Sanskritvakyaprabodha

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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल
Maharishi Dayanand
अथ संस्कृतवाक्यप्रबोधः


श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीनिर्मितः


प्रकाशक - आर्य साहित्य संस्थान, ११९, गौतमनगर, नई दिल्ली-४९


  • पृथमावृत्ति - २०००
  • सृष्ट्याब्दा - १९६०८५३१०२
  • शिवरात्रि २०५८ वि०
  • (12 मार्च 2002 ई०)
  • मूल्यम् - दश रूप्यकाणि


विशेष - यह संस्करण हस्तलिखित लेख से मिलाकर छापा गया है ।


  • मुद्रक - वेदव्रत शास्त्री, आचार्य प्रिंटिंग प्रैस, दयानन्दमठ, गोहाना मार्ग, रोहतक-१२४००१. दूरभाष - ०१२६२-७६८७४, ७७८७४.


Contents

भूमिका

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मैंने इस संस्कृतवाक्यप्रबोध पुस्तक को बनाना आवश्यक इसलिये समझा है कि शिक्षा को पढ़ के कुछ-कुछ संस्कृत भाषण का आना विद्यार्थियों को उत्साह का कारण है । जब वे व्याकरण के सन्धिविषयादि पुस्तकों को पढ़ लेंगे तो उनको स्वतः ही संस्कृत बोलने का बोध हो जायेगा, परन्तु यह जो संस्कृत बोलने का अभ्यास प्रथम किया जाता है, वह भी आगे-आगे संस्कृत पढ़ने में बहुत सहाय करेगा । जो कोई व्याकरणादि ग्रन्थ पढ़े विना भी संस्कृत बोलने में उत्साह करते हैं वे भी इसको पढ़कर व्यवहारसम्बन्धी संस्कृत भाषा को बोल और दूसरे का सुनके भी कुछ-कुछ समझ सकेंगे । जब बाल्यावस्था से संस्कृत के बोलने का अभ्यास होगा तो उसको आगे-आगे संस्कृत बोलने का अभ्यास अधिक-अधिक होता जायेगा । और जब बालक भी आपस में संस्कृत भाषण करेंगे तो उनको देखकर जवान वृद्ध मनुष्य भी संस्कृत बोलने में रुचि अवश्य करेंगे । जहां कहीं संस्कृत के नहीं जानने वाले मनुष्यों के सामने दूसरे को अपना गुप्त अभिप्राय समझाना चाहें तो संस्कृत भाषण काम आता है ।


जब इसके पढ़ाने वाले विद्यार्थियों को ग्रन्थस्थ वाक्यों को पढ़ावें उस समय दूसरे वैसे ही नवीन वाक्य बनाकर सुनाते जावें, जिससे पढ़नेवालों की बुद्धि बाहर के वाक्यों में भी फैल जाय ।


और पढ़नेवाले भी एक वाक्य को पढ़ के उसके सदृश अन्य वाक्यों की रचना भी करें कि जिससे बहुत शीघ्र बोध हो जाय, परन्तु वाक्य बोलने में स्पष्ट अक्षर, शुद्धोच्चारण, सार्थकता, देश और काल वस्तु के अनुकूल जो पद जहाँ बोलना उचित हो, वहीं बोलना और दूसरे के वाक्यों पर ध्यान देकर सुनके समझना । प्रसन्नमुख, धैर्य, निरभिमान और गम्भीरतादि गुणों को धारण करके क्रोध, चपलता, अभिमान और तुच्छादि दोषों से दूर रहकर अपने वा किसी के सत्य वाक्य का खण्डन और अपने अथवा किसी के असत्य का मण्डन कभी न करें और सर्वदा सत्य का ग्रहण करते रहें ।


इस ग्रन्थ में संस्कृतवाक्य प्रथम और उसके सामने भाषार्थ इसलिये लिखा है कि पढ़नेवालों को सुगमता हो और संस्कृत की भाषा और भाषा का संस्कृत भी यथायोग्य बना सकें ।

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- दयानन्द सरस्वती

काशी, फा०शु० ११

(१९३६ वि०)


गुरुशिष्यवार्तालापप्रकरणम्

संस्कृत हिन्दी
भो शिष्य उत्तिष्ठ प्रातःकालो जातः । हे शिष्य ! उठ, सवेरा हुआ ।
उत्तिष्ठामि । उठता हूँ ।
अन्ये सर्वे विद्यार्थिन उत्थिता न वा ? और सब विद्यार्थी उठे वा नहीं ?
अधुना तु नोत्थिताः खलु अभी तो नहीं उठे हैं ।
तानपि सर्वानुत्थापय उन सब को भी उठा दे ।
सर्व उत्थापिताः सब उठा दिये ।
सम्प्रत्यस्माभिः किं कर्त्तव्यम् ? इस समय हमको क्या करना चाहिये ?
आवश्यकं शौचादिकं कृत्वा सन्ध्यावन्दनम् । आवश्यक शरीरशुद्धि करके सन्ध्योपासना ।
आवश्यकं कृत्वा सन्ध्योपासिता‍ऽतः परमस्माभिः किं करणीयम् ? । आवश्यक कर्म करके सन्ध्योपासन कर लिया । इसके आगे हमको क्या करना चाहिये ?
अग्निहोत्रं विधाय पठत । अग्निहोत्र करके पढ़ो ।
पूर्वं किं पठनीयम ? पहिले क्या पढ़ना चाहिये ?
वर्णोच्चारणशिक्षामधीध्वम् । वर्णोच्चारणशिक्षा को पढ़ो ।
पश्चात्किमध्येतव्यम् ? पीछे क्या पढ़ना चाहिये ?
किंचित्संस्कृतोक्तिबोधः क्रियताम् । कुछ संस्कृत बोलने का ज्ञान किया जाय ।
पुनः किमभ्यसनीयम् ? फिर किसका अभ्यास करना चाहिये ?
यथायोग्यव्यवहारानुष्ठानाय प्रयुतध्वम् । यथोचित व्यवहार करने के लिये प्रयत्न करो ।
कुतोऽनुचितव्यवहार कर्तुर्विद्यैव न जायते । क्योंकि उल्टे व्यवहार करनेहारे को विद्या ही नहीं होती ।
को विद्वान् भवितुर्महति ? कौन मनुष्य विद्वान् होने के योग्य होता है ?
यः सदाचारी प्राज्ञः पुरुषार्थी भवेत् । जो सत्याचरणशील, बुद्धिमान्, पुरुषार्थी हो ।
कीदृशादाचार्याधीत्य पण्डितो भवितुं शक्नोति ? कैसे आचार्य से पढ़ के पण्डित हो सकता है ?
अनूचानतः । पूर्ण विद्वान वक्ता से ।
अथ किमध्यापयिष्यते भवता ? अब आप इसके अनन्तर हमको क्या पढ़ाइयेगा ?
अष्टाध्यायी महाभाष्यम् । अष्टाध्यायी और महाभाष्य ।
किमनेन पठितेन भविष्यति ? इसके पढ़ने से क्या होगा ?
शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानम् । शब्द अर्थ और सम्बन्धों का यथार्थबोध ।
पुनः क्रमेण किं किमध्येतव्यम् ? फिर क्रम से क्या-क्या पढ़ना चाहिये ?
शिक्षाकल्पनिघण्टुनिरुक्तछन्दोज्योतिषाणि वेदानामङ्गानि मीमांसावैशेषिक न्याययोगसांख्य वेदान्तानि उपाङ्गानि आयुर्धनुर्गान्धर्वार्थान् उपवेदान् ऐतरेय शतपथसामगोपथ ब्राह्मणान्यधीत्य ऋग्यजुस्सामा‍ऽथर्ववेदान् पठत । शिक्षा, कल्प, निघण्टु, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष वेदों के अंग । मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त उपाङ्ग । आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थवेद उपवेद । ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों को पढ़के ऋग्वेद, यनुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को पढ़ो ।
एतत्सर्वं विदित्वा किं कार्य्यम् ? इन सबको जान के फिर क्या करना चाहिये ?
धर्मजिज्ञासा‍ऽनुष्ठाने एतेषामेवा‍ऽध्यापनं च । धर्म के जानने की इच्छा तथा उसका अनुष्ठान और इन्हीं को सर्वदा पढ़ाना ।

नामनिवासस्थानप्रकरणम्

तव किन्नामास्ति ? तेरा क्या नाम है ?
देवदत्तः देवदत्त ।
को‍ऽभिजनो युवयोर्वर्त्तते ? तुम दोनों का अभिजनदेश कौन है ?
कुरुक्षेत्रम् । कुरुक्षेत्र ।
युष्माकं जन्मदेशः को विद्यते ? तुम्हारा जन्मदेश कौन है ?
पञ्चालाः । पञ्जाब ।
भवन्तः कुत्रत्याः ? आप कहाँ के हो ?
वयं दक्षिणात्याः स्मः हम दक्षिणी हैं ।
तत्र का पू-र्वः ? वहां आपके निवास की कौन नगरी है ?
मुम्बापुरी । मुम्बई ।
इमे क्व निवसन्ति ? ये लोग कहां रहते हैं ?
नेपाले नेपाल में ।
अयं किमधीते ? यह क्या पढ़ता है ?
व्याकरणम् । व्याकरण को ।
त्वया किमधीतम् ? तूने क्या पढ़ा है ?
न्यायशास्त्रम् । न्यायशास्त्र
भवता किं पठितमस्ति ? आपने क्या पढ़ा है ?
पूर्वमीमांसाशास्त्रम् । पूर्वमीमांसाशास्त्र ।
अयं भवदीयश्छात्रः किं प्रचर्चयति ? यह आपका विद्यार्थी क्या पढ़ता है ?
ऋग्वेदम् ऋग्वेद को ।
त्वं कुत्र गच्छसि ? तू कहां जाता है ?
पाठाय व्रजामि पढ़ने के लिये जाता हूं ।
कस्मादधीषे ? किससे पढ़ता है ?
यज्ञदत्तादध्यापकात् । यज्ञदत्त अध्यापक से ।
इमे कुतो‍ऽभ्यस्यन्ति ? ये किससे पढ़ते हैं ?
विष्णुमित्रात् । विष्णुमित्र से ।
तवाध्ययने कियन्तः संवत्सरा व्यतीताः ? तुझ को पढ़ते हुए कितने वर्ष बीते ?
पञ्च । पांच ।
भवान् कति वार्षिकः ? आप कितने वर्ष के हुए ?
त्रयोदशवार्षिकः । तेरह वर्ष का ।
त्वया पठनारम्भः कदा कृतः ? तूने पढ़ने का आरम्भ कब किया था ?
यदाहमष्टवार्षिकोऽभूवम् । जब मैं आठ वर्ष का हुआ था ।
तव मातापितरौ जीवतो न वा ? तेरे माता-पिता जीते हैं वा नहीं ?
विद्येते । जीते हैं ।
तव कति भ्रातरो भगिन्यश्च ? तेरे कितने भाई और बहिन हैं ?
त्रयो भ्रातरश्चैका भगिन्यस्ति । तीन भाई और एक बहिन है ।
तेषु त्वं ज्यष्ठस्ते, सा वा ? उनमें तू ज्येष्ठ वा तेरे भाई अथवा बहिन ?
अहमेवाग्रजो‌ऽस्मि । मैं ही सबसे पहिले जन्मा हूं ।
तव पितरौ विद्वांसौ न वा ? तेरे माता-पिता पढ़े हैं वा नहीं ?
महाविद्वांसौ स्तः । बड़े विद्वान् हैं ।
तर्हि त्वया पित्रोः सकाशात्कुतो न विद्या गृहीता ? तो तूने माता-पिता से विद्या ग्रहण क्यों न की ?
अष्टमवर्षपर्य्यन्तं कृता । आठ वर्ष पर्यन्त की थी ।
अत ऊर्ध्वं कुतो न कृता ? इससे आगे क्यों न की ?
मातृमान् पितृमानाचार्य्यवान् पुरुषो वेदेति शास्त्रविधेः । माता-पिता से आठवें वर्ष पर्यन्त, इसके आगे आचार्य से पढ़ने का शास्त्र में विधान है इस से ।
अन्यच्च गृहकार्यबाहुल्येन निरन्तरमध्ययनमेव न जायते‍ऽतः । और भी घर में बहुत काम करने से निरन्तर पढ़ना नहीं हो सकता इसलिए भी ।
अतः परं कियद्वर्षपर्यन्तमध्येष्यसे ? इसके आगे कितने वर्षपर्यन्त पढ़ेगा ?
पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि । पैंतीस वर्ष तक ।

गृहाश्रमप्रकरणम्
पुनस्ते का चिकीर्षास्ति ? फिर तुझको क्या करने की इच्छा है ?
गृहाश्रमस्य । गृहाश्रम की ।
किं च भोः पूर्णविद्यस्य जितेन्द्रियस्य परोपकारकरणाय संन्यासाश्रमग्रहणं शास्त्रोक्तमस्ति तन्न करिष्यसि ? क्यों जी ! जिसको पूर्ण विद्या और जो जितेन्द्रिय है उसको परोपकार करने के लिये संन्यासाश्रम का ग्रहण करना शास्त्रोक्त है, इसको न करोगे ?
किं गृहाश्रमे परोपकारो न भवति ? क्या गृहाश्रम से परोपकार नहीं हो सकता ?
यादृशः संन्यासाश्रमिणा कर्तुं शक्यते न तादृशो गृहाश्रमिणा‍ऽनेककार्यैं प्रतिबन्धकत्वेनाऽस्य सर्वत्र भ्रमणाशक्यत्वात् । जैसा संन्यासाश्रमी से मनुष्य का उपकार हो सकता है वैसा गृहाश्रमी से नहीं हो सकता, क्योंकि अनेक कामों की रुकावट से इसका सर्वत्र भ्रमण ही नहीं हो सकता ।

