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View Full Version : BADD – The Natural Sanitorium



dndeswal
July 15th, 2006, 01:30 PM
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BADD – The Natural Sanitorium

In my last two threads, I had explained the medicinal qualities of NEEM (http://www.jatland.com/forums/showthread.php?t=15072) and PEEPAL (http://www.jatland.com/forums/showthread.php?p=105432#post105432) trees.

Badd (Bargad) or Banyan tree is another such tree in this series which has exceptional herbal qualities, according to Ayurveda. A place where all these three trees (Neem, Peepal, Badd) are planted together, is called a ‘Triveni’. There was an ancient tradition of planting 5 banyan trees at one place, called ‘Panchvati’. Queen Sita had sought shelter in Valmiki’s Panchvati, where the famous book of Ramayana was written by that great Rishi. Those were the golden days when schools or Gurukuls were run under the shades of these huge, dense trees which, apart from giving shelter and protecting them from bad weather, provided fresh, cool air, sweet fruit and other components which, even now, are considered to be the standard ingredients of Ayurvedic medicines for curing various fatal diseases.

In ancient times, there used to be a common notion that if a tuberculosis (Kshaya Rog) patient lives under the shade of Badd trees or in a ‘Panchvati’ continuously for one year and eats wild fruit and herbs, there were 90 per cent chances that he would get rid of this fatal disease ! Hence, this Badd tree was actually used as a sanitorium or a natural hospital by ancient doctors or Vaidyas. But it is the irony of fate that today, in this “modern” world of computers, we have isolated ouselves from that ancient knowledge and are living in a virtual concrete jungle! Unfortunately, regarding Badd, our urban youth know nothing except some ghost-stories associated with it !

The following excerpts have been picked up from the book “Badd” (published by Haryana Sahitya Sansthan, Gurukul Jhajjar) written by late Swami Omanand (http://www.jatland.com/home/Swami_Omanand_Sarswati), the great Jat leader and an Ayurvedic doctor of repute. These are just a few excerpts, not the entire book. On my part, it is the real tribute to that great soul – to present a part of his works to our Jatlanders.

It is pertinent to mention here that Badd is the ‘National Tree’ (http://www.hcilondon.net/india-overview/land-people/national-symbols.html) of India.

I Hope, like ‘NEEM’ and ‘PEEPAL’ threads in this forum, this one on “BADD” would be liked by all Jatlanders.

(If you do not see Devanagari script below this line, you need to install ‘Mangal’ font on your computer. See my thread Tips for use of Hindi on your computer (http://www.jatland.com/forums/showthread.php?t=13233) in Tech Talk (http://www.jatland.com/forums/forumdisplay.php?f=17) forum or download it from this link (http://vedantijeevan.com:9700/font.htm).)



वट-वृक्ष (बड़, बरगद)

वेदों का एक उपवेद आयुर्वेद है जिसका प्रसार प्राणिमात्र के हितार्थ ऋषि-मुनियों ने देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में किया । उन विद्वान ऋषियों ने वेद के अनुसार चरक, सुश्रुत और निघन्टु आदि आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना की । आश्चर्य तो यह है कि मनुष्य के चारों ओर रोग की औषध विद्यमान होते हुए भी अपनी अल्पज्ञता के कारण यह रोगग्रस्त हो दुख पाता है । "पानी में मीन प्यासी, मुझे देखत आवे हांसी" वाली लोकोक्ति के अनुसार मानव की दुर्गति हो रही है ।

बड़ भारत का एक प्रसिद्ध वृक्ष है। जैसे नीम और पीपल औषध के रूप में बहुत उपयोगी वृक्ष हैं उसी प्रकार बरगद (वट वृक्ष) भी इससे न्यून लाभप्रद औषध नहीं है।

