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View Full Version : Negligence of Ayurveda



dndeswal
June 8th, 2008, 10:30 PM
(This post is in Devanagari script. If there is difficulty in reading the text, there is need to install ‘Mangal’ font (http://vedantijeevan.com:9700/font.htm).)

आयुर्वेद की अनदेखी

"घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध" - आजकल हम पर यह कहावत फिट हो रही है । नए-नए महंगे अस्पताल, क्लीनिक और नर्सिंग होम खुल रहे हैं पर आयुर्वेद पर न तो सरकार ज्यादा ध्यान दे रही है और न ही कोई इसमें खास investment कर रहा है । फिर भी सच्चाई यही है कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले हमारे देश में 80 प्रतिशत जनता अपने परम्परागत तरीकों पर ही निर्भर है । देश भर में आयुर्विज्ञान की शिक्षा के लिए एलोपैथिक मैडिकल कालेजों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धतियों की लगातार उपेक्षा हो रही है । खाद्य पदार्थों से कैंसर की औषधि तैयार करने वाले वाराणसी के डी. एस. रिसर्च सैंटर (http://www.cancercurative.org/aboutus.htm (http://www.cancercurative.org/aboutus.htm)) के वैज्ञानिक अपनी औषधि की मान्यता (Patent) और जांच के लिए पिछले बीस सालों से संघर्ष कर रहे हैं पर उनकी आवाज भारत सरकार को नहीं सुन रही । इस सैंटर के वैज्ञानिकों ने इस नव विकसित कैंसर क्यूरेटिव औषधि का वैज्ञानिक परीक्षण विभिन्न प्रकार के कैंसरों से ग्रस्त उन रोगियों पर किया है जो मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुके थे और जिन्हें कैंसर अस्पतालों ने निराश होकर घर ले जाने के लिए छोड़ा था । हरयाणा में स्वामी ओमानन्द ने भी आयुर्वैदिक दवाओं से कैंसर के इलाज का सफल प्रयास किया था पर धन की कमी के कारण योजना पूरी न हो सकी ।

धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत और शारंगधर जैसे भारतीय ऋषियों ने उस समय आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति का विकास किया था जब दुनियां में कहीं भी रोग चिकित्सा थी ही नहीं । आज भी आधुनिक विज्ञान सुश्रुत की शल्यक्रिया और चरक की औषधि की उपेक्षा नहीं कर सकता पर जब से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दवाओं का अपना कारोबार शुरु किया है तब से एक सोची-समझी रणनीति के तहत अन्य पद्धतियों के खिलाफ माहौल बनाया जाने लगा है । देश की दवा आवश्यकता का 85 प्रतिशत हिस्सा विदेशी कंपनियां पूरा कर रही हैं, इसलिए वे नहीं चाहतीं कि उनके कारोबार में किसी तरह से कोई कमी आए । सभी मानते हैं कि कोई भी एलोपैथिक दवा ऐसी नहीं है जिसका कोई हानिकारक प्रभाव (side effect) न हो । इस कारण जब से आयुर्वैदिक दवाइयों की मांग दुनियां भर में बढ़ने लगी तो बड़ी कंपनियों को खतरा महसूस होने लगा । कुछ समय पहले यह प्रचार किया गया कि आयुर्वैदिक दवाओं में जानवरों की हड्डियों की मिलावट की जाती है । बाबा रामदेव की योगशिक्षा और आयुर्वेद के प्रचार के कारण भारत में कुछ समय से बड़ी कंपनियों को कुछ घाटा नजर आया है और वे दुष्प्रचार के नए-नए तरीके ढूंढ रहे हैं ।

आयुर्वेद में 90 प्रतिशत दवायें चूर्ण, गोली, आसव, अरिष्ट, अवलेह, कैप्सूल आदि के रूप में दी जाती हैं, जो जड़ी-बूटियों से तैयार की जाती हैं, केवल 10 प्रतिशत दवाएं भस्मों के रूप में दी जाती हैं, जिनमें अधिकतर मिनरल व धातुओं से बनती हैं । केवल एक प्रतिशत भस्में ऐसी होती हैं जिनका सम्बन्ध जानवरों से होता है, लेकिन इनमें भी जानवरों की हड्डियों का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता । प्रवाल, मुक्ता, शंख आदि भस्मों में बेशक कौड़ियों, शंखों या मोतियों का प्रयोग किया जाता है, मगर इनमें से जानवर निकल चुके होते हैं ।

