rajpaldular
August 14th, 2008, 05:48 PM
हमारे पास खुश होने के लिए पर्याप्त कारण हैं, क्योंकि चंडीगढ़ के अभिनव बिन्द्रा ने बीजिंग ओलम्पिक में दस मीटर एयर राइफल प्रतियोगिता में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता है। उन्होंने भारत को 108 साल में पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक दिलाकर इतिहास रचा है। इस शानदार जीत से ओलम्पिक के इतिहास में एकल प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक विहीन रहे हमारे देश में आशा और उत्साह का संचार होगा।
अभी जश्न मनाना न्यायसंगत है, लेकिन हमें देश में खेलों के प्रति बरते जा रहे उदासीन रवैये की ओर देखने की भी जरूरत है। अगर एक अकेला खिलाड़ी शीर्ष पर पहुंचा है तो प्रारम्भिक रूप से यह उसके अपने प्रयासों का ही नतीजा है। बिन्द्रा का ही उदाहरण लें। वे एक बहुत अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं। उनके माता-पिता ने उन्हें भरपूर समर्थन और संसाधन उपलब्ध करवाए हैं इसलिए वे सफल रहे। अभिनव के पिता के पास खुद की निजी शूटिंग रेंज हैं जहां अभिनव अभ्यास करते हैं। अभ्यास के लिए आवश्यक कीमती साजो-सामान उनके पिता द्वारा ही उपलब्ध करवाए जाते थे। निशानेबाजी जैसे खेल पर कभी राजे-रजवाड़ों और महाराजाओं का एकाधिकार हुआ करता था। यह बहुत महंगा खेल है। यह कहना उचित ही होगा कि अभिनव को जो सफलता हासिल हुई है, उसके पीछे केवल वे सहायक सुविधाएं ही नहीं बल्कि कुछ और भी हैं।
जिस ढंग से भारत में खेलों का प्रबंधन किया जाता है वह बहुत खेदजनक है। व्यवस्था किस तरह से काम करती है इसका सबूत भारोत्तोलक मोनिका देवी के प्रकरण में मिल गया है। मोनिका को बीजिंग जाने से रहस्यमय तरीके से रोक दिया गया। कौन जानता है कि अभिनव की ही तरह वह भी भारत के लिए पदक जीत जातीक् बीजिंग में स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया भर में छा जाने से पहले तक भारत में कुछ ही लोग थे, जो अभिनव को जानते थे।
ओलम्पिक से जुड़े मोनिका के सपने उस समय घ्वस्त हो गए जब वह हवाई अड्डे की ओर जा रही थी। उसे वापस लौटना पड़ा। उसके बीजिंग जाने का कोई महत्व नहीं रह गया था। किसी ने मोनिका को फोन किया और कहा कि ओलम्पिक में उनकी वापसी सम्भव नहीं है।
मोनिका ने तब बयान दिया था कि "मेरा विश्वास कीजिए यह पूरा प्रकरण शर्मनाक है। जब मुझे बीजिंग जाने से रोक दिया गया तब से लेकर अब तक का समय मेरी जिन्दगी का सबसे बुरा सपना था।" मोनिका के गृह राज्य मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी ने इस पूरे प्रकरण के लिए भारतीय ओलम्पिक संघ और भारतीय खेल प्राधिकरण पर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा है कि दोनों संगठनों ने गंदा खेल खेला है। उन्होंने इस मामले की केन्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच करवाने की मांग भी की है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि जो लोग हमारे देश में खेल सम्बन्धी मामले सम्भालते हैं वे राजनीति और भ्रष्टाचार से जुड़े हुए हैं। वे उभरते खिलाडि़यों को सुविधाएं मुहैया करवाने के बजाए अपने स्वार्थ साधते रहते हैं। यह सरकार का कर्तव्य है कि वह खेल और खेल संघों के प्रबंधन से राजनेताओं व नौकरशाहों को दूर रखे। खेलों को आदर्श रूप में कॉलेज, विश्वविद्यालयों, खेल संघों जैसी सामाजिक संस्थाओं के तहत रखा जाना चाहिए। जब बैंक, अर्द्धसैनिक बल और रेलवे खिलाडि़यों को प्रोत्साहित करते हैं, तो सरकार निजी क्षेत्र को भी प्रतियोगिताएं प्रायोजित करने और खिलाडि़यों को सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं।
सरकार खुद को खेलों के लिए आधारभूत संरचना व संसाधनों के निर्माण तक रोक कर भी उन्हें बहुत प्रोत्साहित कर सकती है। सरकार बस देश भर के स्कूल-कॉलेजों में खेल के मैदान, जिम्नेजियम, तरणताल आदि बनाए और खिलाडि़यों की प्रतिभा को वहां निखरने दे। भारत में प्रतिभाओं का अकाल कतई नहीं है, खेलों में ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में। उन्हें खोजकर उचित मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए।
