PDA

View Full Version : Indian Parliamentary Democratic System !!!!!!!



rajpaldular
November 30th, 2011, 04:16 PM
आदरणीय राष्ट्रप्रेमी भाइयों और बहनों

भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली (Indian Parliamentary Democratic System)

अंग्रेजों का शासन जब पूरे संसार में चल रहा था अंग्रेजों ने दास देशों के तीन प्रकार के ग्रुप बनाये थे. एक ग्रुप था कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलॅंड का, ये कहलाती थी Self Governing Colonies, अर्थात ये देश कुछ-कुछ अपने हित के क़ानून भी बना सकते थे, परन्तु अधिक कानून अंग्रेज ही बनाते थे, दूसरा ग्रुप था, सिलोन (श्रीलंका), मौरीसस, सूरीनाम, वेस्ट इंडियन देशों, आदि का, ये कहलाती थी, Crown Colonies, और तीसरे ग्रुप में भारत ( पाकिस्तान और बांग्लादेश ) था, ये कहलाती थी Depending Colonies, ये दासता का सबसे खराब सिस्टम था, इसमें ये होता था कि हमको अपने लिए, अपने देश के लिए, अपनी व्यवस्थाओं के लिए कुछ भी करने का अधिकार ही नहीं था, कोई कानून नहीं बना सकते थे हम, सब कुछ अँग्रेज़ों के हाथ मे था, अर्थात हम पूर्ण रूप से अँग्रेज़ों के Dependent थे. अंग्रेजों ने अपनी सरकार 1760 में स्थापित की थी भारत में, किन्तु वो कंपनी की सरकार थी, अंग्रेजों की सरकार नहीं थी वो, पर छोटे-मोटे कानून उन्होंने उसी समय से बनाना आरंभ कर दिया था और उस समय से लेकर 1947 तक अंग्रेजों ने जो 34735 कानून बनाये थे. उन्होंने जो व्यवस्था बनाई थी हमें दास बनाने के लिए, हमारे ऊपर शासन करने के लिए, दुर्भाग्य से आज भी हमारे देश में सब के सब कानून, सब की सब व्यवस्थाएं वैसे की वैसे ही चल रहीं हैं जैसे अंग्रेजों के समय चला करती थीं.
जब हमारे देश में अंग्रेजों का शासन था तो हमारे जितने भी क्रन्तिकारी थे उन सबका मानना था कि भारत की निर्धनता, भुखमरी और बेकारी तभी समाप्त होगी जब अंग्रेज यहाँ से जायेंगे और हम हमारी व्यवस्था लायेंगे, हम उन सब तंत्रों को उखाड़ फेकेंगे जिससे निर्धनता, बेकारी, भुखमरी उत्पन्न हो रही है. पर हुआ क्या ? हमारे देश में आज भी वही व्यवस्था चल रही है जो अंग्रेजों ने निर्धनता, बेकारी और भुखमरी उत्पन्न करने के लिए चलाया था. क्रांतिकारियों का सपना बस सपना बन कर रह गया लगता है. भारत के लोग व्यवस्था की खामियों के बारे में बात नहीं करते हैं अपितु अपनी जनसँख्या को गाली देते हैं, जब कि ये कोई समस्या नहीं है, समस्या वहां से आरंभ होती जब हम अपने संसाधनों का बंटवारा अपने लोगों में न्यायपूर्ण विधि से नहीं कर पाते हैं. जिस जनसँख्या के लिए समान बंटवारा होना चाहिए जैसा कि हमारे संविधान में लिखा हुआ है, वो नहीं हो पाया है हमारे देश में. यूरोप और अमेरिका में संसाधनों का समान बंटवारा आप पाएंगे परन्तु हमारे यहाँ नहीं. यूरोप और अमेरिका में भी भारत की ही तरह टैक्स लिया जाता है किन्तु वहां जब टैक्स को व्यय किया जाता है तो वो Per capita Distribution के हिसाब से होता है. Collection यदि per capita के हिसाब से है तो distribution भी per capita के हिसाब से है परन्तु भारत में collection तो per capita के हिसाब से है परन्तु distribution, per capita के हिसाब से नहीं है. यदि ये distribution, per capita के हिसाब से होता तो छत्तीसगढ़ में, बिहार में, झारखण्ड में, ओड़िसा में इतनी भयानक निर्धनता नहीं होती. तो अपने यहाँ समस्या जनसँख्या से नहीं उस व्यवस्था से है जो ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करती हैं एवं हमारी व्यवस्था कैसी निकम्मी और नाकारा है उसका ताजा उदहारण मैं आपको देता हूँ. आप पजाब जाएँ,हरियाणा जाएँ तो आप देखेंगे कि FCI का जो गोदाम होता है वहां अनाज इतना अधिक होता है कि उनको रखने की जगह नहीं होती है बोरे के बोरे अनाज खुले में पड़े होते है और उसको या तो चूहे खाते रहते हैं या सड़ रहे होते हैं. आपको स्मरण होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि" इन अनाजों को उन निर्धनों के बीच क्यों नहीं वितरित किया जा रहा है जो क्षुधा से मर रहे हैं" परन्तु वो आज तक नहीं हो पाया. ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि हमारे पास वैसा कोई distribution system नहीं है और साथ ही साथ हमारे देश के नेता नहीं चाहते कि निर्धनता समाप्त हो क्योंकि निर्धनता और निर्धन समाप्त हो जायेंगे तो इन नेताओं का झंडा कौन ढोयेगा, नारे कौन लगाएगा, उनकी सभाओं में कौन जायेगा ? इसलिए इन नेताओं के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कोई मायने नहीं रखता.
भारत सरकार की विफलता का एक दूसरा उदाहरण देता हूँ, भारत की सरकार ने 1952 से एक पंचवार्षिक योजना आरंभ की जो औसतन 10 लाख करोड़ का होता है. अभी तक हमारे देश में ग्यारह पंचवार्षिक योजनायें लागू हो चुकी हैं, अर्थात अभी तक हमारी सरकार 110 लाख करोड़ रूपये व्यय कर चुकी है एवं निर्धनता, बेकारी, भुखमरी रुकने का नाम ही नहीं ले रही है. अंग्रेज जब थे तो ऐसी कोई योजना नहीं थी इस देश में क्योंकि वो विकास पर कुछ भी व्यय नहीं करते थे और तब हमारी निर्धनता नियंत्रण में थी परन्तु जब से हमने पंचवार्षिक योजना आरंभ की, हमारी निर्धनता भयंकर रूप से बढ़ने लगी और बढती ही जा रही है कहीं रुकने का नाम ही नहीं ले रही है. यदि भारत सरकार उन पैसों को (जिसे उसने इन पंचवार्षिक योजनायों पर व्यय किया) सीधा हमारे लोगों को बाँट देती तो आज एक-एक भारतीय के पास नौ-साढ़े नौ लाख रूपये तो होते ही (मैं एक व्यक्ति की बात कर रहा हूँ एक परिवार की नहीं) और सभी भारतीय कम से कम लखपति तो होते ही.
भारत की समस्या यहाँ की जनसँख्या नहीं है, यहाँ के लोग नहीं हैं, यहाँ की जातियां नहीं हैं, यहाँ के धर्म नहीं हैं अपितु हमारा तंत्र है जिसको हम सही से नहीं चला पाते अथवा कहें कि हमको चलाना नहीं आता. हमने जो व्यवस्था अपनाई है वो दुर्भाग्य से अंग्रेजों की है और अंग्रेजों ने ये व्यवस्था अपनाई थी भारत में निर्धनता, बेकारी, भुखमरी उत्पन्न करने के लिए. आप कहेंगे कि अंग्रेजों ने कौन सी व्यवस्था हमको दी? जिसको हम संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली (Parliamentary Democratic System) कहते हैं वो अंग्रेजों की देन हैं हमें. इसी तंत्र को इंग्लैंड में वेस्टमिन्स्टर सिस्टम कहते हैं, इसी तंत्र को गाँधी बाँझ और वैश्या कहा करते थे (इसका अर्थ तो आप समझ गए होंगे) . और यूरोप का ये लोकतंत्र निकला कहाँ से है ? तो वो निकला है डाइनिंग टेबल से, जी हाँ खाने की मेज से यूरोप का लोकतंत्र निकला है. राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी यदि इस पत्र का पठन कर रहे होंगे तो तुरंत समझ जायेंगे, क्योंकि हमारे यहाँ राजनीति शास्त्र में ये पढाया जाता है और 100 नंबर के प्रश्नपत्र में इस पर बीस नंबर का प्रश्न आता है कि "बताइए कि यूरोप का प्रजातंत्र कहाँ से निकला ? विस्तार से वर्णन कीजिये ". तो उसका उत्तर है ----यूरोप का प्रजातंत्र डाइनिंग टेबल से निकला है, खाने की मेज से यूरोप के प्रजातंत्र का प्रारंभ हुआ है. अब खाने की मेज तो निजी जीवन का भाग है और लोकतंत्र सार्वजानिक जीवन का भाग है, तो निजी जीवन में जो कुछ आप डाइनिंग टेबल पर करते हैं, वही आप सार्वजानिक जीवन में करने लगे तो उसी को संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली कहते हैं, दुर्भाग्य से इसी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को हमने अपना लिया है, हमने इसका आविष्कार अपने देश में नहीं किया और अंग्रेजों ने ये जो संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली हमें दी है वो कहीं से भी न संसदीय है और न लोकतांत्रिक है अपितु वो 100% Aristocratic System है. आप कहेंगे कि वो कैसे ? मैं बताता हूँ.
