rajpaldular
August 29th, 2008, 10:53 AM
इसमें कोई संदेह नहीं कि दद्दा के नाम से मशहूर घ्यान चंद से बड़ा खिलाड़ी भारत में आज तक नहीं हुआ। "जादूगर" के नाम से विख्यात घ्यान चंद जैसा प्रभाव हॉकी के इतिहास में कोई और खिलाड़ी नहीं छोड़ सका है। वर्तमान पीढ़ी भले ही घ्यान चंद के बारे में अधिक नहीं जानती हो, लेकिन ऎसा भी दौर गुजरा है जब घ्यान चंद का नाम डॉन ब्रैडमैन, जैसी ओवेंस और बेब रूथ के साथ लिया जाता था।
घ्यान चंद असाधारण खिलाड़ी थे। कहा जाता है हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं छुपा है, जापानियों को लगा कि वे स्टिक पर गौंद लगाकर खेलते हैं जबकि एडोल्फ हिटलर ने उन्हें जर्मन फौज में फील्ड मार्शल का पद तक देने की पेशकश कर डाली। हो सकता है ये बातें पूरी तरह सच नहीं हों, लेकिन इतना सच है कि इस तरह की बातें किसी और खिलाड़ी के लिए आज तक नहीं कही गर्ई। 29 अगस्त घ्यान चंद का जन्म दिवस है। उनकी स्मृति में इस दिन को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन राष्ट्रपति राजीव गांधी खेल रत्न, अर्जन अवार्ड तथा द्रोणाचार्य अवार्ड जैसे खेल पुरस्कार प्रदान करते हैं।
हॉकी ने बदला उपनाम
29 अगस्त, 1905 को इलाहबाद में जन्में घ्यान चंद राजपूत परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनका वास्तविक नाम घ्यान सिंह था, लेकिन उन्हें रात में चंद्रमा की रोशनी में अभ्यास करते देख एक सेना अधिकारी ने उनका नाम घ्यान चंद रख दिया। तब से इस सभी इस महान खिलाड़ी को घ्यान चंद के नाम से जानते हैं।
ताड़ के पेड़ से बनाई स्टिक
घ्यान चंद के हॉकी करियर की शुरूआत भी बेहद साधारण तरीके से हुई। उन्होंने कुछ साथियों के साथ ताड़ के वृक्ष की शाखाओं को काटकर और उसकी पत्तियों को हटा उसे स्टिक का रूप दिया। आगे से घुमावदार शक्ल लिए हुए वह लकड़ी का टुकड़ा बिल्कुल हॉकी स्टिक की तरह बन पड़ा था। उन्होंने पुराने कपड़ों से एक गेंद बनाई और वहीं से उनके हॉकी खेलने की शुरूआत हुई।
हॉकी ने दिलाई नौकरी
एक बार घ्यान चंद अपने पिता के साथ हॉकी मैच देखने गए। घ्यानचंद ने दो गोल से पिछड़ रही टीम के बारे में कहा कि अगर उन्हें हॉकी स्टिक दे दी जाए तो वे हारी हुई टीम को जिता सकते हैं। उनके पिता ने उन्हें चुप रहने को कहा। लेकिन नजदीक बैठे एक ब्रिटिश सेना अधिकारी ने बच्चे को प्रोत्साहित करने के इरादे से घ्यान चंद को खेलने की इजाजत दे दी। घ्यान चंद ने मैच में चार गोल दागे। वह ब्रिटिश अधिकारी उनसे बेहद प्रभावित हुआ और 1922 में घ्यान चंद 16 वर्ष की उम्र में सिपाही के पद पर नियुक्त किए गए।
भोले तिवारी थे पहले कोच
रेजीमेंट में घ्यान चंद सूबेदार मेजर भोले तिवारी के सम्पर्क में आए जो स्वयं अच्छे खिलाड़ी थे। उन्होंने घ्यान चंद की प्रतिभा को पहचाना और उनके पहले कोच बने। 1922 से 1926 तक घ्यान चंद ने आर्मी टूर्नामेंट में अपनी रेजीमेंट का प्रतिनिधित्व किया। घ्यान चंद ने रेजीमेंट को सेना के वार्षिक टूर्नामेंट का खिताब दिलाया।
ऎसे बने हॉकी के जादूगर
सन् 1925 में झेलम में आयोजित पंजाब इंडियन इफेंट्री टूर्नामेंट के फाइनल मैच में घ्यान चंद की टीम हार के करीब थी और केवल चार मिनट का समय बचा था। तब कमांडिंग ऑफिसर के प्रोत्साहित करने पर घ्यान चंद ने अगले ही सैकण्ड में गोल कर दिखाया। उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा और मैच के अंतिम मिनट में उन्होंने विजयी गोल दागा। इस मैच के बाद ही घ्यान चंद को हॉकी का जादूगर कहा जाने लगा।
