anujkumar
April 18th, 2006, 04:44 PM
उत्तर प्रदेश के मुज़्जफर नगर शहर के एक रेस्तरां मे जब बुर्के में लिपटी लगभग पैंतीस साल की आमना से मुलाकात हुई तो अंदाज़ा नही था कि उसके पास जीने का बस एक ही मकसद बाकी है.
आमना ने बताया कि उसने अपने पति के मर्जी के खिलाफ जायदाद मे अपना हिस्सा बेच दिया ताकि उसकी तेरह साल की मानसिक रूप से कमजोर बेटी का इलाज हो सके.
http://www.bbc.co.uk/worldservice/images/2005/09/20050930124910rupa1203.jpg
उसके गांव बुढाना की जाति पंचायत ने उसके ससुराल वालो के साथ मिलकर फैसला लिया कि ये हिमाकत थी और परिवार समुदाय की इज़्ज़त और तौर तरीको के साथ खिलवाड.
आमना को इसकी सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए.आमना को न केवल बुरी तरह पीटा गया बल्कि ईंटो से उसकी दोनो टांगे भी तोड़ दी गई.
आमना अभी अपने मायके मे है लेकिन ‘अस्तित्व’ नाम की एक निजी संस्था के सहयोग के साथ अपनी लडाई भी लड रही है.
पाकिस्तान की बसरी अपने पति, परिवार और पंचायत के फैसले के बाद पिछले आठ सालो से घर वापसी की राह तक रही है.
उनका कसूर सिर्फ इतना था कि पति के जुल्म से परेशान होकर वो घर से भाग निकली और उन्हे पंचायत ने ‘कारी’ का नाम दिया.
कारी माने काले चरित्र वाली औरत और वैसी औरतो को दोबारा इलाके मे आने की मनाही है.उनकी सजा मौत तय की गई है.
क़ानूनी पहलू
जो कानून के रखवाले है वे इन पंचायतो के खिलाफ तो खड़े नही ही होते है कई बार उन्हे सरंक्षण भी देते है
अस्मां जहांगीर
1993 में भारतीय संविधान के 73 वें संशोधन को लागू करके पंचायती राज को सांविधानिक दर्जा दिया गया और पाकिस्तान में भी 1960 के दशक से स्थानीय स्तर पर प्रशासन प्रणाली को मज़बूत करने की कोशिश की गई.
लेकिन जब मैंने भारत और पाकिस्तान के कुछ ग्रामिण इलाकों का दौरा किया तो पाया कि कई गांवों में आम लोगों की, ख़ास तौर पर महिलाओं की ज़िंदगियां सांविधानिक ग्राम पंचायतें नहीं बल्कि ऐसी जातिगत पंचायतें या कबाइली जिरगे नियंत्रित कर रहे हैं जिनका कोई कानूनी वजूद नहीं.
फिर इन्हें ताक़त कहां से मिलती है. राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता बृंदा करात मानती है कि इन पंचायतो को ताकत उन इलाको मे मौजूद राजनैतिक पार्टियो से मिलती है जो जाति और धर्म की राजनीति कर कुर्सी तक पहुचने का अपना रास्ता आसान बनाना चाहती है.और इस तरह की पंचायतो के फैसलो को चुनौती नही देना चाहती.
आमना की कहानी बसरी से जुदा नहीं है
भारतीय पक्ष
इन ग़ैर कानूनी पंचायतों के ज्यादातर फ़ैसले, इज्जत की इनकी परिभाषा और रूढ़ीवादी सोच पर आधारित होते हैं.
पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की अध्यक्ष अस्मा जहांगीर कहती हैं यह समस्या गंभीर होती जा रही है क्योकि देश में कानून की मजबूत पकड़ नही है.जो कानून के रखवाले है वे इन पंचायतो के खिलाफ तो खड़े नही ही होते है कई बार उन्हे सरंक्षण भी देते है.
चूंकि ऐसे कई मामले मीडिया या पुलिस तक नहीं पहुंचते इन संख्याओं पर सटीक तरीके से उंगली रख पाना मुश्किल है और भारत में भी स्थिति ख़ास अलग नही है.
भारत में राष्ट्रीय महिला अधिकार आयोग की अध्यक्षा गिरिजा व्यास इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानती हैं.वे कहती है कि आज़ादी के इतने बरस बाद ये गैरकानूनी पचायते ज्यादा मजबूत होकर सामने आ रही है और महिलाओ के खिलाफ जो फैसले ले रही है वे अत्याचार की इंतहा है.
