Varik

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Varik (वरिक) Varika (वरिक) Varak (वरक)[1][2] is gotra of Jats found in Uttar Pradesh, Haryana and Punjab. It is same as Virk.

Origin

This gotra is said to be associated with king of the name Varika Vardhana (वरिक वर्धन). Maharaja Vishnuvardhana was of Varik Jat clan. They have also been mentioned as Vrikka (वृक्क) Nagavanshi. [3]

History

Mahabhasya mentions Vrika and its derivative Varkenya, the Varkan of the Persians, and Hyrcan of the Greeks. The Caspian sea was once called the Sea of Vrkans (Hyrcanian). The identification of Hyrcan with Varkan has also been mentioned by Rawlinson in his History of Herodotus, he mentions that even in the thirteenth century, their country in Central Asian was mentioned as Urkanich in Yakut. According to Herodotus they fought in the battle of Thermopylae under their leader named Megapanus, who was afterwards Satrap of Babylonia. [4] They are one of the earliest clans too enter India, and up to the sixth century A.D. at least they were ruling in Malwa under their king Vishnuvardhana, Vrik. The Vriks are remembered in the Brahma, Vaman and Markandeya Puranas. Their antiquity goes very much deep in the past. A country called Uruk / Wark is mentioned in Sumeria, along with a country called Gutium. In fact, Trigan, the last Gutian King in the twenty-second century B.C. was defeated by Utu-Khegal, the ruler of Wark country. It is possible that this country has been named after them. The word Vrik in Sanskrit means a wolf the same as Russian Volka, which also means the same. The river Volga is named after [5] In the Kushana period an officer of Vima Kadphises was a Vrika, according to K.P.Jayaswa. [6]

Bhim Singh Dahiya has mentioned about a Rigvedic tribe - Vrika : a prince named Dasyave Vrika is mentioned in Rigveda (Vlll/51/2, Vlll/55/1 Vlll/56/1 etc.) They are to be identified with the Virk clan of the Jats and also with the Virk people of Iranian history who gave their name to the province of Varkania /Hyrcania in Iran.

In Rajatarangini

Rajatarangini[7] mentions that The king Sussala sent three confidential ministers to bring Prithvihara to the neighbourhood of Nagamatha, but he came and treacherously murdered them. Mammaka, son of the nurse, Ganga and Dvijarāma the Vārika, and their three servants were murdered by the side of Tilakasimha. (p.67)

वाह्लीक-वाहिक-वरिक जाटवंश

दलीप सिंह अहलावत[8] लिखते हैं -

यह चन्द्रवंशी जाटवंश प्राचीन काल से है। रामायणकाल में इस वंश के देश व राज्य का वर्णन मिलता है। सीता जी की खोज के लिए सुग्रीव ने वानरसेना को पश्चिम दिशा में वाह्लीक देश में भी जाने का आदेश दिया था (वा० रा० किष्किन्धाकाण्ड, 42वां सर्ग)। ठा० देशराज ने जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 111 पर लिखा है कि “महाभारत के अनुसार ये वाह्लीक लोग शान्तनु के भाई वाह्लीक की संतान हैं।” परन्तु यह वाह्लीक वंश तो रामायणकाल में अपने देश वाह्लीक पर राज्य कर रहा था। हमारा यह मत है कि चन्द्रवंशी सम्राट् शान्तनु के भाई राजा वाह्लीक के नाम पर चन्द्रवंशी क्षत्रिय आर्यों का एक संघ बना और वह वाह्लीक वंश कहलाया जो कि प्राचीन वाह्लीक वंश के साथ मिल गया। इस कारण महाभारतकाल में इस वंश की शक्ति बढ़ गई थी। महाभारत के अनुसार वाहिक या वरिक जनपद मद्रराज्य के अन्तर्गत था। वाहिक वंश का राज्य अलग था। परन्तु मद्रराज शल्य इनसे छठा भाग ‘कर’ (टैक्स) लेता था। इस वाहिक जनपद की परिधि वर्तमान शेखूपुरा, लायलपुर, गुजरांवाला (सब पाकिस्तान में) मानी जाती है। ‘आराट’ नामक दुर्ग इसके राज्य का केन्द्र था। कर्णपर्व 27-54 के अनुसार कारस्कर, महिषक, करम्भ, कटकालिक, कर्कर और वारिक नामक प्रसिद्ध नगर इस जनपद में थे। इस जनपद का शासक चन्द्रवंशी वरिकवर्द्धन था।