Contd.

rajpaldular
November 30th, 2011, 04:17 PM
भारत के 120 करोड़ लोगों का निर्णय एक व्यक्ति करे तो वो संसदीय होगा अथवा लोकतांत्रिक होगा ? 120 करोड़ लोगों का निर्णय एक व्यक्ति करे, जिसे हम वित्तमंत्री कहते हैं तो वो व्यवस्था लोकतांत्रिक होगी क्या ? और गलती से वो बिका हुआ हो अथवा मीरजाफर हो तो वो लोकतांत्रिक होगा क्या ? 120 करोड़ लोगों का निर्णय 120 करोड़ लोग करें तो वो आदर्श होगा, नहीं कर सकते तो 60 करोड़ लोग करें, नहीं तो 30 करोड़ लोग करें और कुछ नहीं तो एक प्रतिशत लोग तो करें. यहाँ तो वो भी नहीं है. एक व्यक्ति भारत में निर्धारित करता है कि कहाँ टैक्स लगना चाहिए, कहाँ नहीं लगना चाहिए और वो वस्तु संसद में प्रस्तुत हो जाती है और शेष 545 लोग जो लोकसभा में बैठे हैं और 250 लोग जो राज्य सभा में बैठे हैं वो केवल वाद विवाद इस बात पर करते हैं कि कहाँ कटौती होनी चाहिए, कहाँ बढ़नी चाहिए, ये नहीं कहते कि इसको पूरा वापस ले लो क्योंकि इनको ये अधिकार नहीं है, तो ये व्यवस्था लोकतांत्रिक है क्या ?
एक दूसरा उदहारण देता हूँ आपको. आप अपने संसदीय क्षेत्र अथवा विधानसभा क्षेत्र को लीजिये, मान लीजिये कि वहाँ पाँच लाख मतदाता हैं और चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों की संख्या दस है और हमारे देश में औसत रूप से मतदान का प्रतिशत 50 (%) ही रहता है, अर्थात ढाई लाख लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर मतदान किया. अब ये ढाई लाख मत इन दस प्रत्याशियों में बंटा तो किसी को 75 हजार वोट तो किसी को 65 हजार वोट तो किसी को 50 हजार वोट और किसी को कुछ, किसी को कुछ वोट मिला. और जब परिणाम आया तो 75 हजार वोट पाने वाला चुनाव जीत जाता है, उस क्षेत्र में, जहाँ मतदाताओं की संख्या पाँच लाख है. अर्थात जीतने वाला प्रत्याशी पाँच लाख मतदाताओं के क्षेत्र में 15 प्रतिशत वोट पाकर उस संसद अथवा विधानसभा में पहुँच जाता है जहाँ बहुमत 51 % पर तय होता है. आप समझ रहे हैं, मैं क्या कह रहा हूँ ? 15 प्रतिशत वोट पाकर कोई प्रत्याशी उस संसद अथवा विधानसभा में पहुँच जाता है जहाँ बहुमत 51 % पर तय होता है, अर्थात ये चुनाव पूरा का पूरा गैरकानूनी हुआ कि नहीं ?
