dndeswal
April 26th, 2008, 10:34 PM
.
मातृत्व का सम्मान
कोई पचास-साठ साल पहले अमेरिका में एक "Freedom of women" आन्दोलन चला था जिसका असर सारी दुनियां पर पड़ा । उसका "थीम" यह था कि महिलायें पुरुषों से किसी मामले में कम नहीं हैं फिर वे क्यों घर पर बैठी रहें और मर्दों की गुलामी करें ? बात तो गलत नहीं थी पर उसकी दिशा कुछ बदल सी गई । मर्दों जैसे ही कपड़े पहनने, उन्हीं जैसे भारी-भरकम मेहनत वाले काम करने का शौक महिलाओं में पैदा हुआ जिससे काफी सामाजिक समस्यायें पैदा हुई जिनको पश्चिमी समाज आज तक भुगत रहा है । कुछ देशों की जनसंख्या का ग्राफ गड़बड़ा गया जो आजकल चिन्ता का विषय बनता जा रहा है । इटली और स्पेन को चिन्ता है कि उनके यहां बच्चे कम पैदा हो रहे हैं और Immigration के कठोर कानूनों के बावजूद मुस्लिम देशों की आबादी वहां आ कर बस रही है । स्कैंडिनेविया, बेल्जियम और रूस आदि देशों में महिलाओं को बच्चे पैदा करने के incentive दिये जा रहे हैं । पश्चिमी संस्कृति ने पहले महिलाओं के परिवार-केन्द्रित सहज स्वभाव को "कैरियर" के चक्कर में तोड़ा । उन्हें कहा गया कि आप अपना कैरियर बनाइये, पैसा कमाइये और "स्वतंत्र जीवन शैली" अपनाइये । अब उन्हें प्रलोभन देकर वापस प्रजनन की तरफ मोड़ा जा रहा है ।
एक नजारा भारत का देखिये । जनगणना के मुताबिक भारत में पारसी समुदाय गायब होता जा रहा है । टाटा जैसे अमीर पारसी घरानों को भी इसकी चिन्ता सताये जा रही है । इसका मूल कारण पारसी महिलाओं का बहुत ऊंची शिक्षा लेना और पश्चिमी रंग में ढ़लना बताया जा रहा है । कहते हैं कि पारसी अमीर इसलिए हुए हैं कि उन्होंने ब्रिटिश राज्य से सहयोग करके ऊंचे पद हासिल किये और अपने बच्चों को भी ऐसे ओहदे दिलवाने के लिए अपने बच्चों को इंग्लैंड में शिक्षा के लिए भेजा और यह परंपरा आज भी जारी है । पारसियों की अमीरी ही आज उनके लुप्त होने का कारण बन रही है । पश्चिमी संस्कृति में महिलाओं के लिए रोल माडल कैरियर और पैसे का है, उस महिला को बुद्धू और पिछड़ा माना जाता है जिसने घर बैठ कर बच्चे पैदा किये । इसी संस्कृति को पारसी महिलाओं ने बखूबी अपनाया और इसीलिये आज उनका समुदाय लुप्त होने के कगार पर है ।
प्रसिद्ध पारसी हस्ती बहराम दस्तूर ने एक बार कहा था कि पारसी महिलायें तब ही विवाह करना चाहती हैं जब वे जीवन में 'settle' हो जायें और तब तक उसकी प्रजनन की आयु समाप्त हो चुकी होती है । उन्होंने कहा कि आखिर इतना पैसा होने पर भी वे 'settle' क्यों होना चाहती हैं ? भारतीय परम्परा में महिला को आर्थिक तौर पुरुष पर आधीन रहना होता है यानि पुरुष कमाये और वह घर बैठी खाये । वह सही उम्र में विवाह करती है, अपने पति के घर को संभालती है, बच्चे पैदा करती है और इसी से उसको सम्मान मिलता है । खुद पैसा कमाने के चक्कर से वह बेफिक्र होती है, खुद अपनी 'personality' की परवाह न करके अपने पति के status को ही अपना सुख मानती है और सुखी रहती है ।
पारसियों ने गलती यह की कि पश्चिमी संस्कृति के मुताबिक अपनी महिलाओं के "कैरियर" को अधिक महत्व दिया, मातृत्व (motherhood) को नहीं । जो कौमें इस पश्चिमी संस्कृति को अपनायेंगी वे इसी तरह लुप्त होंगी जैसे भारत में पारसी एवं पश्चिमी देशों में सफेद चमड़ी वाली कौमें । जो व्यक्ति अपने सुख और कैरियर को ज्यादा अहमीयत दे और कौम को अनदेखा करे, उसका लुप्त होना आश्चर्यजनक नहीं ।