आयुर्वेद की अवनति के जिम्मेदार कुछ वे लोग भी हैं जो आयुर्वेद की नकली दवाइयां बनाते हैं, जिनको महंगे दामों पर बेचा जाता है और मरीजों को फायदा नहीं होता । सहारनपुर में कितने ही कारखाने हैं जो नकली शहद बनाते हैं, जिसकी पहचान करनी भी मुश्किल है । पर इसमें दोष आयुर्वेद का नहीं, हमारे यहां की व्यवस्था का है । एलोपैथिक दवाइयां भी नकली बनाई जा रही हैं और लोगों को ठगा जा रहा है ।

WHO का 95 प्रतिशत बजट पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की योजनाओं पर खर्च होता है, उनके इस ढांचे को तो समझा जा सकता है क्योंकि उनके बजट का ज्यादातर हिस्सा पश्चिमी देश उठाते हैं । पर हमारे देश में ही अपनी सरकार द्वारा आयुर्वेद की उपेक्षा समझ से परे है । आज हमारे से ज्यादा चीन भी आयुर्वैदिक औषधियों के विकास और कारोबार में जुटा हुआ है । आज किसी भी तरह का ज्ञान समृद्धि लाता है पर हम अपने स्रोतों की ही उपेक्षा कर रहे हैं ।
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devdahiya
June 9th, 2008, 08:12 AM
DND JI,


Kya-2 ginayein jiski kaddar nahin hoti
Bachhe kabbil hote tou maa nahin rotti
Beizzat kar diya jata hei naari ko sarre aam
Agar inssaniyat hoti tou hattyaein nahin hoti


Alo vera ko phiranggi patent kar bechane lagg gaye
Baba Ramdev keh-2 kar chhikk gaye
Quick-fix nei macha rakhkhi hei dhoom
Abb chhotti-2 chai ki pyali ka jamana hei DND ji,doodhh aale lotte tei kadd ke ladd gaye


Jaat gai,jameer gai,behssi kutton ka raaj hei
Sehnaiyan bajjti hein beimaan ke ghar,dekho sachhai kittani be-saaj hei
Kya-2 luut gaya list baddi lambbi hei
BEhayyaon ke aage aaj uthhata hi kaun awaaz hei.

ygulia
June 10th, 2008, 06:03 AM
DND JI,


Kya-2 ginayein jiski kaddar nahin hoti
Bachhe kabbil hote tou maa nahin rotti
Beizzat kar diya jata hei naari ko sarre aam
Agar inssaniyat hoti tou hattyaein nahin hoti


Alo vera ko phiranggi patent kar bechane lagg gaye
Baba Ramdev keh-2 kar chhikk gaye
Quick-fix nei macha rakhkhi hei dhoom
Abb chhotti-2 chai ki pyali ka jamana hei DND ji,doodhh aale lotte tei kadd ke ladd gaye


Jaat gai,jameer gai,behssi kutton ka raaj hei
Sehnaiyan bajjti hein beimaan ke ghar,dekho sachhai kittani be-saaj hei
Kya-2 luut gaya list baddi lambbi hei
BEhayyaon ke aage aaj uthhata hi kaun awaaz hei.

Sir aapki kavita bahut khoob hai
Aaj kal ki dasha ko kafi had tak byan karti hai

vivektaliyan
June 10th, 2008, 01:45 PM
Bilkul sahi kaha aapne. Aap ki 4 lines ne sabhi kuch bayan kar diya...

no more to say........................

prashantacmet
June 11th, 2008, 04:40 PM
(This post is in Devanagari script. If there is difficulty in reading the text, there is need to install ‘Mangal’ font (http://vedantijeevan.com:9700/font.htm).)

आयुर्वेद की अनदेखी

"घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध" - आजकल हम पर यह कहावत फिट हो रही है । नए-नए महंगे अस्पताल, क्लीनिक और नर्सिंग होम खुल रहे हैं पर आयुर्वेद पर न तो सरकार ज्यादा ध्यान दे रही है और न ही कोई इसमें खास investment कर रहा है । फिर भी सच्चाई यही है कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले हमारे देश में 80 प्रतिशत जनता अपने परम्परागत तरीकों पर ही निर्भर है । देश भर में आयुर्विज्ञान की शिक्षा के लिए एलोपैथिक मैडिकल कालेजों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धतियों की लगातार उपेक्षा हो रही है । खाद्य पदार्थों से कैंसर की औषधि तैयार करने वाले वाराणसी के डी. एस. रिसर्च सैंटर (http://www.cancercurative.org/aboutus.htm (http://www.cancercurative.org/aboutus.htm)) के वैज्ञानिक अपनी औषधि की मान्यता (Patent) और जांच के लिए पिछले बीस सालों से संघर्ष कर रहे हैं पर उनकी आवाज भारत सरकार को नहीं सुन रही । इस सैंटर के वैज्ञानिकों ने इस नव विकसित कैंसर क्यूरेटिव औषधि का वैज्ञानिक परीक्षण विभिन्न प्रकार के कैंसरों से ग्रस्त उन रोगियों पर किया है जो मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुके थे और जिन्हें कैंसर अस्पतालों ने निराश होकर घर ले जाने के लिए छोड़ा था ।हरयाणा में स्वामी ओमानन्द ने भी आयुर्वैदिक दवाओं से कैंसर के इलाज का सफल प्रयास किया था पर धन की कमी के कारण योजना पूरी न हो सकी ।

धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत और शारंगधर जैसे भारतीय ऋषियों ने उस समय आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति का विकास किया था जब दुनियां में कहीं भी रोग चिकित्सा थी ही नहीं । आज भी आधुनिक विज्ञान सुश्रुत की शल्यक्रिया और चरक की औषधि की उपेक्षा नहीं कर सकता पर जब से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दवाओं का अपना कारोबार शुरु किया है तब से एक सोची-समझी रणनीति के तहत अन्य पद्धतियों के खिलाफ माहौल बनाया जाने लगा है । देश की दवा आवश्यकता का 85 प्रतिशत हिस्सा विदेशी कंपनियां पूरा कर रही हैं, इसलिए वे नहीं चाहतीं कि उनके कारोबार में किसी तरह से कोई कमी आए । सभी मानते हैं कि कोई भी एलोपैथिक दवा ऐसी नहीं है जिसका कोई हानिकारक प्रभाव (side effect) न हो । इस कारण जब से आयुर्वैदिक दवाइयों की मांग दुनियां भर में बढ़ने लगी तो बड़ी कंपनियों को खतरा महसूस होने लगा । कुछ समय पहले यह प्रचार किया गया कि आयुर्वैदिक दवाओं में जानवरों की हड्डियों की मिलावट की जाती है । बाबा रामदेव की योगशिक्षा और आयुर्वेद के प्रचार के कारण भारत में कुछ समय से बड़ी कंपनियों को कुछ घाटा नजर आया है और वे दुष्प्रचार के नए-नए तरीके ढूंढ रहे हैं ।

आयुर्वेद में 90 प्रतिशत दवायें चूर्ण, गोली, आसव, अरिष्ट, अवलेह, कैप्सूल आदि के रूप में दी जाती हैं, जो जड़ी-बूटियों से तैयार की जाती हैं, केवल 10 प्रतिशत दवाएं भस्मों के रूप में दी जाती हैं, जिनमें अधिकतर मिनरल व धातुओं से बनती हैं । केवल एक प्रतिशत भस्में ऐसी होती हैं जिनका सम्बन्ध जानवरों से होता है, लेकिन इनमें भी जानवरों की हड्डियों का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता । प्रवाल, मुक्ता, शंख आदि भस्मों में बेशक कौड़ियों, शंखों या मोतियों का प्रयोग किया जाता है, मगर इनमें से जानवर निकल चुके होते हैं ।

आयुर्वेद की अवनति के जिम्मेदार कुछ वे लोग भी हैं जो आयुर्वेद की नकली दवाइयां बनाते हैं, जिनको महंगे दामों पर बेचा जाता है और मरीजों को फायदा नहीं होता । सहारनपुर में कितने ही कारखाने हैं जो नकली शहद बनाते हैं, जिसकी पहचान करनी भी मुश्किल है । पर इसमें दोष आयुर्वेद का नहीं, हमारे यहां की व्यवस्था का है । एलोपैथिक दवाइयां भी नकली बनाई जा रही हैं और लोगों को ठगा जा रहा है ।

WHO का 95 प्रतिशत बजट पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की योजनाओं पर खर्च होता है, उनके इस ढांचे को तो समझा जा सकता है क्योंकि उनके बजट का ज्यादातर हिस्सा पश्चिमी देश उठाते हैं । पर हमारे देश में ही अपनी सरकार द्वारा आयुर्वेद की उपेक्षा समझ से परे है । आज हमारे से ज्यादा चीन भी आयुर्वैदिक औषधियों के विकास और कारोबार में जुटा हुआ है । आज किसी भी तरह का ज्ञान समृद्धि लाता है पर हम अपने स्रोतों की ही उपेक्षा कर रहे हैं ।
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deswaal ji ...doosre ki bahu arr apne baalak sabne chokhe laagya karee:rock:rock

jitendershooda
June 11th, 2008, 06:20 PM
Bahut aacha likhya hai deshwal ji!!!

Ek aur baat hai ... ye davaiyan bhi in deshon se jyada apne doctor khuvave sein .... ye to kati ee aakhir ho jya to likhe hein davai ....