Jeenmata

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
Jeenmata temple overview
Location of Jeenmata in Sikar district

Jeenmata (Hindi: जीण माता) is a village of religious importance in tahsil Danta Ramgarh in Sikar district, Rajasthan, India.

Location

It is located at a distance of 15 km from Sikar town in south.

Founders

Jeenmata (d.933 AD). She is said to be in ancestry of Burdak jats.

History

Barhadev Punia (born:1097 AD) was ancestral King of Punias who founded city of Barmer in 1127 AD. Barhadev constructed Shiva temple at Jeenmata in 1178 AD. He founded Punia Kingdom at Jhansal in 1188 AD.

Population of the village

The population of town is 4359 out of which 1215 are SC and 113 ST people.

How to reach

Jeenmata temple

Jeenmata Dham Gate

There is an ancient Temple dedicated to Jeen Mata (Goddess of Power). The sacred shrine of Jeenmata is believed to be a thousand years old. Millions of devotees assemble here for a colourful festival held twice in a year in the month of Chaitra and Ashvin during the Navratri.

Jeenmata temple is situated near the hill 10 km from village Rewasa. It is surrounded by thick forest.Its full and real name was Jayantimata. The year of its construction is not known however the sabhamandapa and pillars are definitely very old.

Mythology of Jeen

The temple of Jeenmata was a place of pilgrimage from early times and was repaired and rebuilt several times. There is a popular belief which has come down to people through the centuries that in a village Ghanghu of Churu, King Ghangh loved and married an Apsara (nymph) on the condition that he would not visit her palace without prior information. King Ghangh got a son called Harsh and a daughter Jeen. Afterwards she again conceived but as chance would have it king Ghangh went to her palace without prior intimation and thus violated solemn vow he had made to the Apsara. Instantly she left the king and fled away with her son Harsha and daughter Jeen whom she abandoned at the place where presently the temple stands. The two children here practiced extreme asceticism. Later a Chauhan ruler built the temple at that place.


The other famous temple of Sikar District, Khatushyamji is at a distance of twenty-six kilometers.

Mohils of Chhapar

Mohils of Chhapar Dronapura - Chauhan Dhandhu's son was Indra whose descendant Mohil started this branch. Ladnu was founded by Dahaliyas. Bagadiyas won this area from Sajjan's son Mohil in v.s. 1130 (1073 AD). Mohil had acquired the title of Rana and made Chhapar as his capital. There were 1400 villages under him. We have found an Inscription of Mohil's son Hardatt (Hathad) of v.s. 1162 (1105 AD) from Jeenmata in Sikar district.

Jeenmata Inscription of Mohils v.s. 1162 (1105 AD)

This inscriptions tells that Hathad (Hardatt) constructed Jeenmata temple during reign of Prithviraj-I. We have got many inscriptions of Mohils of the period v.s. 1186 (1129) - v.s. 1388 (1131 AD). The Rana successors of Hardatt were Bar Singh, Bālhar, Āsal, Āhaḍ, Raṇasī, and Sohaṇ Pal. Raṇasī, and Sohaṇ Pal were contemporary of Prithviraj. One of the samanta of Prithviraj was Varasirai Mohil. (Devi Singh Mandawa,p.132)

जीण माता

जीणमाता का पूरा नाम जयन्तिमाता है. जीणमाता का मंदिर सीकर से 15 किमी दक्षिण में खोस नामक गाँव के पास तीन छोटी पहाड़ियों के मध्य स्थित है. इसमें लगे शिलालेखों में विक्रम संवत 1029 का शिलालेख सबसे पुराना है. यह चौहानों की कुल देवी है. इस मंदिर में जीणमाता की अष्टभुजी प्रतिमा है. कहा जाता है कि जीण तथा हर्ष दोनों भाई-बहिन थे और दोनों में बड़ा प्रेम था. जीण और हर्ष राजस्थान के चुरू जिले के घांघू गाँव के अधिपति घंघ की संतान थे.

