rajpaldular
October 4th, 2011, 04:37 PM
आदरणीय मित्रों !
आज मैं लोर्ड मैकोले के एक महत्वपूर्ण वक्तव्य से इस लेख का शुभारम्भ कर रहा हूँ जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ़ कॉमंस में दिया था "I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief " ये वक्तव्य है तो और लम्बा परन्तु मैंने उसकी प्रारंभिक पंक्ति को ही अपने लेख के लिए आवश्यक समझा है. भावार्थ तो आप सब समझ ही गए होंगे, इसलिए मैं सीधे उन शब्दों की ओर आता हूँ जो उसने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया है, उसने कहा है कि "मैंने किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भिखारी हो, जो चोर हो". इसका अर्थ ये हुआ कि मैकोले के देश इंग्लॅण्ड में उस समय भिखारी भी थे और चोर भी थे जिस समय भारत में उसे न कोई भिखारी मिला और न ही चोर मिला जब कि उसने संपूर्ण भारत का भ्रमण किया था और तब बोला था. यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि 1835 में भारत में एक भी भिखारी नहीं है, अर्थात भारत में निर्धनता नहीं है और कोई निर्धन भी नहीं है. जब निर्धनता नहीं है तो उसे चोरी करने की भी आवश्यकता नहीं है.
अब मैं 1947 में आता हूँ, अंग्रेजों ने भारत से जाने के पहले एक सर्वे कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में 4 करोड़ लोग निर्धन हैं, ये आंकड़े RBI के भी हैं यद्यपि उस समय के अर्थशास्त्रियों ने ये कहा था कि "अंग्रेजों ने त्रुटिपूर्ण सर्वे रिपोर्ट दी है जिससे कि संसार में उनकी अपख्याति हो. वो सर्वे सही था अथवा दोषपूर्ण मैं उसमें नहीं जाना चाहता. प्रथम प्रधानमंत्री ने एक कमीशन बनाया कि निर्धनों की सही संख्या पता चल सके तो 1952 में जब देश में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो उस समय उन्होंने बताया कि देश में वास्तविक निर्धनों की संख्या 16 करोड़ है. अब मैं यहाँ सीधे 2007 में आता हूँ जब इस देश की संसद में प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट पेश हुई. पहले मैं प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता के बारे में थोड़ी जानकारी यहाँ दे दूँ. प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता संसार के जाने माने अर्थशास्त्रियों में गिने जाते थे, भारत सरकार का एक विभाग है योजना आयोग, प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता बहुत दिनों तक इस योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे. श्रीमती इंदिरा गाँधी के समय वो लम्बे समय तक भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार भी रहे और पश्चिम बंगाल (अब पश्चिम बंग) सरकार के भी लम्बे समय तक वो आर्थिक सलाहकार रहे, सारे संसार के नामी विश्वविद्यालयों में वो उनके बुलावे पर लेक्चर देने जाते थे. तो अर्जुन सेनगुप्ता साहब ने सरकार के कहने पर चार साल के अध्ययन के पश्चात जो रिपोर्ट दी वो काफी चौंकाने वाली है. उनकी रिपोर्ट के अनुसार भारत की 115 करोड़ की जनसँख्या में 84 करोड़ लोग बहुत निर्धन हैं, इतने निर्धन हैं ये 84 करोड़ लोग कि उनको एक दिन में व्यय करने के लिए 20 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 50 करोड़ ऐसे हैं जिनके पास व्यय करने के लिए 10 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 25 करोड़ के पास व्यय करने के लिए 5 रुपया भी नहीं है और शेष लोगों के पास 50 पैसे भी नहीं है व्यय करने के लिए.