एक प्रसिद्ध अमेरिकन anthropologist हुई हैं, जिनका नाम था Margaret Mead - यह वेब पेज देखिये (http://www.kirjasto.sci.fi/mmead.htm) । उसने 39 पुस्तकें लिखी जिनमें से एक थी "Male and Female" जो 1948 में छपी थी । मार्गारेट लिखती है कि पुरुषों की तरह महिलायें भी बचपन में सीखती हैं । जैसे एक संयुक्त परिवार में एक जेठानी है जो घरेलू महिला है और कई बच्चों की मां है । दूसरी तरफ उसकी देवरानी है जो काफी पढ़ी लिखी है और अच्छी नौकरी करती है । घर में उस जेठानी को बार-बार ताने दिये जाते हैं कि वह तो बस एक बच्चे पैदा करने की मशीन है । और उस देवरानी को सम्मान दिया जाता है कि वह खूब कमाती है । Margaret Mead लिखती है कि उस घर में यदि कोई 5-10 साल की लड़की है जो रोज यह सब सुनती है तो उसके मन में यह बात बैठ सकती है और वह बड़ी होने पर शायद कोई बच्चा पैदा न करे ।
यह समस्या पशुओं में भी देखी जा सकती है । एक चिड़ियाघर में नर और मादा शेर को साथ में रखने पर भी उनमें संभोग की इच्छा उत्पन्न नहीं हो रही थी । शेरों की संख्या कम होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि मादा शेरनी प्रजनन की ओर अनासक्त हो गई है । किसी भी समुदाय को अपना अस्तित्व बनाने के लिये महिलाओं के प्रजनन कार्य को सम्मान देना चाहिये । अगर महिलाओं के कैरियर को ज्यादा सम्मान मिलेगा और motherhood को कम, तो महिलायें प्रजनन में रुचि खो सकती हैं और यही बात समाज के लिए घातक है ।
आजकल वैसे भी एक या दो बच्चों का रिवाज हो चला है । यह रिवाज किसी एकाध परिवार के लिए निजी तौर पर आर्थिक दृष्टि से ठीक हो सकता है पर समाज के लिए ऐसी वृत्ति घातक है, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है । अगर सभी के पास एक ही सन्तान होगी जो खूब पढ़-लिख कर सिविल में काम करेगी या व्यापार आदि करेगी तो फिर सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा कौन करेगा ? तीन-चार भाइयों में से एक अगर देश पर शहीद हो जाये तो मां-बाप सब्र कर सकते हैं कि चलो, दो-तीन और लाल तो हैं पास में । पर अकेली सन्तान को तो कोई सेना में भर्ती ही नहीं करवायेगा । (बढती जनसंख्या या परिवार नियोजन के मुद्दे दूसरे हैं, अच्छा है इनको इस बहस में शामिल न किया जाये)
वैसे भी आजकल IT सेक्टर काफी तरक्की कर रहा है, दूसरे इलेक्ट्रानिक माध्यम भी काफी आ गये हैं । जवान बच्चे रातों को काम कर रहे हैं और दिन में सोते हैं । डाक्टरों का कहना है कि रात को काम करने के कारण उनका शरीर रोगों का घर बनता जा रहा है और उनकी कामशक्ति घट रही है । कैरियर के चक्कर में पड़कर लड़कियां कई साल नौकरी कर के तीस साल से ऊपर की उम्र में शादी कर रही हैं जो सन्तानोपत्ति में प्राकृतिक रुकावट साबित हो रही है । पारसियों की तरह कहीं हमारी कौम तो इस खतरे की ओर नहीं बढ़ रही ?
हमारी संस्कृति में मां को सदा ही ऊंचा स्थान दिया गया है । एक अनपढ़ मां को भी उतनी ही इज्जत दो । मातृत्व को सम्मान दो, इसी में हमारी भलाई है - मां तुझे सलाम !