मगर गिरिजा व्यास जिस सरकार का ध्यान इस समस्या की ओर खींचने की बात कर रही हैं वो इसे समस्या मानने तक को राज़ी नहीं लगती.
पंचायती राजमंत्रि मणिशंकर अय्यर पूरे मामले को मीडिया की शरारत से ज़्यादा नहीं मानते.
वे कहते है कि भारत में छ लाख गांव है और कुल मिलाकर छ से दस ऐसे मामले होते है इससे ये बात कहना अतिश्योक्ति होगी कि ये गैरकानूनी पचाँयते मजबूत स्थिती मे है.
पाकिस्तान अलग नहीं
उधर पाकिस्तान की ओर नज़र डालें तो ना केवल वहां के कुछ राजनयिक इसे समस्या नहीं मानते बल्कि जिरगाओं को देश की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा मानते हैं और उसकी प्रासंगिकता की जम कर हिमायत करते हैं.
सरदार मंसूर अली पंवर सिंध सरकार में मंत्रि हैं और एक जिरगा के प्रमुख भी.. वे कहते हैं कि पाकिस्तान में न्यायपालिका इतनी देरी से फैसले सुनाती है कि उस न्याय का कोई फायदा नही होता.
इन जिरगाओ मे पीड़ित व्यक्ति को खुद अपने हाथो से गुनाहगार को सजा देने की सुविधा होती है.
पाकिस्तान की जिरगाएं हो या भारत की जाति पंचायतें यहां के नब्बे प्रतिशत फ़ैसले महिलाओं के ख़िलाफ़ रहे हैं लेकिन इनमें महिलाओं की भागीदारी पर पाबंदी है.
पाकिस्तान सिंध हाईकोर्ट के एक पूर्व न्यायधीश नासिर अस्लम इसे विडंबना समझते हैं. उनका मानना है कि अगर महिलाए यहाँ पेश नही हो सकती तो फिर उनके मामले भी इन जिरगाओ मे तय नही होना चाहिए.
पर इन पंचायतो और जिरगाओ मे महिलाओ की गैरमौजूदगी को परंपरा से जोड़कर अपनी दलीले पेश करते हुए हरियाणा की जाति पंचायत के एक सदस्य दिलवाल सिंह कहते है कि परंपरा के अनुसार जहाँ पुरूष मौजूद हो वहाँ महिलाओ को नही मौजूद होना चाहिए.
वो कहते हैं " औरतो मे सूझबूझ की भी कमी होती है . वे दकियानूसी होती है और जब उनके परिवार के पुरुषो को पंचायतो के फैसलो से एतराज़ नही तो उन्हे क्यो होना चाहिए."
इन जाति पंचायतों के हिमायती धार्मिक सोच को किसी भी न्याय प्रणाली से बढ़ कर मानते हैं. क्या उनके द्वारा लिए गए फैसले एक व्यक्ति के मूल अधिकार और आज़ादी के खिलाफ नही जाते.
ये पूछे जाने पर आळ इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य कमाल फ़ारूकी इस आजादी की परिकल्पना को पश्चिमी सभ्यता का चोंचला बताते है .
कई न्यायविद और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि गैरकानूनी पंचायतों का प्रभाव रोकने का एक मात्र तरीका है न्यायपालिका में व्यापक सुधार.
कुछ लोग मानते हैं कि सिर्फ सुधार काफ़ी नहीं बल्कि न्याय पाने की प्रक्रिया को सस्ता बनाने की भी ज़रूरत है ताकि वो ग़रीबों की पहुंच के भीतर रहे.
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण इसी बात की हिमायत करते हुए कहते है कि ये गैरकानूनी इकाई तब तक नही टूटेंगी जब तक की सांवैधानिक ईकाइयो की पंहुच हर आम आदमी तक नही होती.
इन जाति पंचायतों के फ़ैसले से प्रभावित हुई सोनिया रामपाल, मुख़्तार मई और आमना जैसी कई महिलाएं भी हैं चींटी की चाल चलने वाले परिवर्तनों का इंतज़ार किए बिना अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं.
इन औरतों की लड़ाई ने इन ग़ैर कानूनी पंचायतों के मुखियाओं को यह मानने पर मजबूर ज़रूर किया है कि उनसे ग़लतियां होती हैं, लेकिन हरियाणा के अस्सी गांवों की जाति पंचायत के प्रमुख रिसाल सिंह के पास अपनी ग़लतियों की भी दलील है.