जब मैं इस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों से भारत की इस स्थिति के बारे में पूछता हूँ कि हमारे यहाँ इतनी निर्धनता क्यों है, निर्धन क्यों हैं, बेकारी क्यों है, भूखमरी क्यों है तो वो कहते हैं कि भारत की निर्धनता का मुख्य कारण हमारी बढती हुई जनसँख्या है, जब मैं साधारण लोगों से पूछता हूँ तो वो भी यही उत्तर देते हैं. फिर मैंने इस पर काम किया तो मुझे जो बात समझ में आयी वो मैं आपके सामने रखता हूँ :-
..........................1947 में जब हम स्वतंत्र हुए तो हमारे देश की जनसँख्या 34 करोड़ थी और आज 2011 की जनगणना के अनुसार हम 120 करोड़ हो गए हैं . 1947 में हमारे देश में अनाज का उत्पादन जो था वो साढ़े चार करोड़ टन था और आज 2011 में यह बढ़कर साढ़े 23 करोड़ टन के आसपास पहुँच गया है. 1947 में भारत में कारखाने बहुत कम थे और कारखानों में होने वाला उत्पादन भी बहुत कम था, उस समय भारत का औद्योगिक उत्पादन एक लाख करोड़ रूपये के आसपास था और आज ये दस लाख करोड़ रूपये के आसपास पहुँच गया है. 1947 में हमारे यहाँ निर्धनों की संख्या 4 करोड़ थी अब उस स्तर के निर्धनों की संख्या 84 करोड़ हो गयी है अर्थात जनसँख्या वृद्धि साढ़े तीन गुणा परन्तु निर्धन बढ़ गए 21 गुणा, बात आप समझ रहे हैं न ? इन 64 वर्षों में जनसँख्या बढ़ी साढ़े तीन गुणी और निर्धन बढ़ गए 21 गुणा, ये निर्धनों के अनुपात में जनसँख्या के हिसाब से वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात निर्धनों की संख्या में भी साढ़े तीन गुणी वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात हमारे देश में आज 2011 में 14 -15 करोड़ से अधिक निर्धन नहीं होने चाहिए थे, है न ? और इसी अवधि में अनाज का उत्पादन लगभग छः गुणा बढ़ा है, अर्थात जनसँख्या बढ़ी साढ़े तीन गुणी और अनाज उत्पादन में वृद्धि हुई छः गुणी, फिर क्यों भूखमरी से मर रहे हैं हमारे देश के लोग ? यदि आबादी बढती पांच गुणा और अनाज उत्पादन में वृद्धि होती तीन गुणा तो मैं मान लेता कि भूखमरी होने का कारण उचित है और औद्योगिक उत्पादन में दस गुणी वृद्धि हुई है इन 64 वर्षों में फिर बेरोजगारों की इतनी बड़ी फ़ौज कैसे खड़ी हो गयी है हमारे देश में ? तो कहीं न कहीं नीतियों के स्तर पर हमारे सरकार से चूक हुई है जो निर्धनता, भूखमरी और बेकारी रोकने में असफल रही है. ये जो हमने हमारे मन में बैठा लिया है अथवा हमारे मस्तिष्क में बैठा दिया गया है कि जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता बढ़ती है अथवा जनसँख्या बढ़ने से बेकारी बढ़ती है अथवा जनसँख्या बढ़ने से भूखमरी बढती है तो ये सिद्धांत ही दोषपूर्ण है.
इस जगत में एक अर्थशास्त्री हुआ माल्थस जिसने ये सिद्धांत दिया था कि जिस देश में जनसँख्या अधिक होगी वहां निर्धनता अधिक होगी, बेकारी अधिक होगी. यद्यपि उसके इस सिद्धांत को यूरोप के देशों ने ही नकार दिया है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य देखिये कि इस देश के लोग वही सिद्धांत पढ़ते हैं और दूसरे लोगों को समझाते हैं. अब इसी सिद्धांत को यूरोप और अमेरिका पर लागू किया जाये तो बिलकुल उलट स्थिति दिखाई देती है, भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसकी जनसँख्या बढ़ी है पिछले पचास वर्षों में अथवा सौ वर्षों में. संसार के हर देश की जनसँख्या कई गुणी बढ़ी है, अमेरिका की, फ्रांस की, जर्मनी की, जापान की, चीन की, चीन की तो सबसे अधिक बढ़ी है. अमेरिका की