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View Full Version : Vichar Kranti!



PARVYUG
June 2nd, 2011, 08:46 AM
सदुपयोग न हो पाने की विडंबना


प्रगति के नाम पर जो पाया गया था, यदि उसका सदुपयोग सत्प्रयोजन के लिए, सर्वजनीन हित साधन के लिए किया गया होता, तो आज दुनियाँ कितनी सुन्दर और समुन्नत होती, इसकी कल्पना सहज ही हो सकती है । पर दुर्भाग्य तो देखिये, जिसने समझदार कहलाने वालों को संकीर्ण स्वार्थपरता की जंजीर में कसकर बाँध लिया और जो हाथ लगा उसे दुरुपयोग करने के लिए ही प्रेरित किया, फल सामने है ।

क्या गरीब क्या अमीर, सभी साधनों की दृष्टि से संतुष्ट हैं और कुबेर जैसा वैभववान बनना चाहते हैं । मिल बाँटकर खाने की किसी को इच्छा नहीं । एक-दूसरे का शोषण-दोहन करने के लिए ही आतुर हैं और निरंतर चिंतित असंतुष्ट, उद्विग्न और आकुल-व्याकुल बने रहते हैं । ऊपर की चमक देखकर प्रगति का भ्रम तो हो जाता है, पर वस्तुतः मनुष्य अपना शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्वास्थ्य पूरी तहर गँवा चुका है ।

मरघट के भूत-पलीतों की तरह आशंकाओं और उद्विग्नताओं के बीच डरता-डरता जीवन जीता है । यह समूचा जाल-जंजाल मात्र भ्रांतियों के समुच्चय पर आधारित है । यदि सही विचार करने और सही जीवन जीने की कला समझी और अपनाई गई होती, तो आज संसार में सर्वत्र प्रगति, प्रसन्नता और सुख शांति का वातावरण ही बिखरा पड़ा होता । स्नेह, सौजन्य, सद्भाव और सहयोग के वातावरण में, यहाँ हर किसी को उल्लास और आनंद का ही अनुभव होता रहता ।

इसके विपरीत आज सर्वत्र अनाचार का ही बोलबाला दिखता है । जो शांति और संतोष पूर्वक जी रहे हैं, वे अँगुलियों पर गिने जाने जितनी स्वल्प संख्या में ही हैं । कुकृत्यों, कुविचारों की ही देन है । विक्षोभ, भ्रांतियों से ग्रसित होने पर ही सताता है । आज की प्रमुख समस्या है-विचार विकृति, आस्था संकट, भ्रांतियों का घटाटोप और कुविचारों का साम्राज्य । इस जड़ को काटे बिना काँटों की तरह बिखरे कष्टों से छुटकारा नहीं मिलेगा । विषवृक्ष को काटे बिना सुख शांति की आशा कैसे की जा सकती है?

PARVYUG
June 2nd, 2011, 08:50 AM
अश्लीलता की विभीषिका : एक चुनौती कामदेव का कौतुक

ऐसा कहा जाता है कि एक बार 'कामदेव' ने लोगों को परेशान करने की ठानी और अपनी माया चारों ओर फैला दी। वह लोगों के मन में घुस गया और हर एक के मन में असीम काम वासनाएं भड़का दीं। पहले लोग अपनी सीमित आवश्यकताएं थोड़े से श्रम से पूरी कर लेते थे, संतुष्ट रहते थे एवं सभी के मन में शांति थी, पर जब कामनाएं भड़कीं तो उद्विग्नता सवार हो गई। कोई धन-संग्रह की, कोई काम वासनाओं की पूर्ति की और कोई किसी पदवी को पाने की इच्छा पूरी करने की होड़ में लग गयया। इस प्रतिस्पर्धा में औचित्य छूट गया, प्रतिद्वंद्विता बढ़ी, मन उत्तेजित हुआ,र् ईष्या-द्वेष बढ़ गए और चारों ओर अशांति फैल गई। कामदेवता ने इतना ही नहीं किया, विलासिता के एक से बढ़कर एक साधन-प्रसाधन उपलब्ध करा दिए। इंद्रियभोगों को भड़काने वाली ढेरों सामग्री रच दी। बुध्दि विलासिता को जीवन का सर्वोपरि आनंद मानने लगी। सजावट, शोभा, शृंगार, शान, विलास, वासना, क्रीड़ा-कौतुक, नंगे प्रदर्शन का आकर्षण इतना बढा कि लगने लगा कि अब विलासिता और कामनाओं की पूर्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य बन कर रह गया है।