भोजनप्रकरणम्

नित्यः स्वाध्यायो जातो भोजनसमय आगतो गन्तव्यम् । नित्य का पढ़ना हो गया, भोजन समय आया, चलना चाहिये ।
तव पाकशालायां प्रत्यहं भोजनाय किं किं पच्यते ? तुम्हारी पाकशाला में प्रतिदिन भोजन के लिये क्या-क्या पकाया जाता है ?
शाकसूपौदश्वित्कौदनरोटिकादयः । शाक, दाल, कढ़ी, भात, रोटी आदि ।
किं वः पायसादिमधुरेषु रुचिर्नास्ति ? क्या आप लोगों की खीर आदि मीठे भोजन में रुचि नहीं है ?
अस्ति खलु परन्त्वेतानि कदाचित् कदाचित् भवन्ति । है सही परन्तु ये भोजन कभी-कभी होते हैं ।
कदाचिच्छष्कुली-श्रीखण्डादयोऽपि भवन्ति न वा ? कभी पूरी कचौड़ी शिखरन आदि भी होते हैं वा नहीं ?
भवन्ति परन्तु यथर्त्तुयोगम् । होते हैं परन्तु जैसा ऋतु का योग होता है वैसा ही भोजन बनाते हैं ।
सत्यमस्माकमपि भोजनादिकमेवमेव निष्पद्यते । ठीक है हमारे भी भोजन आदि ऐसे ही बनते हैं ।
त्वं भोजनं करिष्यसि न वा ? तू भोजन करेगा वा नहीं ?
अद्य न करोम्यजीर्णतास्ति । आज नहीं करता अजीर्णता है ।
अधिकभोजनस्येदमेव फलम् । अधिक भोजन का यही फल है ।
बुद्धिमत्ता तु यावज्जीर्यते तावदेव भुज्यते । बुद्धिमान पुरुष तो जितना पचता है उतना ही खाता है ।
अतिस्वल्पे भुक्ते शरीरबलम् ह्रस्त्यधिके चातः सर्वदा मिताहारी भवेत् । बहुत कम और अत्यधिक भोजन करने से शरीर का बल घटता है, इससे सब दिन मिताहारी होवे ।
योऽन्यथाऽऽहारव्यवहारौ करोति स कथं न दुःखी जायेत ? जो उलट-पलट आहार और व्यवहार करता है वह क्यों न दुःखी होवे ?
येन शरीराच्छ्रमो न क्रियते स शरीरसुखं नाप्नोति । जो शरीर से परिश्रम नहीं करता वह शरीर के सुख को प्राप्त नहीं होता ।
येनात्मना पुरुषार्थो न विधीयते तस्यात्मनो बलमपि न जायते । जो आत्मा से पुरुषार्थ नहीं करता उसको आत्मा का बल भी नहीं बढ़ता ।
तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैर्यथाशक्ति सत्क्रिया नित्यं साधनीयाः । इससे सब मनुष्यों को उचित है यथाशक्ति उत्तम कर्मों की साधना नित्य करनी चाहिये ।
भो देवदत्त ! त्वामहं निमन्त्रये । हे देवदत्त ! मैं तुमको भोजन के लिए निमन्त्रित करता हूं ।
मन्येऽहं कदा खल्वागच्छेयम् ? मैं मानता हूँ परन्तु किस समय आऊँ ?
श्वो द्वितीयप्रहरमध्ये आगन्तासि । कल डेढ पहर दिन चढ़े आना ।
आगच्छ भो, आसनमध्यास्व, भवता ममोपरि महती कृपा कृता । आप आइये, आसन पर बैठिये, आपने मुझ पर बड़ी कृपा की ।

देशदेशान्तरप्रकरणम्

भवानेतान् जानातीमे महाविद्वांसः सन्ति । आप इनको जानते हैं ये बड़े विद्वान् हैं ।
किन्नामान एते कुत्रत्याः खलु ? इनके क्या-क्या नाम हैं और ये कहां-कहां के रहने वाले हैं ?
अयं यज्ञदत्तः काशीनिवासी । यह यज्ञदत्त काशी में निवास करता है ।
विष्णुमित्रोऽयं कुरुक्षेत्रवास्तव्यः । यह विष्णुमित्र कुरुक्षेत्र में वसता है ।
सोमदत्तोऽयं माथुरः । यह सोमदत्त मथुरा में रहता है ।
अयं सुशर्मा पर्वतीयः । यह सुशर्मा पर्वत में रहता है ।
अयमाश्वलायनो दाक्षिणात्योऽस्ति । यह आश्वलायन दक्षिणी है ।
अयं जयदेवः पाश्चात्यो वर्तते । यह जयदेव पश्चिम देशवासी है ।
अयं कुमारभट्टो बाङ्गो विद्यते । यह कुमारभट्ट बंगाली है ।
अयं कापिलेयः पाताले निवसति । यह कापिलेय पाताल अर्थात् अमेरिका में रहता है ।
अयं चित्रभानुर्हरिवर्षस्थः । यह चित्रभानु हिमालय से उत्तर हरिवर्ष अर्थात् यूरोप में रहता है ।
इमौ सुकामसुभद्रौ चीननिकायौ । ये सुकाम और सुभद्र चीन के वासी हैं ।
अयं सुमित्रो गन्धारस्थायी । यह सुमित्र गन्धार अर्थात् काबुल कन्धार का रहने वाला है ।
अयं सुभटो लङ्काजः । यह सुभट लंका में जन्मा है ।
इमे पंच सुवीरातिबलसुकर्मसुधर्मशतधन्वानो मत्स्याः । सुवीर, अतिबल, सुकर्मा, सुधर्मा और शतधन्वा ये पांच मारवाड़ के रहने वाले हैं ।
एते मया आमन्त्रिताः स्वस्वस्थानादागताः । ये सब मेरे बुलाने पर अपने-अपने घर से आये हैं ।
इमे शिवकृष्णगोपालमाधवसुचन्द्रप्रक्रमभूदेव चित्रसेनमहारथा नवात्रत्याः । शिव, कृष्ण, गोपाल, माधव, सुचन्द्र, प्रक्रम, भूदेव, चित्रसेन और महारथ ये नव इस (मध्य) प्रदेश के रहने वाले हैं ।
अहोभाग्यं मेऽस्ति त्वत्कृपयैतेषामपि समागमो जातः । मेरा बड़ा भाग्य है कि आपकी कृपा से इन सत्पुरुषों का भी मिलाप हुआ ।
अहमपि सभवतः सर्वानेतान्निमन्त्रयितुमिच्छामि । मैं भी आपके समेत इन सबका निमन्त्रण करना चाहता हूं ।
अस्माभिर्भवन्निमन्त्रणमूरीकृतम् । हमने आपका निमन्त्रण स्वीकार किया ।
प्रीतोऽस्मि परन्तु भवद्‍भोजनार्थं किं किं पक्तव्यम् ? आपके निमन्त्रण मानने से मैं बड़ा प्रसन्न हुआ परन्तु आपके भोजन के लिये क्या-क्या पकाया जाय ?
यद्यद्‍भोक्तुमिच्छास्ति तत्तदाज्ञापयन्तु । जिस-जिस पदार्थ के भोजन की इच्छा हो उस-उस की आज्ञा कीजिये ।
भवान् देशकालज्ञः कथनेन किं यथायोग्यमेव पक्तव्यम्‌ । आप देशकाल को जानते हैं कहने से क्या यथायोग्य ही पकाना चाहिये ।
सत्यमेवमेव करिष्यामि । ठीक है, ऐसा ही करूंगा ।
उत्तिष्ठत भोजनसमय आगतः पाकः सिद्धो वर्त्तते । उठिये भोजन समय आया पाक तैयार है ।
भो भृत्य ! पाद्यमर्घ्यमाचमनीयं जलं देहि । हे नौकर ! इनको पग हाथ मुख धोने के लिए जल दे ।
इदमानीतं गृह्यताम् । यह लाया, लीजिये ।
भो पाचकाः ! सर्वान् पदार्थान् क्रमेण परिवेविष्ट । हे पाचक लोगो ! सब पदार्थों को क्रम से परोसो ।
भुञ्जीधवम् । भोजन कीजिये ।
भोजनस्य सर्वे पदार्थाः श्रेष्ठा जाता न वा ? भोजन के सब पदार्थ अच्छे हुए हैं वा नहीं ?
अत्युत्तमाः सम्पन्नाः किं कथनीयम् । क्या कहना है, बड़े उत्तम हुए हैं ।
भवता किञ्चित् पायसं ग्राह्यं यस्येच्छाऽस्ति वा । आप थोड़ी सी खीर लीजिये वा जिसकी इच्छा हो ।
प्रभूतं भुक्तं तृप्ताः स्मः । बहुत रुचि से भोजन किया तृप्त हो गये हैं ।
तर्हुत्तिष्ठत । तो उठिये ।
जलं देहि । जल दे ।
गृह्यताम् । लीजिये ।
ताम्बूलादीन्यानीयन्ताम् । पान बीड़े इलायची आदि लाओ ।
इमानि सन्ति गृह्‍णन्तु । ये हैं, लीजिये ।

सभाप्रकरणम्

इदानीं सभायां काचिच्चर्च्चा विधेया । अब सभा में कुछ वार्तालाप करना चाहिये ।
धर्म्मः किं लक्षणोऽस्तीति पृच्छामि ? मैं पूछता हूं कि धर्म्म का क्या लक्षण है ?
वेदप्रतिपाद्यो न्याय्यः पक्षपातरहितो यश्च परोपकार-सत्याऽऽचरणलक्षणः । वेदोक्त न्यायानुकूल पक्षपातरहित और जो पराया उपकार तथा सत्याचरणयुक्त है उसी को धर्म जानना चाहिये ।
ईश्वरः कोऽस्तीति ब्रूहि ? ईश्वर किसको कहते हैं, आप कहिये ?
यः सच्चिदानन्दस्वरूपः सत्यगुणकर्मस्वभावः । जो सच्चिदानन्दस्वरूप और जिसके गुण कर्म स्वभाव सत्य ही हैं वह ईश्वर है ।
मनुष्यैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यम् ? मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ कैसे-कैसे वर्तना चाहिये ?
धर्मसुशीलतापरोपकारैः सह यथायोग्यम् । धर्म, श्रेष्ठ स्वभाव और परोपकार के साथ जिनसे जैसा व्यवहार करना योग्य हो वैसा ही उनसे वर्तना चाहिये ।

आर्य्यावर्त्तचक्रवर्त्तिराजप्रकरणम्
अस्मिन्नार्यावर्त्ते पुरा के के चक्रवर्त्तिराजा अभूवन् ? इस आर्यावर्त्त देश में पहिले कौन-कौन चक्रवर्ती राजा हुए हैं ?
स्वायम्भुवाद्या युधिष्ठिरपर्यन्ताः । स्वायंभु से लेकर युधिष्ठिर पर्य्यन्त ।
चक्रवर्त्तिशब्दस्य कः पदार्थः ? चक्रवर्त्ती पद का अर्थ क्या है ?
य एकस्मिन्‌ भूगोले स्वकीयामाज्ञां प्रवर्त्तयितुं समर्थाः जो एक भूगोल भर में अपनी राजनीति रूप आज्ञा को चलाने में समर्थ हों ।
ते कीदृशीमाज्ञां प्राचीचरन् ? वे कैसी आज्ञा का प्रचार करते थे ?
यया धार्मिकाणां पालनं दुष्टानां च ताडनं भवेत् । जिससे धार्मियों का पालन और दुष्टों का ताड़न होवे ।

राजप्रजालक्षणराजनीत्यनीतिप्रकरणम्
राजा को भवितुं शक्नोति ? राजा कौन हो सकता है ?
यो धार्मिकाणां सभाया अधिपतित्वे योग्यो भवेत् । जो धर्मात्माओं की सभा का सभापति होने योग्य होवे ।
यः प्रजां पीडयित्वा स्वार्थं साधयेत् स राजा भवितुमर्हो‍ऽस्ति न वा ? जो प्रजा को दुःख देकर अपना प्रयोजन साधे वह राजा हो सकता है वा नहीं ?
न हि न हि न हि स तु दस्युः खलु । नहीं नहीं नहीं वह तो डाकू ही है ।
या राजद्रोहिणी सा तु न प्रजा किन्तु स्तेनतुल्या मन्तव्या । जो राजव्यवहार में विरोध करे वह प्रजा तो नहीं किन्तु उसको चोर के समान जानना चाहिये ।
कथंभूता जनाः प्रजा भवितुमर्हाः ? कैसे मनुष्य प्रजा होने को योग्य हैं ?
ये धार्मिकाः सततं राजप्रियकारिणश्च जो धर्मात्मा और निरन्तर राजा के प्रियकारी हों ।
राजपुरुषैरप्येवमेव प्रजाप्रियकारिभिः सदा भवितव्यम् । राजसम्बन्धी पुरुषों को भी वैसे ही प्रजा के प्रिय करने में सदा रहना चाहिये ।

शत्रुवशकरणप्रकरणम्

एते शत्रुभिः सह कथं वर्त्तेरन् ? ये लोग शत्रुओं के साथ कैसे वर्त्तें ?
राजप्रजोत्तमपुरुषैररयः सामदामदण्डभेदैर्वशमानेयाः । राजा और प्रजा के श्रेष्ठ पुरुषों को योग्य है कि अरियों को (साम) मिलाप (दाम) कुछ देना और (दण्ड) उनको दण्ड (भेद) आपस में उनको फोड़ देना उनसे वश में करना चाहिये ।
सदा स्वराज्यप्रजासेनाकोषधर्मविद्यासुशिक्षा वर्धनीयाः । सब दिन अपना राज्य, प्रजा, सेना, कोष, धर्म्म, विद्या और श्रेष्ठ शिक्षा बढ़ाते रहना चाहिये ।
यथाधर्माविद्यादुष्टशिक्षादस्युचोरादयो न वर्धेरंस्तथा सततमनुष्ठेयम् । जिस प्रकार से अधर्म, अविद्या, बुरी शिक्षा, डाकू और चोर आदि न बढ़ें वैसा निरन्तर पुरुषार्थ करना चाहिये ।
धार्मिकैः सह कदापि न योद्धव्यम् । धर्मात्माओं के साथ कभी लड़ाई न करनी चाहिये ।
निर्जिता अपि दुष्टा विनयेन सत्कर्त्तव्याः । पराजित किये शत्रुओं का भी विनय के साथ मान्य करना चाहिये ।
राजप्रजाजनाः प्राणवत् परस्परं सम्पोष्य सुखिनो भवन्तु । राजा और प्रजा प्राण के तुल्य एक दूसरे की पुष्टि करके सदा सुखी रहें ।
कर्षिते क्षयरोगवदुभे विनश्यतः । एक दूसरे को निर्बल करने से दमा रोग के समान दोनों निर्बल होकर नष्ट हो जाते हैं ।
सदा ब्रह्मचर्यविज्ञानाभ्यां शरीरात्मबलमेधनीयम् । सब काल में ब्रह्मचर्य और विद्या से शरीर और आत्मा का बल बढ़ाते रहना चाहिये ।
यथादेशकालं पुरुषार्थेन यथावत् कर्माणि कृत्वा सर्वथा सुखयितव्यम् । देश काल के अनुसार उद्यम से ठीक ठीक कर्म करके सब प्रकार सुखी रहना चाहिये ।