किसी भूले बिसरे शायर की इस पंक्ति का सहारा लेते हुए वे अपनी बात पूरी करते है. ‘इस सादगी से कही खुदा न बन जाऊँ इसीलिए एहतियातन गुनाह करता हूँ’’
आमना ने बताया कि उसने अपने पति के मर्जी के खिलाफ जायदाद मे अपना हिस्सा बेच दिया ताकि उसकी तेरह साल की मानसिक रूप से कमजोर बेटी का इलाज हो सके.
http://www.bbc.co.uk/worldservice/images/2005/09/20050930124910rupa1203.jpg
उसके गांव बुढाना की जाति पंचायत ने उसके ससुराल वालो के साथ मिलकर फैसला लिया कि ये हिमाकत थी और परिवार समुदाय की इज़्ज़त और तौर तरीको के साथ खिलवाड.
आमना को इसकी सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए.आमना को न केवल बुरी तरह पीटा गया बल्कि ईंटो से उसकी दोनो टांगे भी तोड़ दी गई.
आमना अभी अपने मायके मे है लेकिन ‘अस्तित्व’ नाम की एक निजी संस्था के सहयोग के साथ अपनी लडाई भी लड रही है.
पाकिस्तान की बसरी अपने पति, परिवार और पंचायत के फैसले के बाद पिछले आठ सालो से घर वापसी की राह तक रही है.
उनका कसूर सिर्फ इतना था कि पति के जुल्म से परेशान होकर वो घर से भाग निकली और उन्हे पंचायत ने ‘कारी’ का नाम दिया.
कारी माने काले चरित्र वाली औरत और वैसी औरतो को दोबारा इलाके मे आने की मनाही है.उनकी सजा मौत तय की गई है.
क़ानूनी पहलू
जो कानून के रखवाले है वे इन पंचायतो के खिलाफ तो खड़े नही ही होते है कई बार उन्हे सरंक्षण भी देते है
अस्मां जहांगीर
1993 में भारतीय संविधान के 73 वें संशोधन को लागू करके पंचायती राज को सांविधानिक दर्जा दिया गया और पाकिस्तान में भी 1960 के दशक से स्थानीय स्तर पर प्रशासन प्रणाली को मज़बूत करने की कोशिश की गई.
लेकिन जब मैंने भारत और पाकिस्तान के कुछ ग्रामिण इलाकों का दौरा किया तो पाया कि कई गांवों में आम लोगों की, ख़ास तौर पर महिलाओं की ज़िंदगियां सांविधानिक ग्राम पंचायतें नहीं बल्कि ऐसी जातिगत पंचायतें या कबाइली जिरगे नियंत्रित कर रहे हैं जिनका कोई कानूनी वजूद नहीं.
फिर इन्हें ताक़त कहां से मिलती है. राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता बृंदा करात मानती है कि इन पंचायतो को ताकत उन इलाको मे मौजूद राजनैतिक पार्टियो से मिलती है जो जाति और धर्म की राजनीति कर कुर्सी तक पहुचने का अपना रास्ता आसान बनाना चाहती है.और इस तरह की पंचायतो के फैसलो को चुनौती नही देना चाहती.
आमना की कहानी बसरी से जुदा नहीं है
भारतीय पक्ष
इन ग़ैर कानूनी पंचायतों के ज्यादातर फ़ैसले, इज्जत की इनकी परिभाषा और रूढ़ीवादी सोच पर आधारित होते हैं.
पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की अध्यक्ष अस्मा जहांगीर कहती हैं यह समस्या गंभीर होती जा रही है क्योकि देश में कानून की मजबूत पकड़ नही है.जो कानून के रखवाले है वे इन पंचायतो के खिलाफ तो खड़े नही ही होते है कई बार उन्हे सरंक्षण भी देते है.
चूंकि ऐसे कई मामले मीडिया या पुलिस तक नहीं पहुंचते इन संख्याओं पर सटीक तरीके से उंगली रख पाना मुश्किल है और भारत में भी स्थिति ख़ास अलग नही है.
भारत में राष्ट्रीय महिला अधिकार आयोग की अध्यक्षा गिरिजा व्यास इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानती हैं.वे कहती है कि आज़ादी के इतने बरस बाद ये गैरकानूनी पचायते ज्यादा मजबूत होकर सामने आ रही है और महिलाओ के खिलाफ जो फैसले ले रही है वे अत्याचार की इंतहा है.
मगर गिरिजा व्यास जिस सरकार का ध्यान इस समस्या की ओर खींचने की बात कर रही हैं वो इसे समस्या मानने तक को राज़ी नहीं लगती.
