Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VIII

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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अष्टम अध्याय: भरतपुर जाट राज्य की स्थापना

Contents

संक्षिप्त वर्णन

यह प्रथम अध्याय में लिख दिया गया है कि वर्तमान भरतपुर नरेश श्रीकृष्ण महाराज के वंशज हैं। देखो प्रथम अध्याय, श्रीकृष्ण जी की वंशावली)।

श्रीकृष्णजी से लेकर भरतपुर के अन्तिम नरेश बृजिन्द्रसिंह तक 101 पीढी हैं। यह सब चन्द्रवंश में यदुवंशीय हैं।

तहनपाल (कृष्णजी से 68वीं पीढ़ी) के अनेक पुत्र थे, जिनमें ज्येष्ठ धर्मपाल से करौली और उसके तीसरे पुत्र मदनपाल से भरतपुर के परिवार निकले हैं।

बयाना से इन यादवों का एक समूह धर्मपाल के साथ करौली चला गया था। आजकल वे करौली के यादव के नाम से प्रसिद्ध हैं। करौली के यादव राजपूत कहे जाते हैं और भरतपुर के यादव जाट। जब पौराणिकों ने क्षत्रिय जातियों (जाट, गुर्जर, अहीर आदि। का एक संघ बनाकर उसका नाम राजपूत रखा, तब कुछ समय के पश्चात् करौली के यादव भी उस संघ में मिल गये तथा राजपूत कहलाने लगे1

इन यादववंशी जाटों के शाखागोत्र सिनसिनवार एवं सोगढ़िया-सोगरवार, स्थान के नाम पर प्रचलित हुए, जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है -

सिंध से यादवों के एक समूह ने लौटकर फिर ब्रज में आकर बयाना पर अधिकार जमा लिया। इनका राजा विजयपाल (विजयदेव) था जो कृष्ण जी से 67वीं पीढ़ी में हुआ। कुछ समय के बाद सूये (सोहेदव) जो श्रीकृष्णजी से 70वीं पीढ़ी में हुआ, ने शूरसैनी गांव से बलाई लोगों को निकालकर अपना अधिकार जमाया। भाषाभेद से शूरसैनी गांव का नाम बदलकर सिनसिनी कहलाने लगा तथा वहां पर निवास करनेवाले यादव जाटों को सिनसिनवार-सिनसिनवाल पुकारा जाने लगा। इसके बाद के इस वंश के लोगों का गोत्र सिनसिनवाल ही कहा जाने लगा2

सोगढ़िया-सोगरवार - यादव जाटों के समूह में सुग्रीव नाम का प्रसिद्ध योद्धा था। उसने वर्तमान सोगर को बसाया था। उसने इस स्थान पर एक गढ़ बनाया था, जो सुग्रीवगढ़ कहलाया। सुग्रीवगढ़ ही आजकल सोगर कहलाता है जो क्रमशः सुग्रीवगढ़ से सुगढ़ और सोगर हो गया। इस स्थान के नाम से, इस वंश के यादव जाट, सोगढ़िया-सोगरवार कहे जाने लगे तथा इस तरह यह एक शाखागोत्र बन गया। इस वंश में खेमकरण नाम का एक प्रचण्ड वीर उत्पन्न हुआ था। उसने सोगर


1. जाट इतिहास पृ० 629, लेखक ठा० देशराज; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 15, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
2. जाट इतिहास, पृ० 629, लेखक ठा० देशराज।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-620


गांव में एक कच्ची गढ़ी बनाई। औरंगजेब की सेना के उसने रास्ते बन्द कर दिए थे। अपने मित्र रामकी चाहर से मिलकर आगरा, धौलपुर और ग्वालियर तक उसने आतंक जमा लिया था। मुगलों के सब सरदार उसके भय से कांपते थे।

इसका राज्य सोगर से लेकर सीकरी तक फैला हुआ था। जिस समय चूरामन (चूरामणि) (सन् 1695 ई० से 1721 ई०) थून गढ़ी में राज्य करते थे, उस समय वीर खेमकरण सीकरी पर अधिकार किए हुए थे। खेमकरण दोपहर को धौंसा बजाकर भोजन करता था। उसकी आज्ञा थी कि धौंसे के बजने पर जो भी कोई भाई सहभोजन में शामिल होना चाहे, वह हो जाये। उसके पास हथिनी बड़ी चतुर और स्वामिभक्त थी। वह बड़े मजबूत शरीरवाला एवं प्रथम दर्जे का बलवान् था। एक बार आगरा में मुग़ल सूबेदार के सामने, एक साथ दो दिशाओं से छोड़े हुए, दो शेरों को केवल अपनी कटार से मार दिया था। मुगल बादशाहों ने उसे फौज़दार का खिताब दिया था। खेद है कि अडींग के तत्कालीन शासक खूंटेल गोत्र के जाट फोदासिंह ने वीर खेमरकण को भोजन में विष खिला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई1

किन बड़ी कठिनाइयों का सामना करके और किस प्रचण्ड वीरता से सिनसिनवार जाटों ने एक शक्तिशाली भरतपुर राज्य स्थापित किया, वह वर्णन निम्न प्रकार है -

मुर्शिद कुली खां तुर्कमान और ब्रजमण्डल के जाट (सन् 1636-38)

सम्राट् शाहजहां (सन् 1627-1658) ने हिन्दू किसानों पर लगान व अन्य नवीन कर लगा दिए। ब्रजमण्डल के किसानों ने इन करों को देने से इन्कार कर दिया। मुग़ल सरकार ने इनको विद्रोही मानकर फौज़दारों तथा नवीन जागीरदारों ने ब्रजमण्डल में अत्याचार करने शुरु कर दिये। सम्राट् शाहजहां ने 1636 ई० में लगान वसूल करने तथा ब्रजमण्डल की क्रान्ति को दबाने के लिए मुर्शिद कुली खां तुर्कमान को कांमा, पहाड़ी, मथुरा तथा महावन परगनों का फौजदार नियुक्त करके भेजा। वह अपनी एक विशाल सेना के साथ आगरा से मथुरा पहुंचा और उसने इन परगनों में अपनी सैनिक चौकियां स्थापित कीं। सैनिक अभियानों की आड़ में वह अपनी कामुक वृत्तियों का दास बन गया। वह किसानों को स्थान-स्थान पर सैनिक बल से खदेड़ने लगा और उनकी सुन्दर स्त्रियों को पकड़कर अपने हरम में ले जाता था। जन्माष्टमी के दिन मथुरा के पास यमुना नदी के उस पार गोवर्धन (गोकुल) में हिन्दुओं का एक बड़ा मेला लगता था। हिन्दुओं की तरह माथे पर तिलक लगाए तथा धोती पहिने खान तुर्कमान पैदल ही उस भीड़ में चला जाता था। जब कभी वह किसी चन्द्रमुखी सुन्दर हिन्दू लड़की को देखता, तो उस पर मेमनों के झुण्ड पर झपटने वाले भेड़िये की भांति झपटता और उसे पकड़कर ले जाता था। यमुना नदी के किनारे उसके आदमी नौका के साथ तैयार रहते थे। वे उसको नौका में बैठाकर बड़ी तेजी से आगरा ले जाकर तुर्कमान के हरम में पहुंचा देते थे। इस हरम में सैंकड़ों हिन्दू लड़कियां थीं।

खान के इन अधम एवं धर्म विरोधी पापात्मक अत्याचारों का बदला लेने के लिए ब्रजमण्डल के किसान सक्रिय हो गए। वे उसकी सैनिक टुकड़ियों तथा चौकियों पर हमला करने लगे। विद्रोही


1. जाट इतिहास पृ० 554, 629, लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव-खण्ड), पृ० 171, लेखक ठा० देशराज; जाटों का नवीन इतिहास पृ० 193, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-621


जाटों के दमन के लिए तुर्कमान ने सन् 1638 ई० में सम्भल के अन्तर्गत जटवाड़ नामक जाटों की एक सुदृढ़ गढ़ी पर आक्रमण किया, परन्तु स्वाभिमानी जाटों ने रात्रि के समय मदिरा में चूर तुर्कमान को घेर लिया और उसे कत्ल कर डाला1

इस क्रान्ति का प्रभाव हिण्डौन परगना के किसानों पर पड़ा तथा उन्होंने खालसा (सरकारी) भूमि का लगान रोक लिया। हिन्डौन परगने के किसानों से लगान वसूल करने के लिए शाहजहां ने 4 जून, 1637 ई० को एक फरमान मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा जिसके मिलते ही वह कछवाहा फौज के साथ आमेर से हिण्डौन पहुंचा। भीषण प्रयास के बाद किसानों ने विवश होकर लगान अवश्य अदा कर दिया, परन्तु इससे स्थायी हल नहीं निकला। किसानों में क्रान्ति की भावनायें उभर रही थीं और प्रतिवर्ष उपद्रव भड़क रहे थे। इस प्रकार यह भूखण्ड क्रान्तिकारियों का अखाड़ा बनता गया।

फौजदार मुर्शिद कुली खां की हत्या के बाद 1642 ई० में सम्राट शाहजहां ने इरादत खां को मथुरा, कांमा, महावन, पहाड़ी परगनों का फौजदार नियुक्त किया और वह अपनी सेनाओं के साथ इन परगनों में शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए पहुंचा। इसमें उदारता तथा नैतिकता थी। वह समझता था कि “जाटों को आंख दिखाकर या धमकी देकर बस में करना जितना कठिन है, उदारता, दयाभाव से बस में करना उतना ही सरल है।” यह देखकर ही वास्तव में उसने चार वर्ष (सन् 1642-46 ई०) तक सैनिक शक्ति की अपेक्षा प्रेम तथा सहनशीलता से स्वाभिमानी जाटों को बस में रखकर ब्रजमण्डल* में शान्ति व्यवस्था बनाने में सफलता प्राप्त की।

सिनसिनवाल गोत्र के जाट मदुसिंह एवं सिंघा की वीरता -

श्रीकृष्ण जी से 82वीं पीढ़ी तथा सूये (सोदेव) से 13वीं पीढ़ी में रौरियासिंह हुआ। उसके चार पुत्रों में से एक का नाम सिंघा (उदयसिंह) तथा दूसरे का नाम विजय था। उस विजय का पुत्र मदुसिंह था। इस मदु (मदुसिंह) को महाकवि सूदन ने ‘महीपाल’ तथा ‘शाह का उरसाल’ (शाहजहां के हृदय का कांटा) लिखा है। वह वीर साहसी तथा क्रान्तिकारी जाट जमींदार था। उसने सिनसिनी गांव का ठाकुर (मुखिया) पद प्राप्त किया और शाही फौजदार करोड़ी सागरमल का विरोध करके डूंग तथा समीपवर्ती अन्य जाटपालों में यथेष्ट सम्मान तथा प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। उसने अपने चाचा सिंघा के नेतृत्व में एक किसान संगठन तैयार कर लिया। इन्होंने कांमा, पहाड़ी, कसबाखोह आदि परगनों के खानजादौं मेवाती, जाट, गुर्जर तथा अन्य नवयुवकों के साथ मिलकर आगरा तथा दिल्ली के मध्य खालसा (सरकार के अधिकृत) गांव तथा शाही मार्गों में काफिलों तथा व्यापारियों के माल को लूटना शुरु कर दिया। इससे शाही मार्ग बन्द हो गये।


1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 76-77, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक इतिहासकारों का हवाला देकर लिखा है। जाट इतिहास, पृ० 21-22, लेखक कालिकारंजन कानूनगो
(*) = ब्रज प्रदेश की सीमायें - पूर्व में अलीगढ़ जिले का बरहद गांव, पश्चिम में गुड़गांव जिले में सोमनदी के किनारे तक, दक्षिण में बटेश्वर (जि० आगरा) और उत्तर में मथुरा जिले का शेरगढ़ परगना।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-622


मदुसिंह सिनसिनवार के नेतृत्व में क्रान्ति की व्यापकता से दुखित होकर सम्राट् शाहजहां ने 1 जुलाई 1650 ई० को मिर्जा राजा जयसिंह को इन क्रान्तिकारियों को कुचलने के लिए नियुक्त किया। उसकी सेना के अतिरिक्त सम्राट् ने उनको शाही सेना और काफी मात्रा में धनराशि दी। मिर्जा राजा ने अपने राज्य आमेर में 4000 सवार, 6000 पैदल बन्दूकची या धनुर्धारी तथा जंगलों को साफ करने वाले बेलदारों की एक अतिरिक्त विशाल सेना तैयार की और इन क्रान्तिकारी परगनों में पहुंच गया। सम्राट् ने 18 सितम्बर 1650 ई० को मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र कीरतसिंह को 800-800 सवारों का मनसब और कॉमा, पहाड़ी तथा खोह परगने जिनका वार्षिक लगान चार लाख 76 हजार रुपयों से अधिक था, जागीर में प्रदान करके सम्मानित किया। लगभग एक वर्ष तक मिर्जा राजा जयसिंह, उसका पुत्र कीरतसिंह तथा कल्याणसिंह नरूका कछवाहा राजपूतों की विशाल सेना के बल पर संघर्ष करते रहे। उन्होंने क्रान्तिकारियों को निकालने, घेरकर बरबाद करने के लिए भयंकर जंगलों को साफ करवाया, कच्ची गढ़ियों को गिराया।

मदुसिंह तथा उसके चाचा सिंघा ने जमकर युद्ध किया और एक-एक इंच भूमि पर जमकर लड़े। दीर्घ संघर्ष के बाद असंख्य जाट, मेव, खानजादौं, गूजर किसान तथा परिवार खेत रहे या बन्दी बना लिए गए। झुण्ड के झुण्ड किसान अपनी मातृभूमि को छोड़कर भाग गये। उनके असंख्य पशुओं और सम्पत्ति पर राजपूतों की सेना ने अधिकार कर लिया। सम्राट् शाहजहां के आदेशानुसार मिर्जा राजा जयसिंह ने 23 सितम्बर 1651 ई० को इन क्रान्तिकारियों के परगनों में राजपूत सरदार, जागीरदार तथा परिवारों को लाकर बसा लिया। जयसिंह ने कुछ स्थायी प्रबन्ध भी किये और उसने कल्याणसिंह नरूका के नेतृत्व में नरूका कछवाहा परिवारों को टवर (लक्ष्मणगढ़) तथा कठूमर (अलवर के दक्षिण-पूर्व 38 मील; सिनसिनी के पूर्व में 15 मील, कॉमा के दक्षिण-पूर्व में 14 मील) परगने में बसाया और कल्याणसिंह को माचेड़ी, राजगढ़ तथा आधी राजपुर की जागीर प्रदान की। इन विजयों के उपलक्ष्य में सम्राट् ने कीरतसिंह के मनसब में वृद्धि की और उसको मेवात का फौजदार नियुक्त किया। कॉमा, पहाड़ी तथा खोहरी के परगने कीरतसिंह तथा उसके परिवार के हाथों में स्थायी रूप से चले गये। कीरतसिंह ने कांमा को अपना स्थायी निवास बनाया। वहां पर विशाल महल, दुर्ग, मन्दिर तथा बागों का निर्माण कराया।

क्रान्तिकारियों की पराजय होने पर वीर सिंघा को गिरसा गढ़ी छोड़नी पड़ी और वह यमुनापारी जाट परिवारों में जा रहा।

सम्राट् शाहजहाँ ने 1654 ई० के बाद अपने पुत्र दारा शिकोह को आगरा सूबे का प्रबन्ध और मथुरा का परगना जागीर में दे दिया। दाराशिकोह स्वयं नम्र स्वभाव का था और हिन्दू धर्म के प्रति सहानुभूति रखता था। फलतः ब्रजमण्डल में सहिष्णुतापूर्ण उदार धार्मिक नीति को प्रश्रय मिला। सम्राट् ने वजीर सादुल्ला खां को गोकुल की खालसा (सरकार के अधिकृत) भूमि जागीर में दे दी। वजीर ने जाटप्रधान ग्रामों के बीच में सादाबाद नामक नवीन छावनी स्थापित की। उसने सन् 1652 ई० में ठेनुआ गोत्री प्रधान टप्पा, जावरा, जलेसर के कुछ भाग, खंदौली के सात गांव और महावन के 80 गांवों पर कब्जा करके सादाबाद के परगने में शामिल कर लिए। यह वजीर सादाबाद में 1652 से 7 अप्रैल, 1656 ई० तक रहा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-623


किन्तु जाट सादाबाद परगने में उस वजीर के अधीन होते हुए भी स्वतन्त्र रहे। उन्होंने कभी सरकारी खजाने के लिए टैक्स नहीं दिया। उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए नवीन कच्ची गढियां बनाईं। रात दिन युद्ध-आक्रमण और आघात-प्रत्याघात जारी रखे1

ब्रजमण्डल में औरंगजेब के हिन्दुओं पर अत्याचारों का परिणाम -

औरंगजेब (सन् 1658 -1707 ई०) ने अगस्त 1660 ई० में अब्दुन्नबी खां को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। वह विशाल सेना के साथ आगरा से मथुरा पहुंचा। वह कट्टर मजहबी तथा मुस्लिमपरस्त था। उसने मथुरा शहर के बीचों-बीच हिन्दू मन्दिरों के खण्डहरों पर सन् 1661-62 ई० में एक जामामस्जिद बनवाई, जो अभी तक मौजूद है। उसने जाट उपद्रवकारियों पर अचानक आक्रमण किये और उनके गांवों को बरबाद किया। जो व्यक्ति सपरिवार इधर-उधर भागने में विफल रहे, उनको मौत के घाट उतारा गया। मथुरा में केशवदेव जी के मन्दिर को दाराशिकोह ने एक पत्थर की जाली भेंट की थी। औरंगजेब के आदेश से फौजदार अब्दुन्नबी खां ने सितम्बर-अक्टूबर, 1662 ई० में बलपूर्वक वह जालीदार कठहरा हटवा दिया।

शाहजहां की मृत्यु (जनवरी 12, 1666 ई०) के बाद औरंगजेब 4 फरवरी से अक्टूबर 1666 ई० तक अकबराबाद में रहा। उसके आदेश से मथुरा के फौजदार तथा मुहतसिब ने केशवदेव जी के मन्दिर की उच्चतम छतरियां, परकोटा तथा समस्त देवालयों (ठाकुरद्वारों) को तुड़वा दिया और अमूल्य जवाहरात तथा आभूषणों से सज्जित प्रतिमाओं की गाड़ियां भरकर भेजीं, जहां इन प्रतिमाओं को जहानआरा मस्जिद की पैड़ियों के नीचे डलवा दिया, ताकि मुसलमानों के पैरों तले लगातार कुचलती रहें। जनवरी 1670 ई० में औरंगजेब ने केशवदेव जी के मन्दिर को जड़ से तुड़वाने का आदेश दिया, जिसके खण्डहरों पर एक विशाल मस्जिद खड़ी की गईं, जो अभी तक विद्यमान है। इसकी मूर्तियों को आगरा ले जाकर नवाब कुदसिया बेगम मस्जिद की पैड़ियों के नीचे गाड़ दिया गया। औरंगजेब ने 1670 ई० में मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रखा। उसने 1669 ई० में हिन्दू मन्दिर तथा पाठशालाओं को तोड़कर गिराने के लिए राज्यव्यापी आदेश जारी किये। हिन्दुओं पर जजिया लगाया और उन पर ईश्वर की आराधना, मूर्तिपूजा, धार्मिक उत्सवों पर पाबन्दी लगाई। इन अत्याचारों से देश में त्राहि-त्राहि मच गई। ब्रजमण्डल के जाट जमींदार किसानों ने धर्मरक्षा और मानव स्वाधीनता का झण्डा उठाया, जिसको इन्होंने आगरा से दिल्ली तक फहराया।

जाट जमींदार, किसान, मजदूर के नवजागृत संगठन का नेतृत्व सिनसिनवार गोत्री जाट सरदार गोकुला ने सम्भालकर बीहड़ जंगलों और राजपथों पर क्रान्ति का बिगुल बजाया।

वीरवर गोकुला (गोकुलराम) (सन् 1660-1670 ई०)

जाट सरदार ओला, जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में गोकुला नाम से प्रसिद्ध हुआ, का जन्म सिनसिनी ग्राम में हुआ था। ‘ब्रजेन्द्र वंश भास्कर’ में इसका नाम कान्हादेव सिनसिनवार लिखा है। मदुसिंह, जिसकी वीरता का वर्णन पिछले पृष्ठों पर किया गया है, के चार पुत्र सिन्धुराज,


1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 78-82, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक पुस्तकों के हवाले से लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-624


ओला (गोकुला), झमन और समन नामक थे। सन् 1650-51 ई० में मदुसिंह तथा उसके चाचा सिंघा (उदयसिंह) ने मिर्जा राजा का अपार साहस व वीरता से सामना किया। क्रान्ति की विफलता के बाद सिंघा ने अन्य जाटों के साथ गिरसा गढ़ी छोड़कर यमुना पारी जाट इलाकों में शरण ली। गोकुला भी अपने दादा सिंघा के साथ ही चला गया।

प्रारम्भ में यह गोकुल महावन क्षेत्र के पनाह गांव में जाकर आबाद हो गया जहां सिनसिनवाल जाट गंगादेव की सन्ततियों ने उनका साथ दिया।

गोकुला स्वभावतः क्रान्तिकारी, सिनसिनवाल गोत्री जाट था और उसने क्रान्तिकारी भावनाओं को सबल बनाने के लिए लूटमार अथवा राहजनी का सामाजिक धन्धा अपनाया। उसने अपने प्रभाव से दिल्ली के दक्षिण पूर्व 12 मील पर तिलपत की जमींदारी प्राप्त की। गोकुल से तिलपत जाकर बसने के कारण वह गोकुला कहलाने लगा। गोकुला जाट धर्मनिष्ठ, स्वाधीनता प्रेमी, सुयोग्य संगठक, सैन्यसंचालक, पराक्रमी, साहसी, उद्यमशील, निर्भीक तथा स्वाभिमानी सरदार था।

गोकुला व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामाजिक एकता के महत्त्व को समझने वाला तथा मुगल साम्राज्य में सशस्त्र क्रान्ति की जड़ों को जमाने वाला प्रथम जाट मुखिया था। फौजदार नन्दराम, जो ठेनुआं गोत्री माखनसिंह का प्रपौत्र था, ने जाट युवकों को साथ लेकर सन् 1660 ई० में कोइल (अलीगढ़), मुरसान, हाथरस और मथुरा परगने के कुछ गांवों पर अधिकार कर लिया। सम्राट् औरंगजेब जाटों के इस विकसित उपद्रव की उपेक्षा नहीं कर सका और उसने 1660 ई० में जाट सरदार नन्दराम को फौजदार की उपाधि देकर तोछीगढ़ परगने का प्रबन्धक बना दिया। इससे सब जाटों ने उसका साथ छोड़ दिया। नन्दराम ने 35 वर्ष फौजदारी का प्रबन्ध सम्भाला और सन् 1696 ई० में मर गया। फौजदार नन्दराम ने तोछीगढ़ की जागीर प्राप्त करके अपने स्वाभिमान को सम्राट् के हाथों बेच दिया। अतः गोकुला ने गरीब निःसहाय तथा मजदूरों का नेतृत्व सम्भाला। जमींदार किसानों ने अपनी गढ़ियों को मजबूत बनाकर सुरक्षात्मक साधनों से सुसज्जित किया।

गोकुला पर समर्थ गुरु रामदास के भाषण का प्रभाव-

एक साधु जिसका नाम समर्थ गुरु रामदास था, जो छत्रपति शिवाजी के गुरु थे, महाराष्ट्र से चलकर संवत् 1722 वि० (सन् 1665 ई०) में हरयाणाप्रदेश पहुंचे। उसने औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध लोगों को स्वाधीन, देशभक्त, स्वाभिमानी और हिन्दू जाति के रक्षक बनने का संदेश मथुरा, वृंदावन, गढ़मुक्तेश्वर, हरद्वार आदि स्थानों पर दिया। उसने अपना अन्तिम भाषण बैसाखबदी अमावस्या संवत् 1723 वि० (सन् 1666 ई०) के दिन ईस्सापुर टीले के स्थान पर दिया। यह स्थान यमुना नदी के निकट, जिला मुजफ्फरनगर (उत्तरप्रदेश) में है।

समर्थ गुरु रामदास के भाषण का सारांश -

एक विशाल सभा, जिसमें अधिकतर संख्या जाटों की थी, को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि “आगरा और दिल्ली मुग़ल साम्राज्य के दो पांव हैं, जिनको तोड़ना जरूरी है। मैंने औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध सारे भारत में बारूद बिछा दी है जिसको चिंगारी देने के लिए कोई जाट का बेटा चाहिये क्योंकि राजपूत राजाओं ने मुगल बादशाहों को अपनी लड़कियों के डोले देकर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है। राजपूतों में जीवन शेष नहीं रहा। मैं यह आशय लेकर आया


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-625


हूँ कि जाट ही इस महान् कार्य को कर सकते हैं।” उन्होंने कहा कि दिल्ली और आगरा के मध्य क्षेत्रों में क्रान्ति कर सकने वाला, माता का सच्चा पुत्र परीक्षा के लिए आगे आ जाओ।

यह सुनकर गोकुला और अनेक पंचायती योद्धा आगे आये और उन्होंने स्वतन्त्रता युद्ध के लिए अपनी जान को बलिदान करने की प्रतिज्ञा की। इन सब मल्ल योद्धाओं ने, जो अन्य कई जातियों के थे, गोकुला को अपना नेता मान लिया। उन्होंने समर्थ गुरु रामदास को कहा कि “सर्वखाप पंचायत और समाज में जाट बड़े हैं, यह हमारे बड़े भाई हैं। हम सब गोकुला के नेतृत्व में रहकर उसका साथ देंगे।” सबने पीपल का पत्ता और गंगा, यमुना का जल हथेली में लेकर शपथ ली। गुरु रामदास ने गोकुला को कहा कि “प्रिय पुत्र गोकुल! अपने देश तथा धर्म के लिए अपनी जान की बलि दे दो।”

इस पर गोकुल ने एक पान का बीड़ा चबाया और अपनी नंगी तलवार गुरु जी के पैरों में रखकर कहा कि “आपका आशीर्वाद मेरे साथ रहे, मैं पीछे कभी नहीं हटूंगा।” इसी तरह से 5000 मल्ल योद्धाओं ने शपथ ली। इस तरह से गोकुला का राजनीतिक जीवन आरम्भ हुआ।

समर्थ गुरु रामदास सर्वखाप पंचायत से मोहनचन्द्र जाट, हरीराम जाट, कलीराम अहीर नामक मल्ल योद्धाओं को अपने साथ महाराष्ट्र प्रदेश में ले गये। ये योद्धा छापामार युद्ध कौशल में निपुण थे। गुरु जी ने इनके द्वारा वहां मराठों तथा शिवाजी एवं उसकी सेना को गुरिल्ला युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया2। (2. सर्वखाप पंचायत रिकार्ड, संसार के युवा जाटों का प्रथम सम्मेलन (4-5 अक्तूबर 1986), गांव कंझावला, नई दिल्ली, पृ० 4-5 पर बालकिशन डबास का लेख)।

सन् 1666 ई०, मई में गोकुला ने भगवा रंग का झण्डा उठाया, जिस पर लिखा था “शिव हर-हर महादेव” और अपने 5000 वीर योद्धाओं के साथ मथुरा पहुंचा। वहां उसने मुख्य मुसलमान हाकिम तथा अन्य कई शाही अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। फिर वह उन मंदिरों में पहुंचा जहां पर गायों को काटा जाता था। उसने वहां 221 बूचड़ों तथा 250 मांस बेचने वालों को कत्ल कर डाला।

गोकुला ने किसानों को शाही कर न देने की घोषणा कर दी और दिल्ली से आगरा के मध्य क्षेत्रों में लूट-पाट एवं छापामार युद्ध जारी रखे।

औरंगजेब ने सितम्बर 14, 1668 ई० को अब्दुन्नवी खां को मथुरा का फौजदार पुनः नियुक्त किया। उसने प्रशासनिक दृष्टि से यमुना नदी के पार गोकुल के दक्षिण में अपने नाम से एक नवीन छावनी स्थापित की। सन् 1669 ई० के शुरु में खान के सैनिक दस्ते लगान वसूल करने में लग गये, लेकिन जाट किसानों के विरोध के कारण खान को स्वयं विप्लव क्षेत्र में उतरना पड़ा। मथुरा परगने के किसानों का नेतृत्व गोकुला ने स्वयं सम्भाला। अप्रैल 1669 ई० में फौजदार खान ने आन्दोलनकारियों के प्रमुख गढ़ सुराहा (सहोर) नामक गांव का घेरा डाल दिया और उसे बरबाद कर दिया। परन्तु आक्रमण के समय मई 10, 1669 ई० को गोकुला संगठन के जाट क्रान्तिकारियों ने उस अब्दुन्नवी खां फौजदार को गोली से उड़ा दिया। मुग़ल सैनिक मैदान छोड़कर भाग निकले और उनकी युद्ध सामग्री जाटों के हाथ लगी। सुरहा गांव की विजय ने जाट किसान क्रान्तिकारियों के उत्साह में वृद्धि की। जाटों ने सादाबाद नगर तथा परगने में भीषण लूटमार की और चारों ओर अग्निकांड का ताण्डव मचा दिया। उन्होंने शाही खजाना भी लूट लिया जिसमें उन्हें 80,000 रुपये


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-626


नकद हाथ लगे। अब आगरा, मथुरा, सादाबाद, महावन आदि परगने जाट क्रान्ति के केन्द्र बन गये। मुगल कर्मचारियों का आतंक उठ गया और हिन्दू नागरिकों ने गोकुला का मुक्त-हस्त होकर साथ दिया।

गोकुला तथा उसके दादा सिंघा (उदयसिंह) ने हरयाणा प्रदेश के दूर-दूर के जाट क्षेत्रों के युवकों को भरती किया। कुछ ही समय में 21,000 जाट और 15,000 अन्य जातियों के युवक जैसे अहीर, गूजर, रवे, सैनी आदि गोकुला के झण्डे के नीचे आ गये। ये सब योद्धा बिना वेतन लिए ही लड़े। इनको बन्दूकें देकर सिपाही बनाया।

औरंगजेब ने 13 मई, 1669 ई० को अपने एक सेनापति रादअंदाज़ को आगरा के सीमावर्ती क्रान्तिकारियों को दबाने के लिए भेजा और उसी दिन सुयोग्य प्रशासक सैफशिकनखां को मथुरा का फौजदार नियुक्त कर दिया। उसकी सहायता के लिए राजपूत सरदार वीरमदेव सिसौदिया को भी भेजा। किन्तु इन सेनापतियों से वीर आन्दोलनकारी नहीं दब सके और क्रान्ति की काली छाया प्रति माह तेजी के साथ फैलती गई, जिससे मुगलिया सरकार तथा परगनों में गोकुला का भयंकर आतंक छा गया।

औरंगजेब स्वयं एक विशाल मुग़ल सेना तथा तोपखाने के साथ रविवार, 28 नवम्बर के दिन दिल्ली से मथुरा पहुंचा और वहां छावनी डालकर गोकुला के विरुद्ध फौजी सेनापतियों का संचालन किया।

शनिवार, 4 दिसम्बर, 1669 ई० के दिन हसन अली खां बड़ी सेना के साथ सादाबाद तथा मुरसान की जाट गढ़ियों की ओर रवाना हुआ। उसी दिन उसकी सेनाओं ने रेवाडा, चंदरख और सरखरु नामक तीन जाट गढियों पर एक साथ आक्रमण किया और इन्हें चारों ओर से घेर लिया। क्रान्तिकारियों ने दोपहर तक शत्रु का वीरता, साहस तथा बड़े उत्साह के साथ जमकर मुकाबिला किया। परन्तु वे मुगल सेना को पराजित न कर सके। अतः अनेकों अपनी पत्नियों को जौहर की ज्वाला में विदा करके अथवा तलवार के घाट उतारकर शेर की भांति मुगल सेना पर टूट पड़े और उसके घेरे को तोड़कर भागने में सफल हुए। दोनों ओर के अनेक सैनिक काम आये।

तिलपत युद्ध और उसका परिणाम

फौजदार हसन अली खां एक विशाल मुगल सेना तथा अन्य फौजदारों की नई कुमुक लेकर गोकुला का पीछा करने को आगे बढ़ा। इस विशाल सेना ने मथुरा, महावन तथा सादाबाद परगनों को बुरी तरह घेर लिया। इस भारी दबाव के कारण जाट सरदार गोकुला को सादाबाद परगना खाली करना पड़ा और उसने तिलपत में युद्ध की घोषणा कर दी।

अतः हसन अली खां भी सादाबाद को छोड़कर तिलपत की ओर बढ़ा। इस अभियान में उसके साथ उसका पेशकार शेख राजउद्दीन भागलपुरी भी था। इसके अतिरिक्त हसन अली खां के नेतृत्व में 2,000 घुड़सवार, 25 तोपें, 1000 तोपची, 1000 धनुर्धारी, 1000 राकेटधारी, 1000 बेलदार और 1000 मार्गदर्शक थे। गोकुला और उसके दादा सिंघा (उदयसिंह) के नेतृत्व में 20,000 सवार व पैदल जाट साहसी सैनिक थे। उन्होंने दिसम्बर, 1669 ई० में तिलपत से 20 मील दूर भयंकर जंगलों


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की आड़ लेकर मुगलिया सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। इन्होंने कई दिन तक शाही सेना का कड़ा मुकाबिला किया, किन्तु आग्नेय अस्त्रों ने इनके पैर उखाड़ दिये। अतः एक रात्रि में उन्होंने अपना घेरा उठा लिया और तिलपत गांव में युद्ध की तैयारियां शुरु कर दीं। शाही सेना ने तिलपत को घेर लिया और तोपों से गोलाबारी शुरु कर दी। किसानों के घर गोलों की मार से ध्वस्त होने लगे, किन्तु खण्डहरों में से शाही सेना पर जवाबी हमले होते रहे। शाही सैनिकों का साहस तीन दिन तक गांव में घुसने का नहीं हुआ। वे गांव में, उसी समय घुस सके, जब गांव का प्रत्येक पुरुष बलिदान कर चुका था। तिलपत गांव की समस्त विवाहित अथवा अविवाहित नारियों ने घरों में आग लगाकर अथवा कुओं में कूदकर अपने नारीत्व की रक्षा की। मुगल सेना ने तिलपत गढ़ी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में मुगल सेनानायकों सहित 4000 सैनिक काम आये और कई हजार बुरी तरह जख्मी हुए, जबकि 5000 जाट खेत रहे। इससे जाटों के साहस व वीरता का भली-भांति पता चल जाता है। वीर गोकुला एवं उसके दादा सिंघा (उदयसिंह) को बन्दी बना लिया गया। इन दोनों को तिपलत से आगरा ले जाया गया।

जाट सरदार गोकुला का बलिदान (जनवरी, 1670 ई०)

शनिवार, जनवरी 1, 1670 ई० के दिन औरंगजेब ने मथुरा से अपनी छावनी उठाई और आगरा किले के महलों में प्रवेश किया। फौजदार हसन अली खां जाट सरदार गोकुला और उपनेता सिंघा (उदयसिंह) को सम्राट् के सामने ले गया।

औरंगजेब ने वीर गोकुला से कहा कि “इस्लाम धर्म कबूल करो और वायदा करो कि छोड़ देने पर फिर विद्रोह नहीं करोगे।” उस देशभक्त तथा जाति के स्वाभिमानी वीर गोकुला ने औरंगजेब को कड़े शब्दों में उत्तर दिया कि “मैं क्षत्रिय जाट हूं, मुसलमान कभी नहीं बन सकता और छोड़ देने पर फिर विद्रोह की आग जला दूंगा।” अतः औरंगजेब ने इन दोनों जाट सरदारों को बेरहमी से कत्ल करने का आदेश दिया।

जनवरी 1670 ई० के प्रथम सप्ताह में राष्ट्र, धर्म और जाति के स्वाभिमानी सरदार गोकुला एवं सिंघा (उदयसिंह) को आगरा की कोतवाली के सामने एक ऊँचे चबूतरे पर जंजीरों से बांधकर जल्लादों के सामने लाया गया।

जल्लादों ने निर्दयता के साथ उनके विभिन्न अंगों को एक-एक करके नीचे से ऊपर तक कुल्हाड़ों से लकड़ियों की भांति काट डाला, किन्तु मरते दम तक वे यही कहते रहे कि “मुसलमान नहीं बनेंगे तथा छोड़ देने पर विद्रोह की आग जला देंगे।”


आधार पुस्तकें - जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 65-97, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक पुस्तकों के हवाले से लिखा है; जाट इतिहास, पृ० 19-21, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; जाट इतिहास, पृ० 628-631 लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 430-431, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; महाराजा सूरजमल, पृ० 19-24, लेखक कुं० नटवरसिंह; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 15-25, लेखक डॉ० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; इतिहासपुरुष महाराजा सूरजमल, पृ० 3-10, लेखक नत्थनसिंह एम० ए० पी० एच० डी०; हरयाणा सर्वखाप रिकार्ड; संसार के युवा जाटों का प्रथम सम्मेलन (4-5 अक्टूबर 1986) गांव कंझावला, नई दिल्ली, पृ० 4-6, पर बालकिशन डबास का लेख।


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हिन्दू धर्म की रक्षा एवं देशभक्ति का यह अद्वितीय उदाहरण है। वीर योद्धा गोकुला एवं उसके दादा सिंघा का बलिदान सदा अमर रहेगा।

हिन्दू-मुसलमान का विशाल समूह इस करुण दृश्य को देख रहा था। जिस समय इन वीरों के शरीर के अंगों को काटा जा रहा था, उस समय दर्शक हिचकियां भरकर रो रहे थे, किन्तु ये वीर निश्चल तथा प्रसन्नचित्त थे। गोकुला का खून व्यर्थ नहीं बहा, उसने जाटों के हृदय में स्वतंत्रता के नये अंकुर में पानी दिया।

निडर वीर योद्धा राजाराम जाट (1670-1688 ई०)

वंश परिचय - सिनसिनवाल गोत्री जाट मदुसिंह (गोकुला के पिता) से चौथी पीढ़ी में खानचन्द हुआ जिसके चार पुत्र जैनखा, झुझा, ब्रजराज और भज्जा (भगवन्त) नामक थे। भज्जा का पुत्र वीर राजाराम हुआ जिसके दो पुत्र जोरावरसिंह और फतहसिंह हुए।

ब्रजराज के सात पुत्र हुए जिनमें से एक का नाम ठाकुर चूड़ामन और दूसरे का नाम भावसिंह था। ठाकुर चूड़ामन के नौ पुत्रों में से दो पुत्र जुलकरन तथा मोहकम नामक थे। भावसिंह के पुत्र बदनसिंह एवं रूपसिंह नामक थे। बदनसिंह के 26 पुत्रों में से एक महाराजा सूरजमल प्रसिद्ध भरतपुर नरेश थे।

ठाकुर ब्रजराज तथा भज्जा

सिनसिनवाल गोत्री जाट खानचन्द ने उत्तराधिकार प्राप्त किया और सिनसिनी* गांव की सरदारी सम्भाली। उसने अपनी तलवार के बल पर सिनसिनी तथा उसके आस-पास आबाद गांवों की जमींदारी तथा सरदारी प्राप्त कर ली थी। ब्रजराज तथा भज्जा ने सिनसिनी ग्राम की जमींदारी प्राप्त की। ये दोनों भाई अति उदार, दानवीर थे। इन्होंने अपने दो बैलों की जोड़ी (केवल यही उनके पास थे) एक भट्ट ब्राह्मण को दान कर दी। उसी समय उस ब्राह्मण के मुंह से आशीर्वाद के रूप में ये शब्द निकल पड़े -

इत दिल्ली उत आगरौ, बीचहि तख्त मझार।
सुबस बसियौ सिनसिनी, जहं ब्रज भगवत दातार॥

ब्रजराज ने दो सदी (200) सवारों का तथा भज्जा ने एक सदी (100) सवारों का गिरोह तैयार किया और सिनसिनवार डूंग को इस योग्य बनाया कि वह अपने स्वाधीन भविष्य तथा भाग्य का निर्माण कर सके। उन दोनों भाइयों में संगठन की क्षमता और स्वाधीनता की भावना थी, जिसका नेतृत्व भज्जा के साहसी पुत्र राजाराम ने सम्भाला।

राजाराम का अऊ की गढ़ी पर आक्रमण

अऊ कस्बा, आधुनिक डीग नगर के दक्षिण-पूर्व में 4 मील पर था। अऊ में एक थाना स्थापित था जिसमें थानेदार लालबेग था और उसके पास काफी सिपाही थे। यह अति कपटी, दुराचारी तथा लम्पट अधिकारी था। यह सैनिक बल से हिन्दुओं की ललनाओं का अपहरण करता रहता था।


(*) सिनसिनी = भरतपुर से 16 मील उ० प० में तथा डीग से 8 मील दक्षिण में।


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एक दिन एक अहीर अपनी विवाहित पत्नी के साथ अऊ कस्बे के समीप कुंआ तथा छायादार वृक्षों के नीचे भोजन करने के लिए रुका। यह स्त्री बड़ी रूपवती थी। यह पता लगने पर उस थानेदार ने अपने सिपाही भेजकर उस स्त्री को बन्दी बनाकर मंगवा लिया और उसको अपने बन्दीखाने में डाल दिया।

जब यह समाचार भज्जा तथा उसके पुत्र राजाराम के पास पहुंचा तब उन्होंने भारतीय नारी सतीत्व की रक्षा करने का संकल्प कर लिया। इन्होंने अपने साथी युवकों के साथ उस थाने की गढ़ी को घेर लिया और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े तथा उनको और थानेदार लालबेग खां को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार राजाराम ने प्रथम बार अऊ पर आक्रमण करके ख्याति उपलब्ध की। उसकी धाक आस-पास के परगनों में बैठ गई। इस घटना से बाध्य होकर उसको विद्रोही जीवन में प्रवेश करना पड़ा।

सिनसिनवार तथा सोगरिया जाटों का संगठित होना -

आधुनिक भरतपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में चार मील भयंकर जंगल में सोगर नामक कच्ची मिट्टी की एक साधारण गढ़ी, सोगरवार जाटों का प्रमुख स्थान था। इन जाटों ने भी अनेक गांवों की जमींदारी प्राप्त कर ली थी और ओल तथा हेलक परगनों में अपना प्रभुत्व तथा प्रभाव बढ़ाया। ये लोग भी लड़ाकू तथा लूटमार करने में प्रसिद्ध थे। इन जाटों का नेतृत्व इस समय रामकी चाहर (चाहरगोत्री जाट) नामक नवयुवक ने सम्भाला। राजाराम ने सर्वप्रथम रामकी चाहर से मित्रता की जिससे सिनसिनवार एवं सोगरवार जाटों का एक संगठन हो गया। रामकी चाहर ने राजाराम का जीवनभर साथ दिया और उसकी कमान में रहकर पूर्ण आज्ञाकारी रहा।

इस एकता ने पश्चिमी तटवर्ती (काठेड़) जाट शक्ति को एक माला में पिरो दिया। जाट किसान नवयुवकों ने स्वाधीनता की विजयपताका फहराई और मुगलसाम्राज्य की महान् शक्ति को चुनौती दी।

राजाराम ने मुगल जागीरदारी प्राप्त की

राजाराम ने सिनसिनी छोड़कर परगना कठूमर में जाटौली थून1 नामक गांव की जमींदारी सम्भाली और कुछ समय में ही उसने जाटौली थून में रहकर 40 गांवों की जमींदारी प्राप्त की और इन गांवों का शक्तिसम्पन्न सरदार हो गया था।

औरंगजेब जाट आंदोलन की जड़ों को उखाड़ने के लिए आगरा सूबे में स्थायी मुगल सेना रखने में असमर्थ था। अतः सन् 1672 में नियुक्त आगरे के सूबेदार हिम्मत खां की प्रेरणा से औरंगजेब ने जाटों को दबाने के लिए कड़ाई की अपेक्षा नम्रता का सहारा लिया।

सम्राट् ने राजाराम को वफादारी जाहिर करने के लिए आमन्त्रित किया। एम० एफ० ओडायर का कहना है कि “मुगल दरबार में उपस्थित होने से पूर्व राजाराम ने सिनसिनवार डूंग तथा विभिन्न पालों की एक पंचायत की। बुजुर्ग सरदार जमींदार तथा चौधरियों ने एक स्वर से


1. डीग से दक्षिण-पश्चिम में 4 मील।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-630


सम्राट् के आमन्त्रण को स्वीकार किया और दिल्ली की प्रिय अथवा अप्रिय घटना के साथ अपने दिल-दिमाग को एक धागे में पिरोया।”

राजाराम का दिल्ली में सत्कार किया गया और लूटमार बन्द करने के आश्वासन पर उसे मथुरा की गद्दी तथा 575 गांवों की जागीर दे दी गई।

राजाराम ने इस जागीर से सामयिक लाभ उठाया और वह जागीर जाटों को वरदान तथा मुगल साम्राज्य को कांटों का ताज साबित हुई। राजाराम ने बन्दूकची सवारों की नियमित शर्त पर इनाम के रूप में अपने किसानों में इन गांवों की धरती को बांट दिया।

भरतपुर राज्य की “पट्टा प्रणाली अथवा सैनिक जागीर” के विकास का यह प्रथम चरण था। इससे राजाराम तथा सिनसिनवार सरदारों को मात्र सम्मान ही नहीं मिला, अपितु उनको सैनिक शक्ति भी प्राप्त हुई, जिससे क्रान्ति, विकास तथा स्वाधीनता की परम्परा का मार्ग खुल गया2

स्थायी सैनिक संगठन - “सैनिक सेवावृत्ति” के कारण राजाराम को स्थायी बन्दूकची तथा सवार सेना रखने का अवसर मिला। यमुना नदी के पश्चिमी भूखंड (काथेज जनपद) में आबाद सिनसिनवार, सोगरिया, कुन्तल (खूंटेल) तथा चाहर डूंगों के जाट नवयुवक एक संगठन में बन्ध गए। राजाराम और रामकी चाहर ने वीर साहसी नवयुवकों की एक नियमित सेना तैयार की और उनके हाथों में आग्नेय अस्त्र, बन्दूक आदि देकर पूरा सिपाही बनाया। इनको गुरिल्ला (छापामार) युद्ध की शिक्षा-दीक्षा दी। कुछ समय में ही उसके नेतृत्व में 20,000 नवयुवक आकर एकत्रित हो गये। मुगल परगनों की लूट का माल-असबाब तथा युद्ध सामग्री को सुरक्षित करने के लिए मार्गहीन बीहड़ जंगलों के बीच में स्थान-स्थान पर छोटी-छोटी गढ़ियों का निर्माण किया गया। मुगल तोपखाना पंक्ति के बचाने के लिए स्थायी प्रबन्ध किये गए। धीरे-धीरे सिनसिनी, पैंघोर, सोगर, सौंख, अवार, पींगौरा, इन्दौली, इकरन, अधापुर, अड़ीग, अछनेरा, गूजर सौंख आदि अनेक ग्राम गढ़ियां इस क्रान्ति के प्रमुख गढ़ बन गये।

आगरा परगने में लगान सम्बन्धी उपद्रव (जून, 1681 ई०)

सम्राट् औरंगजेब 1681 ई० में दक्षिण भारत के अभियानों पर काबू पाने के लिए चला गया और वहां उसने शासन के पिछले 26 वर्ष व्यतीत किये। उसकी वहीं पर 20 फरवरी, सन् 1707 को मृत्यु हुई थी। आलमगीर ने इब्राहीम हुसैन को मुल्तफत खां उपाधि देकर और ढाई हजरी जात का मनसब बनाकर आगरा परगने का फौजदार नियुक्त कर दिया। उसकी कमान में किसानों से लगान वसूल करने के लिए शाही सेना रवाना की। 1681 ई० में आगरा के समीप ग्रामीण किसानों ने लगान न देने की घोषणा कर दी थी। मुल्तफत खां ने जून, 1681 ई० में एक विद्रोही गांव की घेराबन्दी की और बलपूर्वक लगान लेना शुरु किया। समस्त गांव के निवासियों ने उत्साह, साहस तथा लगन के साथ शाही सेना का सामना किया और उसे बुरी तरह कुचल कर खदेड़ दिया। किसान सैनिक मुल्तफत खां को बन्दी बनाकर अपनी गढ़ी में ले गये। उसकी


2. ओडायर, 3/25; मेनन, 251 के हवालों से जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 104-105, पर लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-631


जूतियों से अच्छी तरह पिटाई की और अन्त में उसे हिजड़ा समझकर छोड़ दिया। मनुची भाग 2, पृ० 223-5 और डॉ० सरकार का कथन है कि इस फौजदार मुल्तफत खां की मृत्यु प्राणघातक जख्मों के कारण 6 जुलाई 1681 ई० को हो गई।

राजाराम के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों की शाही सेना से मुठभेड़ -

सन् 1683-1684 ई० में राजाराम तथा रामकी चाहर के जाट सैनिक आगरा-दिल्ली, आगरा-बयाना तथा आगरा-ग्वालियर और मालवा को जाने वाले शाही मार्गों पर निडर होकर घूमने लगे। उन्होंने शाही खजाना, सैनिक साज-सामान, खाद्य सामग्री की गाड़ियां तथा कारवां को लूटना शुरु कर दिया। आगरा प्रान्त के सूबेदार तथा फौजदारों को क्रान्तिकारियों की भयंकर लूट का सामना करना पड़ा। फतुहात-ए-आलमगीरी के अनुसार, “जाटवीरों की भयंकर लूट, भय तथा आतंक से आगरा सूबे के समस्त शाही मार्ग पूर्णतः रुक गये। चारों ओर खजाना लूटने वाले दीवानों का काफिला दिखाई देता था, जिसे पार करके एक साधारण व्यापारी क्या! एक चिड़िया भी नहीं निकल सकती थी।” क्रान्तिकारियों ने व्यापारियों से अवैध ‘राहदारी कर’ वसूल करना शुरु किया। केवल आगरा से धौलपुर तक जाने वाले कारवां को 200 रुपया “सुरक्षा कर” अदा करना पड़ता था। इस लूट के माल से क्रान्तिकारियों की साधारण गढ़ियां भरने लगीं और बन्दूकों की नोक पर आगरा सूबे में जाट जमींदार मजदूर-किसानों का जागरण निनाद गूंज उठा।

हाजी मुहम्मद शफी खां की राजाराम के साथ मुठभेड़

सम्राट् औरंगजेब ने औरंगाबाद के सूबेदार हाजी मुहम्मद शफी खां को 7 सितम्बर 1664 ई० के दिन आगरा सूबे का सूबेदार नियुक्त किया। उसने आगरा पहुंचकर जाटों की अनैतिक लूट-खसोट को रोकने के प्रयास किए किन्तु असफल रहा। उसने सिनसिनवारों की मातृभूमि सिनसिनी की गढ़ी को अपना लक्ष्य बनाया। शफी खां के अनुसार जाट सिनसिनी के गढ़ी में सुरक्षित रहकर आगरा के आसपास उपद्रव करते थे। प्रतिमाह आक्रमण करके अनेकों कारवां को लूट लेते थे। सन् 1684 ई० में शफी खां ने जाटों के दमन तथा सिनसिनी की गढ़ी को बरबाद करने के लिए मिर्जा खानजहां को रवाना किया। जाटों ने इसका वीरता एवं साहस से मुकाबिला किया और मुग़ल सेना को मार भगाया और मिर्जा खानजहां हारकर वापिस लौट गया। वीर राजाराम ने अपने जाट सैनिकों को साथ लेकर आगरा के सूबेदार शफी खां को आगरा में घेर लिया। जाटों ने शाही कोष और हथियारों को लूट लिया। शफी खां ने किले के फाटक बन्द करवा दिये और वह किले में चुप्पी साधकर छिप गया। उसकी हिम्मत सामना करने की नहीं पड़ी। अतः राजाराम ने आगरा परगने को दिल खोलकर लूटा। क्रान्तिकारियों ने किले का घेरा उठाकर अकबर महान् की समाधि सिकन्दरा की ओर कूच किया। वे सिकन्दरा समाधि (मकबरा) के कीमती माल और साज-सामान को लूटना चाहते थे। सूचना मिलते ही सिकन्दरा मकबरे का फौजदार मीर अबुल फजल अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा। इसकी राजाराम के साथ भयंकर मुठभेड़ हुई जिसमें क्रान्तिकारियों को वहां से हटना पड़ा। लेकिन इस युद्ध में मीर अबुल फजल सख्त घायल हुआ और उसके अधिकांश सिपाही काम आये अथवा घायल हुए।

यद्यपि जाट क्रान्तिकारी सिकन्दरा को हानि पहुंचाने में असफल रहे, लेकिन उन्होंने पीछे


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-632


हटकर मुगलों के गांव शिकारपुर को बुरी तरह लूटा और यहां पर नकद तथा काफी अन्य माल उनके हाथ लगा। यहां से हटकर क्रान्तिकारी रतनपुर लौटे और इसे लूटते हुये अपनी गढ़ियों में वापिस लौट गये।

महीना-दर-महीना राजराम अधिकाधिक दबंग होता गया। सन् 1686 ई० में एक तुरानी सेनाध्यक्ष आगा खां काबुल से आकर बीजापुर में औरंगजेब के पास जा रहा था। जब उसका काफिला धौलपुर पहुंचा, तब राजाराम के छापामार दल, आगा खां के सैनिकों पर टूट पड़े। इससे पहले कभी किसी ने शाही क़ाफिलों पर इस प्रकार खुल्लमखुल्ला हमला करने की हिम्मत नहीं की थी।

यह धावा करके जाटों ने आगा खां की स्त्रियां, घोड़े और सामान छीन लिया और वापिस लौट गये। आगा खां ने उनका पीछा किया। जब वह जाटों के पास पहुंचा तो राजाराम ने उसे और उसके 80 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।

जब सुदूर दक्षिण में औरंगजेब ने अपने तुरानी सेनाध्यक्ष का यह हाल सुना तो वह चौंक उठा। कालीकारंजन कानूनगो के लेख अनुसार - “दक्षिण में लोमड़ी की तरह चालाक मराठों का नित्य पीछा करके थका हुआ दुःखी सम्राट्, अपनी ही राजधानी के समीप शिकारी भेड़ियों की भांति जाटों की गुर्राहट सुनकर चकित रह गया।”

अन्य मुगल सेनापति और क्रान्तिकारियों की मुठभेड़

सम्राट् औरंगजेब ने जाटों की क्रान्ति को दबाने के लिए सोमवार, मई 3, 1686 ई० के दिन, महान् मुगल सेनापति कोकलतास-जफरजंग को खानजहां बहादुर का खिताब देकर आगरा भेजा। खानजहां बहादुर ने आगरा पहुंच कर अपनी विशाल सेनाओं को अपने पुत्र की कमान में राजाराम के विरुद्ध इधर-उधर छितरा दिया। वह स्वयं राजमार्गों पर से जाटवीरों की छापामार टुकड़ियों को हटाने की चेष्टा में इधर-उधर भटकता रहा, लेकिन मुट्ठी भर क्रान्तिकारी सैनिकों को एक वर्ष तक कठिन प्रयासों के बाद भी नहीं दबा सका। इसका सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण कारण मुग़ल प्रबन्धक जागीरदार और प्रशासक थे। वे राजाराम के साथ मिलकर मुगल खजाने की लूट में साझीदार थे। फलतः जाट क्रान्तिकारियों को कोकलतास के खेमे में से सभी महत्त्वपूर्ण सूचनायें स्वच्छन्दतापूर्वक मिलती थीं। दूसरा कारण जाटों की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली था। इन कारणों से मुगल सैनिक हताश हो गये और सेनापति के पैर उखड़ गये। उसे भारी विपत्तियां उठानी पड़ीं।

अन्त में सम्राट् ने दिसम्बर 1687 ई० में अपने 17 वर्षीय नवयुवक पोते शहजादा बेदारबख्त को शाही सेनाओं की सर्वोच्च कमान सौंपकर जाटों के विरुद्ध भेजा और अपने धात्री भ्राता खानजहां को शहजादा का सलाहकार तथा नायब नियुक्त किया।

राजाराम का महावत खां पर आक्रमण (1688 ई०)

सन् 1688 ई० के प्रारम्भ में गुजरात के सूबेदार मीर इब्राहीम हैदराबादी को महावत खां का खिताब देकर सम्राट् ने उसे लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। वह गुजरात से पंजाब की ओर चल दिया। मार्ग में उसने यमुना नदी के किनारे सिकन्दरा के पास अपनी सेनाओं का पड़ाव डाला।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-633


शहजादा बेदारबख्त और उसके साथ विशाल मुगल सेना के दक्षिण से रवाना होने से पूर्व ही राजाराम ने विशाल टुकड़ी के साथ महावत खां पर धावा बोलकर घेरा डाल दिया। महावत खां रणविद्या में अद्वितीय था। उसने अपने तोपखाना पंक्ति को व्यवस्थित किया और युद्ध के लिए तैयार हो गया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें जाटों के 400 सैनिक खेत रहे जबकि खां के 150 सैनिक काम आए तथा 40 घायल हुए। राजाराम को खां की काफी युद्ध-सामग्री हाथ लगी। राजाराम शीघ्र ही वहां से हट गया और महावत खां पंजाब को चल दिया।

सिकन्दरा की लूट (मार्च 1688 ई०)

औरंगजेब ने अपने चाचा अमीर-उल-उमरा शाइस्ता को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया और उसके आगरा पहुंचने तक मुजफ्फरखां मुहम्मद वाका को आगरा सूबे का प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किया। राजाराम ने इस परिवर्तन का लाभ उठाया। शाइस्ता खां तथा शहजादा बेदारबख्त के आने से पूर्व ही उसने सिकन्दरा को अपना लक्ष्य बनाया। राजाराम ने अपने विशाल सैनिक दल के साथ मार्च 1688 ई० के अन्तिम सप्ताह में एक रात्रि को, अकबर महान् के मकबरा को घेर लिया।

गोकुला की दर्दनाक हत्या से जाट सरदार राजाराम में प्रतिशोध की भावना प्रबल हो उठी थी। उसने तैमूर वंशज अकबर महान् की कब्र को खोदकर सम्राट् औरंगजेब की क्रोधाग्नि को अशान्त कर दिया। सिकन्दरा मकबरा की लूट औरंगजेब कालीन इतिहास में अपना प्रमुख स्थान रखती है। राजाराम ने इस मकबरे को नष्ट करने में बस जरा-सी ही कसर छोड़ी। मनुची का कथन है कि “जाटों ने इस मकबरे के सदर द्वारों पर लगे कांसे के फाटकों को तोड़ डाला। दीवार, छत तथा फर्श में जड़े हुए अमूल्य रत्न और सोने चांदी के पत्तरों को उखाड़ किया। सोने-चांदी के बर्तन, चिराग, मूल्यवान कालीन, गलीचे आदि को लूटकर ले गये। जिन वस्तुओं को वहां से हटाने में असमर्थ रहे, उनको पूर्णतः तोड़-फोड़ कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। अकबर की भूमिगत समाधि को खोदकर उसकी अस्थियों को बाहिर निकाल कर अग्नि में झोंक दिया। मकबरे की गुम्बजों को पूरी तरह तोड़कर जाट सरदार ने शान्ति का श्वास लिया।” मकबरे का रक्षक मीर अहमद भयभीत होकर चुपचाप यह विनाश देखता रहा। मुगल सेनापति खानजहां बहादुर तथा नायब मुजफ्फरखां मुहम्मद वाका उस समय अकबराबाद (आगरा) के दुर्ग में मौजूद थे, लेकिन उनमें राजाराम का मुकाबिला करने का साहस नहीं था। राजाराम सिकन्दरा से हट गया और आगरा के समीप सम्राट् शाहजहां के मकबरा के प्रबन्ध के लिए पुण्यार्थ जागीर के आठ गांवों को घेरकर बुरी तरह लूटा। महाराजा रामसिंह (जयपुर नरेश) के नाम दरबारी वकील केशोराय का पत्र, पृ० 117 से पता चलता है कि “जहां एक ओर राजाराम मुग़लों की प्रथम राजधानी आगरा में प्रवेश कर रहा था, वहां दूसरी ओर उसने अन्य जाट जमींदारों को दिल्ली-आगरा मार्ग को बन्द करके लूटमार करने का आदेश दिया था। जाटों के एक दल ने इसी समय खुर्जा परगने को लूट लिया जबकि एक अन्य जाट दल ने पलवल के थानेदार को बन्दी बना लिया था। इस प्रकार दिल्ली-आगरा दोनों सरकारों के मध्यवर्ती परगनों में जाटों का विद्रोह प्रबल होने लगा।” ईशरदास (पाण्डुलिपि), पृ० 132-ब पर लेख है कि “अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृतियों के विनाश तथा लूट के समाचार पाकर औरंगजेब को


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भारी ठेस लगी और वह अत्यधिक क्रोधित हुआ। उसने आगरा सूबे के प्रमुख सेनापति खानजहां और नायब मुजफ्फरखां का क्रमशः एक सहस्र तथा पांच सौ सवारों का भत्ता कम कर दिया।”

वीर योद्धा राजाराम के विरुद्ध मुगल-राजपूत संगठन

सिकन्दरा की हृदय विदारक घटना के बाद आलमगीर का पोता शहजादा बेदारबख्त आगरा पहुंचा। उसने बड़ी तत्परता से जाट क्रान्तिकारियों को दबाने के लिए योजना बनाई। उसने आगरा छोड़कर मथुरा को अपनी सैनिक छावनी बनाया और विशाल पैमाने पर सैनिक तथा युद्ध सामग्री एकत्रित की। इस समय आगरा सरकार तथा ब्रजमण्डल की स्थिति विषम तथा भयपूर्ण थी। क्षेत्रीय जनता मुख्यतः ब्राह्मण, राजपूत, गूजर, अहीर, मीणा तथा मेव आदि जाट क्रान्तिकारियों का पूरी तरह साथ दे रहे थे। चारों ओर दूर-दूर तक फैली अराजकता तथा क्रान्ति को दबाना बड़ा कठिन कार्य था।

छावनियों में मुगल सेना और सेना अधिकारी व्याप्त-आतंक से भयभीत थे। यहां तक कि स्वयं बेदारबख्त, खानजहां बहादुर तथा अन्य सेनानायक भी मथुरा छावनी से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाते थे। इन दृश्यों को देखकर नवयुवक शहजादा बेदारबख्त घबरा गया। उसने सम्राट् से अधिक सेना भेजने का आग्रह किया।

सम्राट् ने 28 जनवरी 1688 ई० को आमेर (जयपुर) नरेश रामसिंह को मथुरा की फौजदारी दी और उसको काबुल से वापिस लौटकर राजाराम जाट को पूरी तरह दबाने का फरमान भेजा। इस समय मुगल सरकार रणथम्भोर भी जाट क्रान्ति का शिकार थी और आमेर राज्य की जागीरों के समीप उपद्रव भड़क चुके थे। राजा रामसिंह, औरंगजेब के फरमान का पालन करने में असमर्थ था। अतः अप्रैल 10, 1688 ई० को उसकी मृत्यु निराशा तथा अपमान की स्थितियों में हो गई। अब औरंगजेब ने महाराजा रामसिंह के पुत्र कुँवर बिशनसिंह को टीका भेजकर आमेर राज्य को जागीर में देकर खिलअत तथा मनसब प्रदान किये। इसके बदले में कुंवर बिशनसिंह को ‘जाट विरोधी अभियान’ के संचालन का भार उठाने का लिखित आश्वासन देना पड़ा। इसी तरह हाड़ौती (कोटा-बूंदी) के महाराज और हाड़ा राजपूतों ने शाही आदेश का पालन किया। शेखावटी के जागीरदार साम्राज्य के स्वाधीन मनसबदार थे किन्तु वह स्वयं चौहानों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे। इस प्रकार मुगल तथा राजपूतों ने मिलकर राजाराम के विरुद्ध तैयारियां कीं।

चौहान-शेखावत युद्ध में वीर राजाराम की मृत्यु (14 जुलाई 1688 ई०)

मेवात की पहाड़ियां, राजपूताना और ब्रजमण्डल की सीमायें निर्धारित करती हैं। मेवात के इलाके में स्थित बगथरिया तथा अन्य परगनों की भूमि आधिपत्य को लेकर शेखावटी के राजपूत और चौहानों में पिछले कई वर्षों से तनाव चल रहा था। 1688 ई० में यह प्रश्न दोनों राजपूत गोत्रों में भयंकर युद्ध का कारण बन गया। जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 120-122 पर उपेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है कि “राजाराम स्वाभिमानी आर्य पुत्रों का सुयोग्य सरदार, साहसी कुशल सिपाही, निपुण सेनापति तथा धूर्त (जादूगर) राजनयिक था, जिसे क्षेत्रीय हिन्दू मुसलमान दोनों का सहयोग प्राप्त था।” चौहानों ने उसे अपनी सहायता के लिए बुलाया और वह अपनी जाट सेना के साथ इस युद्ध में


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शामिल हुआ। शेखावतों ने मेवात के फौजदार मुरतिजा खां की सहायता की। अतः शहजादा बेदारबख्त, कोकलतास, जफरजंग, उसका पुत्र सिपहदार खां तथा मेवात में उसका नायब शाहजी आदि के साथ शेखावतों की ओर पहुंचा। बूंदी के 22 वर्षीय राव राजा अनिरुद्धसिंह और कोटा के महाराज किशोरसिंह हाड़ा अपने जागीरदारों की सेना के साथ शेखावतों की तरफ इस युद्ध में शामिल हुए। बृहस्पतिवार, 14 जुलाई, 1688 ई० को प्रातःकाल बीजल* गांव के पास चौहान-शेखावत राजपूतों में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ओर के असंख्य सैनिक काम आये। इस युद्ध ने वास्तव में ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ का रूप ले लिया जिसके परिणामस्वरूप चौहानों की अपेक्षा राजाराम को साम्राज्यवादी सेनाओं से भयंकर युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में जाट सवार तथा पैदल सैनिकों ने भीषण रण-कौशल दिखलाया। जाटों ने चारों ओर घुसकर आक्रमण किए और मुगल सेना को रणक्षेत्र में तितर-बितर करते हुए हाड़ा राजपूतों को करारी मात दी। युद्ध-स्थल में राव राजा अनिरुद्ध सिंह घबड़ा गया और अपनी सेना के साथ मैदान छोड़कर भाग गया।