जनसँख्या पिछले 60 वर्षों में ढाई गुणी बढ़ी है, ब्रिटेन सहित यूरोप की जनसँख्या तो पिछले 60 वर्षों में तीन गुणी बढ़ी है, परन्तु देखने में आया है कि यूरोप और अमेरिका की जनसँख्या बढ़ी है तीन गुणी और इसी अवधि में उनके यहाँ समृद्धि बढ़ गयी है एक हजार गुणी. तो अमेरिका और यूरोप में जनसँख्या बढ़ने से पिछले साठ वर्षों में समृद्धि आती है तो भारत में जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता क्यों आनी चाहिए और यदि भारत में जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता आती है तो यूरोप और अमेरिका में भी जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता आनी चाहिए थी, है ना ? क्योंकि सिद्धांत संसार में सर्वमान्य हुआ करते हैं, सिद्धांत कभी किसी देश की सीमाओं में नहीं बंधा करते. यदि सिद्धांत है कि जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता, बेरोजगारी, भूखमरी बढती है तो जनसँख्या तो संसार के समस्त देशों की बढ़ी है परन्तु भारत को छोड़ कर बहुत सारे देशों में देखा जा रहा है कि वहां जनसँख्या के साथ-साथ समृद्धि बढ़ रही है. आप सुनेंगे तो आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन आदि देशों में वहां की सरकारें जनसँख्या बढाने के लिए अभियान चलाती है, बच्चों के उत्पन्न होने से उनके यहाँ नौकरी में प्रमोशन निश्चित होता है, जिसके जितने अधिक बच्चे उनकी उतनी अधिक वेतन वेतन वृद्धि एवं प्रमोशन. हमारे यहाँ उल्टा क्यों है? हमारे यहाँ कहा जाता है कि बच्चे कम उत्पन्न करो. यदि ये देश अधिक बच्चे उत्पन्न कर के समृद्ध हो सकते हैं तो भारत अधिक बच्चे उत्पन्न कर के धनवान क्यों नहीं हो सकता? अथवा यदि वो अधिक बच्चे उत्पन्न कर के निर्धन नहीं हो रहे हैं तो हम क्यों अधिक बच्चे उत्पन्न कर के निर्धन हो रहे हैं ? ये बड़ा यक्ष प्रश्न है, जिसको मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ और मैं ये इसलिए करना चाहता हूँ कि हमारे मन में बहुत सारी भ्रांतियां बैठी हुई हैं जनसँख्या को लेकर और निर्धनता को लेकर. मैं आपसे विनम्र निवेदन ये करना चाहता हूँ कि जनसँख्या का किसी भी देश की निर्धनता से कुछ लेना-देना नहीं होता है, बेरोजगारी का जनसँख्या से कोई सम्बन्ध नहीं है.
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आज मैं लोर्ड मैकोले के एक महत्वपूर्ण वक्तव्य से इस लेख का शुभारम्भ कर रहा हूँ जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ़ कॉमंस में दिया था "I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief " ये वक्तव्य है तो और लम्बा परन्तु मैंने उसकी प्रारंभिक पंक्ति को ही अपने लेख के लिए आवश्यक समझा है. भावार्थ तो आप सब समझ ही गए होंगे, इसलिए मैं सीधे उन शब्दों की ओर आता हूँ जो उसने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया है, उसने कहा है कि "मैंने किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भिखारी हो, जो चोर हो". इसका अर्थ ये हुआ कि मैकोले के देश इंग्लॅण्ड में उस समय भिखारी भी थे और चोर भी थे जिस समय भारत में उसे न कोई भिखारी मिला और न ही चोर मिला जब कि उसने संपूर्ण भारत का भ्रमण किया था और तब बोला था. यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि 1835 में भारत में एक भी भिखारी नहीं है, अर्थात भारत में निर्धनता नहीं है और कोई निर्धन भी नहीं है. जब निर्धनता नहीं है तो उसे चोरी करने की भी आवश्यकता नहीं है.