वाहिकवंश से वरिक कहलाना - वरिकवर्द्धन के नाम पर यह वाहिकवंश, वरिक भी कहलाने लगा। इस राजा के अधीन 12 सुदृढ़ दुर्ग थे जिनका उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी,


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-259


महाभाष्य और काशिकावृत्ति में इस प्रकार किया है - आरान, कास्तीर, दासरूप (मन्दसौर), शाकल (सियालकोट), सौसुक, पातानप्रस्थ, नंदिपुर, कौक्कुण्डीवा, मोला, देवदत्त, कर्कर और वरिकगढ़। यह प्राचीन वरिकगढ़ वर्तमान शेखूपुरा ही माना गया है। (जाटों का उत्कर्ष पृ० 306, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास उर्दू पृ० 420, लेखक ठा० संसारसिंह)।

युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में वाह्लीक नरेश ने बहुत धन भेंट किया (सभापर्व, 52वां अध्याय) और युधिष्ठिर के अभिषेक के लिए वाह्लीक नरेश सुवर्ण से सजाया हुआ रथ ले गया (सभापर्व 53वां अध्याय)। महाभारत युद्ध में वाह्लीक वीरों ने पाण्डवों व कौरवों दोनों की ओर युद्ध किया।

वाह्लीक पाण्डवों की ओर होकर लड़े (भीष्मपर्व 49वां अध्याय श्लोक 52-53)| और वाह्लीक नरेश तथा अन्य देशों के नरेशगण ने अर्जुन पर धावा किया (भीष्मपर्व 117वां अध्याय, श्लोक 32-34)। इसी तरह द्रोणपर्व के अनुसार अभिमन्यु के व्यूह में प्रवेश के समय वाह्लीक वीर दुर्योधन की ओर थे। सम्भवतः इस वाह्लीकवंश के दो जनपद हों या ये लोग इस युद्ध में दो भागों में बंटकर दोनों ओर से लड़े हों। कर्नल टॉड ने लिखा है कि “जैसलमेर के इतिहास से पता चलता है कि हिन्दू जाति के वाह्लीक खानदान ने महाभारत के पश्चात् खुरासान में राज्य किया।”

वरिक विष्णुवर्धन विजयस्तम्भ- ग्यारहवीं शताब्दी में भरतपुर के बयाना शहर से तीन मील पर महाराजा विजयपाल ने विजय मन्द्रिगढ नामक किला बनवाया था। उस भूमि पर प्राचीनकाल से ही एक यज्ञस्तम्भ विद्यमान था जिसका नाम वरिक विष्णुवर्धन विजयस्तम्भ है। उस पर लिखा है कि “व्याघ्ररात के प्रपौत्र, यशोरात्र के पौत्र और यशोवर्द्धन मे पुत्र वरिक राजा विष्णुवर्द्धन ने पुण्डरीक (शुभ) यज्ञ की याद में यह यज्ञस्तम्भ विक्रम संवत् 528 फाल्गुन बदी 5 को स्थापित किया।”

महाराज विष्णुवर्धन वरिकवंश (गोत्र) के जाट थे। बयाना में जो उनका विजयस्तम्भ है उस पर उनका पुत्र वरिकविष्णुवर्धन लिखा हुआ है। (व्रजेन्द्र वंश भास्कर में बयाना के वर्णन के हवाले से, जाट इतिहास पृ० 703 लेखक ठा० देशराज)। सी० वी० वैद्य ने महाराज विष्णुवर्धन के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक “हिन्दू मिडीवल इण्डिया” में लिखा है कि -

“मोलायो या पश्चिमी मालवा का राज्य मन्दसौर के शिलालेख वाले यशोधर्मन व विष्णुवर्धन के अधिकार में था। यशोधर्मन की महान् वीरता का काम यह था कि उसने मिहिरकुल हूण को जीत लिया था। चन्द्र के व्याकरण के अनुसार अजयज्जर्टो हूणान् जाटों ने हूणों को जीत लिया था। इस वाक्य का प्रयोग यशोधर्मन के लिए किया है जो कि पंजाब का जर्ट या जाट था। पंजाब से जाट लोग हूणों के धावों से बचने के लिए मालवा में जा बसे। यशोधर्मन के आधिपत्य में सन् 528 ई० में इन जाटों ने हूणों को पूर्ण रूप से हरा दिया जो कि उनकी मातृभूमि पंजाब पर अत्याचार कर रहे थे।”