वैश्यव्यवहारप्रकरणम्
वैश्याः कथं वर्त्तेरन् ? बनिये लोग कैसे वर्त्तें ?
सर्वा देशभाषा लेखाव्यवहारं च विज्ञाय पशुपालनक्रयविक्रयादि व्यापारकुसीदवृद्धि कृषिअकर्माणि धर्मेण कुर्युः । सब देशभाषा और हिसाब को ठीक-ठाक जानकर पशुओं की रक्षा लेनदेन आदि व्यवहार व्याजवृद्धि और खेती आदि कर्म धर्म के साथ किया करें ।

कुसीदग्रहणप्रकरणम्
यद्येकवारं दद्याद् गृह्‍णीयाच्च तर्हि कुसीदवृद्ध्या द्वैगुण्ये धर्मो‍ऽधिकेऽधर्म इति वेदितव्यम् । जो एक बार दें लें तो व्याजवृद्धि सहित मूलधन द्विगुण तक लेने में धर्म और अधिक लेने में अधर्म होता है, ऐसा जानना चाहिये ।
प्रतिमासं प्रतिवर्षं वा यदि कुसीदं गृह्‍णीयाद्यदा समूलं द्विगुणं धनमागच्छेत्तदा मूलमपि त्याज्यम् । जो महीने-महीने में अथवा वर्ष-वर्ष में व्याज लेता जाय तो भी जब मूलसहित दूना धन आ जाय फिर आगे आसामी से कुछ भी न लेना चाहिये ।

नौकाविमानादिचालनप्रकरणम्

त्वं नौकाश्चालयसि न वा ? तू नावें चलाता है या नहीं ?
चालयामि चलाता हूं ।
नदीषु वा समुद्रे ? नदियों में अथवा समुद्र में ?
उभयत्र चालयामि । दोनों में चलता हूं ।
कस्यां दिशि कस्मिन्देशे च गच्छन्ति ? किस दिशा और किस देश में जाती है ?
सर्वासु दिक्षु पातालदेश पर्य्यन्तम् । सर्व दिशाओं में पातालदेश अर्थात् अमेरिका देश पर्य्यन्त ।
ताः कीदृश्यः सन्ति केन चलन्ति ? वे नौका कैसी हैं और किससे चलती हैं ?
कैवर्त्तवाय्वग्निजलकलावाष्पादिभिः । मल्लाह वायु और अग्नि जल कलायन्त्र और भाफ आदि से ।
याः पुरुषाश्चालयन्ति ता ह्रस्वाः या महत्यस्ता वाय्वादिभिश्चाल्यन्ते ताश्चाश्वतरीश्यामकर्णाश्वाख्याः सन्ति । जिनको मनुष्य चलाते हैं वे छोटी-छोटी नौका और जो बड़ी होती हैं वे वायु आदि से चलाई जाती हैं उनके अश्वतरी और श्यामकर्णाश्व आदि नाम हैं ।
विमानादिभिरपि सर्वत्र गच्छामश्च । और विमान आदि से भी सर्वत्र आया जाया करते हैं ।

क्रयविक्रयप्रकरणम्
अस्य किम्मूल्यम् ? इसका क्या मूल्य है ?
पञ्च रूप्याणि । पांच रुपये ।
गृहाणेदं वस्त्रं देहि । लीजिये पांच रुपये यह वस्त्र दीजिये ।
अद्यश्वो घृतस्य कोऽर्घः ? आजकल घी का क्या भाव है ?
मुद्रैकया सपादप्रस्थं विक्रीणते ? एक रुपया से सवा सेर बेचते हैं ।
गुडस्य को भावः ? गुड़ का क्या भाव है ?
द्वाभ्यामानाभ्यामेकसेटकमात्रं ददति । दो आने से एक सेर देते हैं ।
त्वमापणं गच्छ, एलामानय । तू दुकान पर जा, इलायची ले आ ।
आनीता गृहाण । ले आया लीजिये ।
कस्य हट्टे दधिदुग्धे अच्छे प्राप्नुतः ? किसकी दुकान पर दूध और दही अच्छे मिलते हैं ?
धनपालस्य । धनपाल की ।
स सत्येनैव क्रयविक्रयौ करोति । वह सत्य ही से लेनदेन करता है ।
श्रीपतिर्वणिक्कीदृशोऽस्ति ? श्रीपति बनियां कैसा है ?
स मिथ्या कारी । वह झूठा है ।
अस्मिन्संवत्सरे कियांल्लाभो व्ययश्च जातः ? इस वर्ष में कितना लाभ और खर्च हुआ ?
पंच लक्षाणि लाभो लक्षद्वयस्य व्ययश्च ? पांच लाख रुपये लाभ और दो लाख खर्च हुए ।
मम खल्वस्मिन् वर्षे लक्षत्रयस्य हानिर्जाता । मेरे तो इस वर्ष में तीन लाख की हानि हो गई ।
कस्तूरी कस्मादानीयते ? कस्तूरी कहां से लाई जाती है ?
नेपालात् । नेपाल से
बहुमूल्यमाविकं कुत आनयन्ति ? बहुमूल्य दुशाले आदि कहां से लाते हैं ?
कश्मीरात् । कश्मीर से ।

गमनागमनप्रकरणम्
कुत्र गच्छसि ? कहां जाता है ?
पाटलिपुत्रकम् । पटने को ।
कदाऽऽगमिष्यसि ? कब आओगे ?
एकमासे । एक महीने में ।
स क्व गतः ? वह कहां गया ?
शाकमानेतुम् । शाक लेने को ।

क्षेत्रवपनप्रकरणम्
क्षेत्राणि कर्षन्तु । खेत जोतो ।
बीजान्युप्तानि न वा ? बीज बोये वा नहीं ?
उप्‍तानि । बो दिये ।
अस्मिन् क्षेत्रे किमुप्‍तम् ? इस खेत में क्या बोया है ?
व्रीहयः । धान ।
एतस्मिन्‌ ? इस में ?
गोधूमाः । गेहूं ।
अस्मिन् किं वपन्ति ? इस खेत में क्या बोते हैं ?
तिलमुद्‍गमाषाढकीः । तिल मूंग उड़द और अरहर ।
एतस्मिन् किमुप्यते ? इसमें क्या बोया जाता है ?
यवाः । जौ ।

शस्यच्छेदनप्रकरणम्
संप्रति केदाराः पक्वाः । इस समय खेत पक गये हैं ।
यदि पक्वाः स्युस्तर्हि लुनन्तु । यदि पक गये हों तो काटो ।
इदानीं कृषीवला अन्योऽन्यकेदारान् व्यतिलुनन्ति । इस समय खेती करने वाले आपस में एक दूसरे का पारापारी खेत काटते हैं ।
ऐषमे धान्यानि प्रभूतानि जातानि । इस साल में धान्य बहुत हुए हैं ।
अत एवैकस्या मुद्राया गोधूमाः खारीप्रतिमा अन्यानि तण्डुलादीन्यपि किञ्चिदधिकन्यूनानि लभन्ते । इसी से एक रुपये के गेहूं एक मन और चावल आदि अन्न भी मन से कुछ अधिक वा न्यून मिलते हैं ।

गवादिदोहनपरिमाणप्रकरणम्
इयं गौर्दुग्धं ददाति न वा ? यह गौ दूध देती है वा नहीं ?
ददाति । देती है ।
इयं महिषी कियद्‍दुग्धं ददाति ? यह भैंस कितना दूध देती है ?
दशप्रस्थम् । दश सेर ।
तवाऽजावयः सन्ति न वा ? तेरे बकरी भेड़ हैं वा नहीं ?
सन्ति । हैं ।
प्रतिदिनं ते कियद्‍दुग्धं जायते ? नित्य कितना दूध होता है ?
पञ्च खार्यः । पांच मन ।
नित्यं किंपरिमाणे घृतनवनीते भवतः ? प्रतिदिन कितना घी और मक्खन होता है ?
सार्द्धद्वादशप्रस्थे । साढ़े बारह सेर ।
प्रत्यहं कियद् भुज्यते कियच्च विक्रीयते ? प्रतिदिन कितना खाया जाता और कितना बिकता है ?
सार्धद्विप्रस्थं भुज्यते दशप्रस्थं च विक्रीयते । अढ़ाई सेर खाया जाता और दश सेर बिकता है ।

क्रयविक्रयार्घप्रकरणम्
एतद्‍रूप्यैकेन कियन्‌मिलति ? ये घी और मक्खन एक रुपया से कितना मिलता है ?
प्रस्थत्रयम् । तीन सेर ।
तैलस्य कियच्छुल्कम् ? तैल का क्या भाव है ?
मुद्राचतुर्थांशेनैकसेटकं प्राप्यते चार आने का एक सेर प्राप्‍त होता है ।
अस्मिन्नगरे कति हट्टास्सन्ति ? इस नगर में कितनी दुकानें हैं ?
पञ्चसहस्राणि । पांच हजार ।

कुसीदप्रकरणम्
शतं मुद्रा देहि । सौ रुपये दीजिये ।
ददामि परन्तु कियत् कुसीदं दास्यसि ? देता हूं परन्तु कितना ब्याज देगा ?
प्रतिमासं मुद्रार्द्धम् । प्रति महीने आठ आने ।

उत्तमर्णाधमर्णप्रकरणम्
भो अधमर्ण ! यावद्धनं त्वया पूर्वं गृहीतं तदिदानीं दीयताम् । हे करजदार ! जो धन तुम ने पहिले लिया था वह अब दे ।
मम साम्प्रतं तु दातुं सामर्थ्यं नास्ति । मेरा इस समय तो देने का सामर्थ्य नहीं है ।
कदा दास्यसि ? कब देगा ?
मासद्वयाऽनन्तरम् । दो महीने के पश्चात् ।
यद्येतावति समये न दास्यसि चेत्तर्हि राजनियमान्निग्रहीष्यामि । जो तू इतने समय में न देगा तो राजप्रबन्ध से पकड़ा के लूंगा ।
यद्येवं कुर्य्यां तर्हि तथैव ग्रहीतव्यम् । जो ऐसा करूं तो वैसे ही लेना ।

राजाप्रजासम्बन्धप्रकरणम्
भो राजन् ! ममायमृणं न ददाति । हे राजन् ! मेरा यह ऋण नहीं देता ।
यदा तेन गृहीतं तदानीन्तनः कश्चित् साक्षी वर्त्तते न वा ? जब उसने लिया था उस समय का कोई साक्षी वर्त्तमान है या नहीं ?
अस्ति । है ।
तर्ह्यानीयताम् । तो लाओ ।
आनीतोऽयमस्ति । लाया यह है ।

साक्षिप्रकरणम्

भोः साक्षिन् ! त्वमत्र किञ्चिज्जानासि न वा ? हे साक्षी ! तू इस विषय में कुछ जानता है वा नहीं ?
जानामि । जानता हूं ।
यादृशं जानासि तादृशं सत्यं वद । जैसा जानता है वैसा सच कह ।
सत्यं वदामि । सत्य कहता हूं ।
अस्मादनेन मत्समक्षे सहस्रं मुद्रा गृहीताः । इससे इसने मेरे सामने सहस्र रुपये लिये थे ।
ओ भृत्य ! तं शीघ्रमानय । ओ नौकर ! उसको जल्दी ले आ ।
आनयामि । लाता हूं ।
गच्छ राजसभायां राज्ञा त्वमाहूतोऽसि । चल राजसभा में राजा ने तुझ को बुलाया है ।
चलामि । चलता हूं ।
भो राजन्नुपस्थितस्सः । हे राजन ! वह आया है ।
त्वयाऽस्य ऋणं किमर्थं न दीयते ? तू इसका ऋण क्यों नहीं देता ?
अस्मिन् समये तु मम सामर्थ्यं नास्ति षण्मासानन्तरं दास्यामि । इस समय तो मेरा सामर्थ्य नहीं है परन्तु छः महीने के पीछे दूंगा ।
पुनर्विलम्बं तु न करिष्यसि ? फिर देर तो न करेगा ?
महाराज ! कदापि न करिष्यामि । महाराज ! कदापि न करूंगा ।
अच्छ गच्छ धनपाल ! यदि सप्‍तमे मास्ययं न दास्यति तर्होनं निगृह्य दापयिष्यामि । महीने में न देगा तो इसको पकड़ के दिला दूंगा ।
अयं मम शतं मुद्रा गृहीत्वाऽधुना न ददाति । यह मेरे सौ रुपये लेके अब नहीं देता ।
किं च भो यदयं वदति तत् सत्यं न वा ? क्योंजी जो यह कहता है वह सच है वा नहीं ?
मिथ्यैवाऽस्ति । झूठ ही है ।
अहं तु जानाम्यपि नाऽस्य मुद्रा मया कदा स्वीकृताः । मैं तो जानता भी नहीं कि इसके रुपये मैंने कब लिये थे ।
उभयोस्साक्षिणः सन्ति न वा ? दोनों के साक्षी लोग हैं वा नहीं हैं ?
सन्ति । हैं ।
कुत्र वर्त्तन्ते ? कहां हैं ?
इम उपतिष्ठन्ते । ये खड़े हैं ।
अनेन युष्माकं समक्षे शतं मुद्रा दत्ता न वा ? इसने तुम्हारे सामने सौ रुपये दिये वा नहीं ?
दत्तास्तु खलु । निश्चित दिये तो हैं ।
अनेन शतं मुद्रा गृहीता न वा ? इसने सौ रुपये लिये वा नहीं ?
वयं न जानीमः । हम नहीं जानते ।
प्राङ्विवाकेनोक्तम् । वकील ने कहा ।
अयमस्य साक्षिणश्च सर्वे मिथ्यावादिनः सन्ति । यह और इसके साक्षी लोग सब झूठ बोलने वाले हैं ।
कुत इदमेतेषां परस्परं विरुद्धं वचोऽस्ति । क्योंकि यह इन लोगों का वचन परस्पर विरुद्ध है ।
यतस्त्वया मिथ्यालपितमत एव तवैकसंवत्सरपर्यन्तं कारागृहे बन्धः क्रियते । जिससे तूने झूठ बोला इसी कारण तेरा एक वर्ष तक बन्दीघर में बन्धन किया जाता है ।
अयमुत्तमर्णस्त्वदीयान् पदार्थान् गृहीत्वा विक्रीय वा स्वर्णं ग्रहीष्यति । यह सेठ तेरे पदार्थों को लेकर अथवा बेच के अपने ऋण को ले लेगा ।
अयं मदीयानि पञ्चशतानि रूप्याणि स्वीकृत्य न ददाति । यह मेरे पांच सौ रुपये लेकर नहीं देता ।
कुतो न ददासि ? तू क्यों नहीं देता ?
मया नैव गृहीतानि कथं दद्याम् ? मैंने लिये ही नहीं कैसे दूं ?
अयम्मम लेखोऽस्ति पश्यताम् । यह मेरा लेख है देखिये ।
आनय । लाओ ।
गृह्यताम् । लीजिये ।
अयं लेखो मिथ्या प्रतिभाति । यह लेख झूठ मालूम पड़ता है ।
तस्मात् त्वं षण्मासान् कारागृहे वस त्वेमे साक्षिणश्च दौ दौ मासौ तत्रैव वसेयुः । इससे तू छः महीने बन्दीगृह में रह और तेरे ये साक्षी दो-दो महीने के लिये वहीं जायं ।