.
मातृत्व का सम्मान
कोई पचास-साठ साल पहले अमेरिका में एक "Freedom of women" आन्दोलन चला था जिसका असर सारी दुनियां पर पड़ा । उसका "थीम" यह था कि महिलायें पुरुषों से किसी मामले में कम नहीं हैं फिर वे क्यों घर पर बैठी रहें और मर्दों की गुलामी करें ? बात तो गलत नहीं थी पर उसकी दिशा कुछ बदल सी गई । मर्दों जैसे ही कपड़े पहनने, उन्हीं जैसे भारी-भरकम मेहनत वाले काम करने का शौक महिलाओं में पैदा हुआ जिससे काफी सामाजिक समस्यायें पैदा हुई जिनको पश्चिमी समाज आज तक भुगत रहा है । कुछ देशों की जनसंख्या का ग्राफ गड़बड़ा गया जो आजकल चिन्ता का विषय बनता जा रहा है । इटली और स्पेन को चिन्ता है कि उनके यहां बच्चे कम पैदा हो रहे हैं और Immigration के कठोर कानूनों के बावजूद मुस्लिम देशों की आबादी वहां आ कर बस रही है । स्कैंडिनेविया, बेल्जियम और रूस आदि देशों में महिलाओं को बच्चे पैदा करने के incentive दिये जा रहे हैं । पश्चिमी संस्कृति ने पहले महिलाओं के परिवार-केन्द्रित सहज स्वभाव को "कैरियर" के चक्कर में तोड़ा । उन्हें कहा गया कि आप अपना कैरियर बनाइये, पैसा कमाइये और "स्वतंत्र जीवन शैली" अपनाइये । अब उन्हें प्रलोभन देकर वापस प्रजनन की तरफ मोड़ा जा रहा है ।
एक नजारा भारत का देखिये । जनगणना के मुताबिक भारत में पारसी समुदाय गायब होता जा रहा है । टाटा जैसे अमीर पारसी घरानों को भी इसकी चिन्ता सताये जा रही है । इसका मूल कारण पारसी महिलाओं का बहुत ऊंची शिक्षा लेना और पश्चिमी रंग में ढ़लना बताया जा रहा है । कहते हैं कि पारसी अमीर इसलिए हुए हैं कि उन्होंने ब्रिटिश राज्य से सहयोग करके ऊंचे पद हासिल किये और अपने बच्चों को भी ऐसे ओहदे दिलवाने के लिए अपने बच्चों को इंग्लैंड में शिक्षा के लिए भेजा और यह परंपरा आज भी जारी है । पारसियों की अमीरी ही आज उनके लुप्त होने का कारण बन रही है । पश्चिमी संस्कृति में महिलाओं के लिए रोल माडल कैरियर और पैसे का है, उस महिला को बुद्धू और पिछड़ा माना जाता है जिसने घर बैठ कर बच्चे पैदा किये । इसी संस्कृति को पारसी महिलाओं ने बखूबी अपनाया और इसीलिये आज उनका समुदाय लुप्त होने के कगार पर है ।
प्रसिद्ध पारसी हस्ती बहराम दस्तूर ने एक बार कहा था कि पारसी महिलायें तब ही विवाह करना चाहती हैं जब वे जीवन में 'settle' हो जायें और तब तक उसकी प्रजनन की आयु समाप्त हो चुकी होती है । उन्होंने कहा कि आखिर इतना पैसा होने पर भी वे 'settle' क्यों होना चाहती हैं ? भारतीय परम्परा में महिला को आर्थिक तौर पुरुष पर आधीन रहना होता है यानि पुरुष कमाये और वह घर बैठी खाये । वह सही उम्र में विवाह करती है, अपने पति के घर को संभालती है, बच्चे पैदा करती है और इसी से उसको सम्मान मिलता है । खुद पैसा कमाने के चक्कर से वह बेफिक्र होती है, खुद अपनी 'personality' की परवाह न करके अपने पति के status को ही अपना सुख मानती है और सुखी रहती है ।
पारसियों ने गलती यह की कि पश्चिमी संस्कृति के मुताबिक अपनी महिलाओं के "कैरियर" को अधिक महत्व दिया, मातृत्व (motherhood) को नहीं । जो कौमें इस पश्चिमी संस्कृति को अपनायेंगी वे इसी तरह लुप्त होंगी जैसे भारत में पारसी एवं पश्चिमी देशों में सफेद चमड़ी वाली कौमें । जो व्यक्ति अपने सुख और कैरियर को ज्यादा अहमीयत दे और कौम को अनदेखा करे, उसका लुप्त होना आश्चर्यजनक नहीं ।