इस युद्ध में अनेक राजपूत सरदार तथा उनके सैनिक काम आये। महाराजा किशोरसिंह के शरीर पर 37 घाव लगे। मूर्च्छित होते ही हाड़ा अंगरक्षक उसको मैदान से उठा ले गये। जब युद्ध अपनी प्रचण्ड तीव्रता पर था, उस समय साहसी राजाराम ने अपने चुनींदा सवारों के साथ शत्रु के गोल में प्रवेश किया और राजपूतों को हटाकर मुगल दस्तों पर टूट पड़ा। जाटों के भयंकर संग्राम को देखकर मुगल सेना विचलित हो गई और स्वयं बेदारबख्त भी घबरा गया। सिपहदार खां के एक अचूक बन्दूकची ने राजाराम के इस शौर्य को देखकर एक पेड़ की आड़ में छिपकर गोली का निशाना लगाया। यह गोली राजाराम की छाती में लगी और वह घोड़े से नीचे गिर गया। उसने रणक्षेत्र में ही 14 जुलाई, 1688 के दिन वीरगति प्राप्त की। इसी युद्ध में रामकी चाहर भी उसी दिन वीरगति को प्राप्त हुआ।

राजाराम के गिरते ही रणक्षेत्र में चारों ओर विजयनाद गूंज उठा और चौहान राजपूतों को रणक्षेत्र छोड़ना पड़ा। औरंगजेब के आदेश पर राजाराम का सिर आगरा की कोतवाली पर लटकाया गया।

राजाराम के बलिदान के बाद एकता निनाद शान्त नहीं हो सका। उसने स्थायी आन्दोलन का रूप लिया। राजाराम ने अपने पीछे निःसन्देह जन जागृति, ठोस स्थायी संगठन का नेतृत्व, धार्मिक सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्वाधीनता प्राप्ति के महान् संकल्प को धरोहर के रूप में सौंपा।


(*) बीजल = बीजल, रेवाड़ी के दक्षिण में 18 मील, [[Alwar|अलवर तहसील में बीजवाड नामक गांव अभी तक आबाद है।
आधार पुस्तकें -
1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 99-123, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।
2. जाट इतिहास, पृ० 21-23, लेखक के० आर० कानूनगौ
3. जाट इतिहास, पृ० 631-632, लेखक ठा० देशराज
4. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 421-432, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
5. महाराजा सूरजमल, पृ० 24-28, लेखक कुंवर नटवरसिंह
6. महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 22-26, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
7. इतिहास पुरुष महाराजा सूरजमल, पृ० 10-12, लेखक नत्थनसिंह।
8. भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 4-6, लेखक मनोहरसिंह राणावत।


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वीरशिरोमणि भज्जासिंह

वीर योद्धा राजाराम तथा रामकीचाहर सोगरिया सरदार, दोनों की मृत्यु से सिनसिनवार और सोगरिया जाटों तथा अन्य जातियों के उनके समर्थकों को भारी आघात पहुंचा। राजाराम के पुत्र जाट संघों का नेतृत्व करने में अयोग्य थे। अतः जाट खापों के मुखिया सिनसिनी में एकत्र हुए और उन्होंने राजाराम के पिता, वयोवृद्ध भज्जासिंह से अनुरोध किया कि वह उनका नेतृत्व करे। भज्जासिंह ने न चाहते हुए भी इसे स्वीकार कर लिया।

अपने यशस्वी परदादा अकबर के मकबरे की लूटपाट की खबर सुनकर औरंगजेब का खून खौल उठना स्वाभाविक था। सर जदुनाथ सरकार के लेख अनुसार - “उसने ‘जाट भेड़ियों’ का दमन करने के लिए बिशनसिंह को नियुक्त किया, जिसका हाल ही में आमेर के राजा के रूप में राज्याभिषेक हुआ था।”

राजा बिशनसिंह को मथुरा का फौजदार बनाया गया। उसे जाटों का सर्वनाश करने का काम सौंपा गया और पुरस्कार के रूप में सिनसिनी की जागीर देने का वायदा किया गया। बिशनसिंह इतना अदूरदर्शी था कि उसने सम्राट् को यह आश्वासन दे दिया कि वह सिनसिनी को तुरत-फुरत जीत लेगा और शाही परगनों में जाट-विद्रोह को सदा के लिए समाप्त कर देगा। कालिकारंजन कानूनगो लिखते हैं कि “वह अपने पिता रामसिंह और दादा मिर्जा जयसिंह की भांति ऊंचा मनसब हासिल करने के लिए उतावला हो रहा था।” बिशनसिंह और शहजादा बेदारबख्त की राजपूत-मुगल विशाल सेनायें मथुरा से सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुईं। सिनसिनी राज्य में उस समय केवल 30 गांव थे। इस गढ़ी के चारों ओर दूर-दूर तक अनेक गढियां बनी हुई थीं। जाट राज्य सिनसिनी पर अधिकार करना कोई आसान कार्य नहीं था। मार्ग में पड़ने वाले जाटों ने शाही सेनाओं पर छापामार युद्ध करके, उनके छक्के छुड़ा दिये। शाही सेनाएं चार मास में सिनसिनी गढ़ी के निकट पहुंच पायीं। वहां पर इन्होंने सिनसिनी गढ़ी से 10 मील पर अपना पड़ाव डाला और सिनसिनी का घेरा दे दिया जोकि एक महीने तक रहा। अब जाटों ने शाही सेना को परास्त करने के लिए छापामार युद्ध करने आरम्भ कर दिये और अवसर देखकर वे शाही सेना पर रात्रि में आक्रमण करने लगे।

ईश्वरदास के अनुसार - “शाही सेना में रसद पहुंचना और तालाब से पानी भरकर ले जाना भी कठिन हो गया। ऐसी परिस्थिति हो गई कि व्यक्ति भूख से अशक्त हो गये और घास के अभाव में पशु इतने कमजोर हो गये कि उनके लिए जमीन से उठना भी कठिन हो गया था।”

सिनसिनी गढ़ी पर प्रथम विफल आक्रमण (जनवरी, 1690 ई०)

साम्राज्यवादी सेनायें दिसम्बर, 1689 ई० में सिनसिनी गढ़ी के आगे पहुंच गई थीं। उनके कारीगरों ने गढ़ी के प्रवेश द्वार को उड़ाने के लिए जनवरी, 1690 ई० के प्रथम सप्ताह में एक गुप्त सुरंग तैयार की, जिसमें बारूद की बोरियां रखकर उड़ाने का प्रबन्ध किया गया था। लेकिन इस सुरंग योजना का पता जाटों को लग गया। उन्होंने रात्रि की काली छाया में पीछे से सुरंग का मुंह पत्थरों व मिट्टी से बन्द कर दिया जिसका मुग़ल तोपचियों को पता नहीं लग सका। प्रातःकाल ज्यों ही मुगल


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तोपचियों ने बारूद में पलीता लगाया, एक भयंकर विस्फोट हुआ और उनका यह प्रयास विफल हो गया। पिछला मुंह बन्द हो जाने के कारण सिनसिनी गढ़ी का प्रवेश द्वार जहां नष्ट होने से बच गया, वहां बारूद की उल्टी मार से सुरंग की छत उड़ गई। साम्राज्यवादियों के विशाल सैनिक दस्ते, तोपखाना सहित अनेकों तोपची, योग्य सेनानायक अग्नि में झुलस गये अथवा धमाके के साथ आकाश में उड़ गये। बेदारबख्त के पक्ष के ऊंट, घोड़े-खच्चर भी बारूद की मार से नहीं बच सके। इस अभियान का मुख्य उत्तरदायित्व राजपूतों पर था और यही साम्राज्यवादी सेना का अग्रभाग था। उसको विशेष क्षति उठानी पड़ी। राजपूतों का सेनापति हरीसिंह खंगारोत बुरी तरह घायल हुआ। भज्जासिंह अपने पोते जोरावर (सुपुत्र राजाराम) के साथ इस अभियान का संचालन कर रहा था। सिनसिनी गढ़ी में जोरावर के नेतृत्व में जाटों का एक छोटा सा रक्षकदल छोड़कर अन्य जाट सरदार गढ़ी से बाहर चले गये। भज्जासिंह सोगर गढ़ी में चला गया, सोगर ब्रजराज की ससुराल थी, उसके परिवार ने वहां शरण ली। चूड़ामन और उसका भाई अतिराम अन्य क्षेत्रों में चले गये। जोरावर का दूसरा भाई फतेसिंह पीगोंरा गढ़ी को शक्तिशाली बना रहा था।

साम्राज्यवादियों ने अपनी विफलता को देखकर भी मैदान नहीं छोड़ा और वे दूसरे आक्रमण की तैयारी में जुट गये।

द्वितीय आक्रमण, सिनसिनी का पतन (जनवरी, 1690 ई०)

साम्राज्यवादियों के कारीगरों तथा सैनिकों ने गढ़ी की दीवार के नीचे तक एक महीने से कम समय में दूसरी सुरंग तैयार की और उसे बारूद की बोरियों से भर दिया। जाटरक्षकों को इसका पता नहीं लग सका। आलमगीर दोआब प्रान्त में जाटों के आन्दोलन को दूसरी सिनसिनी समझने लगा। अतः उसने राजा बिशनसिंह को आदेश दिया कि वह वहां शीघ्र ही अमरसिंह जाट के विरुद्ध अपनी सेनायें रवाना करे। राजा ने जनवरी, 1690 ई० के शुरु में हरीसिंह खँगारोत के नेतृत्व में पांच हजार पैदल और विशाल शाही तोपखाना, यमुना नदी के पार भेजे। राजा बिशनसिंह को स्वयं सिनसिनी अभियान का उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ा। जनवरी, 1690 ई० के अन्त में बारूद में आग लगाई गई, जिससे परकोटा का एक भाग उड़ गया। इस समय गढ़ी रक्षक सैनिक जो परकोटे पर तैनात थे, वे सब मर गये।

विस्फोट शान्त हो जाने के बाद शाही सेनाओं ने चारों ओर से किले में प्रवेश किया, जहां जाट सैनिकों ने अदम्य उत्साह, स्फूर्ति तथा पराक्रम से उनका तीन घण्टे तक सामना किया। वे आत्मसम्मान के साथ आगे बढ़े। एक-एक इंच पर जाट क्रान्तिकारी तथा साम्राज्यवादियों में बल परीक्षा हुई। अन्त में निर्जन गढ़ी पर शत्रुओं का अधिकार हो गया। सिनसिनी दुर्ग के दोनों अभियानों में जाटों के 1500 सैनिक काम आये अथवा घायल हुये। मुगलों के 200 सैनिक तथा राजपूतों के 700 सैनिक मारे गये। सैंकड़ों घायल भूमि पर तड़फ रहे थे। मुगलों ने बाकी जाट दस्तों को तलवार के घाट उतार दिया।

राजा बिशनसिंह का जाटों के साथ संघर्ष (सन् 1690-1695 ई०)

सिनसिनी की विजय के बाद जाटों के विरुद्ध मुगल अभियान की बागडोर कछवाहा राजा बिशनसिंह को सौंप दी गई। बिशनसिंह ने 6 महीनों में जाटों को नष्ट करने का लिखित आश्वासन


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औरंगजेब को दिया था, परन्तु इस कार्य को वह 6 वर्ष में भी पूरा न कर सका। इस अभियान में मिली सफलताओं का श्रेय उसके अतालिक और मुख्य सेनापति हरीसिंह खंगारोत को है, जिसने मृत्युपर्यन्त (सन् 1695 ई०) अनेक युद्धों में अभूतपूर्व साहस एवं क्षमता का प्रदर्शन किया था। दूसरी तरफ जाटों ने अब सिनसिनी को अपनी स्वतन्त्रता का प्रतीक बनाकर सामूहिक नेतृत्व में व्यापक संघर्ष छेड़ दिया। ब्रज (ब्रजराज), उसके पुत्र भावसिंह, अतिराम, चूड़ामन तथा राजाराम के द्वितीय पुत्र फतहसिंह ने सिनसिनी के चारों ओर प्रत्येक गांव को संघर्ष के लिए तैयार किया। दोआब में अमरसिंह जाट और नन्दा जाट ने सिनसिनी के जाटों से सम्पर्क बनाए रखा। अन्य जाति के लोगों ने भी साथ दिया।

सोगर गढ़ी का पतन (मई, 1691) - मई, 1691 ई० में कछवाहा सेना को जाटों के दूसरे सुदृढ़ दुर्ग सोगर में आश्चर्यजनक सफलता मिली। ईश्वरदास लिखता है, “जब कछवाहा राजा सोगर पहुंचा तब संयोग से दुर्ग के दरवाजे अन्न प्रवेश के लिए खुले हुए थे। आक्रमणकारियों ने सरपट अन्दर प्रवेश करके प्रतिरोध करने वालों को मौत के घाट उतारकर 500 विद्रोहियों को बन्दी बना लिया।”

किन्तु अनार गढ़ी साम्राज्यवादी सेनाओं के लिये दूसरी सिनसिनी साबित हुई, जिस पर अधिकार करने के लिए 10 महीने (जून 1691 - फरवरी 1692 ई०) का समय लगा। सन् 1692, वर्षा ऋतु में कासोटपींगौरा तथा 1693 ई० के आरम्भ में जाटों को सौंख, रायसीस, भटावली आदि गढ़ियां खोनी पड़ीं। सन् 1694 ई० में कछवाहा सेना को आगरा-बयाना क्षेत्र में जाटों के साथ अनेक रक्तरंजित युद्ध करने पड़े। राजा बिशनसिंह का अन्तिम महत्त्वपूर्ण अभियान नन्दा जाट के विरुद्ध था। एक लम्बे और विकट संघर्ष के बाद, जिसके बीच 5 अप्रैल, 1695 ई० को सेनापति हरीसिंह को अपने प्राण खोने पड़े, कछवाहा सेना मई, 1695 ई० में जावरागढ़ी पर अधिकार करने में सफल हुई, फिर भी नन्दा जाट वहां से बच निकला और 1708 ई० तक शाही सेना से संघर्ष करता रहा।

महाराजा बिशनसिंह की विफलता

महाराजा बिशनसिंह ने आमेर राज्य की तीस हजार राजपूत सेनाओं और इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में मुग़ल सेना एवं भारी तोपखाने के साथ मथुरा तथा आगरा जिले के क्रान्तिकारियों का छः वर्ष तक पीछा किया। अगणित योग्य सेनानायक, मनसबदार तथा कछवाहा राजपूतों की प्राणाहुति के बाद भी वह मातृभूमि के सच्चे सेवक जाट सरदारों को जीवित अथवा मृतक किसी भी रूप में नहीं पकड़ सका। उसने आमेर राज्य के बड़े खजाने को तो बुरी तरह बहाया ही, साथ ही अनेक परगनों की प्राप्त आमदनी भी स्वाहा कर दी और इन अभियानों के कारण वह ऋणी हो गया। फौलादी अभियान किसी एक परगने के विद्रोह को दबा सकता था, किन्तु विशाल भूमिखण्ड पर लाखों की संख्या में फैले स्वाभिमानी जाटों को नहीं दबा सकता था। इस क्षेत्र में नियुक्त वरिष्ठ तथा छोटे सभी कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त थे। वे केवल लूटमार में साझीदार ही नहीं थे बल्कि राजपूत राजा की शक्ति प्रसार के भी प्रबल शत्रु थे। जाटों की गुरिल्ला युद्ध नीति एवं वीरता ने राजा बिशनसिंह के पैर न जमने दिये। यद्यपि उसने जाटों की अनेक गढ़ियां जीत


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-639


लीं परन्तु जाटों को कुचलने में तथा उनके किसी एक परगने में अपना राज्य स्थायी करने में वह विफल रहा। औरंगजेब ने उसको जाट अभियान स्थगित कर शीघ्र ही दक्षिण की ओर कूच करने का आदेश दिया। लेकिन सम्राट् ने अपने पुत्र शहजादा मुहम्मद मुअज्जम आलम शाह को जाटों के दबाने के लिए 9 मई, 1695 ई० को आगरा सूबे का वायसराय नियुक्त किया। जनवरी 1696 ई० में बिशनसिंह को मथुरा की फौजदारी से हटाकर मेवात की फौजदारी दी गई। शायस्त खां के ईरानी पुत्र एतकाद खां को मथुरा की फौजदारी मिली। अन्त में महाराजा बिशनसिंह 12 जुलाई, 1696 ई० को, शहजादा आलम के साथ, शाही आदेश के अनुसार, मुलतान को रवाना हो गया। उसने मेवात परगना का प्रबन्ध नायब फौजदार गजसिंह खंगारोत को सौंपा तथा उसे अपने ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह का संरक्षक नियुक्त किया। 19 दिसम्बर, 1699 ई० को महाराजा बिशनसिंह की मृत्यु के समाचार के बाद राजपूत अभियानों का पूर्णतः अन्त हो गया।

जाटों का सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार तथा दूसरी बात पतन

सिनसिनी गढ़ी पर साम्राज्यवादियों का अधिकार होने के पश्चात् उसको फिर प्राप्त करने हेतु जाटों ने तैयारियां आरम्भ कर दी थीं। उन्होंने ब्रजराज की अधीनता में संगठित होकर अऊ की गढ़ी में रहने वाले मुगल थानेदार तथा उनके सैनिकों को मारकर वहां पर अपना अधिकार कर लिया। फिर ब्रजराज ने अपने पुत्र भावसिंह को साथ लेकर सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण कर दिया और वहां अपना अधिकार कर लिया। ब्रजराज ने शीघ्र ही इस गढ़ी की मरम्मत शुरु की और लगान रोककर अऊ परगने के आमिल तथा मुगल सैनिकों को मार भगाने में सफलता प्राप्त कर ली। यह घटना सन् 1696 ई० की है।

इससे मुगल सूबेदार तथा फौजदारों में खलबली मच गई। सूबेदार एतकाद खां ने शीघ्र ही मेवात के फौजदार को सिनसिनी पर आक्रमण करने का निर्देश भेजा। उसकी सहायता के लिए उसने आगरा से नियमित सेना भेजी। मुग़लिया सेनाओं ने शीघ्र ही सिनसिनी की गढ़ी को घेरकर आक्रमण किया, जहां ब्रजराज तथा उसके पुत्र भावसिंह ने मेवाती तथा मुगल सेनाओं का जमकर मुकाबला किया। ए० एफ० ओडायर का मत है कि, “इस युद्ध में ब्रजराज स्वयं काम आया और उसका पुत्र भावसिंह दुर्ग के फाटक की रक्षा करते समय पांच खानजादौं (मेवाती मनसबदार) को मारकर वीरगति को प्राप्त हुआ।” ब्रजराज की मृत्यु के बाद उसके भाई वृद्ध भज्जासिंह ने एक बार फिर सिनसिनी को स्वतन्त्र कराने की चेष्टा की। किन्तु उसका यह प्रयास विफल हो गया और


आधार पुस्तकें -
1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 124-186, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।
2. जाट इतिहास, पृ० 23-24, लेखक कालिकारंजन कानूनगो
3. महाराजा सूरजमल जीवन और इतिहास, पृ० 24-29, लेखक कुंवर नटवरसिंह
4. महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 22-28, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
5. भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 4-7, लेखक मनोहरसिंह राणावत।
6. जाट इतिहास, पृ० 631-633, लेखक ठा० देशराज
7. जाटों का उत्कर्ष पृ० 431-432, योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-640


1702 में उसकी मृत्यु हो गई। दोनों भाई अपने पीछे भारी उथल-पुथल छोड़ गये। थोड़े ही दिन में जाटों के सुयोग्य नेता के रूप में चूड़ामन जाट उभरे, जिसने कालान्तर में जाट शक्ति को चरम सीमा पर पहुंचा दिया तथा जिसके कारनामे गोकुला, राजाराम, और रामकी चाहर (रामचाहर) से भी आगे बढ़ गये।

युग निर्माता ठाकुर चूड़ामन जाट (1695-1721 ई०)

चूड़ामन अपने पिता ब्रजराज का सुयोग्य पुत्र, भावसिंह का भ्राता तथा वीर राजाराम का चचेरा भाई था। इतिहासकारों ने इसको चूड़ामन, चूरामणि, चूड़ामणि एवं चूरामन नामों से पुकारा है। हम अपने लेख में आपका नाम चूड़ामन लिखेंगे।

चूड़ामन में जाटों जैसी दृढ़ता और मराठों जैसी चतुराई व राजनैतिक दूरदर्शिता कूट-कूटकर भरी हुई थी। कार्यकुशलता तथा अवसरवादिता ही उसके जीवन के प्रमुख अंग थे। वह राजनीति का प्रयोग केवल राजनीति के लिए ही करता था, मानवीय भावनाओं के लिए नहीं। इसी के सहारे उसने औरंगजेब जैसे सम्राट् को नाकों चने चबवाये थे। वही एक ऐसा व्यक्ति था जिसने 18वीं शताब्दी में शत्रुओं का मानमर्दन कर, उत्तरी भारत में जाट शक्ति को भारत की प्रमुख शक्तियों में स्थान दिलाया था। उसी के प्रयत्नों के फलस्वरूप जाटशक्ति का तेजस्वी सितारा उत्तरी भारत के राजनैतिक आकाश में जगमगा उठा था। वीरता तथा बुद्धिमत्ता इन दो गुणों के मेल ने ही चूड़ामन को इस योग्य बनाया कि जाटों की विद्रोही शक्ति को राज्यशक्ति के रूप में बदल सका। सही अर्थों में वह भरतपुर के प्रथम ऐतिहासिक जाटराज्य का निर्माता था।

चूड़ामन ने अपने पिता ब्रजराज के जीवनकाल में रूपवास, बाड़ी, बसेडी, सिरमथरा, बयाना तथा कठूमर के बीहड़ जंगल तथा पहाड़ों में शरण लेकर नवीन छापामार दल संगठित कर लिए थे। इन दलों ने पांच-छः वर्ष तक आगरा, दिल्ली तथा रणथम्भौर मुगल सरकारों के मध्य भाग में लूटमार करके अराजकता को फैलाया। मुगल सरकारों के सूबेदार तथा परगनों के फौजदार क्रान्तिकारी समूह की गतिविधियों को नियन्त्रित रखने में पूर्णतः असफल रहे। अपने पिता ब्रजराज तथा ज्येष्ठ भ्राता भावसिंह की मृत्यु के बाद वह अपने लड़ाकू जाट सैनिकों के साथ कठूमर परगना को छोड़कर अपनी जन्मभूमि (सिनसिनी परगना) में वापिस लौट आया। इस समय समस्त गांवों के सिनसिनवार जाट मुखियाओं की एक पंचायत बैठी और उस पंचायत ने फतेसिंह (सुपुत्र राजाराम) को अयोग्य समझकर चूड़ामन को सिनसिनवार जाट पंचायत का प्रधान निर्वाचित किया। यह पंचायत 1702 ई० के आस-पास हुई थी।

सिनसिनी परगने में आने से पहले चूड़ामन ने अपनी कमान में 500 घुड़सवार और 1000 पैदल सैनिक इकट्ठे कर लिए थे। नन्दा (नन्दराम जाट जो भूरेसिंह का पिता एवं दयाराम और भूपसिंह जो कि हाथरसमुरसान (मुड़सान) दुर्गों के प्रसिद्ध अधिपति थे, के दादा 100 घुड़सवारों के साथ चूड़ामन के संघ में शामिल हो गया था। चूड़ामन ने व्यापारियों के काफलों तथा परगनों को लूटकर धन तथा सम्पत्ति एकत्रित कर ली थी। इस लूट के माल को जमा करने के लिए उसने आगरा से 48 कोस पर एक स्थान दलदल और गहरे जंगल में बनाया और उसके चारों ओर एक गहरी खाई खोदी। बाद में इसी स्थान पर भरतपुर की स्थापना हुई। इस लूट के माल की रक्षा हेतु चूड़ामन ने


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निकट के गांवों में हिन्दू चमारों को लाकर वहां बसाया और रक्षा का कार्य उनको सौंप दिया। जब उसकी सेना की संख्या 14,000 सैनिकों की हो गई, तब उसने कोटा तथा बूंदी तक के काफलों को लूटकर बड़ी धनराशि प्राप्त की। उसने शाही मार्गों पर दरबार के कई वजीरों तथा शाही तोपखाने व प्रान्तों से भेजे जाने वाले राजस्व को भी लूटा। (इमाद एवं वैंडल के हवाले से, जाट इतिहास, पृ० 25 पर लेखक कालिकारंजन कानूनगो)।

मार्च 1695 ई० में राजपूत सेनापति हरिसिंह के, नन्दा जाट के सैनिकों द्वारा मारे जाने और जुलाई, 1696 ई० में शहजादा बेदारबख्त के साथ राजा बिशनसिंह के काबुल चले जाने पर चूड़ामन को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला । उसने थून1 (जाटौली थून) में सिनसिनी से भी अधिक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करके उसे अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया। सौंख एवं सोगर के जाट भी चूड़ामन के साथ मिल गए। सोगर गढ़ी के सरदार जाट रुस्तम सोगरिया ने अपने सुयोग्य वीर योद्धा पुत्र खेमकरण को ठाकुर चूड़ामन के पास भेज दिया। इस प्रकार इन दो सरदारों ने सिन-सोग को पुनः मजबूत किया। अब चूड़ामन की शक्ति काफी बढ़ गई थी और वह “बिना ताज का जाट राजा” कहलाने लगा।

चूड़ामन का सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार

सिनसिनवार जाटों का नेतृत्व सम्भालने के बाद चूड़ामन का यह उत्तरदायित्य था कि वह अपने जन्मस्थान सिनसिनी को मुग़लों से पुनः मुक्त कराये। अतः उसने 1704 ई० में आक्रमण करके सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार कर लिया और उसकी मरम्मत शुरु की। सिनसिनी की गढ़ी जाटों तथा मुग़लों के बीच में एक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई थी। इस पर अधिकार बनाए रखने के लिए दोनों में आंख-मिचौनी का क्रम चलता रहा। सम्राट् औरंगजेब के आदेश पर आगरा के नाज़िम मुखत्यार खां ने मेवात के फौजदार को साथ लेकर मंगलवार, 9 अक्तूबर, 1705 ई० के दिन सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार कर लिया। चूड़ामन गढ़ी से निकल भागने में सफल हुआ। औरंगजेब की मृत्यु (सन् 1707 ई०) के बाद चूड़ामन ने शासन अधिकार की परिवर्तन बेला से लाभ उठाया और सितम्बर 1707 ई० में अपनी जन्मभूमि सिनसिनी पर अधिकार कर लिया। सम्राट् बहादुरशाह के आदेश मिलने पर फौजदार रिजाबहादुर ने बड़ी भारी मुगलिया सेना के साथ सिनसिनी की ओर प्रस्थान किया और कई महीनों के प्रयास के बाद उसे सिनसिनी गढ़ी का घेरा डालने में सफलता मिल सकी। इस समय चूड़ामन अपने सैनिकों के साथ किसी दूसरे स्थान पर था। दिसम्बर 2, 1707 ई० को सिनसिनी गढ़ी के वीर सैनिकों और मुगलिया सेना में भयंकर मुठभेड़ हुई। इस युद्ध में 1000 जाट काम आये और फौजदार रिजाबहादुर के हाथ 10 गाड़ी हथियार लगे। मुगलों का भी भारी नुकसान हुआ। सिनसिनी गढ़ी पर शाही सेना का अधिकार हो गया।

निःसन्देह मनसबदारी के प्रलोभन में यह चूड़ामन का समर्पण था। अवसर मिलने पर चूड़ामन ने सिनसिनी गढ़ी पर फिर अपना अधिकार कर लिया। अब सिनसिनी की गढ़ी, गांव तथा जमींदारी चूड़ामन के हाथ स्थायी रूप से आ गई।


1. सिनसिनी के 8 मील पश्चिम में, आधुनिक डीग कस्बा के पश्चिम में 11 मील पर।


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जाजो (Jajau) युद्ध और चूड़ामन का मनसबदारी प्राप्त करना

सम्राट् औरंगजेब की मृत्यु (फरवरी 20, 1707 ई०) होने पर उसके अयोग्य पुत्रों के मध्य उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ जिसमें अवसरवादी चूड़ामन ने विजेता का ही पक्ष लिया। यह निर्णायक युद्ध औरंगजेब के दो पुत्रों आजम और मुअज्ज़्म ‘शाह आलम प्रथम’ के मध्य, जून 8, 1707 ई० को जाट इलाके में, आगरा के दक्षिण में 20 मील पर जाजो के स्थान में हुआ। इस समय चूड़ामन अपने वीर सैनिकों के साथ युद्ध का रुख देखता रहा और आक्रमण के लिए मौके की तलाश करता रहा। पहले उसने मुअज्जम के कैम्प को लूटा। जब उसने देखा कि आजम हारने लगा है तब मौके का फायदा उठाकर वह भी आजम पर टूट पड़ा और उसके कैम्प को भी लूट लिया। इस लूट के फलस्वरूप चूड़ामन बहुत धनी बन गया। मुग़लों की नकदी, सोना-चांदी, अमूल्य रत्नजड़ित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगे। इस धन के कारण वह जीवन भर आर्थिक चिन्ताओं से बिलकुल मुक्त रहा। इस बारे में कोई सन्देह नहीं कि इस विपुल सम्पत्ति का कुछ भाग सन् 1721 ई० में चूड़ामन की आत्महत्या के पश्चात् ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल के खजाने में भी पहुंचा। अब चूड़ामन अपने सैनिकों को वेतन दे सकता था, अपने विरोधियों को धन देकर अपने पक्ष में कर सकता था और आवश्यकतानुसार किले बनवा सकता था, थून का दुर्ग इसी धन से बनवाया और सुसज्जित किया गया। जाजो के युद्ध में जाट सिनसिनवारों ने जो सहायता दी थी, उसके उपलक्ष्य में उन्हें भी विजयी सम्राट् बहादुरशाह ने इनाम दिये।

सम्राट् बहादुरशाह द्वारा चूड़ामन को मनसब प्रदान करना (सितम्बर, 1707 ई०)

जाजो युद्ध के बाद विजेता मुअज्जम आलम शाह प्रथम, ‘बहादुरशाह’ की उपाधि धारण करके मुगल साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। उसने आगरा किले में पहुंचकर शत्रु तथा मित्र सभी सरदारों को सम्मानित किया। विरोधी होने पर भी असद खां को निजाम उल्मुल्क आसफ-उद्दौला के खिताब के साथ वकील-ए-मुतलक का उच्च पद दिया।

मुनईम खां को खानखाना का खिताब देकर साम्राज्य का वजीर बनाया और आगरा की सूबेदारी पद पर नियुक्त किया। इस गृहयुद्ध से चूड़ामन ने अत्यधिक लाभ उठाया और कुछ ही क्षणों में उसने अपने पूर्वजों से कहीं अधिक सम्मान तथा विशाल कोष प्राप्त किया। इस युद्ध ने एक साधारण सरदार को मुग़ल साम्राज्य में यथेष्ट स्थान प्राप्त करने का सफल अवसर दिया। इन विद्रोहपूर्ण दिनों में उसकी अपेक्षा करना असम्भव हो गया था।

चूड़ामन ने जाजो युद्ध से वापिस लौटकर न केवल सिनसिनी पर ही अधिकार किया बल्कि ‘दस्तरूल इंसा’ के लेखक ‘यार मोहम्मद’ के अनुसार “आगरा तथा दिल्ली का शाही मार्ग दो महीने तक पूर्णतः बन्द रखा, जिससे हजारों यात्रिओं को अपनी सरायों में ही रुकना पड़ा। इन काफिलों में सुप्रसिद्ध योद्धा अमीन्नुद्दीन सम्भाली की पत्नी भी शामिल थी। उसे भी जाट लुटेरों के कारण मार्ग में दो महीने तक रुकना पड़ा। उसने उपद्रव भी शुरु कर दिये।”

वजीर मुनईम खां अपने पक्ष को प्रबल रखने के लिए अपने शुभचिन्तकों को अपने पक्ष में रखना


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चाहता था। सम्राट् बहादुरशाह भी चूड़ामन से टकराव की बजाए दोस्ती करना उचित समझता था। अतः वजीर मुनईम खानखाना के परामर्श पर चूड़ामन 16 सितम्बर 1707 ई० को आगरा दरबार में सम्राट् बहादुरशाह के समक्ष पहुंचा। सम्राट् ने चूड़ामन को 1500 जात और 500 घुड़सवार का मनसब प्रदान किया। विद्रोही को अचानक ही सरकारी-कर्मचारी वर्ग में स्थान मिल गया।

विद्रोही गतिविधियों में चूड़ामन की कूटनीति

मनसब प्राप्त होने के बाद चूड़ामन ने अपनी विद्रोही गतिविधियों पर राजभक्ति का आवरण चढ़ाने के लिए शाही अभियानों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। जयसिंह के विरुद्ध मेवात के फौजदार सैय्यद हुसैन खां के नेतृत्व में पहले शाही सेना में शामिल हो जाना और बाद में 3 अक्तूबर 1708 ई० के सांभर युद्ध में भाग न लेना उसकी कूटनीति का ही अङ्ग था। नायब फौजदार रहीमुल्ला खां शेरगढ़ के बलूची प्रबन्धकों को दबाना चाहता था लेकिन चूड़ामन के परामर्श तथा मदद के बिना उसकी हिम्मत नहीं थी। चूड़ामन अपनी जाटसेना के साथ रहीमुल्ला खां से मिल गया और शेरगढ़ पर आक्रमण कर दिया। बलूचियों ने तीन दिन तक जाट तथा मुग़लिया सेना का जमकर मुकाबला किया और भयङ्कर युद्ध किया।

अन्त में हताश होकर उन्होंने मैदान छोड़ दिया और चूड़ामन को दो हजार रुपये की जायदाद देने का वायदा किया। शेरगढ़ के पतन के कारण चूड़ामन की समस्त ब्रजमण्डल में ख्याति फैल गई और उसे सामरिक तथा राजनैतिक क्षितिज में चमकने का पर्याप्त अवसर मिला। 7 अक्तूबर, 1708 ई० को कॉमा के युद्धों में राजपूतों की विजय तथा सम्राट् बहादुरशाह द्वारा उनके साथ समझौते की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए, जनवरी 1709 ई० में चूड़ामन ने सवाई राजा जयसिंह के साथ एक समझौता कर लिया। किन्तु इस समझौते की आड़ में चूड़ामन ने राजपूत जमीदारियों के उन्मूलन और कछवाहों द्वारा अधिकृत जाटक्षेत्रों को मुक्त कराने का अभियान तेज कर दिया। अक्तूबर, 1709 ई० में उसने सोगर एवं भुसावर जीत लिया और शीघ्र ही कॉमा, खोहरी, कोट, खूंटहड़े, ईटहेड़ा, जाड़िला तथा चौगड़दा सहित अनेक स्थानों पर अपने थाने स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

चूड़ामन सन् 1710-11 ई० में सिखों के विरुद्ध अभियान में मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह के साथ गया और 17 फरवरी, 1712 ई० को जब लाहौर में बहादुरशाह की मृत्यु हुई, तब चूड़ामन वहीं था। सिखों के विरुद्ध अभियान में चूड़ामन दिल से साथ नहीं था। सिखों में बहुत से लोग, भले ही वे नानक धर्मी थे, उसी जैसे जाट थे।

लाहौर में सम्राट् बहादुरशाह की मृत्यु के समय उसके चारों पुत्र उसके पास ही थे। उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना ही था; वह बड़ी अशोभन जल्दबाजी में हुआ। 14 मार्च, 1712 ई० को शहजादा जहांदारशाह एवं उसके भाई अज़ीमउश्शान के मध्य भयङ्कर युद्ध छिड़ गया जो तीन दिन तक चला। इस युद्ध में शहजादा अज़ीमउश्शान रणक्षेत्र में काम आया। इस युद्ध में चूड़ामन ने अज़ीमउश्शान की सहायता की थी। जहांदारशाह ने अपने दो अन्य भाइयों को भी मार दिया और


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स्वयं 29 मार्च, 1712 ई० को सिंहासन पर बैठा, जो केवल 10 महीने (10 जनवरी 1713 ई० तक) ही बादशाह पद पर रहा। जहांदारशाह की विजय होने पर चूड़ामन लाहौर से लौटकर अपनी जन्मभूमि में वापिस आ गया। यहां आकर उसने शाही मार्ग पर पुनः लूटमार प्रारम्भ कर दी, जिसके परिणामस्वरूप राजधानी तक अशान्ति फैल गई।

चूड़ामन बिना तख्त का राजा

बादशाह जहांदारशाह सुरा पीकर एक लालकुमारी या लालकंवर नाम की बाजारू वेश्या के साथ रंगरलियां मनाता रहता था। चूड़ामन ने सम्राट् की इस कमजोरी से लाभ उठाया और अपनी जागीर को बढ़ाने में सफलता प्राप्त की। उसने मथुरा के पश्चिमी भाग नगर, कठूमर, नदबई, हेलक परगनों पर बिना विरोध के अपना अधिकार कर लिया। दिल्ली से चम्बल तक आबाद जाट तथा अन्य हिन्दू नागरिकों का वह न्यायाधिकारी, जीवन तथा सम्पदा का रक्षक था। उसने मुसलमान नागरिकों का भी सम्मान किया और दो धर्म के अनुयायी बिना भेदभाव के शान्तिपूर्वक जीवनयापन करने लगे। इस प्रकार मदिरा और मोहिनी के शासन में हिन्दू स्वाधीनता और धर्म की रक्षा में तत्पर जाट सरदार चूड़ामन दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ता गया। दिसम्बर, 1712 ई० में उत्तर में दिल्ली सीमान्त प्रदेश से दक्षिण में चम्बल नदी पर्यन्त, पूर्व में आगरा से पश्चिम में आमेर (जयपुर) राज्य की सीमाओं तक चूड़ामन बिना तख्त का राजा था। इस क्षेत्र के समस्त जाट, गूजर, मैना (मीणा), मेवाती, अहीर आदि लड़ाकू जातियों का उसको पूर्ण समर्थन प्राप्त था। किसी भी राज्य क्रान्ति तथा साम्राज्य सत्ता युद्ध में उसके सहयोग तथा सद्भावना की उपेक्षा करना अनुचित था1

सामूगढ़ युद्ध (जनवरी 10, 1713 ई०)

शहज़ादा फर्रुखसियर ने अपने पिता अज़ीमउश्शान की मृत्यु का समाचार सुनकर अप्रैल 6, 1712 ई० को पटना में हिन्दुस्तान का सम्राट् बनने की घोषणा कर दी थी और वह 18 सितम्बर को आगरा की ओर रवाना हुआ। उसने इलाहाबाद तथा बिहार के सूबेदार क्रमशः सैयद अब्दुल्ला खां और सैयद हुसैन अली खां (दोनों भाई जो सैयद बन्धु कहलाते थे), को भी साथ लिया। उनके आगरा आने की सूचना सुनकर सम्राट् जहांदारशाह ने दिसम्बर 5, 1712 ई० को भारी मिथ्या आश्वासन देकर चूड़ामन को फर्रूखसियर के विरुद्ध आगरा पहुंचने का आग्रह किया। सम्राट् के अनुरोध पर चूड़ामन अपनी बड़ी सेना लेकर आगरा तक बढ़ आया। जहांदारशाह ने उसे एक पोशाक भेंट की और उसे उचित सम्मान दिया।

10 जनवरी 1713 ई० के दिन आगरा के निकट सामूगढ़ के मैदान में दोनों सेनाओं में युद्ध शुरु हो गया। सैयद हुसैन अली खां की मूर्च्छा और सैयद अब्दुल्ला खां के सैनिकों को रणक्षेत्र से भागते हुये देखकर जाट सरदार चूड़ामन शत्रु पक्ष के पिछले भाग पर टूट पड़ा और उनके युद्ध साज-सामान से लदे हाथी तथा ऊंट गाड़ियों पर अधिकार कर लिया।

रणक्षेत्र में जाट सैनिकों ने बुरी तरह लूट मचाई और चूड़ामन सामान के साथ हाथी तथा


1. जाटों का नवीन इतिहास पृ० 227, 229 लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा, बहवाला कई लेखक।


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ऊंटों को लेकर अपने कैम्प में वापिस लौट आया। सायंकाल लड़ाई का पासा बदला तथा फर्रूखसियर की सेना के धावे से जहांदारशाह की सेना में भगदड़ मच गई। उस समय चूड़ामन ने जहांदारशाह के हरम तथा गायिकाओं की छावनी, जहां लालकुमारी गायिका तथा हिजड़े सवार थे, पर आक्रमण कर दिया। जाटों ने हरम निवास को खूब लूटा। स्वयं सम्राट् मैदान छोड़कर आगरा से दिल्ली की ओर भाग गया। चूड़ामन ने इस गृह युद्ध में शाही सेना के पिछले भाग में भारी भगदड़ मचवा दी और उसको शाही खजाना, युद्ध सज्जा से सज्जित हाथी, ऊंट गाड़ियों की लूट का माल हाथ आया। इस तरह से चूड़ामन ने दोनों पक्षों को लूटा और युद्ध के शीघ्र बाद चूड़ामन लूट के विशाल माल के साथ थून दुर्ग में वापिस लौट आया। इस युद्ध में फर्रूखसियर विजयी रहा तथा वह जनवरी 12, 1713 ई० में आगरा किले में शाही गद्दी पर बैठा। कुछ ही दिन बाद जहांदारशाह को गला घोटकर मार दिया गया।

चूड़ामन को जागीर व राहदारी का अधिकार (अक्तूबर, 1713 ई०)

फर्रूखसियर सम्राट् बन गया परन्तु वास्तविक शक्ति दो सैय्यदबंधुओं के हाथों में रही। सम्राट् ने विजय के बाद ख्वाजा आसीम को शम्सुद्दौला खान-ए-दौरान की उपाधि प्रदान की। उसको दीवान-ए-खास के दरोग़ा पद व बालाशाही (सम्राट् का निजी अंगरक्षक दल) के बख्शी पद पर नियुक्त किया गया। सम्राट् फ़र्रूखसियर ने 9 फरवरी, 1713 ई० को सैय्यद अब्दुल्ला खां को कुतुब-उल-मुल्क की उपाधि व मुलतान की सूबेदारी देकर वजीर पद प्रदान कर दिया। उसके लघु भ्राता हुसैन अली खां को बिहार की सूबेदारी तथा साम्राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण मीर बख्शी (अमीर-उल-उमरा) का पद दे दिया। सम्राट् ने, राजा छबीलाराम नागर के आगरा से दिल्ली वापिस लौटने पर शम्सुद्दौला खान-ए-दौरान को आगरा प्रान्त का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

शम्सुद्दौला चतुर एवं दूरदर्शी था। वह चूड़ामन जाट से विरोध पालना और एक अनिश्चित उद्यम के फेर में पड़कर अपनी प्रतिष्ठा गंवाना नहीं चाहता था, अतः उसने चूड़ामन से मैत्री की चर्चा चलायी। यद्यपि चूड़ामन ने फर्रूखसियर की सेना और सामान को लूटा था, फिर भी वह इतना समझदार था कि नए सम्राट् को व्यर्थ ही न खिझाता रहे। उसने खान-ए-दौरान द्वारा प्रस्तुत समझौता प्रस्तावों को स्वीकार करना ही उचित समझा। सूबेदार ने सम्राट् को भी चूड़ामन के लिये क्षमा करके शाही सेवा में लाने के लिए राजी कर लिया। सम्राट् ने चूड़ामन के पास दरबार में उपस्थित होकर ‘शाही चाकरी’ स्वीकार करने का फरमाना भेजा। सितम्बर 27, 1713 ई० के दिन चूड़ामन 4000 घुड़सवारों के साथ दिल्ली के निकट बड़फूला (बाराहपूला) पहुंच गया। यहां से उसने अपने प्रतिनिधि वकील के हाथों सम्राट् के लिए कीमती नज़रे (भेंट) व क्षमा-याचना का पत्र प्रस्तुत करने के लिए भेजा। राजधानी से अजीमउश्शान के मामूज़ाद भाई राजा राजबहादुर राठौड़ किसनगढ़ ने बाराहपूला पहुंचकर चूड़ामन की एक राजा के अनुरूप अगवानी की।

20 अक्तूबर को जाट सरदार ने सम्मान व प्रतिष्ठा के साथ राजधानी में प्रवेश किया। सम्राट् की ओर से दीवान-ए-खास में खानदौरान ने उसका स्वागत सत्कार व आगवानी की और दरबार में ले जाकर उपस्थित किया। फर्रूखसियर ने चूड़ामन को क्षमा कर दिया। उसके मनसब में वृद्धि की। ‘राव बहादुर खां’ की उपाधि से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त सम्राट् ने उसको


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उत्तर में बाराहपूला से दक्षिण में चम्बल नदी पर्यन्त, पूर्व में आगरा से पश्चिम में रणथम्भौर प्रान्त की सीमाओं तक शाही मार्गों की राहदारी का भार सौंपकर ‘राहदार खां’ के शाही पद पर नियुक्त किया। ऐसा करने पर प्रोफेसर के० आर० कानूनगो के लेख अनुसार “एक भेड़िये को भेड़ों के रेवड़ का रखवाला बना दिया गया।” सम्राट् ने चूड़ामन को बरौड़ा मेव (आधुनिक तहसील नगर), कठूमर, (जिला अलवर), अखैगढ़ या सौंखर-सौंखरी (कुछ भाग आधुनिक जिला अलवर तथा कुछ भाग आधुनिक तहसील नदबई में शामिल), हेलक (तहसील कुम्हेर) और अऊ (तहसील डीग) नामक पांच शाही परगने जागीर में प्रदान कर दिये1

इस प्रकार चूड़ामन को शाही स्वीकृति की छाप मिल गयी। उसे यह अधिकार था कि जो क्षेत्र उसकी देख-रेख में छोड़ा गया था, उस पर आने-जाने वाले लोगों पर ‘पथ-कर’ लगा सके। पहले जिस उत्साह से वह मुग़लों के काफिलों को लूटा करता था, उसी उत्साह से अब वह पथ-कर वसूल करने लगा। उसने ये कर इतनी कठोरता और स्वेच्छा से वसूल किये कि चारों को कोलाहल मच गया। कालिकारंजन कानूनगो (जाट, पृ० 27) के शब्दों में, “कहावत है कि टैक्स वसूल करने वाला जाट सचमुच ईश्वर के कोप का चिन्ह है। उसका एक पैसा सिर फोड़ देता है जबकि बनिया के सौ रुपये मुश्किल से खाल को छूते हैं।”

चूड़ामन की इच्छा व आज्ञा से ही जागीरदार अपने अधिकार में गांवों से लगान वसूल कर सकते थे। चूड़ामन की धींगामस्ती की शिकायतें दिल्ली पहुंचीं, परन्तु अशक्त सम्राट् उसकी रोकथाम करने या उसे दंड देने के लिए कुछ भी नहीं कर सका।

इसके अतिरिक्त सैय्यद बंधुओं के साथ मिलकर चूड़ामन ने खान-ए-दौरान तथा सैय्यद बंधुओं के मध्य विद्यमान मतभेदों से भी लाभ उठाया। फर्रूखसियर को राजसिंहासन सैयद-बंधुओं की सहायता एवं कृपा से मिला था, फिर भी वह उनके विरुद्ध षड्यन्त्र करता रहता था। उसे मालूम था कि सैय्यद-बंधु जयपुर के राजा से खुश नहीं हैं। उसे मालूम था कि सैय्यद-बंधु जयपुर के राजा से खुश नहीं हैं (उन्होंने चूड़ामन को उत्साहित किया था कि वह जरा कछवाहा की शेखी झाड़ दे), अतः सम्राट् ने सैय्यदों की पीठ पीछे जयपुर के सवाई जयसिंह कछवाहा से चूड़ामन के थूनगढ़ पर आक्रमण करने को कहा। राजपूत कछवाहों और सिनसिनवार जाटों के बीच खून की नदियां बह चुकी थीं। सम्राट् शाहजहां के फरमान अनुसार सन् 1650-51 ई० में मिर्जा राजा जयसिंह (प्रथम) कछवाहा आमेर नरेश ने सिनसिनवार जाट मदुसिंह तथा उसके चाचा सिंघा के साथ भयंकर युद्ध किये थे। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह आमेर नरेश को सन् 1688 ई० में सिनसिनवार जाट राजाराम को दबाने का फरमान भेजा, जिसके पालन करने में वह असमर्थ रहा। फिर औरंगजेब ने सन् 1690 ई० में राजा रामसिंह के पुत्र राजा बिशनसिंह से वीर भज्जासिंह के विरुद्ध सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण करवाया। इस तरह से कछवाहा राजपूतों और सिनसिनवार जाटों की खूनी दुश्मनी कई वर्षों से चली आ रही थी। (देखो इसी अष्टम अध्याय के पिछले पृष्ठों पर)।

थून जाट गढ़ी का प्रथम घेरा (1716-18 ई०) और राजपूतों की पराजय

थून गढ़ी के युद्ध को यदि जाट एवं राजपूत शक्ति परीक्षण कहा जाये तो ठीक होगा। सम्राट्


1. जाटों का नवीन इतिहास पृ० 237-239, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेकों के हवाले से लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-647


फर्रूखसियर के वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां के परामर्श के बिना ही 15 सितम्बर, 1716 ई० को सवाई राजा जयसिंह कछवाहा को जाट विरोधी अभियान की उच्च कमान सम्भालने का नियुक्ति पत्र मिल गया था। 18 सितम्बर को महाराजा जयसिंह की प्रधान छावनी में उसके अंगरक्षक राजपूत सैनिकों के अतिरिक्त दस हजार घुड़सवार तथा पांच हजार पैदल हाड़ा, गौर, खंगारोत राजपूत सैनिक उपस्थित थे। इसके अतिरिक्त कोटा का महाराव भीमसिंह हाड़ा, नरवर का राजा गजसिंह, विजयसिंह कछवाहा (महाराजा जयसिंह का भाई) राव इन्द्रसिंह, व्याजिद खां मेवाती आदि अपनी सेनाओं के साथ उपस्थित थे। इस प्रकार अनुमानतः 40,000 बन्दूकची सवार तथा 40,000 से अधिक पैदल सैनिकों की विशाल सेना उसकी कमान में थी। उसने कॉमा1 को थून अभियान का आधार बनाया।

चूड़ामन के गुप्तचर दिल्ली में थे जो उसके विरुद्ध योजनाओं की सूचना उसे देते रहते थे। सूचना मिलने पर चूड़ामन ने जयसिंह के मुकाबिले के लिए एक लम्बे युद्ध की तैयारी की। उसने इतना अनाज, नमक, घी, तमाखू, कपड़ा और ईंधन इकट्ठा कर लिया कि वह 20 वर्ष के लिए काफी रहे। शाही गुप्तचरों की सूचनानुसार इस युद्ध के समय चूड़ामन 7000 प्रशिक्षित, दक्ष व कुशल योद्धाओं के साथ थून गढ़ी में मौजूद था।

राजा जयसिंह को सम्राट् की ओर से 40 लाख रुपये, शाही तोपें तथा मुग़ल सेना भी मिल गयी थी। उसने इन विशाल सेनाओं के साथ थून गढ़ी की ओर अक्तूबर, 1716 ई० में कूच कर दिया। 15 अक्तूबर को चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह ने 2000 सवारों के साथ गहन जंगलों से निकलकर व्याजिद खां मेवाती की सेना पर धावा कर दिया, जिसमें व्याजिद खां घायल हो गया। पांच दिन तक उसकी छावनी को घेरे रखा। 20 अक्तूबर को जयसिंह के राजपूत सैनिकों ने आकर व्याजिद खां की सेना को बचा लिया।

चूड़ामन के भतीजे रूपसिंह ने 2000 सवारों के साथ 9 नवम्बर, 1716 ई० को शत्रु के अग्र दलों पर आक्रमण कर दिया। भयंकर मुठभेड़ में रूपसिंह स्वयं घायल हो गया तथा चूड़ामन का भाई अतिराम वीरगति को प्राप्त हुआ। इस मुठभेड़ में छापामार जाट सवारों ने राजपूत सैनिकों के छक्के छुड़ा दिये थे और उनको पीछे हटना पड़ा।

17 नवम्बर, 1716 ई० को थून गढ़ी का घेरा प्रारम्भ हुआ। सिनसिनवार प्रदेश में प्रवेश करते ही साम्राज्यवादी सेना को जाट गुरिल्ला दस्तों का सामना करना पड़ा। जाट सैनिक घने जंगलों तथा गढ़ियों से निकलकर शत्रु सेना पर धावे करने लगे। चूड़ामन के पुत्र मोहकमसिंह ने शाही सेना के अगले दलों पर आक्रमण करके उनको पीछे धकेल दिया। केवल जाटों की छापामार सैनिक टोलियां ही शत्रु के मार्ग में बाधक नहीं थी बल्कि स्वाभिमानी तथा स्वाधीनता प्रेमी प्रत्येक जमींदार, किसान, मजदूर शत्रु पर हमला कर रहे थे। 11 दिसम्बर, 1716 ई० के पत्र में महाराजा जयसिंह ने विजय प्राप्त करने का दावा किया था। सम्राट् ने 7 जनवरी, 1717 ई० को अपने फरमान में जयसिंह को आदेश दिया कि जो शत्रु थून गढ़ी में शरण ले रहे हैं उनको कैद करके शीघ्र


1. कांमा से डीग की सहायक गढ़ी 14 मील दक्षिण में तथा थून की जाट प्रधान गढ़ी 14 मील दक्षिण-पश्चिम में थी।


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ही दरबार में उपस्थित किया जावे। फर्रूखसियर ने 13 मार्च, 1717 ई० को अपने फरमान में जयसिंह को लिखा कि “असंख्य सेना, विशाल तोपखाना पंक्ति तथा विपुल धनराशि के साथ जाटों का दमन करने के लिए योग्य राजा को नियुक्त किये सात माह निकल चुके हैं, किन्तु अभी तक गढ़ी एक ओर से भी नहीं घेरी जा सकी है।”

साम्राज्यवादी सेनायें हल्के तोपखाने से पूरी तरह सुसज्जित थीं, फिर भी मई-जून 1717 ई० में कई विशाल व 84 छोटी तोपें, 300 मन विस्फोटक बारूद, 150 मन सीसा और 500 बानों (राकेट) का भण्डार, आगरा से थून गढ़ी तक पहुंचा दिया गया। इसके अतिरिक्त जयसिंह ने अपने राज्य आमेर से आवश्यक गोला बारूद आदि युद्ध साज-सामान मंगवा लिया था।

साम्राज्यवादी सेनापति जयसिंह की विफलता

महाराजा जयसिंह 20 महीने (सितम्बर 1716 ई० से अप्रैल 1718 ई०) तक दृढ़ता के साथ घेरा डालकर पड़ा रहा, किन्तु इस अभियान में चूड़ामन की निर्भीकता, चतुरता तथा साहस के कारण वह एक बहादुर सैनिक तथा सफल सेनापति प्रमाणित नहीं हो सका।

चूड़ामन अन्त तक किले में रहकर शान्तिपूर्वक विघ्नकारी तोड़फोड़ तथा गुरिल्ला युद्धनीति से शत्रु को हानि पहुंचाता रहा। जयसिंह को नई कुमुक राजपूत व मुगल सैनिकों की मिलती रही। तजस्वी युवक एवं कुशल योद्धा खान-ए-जहाँ मुग़ल सैनिकों की नई कुमुक लेकर थून छावनी में पहुंच गया था। नई कुमुक मिलने के बाद भी साम्राज्यवादी सेनापति जाट गुरिल्ला दलों पर, जिनका नेतृत्व मोहकमसिंह तथा रूपसिंह, बदनसिंह और अन्य सिनसिनवार भाई बन्धु कर रहे थे, कोई प्रभाव नहीं डाल सका। अन्य जमींदार तथा ग्रामीणों ने चूड़ामन का पक्ष लिया और शाही राहों से आने-जाने वाले यात्री तथा काफ़िलों को लूटा। उदाहरण के रूप में 1300 बैलगाड़ियों में शुद्ध घी के कुप्पों को लादकर एक व्यापारी दल जब होडल से 5-6 मील दूर पहुंचा तब जाट-मेवाती लुटेरों ने इस काफिले को घेर लिया। एक सहस्र रक्षक अपनी बन्दूकों को छोड़कर भाग गये और लुटेरा दल बैलगाड़ियों को हांककर वजीर सैयद अब्दुल्ला खां तथा खान-ए-दौरान की जागीर के गांवों में ले गये। लुटेरों को लगभग 20 लाख रुपये का माल हाथ लगा। संजर खां इन जागीरों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। सूचना मिलने पर वह स्वयं घटनास्थल पर पहुंचा, किन्तु उसने लुटेरा दलों का पीछा नहीं किया। साम्राज्यवादी सेनायें थून गढ़ी के चारों ओर दूर-दूर तक घने जंगलों को काटकर उसके निकट पहुंचने का प्रयास कर रही थीं। उनका लक्ष्य था कि इस गढ़ी के भीतर खाद्य सामग्री, पानी, शस्त्रास्त्र आदि बाहिर से रोक देना, जिससे चूड़ामन हथियार डाल देगा। परन्तु वह विफल रहे। चूड़ामन के छापामार सैनिक थून गढ़ी के भीतर से तथा अन्य जाट गढ़ियों से निकलकर शाही सेनाओं पर आक्रमण करते रहे तथा उनको पीछे धकेलते रहे जिससे वे थून गढ़ी तक पहुंच ही नहीं सकें। इन छापामार जाट सैनिकों ने अनेक बार शाही सेनाओं के हथियार, गोला बारूद, खाद्यसामग्री आदि छीने और अपनी गढ़ियों में ले गये। इन मुठभेड़ों में जाट सैनिक कम तथा शाही सैनिक बड़ी संख्या में काम आये। महाराजा जयसिंह के सब इरादे विफल कर दिये गये। वह 20 महीने तक थून गढ़ी का घेरा डाले पड़ा रहा परन्तु सफलता प्राप्त न कर सका।

दिल्ली शाही दरबार में हिन्दुस्तानी दल के नेता सैय्यद बंधुओं और तुरानी दल के नेता


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खान-ए-दौरान के मध्य मतभेद हो गया जो चूड़ामन के लिए एक वरदान था।

थून रणक्षेत्र में खान-ए-जहां अपनी सैनिक प्रतिष्ठा कायम करना चाहता था। वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां जयसिंह की सैनिक शक्ति का विरोधी था वह खुलकर दरबार में चूड़ामन का पक्ष लेने लगा था। सैय्यद बन्धु जाटों व जाटनेता चूड़ामन के हितैषी थे। इसका कारण था कि उनका पालन-पोषण एक जाटनी ने किया था। सर्वखाप पंचायत रिकार्ड के अनुसार - “ये सैय्यद बंधु जुड़वां बालक थे, जिनको एक मुसलमान स्त्री ने जन्मा था। संकटकालीन समय आने पर उस स्त्री ने अपने दोनों बालक पुत्र मेरठ जिले की अपनी जाट सहेली को सौंप दिए तथा स्वयं वहां से कहीं दूसरे स्थान पर चली गई। इन बालकों को उस जाट स्त्री ने अपने स्तनों का दूध पिलाकर पाला तथा सुरक्षित रखा। ये दोनों उसको मां कहते थे। जब ये युवा हुए तो मां की आज्ञा का पालन करने का वचन दिया। मां ने केवल इतनी ही मांग की कि पुत्रो! मेरे दूध को याद रखना और समय आने पर जाटों की सहायता करना।”

अब चूड़ामन ने सैनिक ताक़त, गुरिल्ला युद्ध की अपेक्षा कपटी तथा गुप्त नीतियों से काम लिया। उसने दिल्ली दरबार में तैनात अपने कूटनीतिज्ञ वकील को लिखा - “यदि सम्राट् हमारे भूतकालिक अपराधों को क्षमा करके उच्च सम्मान व मनसब प्रदान करने का आश्वासन दे तो वह स्वयं दरबार में उपस्थित होकर पेशगी अदा करके समर्पण करने को तैयार है, परन्तु इसमें यह स्पष्ट शर्त होगी कि जयसिंह को इस समझौते में साझीदार नहीं बनाया जाये।” जाट वकील ने वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां कुतुबुल्मुल्क का आश्वासन प्राप्त कर लिया। वजीर ने प्रस्तावित शर्तों को स्वीकार करके दरबार में चूड़ामन का खुलकर पक्ष लिया। उसने सम्राट् को कहा - “जाट अभियान का संचालन करते हुए 20 महीने निकल चुके हैं और कोई निश्चित हल नहीं निकला है। अब तक राजा जयसिंह शाही खजाने से दो करोड़ रुपया खर्च कर चुका है और उसका मासिक खर्च भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इतने प्रयास के बाद भी विजय की कोई आशा दिखाई नहीं देती। चूड़ामन अब समर्पण करने तथा दरबार में उपस्थित होने को तैयार है। अतः उसकी प्रार्थना को मान लेना साम्राज्य के हित में है।” वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां के दबाव में आकर सम्राट् ने चूड़ामन से समझौता स्वीकार कर लिया।

सम्राट् ने मार्च 22, 1718 ई० को राजा जयसिंह को एक फरमान भेजकर उसे थून गढ़ी से घेरा उठाने का आदेश दिया गया। प्रकटतः क्षुब्ध, पर मन ही मन प्रसन्न जयसिंह थून से वापस लौट गया। उसके हाथ केवल विफलता ही लगी।

जाट-मुगल सन्धि (अप्रैल 1718 ई०)

अप्रैल 6, 1718 ई० को खान-ए-जहां, राव चूड़ामन उसके भतीजे रूपसिंह व अन्य भाई-बन्धुओं के साथ दिल्ली पहुंच गया। राव चूड़ामन 15 अप्रैल को वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां के साथ शाही दरबार में उपस्थित हुआ। बादशाह ने चूड़ामन को अपने समीप बैठाया और उसको एक खिलअत तथा एक सहस्र अशर्फियां प्रदान की गईं। उसके अन्य पुत्र, भतीजे रूपसिंह तथा अन्य सहयोगी रिश्तेदार व भाई-बन्धुओं को अन्य सुविधायें तथा कृपायें प्राप्त हुईं। वजीर के दबाव में आकर असहाय सम्राट् ने चूड़ामन को क्षमा करके शाही सेना में लेने का आदेश देना पड़ा। इस सन्धि में


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वजीर के प्रयासों के बाद चूड़ामन ने 50 लाख रुपया, 26 अप्रैल के दिन देना स्वीकार कर लिया। इस राशि में से 20 लाख रुपया वजीर को तथा 20 लाख रुपया शाही खजाने में नकद व जिंस के रूप में आसान किस्तों पर भुगतान करना था। चूड़ामन के मनसब में वृद्धि की गई और उमराव का उच्च तथा सम्माननीय पदक दिया गया। अब वजीर व चूड़ामन एक हो गये थे। चूड़ामन ने सैयद बन्धुओं से जीवन पर्यन्त मित्रता का नाता निभाया।

चूड़ामन की सैय्यद बन्धुओं को सहायता

सम्राट् फर्रूखसियर और सैय्यद बन्धुओं में मतभेद बढ़ते गये। उन्होंने चूड़ामन की सहायता से उसको गद्दी से उतार दिया* और 28 फरवरी 1719 ई० को रफीउद्दरजात को गद्दी पर बैठा दिया जो 20 जून, 1719 ई० तक रहा और फिर रफीउद्दौला शाहजहां द्वितीय को 21 जून, 1719 ई० को सिंहासन पर बैठा दिया जो 18 सितम्बर, 1719 ई० तक रहा। अब सैयदों ने प्रशासन तथा सेना की सर्वोच्च कमान स्वयं सम्भाल ली थी। इस राजनैतिक गठबन्धन तथा शाही क्रान्ति में राव चूड़ामन ने सैयदों का पूरा साथ दिया। जाट जनशक्ति तथा चूड़ामन के क्रान्तिकारी जीवन को बरबाद करने के प्रयास में जयसिंह कछवाहा को हताश होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा और फर्रूखसियर को साम्राज्य से हाथ धोना पड़ा। यह चूड़ामन की विशिष्ट राजनैतिक उपलब्धि थी, जिसने काठेड़ परगने को एक राज्य का रूप दिया और जन-जीवन को केन्द्रित कर लिया था।

सैय्यद बन्धुओं ने चूड़ामन को पुनः बाराहपूला से ग्वालियर सरकार की सीमाओं तक शाही मार्गों की सुरक्षा का भार सौंपा तथा राहदारी वसूल करने का निश्चित अधिकार प्रदान करके ‘राहदार’ पद पर उसकी पुनः नियुक्ति की गई। इबरतनामा से पता चलता है कि इस समय चूड़ामन की राज्यसीमायें इतनी लम्बाई, चौड़ाई में फैल चुकी थीं कि उसको पार करने में 20 दिन लगते थे। इनकी जमींदारी में समस्त काठेड़ प्रान्त शामिल था। उनकी वतन जागीर की उत्तरी सीमायें परगना सहार तथा कोसी से मिलती थीं। इस प्रकार दिल्ली साम्राज्य पर सैय्यद बन्धुओं का नियंत्रण हो चुका था और आगरा प्रान्त पर चूड़ामन का पूर्ण प्रभुत्व था।

रफीउद्दौला शाहजहां द्वितीय की मृत्यु होने पर सैय्यदों ने मुहम्मदशाह रंगीला को 28 सितम्बर 1719 ई० को सिंहासन पर बैठा दिया जो सन् 1748 तक बादशाह पद पर रहा।

आगरा में सम्राट् पद के एक नकली दावेदार नेकोसियर को, सैय्यद बन्धुओं के शत्रुओं ने, सम्राट् घोषित कर दिया। सैय्यदों ने विशाल सेना के साथ आगरा पर चढ़ाई की। इस अभियान में चूड़ामन की सहायता से वे कामयाब हुये और आगरा किले पर सैय्यदों का अधिकार हो गया। निकोसियार को पकड़ कर सलीमगढ़ के शाही कारागृह में भेज दिया गया, जहां मार्च 12, 1723 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

9 अक्तूबर, 1720 ई० को टोडाभीम के समीप शाही कैम्प में विश्वासघाती मित्रों के इशारे पर हेदरबेग दौगलत ने मीर बख्शी सैय्यद हुसैन अली खां को खंजर से मार डाला।

चूड़ामन को ठाकुर पद देकर सम्मानित करना (अक्तूबर 1720 ई०)

