बौद्ध-ग्रन्थ अभिधान में जाट जाति की विशेषता का उल्लेख है2
21.
जिन वंशों के जट संघ में निशान हैं, वे भारत के वैदिक, रामायण और महाभारतकालीन राजवंश हैं और जिनके वर्णन से सारा आर्य साहित्य भरा पड़ा है3
22.
जाट मिट सकते हैं किन्तु अपने शत्रु के आगे झुकते नहीं हैं4
23.
हरयाणा के वीर की गर्दन तो टूट सकती है किन्तु झुक नहीं सकती। (हिन्दी सत्याग्रह काल में कहा था श्री आचार्य भगवानदेव जी ने)।
24.
जाटों को मुगलों ने परखा, पठानों ने उनकी चासनी ली; अंग्रेजों ने पैंतरे देखे। उन्होंने भी देहली, काबुल, भरतपुर, पुष्कर, पानीपत और जर्मनी तथा फ्रांस की भूमि पर अपने गर्म-गर्म लहू की स्याही और कटार कलम से लिखकर सिद्ध किया है कि जाट क्षत्रिय हैं। महमूद गजनवी और तैमूर के दांत इन्हीं जाटों ने तोड़े थे जिन्हें सी० वी० वैद्य जैसों ने वैश्य कहा है। काबुल के पठानों की निगाह में कोई भारतीय क्षत्रिय कौम खटकी थी तो यही जाट थे5
25.
हिस्ट्री ऑफ जाट्स के लेखक कालिकारंजन कानूनगो जाटों के विषय में लिखते हैं - “वे खेती करने और तलवार चलाने में एक बराबर दिलचस्पी रखते हैं और यहां तक उन्नति की है कि मेहनत और साहस में हिन्दुस्तान की कोई अन्य जाति इनके मुकाबले में नहीं है। वे बिना किसी भेदभाव के अपने बड़े भाई की विधवा से विवाह कर लेते हैं, जो कि उनके असली क्षत्रिय होने का सबूत है। यह प्रथा वैदिककाल की तीन बड़ी-बड़ी जातियों में प्रचलित थी।”
आगे यही महाशय लिखते हैं - “चाहे सुलतान महमूद गजनवी या नादिरशाह या अहमदशाह अब्दाली, किसी के साथ उनके किए गए संघर्ष और विरोध की ओर नजर डालिये, तो हर एक से और हर जमाने में उनके जातीय चरित्र का पता चलता है। बड़े से बड़े विजेता की दिल दहला देने वाली तारीफ सुनकर उससे न डरना और बाद में हो जाने वाले नुकसान का ख्याल न करके भागते हुए दुश्मन को खदेड़ते चले जाना, लड़ाई में शत्रु से भिड़ जाने पर पूर्ण धैर्य धारण करना और अद्वितीय गम्भीर साहस का दिखाना, युद्ध-क्षेत्र में तथा हार जाने पर आने वाली आपत्तियों का तनिक भी ख्याल न करना और अपने शत्रु की निर्दयी तलवार के सिखाये हुए सबकों 6 को बहुत जल्दी भूल जाना आदि बातें जाटों के चरित्र के मुख्य अंग हैं।” (जाट इतिहास पृ० 736, ले० ठा० देशराज)।

1. व्रजेन्द्र वंश भास्कर पृ० 11.
2, 3, 4. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 731.
5. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 74.
6. इसका तात्पर्य यह है कि शत्रु से बुरी तरह हार जाने एवं उसके द्वारा किये गये अत्याचारों की परवाह न करके फिर दुबारा उससे टक्कर लेना। (लेखक)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-151