बदली हॉकी स्टिक
घ्यान चंद के खेल कौशल को देखकर लोग समझते थे कि उनकी हॉकी स्टिक में चुम्बक लगा हुआ है। इसके लिए एक बार आर्मी हॉकी मैच के अंतराल के दौरान एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी ने अपने पति की स्टिक के साथ घ्यान चंद की हॉकी स्टिक बदल दी। लेकिन घ्यान चंद ने पहले की तरह सैकण्ड हाफ में भी कई गोल किए।
खेल के साथ ड्यूटी
घ्यान चंद खेल के साथ अपनी ड्यूटी भी पूरी लगन से अंजाम देते थे। वे ज्यादा समय अभ्यास न करके अपना काम करते थे। रात को जब उनकी रेजीमेंट के सभी लोग आराम करते थे तब वे अकेले मैदान में हॉकी स्टिक और गेंद लिए अभ्यास करते थे।
एम्सटरडैम में पहला ओलम्पिक
1928 के एम्सटरडैम ओलम्पिक में भारतीय टीम ने पहली बार हिस्सा लिया। सेमीफाइनल में स्विट्जरलैण्ड को 6-0 से मात देने के बाद फाइनल में भारत का मुकाबला मेजबान हॉलैण्ड से था। हॉलैण्ड टीम के सर्मथन में 50 हजार से भी ज्यादा लोग एकत्रित हुए थे। तब टीम मैनेजर एबी रोसर ने टीम को करो या मरो का नारा दिया। एक फौजी होने के नाते घ्यान चंद इस पंक्ति का अर्थ बेहतर तरीके से समझते थे। घ्यान चंद के दो गोल की मदद से भारत ने यह मैच 3-0 से जीता और पहली बार स्वर्ण पदक हासिल कर देश को विश्व हॉकी में पहचान दिलाई। यह आधुनिक ओलम्पिक में भारत का ही नहीं बल्कि एशिया का पहला स्वर्ण पदक था।
अंतिम दिन सुखद नहीं
घ्यान चंद के अंतिम दिन सुखद नहीं रहे। लिवर के कैंसर से पीडि़त होने के बाद उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया। लेकिन उन्हें जनरल वार्ड में भेज दिया गया। बाद में एक अखबार में छपी रिपोर्ट के बाद उन्हें प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट किया गया।
मैदान पर अंतिम संस्कार
घ्यान चंद का अंतिम संस्कार किसी घाट या श्मशान की बजाए झांसी के उस मैदान पर किया गया जहां वे हॉकी खेलते थे। उनकी अंतिम इच्छा भी यही थी।
उपलब्घियां और सम्मान
घ्यान चंद 1928, 1932 और 1936 में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य थे। उन्हें 1956 में पkभूषण से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उनकी मृत्यु के एक वर्ष बाद 1980 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया। वर्ष 2002 में उनके नाम से खेलों के लिए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड शुरू किया गया।
"आई एम मैरिड"
घ्यान चंद बहुत सीधे सादे इंसान थे। बर्लिन में 1936 में आयोजित ओलंपिक खेलों के बाद भारतीय टीम ने चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में महिलाओं की टीम के खिलाफ प्रदर्शन मैच खेला। एक महिला दर्शक घ्यान चंद के खेल से बहुत प्रभावित हुई। उसने घ्यान चंद के पास जाकर कहा, "आई वौंट टू किस यू।" घ्यान चंद इस पर शर्मा गए और पीछे हटते हुए बोले, "आई एम मैरिड।"
ब्रैडमैन थे कायल