किसी को नहीं छोड़ा काम ने कामदेवता अपने इस कौतुक पर बड़ा प्रसन्न था। उसने भगवद्भक्तों की भी दुर्दशा कर डाली, आम लोगों की भी। सभी को वासना-विलास का प्रतीक प्रतिनिधि बना दिया। शृंगार, हार, हास-विलास, भोग-उपभोग के माध्यम ही भगवान की पूजा कहलाने लगे। तप-त्याग, संयम-सेवा के ईश्वर भक्तों के प्रमुख विधान न जाने कहां तिरोहित हो गए। भगवान के चरित्रों की भी शृंगारपरक चर्चाएं होने लगीं। लोग उन्हीं में रस लेने लगे। भक्ति का भी जब यही स्वरूप प्रचलित हो उठा तो भगवान की आत्मा भी कराह उठी। उसने सोचा कि इस दुष्ट कामदेवता ने मुझ भगवान की भी ऐसी दुर्गति कर डाली।

महाकाल आए आगे सृष्टि के मुकुटमणि, परमेश्वर के उत्तराधिकारी मनुष्य की यह स्थिति देवाधिदेव भगवान महादेव ने भी देखी। उनने ध्यानमग्न होकर देखा कि स्थिति वैसी ही है, जैसी कि धरती की करुण कराह बता रही है। तब उनने प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया को गति देने के लिये कामदेवता को उचित दंड देने और उसकी इस माया-मरीचिका को निरस्त करने के लिये त्रिशूल उठाया। भगवान शिव ने तीसरा नेत्र खोला। उसके खुलते ही एक भयंकर दावानल प्रकट हुआ, जिससे वह सारा माया-कलेवर देखते-देखते जलकर भस्म हो गया। संसार को शांति मिली और मनुष्य भगवान अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। दसों दिशाओं में महाकाल की जय-जयकार होने लगी एवं सभी की जीवनशैली पुन: अध्यात्मप्रधान हो गई।

आज उसी की पुनरावृत्ति
मालूम नहीं, हम इस कथानक को मात्र पौराणिक प्रसंग भर मान बैठे हैं या एक काल्पनिक वृतांत, परन्तु यह आज फिर पुनरावृत्ति कर रहा है। आज कामदेवता ने अश्लीलता के उद्भव द्वारा मानवीय चेतना में असंख्य प्रकार की कामनाएं भड़का दी हैं। स्वार्थ बढ़ रहा है, पाप प्रचंड हो रहा है और नरक की ज्वालाएं हर क्षेत्र में धधकती चली जा रही हैं। स्थिति फिर असह्य हो उठी हैं और हम सर्वनाश के कगार पर आ खड़े हुए हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल का तीसरा नेत्र नहीं खुला तो यह स्थिति और भयंकर हो जाएगी। यह तीसरा नेत्र और कुछ नहीं, व्यापक विवेक (कलेक्टिव विस्डम-कन्साइंस) ही है। इसी के उन्मीलन से अज्ञान का अवसान होगा और आज की असंख्य समस्याओं का समाधान निकलेगा। गायत्री परिवार का 'विचार क्रांति अभियान' एक प्रकार से महाकाल की तीसरा नेत्र ही है, जो प्रचंड दानावल का रूप धारण कर युग की अज्ञानजन्य विडंबनाओं को भस्मसात् कर एक स्वच्छ दृष्टिकोण प्रदान करने जा रहा है, ऐसा हमारी आराध्य सत्ता का मत है।