और उस संसद और विधानसभा के अन्दर का हाल भी जान लीजिये. संसद में क्या होता है कि कोई विधेयक यदि पारित करना हो तो एक नियम है जिसको " कोरम पूरा होना कहते हैं " अर्थात कुल सदस्यों का कम से कम 10 प्रतिशत सदन में उपस्थित होना चाहिए अर्थात 54 सदस्य कम से कम होने चाहिए एक विधयक को पास करने के लिए पर कई बार होता क्या है कि सदन में 20 -25 सदस्य ही उपस्थित होते हैं तो इस से तो कोरम भी पूरा नहीं होता तो इस स्थिति के लिए भी एक नियम है, इसको Emergency Rule कहा जाता है, इसमें होता ये है कि उस समय-विशेष में जितने सदस्य सदन में उपस्थित हैं उनका आधा यदि उस विधेयक के पक्ष में मतदान कर दें तो कानून बन जायेगा. आप इसी को लोकतंत्र कहेंगे क्या ? मैं कोरम को ही लेता हूँ और आपसे पूछता हूँ कि यदि 27 -28 लोग मिलकर कोई विधेयक पास करा लेते हैं और 120 करोड़ लोगों के लिए कानून बन जाता है तो वो कहीं से भी लोकतांत्रिक होगा क्या ? तो हम हमारे देश में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था चला रहे हैं वो कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है और लोकतांत्रिक कैसे नहीं है उसका एक उदाहरण और देता हूँ. जब चुनाव होते हैं तो हम लोग मतदान करते हैं जिसमे किसी पार्टी के प्रत्याशी को चुनते हैं अर्थात दूसरे को हराते हैं और जब ये लोग संसद में पहुँचते हैं तो ऐसे लोगों से गठबंधन कर लेते हैं जिसको हमने नकार दिया है. पिछली संसद में आपने देखा होगा कि कम्युनिस्ट पार्टी ने उस कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनाया जिसका विरोध कर के उसने लोगों का समर्थन पाया था, चाहे वो बंगाल हो, केरल हो अथवा पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्य. ये उस राज्य/क्षेत्र की जनता का अपमान हुआ कि नहीं. ऐसा ही अटल बिहारी वाजपेयी के सरकार के समय हुआ था. इसी को आप लोकतंत्र कहेंगे क्या ? ये तो मखौल हो रहा है इस देश में, लोकतंत्र के नाम पर.
ये व्यवस्था कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है ये वास्तव में अंग्रेजों का बनाया हुआ दासत्व वाला Aristocratic System है जिसमे 4 -5 लोगों को निर्णय लेने का अधिकार है शेष तो उसे केवल follow करते हैं. उनको प्रश्न पूछने का भी अधिकार नहीं है. प्रधानमंत्री ने कोई निर्णय कर लिया तो उसे पूरे मंत्रिमंडल को मानना ही पड़ेगा, चाहे वो कितना ही त्रुटिपूर्ण क्यों ना हो, क्योंकि system में लिखा हुआ है कि "प्रधानमंत्री कभी गलत नहीं होता, जो निर्णय वो करेंगे उसको कैबिनेट को मानना ही पड़ेगा", यदि आप नहीं मान सकते तो कैबिनेट से त्यागपत्र दीजिये और बाहर जाइये. यही लोकतंत्र है क्या ? अभी आपने देखा कि कैसे वालमार्ट को बुलाने के लिए इन्होने कमर कस ली है, इस पर ना राज्यों से चर्चा, न विपक्ष से परामर्श और आम व्यक्ति का इस देश में मान-सम्मान क्या है वो तो इसी तरह मरने के लिए ही उत्पन्न हुए हैं, वो तो इससे बाहर होते ही हैं, सदैव की तरह, इसी को लोकतंत्र कहेंगे क्या ?