आस्टे्रलिया के क्रिकेट दिग्गज सर डॉन ब्रैडमैन भी घ्यान चंद की प्रतिभा के कायल हो गए थे। घ्यान चंद और ब्रैडमैन की मुलाकत 1935 में एडिलेड में हुई। ब्रैडमैन ने घ्यान चंद का खेल देखने के बाद कहा, यह खिलाड़ी इस तरह गोल करता है जैसे कोई बल्लेबाज रन बना रहा हो। घ्यान चंद ने आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के उस दौरे में 43 मैचों में 201 गोल किए थे।
हॉबीज
हलवा बनाने में एक्सपर्ट थे
घ्यान चंद को शिकार करना और मछली पकड़ना पसंद था। वे कई घंटे मछली पकड़ने में गुजार देते थे। उन्हें खाना बनाने का भी शौक था। घ्यान चंद नॉन वेजिटेरियन थे और अपने दोस्तों को मटन और फिश पकाकर खिलाया करते थे। वे हलवा बनाने में भी एक्सपर्ट थे। उनके द्वारा बनाए गए हलवे में घी टपकता रहता था और बहुत स्वादिष्ट होता था।
खड़े होकर दूध पीते थे
घ्यान चंद खड़े होकर दूध पीते थे। उनका मानना था कि इस तरह दूध सीधा बॉडी सिस्टम में जाता है और फायदेमंद होता है।
गामा पहलवान के दीवाने
युवावस्था में घ्यानचंद गामा पहलवान की वजह से कुश्ती के बड़े शौकीन थे। उन दिनों कुश्ती सबसे लोकप्रिय खेल था तथा गामा पहलवान बेहद मशहूर थे। घ्यान चंद भी अन्य हम उम्र युवाओं की तरह गामा को ही अपना आदर्श मानते थे।
एकांत पसंद था
घ्यान चंद को घूमना फिरना ज्यादा पसंद नहीं था। वे ज्यादा बातचीत के शौकीन नहीं थे। घ्यान चंद कम बोलते थे और अधिकांश समय घर में ही व्यतीत करते थे। उनका सोचना था कि आदमी को ज्यादा बोलने की बजाए अपने काम पर घ्यान देना चाहिए।
बिलियड्र्स के भी शौकीन थे
घ्यान चंद को बिलियड्र्स खेलना बेहद पसंद था। वह रिटायरमैंट के बाद अपने गृहनगर झांसी में हर रोज देर रात तक बिलियड्र्स खेलते थे। वे क्रिकेट के भी अच्छे खिलाड़ी थे और पटियाला के राष्ट्रीय खेल संस्थान (एनआईएस) में बच्चों के साथ घंटों किकेट का लुत्फ उठाते थे। घ्यान चंद को फोटोग्राफी भी पसंद थी लेकिन महंगा कैमरा खरीदने के पैसे नहीं होने के कारण वे अपने पुराने कैमरे से ही फोटो खींचकर अपना शौक पूरा करते थे।
घ्यान चंद असाधारण खिलाड़ी थे। कहा जाता है हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं छुपा है, जापानियों को लगा कि वे स्टिक पर गौंद लगाकर खेलते हैं जबकि एडोल्फ हिटलर ने उन्हें जर्मन फौज में फील्ड मार्शल का पद तक देने की पेशकश कर डाली। हो सकता है ये बातें पूरी तरह सच नहीं हों, लेकिन इतना सच है कि इस तरह की बातें किसी और खिलाड़ी के लिए आज तक नहीं कही गर्ई। 29 अगस्त घ्यान चंद का जन्म दिवस है। उनकी स्मृति में इस दिन को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन राष्ट्रपति राजीव गांधी खेल रत्न, अर्जन अवार्ड तथा द्रोणाचार्य अवार्ड जैसे खेल पुरस्कार प्रदान करते हैं।
हॉकी ने बदला उपनाम
29 अगस्त, 1905 को इलाहबाद में जन्में घ्यान चंद राजपूत परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनका वास्तविक नाम घ्यान सिंह था, लेकिन उन्हें रात में चंद्रमा की रोशनी में अभ्यास करते देख एक सेना अधिकारी ने उनका नाम घ्यान चंद रख दिया। तब से इस सभी इस महान खिलाड़ी को घ्यान चंद के नाम से जानते हैं।
ताड़ के पेड़ से बनाई स्टिक
घ्यान चंद के हॉकी करियर की शुरूआत भी बेहद साधारण तरीके से हुई। उन्होंने कुछ साथियों के साथ ताड़ के वृक्ष की शाखाओं को काटकर और उसकी पत्तियों को हटा उसे स्टिक का रूप दिया। आगे से घुमावदार शक्ल लिए हुए वह लकड़ी का टुकड़ा बिल्कुल हॉकी स्टिक की तरह बन पड़ा था। उन्होंने पुराने कपड़ों से एक गेंद बनाई और वहीं से उनके हॉकी खेलने की शुरूआत हुई।