भोगवाद ने मर्यादाएं तोड़ीं
जरा आज की स्थिति का विश्लेषण करें। ऐसा क्या हुआ कि हमें लिखना पड़ा कि आज वैसी ही स्थिति पैदा हुई, जैसी कि पौराणिक काल में कामदेव-दहन-त्रिपुर-हनन प्रसंग में उत्पन्न हुई थी। आज का समय वस्तुत: कलियुग की पराकाष्ठा का समय है- ऐसा समय, जब वर्जनाएं-मर्यादाएं समाज में गौण मानी जाने लगती हैं एवं उच्छृंखलता का नंगा नृत्य देखा जाने लगता है। भोगवाद ने मनुष्य के अंदर ढेर सारी महत्वकांक्षाएं पैदा की हैं। आर्थिकी (इकॉनामिक्स) के विशेषज्ञ इसे अच्छा समय बताते हैं व कहते हैं कि आर्थिक विकास हुआ है, इसलिये ही व्यक्ति की क्रयक्षमता बढ़ी है एवं वह और ज्यादा और ज्यादा चाहने लगा है, पर इस भोगवाद से उत्पन्न विषमता और रीतापन, भविष्य की संघर्ष की संभावनाएं इन्हें दिखाई नहीं पड़ती। नैतिकी, आत्मिकी (अध्यात्म विज्ञान) के विशेषज्ञ कहते हैं कि यह सबसे बुरा समय है, जब आदमी अपनी नैतिक मर्यादाओं को भुलाकर भौतिक-ऐन्द्रिक सुख को ही सब कुछ मान बैठा है। उसे इसके लिए येन-केन-प्रकारेण कुछ भी करना पड़े तो वह चूकता नहीं। इसमें धोखा, रिश्वतखोरी, बेईमानी, गबन, कर्ज से लद जाना और यदि किसी को मारना पड़े तो वह भी कर बैठना, सभी शामिल है। आज के कस्बाई, नगरीय-महानगरीय माहौल में तथाकथित विकास के साथ यही सब दिखाई दे रहा है।
पांच माध्यम बने हैं इस जहर को फैलाने हेतु
अश्लीलता का व्यापार आज अरबों डॉलर्स का है। जीवनीशक्ति छूंछ होती जा रही है। गुप्त रोगों (एसटीडी) एवं एड्स जैसी महामारियों की बाढ़ आ रही है, पर हम हैं कि चेतते नहीं। पांच माध्यमों से यह प्रक्रिया विगत पच्चीस वर्षों से तीव्र गति पकड़क़र आज की स्थिति को पहुंच गई है। पहला माध्यम है सिनेमा, दूसरा टेलीविजन, तीसरा प्रिंट मीडिया, चौथा मॉडलिंग का संसार, जिसके साथ सारे समाज को बाजार बनाने का षडयंत्र बुना गया है तथा पांचवां इंटरनेट की अंधेरी अंतहीन दुनिया। सिनेमा का जब भी आविष्कार हुआ था, मनोरंजन उसका उद्देश्य था। थियेटर की दुनिया बड़ी सौम्य थी। कलातंत्र के माध्यम से लोक-मंगल की प्रक्रिया को गति देना, यही उसका उद्देश्य था। राष्ट्रभक्ति से लेकर परिवारों में सुसंस्कारिता-संवर्ध्दन के कई रूप शुरू के सिनेमा के दिनों में देखे जाते हैं। 1970 के बाद धीरे-धीरे स्थिति बदली एवं मर्यादा से युक्त अभिनेत्री-अभिनेता देखते-देखते बदल गए। संगीत भी बदल गया एवं ऐसे गीत लिखे जाने लगे, जो काम-वासना को भडक़ाने वाले थे। रंगीन सिनेमा के साथ कम कपड़ों वाली हीरोइन एवं देखते-देखते कैबरे आदि ने सिनेमा का वह स्वरूप बनाया कि विगत पंद्रह वर्षों में विवाहेत्तर संबंधों से लेकर खुलेआम यौन संबंधों का समर्थन आदि एक सामान्य बात हो गई है। हिंसा इतना कि आदमी दहल जाए। आज तो यह नाजुक उम्र वालों पर भी प्रहार कर रहा है एवं इसके परिणाम देखने में आ रहे हैं।