वट वृक्ष जिसका प्रसिद्ध नाम बड़ वा बरगद है, प्राय: भारत भर के सभी प्रान्तों में मिलता है । हिमालय पर्वत के जंगल तथा दक्षिणी भारत की पर्वतमालाओं पर यह वृक्ष स्वयं उत्पन्न होता है और अपने इसी गुण के कारण यह जंगली वृक्ष वन का स्वामी अर्थात् वनस्पति कहलाता है । ग्रामीण लोग इसे यज्ञीय वृक्ष होने से पवित्र और देववृक्ष मानते हैं तथा ग्राम के आस पास खूब लगाते हैं । बड़ का वृक्ष बहुत लंबा, चौड़ा, ऊंचा अर्थात् विस्तार वाला होता है । भारत में इस जितना मोटा (घेरेवाला) वृक्ष और कोई नहीं होता । इसके मुख्य पिंड (तने) की मोटाई व गोलाई ३० फुट तक देखने में आती है । बड़ का पेड़ छायाप्रधान तरु है, यह वृक्षों का राजा है । इसके तने काटकर लगा दिये जायें तो नए वृक्ष बन जाते हैं, इसीलिए बड़ का नाम नवभू है । वट वृक्ष की आयु कई हजार वर्ष तक हो सकती है, इसलिए भी वेद में महावृक्ष नाम से न्यग्रोध का नाम अंकित मिलता है ।

"कृमिनाशनम्" विषयक मन्त्रों में न्यग्रोध (बड़) को महावृक्ष लिखा है । मोटा, लंबा, ऊंचा और सबसे विस्तार वाला वृक्ष होने से इस विशाल वृक्ष को वेद ने भी महावृक्ष की संज्ञा दी है । इस वृक्ष की शाखा भूमि की ओर नीचे नत हो जाती है । बहुत विस्तार वाला होने से बहुत अधिक छाया वाला वृक्ष है । क्योंकि इसके पत्ते लम्बे, छोटे और मोटे होते हैं तथा घिनके (एक दूसरे से मिले हुए) होते हैं, इसलिए इसकी छाया बहुत घनी और सुखदायी होती है । शीतल गुण होने से शान्तिप्रद छाया वाला यह वृक्ष विद्वानों, याज्ञिक लोगों और यक्षों को प्रिय होता है, इसलिए इसके यक्षतरु, यक्षावास आदि नाम हैं । दीर्घ आयु होने से तथा बहुत जोड़ों वाला होने से यह सुदृढ़ वृक्ष ध्रुव नाम को यथार्थ करता है ।

इसकी शाखाओं तथा तनों से लाल और पीले रंग के अंकुर फूटकर भूमि की ओर बढते हैं - इनको बड़ की जटा अव्रोह व दाढी कहते हैं । ये जटायें बढते-बढते पृथ्वी में घुस जातीं हैं और खम्बे के समान दिखाई देतीं हैं । इसके ये बहुत से पाद (पैर) बन जाने से यह बहुपाद कहलाता है । इसके किसी भी स्कन्ध को काटकर लगा दें तो नया बड़ का वृक्ष बहुत शीघ्र ही बन जाता है, इसीलिए इसका नाम "स्कन्धज" (स्कंध से उत्पन्न होने वाला) है । इन जटाओं के कारण इसकाविस्तार होता है, इसका घेराव बहुत ही बढ जाता है । भूमि के अंदर इस वृक्ष की जड़ें सौ-सौ हाथ के घेराव तक फैल जातीं हैं । फिर इसकी छाया के विस्तार का क्या ठिकाना - हजारों व्यक्ति इसके नीचे सरलता से विश्राम कर सकते हैं । पशु, पक्षी, मूर्ख, विद्वान, सन्त महात्मा, याज्ञिक तथा योगी - सभी को इस वृक्ष की छाया अत्यंत प्रिय है ।

धन्वन्तरीय निघन्टु में बड़ के नाम निम्नलिखित हैं :

वटो रक्तफल: शृंगी न्यग्रोध: .......
क्षीरी वैश्रवणावासो बहुपादो वनस्पति ॥७६॥

१. वट २. रक्तफल ३. शृंगी ४. न्यग्रोध ५. क्षीरी ६. वैश्रवणावास ७. बहुपाद नाम वाला वनस्पति वृक्ष है ।