मीर बख्शी सैय्यद हुसैन अली की मृत्यु के बाद सम्राट् मुहम्मदशाह ने शाही लश्कर को टोडाभीम


(*) - सैयद बन्धुओं ने फर्रूखसियर को अन्धा कर दिया और उसी के रनिवास में ही उसको गला घौटकर मार डाला।


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से दिल्ली वापिस लौटने का आदेश दिया। यह लौटने का मार्ग जाट सरदारों की सीमाओं से गुजरता था। यद्यपि चूड़ामन सैय्यद बन्धुओं का अनन्य मित्र, सहयोगी तथा भक्त था, फिर भी सम्राट् मुहम्मदशाह ने चूड़ामन की उपेक्षा नहीं की। उसने चूड़ामन तथा उसके साथी सैनिकों को अपने पक्ष पोषण के लिए भारी पुरस्कार तथा भेंट भेजकर सम्मानित किया। चूड़ामन ने मार्ग चलते सम्राट् से व्यर्थ शत्रुता मोल लेना उचित न समझकर अवसर से लाभ उठाया और जाट जमींदारों को मुग़ल साम्राज्य का सहायक घोषित कर दिया। वह स्वयं सैनिक दल के साथ शाही छावनी में अपनी निष्ठा दिखलाने के हेतु उपस्थित हुआ। वास्तव में चूड़ामन ने अपनी वाक्पटुता से सम्राट् तथा वजीर दोनों को अपने जाल में फंसा लिया। सम्राट् मुहम्मदशाह ने इस समय चूड़ामन को ठाकुर1 पदवी तथा अधिकार देकर सम्मानित किया और शाही लश्कर को यमुना नदी के किनारे तक सकुशल पहुंचाने के लिए मार्ग-दर्शक बनाया।

हसनपुर युद्ध (14-15 नवम्बर, 1720 ई०) में चूड़ामन का वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां का पक्ष लेना

वजीर सैय्यद अदुल्ला खां को सराय छठ (आगरा से उत्तर-पश्चिम 48 मील) पर 9 अक्तूबर की अर्द्धरात्रि को अपने भाई सैय्यद हुसैन अली खां की हत्या का समाचार मिला और वह दिल्ली की ओर बढ़ा। उसने नवम्बर 12 तक 90 सहस्र सवार पैदल सेना और 400 जिन्सी तथा भारी तोपों का एक तोपखाना तैयार कर लिया था। इसके अलावा राजा मोहकमसिंह, चूड़ामन तथा समीपस्थ जाट, राजपूत जमींदारों की जमात भी उसके पास पहुंच गई थी। इस विशाल सेना के साथ वजीर नवम्बर के दूसरे सप्ताह में बिलोचपुर (परगना पलवल) में पहुंच गया। सम्राट् मुहम्मदशाह ने भी 12 नवम्बर के दिन बिलोचपुर के दक्षिण में छः मील हसनपुर के पास युद्ध छावनी डाली। वजीर ने ठाकुर चूड़ामन को हसनपुर युद्ध में सहायता के लिए कई पत्र लिखे। ठाकुर चूड़ामन हसनपुर पहुंचने तक पाखण्डी की तरह सम्राट् के लश्कर में शामिल रहा। वजीर के सन्देश अनुसार चूड़ामन 13 नवम्बर को बादशाही बारूदखाने को उड़ाने में असफल रहा किन्तु अपने प्रथम धावा में सामान से लदे तीन-चार हाथी तथा ऊंट गाड़ियों के विशाल झुण्ड को उड़ाकर लाने में सफल रहा।

इसके बाद वह अपने भाई-बन्धु, भतीजे, बदनसिंह, रूपसिंह आदि की कमान में सज्जित दस सहस्र सेना के साथ वजीर की छावनी में उपस्थित हुआ। उसने शाही लश्कर से उड़ाये हाथी, बैल व ऊंट गाड़ियां वजीर को भेंटस्वरूप प्रस्तुत कीं लेकिन वजीर ने इनको सम्मान सहित ठाकुर चूड़ामन को पुरस्कार के रूप में लौटा दिया।

बुधवार, 14 नवम्बर 1720 ई० को दोनो सेनायें भिड़ गईं। जब सेनायें भयंकर टक्कर ले रही थीं, उस समय चूड़ामन ने अपने जाट सैनिकों के साथ बादशाही डेरा तथा सैनिक सामान पर पीछे


1. डा० मथुरालाल शर्मा (कोटा राज्य का इतिहास, 1/136-7) से स्पष्ट है कि प्रत्येक परगने में चौधरी, कानूनगो और एक ठाकुर - ये तीन अफसर रहते थे। चौधरी, कानूनगो लगान वसूल करने वाले अधिकारी थे और ठाकुर परगने का शासन प्रबन्ध और शान्ति सुरक्षा के लिए जिम्मेदार था।


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से धावा कर दिया और वहां भयंकर उत्पात तथा लूटमार की। चूड़ामन ने इस युद्ध में अत्यधिक धृष्टता दिखलाई और शाही छावनी पर बार-बार आक्रमण करके लूटमार के करारे हाथ दिखलाये। इससे शाही सैनिक तथा व्यापारी रणक्षेत्र को छोड़कर भागने लगे जिनको रास्ते में जाटों तथा मेवातियों ने लूट लिया। चूड़ामन ने शाही गोला बारूद से लदे हजारों खच्चर और बैलगाड़ियों और सम्राट् की व्यक्तिगत शाही सम्पत्ति, अमूल्य सामान से लदे ऊंटों के झुण्ड पर अपना अधिकार कर लिया। चूड़ामन की इस घुसपैठ से वजीर ने लाभ उठाया और वह शाही सेना के मध्य भाग की ओर बढ़ा। अन्त में वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां घायल हो गया और पकड़ा गया। सन् 1722 ई० में उसे जहर देकर मार दिया।

जब वजीर की सेना की हार के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लगे तब चूड़ामन ने वजीर की छावनी पर धावा बोल दिया। जाट सैनिकों ने शाही सैनिकों के साथ मिलकर वजीर की छावनी को खूब लूटा। इस युद्ध में ठाकुर चूड़ामन को अमूल्य सामान, एक हजार खच्चर तथा ऊंट गाड़ियों पर लदा माल, शाही सदर के कागजात तथा बीस लाख मोहरें भी मिलीं। इस युद्ध में सम्राट् मुहम्मदशाह को विजय प्राप्त हुई।

हसनपुर के युद्ध के बाद सम्राट् के प्रतिशोध को अवश्यम्भावी जानकर चूड़ामन अब खुले तौर पर स्वतंत्र ‘राजा’ की तरह आचरण करने लगा। सन् 1722 ई० में उसने सआदत खां के विरुद्ध मारवाड़ के राजा अजीतसिंह राठौर और बाद में इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद खां बंगश के सेनापति दिलेर खां के विरुद्ध बुन्देलों की सहायतार्थ सेना भेजी। आगरा के सूबेदार सआदत खां के निर्देश पर उसका नायब नीलकण्ठ नागर जाटों को दण्डित करने आया। 16 सितम्बर, 1721 ई० को फतेहपुर सीकरी के निकट युद्ध में चूड़ामन के पुत्र मोहकमसिंह के हाथों शाही सेना पराजित हुई और नीलकण्ठ नागर मारा गया। चूड़ामन ने जयसिंह कछवाहा के विरुद्ध अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए मारवाड़ के राजा अजीतसिंह से मित्रता स्थापित की।

चूड़ामन की मृत्यु (22 सितम्बर, 1721 ई०)

शिवदास लखनवी, गुलाम हुसैन, मीरगुलाम अली, कालिकारंजन कानूनगो आदि लेखक चूड़ामन की मृत्यु के बारे में लिखते हैं -

“ठाकुर चूड़ामन का एक निकट सम्बन्धी अपने पीछे विशाल सम्पत्ति (84 गांवों की जागीर) को छोड़कर निःसन्तान ही मर गया। मोहकमसिंह तथा जुलकरनसिंह के मध्य इस सम्पत्ति और जमींदारी के बंटवारे को लेकर महत्त्वाकांक्षाओं का संघर्ष फूट पड़ा। जब चूड़ामन ने न्यायोचित ढ़ंग से अपने पुत्रों को समझाने का प्रयास किया तो मोहकमसिंह ने अपने वयोवृद्ध पिता को विद्रोहात्मक अशोभनीय बात कही और पिता तथा भाई दोनों से लड़ने को तैयार हो गया। इस अपमान और पारिवारिक फूट को सहन न कर पाने के कारण 22 सितम्बर, 1721 ई० को चूड़ामन ने विष खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी।”

कोई भी शत्रु उसे जिस विष को खाने के लिए विवश नहीं कर पाया था, वही अब उसके एक मूर्ख तथा उद्धत पुत्र ने उसे खिला दिया।

सवाई जयसिंह द्वारा थून गढ़ी का पतन (18 नवम्बर, 1722 ई०)

चूड़ामन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मोहकमसिंह उसका उत्तराधिकारी तथा जाटों का नेता


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-653


बना। मोहकमसिंह ने सर्वप्रथम अपने प्रतिद्वन्द्वी बदनसिंह एवं उसके भाई रूपसिंह जो उसके चाचा भावसिंह के पुत्र थे, को कैद में डाल दिया। प्रमुख जाट सरदारों के हस्तक्षेप के बाद उन्हें कैद से मुक्त किया गया। मोहकमसिंह से अपने अपमान का बदला लेने हेतु बदनसिंह ने अपने भाई रूपसिंह को आगरा के सूबेदार सआदत खान के पास आगरा भेजा और स्वयं सवाई राजा जयसिंह से जा मिला। जाटों की इस पारिवारिक फूट ने जयसिंह को एक बार फिर जाट दमन के कार्य को हाथ में लेकर पुराने कलंक को धो डालने के लिए प्रोत्साहित किया। यह कार्य उसने सआदत खान खान-ए-दौरान की मार्फत किया।

शाही दरबार से जाटों के विरुद्ध अभियान की कमान और आगरा की सूबेदारी मिलने पर अगस्त, 1722 ई० के अन्त में सवाई जयसिंह 14,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सैनिकों की एक विशाल सेना के साथ थून गढ़ी की ओर चल दिया। 24 सितम्बर को जब वह थून गढ़ी के निकट पहुंचा तब बदनसिंह अपने पूरे दलबल के साथ आकर उससे मिल गया। इस बार जाट के विरुद्ध जाट था। अतः जयसिंह का कार्य आसान हो गया। मोहकमसिंह थून में बुरी तरह से घिर गया और बदनसिंह उसके अनेक साथियों को तोड़ने में सफल हुआ। बदनसिंह ने थून गढ़ी के कमजोर स्थानों का भेद दे दिया, इससे शाही सेना को गढ़ी के मजबूत द्वारों पर अधिकार करने का सफल अवसर मिल गया। अतः मोहकमसिंह 17 नवम्बर की रात्रि को बारूदखाने में आग लगाकर अपने चल-सम्पदा, नकदी, आभूषन, हीरा-जवाहरात के खजाने और अपने परिवार के साथ थून की गढ़ी से भाग गया और मार्ग में आ रही राठौड़ सेना की सुरक्षा में महाराजा अजीतसिंह राठौड़ के पास जोधपुर पहुंच गया।

18 नवम्बर, 1722 ई० को सवाई जयसिंह ने निर्जन तथा वीरान गढ़ी में प्रवेश करके अपने कलंक को धो लिया। जयसिंह ने अपनी पिछली पराजय के प्रतिशोध के रूप में दुर्ग को मिट्टी में मिलाकर उसे गधों से जुतवा दिया, जिससे वह ऐसा अभिशप्त प्रदेश बन जाये कि किसी राजवंश का केन्द्रस्थान बनने के उपयुक्त न रहे।

थून के इस युद्ध के बारे में एक दोहा प्रचलित है -

लेन चहति है दिल्ली आगरा घर की थून दई।
बन्धु वैर अनबन के कारण कैसी कुमति ठई॥
(बृजेन्द्रवंश भास्कर, पृ० 30)

थून गढ़ी के पतन के बाद जाटों की सरदारी बदनसिंह ने संभाली और चूड़ामन की जमींदारी उसे प्राप्त हुई।


आधार पुस्तकें - जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 187-318, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक लेखकों के हवाले से लिखा है; जाट इतिहास पृ० 24-31, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; महाराजा सूरजमल, पृ० 29-38, लेखक कुं० नटवरसिंह; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 28-41, लेखक डॉ० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; इतिहासपुरुष महाराजा सूरजमल, पृ० 12-14, ले० नत्थनसिंह; जाट इतिहास, पृ० 633-635 लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष पृ० 432-433, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग, पृ० 104-123, लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री।


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भरतपुर जाट राज्य के संस्थापक राजा बदनसिंह (1723-1756 ई०)

शाही सेनापति सवाई जयसिंह ने 18 नवम्बर 1722 ई० को थून गढ़ी पर अधिकार अवश्य कर लिया परन्तु वास्तव में उसने फौलादी जाट जमींदार, मजदूर-किसान संघ के सामने घुटने टेक दिये थे। वह जनवादी जाटप्रधान प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था तथा राजस्व प्रबन्ध को अपने हाथों में नहीं सम्भाल सका और न इस भूखण्ड को अपनी जागीर अथवा आगरा प्रान्त का स्थायी अंग बनाने में ही सफल रहा। इसका मुख्य कारण देश की राजनैतिक परिस्थितियां तथा जाट एकता थी, जिन्होंने उसको बाध्य कर दिया कि वह जाट सरदारों को कतिपय राजनैतिक तथा आन्तरिक शक्तियां सौंपकर अपनी प्रगाढ़ मित्रता वरण करे।

मोहकमसिंह के पलायन के बाद समस्त सिनसिनवार गांवों के सरदार तथा अन्य जाति के पाल सरदार (प्रमुख पंच) तथा काठेड़ परगने की जनता ने जाटों के उदीयमान नक्षत्र बदनसिंह को अपना डूंग (खाप) सरदार निर्वाचित कर लिया। इस तरह से बदनसिंह को चूड़ामन की जमींदारी और जाटों का नेतृत्व प्राप्त हुआ।

23 नवम्बर, 1722 ई० के दिन थून छावनी में सवाई जयसिंह ने बदनसिंह के साथ एक समझौता किया। जयसिंह ने उसके सिर पर पगड़ी बांधी और उसको पुरस्कृत किया। इसी समय उसने मुगल सम्राट् की ओर से बदनसिंह को टीका किया और उसको एक निशान, नक्कारा तथा पंचरंगी झण्डा प्रदान करके ‘ब्रजराज’ कीर्ति से सम्मानित किया।

18 मार्च, 1723 ई० को जयसिंह ने, जो उस समय आगरा का भी सूबेदार था, डीग शिविर में बदनसिंह को क्षेत्रीय प्रशासन व्यवस्था के लिए ‘ठाकुर’ पद से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त उसे मथुरा, वृन्दावन, महावन, सहार, छाता, कोसीहोडल इत्यादि परगने, जिनकी कुल आय 50-60 लाख रुपये थी, जागीर में दिए गये। 19 जून 1725 ई० को सम्पन्न समझौते के अनुसार बदनसिंह ने जयसिंह को 83 हजार रुपये पेशकश (कर) देना स्वीकार किया।

इस प्रकार बदनसिंह का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य मुगलों से मान्यता प्राप्त शान्तिप्रिय जाट राज्य की स्थापना करना था। दीर्घकाल के पश्चात् इस क्षेत्र में संघर्ष एवं अराजकता का दौर समाप्त हुआ और किसान शान्तिपूर्वक कृषिकार्य की ओर प्रवृत्त हुए। बदनसिंह की दूरदर्शिता ने न केवल नवोदित जाट राज्य को पूर्ण विनाश से बचाया, बल्कि अब तक विकसित जाट शक्ति को कानूनी जामा पहनाकर उसे पूर्ण सुरक्षा प्रदान की।

ठाकुर बदनसिंह का कार्य अपने पूर्वजों द्वारा अधिकृत क्षेत्र को एक वैध शासन के साथ व्यवस्थित राज्य में परिणत करने का था। यह कार्य आसान नहीं था, फिर भी वह इस कार्य में वर्षों के धैर्यपूर्वक परिश्रम एवं युक्तिपूर्ण प्रशासन के बाद मुख्य रूप से सफल रहा। वह विजयों की अपेक्षा राज्य के शान्तिपूर्ण विस्तार एवं सुदृढ़ीकरण नीति में अधिक विश्वास रखता था। बदली हुई परिस्थितियों में बदनसिंह की नई नीति जाट राज्य के लिए हितकर सिद्ध हुई। मोहकमसिंह के हठीले स्वभाव से उत्पन्न जाट फूट को उसने अपने उदार व्यवहार से जाट एकता में बदल दिया। अपनी विनम्रता, सदाशयता एवं निष्ठा द्वारा उसने सवाई जयसिंह के दिल को जीत लिया।


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बदनसिंह ने धीरे-धीरे जयसिंह का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया और जयसिंह ने इस जाट सरदार को बाकायदा आगरा, दिल्ली और जयपुर जानेवाले राजमार्ग पर गश्त करने और इन राजमार्गों का उपयोग करने वालों से पथ-कर उगाहने का कार्य सौंप दिया। इस प्रकार बदनसिंह को प्रभुत्व, उपाधि और राज्य क्षेत्र तीनों चीजें प्राप्त हो गयीं, जो अन्य किसी जाट सरदार के पास नहीं थी। यह चतुर सिनसिनवार जाट बहुत समझदारी के साथ ‘राजा’ की उपाधि धारण करने के लोभ का संवरण किए रहा। उसकी दृष्टि वास्तविक शक्ति पर थी, न कि थोथे दिखावे पर।

सवाई जयसिंह द्वारा बदनसिंह को जयपुर नगर के समीप ही लक्ष्मण डूंगरी की उपत्यका में भूमि आवंटित की गई। यहां पर बदनसिंह ने अपने लिए एक हवेली, बाग, सैनिक आवास बनवाये और अपने नाम पर बदनपुरा नामक गांव बसाया। कछवाहा राजधानी में यह जाटों की सैनिक छावनी थी जहां ठाकुर बदनसिंह जाकर रुकता था। राजा जयसिंह मुगल दरबार में आते जाते वक्त बदनसिंह से मिलने अवश्य जाता था। किन्तु वैण्डल के अनुसार जब कभी मुगल सम्राट् बदनसिंह को अपने दरबार में बुलाता था, तब वह यह कहकर क्षमा मांग लिया करता था कि मैं तो साधारण किसान हूँ। 1 मार्च 1731 ई० को जयसिंह ने मथुरा में बदनसिंह को ‘राव’ का खिताब प्रदान किया। ठाकुर बदनसिंह ने अपनी शान्ति, अथक धैर्य तथा कूटनीति से आगरा जिले के अन्य कई परगने पट्टे पर प्राप्त कर लिये थे।

सैनिक दृष्टि से बदनसिंह एक निष्प्राण शासक था, किन्तु जाटों के सौभाग्य से उनकी सैनिक कमान उसके ज्येष्ठ एवं योग्यतम पुत्र सूरजमल के हाथों में रही, जिसने अपने पिता के शासनकाल में और बाद में जाटों के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना तक सैनिक गतिविधियों का सफल संचालन किया। वस्तुतः बदनसिंह के राजकार्य से निवृत्ति के बहुत पहले ही शासन की बागडोर अप्रत्यक्ष रूप से सूरजमल के हाथों में पहुंच चुकी थी।

मेवात पर अधिकार

मुगल एवं आमेर राज्य से घिरे जाटों को अपने विस्तार के लिए मेवात उपयुक्त भूभाग दिखाई दिया। मेव विद्रोहियों से परेशान कछवाहा राजा ने अपनी जागीर की सुरक्षार्थ जाट सेना की मदद चाही, तो इस क्षेत्र में जाटों का हस्तक्षेप आसान हो गया। मेवात के विद्रोह ने सवाई जयसिंह को बाध्य कर दिया था कि वह बयाना, भुसावर तथा रूपवास परगनों के मध्य भूभाग को ठाकुर बदनसिंह को सौंपकर व्यवस्था में योग दे। सूरजमल ने अपने कठिन प्रयास से मेवात के विद्रोहियों पर विजय प्राप्त की।

इस सफलता पर जयसिंह ने बदनसिंह को खिलअत भेजकर सम्मानित किया। अब सम्राट् मुहम्मदशाह ने बाध्य होकर परगना खोह, नगर तथा कठूमर आदि मेवाती परगने 2,40,000 रुपया सालाना इजारे (ठेका) पर बदनसिंह को सौंप दिये थे। इस प्रकार बदनसिंह ने असीम धैर्य, दृढ़ता तथा अपनी सैनिक नीतियों की सफलता से चार वर्ष की अल्पावधि में धीरे-धीरे 18 लाख रुपया वार्षिक आय की मेवात में जागीर पर अधिकार कर लिया था।

चूड़ामन के पुत्र मोहकमसिंह द्वारा अपनी जागीर की वापिसी के प्रयासों तथा खेमा जाट (खेमकरण सोगरिया)


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का निरन्तर विरोध, बदनसिंह के लिए अभी भी खतरा बना हुआ था। 17 नवम्बर, 1722 ई० की रात्रि को थूनगढ़ी से भागकर मोहकमसिंह ने सीधे मारवाड़ के राठौड़ राजा (अपने पिता के मित्र) अजीतसिंह के यहां शरण ली थी। बाद में वह दक्षिण में जाकर होल्कर की सेना में शामिल हो गया था। दिसम्बर 1753 ई० में उसने शाही राजधानी में वजीर इमाद से मित्रता की और उसे सूरजमल से अपनी जागीर की वापसी के बदले दो करोड़ रुपया देने का वायदा करके मुग़ल सम्राट् अहमदशाह (1748-1754 ई०) से भेंट की। बाद में इमाद के साथ वह कुम्हेर पहुंचा और सूरजमल के विरुद्ध मराठा आक्रमण में सम्मिलित हो गया। किन्तु घेरे की विफलता के बाद असहाय अवस्था में वह सूरजमल के पास आया। सूरजमल ने पूरे सम्मान के साथ उसका स्वागत किया और अपने राज्य के सभी तालुकों से प्रति गांव एक रुपया उसे देना निश्चित किया। (देखें लेटर मुगल्स, 11, पृ० 124; फ्रैंज गोटलियब, पृ० 19-ब; तारीख-ए-अहमदशाही (सरकार प्रतिलिपि), पृ० 94-ब एवं 103-अ)।

खेमकरणसिंह की सोगरिया गढ़ी पर सूरजमल की विजय (सन् 1733)

सूरजमल का सैनिक जीवन मेवात और माण्डू के युद्धों से शुरु हुआ था, किन्तु उसकी प्रथम उच्चकोटि की सैनिक सफलता अपने पिता के शक्तिशाली विरोधी खेमकरण जाट के विरुद्ध थी। इस सफलता ने उसे अत्यधिक प्रसिद्धि दिलाई। वर्तमान भरतपुर दुर्ग जो कच्ची गढ़ी थी, उसकी स्थापना 1700 ई० के लगभग रुस्तम सोगरिया ने की थी। रुस्तम का पुत्र खेमा जाट, जो कि चूड़ामन का अभिन्न साथी था, बदनसिंह के लिए गम्भीर चुनौति बना हुआ था। इसलिए बदनसिंह ने सन् 1733 ई० में अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को सोगर गढ़ी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सूरजमल ने विद्युत वेग से आक्रमण करके सोगर को जीत लिया। इस स्थान से खेमा जाट को बेदखल करके अपना अधिकार कर लिया। किन्तु खेमा जाट का विरोध जारी रहा।

फ्रैंज गोटलियब लिखता है कि खेमा जाट कुश्ती द्वारा शेरों को पराजित करने में निपुण (दक्ष) था। दिल्ली में सम्राट् के सम्मुख दो-तीन शेर अपने हाथों से मारकर जब उसने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया तो सम्राट् ने प्रसन्न होकर उसे खिलअत एवं इनाम दिया। एरिंग निवासी भूण्डाराम ने षड्यन्त्र द्वारा खेमा जाट को अपने घर बुलाकर उसे भोजन में विष खिला दिया जिससे इस प्रचण्ड वीर योद्धा की मृत्यु हो गई। (पर्शियन हिस्ट्री ऑफ जाट्स, पृ० 21-अ)। परन्तु ठाकुर देशराज के अनुसार - “खेमा जाट को अड़ींग के खूंटेल (कुन्तल) शासक फोदासिंह ने भोजन में विष खिला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।” (जाट इतिहास पृ० 554)।

सीमित अधिकार क्षेत्र या जाट देश और सीमित आर्थिक साध्न जुटाने के बाद बदनसिंह ने नवीन नगर, दुर्ग तथा जन-हितकारी बांध एवं नहरों का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। शाही सेना के अनेक आक्रमणों के बाद सिनसिनी, थून, जाटौली आदि की कच्ची गढ़ियां पूर्णतः बरबाद हो चुकी थीं और उनकी मरम्मत कराना सामयिक नहीं था। आमेर राज्य के जागीरदारों के विरोध के बावजूद भी बदनसिंह ने 1725 ई० में डीग, 1726 ई० में कुम्हेर और वैर में पक्के दुर्गों का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। इसी समय बदनसिंह के भाई भतीजे, पुत्र तथा नातेदारों ने क्रमशः गोपालगढ़ (मेवात), अखैगढ़, पथैना और बल्लभगढ़ के साधारण सीमान्त किलों का निर्माण कराया। इन नवीन


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गढों में दूरस्थ नागरिक तथा व्यापारियों ने आकर आबादी बढ़ाई। इस प्रकार जाट संगठन एक स्थायी जाटराज्य भरतपुर में बदल गया।

राजा बदनसिंह के हरम में अनेक रानियां थीं और उसके 26 पुत्र थे। उसके पुत्रों में सूरजमल और प्रतापसिंह अत्यधिक योग्य एवं ख्यातिप्राप्त थे। यद्यपि सूरजमल ज्येष्ठ तथा अनेक गुणों से सम्पन्न था, किन्तु बदनसिंह का अपने दूसरे पुत्र प्रतापसिंह पर अधिक स्नेह था। भावी गृहकलह की आशंका को निर्मूल करने के उद्देश्य से ही उसने कुम्हेर में सूरजमल के लिए तथा वैर में प्रतापसिंह के लिए पृथक्-पृथक् सुदृढ़ दुर्गों एवं महलों का निर्माण करवाया। अपने गिरते हुए स्वास्थ्य ने बदनसिंह को विवश कर दिया था कि उत्तराधिकार के प्रश्न पर वह अनिश्चयात्मक स्थिति को शीघ्र समाप्त करे। सूरजमल की ज्येष्ठता, योग्यता एवं जाट सेना के बीच उसकी लोकप्रियता की उपेक्षा करना कठिन था, इसलिए अनुमान है कि 1738-40 ई० के लगभग बदनसिंह ने वैर का राज्य प्रतापसिंह को प्रदान कर दिया और सूरजमल को युवराज घोषित कर, शेष जाट राज्य का शासन प्रबन्ध उसे सौंप दिया। (सुजान विलास पा० लि० पृ० 134-ब)।

राज्य के इस बंटवारे के बावजूद अगले कुछ वर्ष तक बदनसिंह डीग में राजसभा की अध्यक्षता करता रहा। किन्तु नवम्बर 2, 1745 ई० को अपने प्रियपुत्र प्रतापसिंह की असामयिक मृत्यु से विक्षुब्ध एवं नेत्ररोग की भयंकरता से पीड़ित बदनसिंह ने तत्काल राजकार्यों से पूरी तरह निवृत्त होने का निश्चय किया। इस प्रकार नवम्बर 1745 ई० में युवराज सूरजमल शासन संचालन के पूरे अधिकारों के साथ जाटराज्य का वास्तविक शासक बन गया था। (सुजान चरित्र, पृ० 7-8)।

जदुनाथ सरकार भी लिखते हैं कि बदनसिंह के पिछले वर्षों में भरतपुर का इतिहास वास्तव में सूरजमल का इतिहास है।

भरतपुर की स्थापना

अठारहवीं शताब्दी के शुरु में ठाकुर खेमकरणसिंह सोगरिया ने सोगर तथा आस-पास के गांवों पर अधिकार जमा लिया था। उसने सबसे ऊँची जगह पर एक किला बनवाया और उसका नाम फतहगढ़ रखा। यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि सूरजमल ने आक्रमण करके खेमकरण से सोगरिया किले को जीत लिया था। कहते हैं कि सोगर पर अधिकार करने के बाद एक दिन शाम के समय सूरजमल घोड़े पर सवार होकर आस-पास के जंगलों में निकला। वह एक झील पर जा पहुंचा। वहां एक सिंह और एक गाय बिलकुल पास खड़े पानी पी रहे थे। इस अद्भुत दृश्य का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। निकट ही एक नागा साधु (महात्मा प्रीतमदास) का डेरा था। सूरजमल ने उस महात्मा के पास जाकर उसे प्रणाम किया। महात्मा ने सूरजमल को आशीर्वाद दिया और अपनी राजधानी सोगर में बनाने की सलाह दी, जो वहीं पर बनाई गई*

इस किले को बनाने का काम सन् 1732 ई० में आरम्भ हुआ। एक बार शुरु हो जाने के बाद निर्माण कार्य 60 वर्ष तक रुका ही नहीं। मुख्य किलेबंदियां आठ वर्षों में पूरी हो गयीं। इसमें दो खाइयां भी सम्मिलित थीं, एक तो शहर की बाहर वाली चारदीवारी के पास थी और दूसरी कम चौड़ी, पर ज्यादा गहरी खाई किले को घेरे हुई थी। परिवर्धन, परिवर्तन, रूपान्तर और विस्तार का


(*) - भरतपुर राज्य की पताका तथा चिह्न में “शेर व गऊ” का अङ्क इसी लोक वार्ता का प्रचलित प्रतीक है।


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कार्य सूरजमल से नौवीं पीढ़ी में उसके वंशज राजा जसवंतसिंह (1853-1893 ई०) के राज्य-काल तक चलता रहा।

भरतपुर किले की बनावट - इस किले की बाहर वाली खाई लगभग 250 फुट चौड़ी और 20 फुट गहरी थी। इस खाई की खुदाई से जो मलबा निकला, उसमें 25 फुट उंची और 30 फुट चौड़ी दीवार बनवाई गई जिसने शहर को पूरी तरह घेरा हुआ था। इसमें दस बड़े-बड़े दरवाजे थे, जिनसे आवागमन पर नियन्त्रण रहता था। इनमें से किसी भी दरवाजे से घुसने पर रास्ता एक पक्की सड़क पर जा पहुंचता था, जिसके परे भीतरी खाई थी, जो 175 फुट चौड़ी और 40 फुट गहरी थी। इस खाई में पत्थर और चूने का फर्श किया गया था।

दोनों ओर दो पुल थे, जिन पर होकर किले के मुख्य द्वारों तक पहुंचना होता था। पूर्वी दरवाजे के किवाड़ आठ धातुओं के मिश्रण से बने थे, इसीलिए इसे ‘अष्टधातु द्वार’ कहा जाता है। महाराजा जवाहरसिंह इसे दिल्ली से विजय चिह्न के रूप में लाये थे1। मुख्य किले की दीवार 100 फुट ऊंची थी और उसकी चौड़ाई 30 फुट थी। इसका सामनेवाला भाग तो पत्थर, ईंट और चूने का बना था, बाकी हिस्सा केवल मिट्टी का था, जिस पर तोपखाने की गोलीबारी का कोई असर नहीं होता था। किले के अन्दर की इमारतें दोनों प्रकार की थीं, शोभा की भी और काम आने वाली भी। आठ बुर्ज बनाये गये थे। इनमें सबसे ऊंचा जवाहर बुर्ज था। सभी बुर्जों पर बहुत बड़ी-बड़ी तोपें लगीं थीं बड़ी तोपें सूरजमल ने स्वयं ढ़लवायीं थीं। इन सब तोपों को चलाना या प्रयोग में लाना भी आसान काम नहीं था। 48 पौंड का गोला फेंकने वाली एक तोप ऐसी थी, जिसे खींचने के लिए 40 जोड़ी बैल लगते थे। लूटकर या खरीदकर प्राप्त की गयी अनगिनत छोटी तोपें भी लगीं थीं।

अन्य दुर्ग तथा भवनों का निर्माण

बदनसिंह के पास जन, धन और साधन सभी कुछ था। अपने विशाल भवन-निर्माण कार्यक्रम की देखरेख के लिए उसने जीवनराम बनचारी को अपना निर्माण-मंत्री नियुक्त किया। बांसी, पहाड़पुर से संगमरमर और बरेठा से लाल पत्थर डीग, भरतपुर, कुम्हेर और वैर तक पहुंचाने के लिए 1000 बैल गाड़ियां, 200 घोड़ा गाड़ियां, 1500 ऊंट गाड़ियां और 500 खच्चरों को लगाया गया था। इन चार स्थानों पर भवनों तथा वृन्दावन, गोवर्धन और बल्लभगढ़ में छोटे-छोटे निर्माण कार्यों को पूरा करने में 20,000 स्त्री पुरुष लगभग एक चौथाई शताब्दी तक दिन-रात जुटे रहे। वृन्दावन में सूरजमल की दो बड़ी रानियों रानी किशोरी और रानी लक्ष्मी के लिए दो सुन्दर हवेलियां बनवाईं गईं। दो अन्य रानियों, गंगा और मोहिनी ने पानी गांव में सुन्दर मंदिर बनवाये। अलीगढ़ का किला सूरजमल ने बनवाया। डीग से 15 मील पूर्व में सहार में बदनसिंह ने एक ‘सुन्दर भवन’ बनवाया, जो बाद में उसका निवास स्थान बन गया।

डीग का मुख्य महल ‘गोपाल भवन’ सन् 1745 ई० तक पूरा बन चुका था। कल्पना की


1. महाराजा सूरजमल जीवन और इतिहास, पृ० 46, लेखक कुंवर नटवरसिंह
नोट - प्रारम्भ में यह अष्टधातु फाटक चित्तौड़ दुर्ग पर था, जहाँ से अलाउद्दीन खिलजी उसे विजय स्मारक के रूप में उतारकर दिल्ली ले गया था। (जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 332, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा)।


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विशालता और बारीकियों के सौन्दर्य की दृष्टि से इसका जोड़ मिलना मुश्किल है। ‘गोपाल भवन’ लाल पत्थर का बना हुआ है। ‘गोपाल भवन’ के सामने एक अत्यन्त सुन्दर संगमरमर का झूला है। इसकी संगमरमर की चौकी पर पत्थर की पच्चीकारी की गयी है और उस पर सन् 1630-31 का एक फारसी लेख है। अपने महलों की शोभा बढ़ाने के लिए इतनी सुकुमार, चटकदार और परिमार्जित वस्तु की इच्छा केवल सम्राट् शाहजहां जैसे किसी महान् भवननिर्माता को ही हो सकती थी। इस हिंडोले1 (झूला) को सूरजमल दिल्ली से बैलगाड़ियों पर लदवाकर लाया था। इसके संगमरमर का कहीं से एक टुकड़ा भी नहीं टूटा। यहां तक कि जिस चौकी पर यह झूला बना है, उसके चारों ओर लगा बहुत ही नाजुक संगमरमर का पर्दा भी कहीं से नहीं टूटने पाया।

भारत के ‘गजेटियर’ में ‘थोर्नटन’ ने लिखा है “अपने चरम उत्कर्ष के दिनों में सूरजमल ने वे निर्झर प्रासाद बनवाये, जिन्हें ‘भवन’ कहा जाता है। भारत में सौन्दर्य तथा कारीगरी की दृष्टि से केवल आगरा का ताजमहल ही इनसे बढ़कर है।” जेम्स फर्ग्युसन भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा है कि ये महल अप्सरालोक की कृतियां हैं। (जेम्स फर्ग्युसन, हिस्ट्री ऑफ इंडियन आर्किटेक्चर, पृ० 256)।

राजा बदनसिंह का अन्तिम समय

राजा बदनसिंह के जीवन के अन्तिम दिन अधिकांशतः डीग अथवा सहार (मथुरा से 18 मील उ० पू० में) व्यतीत हुए थे। साहित्य एवं स्थापत्य के प्रति बदनसिंह की प्रारम्भ से ही रुचि रही थी। उसने डीग दुर्ग का सौन्दर्यीकरण किया और उसके बनवाए हुए महल अब ‘पुराने महल’ कहलाते हैं। सहार में, जो उसके जीवन की सन्ध्या में उसकी रुचि का निवास स्थान था, उसने सुन्दर इमारतें बनवाईं एवं वाटिका लगवाई। बदनसिंह स्वयं कवि और कवियों का आश्रयदाता था। उसके रचे हुए कुछ स्फुट छन्द मिलते हैं, जिनमें ‘बदन’ अथवा ‘बदनेश’ लिखा हुआ मिलता है। प्रसिद्ध कवि सोमनाथ को बदनसिंह मथुरा से लाया था और उसे दरबार में सम्मानजनक स्थान देकर सूरजमल का शिक्षक नियुक्त किया था।

बदनसिंह ने नेत्ररोग की भयंकरता से पीड़ित होने के कारण 2 नवम्बर, 1745 ई० को अपने सुयोग्य ज्येष्ठपुत्र सूरजमल को युवराज घोषित कर दिया था जो शासन संचालन के पूरे अधिकारों के साथ जाटराज्य का वास्तविक शासक बन गया था। सूरजमल ने भरतपुर को अपनी राजधानी बनाया। भरतपुर जाटराज्य का संस्थापक राजा बदनसिंह लगभग 11 वर्ष तक नेत्रहीन रहा। उसका 7 जून, 1756 को डीग में स्वर्गवास हो गया।


1. महाराजा सूरजमल जीवन और इतिहास, पृ० 44, लेखक कुंवर नटवरसिंह
आधार पुस्तकें -
1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 319-338, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।
2. जाट इतिहास, पृ० 32-34, लेखक कालिकारंजन कानूनगो
3. महाराजा सूरजमल, पृ० 39-48, लेखक कुंवर नटवरसिंह।
4. महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 44-54, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
5. क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग, पृ० 130-132, लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-660


महाराजा सूरजमल (1707-1763 ई०)

अठारहवीं शताब्दी के सभी इतिहासकारों तथा वृत्तान्त लेखकों ने महाराजा सूरजमल की उत्साहदायिनी योग्यता, प्रतिभा तथा चरित्र की दृढ़ता को स्वीकार किया है। सैय्यद गुलाम अली नकवी अपने ग्रन्थ ‘इमाद-उल-सादात’ में लिखता है कि राजनीतिज्ञता में और राजस्व तथा दीवानी मामलों के प्रबन्ध की निपुणता तथा योग्यता में हिन्दुस्तान के उच्च पदस्थ लोगों में से आसफजाह बहादुर निज़ाम के सिवाय कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। उसमें अपनी जाति के सभी श्रेष्ठ गुण - शक्ति, साहस, चतुराई, निष्ठा और कभी पराजय स्वीकार न करने वाली अदम्य भावना आदि, सबसे बढ़कर विद्यमान थे। परन्तु किसी भी उत्तेजनापूर्ण खेल में, चाहे वह युद्ध हो या राजनीति, वह कपटी मुगलों और चालाक मराठों को समान रूप से मात देता था। संक्षेप में कहें तो वह एक ऐसा होशियार पंछी था जो हर एक जाल में से दाना तो चुग लेता था, पर उसमें फंसता नहीं था। वह जाट जाति का प्लेटो था। (कालिकारंजन कानूनगो, पृ० 34-35)

महाराजा सूरजमल ने जोश, साहस, चतुराई, अटूट दृढ़ता और अजेय स्वभाव के बल पर मुगल साम्राज्य पर सीधा प्रहार किया। चरित्र की उज्ज्वलता, स्वभाव की गम्भीरता, शरीर की सुदृढ़ता और आकृति की प्रभावशालिता इतनी अनुपम थी कि तत्कालीन कोई नरेश उनकी तुलना में नहीं रखा जा सकता। उन्हें जाट जाति में वही स्थान प्राप्त है जो विदेशी जातियों में प्लेटो, नेपोलियन और लूथर को प्राप्त था। (कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री पृ० 434)। आगे यही लेखक पृ० 441 पर लिखते हैं - हिन्दू इतिहासकारों ने उन्हें 18वीं शताब्दी का कनिष्क और मुसलमानों ने अन्तिम हिन्दू प्रतापी नरेश लिखा है। श्रीकृष्ण जैसी नैतिकता और भीम जैसी दृढ़ता इन्हें प्राप्त थी।

महाराजा सूरजमल वास्तव में अपने समय के योद्धाओं में भीम, नीतिज्ञों में कृष्ण और अर्थ शास्त्रियों में कौटिल्य थे। एक मुसलमान यात्री ने तो इन्हें भारत का अन्तिम हिन्दू-सम्राट् लिखा है (ठाकुर देशराज, पृ० 644)

राणा प्रताप, शिवाजी, बन्दा बैरागी और गुरु गोविन्दसिंह की तरह उनकी वीरता और कूटनीति की धाक आज भी इतिहास के पृष्ठों में गूंज रही है। (श्री राजबहादुर, भूतपूर्व केन्द्रीय मन्त्री)।

महाराजा सूरजमल का जन्म सन् 1707 ई० में बसन्तपंचमी के दिन हुआ था। इनके पिता राजा बदनसिंह ने अपने शासनकाल में ही सूरजमल को युवराज घोषित कर दिया था। नवम्बर, 1745 ई० में युवराज सूरजमल शासन संचालन के पूरे अधिकारों के साथ जाटराज्य का वास्तविक शासक बन गया था। अपने पिता राजा बदनसिंह की 7 जून 1756 ई० को मृत्यु हो जाने पर सूरजमल भरतपुर जाटराज्य की गद्दी पर बैठा।

महाराजा सूरजमल ने अपने पिता की तरह अपने राज्य को बढ़ाने के लिए राजनीतिक सिद्धान्त से विवाह किये। राजा सूरजमल की पांच रानियां थीं जिनमें सबमें प्रसिद्ध रानी किशोरी और रानी हांसिया थीं। किशोरी चौ० काशी की पुत्री थी, वह होडल में एक शक्तिशाली व सौभाग्यशाली जाट परिवार का मुखिया था। रानी हांसिया सलीमपुर कलां के एक उच्च जाट


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घराने की पुत्री थी। इस रानी का पुत्र नाहरसिंह था। तीसरी रानी गंगा थी, जिसके दो पुत्र थे – जवाहरसिंहरतनसिंह। ठाकुर गंगासिंह ने अपने ग्रंथ “यदुवंश” में लिखा है कि रानी गंगा चौहान राजपूत थी। रानी कावरिया और रानी खेतकुमारी ने क्रमशः नवलसिंह और रणजीतसिंह को जन्म दिया। रानी किशोरी को कोई सन्तान नहीं थी; उसने जवाहरसिंह को गोद ले लिया जो इसे माता कहता था1

वीरशिरोमणि सूरजमल के राजनीतिक जीवन को हम दो भागों में बांट सकते हैं। कुंवर सूरजमल 7 जून सन् 1756 ई० तक और महाराजा सूरजमल सन् 1756 से 25 दिसम्बर 1763 ई० उनके स्वर्गवास होने तक। इसी क्रम से हम उनकी सैनिक उपलब्धियों का सविस्तार वर्णन करेंगे।

1. कुंवर सूरजमल (1756 ई० तक)

यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि कुँवर सूरजमल ने अपने पिता के शासनकाल में मेवात तथा माण्डू पर अपना अधिकार कर लिया था और सन् 1733 ई० में खेमकरणसिंह की सोगरिया गढ़ी विजय करके अपने राज्य में मिला ली थी।

जाट इलाके के बाहर सूरजमल की सबसे पहली रणयात्रा सन् 1745 ई० के मई मास में हुई, जब वह सम्राट् मुहम्मदशाह के साथ अली मुहम्मदशाह रुहेल के विरुद्ध एक जाट सैन्यदल लेकर गया और “उस लड़ाई में ऐसा लड़ा कि उसकी धाक जम गई2।”

अलीगढ़ के नवाब की सहायता

दिसम्बर, 1745 ई० में कोइल (अलीगढ़) के नवाब साबित खां के पुत्र नवाब फतह अली खां ने मुगल खानज़ाद असदखां से झगड़ा हो जाने पर, सूरजमल से सैन्य सहायता की याचना की। सूरजमल ने फतह अली खां के दूत को सहायता का आश्वासन दिया और शिकार के बहाने जाकर ईखू नामक स्थान पर अधिकार कर लिया। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार फतह अली इस स्थान पर पहुंचा और दोनों के बीच मैत्री समझौता हो गया। जब असद खां ने अलीगढ़ पर आक्रमण किया तो सूरजमल स्वयं युद्धस्थल की ओर चल पड़ा। सन् 1746 ई० के प्रारम्भ में चंदौस के निकट हुए इस युद्ध में जाटसेना ने असद खां की शाही सेना को पराजित किया। असद खां इस युद्ध में मारा गया। चंदौस की लड़ाई से सूरजमल बहुत धन लेकर लौटा और वह अलीगढ़ के इलाके में अपने जाट भाइयों का स्नेहभाजन बन गया। सूरजमल की सक्रिय सहायता एवं शौर्य के बल पर ही फतह अली खां अपनी पुश्तैनी जागीर की रक्षा करने में सफल हुआ। किन्तु फतह अली खां के लिए बहाया गया जाटों का खून व्यर्थ गया। चार वर्ष बाद ही वह सूरजमल की मित्रता एवं सहायता को भूलकर मीरबख्शी सलाबत खां के साथ मिलकर नीमराना में जाटों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ दिखाई देता है। (सियार, पृ० 311-14, सुजान चरित्र, पृ० 50-55)

इसी प्रकार दिसम्बर 1753 ई० में मीरबख्शी इमाद की सहायता से फतह अली खां ने कोइल (अलीगढ़) एवं जलेसर से जाट अधिकार को समाप्त कर दिया था3


1, 2, 3. महाराजा सूरजमल, पृ० 81 और 51, लेखक कुं० नटवरसिंह, महाराजा सूरजमल पृ० 59-60 लेखक डॉ० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; राज्य भरतपुर, पृ० 10, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर; महाराजा सूरजमल, पृ० 11-12, लेखक बलबीरसिंह।


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नोट - चंदौस के इस युद्ध में सूरजमल के साथ सिनसिनवार, खुंटेल, सोगरवार, चाहर, देसवाल, भरंगुर, खिरवार, गोधे, गोधारे, हंगा, भिनवार, डागुर, चाबुक आदि गोत्रों के जाट बहु संख्या में शामिल हुये थे। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 434, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)

राजा ईश्वरीसिंह को सहायता – बागडू (बागरू) का युद्ध (अगस्त, 1748 ई०)

21 सितम्बर, 1743 ई० को सवाई जयसिंह की मृत्यु के साथ ही उसके दोनों पुत्रों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह के बीच उत्तराधिकार का युद्ध शुरु हो गया। माधोसिंह ने अपने मामा उदयपुर के महाराणा जगतसिंह की सैन्य सहायता के बल पर ईश्वरीसिंह के दावे को चुनौति दी। यह गृह-युद्ध कई वर्षों तक चलता रहा, जिसका निर्णय 20 अगस्त, 1748 को बागडू के युद्ध में हुआ।

इस युद्ध में माधोसिंह की ओर मल्हारराव होल्कर, गंगाधर तांतिया, मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह, जोधपुर नरेश, कोटा तथा बूंदी के राजा थे। इन सप्त महारथियों ने माधवसिंह को समर्थन देकर ईश्वरीसिंह को पदच्युत करना चाहा। इस पर ईश्वरीसिंह अकेला पड़ गया, तब उसने ब्रजराज बदनसिंह को पत्र लिखकर तत्काल सहायता की अपील की। राजा बदनसिंह के आदेश पर कुंवर सूरजमल 10,000 चुने हुए घुड़सवार, 2,000 पैदल, 2,000 बर्छेबाज तथा सैंकड़ों रथ और हाथी लेकर कुम्हेर से ईश्वरीसिंह की सहायता के लिए चल पड़ा और जयपुर पहुंच गया। मोती डूंगरी में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मराठों ने भारी शक्ति लगाई किन्तु सूरजमल की जाट सेना के सामने गंगाधर तांतिया और होल्कर की सेनाओं को हार स्वीकार करनी पड़ी। फिर उन्होंने बागडू में, जो जयपुर से 18 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है, अपना मोर्चा लगाया।

ईश्वरीसिंह भी अपनी 30,000 सेना लेकर कुंवर सूरजमल की सेना के साथ बागडू युद्ध-स्थल पर पहुंच गया। ईश्वरीसिंह के विरुद्ध सात राजाओं का संयुक्त मोर्चा बन जाने के कारण यद्यपि युद्ध का सन्तुलन एकपक्षीय जान पड़ता था, किन्तु सूरजमल के नेतृत्व में जाटों की साहसिक भूमिका ने युद्ध का निर्णय उसके पक्ष में करा दिया।

रविवार, 20 अगस्त 1748 ई० को बागडू में दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। भारी वर्षा के बीच तीन दिन तक भीषण संग्राम हुआ। जयपुर सेना के हरावल (अगले भाग) का नेतृत्व सीकर के ठाकुर शिवसिंह शेखावत को दिया गया, सूरजमल केन्द्र में और कछवाहा राजा ईश्वरीसिंह पिछले भाग का नेतृत्व कर रहा था। पहले दिन तोपों की लड़ाई हुई, परन्तु इससे कोई निर्णय नहीं हो सका। दूसरे दिन माधोसिंह का पलड़ा भारी रहा और ईश्वरीसिंह का प्रधान सेनापति सीकर का पराक्रमी सरदार शिवसिंह खेत रहा। तब तीसरे दिन हरावल (अग्रभाग) का नेतृत्व सूरजमल को सौंपा गया। युद्ध शीघ्र ही पूरे वेग के साथ फूट पड़ा। चतुर मराठा सरदार होल्कर ने गंगाधर तांत्या को एक सशक्त सेना के साथ अचानक ईश्वरीसिंह के पृष्ठ भाग की ओर भेजा। गंगाधर फुर्ती से सेना के व्यूह को भेदकर उनियारा के राव सरदारसिंह नरूका पर टूट पड़ा तथा कीलें लगाकर शत्रु की तोपों को नष्ट कर दिया। पराजय को सन्निकट देख हतप्रभ ईश्वरीसिंह ने अपनी आशा सूरजमल को हरावल से बुलाकर गंगाधर पर आक्रमण का आदेश दिया। सूरजमल तुरन्त पलटकर सहायतार्थ उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां एक कठिन संघर्ष के पश्चात्


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वह अर्द्ध-विजित मराठों को वहां से खदेड़ने में सफल रहा। गंगाधर के पीछे हट जाने पर सूरजमल ने टूटे हुए पृष्ठभाग की पुनः स्थापना की और यहां का नेतृत्व पुनः सरदारसिंह नरूका को सौंपकर शत्रु सेना के उमड़ते हुए प्रवाह का सामना करने के लिए हरावल की और लौट पड़ा। संकट के उन गम्भीर क्षणों में जाट कुंवर सूरजमल अद्भुत साहस के साथ लड़ा और उसने अपने हाथ से 50 व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा तथा 108 को घायल किया। (वंश भास्कर पृ० 3517-18)

प्रतापी जाट की प्रतिष्ठा के प्रति द्वेष दिखाए बिना बूंदी का राजपूत कवि सूर्यमल्ल मिश्रण इस स्मरणीय अवसर पर सूरजमल के शौर्य का वर्णन काव्यात्मक शैली में इस प्रकार करता है -

सह्यो भलैंही जट्टनी, जय अरिष्ट अरिष्ट।
जिहिं जाठर रविमल्ल हुव आमैरन को इष्ट॥
बहुरि जट्ट मल्लार सन, लरन लग्यो हरवल्ल।
अंगद ह्वै हुलकर अरयो, मिहिरमल्ल प्रतिमल्ल॥
(वंश भास्कर, पृ० 3518)
“अर्थात् जाटनी ने व्यर्थ ही प्रसव पीड़ा सहन नहीं की। उसके गर्भ से उत्पन्न सन्तान सूरज (रवि) मल शत्रुओं के संहारक और आमेर का शुभचिन्तक था। पृष्ठभाग से वापस मुड़कर जाट ने हरावल में मल्हार से युद्ध शुरु किया। होल्कर भी अंगद की भांति अड़ गया, दोनों की टक्कर बराबर की थी।”

इस प्रकार कुंवर सूरजमल ने ईश्वरीसिंह की निश्चित पराजय को विजय में बदल दिया। इस दुष्कर संघर्ष ने कम दृढ़प्रतिज्ञ मराठों के धैर्य को थका दिया। परिणामस्वरूप होल्कर शान्ति का इच्छुक हुआ और माधोसिंह को उन पांच परगनों से ही सन्तोष करना पड़ा जो उसे उसके जन्म-जात अधिकार की वजह से दिए गए थे। (सुजान चरित्र पृ० 39)।

इस युद्ध के पश्चात् कुंवर सूरजमल की कीर्ति सारे भारत में फैल गई क्योंकि उसने राजपूत सिसोदियों, राठौरों, चौहानों और मराठों को एक ही साथ हरा दिया था। यह बात राजस्थान में क्या, भारत के इतिहास में एकदम विचित्र और अद्वितीय थी1

जाट-मुगल संघर्ष (1748-1753 ई०)

बल्लभगढ़ के बालू (बलराम) जाट को संरक्षण (1749 ई०)

सूरजमल ने शाही राजधानी दिल्ली तथा आगरा के निकट शाही जागीरों पर कब्जा करके वहां पर अपने जातीय लोगों को स्थापित करने और उन्हें पूर्ण संरक्षण प्रदान करके अपने प्रभाव विस्तार की नीति अपनाई। दिल्ली के 20 मील दक्षिण में बल्लभगढ़ के स्थानीय जाट नेता बलराम ने, जो पहले फरीदाबाद का मालगुजार था, सूरजमल का समर्थन पाकर न केवल बल्लभगढ़ के अपने दुर्ग का निर्माण किया, बल्कि फरीदाबाद के स्थानीय मुग़ल अधिकारी जकरिया खान के पुत्र मीर याह्या खान को पराजित करके पलवल एवं फरीदाबाद के शाही परगनों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। तेवतिया गोत्र के जाट बालू या बलराम के नाम पर इसका नामकरण बल्लभगढ़ हुआ2। (तारीखे अहमदशाही; पृ० 23अ)


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कुंवर सूरजमल द्वारा मीरबख्शी सलाबत खान को पराजित करना

20 जून, 1749 ई० को जोधपुर नरेश महाराजा अभयसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के पश्चात् रामसिंह उसका उत्तराधिकारी बना। उसके मामा बख्तसिंह ने उसे चुनौती दी। रामसिंह ने जयपुर के राजा ईश्वरीसिंह से सहायता मांगी। मुगलसम्राट् अहमदशाह (1748-1754) ने बख्तसिंह का समर्थन किया और नवम्बर, 1749 ई० में मीरबख्शी सलामत खान जुल्फ़िकारजंग को 18,000 सेना के साथ उसकी सहायता के लिए भेजा। मीरबख्शी ने निश्चय किया कि वह मेवात के रास्ते जायेगा, जो जाट राजा के अधीन था। उसकी योजना जाटों से आगरा और मथुरा सूबे के उन भागों को भी वापस ले लेने की थी, जिन पर जाटों ने कब्जा कर लिया था। जाटों से निपटने के बाद मीर बख्शी को आगे अजमेर चले जाना था और बखतसिंह से जा मिलना था।

वह पहले तो दस दिन पाटौदी रुका। उसके बाद उसने मेवात को लूटा और जाट-राज्य में नीमराना (पाटौदी से 33 मील द० प० में) के मिट्टी से बने किले पर अधिकार कर लिया। उसने अभिमानपूर्वक सूरजमल के दूत को बात किये बिना ही वापस भेज दिया और सूरजमल को सबक सिखाने का निश्चय किया। जब मीरबख्शी सोभाचन्द सराय3 पहुंचा, तब जाट उसके सिर पर आ धमके। सूरजमल ने अपनी 6,000 द्रुतगामी सेना लेकर जनवरी 1, 1750 ई० के दिन मुग़लों को सब ओर से घेर लिया। जाटों ने बड़ी वीरता और दृढ़ निश्चय के साथ आक्रमण किया और शत्रु के अनेक सैनिकों को मार डाला। मरने वालों में दो प्रमुख सेनाध्यक्ष भी थे - अली रुस्तम खां और हाकिम खां।

सलाबत खान अब सूरजमल के वश में था। इस जाट हमले के कारण वह इतनी निस्सहाय एवं भयावह स्थिति में पहुंच गया था कि उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा पूर्णतया जाट राजा की दया पर निर्भर हो गई। सियार के लेखक का चाचा सैय्यद अब्दुल अली खां जो मीरबख्शी के डेरे में उपस्थित था, कहता है - “सौभाग्य से जाट राजा ने अपनी रक्षा के लिए कदम उठाया था और उसने दूरदर्शितापूर्ण विचार से मीरबख्शी को मारने या गिरफ्तार करने के परिणामों का सामना करना ठीक नहीं समझा, बल्कि दो-तीन दिन तक मुख्य डेरे को मात्र घेरे रखने तक ही अपने को सीमित रखा4।”

तीन दिन बाद सलाबत खां ने सूरजमल से सन्धि की याचना की। सूरजमल ने मीरबख्शी से सन्धि-चर्चा करने का काम अपने किशोर पुत्र जवाहरसिंह को सौंपा। एक सैनिक राजदूत के रूप में कार्य करने का इस तरुण राजकुमार का यह पहला अवसर था। उसने इस कार्य को ऐसे अच्छे ढ़ंग से निभाया कि उसके पिता और दादा को पूरा सन्तोष हुआ।

जाटों ने सन्धि के लिए निम्न शर्तें रखीं और मीरबख्शी ने इन्हें स्वीकार कर लिया -

(1) मीरबख्शी का कोई भी व्यक्ति उनके प्रदेश में पीपल का वृक्ष नहीं काटेगा।
(2) इस क्षेत्र के किसी भी मन्दिर का अपमान नहीं किया जायेगा और न हिन्दुओं की उपासना के सम्बन्ध में किसी तरह की आपत्ति की जायेगी।
(3) सूरजमल ने इस बात का उत्तरदायित्व लिया कि वह अजमेर प्रान्त की मालगुजारी के रूप में राजपूतों से पन्द्रह लाख रुपये लेकर शाही खजाने में दे देगा, बशर्ते मीरबख्शी नारनौल से आगे न बढ़े5

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जाटों को जो लाभ हुए, वे यथेष्ट थे। किसी अमीर-उल-उमरा पर विजय रोज-रोज थोड़े ही मिला करती है! इस सफलता से सूरजमल और उसके जाटों में नया आत्मविश्वास भर गया। जाटों की सैनिक सामर्थ्य प्रमाणित हो गई। इस विजय से सिनसिनवारों को सब जाटों का निर्विदाद नेतृत्व प्राप्त हो गया6

सूरजमल और वजीर सफदरजंग के बीच मित्रता

सन् 1748 में सम्राट् मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद उसका बेटा अहमदशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा जो 1748 से 1754 ई० तक बादशाह रहा। उसने सफदरजंग को वजीर पद पर नियुक्त किया। युवक सम्राट् शासन प्रबन्ध में उतना ही अनभिज्ञ था, जितना कि व्यभिचार में निष्णात। वास्तविक शक्ति राजमाता ऊधमबाई के खोजा जार जाविद खां के शोचनीय हाथों में आ गई थी। यह ऊधमबाई पहले एक नर्तकी थी, और उसे सम्राट् मुहम्मदशाह ने अपनी रानी बना लिया था। जाविद खां और ऊधमबाई, दोनों ने ही साम्राज्य के प्रशासन को एक दुखद मजाक बना डाला था।

साम्राज्य के मीरबख्शी पर विजय प्राप्त करने के कारण सूरजमल की प्रतिष्ठा में जो भारी वृद्धि हुई, उसी का परिणाम था कि वजीर सफदरजंग की इच्छा सूरजमल से मित्रता करने की हुई। वजीर का सन्देश मिलने पर सूरजमल दिल्ली पहुंचा। खिज्राबाद के निकट किशनदास के तालाब पर सफदरजंग व सूरजमल के मध्य भेंट हुई और दोनों में मैत्री-संधि हो गई।

प्रथम अफगान युद्ध में वजीर सफदरजंग का सहयोगी

23 जुलाई, 1750 ई० को वजीर अपनी 30,000 सेना के साथ पठानों के विरुद्ध युद्ध के लिए राजधानी से निकल पड़ा। दस दिन बाद ही जब वह 40 मील की दूरी तय कर चुका था, उसे नवलराय (खुदागंज में उसका प्रतिनिधि) की मृत्यु और खुदागंज की विपत्ति की सूचना मिली। इस कारण पठानों में शक्ति-संघर्ष के लिए सफदरजंग ने मराठा सरदार सिन्धिया, होल्कर तथा सूरजमल जाट सहित अनेक मित्रों को तुरन्त ससैन्य आने का निमन्त्रण भेजा। कुंवर सूरजमल 15,000 घुड़सवारों के साथ वजीर से जा मिला। भदावर का राजा हिम्मतसिंह, घसेरा का राव बहादुरसिंह तथा मैंडू, जावेरखुर्जा के जमींदारों को बुलाया गया। जयपुर के राजा ईश्वरीसिंह की तरफ


1, 2. महाराजा सूरजमल पृ० 60-68, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; जाट इतिहास, पृ० 35-37 व 41-42 लेखक कालिकारंजन कानूनगो; महाराजा सूरजमल पृ० 11-13 और 14-16, लेखक बलबीरसिंह।
1. महाराजा सूरजमल, पृ० 52-54, लेखक कुंवर नटवरसिंह; जाट इतिहास पृ० 636-637, लेखक ठा० देशराज; राज्य भरतपुर, पृ० 11, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।
3. नारनौल से 5 मील पूर्व एवं नीमराना से 13 मील उ० प० में।
4. सियार 111, पृ० 313-14; तारीखे मुजफ्फरी पृ० 32; सुजान चरित्र, पृ० 50-55 ।
5. सियार 111, पृ० 315; तारीखे मुजफ्फरी पृ० 31; सरकार, पतन, 1, पृ० 167 ।
4, 5, 6. महाराजा सूरजमल, पृ० 69-72, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; महाराजा सूरजमल, पृ० 54-56, लेखक कुं० नटवरसिंह; जाट इतिहास, पृ० 37-39, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; महाराजा सूरजमल, पृ० 13-14, लेखक बलबीरसिंह।


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से हेमराज बख्शी 5,000 सेना के साथ पहुंचा। इस प्रकार लगभग एक लाख सेना के साथ वजीर ने अलीगढ़ से प्रयाण करके माहरा, कासगंज रुकते हुए कालिन्दी पार की और बादरी में डेरा लगाया।

दूसरी ओर अहमद खान बंगश को दिल्ली से वजीर की सेना की रवानगी की सूचना मिल चुकी थी। वह भी अपनी 20,000 सेना के साथ आगे बढ़ा। सूरजमल ने अपनी जाट सेना के साथ अहमद खान बंगश की राजधानी फर्रूखाबाद पर अधिकार कर लिया। दोनों ओर की सेनाओं में युद्ध होने लगा। कुंवर सूरजमल सेना के दायें पार्श्व और इस्माइल बेग बायें पार्श्व का संचालन कर रहा था और सफदरजंग मध्य में था। 13 सितम्बर, 1750 ई० को पथरी के स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ। रुहेलों में भगदड़ मच गई। उनका सेनाध्यक्ष रुस्तम खां अफ़रीदी मारा गया तथा 6000 या 7000 अफ़गान मौत के घाट उतार दिये गये। इस तरह से सफदरजंग का पलड़ा भारी था। परन्तु अहमद खान बंगश ने अपने सैनिकों को रुस्तम खां के मरने की खबर नहीं होने दी। उल्टे उसने यह शोर मचवा दिया कि रुस्तम खां ने मोर्चा जीत लिया है। इससे उसके सैनिकों में नया जोश आ गया। उसने उनसे अन्तिम प्रयास करने को यह कहा कि, “नहीं तो हर अफ़रीदी बंगश की दाढ़ी पर मूतेगा।” उन्होंने सफदरजंग की सेना पर जोर का धावा बोल दिया। सफदरजंग बुरी तरह से घायल हो गया, जिसको कैम्प में लाया गया। अहमद खां बंगश ने इससे पहले जो कुछ गंवाया था, न केवल वह सब, बल्कि और भी बहुत कुछ ले लिया। अगले दिन सफदरजंग दिल्ली लौट आया। यह सूचना मिलने पर सूरजमल भी अपनी सेना सहित अपने प्रदेश को लौट आया। (सुजान चरित्र, पृ० 98-99)।

दिल्ली में सफदरजंग की पराजय की खबर सुनकर उसके शत्रु बादशाह से उसके वजीर पद से हटाने की योजना बना रहे थे। वजीर ने दिल्ली पहुंचकर दरबार में चल रहे कपटजाल और षड्यंत्र को समाप्त कर दिया। उसने फिर एक बार अपने प्यारे अवध और इलाहाबाद के सूबों पर नजर डाली, जहां बंगशों का बोलबाला था।

द्वितीय अफगान युद्ध

वजीर सफदरजंग ने सैय्यद अब्दुल अली खां, इस्माइल बेग, राजा लक्ष्मीनारायण, राजा नागरमल आदि मित्रों की सलाह पर सिन्धिया व होल्कर को उनकी सेनाओं के लिए 25,000 रुपये तथा सूरजमल को उसकी जाट सेना के लिए 15,000 रुपये प्रतिदिन देने के आश्वासन पर आमंत्रित किया। (गुलिस्ताने रहमत, पृ० 40, सियार 111, पृ० 295)।

22 जनवरी, सन् 1751 ई० को वजीर अपनी सेना के साथ रुहेलखण्ड पर आक्रमण करने के लिये दिल्ली से रवाना हुआ। मथुरा पहुंचने पर सूरजमल और आगरा पहुंचने पर जियाजीराव सिन्धिया और मल्हारराव होल्कर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ वजीर की सेना में शामिल हो गए। (सुजान चरित्र, पृ० 100, सरकार पतन, 1, पृ० 221)।