सेव्यसेवकप्रकरणम्

भो मंगलदास ! सेवार्थं कैङ्कर्यं करिष्यषि ? हे मंगलदास ! सेवा के लिये नौकरी करेगा ?
करिष्यामि । करूंगा ।
किं प्रतिमासं मासिकं ग्रहितुमिच्छसि ? प्रति महीने कितना वेतन लिया चाहता है ?
पञ्च रूप्याणि । पांच रुपये ।
मयैतावद्दास्यते चेद्यथायोग्या परिचर्या विधेया । मैं इतना दूंगा जो तुझ से ठीक-ठीक सेवा हो सकेगी ।
यदाहं भवन्तं सेविष्ये तदा भवानपि प्रसन्न एव भविष्यति । जब मैं आपकी सेवा करूंगा तब आप भी प्रसन्न ही होंगे ।
मार्जनं कुरु । झाड़ू दे ।
दन्तधावनमानय । दातून ले आ ।
स्नानार्थं जलमानय । नहाने के लिए जल ला ।
उपवस्त्रं देहि । अंगोछा दे ।
आसनं स्थापय । आसन रख ।
पाकं कुरु । रसोई कर ।
हे सूद ! त्वयाऽन्नं व्यञ्जनं च सुष्ठु सम्पादनीयम् । हे रसोइये ! तू अन्न और शाक आदि उत्तम बना ।
अद्य किं किं कुर्याम् ? आज क्या-क्या करूं ?
पायसमोदकौदनसूपरोटिकाशाकानि उपव्यञ्जनादीनि चापि । खीर, लड्डू, चावल, दाल, रोटी, शाक और चटनी आदि भी ।

मिश्रितप्रकरणम्
नित्यप्रति किं वेतनं दास्यसि ? नित्यप्रति क्या नौकरी दोगे ?
प्रत्यहं द्वावश पणाः । प्रतिदिन बारह पैसे ।
वस्त्राणि श्‍लक्ष्णे पट्टे प्रक्षालनीयानि कपड़े चिकने साफ पत्थर की पटिया पर धोने चाहियें ।
गा वनये चारय । गायें वन में चरा ।
पुष्पवाटिकायां गन्तव्यमस्ति । फूलों की बगीची में जाना है ।
आम्रफलानि पक्वानि न वा ? आम पके वा नहीं ?
पक्वानि सन्ति । पके हैं ।
उपानहावानय । जूते लाओ ।

गमनागमनप्रकरणम्
अयं रक्तोष्णीषः क्व गच्छति ? यह लाल पगड़ी वाला कहां जाता है ?
स्वगृहम् । अपने घर को ।
अस्य कदा जन्माऽभूत् ? इसका जन्म कब हुआ था ?
पञ्च संवत्सरा अतीताः । पांच वर्ष बीते ।
परेद्युर्ग्रामो गन्तव्यः । कल गांव जाना चाहिये ।
गमिष्यामि । जाऊंगा ।
भवान् परेद्युः क्व गन्ता ? आप कल कहां जाओगे ?
अयोध्याम् । अयोध्या को ।
तत्र किं कार्यमस्ति ? वहां क्या काम है ?
मित्रैः सह मेलनं कर्त्तव्यमस्ति । मित्रों के साथ मिलना है ।
कदागतोऽसि ? कब आया है ?
इदानीमेवाऽऽगच्छामि । अभी आता हूं ।

रोगप्रकरणम्

अस्य कीदृशो रोगो वर्त्तते ? इसको किस प्रकार का रोग है ?
जीर्णज्वरोऽस्ति । जीर्णज्वर है ।
औषधं देहि । औषध दे ।
ददामि । देता हूँ ।
परन्तु पथ्यं सदा कर्त्तव्यम् । न हि पथ्येन विना रोगो निवर्त्तते । परन्तु पथ्य सदा करना चाहिये । पथ्य के विना रोग निवृत्त नहीं होता ।
अयं कुपथ्यकारित्वात् सदा रुग्णो वर्त्तते । यह कुपथ्यकारी होने से सदा रोगी रहता है ।
अस्य पित्तकोपो वर्त्तते । इसको पित्त का कोप है ।
मम कफो वर्द्धत औषधं देहि । मेरे को कफ बढ़ता जाता है औषध दीजिए ।
निदानं कृत्वा दास्यामि । रोग की परीक्षा करके दूंगा ।
अस्य महान् कासश्वासोऽस्ति । इसको बड़ा कासश्वास अर्थात् दमा है ।
मम शरीरे तु वातव्याधिर्वर्त्तते । मेरे शरीर में तो वातव्याधि है ।
संग्रहणी निवृत्ता न वा ? संग्रहणी छूटी वा नहीं ?
अद्यपर्यन्तं तु न निवृत्ता । आज तक तो नहीं छूटी ।
औषधं संसेव्य पथ्यं करोषि न वा ? औषधि का सेवन करके पथ्य करते हो वा नहीं ?
क्रियते परन्तु सुवैद्यो न मिलति कश्चिद्यः सम्यक् परीक्ष्यौषधं दद्यात् । करता तो हूं परन्तु अच्छा वैद्य कोई नहीं मिलता कि जो अच्छे प्रकार परीक्षा करके औषध देवे ।
तृषाऽस्ति चेज्जलं पिब । प्यास हो तो जल पी ।

मिश्रितप्रकरणम्

इदानीं शीतं निवृत्योष्णसमय आगतः । अब तो शीत की निवृत्ति होकर गरमी का समय आ गया ।
हेमन्ते क्व स्थितः ? जाड़े में कहां रहा था ?
बंगेषु । बंगाल में ।
पश्य ! मेघोन्नतिं कथं गर्जति विद्योतते च । देखो ! मेघ की बढ़ती, कैसा गर्जता और चमकता है ।
अद्य महती वृष्टिर्जाता यया तडागा नद्यश्च पूरिताः । आज बड़ी वर्षा हुई जिससे तालाब और नदियां भर गईं ।
श्रृणु, मयूराः सुशब्दयन्ति । सुनो ! मोर अच्छा शब्द करते हैं ।
कस्मात् स्थानादागतः ? किस स्थान से आया ?
जङ्गलात् । जंगल से ।
तत्र त्वया कदापि सिंहो दृष्टो न वा ? वहां तूने कभी सिंह देखा था वा नहीं ?
बहुवारं दृष्टः । कई वार देखा ।
नदी पूर्णा वर्त्तते कथमागतः ? नदी भरी है, कैसे आया ?
नौकया । नाव से ।
आरोहत हस्तिनं गच्छेम । चढ़ो हाथी पर, जायं ।
अहं तु रथेनागच्छामि । मैं तो रथ से आता हूँ ।
अहमश्वोपरि स्थित्वा गच्छेयं शिविकायां वा ? मैं घोड़े पर चढ़ कर जाऊँ अथवा पालकी पर ?
पश्य ! शारदं नभः कथं निर्मलं वर्त्तते । देखो ! शरद् ऋतु का आकाश कैसा निर्मल है ।
चन्द्र उदितो न वा ? चन्द्रमा उगा वा नहीं ?
इदानीन्तु नोदितः खलु । इस समय तो नहीं उगा है ।
कीदृश्यस्तारकाः प्रकाशन्ते । किस प्रकार तारे प्रकाशमान हो रहे हैं ।
सूर्योदयाच्चलन्नागच्छामि । सूर्योदय से चलता हुआ आता हूँ ।
क्वापि भोजनं कृतन्न वा ? कहीं भोजन किया वा नहीं ?
कृतम्मध्याह्‍नात् प्राक् । किया था दोपहर से पहिले ।
अधुनाऽत्र कर्त्तव्यम् । अब यहां कीजिये ।
करिष्यामि । करूंगा ।

विवाहस्त्रीपुरुषालापप्रकरणम्

त्वया कीदृशो विवाहः कृतः ? तूने किस प्रकार का विवाह किया था ?
स्वयंवरः । स्वयंवर ।
स्त्र्यनुकूलास्ति न वा ? स्त्री अनुकूल है वा नहीं ?
सर्वथाऽनुकूलास्ति । सब प्रकार से अनुकूल है ।
कत्यपत्यानि जातानि सन्ति ? कितने लड़के (=सन्तान) हुए हैं ?
चत्वारः पुत्रा द्वे कन्ये च । चार पुत्र और दो कन्या ।
स्वामिन्नमस्ते । स्वामी जी ! नमस्ते (अर्थात् आपका सत्कार करती हूँ ।
नमस्ते प्रिये ! नमस्ते प्रिया !
कांचित्सेवामनुज्ञापय । किसी सेवा की आज्ञा दीजिये ।
सर्वथैव सेवसे पुनराज्ञापनस्य कावश्यकताऽस्ति । सब प्रकार की सेवा करती ही हो, फिर आज्ञा करने की क्या आवश्यकता है ।
अद्य भवान् श्रमं कृतवानत उष्णेन जलेन स्नातव्यम् । आज आपने श्रम किया है, इस कारण गरम जल से स्नान करना चाहिये ।
गृहाणेदं जलमासनं च । लीजिये यह जल और आसन ।
इदानीं भ्रमणाय गन्तव्यम् । इस समय घूमने के लिये जाना चाहिये ।
क्व गच्छेव ? कहां चलें ?
उद्यानेषु । बगीचों में ।

स्त्रीश्वश्रूश्वशुरादिसेव्यसेवकप्रकरणम्
हे श्वश्रु ! सेवामाज्ञापय किं कुर्याम् ? हे सास ! सेवा की आज्ञा कीजिये क्या करूं ?
सुभगे ! जलं देहि । सुभगे ! जल दे ।
गृहाणेदमस्ति । लीजिये यह है ।
हे श्वसुर ! भवान् किमिच्छत्याज्ञापयतु । हे श्वसुर ! आपकी क्या इच्छा है आज्ञा दीजिये ।
हे वंशवदे ! तवत्सेवया सन्तुष्टोऽस्मि । हे वंशवदे ! तेरी सेवा से संतुष्ट हूं ।

ननन्दृभ्रातृजायावादप्रकरणम्

हे ननदरिहागच्छ वार्त्तालापं कुर्याव । हे ननन्द ! यहां आओ बातचीत करें ।
वद भ्रातृजाये ! किमिच्छसि ? कहो भौजाई ! क्या इच्छा है ?
तव पतिः कीदृशो‍ऽस्ति ? तेरा पति कैसा है ?
अतीव सुखप्रदो यथा तव । अत्यन्त सुख देनेवाला है, जैसा तेरा ।
मया त्वीदृशः पतिः सौभाग्येन लब्धोऽस्ति । मैंने तो इस प्रकार का पति अच्छे भाग्य से पाया है ।
कदाचिदप्रियं तु न करोति ? कभी प्रतिकूत तो नहीं करता ?
कदापि नहि किन्तु सर्वदा प्रीतिं वर्द्धयति । कभी नहीं किन्तु सब दिन प्रीति बढ़ाता है ।
पश्याभ्यां बाल्यावस्थायां विवाहः कृतोऽतः सदा दुःखिनौ वर्त्तते । देखो इन दोनों ने बाल्यावस्था में विवाह किया है, इससे सदा दुःखी रहते हैं ।
यान्यपत्यानि जतानि तान्यपि रुग्णान्यग्रेऽपत्यस्याऽऽशैव नास्ति निर्बलत्वात् । जो लड़के हुए वे भी रोगी हैं, आगे लड़का होने की आशा ही नहीं है निर्बलता से ।
पश्य तव मम च कीदृशानि पुष्टान्यपत्यानि द्विवर्षानन्तरं जायन्ते । देखो तेरे और मेरे कैसे पुष्ट लड़के दो वर्ष के पीछे होते जाते हैं ।
सर्वदा प्रसन्नानि सन्ति वर्द्धन्ते च सुशीलत्वात् । सब काल में प्रसन्न और बढ़ते जाते हैं सुशीलता से ।
न ह्यस्मिन् संसारेऽनुकूलस्त्रीपतिजन्यसदृशं सुखं किमपि विद्यते । इस संसार में स्त्री और पुरुष से होने वाले सुख के सदृश दूसरा सुख कोई नहीं है ।
इदानीं वृद्धाऽवस्थाप्राप्‍ता यौवनं गतं केशाः श्वेता जाताः प्रतिदिनं बलं ह्रस्ति च । इस समय वृद्धावस्था आई, जवानी गई, बाल सफेद हुए और नित्य बल घट रहा है ।
स इदानीं गमनागमनमपि कर्तुमशक्तो जातः । वह इस समय आने जाने में भी असमर्थ हो गया है ।
बुद्धिविपर्यासत्वाद्विपरीतं भाषते । बुद्धि विपरीत होने से उल्टा बोलता है ।
अद्याऽस्य मरणसमय आगत ऊर्ध्वश्वासत्वात् । आज इसके मरने का समय आया, ऊपर को श्वास चलने से ।
सोऽद्य मृतः । वह आज मर गया ।
नीयतां श्मशानं वेदमन्त्रैर्घृतादिभिर्दह्यताम् । ले चलो श्मशान को, वेदमन्त्रों करके घी आदि सुगन्ध से दहन करो ।
शरीरं भस्मीभूतं जातमतस्तृतीयेऽहनि सभस्मास्थिसंचयनं कृत्वा पुनस्तन्निमित्तं शोकादिकं किंचिदपि नैव कार्यम् । शरीर भस्म हो गया, आज से तीसरे दिन राखसहित हाड़ों को वेदी से अलग करके फिर उसके निमित्त शोकादि कुछ भी न करना चाहिये ।
त्वं मातापित्रोः सेवां न करोष्यतः कृतघ्नी वर्त्तसेऽतो मातापितृसेवा केनापि कदापि नैव त्याज्या । तू माता-पिता की सेवा नहीं करता इस कारण कृतघ्नी है, इसलिए माता-पिता की सेवा का त्याग किसी को कभी न करना चाहिये ।
सायंकालकृत्यप्रकरणम्
इदानीं तु सन्ध्यासमय आगतः सायंसन्ध्यामुपास्य भोजनं कृत्वा भ्रमणं कुरुत । अब तो सन्ध्या समय आया, सन्ध्योपासन और भोजन करके घूमना-घामना करो ।
अद्य त्वया कियत् कार्यं कृतम् ? आज तूने कितना काम किया ?
एतावत्कृतमेतावदवशिष्टमस्ति । इतना किया है और इतना शेष है ।
अद्य कियांल्लाभो व्ययश्च जातः ? आज कितना लाभ और खर्च हुआ ?
पञ्चशतानि मुद्रा लाभः सार्द्धद्वे शते व्ययश्च । पांच सौ रुपये लाभ और अढ़ाई सौ खर्च हुए ।
इदानीं सामगानं क्रियताम् । इस समय सामवेद का गान कीजिये ।
वीणादीनि वादित्राण्यानीयताम् । वीणादिक बाजे ले आओ ।
आनीतानि लाये ।
वाद्यताम् । बजाओ ।
गीयताम् । गाओ ।
कस्य रागस्य समयो वर्त्तते ? किस राग का काल है ?
षड्जस्य । षड्ज का ।
इदानीं तु दशघटिकाप्रमिता रात्र्यागता शयीध्वम् । इस समय तो दश घड़ी रात बीती, सोइये ।
गम्यतां स्वस्वस्थानम् । जाओ अपने-अपने स्थान को ।
स्वस्वशय्यायां शयनं कर्त्तव्यम् । अपने-अपने बिछौने पर सोना चाहिये ।
सत्यमेवमेवेश्वरकृपया सुखेन रात्रिर्गच्छेत्प्रभातं भवेत् । सत्य है, ऐसे ही ईश्वर की कृपा से सुखपूर्वक रात बीते और सवेरा होवे ।