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dndeswal
July 15th, 2006, 01:31 PM
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इसके फलों का पकने पर लाल रंग होता है, इसीलिए रक्त के समान इसके फल होने से रक्तफल इसका नाम है । इसके फल रक्त-वर्धक हैं तथा रक्तसंबन्धी रोगों को दूर करने वाले इसके फल होते हैं, इसलिए वट का नाम रक्तफल है । शृंगी पर्वत के समान ऊंचा होने से यह शृंगी भी कहलाता है । वैश्रवणावास : महात्मा बुद्ध का नाम वैश्रवण है - बौद्ध साधुओं को भी वैश्रवण कहते हैं - वे भी इस बोधि वृक्ष को पवित्र मानते हैं तथा इसके नीचे वास करते हैं, इसीलिए इसका नाम वैश्रवणावास है । यह वृक्ष महावृक्ष होने से वन का पति है, राजा है, अत: इसे वनस्पति कहते हैं (जो वृक्ष बिना पुष्प के फल देता है, उसे भी वनस्पति कहते हैं) ।

राजनिघन्टु में वट वृक्ष के नाम इस प्रकार दिये गये हैं : वट, जटाल, न्यग्रोध, रोहिणी, अवरोही, विटपी, रक्तफल, स्कन्धरुह, मण्डली, महाच्छाय, वृक्षनाथ, भांडीर, यमप्रिय, शृंगी, यक्षवास, यक्षतरु, पादरोहिणी, नील, क्षीरी, शिफारुह, बहुपाद और 'वनस्पति' । इसका वनस्पति नाम इसलिये है कि इसके बिना फूल के ही फल लगते हैं । कौशिका व्याकरण ग्रन्थ में आता है :

फली वनस्पतिर्ज्ञेयो, वृक्षा: पुष्पफलोपगा: ।
औषध्य: फलपाकान्ता लता गुल्माश्च वीरुध: ॥

अर्थ : बिना पुष्प के जिन वृक्षों को फल लगते हैं उनको 'वनस्पति' (वन का स्वामी) कहते हैं - जैसे बड़, गूलर आदि । जिनको फूल और फल दोनों लगते हैं उन्हें वृक्ष कहते हैं जैसे वेतसा, आम आदि । फल पक जाने पर जिनका विनाश व समाप्ति हो जाती है उसे 'औषधि' कहते हैं (जैसे गेहूं, यव - जौ - आदि) । लता (बेल) और फैलने वाली गिलोय, चमेली आदि और गुल्म छोटे पौधे, झाड़ आदि का नाम वीरुध है ।

अन्य नाम: गुजराती - बड़ली, बंगाली बड़-वोट । पंजाबी - बरगद, बेरा, बोहर, बोहिर, बोड़ । तमिल - बडम, आल, कदम । उर्दू - बरगद । फारसी - दरख्ते-रेशा । अंग्रेजी –Banyan Tree लेटिन Ficus Bengalensis.

धन्वन्तरीय निघन्टु में निम्न गुण बड़ के अंकित हैं :

वट: शीत: कषायश्च स्तम्भनो रूक्षणात्मक: ।
तथा तृष्णाछर्दिमूर्छा-रक्तपित्त-विनाशन: ॥

अर्थ - वट वृक्ष शीत ठंडा होता है, इसका स्वाद कषाय कषैला होता है । यह स्तम्भन शक्ति बढाता है और रूक्ष प्रकृति वाला होता है । यह तृष्णा (प्यास) छर्दि वमन को दूर करता है और रक्त के सभी रोगों को दूर करता है, किसी भी अंग से - नाक, मुख, मूत्र व गुदा-द्वार आदि - से बहने वाले रक्त अर्थात् नकसीर, बवासीर आदि को भी बंद करता है । रक्त और पित्त संबन्धी रोगों - दाद, खुजली, फोड़े, फुन्सी, प्यास, जलन और पित्तज्वर आदि को भी दूर भगाता है ।

नदी वट वा नदी का बड़

नदीवटो यज्ञवृक्षो सिद्धार्थो वटको वटी ।
अमरासंगिनी चैव क्षीरकाष्ठा च कीर्तिता ॥

नाम - नदीवट, यज्ञवृक्ष, सिद्धार्थ, वटक, वटी, अमरासंगिनी, क्षीरकाष्ठा और कीर्तिता - ये आठ नाम नदी पर स्थित वट के हैं ।