एक बार जीण और उसकी भावज तालाब पर पानी भरने गईं. वहां दोनों में शर्त लगी कि हर्ष किसे अधिक प्रेम करता है!यह निश्चय किया गया कि घर पहुँचने पर हर्ष जिसके सर से पहले घड़ा उतारेगा, वह उसीसे अधिक प्रेम करता है. दैव योग से हर्ष ने अपनी पत्नी के सर से पहले घड़ा उतारा. जीण सर पर घड़ा लिए खड़ी रही. शर्त हार जाने पर स्वयं को अपमानित अनुभव करके जीण घर से चली गई और हर्ष के पहाड़ों में बैठ कर तपस्या करने लगी. हर्ष ने सारी बात जानकर बहुत पश्चाताप किया और अपनी बहिन को मनाने के लिए उसके पीछे आया किन्तु जीण ने घर चलने से मना कर दिया. हर्ष भी घर नहीं गया और पास की एक पहाड़ी पर बैठ कर तपस्या करने लगा. जीण आजीवन ब्रह्मचारिणी रही और तपस्या के बल पर देवी बन गई. यहाँ चैत्र व आसोज के महीने में शुक्ल पक्ष की नवमी को मेला भरता है. राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता का गीत सबसे लम्बा है. इस गीत को कनफ़टे जोगी केसरिया कपड़े पहन कर, माथे पर सिन्दूर लगाकर, डमरू एवं सारंगी पर गाते हैं. यह गीत करुण रस से ओतप्रोत है. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष 2008, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. 477)

जीण माता मंदिर

जीण माता मंदिर सीकर से लगभग 15 कि.मी. दूर दक्षिण में सीकर जयपुर राजमार्ग पर गोरियां रेलवे स्टेशन से 15 कि.मी. पश्चिम व दक्षिण के मध्य स्थित है. यह मंदिर तीन पहाडों के संगम में 20-25 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. माता का निज मंदिर दक्षिण मुखी है परन्तु मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व में है. मंदिर से एक फर्लांग दूर ही सड़क के एक छोर पर जीणमाता बस स्टैंड है. सड़क के दोनों और मंदिर से लेकर बस स्टैंड तक श्रद्धालुओं के रुकने व आराम करने के लिए भारी तादात में तिबारे (बरामदे) व धर्मशालाएं बनी हुई है ,जिनमे ठहरने का कोई शुल्क नहीं लिया जाता. कुछ और भी पूर्ण सुविधाओं युक्त धर्मशालाएं है जिनमे उचित शुल्क देकर ठहरा जा सकता है. बस स्टैंड के आगे ओरण (अरण्य) शुरू हो जाता है इसी अरण्य के मध्य से ही आवागमन होता है. जीण माँ भगवती की यह बहुत प्राचीन शक्ति पीठ है, जिसका निर्माणकार्य बड़ा सुंदर और सुद्रढ़ है. मंदिर की दीवारों पर तांत्रिको व वाममार्गियों की मूर्तियाँ लगी है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि उक्त सिद्धांत के मतावलंबियों का इस मंदिर पर कभी अधिकार रहा है या उनकी यह साधना स्थली रही है. मंदिर के देवायतन का द्वार सभा मंडप में पश्चिम की और है और यहाँ जीण माँ भगवती की अष्ट भुजा आदमकद मूर्ति प्रतिष्ठापित है. सभा मंडप पहाड़ के नीचे मंदिर में ही एक और मंदिर है जिसे गुफा कहा जाता है जहाँ जगदेव पंवार का पीतल का सिर और कंकाली माता की मूर्ति है. मंदिर के पश्चिम में महात्मा का तप स्थान है जो धुणा के नाम से प्रसिद्ध है. जीण माता मंदिर के पहाड़ की श्रंखला में ही रेवासा व प्रसिद्ध हर्षनाथ पर्वत है. हर्षनाथ पर्वत पर आजकल हवा से बिजली उत्पन्न करने वाले बड़े-बड़े पंखे लगे है.

जीण माता मंदिर में चैत्र सुदी एकम् से नवमी (नवरात्रा में ) व आसोज सुदी एकम् से नवमी में दो विशाल मेले लगते है जिनमे देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते है.