शरीरावयवप्रकरणम्

अस्य शिरः स्थूलं अस्ति । इसका शिर बड़ा है ।
देवदत्तस्य मूर्द्धकेशाः कृष्णा वर्त्तन्ते । देवदत्त के शिर में बाल काले हैं ।
मम तु खलु श्वेता जाताः मेरे तो सुफेद हो गये ।
तवापि केशा अर्द्धश्वेताः सन्ति । तेरे भी बाल आधे सुफेद हैं ।
अस्य ललाटं सुन्दरमस्ति । इसका माथा सुन्दर है ।
अयं शिरसा खल्वाटः । इसके सिर में बाल नहीं हैं ।
तस्यौत्तमे भ्रुवौ स्तः । उसकी अच्छी भौहें हैं ।
श्रोत्रेण श्रृणोसि न वा ? कान से सुनता है वा नहीं ?
श्रृणोमि । सुनता हूँ ।
अनया स्त्रिया कर्णयोः प्रशस्तान्याभूषानि धृतानि । इस स्त्री ने कानों में अच्छे सुन्दर गहने पहिने हैं ।
किमयं कर्णाभ्यां बधिरोऽस्ति ? क्या यह कानों से बहिरा है ?
बधिरस्तु न परन्तु श्रवणे ध्यानं न ददाति । बहिरा तो नहीं है परन्तु सुनने में ध्यान नहीं देता ।
अयं विशालाक्षः । यह बड़े नेत्रवाला है ।
त्वं चक्षुषा पश्यसि न वा ? तू आंख से देखता है वा नहीं ?
पश्यामि, परन्त्विदानीं मन्ददृष्टिर्जातोऽहमस्मि । देखता हूं, परन्तु इस समय मन्ददृष्टि अर्थात् थोड़ी दृष्टि वाला हो गया हूँ ।
इदानीं ते रक्ते अक्षिणी कथं वर्त्तते ? इस समय तेरी आंखें लाल क्यों हैं ?
यतोऽहं शयनादुत्थितः । सो के उठा हूं इस कारण से ।
स काणो धूर्तोऽस्ति । वह काना धूर्त्त है ।
द्रष्टव्यमयमन्धः सचक्षुष्कवत् कथं गच्छसि ? देखो यह अन्धा आंखवाले के समान कैसे जाता है ?
तवाक्षिणी कदा नष्टे ? तेरी आंखें कब नष्ट हुईं ?
यदाहं पञ्चवर्षोऽभूवम् । जब मैं पांच वर्ष का हुआ था ।
इदानीम्मन्नेत्रे रोगोऽस्ति स कथं निवर्त्स्यते इस समय मेरे नेत्र में रोग है, वह कैसे निवृत्त होगा ?
अञ्जनाद्यौषधसेवनेन निवर्त्तिष्यते । अञ्जन आदि औषध के सेवन से निवृत्त होगा ।
तस्य नासिकोत्तमास्ति । उसकी नाक अति सुन्दर है ।
भवानपि शुकनासिकः । आप भी सुग्गे के सी नाक वाले हैं ।
घ्राणेन गन्धं जिघ्रसि न वा ? नाक से गन्ध सूंघता है वा नहीं ?
श्लेष्मकफत्वान्मया नासिकया गन्धो न प्रतीयते । सरदी कफ (जुकाम) होने से मुझको नासिका से गन्ध की प्रतीति नहीं होती ।
अयं पुरुषः सुकपोलोऽस्ति । यह पुरुष अच्छे गाल वाला है ।
अतिस्थूलत्वादस्य नाभिर्गम्भीरा । बहुत मोटा होने से इसकी नाभि गहरी है ।
त्वमद्य प्रसन्नमुखो दृश्यसे किमत्र कारणम् ? तू आज प्रसन्नमुख दिखाई देता है, इसमें क्या कारण है ?
अयं सदैवाह्‍लादितवदनो विद्यते । यह सब दिन प्रसन्नमुख बना रहता है ।
अस्यौष्ठौ श्रेष्ठौ वर्त्तते । इसके ओष्ठ बहुत अच्छे हैं ।
अयँल्लम्बोष्ठत्वाद्‍भयङ्करोऽस्ति यह लम्बे ओष्ठवाला होने से भयंकर है ।
सर्वैर्जिह्वया स्वादो गृह्यते । सब लोग जीभ से स्वाद लिया करते हैं ।
वाचा च सत्यं प्रियं मधुरं सदैव वाच्यम् । वाणी से सत्य प्रिय और मधुर सब दिन बोलना चाहिये ।
नैव केनचित्खल्वनृतादिकं वक्तव्यम् । कभी किसी को झूठ नहीं बोलना चाहिये ।
अयं सुदन् वर्त्तते । यह अच्छे दांतों वाला है ।
तव दन्ता दृढ़ाः सन्ति वा चलिताः ? तेरे दांत दृढ़ हैं वा हिल गये हैं ?
मम तु दृढा अस्य त्रुटिताः सन्ति । मेरे तो दृढ़ हैं अर्थात् निश्चल हैं, इसके टूट गये हैं ।
मन्मुख एकोऽपि दन्तो नास्त्यतः कष्टेन भोजनादिकं करोमि । मेरे मुख में एक भी दांत नहीं है इससे क्लेश से भोजन करता हूं ।
अस्य श्मश्रूणि लम्बीभूतानि सन्ति । इसकी मूंछें लम्बी हैं ।
तव चिबुकस्योपरि केशा न्यूनाः सन्ति । तेरी ठोडी के ऊपर बाल थोड़े हैं ।
त्वया कण्ठ इदं किमर्थं बद्धम् ? तूने गले में यह किसलिये बांधा है ?
अस्योरो विस्तीर्णमस्ति । इसकी छाती बड़ी है ।
त्वया हृदये किं लिप्‍तम् ? तूने छाती में क्या लगाया है ?
इदानीं हेमन्तोऽस्त्यतः कुङ्कुमकस्तूर्यौ लिप्‍ते । इस समय हेमन्त ऋतु है, इससे केसर और कस्तूरी लेपन किये हैं ।
तथा हृच्छूलनिवारणायौषधम् । वैसे हृदयशूल निवारण के लिये औषध ।
माणवकः स्तनाद् दुग्धं पिबति । लड़का स्तन से दूध पीता है ।
पश्य ! देवदत्तोऽयं लम्बोदरो वर्तते । देख ! यह देवदत्त बड़े पेटवाला अर्थात् तोंदवाला है ।
अयन्तु खलु क्षामोदरः । यह तो छोटे पेटवाला है ।
त्वं पृष्ठे किं लग्नमस्ति ? तुम्हारी पीठ में क्या लगा है ?
किं स्कन्धाभ्यां भारं वहसि ? क्या तू कन्धे से भार उठाता है ?
पश्याऽस्य क्षत्रियस्य बाहोर्बलं येन स्वभुजप्रतापेन राज्यं वर्द्धितम् । देख ! इस क्षत्रिय का बाहुबल, जिसने अपने बाहुबल से राज्य को बढ़ाया है ।
मनुष्येण हस्ताभ्यामुत्तमानि धर्म्यकार्याणि सेव्यानि नैव कदाचिदधर्म्याणि । मनुष्य को चाहिये कि हाथों से उत्तम धर्मयुक्त कर्म करे, न कभी अधर्मयुक्त कर्मों को ।
अस्य करपृष्ठे करतले च घृतं लग्नमस्ति । इसके हाथ की पीठ और तले में घी लगा है ।
मुष्टिबन्धने सत्येकत्राऽङ्गुष्ठ एकत्र चतस्रोऽङ्गुलयो भवन्ति । मुट्ठी बांधने में एक ओर अंगूठा और एक ओर चार अंगुली होती हैं ।
शरीरस्य मध्यभागो नाभिः पुरतः पश्चिमतः कटी च कथ्यते । शरीर के आगे बीच के भाग को नाभि और पीछे के भाग को पीठ कहते हैं ।
अयं मल्लः स्थूलोरुः यह पहलवान मोटी जंघा वाला है ।
माणवको जानुभ्यां गच्छति । लड़का घुटनों के बल से चलता है ।
अद्यातिगमनेन जङ्घे पीडिते स्तः । आज बहुत चलने से जांघें दूखती हैं ।
अहं पदभ्यां ह्यो ग्राममगमम् । मैं पैदल कल गांव को गया था ।
अस्य शरीरे दीर्घाणि लोमानि सन्ति तव शरीरे च न्यूनानि सन्ति । इसके शरीर में बड़े-बड़े रोम हैं और तेरे शरीर में थोड़े रोम हैं ।
अस्य शरीरचर्म श्‍लक्षणं वर्त्तते । इसके शरीर का चमड़ा चिकना है ।
पश्यास्य नखा आरक्ताः सन्ति । देख ! इसके नख कुछ-कुछ लाल हैं ।
अयं दक्षिणेन हस्तेन भोजनं वामेन जलं पिबति । यह दाहिने हाथ से भोजन और बायें से जल पीता है ।
इदानीं त्वया श्रमः कृतोऽस्त्यतो धमनी शीघ्रं चलति । इस समय तूने श्रम किया है, इससे नाड़ी शीघ्र चलती है ।
अधुना तु ममान्तस्त्वग् दह्यतेऽस्थिषु पीडापि वर्त्तते । इस समय मेरे भीतर की त्वचा जलती और हाड़ों में पीड़ा भी है ।

राजसभाप्रकरणम्

तिष्ठ देवदत्त ! त्वया सह गच्छामि राजसभाम् । ठहर देवदत्त ! तेरे साथ मैं भी राजसभा को चलता हूँ ।
सभाशब्दस्य कः पदार्थः ? सभा शब्द का क्या अर्थ है ?
या सत्यासत्यनिर्णयाय प्रकाशयुक्ता वर्त्तते । जो सच झूठ का निर्णय करने के लिये प्रकाश से सहित हो ।
तत्र कति सभासदः सन्ति ? वहां कितने सभासद् हैं ?
सहस्रम् । हजार ।
या मम ग्रामे सभास्ति तत्र खलु पञ्चशतानि सभासदः सन्ति । जो मेरे गांव में सभा है उसमें तो पांच सौ सभासद् हैं ।
इदानीं सभायां कस्य विषयस्योपरि विचारो विधातव्यः ? इस सभा में किस विषय पर विचार करना चाहिये ?
युद्धस्य । युद्ध अर्थात् लड़ाई का ।
तेन सह युद्धं कर्त्तव्यं न वा ? उसके साथ युद्ध करना चाहिये वा नहीं ?
यदि कर्त्तव्यं तर्हि कथम् ? यदि करना चाहिये तो कैसे ?
यदि स धर्मात्मा तदा तु न कर्त्तव्यम् । यदि वह धर्मात्मा हो तब तो उससे युद्ध करना योग्य नहीं ।
पापिष्ठश्चेत्तर्हि तेन सह योद्धव्यम् । और जो पापी हो तो उससे युद्ध करना ही चाहिये ।
सोऽन्यायेन प्रजां भृशं पीडयत्यतो महापापिष्ठः । वह अन्याय से प्रजा को निरन्तर पीड़ा देता है, इस कारण से वह बड़ा पापी है ।
एवं चेत्तर्हि शस्त्रास्त्रप्रक्षेपयुद्धकुशला बलिष्ठा कोशधान्यादि सामग्रीसहिता सेना युद्धाय प्रेषणीया । यदि ऐसा है तो शस्त्र-अस्त्र चलाने में और युद्ध में कुशल बड़ी लड़ने वाली, खजाना और अन्नादि सामग्री सहित सेना युद्ध के लिये भेजनी चाहिये ।
सत्यमेवात्र वयं सर्वे सम्मतिं दद्‍मः । सच ही है, इसमें हम सब लोग सम्मति देते हैं ।
इदानीं कस्यां दिशि कैः सह युद्धं प्रवर्त्तते ? इस समय किस दिशा में किन के साथ युद्ध हो रहा है ?
पश्चिमायां दिशि यवनैः सह हरिवर्षस्थानाम् पश्चिम दिशा में मुसलमानों के साथ हरिवर्षस्थ अर्थात् यूरोपियन अंग्रेज लोगों का ।
पराजिता अपि यवना अद्यप्युपद्रवं न त्यजन्ति । हारे हुए मुसलमान लोग अब भी उपद्रव नहीं छोड़ते ।
अयं खलु पशुपक्षिणामपि स्वभावोऽस्ति यदा कश्चित्तद्‍गृहादिकं ग्रहीतुमिच्छेत् तदा यथाशक्ति युध्यन्त एव । यह तो पशु पक्षियों का भी स्वभाव है कि जब कोई उनके घर आदि को छीन लेने की इच्छा करता है तब यथाशक्ति युद्ध करते अर्थात् लड़ते ही हैं ।