वटी कषायमधुरा शिशिरा पित्तहारिणी ।
दाहतृष्णाश्रमश्वास विच्छर्दिशमनी परा ॥

गुण : नदी पर उगने वाले बड़ को वटी के नाम से जाना जाता है । यह कषाय (कसैला), मधुर (मीठा), शिशिर (ठंडा), पित्तरोगों को हरण करने वाला है । गर्मी के रोगों को दूर करता है । दाह, जलन, तृष्णा, प्यास, श्रम (थकावट), श्वास, दमा और विच्छर्दि पर परम औषध है । उपरोक्त रोगों को दूर करने की सर्वोत्तम औषध है - अद्वितीय है, अपनी समानता नहीं रखता है ।

बड़ का घनसत्त्व

बड़ का पंचांग (जड़, पत्ते, फल, छाल तथा दाढी) - पाँचों समभाग ले लेवें तथा इन्हें अधकुटी कर के किसी मिट्टी वा कली वाले पात्र में आठ गुणा शुद्ध जल डालकर भिगो देवें । न्यून से न्यून चौबीस घंटे पड़ा रहने दें, फिर इसे भली भांति मलकर आग पर चढावें । जब आठवां भाग रह जाये तो उतारकर मलकर छान लें और छाने हुए जल को आग पर मंदी आंच से पकायें, गाढा जब अफीम के समान हो जाए तो इसे उतारकर सुरक्षित रखें, यही बड़ का घनसत्त्व है । यह केवल पत्तों, केवल छाल तथा दाढ़ी वा फलों से भी तैयार किया जा सकता है ! यह घनसत्त्व बहुत गुणकारी है । इसका अनेक औषधियों में उपयोग होता है ।

बड़ का क्वाथ

नजला जुकाम पर - बड़ के कोमल पत्तों से क्वाथ को आजकल की भाषा में बड़ की चाय भी कह सकते हैं । प्रचलित चाय से तो बहुत सी हानियां ही होतीं हैं किन्तु बड़ की चाय बहुत ही गुणकारी है । यह जहां जुकाम आदि की औषध है, वहीं पुष्टिप्रद तथा वीर्यवर्धक है । विदेशी ढंग की चाय धातु रोगों को उत्पन्न करने वाली है ।

निर्माण-विधि - बड़ की कोमल किन्तु लाल-लाल कोंपलों को लेकर छाया में सुखा रखें । मात्रा छ: माशे लेकर आध सेर जल में क्वाथ करें । चौथाई (आधा पाव) रहने पर उतारकर छान लेवें तथा विधिपूर्वक खांड तथा दूध मिलाकर पीवें व रोगी को पिलायें । प्रात: सायं इस क्वाथ को चाय के समान पीने से रोगी का जुकाम नजला दूर होता है । अच्छी औषधि है तथा मस्तिष्क की निर्बलता को दूर करके स्मरणशक्ति को बढ़ाती है । धातुरोग, स्वप्नदोष, प्रमेह को दूर करती है तथा इसके विपरीत प्रचलित चाय सभी रोगों को बढ़ाती है ।

.....continued
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dndeswal
July 15th, 2006, 02:02 PM
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दाढ़ी की चाय - बड़ की बारीक-बारीक दाढ़ी की शाखाओं (रेशों) को काट-कूट कर छाया में सुखाकर सुरक्षित रखें । मात्रा छ: माशे उपरिलिखित विधि से क्वाथ (चाय) बनायें तथा दूध-खांड मिलाकर पिवें और पिलायें । इसके प्रयोग से जुकाम नजला दूर भागता है, प्रमेह नष्ट होता है, शरीर हृष्ट-पुष्ट तथा रोग-रहित होता है । यह देशी चाय (क्वाथ) सर्वप्रकार से लाभप्रद है, इसमें हानि कुछ नहीं । विदेशी ढंग की चाय को हटाकर उसके बदले में बड़ की चाय का प्रयोग करें, यह औषध तथा खुराक दोनों है, दवा की दवा तथा गिजा की गिजा है।

धातु रोग और अर्श (बवासीर)