इतिहास

जीण माता मंदिर का निर्माण काल कई इतिहासकार आठवीं सदी में मानते है. मंदिर में अलग-अलग आठ शिलालेख लगे है जो मंदिर की प्राचीनता के सबल प्रमाण है. [1]

  • 1. संवत 1029 (972 ई.) यह महाराजा खेमराज की मृत्यु का सूचक है.
  • 2. संवत 1132 (1075 ई.) जिसमे मोहिल के पुत्र हन्ड द्वारा मंदिर निर्माण का उल्लेख है.
  • 3. Samvat 1162 (1105 A.D.): An inscription of vikrama year 1162 (1105 A.D.), engraved on a pillar of sabhamandapa of Jeenmata temple in Shekhawati, calls Prithviraja I Paramabhattaraka-Maharajadhiraja-Parmeshvara, showing thereby his independent position as a ruler of great power. [2]
  • विक्रम संवत 1184 (1127 ई.) आषाढ़ सुदी नवमी वार शनिवार को बाढ़देव पूनिया ने बाड़मेर की स्थापना की। बाढ़देव बाड़मेर से विक्रम संवत 1235 (1178=ई.) में पुष्कर आए और आगे जीनमाता के स्थान पर हर्ष के पहाड़ पर शिव मंदिर बनवाया। जीनमाता ने बाढ़देव को वरदान स्वरूप एक पत्थर शीला दी और कहा कि यह जहां गिरे वहीं पर नीम की हरी शाखा काटकर डालना वह संजीवनी हो जाएगी तथा वहीं आपका राज्य सदा-सदा के लिए कायम रहेगा। पूनिया गोत्र आज भी उस शीला का आदर करता है। उस पर स्नान नहीं करते। विक्रम संवत 1245 (1188=ई.) मिति चैत्र सुदी 2 वार शनिवार को पूनिया गोत्र के आदि पुरुष बाढ़देव ने झांसल में अपने प्रसिद्ध गणराजय की नींव रखी। [3]
  • 4. संवत 1196 (1139 ई.) महाराजा आर्णोराज के समय के दो शिलालेख.
  • 5. संवत 1230 (1173 ई.) इसमें उदयराज के पुत्र अल्हण द्वारा सभा मंडप बनाने का उल्लेख है.
  • 6- संवत 1382 (1325 ई.) जिसमे ठाकुर देयती के पुत्र श्री विच्छा द्वारा मंदिर के जीर्णोद्दार का उल्लेख है.
  • 7- संवत 1520 (1463 ई.) में ठाकुर ईसरदास का उल्लेख है.
  • 8- संवत 1535 (1478 ई.) को मंदिर के जीर्णोद्दार का उल्लेख है.

उपरोक्त शिलालेखों में सबसे पुराना शिलालेख संवत 1029 (972 AD) का है पर उसमे मंदिर के निर्माण का समय नहीं लिखा गया अतः यह मंदिर उससे भी अधिक प्राचीन है. चौहान चन्द्रिका नामक पुस्तक में इस मंदिर का 9 वीं शताब्दी से पूर्व के आधार मिलते है.

बुरडक गोत्र के अभिलेखों में जीण माता

चौहान वंश से निकले बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं जो निम्नानुसार हैं:

चौहान राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए. बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया. संवत 1078 (1021 AD) में किला बनाया. इनके अधीन 384 गाँव थे. बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई. इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए:

  • 1. सांवत सिंह - सांवत सिंह के पुत्र मेल सिंह, उनके पुत्र राजा घंघ, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए. इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी. जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 AD) में प्रकट हुयी.
  • 2. सबल सिंह - सबलसिंह के बेटे आलणसिंह और बालणसिंह हुए. सबलसिंह ने जैतारण का किला संवत 938 (881 AD) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया. इनके अधीन 240 गाँव थे.
  • 3. अचल सिंह -

सबलसिंह के बेटे आलणसिंह के पुत्र राव बुरडकदेव, बाग़देव, तथा बिरमदेव पैदा हुए. आलणसिंह ने संवत 979 (922 AD) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया.

ददरेवा के राव बुरडकदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए.

राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए. वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 AD) को वे जुझार हुए. इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 AD) में सती हुई. राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र निकला.

राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए. समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए. संवत 1067 (1010 AD) में इनकी पत्नी पुन्यानी साम्भर में सती हुई.

बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के उपरोक्त अभिलेखों की पुष्टि ऐतिहासिक तथ्यों से होती है.

मंदिर के पश्चिम में जीण वास नामक गांव है जहाँ इस मंदिर के पुजारी व बुनकर रहते है. यह गाँव बुरड़कों द्वारा बसाया गया था.

जीण माता मंदिर से कुछ ही दूर रलावता ग्राम के नजदीक खूड के गांव मोहनपुरा की सीमा में शेखावत वंश प्रवर्तक रावशेखा का स्मारक स्वरुप छतरी बनी हुई है. राव शेखा ने गौड़ क्षत्रियों के साथ युद्ध करते हुए यहीं शरीर त्याग कर वीरगति प्राप्त की थी. [4]

घांघू के इतिहास में जीण

संदर्भ - ददरेवा के इतिहास का यह भाग सार्वजनिक पुस्तकालय तारानगर की स्मारिका 'अर्चना' में प्रकाशित मातुसिंह राठोड़ के लेख 'चमत्कारिक पर्यटन स्थल ददरेवा' (पृ. 21-25) से लिया गया है।

10 वीं शताब्दी के लगभग अंत में मरुप्रदेश के चौहानों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने प्रारम्भ कर दिये थे। इसी स्थापनाकाल मे घंघरान चौहान ने वर्तमान चुरू शहर से 10 किमी पूर्व मे घांघू गाँव बसा कर अपनी राजधानी स्थापित की। [5] ('अर्चना',पृ.21)

राणा घंघ की पहली रानी से दो पुत्र हर्षहरकरण तथा एक पुत्री जीण का जन्म हुआ। हर्ष व जीण लोक देवता के रूप में सुविख्यात हैं। ('अर्चना',पृ.21) ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते हालांकि हर्ष ही राज्य का उत्तराधिकारी था लेकिन नई रानी के रूप में आसक्त राजा ने उससे उत्पन्न पुत्र कन्हराज को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। संभवत: इन्हीं उपेक्षाओं ने हर्ष और जीण के मन में वैराग्य को जन्म दिया। दोनों ने घर से निकलकर सीकर के निकट तपस्या की और आज दोनों लोकदेव रूप में जन-जन में पूज्य हैं।

राणा घंघरान की दूसरी रानी से कन्हराज, चंदराजइंदराज हुये। कन्हराज के चार पुत्र अमराज, अजराज, सिधराज व बछराज हुये। कन्हराज का पुत्र अमराज (अमरा) उसका उत्तराधिकारी बना। अमराजका पुत्र जेवर (झेवर) उसका उत्तराधिकारी बाना। लेकिन महत्वाकांक्षी जेवर ने दादरेवा को अपनी राजधानी बनाई और घांघू अपने भाइयों के लिए छोड़ दिया। जेवर ने उत्तरी क्षेत्र मे अपने राज्य का विस्तार अधिक किया। असामयिक मृत्यु के कारण यह विजय अभियान रुक गया। जेवर के पश्चात उनका पुत्र गोगा (गोगदेव) चौहान युवावस्था से पूर्व ही माँ बाछलदे के संरक्षण में ददरेवा का राणा बना। [6]('अर्चना',पृ.21)

वर्तमान जोगी-आसन के स्थान पर नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत तपस्वी योगी ने गोरखनाथ के आशीर्वाद से बाछल को यशस्वी पुत्र पैदा होने की भविष्यवाणी की थी। कहते हैं कि बाछलदे की बड़ी बहन आछलदे को पहले इन्हीं संत के अशिर्वाद से अर्जन-सर्जन नामक दो वीर पैदा हुये थे। ('अर्चना',पृ.22)