ग्राम्यपशुप्रकरणम्

भो गोपाल ! गा वने चारय । हे अहीर ! गौओं को वन में चरा ।
तत्र या धेनवस्ताभ्योऽर्द्धं दुग्धं त्वया दुग्धवा स्वामिभ्यो देयमर्द्धं च वत्सेभ्यः पाययितव्यम् । वहां जो नई ब्याई गौयें हैं उनसे आधा दूध तूने दुहकर मालिक को देना और आधा बछड़ों को पिलाना चाहिये ।
एतौ वृषभौ रथे योक्तुं योग्यौ स्तः, इमौ हले खलु । ये दोनों बैल गाड़ी वा रथ में जोतने के योग्य हैं और ये दोनों हल ही में ।
पश्येमाः स्थूला महिष्यो वने चरन्ति । देखिये, ये मोटी भैंसें वन में चरती हैं ।
आगच्छ भो ! द्रष्टव्यम्महिषाणां युद्धं परस्परं कीदृशं भवति । आओ जी, देखने योग्य है भैंसों का युद्ध किस प्रकार आपस में हो रहा है ।
अस्य राज्ञो बहव उत्तमा अश्वाः सन्ति । इस राजा के बहुत से उत्तम घोड़े हैं ।
किमियं राज्ञः सतुरङ्गा सेना गच्छति ? क्या यह राजा की घोड़ों सहित सेना जा रही है ?
श्रोतव्यं हरयः कीदृशं ह्रेषन्ते । सुनिये, घोड़े किस प्रकार हिनहिनाते हैं ।
यथा हस्तिनो स्थूलाः सन्ति तथा हस्तिन्योऽपि । जैसे हाथी मोटे होते हैं वैसे हथिनी भी है ।
नागास्समं गच्छन्ति । हाथी बराबर चाल से चलते हैं ।
श्रुणु, करिणः कीदृशं बृंहन्ति । सुन, हाथी कैसे चिंहारते हैं ?
पश्येमे गजोपरि स्थित्वा गच्छन्ति । देख, ये हाथी पर बैठ के जाते हैं ।
अस्य राज्ञः कतीभास्सन्ति ? इस राजा के कितने हाथी हैं ?
पञ्च सहस्राणि । पांच हजार ।
रात्रौ श्वानो बुक्कन्ति । रात में कुत्ते भूंसते हैं ।
प्रातः कुक्कुटाः संप्रवदन्ति । सवेरे मुर्गे बोलते हैं ।
मार्जारो मूषकानत्ति । बिल्ला मूसों को खाता है ।
कुलालस्य गर्धभा अतिस्थूलाः सन्ति । कुम्हार के गदहे अत्यन्त मोटे हैं ।
शृणु, लम्बकर्णा रासभा रासन्ते । सुन, लम्बे कानों वाले गदहे बोलते हैं ।
ग्राम्यशूकराः पुरीषं भक्षयित्वा भूमिं शुन्धन्ति । गांव के सूअर मैला खा के भूमि को शुद्ध करते हैं ।
उष्ट्रा भारं वहन्ति । ऊंट बोझा ढ़ोते हैं ।
अजाविपालोऽजा अवीर्दोग्धि । गड़रिया बकरी और भेड़ों को दुहता है ।
पशवोऽपुर्नद्यां जलम् । पशुओं ने नदी में जल पिया था ।
रक्तमुखो वानरोऽतिदुष्टो भवति कृष्णमुखस्तु श्रेष्ठः खलु । लाल मुख का बन्दर बड़ा दुष्ट और काले मुंह का लंगूर तो अच्छा होता है ।
वानरी मृतकमपि बालकं न त्यजति । बन्दरी मरे हुए बच्चे को भी नहीं छोड़ती ।
गोपालेन गावो दुग्धाः पयो न वा ? ग्वाले ने गौओं से दूध दुहा वा नहीं ?
कपिलाया गोर्मधुरं पयो भवति । कपिला (पीली) गाय का दूध मीठा होता है ।
अयं वृषभः कियता मूल्येन क्रीतः ? यह बैल कितने मोल से खरीदा है ?
शतेन रुप्यैः । सौ रुपयों से ।
कतिभिः पणैः प्रस्थं पयो मिलति ? कितने पैसों से सेर दूध मिलता है ?
द्वाभ्यां पणाभ्याम् । दो पैसों से ।
पश्य देवदत्त ! वानराः कथमुत्प्लवन्ते ? देख देवदत्त ! बन्दर कैसे कूदते हैं ?
अयं महाहनुत्वाद्धनुमान्वर्त्तते । यह बन्दर बड़ी ठोडीवाला होने से हनुमान् है ।

ग्राम्यस्थपक्षिप्रकरणम्

एताभ्यां चटकाभ्यां प्रासादे नीडं रचितम् । इन चिड़ियों ने अटारी पर घोंसला बनाया है ।
अत्राण्डानि धृतानि । यहां अण्डे धरे हैं ।
इदानीं तु चाटकैरा अपि जाताः । अब तो इनके बच्चे भी हो गये हैं ।
पश्य, विष्णुमित्र ! कुक्कुटयोर्युद्धम् । देख, विष्णुमित्र ! मुरगों की लड़ाई ।
कुक्कुटी स्वान्यण्डानि सेवते । मुरगी अपने अण्डों को सेवती है ।
पश्य, शुकानां समूहं यो विरुवन्नुड्डीयते । देख, सुग्गों के झुण्ड को जो चचेंता हुआ उड़ रहा है ।
रात्रौ काका न वाश्यन्ते । रात में कौवे नहीं बोलते हैं ।
अरे भृत्योड्डायय ध्वांक्षमनेन पातव्यजलपात्रे चञ्चुं निक्षिप्य जलं विनाशितम् । अरे नौकर ! इस कौवे को उड़ा दे, इसने पीने के जल के बर्तन में चोंच डालकर जल दूषित कर दिया ।
वायसेन बालकहस्ताद्रोटिका हृता । कौवे ने लड़के के हाथ से रोटी ले ली ।
पश्य, कीदृशं काकोलूकिकं युद्धं प्रवर्त्तते । देख, किस प्रकार की कौवे और उल्लुओं की लड़ाई हो रही है ।
अनेन शुकहंसतित्तिरिकपोताः पालिताः । इसने सुग्गा, हंस, तीतर और कबूतर पाले हैं ।

वन्यपशुप्रकरणम्

वने रात्रौ सिंहा गर्जन्ति । वन में रात के समय सिंह गर्जते हैं ।
शार्दूलं दृष्ट्वा सिंहा निलीयन्ते । शार्दूल को देखकर सिंह छिप जाते हैं ।
ह्यः सिंहेन गौर्हता । कल सिंह ने गौ को मार डाला ।
परश्वो विक्रमवर्मणा सिंहो हतः । परसों विक्रमवर्मा क्षत्रिय ने सिंह मारा ।
द्रष्टव्यं हस्तिसिंहयो रणम् । देख हाथी और सिंह की लड़ाई ।
जङ्गले हस्तियूथाः परिभ्रमन्ति । जंगल में हाथियों के झुण्ड घूमते हैं ।
इदानीमेव वृकेण मृगो गृहीतः । अभी भेड़िये ने हिरन पकड़ लिया ।
अयं कुक्कुरो बलवाननेन सिंहेन सहाप्याजिः कृता । यह कुत्ता बड़ा बलवान् है, इसने सिंह के साथ लड़ाई की ।
पश्य, सिंहवराहयोः संग्रामम् । देख, सिंह और शूकर का युद्ध ।
शूकरा इक्षुक्षेत्राणि भक्षयित्वा विनाशयन्ति । शूकर ऊख के खेतों को खाकर नष्ट कर देते हैं ।
पश्य, वेगेन धावतो मृगान् । देख, वेग से दौड़ते हुए हिरनों को ।
अयं रुरुर्वृषभवत्स्थूलोऽस्ति । यह काला रोज बैल के समान मोटा है ।
यो निलीयोत्प्लुत्य धावति स शशस्त्वया दृष्टो न वा ? जो छुपकर कूद के दौड़ता है वह खरहा तूने देखा है वा नहीं ?
बहून् दृष्टवान् । बहुतों को देखा है ।
कदाचिद्‍भालवोऽपि दृष्टा न वा ? कभी भालुओं को भी देखा है वा नहीं ?
एकदार्च्छेन साकं मम युद्धं जातम् । एक दिन रींछ के साथ मेरी लड़ाई भी हुई थी ।
रात्रौ श्रृगालाः रुवन्ति । रात्रि में सियार रोते हैं ।
कदाचित्खड्गोऽपि दृष्टो न वा ? कभी गैंडा भी देखा वा नहीं ?
य आरण्या महिषा बलवन्तो भवन्ति तान्कदाचिद् दृष्टवान्न वा ? जो वनैले भैंसे बलवान् होते हैं उनको कभी देखा वा नहीं ?

वनस्थपक्षिप्रकरणम्

कदाचित् सारसावप्युड्डीयमानौ क्रीडन्तौ महाशब्दं कुरुतः । कभी सारस पक्षी भी उड़ते और क्रीड़ा करते हुए बड़े शब्द करते हैं ।
श्येनेनातिवेगेन वर्तिका हता । बाज ने बड़े वेग से बटेर मारी ।
श्रृणु, तित्तिरयः कीदृशं मधुरं नदन्ति । सुन, तित्तिर किस प्रकार मधुर बोलते हैं ?
वसन्ते पिकाः प्रियं कूजन्ति । वसन्त ऋतु में कोयल प्रिय शब्द करती है ।
काककोकिलवद् दुर्वचाः सुवाक् च मनुष्यो भवति । कौवे और कोयल के सदृश दुष्ट और अच्छा बोलने वाला मनुष्य होता है ।
अयं देवदत्तो हंसगतिं गच्छति । यह देवदत्त हंस के समान चलता है ।
पश्येमे मयूरा नृत्यन्ति । देख, ये मोर नाचते हैं ।
उलूका रात्रौ विचरन्ति । उल्लू रात को विचरते हैं ।
पश्य, बकः सरस्सु पाखण्डिजनवन्मत्स्यान् हन्तुं कथं ध्यायति ? देख, बगुला तालाबों में पाखण्डी मनुष्य के तुल्य मछली मारने को किस प्रकार ध्यान कर रहा है ?
बलाका अप्येवमेव जलजन्तून् घ्नन्ति । बलाका भी इसी प्रकार जलजन्तुओं को मारती है ।
पश्य, कथञ्चकोरा धावन्ति ? देख, किस प्रकार चकोर दौड़ते हैं ?
येऽत्यूर्ध्वमाकाशे गत्वा मांसाय निपतन्ति ते गृधास्तवया दृष्टा न वा ? जो बहुत ऊपर आकाश में जाकर मांस के लिये गिरते हैं वे गीध तूने देखे हैं वा नहीं ?
मेनका मनुष्यवद्वदन्ति । मैना मनुष्य के समान बोलती हैं ।
चिल्लिका माणवकहस्ताद्रोटिकां छित्तवोड्डीयते । चील लड़के के हाथ से रोटी छीनकर उड़ जाती है ।

तिर्यग्जन्तुप्रकरणम्

सर्पाः शीघ्रं सर्पन्ति । सर्प जल्दी सरकते हैं ।
अयं कृष्णः फणी महाविषधारी । यह काला नाग बड़ा विषवाला है ।
भवता कदाचिदजगरोऽपि दृष्टो न वा ? आपने कभी अजगर भी देखा है वा नहीं ?
पश्याहिनकुलस्य संग्रामो वर्त्तते । देख, सांप और नेउले का युद्ध हो रहा है ।
स वृश्चिकेन दष्टो रोदिति । वह बिच्छू से काटा हुआ रोता है ।
इयं गोधा स्थूलास्ति । यह गोह मोटी है ।
मूषका बिले शेरते । मूसे बिल में सोते हैं ।
मक्षिकां भक्षयित्वा वमनं प्रजायते । मक्खी खाकर वमन हो जाता है ।
अत्र वासः कर्त्तव्यो निर्मक्षिकं वर्त्तते । यहां वास करना चाहिये, मक्खी एक भी नहीं है ।
मधुमक्षिकादशनेन शोथः प्रजायते । मधुमक्खियों के काटने से सूजन हो जाती है ।
भ्रमरा गुञ्जन्तः पुष्पेभ्यो गन्धं गृह्‍णन्ति । भौंरे गूंजते हुए फूलों से सुगन्धि ग्रहण करते हैं ।
जलजन्तुप्रकरणम्
तिमिङ्गला मत्स्याः समुद्रे भवन्ति । तिमिङ्गल मछलियां समुद्र में होती हैं ।
रोहूखड्गसिंहतुण्डराजीवलोचनाश्च कुण्डुपुष्करिणीनदी तडागसमुद्रेषु च निवसन्ति रोहू, खड्ग, सिंहतुण्ड और राजीवलोचन इन नामों की मछलियां पुखरिया, नदी, तालाब और समुद्र में वास करती हैं ।
मकरः पशूनपि गृहीत्वा निगलति । मगर पशुओं को भी पकड़कर निगल जाता है ।
नक्रा ग्राहा अपि महान्तो भवन्ति । नाके घरियार भी बड़े-बड़े होते हैं ।
कूर्माः स्वाङ्गानिसंकोच्य प्रसारयन्ति । कछुए अपने अंगों को समेट कर फैलाते हैं ।
वर्षासु मण्डूकाः शब्दयन्ति । वर्षाकाल में मेंढक शब्द करते हैं ।
जलमनुष्या अप्सु निमज्य तट आसते । जल के मनुष्य पानी में डूबकर तीर पर बैठते हैं ।

वृक्षवनस्पतिप्रकरणम्

पिप्पलाः फलिता न वा ? पीपल फले हैं वा नहीं ?
इमे वटाः सुच्छायास्सन्ति । ये बड़ अच्छी छाया वाले हैं ।
पश्येम उदुम्बराः सफला वर्त्तन्ते । देख, ये गूलर फलयुक्त हो रहे हैं ।
इमे बिल्वाः स्थूलफलास्सन्ति । ये बेल बड़े-बड़े फलवाले हैं ।
ममोद्याने आम्राः पुष्पिताः फलिताः सन्ति । मेरे बगीचे में आम फूले फले हैं ।
इदानीं पक्वफला अपि वर्त्तन्ते । इस काल में पके फल वाले भी हैं ।
अस्याम्रस्य मधुराणि रसवन्ति च फलानि भवन्ति । इस आम के मीठे और रसीले फल होते हैं ।
तस्य त्वम्लानि भवन्ति । उसके तो खट्टे होते हैं ।
पनसस्य महान्ति फलानि भवन्ति । कटहल के बड़े-बड़े फल होते हैं ।
शिंशपायाः काष्ठानि दृढ़ानि सन्ति शालस्य दीर्घाणि च । सीसों की लकड़ी दृढ़ होती और साखू की लकड़ी लम्बी होती है ।
अस्य बर्बुरस्य कण्टकास्तीक्ष्णा भवन्ति । इस बबूल के कांटे तीखी अणीवाले होते हैं ।
बदरीणां तु मधुराम्लानि फलानि कण्टकाश्च कुटिला भवन्ति । बेरियों के तो मीठे खट्टे फल और इनके कांटे टेढ़े होते हैं ।
कटुको निम्बो ज्वरं निहन्ति । कडुआ नीम ज्वर का नाश कर देता है ।
मातुलुङ्गकफलरसं सूपे निक्षिप्य भोक्तव्यम् । नींबू का रस दाल में डालकर खाने योग्य है ।
मम वाटिकायां दाडिमफलान्युत्तमानि जायन्ते । मेरे बगीचे में अनार बहुत अच्छे होते हैं ।
नागरङ्गफलान्यानय । नारंगी के फलों को ला ।
वसन्ते पलाशाः पुष्यन्ति । वसन्त ऋतु में ढाक फूलते हैं ।
उष्ट्राः शमीवृक्षपत्रफलानि भुञ्जते । ऊंट शमी अर्थात् खींजड़ (छोंकर) वृक्ष के पत्ते और फलों को खाते हैं ।