अग्रिम सेना के रूप में बीस हजार मराठा घुड़सवार सेना ने आगरा से रवाना होकर 20 मार्च के लगभग कादिरगंज में कोइलजलेसर के बंगश फौजदार शादिल खान पर आक्रमण करके उसे पराजित कर दिया तथा वह गंगा पार भाग गया।


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अहमद खां बंगश जो रामचतौनी की विजय के बाद फर्रूखाबाद सहित अलीगढ़ से लेकर कानपुर तक के विशाल भूभाग पर अधिकार कर चुका था और उस समय इलाहाबाद का घेरा डाले हुआ था, शादिल खान की पराजय का समाचार सुनकर फर्रूखाबाद की रक्षार्थ तुरन्त पहुंच गया। अहमद खान बंगश ने फतहगढ़ के निकट मोर्चाबन्दी की और रुहेला सरदार सादुल्ला खान व बहादुर खान भी उसकी सहायतार्थ पहुंच गए। 18 अप्रैल को होल्कर के सेनापति गंगाधर तांत्या और सूरजमल ने जाट सेना के साथ पठानों पर भीषण हमला किया। घोर युद्ध हुआ, जिसमें बहादुर खान सहित 10,000 रुहेले मारे गये तथा अहमद खान बंगश व सादुल्ला खान अपने प्राण बचाकर भाग गये। वजीर को निर्णायक विजय मिली और मराठों को लूट की विशाल सामग्री। (सरकार, पतन 1, पृ० 220-223, सियार, 111 पृ० 305-307)।

सफदरजंग ने अलीगढ़ से कड़ा तक का प्रदेश मराठों को जागीर के रूप में देकर रुहेलों की बगल में एक ऐसा कांटा गाड़ दिया जो सदा चुभता रहे। उधर अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर हमला कर दिया और 18 फरवरी, 1751 ई० को लाहौर पहुंच गया। उसने दिल्ली पहुंचने की धमकी दी। सम्राट् ने वजीर सफदरजंग को दिल्ली लौटने का आदेश भेजा। दिल्ली लौटकर सफदरजंग ने अपने इन दो संग्रामों में सूरजमल द्वारा दी गयी सहायता की सम्राट् से सिफारिश की। सम्राट् ने वजीर की बात को मानकर सूरजमल को 3,000 जात और 2,000 घुड़सवार का मनसब, उसके पुत्र रतनसिंह को ‘राव’ की उपाधि, और जवाहरसिंह को उसके पहले से विद्यमान पद के अलावा 1,000 जात और 1,000 घुड़सवार का मनसब प्रदान कर दिया। इस प्रकार जवाहरसिंह कुल मिलाकर 4,000 जात और 3500 घुड़सवार का मनसबदार बन गया। (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 37)।

इसके कुछ दिन बाद सम्राट् ने बदनसिंह को ‘महेन्द्र’ की उपाधि देकर ‘राजा’ और सूरजमल को ‘राजेन्द्र’ की उपाधि देकर ‘कुमार बहादुर’ बना दिया। सम्राट् ने सूरजमल को मथुरा का फौजदार बना दिया, इससे उसे आगरा प्रान्त में यमुना के दोनों ओर अधिकांश प्रदेश पर और शहर के पास पड़ौस पर अधिकार प्राप्त हो गया। इस सबके लिए उसे बहुत मामूली-सी वार्षिक भेंट देनी थी। फादर वैण्डल के लेख अनुसार “पूरे समारोह के साथ ‘राजा’ घोषित किए जाने के बाद सूरजमल ने अपना नाम ‘जसवंतसिंह’ रख लिया था, परन्तु वह इस नाम का प्रयोग केवल उन अवसरों पर करता था, जबकि उसके बिना काम ही न चल सके, अन्यथा कभी नहीं। उसका सही नाम जसवन्तसिंह उसकी राजमुद्रा पर अंकित था और यह बात कम ही लोगों को मालूम थी।” सूरजमल का एक अन्य नाम अवश्य था - सुजानसिंह; इसीलिए कवि सूदन ने अपने ग्रन्थ का नाम सुजान-चरित्र' रखा। (कुंवर नटवरसिंह, पृ० 64)।

घसेरा के राव बहादुरसिंह पर आक्रमण (फरवरी-अप्रैल, 1753 ई०)

घसेरा (घासेड़ा) उस समय कोईल के फौजदार बहादुरसिंह बड़गूजर के अधिकार में था। यह नगर दिल्ली से 40 मील दक्षिण की ओर गुड़गांव जिला में है। सन् 1753 ई० के प्रारम्भ में वजीर सफदरजंग ने बहादुरसिंह को कोईल दुर्ग से तोपें हटाने का आदेश दिया जो उसने नहीं माना। इस पर उसे दण्डित करने के प्रश्न पर वजीर ने सूरजमल को बुलाकर विचार-विमर्श किया। दोनों को


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उसकी मित्रता और निष्ठा में सन्देह हो गया था, अतः उस पर आक्रमण करने का निश्चय किया गया। वज़ीर ने इस अभियान की बागडोर सूरजमल को सौंप दी। फरवरी (1753 ई०) के प्रथम सप्ताह में सूरजमल इस युद्ध के लिए दिल्ली से रवाना हुआ और जवाहरसिंह को एक सन्देश भेजकर अधिक से अधिक सेना के साथ अलीगढ़ पहुंचने के लिए कहा। यमुना पार करके रास्ते में जवाहरसिंह अपने पिता के साथ शामिल हो गया। 10 फरवरी को सूरजमल ने अलीगढ़ पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया और बहादुरसिंह को जाकर अपने पैतृक दुर्ग घसेरा (घसेड़ा) में शरण लेनी पड़ी। (तारीखे अहमदशाही, पृ० 47अ; सुजान चरित्र, पृ० 110-111)।

सूरजमल ने घसेरा के उत्तर दिशा के मोर्चे का नेतृत्व जवाहरसिंह को सौंपा। दक्षिण दिशा में बख्शी मोहनराम तथा सुल्तानसिंह एवं वीरनारायण सहित उसके भाई नियुक्त किए। बालू जाट को आवश्यकतानुसार किसी भी मोर्चे पर मदद पहुंचाने के लिए तैयार रखा गया। स्वयं सूरजमल 5,000 बन्दूकचियों एवं तोपखाने के साथ पूर्वी द्वार की ओर चला।

दूसरी ओर राव बहादुरसिंह ने भी अपने 8,000 सैनिकों तथा अन्न व शस्त्र के पर्याप्त भण्डार के साथ युद्ध की काफी तैयारियां कर ली थीं। युद्ध के प्रथम दिन ही पूर्वी द्वार पर राव को पीछे हटना पड़ा और उसका भाई जालिमसिंह तथा पुत्र अजीतसिंह घायल हो गये। राव ने लौटकर गढ़ के भीतर से शत्रु पर भीषण गोलाबारी की। कई दिनों तक भीषण युद्ध होता रहा। राव बहादुरशाह ने अपने घायल भाई जालिमसिंह को सन्धि के लिए सूरजमल के पास भेजा। सूरजमल ने दस लाख रुपये और सारा तोपखाना और गोला बारूद सौंप देने की शर्त पर मोर्चा उठाना स्वीकार किया, किन्तु हठीले राव ने तोपें छोड़ देने की शर्त नहीं मानी।

इस बीच जालिमसिंह की मृत्यु हो गई। सूरजमल ने भी क्रोधित होकर अपनी सेना को सभी मोर्चों पर शत्रु पर भीषण आक्रमण करने का आदेश दे दिया। 22 अप्रैल की रात्रि को भीषण युद्ध हुआ। दूसरे दिन मीर मुहम्मद पनाह सहित 1500 जाटों के खेत रहने के बाद ही जाट सेना दुर्ग में प्रवेश पा सकी। इसी बीच बहादुरसिंह औरतों का कत्लेआम करके, अपने पुत्र अजीतसिंह के साथ हताश सैनिकों के दल के साथ अन्तिम युद्ध के लिए शत्रु पर टूट पड़ा। पिता व पुत्र अन्तिम क्षण तक लड़ते हुए मारे गये और 23 अप्रैल 1753 ई० को घसेरा के दुर्ग पर जाट सेना का अधिकार हो गया और सूरजमल ने इसे अपने राज्य में मिला लिया। (सुजान चरित्र पृ० 140-41 एवं 151; तारीखे अहमदशाही, पृ० 52ब)।

जाटों द्वारा पुरानी दिल्ली की लूट

वजीर सफ़दरजंग ने जाविद खां, जो राजमाता ऊधमबाई का प्रेमी था, को अपने घर खाने पर बुलाकर एक षड्यन्त्र द्वारा मौत के घाट उतरवा दिया। इससे सम्राट्, राजमाता और समूचा शाही घराना सफ़दरजंग का विरोधी बन गया। उस जाविद खां का स्थान सफदरजंग वजीर के सबसे पक्के दुश्मनों, इमाद-उल-मुल्क (गाजी उद्दीन द्वितीय) और मीरबख्शी इन्तिजामुद्दौला, ने ले लिया। सम्राट् ने सफदरजंग को पदच्युत कर दिया, उसकी जागीरें जब्त कर लीं और उससे इलाहाबाद और अवध का उपराजस्व छीन लिया। इस पर सफ़दरजंग ने दिल्ली का घेरा डाल दिया और कुंवर सूरजमल से सहायता मांगी। मार्च 1753 से नवम्बर 1753 ई० तक दिल्ली में गृहयुद्ध होता


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रहा। सूरजमल ने वजीर की पुकार को सुना और एक विशाल सेना तथा 15,000 घुड़सवार लेकर दिल्ली जा पहुंचा। घमासान युद्ध होने लगा। 9 मई से 4 जून के बीच जाटों ने पुरानी दिल्ली को बुरी तरह से लूटा। ‘तारीख-ए-अहमदशाही’ के लेखक के कथनानुसार, “जाटों ने दिल्ली के दरवाजों तक लूटपाट की; लाखों-लाख लूटे गये; मकान गिरा दिये गये और सब उपनगरों (पुरों) में, चुरनिया और वकीलपुरा में तो कोई दीया ही नहीं दिखता था।” इसी समय से जाट-गर्दी (जाटों की लूट) शब्द प्रचलन में आया। इसी तरह अहमदशाह अब्दाली की शाह-गर्दी और पानीपत के युद्ध से पहले मराठों की भाऊ गर्दी प्रसिद्ध है, जो जाट-गर्दी से बहुत बढ़-चढ़ कर थीं1

महाराजा सूरजमल दिल्ली से लाखों रुपये की सम्पत्ति के साथ एक संगमरमर का झूला भी लाया था जो डीग के मुख्य महल ‘गोपाल भवन’ के सामने रखा हुआ है। (देखो, बदनसिंह के भवनों का निर्माण, प्रकरण)।

कवि सूदन लिखता है -
देस देस तजि लच्छिमी दिल्ली कियौ निवास।
अति अधर्म लखि लूट मिस चली करन ब्रजवास॥
(सुजान चरित्र, पृ० 179)

जब कर्मठ इमाद ने एक बार नजीब खां के नेतृत्व में रुहेलों को अपनी ओर कर लिया, तब से सफ़दरजंग का पलड़ा हल्का पड़ गया। तब उसकी आशा एकमात्र सूरजमल पर टिकी थी। सूरजमल अपने साथी मित्र की अन्तिम क्षण तक सहायता करने के लिए कटिबद्ध था, हालांकि स्पष्ट दीख रहा था कि उसका पक्ष हार जायेगा। उसे डराने के लिए इमाद (गाजीउद्दीन) ने मल्हारराव होल्कर को दक्षिण से बुलवाया। उस चतुर जाट ने नये वजीर इंतिज़ामुद्दौला की अपने महत्त्वाकांक्षी भतीजे गाजीउद्दीन के प्रति ईर्ष्या से लाभ उठाया। सूरजमल की कूटनीतिक चाल इतनी सफल रही कि मराठों के आने से पहले ही सम्राट् की ओर से सन्धि का प्रस्ताव भेजा गया। महाराजा माधोसिंह कछवाहा सन् 1753 के अंत में दिल्ली आया था। उसी से मध्यस्थता करने को कहा गया। सूरजमल ने तब तक अपनी तलवार म्यान में रखने से इन्कार कर दिया जब तक कि सफ़दरजंग को वजीर का पद न भी सही, तो भी, अवध और इलाहाबाद के उपराजत्व वापस न दे दिये जायें। अन्त में इन शर्तों पर सन्धि हो गई। नवाब सफ़दरजंग अपने सूबे पर शासन करने चला गया। सूरजमल ने अपने मित्र को लगभग अवश्यम्भावी विनाश से बचा लिया, चाहे इसके कारण गाज़ीउद्दीन की कट्टर शत्रुता मोल लेनी पड़ी। इस शत्रुता का पूरा जोर उसे बहुत शीघ्र ही अनुभव करा दिया गया2


1. सियार, 111, पृ 334; तारीखे अहमदशाही, पृ० 55 ब; इमाद, पृ० 53; सुजान चरित्र, पृ० 163; 179; कुंवर नटवरसिंह, पृ० 67-68; के आर० कानूनगो, पृ० 45; महाराजा सूरजमल, पृ० 87-90, लेखक, डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
2. तारीखे मुजफ्फरी, पृ० 65-75; के० आर० कानूनगो, हिस्ट्री आफ दी जाट्स, पृ० 45-46; महाराजा सूरजमल पृ० 68, लेखक कुंवर नटवरसिंह।


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जाट मराठा संघर्ष (1754-1756 ई०)

16 जनवरी, 1754 ई० को मराठा सेनाएं जाट राज्य पर आक्रमण के लिए जयपुर से चल पड़ीं और जयपुर तथा जाट राज्य की सीमा पर स्थित मौजा जलूथर पहुंचकर डेरा किया। यहां 19 तारीख को दिल्ली से खाण्डेराव और गंगाधर तांत्या आकर शामिल हुए। मल्हारराव के आदेश से खाण्डेराव जब अपनी 4,000 सेना के साथ दिल्ली से लौटते समय मार्ग में मेवात व जाट इलाके को बुरी तरह से लूटने लगा, तो जवाहरसिंह अपनी सेना के साथ उसका सामना करने पहुंच गया। मल्हार व सूरजमल दोनों ने अपने-अपने पुत्रों को युद्ध न छेड़कर डेरों पर लौट आने की सलाह दी। सूरजमल ने रूपराम द्वारा शत्रु के सम्भावित आक्रमण की सूचना मिलते ही दिसम्बर 1753 ई० में डीग, भरतपुर, कुम्हेर और वैर के दुर्गों को युद्ध एवं रक्षा की सामग्री से सुसज्जित कर लिया। 16 जनवरी को डीग में वृद्ध एवं रुग्ण राजा बदनसिंह की अध्यक्षता में एक संकटकालीन दरबार लगा जिसमें सूरजमल, जवाहरसिंह तथा सिनसिनवार, सोगरवार, खूंटेल, नौहवार जाट गोत्रीय प्रमुख सरदारों सहित अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति और राज्य के पदाधिकारी उपस्थित थे। विचार विमर्श करके राजा बदनसिंह ने घोषणा की कि शान्ति के सभी उपाय समाप्त हो चुके हैं और अब केवल युद्ध द्वारा ही राज्य की रक्षा हो सकत्गी है, अतः सब लोग चारों दुर्गों से घनघोर युद्ध करें। (सुजान चरित्र, पृ० 239-240)।

डीग दुर्ग पर जवाहरसिंह, वैर दुर्ग पर सूरजमल का भतीजा बहादुरसिंह, भरतपुर दुर्ग पर शम्भू के पुत्र तथा हरगोविन्द के चारों भाइयों और द्विजराज को नियुक्त करके सूरजमल स्वयं कुम्हेर दुर्ग में चला गया।

कुम्हेर का घेरा (जनवरी-मई, 1754)

कुम्हेर नगर, भरतपुर से डीग जाने वाले मार्ग पर नियंत्रण रखता है। कुम्हेर ही वह स्थान था, जहां सूरजमल ने 80,000 सैनिकों की सम्मिलित मुगल-मराठा सेना का चार मास तक डटकर सामना किया। घेरा सन् 1754 जनवरी मास में शुरु हुआ था जो मई महीने में समाप्त हुआ जिसमें सूरजमल की जीत हुई। इसका वर्णन निम्नलिखित है -

20 जनवरी, 1754 ई० को मराठा सेनाओं ने कुम्हेर के निकट पिंगोरा गांव में अपना शिविर स्थापित करके जाटों के विरुद्ध युद्ध शुरु कर दिया। सूरजमल एक शक्तिशाली सेना के साथ मराठा सेना का सामना करने के लिए मैदान में निकल आया, जहां एक भीषण युद्ध में दोनों पक्षों के सैंकड़ों सैनिक मारे गए। सूरजमल ने रक्षात्मक दृष्टि से कुम्हेर दुर्ग के भीतर रहकर युद्ध करना उचित समझा। मराठों ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। यह घेरा चार महीने 18 मई तक चला। (आमेर रिकार्ड; पेशवा दफ्तर, XXVII, पत्र 104; तारीखे अहमदशाही, पृ० 109 ब)।

मराठों ने दुर्ग पर भारी गोलाबारी व आक्रमण शुरु कर दिया, जाटों ने भी दुर्ग की प्राचीर से निरन्तर गोलाबारी की, जो 15 दिन तक चलती रही, किन्तु दुर्ग अजेय रहा। किन्तु मराठा सैनिक टुकड़ियां जाट प्रदेश में काफी दूर-दूर तक फैल गईं और कुछ ही समय में जाटों के चार दुर्गों (भरतपुर, कुम्हेर, वैर व डीग) को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण जाट प्रदेश पर मराठों का अधिकार हो गया। 3 फरवरी को मराठा सरदार रामाजी ने जाट अधिकारियों को निकालकर आगरा शहर पर


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भी अधिकार कर लिया। (तारीखे मुजफ्फरी, पृ० 83; चहार गुलजार, इलियट VIII, पृ० 155; तारीखे अहमदशाही, पृ० 111 ब)।

कुछ समय के बाद होल्कर के बुलाने पर इमाद गाज़ीउद्दीन अपने सहायक अकीबत और बड़ी मुगल सेना के साथ मार्च के प्रारम्भ में कुम्हेर पहुंचकर मराठा सेना में शामिल हो गया। इमाद व मराठों के संयुक्त प्रयासों के बावजूद किले को लेने के दिन प्रतिदिन के प्रयास निष्फल होते गये और तब मराठों ने महसूस किया कि बिना बड़ी तोपों के कुम्हेर दुर्ग को जीतना कठिन है। अतः मराठों ने इमाद के द्वारा शाही तोपखाने की मांग की। इमाद ने अपने सहायक अकीबत महमूद खान को विशाल तोपें लाने के लिए सम्राट् के पास भेजा। सूरजमल ने सम्राट् एवं वजीर इंतिजामुद्दौला को कूटनीतिक पत्र लिखे कि इमाद मराठों के साथ मिलकर साम्राज्य को नष्ट कर रहा है। अगर उसकी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं को शुरु में ही नहीं कुचला गया, तो उसकी सफलता उसका सिर घुमा देगी। जब वह अपने वृद्ध चाचा इंतिजामुद्दौला को वज़ारत से एक तरफ धक्का देगा और सम्राट् के साथ कटु व्यवहार करेगा तो उसके रास्ते में कौन रुकावट डालेगा? सूरजमल ने शाही तोपें इमाद को न देने का आग्रह करते हुए सम्राट् के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि वह सफदरजंग तथा राजपूताने के राजाओं को आमंत्रित करके उनकी सहायता से सभी के समान शत्रु मराठों को उत्तर भारत से निकाल बाहर करें। सम्राट् ने वजीर से सहमति प्रकट की और जब 16 मार्च को अकीबत दिल्ली पहुंचा तो वजीर ने उसको तोपें देने से मना कर दिया। यही कारण था कि सूरजमल के पत्र एवं वजीर की सलाह ने सम्राट् पर जादू का कार्य किया। शाही मोहरयुक्त पत्र जयपुर व जोधपुर के राजाओं तथा सफदरजंग को भेजे गये। इन पत्रों में उन्हें दक्षिणी कण्टकों से हिन्दुस्तान को मुक्त करने के लिए शाही झण्डे के नीचे अपनी सेनाओं को एकत्र करने के लिए कहा गया था1

मल्हारराव होल्कर के पुत्र खाण्डेराव की मृत्यु

17 मार्च 1754 ई० को मल्हारराव होल्कर के इकलौते पुत्र 30 वर्षीय खाण्डेराव की मृत्यु से मराठा शिविर में सन्नाटा छा गया। घटना के दिन खाण्डेराव, जो अपने मोर्चे दुर्ग की दीवार तक ले जाने में सफल रहा था, पालकी में बैठकर खाइयों का निरीक्षण कर रहा था। अचानक दुर्ग से गोलाबारी शुरु हो गई और एक जम्बूरे का गोला लगने से उसकी वहीं पर मृत्यु हो गई। फलस्वरूप युद्ध कुछ दिनों के लिए स्थगित हो गया। सूरजमल ने भी मल्हार तथा खाण्डेराव के पुत्र मलराव का शोकसूचक वस्त्र भेजकर खेद व्यक्त किया। जहां खाण्डेराव मरा था, वहां एक मंदिर बनवाया गया। 1 अप्रैल, 1754 ई० को युद्ध फिर शुरु हो गया। पुत्र के शोक में क्रुद्ध मल्हार ने प्रतिज्ञा की कि, “सूरजमल का सिर विच्छेद करके कुम्हेर दुर्ग की मिट्टी यमुना में डालूंगा, तभी मेरा जन्म सार्थक होगा, अन्यथा मैं प्राण त्याग दूंगा।” (भाऊ बखर, पृ० 5)।

इस प्रकार प्रतिशोध की ज्वाला में मराठों ने दुगुने वेग से जाटों पर भीषण प्रहार शुरु कर दिए।

ऐसे अवसर पर सूरजमल की चतुर रानी हंसिया ने अपनी उपायकुशलता से अपने पति के


1. के आर० कानूनगो, जाट, पृ० 49-50; फर्स्ट टू नवाब, पृ० 237; सियार 111, पृ० 336; तारीखे अहमदशाही पृ० 114 ब-115 ब; महाराजा सूरजमल, पृ० 110-113, लेखक, डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।


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निस्तेज जीवन में आशा का संचार किया। वह मराठा सरदारों की आपसी स्पर्द्धा और जयप्पा* सिन्धिया की विश्वसनीयता से अवगत थी। अतः शत्रु के शिविर में फूट डालने के उद्देश्य से एक रात्रि को उसने रूपराम के पुत्र तेजराम कटारिया को, सूरजमल की पगड़ी एवं उसके पत्र के साथ, जयप्पा के पास पगड़ी बदलकर उसकी मित्रता एवं संरक्षण पाने की याचना के साथ भेजा। जयप्पा ने सूरजमल की धरोहर को स्वीकार करके एक उत्साहवर्धक पत्र के साथ अपनी पगड़ी भेजी और अपनी सदाशयता के सर्वाधिक पवित्र प्रमाण के रूप में बेल भण्डार से पुष्प भेजे। इस समाचार के प्रकट हो जाने पर मल्हारराव अत्यन्त उदास हो गया।

अब जयप्पा ने रघुनाथराव के पास पहुंचकर उसको जाटों से इस अभियान को बन्द करने को कहा। रघुनाथराव की सलाह पर मल्हारराव ने दुर्ग से अपना घेरा उठा लिया।

इस प्रकार सूरजमल की कूटनीतिक योजना के कारण, मुगल-मराठों की 80,000 सैनिकों की शक्तिशाली सेना चार महीनों तक लगातार कुम्हेर दुर्ग का घेरा डालकर भी उस दुर्ग को जीतने में असफल रही और अन्त में 18 मई, 1754 ई० को शत्रु सेना को घेरा उठाना पड़ा। कुम्हेर में सूरजमल के कार्य की समीक्षा करते हुए फादर वैण्डल लिखता है कि “सूरजमल की धाक इस घेरे के दिनों में और भी बढ़ गयी थी और सारे हिन्दुस्तान पर छा गयी थी; अब उसे यश और प्राप्त हो गया कि वह उन दो सरदारों से, जो अपनी-अपनी सेनाओं में उसके पद के समकक्ष थे, सौदेबाजी करने में और उनसे अपनी मनचाही शर्तें मनवाने में सफल हुआ।” इस घेरे से सूरजमल के सकुशल और अक्षत बच जाने में चरित्र-बल एवं सौभाग्य के साथ-साथ रानी हंसिया के साहसपूर्ण प्रयत्न व चतुराई और रूपराम कटारिया के पुत्र तेजराम कटारिया के संधिवार्ता कौशल से भी बहुत सहायता मिली।

घेरा उठाने के बाद मराठे और इमाद की सेनायें दिल्ली पहुंची। उन्होंने किले पर अधिकार कर लिया और सम्राट् अहमदशाह, उसकी माता तथा रिश्तेदारों को बन्दी बना लिया गया। वजीर इंतिजामुद्दौला को वजारत से हटाकर इमाद गाज़ीउद्दीन स्वयं वजीर बन बैठा और उसके आदेश से सम्राट् अहमदशाह को अंधा कर दिया गया। रविवार, 2 जून, 1754 ई० को अज़ीज़उद्दीन को आलमगीर द्वितीय की पदवी देकर दिल्ली साम्राज्य का सम्राट् घोषित कर दिया गया जो इस पद पर 1759 ई० तक रहा।

वजीर का जाट विरोधी अभियान और नागरमल के शान्ति प्रयास

कुम्हेर का घेरा उठ जाने पर सूरजमल और मराठों में समझौता हो गया। वह इस बात के लिए राजी हो गया कि वह उत्तर भारत में मराठों के कार्यों का विरोध नहीं करेगा और उत्तर भारत में उनके बार-बार होने वाले धावों में बाधा नहीं डालेगा। रघुनाथराव ने सूरजमल को छूट दे दी कि वह आगरा प्रान्त के अधिकांश प्रदेश पर कब्जा कर ले। यह प्रदेश तब तक मराठों के पास था। सूरजमल और जवाहरसिंह ने होडल, पलवल और मेवात पर अधिकार कर लिया। बल्लभगढ़ और घसेरा को वापिस ले लिया और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि मार्च, 1756 ई० में अलवर को अपने नियंत्रण में ले लिया।


1. (*) = जियाजीराव सिन्धिया या जयाजी अप्पा सिन्धिया।


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अब एक नए व्यक्ति ने साम्राज्य के मामलों में प्रवेश किया, जो बाद में बहुत भयानक पुरुष सिद्ध हुआ, वह था - अफगान रुहेला नजीब खां। 7 जून, 1755 ई० में नये वजीर इमाम-उल-मुल्क के आदेश पर नजीब खां उन इलाकों को वापस लेने के लिए निकला, जिन पर गंगा-यमुना के दोआब में सूरजमल ने कब्जा कर लिया था। युद्ध को टालने के लिए राजकीय भूमि के दीवान नागरमल ने एक संधि की रूपरेखा तैयार की। इस डासना की संधि की शर्तें निम्नलिखित थीं -

  1. अलीगढ़ जिले में सूरजमल ने जिन ज़मीनों पर दख़ल किया हुआ है, वे उसी के पास रहेंगीं।
  2. इन प्रदेशों के राजस्व के रूप में 26 लाख रुपया देना तय हुआ। सम्राट् अहमदशाह के शासनकाल में खोजा जाविद खां और वजीर सफदरजंग ने सूरजमल को पहले कुछ जागीरें दीं थीं, परन्तु उन पर कब्जा नहीं दिया। अतः उन जागीरों के बदले वेतन के रूप में 18 लाख रुपये उपर्युक्त राशि में से घटा दिए जायेंगे।
  3. शेष आठ लाख रुपयों में से दो लाख रुपये सूरजमल ने तत्काल नकद दिए और पचास हजार रुपये प्रतिमास शाही खजाने में जमा कराने का वचन दिया।
  4. सूरजमल सिकन्दराबाद के दुर्ग को खाली कर देगा। यह संधि 26 जुलाई, 1755 को हुई थी (तारीखे आलमगीर सानी, पृ० 58)।

‘डासना की संधि’ बेलाग विजय तो नहीं थी, परन्तु इसे बड़ी पराजय भी नहीं कहा जा सकता। कहा जा सकता है कि जोड़ बराबरी का छूटा, जिसमें सारे समय जाटों का पलड़ा भारी रहा।

मराठों के विरुद्ध गोहद राणा की सहायता

भरतपुर से आगे आगराग्वालियर के बीच में गोहद का छोटा-सा राज्य था। इस राज्य का ऐतिहासिक ब्यौरा इस प्रकार से है - यहां का प्रमुख जाटों की देशवाल शाखा के बमरौली परिवार से सम्बन्धित था, जो अपना वंशवृक्ष जेठसिंह से बताते हैं, जिसके पास ग्यारहवीं शताब्दी में बैराठ (अलवर के दक्षिण में) में भूमि थी। बाद में यह परिवार 1165 ई० के लगभग आगरा के निकट बमरौली गांव में बस गया, जिस पर उसने बमरौली नाम धारण किया। मुसलमानों के विरुद्ध राजपूतों का साथ देने के कारण 1505 ई० में इस परिवार को गोहद का प्रदेश और राणा की पदवी मिली थी। सन् 1806 ई० की ब्रिटिश सन्धि के अनुसार यह पूर्व में अधिकृत ग्वालियर और गोहद को खोकर, धौलपुर, बाड़ी एवं राजाखेड़ा को मिलाकर धौलपुर राज्य में परिवर्तित हो गया। इसका मुख्यालय धौलपुर, आगरा के 34 मील दक्षिण में तथा ग्वालियर के 37 मील उत्तर पश्चिम में है। (देखें, हन्टर, इम्पी० गजे० जि० IV, पृ० 276-77, 1885 ई०, शेरिंग, दि ट्राइब एण्ड कास्ट ऑफ राजस्थान, पृ० 76)। वास्तव में गोहद एवं धौलपुर जाट नरेशों का गोत्र भिमरौलिया था जो कि वीरभद्र के पुत्र ब्रह्मभद्र के नाम पर प्रचलित हुआ था और राणा इनकी पदवी थी। भाषाभेद से इनको बमरौलिया कहा गया है। (देखो, प्रथम अध्याय, वीरभद्र की वंशावली)।

गोहद के जाटों ने भरतपुर के जाट राजाओं के समर्थन से अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। मराठों के उत्तर भारत के प्रवेश द्वार चम्बल पर स्थित होने के कारण इस समय यहां के राणा भीमसिंह


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को अपने प्रदेश की रक्षा के लिए उनसे लगातार युद्ध करना पड़ा। सन् 1754 ई० में अन्ताजी माणकेश्वर के नेतृत्व में मराठा सेना ने मार्ग देने के बहाने उसके प्रदेश को उजाड़ दिया और बहुत बड़े भूभाग पर अधिकार कर लिया। मराठा आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए राणा भीमसिंह ने राजा सूरजमल से मैत्री एवं संरक्षण प्राप्त किया। सन् 1755 ई० के प्रारम्भ में जब सूरजमल ने आगरा व दोआब में अधिकृत प्रदेशों की वापसी का अभियान तेज कर दिया था, उसी समय राणा भीमसिंह के नेतृत्व में गोहद के जाटों ने मराठों से अपने प्रदेश को मुक्त करा लिया और आगे बढ़ते हुए ग्वालियर के किले पर भी अधिकार कर लिया था। इस समय मुख्य मराठा सेना दिल्ली के निकट तथा दोआब की ओर थी, इस कारण विट्ठल सदाशिव के नेतृत्व में एक मराठा सेना इधर भेजी गई, जिसने गोहद के जाटों पर आक्रमण करके उन्हें पीछे हटने पर मजबूर किया। इस पर राणा ने अपने सरदार फतहसिंह को सूरजमल के पास सहायतार्थ भेजा। जुलाई में सूरजमल ने 500 घुड़सवार और 2000 पैदल सैनिक उसके साथ रवाना कर दिए। भरतपुर की सेना के पहुंचते ही अगस्त में एक बड़ा युद्ध हुआ, जिसमें मराठा सेना बुरी तरह पराजित हुई। विट्ठल सदाशिव ने सेना की पुनर्व्यवस्था के बाद जाटों से फिर भयंकर युद्ध किया। सितम्बर में प्रमुख जाट सरदार फतहसिंह के मारे जाने पर जाट सेना मैदानों से हटकर जंगलों में चली गई। जाटों के छापामार संघर्ष से सदाशिव की सेना साहस छोड़ बैठी1

दिल्ली से अतिरिक्त सेना के पहुंचने पर गोपाल गणेश के नेतृत्व में एक मराठा सेना जाटों को पराजित करके ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार करने में सफल रही। किन्तु गोहद का एक बड़ा भूभाग अभी भी जाटों के अधिकार में था, जिसको मराठा सेना अपने अधिकार में लेने में असफल रही। सूरजमल, जिसका रघुनाथराव के साथ समझौता था, अपनी सद्भावना का उपयोग करके नवम्बर 1755 ई० के अन्त में गोहद के झगड़े को शान्तिपूर्वक निपटाने में सफल हुआ।


2. महाराजा सूरजमल (7 जून 1756 ई० से 25 दिसम्बर 1763)

राजा बदनसिंह का 7 जून, 1756 ई० को डीग में स्वर्गवास हो गया। उसके बाद उसका सुयोग्य पुत्र सूरजमल विधिवत् भरतपुर की गद्दी पर बैठा। इससे जाटराज्य के प्रबन्ध में कोई परिवर्तन नहीं आया, क्योंकि शासन संचालन का उत्तरदायित्व पहले ही सूरजमल के हाथों में था। अब कुंवर सूरजमल की बजाय इनको महाराजा सूरजमल लिखा जायेगा।



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कुंवर जवाहरसिंह का विद्रोह

महाराजा सूरजमल के सामने जो विपत्ति आई, वह जवाहरसिंह की अधीरता एवं उसके दुर्बुद्धि सलाहकारों की अहितकारी सलाह का परिणाम था। जवाहरसिंह बड़ा दिलेर एवं पराक्रमी युवक था, किन्तु वह हठी एवं उतावला था। उसमें आत्मसंयम तथा दूरदर्शिता का अभाव था। वह अपने पिता के शान्त स्वभाव के विपरीत उग्र स्वभाव का था। सूरजमल शक्ति और सम्पत्ति से सम्पन्न होकर भी एक साधारण किसान का जीवन व्यतीत करता था, किन्तु जवाहरसिंह का चरित्र ठीक


1. पेशवा दफ्तर, न्यु सिरीज जि० 1, पत्र, 175; पेशवा दफ्तर, जि० xxix; पत्र 60; पेशवा दफ्तर, 11 पत्र 45.


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इसके विपरीत था। वह बहुत विलासी और अपव्ययी था। उसे उसके स्वार्थी चाटुकारों ने घेर लिया था और उन्होंने उसे अपने कठोर तथा मितव्ययी पिता के विरुद्ध उकसाया। ये लोग उससे उसकी आय से अधिक खर्च करवाने लगे। सूरजमल को फिजूलखर्ची बिल्कुल पसन्द नहीं थी। जवाहरसिंह को खुश करने के लिए उसने उसे डीग का किलेदार (कमांडेंट) बना दिया। उसके पिता ने उसे सलाह दी कि कि अच्छे साथियों की संगति में रहे, परन्तु उसने उस पर ध्यान नहीं दिया। अनिवार्यतः भरतपुर दरबार दो गुटों में बंट गया। एक गुट के नेता वयोवृद्ध बलराम और मोहनराम। बलराम सूरजमल का साला था जो सेना का अध्यक्ष और भरतपुर का राज्यपाल था। मोहनसिंह वित्त तथा राजकीय तोपखाने का अध्यक्ष था। वे और जवाहरसिंह एक-दूसरे को फूटी आंखों नहीं देख सकते थे। वे दोनों प्रभावशाली पुरुष थे, जिनकी बात सूरजमल और रानी हंसिया सुनते और मानते थे। युवक सामन्त इस वृद्ध गुट की गतिविधियों को पसंद नहीं करते थे और वे जवाहरसिंह की ओर आकर्षित हो गए। इनमें ठाकुर रतनसिंह, ठाकुर अजीतसिंह, राजकुमार रतनसिंह और जवाहरसिंह की माता रानी गंगा भी शामिल थी। तीसरे गुट की नेता थी रानी किशोरी। इसका प्रमुख सदस्य था रूपराम कटारिया। इस गुट ने पिता और पुत्र में मेल कराने की भरसक चेष्टा की, परन्तु विफल रहा। एक और सक्रिय सामंत था, गाड़ौली गांव का सरदार ठाकुर शोभाराम। वह बड़ा धनी था और समय-समय पर जवाहरसिंह को बड़ी-बड़ी धनराशियां भेंट करता रहता था। एक बार सूरजमल द्वारा रुपया देने से इन्कार किए जाने पर जवाहरसिंह ने खर्च के लिए अपने चाचा शोभाराम से सात लाख रुपये लिए। (बृजेन्द्र वंश भास्कर पृ० 68-70)।

अपने जीवन में पहली बार सूरजमल ने कच्ची बाज़ी खेली और यह इशारा दिया कि उसका उत्तराधिकारी नाहरसिंह बनेगा। “सूरजमल ने यह ठीक ही भांप लिया था कि उसका पुत्र जवाहरसिंह जाटों के विनाश का कारण बनेगा।” अपने पिता का यह निर्णय जवाहरसिंह को एकदम अमान्य था। अतः उसने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इसके लिए बढ़ावा उसके साथी युवक सामन्तों ने दिया। सूरजमल ने अपनी सेना सहित अपने विद्रोही पुत्र पर चढ़ाई कर दी, जो उस समय डीग दुर्ग में था। जवाहरसिंह ने डीग के किले से निकलकर सूरजमल की सेना पर आक्रमण किया। शहर के परकोटे के नीचे जमकर युद्ध हुआ, जिसमें गोली, भाला तथा तलवार से जवाहरसिंह के तीन घाव लगे और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। घाव के कारण उसकी एक भुजा सदा के लिए निर्बल और एक टांग लंगड़ी हो गई। सूरजमल अपने स्नेह को रोक नहीं सका और उसे देखने गया। वह अपने साहसी एवं युद्धानुभवी पुत्र को खोना नहीं चाहता था। उसने उसे क्षमा कर दिया और इस प्रकार नवम्बर 1756 ई० में यह गृहकलह समाप्त हो गया1

महाराजा सूरजमल और अब्दाली (1756-1757 ई०)

नवम्बर 1756 ई० में कन्धार के बादशाह अहमदशाह दुर्रानी ने हिन्दुस्तान पर चौथी बार आक्रमण किया। मुगल सम्राट् आलमगीर द्वितीय, अपने वजीर इमाद-उल-मुल्क की महत्त्वाकांक्षाओं का बन्दी बन चुका था। अमीर-उल-उमरा नजीबुद्दौला ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए वजीर


1. वैण्डल पृ० 73; सीतामऊ प्रतिलिपि, पृ० 377; सरकार, पतन, 11, पृ० 273-274; महाराजा सूरजमल, पृ० 127-128, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; महाराजा सूरजमल, पृ० 82-83, लेखक कुं० नटवरसिंह।


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तथा उसके मराठा सहायकों के विरुद्ध अब्दाली को आमन्त्रित कर हिन्दुस्तान के अफगानों द्वारा उसके समर्थन का आश्वासन दिया। 9 दिसम्बर को जब राजधानी में खबर पहुंची कि अब्दाली को सिन्धु नदी पार किए 13 दिन व्यतीत हो गए हैं, तो दिल्ली में भगदड़ मच गई। हजारों लोगों ने भागकर मथुरा व निकटवर्ती इलाकों में आश्रय लिया। पंजाब को लूटता हुआ अब्दाली 19 जनवरी 1757 ई० को दिल्ली के निकट पहुंच गया। 19 जनवरी 1757 ई० को अब्दाली ने अपने कैम्प में सम्राट् आलमगीर द्वितीय को बुलाकर दोनों सम्राटों ने एक सम्मिलित सार्वजनिक दरबार लगाया। अब्दाली के नाम के सिक्के जारी किये गये। वजीर इमाद से एक करोड़ रुपये ले लिये गये और उसके स्थान पर इन्तिजामुद्दौला को नियुक्त कर दिया। इमाद को अपने साथ बन्दी बनाए रखा, ताकि वह अपने मराठा मित्रों को न बुला सके। (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 75; तारीख आलमगीरी सानी, पृ० 85, 87-88 अ; सरकार, पतन, 11, पृ० 56-57, गण्डासिंह दुर्रानी, 158-60)।

इसके बाद दिल्ली की यातना शुरु हुई। अब्दाली ने निर्दोष लोगों के कत्लेआम का आदेश दिया। पूरे एक महीने तक उसने राजधानी में आतंक फैलाये रखा। यह सन् 1739 में नादिरशाह की पुनरावृत्ति थी।

29 जनवरी, 1757 ई० को दुर्रानी के सेनापति जहान खान ने सरवर खान के नेतृत्व में एक सैनिक दल फरीदाबाद का रास्ता अवरुद्ध करने भेजा, किन्तु मराठों व जाटों ने उसे पराजित कर दिया। एक फरवरी को सेनापति जहान खान के नेतृत्व में 20,000 सशक्त सेना ने फरीदाबाद के निकट अन्ताजी माणकेश्वर की मराठा और सहयोगी जाट सेना पर भयंकर आक्रमण किया। लगभग 1000 सैनिक खोने के बाद अन्ताजी सूरजमल के प्रदेश मथुरा की ओर भाग गया। अफगान सैनिकों ने फरीदाबाद नगर में आग लगा दी और 700-800 जाट व मराठा सैनिकों के सिरों के साथ लौटे, जहां अब्दाली ने उन्हें प्रति सिर आठ रुपया इनाम दिया। (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 81-82; पेशवा दफ्तर XXI, पत्र 99)।

अन्ताजी माणकेश्वर के साहसिक प्रतिरोध की इस निर्णायक पराजय के बाद, जब तक अब्दाली भारत में रहा, मराठों ने उसके साथ शक्ति परीक्षण का दुःसाहस नहीं किया।

सूरजमल की नीति - अब्दाली के इस आक्रमण के दौरान हिन्दुस्तान की शक्तियों में एकमात्र सूरजमल ही ऐसा व्यक्ति था, जिसने मित्रविहीन होते हुए भी राजनीतिक सूझ-बूझ, साहस एवं नीति कुशलता का प्रमाण दिया। उस समय सूरजमल साम्राज्य के वजीर और शक्तिशाली मराठों की शत्रुता से जूझ रहा था और राजपूताना के शासक विशेष रूप से माधोसिंह, अब्दाली का स्वागत करने की तैयारियां कर रहे थे। वास्तव में हिन्दुस्तान पर अब्दाली के अभियान का मार्गदर्शक नजीब खां ही था।

कन्धार से अब्दाली और दक्षिण से रघुनाथराव के नेतृत्व में मराठा सेनायें एक साथ रवाना हुई थीं। दोनों को दिल्ली एक साथ पहुंचना चाहिए था। रघुनाथराव अब्दाली से टक्कर लेने से हिचकता था और यह आशा लगाये बैठा था कि अब्दाली जाटों और मुग़लों को कुचल डालेगा, तब हम आसानी से दिल्ली की गद्दी प्राप्त कर लेंगे। यही कारण था कि वह दिल्ली से दूर ही रहा। जब दूरस्थ प्रान्त जोधपुर, जयपुर आदि के शासकों ने भयभीत होकर समर्पण कर दिया, तो विशाल अफगान सेना (साठ-सत्तर हजार) के मुकाबले 15,000 जाट सेना के साथ महाराजा सूरजमल


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राजधानी दिल्ली के ठीक पड़ौस में होने के नाते क्या रुख अपना सकता था? वह बड़ी चतुराई, सूझ-बूझ तथा साहस से शत्रु के सामने झुका नहीं। (पेशवा दफ्तर, XXI, पत्र 101)

महाराजा सूरजमल अन्य लोगों की भांति कायरतापूर्ण समर्पण के पक्ष में नहीं था। इसीलिए उसने अपने साहसी पुत्र जवाहरसिंह को बल्लभगढ़ में तैनात करके स्वयं ने मथुरा के निकट मुडसान (मुरसान) में डेरे लगाकर अब्दाली की गतिविधियों पर नजर रखने का निश्चय किया। 31 जनवरी, 1757 ई० को अब्दाली ने अपने दूत सूरजमल के पास इस सन्देश के साथ भेजे कि वह शाह के समक्ष उपस्थित होकर नजराना (भेंट) पेश करे और उसके झण्डे के नीचे सेवा करे। उसे यह भी कहा गया कि वह नागरमल सहित दिल्ली के सम्पन्न शरणार्थियों को तुरन्त लौटा दे। इस पर सूरजमल ने कूटनीतिक भाषा में उत्तर भेजा - “जब अग्रणी जमींदार शाही दरबार में उपस्थित हो चुके हैं, मैं भी शाही दरबार में आऊंगा। मैं राजा नागरमल और दूसरे लोगों को कैसे भेज सकता हूं जिन्होंने मेरे पास शरण पाई है।” (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 81; गण्डासिंह, दुर्रानी, पृ० 172; फ्रैंकलिन लिखता है कि दिल्ली में प्रवेश करते ही अब्दाली ने सभी राज्यों को पत्र भेजे कि वे आकर शाह को नज़राना भेंट करें। जाटों के अलावा सभी ने आज्ञापालन किया, अतः जाटों के विरुद्ध उसने हथियार उठाने का निश्चय किया। शाह आलम, पृ० 6)।

महाराजा सूरजमल द्वारा बाद में किए गए अब्दाली के सफल प्रतिरोध से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि रघुनाथराव शीघ्रता-पूर्वक आगे बढ़ता और ईमानदारी के साथ जाटों के सहयोग से विदेशी आक्रान्ता का मुकाबला करता, तो देश को भयंकर विनाश एवं दुर्दशा से बचाया जा सकता था। किन्तु रघुनाथराव और होल्कर ने जान-बूझकर आगे बढ़ने में देरी की, क्योंकि अब्दाली से युद्ध करने की उनकी इच्छा नहीं थी। उनका विचार था कि जब अब्दाली जाट वगैरह को कुचलकर वापस चला जाएगा, तब दिल्ली पहुंचकर वे आसानी से अपने राजनैतिक विरोधियों को परास्त करके साम्राज्य की व्यवस्था अपने हाथ में ले सकेंगे।

अब्दाली का जाट विरोधी अभियान

फरवरी, 1757 के तीसरे सप्ताह में जब अब्दाली जाटों पर आक्रमण का निश्चय कर चुका था तो बल्लभगढ़ पर अधिकार करने के लिए उसके सैनिक आगे बढ़े। अफगान अग्रिम सैन्य दल पर जवाहरसिंह ने पांच-छः हजार सवारों के साथ बल्लभगढ़ से निकलकर आक्रमण किया और उनके 150 घोड़े छीनकर ले गया। शाह ने उसी रात्रि को अब्दुल समद खां को बड़ी सेना के साथ घटना स्थल पर भेजा। उसने घात लगाकर जवाहरसिंह को पूरी तरह से जाल में फंसा लिया। उसके अनेक सैनिक मारे गये और छीना हुआ कुछ हिस्सा बरामद हो गया। किन्तु जाट राजकुमार चतुराई से इस फन्दे से बाहर निकलकर बल्लभगढ़ के दुर्ग में जा पहुंचा। अफगान सैनिकों ने अनेक गांवों को नष्ट किया और 500 सिरों के साथ दिल्ली लौटे। (गण्डासिंह, दुर्रानी, पृ० 173; कानूनगो, जाट पृ० 54-55)

बल्लभगढ़ पर अधिकार

22 फरवरी, 1757 ई० को अहमदशाह ने जाटों पर आक्रमण के लिए दिल्ली से कूच किया।


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26 फरवरी को शाह बल्लभगढ़ के निकट पहुंचा। 26 फरवरी की रात्रि को जब जाटों ने शाह की सेना पर हमला करके अनेक सैनिकों को मार डाला और घायल कर दिया, तो अब्दाली ने बल्लभगढ़ को जीतने का निश्चय किया। इसी रात्रि को अब्दाली ने अपने सेनापति जहान खान और नजीब खां को 20,000 सेना के साथ, इस निर्देश के साथ आगे रवाना किया कि “इन दुष्ट जाटों के प्रदेश को रौंद डालो। उनके प्रत्येक कस्बे और जिले को लूटो और लोगों को मौत के घाट उतार डालो। हिन्दुओं के पवित्र नगर मथुरा को तलवार से बिल्कुल साफ कर दो। आगरा तक एक भी स्थान मत छोड़ो।” शाह ने अपनी सेना को एक सामान्य आदेश दिया कि वे जहां भी पहुंचें, खूब लूटें और मारें। लूट की सम्पत्ति उनकी मानी जायेगी और काफ़िरों के सिर काटकर लाने वाले को प्रति सिर पांच रुपये दिये जायेंगे। (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 87-88; तारीखे आलमगीर सानी, पृ० 103 अ; इण्डियन एण्टीक्वेरी 1907 ई०, पृ० 58-59)।

जवाहरसिंह, जो 28 फरवरी की रात्रि को बल्लभगढ़ के किले में पुनः दाखिल हो गया था, के नेतृत्व में जाटों ने बहुत बहादुरी से किले की रक्षा की। जाटों के शौर्य और साहस को देखकर शाह भी ठिठका। शाह ने चार हजार मुगलों को याह्या खान के नेतृत्व में दिल्ली से शाही तोपखाने लाने के लिए भेजा और स्वयं ने बल्लभगढ़ के घेरे का निर्देशन किया। अब्दाली तोपों ने दुर्ग पर ऐसी विनाशक अग्निवर्षा की कि उन्होंने दुर्ग प्राचीर से चलाई जाने वाली बन्दूकों और जम्बूरों पर पूर्ण नियन्त्रण पा लिया। तीन दिन के भीषण युद्ध के बाद जाटों का यह दुर्ग, जो उनके अपने सुदृढ़ दुर्गों में सबसे कमजोर था, अरक्षित हो गया। फलस्वरूप 3 मार्च की रात्रि को जवाहरसिंह क़िज़िलबाश (नादिरशाह के सैनिक जो वह दिल्ली में छोड़ गया था) की वेशभूषा पहनकर शाह के सैन्य दल के बीच से अपने कुछ साथियों के साथ यमुना की ओर निकल गया। 4 मार्च को प्रातःकाल अफ़गान सेना ने हमला करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और किले में सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। दुर्ग में उनको 12,000 रुपया नकद, सोने चांदी के बर्तन, 14 घोड़े, 11 ऊंट और भारी मात्रा में अनाज व कपड़ों का भण्डार मिला (तारीखे आलमगीर सानी, पृ० 103ब; तजकिरा-ए-इमाद, पृ० 240; सियार 111, पृ० 352; गण्डासिंह, दुर्रानी, पृ० 176)।

कुंवर जवाहरसिंह का अब्दाली सेना के साथ चौमुहा का युद्ध

अहमदशाह अब्दाली के दिल्ली से रवाना होने की सूचना मिलने पर जवाहरसिंह को मथुरा में तैनात कर, महाराजा सूरजमल डीग, कुम्हेर, वैर, और भरतपुर के किलों की मोर्चाबन्दी में लग गया था। 26 फरवरी, 1757 ई० की रात्रि को नजीब खान के निर्देशन में और सेनापति जहान खान के नेतृत्व में 20,000 अफगान सेना मथुरा के लिए रवाना हो चुकी थी। इसकी सूचना मिलने पर जवाहरसिंह 5000 जाट सेना के साथ आक्रमणकारियों का रास्ता रोकने के लिए मथुरा के 8 मील उत्तर में चौमुहा गांव के बाहर पहुंच गया। मराठों ने हिन्दुओं की पवित्र नगरी मथुरा की रक्षार्थ रक्त की एक बूंद भी नहीं बहाई। अन्ताजी माणकेश्वर, शमशेर बहादुर, नारोशंकर आदि मराठा सरदार पहले से ही आगरा की ओर पलायन कर चुके थे। (पेशवा दफ्तर, XXI, पत्र, 107)।

परन्तु जाट किसानों ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि आक्रमणकारी उनकी लाशों पर होकर ही ब्रज में प्रवेश कर सकेंगे। 28 फरवरी को सूर्योदय से लेकर 9 घण्टे तक घोर संग्राम हुआ। अल्प


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संख्या में होते हुए भी जाटों ने प्राणों की बाजी लगाकर अद्भुत शौर्य का परिचय दिया। दोनों पक्षों के हजारों सैनिक मारे गए और अनेकों घायल हुए।

अन्त में जवाहरसिंह बची-खुची जाट सेना के साथ 28 फरवरी को बल्लभगढ़ के दुर्ग में चला गया और अफगान विजेता ने मथुरा में प्रवेश किया। राजवाड़े द्वारा संग्रहीत एक पत्र के अनुसार “जाटों की 5000 सेना मथुरा नगर में अब्दाली की सेना से बड़ी वीरता के साथ लड़ी। परन्तु शत्रु की अधिक संख्या के कारण हार गई। 3000 जाटों ने वीरगति प्राप्त की और 2000 जाट भाग निकले। शत्रु के भी बड़ी संख्या में सैनिक मारे गये।” (मराठांच्या इतिहासांची साधनें, जि० 1, पत्र 63; तज़किए-ए-इमाद, पृ० 240)।

मथुरा की लूटमार और नरसंहार

1 मार्च 1757 ई० को प्रातःकाल अफगान सेना एकाएक मथुरा नगर में घुस गई। उन्होंने चार घण्टे तक लूट, हत्या व बलात्कार का नंगा नाच किया। हिन्दुओं के खून से श्रीकृष्ण की जन्मस्थली लाल हो गई। यहां के अधिकांश निवासी ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के थे, जिनमें प्रतिरोध की शक्ति नहीं थी। मूर्तियों को खण्डित करके गेंद की तरह पैरों से इधर-उधर उछाला गया। मथुरा नगरी होली की तरह जलने लगी। 3000 लोगों के रक्त से तृप्त होकर, नजीब खान को नगर निवासियों से एक लाख रुपया वसूल करने का आदेश देकर, जहान खान उसी रात्रि को वहां से कूच कर गया।

नजीब की सेना ने तीन दिन तक मकानों को खोद-खोदकर लूटा और अनेक पाश्विक कार्य किए। वह बहुत सी सुन्दर स्त्रियों को पकड़कर ले गया। अनेक औरतों ने यमुना नदी और घरों के कुओं में कूदकर अपमान से बचने के लिए मृत्यु का सहर्ष आलिंगन किया। गुलाम हुसैन सामिन के अनुसार “नरसंहार के बाद सात दिन तक यमुना का पानी लाल और फिर सात दिन तक पीला रहा। तट के समीप प्रत्येक कुटी में साधुओं का एक नरमुण्ड और एक मरी हुई गाय का सिर रस्से से बांध कर डाले हुए थे।” (तारीखे आलमगीर सानी, पृ० 106-अ एवं 109-ब; सियार 111, पृ० 352; पेशवा दफ्तर, जि० XXI, पत्र 107; राजवाड़े, 1, पत्र 63; सरकार पतन 11, पृ० 73-74)।

गोकुल और वृन्दावन में कत्लेआम

6 मार्च, 1757 ई० को अफगान सेनापति जहान खान पूरे रास्ते लूट और हत्या करता हुआ मथुरा से 7 मील दक्षिण में वृन्दावन जा पहुंचा। यहां शान्त और निरपराध वैष्णव भक्तों का घोर संहार किया। सामिन ने यहां का वर्णन करते हुए लिखा है, “जहां कहीं टकटकी लगाओ, सिर्फ कटे हुए सिरों के ढेर नजर आएंगे। भारी संख्या में पड़े हुए शवों और छितरे हुए खून के कारण मार्ग बहुत कठिनाई से ही निकल पाता है। एक स्थान पर जहां हम पहुंचे, हमने 200 मृत बच्चों का ढेर देखा। एक भी मृतक शरीर पर सिर नहीं था। हवा में सड़ान्ध और दुर्गन्ध इतनी थी कि मुंह खोलना व सांस लेना काफी कष्टदायक था।” (सामिन, पृ० 62; ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास, पृ० 514, लेखक कवि वृन्दावनदास)।

इस बीच अहमदशाह अब्दाली अपनी मुख्य सेना के साथ बल्लभगढ़ से 25 मार्च को मथुरा पहुंचा। यहां पर मृत लोगों की दुर्गन्ध से बचने के लिए उसने यमुना पार करके पश्चिमी तट पर


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महावन में अपना शिविर स्थापित किया। उसके दो मील पश्चिम में गोकुल था, जो नागा साधुओं का आश्रय स्थल था। अब्दाली ने अपना एक सैन्य दल गोकुल को लूटने के लिए भेजा। 4000 नागा वैरागी त्रिशूल व भालों के साथ अपनी देव प्रतिमा की रक्षार्थ गोकुल के बाहर आ डटे। एक भीषण युद्ध में लगभग 2000 वैरागी इतने ही शत्रुओं का संहार करके वीरगति को प्राप्त हुए। अफगान सेना वापस हट गई और इस तरह से गोकुल बच गया। (सामिन, पृ० 61; सरकार पतन, 11, पृ० 74; कानूनगो, जाट, पृ० 55-57))।

आगरा की लूट

अब अब्दाली ने जहान खान और नजीब खान को धन प्राप्ति के लिए आगरा भेजा। 21 मार्च, 1757 ई० को प्रातःकाल जहान खान ने आगरा पर धावा बोल दिया। अफगान सेना शहर में घुस पड़ी और लूट तथा हत्या शुरु कर दी, जिसमें 2000 व्यक्ति मारे गए। आगरा दुर्ग को लेने के अफगान सैनिकों के प्रयास मिर्जा सैफुल्ला के उत्कृष्ट बचाव के कारण व्यर्थ रहे, जिसने दुर्ग की तोपों से गोलीबारी का संचालन इतनी अच्छी तरह से किया कि आक्रमणकारियों का आगे बढ़ना असम्भव हो गया। 23 मार्च को जहान खान को शाह का एक अत्यावश्यक संदेश मिला, जिसमें उसे शीघ्र मथुरा पहुंचने के लिए कहा गया। जहान खान की सेना 24 मार्च को आगरा से लौट गई।

अब्दाली के अत्याचारों की विभीषिका (भय प्रदर्शन)

अब्दाली की सेनाएं जिधर से गुजरीं, उधर ही लूटमार, कत्लेआम और अत्याचार करती गईं। 3 मार्च 1757 ई० के शाह के लूटमार एवं कत्लेआम के आदेशानुसार प्रत्येक सवार लूट के माल को घोड़ों पर लादकर उस पर लड़कियों व दासों को बैठा देता था। इनके ऊपर कटे हुए सिरों की गठरियां रख देते थे। फिर ये सिर भाले पर टांगकर वजीर के सामने पुरस्कारार्थ पेश किये जाते थे। इस प्रकार लूट और संहार नित्य हुआ करते थे। ये घटनाएं आगरा के तमाम रास्ते में होती रहीं तथा प्रदेश का कोई भी भाग इनसे नहीं बचा। इसी प्रकार प्रत्येक सैनिक ने अधिक से अधिक पशु इकट्ठे कर, उन पर लूट का माल लादा और सोना-चांदी के अतिरिक्त अन्य वस्तुएं फैंक दी गईं। (सामिर, पृ० 65; तारीखे आलमगीर सानी, पृ० 109-अ; सियार 111, पृ० 352; सरकार पतन 11, पृ० 76-77; पेशवा दफ्तर, XXI, पत्र 108)।

अहमदशाह अब्दाली की निराशाजनक वापसी

शाह का कैम्प महावन में यमुना नदी के किनारे लगा हुआ था। ऊपरी स्थानों, वृन्दावन, मथुरा आदि स्थानों, जहां कत्लेआम हुआ था, को धोता हुआ नदी का जल अब्दाली के डेरों में पहुंच गया। इस दूषित जल के परिणामस्वरूप महावन में हैजा फैल गया और प्रतिदिन 150 सैनिक मरने लगे। इमली, जिसका पानी हैजे में लाभदायक है, का भाव 100 रु० प्रति सेर हो गया। घोड़ों का भी भारी नुकसान हो रहा था। ऐसी स्थिति में बचे हुए अफगान सैनिक अपने घरों को लौटने के लिए चिल्लाने लगे। इससे अब्दाली विवश हो गया और उसने अपने सैनिकों को वापस लौटने का आदेश दे दिया। उसकी सेनाओं ने 27 मार्च को लौटना शुरू कर दिया और 29 मार्च को जाट प्रदेश से शत्रु निकल गया।


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अब्दाली ने बंगाल के सेठ जुगलकिशोर और एक अफगान अधिकारी को एक धमकी भरे पत्र के साथ सूरजमल के पास भेजा कि अगर उसने एक करोड़ रुपया नजराना पेश करने में निरन्तर टालमटोल की तो डीग, कुम्हेर, वैर और भरतपुर के उसके चारों दुर्ग भूमिसात करके धूल में मिला दिए जायेंगे और उसके प्रदेश की जो दुर्गति होगी, उसकी पूरी जिम्मेदारी उसी की होगी। किन्तु जाट राजा भयभीत नहीं हुआ। उसने कूटनीतिक शब्दों में उत्तर भेजकर अपने साहस एवं सूझबूझ का परिचय दिया। प्रोफेसर गण्डासिंह ने अहमदशाह अब्दाली पर लिखी अपनी पुस्तक में क़दरतुल्लाह के ग्रंथ ‘जाम-ए-जहांनुमा’ से एक प्रसंग उद्धृत किया है, जिसमें अहमदशाह अब्दाली के साथ सूरजमल से चली समझौता-वार्ता की चर्चा इस प्रकार संक्षिप्त रूप में लिखी है -

अपने विशाल कोष, सुदृढ़ दुर्गों; असंख्य सेना और भारी मात्रा में युद्ध सामग्री के कारण सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और अपने को युद्ध के लिए तैयार किया। उसने अब्दाली के दूतों को कहा - “अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाये हैं। यदि आपने अनुभवहीन बच्चे (इमाद-उल-मुल्क गाजीउद्दीन) को, जिसका दिल्ली पर अधिकार था, अपने अधीन कर लिया, तो इसमें घमंड की क्या बात है! अगर आप में सचमुच कुछ दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किसलिए?” शाह जितना समझौते की कौशिश करता गया, उतना ही उस जाट का अभिमान और दृढ़ता (अक्खड़पन) बढ़ती गयी)। उसने कहा, “मैंने इन किलों पर बड़ा धन लगाया है। यदि शाह मुझसे युद्ध करे, तो यह उसकी मुझ पर कृपा होगी, क्योंकि तब भविष्य में दुनिया यह याद रख सकेगी कि एक बादशाह बाहर से आया था और उसने दिल्ली जीत ली थी, पर एक साधारण जमींदार के विरुद्ध वह लाचार हो गया था।” जाटों के किलों की मजबूती से डरकर शाह वापस चला गया। और दिल्ली जाकर मुहम्मदशाह की पुत्री के साथ स्वयं का तथा आलमगीर द्वितीय की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह करके और नजीब खान को भारत में अपना सर्वोच्च प्रतिनिधि नियुक्त करके वह कन्धार लौट गया। (गण्डासिंह की पुस्तक अहमदशाह दुर्रानी, पृ० 181-183)।

फिर भी, शाह किसी तरह लौट जाय, यह सोचकर सूरजमल ने पांच लाख रुपये अब्दाली और दो लाख रुपये वकील को देना स्वीकार किया। कुल सात लाख रुपयों का करार जाटों ने जुगलकिशोर की उपस्थिति में किया। सूरजमल ने यह शर्त रखी कि शाह की सेनाओं के दिल्ली लौट जाने पर आधा धन और दिल्ली से आगे प्रयाण करने पर शेष धन दिया जाएगा। किन्तु जाट राजा ने इस राशि का एक पैसा भी शाह को नहीं दिया। (पेशवा दफ्तर, xxi, पत्र iii; भाऊ बख़र के आधार पर, कानूनगो, जाट, पृ० 57-58)।

इस प्रकार सैनिक दृष्टि से जाटों के विरुद्ध अब्दाली का यह अभियान असफल रहा। वह न तो जाट राजा को घुटने टेकने के लिए विवश कर सका और न ही उसकी सैनिक शक्ति अथवा चार सुदृढ़ दुर्गों को किसी प्रकार हानि पहुंचा सका। उसका अभिमान केवल दो-चार कस्बों पर अधिकार करने और नागरिक आबादी की लूट तथा हत्याकांड तक सीमित रहा। इस प्रकार भारतीय मैदानों में गर्मी आ जाने तक सूरजमल की युक्ति काम कर गई।

अब्दाली को राजनीतिक दृष्टिसे भी कुछ न मिला। महाराजा सूरजमल ने राजनयिक दृष्टि से अब्दाली से अधिक सूझ-बूझ दिखायी। चौमुहा के युद्ध में जवाहरसिंह ने जो वीरता दिखाई थी, वह अनदेखी नहीं रही। यह स्वीकार किया कि हिन्दुस्तान में केवल भरतपुर के जाट ही ऐसे लोग हैं, जो अपने धर्मस्थानों की रक्षा के लिए प्राण देने को उद्यत रहते हैं।


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अहमदशाह अब्दाली अपने साथ लूट का माल हजारों उँटों, हाथियों, बैलों और घोड़ों पर लादकर कन्धार ले गया। अब्दाली का अपना सामान 28,000 ऊँटों, हाथियों, बैलों, खच्चरों और गाड़ियां पर लदा था और 200 ऊँट उस सामान से लदे थे जो मुहम्मदशाह की विधवा बेगमों की सम्पत्ति थी। यह विधवा बेगमें भी अब्दाली के साथ गयीं और यह सामान भी अब्दाली का हो गया। 80,000 घुड़सवार और पैदल उसके सैनिक थे, और प्रत्येक के पास अपना-अपना लूट का माल था। उसके घुड़सवार पैदल चल रहे थे, क्योंकि अपने घोड़ों पर तो उन्होंने लूट का माल लादा हुआ था। सामान ढ़ोने के लिए शाह ने किसी के भी घर में कोई घोड़ा, ऊँट, गधा, खच्चर तथा बैल आदि न रहने दिया। जिन तोपों को वह जाटों के किले को जीतने के लिए लाया था, उन्हें उसने छोड़ दिया, क्योंकि उन्हें खींचने वाले पशुओं पर तो लूट का माल लादकर ले गया। उन तोपों को जाट राजा सूरजमल अपने किले में ले गया। दिल्ली में किसी के पास एक तलवार तक न रही। (पेशवा के ‘दफतर’ से लिये गये संकलन। उद्धृत जदुनाथ सरकार, “फॉल ऑफ दी मुग़ल ऐम्पायर”, खण्ड 2, पृ० 91)।