अब मैं 1947 में आता हूँ, अंग्रेजों ने भारत से जाने के पहले एक सर्वे कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में 4 करोड़ लोग निर्धन हैं, ये आंकड़े RBI के भी हैं यद्यपि उस समय के अर्थशास्त्रियों ने ये कहा था कि "अंग्रेजों ने त्रुटिपूर्ण सर्वे रिपोर्ट दी है जिससे कि संसार में उनकी अपख्याति हो. वो सर्वे सही था अथवा दोषपूर्ण मैं उसमें नहीं जाना चाहता. प्रथम प्रधानमंत्री ने एक कमीशन बनाया कि निर्धनों की सही संख्या पता चल सके तो 1952 में जब देश में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो उस समय उन्होंने बताया कि देश में वास्तविक निर्धनों की संख्या 16 करोड़ है. अब मैं यहाँ सीधे 2007 में आता हूँ जब इस देश की संसद में प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट पेश हुई. पहले मैं प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता के बारे में थोड़ी जानकारी यहाँ दे दूँ. प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता संसार के जाने माने अर्थशास्त्रियों में गिने जाते थे, भारत सरकार का एक विभाग है योजना आयोग, प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता बहुत दिनों तक इस योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे. श्रीमती इंदिरा गाँधी के समय वो लम्बे समय तक भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार भी रहे और पश्चिम बंगाल (अब पश्चिम बंग) सरकार के भी लम्बे समय तक वो आर्थिक सलाहकार रहे, सारे संसार के नामी विश्वविद्यालयों में वो उनके बुलावे पर लेक्चर देने जाते थे. तो अर्जुन सेनगुप्ता साहब ने सरकार के कहने पर चार साल के अध्ययन के पश्चात जो रिपोर्ट दी वो काफी चौंकाने वाली है. उनकी रिपोर्ट के अनुसार भारत की 115 करोड़ की जनसँख्या में 84 करोड़ लोग बहुत निर्धन हैं, इतने निर्धन हैं ये 84 करोड़ लोग कि उनको एक दिन में व्यय करने के लिए 20 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 50 करोड़ ऐसे हैं जिनके पास व्यय करने के लिए 10 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 25 करोड़ के पास व्यय करने के लिए 5 रुपया भी नहीं है और शेष लोगों के पास 50 पैसे भी नहीं है व्यय करने के लिए.
जब मैं इस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों से भारत की इस स्थिति के बारे में पूछता हूँ कि हमारे यहाँ इतनी निर्धनता क्यों है, निर्धन क्यों हैं, बेकारी क्यों है, भूखमरी क्यों है तो वो कहते हैं कि भारत की निर्धनता का मुख्य कारण हमारी बढती हुई जनसँख्या है, जब मैं साधारण लोगों से पूछता हूँ तो वो भी यही उत्तर देते हैं. फिर मैंने इस पर काम किया तो मुझे जो बात समझ में आयी वो मैं आपके सामने रखता हूँ :-
..........................1947 में जब हम स्वतंत्र हुए तो हमारे देश की जनसँख्या 34 करोड़ थी और आज 2011 की जनगणना के अनुसार हम 120 करोड़ हो गए हैं . 1947 में हमारे देश में अनाज का उत्पादन जो था वो साढ़े चार करोड़ टन था और आज 2011 में यह बढ़कर साढ़े 23 करोड़ टन के आसपास पहुँच गया है. 1947 में भारत में कारखाने बहुत कम थे और कारखानों में होने वाला उत्पादन भी बहुत कम था, उस समय भारत का औद्योगिक उत्पादन एक लाख करोड़ रूपये के आसपास था और आज ये दस लाख करोड़ रूपये के आसपास पहुँच गया है. 1947 में हमारे यहाँ निर्धनों की संख्या 4 करोड़ थी अब उस स्तर के निर्धनों की संख्या 84 करोड़ हो गयी है अर्थात जनसँख्या वृद्धि साढ़े तीन गुणा परन्तु निर्धन बढ़ गए 21 गुणा, बात आप समझ रहे हैं न ? इन 64 वर्षों में जनसँख्या बढ़ी साढ़े तीन गुणी और निर्धन बढ़ गए 21 गुणा, ये निर्धनों के अनुपात में जनसँख्या के हिसाब से वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात निर्धनों की संख्या में भी साढ़े तीन गुणी वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात हमारे देश में आज 2011 में 14 -15 करोड़ से अधिक निर्धन नहीं होने चाहिए थे, है न ? और इसी अवधि में अनाज का उत्पादन लगभग छः गुणा बढ़ा है, अर्थात जनसँख्या बढ़ी साढ़े तीन गुणी और अनाज उत्पादन में वृद्धि हुई छः गुणी, फिर क्यों भूखमरी से मर रहे हैं हमारे देश के लोग ? यदि आबादी बढती पांच गुणा और अनाज उत्पादन में वृद्धि होती तीन गुणा तो मैं मान लेता कि भूखमरी होने का कारण उचित है और औद्योगिक उत्पादन में दस गुणी वृद्धि हुई है इन 64 वर्षों में फिर बेरोजगारों की इतनी बड़ी फ़ौज कैसे खड़ी हो गयी है हमारे देश में ? तो कहीं न कहीं नीतियों के स्तर पर हमारे सरकार से चूक हुई है जो निर्धनता, भूखमरी और बेकारी रोकने में असफल रही है. ये जो हमने हमारे मन में बैठा लिया है अथवा हमारे मस्तिष्क में बैठा दिया गया है कि जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता बढ़ती है अथवा जनसँख्या बढ़ने से बेकारी बढ़ती है अथवा जनसँख्या बढ़ने से भूखमरी बढती है तो ये सिद्धांत ही दोषपूर्ण है.