औषधप्रकरणम्

कदलीफलानि पक्वानि न वा ? केला के फल पके वा नहीं ?
तण्डुलादयस्तु वैश्यप्रकरणे लिखितास्तत्र द्रष्टव्याः । चावल आदि तो बनियों के प्रकरण में लिखे हैं वहां देख लेना ।
विषनिवारणायाऽपामार्गमानय । विष दूर करने के लिए चिंचिड़ा ला ।
निर्गुण्ड्याः पत्राण्यानेयानि । निर्गुण्डी के पत्ते लाने चाहियें
लज्जावत्याः किं जायते । लज्जावन्ती का क्या होता है ?
गुडूची ज्वरं निवारयति । गिलोय ज्वर को शान्त करती है ।
शंखावलीं दुग्धे पाचयित्वा पिबेत् । शंखावली को दूध में पका के पिये ।
यथर्त्तुयोगं हरीतकी सेविता सर्वान् रोगान्निवारयति । जिस प्रकार से ऋतु ऋतु में हरड़े का सेवन करना योग्य है वैसे सेवी हुई हरड सब रोगों को छुड़ा देती है ।
शुण्ठीमरीचपिप्पलीभिः कफवातरोगौ निहन्तव्यौ । सोंठ, मिर्च और पीपल से कफ और वात रोगों का नाश करना चाहिये ।
योऽश्वगन्धां दुग्धे पाचयित्वा पिबति स पुष्टो जायते । जो असगन्ध दूध में पका कर पीता है वह पुष्ट होता है ।
इमानि कन्दानि भोक्तुमर्हाणि वर्त्तन्ते । ये कन्द खाने के योग्य हैं ।
एतेषां तु शाकमपि श्रेष्ठं जायते । इन कन्दों का तो शाक भी अच्छा होता है ।
अस्यां वाटिकायां गुल्मलताः प्रशंसनीयाः सन्ति । इस बगीचे में गुच्छा और लताप्रतान प्रशंसा के योग्य अर्थात् अच्छे हैं ।

आत्मीयप्रकरणम्

तव ज्येष्टो बन्धुर्भगिनी च कास्ति ? तेरा बड़ा भाई और बहिन कौन है ?
देवदत्तस्सुशीला च । देवदत्त और सुशीला ।
भो बन्धो ! अहं पाठाय व्रजामि । हे भाई ! मैं पढने को जाता हूं ।
गच्छ प्रिय ! पूर्णां विद्यां कृत्वागन्तव्यम् । जा प्यारे ! पूरी विद्या करके आना ।
भवतः कन्याः अद्यश्वः किं पठन्ति ? आपकी बेटियां आजकल क्या पढ़ती हैं ?
वर्णोच्चारणशिक्षादिकं दर्शनशास्त्राणि चाधीत्येदानीं धर्मपाकशिल्पगणितविद्या अधीयते । वर्णोच्चारणशिक्षादिक तथा न्याय आदि शास्त्र पढ़कर अब धर्म, पाक, शिल्प और गणितविद्या पढ़ती हैं ।
भवज्ज्येष्ठया भगिन्या किं किमधीतमिदानीञ्च तया किं क्रियते ? आपकी बड़ी बहिन ने क्या-क्या पढ़ा है और अब वह क्या करती है ?
वर्णज्ञानमारभ्य वेदपर्यन्ताः सर्वा विद्या विदित्वेदानीं बालिकाः पाठयति । अक्षराभ्यास से लेके वेद तक सब पूरी विद्या पढ़के अब कन्याओं को पढ़ाया करती है ।
तया विवाहः कृतो न वा ? उसने विवाह किया वा नहीं ?
इदानीं तु न कृतः परन्तु वरं परीक्ष्य स्वयंवरं कर्तुमिच्छति । अभी तो नहीं किया, परन्तु वर की परीक्षा करके स्वयंवर करने की इच्छा करती है ।
यदा कश्चित् स्वतुल्यः पुरुषो मिलिष्यति तदा विवाहं करिष्यति । जब कोई अपने सदृश पुरुष मिलेगा तब विवाह करेगी ।
तव मित्रैरधीतं न वा ? तेरे मित्रों ने पढ़ा है वा नहीं ?
सर्व एव विद्वांसो वर्त्तन्ते यथाऽहं तथैव तेऽपि, समानस्वभावेषु मैत्र्यास्समभवात् । सब ही विद्वान हैं, जैसा मैं हूं वैसे वे भी हैं, क्योंकि तुल्य स्वभाववालों में मित्रता का सम्भव है ।
तव पितृव्यः किं करोति ? तेरा चाचा क्या करता है ?
राज्यव्यवस्थाम् । राज्य का कारवार ।
इमे किं तव मातुलादयः ? ये क्या तेरे मामा आदि हैं ?
बाढमयं मम मातुल इयं पितृष्वसेयं मातृष्वसेयं गुरुपत्‍न्ययं च गुरुः । ठीक यह मेरा मामा, यह बाप की बहिन भूआ, यह मता की बहिन मौसी, यह गुरु की स्त्री और यह गुरु है ।
इदानीमेते कस्मै प्रयोजनायैकत्र मिलिताः ? इस समय ये सब किसलिये मिलकर इक्ट्ठे हुए हैं ?
मया सत्कारायाऽऽहूताः सन्त आगताः । मैंने सत्कार के अर्थ बुलाये हैं सो ये सब आये हैं ।
इमे मे मम पितृश्वश्रूश्वसुरश्यालदयः सन्ति । ये सब मेरे पिता की सास-ससुर और साले आदि हैं ।
इमे मम मित्रस्य स्त्रीभगिनीदुहितृजामातरः सन्ति । ये मेरे मित्र की स्त्री, बहिन, लड़की और जमाई हैं ।
इमौ मम पितुः श्यालदौहित्रौ स्तः । ये मेरे मामा और भानजे हैं ।
सामन्तप्रकरणम्
त्वद्‍गृहनिकटे के के निवसन्ति ? तेरे घर के पास कौन-कौन रहते हैं ?
ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र लोग ।
इमे राजसमीपनिवासिनः । ये राजा के समीप रहने वाले हैं ।
कारुप्रकरणम्
भोस्तक्षंस्त्वया नौविमानरथशकटहलानि निर्माय तत्र प्रशस्तानि कलाकीलशलाकादीनि संयोज्य दातव्यानि । हे बढ़ई ! तुझ को नावें, विमान, रथ, गाड़ी और हल आदि रच के उन में अत्युत्तम कलायन्त्र, कील, कांटे आदि संयुक्त कर के देने चाहियें ।
इदं काष्ठं छित्वा पर्य्यङ्कं रचय । इस लकड़ी को काट के पलंग बना ।
अस्मात् कपाटाः सम्पादनीयाः । इससे किवाड़ों को बना ।
इमं वृक्षं किमर्थं छिनत्सि ? इस वृक्ष को किसलिये काटता है ?
मुसलोलूखलयोर्निर्माणाय । मूसल और ऊखरी बनाने के लिये ।
अयस्कारप्रकरणम्
भो अयस्कार ! त्वयाऽस्यायसो बाणासिशक्तितोमरमुद्‍गर शतघ्नीभुशुण्ड्यो निर्मातव्याः । हे लोहकार ! तुझ को इस लोहे के बाण, तलवार, बरछी, तोमर, मुद्‍गर, बंदूक और तोप बना देने चाहियें ।
एतस्य क्षुरादीनि च । इसके छुरे आदि ।
इमौ कलशकटाहौ त्वया विक्रीयेते न वा ? ये घड़ा और कड़ाही तुम बेचते हो वा नहीं ?
विक्रीणामि । बेचता हूं ।
एतान् कीलकण्टकान् किमर्थं रचयसि ? इन कील कांटों को किसलिये बनाता है ?
विक्रयणाय । बेचने के लिये ।

सुवर्णकारप्रकरणम्

त्वया सुवर्णादिकं नैव चोर्यम् । तू सोना आदि मत चुराना ।
आभूषणान्युत्तमानि निर्मिमीष्व । गहने अच्छे सुन्दर बना ।
अस्य हारस्य कियन्मूल्यमस्ति ? इस हार का कितना मोल है ?
पञ्च सहस्राणि राजत्यो मुद्राः । पांच हजार रुपये ।
इमौ कुण्डलौ त्वया श्रेष्ठौ रचितौ वलयो तु न प्रशस्तौ । ये कुण्डल तूने अच्छे बनाये परन्तु कड़े तो बिगाड़ दिये ।
एतान्यङ्गुलीयकानि मुक्ताप्रवालहीरकनीलमणिजटितानि सम्पादय । ये अंगूठियाँ मोती, मूंगा, हीरा और नीलमणि से जड़ी हुई बना ।
एतेनालङ्कारा अत्युत्तमा रच्यन्ते । इससे गहने बहुत अच्छे बनाये जाते हैं ।
नासिकाभूषणं सद्यो निष्पादय । नथुनी शीघ्र बना दे ।
इदं मुकुटं केन रचितम् ? यह मुकुट किसने बनाया ?
शिवप्रतापेन । शिवप्रताप ने ।
अस्य सुवर्णस्य कटककङ्गणनूपुरान् निर्माय सद्यो देहि । इस सोने के कड़ा, कंकणी वा कंगना और पजेब बनाके शीघ्र दे ।
कुलालप्रकरणम्
भो कुलाल ! कुम्भशरावमृद्‍गवकान्निर्मिमीष्व, घटं देह्यनेन जलमानेष्यामि । अरे कुम्भार ! घड़ा, सरवा और मट्ठी की गौओं को बना और घड़ा दे, जल लाऊँगा ।
तन्तुवायप्रकरणम्
भो तन्तुवाय ! अस्य सूत्रस्य पटशाट्युष्णीषाणि वय । ओ कोरी ! इस सूत के पटका, साड़ी और पगड़ियाँ बुन ।
सूचीकारप्रकरणम्
भो ! सूच्या किं सीव्यसि ? ओ ! सूई से क्या सीता है ?
शिरोङ्गरक्षणाधोवस्त्राणि सीव्यामि । टोपी, अंगरखा और पाजामा सीता हूं ।