सभी प्राप्त वृत्तान्तों के अनुसार अब महाराजा सूरजमल हिन्दुस्तान में सबसे धनी, सबसे बुद्धिमान राजा था और वही एक ऐसा था, जिसने मराठों को ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ न देते हुए भी उनसे अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे। अब्दाली को उसने चकमा दे दिया था1

उत्तरी भारत में मराठों की गतिविधियां तथा सूरजमल से समझौता

अब्दाली के जाट राज्य पर आक्रमण से दो बातें उभर कर सामने आईं। एक तो यह कि जाट राजा सूरजमल ने विदेशी शत्रु की अपेक्षा देशी शत्रु के साथ सहयोग को प्रधानता दी। चार फरवरी को मथुरा में अन्ताजी माणकेश्वर से बातचीत और मार्च में बापू महादेव हिंगणे के साथ निरन्तर वार्तालाप के विषयों से यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि सूरजमल मन, वचन और कर्म से अब्दाली के विरुद्ध मराठों के साथ मिलकर लड़ने को तैयार था। दूसरी बात यह हुई कि अब्दाली के विरुद्ध जाट राजा ने जिस धैर्य, साहस और कूटनीतिक चातुर्य का परिचय दिया, उस कारण मराठे भी जाट शक्ति का लोहा मान गये और स्वयं पेशवा ने निरन्तर अपने सरदारों को यह सख्त हिदायत दी कि वे किसी भी हालत में जाटों से शत्रुता मोल न लें। (पेशवा दफ्तर, xx, 1, 99; हिंगणे दफ्तर 1, पत्र 195)।

मई 1757 ई० में रघुनाथराव की ओर से सखाराम बापू, विट्ठल सदाशिव और अन्ताजी माणकेश्वर थे और सूरजमल की ओर से रूपराम कटारिया था। उनका आगरा में समझौता हुआ। दोनों पक्षों में इस बात पर सहमति हो गई कि आगरा जिले में और दोआब की पश्चिमी सीमा पर दनकौर आदि इलाके, जिन पर सूरजमल ने अधिकार कर लिया था, वे उसके पास रहने दिए जायें। सूरजमल ने दोआब में मराठा विस्तार में बाधा न डालने का आश्वासन दिया। इस प्रकार जाट-मराठा समझौते की वजह से, अब्दाली के लौटने के शीघ्र बाद, ये दोनों शक्तियां अपने-अपने प्रदेशों पर अपने अधिकारों की पुनः स्थापना करने में सफल रहीं।

अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली छोड़ने से पूर्व आलमगीर द्वितीय को पुनः सम्राट् और इन्तिजामुद्दौला को वजीर पद प्रदान कर दिया था। और अब्दाली ने नजीबुद्दौला (नजीब खान) को


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दिल्ली साम्राज्य का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बना दिया था। रुहेले नजीब खान ने रघुनाथराव के साथी मराठा मल्हारराव होल्कर को अपना धर्म-पिता बना लिया था।

रघुनाथराव के नेतृत्व में मराठा सेना ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। नजीब खान बचकर भाग निकला और इमाद-उल-मुल्क गाजीउद्दीन को पुनः वजीर बनाया गया।

अब रघुनाथराव ने पंजाब पर चढ़ाई की। उसने अप्रैल, 1758 ई० में अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह तथा सेनापति जहान खान को हराकर सिंध के पार खदेड़ दिया। इस तरह से उत्तरी भारत पर मराठों का अधिकार हो गया। ऐलफ़िस्टन के लेख अनुसार “मराठों के राज्य की सीमा उत्तर में सिन्ध और हिमालय तक पहुंच गयी थी और दक्षिण में प्रायद्वीप के लगभग अन्तिम छोर तक।” सन् 1758 ई० की ग्रीष्म ऋतु में रघुनाथराव दक्षिण लौट गया और साबाजी सिन्धिया के अधीन एक छोटे से मराठा सैन्यदल को लाहौर में छोड़कर मुख्य मराठा सेना पंजाब से चली आई।

सम्राट् आलमगीर द्वितीय ने अब्दाली से अनुरोध किया कि वह आकर उसे इमाद के चंगुल से छुड़ाये। अब्दाली पहले ही उसके पुत्र को लाहौर से निकाल दिये जाने पर आग बबूला हो रहा था। अतः उसने अगस्त 1759 ई० में सिन्ध नदी को पार किया और साबाजी सिन्धिया को लाहौर से खदेड़ दिया। जब उसने सुना कि इमाद ने सम्राट् आलमगीर द्वितीय और इन्तिजाम की नृशंसतापूर्वक हत्या करवा दी है और 29 नवम्बर, 1759 को शाहजहां तृतीय को गद्दी पर बैठा दिया है, तब वह दिल्ली की ओर तेजी से बढ़ा। अब्दाली के साथ सभी रुहेले सरदार मिल गये तथा अवध का नवाब शुजाउद्दौला (सफदरजंग का पुत्र) भी उससे जा मिला। यह गठबंधन बहुत शक्तिशाली हो गया। 20 जनवरी, सन् 1760 ई० में अब्दाली ने दत्ताजी सिन्धिया को बादली (दिल्ली से 8 मील उ० पश्चिम में) में हरा दिया और मार डाला। मराठे सरदार जमकर लड़े परन्तु अब्दाली की बड़ी सेना से हार गये। इस युद्ध में 10,000 मराठा सैनिक खेत रहे। जनकोजी सिन्धिया बुरी तरह से घायल हो गया। उसे और मराठा महिलाओं को जाट व रूपराम कटारिया कुम्हेर के दुर्ग में ले गये। उनके साथ ही हिन्दुस्तान के वजीर इमाद का रनिवास भी आया। हिन्दू और मुसलमान सुरक्षा के लिए सूरजमल के राज्य में आ भरे। एक बार भी, किसी शरणार्थी को सूरजमल ने अपने घर की ड्योढ़ी से वापस नहीं मोड़ा। यहां तक कि उसने अपने जाने-माने शत्रु उस घृणित इमाद-उल-मुल्क गाजीउद्दीन को भी शरण दी।

सम्राट् की हत्या करने के बाद, इमाद अपने सैंकड़ों घुड़सवारों के साथ भागकर सूरजमल के पास चला आया, वहां उसकी स्त्रियां पहले से ही थीं। इस प्रकार उसने महान् मुगलों का वजीर होने का अपना गौरव जाटों को अर्पित कर दिया। वह एक भिखारी की तरह हाथ जोड़कर दया की भीख मांगने जाट राजा की शरण में आ गया। महाराजा सूरजमल ने अपने जानी दुश्मन वजीर इमाद को पूरे सम्मान के साथ भरतपुर दुर्ग में रखा। यह घटना सूरजमल को सदा यशस्वी एवं सम्मानित बनाये रखने के लिए काफी रहेगी।

जनवरी, 1760 ई० में अहमदशाह अब्दाली दिल्ली पहुंच गया और राजधानी का मालिक बन बैठा। वह सूरजमल को दबोचने के लिए बेचैन था। 14 जनवरी को उसने खिजराबाद (दिल्ली के दक्षिण में) से सूरजमल तथा अन्य राजाओं को पत्र भेजे, जिनमें उनसे राज-कर देने और अपने


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सामने पेश होने को कहा गया था। सूरजमल से एक करोड़ रुपये की राशि मांगी गयी थी। सूरजमल ने पहले की तरह यह राशि देने से इन्कार कर दिया और युद्ध करने का निर्णय किया। अब्दाली ने नजीब खान को साथ लेकर 7 फरवरी, 1760 ई० को डीग के दुर्ग को घेर लिया, परन्तु न जाने किस कारण उसने यहां से घेरा उठाकर अपना ध्यान मराठों की ओर फेर लिया। अब्दाली ने मल्हारराव होल्कर को सिकन्दरा में बुरी तरह हरा दिया और उसे भागकर जान बचानी पड़ी। अब होल्कर भरतपुर पहुंचा। जब मल्हारराव भरतपुर के तीस मील पास तक आ पहुंचा तब सूरजमल आकर उससे मिला। बिल्व-पत्र और गंगाजल से शपथ लेकर उसे मित्रता और रक्षा का आश्वासन दिया गया। उसके बाद मल्हार ने राजा को सम्मानसूचक पोशाक देकर भरतपुर के लिए विदा किया। (दिल्ली में मराठों के प्रतिनिधि पुरुषोत्तम हिंगणे द्वारा पूना में पेशवा को भेजी गयी एक रिपोर्ट में उद्धृत; वैण्डल, ‘ओर्म की पांडुलिपि’)।

महाराजा सूरजमल ने अपने दुर्गों से बाहर निकलकर दोआब में आक्रमण शुरु कर दिए। 17 मार्च, 1760 ई० को जाटों ने अलीगढ़ को लूटा और वहां के दुर्ग पर भयंकर आक्रमण करके कब्जा कर लिया2

सूरजमल और पानीपत की तीसरी लड़ाई (14 जनवरी, 1761 ई०)

पेशवा बालाजी बाजीराव द्वितीय ने अब्दाली के आक्रमण से उत्पन्न संकट का सामना करने और उत्तर भारत में मराठा सत्ता की पुनः स्थापना के उद्देश्य से सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजने का निश्चय किया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र 19 वर्षीय युवा विश्वासराव को नाममात्र का सेनापति बनाकर उसके साथ रवाना किया। 14 मार्च, 1760 ई० को भाऊ लगभग 30,000 सेना के साथ पट्टूर (जालना से 27 मील द० पू०) से रवाना हुआ। यह सेना ऐसी शानदार थी कि वैसी मराठों ने इससे पहले कभी किसी युद्ध में नहीं भेजी थी। (दी कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, खण्ड 4, पृ० 417)।

वह सेना शानदार थी, परन्तु वह युद्ध लड़ने या लड़ाइयां जीतने का बढ़िया साधन नहीं थी। भाऊ साहब भारी साज-सामान और हजारों दासों के साथ चल रहा था। उनके पीछे कई हाथी चलते थे जिन पर ऊँचे रेशमी तंबू लदे हुए थे। प्रमुख सामन्तों की पत्नियां उनके साथ थीं और उनके काफी नौकर-चाकर साथ थे। अफ़सर लोग जरीदार कपड़ों में जगमगा रहे थे। इस सेना को चम्बल नदी तक पहुंचने में 78 दिन लगे थे। (दी कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, खण्ड 4, पृ० 417)।

पेशवा ने राजपूताना के प्रमुख शासक के पास सहायता प्राप्ति के लिए अपने दूत भेजे, परन्तु सभी राजपूत राजाओं ने टालमटोल के उत्तर दिये। फिर भी मित्र सेनायें भाऊ सेना में शामिल होती गईं, जिससे पानीपत के मैदान तक पहुंचते-पहुंचते इसकी संख्या लगभग एक लाख हो गई थी।


1, 2. महाराजा सूरजमल, , पृ० 86-106, लेखक कुं० नटवरसिंह; जाट इतिहास, पृ० 53-65, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; महाराजा सूरजमल, पृ० 132-166, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; महाराजा सूरजमल, पृ० 39-51, लेखक बलबीरसिंह।


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8 जून 1760 ई० को भाऊ ने धौलपुर के निकट चम्बल नदी पार की और जाट प्रदेश में दाखिल हो गया। मराठा सेना ने चम्बल के उत्तरी तट पर पहुंचकर आगरा से 20 मील दक्षिण की ओर गम्भीरी नदी के निकट कैम्प लगाया, जहां 13 जुलाई तक उनका पड़ाव रहा। 28 जून को मल्हार आकर भाऊ से मिला। सरकार, “पतन, 11, पृ० 153-54)

भाऊ ने मल्हार को एक पत्र देकर महाराजा सूरजमल के पास भेजा जिसमें लिखा कि “कृपया आप मेरी सहायता करें और शीघ्र ही मुझ से मेरे कैम्प में मिलें।” (इमाद, 78)

मल्हार जब कुम्हेर पहुंचा तो सूरजमल ने अपनी मैत्री एवं सहायता का पूरा विश्वास दिलाया।

सूरजमल 30 जून को होल्कर के साथ भाऊ के पास पहुंचा। भाऊ ने दो मील आगे बढ़कर अपने महत्त्वपूर्ण सहयोगी राजा का सम्मान किया। मल्हारराव होल्कर और जनकोजी सिन्धिया ने इस अवसर पर शपथ लेकर सूरजमल को उसकी सुरक्षा का पक्का आश्वासन दिया और फिर भाऊ से परिचय कराया। बाद में इमाद-उल-मुल्क भी सूरजमल के माध्यम से भाऊ से मिला। (सियार 111, पृ० 382-83; भाऊ बखर, पृ० 114; इलियट VIII, पृ० 204)। सूरजमल अपने 8000 जाट वीर सैनिकों के साथ मराठा सेना में सम्मिलित हो गया।

आगरा की युद्ध परिषद् में मतभेद

14 जुलाई, 1760 ई० को आगरा पहुंचकर भाऊ ने अब्दाली के विरुद्ध सैनिक रणनीति तय करने के लिए, मराठा सरदारों की युद्ध परिषद् की बैठक बुलाई, जिसमें जाट महाराजा सूरजमल को भी आमन्त्रित किया गया। स्वभाव एवं विचारों की भिन्नता के कारण भाऊ व सूरजमल में मतभेद होना अनिवार्य था। जहां दम्भी तथा हठी भाऊ सूरजमल को एक साधारण जमींदार समझता था और होल्कर के साथ उसकी मित्रता को सन्देह एवं ईर्ष्या की दृष्टि से देखता था, वहीं सूरजमल और होल्कर उत्तर के सैनिक युद्धों की रणनीतियों में अधिक कुशल एवं अनुभवी थे, तथा भाऊ इस मामले में नया था, अतः युद्ध संचालन की बागडोर उन्हें सौंप दी जानी चाहिए थी। भाऊ कैफियत का लेखक लिखता है कि - होल्कर की उपस्थिति में सूरजमल ने भाऊ के समक्ष यह विचार रखा, “दिल्ली शहर का नियन्त्रण मुझे सौंप दें, गाजिउद्दीन को वजारत प्रदान करें और होल्कर, सिन्धिया तथा मैं मिलकर शत्रु पर आक्रमण करेंगे, आवश्यकतानुसार आप हमें कुमुक भेजिएगा।” परन्तु भाऊ ने इस सुझाव को ठुकराते हुए कहा, “इस विषय में मुझे राजश्री नानासाहब का आदेश चाहिए। वर्तमान में हम और तुम हस्तिनापुर जायेंगे।” (काशीनाथ नारायण साने द्वारा सम्पादित भाऊ साहब यांची कैफियत, पृ० 8-9)।

इमाद, कानूनगो, काशीराज, इलियट आदि लेखकों के अनुसार - युद्ध परिषद् की बैठक में जब भाऊ ने सूरजमल से अपनी सम्मति प्रकट करने को कहा, तो सूरजमल ने अपना मत दिया कि -

“यह एक महान् शासक के विरुद्ध युद्ध है, जिसका समर्थन इस्लाम के सभी मुखिया कर रहे हैं। अगर आप चतुर हैं तो शत्रु चतुरतम है। निस्सन्देह यह उचित होगा कि आप इस युद्ध का संचालन बड़ी सावधानी से करें। युद्ध अवसरों का खेल है जिसके दोनों पहलू होते हैं। उचित यह होगा कि आप अपने स्त्री-बच्चों, बड़ी तोपें तथा जरूरत से अधिक सामान चम्बल के पार झांसी या ग्वालियर के किलों में भेज दें। यदि आप इन्हें इतनी दूर नहीं भेजना चाहते तो मैं अपने चार अजेय दुर्गों में

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से कोई भी एक खाली करने को तैयार हूं, जहां आप अपनी स्त्रियों एवं सामान को सुरक्षित छोड़ दें और सारी सुविधायें जुटा सकें। आप हल्के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर शाह का मुकाबला करें। शाह के विरुद्ध राजाओं की भांति आमने-सामने युद्ध (जंग-ए-सुलतानी) लड़ने की अपेक्षा हल्की घुड़सवार सेना के साथ गुरिल्ला युद्ध (जंग-ए-क़्ज्ज़ाकुना) किया जाय। वर्षा ऋतु आने पर दोनों पक्ष अपने-अपने स्थानों से हट नहीं सकेंगे और अन्त में शाह, जो हमारी तुलना में अलाभदायक स्थिति में होगा, निराश होकर अपने देश को लौट जायेगा। इस प्रकार निराश अफ़गान आपको समर्पण कर देंगे।
एक डिवीजन लाहौर की तरफ और दूसरा डिवीजन पूर्व की ओर भेजा जाय, जो इन प्रदेशों पर आक्रमण करके दुर्रानी सेना को भेजी जाने वाली अनाज की रसद को काट दे*। मेरी सेना के साथ आपके निर्देश का मैं इन्तजार करूंगा और चूंकि मेरा प्रदेश शत्रु की लूटमार से मुक्त होगा, इसलिए वहां से रसद आसानी से प्राप्त हो सकेगी।” (इमाद, पृ० 179-180; कानूनगो, जाट, पृ० 67-68; काशीराज का वृत्तान्त देखें एच० जी० रालिन्सन कृत अंग्रेजी अनुवाद ‘एन एकाउण्ट ऑफ दि लास्ट बेटल ऑफ पानीपत’ पृ० 5-7; तारीख इब्राहीम खान (इलियट, VIII, पृ० 204; कुंवर नटवरसिंह, पृ० 111-113)।

काशीराज लिखता है कि मल्हारराव सहित सभी मराठा सरदारों ने सूरजमल की इस सलाह से सहमति व्यक्त करते हुए कहा, “हम स्वयं छापामार योद्धा हैं, इसलिए इस प्रकार की लड़ाई से हमारे ऊपर कोई कलंक नहीं आता। हमारा कौशल तो शत्रु पर छापा मारकर भाग जाने में ही है। यदि शत्रु को कौशल से जीता जा सकता हो, तो विकट स्थिति में फंसना और स्वयं विनाश के मुंह में कूदना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। अतः सूरजमल की सलाह सर्वश्रेष्ठ है और उसके द्वारा सुझाई गई योजना निश्चित रूप से शत्रु को पीछे हटने के लिए मजबूर करेगी।” (काशीराज, पृ० 7-8; इमाद, पृ० 180-181)।

सारे मराठा सरदारों की सर्वसम्मति के बावजूद भाऊ ने, जिसे अपने सैनिक शक्ति एवं निजी योग्यता पर अत्यधिक विश्वास था, इस सलाह को ठुकरा दिया। उसने अपने जैसे महान् राजकुमार के लिए जो पेशवा का भाई था, गुरिल्ला युद्ध प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा। भाऊ ने जवाब दिया कि “उससे निम्न लोगों ने इस देश प्रतिष्ठा अर्जित की थी, और उसके लिए, जो कि उच्च था, यह शिकायत कभी नहीं रहनी चाहिए कि रक्षात्मक युद्ध करते हुए उसने अपयश के अलावा कुछ नहीं पाया।”

भाऊ ने होल्कर को निम्न कुल का बतलाकर अपमान किया और सूरजमल को एक किसान एवं मूर्ख कहकर उसका अपमान किया और अपने घमण्ड एवं हठ में उनकी सलाह की उपेक्षा की। भाऊ के हठ और अहंकार को देखकर मराठा सरदारों को खेद व आश्चर्य हुआ। उसके अनुचित


नोट - * कानूनगो के अनुसार सूरजमल और मराठों ने पंजाब में अब्दाली के प्रमुख शत्रु सिक्खों और अब्दाली का साथी अवध का नवाब शुजाउद्दौला के शत्रु बनारस का राजा बलवन्तसिंह से सम्पर्क किया था, ताकि पंजाब व अवध से अब्दाली के शिविर में पहुंचने वाली रसद को काटा जा सके, और शत्रु सेना के पिछले और बायें भाग पर दबाव डाला जा सके।, कानूनगो, जाट, पृ० 69।


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व्यवहार से सूरजमल को अत्यधिक ठेस पहुंची और वह उससे सम्बन्ध तोड़ने को उतारू हो गया किन्तु होल्कर व सिन्धिया ने उसे शान्त किया। दूसरी ओर इन मराठा सरदारों ने भाऊ को भी जाट समर्थन के महत्त्व एवं प्राथमिकता से अवगत कराते हुए धैर्य अपनाने की सलाह दी। इस पर भाऊ ने सूरजमल के सामने यमुना जल लेकर भविष्य में उसके उचित परामर्श पर ध्यान देने का आश्वासन दिया। इस प्रकार होल्कर व सिन्धिया के आग्रह पर सूरजमल उसकी सफलता के लिए कार्य करने लगा। (काशीराज, पृ० 8; इमाद, पृ० 180-181; ए हिस्ट्री ऑफ दि मराठा पीपुल, जि० 111, पृ० 337; वाक्या-ए-होल्कर, पृ० 10-ब; भाऊ बखर, पृ० 117; , कानूनगो, जाट, पृ० 69)।

दिल्ली पर मराठा अधिकार

16 जुलाई, 1760 ई० को भाऊ की सेना आगरा से रवाना होकर मथुरा पहुंच गई। मथुरा से भाऊ ने सूरजमल, इमाद, होल्कर, सिन्धिया और बलवन्त गणेश मेहेनउले के नेतृत्व में अग्रिम सेना दिल्ली पर अधिकार करने के लिए भेजी। 23 जुलाई को इस सेना ने राजधानी पर अधिकार कर लिया। किले के स्वामी याकूब अली खान की सहायतार्थ अब्दाली ने अनेक सैनिक दल भेजे, किन्तु सभी विफल रहे। 29 जुलाई को भाऊ भी दिल्ली पहुंच गया। निराश याकूब अली ने सन्धि की याचना की। भाऊ ने उसे अपने स्वामी अब्दाली के पास यमुना पार जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार 2 अगस्त, 1760 ई० को दिल्ली के किले पर मराठा सेना का अधिकार हो गया। मराठों और इमाद ने दिल्ली को खूब लूटा। उनके हाथ लूट का माल इतना लगा कि उनमें कोई भी गरीब न रहा।

इमाद गाजीउद्दीन को फिर वजीर बना दिया गया और उसने मुही-उल-मिल्लत को शाहजहां तृतीय की उपाधि देकर राजसिंहासन पर बिठा दिया। भाऊ ने ऐलान कर दिया कि वह इमाद को नया वजीर नहीं मानेगा। उसने नारोशंकर को वजीर बना दिया। यह बात सूरजमल को सहन न थी, वह इमाद को वजीर पद पर रखना चाहता था। इसके लिए भाऊ को सूरजमल, होल्कर व सिन्धिया ने बहुत समझाया, परन्तु वह नहीं माना। कहावत है कि विनाशकाले विपरीतबुद्धिः यह भाऊ पर पूरी तरह सही बैठती थी। (सियार 111, पृ० 384; काशिराज, पृ० 9; भाऊ बखर, पृ० 114; कुंवर नटवरसिंह, पृ० 113-114; , कानूनगो, जाट, पृ० 69-70)।

दीवाने आम की छत

दुर्ग पर अधिकार हो जाने के बाद भाऊ ने शाही महलों की लूट के समय दीवाने आम की चांदी की छत तुड़वाने का विचार होल्कर, सिन्धिया व सूरजमल के सामने रखा। इसका कारण यह था कि भाऊ दक्षिण से दो करोड़ रुपये लेकर आया था, जो समाप्त हो चुके थे और सेना का वेतन चुकाने के लिए उसे धन की अत्यन्त आवश्यकता थी। किन्तु सूरजमल ने शाही प्रतिष्ठा की इस अन्तिम निशानी को बचाने के लिए भाऊ से प्रार्थना की, “भाऊ साहब, दीवाने-आम बादशाह के दरबार करने का स्थान है, इसकी बड़ी इज्जत है, नादिरशाहअहमदशाह ने भी इस छत को हाथ नहीं लगाया। हम अपनी आंखों से इस वस्तु को मिटते हुए नहीं देख सकते। इससे हमारी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी, बल्कि विश्वासघात का लांछन ही लगेगा। कृपया मेरी इस विनम्र प्रार्थना पर उचित ध्यान दें।


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यदि आपके पास धन की कमी है तो मैं आपको पांच लाख रुपये देने को तैयार हूं।” (भाऊ बखर, पृ० 116-17)।

भाऊ ने इस परामर्श पर कोई ध्यान न देते हुए 6 अगस्त को चांदी की यह छत तुड़वा डाली, जिसको गलाने से उसे 9-10 लाख रुपये मिले। (यदुनाथ सरकार, पतन 11, पृ० 165; मीरात-ए-अहमदी, पृ० 908; इलियट, VIII, पृ० 205। परन्तु कुंवर नटवरसिंह, पृ० 115 और कानूनगो, जाट, पृ० 71 पर केवल तीन लाख रुपए लिखते हैं)।

सूरजमल ने भाऊ के पास जाकर कहा, “भाऊ साहब, आपने मेरी उपस्थिति में शाही तख्त की पवित्रता को नष्ट किया है, जिससे मेरे चरित्र पर भी लांछन लगा है। जब भी मैं किसी विषय पर प्रार्थना करता हूँ, तो आप उससे असहमति प्रकट करके उसे ठुकरा देते हैं। हम अपने दिल में आपको हिन्दू मानते हैं, क्या आप यमुना जल का इतना ही आदर करते हो, जिसे आपने अपने हाथ में लेकर मेरे परामर्श पर उचित विचार करने का वचन दिया था?” (भाऊ बखर, पृ० 116-117)।

सूरजमल द्वारा मराठा पक्ष का त्याग

सूरजमल ने जोरदार शब्दों में भाऊ से कहा कि “वजारत पर इमाद का अधिकार है और अनुचित तरीकों से नारोशंकर को वजीर बनाना इमाद का ही नहीं, मेरा भी अपमान है। होल्कर और सिन्धिया ने भी उसका समर्थन किया। किन्तु भाऊ पर इस विरोध का कोई प्रभाव नहीं हुआ।” दूसरी बात भाऊ ने कुंजपुरा (दिल्ली से 78 मील उत्तर में) के नवाब पर आक्रमण करने के विचार के लिए युद्ध परिषद् की बैठक बुलाई, जिसमें सूरजमल ने कहा कि “मेरी सलाह है कि इस समय आप कुंजपुरा के मामले में न उलझें। आपको दिल्ली छोड़कर नहीं जाना चाहिए तथा अपनी योजनाओं को यहीं रहकर पक्का कीजिए।”

अभिमान एवं तिरस्कार के स्वर में भाऊ ने तैस में आकर सूरजमल को कहा, “क्या! दक्षिण से मैं तुम्हारे बल-बूते पर आया हूँ? मेरी मर्जी होगी, करूंगा। तुम चाहो तो यहां रहो, या चाहो तो अपने घर लौट जाओ। अब्दाली को परास्त करके मैं तुम्हें भी देख लूंगा।” (भाऊ बखर, पृ० 117; कुंवर नटवरसिंह, पृ० 115-116; कानूनगो, जाट, पृ० 71-72; सूरजमल, पृ० 177-178, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत)।

अब अपमानित सूरजमल सभा भवन से उठकर चला गया। इसके बाद मराठा डेरे में सूरजमल की स्थिति बहुत संकटप्रद हो गई थी। अप्रत्यक्ष रूप से वह बन्दी हो चुका था और उसकी सुरक्षा होल्कर व सिन्धिया की निष्ठा पर निर्भर थी। भाऊ ने 15,000 घुड़सवार सूरजमल के कैम्प के चारों ओर घेरे की तरह नियुक्त कर दिए। भाऊ ने सूरजमल को बन्दी बनाने और उसके डेरे को लूटने की गुप्त योजना बना ली थी, जिसका भेद होल्कर व सिन्धिया को था। इन दोनों मराठा सरदारों ने सूरजमल की सुरक्षा की पवित्र शपथ ली थी। अतः उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा निभाने हेतु जाट वकील रूपराम कटारिया को बुलाकर सारी स्थिति समझाकर सूरजमल को उसी रात्रि चुपचाप मराठा डेरे से निकल जाने की सलाह दी। रूपराम की सलाह से भाऊ बखर के अनुसार रात्रि के तीन पहर बीत जाने पर जाटों ने चुपचाप अपने तम्बुओं को उखाड़ा, सामान बांधा और होल्कर व सिन्धिया की सहायता से सूरजमल अपनी जाट सेना के साथ बदरपुर अपने डेरे से रवाना होकर शीघ्रता


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से कूच करते हुए प्रातःकाल होते-होते सुरक्षित बल्लभगढ़ के अपने शक्तिशाली दुर्ग में पहुंच गया। भाऊ बखर, पृ० 118-119; मीरात ए अहमदी, पृ० 908; काशीराज, पृ० 16; तारीखे इब्राहीम खान, (इलियट viii, पृ० 206; सियार 111, पृ० 385; पेशवा दफ्तर, xxvi, पत्र, 258; लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत, सूरजमल; पृ० 178-181; , कानूनगो, जाट, पृ० 71-73; कुंवर नटवरसिंह, महाराजा सूरजमल, पृ० 115-117)।

पानीपत का युद्ध और उसके परिणाम

महाराजा सूरजमल अपनी सेना सहित बल्लभगढ़ से चलकर भरतपुर के दुर्ग में चला गया और वहां बैठकर अब्दाली और मराठों के बीच युद्ध एवं युद्ध के परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा। अब्दाली को रसद रुहेला प्रदेश से प्राप्त हो रही थी और भाऊ की सेना के लिए भोजन सामग्री सूरजमल देता रहा था। भाऊ की नासमझी और विश्वासघात के कारण यह अक्षयस्रोत अब सूख गया। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि मराठों को पानीपत में खाली पेट लड़ना पड़ा।

अब्दाली तथा भाऊ की सेनाएं पानीपत के युद्धक्षेत्र में आमने-सामने आ डटीं। अब्दाली की बड़ी सेना के साथ नजीब खान व नवाब शुजाउद्दौला की पठान सेना और भारतवर्ष के अनेक मुसलमान जागीरदार शामिल थे। भाऊ के पक्ष में एक भी गैर-मराठा हिन्दू राजा या जागीरदार नहीं था। केवल 20,000 हरयाणा सर्वखाप पंचायत के वीर सैनिक उसकी ओर थे। सदाशिव भाऊ ने इस युद्ध के लिए हरयाणा सर्वखाप पंचायत को एक पत्र भेजा था। सर्वखाप पंचायत ने चौ० श्योलाल जाट के नेतृत्व में अपने 20,000 वीर सैनिक भाऊ की सहायता के लिए भेजे, जो अधिकतर, शत्रु से लड़ते हुए, वीरगति को प्राप्त कर गए। (देखो, सप्तम अध्याय, मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ और जाट प्रकरण)।

दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ और भारी मारकाट हुई। 14 जनवरी, 1761 ई० को भाऊ की सेना हारकर मैदान छोड़ गई और अब्दाली विजयी रहा। सदाशिवराव भाऊ इस युद्ध में मारा गया। उसके सैनिक तथा नौकर-चाकर व स्त्रियां भागकर सूरजमल के राज्य में प्रवेश कर गये। सामान एवं माल-असबाब से लदे हुए पशु जहां-तहां भागकर चले गये। हरयाणा के अनेक गांवों के लोगों को यह सामान हाथ लगा। एक अशर्फियां लदी हुई खच्चर मेरे गांव डीघल (जि० रोहतक) के एक जाट के अनाज के खलिहान में रात्रि के समय आ गई थी1। उसने यह सारा धन उतार लिया। उसी दिन उसके यहां एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम मायाराम रखा गया (लेखक)। उसी समय से हरयाणा में एक यह कहावत चालू है कि “मांच री भाऊ जिसी लूट”। सूरजमल ने भाऊ के सामने अपने जो सुझाव रखे थे वे इतने लाभदायक थे कि अगर भाऊ उन पर अमल करके अब्दाली का मुकाबला करता तो जीत अवश्य मराठों की होती। भारत का नक्शा फिर और ही तरह का होता।


1. डीघल गांव (जि० रोहतक) के उस जाट का नाम बालकू था जो उस समय अपनी ससुराल गांव राठधना (जि० सोनीपत) में खेतीबाड़ी करता था। वह उस धनराशि को उसी रात्रि को अपने गांव डीघल ले आया था।


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महाराजा सूरजमल की मराठा शरणार्थियों को सहायता

पानीपत के सर्वनाश से बच निकलने वाले पीड़ित एवं घबराए हुए मराठा सैनिकों ने जाट प्रदेश में प्रवेश किया। जैसे ही सूरजमल को मराठों की दयनीय स्थिति का पता चला, उसने अपने सारे राज्य में यह राजकीय निर्देश भिजवा दिया कि “सभी लोग इस बात का ध्यान रखें कि वे मराठों को परेशान न करें तथा उनकी हर संभव सहायता करें। जो जितना दे सके, वह आने वाले शरणार्थियों को अन्न-वस्त्र प्रदान करे। (भाऊ बखर, पृ० 161)।”

मथुरा में प्रवेश करते ही शरणार्थियों को आश्रय मिलना शुरु हो गया था, जहां सूरजमल व रूपराम कटारिया ने पहले ही एक लाख रुपये तथा सहायता सामग्री भिजवादी थी। सूरजमल की रानी किशोरी ने भरतपुर में पौष मास की सर्दी में ठिठुरते हुए और भूखे मराठा ब्राह्मणों को अन्नदान एवं वस्त्रदान करके बहुत धर्म एवं पुण्य अर्जित किया। उसने स्थान-स्थान पर अपने सवारों को भेजकर भागते हुए मराठों को बुलाकर लगभग 30-40 हजार लोगों को कई दिनों तक खाना खिलाया और ब्राह्मण शरणार्थियों में दूध व पेड़े बांटे (भाऊ बखर, पृ० 161)। सर यदुनाथ सरकार ने शरणार्थियों की संख्या 50,000 लिखी है, परन्तु वैण्डल की लिखी संख्या 1,00,000 अधिक यथार्थ है। (कुंवर नटवरसिंह, पृ० 119)।

प्रमुख मराठा शरणार्थियों में जो जाट दुर्ग में पहुंचे, मल्हारराव होल्कर, भाऊ की पत्नी पार्वती बाई, नाना पुरन्दरे, दमाजी गायकवाड़, विट्ठल सदाशिव आदि अनेक लोग थे। पेशवा बाजीराव का पुत्र शमशेर बहादुर* घायल अवस्था में डीग पहुंचा था। सूरजमल ने उसका बहुत उपचार कराया किन्तु वह बच नहीं सका। जाट राजा ने बयाना में उसका मकबरा बनवाया। (भाऊ बखर, पृ० 162; काशीराज, पृ० 50; मीरात-ए-अहमदी, पृ० 917)। वंश भास्कर, पृ० 3696 पर लिखा है कि “पराजय सम्मुख जानकर होल्कर अपनी दस हज़ार सेना के साथ रणक्षेत्र से निकलकर सुरक्षित जाट प्रदेश भरतपुर में आ गया।”

सर देसाई, पानीपत, पृ० 193 पर लिखते हैं कि दिल्ली का वजीर एवं राज्यपाल नरोशंकर और बालाजी पालान्दे दिल्ली, से 3, 4 हजार सैनिकों के साथ भाग निकले। मार्ग में उन्हें मल्हार राव होल्कर अपने 8-10 हजार सैनिकों के साथ मिला। भरतपुर में महाराजा सूरजमल ने उन्हें पूरी सुरक्षा, सुख तथा हर प्रकार की सहूलियतें प्रदान कीं। वे वहां 15-20 दिन ठहरे। महाराजा ने उनका अत्यधिक सम्मान करते हुए दोनों हाथ जोड़कर कहा, “मैं तुम्हारे परिवार का ही एक पुराना सेवक हूँ, यह राज्य तुम्हारा ही है।” ऐसे व्यक्ति बिरले ही मिलते हैं। उसने अपने सरदारों को उनकी सुरक्षार्थ ग्वालियर तक साथ भेजा। नाना फड़नवीस ने एक पत्र में लिखा था - “सूरजमल के व्यवहार से पेशवा के चित्त को बड़ी सांत्वना मिली।”

ग्रांड डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बर्ताव के बारे में लिखा है - जो भी भगोड़े उसके राज्य में आये, उसके साथ सूरजमल ने अत्यन्त दयालुता का व्यवहार किया और मराठे उस


नोट - * शमशेर बहादुर पेशवा बाजीराव प्रथम का पुत्र था, जिसकी माता एक रखेल मुसलमान बांदी थी, और वह इस्लाम धर्म में विश्वास रखता था।


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अवसर पर किये जाटों के व्यवहार को आज भी कृतज्ञता एवं आदर से याद करते हैं। (ग्रांड डफ, ‘ए हिस्ट्री ऑफ दि मराठाज’, पृ० 30)।

भाऊ की पत्नी पार्वती बाई का डीग दुर्ग में सूरजमल ने बड़े सम्मान से स्वागत किया। कुछ दिन बाद जब वह दक्षिण जाने के लिए ग्वालियर रवाना हुई, तो उसे काफी धन, वस्त्र देकर साथ में एक रक्षकदल भी भेजा गया। ठा० देशराज के अनुसार - “सूरजमल ने पार्वती बाई और सरदारों को एक-एक लाख रुपया देकर अपनी अधिरक्षता में दक्षिण की ओर भिजवा दिया।” (जाट इतिहास, पृ० 642, लेखक ठा० देशराज)।

दक्षिण के लिए रवाना होने पर रानी किशोरी ने प्रत्येक मराठा सिपाही को पांच रुपये नकद, एक धोती, एक रिजाई और आठ दिन का अन्न साथ में प्रदान किया। इस प्रकार उसने उन पर दस लाख रुपये खर्च किये। (भाऊ बखर, पृ० 161-162; काशीराज, पृ० 50)।

यदि सूरजमल भाऊ द्वारा उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार को भूलकर संकट की इस घड़ी में मराठों की सहायता न करता, तो गिनती के लोग ही पेशवा को पानीपत की दुखान्तिका सुनाने नर्मदा पार पहुंच पाते। परन्तु उसने विजेता एवं शक्तिशाली अब्दाली की शत्रुता का खतरा उठाकर भी हिन्दू धर्म एवं मानवीय व्यवहार का परिचय दिया। उसकी इस विशालहृदयता की सभी समकालीन फारसी एवं मराठा लेखकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है1। (भाऊ बखर, पृ० 161-162; भाऊ कैफियत पृ० 27-28; पुरन्दरे दफ्तर, 1, पत्र 417; काशीराज, पृ० 50-51; नूरूद्दीन, पृ० 51ब; इमाद, पृ० 203; बयान-ए-वाक़या, पृ० 293)।

अहमदशाह अब्दाली का सूरजमल के जाटराज्य पर आक्रमण

29 जनवरी 1761 ई० को विजेता अब्दाली ने दिल्ली राजधानी में प्रवेश किया। उसने शाह आलम द्वितीय को सम्राट् घोषित करके उसके पुत्र शहजादा जवानबख्त को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त किया। नजीबुद्दौला (नजीब खान को मीरबख्शी नियुक्त करके उसे राजधानी के शासन कार्यों का संचालक बना दिया गया। अब अब्दाली ने नजीब व शुजा के वकीलों के साथ एक पत्र भेजकर सूरजमल को, जिसने हाल ही में मराठों को शरण देकर अब्दाली के शत्रु के प्रति सहानुभूति प्रकट की थी, उपस्थित होकर पेशकश देने के लिए लिखा।

सूरजमल अच्छी तरह जानता था कि युद्ध से थके हुए अफगान गर्मी के दिनों में लड़ नहीं सकेंगे। अतः वह समझौते की बात को मार्चे से मई आने तक टाल-मटोल करता रहा था। अब्दाली और नजीब खान सूरजमल की युक्तियों से परिचित थे, अतः समझौते पर उसकी बात का विश्वास न करते हुए उन्होंने अपनी सेना को, जाटराज्य पर आक्रमण करने हेतु, कूच के आदेश जारी कर दिये। स्वयं दुर्रानी ने राजधानी में रुकने का निश्चय किया। 7 मार्च को उसका वजीर शाह वली खान अपने साथ शहजादा जवानवख्त, जीनत महल (सम्राट् शाह आलम द्वितीय की माता), मिर्जा बाबर और नजीब खान एवं शुजाउद्दौला की सेना को लेकर, दिल्ली से आगरा की ओर, सूरजमल


आधार पुस्तकें -
1. महाराजा सूरजमल, पृ० 107-120, लेखक कुंवर नटवरसिंह; कालिकारंजन कानूनगो, जाट, पृ० 66-77; महाराजा सूरजमल, पृ० 166-188, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; जाट इतिहास, पृ० 638-642, लेखक ठा० देशराज


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पर दबाव डालने के लिये रवाना हुआ। किन्तु जैसे ही यह सेना जाट प्रदेश की सीमा पर मथुरा के निकट पहुंची, तो अफगान सैनिकों ने सिकन्दर के यूनानी सैनिकों की तरह अपने स्वामी के आदेश के विरुद्ध जाट प्रदेश में आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। जैसे व्यास नदी पर पहुंचकर सिकन्दर के यूनानी सैनिकों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया था, जिसका कारण यह था कि व्यास से आगे शक्तिशाली यौधेय गोत्र के जाटों के गणराज्य थे, जिनकी वीरता सुनकर यूनानियों की आगे बढ़ने की हिम्मत न थी। अतः वे भयभीत होकर वापस लौट गये थे। (देखो चतुर्थ अध्याय, सिकन्दर की वापसी, प्रकरण)।

ठीक ऐसे ही अफगान सैनिकों ने जाटों के शक्तिशाली दुर्गों के बारे में यह ख्याति सुन रखी थी कि उनमें वर्षों तक का रसद भण्डार एवं शत्रु के विरुद्ध सैन्य-प्रतिरोध की क्षमता है। इनमें वीर योद्धा जाट सैनिक बड़ी संख्या में मौजूद हैं, जिनसे युद्ध करके विजय प्राप्त करना असम्भव है। अतः एक लम्बे एवं थकाने वाले संघर्ष की आशंका तथा जाटों की वीरता से डरकर अफगानों के दिल टूट गये और उन्होंने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया।

अब अहमदशाह ने विवश होकर अफगानिस्तान लौटने का तत्काल निश्चय करना पड़ा और उसने अपने वजीर को सेना सहित वापस बुला लिया। 13 मार्च को अफगान सेना की वापसी शुरु हो गई और 20 मार्च 1761 ई० को अब्दाली अपनी सेना के साथ दिल्ली से बाहर निकल गया। (गण्डासिंह, दुर्रानी, पृ० 263-264; सरकार, पतन, 11, पृ० 234-235)।

पानीपत के विनाशकारी एवं निर्णायक युद्ध के बाद मार्च 1761 ई० में जब अहमदशाह दुर्रानी अपने देश को लौटा, उस समय भरतपुर का जाट राजा हिन्दुस्तान के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में गिना जाता था। उसकी सेना ज्यों की त्यों बनी हुई थी और उसका कोष भरा हुआ था। उसकी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अब उसके सामने मैदान साफ था। वह अपने राज्य एवं शक्ति का अधिकतम विस्तार करना चाहता था, जिसके लिए आवश्यक था कि दिल्ली का शासन तंत्र उसके अनुकूल हो। इस कार्य में नजीब खान सूरजमल का विरोधी तथा इमाद सहायक था।

हिन्दुस्तान से लौटते समय अब्दाली ने जो व्यवस्था की उसके अनुसार शाह आलम द्वितीय को सम्राट् माना गया, इमाद को पुनः वजीर और नजीब को मीरबख्शी नियुक्त किया गया। अब्दाली ने अपना प्रतिनिधि याकूब अली खान को दिल्ली में छोड़ा। किन्तु अप्रैल के मध्य में, बेगम जीनत महल एवं शहजादा जवानबख्त की इच्छा अनुसार, नजीब खान साम्राज्य का मीरबख्शी, दिल्ली का फौजदार और शाही शासन का संरक्षक बन बैठा। उसने अपने एक विश्वासपात्र शेख कासिम को दिल्ली दुर्ग का किलेदार नियुक्त कर दिया और अन्य स्थानों पर अपने व्यक्तियों को तैनात करके राजधानी पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित कर लिया। (नूरुद्दीन, पृ० 55)।

अब नजीब, जवानबख्त, जीनत महल आदि ने मिलकर इमाद को वजारत से अलग कर दिया, जो उस समय मथुरा में सूरजमल के साथ था।

आगरा दुर्ग पर सूरजमल का अधिकार (12 जून 1761 ई०)

3 मई 1761 ई० को महाराजा सूरजमल ने मथुरा से बलराम के नेतृत्व में 4000 जाट सेना आगरा के किले पर अधिकार करने हेतु रवाना कर दी। स्वयं जाट राजा मथुरा में रुका, ताकि


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राजधानी पर नियन्त्रण एवं इमाद को वजीर पद पर स्थापित करने के सम्बन्ध में ठोस कार्यवाही की दिशा में पुनर्विचार किया जा सके। 3 मई को जाट सेना ने आगरा पहुंचकर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग द्वार के निकट पहुंचकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। जाटों ने जामा मस्जिद पर अपने मोर्चे स्थापित करके गोलाबारी शुरु कर दी। (हिंगड़े, दफ्तर, 1, पत्र 208; मीरात ए अहमदी, पृ० 921)।

जब नजीब खान को आगरा पर जाट सेना के आक्रमण का समाचार मिला, तो उसने 6-7 हजार सेना एकत्र कर, जवानबख्त को लेकर, 6 मई को आगरा की ओर कूच करने की तैयारियां की। फर्रूखनगर से मुसावी खान बलूच और बहादुरगढ़ से बहादुरखान बलूच नवाब भी अपनी दो-दो हजार सैनिक टुकड़ियों के साथ दिल्ली पहुंचकर नजीब की सेना में शामिल हो गये। (पेशवा दफ्तर, 11, पत्र, 144)। परन्तु नजीब ने राजधानी को छोड़कर शक्तिशाली जाट सेना से उसके प्रदेश में युद्ध करने के खतरनाक एवं मूर्खतापूर्ण विचार को शीघ्र त्याग दिया। यह उसकी अच्छी किस्मत थी।

24 मई को सूरजमल इमाद और गंगाधर तांत्या के साथ मथुरा से रवाना होकर 26 मई को अलीगढ़ पहुंच गया। वहां से रवाना होकर जाट राजा कोईलजलेसर के क्षेत्रों पर अपना फिर से अधिकार स्थापित करता हुआ जून के प्रथम सप्ताह में आगरा किले के सामने जा पहुंचा। जाट सेना ने आगरा दुर्ग पर आक्रमण जारी रखे। इस प्रकार एक महीने के घेरे के बाद 12 जून 1761 ई० को मुगलों के अधीन आगरा के किले पर जाट सेना का अधिकार हो गया। जाटों को यहां लूट में विशाल सामग्री मिली। सूरजमल को यहां से 50 लाख रुपये तथा भारी संख्या में गोला बारूद, शस्त्र एवं तोपें मिलीं, जो डीग व भरतपुर के दुर्गों में पहुंचा दी गईं। किले में स्थायी जाट रक्षक सेना तैनात कर दी गई। इस प्रकार आगरा, जिसे द्वितीय शाही राजधानी का गौरव प्राप्त था, पर जाट राजा का अधिकार स्थापित हो गया। इस अवसर पर सूरजमल ने आगरा के शाही किले में अपना भव्य दरबार आयोजित किया और उसे अपने निजी दुर्ग की तरह सजाया। आगरा किले और शहर का भली-भांति बन्दोबस्त करने के बाद सूरजमल अपने पुत्र जवाहरसिंह का विवाह रचाने मथुरा लौट आया। (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 124; सियार, 111, पृ० 402)।

दिल्ली से हिंगणे बन्धु लिखते हैं कि सूरजमल ने आगरा किले के अन्दर से सभी मुस्लिम चिन्ह हटाकर उसे यज्ञ हवन आदि से पवित्र किया और उस स्थान (सिंहासन) पर बैठा, जहां बादशाह के अलावा कोई नहीं बैठता था। हिंगणे दफ्तर, 11, पत्र 46; रेने मैडक के अनुसार सूरजमल ने किले पर अधिकार के बाद उसका पुनर्निर्माण किया। बंगाल पास्ट एण्ड प्रजेण्ट, जि० 53 (1937 ई० पृ० 69)।

महाराज सूरजमल द्वारा आगरा का किला विजय के विषय में दिल्ली स्थित बिड़ला मन्दिर में प्रमाणित लेख -

(1). बिड़ला मन्दिर की सीमा में, एक स्तम्भ पर हाथ में तलवार लिये हुये, महाराजा सूरजमल की विशालकाय मूर्ति स्थापित है। उस स्तम्भ पर शिलालेख अंकित है - “आर्य (हिन्दू) धर्मरक्षक

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यादववंशी जाट वीर भरतपुर के महाराजा सूरजमल जिनकी वीरवाहिनी जाट सेना ने मुग़लों के लाल किले (आगरा) पर विजय प्राप्त की।”
(2). इसी मूर्ति के निकट ऐसी ही एक दूसरी मूर्ति है जिसके स्तम्भ पर शिलालेख अंकित है - “आर्य (हिन्दू) धर्मरक्षक यादव वंशी जाट वीर भरतपुर के महाराजा सूरजमल, जिनकी वीरवाहिनी जाट सेना ने आगरे के प्रसिद्ध शाहजहां के कोट को अधिकार में कर लिया था।”
(3). बिड़ला मन्दिर की पश्चिमी अन्तिम सीमा में एक मकान की दीवार पर लेख अंकित है - “अठारहवीं शताब्दी में आगरा मुग़लों के लाल किले पर जाट वीरों की विजय।” “जाटों की सेना का विजयप्रवेश भरतपुर के वीर जाटों की सेना आगरा मुगलों के लाल किले को विजय कर रही है।” उस दीवार पर, आगरा के किले पर आक्रमण कर रही भरतपुर के जाट वीरों की सेना का चित्र अंकित है।

महाराजा सूरजमल की अन्य क्षेत्रों पर विजयें

सूरजमल को दोआब में सफलता मिली, जहां उसके सबसे छोटे पुत्र नाहरसिंह और सूरजमल के साले ठाकुर बलराम सिंह ने मुगल सरदारों पर उल्लेखनीय विजयें प्राप्त कीं। इन्होंने दोआब में कोईल, जलेसर, बुलन्दशहर, जहां मार्च 1760 ई० में अब्दाली ने अधिकार कर लिया था, अपना अधिकार पुनः स्थापित कर लिया। सूरजमल ने मुड़सान के स्वतन्त्र जाट जमींदार पुहुपसिंह को वहां से निकालकर अपना अधिकार कर लिया (इम्पी० गजे० यूनाईटेड प्राविन्सेज, पृ० 364)। दोआब विजय में सूरजमल ने शाही व मराठा जागीरों पर अधिकार कर लिया। 12 जून, 1761 ई० को आगरा दुर्ग पर अधिकार के पश्चात् इस सूबे के अधिकांश भाग पर भी बिना किसी प्रतिरोध के जाट राजा का अधिकार कायम हो गया। उधर हरयाणा में जवाहरसिंह ने सम्पूर्ण मेवात पर अपना सुदृढ़ अधिकार स्थापित करते हुए गढ़ी हरसरू*, रेवाड़ी, झज्जर और रोहतक पर अधिकार कर लिया। इस तरह से विजय करती हुई जाट सेनायें दिल्ली से 20 मील दूर सराय बसन्त तक पहुंच गईं। (नूरुद्दीन, पृ० 61अ)

नजीब खान की सूरजमल से सन्धि

शाही राजधानी के इतने निकट जाट राजा जिन प्रदेशों को दबाते जा रहा था, उसे देखकर


नोट - * गढ़ी हरसरु पर आक्रमण के समय सूरजमल का हाथी किले के विशाल फाटक पर टक्कर मारने से झिझका, क्योंकि किवाड़ों पर फौलाद की दस-दस इञ्च की पैनी नोकदार कीलें आगे को उभरी हुई लगा रखी थीं। यह देखते हुए कि हाथी की हरकत से पूरी लड़ाई पर निर्णायक प्रभाव पड़ सकता है, जाट सरदार सीताराम अपने घोड़े से उतरा और हाथी को पुचकार कर फाटक तक ले गया। उसके बाद उसने अपने कुल्हाड़े से फाटक का कुछ हिस्सा तोड़ दिया, जिससे अन्दर जाने का रास्ता बन गया। जाट सैनिक किले के अन्दर घुस गये और उस पर अपना अधिकार कर लिया। (महाराजा सूरजमल, पृ० 128-129, लेखक कुंवर नटवरसिंह; जाट इतिहास, पृ० 643, लेखक ठा० देशराज


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नजीबुद्दौला को बड़ी चिन्ता हुई। वह सूरजमल से समझौता करने की कौशिश करने लगा। समझौता की ये चर्चायें नजीब के प्रतिनिधि दिलेरसिंह ने रूपराम कटारिया से कीं।

इनके अनुसार सूरजमल ने हरयाणा के जिन नये प्रदेशों पर कब्जा किया था, उन्हें बाकायदा स्वीकार कर लिया गया और पुष्ट कर दिया गया। इसके बदले सूरजमल ने सम्राट् को नाममात्र का राजकर (नजराना) देना था, जिसके लिए जमानत राजा नागरमल सेठ ने दी फिर भी संदेह बना रहा। जब नजीब ने ईमानदारी से कसम खाकर सूरजमल की सुरक्षा का वचन दे दिया, उसके बाद ही जाट राजा ने उससे भेंट करना स्वीकार किया।

इन दो सरदारों की सेनायें नदकौर घाट पर यमुना के आमने-सामने के तटों पर आ उतरीं। नजीब अपने कुछ सैनिकों के साथ एक नाव में बैठकर सूरजमल की ओर गया। सूरजमल ने उसके साथ बड़े निर्मल हृदय से बातचीत की तथा अच्छा बरताव किया। (‘नूर’, 56; ‘दिल्ली क्रौनिकल’ एवं यदुनाथ सरकार के ग्रन्थ, खण्ड दो, पृ० 320)।

सूरजमल का बलूचों से युद्ध और फर्रूखनगर पर अधिकार

सन् 1763 ई० में जब सूरजमल अपने राज्य के अधिकतम विस्तार के प्रयासों में जुटा हुआ था, तभी उसे अपने मेवात प्रान्त में तीव्र अशान्ति एवं अव्यवस्था का सामना करना पड़ा। जाट राज्य के पड़ौस में मेव जाति सदा अपने प्रदेश के चारों ओर राजमार्ग पर तथा अपने निकट जाट प्रदेश की सीमाओं पर लूटमार करती रही है। सन् 1756 ई० में अलवर के शाही दुर्ग को विजय करने के समय से ही सूरजमल ने इस भूभाग को स्थायी जाटराज्य का अंग बनाने के सुदृढ़ प्रयास प्रारम्भ कर दिये थे। इसी उद्देश्य से उसने अलवर से 20 मील उत्तर की ओर किशनगढ़ में एक और दुर्ग का निर्माण किया। (नूरुद्दीन, पृ० 60-ब)

वैण्डल के अनुसार सूरजमल की योजना राजधानी के पश्चिम की ओर मेवात हरयाणा और उससे सटे दोआब के कुछ इलाकों को मिलाकर जवाहरसिंह के लिए एक दूसरा जाटराज्य बनाने की थी और मुख्य जाटराज्य वह नाहरसिंह के लिए सुरक्षित रखना चाहता था। (सरकार, पतन, 11, पृ० 277)।

कानूनगो के अनुसार “सूरजमल के दो मुख्य लक्ष्य थे। पहला, मुसलमान रुहेलों और अब्दाली के बीच मेल-मिलाप को पूरे तौर से रोक देना, जो कि यमुना से रावी नदी तक था| सूरजमल अपने राज्य के जाटों एवं पंजाब के सिक्ख जाटों का मेलजोल करना चाहता था। क्योंकि ये दो शाखायें एक ही रक्त की हैं और दोनों का राजनीतिक व धार्मिक स्वार्थ एक ही था। दूसरे, वह दिल्ली से नजीब खान को बाहर निकालकर उसके स्थान पर इमाद को साम्राज्य का फिर से वज़ीर बनाना चाहता था।” के० आर० कानूनगो, जाट, पृ० 78-79)

पिछले कई वर्षों से जवाहरसिंह मेवात में लुटेरे डाकुओं के उपद्रवों को शान्त करके प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने के कार्य में लगा हुआ था।

रेवाड़ी पर अधिकार हो जाने के बाद जाटों के थाने दिल्ली से 20 मील दूर सराय बसन्त और सम्भल पर स्थापित हो गए, जिनके गांव दिल्ली से केवल 12 मील दूर तक फैले हुए थे और उनका प्रशासन अब सीधा जाटों के अधिकार में था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-696


जवाहरसिंह को जब कभी मेव लुटेरों द्वारा राजमार्ग पर डकैती की सूचना मिलती तो वह उनके पदचिन्हों को खोजता हुआ उन्हें जा पकड़ता और उन्हें निर्दयतापूर्वक मार डालता अथवा अग्नि में जिन्दा फेंक देता था। उनको स्थानीय बलूच जागीरदारों का संरक्षण प्राप्त था। कठोर दमन और देश से बाहर निकाल देने के बावजूद वे इस कार्य को नहीं छोड़ते थे। (नूरुद्दीन, पृ० 61 अ)।

सानुल्बा नामक एक मेव डकैत ने जवाहरसिंह को भारी चुनौती दी। वह मात्र अपने 10 घुड़सवार साथियों के साथ राजमार्ग पर डकैती करता था और डीग दुर्ग के निकट तक पहुंचकर काफ़िलों को लूटता रहता था। वह होडल तथा बरसाना के बीच एक छोटी पहाड़ी कोकलाशी पर खड़ा होकर उधर से गुजरने वालों को लूटता था। जनता उसके अत्याचारों से दुःखी हो गई थी और जाट सेना उसको रोकने अथवा बन्दी बनाने में असफल रही थी। सानुल्बा ने बलूचों के प्रदेश में, जिसका नेता फर्रूखनगर का नवाब मुसाबी खान था, तावड़ू दुर्ग (जि० गुड़गांव) में आश्रय पा रखा था। इस संरक्षण के बदले बलूच सरदार को वह लूट के माल में से कुछ हिस्सा दिया करता था (नूरुद्दीन, पृ० 62-अ)। जवाहरसिंह ने अपने शत्रु सानुल्बा मेव को संरक्षण देने वाले बलूचों के नेता मुसावी खान के दुर्ग फर्रूखनगर पर आक्रमण करने का विचार किया। उसने इस कार्य के लिए अपने पिता सूरजमल से स्वीकृति ले ली। फर्रूखनगर पर आक्रमण करने का एक अत्यावश्यक कारण भी हुआ, जिसका ब्यौरा निम्न प्रकार से है -

फर्रूखनगर का नवाब मुसावी खान बलूच बड़ा बदचलन व्यक्ति था। एक दिन वह अपने कुछ साथियों को लेकर शिकार खेलता हुआ सुरहती (तहसील झज्जर, जि० रोहतक) के गांव के खेतों में जा पहुंचा। वहां उस गांव की कुछ स्त्रियां खेतों में काम कर रही थीं। उनमें सुरहती गांव के देशवाल गोत्र के जाट महाराम नम्बरदार की अविवाहित पुत्री हंसकौर भी थी। वह अति सुन्दर, युवती एवं शक्तिशाली लड़की थी। उस दुष्ट मुसावी खान की दृष्टि जब उस युवती पर पड़ी तो वह उस पर मोहित हो गया। हंसकौर के निकट जाकर उसने उस लड़की का नाम पूछना चाहा तो हंसकौर ने उसे डांटकर लताड़ दिया।

मुसावी खान नवाब ने हंसकौर के पिता महाराम नम्बरदार को बुलाकर कहा कि तुम अपनी इस लड़की का विवाह मेरे साथ कर दो। चौ० महाराम ने उत्तर दिया कि मैं इस बारे में अपनी जाट बिरादरी से सलाह ले लूं। नवाब ने इसके लिए स्वीकृति देते हुए कहा कि मुझे शीघ्र ही उत्तर देना, नहीं तो मैं बलपूर्वक आपकी लड़की को ले जाऊंगा। चौ० महाराम ने यह बात गांव के निवासियों को बताई। उस पर विचार करने हेतु हरयाणा की कई जाट खापों की पंचायत का सम्मेलन सुरहती गांव में हुआ। जब इस उपर्युक्त घटना का ब्यौरा इस पंचायत को दिया गया, तब जाटों ने सर्वसम्मति से एक स्वर में कहा कि हम मुसलमान नवाब को अपनी लड़की का डोला कभी नहीं देंगे, भले ही हमें अत्याचार तथा कष्ट सहने पड़ें। हम डटकर उसका मुकाबिला करेंगे और अपने जातीय धर्म रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे देंगे1

इसी प्रकार का निर्णय जाटों की 35 खापों ने लिया था, जिसमें सम्राट् अकबर के उस आदेश को ठुकरा दिया गया था, जो कि उसने धारीवाल जाट गोत्र के चौ० मीरमत्ता को उसकी सुन्दर एवं


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बलवती पुत्री धर्मकौर का विवाह अपने साथ करने को कहा था। (देखो जाटवीरों का इतिहास, तृतीय अध्याय, सिन्धु गोत्र प्रकरण)।

उपर्युक्त पंचायत ने, मुसावी खान के विरुद्ध सहायतार्थ अपने पंच महाराजा सूरजमल के पास भेजे। सूरजमल किसी विशेष कार्य में लीन थे, अतः उन्होंने अपने पुत्र जवाहरसिंह को इन पंचों की बात सुनने का आदेश दिया। सारी जानकारी मिलने पर कुंवर जवाहरसिंह ने पंचों को बताया कि “आप हंसकौर के बनावटी विवाह का पत्र लम्बी तिथि देकर मुसावी खान को भेज दो और उस तिथि की सूचना मेरे को भी भेज देना।” ऐसा ही किया गया।

इस तिथि का अनुमान लगता है कि यह संवत् वि० 1820 के कार्तिक शुदी एकादशी और पूर्णिमा के बीच (अक्तूबर 1763 ई०) की थी। बनावटी विवाह की निश्चित तिथि को कुंवर जवाहरसिंह ने फर्रूखनगर पर आक्रमण कर दिया2

मुसावी खान भी एक शक्तिशाली नवाब था। उसने अनेक बलूच सैनिक सरदार ताज मोहम्मद खान के नेतृत्व में जवाहरसिंह का सामना करने भेजे। प्रथम मुठभेड़ में बलूच सैनिक जाटों के प्रहार का सामना नहीं कर पाये और भाग खड़े हुए। इस मुठभेड़ में बलूचों का साथी राजा जयसिंह राव मारा गया। (नूरुद्दीन, पृ० 62 अ)।

नवाब की शक्तिशाली सेना ने दुर्ग पर जाटों के आक्रमण को निष्फल कर दिया। जवाहरसिंह ने अपने पिता महाराजा सूरजमल को संदेश भेजकर अपनी सहायता के लिए बुलाया। नवम्बर 1763 ई० में सूरजमल के नेतृत्व में एक शक्तिशाली जाट सेना जिसमें 20,000 घुड़सवार, तोपें और बड़ी संख्या में पैदल सैनिक शामिल थे, ने फर्रूखनगर के दुर्ग को घेर लिया। उधर नजीब खान को जब यह सूचना मिली तो उसने सूरजमल को पत्र लिखा, “आपके और मेरे बीच शान्ति और एकता की मैत्री सन्धि है। बलूच भी मेरे आश्रित हैं। आप अकारण उन्हें निष्कासित कर रहे हैं। यह अपनी मित्रता के विरुद्ध होगा।” सूरजमल ने उसे जवाब भेजा कि, “यह संघर्ष मेरे नियन्त्रण से परे हैं। मेरा पुत्र जवाहरसिंह इस कार्य के लिए दृढ़ निश्चयी है और बलूच भी दण्ड के योग्य हैं क्योंकि वे राजमार्गीय डकैतों को अपने घरों में शरण दे रहे हैं।” (नूरुद्दीन, पृ० 62 ब)।

नजीब खान, जो इस समय नजीबाबाद में बीमार था, अपनी सेना के साथ नजीबाबाद से चलकर युद्ध स्थल के लिए रवाना हो गया। वह डेढ़ दिन में लगभग 150 मील की दूरी तय करके 14 दिसम्बर को दिल्ली पहुंचा (फर्रूखनगर के पतन के दो दिन बाद)।

अब पाठकों का ध्यान फर्रूखनगर के दुर्ग की ओर दिलाया जाता है। जाटों ने अपने मोर्चे से दुर्ग पर गोलाबारी शुरु कर दी। मुसावी खान के नेतृत्व में सभी बलूच सरदारों ने किले के अन्दर एवं बाहर से जाट सेना का साहसपूर्वक मुकाबला किया। परन्तु जाटों की तोपें दुर्ग की दीवारें तोड़ने में सफल हो गईं। मुसावी खान ने भयभीत होकर सूरजमल को समर्पण का प्रस्ताव किया और जाट राजा द्वारा सुरक्षा के आश्वासन पर वह किले से बाहर निकल आया। इस प्रकार दो महीने के घेरे


1, 2. जाट इतिहास, इंगलिश पृ० 165-166, रामसरूप जून; सुरहती गांव के लोगों की जबानी एवं हरयाणा में प्रचलित दन्तकथा।


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(जवाहरसिंह से शुरु करके) के बाद फर्रूखनगर के किले पर जाट सेना का अधिकार, 12 दिसम्बर, 1763 ई० को, हो गया। जवाहरसिंह ने दुर्ग में प्रवेश करके वहां की सारी सम्पत्ति, तोपखाना और कोष पर अधिकार कर लिया। सूरजमल ने मुसावी खान को बन्दी बनाकर भरतपुर के दुर्ग में भेज दिया1