एक प्रसिद्ध अमेरिकन anthropologist हुई हैं, जिनका नाम था Margaret Mead - यह वेब पेज देखिये (http://www.kirjasto.sci.fi/mmead.htm) । उसने 39 पुस्तकें लिखी जिनमें से एक थी "Male and Female" जो 1948 में छपी थी । मार्गारेट लिखती है कि पुरुषों की तरह महिलायें भी बचपन में सीखती हैं । जैसे एक संयुक्त परिवार में एक जेठानी है जो घरेलू महिला है और कई बच्चों की मां है । दूसरी तरफ उसकी देवरानी है जो काफी पढ़ी लिखी है और अच्छी नौकरी करती है । घर में उस जेठानी को बार-बार ताने दिये जाते हैं कि वह तो बस एक बच्चे पैदा करने की मशीन है । और उस देवरानी को सम्मान दिया जाता है कि वह खूब कमाती है । Margaret Mead लिखती है कि उस घर में यदि कोई 5-10 साल की लड़की है जो रोज यह सब सुनती है तो उसके मन में यह बात बैठ सकती है और वह बड़ी होने पर शायद कोई बच्चा पैदा न करे ।
यह समस्या पशुओं में भी देखी जा सकती है । एक चिड़ियाघर में नर और मादा शेर को साथ में रखने पर भी उनमें संभोग की इच्छा उत्पन्न नहीं हो रही थी । शेरों की संख्या कम होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि मादा शेरनी प्रजनन की ओर अनासक्त हो गई है । किसी भी समुदाय को अपना अस्तित्व बनाने के लिये महिलाओं के प्रजनन कार्य को सम्मान देना चाहिये । अगर महिलाओं के कैरियर को ज्यादा सम्मान मिलेगा और motherhood को कम, तो महिलायें प्रजनन में रुचि खो सकती हैं और यही बात समाज के लिए घातक है ।
आजकल वैसे भी एक या दो बच्चों का रिवाज हो चला है । यह रिवाज किसी एकाध परिवार के लिए निजी तौर पर आर्थिक दृष्टि से ठीक हो सकता है पर समाज के लिए ऐसी वृत्ति घातक है, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है । अगर सभी के पास एक ही सन्तान होगी जो खूब पढ़-लिख कर सिविल में काम करेगी या व्यापार आदि करेगी तो फिर सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा कौन करेगा ? तीन-चार भाइयों में से एक अगर देश पर शहीद हो जाये तो मां-बाप सब्र कर सकते हैं कि चलो, दो-तीन और लाल तो हैं पास में । पर अकेली सन्तान को तो कोई सेना में भर्ती ही नहीं करवायेगा । (बढती जनसंख्या या परिवार नियोजन के मुद्दे दूसरे हैं, अच्छा है इनको इस बहस में शामिल न किया जाये)
वैसे भी आजकल IT सेक्टर काफी तरक्की कर रहा है, दूसरे इलेक्ट्रानिक माध्यम भी काफी आ गये हैं । जवान बच्चे रातों को काम कर रहे हैं और दिन में सोते हैं । डाक्टरों का कहना है कि रात को काम करने के कारण उनका शरीर रोगों का घर बनता जा रहा है और उनकी कामशक्ति घट रही है । कैरियर के चक्कर में पड़कर लड़कियां कई साल नौकरी कर के तीस साल से ऊपर की उम्र में शादी कर रही हैं जो सन्तानोपत्ति में प्राकृतिक रुकावट साबित हो रही है । पारसियों की तरह कहीं हमारी कौम तो इस खतरे की ओर नहीं बढ़ रही ?
हमारी संस्कृति में मां को सदा ही ऊंचा स्थान दिया गया है । एक अनपढ़ मां को भी उतनी ही इज्जत दो । मातृत्व को सम्मान दो, इसी में हमारी भलाई है - मां तुझे सलाम !
.