१.बड़ का दूध प्रतिदिन प्रात:काल ३ माशे लेवें तथा समभाग मिश्री वा देशी खांड मिलाकर सूर्योदय से पूर्व खायें । जैसे-जैसे यह अनुकूल पड़ता जाये, इसकी थोड़ी-थोड़ी मात्रा बढायें। यदि कोई हानि न हो तो ग्यारहवें दिन इसकी मात्रा १० माशे तक पहुंचा देवें । फिर इसकी मात्रा धीरे-धीरे घटाते जायें । ग्यारहवें दिन इसकी मात्रा ३ माशे की करके इसका प्रयोग बंद कर दें । यह कुल २१ दिन का वट-दूध का कल्प (कोर्स) है । इसके प्रयोग से सर्वप्रकार के अर्श (बवासीर) में लाभ होता है । वीर्य का पतलापन, शीघ्रपतन और प्रमेह आदि धातु सम्बन्धी सभी रोग दूर होते हैं । हृदय, मस्तिष्क और यकृत को यह शक्ति देता है और स्तंभन करता है ।

२. बड़ के कोमल पत्ते २ तोले - पाव भर जल में घोटकर पिलायें । इसके पिलाने से रक्त भी बंद होगा । कुछ दिन के प्रयोग से अर्श से छुटकारा मिल जायेगा ।

३. प्रात:काल नित्यकर्म से निवृत हो खाली पेट मिश्री वा देशी खांड ३ माशे, इसमें बड़ का दूध १० बूंदें डालकर खालें और प्रतिदिन एक बूंद बड़ के दूध की बढाते जायें । कुछ खांड वा मिश्री भी बढाई जा सकती है । २५ बूंदों तक बढायें । फिर एक-एक बूंद घटाते जायें तथा १० बूंद तक लौटकर औषध लेना छोड़ देवें । यह बड़ के दूध का पच्चीस दिन का कल्प (कोर्स) करें । इस प्रकार श्रद्धा से सेवन करने से सब प्रकार की अर्श (बवासीर) से छुटकारा हो जाता है ।

अतिसार (दस्त)

१.बड़ का दूध नाभि में भरने से और आस-पास लगाने से अतिसार मिट जाता है ।

२. बड़ की जड़ का छिलका छाया में शुष्क पीसकर छान लें । मात्रा ३ माशे प्रात:, दोपहर तथा सायंकाल छाछ के साथ अथवा चावलों के जल वा मांड के साथ देवें । यदि ये उपलब्ध न हों तो ताजा जल के साथ देवें । इससे मरोड़े वाले दस्त (पेचिस) शीघ्र दूर होंगे । भूख लगने पर मूंग चावल की खिचड़ी गाय की छाछ वा दही के साथ देवें ।

३. यदि पेचिस में आंव मिली हुई आती हो और मरोड़ बंद न होती हो तो रोगी को बड़ का दूध ३ माशे पिलायें, इससे शीघ्र लाभ होगा ।

४. गंगाधर रस में ३ माशे बड़ का दूध मिलाकर देवें तो सोने पर सुहागे पर कार्य होगा ।

५. बड़ की कोपलें तीन माशे मिश्री एक तोला, दोनों को खूब घोटकर मिश्री मिलाकर पिलाने से अत्यन्त लाभ होगा । बरगद का दूध नाभि में भरने तथा कुछ इधर-उधर लेप करने से दस्त बंद हो जाते हैं ।

हृदय रोग

हृदय के सभी रोगों की चिकित्सा साधारण औषधियों से नहीं होती किन्तु हीरे मोती आदि अमूल्य रतनों की पिष्टी और भस्मों का प्रयोग हृदय के रोगों को दूर करने के लिए दीर्घकाल तक रोगियों को कराया जाता है किन्तु इन बहुमूल्य औषधियों का प्रयोग तो धनी ही कर सकते हैं । बेचारे निर्धन लोग किस औषध का प्रयोग करें ? उनके लिए बड़ और अर्जुन आदि वृक्ष भगवान ने उत्पन्न किये हैं जो बिना मूल्य के सबको ही सुलभ हैं । यह दिल की धड़कन आदि को दूर करने में हीरे-मोती से न्यून नहीं हैं । इसका श्रद्धा से प्रयोग करें और लाभ उठायें ।

१. बड की हरे रंग की कोमल कोंपल वा नर्म-नर्म हरे पत्ते ६ माशे लेवें । दोनों १० तोले शुद्ध ताजे जल के साथ खूब घोट पीसकर छान लें और दो तोला कूजा मिश्री मिला कर प्रात: तथा सायं दोनों समय रोगी को पिलायें । इससे कुछ ही दिनों में दिल की धड़कन तथा हृत्पीड़ा दूर होगी ।