इस तरह से नवाब मुसावी खान को, एक जाट लड़की से अपना विवाह करने के बजाय, जाटों का कैदखाना अवश्य मिल गया। साथ ही मेवाती तथा अन्य डाकुओं का भी सफाया हो गया। फर्रूखनगर के पतन के बाद नजीब खान ने सूरजमल को एक और पत्र भेजा, “आपने जो किला जीता है, उसे अपने पास रख सकते हैं। किन्तु मुसावी को मेरे प्रति सम्मान की खातिर मुक्त कर देना चाहिए।” सूरजमल ने स्पष्ट उत्तर दिया, “ये बलूच लोग मेरे शत्रु हैं। आपके मेरे बीच समझौता है और मित्रता है। फर्रूखनगर पर मेरे घेरे के समय आप नजीबाबाद से दिल्ली पर चढ़ आये। इससे यह स्पष्ट हो गया था कि आपने मेरे विरुद्ध कूच किया था। यदि वह आक्रमण इस समय तक समाप्त न होता तो आप मेरे विरुद्ध मुसावी खान के साथ शामिल हो जाते। उसी समय मेरे और आपके बीच मैत्री सन्धि टूट चुकी थी। चूंकि आपकी तरफ से विश्वासघात हो चुका है, अतः आप अब मेरे से कोई अच्छी आशा न करें।” (नूरुद्दीन, पृ० 65 अ)।

फर्रूखनगर दुर्ग की रक्षा के लिए सूरजमल ने कुंवर जवाहरसिंह को वहां नियुक्त कर दिया और स्वयं ने अपनी सेना के साथ बहादुरगढ़ पर आक्रमण कर दिया। वहां पर एक शक्तिशाली बहादुर खान बलूच नवाब का अधिकार था, जिसका बड़ा मजबूत किला था। सूरजमल की जाट सेना ने बलूचों को हराकर बहादुरगढ़* पर अधिकार कर लिया और उसे अपने राज्य में शामिल कर लिया।

नजीब खान ने सूरजमल से भयभीत होकर अपनी सहायतार्थ अहमद शाह अब्दाली को संदेश भेज दिया और उसके दिल्ली पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा।

महाराजा सूरजमल का अन्तिम युद्ध और मृत्यु

सूरजमल को अच्छी तरह से पता था कि नजीबुद्दौला) मेरे से युद्ध लड़ने से डरता है और उसने अब्दाली को दिल्ली पहुंचने का संदेश भेज दिया है। सूरजमल इस अवसर को खोना नहीं चाहता था। उसने अब्दाली के आने से पहले दिल्ली पर अधिकार करने का निश्चय किया। अतः उसने नजीब खान से मांग की कि, “मेरे को राजधानी के चारों ओर के जिलों की फौजदारी (राज्याधिकार) सौंप दो।” (सियार iv, पृ० 30)।

बयान-ओ-वाका के लेखक अब्दुल करीम कश्मीरी के लेख अनुसार - “सूरजमल ने नजीब खान को दिल्ली राजधानी को छोड़ने तथा दोआब के प्रदेश को उसे सौंप देने को कहा। यद्यपि नजीब ने


1. नूरुद्दीन, पृ० 63ब - 64ब; तिथि दिल्ली क्रानिकल्स, पृ० 128; हिंगणे दफ्तर, 11, 53; वैण्डल, पृ० 88-89, कानूनगो, जाट पृ० 79-80; महाराजा सूरजमल पृ० 210-212, लेखक लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत
नोट - * बहादुरगढ़ दुर्ग एवं शहर का निर्माता बहादुर खान बलोच था।


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लाचार होकर सिकन्दरा और दूसरे परगने, सूरजमल को देने का निवेदन किया, किन्तु सूरजमल इससे सन्तुष्ट नहीं हुआ।” (बयान, एम० एस०, 302)।

नजीब खान ने अन्तिम बार पुनः 19 दिसम्बर, 1763 ई० को याकूब अली खान (अब्दाली के वजीर शाह वली खान का भाई) को जाट राजा के पास शान्ति प्रस्तावों के साथ भेजा। उसके साथ दिलेरसिंह और करीमुल्लाह खान को भी भेजा गया।

सूरजमल इस समय अपनी सेना के साथ दिल्ली के 16 मील निकट पहुंच चुका था और काला पहाड़ पर उसने अपना शिविर स्थापित किया था। (नूरुद्दीन, पृ० 65 ब)।

नजीब के दूतों ने पीले एवं गुलाबी रंग की मुल्तानी छींट के दो सुन्दर थानों की भेंट के साथ जाट राजा का सम्मान किया। सूरजमल ने दूतों से कहा, “नजीबुद्दौला ने मेरी आशा के विपरीत कार्य किया है। वह एकमात्र अपने सहगोत्री सैन्यदल के गर्व में नजीबाबाद से आया है। अतः मेरे लिये यह आवश्यक है कि एक बार मैं उसकी सेना का सामना करूं।” (नूरुद्दीन, पृ० 65-ब, 66)-ब।

23 दिसम्बर को दूतों ने लौटकर अपने स्वामी नजीब खान को सब बातें बतला दीं। इस प्रकार दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारियां तेजी से शुरु हो गईं।

नजीब को युद्ध की चुनौती भेजने के साथ ही सूरजमल ने अपने डेरों का अधिकांश सामान अपने प्रदेश को भिजवा दिया और 6000 घुड़सवारों की फुर्तीली सेना अपने पास रखी*। सियार के लेख अनुसार “सूरजमल की घुड़सालों में 12,000 घोड़े थे; उन पर इतने ही चुने हुए सैनिक सवार होते थे। सूरजमल ने स्वयं उनको इस प्रकार का अभ्यास करवाया था कि वे घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे लक्षय पर गोली दागते थे, और उसके बाद गोलाई में घूम जाते थे, जिससे आड़ में होकर अपनी बंदूकों को दुबारा भर सकें। निरंतर तथा दैनिक अभ्यास द्वारा ये लोग इतने फुर्तीले और इतने खतरनाक निशानेबाज और साथ ही अपनी चक्राकार गति में इतने प्रवीण हो गये थे कि भारत में कोई ऐसे सैनिक थे ही नहीं जो रणभूमि में उनका मुकाहला करने का साहस कर सकें। ऐसे राजा के साथ युद्ध लड़कर कोई लाभ पा सकना असम्भव माना जाता था।” (सियार-उल-मुतख्ख़रीन, iv, 28)।

सूरजमल की सेना दक्ष एवं द्रुतगामी थी और उसके सभी सरदार मोहनराम, बलराम, मनसाराम, काशीराम (होडल वाले), बनचारी के रामकिशन, बचमढ़ी के ठाकुर माघसिंह, सिनसिनी के ठाकुर भगवानसिंह और वीर योद्धा सीताराम जैसे अनुभवी और रणकुशल योद्धा थे। इसी समय जाट सेना का एक डिवीजन, कुंवर नाहरसिंह व बलराम के नेतृत्व में दोआब में लड़ रहा था, जिसने मुग़लों के अनेक विशेष ठिकानों को मुग़ल अधिकारियों से छीन लिया था।

24 दिसम्बर को नजीब खान ने लगभग 12,000 घुड़सवार और पैदल सेना के साथ, जिसमें रुहेले एवं मुग़ल सैनिक थे, यमुना नदी को पार किया। उसके साथ उसके सभी पुत्र अफजल खान, सुल्तान खान, जाबेता खान तथा कई सेनापति सादत खान, सिद्दीक खान, मुहम्मद खान बंगश आदि


नोट - * नूरुद्दीन, पृ० 69-70अ के अनुसार सूरजमल की सैन्य संख्या 20,000 थी जिसमें भारी तोपें एवं घुड़सवार भी शामिल थे।


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थे। सूरजमल की सेना ने, जो पहले से ही यमुना नदी पार कर चुकी थी, हिण्डन नदी (यमुना की सहायक नदी, दिल्ली से 7 कोस पूर्व में) को पार करके अपने मोर्चे स्थापित कर लिए। 25 दिसम्बर को सूर्योदय से तीन घंटे पूर्व नजीब खान की सेना ने भी हिण्डन नदी के पश्चिमी तट पर अपने डेरे जमाए और मोर्चे कायम किए। (नूरुद्दीन, पृ० 67ब, 68अ; सरकार, पतन 11, पृ० 280)।

दोनों पक्षों के बीच 25 दिसम्बर को सवेरे ही युद्ध शुरु हो गया जो दिन के तीसरे पहर तक चलता रहा। युद्ध की भीषणता के बीच सूरजमल ने अपनी मुख्य सेना को रुहेलों के विरुद्ध लड़ते हुए छोड़कर स्वयं 5,000 सैनिकों के साथ नदी के ऊपरी बहाव की ओर चार मील की दूरी पर हिण्डन को पार करके, नजीब की सेना के पृष्ठभाग पर आक्रमण कर दिया। नजीब की ओर से मुग़लिया दल, सैय्यद मुहम्मद खान बलूच, जेता गूजर का पुत्र, गुलाबसिंह गूजर, अफजल खान और उस्मान खान ने भीषण युद्ध किया, जिसमें दोनों पक्षों के लगभग एक हजार सैनिक मारे गए। दिन भर के युद्ध में जाटों का पलड़ा भारी रहा।

महाराजा सूरजमल का सैन्यदल इस मुठभेड़ के बाद नए आक्रमण के लिए पीछे लौट गया। सूरजमल अपने सैनिकों में साहस दिलाने के उद्देश्य से छलांगें लगाता हुआ युद्ध के मैदान की जांच करने और घोड़ों से आक्रमण के लिए अपनी पसन्द का स्थान निश्चित करने हेतु एक ऊंचे स्थान पर थोड़े से सैनिकों के साथ खड़ा था, तभी सैय्यद मुहम्मद खान (सैद्दू) बलूच के नेतृत्व में उसके सैनिकों ने अचानक हमला करके सूरजमल को मार दिया (सियार, 6, पृ० 31-32)। नूरुद्दीन लिखता है कि “निरन्तर घाव के कारण सूरजमल अपने घोड़े पर से गिर पड़ा था और उधर से भागते हुए सैद्दू व उसके सैनिकों ने उसे देखा तो वे तुरन्त उस पर टूट पड़े और उसे मार डाला।” (नूरुद्दीन, पृ० 69अ)

कानूनगो के लेख अनुसार “सूरजमल अपने 30 घुड़सवारों के साथ मुगल एवं बलूच सेना के मध्य भाग पर टूट पड़ा और मारा गया।” (रविवार 25 दिसम्बर 1763 ई० को बहवाला, वाका, पृ० 199, कानूनगो, जाट, पृ० 82)

जाट सेना का अनुशासन इतना बढ़िया था कि यद्यपि सूरजमल की मृत्यु की खबर सैनिकों में फैल गई थी, फिर भी एक भी सैनिक विचलित नहीं हुआ। वे अपनी जगह ऐसे जमे रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। उधर मुसलमान सेना छिन्न-भिन्न होकर अपने शिविर की ओर भाग खड़ी हुई। इसके बाद जाटसेना विजेताओं की-सी प्रभुता के साथ रणक्षेत्र से लौटी। (सियार-उल-मुतख्खरीन, IV, 32 के हवाले से कानूनगो, जाट, पृ० 82)। ‘बयान-ए-वाकाई’ में ख्वाजा अब्दुलकरीम कश्मीरी लिखता है कि “उसका शव उनके हाथ नहीं आया। उसकी मृत्यु की खबर की पुष्टि उस समय नहीं हो सकी। नजीब खान अपनी सेना की सुरक्षा के लिए सारी रात अपने मोर्चे पर डटा रहा।”

“25 दिसम्बर की आधी रात के समय जाट सेना हिण्डन के परले किनारे से वापस लौट चली। अगले दिन नजीब के सैनिकों को 30 मील तक जाट सेना का कोई निशान तक न मिला और तभी सूरजमल की मृत्यु की खबर पर नजीब व उसकी सेना ने विश्वास किया।” कहा जाता है कि नजीब ने अपनी यह विख्यात उक्ति उसी समय कही थी कि जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं (श्राद्ध) हो जाये। ( कानूनगो, जाट, पृ० 82)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-701


नजीब खान अपनी सेना सहित राजधानी को लौट गया। (बयान-ए-एम० एस०, पृ० 303)

इस प्रकार क्रिसमस एवं रविवार के दिन, 25 दिसम्बर, 1763 ई० को, राजधानी की छांह तले, शाहदरा के निकट, पवित्र नदी के तीर पर “जाट जाति की आंख और ज्योति, गत 15 वर्षों से हिन्दुस्तान का सबसे उग्र व प्रबल राजा, अपने काम को अधूरा छोड़कर जीवन के रंगमंच से लुप्त हो गया। वह एक महान् व्यक्तित्व और एक लोकोत्तर प्रतिभाशाली पुरुष था, जिसे अठारहवीं शताब्दी के प्रत्येक इतिहासकार ने श्रद्धाञ्जलि अर्पित की है।” फादर वैण्डल के शब्दों में “सूरजमल एक दृढ़ निश्चयी, बुद्धिमान्, नीतिचतुर, शूरवीर और महान् राजा था, जिसकी विदेशियों ने भी प्रशंसा की तथा उससे भयभीत थे।” (कालिकारंजन कानूनगो, जाट, पृ० 82)

महाराजा सूरजमल के दाहसंस्कार के लिए उनका शव तो था नहीं, अतः एक रानी के पास उनके दो दांत मिल गये। राजपण्डितों ने कहा कि दांत भी शव के समान ही हैं, अतः कृष्ण जी की पवित्र लीलाभूमि गोवर्धन में महाराजा का अन्त्येष्टि-समारोह सम्पन्न हुआ। बाद में खुदाई करके वहां कुसुम सरोवर ताल बनाया गया और उसके पूर्वी किनारे पर एक छतरी (स्मारक) बनाई गई, जो जाट वास्तु-कला का एक अविस्मरणीय सुन्दर नमूना है।

इस दाहसंस्कार के बाद जवाहरसिंह अपने पिता की राजगद्दी पर बैठ गया।

महाराजा सूरजमल के भरतपुर राज्य का विस्तार - यह जाटराज्य पूर्व से पश्चिम 200 मील और उत्तर से दक्षिण 150 मील लम्बा-चौड़ा था। भरतपुर के रूप में इस जाटराज्य में भरतपुर के मूल जाटराज्य के अलावा जि० धौलपुर, आगरा, मथुरा, मैनपुरी, एटा, जलेसर, मुडसान, हाथरस, अलीगढ़, बुलन्दशहर, मेरठ, रोहतक, बहादुरगढ, झज्जर, फर्रूखनगर, बल्लभगढ़, रेवाड़ी, गुड़गांव, सम्पूर्ण मेवात, अलवर, किशनगढ़ और दिल्ली के निकटवर्ती इलाके शामिल थे। इस जाटराज्य की पूर्वी सीमा को हरद्वार में भागीरथी गङ्गा शोभित करती थी, दक्षिण में चम्बल नदी, पश्चिम में जयपुर और उत्तर में दिल्ली इसकी सीमा थी। शाह आलम केवल कहने को मुग़ल बादशाह था, जिसका राज्यक्षेत्र, दिल्ली से पालम (दिल्ली छावनी से 5 मील दक्षिण में एक गांव) तक ही था। किसी फारसी कवि ने कहा भी था - सल्तनत-ए शाह आलम, अज़ दिल्ली ता पालम।

दुर्ग - डीग, भरतपुर, कुम्हेर और वैर के प्रसिद्ध एवं सुदृढ़ दुर्गों (जो मूलतः जाटक्षेत्र में स्थित हैं) के अतिरिक्त अलीगढ़, बल्लभगढ़, सिकन्दराबाद, अलवर एवं किशनगढ़ सहित अनेक छोटे-छोटे दुर्गों को महाराजा सूरजमल ने जाट राज्य की सीमाओं की रक्षात्मक दृष्टि से मजबूत बनाया था। सूरजमल अपने उत्तराधिकारी के लिए दुर्ग सेना के अतिरिक्त 15,000 घुड़सवार सेना, 25,000 पैदल सेना, 5,000 घोड़े, 100 हाथी, 300 तोपें और उसी अनुपात में काफी युद्ध-सामग्री छोड़ गया था।

सूरजमल के स्वर्गवास के समय उनके कोष में कितनी धनराशि थी, इसका ठीक ब्यौरा नहीं लग सका, केवल अनुमान ही लगाया जाता है कि वह एक धनवान् महाराजा थे। अपनी संपत्ति के विषय में, स्पष्टवादिता के एक अवसर पर सूरजमल ने पानीपत की तीसरी लड़ाई के समय कहा था, “मेरे पास डेढ़ करोड़ की आमदनी का इलाका है और मेरे खजाने में 5-6 करोड़ रुपये हैं।”


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-702


सूरजमल का धार्मिक दृष्टिकोण - व्यक्तिगत रूप से सूरजमल हिन्दू धर्म के वैष्णव सम्प्रदाय का अनुयायी था, किन्तु वह अन्य धर्मों के लोगों को भी समान समझता था। उसके व्यक्तिगत सेवकों में करीमुल्लाह खान और मीर पतासा प्रमुख थे। मीर मुहम्मद पनाह उसकी सेना में एक महत्त्वपूर्ण पद पर था, जिसने घसेरा के दुर्ग पर सर्वप्रथम विजयी झण्डा फहराते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी (सुजान चरित्र, पृ० 139-140)। सूरजमल की सेना में मुसलमानों को भरती कर रखा था जिनमें बहुत बड़ी संख्या में मेव थे। सेना एवं प्रशासन में बिना किसी भेदभाव के जाट एवं मुसलमानों के अलावा ब्राह्मण, राजपूत, गूजर सहित सभी वर्गों के लोग थे। उसके राज्य में मुस्लिम मस्जिदों की पवित्रता यथावत् बनी हुई थी। इस प्रकार भरतपुर का जाट राजा सूरजमल शूर, साहस, बुद्धि, विवेक, दूरदर्शिता, प्रबन्धकौशल के गुणों से युक्त होते हुए कवि एवं विद्वानों का आश्रयदाता, कला एवं संस्कृति का पोषक, शरणागत का रक्षक और धार्मिक मामलों में उदार, माननीय एवं विवेकशील था। सभी जाट राजाओं में निश्चय ही वह सर्वाधिक योग्य एवं गुणी था। इमाद के लेखक ने सत्य ही उसे जाटों का प्लेटो कहा है।

महाराजा सूरजमल का लक्ष्य दिल्ली पर अधिकार करने का था। उसकी शक्तिशाली जाटसेना से साम्राज्यवादी मुस्लिम सेना एवं उनके नेता वजीर नजीबुद्दौला, भयभीत हो चुके थे। यदि सूरजमल की इस युद्ध में मृत्यु न होती तो निःसन्देह जीत जाटों की होती और उनका दिल्ली पर अधिकार होता और मुग़लों का शासन समाप्त हो जाता। लेकिन यह जाटों का दुर्भाग्य था कि महाराजा सूरजमल युद्ध में धोखे से मारे गये।

महाराजा सूरजमल ने अपने जीवनकाल में 24 बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं जिनका संक्षिप्त वर्णन उनकी इस जीवनी में कर दिया गया।

महाराजा सूरजमल के दाह संस्कार की नई खोज

समाचार पत्र ग्राम प्रतिनिधि, प्रगतिशील हिन्दी मासिक, दिनांक 25 दिसम्बर, 1990 ई०, लेख डॉक्टर बलबीरसिंह अहलावत (गांव गोछी, जि० रोहतक), हिन्दू कॉलिज, देहली का लेख निम्न प्रकार से है -

“चौधरी हुकमसिंह ने जिनकी आयु 85 वर्ष हो चुकी है, एक भेंट में मुझे बताया कि महाराजा सूरजमल का अन्त 25 दिसम्बर, 1763 ई० को, दिन छिपने से पहले हुआ। यह

लेख आधार पुस्तकें -

1. महाराजा सूरजमल, और उनका युग, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत
2. हिस्ट्री ऑफ दी जाट्स, लेखक के० आर० कानूनगो
3. महाराजा सूरजमल, लेखक कुंवर नटवरसिंह
4. [[Jat History Thakur Deshraj|जाट इतिहास, लेखक ठा० देशराज।
5. जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री
6. महाराजा सूरजमल, लेखक बलबीरसिंह।
7. इतिहासपुरुष सूरजमल।
8. भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, लेखक मनोहरसिंह राणावत।
9. राज्य भरतपुर का संक्षिप्त इतिहास, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-703


उन्होंने अपने दादा की जबानी सुना, जिसने यह सब कुछ अपनी आंखों से देखा था। चौ० हुकमसिंह शाहदरा में सूरजमल की समाधि के निकट रहते हैं। उसने बताया कि मुग़ल सेना के सिपाही बड़ी संख्या में इधर-उधर दिखाई दे रहे थे। अतः हमारे लोगों में बड़ा भय था। फिर भी मेरे दादा तथा कुछ लोगों ने सूरजमल के शव को रात के अंधेरे में छिपाए रखा। डर यह भी था कि कोई जासूस मुग़ल सेना से चुगली न कर दे। रात को सुनसान हो जाने पर तथा कोई भी मुग़ल सैनिक नजर न आने पर, उस समय हमारे पूर्वज लोगों ने महाराजा सूरजमल की चिता बनाकर वैदिक मन्त्रों द्वारा दाह संस्कार कर दिया। इसकी सभी रस्में पूरी की गईं।”

सवाई महाराजा जवाहरसिंह भारतेन्द्र (सन् 1764-1768 ई०)

महाराजा सूरजमल की 25 दिसम्बर, 1763 ई० को रुहेले सैनिकों द्वारा एकाएक मृत्यु हो जाने पर, जाट राज्य का प्रधानमंत्री, सेनापति तथा भरतपुर किले का किलेदार बलराम अपने भांजे नाहरसिंह को साथ लेकर, उसी रात सेना के साथ कूच करके तीस घण्टे में ही 27 दिसम्बर को सूरजमल की मृत्यु का दुःखद समाचार लेकर डीग पहुंच गया। सूरजमल का वास्तविक उत्तराधिकारी बड़ा पुत्र जवाहरसिंह था। परन्तु बलराम एवं उसकी बहन रानी हँसिया तथा उनके साथी नाहरसिंह को सिंहासन पर बैठाना चाहते थे। महाराजा सूरजमल की इच्छा नाहरसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाने की थी जिसकी उन्होंने घोषणा कभी नहीं की थी। नाहरसिंह अपने पिता का आज्ञाकारी, गुरुजनों का सम्मान करनेवाला, नम्र और सादा स्वभाव का था। किन्तु वह निर्भयता और वीरता के गुणों से भरपूर न था। जवाहरसिंह को किसी से भय न था। वह अपने इरादों को पूरा करने तथा बदला लेने को तैयार रहता था। वह रणकुशल, प्रबन्ध करने में योग्य, फुर्तीला, चतुर तथा वीर होने के कारण शासक होने के योग्य था। किन्तु महाराजा सूरजमल को उसकी निरन्तर लड़ाकू प्रवृत्ति होने से भय था कि हो सकता है जवाहरसिंह जाटराज्य एवं जाट जाति को नष्ट कर दे। इसी कारण वह उसको अपना राज्य देना नहीं चाहता था।

कुंवर जवाहरसिंह को यह सूचना मिल गई। उस समय वह फर्रूखनगर दुर्ग में था। उसने वहां से अपने भाई नाहरसिंह एवं मंत्रियों को एक कठोर धमकीभरा संदेश भेजा कि “तुम डरपोक एवं अयोग्य हो जो अपने महाराजा का साथ छोड़कर चले आये जो कि एक अनुचित कार्य किया। इसके लिए तुम्हें धिक्कार है। अब उसका बदला लेने की बजाय तुम सोच रहे हो कि उसका उत्तराधिकारी कौन हो। इस समय मैं अपने जन्म अधिकार का दावा नहीं करूंगा, किन्तु सबसे पहले मैं अकेला ही अपनी अल्प सैनिक शक्ति के साथ अपने पिता के घातक पर आक्रमण करके मृत्यु का बदला लूंगा। उसके बाद ही विचार करूंगा कि पिता की गद्दी पर बैठने का यथार्थ में कौन उत्तराधिकारी है।” (वैण्डल, पृ० 95; फाल०, 2, पृ० 355; कानूनगो, जाट, पृ० 92)।

जवाहरसिंह की इस एक ही धमकी से सभी दरबारी व नाहरसिंह जो स्वभावतः भीरु और साहसहीन युवक था, भयभीत हो गये। इसीलिये वह अपने कुटुम्बियों व अपने पक्ष के कुछ सरदारों को साथ लेकर धौलपुर भाग गया। वहां पर वह ऐसे उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करने लगा जब पुनः राज्य प्राप्ति का दावा कर सके। वैण्डल, पृ० 95)।


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इसी समय जवाहरसिंह एक तेज चलनेवाले ऊंट पर सवार होकर स्वयं डीग आ पहुंचा। बुद्धिमान् और नीतिनिपुण बलराम ने जवाहरसिंह के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। उसने जवाहरसिंह के उत्तराधिकार की घोषणा कर दी। इस प्रकार साहस और चातुर्य से जवाहरसिंह ने अपना खोया हुआ उत्तराधिकार प्राप्त किया और दिसम्बर* (अन्तिम सप्ताह में), 1763 ई० में डीग में राजगद्दी पर बैठा। ( कानूनगो, जाट्स, पृ० 92; यदुनाथ, पृ० 277)।

यद्यपि जवाहरसिंह राजा तो घोषित किया जा चुका था तथापि परिस्थितियां उसके प्रतिकूल ही थीं। नजीबुद्दौला से बदला लेने के लिए उसने अपने राज्य के सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा, परन्तु किसी ने भी उनका अनुमोदन नहीं किया। उधर नाहरसिंह, जवाहरसिंह को गद्दी से उतारने के लिए धौलपुर में मराठों से सांठ-गांठ कर रहा था। बलराम ने भरतपुर किले के द्वार बन्द कर दिए तथा सूरजमल का गुप्त खजाना जवाहरसिंह को बताने से भी इन्कार कर दिया। नाहरसिंह के समर्थक कई सरदार डीग और भरतपुर छोड़कर सुदूर क्षेत्रों में अपनी-अपनी जागीरों को चले गए। वैर दुर्ग के अधिकारी बहादुरसिंह (महाराजा सूरजमल के भाई प्रतापसिंह का पुत्र) ने जवाहरसिंह को राजा मानने से इन्कार कर दिया और स्वयं स्वतन्त्र शासक बनने का प्रयास करने लगा। जवाहर को नजीबुद्दौला से युद्ध करने के लिये धन और सैनिक शक्ति दोनों की आवश्यकता थी। धन तो राजमाता किशोरी ने उसे काफी दे दिया। अब जवाहर ने अपने सलाहकारों व दरबारियों पर व्यंग किया कि यदि वे नजीब खान के विरुद्ध युद्ध में उसकी सहायता नहीं करेंगे तो धन के बल पर वह विदेशी सैनिकों की सहायता प्राप्त करके नजीब पर हमला करेगा। अतः अनिच्छुक होते हुए भी उन लोगों को जवाहर का साथ देने के लिये सहमत होना पड़ा1

कुंवर जवाहरसिंह ने अनेक लड़ाइयां लड़ीं जैसे घसेरा का युद्ध, कुम्हेर के घेरे के समय वहां पर आनेवाले खाण्डेराव का सामना और भरतपुर की रक्षा, अपने पिता के साथ जाकर होडल, पलवल, मेवात और अलवर पर अधिकार, अब्दाली से चौमुहा और बल्लभगढ़ में युद्ध, फर्रूखनगर पर अधिकार, आदि-आदि। (देखो पिछले पृष्ठों पर महाराजा सूरजमल प्रकरण)। अब जवाहरसिंह के राजा बनने के बाद उसके युद्धों का वर्णन किया जाता है।

अपने पिता का बदला लेने के लिए दिल्ली पर चढ़ाई

महाराजा जवाहरसिंह ने मल्हारराव होल्कर के पास अपने राजदूत रूपराम कटारिया को भेजकर नजीब के विरुद्ध संघर्ष में उसकी सहायता मांगी। जवाहर की ओर से 25 लाख रुपये दिये जाने का वायदा करने पर अपनी 25 हजार मराठा सेना को लेकर मल्हारराव होल्कर स्वयं नजीब के विरुद्ध सहायता करने के लिए तत्पर हो गया। परन्तु मल्हारराव का प्रमुख उद्देश्य दोनों ओर से धन प्राप्त करना ही था। आवश्यक धन देकर जवाहर ने 15 हजार सिक्ख सेना को भी सहायतार्थ आमन्त्रित किया। मराठा व सिक्ख प्रत्येक सिपाही को एक रुपया प्रतिदिन जवाहर की ओर से दिया जाता था।


1. वैण्डल, पृ० 97; फाल, 2, पृ० 335; कानूनगो, जाट्स, पृ० 92-93।
(*) - कई इतिहासकार, ठा० देशराज, योगेन्द्रपाल शास्त्री, परमेश शर्मा आदि, जवाहरसिंह का राजतिलक (सिंहासन पर बैठना), 2 जनवरी, 1764 ई० को हुआ लिखते हैं।


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महाराजा जवाहरसिंह, अक्तूबर 1764 ई० के अन्त में, एक बड़ी भयानक हिन्दू सेना के साथ दिल्ली के दरवाजे के सामने, अपने पिता की मृत्यु के बदले में नजीबुद्दौला का सिर और पानीपत विजय के मुस्लिम प्रभाव को नष्ट करने के लिए, जा डंटा। उसके साथ उसकी 60,000 सेना और 100 तोपें थीं। इनके अतिरिक्त उसके साथ 25,000 मराठे सैनिक होल्कर की अध्यक्षता में और 15,000 घुड़सवार सिक्ख सैनिक शामिल थे जो वेतन पर थे1। इस अवसर पर राजमाता किशोरी2 तथा फ्रांसीसी जनरल समरु3 भी जवाहरसिंह के साथ थे। इन दोनों का दिल्ली के इस युद्ध के संचालन में बड़ा योगदान था। राजमाता किशोरी ने लाल किले पर आक्रमण के समय अपने सैनिकों के साथ अगली पंक्ति में रहकर अद्वितीय वीरता का परिचय दिया।

नजीबुद्दौला ने दूसरे रुहेला सरदारों को मदद के लिए लिखा और अहमदशाह अब्दाली को जल्दी आ जाने की सूचना दी।

महाराजा जवाहरसिंह ने नजीबुद्दौला को बाहर निकलकर लड़ने के लिए ललकारा। अफगानों को बाहर निकलने का मौका देने के लिए अपनी सेना को 5-6 कोस पीछे को हटा लिया। 15 नवम्बर, 1764 को नजीबुद्दौला अफगानों के साथ बाहर निकला। जाट भूखे भेड़ियों के समान अफगानों पर टूट पड़े। उन्होंने अफगानों को शहर में घुसा दिया। महाराजा जवाहरसिंह ने होल्कर की सेना को देहली के उत्तर में, सिख सेना को उत्तर पश्चिम में, बाकी को देहली दरवाजे व अजमेरी दरवाजे पर नियुक्त कर दिया और स्वयं ने कुछ सेना के साथ यमुना पार करके शाहदरा को लूट लिया4। इस लड़ाई में महाराज जवाहरसिंह की मदद के लिए हरयाणा, देहली और यू० पी० के जाट प्रत्येक घर से, जेळी, लाठी, बल्लम, भाले आदि लेकर शरीक हुए थे जिन्होंने शत्रु से युद्ध किया और देहली को लूटा। जाटों की 17 नवम्बर की तोपों की लड़ाई से नजीब खां की सेनायें मैदान छोड़कर किले में घुस गईं। अब किले और शहर पर गोले पड़ने शुरु हुए। तीन महीने तक जाट, अफगानों के नाक में दम करते रहे5

4 फरवरी, 1765 को सब्जी मण्डी और पशुओं के मेला लगने के ऊंचे स्थान से अफगानों ने सिख और जाटों पर सख्त फायर शुरु कर दिया। किन्तु जाट गोलियों की कुछ भी परवाह न करते हुए अफ़गानों के दल में घुस गये। विवश होकर अफ़गान फिर भाग गये। इस युद्ध में दोनों पक्षों के सैनिक बड़ी संख्या में मरे और घायल हुए। मुग़ल व अफ़गान सेनायें लालक़िले में घुस गईं और किले के दरवाजे बन्द कर लिये1

शहर की सब दुकानें बन्द हो गईं तथा जनता भूखी मरने लगी। शाही सरकार का प्रबन्ध असफल हो गया। 5 फरवरी, 1765 ई० के दिन नई एवं पुरानी दिल्ली की जनता भूखी मरती हुई


1. वैण्डल, पृ० 97; इलियट 8, पृ० 363-364; कानूनगो, जाट्स, पृ० 93-94; जाट इतिहास, पृ० 647, लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 441, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री
2. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 441, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; हरयाणा सर्वखाप पंचायत रिकार्ड।
3. राज्य भरतपुर, पृ० 22, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर; हरयाणा सर्वखाप रिकार्ड।
4, 5, 6. कानूनगो, जाट्स, पृ० 94; महाराजा जवाहरसिंह, पृ० 43; लेखक राणावत वाका; 198-199 के अनुसार यह युद्ध, लूटमार व तोपों की गोलीबारी, शुरु के 26 दिनों तक चलती रही।


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जाट कैम्प में भोजन मांगने के लिए घुस गई। यह नगरवासियों का जाटों के आगे आत्मसमर्पण था। इन नागरिकों की रक्षक मुस्लिम सेना तो डरती किले में घुस गई थी। जवाहरसिंह की सेना ने नजीब खान को मदद एवं अन्य सामग्री मिलने के सब रास्ते रोक दिये थे और अब्दाली के पहुंचने की कोई आशा न थी1

उधर सिक्खों को समाचार मिला कि अहमदशाह अब्दाली सिन्धु नदी को पार कर चुका है और अपनी सेना सहित लाहौर की तरफ बढ़ने वाला है। इस झूठी खबर को सुनकर, अपने पंजाब प्रदेश की रक्षार्थ, जवाहरसिंह को बिना बताये ही, सारे सिक्ख सैनिकों ने एकाएक दिल्ली से पंजाब के लिये कूच कर दिया। जवाहर के विरोधी सरदार, जो अनिच्छापूर्वक ही युद्ध में सम्मिलित हुए थे, नहीं चाहते थे कि जवाहरसिंह को सफलता मिले2

अब लालकिले पर अधिकार करने के लिए उसके भीतर घुसे हुए मुस्लिम सैनिकों को जीतना था। इसके लिए जाटों ने आक्रमण किया। जवाहरसिंह ने शाहदरा के निकट यमुना तट से तोपों के गोले लालकिले पर बरसाने शुरु कर दिये जिनसे किले एवं शत्रु को काफी हानि पहुंची। दूसरी ओर जाट सेना इस किले के दरवाजों को तोड़कर अन्दर घुसने का प्रयत्न कर रही थी। परन्तु किले के बन्द दरवाजे के किवाड़ों पर लम्बे-लम्बे नोकदार बाहर को उभरे हुए लोहे के मजबूत भाले लगे हुए थे, जो हाथी की टक्कर से टूट सकते थे। किन्तु हाथी इन भालों से डरकर उल्टे हट गये। यह कार्य बिना देरी किये करना था। अतः और साधन न मिलने पर खूंटेल (कुन्तल)) गोत्र का जाट पुष्कर सिंह (पाखरिया) वीर योद्धा अपनी छाती किवाड़ों के भालों के साथ लगाकर खड़ा हो गया और पीलवान से कहकर हाथी की टक्कर अपनी कमर पर मरवा ली। दरवाजा तो टूटकर खुल गया परन्तु वीर योद्धा पुष्करसिंह वहीं पर वीरगति को प्राप्त हो गया।

इस अमर बलिदान से अजेय दुर्ग जीत लिया गया3। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि यह बलिदान रानी किशोरी के भाई तथा जवाहरसिंह के मामा बलराम ने दिया था, जो कि असत्य बात है। क्योंकि दिल्ली विजय के बाद जवाहरसिंह ने इस बलराम को बन्दी बना लिया था। इससे लज्जित होकर बलराम ने कारागृह में ही आत्महत्या कर ली यह घटना अगले पृष्ठों पर लिखी जायेगी।

लालकिले का दरवाजा टूटते ही जाट सेना किले के अन्दर घुस गई और अनेक शाही सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा किले की खूब लूटमार की। उधर दिल्ली नगर को भी जाटों ने बुरी तरह से लूट लिया। नगर त्राहि-त्राहि कर उठा। शाही सेना को साधनहीन बना दिया गया तथा वह भयभीत होकर साहस छोड़ बैठी4


1. कानूनगो, जाट्स, पृ० 94-95; अब्दाली ने अक्तूबर 1765 ई० को सिन्ध नदी पार की, जबकि नजीब और जवाहर की सन्धि इससे 7 महीने पहले हो गई थी।
2. शाकीर० पृ० 105; फाल 2, पृ० 341; गुप्त, पृ० 210.
3. जाट इतिहास, पृ० 557, लेखक ठा० देशराज; सुधारक बलिदान विशेषांक, पृ० 332, लेखक आचार्य भगवान् देव
4. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 442, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; क्षत्रियों का इतिहास, पृ० 135-136.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-707


मल्हारराव होल्कर का विश्वासघात

महाराजा जवाहरसिंह ने अपने साथी मल्हारराव होल्कर से आग्रह किया था कि वह शत्रु पर आक्रमण करने में सहायता दे। परन्तु होल्कर, जवाहरसिंह की सेना से बहुत पीछे ठहरा रहा, आगे को नहीं बढ़ा। क्योंकि उसने नजीब खान से भी धन प्राप्त करके उसकी रक्षा का वचन दे दिया था। वह नहीं चाहता था कि नजीब पराजित हो जाये तथा दिल्ली पर जवाहरसिंह का अधिकार हो जाये। उसकी नीति यही थी कि जाटों से अधिकाधिक धन प्राप्त कर लेने के साथ ही उनकी शक्ति भी कम करे1

अब नजीब खान ने जाटों से भयभीत होकर उनके सामने आत्मसमर्पण करना चाहा। जब जवाहरसिंह को पूर्ण विजय मिलने को ही थी, तो उनके नमकहराम दोस्त मल्हारराव होल्कर ने जवाहरसिंह के विरुद्ध नजीब खान का पक्ष ले लिया। उसने नजीब को आत्म-समर्पण की बजाय जाट राजा से सन्धि करने को कहा। इस तरह से होल्कर ने जवाहर की आशाओं पर पानी फेर दिया। फादर वैण्डल लिखते हैं कि “मल्हारराव ने बड़ी लापरवाही और खुल्ल्म-खुल्ला नजीब खान की तरफदारी की। ऐसे समय पर जबकि रुहेले बिना किसी शर्त के आत्म-समर्पण करने ही वाले थे, उसने तमाम मामलों को बिगाड़ दिया। महाराजा जवाहर को विवश होकर सन्धि की स्वीकृति देनी पड़ी।” (French M.S. 59)। अब नजीब खान ने मल्हारराव होल्कर से मिलकर जवाहरसिंह के साथ सन्धि करने की बातचीत शुरु की। इन बातचीतों में नजीब की ओर से सुजान मिश्र, राजा चेतराम, तेजराम कोठारी और नवाब जाब्ता खान; तथा जवाहरसिंह की ओर से रूपराम कटारिया और गंगाधर तांत्या भी शामिल थे। नजीबुद्दौला ने अपने दूतों द्वारा सन्धि-पत्र जवाहरसिंह के पास भेजा।2। जवाहरसिंह ने उत्तर दिया कि “निर्णय युद्ध में ही होगा, मैं नजीबुद्दौला का सिर चाहता हूँ।” इसके पश्चात् 9 फरवरी, 1765 ई० को नजीबुद्दौला अपने साथी मल्हारराव होल्कर को साथ लेकर शाहदरा कैम्प में जवाहरसिंह से मिला। होल्कर ने जवाहरसिंह को इस शर्त पर मना लिया कि शहजादी का डोला और युद्ध का सब खर्च नजीबुद्दौला के सिर है, आप स्वीकार कर लीजिए। सन्धि स्वीकार कर ली गई। इसके अनुसार नजीबुद्दौला ने सम्राट् की ओर से जवाहरसिंह को 60 लाख रुपये और शाह आलम द्वितीय सम्राट् की शहजादी का डोला दे दिया3। यह दुर्भाग्य था कि जवाहरसिंह दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर सम्राट् घोषित होने ही वाला था किन्तु लाचार होकर उसे यह सन्धि करनी पड़ी क्योंकि सिक्ख सेना के दिल्ली से चले जाने तथा मल्हारराव के नजीब की ओर हो जाने से जवाहरसिंह की सैन्यशक्ति काफी कम हो गई। वह यह भी जानता था कि मेरी अकेली जाट सेना को शाही एवं मराठा सेना को जीतने में काफी कठिनाइयां आयेंगी। अतः अप्रसन्न होते हुए भी उसने सन्धि की यह शर्त मान ली। यद्यपि दिल्ली के सिंहासन पर जाटों का अधिकार न होने पाया किन्तु उन्होंने दिल्ली नगर एवं लालकिले को अवश्य ही जीत लिया था। इससे भारत में जाटों की शक्ति का सितारा सबसे ऊंचा हो गया।

फरवरी 12, 1765 ई० को जवाहरसिंह दिल्ली का घेरा उठाकर अपनी समस्त सेना के साथ


1. नूरुद्दीन रशीद, पृ० 80; बिहारी इस्लामिक, 10, 656; फाल०, 2, पृ० 337; हिंगणे, 2 पृ० सं० 55; जवाहरसिंह जाट, पृ० 43, लेखक मनोहरसिंह राणावत


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-708


दिल्ली से पांच मील दक्षिण में स्थित ओखला के लिए रवाना हुआ। फरवरी 15, 1765 ई० को विश्वासघाती मल्हारराव होल्कर नजीबुद्दौला से मिला, तब उसे वहां एक हाथी, दो घोड़े, जवाहरात से भरी नौ तस्तरियां भेंट की गईं और 120 खिलअतें (पोशाकें) उसके साथियों के लिए प्रदान कीं। फरवरी 16, 1765 ई० को जाब्ता खान ने जवाहरसिंह से ओखला में भेंट की और उसे मुगल शहजादे की तरफ से एक हाथी, घोड़ा और खिलअत भेंट की4

महाराजा जवाहरसिंह, मल्हारराव से खुनस मानते हुए डीग को लौट आए। देहली की लड़ाई में उनको लूट में बहुत से जवाहरात और कीमती सामान हाथ लगे। ‘अष्टधाती’ नाम का दरवाजा जिसे अकबर के मुग़ल सैनिक चित्तौड़ के किले से लाये थे, उन्हें लाल किले से उतरवाकर, जवाहरसिंह ने भरतपुर पहुंचाया, जो आज भी भरतपुर के किले में चढ़े हुए देखे जा सकते हैं। दिल्ली लाल किले से लाया हुआ संगमरमर का सिंहासन डीग के किले में मौजूद है। भरतपुर के देहातों में आज भी ऐसी चीजें पाई जाती हैं जिन्हें वे देहली की लूट से लाया हुआ बतलाते हैं।

जाटों में दिल्लीवारे की लूट नाम की एक कहावत भी प्रचलित है। दिल्ली से डीग आते समय महाराजा जवाहरसिंह ने मार्ग में नव मुस्लिम जाटों को शुद्ध करके हिन्दू बनाया। वे जाट आज तक भी हिन्दू हैं5। महाराजा सवाई जवाहरसिंह भारतेन्द्र की पदवी धारण करके गद्दी पर बैठा। महाराजा जवाहरसिंह ने उस शहजादी को अपने सेनापति फ्रांसीसी कप्तान समरू को दे दिया जो उसकी बेगम बनी, जिसने दिल्ली मुग़लराज्य के बड़े-बड़े राजनीतिक कार्य सिद्ध किए6। दिल्ली के इस युद्ध के समय जवाहरसिंह के सेनापति बलराम मुग़ल वंश की कई बेगमों को अपने साथ डीग ले आए थे। ब्रज में एक कहावत प्रसिद्ध है कि पाले पड़ी बलराम के ठाड़े मटर चबाय7

जवाहरसिंह द्वारा आन्तरिक शत्रुओं का दमन

देहली की लड़ाई से लौट आने पर (मार्च 1765) जवाहरसिंह ने अपने आन्तरिक शत्रुओं के दमन करने की अत्यन्त आवश्यकता समझी। उन्हें यह भी सन्देह हो गया था कि उनकी सेना के कुछ सरदार मल्हारराव होल्कर की साजिश में शामिल थे। उनकी सेवा में समरू नाम का प्रसिद्ध जनरल दिल्ली पर चढ़ाई के समय आ चुका था। वह शुजाउद्दौला के दरबार से नौकरी छोड़कर आया था। महाराजा ने उसकी सिखलाई से एक अच्छी सेना तैयार की। दो पुराने सरदार, बलराम घुड़सवार


2, 4. कानूनगो, जाट, पृ० 95-96; भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 48-49, लेखक मनोहरसिंह राणावत।
3. जाट इतिहास, पृ० 120, लेखक ले० रामसरूप जून
5. जाट इतिहास, पृ० 647, लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 442, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री
6. जाट इतिहास, पृ० 120, लेखक ले० रामसरूप जून; इसकी पुष्टि एक प्रचलित दन्तकथा से भी होती है जो निम्न प्रकार से है - महाराजा जवाहरसिंह सन् 1766 ई० में किसी विशेष कार्य के लिए कूच करते हुए रास्ते में एक दिन के लिए गाँव डीघल (जि० रोहतक) में रुके थे। उनके साथ कप्तान समरु एवं उसकी बेगम समरु (सम्राट् की शहजादी) भी थे। अहलावत खाप के लोगों ने महाराजा जवाहरसिंह का बड़े सम्मान से स्वागत किया और समरु एवं बेगम समरु के बड़े चाव व प्रेम से दर्शन किए। (लेखक)
7. ठा० देशराज, जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड), पृ० 171।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-709


सेना के सेनापति और मोहनराम तोपखाने का अध्यक्ष था। इनके हाथ में राज्य की शक्ति, सेना और खजाना था। उनके रिश्तेदार बड़ी आवश्यक नौकरियों पर लगे हुए थे। महाराजा का ध्यान पहले उनकी ओर हुआ। क्योंकि ये दोनों (बलराम व मोहनराम) जवाहरसिंह की बजाय नाहरसिंह को राजा बनाना चाहते थे।

कुछ समय पश्चात् महाराजा आगरा आए और बलराम तथा दूसरे सन्देह वाले लोगों को गिरफ्तार करा लिया। बलराम और मोहनराम ने अपने अपमान के डर से आत्महत्या कर ली। कहा जाता है कि मोहनराम के पास निजी सम्पत्ति को छोड़कर 80 लाख रुपये नकद थे। परन्तु मृत्यु पर्यन्त इन सरदारों ने जवाहरसिंह को कुछ नहीं बताया। जवाहरसिंह को केवल 15 लाख रुपए हाथ आये1

अब बहादुरसिंह की बारी आई। यह महाराजा जवाहरसिंह का चचेरा भाई था, जिसने महाराजा सूरजमल की सेवाओं द्वारा बहुत से पुरस्कार भी पाये थे। यह वैर2 का स्वतन्त्र स्वामी बन बैठा था जिसके पास काफी धन, काफी तोपें और बहुत सेना थी। उसको अभिमान हो गया था। वह शासक होने का अपना उतना ही अधिकार समझता था जितना कि जवाहरसिंह।

वह जवाहरसिंह के मना करने पर भी क़िलाबन्दी और तैयारी करता रहा।

महाराजा जवाहरसिंह ने अगस्त सन् 1765 में वैर पर चढाई कर दी और चारों ओर से घेरा डाल दिया। बहादुरसिंह ने डटकर मुकाबला किया। तीन महीने तक इसी तरह आक्रमण होते रहे और बहादुरसिंह बेकार करता रहा। आखिरकार वह चालाकी से गिरफ्तार कर लिया गया। उसको नवम्बर 1765 में भरतपुर लाया गया।

बहादुरसिंह को अप्रैल, 1766 में ही फर्रूखनगर के नवाब मुसावी खान के साथ, महाराजा सूरजमल के पोता पैदा3 होने की खुशी में छोड़ दिया गया। जवाहरसिंह ने उन दो राजपूतों को जिन्होंने बहादुरसिंह को उसके विरुद्ध उकसाया था, भरतपुर की सड़क पर, दूसरों को चेतावनी देने के लिए सूली पर चढ़वा दिया था। जनता को दिखाने के लिए उनको कई दिन तक लटकाये रखा4

इस युद्ध में जवाहरसिंह के 30 लाख से भी अधिक रुपये खर्च हुए।

नाहरसिंह को हराना

जब महाराजा जवाहरसिंह बहादुरसिंह के दमन में लगे हुए थे, तब नाहरसिंह धौलपुर रहते हुए भरतपुर पर अधिकार करने की चेष्टा में था। नाहरसिंह ने मल्हारराव होल्कर को, भरतपुर पर अधिकार करा देने के लिए, लिखा-पढ़ी शुरु की। वह ऐसे मौके की ताक में था क्योंकि देहली की


1. कालिकारंजन कानूनगो, जाट इतिहास, पृ० 96-98; वैंडल, पृ० 98-100.
2. वैर - भरतपुर के दक्षिण-पश्चिम में 24 मील।
3. वह पोता जवाहरसिंह के छोटे भाई रत्नसिंह का बेटा था। राजा जवाहरसिंह को कोई सन्तान न थी इसीलिए इस लड़के को जिसका नाम केहरीसिंह था, गोद ले लिया था। इस खुशी में सब सियासी नेता कैद से छोड़ दिये गये।
4. के० आर० कानूनगो, जाट इतिहास, पृ० 98.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-710


चढ़ाई के बाद जवाहरसिंह ने होल्कर पर विश्वासघात का अपराध लगाकर ठहरे हुए शेष 15 लाख रुपये देने से इन्कार कर दिया तो वह जवाहरसिंह से काफी ऐंठ गया था।

होल्कर ने नाहरसिंह को धर्मपुत्र बना लिया, और इस नाते उसने अपनी सेना धौलपुर दुर्ग की रक्षा करने हेतु नाहरसिंह की मदद के लिए भेज दी। महाराजा जवाहरसिंह भी शीघ्र ही अपने और पंजाबी सिक्ख सैनिकों के साथ दिसम्बर सन् 1765 में चम्बल के किनारे पहुंच गया। यहां मराठा सेना का एक डिवीजन जो कि जाट प्रदेश में घुस आया था, कैद कर लिया गया। महाराजा जवाहरसिंह ने धौलपुर पर आक्रमण कर दिया परन्तु नाहरसिंह और मराठों की सेना उससे लोहा न ले सकी। किला जीत लिया गया। बहुत से मराठों को कैद कर लिया गया। नाहरसिंह वहां से भाग निकला और करौली से परे चौपोर में एक राजपूत जागीरदार के किले में शरण ली। वहीं पर उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। उसका परिवार राजा जयपुर के यहां जाकर रहने लगा1। बाद में उसकी रानी भी विष खाकर मर गई।

महाराजा जवाहरसिंह की नजर थोड़ी दूर नहीं पहुंचती थी, वह बहुत दूर की सोचता था। वह देहली पर अधिकार करके समस्त भारत पर जाटराज्य स्थापित करने की इच्छा रखता था। जब नजीबुद्दौला की हार अवश्य थी और वह जाटों के सामने हथियार डालने ही वाला था, तब होल्कर उसकी तरफ हो लिया था। अगर होल्कर ने बने बनाये काम को न बिगाड़ा होता तो अवश्य ही उसकी मनोकामनायें पूरी होतीं और भारत का इतिहास आज दूसरा ही होता। इतने पर भी जाटों द्वारा हुई देहली की लूट कम नहीं है जो कि भारत के इतिहास में अद्वितीय घटना है। यह जाटों का दुर्भाग्य था कि दिल्ली पर उनका राज्य स्थापित न होने पाया।

महाराजा जवाहरसिंह का रघुनाथराव से सन् 1767 में युद्ध

धौलपुर पर अधिकार करने के बाद महाराजा जवाहरसिंह, मराठों को राजपूताने से निकाल भगाने की इच्छा करने लगा। अब्दाली के मुकाबले में डटे रहने के लिए सिक्ख काफी थे। मालवा के जाटों को “जाट संघ” में मिलाकर वह मराठों को जीतने की तैयारी कर रहा था।

गोहद2 का राणा छत्रसाल* जाट अत्यन्त वीरता और बहादुरी से मराठों से कई वर्षों से युद्ध कर रहा था। हरयाणा और यू० पी० के जाटों की भांति वहां के जाटों ने भी अपने साहस का परिचय दिया। मराठों की विशाल सेना के साथ वर्षों तक मुकाबला करने में अपने स्वतन्त्र विचार और ध्येय को कायम रखा। महाराजा जवाहरसिंह ने वीरवर राणा छत्रसाल की सहायता करके मराठों की शक्ति क्षीण करने की ठान ली।

जब माधोराव पेशवा को इस जबरदस्त जाट संघ का पता चला तो उसे बड़ा भय हुआ। उसने


1. ठा० देशराज जाट इतिहास पृ० 648-649; कानूनगो, जाट्स, पृ० 100-101. :2. गोहद - यह ग्वालियर से उत्तर-पूर्व में है। इस राज्य की हद यह थी - इस राज्य के पश्चिम में ग्वालियर राज्य, पूर्व में काली सिन्धु नदी, उत्तर में यमुना नदी और दक्षिण में सिरमूर की पहाड़ियां थीं। (कालिकारंजन कानूनगो जाट इतिहास, पृ० 100 (रेनेलज एटलस Renell's atlas)
(*) - कई लेखकों ने राणा छत्रसाल के नाम की बजाए लोकेन्द्रसिंह लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-711


1766 बसन्त ऋतु में रघुनाथराव को होल्कर के साथ 60,000 घुड़सवार और 100 बड़ी तोपें देकर मराठों का दबदबा जमाने के लिए भेजा। रघुनाथराव ने जाते ही गोहद पर घेरा डाल दिया और बड़ी-बड़ी मांगें पेश कीं। महाराजा जवाहरसिंह उस समय बहुत बीमार थे। परन्तु ठीक होते ही शीघ्र ही मराठों से युद्ध करने पहुंच गये।

महाराजा जवाहरसिंह की सेना में दो (नागाओं के नेता) बड़े सरदार अनूपगिरि गोसाईं और उमराव गिरि गोसाईं, नाम के थे जो कि महाराजा के राजभक्त थे। उन्होंने रघुनाथराव से मिलकर कालपी की ओर थोड़ा-सा क्षेत्र मिल जाने के लालच में, महाराजा जवाहरसिंह को उसी के कैम्प में कैद करा देने का वायदा किया। यह बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि महाराजा की सेना में दो दुष्ट जयचन्द खड़े हो गये। उन विश्वासघातियों के भेद की सूचना गुप्तचरों द्वारा महाराज को ठीक समय पर मिल गई। उन्होंने अर्द्धरात्रि के समय ही अपनी सेना को तैयार किया और अचानक गोसाइयों के कैम्प पर हमला कर दिया। दुष्ट विश्वासघातियों ने बड़ी कठिनता से भागकर प्राण बचा लिये, परन्तु उनके साथी बड़ी संख्या में कैद कर लिये गए। उनका कैम्प लूट लिया गया जिसमें 1400 घोड़े, 60 हाथी, 100 तोपें व अन्य और भी काफी सामान महाराजा के हाथ आया। उन दुष्टों को उनकी करनी का फल मिल गया। उन दो गोसाइयों के परिवार को, जो आगरा, डीग और कुम्हेर में थे, एक स्थान में लाया गया और उन पर निगरानी रखी गई1

इसी समय अब्दाली ने फिर पैर बढ़ाया और मराठों की तरह वह भी भारत में पुनः रौब-दाब बैठाने पंजाब में फरवरी, 1767 में उपस्थित हुआ। उसने देहली तक पहुंचने की धमकी दी। अब्दाली का सामना करने के लिए जवाहरसिंह और रघुनाथराव में एक सन्धि हुई। इस तरह से उन्होंने अपने झगड़ों का फैसला किया। आपस में यह तय किया कि -

  1. जो मराठे कैदी भरतपुर में हैं, छोड़ दिये जायें।
  2. जबकि मराठे प्रथम संधि की शर्तों को पूरा कर दें, तो जवाहरसिंह, मल्हारराव के तय किए हुए बकाया 15 लाख रुपये दे दें।
  3. रघुनाथराव, महाराजा जवाहरसिंह के राज्य के आसपास का राजपूतों का क्षेत्र 5 लाख रुपये सालाना लगान पर जवाहरसिंह को दे दें।

इस प्रकार यह शर्तें दोनों ओर से ही साफ दिल से नहीं हुई थीं और न उन्हें निभाने की इच्छा ही थी। सन् 1767 के मध्य तक सिक्खों के जोर पकड़ जाने से अब्दाली का भय न रहा। जवाहरसिंह ने वर्षा ऋतु में ही युद्ध के लिए कदम बढ़ाया। आटेर और भिंड2 जहाँ के राजा मराठों के अधीन थे,


1. जाट इतिहास ठा० देशराज पृ० 650; कालिकारंजन कानूनगो जाट इतिहास, पृ० 101-103; (Chahar Gulzar-i-Shujai MS.) हरचरणदास, (Chahar) के लेखक का अनुमान है कि इस लूट में महाराजा जवाहरसिंह को 2 करोड़ रुपये का माल हाथ लगा। फादर वैण्डल 30 लाख बतलाता है। तथाति हरचरण का कहना वास्तव में ठीक है और यह वैण्डल के अनुवाद से प्रमाणित होता है। (के० आर० कानूनगो जाट इतिहास, पृ० 103).
2. अटेर - ग्वालियर के उत्तर-पूर्व में और ठीक गोहद के उत्तर में है।
भिंड - अटेर के निकट दक्षिण पूर्व में।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-712


महाराजा जवाहरसिंह पहले इन्हीं की ओर बढ़ा। उसने अपनी शक्तिशाली सेना से अटेर, भिंड, कालपी तक मराठे और छोटे-छोटे अन्य जागीरदारों को अपने अधीन कर लिया। (जुलाई, सितम्बर 1767)। इस तरह जाट राज्य की सीमा उसने बहुत कुछ बढा दी।

इस समय भारतवर्ष में एक और शक्ति पैर जमा रही थी, वह थी अंग्रेज। परन्तु अंग्रेज भी किसी ऐसे मित्र की खोज में थे जो उनकी मदद कर सके। चतुर अंग्रेजों ने महाराजा जवाहरसिंह के पास 19 अगस्त सन् 1765 ई० को एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा गया था कि महाराजा अगर समरू को अपने यहां से हटा दें तो अंग्रेज बाहरी आक्रमणों के विरुद्ध भरतपुर की सहायता करेंगे। यह पत्र पंजाब के गवर्नर लार्ड क्लाइव (Clive) ने लिखा था।

याद रहे सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी जनरल समरू अप्रैल 1764 में महाराजा के दरबार में नौकर लगा था।

महाराजा जवाहरसिंह ने उस पत्र पर कोई ध्यान न दिया और उसका कोई उत्तर न दिया। लेकिन अंग्रेज संधि करने की बार-बार चेष्टा कर रहे थे। जवाहरसिंह ने देखा कि मराठे स्वयं अंग्रेजों से सन्धि की प्रार्थना कर रहे हैं और अंग्रेज स्वयं मेरे से संधि की मांग कर रहे हैं तो उनसे क्यों ने संधि कर ली जाए। वह शीघ्र ही अब्दाली के विरुद्ध अंग्रेजों से जा मिला।

सन्धि शर्तों को ईमानदारी से पालने के कारण वह अंग्रेजों की तरफ अधिक आकर्षित हुआ। जवाहरसिंह ने भी अपनी मित्रता को पूरी तरह निभाया। अंग्रेजों से मित्रता होने पर उसने अब्दाली से किसी तरह का सम्बन्ध न रखा और उसके प्रार्थना करने पर भी अपने समझौते पर अटल रहा। इसी तरह मराठों से भी अंग्रेजों के कारण मित्रता तोड़ दी। जब भी मौका मिला, जवाहरसिंह ने मराठों के राज्य पर हाथ मारा और उनके काफी बड़े अधिकृत प्रदेश पर अपना कब्जा कर लिया1

महाराजा जवाहरसिंह का प्रताप-सूर्य शिखर पर था। वह अपने बढ़े हुए राज्यप्रबन्ध की उतनी चिन्ता में न था जितना कि बढ़ाने में। महाराजा जवाहरसिंह जी राजपूतों को अपने से अधिक ऊंचा नहीं समझते थे। बल्कि अपने को यादववंशी (चन्द्रवंशी) होने से सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी राजपूतों से ऊंचा बतलाते थे।

एक बार जयपुर के राजा के लिए एक सलाहकार ने राय दी कि “महाराज, वह जयपुर का राजा रामचन्द्र जी के वंशज हैं जिन्होंने समुद्र पर पुल बांधा था; इसलिए उनकी प्रतिष्ठा करनी चाहिये।” इस पर महाराजा ने उत्तर दिया - इसमें उनका कौन सा बड़प्पन है कि उसके पूर्वज ने समुद्र पर पुल बांधा था, मेरे पूर्वज श्रीकृष्ण महाराज तो गोवर्धन पहाड़ को एक अंगुली पर सात दिन तक थामे रहे थे1

महाराजा जवाहरसिंह ने अपना राज्य बहुत कुछ बढ़ा लिया था और अभी तक उसकी और भी इच्छा थी। उन्होंने महत्त्वाकांक्षी होने से अपनी पदवी महाराजा सवाई जवाहरसिंह भारतेन्द्र (भारत इन्द्र, भारत का परम महाराजा) धारण कर ली थी1। उन्होंने अपने दरबार की सजावट भी सम्राटों के तौर पर की थी।


1, 2. जाट इतिहास, ठा० देशराज पृ० 650-652; कानूनगो, जाट्स, पृ० 104-107 और 109.
3. कालिकारंजन कानूनगो जाट इतिहास, पृ० 110; ठा० देशराज पृ० 652.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-713


महाराजा जवाहरसिंह की पुष्कर तीर्थयात्रा नवम्बर-दिसम्बर 1767

जवाहरसिंह का राज्य तीन ओर तो बढ़ चुका था, अब उनकी नजर चौथी कोण राजपूताने की तरफ हुई। अलवर राज्य के संस्थापक राजा प्रतापसिंह के द्वारा जवाहरसिंह को उधर की तरफ बढ़ने का अधिक समर्थन मिला। उसने समर्थन ही नहीं, बल्कि इनसे प्रार्थना की क्योंकि वह जयपुर नरेश से झगड़ा करके महाराजा सूरजमल की शरण में आया था। इसलिए वह चाहता था कि जिस राज्य ने उसके साथ अन्याय किया है उसका बदला ले। वास्तव में भरतपुर और जयपुर के विरोध का कारण भी अधिकतर यही था। बाद में इसी ने महाराजा जवाहरसिंह के साथ विश्वासघात किया जिससे जवाहरसिंह को लाभ की बजाये बहुत हानि उठानी पड़ी। पुष्कर स्नान के बाद जब जवाहरसिंह की सेना एक तंग गाटी से वापिस आ रही थी, प्रतापसिंह ने जयपुर नरेश माधोसिंह को सब भेद बताकर जवाहरसिंह की सेना पर अचानक हमला करवा दिया था।

महाराजा भारतेन्द्र जवाहरसिंह ने पुष्कर स्नान के लिये अपनी शक्तिशाली1 सेना के साथ यात्रा शुरु कर दी। इसकी सेना के नेता कप्तान समरू जो सन् 1764 में आ चुका था, और एम० रेने मैडिक (M. Rene Madec) जो फ्रांस का एक प्रसिद्ध जनरल था, जून 1767 में आया था, थे। राव राजा प्रतापसिंह भी महाराजा के साथ था। जाट सैनिकों के हाथ में बसन्ती झण्डे फहरा रहे थे। इन जाट वीरों की यात्रा का समाचार सुनकर जयपुर नरेश घबड़ा गया। हालांकि जवाहरसिंह इस समय किसी ऐसे इरादे से नहीं गये थे पर यह यात्रा थी शाही ढ़ंग से। जवाहरसिंह की माता रानी किशोरी भी साथ थी जिसने अपने बेटे जवाहरसिंह से पुष्कर तीर्थ स्नान करने की अभिलाषा प्रकट की थी। रानी ने कहा था कि मैं जवाहरसिंह की माता और सूरजमल की रानी हूं। सेठाणियों जैसा स्नान मेरी शान के विरुद्ध है, मैं तो राजपूतों की रानियों के साथ बीच में स्नान करूंगी और उनके तुल्य दान पुण्य करूंगी। मैं सहन नहीं करूंगी कि राजपूती भूत सदा जाटों के सिर पर सवार रहे। जवाहरसिंह ने अपनी माता की आज्ञा का पालन किया।

महाराजा जवाहरसिंह अपनी सेना के साथ गाजे-बाजे बजाता हुआ जयपुर राज्य से होकर लूट मचाता हुआ 6 नवम्बर 1767 ई० को पुष्कर पहुंच गया। रास्ते में जयपुर नरेश माधोसिंह और किसी सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी जागीरदारों की हिम्मत न पड़ी कि जाते हुए जाट वीर को रोक सकें2। दन्तकथा है कि राजस्थान में उस समय राजपूतों के अतिरिक्त दूसरी जातियों की स्त्रियां लाख की बनी हुई चूड़ियां नहीं पहन सकती थीं और अपने घाघरों या दामन में नाड़े नहीं डाल सकती थीं किन्तु इनको रोकने के लिये इनके ऊपर से सेला (बालों की गुथी, या मूंज की रस्सी), कमर पर बांधनी पड़ती थी। पुरुषों को सिर पर पगड़ी बांधने की आज्ञा न थी। एक किसी भी राजपूत के आने पर बड़े से बड़े जाट को भी उसके लिए चारपाई छोड़कर भूमि पर बैठना पड़ता था। इस तरह की पाबन्दी जाटों पर अधिक थी। महाराजा जवाहरसिंह ने आम जनता पर से इन पाबन्दियों को हटाने


1. इस सेना में एक लाख पैदल, साठ हजार घुड़सवार और दो सौ तोपें थीं। कालिकारंजन कानूनगो जाट इतिहास, पृ० 111, टीका - हरचरणदास, लेखक चाहर-गुलजार-ए-शुजाई; जाट इतिहास, लेखक ले० रामसरूप जून पृ० 121.
2. जाट इतिहास, ठा० देशराज पृ० 653; के० आर० कानूनगो, पृ० 110.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-714