इस वंश के जाट नरेशों का शासनकाल सन् 340 ई० से आरम्भ हुआ और लगभग 540 ई० में समाप्त हो गया। जिस समय उज्जैन में गुप्त राजाओं का शासन था, उसी समय मन्दसौर में इनका भी राज्य था। इनमें से एक दो नरेश तो गुप्तों के मांडलिक भी रहे। इस

वरिक राजवंश की सूची - वरिक राजवंश की सूची निम्न प्रकार है -

इस वंश का पहला शासक नरेन्द्र राजा जयवर्मा मन्दसौर में शासन करता था। इसका पुत्र


1. जाटों का उत्कर्ष पृ० 306 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-260


  • बन्धुवर्मा जो कि सम्राट् स्कन्धगुप्त का समकालीन था, यशोधर्मा की हूण विजय से लगभग 80-90 वर्ष पहले मालवा के पश्चिमी हिस्से अर्थात् मन्दसौर का शासक था। मन्दसौर में उसके समय के एक शिलालेख पर लिखा है कि बन्धुवर्मा ने मन्दसौर में रेशम के कारीगरों के बनवाये हुए एक सूर्यमन्दिर की संवत् 530 (सन् 473 ई०) में मरम्मत कराई थी। अर्थात् बन्धुवर्मा दशपुर (मन्दसौर) में सन् 473 ई० तक मौजूद था। (जाट इतिहास पृ० 705-706, ले० ठा० देशराज)।
  • विष्णुवर्धन जिसने बयाना में संवत् 528 (सन् 471 ई०) में विजयस्तम्भ खड़ा किया था, बन्धुवर्मा के पश्चात् मन्दसौर का शासक हुआ। इससे ज्ञात होता है कि मन्दसौर से बयाना तक के प्रान्त उसके अधिकार में थे। बन्धुवर्मा से मिले हुए राज्य को थोड़े ही समय में विष्णुवर्धन व उसके पुत्र यशोधर्मा ने इतना विस्तृत कर दिया था जिसके कारण विष्णुवर्धन ने महाराजाधिराज और यशोधर्मा ने सम्राट् व विक्रमादित्य की पदवी धारण की थी। (काशी नागरीप्रचारिणी पत्रिका, भाग 12, अंक 3, पृ० 342)।

यशोधर्मा - यह अपने पिता विष्णुवर्धन की मृत्यु के पश्चात् मालवा का सम्राट् बना। इसके समय में हूणों का सम्राट् मिहिरकुल सिंध, पंजाब राजस्थान का शासक था जिसकी राजधानी सियालकोट थी। मिहिरकुल के अत्याचारों से भारतवासी कांप गये थे। इसने मालवा पर आक्रमण कर दिया। सम्राट् वीर योद्धा यशोधर्मा ने सन् 528 ई० में मिहिरकुल से टक्कर ली और उसको बुरी तरह हराया।

सम्राट् यशोधर्मा ने मिहिरकुल को कैद कर लिया था परन्तु बाद में उनको छोड़ दिया गया1। मि० एलन लिखते हैं कि बालादित्य ने तो केवल मगध की रक्षा की, परन्तु अन्त में यशोधर्मा ने ही मिहिरकुल को पूर्णतया परास्त करके कैद कर लिया। “अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया” के पृ० 318-319 में मि० विन्सेन्ट स्मिथ ने भी इस बात का समर्थन किया है कि यशोधर्मा ने मिहिरकुल को कैद कर लिया था। इस युद्ध के समय यशोधर्मा की अध्यक्षता में उज्जैन का धारणगोत्री जाट राजा बालादित्य एवं मगध का राजा भी शरीक हुए थे। (जाट इतिहास पृ० 708, लेखक ठा० देशराज)। इनके अतिरिक्त हरयाणा सर्वखाप पंचायत की ओर से काफी धनराशि और कई हजार वीर योद्धा यशोधर्मा की मदद में भेजे गये थे। (जाट इतिहास पृ० 5, लेखक ले० रामसरूप जून; हरयाणा सर्वखाप पंचायत के रिकार्ड से, जो चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत के घर शोरम जि०


1. हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 316; जाट इतिहास पृ० 708, लेखक ठा० देशराज।