मिश्रितप्रकरणम्

भो कारुक ! कटं वय । अरे चटाई वाले ! चटाई बुन ।
इमे व्याधा मृगादीन्पशून् घ्नन्ति । ये बहेलिये हरिन आदि पशुओं को मारते हैं ।
किराता वने निवसन्ति । किरात अर्थात् भील लोग वन में रहते हैं ।
सकमलानि सरांसि कुत्र सन्ति ? कमल वाले तालाब कहां हैं ?
इमे तडागा ग्रीष्मे शुष्यन्ति । ये सब तालाब गरमी में सूख जाते हैं ।
अद्य वाप्यां स्नातव्यम् । आज बावड़ी में नहाना चाहिये ।
रञ्जकेन शतघ्नीभुशुण्ड्यादयश्चलन्ति । बारूद से बंदूक और तोपें आदि चलती हैं ।
अयं कम्बलस्त्वया कस्माद् गृहीतः कस्मै प्रयोजनाय च ? यह कम्बल तूने किससे लिया और किस प्रयोजन के लिये ?
कश्मीराच्छीतनिवारणाय । कश्मीर से, जाड़ा छुड़ाने के लिये ।
पश्य माणवकाः क्रीडन्ति । देख, लड़के खेलते हैं ।
अस्मिन् गृहे विस्तराणि श्रेष्ठानि सन्ति । इस घर में बिछौने अच्छे हैं ।
इमे चोराः पलायन्ते । ये चोर भागे जाते हैं ।
तत्र दस्युभिरागत्य सर्वं धनं हृतम् वहां डाकू लोगों ने आकर सब धन हर लिया ।
त्रेतान्ते युधिष्ठिरादयो बभूवः । त्रेता के अन्त में युधिष्ठिरादि हुए थे ।
मम पादे कण्टकः प्रविष्ट एनमुद्धर । मेरे पैर में कांटा घुस गया, इसको निकाल ।
केशान् संवेशय । बालों को सम्भाल ।
भो नापित ! नखाञ्छिन्धि मुण्डय शिरः श्मश्रूणि च । ओ नाऊ ! नखों को काट, शिर मूंड और मूंछ भी काट डाल ।
अयं शिल्पी प्रासादमत्युत्तमं रचयति । यह राज अटारी बहुत अच्छी बनाता है ।
अयं कोटपालो न्यायकारी वर्त्तते । यह कोतवाल न्यायकारी है ।
स तु धर्मात्मा नैवास्त्यन्यायकारित्वात् । वह कोतवाल तो धर्मात्मा नहीं है, अन्यायकारी होने से ।
एते राजमन्त्रिणः कुत्र गच्छन्ति ? ये राजा के मन्त्री लोग कहां जाते हैं ?
राजसभां न्यायकरणाय यान्ति । राजसभा को न्याय करने के लिये ।
भोस्ताम्बूलानि देहि । ओ ! पान दे ।
ददामि । देता हूं ।
भोस्तैलकार ! तिलेभ्यस्तैलं निःसार्य देहि । अरे तेली ! तिलों से तैल निकालकर दे ।
दास्यामि । दूंगा ।
अरे रजक ! वस्त्राणि प्रक्षाल्य सद्यो देयानि । अरे धोबी ! कपड़ों को धोकर शीघ्र देना ।
कपाटान् बधान । किवाड़ों को बन्द कर ।
इदानीं प्रातःकालो जातः कपाटानुद्‍घाटय । इस समय सवेरा हुआ किवाड़े खोल ।
सर्वे युद्धाय सज्जा भवन्तु । सब सिपाही लोग लड़ाई के लिये तैयार हों ।
अर्थिप्रत्यर्थिनौ राजगृहे युध्येते । मुद्दई और मुद्दायले कचहरी में लड़ते हैं ।
किमियं गोधूमान् पिनष्टि ? क्या यह गेहुओं को पीसती है ?
कुतोऽद्य दुर्गे शतघ्न्यश्चलन्ति ? क्यों आज किले में तोपें चलती हैं ?
तेन भुशुण्ड्या सिंहो हतः । उसने बन्दूक से बाघ को मारा ।
तेनाऽसिना तस्य शिरश्छिन्नम् । उसने तलवार से उसका सिर काट डाला ।
अञ्जनं किमर्थमनक्षि ? अञ्जन किसलिये आंजता है ?
दृष्टिवृद्धये । दृष्टि बढ़ाने के लिये ।
उपानहौ धृत्वा क्व गच्छसि ? जूते पहिन के कहां जाता है ?
जङ्गलम् । जंगल को ।
किं स्थाल्यामोदनं पचसि सूपं वा ? क्या बटुवे में भात पकाता है, वा दाल ?
कटाहे शाकं पच । कड़ाही में तरकारी पका ।
विरुद्धं वदिष्यसि चेत्तर्हि ते दन्तांस्त्रोटयिष्यामि । विरुद्ध बोलेगा तो तेरे दांत तोड़ डालूंगा ।
तव पितुस्तु सामर्थ्यं नाभूत् तव तु का कथा । तेरे बाप का तो सामर्थ्य न हुआ, तेरी तो क्या बात है ।
येन प्रजा पाल्यते स कथन्न स्वर्गं गच्छेत् ? जिसने प्रजा का पालन किया, वह स्वर्ग को क्यों न जाय ?
यो राज्यं पीडयेत्स कथन्न नरके पतेत् ? जो राज्य को पीड़ा देवे वह क्यों नरक में न पड़े ?
येनेश्वर उपास्यते तस्य विज्ञानं कुतो न वर्द्धेत ? जो ईश्वर की उपासना करे, उसका विज्ञान क्यों न बढ़े ?
यः परोपकारी स सततं कथन्न सुखी भवेत् ? जो परोपकारी है वह सर्वदा सुखी क्यों न होवे ?
अस्यां मञ्जूषायां किमस्ति ? इस संदूक में क्या है ?
वस्त्रधने । कपड़ा और धन ।
इदानीमपि कुम्भ्यां धान्यं वर्त्तते न वा ? अब कोठी में अन्न है वा नहीं ?
स्वल्पमस्ति । थोड़ा सा है ।
त्वमालसी तिष्ठसि कुतो नोद्योगं करोषि ? तू आलसी रहता है, उद्योग क्यों नहीं करता ?
उभयत्र प्रकाशाय देहल्यां दीपं निधेहि । दोनों ओर उजियाला होने के लिये दरवाजे पर दिया धर ।
तेन चर्मासिभ्यां शतेन सह युद्धं कृतम् । उसने ढ़ाल और तलवार से सौ पुरुषों के साथ युद्ध किया ।
अतिथीन् सेवसे न वा ? अतिथियों की सेवा करता है वा नहीं ?
प्रेक्षासमाजं मा गच्छ । कभी मेले तमाशे में मत जा ।
द्यूतसमाह्वयौ कदापि नैव सेवनीयौ । जो अप्राणी को दाव पर धर के खेलना वह द्यूत और प्राणी को दाव पर धर के खेलना वह समाह्वय कहाता है उसको कभी न सेवना चाहिये ।
यो मद्यपोऽस्ति तस्य बुद्धिः कथं न ह्रसेत् ? जो मद्य पीने वाला है उसकी बुद्धि क्यों न न्यून होवे ?
यो व्यभिचरेत्स रुग्णः कथं न जायेत ? जो व्यभिचार करे वह रोगी क्यों न होवे ?
यो जितेन्द्रियः स सर्वं कर्तुं कुतो न शक्नुयात् ? जो जितेन्द्रिय है वह सब उत्तम काम क्यों न कर सके ?
योगाभ्यासः कृतो येन ज्ञानदीप्तिर्भवेन्नरः । जिसने योग का अभ्यास किया है वह ज्ञान प्रकाश से युक्त होवे ।
वस्त्रपूतं जलं पेयं मनःपूतं समाचरेत् । वस्त्र से पवित्र किया जल पीना चाहिये और मन से शुद्ध जाना हुआ काम करना चाहिये ।
स भ्रान्तौ कदापि न पतेत् ? वह भ्रमजाल में कभी नहीं गिरे ।
अयं वाचालोऽस्त्यतो बरबरायते । यह बहुत बोलनेवाला है इसी कारण बड़बड़ाता है ।
भूमितले किमस्ति ? भूमि के नीचे क्या है ?
मनुष्यादयः । मनुष्य आदि ।
यः पद्भ्यां भ्रमति सोऽरोगो जायते । जो पैरों से चलता है वह रोगरहित होता है ।
व्यजनेन वायुं कुरु । पंखे से वायु (हवा) कर ।
किं घर्मादागतोऽसि यत् स्वेदो जातोऽस्ति । क्या घाम से आया है जो पसीना हो रहा है ?
स्वस्थे शरीरे नित्यं स्नात्वा मितं भोक्तव्यं । अच्छे शरीर से रोज नहा के थोड़ा खाना चाहिये ।
जलवायू शुद्धौ सेवनीयौ । पवित्र जल और वायु का सेवन करना चाहिये ।
सर्वर्तुके शुद्धे गृहे निवसनीयम् । जो सब ऋतुओं में सुख देने वाला शुद्ध घर हो उसी में रहना चाहिये ।
नैव केनचिन्मलीनानि वस्त्राणि धार्याणि । किसी को भी मैले कपड़े पहिनने न चाहियें ।
तव का चिकीर्षास्ति ? तेरी क्या करने की इच्छा है ?
गृहं गत्वा भोक्तुम् । घर जाके खाने की ।
त्वं सक्‍तुं भुङ्क्षे न वा ? तू सत्तू खाता है वा नहीं ?
घृतदुग्धमिष्टैः सहा‍ऽद्‍मि । घी, दूध और मीठे के साथ खाता हूं ।
त्वयाम्रफलानि चूषितानि न वा ? तूने आम चूसे वा नहीं ?
उर्वारुकफलान्यत्र मधुराणि जायन्ते । खरबूजे के फल यहां मीठे होते हैं ।
इक्षुभ्यो गुडादिकं निष्पद्यते । ऊख से गुड़ आदि बनाये जाते हैं ।
इदानीमाकण्ठं दुग्धं पीतं मया । इस समय गले तक मैंने दूध पिया ।
तक्रं देहि । मठा दे ।
दुग्धं पिब । दूध पी ।
अत्र श्वेता शर्करा वर्तते । यहां सफेद चीनी है ।
अयं रुच्या दध्नौदनं भुङ्क्‍ते । यह प्रीति से दही के साथ भात खाता है ।
अद्य मोदका भुक्ता न वा ? आज लड्डू खाये वा नहीं ?
त्वया कदाचित्कृशरा भुक्ता न वा ? तूने कभी खिचड़ी खाई है वा नहीं ?
मयाऽपूपा भक्षिताः । मैंने मालपूवे खाये हैं ।
सशर्करं दुग्धं पेयम् । शक्कर के सहित दूध पीना चाहिये ।
येन धर्मः सेव्यते स एव सुखी जायते । जो धर्म का सेवन करता है वही सुखी होता है ।

लेख्यलेखकप्रकरणम्

मनुष्यो लेखाभ्यासं सम्यक् कुर्यात् । मनुष्य लिखने का अभ्यास अच्छे प्रकार करे ।
अयमत्युत्तममक्षरविन्यासं करोति । यह अत्युत्तम अक्षर लिखता है ।
लेखनीं सम्पादय । कलम बनाओ ।
मसीपात्रमानय । दवात ला ।
पुस्तकं लिख । पोथी लिख ।
तत्र पत्रं लिखित्वा प्रेषितं न वा ? वहां चिट्ठी लिखकर भेजी वा नहीं ?
प्रेषितं पञ्च दिनानि व्यतीतानि तस्य प्रत्युत्तरमप्यागतम् । भेजी, पांच दिन बीते, उसका जवाब भी आ गया ।
सुवर्णाक्षराणि लिखितुं जानासि न वा ? सुनहरी अक्षर लिखने जानता है वा नहीं ?
जानामि तु परन्तु सामग्रीसञ्चने लेखने च विलम्बो भवति । जानता तो हूं परन्तु चीज इकट्ठी करने और लिखने में देर होती है ।
यद्यंगुष्ठतर्जनीभ्यां लेखनीं गृहीत्वा मध्यमोपरि संस्थाप्य लिखेत्तर्हि प्रशस्तो लेखो जायेत । पकड़कर बीचली अंगुली पर रखकर लिखे तो बहुत अच्छा लेख होवे ।
अयमतीव शीघ्रं लिखति । यह अत्यन्त शीघ्र लिखता है ।
एतस्य लेखनी मन्दा चलति । इसकी लेखनी धीरे चलती है ।
यदि त्वमेकाहं सततं लिखेस्तर्हि कियतः श्लोकांल्लिखितुं शक्नुयाः ? यदि तू एक दिन निरन्तर लिखे तो कितने श्लोक लिख सके ?
पञ्चशतानि । पांच सौ ।
यदि शिक्षां गृहीत्वा शनैः शनैर्लिखितुम्भ्यस्येत्तर्हाक्षराणां सुन्दरं स्वरूपं स्पष्टता च जायेत । यदि शिक्षा ग्रहण करके धीरे-धीरे लिखने का अभ्यास करे तो अक्षरों का दिव्य स्वरूप और स्पष्टता होवे ।
अस्मिंल्लाक्षारसे कुज्जलं सम्मेलितं न वा? इस लाख के रस में कज्जल मिलाया है वा नहीं ?
मेलितं तु न्यूंनं खलु वर्त्तते । मिलाया तो है परन्तु थोड़ा है ।
मनुष्यैर्यादृशः पठनाभ्यासः क्रियेत तादृश एव लेखनाभ्यासोऽपि कर्त्तव्यः । मनुष्य लोग जैसा पढ़ने का अभ्यास करें वैसा ही लिखने का भी करना चाहिये ।
मया वेदपुस्तकं लेखयितव्यमस्त्येकेन रूप्येण कियतः श्लोकान् दास्यसि ? मुझको वेद का पुस्तक लिखाना है, एक रुपये से कितने श्लोक देगा ?
अत्युत्तमानि ग्रहीष्यसि चेत्तर्हि शतत्रयं मध्यमानि चेच्छतपञ्चकम् । बहुत अच्छे लोगे तो तीन सौ और मध्यम लोगे तो पांच सौ ।
साधारणानि चेत्सहस्रं श्लोकान् दास्यामि । यदि बहुत साधारण वा घटिया लोगे तो हजार श्लोक दूंगा ।
शतत्रयमेव ग्रहीष्यामि परन्त्वत्युत्तमं लिखित्वा दास्यसि चेत् । तीन सौ ही लूंगा परन्तु बहुत अच्छा लिखकर देगा तो ।
वरमेव करिष्यामि । अच्छा ऐसा ही करूंगा ।

मन्तव्यामन्तव्यप्रकरणम्

त्वं जगत्स्रष्टारं सच्चिदानन्दस्वरूपं परमेश्वरं मन्यसे न वा ? तू इस संसार के बनाने वाले सच्चित् और आनन्दस्वरूप परमेश्वर को मानता है वा नहीं ?
अयं नास्तिकत्वात् स्वभावात् सृष्ट्युत्पत्तिं मत्वेश्वरं न स्वीकरोति । यह मनुष्य नास्तिक होने से स्वभाव से सृष्टि की उत्पत्ति को मानकर ईश्वर को नहीं मानता ।
यद्ययं कर्तृकार्यरचकरचनाविशेषान् संसारे निश्चिनुयात्तर्ह्यवश्यं परमात्मनं मन्येत् । जो यह नास्तिक कर्त्ता क्रिया बनानेहारा और बनावट को इस जगत् में निश्चय करे तो अवश्य ईश्वर को माने ।
योऽत्र सृष्टौ रचितरचनां पश्यति स जीवः कार्य्यवत्स्रष्टारं कुतो न मन्येत ? जो इस सृष्टि में बने हुए पदार्थों की बनावट को प्रत्यक्ष देखता है वह जैसे कारीगरी को देख के कारीगर का निश्चय करते हैं वैसे जगत् के बनाने वाले परमात्मा को क्यों न माने ?
यत्रोत्तमा धार्मिका आस्तिका विद्वांसोऽध्यापका उपदेष्टारश्च स्युस्तत्र कोऽपि कदाचिन्नास्तिको भवितुं नैवार्हेत । जहां श्रेष्ठ धर्मात्मा आस्तिक विद्वान् लोग पढ़ाने वाले और उपदेशक हों, वहां कोई भी मनुष्य नास्तिक कभी नहीं हो सकता ।
कैः कर्मभिर्मुक्तिर्भवति तदा क्व वसति तत्र किं भुज्यते च ? किन कर्मों से मुक्ति होती है, उस समय कहां वास करते और वहां क्या भोगते हैं ?
धर्म्यैः कर्मोपासनाविज्ञानैर्मुक्तिर्जायते, तदानीं ब्रह्मणि निवसन्ति परमानन्दं च सेवन्ते । धर्मयुक्त कर्म उपासना और विज्ञान से मोक्ष होता है, उस समय ब्रह्म में युक्त जीव रहते और परम आनन्द का सेवन करते हैं ।
मोक्षं प्राप्य तत्र सदा वसन्त्वाहोस्वित् कदाचित्ततो निवृत्य पुनर्जन्ममरणे प्राप्नुवन्ति ? जीव मुक्ति को प्राप्त होके वहां सदा रहते हैं अथवा कभी वहां से निवृत्त होकर पुनः जन्म और मरण को प्राप्त होते हैं ?
प्राप्तमोक्षा जीवास्तत्र सर्वदा न वसन्ति, किन्तु महाकल्पपर्यन्तमर्थाद् ब्राह्ममायुर्यावत्तावत्त्त्रोषित्वाऽऽनन्दं भुक्तवा पुनर्जन्ममरणे प्राप्नुवन्त्येव । मुक्ति को प्राप्त हुए जीव वहां सर्वदा नहीं रहते, किन्तु जितना ब्राह्म कल्प का परिमाण है उतने समय तक ब्रह्म में वास कर आनन्द भोग के फिर जन्म और मरण को अवश्य प्राप्त होते हैं ।


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना निर्मितः संस्कृतवाक्यप्रबोधनामको निबन्धः समाप्‍तः॥

यह भी देखें

Sanskrit Language



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