के लिये अजमेर शहर से काफी मात्रा में लाख की बनी हुई चूड़ियां, नाड़े और पगड़ियां आदि खरीद कर पुष्कर में स्नान करके, इन चीजों को स्त्रियों व पुरुषों को मुफ्त दे दिया। असंख्य औरतों को लाख की चूड़ियां पहनाकर और उनके घाघरों में नाड़े डलवाये और पुरुषों के सिर पर पगड़ियां बंधवाकर उनको उत्साहित किया। कहते हैं महाराजा ने लाख की चूड़ियां बेचने वाले दुकानदार से उनका मूल्य पूछा तो उस दुकानदार ने उत्तर में कहा कि, “महाराज, ये आपके काम की नहीं, ये तो लाख की हैं।” महाराजा ने मूल्य समझकर एक लाख रुपये उसको देकर सब चूड़ियां खरीद लीं थीं।

पुष्कर के किनारे पर सब राजपूतों के 52 घाट बने हुए थे जिन पर राजपूतों के सिवाय दूसरी जातियों के लोग स्नान नहीं कर सकते थे। उन सबके लिए झील के दूसरी ओर कच्चे किनारे थे जिसको “गंवार घाट” कहते थे। महाराजा जवाहरसिंह को भी इसी घाट पर स्नान करने की सलाह दी गई थी क्योंकि राजपूतों के बनवाये पक्के घाटों पर स्नान करने पर युद्ध होने का डर था। महाराजा ने निडरता से स्वयं और अपनी सेना को और अपनी माता किशोरी व परिवार को उसी पक्के घाट पर स्नान कराया। आम जनता को भी आदेश देकर उसी घाट पर स्नान करवाकर गंवार घाट नाम को समाप्त कर दिया। जवाहरसिंह ने वहां अपना पक्का घाट बनवाया जो भरतपुर घाट के नाम से प्रसिद्ध है। उसके साथ एक धर्मशाला भी है।

रानी किशोरी को सोने से तोला गया और यह सोना किशोरी ने वहीं गरीबों में अपने हाथ से बांट दिया। दूसरी राजपूत रानियां इतना दान नहीं कर सकीं जिससे उनको बड़ी जलन हुई। महाराजा जवाहरसिंह ने पुष्कर के रेतीले मैदान में सबसे ऊंचे और शानदार तम्बू लगवाये थे। उसके कैम्प की सजावट और शान निराली ही थी1। जवाहरसिंह और मारवाड़ के राजा विजयसिंह राठौड़ ने एक दूसरे की पगड़ी बदलकर आपस में मित्रता पक्की कर ली2। महाराजा जवाहरसिंह पुष्कर स्नान के पश्चात् भी कुछ दिन वहां रहे। विश्वासघातक प्रतापसिंह ने जयपुर राज्य में लौट आने का उचित समय समझकर, राजा माधोसिंह से जाकर कहा, “जाट ने राजपूती बाढ़ लियो रे।” उसको खूब भड़काया और सारा भेद दे दिया3

महाराजा जवाहरसिंह के ऊपर लिखित कार्यों को देखकर सब राजपूत राजे जल भुन गए और उन्होंने जवाहरसिंह के विरुद्ध पुष्कर में एक सभा की, जिसमें जाट राजा को नहीं बुलाया गया। राजा माधोसिंह ने सभा में कहा - “जाट ने राजपूतों की मूंछ काट ली है।” राजा विजयसिंह ने कहा कि, “महाराज! वह भी हिन्दू है, तीर्थ पर जिसकी इच्छा हो उतना दान दो, इसमें अनादर की कौन सी बात है? हम सब भाई हैं।” माधोसिंह और उसके साथी राजपूत राजाओं की जवाहरसिंह के साथ जमकर लड़ने की हिम्मत तो न पड़ी परन्तु उन्होंने जवाहरसिंह के वापिस जाने वाले मार्ग की एक तंग घाटी को घेर लिया। जयपुर सेना का सेनापति दलेलसिंह और बहुत से राजपूत सरदार और सब ही जागीरदार और जयपुर जनता के नागरिक इस युद्ध के लिए तैयार थे। राजपूत सेना में 20,000 घुड़सवार और 20,000 पैदल सिपाही थे4


1, 3. जाट इतिहास, लेखक ले० रामसरूप जून पृ० 121.
2, 4. जाट इतिहास के० आर० कानूनगो, पृ० 111-112.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-715


महाराजा जवाहरसिंह में जाति-प्रेम की अत्यधिक मात्रा थी। इसी कारण जब उसे मालूम हुआ कि तोरावाटी (जयपुर का एक प्रान्त, जयपुर से 30 मील उत्तर में) में अधिक संख्या में जाट निवास करते हैं तो उधर से वापिस लौटने का निश्चय किया। राजपूतों ने लौटते समय आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी।

प्रतापसिंह भी इस षड्यन्त्र में शामिल हो गया था जिसने जवाहरसिंह का पूरा भेद दे दिया1

14 दिसम्बर सन् 1767 को महाराजा जवाहरसिंह की सेना एक तंग रास्ते और नाले में से आ रही थी, ऐसे स्थान पर एक साथ बहुत कम सैनिक चल सकते थे। जाट सेना एक लम्बी कतार में चल रही थी। सामान आदि दो-तीन मील आगे निकल चुका था। सबसे आगे समरू का हाथी था और उसके पीछे फ्रांसीसी तोपखाना था। उसके पीछे रिसाला और पैदल पलटनें थीं। सबसे पीछे रानियों के डोलों के साथ जवाहरसिंह था और उनके पीछे राजदरबारी थे। पर्वत की घाटी में शत्रु की नंगी तलवारों की चमक देखकर समरू ने जवाहरसिंह को आगे बुला लिया2

आमने-सामने के युद्ध से डरने वाले राजपूतों ने अचानक धावा बोल दिया। मावण्डा (Maonda) का यह घमासान युद्ध प्रसिद्ध है। घाटी के बीच के काफी तंग रास्ते से गुजरने वाली सेना पर जैनागर (Jainagar) जयपुर के राजा ने धावा कर दिया। जाट वीरों ने प्राणों का मोह छोड़ दिया और युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर टूट पड़े। दोपहर को दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध छिड़ गया। मैडिक और समरू ने बड़ी वीरता और चतुराई से युद्ध किया। मैडिक ने अपनी सेना के साथ जैनागर (जयपुर) के राजा को हराया। कप्तान समरू ने मशीनगनों का फायर व तोपों के गोले शत्रु पर बरसाये जिनमें शत्रु की बहुत हानि हुई। जवाहरसिंह और उसकी जाट सेना सदा की तरह वीरता और जोश के साथ अंधेरा होने तक युद्ध करते रहे। इस युद्ध में दोनों सेनाओं के लगभग 10,000 सैनिक मारे गये। राजपूतों के लगभग सभी सेनापति काम आए और जयपुर सेना का प्रधान सेनापति दलेल सिंह अपनी तीन पीढ़ियों के साथ मारा गया। कहते हैं युद्ध में शामिल लगभग तमाम जागीरदार काम आये और उनके पीछे जो 8-10 वर्ष के बालक रहे थे, पीढ़ी चलाने के लिए शेष रहे थे। जवाहरसिंह की भारबरदारी राजपूतों और मीणों ने लूट ली3। जाट सेना ने राजपूत सेना को हराकर पीछे धकेल दिया। इस युद्ध में जवाहरसिंह की सेना लम्बी कतार व तंग पहाड़ी रास्ते से गुजरने के कारण संगठित और संचालित होकर युद्ध न कर सकी। छोटी-छोटी सेना टुकड़ी अलग-अलग शत्रु से लड़ती रही। यही कारण था कि जवाहरसिंह को पूर्ण सफलता न मिली। वह सेना सहित भरतपुर पहुंचने में सफल हुआ। तोरावाटी व जयपुर के देहाती जाटों ने जवाहरसिंह को इस लड़ाई में कोई मदद नहीं दी। यह पता चला कि बहुत दिन तक शासित रहने के कारण उनका स्वाभिमान मर चुका था। जवाहरसिंह ने जब देहली पर चढ़ाई की थी, तब देहली के चारों ओर के जाटों ने उसका खुलकर साथ दिया था, किन्तु यह मदद इस युद्ध में नहीं मिली जिसकी वह आशा करता था2

इस युद्ध में जाट और राजपूत अपनी-अपनी विजय बतलाते हैं। जवाहरसिंह को इस युद्ध में


1. जाट इतिहास ठा० देशराज पृ० 653.
2. जाट इतिहास लेखक ले० रामसरूप जून, पृ० 121; ठाकुर देशराज पृ० 653; के० आर० कानूनगो, 112.
3. जाट इतिहास, के० आर० कानूनगो; पृ० 112-113, ठा० देशराज, पृ० 654.
4. जाट इतिहास ठा० देशराज पृ० 654.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-716


जान और माल की काफी हानि उठानी पड़ी लेकिन जयपुर राज्य को इससे बहुत अधिक हानि उठानी पड़ी जिससे राज्य फिर नहीं संभला1। वास्तव में जीत जवाहरसिंह की हुई। क्योंकि राजपूतों का लक्ष्य जाट सेना व जवाहर को घात लगाकर मारना था जिसमें वे असफल रहे। जवाहरसिंह का लक्ष्य भरतपुर पहुंचने का था, जिसमें वह सफल रहा। अब महाराजा जवाहरसिंह को परिवर्तन का सामना करना पड़ा। जब उसके शत्रुओं ने सुना कि जवाहरसिंह को जयपुर वाले युद्ध में काफी हानि हुई है तो उन्होंने देख लिया कि अब मौका है। यह समाचार सुनते ही चम्बल पार का प्रदेश विद्रोही बन गया और जिस शीघ्रता से वह जाटराज्य में मिला, उसी तरह निकल भी गया। इधर माधोसिंह का भी साहस बढ़ गया था और भारी हानि उठाने के कारण बदला लेने के लिए 60,000 सेना के साथ जाटराज्य में घुस गया। फर्रूखनगर का नवाब मुसावी खां बलोच (जो कि एक वर्ष पूर्व ही भरतपुर से उदारतापूर्वक कैद से रिहा किया गया था) और रुहेले भी राजपूतों की मदद करने को तैयार हो गये। सिक्ख भी महाराजा की मित्रता छोड़ने पर उतारू हुए और उसके दोनों बाहरी प्रान्तों को छोड़ना शुरु किया। माधोसिंह को आगे बढ़ने और आगरे के दुर्ग को मुसावी खां की सेना से मिलकर जीतने के लिए सम्राट् शाह आलम-II ने शाही फरमान भेजा2

इस समय प्रत्येक व्यक्ति महाराजा जवाहरसिंह को राजपूतों से सुलह करने की सलाह दे रहा था, परन्तु स्वाभिमानी जाट जवाहरसिंह ने गौरवपूर्ण समझौता युद्ध के बीच लड़कर तय कर लेने का फैसला किया। उसने सिक्खों को अपने इलाके में लूट न करने के बदले 7 लाख रुपये दिये। एम० मैडिक का भत्ता 5000 रुपये माहवार बढ़ा दिया। जवाहरसिंह ने अपनी सेना में 20,000 सिक्खों को भरती करने का समझौता भी कर लिया3

राजपूत सोच रहे थे कि जवाहरसिंह स्वयं संधि का प्रस्ताव भेजेगा परन्तु उन्होंने देखा कि उसने सिक्ख अपनी तरफ कर लिये हैं, तो वे घबराये, उनको लेने के देने पड़ गये। जाटराज्य से सकुशल निकल जाना उन्हें असम्भव मालूम हुआ। इस भय से उन्होंने जवाहर से संधि कर ली और पंजाब के भयानक घुड़सवारों के आने से पहले ही अपने देश में पहुंच गये4

माधोसिंह के चले जाने के बाद जवाहरसिंह ने एक किले को, जहां राजपूतों का दूसरा वंश राज्य करता था, अधीन करने के लिए सेनापति मैडिक को भेजा। डेढ़ महीने पश्चात् वह किले पर चढ़ने में कामयाब हुआ। उसकी सेना जब किले के गोले बारूद से भयभीत हो गई तो भी वह निडर भाव से डटा रहा। दूसरी बार वह किले की दराज के सामने हमला करने को पहुंचा तो दुर्ग रक्षक राजपूत डर कर अधीन हो गये5

महाराजा जवाहरसिंह इस तरह अपने पक्के इरादे, निडरता और वीरता से फिर सम्भल गया था जिसे जानकर शत्रुओं को भय होने लगा था। बहुत शीघ्रता से महाराजा ने बिगड़ी हुई हालत को फिर वैसा ही बना लिया। उसके हथियार पहले की भांति चमकने लगे और राज्य की माली हालत बहुत बढ़ी जिससे प्रजा का प्रेम भी प्राप्त हो गया। उसने अपनी सेना का यूरोपियन ढ़ंग से संगठन किया, तोपखाने बढ़ाये जिससे बाहर वाले उसकी प्रतिष्ठा करने लगे। उसके शत्रुओं को बड़ा भय हुआ कि कहीं उसके क्रोध की ज्वालामुखी फिर से न उबल पड़े। परन्तु दुर्भाग्य से होना कुछ और ही था जिससे उसके शत्रुओं के घी के चिराग जल गए6


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-717


सन् 1768 ई० जून (सावन सुदी 15, संवत् 1825) मास में महाराजा भारतेन्द्र जवाहरसिंह आगरा किले के द्वार पर, किसी घातक द्वारा धोखे से मार डाले गये। “ब्रजेन्द्र-वंश-भास्कर” में उस घातक का नाम सुजात मेव लिखा है। “इमाद-उस-सादात” का लेखक लिखता है कि महाराजा जवाहरसिंह ने केवल अज़ां देने पर एक मनुष्य की जिह्वा निकलवा ली थी। आगरे की मस्जिद को बाजार कर दिया था और उसमें अनाज की दुकानें खुलवा दी थीं। कोई भी कसाई मांस नहीं बेच सकता था। इससे सम्भावना होती है कि किसी तस्सुवी मुसलमान ने उनको मार डाला होगा7

महाराजा जवाहरसिंह की मृत्यु से जाटों का सितारा और हिन्दूधर्म का रक्षक जिसकी अभी बड़ी आवश्यकता थी, असमय में ही विलुप्त हो गया। उसके निधन से जाट साम्राज्य की गाड़ी तो रुक ही गई, पर साथ ही हिन्दू हितों को भी भारी ठेस लगी।

महाराजा जवाहरसिंह का चरित्र और राजनीति

भारतेन्द्र जवाहरसिंह में अपने पिता जैसी योग्यता, शासक के गुण, साहस, धीरता, स्वाभिमान और वीरता पूर्णतः विद्यमान थी। इसका दरबार बड़ा सजधज का था। वह अपनी सेना का वेतन ठीक समय पर चुकवा देता था जिससे सैनिक सन्तुष्ट रहते थे। समय-समय पर सैनिकों को पुरस्कार देकर भी उनका उत्साह बढ़ाता था। उसके राजनैतिक विचार यूरोपीयन अफ़सरों की दृष्टि में भी बड़े अनुभव के थे। वह जाटराज्य को झगड़ों और बखेड़ों में फंसाकर नहीं मरा बल्कि एक बड़ी संगठित सेना राज्यभक्त अफसरों के नीचे छोड़ी।

महाराजा जवाहरसिंह में अगर कोई अपने पिता का गुण नहीं था तो केवल यही कि वह मुसलमानों को उनकी तरह न देखता था। वह मक़बरों और मस्जिदों का कट्टर शत्रु था। कहते हैं कि वह बादशाह जहांगीर के आगरा में काले पत्थर के तख्त पर भी बैठ गया था। उसने आगरा की सबसे बड़ी मस्जिद जामा मस्जिद को भी बाजार बना दिया था। व्यापारियों को वहां अनाज इकट्ठा करके बेचने का हुक्म था। वहां काफी खरीद-फरोख्त होती थी। उसने कड़े दण्डों से सर्वसाधारण में मुसलमानी धर्म प्रचार करना बन्द करवा दिया। अजां देने की प्रथा बिल्कुल रोक दी गई। केवल अजां देने पर एक मनुष्य की जिह्वा निकलवा दी थी।

कसाईयों की दुकानें बन्द करवा दी गईं। गाय, बैल और दूसरे पशु काटने पर पूर्ण रोक लगा दी थी। उसने किसी मस्जिद को नहीं गिरवाया, यह उसका विशेष गुण था।

जवाहरसिंह ने ही जाटसंघ की नींव डालकर स्वयं भारतेन्द्र की पदवी धारण की थी। जाटराज्य की वह बढ़ी हुई शक्ति, जाटों का गौरव सूर्य महाराजा की असामयिक मृत्यु से अस्त हो गया8


1. जाट इतिहास, लेखक ले० रामसरूप जून, पृ० 122.
2, 3. जाट इतिहास ठा० देशराज पृ० 654-655; के० आर० कानूनगो, जाट्स, पृ० 113-114.
4, 5, 6, 7. जाट इतिहास, ठाकुर देशराज पृ० 655-656; कानूनगो, जाट्स, पृ० 115-116.
8. जाट इतिहास, पृ० 656; लेखक ठा० देशराज; कानूनगो, जाट्स, पृ० 118; महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 90-92, लेखक मनोहरसिंह राणावत


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जवाहरसिंह ने अपनी सेना को यूरोपीय ढ़ंग से संगठित और सुशिक्षित किया। यूरोपीय सेनानायकों व सैनिकदलों को अपनी सेवा में रखा। उसकी सेना में पूर्णरूप से अनुशासन व्याप्त था। उसके शासनकाल में उसकी सेना में कोई विद्रोह या उपद्रव नहीं हुआ। (वैण्डल, पृ० 106, कानूनगो, जाट्स पृ० 117)। उसने अपने जीवनकाल का अधिकांश समय युद्धों में ही बिताया और प्रत्येक युद्ध में उल्लेखनीय वीरता का परिचय दिया। इन सारे युद्धों में उसने अपनी सेना का नेतृत्व किया। जवाहरसिंह ने कला की ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया। उसने अपने पिता सूरजमल की मृत्यु के बाद गोवर्धन में उसकी स्मृति में कुसम-सरोवर के तट पर राधा-कुण्ड के निकट एक अत्यधिक सुन्दर विशाल छतरी का निर्माण करवाया जो ऐतिहासिक ब्रज प्रदेश में स्थापत्य-कला की जाटशैली का अनुपम नमूना है। उसने अनेक बाग-बगीचे भी लगवाये थे। (ग्रडज पृ० 161, 285, रैने० पृ० 72, यदु पृ० 331)।

जवाहरसिंह में उपयुक्त कूटनीति और अत्यावश्यक दूरदर्शिता का पूर्ण अभाव था। यों ही उसने अपने भाई रतनसिंह के पुत्र के जन्मोत्सव पर वैर दुर्ग के बहादुरसिंह और फर्रूखनगर के नवाब मुसावी खान जैसे खतरनाक राजनैतिक कैदियों को भी मुक्त कर दिया। अतः निष्कर्ष के रूप में उसके मित्रगण उसे एक योग्य राजा, साहसी, तड़क-का प्रेमी और उदार व्यक्ति के रूप में देखते थे परन्तु उसके शत्रु उसे जिद्दी, खूंखार, तानाशाह, भूखा भेड़िया तथा अविश्वसनीय छल-कपटी व्यक्ति कहते थे। (कानूनगो, जाट्स पृ० 118)।

जवाहरसिंह ने राज्यारोहण के समय अपने पिता सूरजमल का जो जाटराज्य विस्तार क्षेत्र मिला था, उसमें और क्षेत्र जीतकर मिला लिये - जैसे आगरा से दक्षिण में चम्बल नदी के दोनों तटों पर फैला हुआ समूचा भदावर क्षेत्र, चम्बल के दक्षिणी तट पर सिकरवार, दतिया, नरवर, कछवाधार, तंवरधार क्षेत्र, डंड्रोली, खितौली के साथ ही उत्तरी मालवा का भाग, कालपी-जालौन का सारा प्रदेश आदि। (फाल०, 2, पृ० 347; भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 94, लेखक मनोहरसिंह राणावत)।

जवाहरसिंह ने अपने सेनापति समरु साहब को मेरठ, मुजफ्फरनगर का बहुत बड़ा भूभाग जागीर में दिया जो सरधना राजधानी बनाकर भरतपुर के ही अधीन रहा। इसी प्रकार शीशराम गूजर को गंगा किनारे हस्तिनापुर से कनखल हरद्वार तक का क्षेत्र दे दिया जहां के लंढौरा राजधानी बनाकर उनके वंशधर अब तक शासन करते रहे थे। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 443, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

इन सब विजयों के बाद महाराजा जवाहरसिंह दिल्ली विजय करने की योजना बना रहे थे। यह जाटों का दुर्भाग्य था कि वे एक घातक द्वारा धोखे से मारे गये।

गृह-राजनैतिक युद्ध

महाराजा रतनसिंह (जून 1768 - अप्रैल 1769)

वीरवर महाराजा जवाहरसिंह की मृत्यु के पश्चात् जून 1768 में उसका छोटा भाई महाराजा रतनसिंह गद्दी पर बैठा। परन्तु उसमें शासन योग्यता की कमी थी। इमाद-उस-सादत के लेख के


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अनुसार उसने दस महीने तेरह दिन राज्य किया।

वह तीर्थ-यात्रा के लिये वृन्दावन गया जहां सैंकड़ों नाचने गाने वाली लड़कियों के साथ आनन्द मग्न रहने लगा। फिर लौटकर भरतपुर नहीं आया। कहते हैं कि वह एक जादूगर रूपानन्द गुसाईं के बहकावे में आ गया। उसने सोना बनाकर दिखाने का चमत्कार बतलाया। जब महाराजा ने उसे बना हुआ सोना दिखलाने के लिए कहा तो उसने एकान्त में अकेले राजा को दिखलाने की वायदा किया और जब राजा एकान्त में आया तो उसने (8 अप्रैल, 1769 ई० को) अपनी कटार राजा के पेट में घोंप दी जिससे उसकी मृत्यु हो गई। सदासुख और खुशहालरे ने उस गुसाईं का सिर उतार दिया1

महाराजा केहरी सिंह

यह महाराजा रतनसिंह के पुत्र थे। जिस समय उनके पिता का स्वर्गवास हुआ उस समय्ह वे दो वर्ष के थे। दानशाह (कुंवर नवलसिंह का साला) नामक एक सरदार को महाराज के शासन-कार्य में सहकारी नियुक्त किया गया। किन्तु उससे महारानी किशोरी असन्तुष्ट थी, इसलिए उसे निकालकर कुंवर निहालसिंह को महाराजा का सहकारी नियुक्त किया गया। उसका और किशोरी का मनमुटाव शुरु से था। फिर भी किशोरी चाहती थी कि राजपाट भली प्रकार से चले। एक दिन रानी ने उसको कुम्हेर बुलाया किन्तु नवलसिंह को वहां पहुंचकर कुछ सन्देह हुआ। वह चुपचाप वहां से चल दिया और 5000 सैनिक लेकर कुम्हेर पर चढ़ाई कर दी। राव रणजीतसिंह (जो उस समय कुम्हेर में था) भी भरतपुर में अपना अधिकार करने की चिन्ता में था। उसने इस समय को लड़ने के लिए अच्छा समझा और नवलसिंह के मुकाबले पर आ डटा। उसने सिक्ख और मराठों की 20,000 सेना किराये पर मंगा ली। इस बात जीत नवलसिंह की हुई। यह गृह युद्ध चार महीने चला था। (मार्च सन् 1770)2। मैडिक व समरु नवलसिंह की ओर थे।

कुंवर रणजीतसिंह ने अपनी हार का बदला लेने के लिए मराठों को बुलाया। इस बार विसाजी पण्डित, रामचन्द्र गणेश, तुकाजी होल्कर, महादजी सिंधिया और अन्य मराठे सरदारों ने एक लाख सेना के साथ नर्मदा पार किया। नवलसिंह ने 50 हजार सवार व बीस-पच्चीस हजार नागे (संन्यासी) लेकर मराठों का मुकाबला किया। अऊ नामक स्थान पर यह युद्ध पांच दिन तक होता रहा। विजय का कोई उपाय न देखकर नवलसिंह ने मराठों को सत्तर लाख रुपये देकर उनके देश को वापिस चले जाने को तैयार कर लिया। इस सन्धि के अनुसार यमुना के पूर्ववर्ती देश भी मराठों को देने पड़े। लौटते हुए मराठों से राव रणजीतसिंह ने रूपवास में भेंट करके पूछा - “आप तो हमें राज्य दिलाने आये थे, अब कहां जा रहे हो?” मराठों ने कहा - हम आप को राज्य तो दिलाना चाहते हैं। उनका मान बिगाड़ने के लिए रणजीतसिंह ने कहा - “भरतपुर तो हमारा है ही, आप क्या दिलायेंगे?” वह अपने भाई नवलसिंह के पास गोवर्धन पहुंचे जो इस समय वहां थे। दोनों मिल गये। रणजीतसिंह कुम्हेर में तथा नवलसिंह डीग में रहे।


1. जाट इतिहास के० आर० कानूनगो, पृ० 120-121; Waka-i-Shah Alam II P. 225.
2. जाट इतिहास ठा० देशराज पृ० 657, कानूनगो, जाट्स, पृ० 121-122.


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भरतपुर के राजपरिवार को इस तरह घरेलू झगड़ों और शाही युद्धों में फंसा हुआ देखकर माचेड़ी के राव प्रतापसिंह राजपूत ने जो कि किसी समय भरतपुर में शरणागत रहा था, भरतपुर के अधीनस्थ अलवर, बहादुरपुर, देहरा, रामपुर, भिदौली, बानसूर, बहरोर, बरौद, हरसौरा, हाजीपुर, नारायणपुर, थानागाजी और गढ़ी मासूर पर अधिकार कर लिया। अलवर को प्रतापसिंह ने युद्ध द्वारा नहीं लिया किन्तु अलवर के क़िलेदारों को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया था। प्रतापसिंह एक स्वतन्त्र राजा बन गया और अलवर का किला भरतपुर के हाथ से कतई निकल गया। यह घटना सन् 1775 से 1782 ई० के बीच की है।

इससे भी पहले नजीबुद्दौला ने आगरे पर सन् 1773 ई० में आक्रमण किया। दुर्ग के जाट सिपाहियों ने डटकर युद्ध किया किन्तु नजीबुद्दौला सवाया रहा। नजीबुद्दौला जब रुहेलखण्ड की ओर गया तो कुंवर नवलसिंह ने बदला लेने के लिए उसकी राजधानी देहली पर चढ़ाई की। दस हजार सवारों से ही सिकन्दराबाद को जीत लिया। किन्तु अपने सरदारों के षड्यंत्र के कारण वापिस लौट आया। आगरा जाटों के ही अधिकार में रहा। दूसरी बार नवलसिंह ने समरू की सेना लेकर देहली पर फिर चढ़ाई की। किन्तु उस समय नजीबुद्दौला रुहेलखण्ड से लौट आया था। थोड़े ही दिनों बाद नजीबुद्दौला ने धोखे से बरसाना और डीग पर चढ़ाई कर दी। लगातार चौदह महीने तक नवलसिंह ने उससे युद्ध किया। विवश होकर उन्हें डीग छोड़ना पड़ा।

इन्हीं दिनों नवलसिंह बीमार पड़ गये और बृहस्पतिवार 10 अगस्त सन् 1775 ई० को स्वर्गवास हुए। वह साहित्यिक पुरुष थे। उनके पास शोभाराम नाम का कवि रहता था। उसने “नवल रसनिधि” नामक काव्य पुस्तक लिखी है।

नवलसिंह की मृत्यु के पश्चात् कुंवर रणजीतसिंह जी महाराजा केहरीसिंह के मंत्री नियुक्त हुए। दानशाह ने इसका विरोध किया। वह रुहेलों को चढ़ा लाया। रुहेलों ने रात्रि में अचानक रणजीतसिंह की सेना पर धावा करके बहुत नुकसान किया। कुंवर रणजीतसिंह को इसी वर्ष डीग पर अधिकार करके नजीबुद्दौला से भी लड़ना पड़ा।

संवत् 1834 वि०; सन् 1777 ई० में जबकि महाराजा केहरीसिंह केवल 10 वर्ष के थे, उनको चेचक निकल आई और इसी से उनका स्वर्गवास हो गया।

नवलसिंह के समय में फ्रांस देश का नेता नैपोलियन बोनापार्ट अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहा था। यह देखकर पांडिचिरी (पण्डिच्चेरी) के फ्रांसीसी गवर्नर एम० चवलियर (M. Chevalier) ने कप्तान मैडिक और समरु को लिखा कि अंग्रेजों के मित्र जाट राजा की नौकरी छोड़कर देहली के बादशाह शाहाआलम ॥ की नौकरी कर लो, जो जाट राजा का शत्रु है। गवर्नर के कहने पर वे देहली के सम्राट् की नौकरी करने लगे। नवलसिंह ने एम० मैडिक को अक्तूबर 1772 ई० में राजदूत के तौर पर सम्राट् शाहआलम-II के दरबार में देहली भेजा।

सम्राट् ने उससे 28 अक्तूबर, 1772 को मुलाकात की और उसको 7 तोपों की खिल्लत, एक सफेद सारस पक्षी और एक तलवार भेंट की। मैडिक वापस आकर डीग और भरतपुर से अपना परिवार और साज-सामान लेकर कांमा होता हुआ नवम्बर के पहले हफ्ते सन् 1772 में


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-721


देहली दरबार में पहुंच गया1

वे दोनों भरोसे के सेनापति जो भरतपुर की भूमि और राजनीति से परिचित थे, हाथ से निकल गये। समरु और मैडिक की सहायता से मुग़ल सेनापति अमीर उलउमरा मिर्जा नजफखां (अब्दाली का प्रतिनिधि) ने जाट राज्य पर चढ़ाई करके जिला मथुरा, आगरा, अलीगढ़ (कोइल), फर्रुखनगर, रेवाड़ी, बल्लभगढ़, डीग आदि परगनों को जाट शासक से छीन लिया था। यहां तक कि 1775 ई० में जाट राज्य की सीमायें भरतपुर, कुम्हेर तथा वैर परगनों तक ही सीमित रह गईं थीं। राजमाता किशोरी के अनुरोध पर मिर्जा नजफ खां ने रणजीतसिंह को ग्यारह परगने पुनः प्रदान कर दिये थे2

महाराजा रणजीतसिंह (1777 से 1805 तक)

महाराजा केहरीसिंह के बाद भरतपुर और जाट जाति का अधीश्वर महाराजा रणजीतसिंह (सुपुत्र महाराजा सूरजमल) को बनाया गया। अब वह राव से महाराजा हो गये। डीग इस समय तक भी मिर्जा नजफखां के अधिकार में था3। किन्तु उसके पीछे लोगों ने विद्रोह कर दिया। इसको दबाने के लिए जब नजफखां डीग की ओर आया तो रास्ते में उससे महाराजा रणजीतसिंह और महारानी किशोरी देवी ने मुलाकात की और उसकी आवभगत भी की। नजफखां जानता था कि जाट डीग को उससे जरूर ले लेंगे इसलिए अहसान की गर्ज से 9 लाख की आमदनी के अन्य परगने रणजीतसिंह को दे दिये और आप उस तरफ के झगड़ों से निश्चिन्त हो गया।

6 अप्रैल, सन् 1782 ई० में मिर्जा नजफखां मर गया। महादजी (माधोराव) सिन्धिया ने नजफखां के दिये हुए इलाके को लेने के लिए युद्ध छेड़ दिया। महाराजा रणजीतसिंह अभी तक अपनी शक्ति का संगठन न कर पाये थे, इसलिए उनके हाथ से परगने निकल गये। सन् 1783 ई० में मुगलों की आपसी अनबन से लाभ उठाकर रणजीतसिंह ने डीग पर अपना अधिकार जमा लिया। महादजी सिन्धिया ने रणजीतसिंह से मित्रता कर ली और 10 लाख की आमदनी के ग्यारह परगने उसने महाराजा को दे दिये4

सन् 1786 ई० में महादजी (माधोराव) सिन्धिया का जयपुर और जोधपुर के राजाओं से ‘तोंगा’ नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें सिन्धिया की हार हुई। महाराजा रणजीतसिंह ने उसे ग्वालियर पहुंचा दिया। उसके बाद रुहेलों ने भरतपुर पर धावा कर दिया। महाराजा रणजीतसिंह ने मराठों की मदद से उनको मार भगाया।

उन दिनों अलीगढ़ में मराठों की ओर से पैरन नाम का फ्रांसीसी अफसर था। महाराजा


1. जाट इतिहास कालिकारंजन कानूनगो, पृ० 129-132; ले० रामसरूप जून पृ० 122; जाट इतिहास, पृ० 657-658, लेखक ठा० देशराज; राज्य भरतपुर, पृ० 29-35, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।
2. ओडायर भाग 3, पृ० 27।
3. डीग के सम्बन्ध में ‘इन्तखाब्बुतवारीख’ में लिखा है कि डीग और देहली इस समय बराबर की शोभा और व्यापार के केन्द्र थे, डीग भारतवर्ष के सब दुर्गों में सुरक्षित स्थानों में प्रथम श्रेणी का था।
4. जाट इतिहास पृ० 656, ले० ठा० देशराज।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-722


रणजीतसिंह ने कई बार उसे सहायता दी थी। इसके बदले में कामा खोरी, पहाड़ी के तीन परगने उससे प्राप्त किये। महाराजा सूरजमल और जवाहरसिंह के समय जिन सारे प्रान्तों पर अधिकार था वे मराठों, रुहेलों और पठानों के हाथ चले गये थे। थोड़े से परगने वापिस करके वे बड़ा अहसान करते थे।

सन् 1803 ई० में जब लार्ड लेक ने आगरा जीत लिया तो पड़ौसी के नाते से महाराजा रणजीतसिंह से मित्रता कर ली।

इस समय सारे देशी राजे अंग्रेजों के मित्र और मांडलिक बन चुके थे। केवल जसवन्तराव होल्कर ही उनके अधीन नहीं हुआ था और उनकी जड़ उखाड़ फेंकना चाहता था। उसकी अंग्रेजों से कई स्थानों पर लड़ाई भी होती रही थी।

अन्त में 20,000 सैनिक और 130 तोपें लेकर दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। किन्तु देहली के रेजीडेण्ट ने बड़ी बहादुरी और योग्यता से होल्कर का सामना किया। अंग्रेज सेना का सेनापति लार्ड लेक था, उसकी जीत हुई। जसवन्तराव भागकर अपने शत्रु जाट राजा के किले डीग में घुस गया। अंग्रेज सेना उसके पीछे थी। महाराजा रणजीतसिंह जानता था कि अंग्रेज सेना से टक्कर लेनी पड़ेगी परन्तु शरणागत को आश्रय न देना उनके धर्म के विरुद्ध था। लार्ड लेक ने जाट और मराठा सेना से डीग में युद्ध किया*, जिससे होल्कर हारकर भरतपुर किले में दाखिल हो गया। लार्ड लेक ने मराठों की शत्रुता और अंग्रेजों की सन्धि याद कराई और हानि से बचने को समझाया। परन्तु रणजीतसिंह ने होल्कर को शरण से निकालने को बिल्कुल इन्कार कर दिया। इसी से अंग्रेजों ने भरतपुर पर चढ़ाई कर दी1

जाटवीरों का अंग्रेजों से भरतपुर में ऐतिहासिक युद्ध

1 जनवरी, 1805 ई० को लार्ड लेक ने अपनी सेना के साथ डीग से भरतपुर पर चढ़ाई करने के लिए कूच कर दिया। अंग्रेज सेना ने भरतपुर किले का घेरा डाल दिया और हमला करने की सब तैयारी कर ली। जाट सेना दरवाजे बन्द करके किले के भीतर थी। 7 जनवरी, 1805 ई० को लार्ड लेक ने किले पर हमला बुलवा दिया। अंग्रेज दो दिन तक लगातार भारी गोले-गोलियां भरतपुर किले पर बरसाते रहे। जाटवीर भी बड़े धैर्य के साथ गोलों का जवाब गोलों से देते रहे। 9 जनवरी को किले की दीवार में गोलों से सुराख हो गया। उस सुराख से किले में घुसने का हुक्म मिला।

अंग्रेज सेना ने तीन भागों में विभक्त होकर तीन तरफ से किले पर आक्रमण किया। पहले भाग का सेनापति लेफ्टीनेण्ट रिपन था जिसके साथ 240 गोरे और देशी सिपाही थे। उसने अपनी सेना की तोपों से बाईं ओर से किले पर हमला किया। दूसरे भाग के सेनापति मिस्टर हाक्स ने दो गोरी और दो काली पल्टनें लेकर दक्षिण की ओर से धावा किया। लेफ्टीनेण्ट कर्नल मेटलैण्ड बीच के भाग में 500 गोरे और एक पल्टन देशी सिपाहियों के साथ टूटे हुए हिस्से की ओर बढ़े।


(*) - जसवन्तराव होल्कर ने इस युद्ध में अंग्रेजों के 22 अफसर और 643 सैनिक मारे और उसके 2000 सैनिक मारे गए और 87 तोपें अंग्रेजों के हाथ आईं।
1. जाट इतिहास पृ० 660, लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 444, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-723


जाट योद्धाओं ने शत्रु पर अन्धाधुन्ध गोले बरसाने शुरु कर दिये। रात्रि के 12 बजे तक गोले बरसते रहे। गोलों की वर्षा, रात्रि के अन्धकार, जाट की किलकार से मेटलैण्ड चकरा गया और मार्ग भूलकर दलदल में जा फंसा। एक अंग्रेज युवक विल्सन अपने 20 साथियों के साथ टूटी हुई दीवार में से निकलकर ऊपर चढ़ गया। किन्तु जाटों ने उन्हें दीवार के ऊपर से धकेल दिया। अंग्रेज सेना हानि उठाकर वापिस आई। इस युद्ध में कर्नल मेटलैण्ड तथा 200 सैनिक मारे गये और 800 घायल हुए।

छः दिन तक तैयारी करने के बाद अंग्रेजों ने दूसरी बार 16 जनवरी को किले पर हमला किया। इस बार भारी-भारी तोपों को काम में लाया गया। इन दिनों में जाटों ने टूटे हुए स्थानों की मरम्मत कर ली थी। 16 जनवरी को अंग्रेजों ने बड़े जोर से किले पर धावा किया। तोपों के भारी फायर से दीवार का एक हिस्सा टूट गया। किन्तु जाटों ने लकड़ी और पत्थर डालकर इस सुराख को बन्द कर दिया।

चार दिन तक अंग्रेज दीवार को तोड़ते रहे और जाटवीर उसकी मरम्मत करते रहे। जाट गोरों से लड़ने में बड़े खुश होते थे। अपनी स्त्रियों को उनकी सूरतें दिखाकर ताली पीटकर हंसते थे। इससे मालूम पड़ता है कि जाट स्त्रियां भी इस युद्ध में सहयोग दे रही थीं। लगातार गोलों की मार से दीवार में एक बड़ा सुराख हो गया। जाटों ने दीवार के साथ जो खाई थी, उसको पानी से भर दिया। जाटों ने एक चाल चली। वे टूटी हुई दीवारों के सहारे छिपकर खड़े हो गए और अंग्रेजों के आने की बाट देखने लगे। अंग्रेजों ने भी एक चाल उसी समय चली। तीन देशी सैनिक उस दीवार की तरफ दौड़ाए और उनके पीछे गोरे सैनिक लगा दिए। ये देशी सैनिक चिल्लाते थे कि हमें फिरंगियों से बचाओ। जाटों ने उन तीनों को किले में घुसा लिया। वे थोड़ी ही देर में दीवार और भीतरी बातों को देखकर उल्टे भाग गये और सारा भेद अंग्रेज सेनापति को जा बताया।

21 जनवरी को कप्तान लिण्डसे 470 सैनिक और उन भेदी सिपाहियों को साथ लेकर आगे बढ़ा। खाई को तैरकर पार करने लगे किन्तु जाटों ने एक को भी टूटी दीवार तक न पहुंचने दिया। और भी काफी सेना लिण्डसे की मदद के लिए पहुंच गई थी किन्तु जाटों ने अंग्रेजों को मार-मार कर उनकी लाशों से खाई भर दी। इस हमले में अंग्रेज सेना के 517 सैनिक मारे गए जिनमें 18 अफसर थे। जाटों के केवल 25 सैनिक काम आए। बाकी अंग्रेज सेना को विवश होकर भाग जाना पड़ा। जनरल स्मिथ और कर्नल मेकर जो आक्रमण के समय कमाण्डर थे, ने लार्ड लेक से प्रार्थना की कि जाटों से सन्धि करना हितकारक है। किन्तु लेक के लिए यह बड़ी शर्म की बात थी। वह नहीं माना। उसने अपनी हिम्मत हारी हुई अंग्रेज सेना का उत्साह बढ़ाया। ता० 23 जनवरी को मि० वेल्स मथुरा की ओर रसद ला रहे थे। जाटों तथा उनका सहायक अमीर खां नवाब रुहेला ने अचानक आक्रमण करके इस रसद को लूट लिया। 28 जनवरी को बम्बई से अंग्रेजों की मदद के लिए आने वाली सेना और रसद पर होल्कर, रणजीतसिंह और अमीर खां रुहेला तीनों की सेनाओं ने आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों को काफी हानि हुई। इस समय अंग्रेज सावधान थे इसलिए उन पर हमला असफल रहा।

छः फरवरी को अंग्रेजों ने खाई पार करने के लिए 40 फुट लम्बे और 16 फुट चौड़े बेड़े बनाये। अंग्रेजों ने एक सुरंग भी बनाई किन्तु पता लगने पर जाट उनके कारीगरों को मारकर सब औजार छीनकर अन्दर ले गये। इस युद्ध में भी अंग्रेज असफल रहे और उनकी काफी हानि रही।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-724


अमीर खां नवाब रुहेला अपने देश को चला गया क्योंकि महाराजा रणजीतसिंह उससे किसी बात पर नाराज हो गये थे, अंग्रेजों की मदद के लिए मद्रास और बम्बई से ताजादम सेना पहुंच चुकी थी।

20 फरवरी को अंग्रेज सेना ने तीसरी बार किले पर फिर धावा किया। इस बार सेनाध्यक्ष मि० डेन थे, तोपों के गोलों से दीवार का कुछ हिस्सा टूट गया। कर्नल डेन ने नम्बर 75 गोरा पलटन को आक्रमण करने का हुक्म दिया परन्तु उन्होंने इन्कार कर दिया*। फिर भारतीय पलटन से हमला करवाया गया। जाटवीरों ने इनको मौत के घाट उतार दिया।

इस आक्रमण में 894 अंग्रेज सिपाही और 113 देशी सिपाही अंग्रेज सेना के मारे गए और 176 अंग्रेज तथा 553 देशी सिपाही घायल हुए। इस तीसरे आक्रमण में अंग्रेजों की बुरी तरह हार हुई।

लार्ड लेक बड़े हैरान हुए, उनका अभिमान मिट गया। उन्हें पता चल गया कि भारत में ऐसे लोग हैं जो यूरोपियन सैनिकों के होश ठिकाने कर सकते हैं।

उन्होंने अपनी भयभीत सेना को बताया कि यदि भरतपुर विजय नहीं हुआ तो अंग्रेजों के नाम पर सदा के लिए धब्बा रहेगा। जान की बाजी लगा दो। इस भाषण से उसकी सेना का साहस बढ़ा।

21 फरवरी को चौथा आक्रमण फिर किया गया। इस बार अंग्रेज सैनिक प्राणों की बाजी लगाकर आगे को बढ़ने लगे। अंग्रेज सैनिक एक दूसरे के कन्धों पर चढ़कर दीवारों पर चढ़ने लगे। किन्तु जाटों ने ऊपर से लकड़ी और ईंट-पत्थर फेंककर उनको निष्फल कर दिया। आगे बढ़ने वालों को गोली का निशाना बनाया। गोलों से दीवारों में बनाये सुराखों में से घुसने वालों को भी जाटों ने मौत के घाट उतार दिया।

ऊपर की ओर कोई चढ़कर पहुंचता था तो जाट जयकारों के साथ उन पर टूट पड़ते थे। उनको नीचे धकेल देते और कई बार तो एक-एक जाटवीर, शत्रु के दो-दो सैनिकों को पकड़कर खाई में कूद पड़ते थे। उनके सामने आने वाले कई और भी साथ ही लुढ़ककर खाई में गिर पड़ते थे। गोलियों, गोलों, पत्थरों और लक्कड़ों की मार ने अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिये। किन्तु उसी समय लेफ्टीनेन्ट ‘टेम्पल्टन’ नामक एक अंग्रेज किसी तरह से दीवार पर चढ़ गया और बुर्ज पर चढ़कर अंग्रेजी झण्डा फहराना ही चाहता था कि जाटवीरों ने उसे मार डाला और पैर पकड़कर झण्डे समेत खाई में फेंक दिया।

इस समय जाटवीरों ने गोले-गोलियों के अलावा मिट्टी और लकड़ियों के कुंडों में बारूद भरकर उसमें बत्ती लगाकर अंग्रेज सेना पर फेंके। यही क्यों, ईंटों की वर्षा भी आरम्भ कर दी। इस विकट मार से अंग्रेज सेना मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। इस युद्ध के समय महाराजा रणजीतसिंह गाढ़े की दोहर ओढ़े हाथ में मोटा लट्ठ लिये दीवारों के ऊपर घूमकर अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ा रहे


(*) - 75 गोरा पलटन ने जाटों से भयभीत होकर किले पर हमला करने से इन्कार कर दिया। उन सबको परेड पर फालन करके बहुत शर्मिन्दा किया गया। “War and Sports of Indian and an officer's Diary”, by June Western, Page 384.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-725


थे, कहते थे भाइयो! किला तुम्हारा है। सिपाहियों ने बार-बार महाराजा को आड़ में हो जाने को कहा परन्तु उत्तर दिया - “भायो जां के भाग्य की चिट्ठी गोली के साथ धुर से बंधी आवत है उसी को लगत है।” सारजन्ट स्मिथ लिखता है कि “मैंने 60 गज की दूरी से एक जाट सैनिक पर तीन बार फायर किये किन्तु उसने आड़ में सिर नीचा नहीं किया।”

इस बार के युद्ध से भागते हुए अंग्रेजों पर जाटों ने तोपों के गोलों से उनका काफी नुकसान किया। लार्ड लेक के तोपखाने में जाटों ने आग लगा दी। इससे अंग्रेजों का भारी नुकसान हुआ। इस अन्तिम युद्ध में अंग्रेजों के हजारों सैनिक और कई प्रसिद्ध सेनानायक मारे गए। चारों लड़ाइयों में अंग्रेज सेना के 3203 सैनिक मरे गए, ऐसा अंग्रेज लेखकों ने लिखा है। यदि इसी बात को सही माना जाये तो 8-10 हजार घायल भी जरूर हुए होंगे। असल में अंग्रेज इससे भी अधिक मरे और जख्मी हुए थे। खाई लाशों से भर गई जिन पर होकर आने-जाने वालों ने अपना रास्ता बना लिया था। कर्नल निकलसन ने अपनी पुस्तक “Native States of India” में लिखा है कि जो नीति राजा भरतपुर ने अपनाई थी उससे उसको माली घाटा तो बहुत हुआ, परन्तु उसको और जाटों को कीर्ति, प्रसिद्धि और गौरव मिला।

इस चौथी बार भी हार होने के कारण लार्ड लेक की चिन्ता और भी बढ़ गई। लार्ड लेक को ऐसी कठिनाई और हार का सामना इससे पहले कभी नहीं करना पड़ा था। अब उसने 22 फरवरी को किले से सेना हटाकर छः मील की दूरी पर उत्तर-पूर्व में अपने डेरे डाल दिये। लार्ड लेक को कामयाबी के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे। उसने संधि का प्रस्ताव भेजा।

यद्यपि महाराजा रणजीतसिंह की विजय हुई थी, फिर भी उन्होंने यही उचित समझा कि टंटे को मिटा दिया जाए क्योंकि वह पिछले 6-7 वर्ष से लगातार युद्धों में फंसे हुए थे। राजकोष में भी घाटा आ चुका था। इसलिए सन्धि करने पर तैयार हो गये। लार्ड लेक को तो मानो मनचाही वस्तु मिल गई। लार्ड लेक ने भरतपुर वालों का बड़ा सम्मान किया।

अन्त में दोनों ओर से निम्न शर्तों पर सन्धि हो गई जो कि 10 अप्रैल, सन् 1805 को हुई।

  1. डीग का किला अभी कुछ दिन अंग्रेजों के ही पास रहेगा। यदि भरतपुर महाराजा अंग्रेजों से शत्रुता न करेंगे तो डीग का किला उन्हें लौटा दिया जायेगा।
  2. भरतपुर नरेश बिना अंग्रेजों की राय के किसी भी यूरोपियन कर्मचारी को अपनी सेना में भर्ती न करेंगे।
  3. यह इस युद्ध के व्यय स्वरूप बीस लाख रुपये अंग्रेजों को देंगे।
  4. भरतपुर नरेश और अंग्रेज आपस में एक दूसरे को मित्र समझेंगे।
  5. उनका एक पुत्र हमेशा अंग्रेज फौजी अफसरों के साथ दिल्ली अथवा आगरे में रहेगा।
  6. महाराजा रणजीतसिंह यह बीस लाख रुपया किस्तों में दे सकेंगे।
  7. मित्रता निभाने पर अन्तिम पांच लाख रुपये की किस्त छोड़ दी जायेगी।

इस सन्धि पत्र पर महाराजा रणजीतसिंह और लार्ड लेक की सही हो गई।

भरतपुर का क़िला ही एकमात्र ऐसा था जिसको अंग्रेज अपनी शक्ति के बल पर कभी भी नहीं जीत सके थे।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-726


भरतपुर में लार्ड लेक की इस ‘हार’ को विलायत तक बड़े-बड़े रंग देकर पहुंचाया। स्वयं लार्ड लेक ने इस हार का विवरण इस प्रकार दिया था -

“भरतपुर की भूमि ऊबड़-खाबड़ है। साथ में कोई अच्छा इंजीनियर नहीं था, इससे पूर्व कभी उसकी परिस्थिति का पता लगा नहीं। बस यही कारण थे कि विजय प्राप्त नहीं हुई।”

ड्यूक ऑफ विलिंगटन ने जो कि तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली के भाई थे, लार्ड लेक की हार का कारण इस तरह बताया था - “उन्हें नगर-वेष्टन (परकोटे) का कुछ ज्ञान न था इसलिये असफलता हुई।”

इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस युद्ध का प्रभाव अंग्रेजों के शत्रुओं पर बहुत बुरा पड़ा। भरतपुर के गौरव-गान की चर्चा तो गीत-काव्यों में गाई जाने लगी।

इस युद्ध का समय - लार्ड लेक ने अपनी अंग्रेज सेनाओं का भरतपुर के क़िले के चारों ओर 1 जनवरी, 1805 ई० को घेरा डालकर आक्रमण कर देने से लेकर, उसकी जाटों द्वारा करारी हार होने पर लाचार होकर किले से 22 फरवरी 1805 ई० को अपना घेरा उठा लेने तक का समय एक मास, 22 दिन (53 दिन) होता है। घेरा उठाकर लार्ड लेक ने अपनी सेनायें किले से छः मील उत्तर-पूर्व में उस स्थान पर लगाईं जहां से सड़कें आगरा, मथुरा व डीग को जाती हैं। उसने भरतपुर किले में आने वाली कुमुक तथा खाद्य सामग्री आदि को रोक दिया। परन्तु किले में वर्षों तक समाप्त न होने वाली हर प्रकार की सामग्री मौजूद थी। लार्ड लेक को कामयाबी के कोई आसार नजर न आने पर उसने महाराजा रणजीतसिंह को सन्धि प्रस्ताव 10 अप्रैल, 1805 ई० को भेजा जो कि महाराजा ने स्वीकार कर लिया।

इस तरह 22 फरवरी से 10 अप्रैल तक का समय एक मास, 16 दिन (47 दिन) का हुआ। लार्ड लेक की सेनायें भरतपुर किले को जीतने के लिए कुल मिलाकर वहां तीन मास 10 दिन (100 दिन) तक प्रयत्न करती रही थीं। सन्धि की शर्तों पर दोनों ओर से दस्तखत हो जाने पर 21 अप्रैल, 1805 ई० को लार्ड लेक इस कैम्प से अपनी सेनाओं को उठा ले गया। गवर्नर जनरल लार्ड वेलेज़ली ने सन्धि की इन शर्तों को 4 मई, सन् 1805 ई० को मंजूरी दे दी।

महाराजा रणजीतसिंह ने, लार्ड लेक तथा उसकी अंग्रेज सेनाओं के जिस वीरता एवं साहस से दांत खट्टे किये, वह इतिहास की अद्वितीय गाथा बन गयी है। इस विजय से जाटों की वीरता की प्रसिद्धि भारत में तथा विदेशों में भी फैल गई थी। उसी समय से यह कहावत प्रसिद्ध हो गई कि -

“आठ फिरंगी, नौ गौरे, लड़े जाट के दो छोहरे।”

कविवर वियोग हरि ने भी अपनी वीर सतसई में लिखा है -

“एही भरतपुर को दुग्ग है, जहं जट्टन के छोहरे।
दिये अंग्रेज सुभट्ट पछारे1॥ ”

पाठक समझ गये होंगे कि अंग्रेजों की सेना के कई डिविजन एवं उनके आधुनिक हथियारों के मुकाबले में भरतपुर के किले में जाटों की सेना का केवल लगभग एक ब्रिगेड ही था, जिसमें तीन या चार पलटन होती हैं। भरतपुर दुर्ग की मजबूत बनावट और जाटों की वीरता, साहस एवं देशभक्ति के कारण अंग्रेजों की करारी हार हुई और जाटों को विजय प्राप्त हुई।

बड़े खेद की बात है कि कर्नल जेम्ज़ टॉड साहब ने अपनी पुस्तक राजस्थान का इतिहास में लार्ड लेक की इस करारी हार और जाटों की अद्वितीय वीरता का जिक्र तक भी नहीं किया जबकि


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-727


वह इस युद्ध के समय अपने प्रधान कार्यालय उदयपुर (राजस्थान) में उपस्थित थे। जब सन् 1825 में भरतपुर राजघराने में आपसी गृह युद्ध होने पर एक पक्ष ने अंग्रेजों से सहायता ली, जिससे अंग्रेजों ने भरतपुर दुर्ग पर आक्रमण करके 20 जनवरी, 1826 ई० को दुर्ग जीत लिया, कर्नल टॉड साहब ने इस विजय को अपनी पुस्तक में अंग्रेजों की वीरता का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है, जबकि वह उस समय अपने देश इंग्लैण्ड में बैठे थे। उनकी यह धारणा पक्षपाती थी। (लेखक)।

महाराजा रणजीतसिंह आजीवन अंग्रेजों के मित्र बने रहे। उन्होंने सन्धि का पूरा पालन किया। थोड़े दिनों के बाद अंग्रेजों ने डीग का किला उनको वापिस दे दिया। भरतपुर युद्ध के 8 महीने बाद मार्गशीर्ष सुदी 15 संवत् 1862 (दिसम्बर 1805 ई०) को गोवर्धन में महाराजा रणजीतसिंह का स्वर्गवास हो गया। उनके चार पुत्र थे जिनमें से बड़े राजकुमार रणधीरसिंह भरतपुर की गद्दी पर बैठे2

महाराजा रणधीरसिंह (सन् 1805 से 1823 ई० तक)

महाराजा रणजीतसिंह के स्वर्गवास होने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र महाराजा रणधीरसिंह 1805 ई० में राजसिंहासन पर विराजमान हुए। सबसे पहले रणधीरसिंह ने राज्य के भीतरी प्रबन्ध को सुधारने की चेष्टा की। लाला जवाहरलाल को दीवान नियुक्त किया। एक बार एक पलटन ने देर से वेतन मिलने के कारण उपद्रव कर दिया। महाराजा ने वेतन देकर उस पलटन को तोड़ दिया और फ़िसाद करने वाले अफसरों की नाक व हाथ कटवाकर अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। कुंवर लछमनसिंह व फौजदार मोतीराम जो लार्ड लेक के साथ रहते थे, अंग्रेजों ने जरूरत न समझकर संवत् 1863 (सन् 1806 ई० में उनको वापिस भेज दिया था।

महाराजा ने सन् 1806 ई० में मोतीराम को शहर का कोतवाल नियुक्त कर दिया और उसकी निगरानी में महाराजा रणजीतसिंह की छतरी व एक महल तथा कचहरी बनवाई।

महाराजा रणधीरसिंह सन् 1807 ई० में फतहपुर सीकरी में लार्ड मायरा गवर्नर जनरल से मिले। सन् 1817 ई० में पिण्डारियों के दमन के लिये अपनी सेना भेजकर अंग्रेजों की सहायता की। बड़ी रीति के साथ महाराजा ने 18 वर्ष तक शासन किया। महाराजा रणधीरसिंह आसोज सुदी 8 संवत् 1880 (सन् 1823 ई०) में स्वर्गवासी हो गये3

महाराजा बलदेवसिंह (सन् 1823-1825 ई०)

महाराजा रणधीरसिंह निःसन्तान मरे थे। इसलिये उनके छोटे भाई बलदेवसिंह को राजा बनाया गया। किन्तु महाराजा रणधीरसिंह की रानी ‘लक्ष्मी’ इनसे नाराज थी। वह किले की चाबियां लेकर


आधार पुस्तकें -
1. जाट इतिहास, पृ० 659-665, लेखक ठा० देशराज
2. जाटों का उत्कर्ष पृ० 444-447, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
3. क्षत्रियों का इतिहास, पृ० 137-138, लेखक परमेश शर्मा।
4. जाट इतिहास, पृ० 122-124, लेखक रामसरूप जून।
5. राज्य भरतपुर पृ० 36-55, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।
3. जाट इतिहास, पृ० 665, लेखक ठा० देशराज; राज्य भरतपुर पृ० 56-57, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-728


वृंदावन चली गई। वहीं 1824 में उनका स्वर्गवास हो गया। इस तरह देवर-भाभी का यह झगड़ा तो शान्त हो गया किन्तु उनके छोटे भाई राव लक्ष्मणसिंह के पुत्र दुर्जनसाल और माधोसिंह उपद्रव पर उतारु हो गये। उन्होंने एक दिन तो महाराजा बलदेवसिंह पर जवाहर बुर्ज में आक्रमण कर दिया। उनके स्थान को तोड़ डाला। किन्तु माधोसिंह को पकड़ लिया गया और झगड़ा बढ़ने नहीं पाया। महाराजा बलदेवसिंह को सन्देह हो गया इसलिए उन्होंने दिल्ली स्थित एजेंट सर डेविड ऑक्टरलोनी द्वारा अपने पुत्र बलवन्तसिंह को स्वत्वाधिकारी स्वीकार करा दिया। इसके कुछ दिन ही बाद 26 फरवरी सन् 1825 ई० को बलदेवसिंह जी का स्वर्गवास हो गया1

1825 ई० में छः वर्षीय बलवन्तसिंह को अपने मामा के संरक्षण में शासक घोषित किया गया : किन्तु कुछ ही दिनों बाद उसके चचेरे भाई दुर्जनसाल ने भरतपुर की सेना और राज्य दोनों पर अधिकार कर लिया। संरक्षक को मार डाला और दुर्जनसाल ने स्वयं को शासक घोषित कर दिया। माधोसिंह को कैद से छुड़ा लिया और बालक बलवन्तसिंह और मांजी अमृतकुंवरी को कैद कर लिया।

ऑक्टरलोनी ने जब इस बात को सुना तो वह सेना संगठन करने लगा। किन्तु एम्हर्स्ट सरकार ने उस समय भरतपुर पर चढ़ाई करना उचित न समझा। ऑक्टरलोनी ने त्यागपत्र दे दिया। उसके स्थान पर सर चार्ल्स मेटकाफ की नियुक्ति की गई। मेटकाफ 1 अक्तूबर के दिन दिल्ली पहुंचा। थोड़े ही दिन बाद माधोसिंह और दुर्जनसाल में भी अनबन हो गई। माधोसिंह डीग में जाकर सेना संगठन करने लगा। इन हालात को देखकर मेटकाफ ने भरतपुर पर चढ़ाई कर दी। 10 दिसम्बर सन् 1825 ई० को 20,000 अंग्रेज सेना लार्ड कैम्बलमियर की अध्यक्षता में भरतपुर पहुंच गई। 23 दिसम्बर से लड़ाई आरम्भ हो गई। 5 जनवरी सन् 1826 तक भरतपुर पर गोले बरसाये जाते रहे।

मेटकाफ भी दिसम्बर में सेना से मिल गया। लार्ड एम्हर्स्ट का प्रिय जेष्ठ पुत्र कैप्टन जैफ़ भी इस अभियान में शामिल था। इसमें 21,000 सैनिक थे।

अंग्रेज सेना ने कई बार किले पर धावे किए, कई बार किले में घुसने की चेष्ठा की गई। 18 जनवरी तक यही होता रहा। खाइयों में सुरंगें तैयार की गईं। अन्त में 25,000 पौंड वजन की बारूद सुरंग में किले की दीवार के नीचे रखकर आग लगा दी गई। इस विस्फोट से किले का काफी नुकसान हुआ और सेना की भी भारी हानि हुई। अंग्रेज सेना 20 जनवरी को किले में घुस गई और किला जीत लिया।

इस युद्ध में अंग्रेज सेना के 61 अंग्रेज, 41 देशी सिपाही मरे और 283 अंग्रेज, 183 हिन्दुस्तानी घायल हुए। दुर्जनलाल की सेना के 4,000 सैनिक मारे गए। इस गृह-कलह के कारण भरतपुर की 60 लोहे की तोपें और 73 पीतल की तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। अजेय दुर्ग भरतपुर कैम्बलमियर ने जीत लिया, यह बात भरतपुर के इतिहास में लिखी गई। केवल गृह-कलह से ही ऐसा हुआ। भरतपुर विजय के बाद अंग्रेजों की धाक समस्त राजपूताने और भारत पर बैठ गई। अन्त में उस दुर्ग को ध्वस्त करके अंग्रेजों ने अपनी प्रतिष्ठा अर्जित की, जिसने सन् 1805 ई० में अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को ध्वस्त कर दिया था।

किले के तहखाने से अंग्रेजों ने बलवन्तसिंह और उसकी माता को निकाला। दुर्जनलाल अपनी पत्नी व दो पुत्रों और जवाहरात आदि के साथ भागता हुआ बन्दी बना लिया गया। उसे इलाहाबाद भेज दिया गया।


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महाराजा बलवन्तसिंह (सन् 1826 ई० से 1853 ई० तक)

5 फरवरी, 1826 ई० के दिन लार्ड कैम्बलमियर और सर चार्ल्स मेटकाफ ने बलवन्तसिंह को तख्त पर बैठा दिया। राजमाता* को संरक्षिका बनाकर ब्रिटिश रेजीडेंट को प्रशासन के नियंत्रण का अधिकार दिया गया। संवत् 1884 विक्रमी में महाराजा का पिछोरवाली राजपुत्री से विवाह हुआ। संवत् 1899 में लार्ड एलनवरा से मिलकर आपने बल्लभगढ़ के राजा को पुनः उसका राज दिलाया2

भरतपुर युद्ध का खर्च अंग्रेजों ने इस रियासत पर 25,49,000 रुपये कायम किया। तत्पश्चात् लार्ड केम्बलमियर 20 फरवरी 1826 ई० को अपना कैम्प उठाकर कलकत्ता को चला गया।

पार्लियामेंट व कम्पनी ने भरतपुर दुर्ग की विजय पर अंग्रेज सैनिकों को बड़ी शाबाशी दी और इंग्लैण्ड के सम्राट् की ओर से 4,81,100 पाउण्ड की दी गई धनराशि को विजेता अंग्रेज सैनिकों में इनाम के तौर पर बांटा गया। पोलिटिकल एजेण्ट ने जानी बैजनाथ तथा रानी अमृतकुंवरी को हटाकर उनके अधिकार छीन लिए और जून 1826 ई० में उनके स्थान पर एक रीजन्सी कौंसिल (प्रतिनिधित्व परिषद्) नियुक्त की गई जिसके मेम्बर दीवान जवाहरलाल व फौजदार चूड़ामन थे। माघ मास संवत् 1883 (दिसम्बर 1826 ई०) में लार्ड एम्हर्स्ट भरतपुर आये तब महाराजा बलवन्तसिंह ने उनका शानदार स्वागत किया। सन् 1835 ई० में अंग्रेजी एजेण्टी (अंग्रेजी राजनीतिक प्रतिनिधि) टूट गई और अंग्रेज सेना उठा ली गई। भरतपुर राज्य शासन के सब प्रबन्ध महाराजा को सौंप दिये गये। सन् 1826 ई० की लड़ाई का ठहराया हुआ खर्च जो कि 25,49,000 रुपये था, वह सन् 1839 ई० में माफ कर दिया गया।

महाराजा साहब ने राज्य का कार्य बड़े अच्छे ढंग से चलाया। उन्होंने सब लोगों को न्याय दिया जिससे जनता उनसे बड़ी प्रसन्न थी3

फागुन बदी 14 संवत् 1907 विक्रमी (1850 ई०) में आपको पुत्र लाभ हुआ जिसका नाम यशवन्तसिंह रखा गया। आपकी प्रजा आपसे बड़ी प्रसन्न थी।

इस प्रकार 27 वर्ष सुख शान्ति से राज करके 21 मार्च सन् 1853 ई० को आप स्वर्गवासी हो गये। महाराज काव्य-प्रेमी थे। उनके दरबार में कई कवि रहते थे। वह स्वयं भी कविता करते थे4

महाराजा यशवन्तसिंह जी (सन् 1853 से 1893 तक)

जिस समय महाराजा बलवन्तसिंह का स्वर्गवास हुआ उस समय उनके पुत्र यशवन्तसिंह की आयु तीन वर्ष की थी। इसलिए राज्य का कार्यभार धाऊ ग्यासीराम जी करने लगे। चार महीने


1, 2, 4. जाट इतिहास पृ० 666-667, लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 447, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
1, 2, 3, 4. राज्य भरतपुर, पृ० 58-73, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।
(*) - अमृतकौर (अमृतकुंवरी)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-730


बाद ही महाराजा की माता का भी स्वर्गवास हो गया। मेजर मौरीसन महाराजा के अभिभावक (A.D.C.) नियुक्त हुये।