२. बड की हरी-हरी कोमल पत्तियां वा कोंपल १ तोला लेकर १० तोले जल के साथ खूब रगड़ पीस कर छान लें तथा दो तोले मिश्री व खांड देशी मिलकर तो-तीन सप्ताह के प्रयोग से हृदय सम्बन्धी सर्वप्रकार के विकार व रोग दूर हो जायेंगे । दवा प्रात:काल तथा सायंकाल दोनों समय पिलायें ।

३. प्रवाल पिष्टी दो रत्ती उपरोक्त औषधि के साथ प्रात: तथा सायं खिलायें तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा । दिल के सभी रोग बहुत शीघ्र ही दूर होंगे ।

४. ४. उपरोक्त द्वितीय नम्बर की बड़ की कोंपलों की औषध के साथ प्रवाल पंचामृत मात्रा दो रत्ती प्रात: सायं रोगी को देने से हृदय संबन्धी सभी रोग, दिल की पीड़ा और निर्बलता कुछ समय के सेवन से दूर होंगे ।

स्मरणशक्ति

१. बड़ की अन्तर्छाल लेकर छाया में सुखा लें, फिर कूट कर कपड़छान कर लें । इसके समान वा द्विगुणी शुद्ध देशी खांड या मिश्री कूटकर मिला लें, इसको कपड़छान कर लें । इसकी मात्रा ३ से ६ माशे तक है, शक्ति एवं रोग के अनुसार घटा तथा बढा भी सकते हैं । इसका सेवन प्रात: सायं गाय के दूध के साथ करें अथवा दूध को गर्म करके शीतल करके उसके साथ लेवें । इससे स्मृति व स्मरणशक्ति बढती है, भूलने का रोग दूर होता है ।

२. उपरोक्त चूर्ण को बड़ के दूध में भिगोकर प्रयोग करें तो सोने पर सुहागे का कार्य देगा । चूर्ण की मात्रा बड़ के दूध में भिगोकर केवल एक माशा कर देवें ।

३. मिश्री को बड़ के दूध में भिगोकर दो-दो रत्ती की गोली बनायें तथा इनका प्रयोग गोदुग्ध वा जल के साथ करें । इससे मन की स्थिति सुधरेगी, अश्लील विचार निर्बलता दूर होकर स्मरण शक्ति तथा मस्तिष्क की शक्ति बढेगी ।

संतान के लिए

१. बरगद की नर्म-नर्म कोंपलें, नागकेसर, कंघी खरैंटी, मुलहटी - इन सबको समभाग लेवें, सबको बारीक पीस लेवें । कपड़छान करके मात्रा ४ माशे प्रात:-सायं गाय के दूध के साथ लेने से नि:सन्तान स्त्री संतानवती हो जाती है ।

२. बड़ की ताजी कोंपलें, धाय के फूल, कमल के फूल, कंटकारी की जड़ - सब समभाग लेवें । अर्धकुटी कर लें । इनमें से ६ माशे दूध में पीसकर देवियों को पिलायें । इसके प्रयोग से सन्तानार्थ स्त्री गर्भ धारण करती है ।

३. वटवृक्ष की कोंपलें, शिवलिंगी - दोनों समभाग लेवें । मात्रा २ माशे से ४ माशे तक गाय के दूध के साथ इच्छावती देवियां प्रयोग करें ।

४. अश्वगंध नागौरी १ तोला, बड़ की नर्म कोंपलें १ तोला - दोनों को पीसकर लुगदी बनायें । गाय का घी १ तोला, गाय का दूध १ पाव, सबको मिलाकर पकायें । जब चौथाई भाग दूध जल जाये तो उतार कर छान लें, इसमें मिश्री मिलाकर स्त्रियां पीवें तो कुछ दिन के प्रयोग से गर्भवती हो जायेंगी ।

५. नागकेसर, सुपारी, बड़ की कोंपलें - समभाग लेकर पीस लें । मात्रा ६ माशे गाय के दूध के साथ सेवन करने से स्त्रियां गर्भाधारण करतीं हैं ।