जीण का परिचय

लोक काव्यों व गीतों व कथाओं में जीण का परिचय मिलता है जो इस प्रकार है. राजस्थान के चुरू जिले के घांघू गांव में एक चौहान वंश के राजा घंघ के घर जीण का जन्म हुआ. उसके एक बड़े भाई का नाम हर्ष था. दोनों के बीच बहुत अधिक स्नेह था. एक दिन जीण और उसकी भाभी सरोवर पर पानी लेने गई जहाँ दोनों के मध्य किसी बात को लेकर तकरार हो गई. उनके साथ गांव की अन्य सखी सहेलियां भी थी. अन्ततः दोनों के मध्य यह शर्त रही कि दोनों पानी के मटके घर ले चलते है जिसका मटका हर्ष पहले उतारेगा उसके प्रति ही हर्ष का अधिक स्नेह समझा जायेगा. हर्ष इस विवाद से अनभिज्ञ था. पानी लेकर जब घर आई तो हर्ष ने पहले मटका अपनी पत्नी का उतार दिया. इससे जीण को आत्मग्लानि व हार्दिक ठेस लगी. भाई के प्रेम में अभाव जान कर जीण के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह घर से निकल पड़ी. जब भाई हर्ष को कर्तव्य बोध हुआ तो वो जीण को मनाकर वापस लाने उसके पीछे निकल पड़ा. जीण ने घर से निकलने के बाद पीछे मुड़कर ही नहीं देखा और अरावली पर्वतमाला के इस पहाड़ के एक शिखर जिसे "काजल शिखर" के नाम से जाना जाता है पहुँच गई. हर्ष भी जीण के पास पहुँच अपनी भूल स्वीकार कर क्षमा चाही और वापस साथ चलने का आग्रह किया जिसे जीण ने स्वीकार नहीं किया. जीण के दृढ निश्चय से प्रेरित हो हर्ष भी घर नहीं लौटा और दूसरे पहाड़ की चोटी पर 'भैरव की साधना में तल्लीन हो गया. पहाड़ की यह चोटी बाद में हर्ष नाथ पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध हुई. वहीँ जीण ने नव-दुर्गाओं की कठोर तपस्या करके सिद्धि के बल पर दुर्गा बन गई. हर्ष भी 'भैरव की साधना कर हर्षनाथ भैरव बन गया. इस प्रकार जीण और हर्ष अपनी कठोर साधना व तप के बल पर देवत्व प्राप्त कर लोगों की आस्था का केंद्र बन पूजनीय बन गए. इनकी ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल गई और आज लाखों श्रद्धालु इनकी पूजा अर्चना करने देश के कोने कोने से पहुँचते हैं.

जीण माता का चमत्कार

एक जनश्रुति के अनुसार देवी जीण माता ने सबसे बड़ा चमत्कार मुग़ल बादशाह औरंगजेब को दिखाया था. बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में यह विवरण उपलब्ध है कि औरंगजेब ने शेखावाटी के मंदिरों को तोड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी थी. यह सेना हर्ष पर्वत पर शिवहर्षनाथ भैरव का मंदिर खंडित कर जीण मंदिर को खंडित करने आगे बढ़ी. उस समय हर्ष के मंदिर की पूजा गूजर लोग तथा जीनमाता के मंदिर की पूजा तिगाला जाट करते थे. कहते हैं कि हमले के तुरन्त बाद जीणमाता की मक्खियों (भंवरों) ने बादशाह की सेना पर हमला बोल दिया. मक्खियों ने बादशाह की सेना का पीछा दिल्ली तक किया और सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया. बदशाह ने जब हर्ष और जीनमाता का स्मरण किया और माफ़ी मांगी तभी पीछा छोड़ा. इसके उपलक्ष में बादशाह द्वारा हर्ष मंदिर के लिये सवामण तेल और सवामण बाकला हर साल भेजने का वादा किया. जीनमाता के भाट हरफ़ूल तिगाला जाट को गाँव गोठडा तागालान की 18000 बीघा जमीन की जागीर बक्शी. इसलिए इस गाँव का नाम गोठडा तागालान कहलाता है. यह जागीर उनके पास 105 साल रही तत्पश्चात संवत 1837 में यह कासली के नवाब के साथ फतेहपुर के अधीन हुआ. बादमें यह जागीर शेखावतों के पास आई. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बुरडक गोत्र के आदि पुरुष नानकजी ने संवत 1351 (1294 AD) में बैसाख सुदी आखा तीज रविवार के दिन गोठडा गाँव बसाया था. यह गाँव गोठड़ा तगालान जीणमाता मंदिर से पश्चिम में कुछ किमी दूरी पर स्थित है।