हॉकी ने दिलाई नौकरी
एक बार घ्यान चंद अपने पिता के साथ हॉकी मैच देखने गए। घ्यानचंद ने दो गोल से पिछड़ रही टीम के बारे में कहा कि अगर उन्हें हॉकी स्टिक दे दी जाए तो वे हारी हुई टीम को जिता सकते हैं। उनके पिता ने उन्हें चुप रहने को कहा। लेकिन नजदीक बैठे एक ब्रिटिश सेना अधिकारी ने बच्चे को प्रोत्साहित करने के इरादे से घ्यान चंद को खेलने की इजाजत दे दी। घ्यान चंद ने मैच में चार गोल दागे। वह ब्रिटिश अधिकारी उनसे बेहद प्रभावित हुआ और 1922 में घ्यान चंद 16 वर्ष की उम्र में सिपाही के पद पर नियुक्त किए गए।
भोले तिवारी थे पहले कोच
रेजीमेंट में घ्यान चंद सूबेदार मेजर भोले तिवारी के सम्पर्क में आए जो स्वयं अच्छे खिलाड़ी थे। उन्होंने घ्यान चंद की प्रतिभा को पहचाना और उनके पहले कोच बने। 1922 से 1926 तक घ्यान चंद ने आर्मी टूर्नामेंट में अपनी रेजीमेंट का प्रतिनिधित्व किया। घ्यान चंद ने रेजीमेंट को सेना के वार्षिक टूर्नामेंट का खिताब दिलाया।
ऎसे बने हॉकी के जादूगर
सन् 1925 में झेलम में आयोजित पंजाब इंडियन इफेंट्री टूर्नामेंट के फाइनल मैच में घ्यान चंद की टीम हार के करीब थी और केवल चार मिनट का समय बचा था। तब कमांडिंग ऑफिसर के प्रोत्साहित करने पर घ्यान चंद ने अगले ही सैकण्ड में गोल कर दिखाया। उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा और मैच के अंतिम मिनट में उन्होंने विजयी गोल दागा। इस मैच के बाद ही घ्यान चंद को हॉकी का जादूगर कहा जाने लगा।
बदली हॉकी स्टिक
घ्यान चंद के खेल कौशल को देखकर लोग समझते थे कि उनकी हॉकी स्टिक में चुम्बक लगा हुआ है। इसके लिए एक बार आर्मी हॉकी मैच के अंतराल के दौरान एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी ने अपने पति की स्टिक के साथ घ्यान चंद की हॉकी स्टिक बदल दी। लेकिन घ्यान चंद ने पहले की तरह सैकण्ड हाफ में भी कई गोल किए।
खेल के साथ ड्यूटी
घ्यान चंद खेल के साथ अपनी ड्यूटी भी पूरी लगन से अंजाम देते थे। वे ज्यादा समय अभ्यास न करके अपना काम करते थे। रात को जब उनकी रेजीमेंट के सभी लोग आराम करते थे तब वे अकेले मैदान में हॉकी स्टिक और गेंद लिए अभ्यास करते थे।
एम्सटरडैम में पहला ओलम्पिक
1928 के एम्सटरडैम ओलम्पिक में भारतीय टीम ने पहली बार हिस्सा लिया। सेमीफाइनल में स्विट्जरलैण्ड को 6-0 से मात देने के बाद फाइनल में भारत का मुकाबला मेजबान हॉलैण्ड से था। हॉलैण्ड टीम के सर्मथन में 50 हजार से भी ज्यादा लोग एकत्रित हुए थे। तब टीम मैनेजर एबी रोसर ने टीम को करो या मरो का नारा दिया। एक फौजी होने के नाते घ्यान चंद इस पंक्ति का अर्थ बेहतर तरीके से समझते थे। घ्यान चंद के दो गोल की मदद से भारत ने यह मैच 3-0 से जीता और पहली बार स्वर्ण पदक हासिल कर देश को विश्व हॉकी में पहचान दिलाई। यह आधुनिक ओलम्पिक में भारत का ही नहीं बल्कि एशिया का पहला स्वर्ण पदक था।
अंतिम दिन सुखद नहीं
घ्यान चंद के अंतिम दिन सुखद नहीं रहे। लिवर के कैंसर से पीडि़त होने के बाद उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया। लेकिन उन्हें जनरल वार्ड में भेज दिया गया। बाद में एक अखबार में छपी रिपोर्ट के बाद उन्हें प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट किया गया।