26. 
नवाब समसामुद्दौला शाहनवाज खां जाटों के राजनैतिक क्रियाकलापों के आधार पर लिखता है - “यह पाषाणहृदय तथा लूटमार में दत्तचित्त रहते हैं1।” वास्तविकता यह है कि इनकी वीरता का भय व्याप्त रहता है और इस बारे में जाट मरयो तब जानियो, जब तेहरामी हो जाये2 कहावत प्रसिद्ध है।
27.
भारत के इतिहास में जब से प्राप्त होता है, जाटों ने विदेशी आक्रान्ताओं का सामना भारत की अन्य जातियों की अपेक्षा कहीं अधिक किया है। जगजार्टिस से लेकर राजपूताने के मैदानों तक उन्हें स्वदेश की रक्षा के लिए खून बहाना पड़ा है और उन्होंने वह कार्य करके दिखाये हैं, जो अचम्भे की बात समझे जाते हैं3
28. 
“जाटों में आज भी एक अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता विद्यमान है। उन्हें प्रेम से वश में लाना जितना सरल है, आंखें दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है। सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि वे अन्य हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक स्वाधीन हैं और सदा रहे हैं। लड़ना उनका पेशा है। मनमानी करने में और अपनी बात की खातिर अपना घर बिगाड़ देना या जान को खतरे में डाल देना जाटों की विशेषता है।4।”
29. 
महाराजा रणजीतसिंह (भरतपुर)
जब महाराजा रणजीतसिंह भरतपुर राज्य के शासक थे तब सन् 1805 ई० में लार्ड लेक ने भरतपुर के दुर्ग पर तीन ओर से धावा कर दिया। उसके साथ बड़ी संख्या में सेना, भारी तोपें एवं मशीनगनें आदि आधुनिक शस्त्र थे। महाराजा की जाटसेना इतनी वीरता से लड़ी कि लार्ड लेक की सेना के दांत खट्टे कर दिये और उसके रुक-रुक कर चार बार किये गए भयंकर धावे असफल कर दिए। लार्ड लेक जो भारत में कहीं नहीं हारा था, जाटों के इस युद्ध में मुंह की खानी पड़ी और हारकर किले से अपना घेरा उठा ले गया। भरतपुर के गौरव गान की चर्चा तो गीत-काव्यों में गाई जाने लगी। स्वयं लार्ड लेक ने इस हार का विवरण इस प्रकार दिया था - “भरतपुर की भूमि ऊबड़-खाबड़ है। साथ में कोई अच्छा इञ्जीनियर भी नहीं था। इससे पहले कभी उसकी परिस्थिति का पता लगा नहीं। बस यही कारण थे कि विजय प्राप्त नहीं हुई।” ड्यूक ऑफ विलिंगटन ने जो कि तत्कालीन गवर्नर लार्ड वेलेजली के भाई थे, लेक की हार का कारण इस तरह बताया था - “उन्हें नगरवेष्टन (परकोटे) का कुछ ज्ञान न था, इसलिए असफलता हुई।” जाटों की बहादुरी की छाप भारत में ही नहीं, किन्तु विलायत तक बैठ गई। बड़े खेद की बात है कि कर्नल जेम्स टॉड साहब ने लार्ड लेक की इस हार और जाटों की बहादुरी का जिक्र तक अपनी पुस्तक में नहीं किया।

1. मआसिरुल उमरा (ना० प्र०1/119)
2. विलियम क्रुक, 3/40.
3. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 736।
4. मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-152