जीण माता के लिए तेल कई वर्षो तक दिल्ली से आता रहा फिर दिल्ली के बजाय जयपुर से आने लगा. बाद में जयपुर महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्रों के समय भिजवाना आरम्भ कर दिया. और महाराजा मानसिंह के समय उनके गृह मंत्री राजा हरीसिंह अचरोल ने बाद में तेल के स्थान पर नगद 20 रु. 3 आने प्रतिमाह कर दिए. जो निरंतर प्राप्त होते रहे. औरंगजेब को चमत्कार दिखाने के बाद जीण माता " भौरों की देवी " भी कही जाने लगी. एक अन्य जनश्रुति के अनुसार औरंगजेब को कुष्ठ रोग हो गया था अतः उसने कुष्ठ निवारण हो जाने पर माँ जीण के मंदिर में एक स्वर्ण छत्र चढाना बोला था. जो आज भी मंदिर में विद्यमान है.[7]

शेखावाटी के मंदिरों को खंडित करने के लिए मुग़ल सेनाएं कई बार आई जिसने खाटू श्याम , हर्षनाथ, खंडेला के मंदिर आदि खंडित किए. एक कवि ने इस पर यह दोहा रचा -

देवी सजगी डूंगरा , भैरव भाखर माय ।
खाटू हालो श्यामजी , पड्यो दडा-दड खाय ।।

यही 'जीणमाता' का मेला लगता है तब राजस्थान के बाह्य अंचल से भी अनेक लोग आते हैं. मन्दिर के बाहर, मेले के अवसर पर सपेरे मस्त होकर बीन बजाते हैं. राजस्थान के सुदुर अंचल से आये बालकों का झडूला (केश मुण्डाना) उत्तरवाते हैं रात्रि जागरण करते हैं और अपनी सामर्थ्यानुसार सवामणी,छत्रचंवर, झारी, नौबत, कलश, आदि भेंट करते हैं. मन्दिर में बारह मास अखण्डदीप जलता रहता है. मेले के अवसर पर ग्राम बधुएँ गाती हैं:-

माता रे थान में, चिरविट नाड़ो बीड़लो.

सुपरा के बीड़ल म्हारी, जीण माता बस रही.

माताँ रे थान में चावल रो बीहलो,

सेर घुडक, नार री असवारी.

म्हारी जीण माता बस रही.

जे कोई जीणमाताजी नै ध्यावै, सदा सुखपावै.

मनसा होवै पूरी, म्हारी जीणमाता री आसीस सूं.

एक अन्य लोकगीत में जीणमाता का अत्यन्त मर्म स्पर्शी प्रसंग मिलता है, जो भाई बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक बना हुआ है. यह गीत राजस्थानी लोक साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है. साहित्यिक दृष्टि से भी इस गीत को अत्यन्त उच्च कोटि का माना गया है. अनेक विद्वान् इसे राजस्थान का सर्वश्रेष्ठ गीत मानते हैं. इस गीत में जीण-~माता के आत्म सम्मान व बहिन के प्रति भ्रातृप्रेम का जीवित आदर्श देखा जा सकता है.

External links

References

  1. ज्ञान दर्पण ब्लाग
  2. "Early Chauhan Dynasties" by Dasharatha Sharma, p.43
  3. Kanhaiyalal Punia:Hanumangarh Jila Jat Samaj Smarika-2010,p.16-17
  4. ज्ञान दर्पण ब्लाग
  5. गोविंद अग्रवाल: चूरू मण्डल का शोधपूर्ण इतिहास, पृ. 51
  6. गोरी शंकर हीराचंद ओझा: बीकानेर राज्य का इरिहास भाग प्रथम, पृ. 64
  7. ज्ञान दर्पण ब्लाग

Back to Jat Villages