मासिक धर्म - बरगद की दाढी, बायविडंग, सोये के बीज, हालू मेथा, कलौंजी, गुलाब के फूल, सौंफ - प्रत्येक तीन-तीन माशे, सबको अधकुटी करके क्वाथ बनाकर इसमें २ तोले गुड़ मिलाकर रोगी को प्रात: सायं पिलायें । कुछ दिनों के ही प्रयोग से रुका हुआ मासिक धर्म चालू हो जाता है ।

मासिक धर्म की अधिकता - बड़ की कोमल-कोमल कोंपलें २ तोला लेकर २ छटांक जल में घोटकर छान लें तथा कुछ मिश्री मिला लें । प्रात:काल तथा सायंकाल दोनों समय पिलायें । दो-चार मात्रा देने से ही मासिक धर्म की अधिकता हट जायेगी ।

कुचों पर - बड़ की जड़ को बारीक पीसकर कुचों (स्तनों) पर लेप करने से कुच कठोर होते हैं ।

.....Continued
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dndeswal
July 15th, 2006, 02:26 PM
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बड़ के पत्ते - बड़ के पत्तों को गर्म करके फोड़ों पर बांधने से फोड़े पक कर फूट जाते हैं तथा उनकी पीड़ा भी दूर होती है । बड़ के पत्तों का मुड़ता बनाकर बांधने से बिना पके फोड़े पक जाते हैं तथा पके हुए फोड़े शुद्ध होकर अच्छे हो जाते हैं ।

बड़ के पीले पत्ते - पीले पके हुए पत्तों को चावल के साथ पकाकर उन चावलों का गाढा पिलाने से पसीने आते हैं । पसीना दिलाने के लिए इसका प्रयोग होता है । पीले पत्तों का घनसत्त्व प्रमेह, स्वप्नदोष आदि रोगों की अनुभूत औषध है ।

बड़ के फल - इनके फलों को जो पक कर लाल हो गये हों, छाया में सुखा लें तथा इन्हें कूट छान लें । मात्रा १ माशे से प्रारंभ करें । खिलाकर ऊपर से धारोष्ण गोदुग्ध पिला देवें, प्रात:-सायं दोनों समय देवें । स्त्रियों को खिलाने से श्वेत प्रदर और पुरुषों को खिलाने से स्वप्नदोष, प्रमेह और सभी धातु रोग दूर होंगे ।

बड़ के कच्चे फलों को छाया में सुखाकर तथा कूटकर कपड़-छान कर लें । मात्रा १ तोला गाय के दूध के साथ प्रात:-सायं पीने से पुंसत्व शक्ति तथा कामशक्ति बढती है ।

खारवे व खारिये - वर्षा ऋतु में किसान जल में कार्य करते हैं अथवा उन्हें कार्यवश जल में बार-बार आना-जाना होता है और उनके पैरों की उंगलियों में खारवे हो जाते हैं, उनमें खुजली तथा जलन हो जाती है । उन पर बड़ का दूध लगाने से शीघ्र अच्छे हो जाते हैं ।

मूत्र रोग : बहुमूत्र रोग (पेशाब की जलन) में बड़ की जड़ का क्वाथ देने से लाभ होता है । बड़ की एक व दो नर्म कोंपलों का रस गोदुग्ध में देने से सुजाक में पेशाब की जलन न्यून हो जाती है । बड़ की कोमल कोंपलें छाया में सुखाकर उनको पीसकर उनमें समान भाग मिश्री मिलाकर दूध की लस्सी के साथ लेने से मूत्रकृच्छ रोग दूर होता है ।

अग्निदाह - बड़ की कोंपलों को गाय के दूध से बनी दही के साथ पीसकर अग्नि में जले हुए स्थान पर लगाने से शान्ति मिलती है ।

रक्तपित्त - शरीर के किसी भाग, मुख, नासिका, गुदा आदि से यदि रक्त निकलता है तो इसे 'रक्तपित्त' कहते हैं । बड़ के पत्तों की लुगदी में शहद और शक्कर (खांड) मिलाकर खाने से रक्तपित्त का रोग दूर होता है ।

विपादिका (बिवाई) पर - पैरों की विपादिका वा बिवाई में बड़ का दूध भरने से बिवाई की पीड़ा दूर हो जाती है और बिवाई का जख्म भरकर वह सर्वथा ठीक हो जाती है ।