जन स्तर पर खेलों और खेल संस्कृति को प्रोत्साहन देना ही उपलब्धियों की कुंजी है। अभिनव की तरह व्यक्तिगत उपलब्धियां कई बार दोहराई जा सकती हैं अगर हम देश भर में प्रभावी तरीके से खेलों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित करें। बीजिंग ओलम्पिक में 300 से ज्यादा स्वर्ण पदक वितरित होंगे, लेकिन अभी तक अभिनव द्वारा जीता गया स्वर्ण पदक ही भारत की झोली में है। अभिनव ने बीजिंग में स्वर्ण पदक जीतने के बाद इस बारे में बिलकुल सटीक टिप्पणी की है। अभिनव ने कहा था कि "मैं गम्भीरतापूर्वक यह आशा करता हूं कि मेरा पदक भारत के ओलम्पिक खेलों का चेहरा बदल देगा।" अभिनव की कहानी केवल प्रतिभा, दृढ़ता या संकल्प की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक उदासीन व्यवस्था के खिलाफ कुछ कर दिखाने की कहानी भी है। अभिनव देहरादून स्थित रिवर्डल स्कूल के छात्र रहे हैं और पत्राचार के माघ्यम से उन्होंने प्रबंधन की डिग्री हासिल की है। 14 वर्ष की उम्र में वे पहली बार निशानेबाजी के अभ्यास के लिए तुगलकाबाद (दिल्ली) स्थित शूटिंग रेंज में गए थे।
उनके कभी बहुत ज्यादा दोस्त नहीं रहे। वे बहुत शांत और अंतर्मुखी स्वभाव के रहे हैं। वे अपने दोस्तों के छोटे से समूह में रहते हैं, जिनमें से अधिकांश उतने अमीर नहीं, जितने वे हैं। अभिनव के पारिवारिक सदस्यों के अनुसार वे बेहद शांत और इस्पाती जोश से लबरेज हैं। वे बहुत कम बोलते हैं। निशानेबाजी के अतिरिक्त वे बहुत शानदार चित्रकार भी हैं।
अभिनव के पिता चंडीगढ़ के समृद्ध मांस निर्यातक हैं। उन्होंने निशानेबाजी का अभ्यास करने के लिए घर पर ही शूटिंग रेंज बनवाई है, जहां अभिनव अभ्यास करते हैं। एक समय था जब पीठ में ऎंठन के दर्द के कारण अभिनव बेहद पीडि़त रहते थे। उन्हें दुनिया के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सकों का इलाज मिला। दृढ़ विश्वास व जर्मन कोच की हौसला अफजाई से उन्होंने बीमारी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। आज उनके जर्मन कोच को अभिनव की जीत के बाद सर्वाधिक खुशी मिली है।
अभी जश्न मनाना न्यायसंगत है, लेकिन हमें देश में खेलों के प्रति बरते जा रहे उदासीन रवैये की ओर देखने की भी जरूरत है। अगर एक अकेला खिलाड़ी शीर्ष पर पहुंचा है तो प्रारम्भिक रूप से यह उसके अपने प्रयासों का ही नतीजा है। बिन्द्रा का ही उदाहरण लें। वे एक बहुत अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं। उनके माता-पिता ने उन्हें भरपूर समर्थन और संसाधन उपलब्ध करवाए हैं इसलिए वे सफल रहे। अभिनव के पिता के पास खुद की निजी शूटिंग रेंज हैं जहां अभिनव अभ्यास करते हैं। अभ्यास के लिए आवश्यक कीमती साजो-सामान उनके पिता द्वारा ही उपलब्ध करवाए जाते थे। निशानेबाजी जैसे खेल पर कभी राजे-रजवाड़ों और महाराजाओं का एकाधिकार हुआ करता था। यह बहुत महंगा खेल है। यह कहना उचित ही होगा कि अभिनव को जो सफलता हासिल हुई है, उसके पीछे केवल वे सहायक सुविधाएं ही नहीं बल्कि कुछ और भी हैं।
जिस ढंग से भारत में खेलों का प्रबंधन किया जाता है वह बहुत खेदजनक है। व्यवस्था किस तरह से काम करती है इसका सबूत भारोत्तोलक मोनिका देवी के प्रकरण में मिल गया है। मोनिका को बीजिंग जाने से रहस्यमय तरीके से रोक दिया गया। कौन जानता है कि अभिनव की ही तरह वह भी भारत के लिए पदक जीत जातीक् बीजिंग में स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया भर में छा जाने से पहले तक भारत में कुछ ही लोग थे, जो अभिनव को जानते थे।
ओलम्पिक से जुड़े मोनिका के सपने उस समय घ्वस्त हो गए जब वह हवाई अड्डे की ओर जा रही थी। उसे वापस लौटना पड़ा। उसके बीजिंग जाने का कोई महत्व नहीं रह गया था। किसी ने मोनिका को फोन किया और कहा कि ओलम्पिक में उनकी वापसी सम्भव नहीं है।