पंचायती राजमंत्रि मणिशंकर अय्यर पूरे मामले को मीडिया की शरारत से ज़्यादा नहीं मानते.
वे कहते है कि भारत में छ लाख गांव है और कुल मिलाकर छ से दस ऐसे मामले होते है इससे ये बात कहना अतिश्योक्ति होगी कि ये गैरकानूनी पचाँयते मजबूत स्थिती मे है.
पाकिस्तान अलग नहीं
उधर पाकिस्तान की ओर नज़र डालें तो ना केवल वहां के कुछ राजनयिक इसे समस्या नहीं मानते बल्कि जिरगाओं को देश की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा मानते हैं और उसकी प्रासंगिकता की जम कर हिमायत करते हैं.
सरदार मंसूर अली पंवर सिंध सरकार में मंत्रि हैं और एक जिरगा के प्रमुख भी.. वे कहते हैं कि पाकिस्तान में न्यायपालिका इतनी देरी से फैसले सुनाती है कि उस न्याय का कोई फायदा नही होता.
इन जिरगाओ मे पीड़ित व्यक्ति को खुद अपने हाथो से गुनाहगार को सजा देने की सुविधा होती है.
पाकिस्तान की जिरगाएं हो या भारत की जाति पंचायतें यहां के नब्बे प्रतिशत फ़ैसले महिलाओं के ख़िलाफ़ रहे हैं लेकिन इनमें महिलाओं की भागीदारी पर पाबंदी है.
पाकिस्तान सिंध हाईकोर्ट के एक पूर्व न्यायधीश नासिर अस्लम इसे विडंबना समझते हैं. उनका मानना है कि अगर महिलाए यहाँ पेश नही हो सकती तो फिर उनके मामले भी इन जिरगाओ मे तय नही होना चाहिए.
पर इन पंचायतो और जिरगाओ मे महिलाओ की गैरमौजूदगी को परंपरा से जोड़कर अपनी दलीले पेश करते हुए हरियाणा की जाति पंचायत के एक सदस्य दिलवाल सिंह कहते है कि परंपरा के अनुसार जहाँ पुरूष मौजूद हो वहाँ महिलाओ को नही मौजूद होना चाहिए.
वो कहते हैं " औरतो मे सूझबूझ की भी कमी होती है . वे दकियानूसी होती है और जब उनके परिवार के पुरुषो को पंचायतो के फैसलो से एतराज़ नही तो उन्हे क्यो होना चाहिए."
इन जाति पंचायतों के हिमायती धार्मिक सोच को किसी भी न्याय प्रणाली से बढ़ कर मानते हैं. क्या उनके द्वारा लिए गए फैसले एक व्यक्ति के मूल अधिकार और आज़ादी के खिलाफ नही जाते.
ये पूछे जाने पर आळ इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य कमाल फ़ारूकी इस आजादी की परिकल्पना को पश्चिमी सभ्यता का चोंचला बताते है .
कई न्यायविद और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि गैरकानूनी पंचायतों का प्रभाव रोकने का एक मात्र तरीका है न्यायपालिका में व्यापक सुधार.
कुछ लोग मानते हैं कि सिर्फ सुधार काफ़ी नहीं बल्कि न्याय पाने की प्रक्रिया को सस्ता बनाने की भी ज़रूरत है ताकि वो ग़रीबों की पहुंच के भीतर रहे.
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण इसी बात की हिमायत करते हुए कहते है कि ये गैरकानूनी इकाई तब तक नही टूटेंगी जब तक की सांवैधानिक ईकाइयो की पंहुच हर आम आदमी तक नही होती.
इन जाति पंचायतों के फ़ैसले से प्रभावित हुई सोनिया रामपाल, मुख़्तार मई और आमना जैसी कई महिलाएं भी हैं चींटी की चाल चलने वाले परिवर्तनों का इंतज़ार किए बिना अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं.
इन औरतों की लड़ाई ने इन ग़ैर कानूनी पंचायतों के मुखियाओं को यह मानने पर मजबूर ज़रूर किया है कि उनसे ग़लतियां होती हैं, लेकिन हरियाणा के अस्सी गांवों की जाति पंचायत के प्रमुख रिसाल सिंह के पास अपनी ग़लतियों की भी दलील है.
किसी भूले बिसरे शायर की इस पंक्ति का सहारा लेते हुए वे अपनी बात पूरी करते है. ‘इस सादगी से कही खुदा न बन जाऊँ इसीलिए एहतियातन गुनाह करता हूँ’’