दांतों का मंजन - बड़ की छाल, कत्था श्वेत, काली मिर्च, सैंधा लवण : ये सब समभाग लेकर कूटकर कपड़छान करें । प्रतिदिन प्रयोग करें । इससे दांतों के रोग पीड़ा, हिलना, मैल, दुर्गन्धि आदि दूर होते हैं और दांत सुदृढ़ तथा शुद्ध होकर श्वेत हो जाते हैं ।

दुर्गन्धि - यदि दांतों से दुर्गन्ध आती है तो रूई की फुरेरी को बड़ के दूध में भिगोकर दांतों के छिद्र व रोगी दांत पर रखें । जो दांतों में छिद्र व गढे हो गये हों उनमें रूई से बार-बार बड़ का दूध लगाने से दुर्गन्धि, दांत की पीड़ा सब दूर हो जाते हैं । भड़ के दूध को अनेक बार हिलने वाले दांत पर लगाया जाये तो वह आसानी से उखाड़ा जा सकता है ।

दृष्टि की दुर्बलता - दुखती आंखों में बड़ का दूध थोड़ी मात्रा में डालने से लाभ होता है । प्रात:काल और सायंकाल बड़ के दूध की एक-एक सलाई डालने से आंख का धुन्ध-जाला कट जाता है । दृष्टि ठीक हो जाती है । दुखती आंखों में बड़ के दूध से जहां लाभ होता है वहां बड़ की कोंपलों के प्रयोग से भी लाभ होता है । बड़ की नर्म-नर्म कोपलें तोड़ें, तब उनके दूध वा जल में सलाई उसी समय भिगोकर तुरन्त आंखों में लगायें । इससे आँख की लाली दूर तथा अन्य नेत्र रोगों में भी लाभ होगा ।

नकसीर - बड़ की कोंपलें २ तोले, नागकेसर १ तोला : दोनों को खूब रगड़ कर घोटें तथा तीन तोले मिश्री मिलाकर तीन खुराक बना लें । गाय के मक्खन के साथ लेने से नकसीर दूर हो जायेगी । कई दिन लगातार लेवें । गर्म वस्तुओं का सेवन न करें । धूप गर्मी में बाहर न घूमें । अग्नि के पास कार्य न करें । ठंडे जल से स्नान करें । नाक में यदि घाव हो व फुंसी हो तो बड़ का दूध रूई के फोहे से कई बार लगायें - आराम हो जायेगा ।

मोतीज्वर (मोतीझारा) - बड़ की कोमल-कोमल कोंपलें एक तोला, बाजरा (अन्न) एक तोला लेवें। दोनों को एक पाव पानी में उबालें । जब पानी आध पाव रह जाये तब छान लें और मोतीझारे के रोगी को पिला दें । यह औषध मोतीझारे को दूर करने के लिए लाभप्रद है, प्रयोग करें और लाभ उठायें ।

सारांश

बड़ के वृक्ष की बड़ी लम्बी आयु होती है । वटवृक्ष के नीचे रहने, विश्राम करने, इसके पंचांग का सेवन करने से आयुवृद्धि होती है । वटवृक्ष इस त्रिवेणी का तीसरा भाग है, अत: इसमें स्नान करें अर्थात् इसका सदुपयोग करें, रोगों से छुटकारा पाकर अपनी जीवन साधना करें । "ओ३म् क्रतो स्मर, कृतं स्मर" वेद की इस पवित्र वाणी के अनुसार आचरण करें, अपने कृत कर्मों का निरीक्षण करें तथा ओ३म् का स्मरण करते हुए पवित्र आचरण करें तथा मोक्ष के भागी बनें ।



Some Internet links about Banyan Tree:

http://www.culturalindia.net/national-symbols/national-tree.html (http://www.culturalindia.net/national-symbols/national-tree.html)

http://en.wikipedia.org/wiki/Banyan_tree (http://en.wikipedia.org/wiki/Banyan_tree)

http://www.redbeet.com/pictures/banyan_tree/banyantree_P9010405?full=1 (http://www.redbeet.com/pictures/banyan_tree/banyantree_P9010405?full=1)