30. 
महाराजा कृष्णसिंह भरतपुर नरेश के सन् 1925 ई० के पुष्कर में जाट महासभा के अधिवेशन के अवसर पर भाषण के कुछ अंश ये हैं - “मुझे इस बात का भारी अभिमान है कि मेरा जन्म जाट क्षत्रिय जाति में हुआ है। हमारी जाति की शूरवीरता के चरित्रों से इतिहास के पन्ने के पन्ने अब तक भरे पड़े हैं। हमारे पूर्वजों ने जो जो वचन दिये, प्राणों के जाते-जाते उनका निर्वाह किया था। तवारीख बतलाती है कि हमारे बुजुर्गों ने कौम की भलाई और उन्नति के लिए कैसी-कैसी कुर्बानियां की हैं। हमारी तेजस्विता का वर्णन संसार करता है। मैं विश्वास करता हूं कि शीघ्र ही हमारी जाति की यश-पताका संसार भर में फहराने लगेगी।”
31. 
प्रथम महायुद्ध के समय का IX जाट रेजीमेंट आफीसर्स का पीतल का बटन
पहला महायुद्ध (1914-18) में 6 जाट पल्टन जर्मन सेना के विरुद्ध फ्रांस की भूमि पर लड़ी। ये जवान शत्रु पर दूर से गोलियां बरसाने की बजाय धावा बोलकर संगीन से हाथों-हाथ युद्ध करना ज्यादा पसन्द करते थे। जब ये जवान जाट बलवान् जय भगवान् का रणघोष बोलकर शत्रु पर धावा करते थे तो जर्मन सेना का दिल दहल जाता था और वे मोर्चे छोड़कर भाग भी जाते थे। सबसे निराली और डरावनी इनकी संगीन की लड़ाई थी। ये धावा बोलकर जर्मन सेना के मोर्चों में कूद पड़ते थे और शत्रु को अपनी संगीन में पिरोकर मोर्चे से बाहर इस तरह से फेंक देते थे जैसे कि किसान अपनी जेली से पूलियों को फेंकता है। इस 6 जाट पल्टन से जर्मन सेना इतनी भयभीत हुई कि इनके सामने खड़े रहने का साहस छोड़ दिया। पूरे यूरोप में जाटों की बहादुरी की धाक बैठ गई। जर्मन सेना की हार का सबसे बड़ा कारण 6 जाट की अद्वितीय बहादुरी थी।
6 जाट के कर्नल साहब एवं जरनलों ने यह कहा कि किस-किस को विक्टोरिया क्रास दिलायें, 6 जाट के सब जवान ही विक्टोरिया क्रास के हकदार हैं1।”
32. 
सन् 1962 ई० में हुए भारत-चीन युद्ध में 5वीं जाट बटालियन लद्दाख की सीमा पर चीनियों से युद्ध कर रही थी। इन जाट जवानों ने चीनियों के बड़े-बड़े शक्तिशाली आक्रमणों को असफल कर दिया और अपनी सरहद में न घुसने दिया। इस अवसर पर मेजर जनरल श्योदत्तसिंह साहब ने 5वीं जाट पल्टन के दरबार में हार्दिक बधाई देते हुए कहा कि “इस लद्दाख क्षेत्र में चीनियों के बड़े पैमाने पर किए गए खूंखार व पुरजोर आक्रमणों को आपकी जाट प्रसिद्ध बहादुर पल्टन ने पूरी तरह असफल किया। जाट बड़ी बहादुरी से लड़े।” जनरल साहब ने दूसरे महायुद्ध में फील्ड मार्शल रोमेल साहब द्वारा जाटों की बहादुरी की सराहना करने की याद दिलाते हुए कहा - “The Great Rommel has said, in North Africa the Jats were among the best fighters in defence.” अर्थात् “महान् रोमेल ने कहा था कि उत्तरी अफ्रीका में जमकर लड़ने में जाट अच्छे लड़ाका हैं।” जनरल साहब ने कहा कि “सचमुच वे बहादुर थे, जैसा कि उन्होंने लद्दाख में भी दिखा दिया है2।”
एक बार भारत के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने विदेशियों की इस बात के कहने का कि “भारतीय सेना से चीनी सेना अधिक शक्तिशाली है” उत्तर दिया था कि “चीनी ऐसे बहादुर थे तो लद्दाख के मोर्चों व चुशूल हवाई अड्डे को क्यों नहीं जीत लिया? हमारे बहादुर जवानों ने इनके दांत खट्टे कर दिए थे।” (लेखक)

1. मेरे पिताजी हवलदार रायसिंह 6 जाट में थे जो उस समय जर्मन सेना पर किये गए ऐसे धावों में शामिल थे। उनकी जबानी बताई गई ये बातें हैं (लेखक); लेफ्टिनेंट रामसरूप जून साहब लेखक जाट इतिहास पृ० 161 पर।
2. History of Jat Regiment P. 103 by Lt. Col. Goutam Sharma, 1979.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-153