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मुजफ्फरनगर में है)। इस युद्ध में यशोधर्मा ने मिहिरकुल की सेना शक्ति को ऐसा कुचल दिया कि मिहिरकुल कश्मीर में जाकर रुका। यशोधर्मा के समय के तीन शिलालेख मालव संवत् 589 (सन् 532 ई०) के लिखे हुए मन्दसौर में पाये गये हैं1। इनके लेख निम्न प्रकार से हैं –

  1. “प्रबल पराक्रमी गुप्त राजाओं ने भी जिन प्रदेशों को नहीं भोगा था और न अतिबली हूण राजाओं की ही आज्ञाओं का जहां तक प्रवेश हुआ था, ऐसे प्रदेशों पर भी वरिकवंशी महाराज यशोधर्मा का राज्य है।”
  2. “पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में समुद्र तक और उत्तर में हिमालय से दक्षिण में महेन्द्र पर्वत तक के सामन्त मुकुट मणियों से सुशोभित अपने सिर को सम्राट् यशोधर्मा के चरणों में नवाते हैं।”
  3. अर्थात् यशोधर्मा के चरणकमलों में हूणों के प्रतापी सरदार मिहिरकुल को भी झुकना पड़ा।

इस प्रकार के शिलालेखों के आधार पर सम्राट् यशोधर्मा ने विक्रमादित्य की उपाधि भी धारण की थी2। इसका उल्लेख कल्हण की राजतरंगिणी में भी मिलता है। कल्हण ने इसी सम्राट् के अधीन महाकवि कालिदास का होना लिखा है। यह भी मत है कि इसी सम्राट् यशोधर्मा ने मालव संवत् को विक्रम संवत् के नाम पर प्रचलित किया। कल्हण ने तीन कालिदासों का वर्णन किया है। यह कालिदास जिसने कि ‘रघुवंश’ और ‘ज्योतिरविदाभरण’ आदि ग्रन्थ लिखे हैं, महाराज यशोधर्मा की सभा का एक रत्न था। रघुवंश में राजा रघु की दिग्विजय के वर्णन को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि महाराज यशोधर्मा ने किस भांति से किन-किन देशों को विजय किया था। कालिदास ने महाराज यशोधर्मा की ही विजय को रघु-दिग्विजय का रूप दिया है। इस सम्राट् का राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में ट्रावनकोर तक फैल गया था। मगध का राजा इसका मित्र बन गया था। (जाट इतिहास पृ० 708-709, लेखक ठा० देशराज)

महाराज यशोधर्मा के पुत्र शिलादित्य उपनाम हर्ष ने मालवा का राज्य सम्भाला परन्तु वह जल्दी ही पराजित होकर कश्मीर भाग गया। (सी० वी० वैद्य, हिन्दू मिडीवल इण्डिया)। सन् 540 ई० के लगभग कश्मीर के राज प्रवरसेन ने इसको फिर से राजा बना दिया। (जाट इतिहास पृ० 709, ठा० देशराज)। ध्यान रहे कि यह हर्ष (वरिक जाट) सम्राट् हर्षवर्धन (वैस जाट) से पृथक् व्यक्ति था। मालवा से वरिकवंशी जाट राज्य लगभग 540 ई० में समाप्त हो गया। इसके बाद मालवा में वरिकवंशी जाटों के पास कोई बड़ा राज्य न रहा। फिर भी वे जहां-तहां कई-कई गांव के छोटे-छोटे जनपदों के अधीश्वर बहुत समय तक बने रहे थे। मुसलमानी सल्तनत के भारत में आने के समय तक इन्होंने मालवा में पंचायती और भौमियाचारे के ढंगों से राज-सुख भोगा था। गुरु गोविन्दसिंह जी जब 1706 में मालवा के दीना गांव में ठहरे थे, तब तक मालवा का कुछ भाग वरिकवंशी जाटों द्वारा शासित होना ‘इतिहास गुरुखालसा’ में लिखा है। वहां पर चौ० लखमीर ने गुरु गोविन्दसिंह जी को अपने गढ़ में ठहराया था। आज उस स्थान पर लोहगढ़ नाम का गुरुद्वारा है। (इतिहास गुरु खालसा साधु गुरु गोविन्तसिंह द्वारा लिखित)। वहां के लोगों ने