टेलीविजन की भूमिका

टेलीविजन 1982 में एशियाड के आगमन के साथ रंगीन हुआ। संचार क्रांति ने सारे देश को ग्लोबल विलेज (विश्व ग्राम) का एक अंग बना दिया। दो चैनल वाले टी.वी. में चार सौ से ज्यादा चैनल आने लगे। पहले लोगों को खुले विचारों वाली या हलका मनोरंजन करने वाली फिल्मों के लिये जाने में संकोच होता था, अब वह खुलेआम हमारे घर-ड्राइंगरूम-बेडरूम तक पहुंच गया। पूरा परिवार आराम से बैठकर देखता है एवं उस समय वहां क्या दिखाया जा रहा है, इसके औचित्य पर भी विचार नहीं किया जाता। विज्ञापन तक इतने अश्लील आने लगे हैं कि समाचारों के बीच उनका हस्तक्षेप बलात्कार की तरह लगता है। धारावाहिकों का संसार खलनायकी सिखाता है, परिवारों को तोड़ता है, षडयंत्रों का ताना-बाना बुनना सिखाता है। टेलीविजन को लोक-शिक्षण का माध्यम बनना चाहिए था पर वह अश्लीलता परोसने वाला, क्रिकेट खिलाड़ियों की कमेंट्री दिखाता, सौदेबाजी सिखाता तथा सनसनी के रूप में अंधविश्वास बढ़ाने वाला माध्यम बन गया है।

अनिवार्य शिक्षा रूप में कार्यरत प्रिंट मीडिया

प्रिंट मीडिया में हम उन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की बात कह रहे हैं, जो आज खुलेआम समाचारों के साथ नंगी तस्वीरें छाप रहे हैं। इन पर किसी सेंसर का नियंत्रण नहीं है। सभी बड़े प्रतिष्ठित समाचार पत्र हैं, राष्ट्रीय स्तर के हैं, पर इनमें जो भी नग्नता परोसी जाती है, वह आज किसी राष्ट्र में नहीं देखी जाती। वहां इस तरह की पत्र-पत्रिकाएं अलग होती हैं। कामुक मनोवृत्ति के लोग उन्हें पढ़ते रहते हैं। उनकी सीमित दुनिया होती है, पर हमारे यहां तो यह सार्वजनीन 'कंपलसरी एजुकेशन' का पर्याय बन गई है। समाचार पत्र आज जासूसी उपन्यास अधिक नजर आते हैं। मॉडलिंग के संसार के बारे में जितना लिखा जाए, कम है। यह पत्रिका की गरिमा के अनुकूल भी नहीं। विश्वसुंदरी, ब्रह्मांडसुंदरी से लेकर भारत सुंदरी, प्रांतसुंदरी, नगर व कस्बों की सुंदरी-प्रतियोगिताएं होने लगी हैं। यह उत्पादों की खपत बढ़ाने का एवं नारीशक्ति की अवमानना का षडयंत्र है। फैशन के नाम पर जो भी दिखाया जाता है, वह हेय है, निंदनीय है एवं खुलेआम इसके औचित्य पर बहस की जानी चाहिए। रैंप पर होने वाली प्रतिस्पर्धाओं पर रोक लगनी चाहिए एवं ये मर्यादाएं तय होनी चाहिए कि भारतीय संस्कृति के अनुरूप हमारा पहनावा क्या हो?

एक अंधी दुनिया : नीला संसार

इंटरनेट आज का सबसे शक्ति सशक्त माध्यम है जानकारियों को पाने का। यह एक अंतहीन विश्वव्यापी दुनिया है, जिसमें सूचनाओं का विस्फोट देखा जा सकता है, पर एक आंकड़ा चौंकाने वाला है। अस्सी प्रतिशत व्यक्ति 'पोर्नोग्राफी' (अश्लीलता दर्शन) के लिए इसका दुरुपयोग करते हैं। इस पर नियंत्रण भी खासा मुश्किल है। यह तो विवेक ही तय कर सकता है कि इस माध्यम का रचनात्मक सुनियोजन कैसे हो? आज वर्तमान से भी दस हजार गुनी गति से चलने वाली इंटरनेट कनेक्टिविटी आने की बात कही जा रही है। सामूहिक विवेक जागे यह कहां जा रहे हैं हम? हमें स्वयं विचार करना होगा एवं एक व्यापक विचार-क्रांति की बात सोचनी होगी, जिसमें सभी का विवेक जागे। सामूहिक विवेक जागेगा, दृष्टि परिष्कृत होगी एवं लोकहित की बात मन में होगी तो इस काम-कौतुक पर नियंत्रण भी होगा, समाज मर्यादित होगा एवं हम सतयुग की वापसी की ओर बढ़ेंगे।
http://www.eklavyashakti.com/ArticleDetail.aspx?aid=3152cadb-387d-493d-9dd4-2ccd93c963f7

ravinderjeet
June 2nd, 2011, 09:49 AM
inn sab uppar likhit buraaiyon ke liye khaap jimmedaar he.