33. 
3 नम्बर जाट बटालियन का डोगराई पर अधिकार - डोगराई गांव में पाकिस्तान के लगभग एक ब्रिगेड का जमाव (defence) था। उन्होंने चारों ओर कांटेदार तार एवं बारूदी सुरंगें लगा रखी थीं और 18 मशीनगनें (M.M.G.), 6 पेटन टैंक एवं भारी तोपें लगाईं थीं। 3 जाट पलटन ने 21-22 September 1965 ई० को डोगराई पर रात के समय अपना युद्धघोष जाट बलवान जय भगवान् बोलकर धावा बोल दिया। गोलियों की वर्षा व तोपों के गोलों की परवाह न करते हुए शत्रु के मोर्चों पर टूट पड़े। हाथों हाथ संगीनों की लड़ाई में ऐसे पैंतरे दिखाए कि दुश्मन का दिल दहल गया। पाकिस्तानी सेना जाटों से इतनी भयभीत हुई कि मोर्चे छोड़कर भाग गई या शस्त्र डालकर बहुत से कैदी हो गये और काफी मारे गये। सब सामग्री, 3 जाट पलटन के हाथ आई। इस पलटन ने भारतीय तिरंगा झण्डा इच्छोगिल नहर पर पहरा दिया। एक पलटन द्वारा इतना शक्तिशाली शत्रु का मोर्चा जीतने की ऐसी मिसाल संसार में कोई भी न मिलेगी।
डोगराई की विजय पर प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री जी, रक्षामंत्री श्री यशवन्तराव चव्हाण, चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल जे० एन० चौधरी, ब्रिगेडियर रणसिंह अहलावत , ले० जनरल हरबख्शसिंह आदि ने स्वयं पधारकर बटालियन को शाबासी व हार्दिक बधाई दी। बाद में महाराष्ट्र, मैसूर, पंजाब और मध्यप्रदेश के गवर्नर भी पधारे थे1
इस अवसर पर ले० जनरल हरबख्शसिंह साहब ने अपने भाषण में कहा था कि “आप की 3 जाट बटालियन ने एक महान् जीत प्राप्त की है जो ऐसी किसी पलटन ने नहीं की। इसके लिए पूरे भारतवर्ष को गौरव है2।”
3 जाट बटालियन के डाक्टर एस० जी० रेड्डी के अनुसार - “घायल जाट जवानों को मरहम पट्टी करते समय मैंने किसी को ‘आह’ कहते हुए कभी नहीं सुना3।” पाकिस्तानी कैदी ले० कर्नल गोलवाला के शब्दों में - “जाटों को रोकना हमारे लिए असम्भव था4।”
34. 
जाटों का आदर्श वाक्य (Motto) है कि “जब तक जीवन है, वीरता से रहना और जब मृत्यु आए तो हंसते-हंसते मरना। मृत्यु आए तो युद्ध में आए जिससे हम स्वर्ग में जायें जबकि बिस्तर पर पड़कर मरने से तो नरक मिलेगा।” विदुर नीति में भी लिखा है कि “अपने देश की रक्षा के लिए शत्रु से लड़ते-लड़ते मरने वाले वीर को स्वर्ग प्राप्त होता है।” (लेखक)
35. 
वास्तविकता तो यह है कि किसी भी इतिहास पुस्तक को देखिये, उसके पन्ने के पन्ने जाटों की वीरता के कारनामों से भरे पड़े हैं जो सबके सब लिखना असम्भव है। एक कवि ने बहुत ठीक कहा है कि - “तेरी तकदीर की देती है गवाही दुनिया। तेरी हस्ती की शहादत में है रचना तेरी।” अर्थात् “जाटों की वीरता का साक्षी सारा संसार है।” इसकी पुष्टि इनके बहादुरी के कारनामों से होती है।

इन थोड़े से उदाहरणों से पाठक एवं वे अज्ञानी व ईर्ष्यालु पुरुष जिन्होंने जाटों के लिए शूद्र, म्लेच्छ, पतित, नास्तिक और वैश्य आदि कहा, समझ गए होंगे कि जाट सचमुच क्षत्रिय आर्य हैं। पाठकों को जाटों की वीरता के कारनामों की अधिक जानकारी अगले अध्यायों के पढ़ने से प्राप्त होगी। जैसे - प्राचीनकाल से वर्तमान काल तक जाटों का विदेशों में राज्य, भारतवर्ष में राज्य, और सन् 1857 ई० में स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई, अंग्रेजी शासनकाल से अब तक सेना में तथा आई-एन-ए में कारनामे और कर्त्तव्य आदि।


1, 2. History of Jat Regiment by Lt. Col. Gautam Sharma.
3, 4. ibid (वही) और जाट इतिहास इंग्लिश पृ० 249 लेखक रामसरूप जून।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-154



द्वितीय अध्याय समाप्त




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