1. मन्दसौर से 3 मील दूर लाल पत्थर की दो साठ-साठ फुट ऊंची और बीस-बीस फुट मोटी (गोल) लाटें आज भी पड़ी हुई हैं जिन पर उपर्युक्त लेख लिखे हुये हैं।
2. भारत के प्राचीन राज्य वंश भाग 2.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-262


आप को बहुत अस्त्र शस्त्र और धन दिया जिससे गुरु जी के पास शाही ठाठ हो गये थे।

इस वरिकवंश के लोग वैदिकधर्मी थे। इनकी संख्या पंजाब में बहुत है। वहां पर ये लोग सिख धर्मी हैं और जाति से वरिक जाट हैं। पंजाब में इस वंश की दो मिस्लें थीं। कपूरसिंह वरिक जाट ने रियासत कपूरथला की स्थापना की थी। मनौली, झुनगा, भरतगढ़, धनौरी और कण्डौला नामक रियासतें (बाद में जागीरें) भी इसी वंश की थीं।

यू० पी० में वरिक का अपभ्रंश बूरे के नाम पर वे क्षत्रिय प्रसिद्ध हुए जो पंजाब से पूर्व की ओर बढे।

बुलन्दशहर जिले में इन्होंने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। यहां सैदपुर, सेहरा, सीही, बनबोई, भिरावठी, पाली, भमरौली, पसौली, बरकातपुर, फतहपुर, तेजगढ़ी, लाठौर, घंसूपुर, परतापुर, रमपुरा, नगला मदारीपुर आदि गांव वरिक जाटों के हैं। इनके पूर्वज भटिण्डा से हिसार आये और फिर हिसार के दो गांव गुराना और भदौड़ से इधर आये। इस वंश के लोगों ने सर्वप्रथम लखावटी कालेज प्रारम्भ करके हिन्दू जाटों में शिक्षा के प्रति भारी प्रेम उत्पन्न किया। इस वंश के लोग पाकिस्तान के शेखूपुरा में बड़ी संख्या में और उसके चारों ओर बसे हुए हैं जो मुसलमान जाट हैं।

जिस तरह वरिक का अपभ्रंश बूरे (बूरा) है वैसे ही इन लोगों को कई स्थानों पर विर्क, वृक, वरक कहा जाता है।

वरिकवंश का शाखागोत्र - 1. बूरे या बूरा

Varik Khap

Varik Khap has 20 villages in Bulandshahr district in Uttar Pradesh. Main villages in Bulandshahr district are Saidpur (सैदपुर) , Sehra (सेहरा), Sihi (सीही), Pali (पाली), Bhamrauli (भामरौली), Pasauli (पसौली) . Jat Gotra - varik. This khap has villages in Hisar district - Gurana (गुराना) , Bhadaud (भदौड़) . In Punjab Kapurthala (कपूरथला) , Jhunga (झुनगा) , Bharatgarh (भरतगढ) , Dhanauri (धनौरी) , and Kandaula (कंदौला) jagirs were of this khap people.[9]

वरिक खाप

67. वरिक खाप - इस खाद के जनपद बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) में करीब 20 गांव हैं जिनमें सैदपुर, सेहरा, सीही, पाली, भामरौली, पसौली आदि प्रमुख गांव हैं. इसी खाप के जनपद हिसार (हरियाणा) में गुराना और भदौड़ गांव हैं. पंजाब में कपूरथला, मनौली, झुनगा, भरतगढ़, धनौरी और कंडोला नामक जागीरें भी इसी वरिक खाप के लोगों से संबंधित थीं. [10]

विक्रमादित्य

डॉ. धर्मचंद्र विद्यालंकार[11] ने लिखा है....प्रथम विक्रमादित्य सहसांक संभवत: पंजाब के वारिक् या औलख जैसे ही वंश का वीर व्यक्ति था. उसी ने विक्रमादित्य का वरणीय विरुद्ध अपनी शक विजय के उपरांत उपलब्ध किया था. उसी ने उसी उपलक्ष्य में विक्रमी संवत का भी पावन प्रचलन किया था. बल्कि मालवगण का ही वीर वंशज शासक होने के कारण उसने आरंभ में उसका नामकरण भी मालव-संवत ही किया था. भगवती पुरोहित जैसे पुरातत्ववेत्ता विद्वान् भी हमारे उपर्युक्त अभिमत से सहमत हैं.

Distribution in Uttar Pradesh

Villages in Meerut district

Ramraj,

Villages in Bulandshahr district

Ghansoorpur Bulandshahar

References


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