मोनिका ने तब बयान दिया था कि "मेरा विश्वास कीजिए यह पूरा प्रकरण शर्मनाक है। जब मुझे बीजिंग जाने से रोक दिया गया तब से लेकर अब तक का समय मेरी जिन्दगी का सबसे बुरा सपना था।" मोनिका के गृह राज्य मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी ने इस पूरे प्रकरण के लिए भारतीय ओलम्पिक संघ और भारतीय खेल प्राधिकरण पर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा है कि दोनों संगठनों ने गंदा खेल खेला है। उन्होंने इस मामले की केन्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच करवाने की मांग भी की है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि जो लोग हमारे देश में खेल सम्बन्धी मामले सम्भालते हैं वे राजनीति और भ्रष्टाचार से जुड़े हुए हैं। वे उभरते खिलाडि़यों को सुविधाएं मुहैया करवाने के बजाए अपने स्वार्थ साधते रहते हैं। यह सरकार का कर्तव्य है कि वह खेल और खेल संघों के प्रबंधन से राजनेताओं व नौकरशाहों को दूर रखे। खेलों को आदर्श रूप में कॉलेज, विश्वविद्यालयों, खेल संघों जैसी सामाजिक संस्थाओं के तहत रखा जाना चाहिए। जब बैंक, अर्द्धसैनिक बल और रेलवे खिलाडि़यों को प्रोत्साहित करते हैं, तो सरकार निजी क्षेत्र को भी प्रतियोगिताएं प्रायोजित करने और खिलाडि़यों को सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं।
सरकार खुद को खेलों के लिए आधारभूत संरचना व संसाधनों के निर्माण तक रोक कर भी उन्हें बहुत प्रोत्साहित कर सकती है। सरकार बस देश भर के स्कूल-कॉलेजों में खेल के मैदान, जिम्नेजियम, तरणताल आदि बनाए और खिलाडि़यों की प्रतिभा को वहां निखरने दे। भारत में प्रतिभाओं का अकाल कतई नहीं है, खेलों में ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में। उन्हें खोजकर उचित मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए।
जन स्तर पर खेलों और खेल संस्कृति को प्रोत्साहन देना ही उपलब्धियों की कुंजी है। अभिनव की तरह व्यक्तिगत उपलब्धियां कई बार दोहराई जा सकती हैं अगर हम देश भर में प्रभावी तरीके से खेलों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित करें। बीजिंग ओलम्पिक में 300 से ज्यादा स्वर्ण पदक वितरित होंगे, लेकिन अभी तक अभिनव द्वारा जीता गया स्वर्ण पदक ही भारत की झोली में है। अभिनव ने बीजिंग में स्वर्ण पदक जीतने के बाद इस बारे में बिलकुल सटीक टिप्पणी की है। अभिनव ने कहा था कि "मैं गम्भीरतापूर्वक यह आशा करता हूं कि मेरा पदक भारत के ओलम्पिक खेलों का चेहरा बदल देगा।" अभिनव की कहानी केवल प्रतिभा, दृढ़ता या संकल्प की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक उदासीन व्यवस्था के खिलाफ कुछ कर दिखाने की कहानी भी है। अभिनव देहरादून स्थित रिवर्डल स्कूल के छात्र रहे हैं और पत्राचार के माघ्यम से उन्होंने प्रबंधन की डिग्री हासिल की है। 14 वर्ष की उम्र में वे पहली बार निशानेबाजी के अभ्यास के लिए तुगलकाबाद (दिल्ली) स्थित शूटिंग रेंज में गए थे।
उनके कभी बहुत ज्यादा दोस्त नहीं रहे। वे बहुत शांत और अंतर्मुखी स्वभाव के रहे हैं। वे अपने दोस्तों के छोटे से समूह में रहते हैं, जिनमें से अधिकांश उतने अमीर नहीं, जितने वे हैं। अभिनव के पारिवारिक सदस्यों के अनुसार वे बेहद शांत और इस्पाती जोश से लबरेज हैं। वे बहुत कम बोलते हैं। निशानेबाजी के अतिरिक्त वे बहुत शानदार चित्रकार भी हैं।
अभिनव के पिता चंडीगढ़ के समृद्ध मांस निर्यातक हैं। उन्होंने निशानेबाजी का अभ्यास करने के लिए घर पर ही शूटिंग रेंज बनवाई है, जहां अभिनव अभ्यास करते हैं। एक समय था जब पीठ में ऎंठन के दर्द के कारण अभिनव बेहद पीडि़त रहते थे। उन्हें दुनिया के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सकों का इलाज मिला। दृढ़ विश्वास व जर्मन कोच की हौसला अफजाई से उन्होंने बीमारी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। आज उनके जर्मन कोच को अभिनव की जीत के बाद सर्वाधिक खुशी मिली है।