इस जगत में एक अर्थशास्त्री हुआ माल्थस जिसने ये सिद्धांत दिया था कि जिस देश में जनसँख्या अधिक होगी वहां निर्धनता अधिक होगी, बेकारी अधिक होगी. यद्यपि उसके इस सिद्धांत को यूरोप के देशों ने ही नकार दिया है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य देखिये कि इस देश के लोग वही सिद्धांत पढ़ते हैं और दूसरे लोगों को समझाते हैं. अब इसी सिद्धांत को यूरोप और अमेरिका पर लागू किया जाये तो बिलकुल उलट स्थिति दिखाई देती है, भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसकी जनसँख्या बढ़ी है पिछले पचास वर्षों में अथवा सौ वर्षों में. संसार के हर देश की जनसँख्या कई गुणी बढ़ी है, अमेरिका की, फ्रांस की, जर्मनी की, जापान की, चीन की, चीन की तो सबसे अधिक बढ़ी है. अमेरिका की जनसँख्या पिछले 60 वर्षों में ढाई गुणी बढ़ी है, ब्रिटेन सहित यूरोप की जनसँख्या तो पिछले 60 वर्षों में तीन गुणी बढ़ी है, परन्तु देखने में आया है कि यूरोप और अमेरिका की जनसँख्या बढ़ी है तीन गुणी और इसी अवधि में उनके यहाँ समृद्धि बढ़ गयी है एक हजार गुणी. तो अमेरिका और यूरोप में जनसँख्या बढ़ने से पिछले साठ वर्षों में समृद्धि आती है तो भारत में जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता क्यों आनी चाहिए और यदि भारत में जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता आती है तो यूरोप और अमेरिका में भी जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता आनी चाहिए थी, है ना ? क्योंकि सिद्धांत संसार में सर्वमान्य हुआ करते हैं, सिद्धांत कभी किसी देश की सीमाओं में नहीं बंधा करते. यदि सिद्धांत है कि जनसँख्या बढ़ने से निर्धनता, बेरोजगारी, भूखमरी बढती है तो जनसँख्या तो संसार के समस्त देशों की बढ़ी है परन्तु भारत को छोड़ कर बहुत सारे देशों में देखा जा रहा है कि वहां जनसँख्या के साथ-साथ समृद्धि बढ़ रही है. आप सुनेंगे तो आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन आदि देशों में वहां की सरकारें जनसँख्या बढाने के लिए अभियान चलाती है, बच्चों के उत्पन्न होने से उनके यहाँ नौकरी में प्रमोशन निश्चित होता है, जिसके जितने अधिक बच्चे उनकी उतनी अधिक वेतन वेतन वृद्धि एवं प्रमोशन. हमारे यहाँ उल्टा क्यों है? हमारे यहाँ कहा जाता है कि बच्चे कम उत्पन्न करो. यदि ये देश अधिक बच्चे उत्पन्न कर के समृद्ध हो सकते हैं तो भारत अधिक बच्चे उत्पन्न कर के धनवान क्यों नहीं हो सकता? अथवा यदि वो अधिक बच्चे उत्पन्न कर के निर्धन नहीं हो रहे हैं तो हम क्यों अधिक बच्चे उत्पन्न कर के निर्धन हो रहे हैं ? ये बड़ा यक्ष प्रश्न है, जिसको मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ और मैं ये इसलिए करना चाहता हूँ कि हमारे मन में बहुत सारी भ्रांतियां बैठी हुई हैं जनसँख्या को लेकर और निर्धनता को लेकर. मैं आपसे विनम्र निवेदन ये करना चाहता हूँ कि जनसँख्या का किसी भी देश की निर्धनता से कुछ लेना-देना नहीं होता है, बेरोजगारी का जनसँख्या से कोई सम्बन्ध नहीं है.
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