मैदान पर अंतिम संस्कार
घ्यान चंद का अंतिम संस्कार किसी घाट या श्मशान की बजाए झांसी के उस मैदान पर किया गया जहां वे हॉकी खेलते थे। उनकी अंतिम इच्छा भी यही थी।
उपलब्घियां और सम्मान
घ्यान चंद 1928, 1932 और 1936 में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य थे। उन्हें 1956 में पkभूषण से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उनकी मृत्यु के एक वर्ष बाद 1980 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया। वर्ष 2002 में उनके नाम से खेलों के लिए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड शुरू किया गया।
"आई एम मैरिड"
घ्यान चंद बहुत सीधे सादे इंसान थे। बर्लिन में 1936 में आयोजित ओलंपिक खेलों के बाद भारतीय टीम ने चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में महिलाओं की टीम के खिलाफ प्रदर्शन मैच खेला। एक महिला दर्शक घ्यान चंद के खेल से बहुत प्रभावित हुई। उसने घ्यान चंद के पास जाकर कहा, "आई वौंट टू किस यू।" घ्यान चंद इस पर शर्मा गए और पीछे हटते हुए बोले, "आई एम मैरिड।"
ब्रैडमैन थे कायल
आस्टे्रलिया के क्रिकेट दिग्गज सर डॉन ब्रैडमैन भी घ्यान चंद की प्रतिभा के कायल हो गए थे। घ्यान चंद और ब्रैडमैन की मुलाकत 1935 में एडिलेड में हुई। ब्रैडमैन ने घ्यान चंद का खेल देखने के बाद कहा, यह खिलाड़ी इस तरह गोल करता है जैसे कोई बल्लेबाज रन बना रहा हो। घ्यान चंद ने आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के उस दौरे में 43 मैचों में 201 गोल किए थे।
हॉबीज
हलवा बनाने में एक्सपर्ट थे
घ्यान चंद को शिकार करना और मछली पकड़ना पसंद था। वे कई घंटे मछली पकड़ने में गुजार देते थे। उन्हें खाना बनाने का भी शौक था। घ्यान चंद नॉन वेजिटेरियन थे और अपने दोस्तों को मटन और फिश पकाकर खिलाया करते थे। वे हलवा बनाने में भी एक्सपर्ट थे। उनके द्वारा बनाए गए हलवे में घी टपकता रहता था और बहुत स्वादिष्ट होता था।
खड़े होकर दूध पीते थे
घ्यान चंद खड़े होकर दूध पीते थे। उनका मानना था कि इस तरह दूध सीधा बॉडी सिस्टम में जाता है और फायदेमंद होता है।
गामा पहलवान के दीवाने
युवावस्था में घ्यानचंद गामा पहलवान की वजह से कुश्ती के बड़े शौकीन थे। उन दिनों कुश्ती सबसे लोकप्रिय खेल था तथा गामा पहलवान बेहद मशहूर थे। घ्यान चंद भी अन्य हम उम्र युवाओं की तरह गामा को ही अपना आदर्श मानते थे।
एकांत पसंद था
घ्यान चंद को घूमना फिरना ज्यादा पसंद नहीं था। वे ज्यादा बातचीत के शौकीन नहीं थे। घ्यान चंद कम बोलते थे और अधिकांश समय घर में ही व्यतीत करते थे। उनका सोचना था कि आदमी को ज्यादा बोलने की बजाए अपने काम पर घ्यान देना चाहिए।
बिलियड्र्स के भी शौकीन थे
घ्यान चंद को बिलियड्र्स खेलना बेहद पसंद था। वह रिटायरमैंट के बाद अपने गृहनगर झांसी में हर रोज देर रात तक बिलियड्र्स खेलते थे। वे क्रिकेट के भी अच्छे खिलाड़ी थे और पटियाला के राष्ट्रीय खेल संस्थान (एनआईएस) में बच्चों के साथ घंटों किकेट का लुत्फ उठाते थे। घ्यान चंद को फोटोग्राफी भी पसंद थी लेकिन महंगा कैमरा खरीदने के पैसे नहीं होने के कारण वे अपने पुराने कैमरे से ही फोटो खींचकर अपना शौक पूरा करते थे।