सिपाही विद्रोह के बाद मौरीसन चले गये और कप्तान निक्सन भरतपुर के पोलीटिकल एजेण्ट नियुक्त होकर आए। महाराजा को अंग्रेजी, हिन्दी और फारसी की शिक्षा दी गई। सन् 1858 ई० में आपका विवाह पटियाला महाराजा नरेन्द्रसिंह की सुपुत्री के साथ हुआ। 1868 ई० में उस रानी से कुंवर भगवन्तसिंह का जन्म हुआ। किन्तु 5 दिसम्बर 1869 ई० को उस बालक का स्वर्गवास हो गया। पुत्र शोक में महारानी जी भी 7 फरवरी सन् 1870 को मर गई।

सन् 1871 ई० में महाराज को राज्य के पूर्ण अधिकार प्राप्त हुए। आपने अजमेर में मेयो कालिज की स्थापना के लिए 50,000 रुपये दिए। राज्य का प्रबन्ध आपने बड़ी योग्यता के साथ किया।

9 सितम्बर सन् 1872 ई० में युवराज रामसिंह का जन्म हुआ। सन् 1875-76 ई० में प्रिन्स ऑफ वेल्स सप्तम एडवर्ड भारत में पधारे। उस समय महाराजा ने उनको भरतपुर में बुलाकर खूब आवभगत की। देहली में जो प्रथम दरबार हुआ था, उसमें आपको सरकार की ओर से के० जी० सी० एस० आई० की उपाधि* दी गई थी। आपने अपने यहां से पोलीटिकल एजेण्ट (राजनीतिक-प्रतिनिधि) को हटा दिया था। उस समय पोलीटिकल एजेण्ट ‘हरीपर्वत’ आगरे में रहने लग गया था।

संवत् 1934 में राज्य में भारी अकाल पड़ा। आपने प्रजा की पूरी सहायता की। राज्य में नमक बनाने की 51 फैक्ट्रियां थीं। प्रतिवर्ष 15,00,000 मन नमक तैयार होता था जिसकी वार्षिक आय 3,00,000 रुपये भरतपुर राज्य को और 45,00,000 की भारत सरकार को होती थी। सन् 1879 ई० में भारत सरकार के परामर्श से नमक बनना बन्द कर दिया गया। भारत सरकार ने इसके बदले 1,50,000 रुपये नकद महाराजा को दिये और 1000 मन सांभर नमक प्रतिवर्ष देने का वचन दिया। काबुल के अमीर और अंग्रेजों में जब लड़ाई हुई तो महाराजा ने अंग्रेजों को मदद दी।

30 नवम्बर सन् 1886 ई० को कुमार नारायणसिंह और 7 जनवरी सन् 1887 को कुमार रघुनाथसिंह का जन्म हुआ। सन् 1890 ई० में भारत सरकार ने महाराजा की तोपों की सलामी 17 की बजाय 19 कर दी। सन् 1892 ई० में राजकुमार नारायणसिंह का स्वर्गवास हो गया।

महाराजा यशवन्तसिंह प्रजा प्रेमी थे। वह धार्मिक जीवन बिताते थे। यह स्वतन्त्रताप्रिय और दबंग नरेशों में से थे। उन्होंने सेना का संगठन बड़े अच्छे ढ़ंग से किया था। वह सत्यता और ईमानदारी को बहुत पसंद करते थे। आपने प्रजा की शिक्षा के लिए स्कूल और पाठशालायें खुलवाईं। औषधालय भी स्थापित किये थे। 22 दिसम्बर सन् 1893 ई० को आपका स्वर्गवास हो गया1

महाराजा रामसिंह जी (सन् 1893 ई० से 1900 ई० तक)

महाराजा यशवंतसिंह जी की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह सिंहासन पर विराजे।


(*) - Knight Grand Commander Star of India - “सर श्रेष्ठ अध्यक्ष भारत का तारा।”


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-731


25 दिसम्बर 1893 ई० को उनका राजतिलक हुआ। इनके कुछ सहकारी प्रजा के अहितकारी थे। संयमी न होने के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। सन् 1900 में महाराजा रामसिंह ने एक नाई को गोली से मार दिया। इसी घटना से आपको अंग्रेज सरकार ने गद्दी से हटाकर देवली के छावनी में भेज दिया। आपके दो पुत्र महाराजा कृष्णसिंह जी और कुंवर गिर्राजसिंह जी थे। सन् 1922 ई० में आप देवली से आगरा आ गए थे और कोठी भरतपुर में रहते थे। सन् 1929 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया2

महाराजा श्रीकृष्णसिंह जी (26 अगस्त 1900 से मार्च सन् 1929 ई० तक)

आपका जन्म 4 अक्तूबर सन् 1899 ई० को हुआ था। महाराजा रामसिंह के गद्दी से हट जाने पर 26 अगस्त सन् 1900 ई० को आपको राजगद्दी पर बिठाया गया था। अंग्रेज सरकार ने राज्य का प्रबन्ध स्टेट-कौंसिल को दिया।

राजमाता श्रीमती गिर्राजकुमारी जी ने आपके लालन-पालन और शिक्षा का पूर्णतः प्रबन्ध किया। कुछ सयाने होने पर आपको ‘मेयो कालेज’ अजमेर में पढ़ने के लिए भेजा गया। सन् 1910 ई० में आप इंग्लैंड भी गये। उन्हीं दिनों सप्तम एडवर्ड का स्वर्गवास हुआ था, आप उसकी अर्थी में शामिल हुए। सन् 1914 ई० में आपने दुबारा अपनी माताजी के साथ विलायत की यात्रा की। लड़ाई के लिए भरतपुर से 25 रुपये की सहायता सरकार को दी गई। इंग्लैंड से लौटकर महाराजा ने फिर मेयो कॉलिज में शिक्षा ली। आपका विवाह फरीदकोट की वीर राजकुमारी श्रीमती राजेन्द्रकुमारी के साथ हुआ।

28 नवम्बर सन् 1918 ई० को भारत के तत्कालीन लार्ड चेम्सफ़ोर्ड ने भरतपुर आकर महाराजा को अधिकार दिए। 30 नवम्बर 1918 को आपके यहां युवराज ब्रजेन्द्रसिंह का शुभ जन्म हुआ। सन् 1919 ई० में आपने सेना का पुनः संगठन किया। उर्दू के स्थान पर राजभाषा और लिपि हिन्दी कर दी गई।

24 सितम्बर सन् 1922 ई० को राजमाता श्रीमती गिर्राजकुमारी जी का स्वर्गवास हो गया। महाराजा ने लंका की भी यात्रा की थी और शिमले में ‘ब्रज-मण्डल’ की स्थापना की। आपने समाज सुधार एक्ट, क्रेडिट बैंक व सोसायटी तथा ग्राम्य-पंचायत एक्ट जारी करके प्रजा को प्रबन्धाधिकार दिए। गौ रक्षा के लिए राज्य के प्रत्येक बड़े नगर में प्रबन्ध किया गया। बेलजियम के बादशाह से आपका सामाजिक सम्बन्ध था। वह अपनी महारानी समेत भरतपुर में पधारे थे।

सन् 1924 ई० की भयंकर बाढ़ में आपने प्रजा के जानमाल की रक्षा की और प्रजा की सेवायें कीं जो भारत के तत्कालीन देशी नरेशों के लिए अनुकरणीय थीं।

महाराजा को इस बात पर बड़ा अभिमान था कि मैं जाट हूं। वह अपने जातीय गौरव से परिपूर्ण थे। सन् 1925 ई० में पुष्कर में होने वाले जाट महासभा के अधिवेशन के आप ही अध्यक्ष थे। आपने कहा था -

“मैं भी एक राजस्थान निवासी हूं। मेरा दृढ़ निश्चय है कि यदि हम योग्य हों तो कोई शक्ति

1, 2. जाट इतिहास पृ० 667-669, लेखक ठा० देशराज; योगेन्द्रपाल शास्त्री, पृ० 447-448; 1, राज्य भरतपुर, पृ० 74-102, लेखक चौबे राधारमण सिकत्तर।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-732


संसार में ऐसी नहीं है जो हमारा अपमान कर सके। मुझे इस बात का भारी अभिमान है कि मेरा जन्म जाट-क्षत्रिय जाति में हुआ है। हमारे पूर्वजों ने कर्त्तव्य धर्म पर मरना सीखा था और इसी बात से अब तक हमारा सिर ऊंचा है। मेरे हृदय में किसी भी जाति या धर्म के प्रति द्वेषभाव नहीं है और एक नृपति-धर्म के अनुकूल सबको मैं अपना प्रिय समझता हूं, हमारे पूर्वजों ने जो-जो वचन दिये, प्राणों के जाते-जाते उनका निर्वाह किया था। तवारीख बतलाती है कि हमारे बुजुर्गों ने कौम की बेहबूदी और तरक्की के लिए कैसी-कैसी कुर्बानियां की हैं। हमारी तजस्विता का बखान संसार करता है। मैं विश्वास करता हूं कि शीघ्र ही हमारी जाति की यशपताका संसार-भर में फहराने लगेगी।”

इस अवसर पर सर छोटूराम भी उपस्थित थे। इस सम्मेलन में पं० मदनमोहन मालवीय का भाषण - “जाट भारतीय राष्ट्र की रीढ़ हैं। भारत मां को इस साहसी वीर जाति से बहुत बड़ी आशायें हैं। भारत का भविष्य जाट जाति पर निर्भर है।” (पं० मदनमोहन मालवीय)।

आपने भरतपुर में हिन्दी-साहित्य सम्मेलन भी कराया। आपने ‘भारत वीर’ नाम का पत्र भी निकलवाया था। आपने शासन समिति की स्थापना की थी। नगरपालिकाओं और ग्राम-पंचायतों की स्थापना की गई। आपने मार्च सन् 1928 ई० से निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को प्रशासनिक अधिकार सौंपने का विधान भी घोषित कर दिया था, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने महाराजा कृष्णसिंह पर राजनीति में सक्रिय भाग लेने का आरोप लगाकर राज्य छोड़ देने पर विवश किया। शासन समिति की स्थापना एक जनवादी कदम था। तेरह माह तक नामज़द शासन समिति काम करती रही। विधान के अनुसार जब मन्त्रिमण्डल के निर्वाचन होने वाले थे, उससे पूर्व ही ब्रिटिश सरकार ने मि० डी० मैकेंजी को राज्य का दीवान नियुक्त करके भरतपुर भेज दिया और 1928 ई० में महाराजा को गद्दी से उतारकर दिल्ली भेज दिया गया। इस तरह से जन प्रतिनिधि सरकार की योजना विफल कर दी गई।

महाराजा कृष्णसिंह का महात्मा गांधी तथा राष्ट्रीय आन्दोलनों के प्रति श्रद्धा तथा झुकाव था। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय राष्ट्रीय गुरु और शरच्चन्द्र बोस, गुप्त राजनैतिक सलाहकार थे।

वे न्याय ले लिए अन्त तक लड़े। देहली में उनके जन्म-दिवस पर आपने कहा था - “मैं अपने अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हूं। प्रजा का अधिकार (शासन समिति) मैं पहले ही दे चुका हूं।”

आज सारा भारत कहता है कि महाराजा श्रीकृष्णसिंह वीर थे, देशभक्त और समाज सुधारक थे। ऐसे महारथी का देहली में मार्च सन् 1929 को स्वर्गवास हो गया। जुलाई सन् 1929 को राजमाता श्रीमती राजेन्द्रकुमारी का स्वर्गवास हो गया। आपने चार राजकुमार और तीन राजकुमारियां छोड़ीं।

महाराजा सर श्रीकृष्णसिंह जी के० सी० एम० आई० के स्वर्गवास के बाद आपके ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी भरतपुर की गद्दी पर बैठाये गये। आपके तीन छोटे भाइयों के नाम - श्री मानसिंह, गिरेन्द्रसिंह और गिर्राजसरनसिंह (बच्चूसिंह) थे। बच्चूसिंह की मृत्यु दिसम्बर 1969 ई० में हुई।


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महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह सन् 1929 ई० से सन् 1948 ई० तक)

आपने अपने भाइयों समेत यूरोप में विद्याध्ययन किया। 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत को स्वतन्त्रता मिलने के बाद जब गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारत की देशी रियासतों को भारत सरकार में मिलाया तब उस अवसर पर 18 मार्च, 1948 ई० को भरतपुर रियासत को ‘मत्स्य संघ’ में मिला दिया गया। (पूरा ब्यौरा अगले पृष्ठों पर देखो)

आपत्तियां - महाराजा श्रीकृष्णसिंह के निर्वासन के समय से ही राजपरिवार और प्रजाजनों पर आपत्तियां आनी आरम्भ हो गई थीं। महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह के समय में तो कुछेक पुलिस के उच्च कर्मचारियों ने अन्याय की हद कर दी थी। सुपरिण्टेंडेण्ट पुलिस मुहम्मद नकी ने हिन्दू जनता के धार्मिक कृत्यों पर पाबन्दी लगा दी। यही क्यों, भरतपुर के राजवंश के बुजुर्गों के स्मृति-दिवस न मनाने के लिए भी पाबन्दी लगाई गई। जयंती मनाने वालों के वारंट काटे गए जिनमें ठाकुर देशराज भी थे। आपका एक ही कसूर था कि उसने दीवान मैंकेंजी और एस० पी० नकी मुहम्मद के भय प्रदर्शन की कोई परवाह न करके 6 जनवरी सन् 1928 ई० को महाराजा सूरजमल की जयन्ती का आयोजन किया और महाराजा कृष्णसिंह की जय बोली। इसी बात के लिए दीवान मि० मैंकेंजी ने अपने हाथ से वारण्ट पर लिखा था, “मैं देशराज को दफ़ा 124 में गिरफ्तार करने का हुक्म देता हूं और उसे जमानत पर भी बिना मेरे हुक्म के न छोड़ा जावे।”

सन् 1929 ई० के दिसम्बर में भरतपुर सप्ताह मनाने की आयोजन हुआ। सारे भारत के जाटों ने भरतपुर के दीवान मैंकेंजी और मियां नकी की अनुचित हरकतों की गांव-गांव और नगर-नगर में सभायें करके निन्दा की।

दीनबन्धु सर छोटूराम जी रोहतक, राव बहादुर चौधरी अमरसिंह जी पाली, ठाकुर झम्मन सिंह जी एडवोकेट अलीगढ और कुंवर हुक्मसिंह जी रईस आंगई जैसे प्रसिद्ध जाट नेताओं ने देहातों में पैदल जा-जाकर जाट सप्ताह में भाग लिया। उन्हीं दिनों आगरे में जाट महासभा का एक विशेष अधिवेशन सर छोटूराम जी की अध्यक्षता में हुआ। उसमें श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी को विलायत भेजने और दीवान मि० मैंकेंजी की पक्षपातिनी नीति व अन्याय के विरोध के प्रस्ताव पास किए। इस समय भरतपुर के हित के लिए महाराजा श्री उदयभानसिंह राणा जी ने सरकार के पास काफी सिफारिशें भेजीं।

आखिरकार ब्रिटिश सरकार ने कुछ दिनों बाद दीवान मैंकेंजी को भरतपुर से दूसरे स्थान पर बदल दिया। वह 1928 से 1933 ई० तक भरतपुर में रहा।

इस एडमिंस्ट्रेशनरी शासन में सबसे कलंकपूर्ण बात यह हुई कि ‘सूरजमल शताब्दी’ जो कि बसंत पंचमी सन् 1933 ई० में जाट महासभा की ओर से भरतपुर में मनायी जाने वाली थी, उसको न मनाने का हुक्म दिया गया। इस दिन जनवादी अन्दोलन हुआ, जाट लोगों के जत्थे भरतपुर पहुंच गये और नगर में घूम-घूमकर उन्होंने सूरजमल शताब्दी मनाई।

इसके बाद ‘भरतपुर राज्य प्रजा संघ’ के नेतृत्व में ब्रिटिश विरोधी आन्दोलनों का श्रीगणेश हुआ। सन् 1938 ई० में “भरतपुर राज्य प्रजामण्डल” और सन् 1940 ई० में “भरतपुर राज्य प्रजा परिषद्” की स्थापना के बाद दिसम्बर 1947 ई० तक ‘उत्तरदायी शासन’ की मांग को लेकर लगातार


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आन्दोलन चलते रहे। बेगारप्रथा बन्द करने, पूर्ण उत्तरदायी शासन तथा लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल की मांगों को लेकर जनवरी, 1947 ई० में प्रजापरिषद्, लाल झण्डा, किसान सभा तथा मुस्लिम कांफ्रेंस का सामूहिक अन्तिम आन्दोलन चला था। लगभग 22 दिन तक नगर में पूर्ण हड़ताल रही। शिक्षण संस्थायें बन्द रहीं।

सत्याग्रहियों ने ‘कोर्ट धरना’ दिया, इसको कुचलने के लिए तत्कालीन मिलिट्री सेक्रेटरी श्री गिर्राजशरणसिंह उपनाम बच्चूसिंह ने 15 जनवरी 1947 ई० के दिन आन्दोलनकारियों पर घोड़े चढ़ाकर बल्लम व बर्छों से प्रहार किया। फलतः अनेक नेता व स्वयंसेवक घायल हो गये। श्री राजबहादुर तथा स्व० सांवलप्रसाद चतुर्वेदी पर प्रहार किये गये थे। इस आन्दोलन में महिलाओं ने भी भाग लिया। निवर्तमान नरेश सवाई ब्रजेन्द्रसिंह ने सोमवार 4 अक्तूबर, 1943 ई० के दिन विधान निर्मात्री समिति “ब्रज जया प्रतिनिधि समिति” और ग्रामों में साधिकार निर्वाचित पंचायतें स्थापित करके स्वायत्त शासन को प्रोत्साहन दिया। प्रजा परिषद् तथा अन्य राजनैतिक दलों के व्यापक आन्दोलन तथा जन-जागृति को देखकर अन्त में 3 जनवरी, 1948 ई० को अस्थायी लोकप्रिय मन्त्रिमंडल की स्थापना करनी पड़ी थी।

स्वाधीनता (15 अगस्त, 1947 ई०) से पूर्व आधुनिक राजस्थान छोटे-बड़े 19 देशी राज्यों में विभक्त था, जिनकी राजनैतिक प्रभुसत्ता राजपूत तथा जाट राजाओं के हाथों में निहित थी।

जाट प्रशासित राज्य -
1. भरतपुर 2. धौलपुर
राजपूत प्रशासित राज्य -
1. करौली 2. अलवर 3. जयपुर 4. कोटा 5. बूंदी 6. झालावाड़ 7. किशनगढ़ 8. बांसवाड़ा 9. डूंगरपुर 10. सिरोही 11. प्रतापगढ़ 12. शाहपुरा 13. उदयपुर 14. जोधपुर 15. बीकानेर 16. जैसलमेर
मुस्लिम प्रशासित राज्य -
1. टौंक केन्द्र प्रशासित 2. अजमेर

इन सभी राज्यों को क्रमशः एक दूसरी इकाइयों में मिलाकर राजस्थान राज्य की स्थापना की गई। सर्वप्रथम 17 मार्च 1948 ई० के दिन पूर्वोत्तर सीमान्त प्रदेशीय भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा अलवर राज्यों का मत्स्य संघ के नाम से एकीकरण किया गया।

अलवर - 18वीं शताब्दी में लगभग 35 वर्ष तक यह राज्य भरतपुर राज्य का अंग रहा। सन् 1774-75 ई० में माचेड़ी (मत्स्य) के जागीरदार नरूका कछवाहा राव राजा प्रतापसिंह ने मिर्जा नजफखां से प्राप्त करके स्वतन्त्र अलवर राज्य की नींव डाली।)

मत्स्य संघ - महाभारत काल में शूरसेन जनपद की पश्चिमी सीमा पर मत्स्य जनपद विद्यमान था, जिसकी राजधानी आधुनिक बैरठ (विराट नगर), जिला जयपुर थी। (महाभारत वनपर्व अ० 23, श्लोक 5)

कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पंचालाः शूरसेनकाः।
एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः॥मनुस्मृति 2/19॥

अर्थ - ब्रह्मावर्त्त से मिला हुआ कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल और शूरसेनक देशों का प्रदेश ब्रह्मर्षि देश कहलाता है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-735


चीनी यात्री ह्यून्त्सांग 639 ई० के समय में, बैराठ जनपद विद्यमान था और इसमें आधुनिक अलवर का आधा भाग, जयपुर तथा टौंक जिले शामिल थे। श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी के परामर्श पर महाभारतकालीन मत्स्य महाजनपद के नाम पर ही राजपूताना के पूर्वी राज्यों का प्रथम बार मत्स्य संघ के नाम से नामकरण तथा एकीकरण किया गया था। (मेनन, पृ० 225)

इसका उद्घाटन केन्द्रीय निर्माण, खनिज तथा विद्युत् मन्त्री श्री नरहरि विष्णु गाडगिल ने भरतपुर में किया था। उद्घाटन के दिन ठाकुर देशराज लेखक जाट इतिहास के नेतृत्व में “भरतपुर जमींदार किसान सभा” ने इस एकीकरण का भारी विरोध किया और चौबुर्जा द्वार पर जमींदार किसानों ने भारी संख्या में धरना दिया था। भारत सरकार ने इस अवसर पर सशस्त्र सेना तथा टैंकों की टुकड़ी भेजकर इस आन्दोलन को उसी समय दबा दिया।

अलवर को इस संघ की राजधानी 18 मार्च 1948 ई० को बनाया गया और धौलपुर के राणा उदयभानुसिंह लोकेन्द्र बहादुर दिलेर जंग को राजप्रमुख नियुक्त किया गया था। अन्त में मई 1949 ई० को ‘मत्स्य संघ’ को ‘संयुक्त राजस्थान’ और 26 जनवरी 1950 ई० को ‘राजस्थान’ राज्य में मिला दिया गया।

भरतपुर राज्य का क्रमिक विकास

ठाकुर चूड़ामन ने लूटमार बन्द नहीं की और उसने दिल्ली (बाराहपूला) से चम्बल पर्यन्त पर्यन्त विशाल भूमि पर अपना नैतिक अधिकार जमा लिया था। ठाकुर बदनसिंह ने जाटराज्य की स्थापना की। उसके सुयोग्य पुत्र तथा उत्तराधिकारी राजा सूरजमल ने जाटराज्य का विस्तार किया और मृत्यु (25 दिसम्बर 1763 ई०) से पूर्व ‘भरतपुर राज्य’ को ‘जाट साम्राज्य’* का रूप देकर सुदृढ़ बनाया।

महाराजा सूरजमल के जाट साम्राज्य का विस्तार

उत्तर में जिला मेरठ, बल्लभगढ़, गुड़गांव, रोहतक, फर्रूखनगर, झज्जर, पटौदी, रेवाड़ी आदि (दिल्ली से 10 मील दूर तक), बुलन्दशहर। पूर्व में जिला मथुरा, आगरा, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, आदि। दक्षिण में धौलपुर, बयाना, भरतपुर, डीग आदि। पश्चिम में अलवर, मेवात का भूखण्ड, होडल, पलवल आदि।

इस जाट साम्राज्य की पूर्वी हद गंगा नदी का दाहिना किनारा, दक्षिणी हद चम्बल नदी, पश्चिम में जयपुर राज्य तक और उत्तर में सूबा देहली तक थी।

इस प्रकार विशुद्ध जाटराज्य की लम्बाई पूर्व से पश्चिम तक 200 मील (320 किलोमीटर) और उत्तर से दक्षिण तक 150 मील (240 किलोमीटर) के लगभग हो गई थी**


(*) - डॉ० जदुनाथ सरकार ने सूरजमल को ‘जाट सम्राट्’ और जाट राज्य को ‘जाट साम्राज्य’ लिखा है। मुग़ल भाग 2, पृ० 60, 328, 331.
(**) - ओडायर भाग 3 पृ० 26; कानूनगो, (जाट) पृ० 167; चौबे पृ० 18; दीक्षित पृ० 54, 64; ठा० देशराज पृ० 640; यू० एन० शर्मा पृ० 24-25.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-736


महाराजा सूरजमल जी के पुत्र “महाराजाधिराज पृथ्वीइन्द्र सवाई जवाहरसिंह बहादुर” (1764-68) ने जाट साम्राज्य की सीमाओं का चम्बल नदी के पार तथा दक्षिणपूर्व की ओर विस्तार किया था और काल्पी, भिण्ड, नरवर और महोबा (मध्यप्रदेश) पर्यन्त प्रदेश अपने राज्य में मिला लिये थे। सन् 1773 ई० के बाद अमीर उल-उमरा मिर्जा नजफखां ने जिला मथुरा, आगरा, अलीगढ़ (कोइल), फर्रूखनगर, रेवाड़ी, बल्लभगढ़ आदि परगनों को जाट शासक से छीन लिया था। यहां तक कि 1775 ई० में जाटराज्य की सीमायें भरतपुर, कुम्हेर तथा वैर परगनों तक ही सीमित रह गईं थीं। राजमाता किशोरी के अनुरोध पर मिर्जा नजफखां ने राजा रणजीतसिंह को ग्यारह परगने प्रदान कर दिये थे*

अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में महाद जी सिन्धिया के प्रतिनिधि जनरल पैरन ने रणजीतसिंह को कांमा, पहाड़ी तथा खेरी नामक तीन परगनों का प्रबन्ध सौंप दिया था**। और मत्स्य संघ में विलीनीकरण तक इन्हीं चौदह परगनों का जाटराज्य विद्यमान रहा, जिसकी लम्बाई केवल 76 मील और चौड़ाई 48 मील थी। इसके उत्तर में गुड़गांव जिला, दक्षिण में जयपुर-करौली राज्य, पूर्व में मथुरा-आगरा और पश्चिम में जयपुर-अलवर राज्य थे।

विशाल भूमि निकल जाने के बाद भी वीरता, साहस तथा अदम्य उत्साह भंग नहीं हुअ और मराठे पत्रों में डीग क्षेत्र उत्तर भारत का ‘मालवा’, भरतपुर का किला ‘लोहगढ़’ और जाटराज्य ‘जटवाड़ा’ के नाम से प्रसिद्ध थे।

1896 ई० से पूर्व भरतपुर राज्य, भरतपुर तथा डीग नामक दो निजामतों में बंटा था। उस समय इनके अन्तर्गत 12 तहसीलें विद्यमान थीं।

जिला या निजामत तहसीलें
1. भरतपुर, 748 ग्राम 1. भरतपुर (ड्यौढ़ी) 2. बयाना 3. भुसावर 4. उच्चैन 5. रूपवास 6. अखैगढ़ (नदबई)
डीग, 611 ग्राम 1. डीग 2. कांमा 3. पहाड़ी 4. नगर 5. गोपालगढ़ 6. कुम्हेर

‘मत्स्य संघ’ की स्थापना के साथ समस्त राज्य को एक जिला (धौलपुर तथा करौली राज्य को मिलाकर) बनाया गया था। बाद में धौलपुर तथा करौली पृथक् जिले बना दिये गये। ‘मत्स्य संघ’ के संयुक्त राजस्थान में मिल जाने पर धौलपुर जिले को भरतपुर जिले में मिला दिया गया। प्रशासनिक वर्गीकरण के साथ तहसीलों में भी परिवर्तन किया गया। यह स्थिति अभी तक विद्यमान है।


(*) - ओडायर भाग 3 पृ० 27.
(**) - टाड खण्ड 2, पृ० 339; ज्वालासहाय पृ० 32; ओडायर भाग 3 पृ० 27; दीक्षित पृ० 113; देशराज पृ० 660; यू० एन० शर्मा पृ० 24.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-737


उपखण्ड तहसील
1. भरतपुर भरतपुर, उप-तहसील कुम्हेर और (नदबई)
2. डीग डीग. कांमा, पहाड़ी, उप-तहसील नगर
3. बयाना बयाना, वैर, रूपवास

प्रमुख जातियां तथा नगर

इस भूभाग (काठेड़) में प्रायः सब जाति, धर्म, सम्प्रदाय तथा वर्ग के व्यक्ति निवास करते हैं। जाटराज्य निर्माण तथा भावनात्मक एकता में जाट, ब्राह्मण, मेव तथा गूजरों ने मुख्य रूप से भाग लिया था1। राजपूत, मीणा (मैना) आदि जनशक्ति की न्यूनता के कारण सक्रिय होकर भी गौण (अप्रधान) थे। चमार या जाटवों की आबादी अधिक होने के कारण काश्तकारी में सहयोग देने तथा आन्तरिक राजमाल की रक्षा का भार इनको सौंपा गया था2

कहा जाता है कि राजमाता किशोरी ने अपने दत्तक पुत्र महाराजा जवाहरसिंह को संचित राजकोष की एक झांकी कराई थी। उस समय कुम्हेर के चमार (जाटव) जाट खजाने के रक्षक थे और वे जवाहरसिंह को आंखों पर पट्टी बांधकर भूगर्भ खजाने तक ले गये थे।

राज्य के पश्चिमोत्तर खण्ड मेवात में मेव तथा खानजादों का बाहुल्य है। यह हल के धनी होकर भी सिख, राजपूत, मराठा, बुन्देला तथा जाटों की भांति तलवार के धनी, मेहनती कृषक तथा मेवात के प्रशासक रहे हैं3

भरतपुर का राजवंश

सन् 1723 से 1948 तक = 225 वर्ष


1. ठाकुर बदनसिंह सन् 1727 - 1756 ई०
2. महाराजा सूरजमल 1756 - 1763
3. महाराजा जवाहरसिंह 1764 - 1768
4. महाराजा रतनसिंह 1768 - 1769
5. महाराजा केहरसिंह 1769 - 1776
6. महाराजा रणजीतसिंह 1777 - 1805
7. महाराजा रणधीरसिंह 1805 - 1823
8. महाराजा बलदेवसिंह 1823 - 1825
9. महाराजा बलवन्तसिंह 1826 - 1853
10. महाराजा यशवन्तसिंह 1853 - 1893
11. महाराजा रामसिंह 1893 - 1900
12. महाराजा कृष्णसिंह 1900 - 1929
13. महाराजा ब्रजिन्द्रसिंह 1929 - 1948

1. - इमाद कृत सुजान चरित्र; यू० एन० शर्मा कृत “कवि अखैराम और उनकी काव्य साधना समिति वाणी”, जुलाई-अक्तूबर 1963, पृ० 75-82.
2. इमाद पृ० 55; नागरी प्र० प० (सं० 1996) पृ० 197.
3. क्रुक खण्ड 3, पृ० 485; ब्रुकमैन पृ० 20; राज० गजे० जिल्द 3, पृ० 200; आर्के० सर्वे० खण्ड 20, पृ० 22-27; इम्पी० गजे० खण्ड 17, पृ० 313.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-738


राजा मानसिंह (5 दिसम्बर, 1921 से 21 फरवरी 1985 तक)

राजा मानसिंह के पिता महाराजा श्रीकृष्णसिंह जी भरतपुर नरेश थे और आपकी माता महारानी राजेन्द्रकौर थी। आपका जन्म 5 दिसम्बर 1921 ई० को हुआ। जनवरी 1930 में आपको ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ ने एडवर्ड की पदवी प्राप्त की। सन् 1930 में शिक्षा के लिए इंग्लैंड गये। वहां पर मेकीनिकल इंजीजियरिंग डिग्री प्राप्त की तथा सैण्डहस्ट मिलिट्री एकेडमी से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। द्वितीय विश्वयुद्धकाल में ब्रिटिश सेना में सैकिण्ड रॉयल लांसर्स में 5 वर्ष तक लेफ्टिनेन्ट पद पर कार्य किया और फिर भारतीय सेना में मेजर का पद प्राप्त किया। सन् 1946-47 में भरतपुर राज्य मन्त्रिमण्डल में मन्त्री बनाये गये। सन् 1947 में भरतपुर राज्य मन्त्रिमण्डल का त्याग कर दिया। स्वाधीनता के बाद, मत्स्यराज्य की स्थापना के समय, भरतपुर के किले पर फहराते परम्परागत झण्डे को उतारने के विरोध में जन आन्दोलन का आयोजन किया। इसके फलस्वरूप 18 मार्च 1948 को स्वतन्त्र भारत की सरकार ने गिरफ्तार कर लिया।

इस दौरान आपको दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखा गया। वहां से मुक्त होने के बाद केन्द्रीय सरकार के आदेश से छः माह के लिए भरतपुर में प्रवेश करने की पाबन्दी लगाई गई। आपने इस समय अपनी ससुराल कोल्हापुर में निवास किया। 9 मार्च 1945 को आपका विवाह कोल्हापुर की राजकुमारी अजयकौर से हुआ था। जनवरी, 1952 में कृषिकार लोक पार्टी के प्रत्याशी के रूप में राजस्थान विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। फिर 1957 ई० के चुनाव में बदबई-वैर क्षेत्र से जिला कांग्रेस के अध्यक्ष को हराकर राजस्थान विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1962 ई० में तीसरी बार विधायक चुने गये। सन् 1967 में पुनः निर्दलीय के रूप में चुने गये। मार्च 17, 1948 ई० के दिन भरतपुर को ‘मत्स्य संघ’ में मिलाने के उद्देश्य से नरहरि विष्णु गाडगिल भरतपुर पहुंचे। उनके साथ मद्रास राइफल्स पलटन तथा अनेक टैंक भी थे। इसके विरोध में भरतपुर दुर्ग द्वार को जाने वाले पुल और दुर्ग के अन्दर लगभग 50,000 भरतपुर के लोग बैठ गये जिनका नेता राजा मानसिंह था। राजा मानसिंह ने मि० गाडगिल को बड़ी दिलेरी से कहा कि “आप अलवर को राजधानी बनाकर उद्घाटन के बहाने भरतपुरी ध्वज को उतार फेंकना चाहते हो, यह हरगिज नहीं होने दिया जायेगा।” सेनापति राजा मानसिंह को गिरफ्तार करने के बाद भी जनसमूह नहीं हटा। तब दिल्ली को स्थिति की गम्भीरता से अवगत कराया गया। इसके फलस्वरूप रेडियो से ऐलान हुआ कि भरतपुर दुर्ग का ध्वज पूर्ववत् ही लहराता रहेगा। परन्तु अपार जनसमूह ने जुम्बिश फिर भी नहीं खाई। महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह जनसमूह को समझाने के लिए पहुंचे। परन्तु उनके कहने से भी लोग वहां से नहीं हटे। अन्त में ‘मत्स्य संघ’ के मनोनीत राजप्रमुख धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानु राणा जी सेवर जेल गए। वहां से ठा० देशराज जी (लेखक जाट इतिहास) को लिवाकर लाए।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-739


ठाकुर साहब ने कहा - “धींगामस्ती करने वालों को हमने यह अनुभव करा देना था कि परम्परागत आत्म-सम्मान के लिए भरतपुर अपने राजपुत्रों तक को जेल भेज सकता है और भरतपुर मरना भी जानता है। हमारे आत्मसम्मान को चुनौती देने वाले हमारी बलिदान भावना से सहमे खड़े हैं। जीत हमारी हुई है। आप सब “गिर्राज महाराज की जय बोलो और ऊंचा माथा करके अपने बाल-बच्चों में लौटो।” इस पर श्री गिर्राज महाराज की जय के साथ जन-वाहिनी वापस हो गई।

सन् 1985 के चुनाव में आप डीग के निर्दलीय विधायक के रूप में अपना चुनाव अभियान कर रहे थे। कांग्रेस राजा साहब को हार का मुंह दिखाना चाहती थी। राना मानसिंह के चुनाव प्रचार मंच से कांग्रेस (आई) के कार्यकारियों ने उनके पारिवारिक ध्वज को उतारकर फाड़ दिया। यह राजा साहब के स्वाभिमान तथा सम्मान को चुनौती थी। राजा मानसिंह का उद्देश्य किसी को मारना अथवा नुकसान पहुंचाना नहीं था। आप वैपन कैरियर लेकर जब कांग्रेस मंच के पास पहुंचे थे तो गाड़ी रोकने के बाद हाथ जोड़कर सबको राम-राम कहा और मंच से उतरने की प्रार्थना की। सबके उतर जाने के बाद ही वैपन कैरियर से मंच को ठोकर मारी। उस समय उनका चुनाव-क्षेत्र बावड़ी-बरौदा ब्लाक में था। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर के इशारे पर राजस्थान के डी० एस० पी० कानसिंह भाटी और उसके साथी पुलिस वालों ने 21 फरवरी सन् 1985 को राजा मानसिंह और उनके दो साथियों को निहत्थी स्थिति में गोली मारकर हत्या कर दी।

सी० बी० आई० के अनुसार राजा मानसिंह की हत्या नियोजित थी। जयपुर, 10 अप्रैल (जनसत्ता) “डीग के निर्दलीय विधायक राजा मानसिंह और उनके दो साथियों की पुलिस द्वारा हत्या ऐसी सोची-समझी साजिश और बुरी नीयत का नतीजा थी।”

इस हत्याकाण्ड के समाचार ने सारे देश में आग लगा दी। राजस्थानव्यापी बन्द हुआ। हरयाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश तक विरोध और आक्रोश की लहरों में डूब गए। अगणित स्थानों पर शिवचरण माथुर के पुतले जलाए गये। चौ० चरणसिंह, राजमाता विजयराजे सिन्धिया, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री चन्द्रशेखर और बाबू जगजीवनराम आदि अनेक नेताओं ने इस काण्ड की भर्त्सना करते हुए इसको सुनियोजित राजनैतिक हत्या घोषित किया। प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी को भी पीड़ा हुई, उन्होंने शोकग्रस्त परिवार के दुःख में स्वयं को साझीदार समझा। देश का कोई भी प्रमुख समाचार-पत्र ऐसा न था, जिसने इस हत्याकाण्ड की भर्त्सना न की हो1

राजा मानसिंह की मृत्यु के बाद उसी निर्वाचन-क्षेत्र में हुए उप-चुनाव में आपकी सुपुत्री रूपादेवी निर्दलीय के रूप में अपने प्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस ई० के उम्मीदवार को हराकर राजस्थान विधानसभा के लिए निर्वाचित हुई।


1. ‘गौरव गाथा’, राजा मानसिंह, पृ० 1-73 लेखक पुष्करसिंह (स्वतन्त्रता सेनानी); उस समय के अनेक समाचार पत्रों के लेख।


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धौलपुर जाट राज्य

धौलपुर राज्य की वंशावली रिकार्ड के अनुसार इनका जाट गोत्र भम्भरौलिया है जिसकी उत्पत्ति चन्द्रवंशी सम्राट ययाति के पुत्र पुरु के वंशज जाट राजा वीरभद्र के पुत्र ब्रह्मभद्र के नाम से हुई। वंश के नरेशों की पदवी राणा थी। जिस प्रकार भरतपुर जाट नरेशों की वंशावली महाराजा श्रीकृष्ण जी से आरम्भ होकर महाराजा ब्रजिन्द्रसिंह भरतपुर के अन्तिम जाट नरेश तक है और ये सब यदुवंशी हैं परन्तु श्रीकृष्ण जी से 70 वीं पीढ़ी में सूये (सोहेदेव) का निवास सिनसिनी गांव गांव में रहने से उसके वंशज सिनसिनवाल कहलाये, इसी प्रकार जाट राणा धौलपुर नरेशों की राजवंशावली में वीरभद्र से लेकर धौलपुर के राजाओं तक सबके नाम लिखे हुए हैं जिनका गोत्र भम्भरौलिया है और पदवी ‘राणा’ है, जिससे इनको राणा ही कहा जाता है। (देखो तृतीय अध्याय, भम्भरौलिया जाट गोत्र, प्रकरण)।

इस जाट गोत्र भम्भरौलिया के संस्थापक ब्रह्मभद्र तथा उसके पिता वीरभद्र का संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार से है - शिवजी महाराज का राज्य कैलाश पर्वत से लेकर काशी तक था जिसमें शिवालिक की शाखायें एवं हरिद्वार शामिल थे। उनके अनुयायी जाट पुरुवंशी राजा वीरभद्र का गणतन्त्र राज्य शिवालिक के पहाड़ी क्षेत्र पर था, जिसकी राजधानी हरद्वार के निकट तलखापुर थी। उसी समय महादेव जी के श्वसुर राजा दक्ष ने एक बड़ा यज्ञ किया जिसमें उसकी पुत्री सती जो शिवजी की धर्मपत्नी थी, बिना बुलाये ही पहुंच गई। अपने पिता दक्ष द्वारा सम्मान न मिलने के कारण सती, अग्नि कुण्ड में जलकर मर गई। शिवजी महाराज ने इसका बदला लेने हेतु राजा वीरभद्र को कहा, जिसने अपनी जाट सेना ले जाकर दक्ष का सिर उतार दिया। राजा वीरभद्र के 5 पुत्रों और दो पौत्रों के नाम पर 7 जाट गोत्र प्रचलित हुए। वीरभद्र के एक पुत्र ब्रह्मभद्र के नाम पर पुरुवंशी जाटगण का नाम भम्भरौलिया प्रचलित हुआ। (देखो, प्रथम अध्याय, वीरभद्र की वंशावली)।

भम्भरौलिया जाटों का शुरु में शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र में गणराज्य रहा। फिर ये लोग भारत से बाहर विदेशों में गये। समय अनुसार यह लोग ईरान से लौटकर पंजाब में आबाद हुए और वहां से चलकर गुजरात होते हुए राजस्थान में आकर आबाद हुए। इन जाटों ने गोहद में भी अपनी बस्तियां बसायीं। ये लोग आगरा के ताजमहल के निकट बमरौली में भी बस गये थे। (जाट इतिहास, पृ० 676, लेखक ठा० देशराज)।

भम्भरौलिया जाट वि० संवत् 952 (सन् 895 ई०) में नारनौल छोड़कर विराट नगर में आये और वहां पर राज्य स्थापित किया। इस वंश का राजा जयदेव, जाट सम्राट् अनंगपाल तंवर वंशी के अधीन राजाओं में से था। राजा जयदेव का पुत्र पालंसीराव जयचन्द की पुत्री राजकुमारी संयोगिता का डोला लाने वाले पृथ्वीराज के दल में शामिल था। पालंसीराव उस युद्ध में मारा गया था।

जब दिल्ली पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो गया तब जयदेव के तीनों पुत्रों ने गौरी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने शाही बेगमों को अजमेर जाते हुए लूट लिया। मुहम्मद गौरी ने उनकी राजधानी विराट नगर पर अधिकार कर लिया। इस वंश की जाट रानी कौमुदी अपने राजकुमार


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ब्रह्मदेव को लेकर बयाना के जाट राजा विजयपाल की शरण में चली गई। उस राजा ने इस रानी को अपनी धर्म-बहन मान लिया और उसे दो लाख रुपये आय की जागीर दे दी।

इस वंश के राजा रामदेव के पुत्रों ने बयाना नरेश के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वे वहां से निकाले गये जो अपने 600 सैनिकों के साथ आगरा प्रान्त के जटाती गांव में पहुंचे और वहां अपना कैम्प लगाया। वहां पर उनकी मुठभेड़ आगरा के मुस्लिम हाकिम मनीर मेमनत से हुई, जिसमें उनके 470 सैनिक मारे गये। वे वहां से चम्बल नदी के किनारे बिजोड़ नामी ग्राम में तीन पीढ़ी तक रहे1

इस वंश के जाटों ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। वहां पर उनके मुस्लिम सम्राटों के विरुद्ध युद्ध जारी रहे। इन्होंने ग्वालियर से हटकर ‘गोहद’ में अपना राज्य स्थापित किया और अपने सरदार सुर्जनसिंह देव को ‘राणा गोहद’ बनाया। यह घटना सन् 1505 ई० की है। इस वंश का गोहद पर लगभग 300 वर्ष तक शासन रहा। इनका राज्य प्रजातन्त्र शैली का था2

गोहद

यह ग्वालियर से उत्तर पूर्व में है। इस राज्य की सीमा यह थी -

इस राज्य के पश्चिम में ग्वालियर राज्य, पूर्व में काली सिन्धु नदी, उत्तर में यमुना नदी और दक्षिण में सिरमूर की पहाड़ियां थीं।

मुसलमानों के विरुद्ध राजपूतों का साथ देने के कारण इस जाटवंश के परिवार को सन् 1505 ई० में राजपूत राजाओं ने ‘राणा’ की पदवी दी थी और उनको गोहद प्रदेश का शासक मान लिया। इन्होंने बाजीराव पेशवा (सन् 1720 से 1740 ई०) को बहुत सहयोग दिया था जिसके कारण मराठों की ओर से भी इन जाटों को गोहद का शासक मान लिया गया था। परन्तु मराठा जहां बहादुर थे, वहां स्वार्थी भी पूरे थे। मराठों की इसी मनोवृत्ति ने राणा वीर जाटों को उनसे अलग हो जाने के लिए बाध्य कर दिया।

गोहद के नरेश राणा भीमसिंह ने अपने राज्य की रक्षा के लिए मराठों से लगातार युद्ध करना पड़ा। सन् 1754 ई० में अन्ताजी माणकेश्वर के नेतृत्व में मराठा सेना ने राणा के इस प्रदेश के बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। राणा भीमसिंह ने महाराजा सूरजमल से मैत्री एवं संरक्षण प्राप्त किया और सन् 1755 ई० के प्रारम्भ में मराठों से अपने प्रदेश को मुक्त करा लिया। उसने आगे बढ़कर ग्वालियर के किले पर भी अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद विट्ठल सदाशिव के नेतृत्व में मराठा सेना ने गोहद के जाटों को पीछे धकेल दिया। राणा ने अपने सरदार फतहसिंह को सूरजमल के पास मदद के लिए भेजा। भरतपुर की जाट सेना पहुंचते ही अगस्त मास में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मराठा सेना बुरी तरह से पराजित हुई। दिल्ली से और मराठा सेना पहुंचने पर गोपाल गणेश के नेतृत्व में मराठा सेना ने जाटों को पराजित करके ग्वालियर दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु वे जाटों के गोहद प्रदेश को लेने में असफल रहे। सूरजमल, जिसका रघुनाथराव से समझौता था, ने नवम्बर सन् 1755 ई० में गोहद के झगड़े को शान्तिपूर्वक निपटा


1. जाट इतिहास, पृ० 126 लेखक ले० रामस्वरूप जून
2. जाट इतिहास, पृ० 679-680; लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 423, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री


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दिया। (अधिक जानकारी के लिए देखो, अष्टम अध्याय, सूरजमल की मराठों के विरुद्ध गोहद के राणा की सहायता, प्रकरण)।

जब सन् 1761 ई० में मराठे अब्दाली से पानीपत के युद्ध में संलग्न थे, उस समय राणा भीमसिंह ने मराठों के ग्वालियर आदि दस किलों पर अपना अधिकार कर लिया था।

राणा भीमसिंह की मृत्यु होने पर उसका भतीजा राणा लोकेन्द्रसिंह सिंहासन पर बैठा।

महाराजा राणा श्री लोकेन्द्रसिंह

राणा भीमसिंह के स्वर्गवास होने पर उनका भतीजा गोहद की राजगद्दी पर विराजमान हुआ। उस समय आगरा से इटावा तक भरतपुर के जाटों का बसन्ती झण्डा फहरा रहा था। इस कारण मराठों का साहस न हुआ कि इस बढ़ते हुए जाट राज्य से छेड़छाड़ करते। किन्तु 6 साल की चुप्पी के बाद सन् 1767 ई० में पेशवा माधोराव ने रघुनाथ राव के नेतृत्व में मराठों की एक विशाल सेना लोकेन्द्रसिंह को विजय करने के उद्देश्य से भेजी, जिसने जाट राज्य पर आक्रमण कर दिया।

राणा साहब भी रणबांकुरे थे, युद्ध का आह्वान सुनकर मैदान में आ डटे। महाराजा जवाहरसिंह भी राणा की सहायता के लिए जा पहुंचे। घनघोर युद्ध हुआ। मुग़ल-पठानों को भी जिनके सामने पीठ दिखानी पड़ी थी, उन मराठों का अभिमान जाटवीरों की तलवारों ने समाप्तप्राय कर दिया। पेशवा ने पार न बसाती देखकर अपने युद्ध के व्यय की मांग राणा के सामने रखी। इसकी पूर्ति कर देने पर राणा को स्वतन्त्र राजा मान लेने का भी वचन दिया। राणा लोकेन्द्रसिंह एक शान्तिप्रिय धार्मिकवृत्ति के शासक थे। आपने तीन लाख रुपये मराठों को देकर शान्ति स्थापित कर ली। अपने राज्य की सब तरह से उन्नति की।

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ऐसे बहादुर और मराठों के विरोधी राणा लोकेन्द्रसिंह से सन्धि के लिए प्रयत्न किया। 2 दिसम्बर, 1778 ई० को; फोर्ट विलियम किला कलकत्ता में, अंग्रेजों ने राणा लोकेन्द्रसिंह गोहद नरेश से सन्धि कर ली। उसकी 9 धारायें थीं, जिनको दोनों पक्षों ने मान लिया।

लाहौर विजय -

इस सन्धि को परखने के लिए पहला पग राणा जी ने उठाया। आपने लाहौर विजय करने के लिए अंग्रेजी सेनापति को लिखा। सूचना मिलने पर कप्तान पोफम अपने 2400 सैनिकों के साथ पहुंच गया। महाराणा लोकेन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की सहायता से लाहौर के किले से मराठों को निकाल दिया और सन् 1778 में लाहौर पर अपना अधिकार कर लिया। इसी वर्ष, 4 अगस्त को ग्वालियर का किला भी राणा साहब ने जीत लिया।

13-10-1781 ई० में मराठा माधो जी सिन्धिया के साथ अंग्रेजों की हुई सन्धि में यह और पक्की कर दी गई कि ग्वालियर आदि प्रदेशों के शासन में महाराणा लोकेन्द्रसिंह के बीच सिन्धिया कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।

किन्तु अंग्रेजों ने अपनी सन्धि को न निभाया तथा सिंधिया द्वारा ग्वालियर पर चढ़ाई करने पर अंग्रेजों ने वचनानुसार कोई सहायता नहीं पहुंचाई। उल्टे महाराजा पर मित्रता भंग करने का मिथ्या आरोप लगाया। सिंधिया ने ग्वालियर को वापिस लेने के लिए राणा पर चढ़ाई कर दी। सिंधिया


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जैसे प्रचण्ड वीर का बड़ी बहादुरी से राणा ने मुकाबला किया। किन्तु अन्त में ग्वालियर खाली करना पड़ा। गोहद भी उनके हाथ से निकल गया, अंग्रेजों ने कुछ भी मदद न की। महाराणा तथा उनके साथियों को 22 वर्ष तक परेशानी उठानी पड़ी।

राणा कीरतसिंह जी

13 अक्टूबर 1781 ई० में माधोजी सिंधिया और अंग्रेज सरकार के बीच जो सन्धि हुई थी वह 1804 ई० में टूट गई। दौलतराव के पुत्र माधोजी सिंधिया से अंग्रेजों का युद्ध हुआ। अंग्रेजों ने किला ग्वालियर तो अपने कब्जे में रखा और गोहद राणा लोकेन्द्र जी के पुत्र राणा कीरतसिंह जी को सौंप दिया। किन्तु एक ही वर्ष बाद अंग्रेजों को सिंधिया से सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार ग्वालियर और गोहद वापिस कर देने पड़े। अंग्रेजों ने गोहद के बदले में धौलपुर, बाड़ी और राजाखेड़ा के परगने राणा साहब को दे दिये। गोहद में राणा नरेशों ने लगभग 300 वर्ष तक राज्य किया था। अब वे गोहद की बजाय धौलपुर के राणा कहलाने लगे।

चम्बल नदी धौलपुर और ग्वालियर की सरहद नियुक्त हुई। सन् 1831 ई० में सिंधिया की महारानी बीजाबाई और उनके भाई सिन्धुराव ग्वालियर से निकाले गए; तब वे महाराणा की शरण में आए, आपने उनको आदर-सत्कार से रखा। महाराजा कीरतसिंह का सन् 1836 ई० में स्वर्गवास हो गया।

श्री भगवन्तसिंह जी

राणा भगवन्तसिंह जी अपने पिता की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर बैठे। 1837 ई० में सरकार अंग्रेज की ओर से राज्य का खिलअत प्रदान हुआ। कहा जाता है कि जिन वैश्यों द्वारा सिंधिया, धौलपुर राज्य के विरुद्ध षड्यन्त्र कर रहा था, उनके जैन मन्दिर से पारसनाथ की मूर्ति उठवाकर महादेव की मूर्ति स्थापित की। सिंधिया के प्रार्थना करने पर भी अंग्रेजों ने उसमें हस्तक्षेप नहीं किया। सन् 1857 ई० के विद्रोह में आपने शरणागत अंग्रेजों की रक्षा की। उसी उपलक्ष्य में आपको के० सी० एस० आई० की उपाधि दी।

1861 ई० में राज्य में कुछ षड्यंत्रकारियों ने बगावत खड़ी कर दी। वे महाराजा के प्राणों के भी ग्राहक हो गए। विवश होकर आपको आगरा जाना पड़ा। देवहंस जो कि राज की ओर से मुख्तार था, महाराजा को गद्दी से हटाना चाहता था। अंग्रेज सरकार ने इस मामले की जांच की। देवहंस को कैद करके बनारस भेज दिया गया। 1870 ई० में महाराजा ने कलकत्ता में ड्यूक आफ कनाट से भेंट की, आपको उसी अवसर पर सितारे हिन्द और महाराजा राणा की उपाधि दी गई। आपने राज्यभर में दौरा करके थाने और तहसीलें स्थापित कीं। लुटेरों का दमन किया। हिन्दी, उर्दू, फारसी के स्कूल खोले गए तथा अनेक सुधारों की घोषणा की।

सन् 1873 ई० में महाराजा भगवन्तसिंह का स्वर्गवास हो गया। आपके एकमात्र पुत्र का 28 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। उसका पांच वर्षीय पुत्र था। आपकी मृत्यु के समय भी वह नाबालिग था।


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राजा निहालसिंह

नाबालिग महाराजा निहालसिंह राणा “प्यारे राजा साहब”, राज्य के मालिक हुए। राज्य प्रबन्ध दीवान सर दिनकर राव को सौंपा गया। उनकी शिक्षा का प्रबन्ध उनकी माताजी के सुपुर्द हुआ। वह महाराजा नरेन्द्रसिंह पटियाला नरेश की पुत्री थी। इनको हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी सिखाई गई। 1876 ई० में महाराजा साहब प्रिन्स ऑफ वेल्स के दरबार में शामिल हुए। यह प्रिन्स साहब सप्तम एडवर्ड थे। वे दरबार के बाद धौलपुर आये, उनका खूब स्वागत हुआ।

सन् 1875 ई० में मि० स्मिथ को बन्दोबस्त भूमि के लिए बुलाया गया और 1877 ई० तक यह कार्य पूरा हो गया।

1884 ई० में महाराजा राणा नौनिहालसिंह को राज्य का सर्वाधिकारी बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने आपको ‘सेण्ट्रल इण्डिया हार्स’ में आनरेरी मेजर का पद, फ्रन्टियर मैडल और सी० बी० की उपाधि दी।

ब्रिटिश साम्राज्य और अपनी प्रजा में आप समान रूप से सम्मान प्राप्त किए हुए थे।

आप एक उच्चकोटि के घुड़सवार थे। कहते हैं कि रेलगाड़ी के साथ शर्तबन्दी पर घोड़ा दौड़ाया। धर्म के प्रति आपकी बड़ी श्रद्धा थी। आप शुद्धाचरण और ईश्वरभक्त थे। सन् 1901 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।

राणा रामसिंह जी

आप अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे। आपके समय नवीन कानून राज्य में प्रचलित हुए। राज्य – मनिया, कुलारी, बारी, विसहारी, राजाखेड़ा, धौलपुर आदि छः परगनों में विभक्त किया जा चुका था जिसकी आय आपके समय ग्यारह लाख रुपये थी। ब्रिटिश सरकार ने आपको के० सी० एस० आई० की उपाधि प्रदान की। 1911 ई० में आपका देहान्त हो गया।

उदयभानुसिंह

महाराजाधिराज श्री सवाई सर उदयभानुसिंह जी लोकेन्द्र बहादुर दिलेरजंग जयदेव K.C.S.I; K.C.B.O. -

आपका जन्म 1901 ई० में हुआ। महाराजा निहालसिंह आपके छोटे पुत्र थे। भाई के बाद 1911 ई० में राज्य के अधिकारी आप ही हुए। नाबालिग होने के कारण राज्य प्रबन्ध पोलिटिकल एजेण्ट व कौंसिल के द्वारा होने लगा। आप अपने पूर्वजों की तरह बड़े ईश्वरभक्त थे। आपको 1913 ई० में राज्याधिकार प्राप्त हुआ। आपने केडिट कोर में भी शिक्षा पाई। आपका उपाधि सहित पूरा नाम “रईस उद्दौला सिपाहदार उल्मुल्क महाराजाधिराज श्री सवाई महाराजा राणा लेफ्टिनेन्ट कर्नल सर उदयभानुसिंह लोकेन्द्र बहादुर दिलेरजंग जयदेव के० सी० एस० आई; के० सी० बी० ओ०” है। ये उपाधियां ब्रिटिश सरकार ने प्रदान की थीं।

यह अभिमान की बात है कि भरतपुर की भांति महाराजा राणा धौलपुर भी अंग्रेज सरकार को कोई खिराज नहीं देते थे। महाराजा राणों के लिए 17 तोपों की सलामी थी। मेरठ में जिस


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समय जाट महासभा का वार्षिक अधिवेशन हुआ था तो श्रीमान् जी ने उसका सभापतित्व ग्रहण करके अपने जातीय प्रेम का परिचय दिया था।

लखावटी का प्रसिद्ध जाट कालेज आप ही के नाम पर है। 1930 ई० में देहली में होने वाले जाट महासभा के महोत्सव में पधारकर आपने अपने मन की बात बता दी थी, “मैं अपनी प्यारी जाट जाति की जितनी भी सेवा करूंगा उतना ही मुझे आनन्द प्राप्त होगा। मुझे अभिमान है कि मेरा जन्म उस महान् जाट जाति में हुआ है जो सदैव उन्नत एवं उदार विचारों वाली सिद्ध हुई है।”

भरतपुर की भलाई के मामलात में महाराज श्रीकृष्णसिंह जी के बाद आपने पूर्ण दिलचस्पी पहली ‘गोलमेज कान्फ्रेन्स’ में शामिल होकर देश और गवर्नमेण्ट के लिए उनके हृदय में जो सद्भाव था, उन्होंने भली-भांति प्रकट किया था। आप नरेन्द्र-मंडल के प्रो-चांसलर रहे थे।

आप एक तपस्वी और धर्मात्मा नरेश थे। आप ईश्वर वन्दना एवं सन्त सेवा करने वाले थे। आपके राज्य में अन्याय और पक्षपात नहीं था। प्रजा कर-भार और बेगार से पीड़ित न थी। राजस्थान की अन्य रियासतों की तुलना में धौलपुर की जनता सबसे सुखी एवं स्वस्थ थी। भारतीय नरेश अधिकांश शराबी, कबाबी और विलासी बने हुए थे। महाराजा राणा एकदम इन दुर्व्यसनों से कोसों दूर थे।

वास्तव में धौलपुर के महाराजा राणा “तपेश्वर और राजेश्वर” का सम्मिश्रण थे। यह कहा जा सकता है कि वे कलियुग के “जनक विदेह” थे। आपने ही नई दिल्ली के लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मन्दिर की आधारशिला रखी थी। महाराजा साहब के स्वर्गवास होने पर उनके दामाद महाराजा प्रतापसिंह नाभा नरेश को उत्तराधिकार प्राप्त हुआ था।

18 मार्च 1948 ई० को राजपूताना के पूर्वी राज्यों को जिसमें धौलपुर राज्य भी शामिल था, मिलाकर ‘मत्स्य संघ’ के नाम से नामकरण तथा एकीकरण किया गया। इस संघ की राजधानी अलवर को बनाया गया और धौलपुर के राणा उदयभानुसिंह लोकेन्द्र बहादुर दिलेरजंग को राजप्रमुख नियुक्त किया गया था (देखो भरतपुर जाटराज्य के अन्तिम पृष्ठों पर)।

धौलपुर रियासत पर जाट राणा नरेशों का शासन सन् 1805 से 1948 ई० तक 143 वर्ष रहा।

जाट महाराजा उदयभानुसिंह राणा धौलपुर नरेश द्वारा बिड़ला मन्दिर दिल्ली का शिलान्यास -

बिड़ला मन्दिर के शिलान्यास के अवसर पर भारतवर्ष के सभी राजे-महाराजे तथा अनेक विद्वानों को बुलाया गया था। इस अवसर पर मराठे तथा राजपूत राजे-महाराजे शाही पोशाक में सज-धजकर उपस्थित हुए किन्तु धौलपुर नरेश उदयभानु राणा अपनी सादी पोशाक में उपस्थित हुए। किन्तु कारणवश भरतपुर नरेश महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह इस सम्मेलन में उपस्थित न हो सके। इस अवसर पर उपस्थित उच्च कोटि के विद्वानों ने, इस महान् मन्दिर के शिलान्यास करने के लिए


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एक प्रस्ताव पारित किया कि इस पवित्र मन्दिर की नींव रखने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जिसमें निम्नलिखित गुण हों।

  1. जिसका वंश उच्च कोटि का हो।
  2. जिसका चरित्र आदर्श हो।
  3. जो शराब तथा मांस का सेवन न करता हो।
  4. जिसने एक से अधिक विवाह न किये हों।
  5. जिसके वंश ने मुग़लों को अपनी लड़की न दी हो।
  6. जिसके दरबार में रंडियों के नाच-गाने न होते हों।

यह प्रस्ताव उपस्थित जनसमूह को बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के एक प्रोफेसर ने पढ़कर सुनाया। इस प्रस्ताव को सुनकर सारी सभा में सन्नाटा छा गया तथा मन-ही-मन विचार करने लगे कि इस कसौटी पर कौन खरा उतरेगा। राजपूत राजा-महाराजाओं की गर्दनें नीचे को झुक गईं। बाद में इस प्रस्ताव को पं० मदनमोहन मालवीय को दिया गया तथा उनसे आग्रह किया गया कि आप इस प्रस्ताव पर अपना निर्णय देवें।

पं० मदनमोहन मालवीय ने खड़े होकर अपना निर्णय सुनाते हुए यह कहा कि, “इस प्रस्ताव की कसौटी पर केवल जाट महाराजा उदयभानु राणा धौलपुर ही खरा उतरता है तथा उनके करकमलों से इस महान् तथा पवित्र मन्दिर का शिलान्यास करवाया जायेगा।” यह निर्णय सुनकर सभा में उपस्थित प्रसिद्ध जाट मल्ल योद्धा हरज्ञान गांव शोरम (मुजफ्फरनगर) ने खड़े होकर यह कहा कि “पं० मदनमोहन मालवीय के इस निर्णय ने जाट जाति का मस्तक भारतवर्ष में सबसे ऊंचा कर दिया है।” इस मल्ल योद्धा ने खुशी के जोश में आकर अपनी तीन धड़ी की गदा एक बड़े पत्थर पर जोर से दे मारी, जिससे उस पत्थर के दो टुकड़े हो गये। (आधार लेख - सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)

ऊपर लिखित तथ्यों की पुष्टि बिड़ला मन्दिर में स्थित स्तम्भ पर खुदे हुए निम्न लेख द्वारा भी होती है, जो निम्न प्रकार से है। हम यहां स्तम्भ के एक ओर लिखे शब्दों को ज्यों के त्यों लिखते हैं -

श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर - “श्री महामना माननीय पं० मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से मन्दिर की आधारशिला श्रीमान् महाराणा उदयभानुसिंह धौलपुर नरेश के कर कमलों द्वारा चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस रविवार विक्रमीय संवत् 1989 (अर्थात् सन् 1932 ई०) में स्थापित हुई।”

इसी स्तम्भ के दूसरी ओर संगमरमर के पत्थर पर पं० मदनमोहन मालवीय की मूर्ति है तथा साथ उसके बायीं ओर धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानुसिंह राणा द्वारा इनके कर-कमलों से मन्दिर का शिलान्यास करते हुए की मूर्ति स्थापित है।

धौलपुर राज्य की विशेष जानकारी

इस राज्य की उत्तरी सीमा पर ब्रिटिश राज्य का आगरा जिला था। दक्षिण-पूर्वी ओर चम्बल नदी बहती है। दक्षिण में ग्वालियर राज्य, पश्चिम में करौलीभरतपुर रियासत थी। पूर्व


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-747


उत्तर से दक्षिण-पश्चिम इसकी लम्बाई 54 मील और उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व चौड़ाई 32 मील थी, जिसका क्षेत्रफल 1626 वर्गमील था। धौलपुर, बाड़ी, राजाखेड़ा और श्रीमथुरा इस राज्य के प्रसिद्ध नगर हैं।

धौलपुर - यह नगर चम्बल नदी के किनारे ऊंचे टीले पर बसा हुआ है। यहां का विशाल दुर्ग नदी के निकट ही है। मुगलकाल में यह स्थान मुसलमानों के अधीन था। यह नगर आगरे से 34 मील ग्वालियर जाने वाली सड़क पर है और यह बड़ा रेलवे स्टेशन है। धौलपुर नगर बहुत पुराना है। धौलपुर को धौल्या गोत्र के जाटों ने बसाया था। उन जाटों ने अलवर राज्य में स्थित धौलगढ़ को भी बसाया था जहां पर उनकी एक वीर लड़की की पूजा होती है जो कि धौलगढ़ की देवी कही जाती है। ब्रज के जाटों में धौलगढ़ की देवी प्रसिद्ध है।

बाड़ी - धौलपुर से दक्षिण-पश्चिम में 18 मील पर पहाड़ों के बीच में स्थित है।

राजाखेड़ा - यह परगने का सदर मुकाम है और धौलपुर से उत्तर-पश्चिम में 23 मील पर आबाद है।

श्रीमथुरा - यह एक ऐतिहासिक स्थान है। शायद मथुरा के नाम पर भक्तिप्रधान हृदय के व्यक्तियों द्वारा यह प्रसिद्ध हुआ।

भरतपुर की तरह धौलपुर राज्य भी अंग्रेज सरकार को कोई खिराज (कर) नहीं देता था। राणा नरेशों की 17 तोपों की सलामी थी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-748



अष्टम अध्याय समाप्त



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