अपनी संसद में जब बहस होती है तो आप तनिक ध्यान दीजियेगा. हमारे जो सांसद हैं वो किसी ड्राफ्ट पर बहस करते हैं, वो ड्राफ्ट बिल कहलाता है उसे हिंदी में विधेयक कहते हैं. तो वो जिस बिल पर बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग सेक्रेटरी करता है. संसद में सेक्रेटरी होता है वो बिल की ड्राफ्टिंग करता है, इसके पास सेक्रेटरी की एक टीम होती है. जेनरल सेक्रेटरी जो होता है उसके पास ज्वाइंट सेक्रेटरी स्तर के कई अधिकारी होते हैं, उनसे वो बिल की ड्राफ्टिंग करवाता है और ये सभी के सभी IAS ऑफिसर होते हैं. एक बार मैंने एक सांसद महोदय से पूछा कि आप मेरे सांसद हैं, मेरे प्रतिनिधि हैं, आप बहस करते हैं, तो जिस बात पर आप बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग स्वयं क्यों नहीं करते ? क्या आप जानते हैं कि हमारे सांसद जिस बिल पर बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग वो स्वयं नहीं कर सकते, वो केवल बहस करते हैं और बहस के दौरान उन्हें लगे कि xyz point गलत है अथवा यहाँ कौमा छूटा है तो फिर उन्हें (सांसद/मंत्री को) एक आवेदन देना पड़ेगा, फिर बिल सेक्रेटरी के पास वापस जायेगा, सेक्रेटरी उस पर विचार करेगा, ज्वाइंट सेक्रेटरी की बैठक बुलाएगा, हो सकता है कि वो बैठक तीन महीने तक चलती रहे, नोटिफिकेशन जारी करेगा और तब कौमा बदलेगा अथवा कोई त्रुटि होगी उसे ठीक किया जायेगा, उसके पश्चात ये बिल वापस सदन में आएगा. कितना समय लगा ? तीन महीने और वो भी एक कौमा बदलने में. यदि सांसदों को ये अधिकार होता तो वो क्या करते ? वो कलम निकालते और तुरंत उस कौमा को स्वयं डाल देते अथवा xyz point गलत है उसे बदल देते. पर वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें ये अधिकार ही नहीं है, क्योंकि नियम नहीं है और ये नियम अंग्रेजों ने बनाया था. जब हमारा प्रतिनिधि हमारे लिए ड्राफ्ट नहीं बना सकता, जिनका प्रतिनिधित्व वो कर रहा है उनके हित का ख्याल कर के वो ड्राफ्ट नहीं बना सकता तो फिर वो हमारा प्रतिनिधि हुआ कैसे ? केवल वो बहस कर सकता है, कोई लाउडस्पीकर थोड़े ही भेजा है हमने ?
ये तो था संसद और हमारे प्रतिनिधियों का हाल अब उसके नीचे का हाल भी देख लीजिये. हमारे यहाँ गाँव में सबसे छोटा अधिकारी होता है "पटवारी" (भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नाम से ये जाने जाते हैं) तो आप देखिये कि ये सिस्टम क्या है ? हमारे यहाँ के पटवारी का उत्तरदायित्व/ accountability किसके प्रति है तो वो अपने से ऊपर के अधिकारी के प्रति उत्तरदायी है, वो ऊपर का अधिकारी BDO हो सकता है, SDO हो सकता है अथवा SDM हो सकता है (भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नाम हैं इनका) और इन अधिकारियों का उत्तरदायित्त्व जिलाधिकारी के प्रति होता है, जिलाधिकारी का उत्तरदायित्व कमिश्नर के प्रति होता है, कमिश्नर का उत्तरदायित्व राज्य के चीफ सेक्रेटरी के प्रति होता है, चीफ सेक्रेटरी का उत्तरदायित्व कैबिनेट सेक्रेटरी के प्रति और कैबिनेट सेक्रेटरी का उत्तरदायित्व ही किसी के प्रति नहीं, बस कथा समाप्त. क्या आप जानते हैं कि भारत का कैबिनेट सेक्रेटरी किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, क्योंकि अंग्रेज जो कानून बना कर गए हैं उसमे यही कहा गया है.अब आप देखिये कि मेरा जो पटवारी है वो BDO /SDO /SDM को प्रसन्न करने में लगा रहता है , BDO /SDO /SDM जो हैं वो जिलाधिकारी को खुश करने में लगा रहता है, जिलाधिकारी जो है वो कमिश्नर को प्रसन्न करने में लगा रहता है, कमिश्नर चीफ सेक्रेटरी को प्रसन्न करने में लगा रहता है, चीफ सेक्रेटरी जो है वो कैबिनेट सेक्रेटरी को प्रसन्न करने में लगा रहता है. इन सब को अपने से ऊपर के अधिकारी को प्रसन्न करने की चिंता है क्योंकि वो उनकी CR ख़राब कर सकता है, Promotion रुक जायेगा, स्थानांतरण हो जायेगा. उसको गाँव के लोगों की कोई चिंता नहीं है, गाँव के लोगों के ऊपर अत्याचार करेगा, घूस लेगा, रिश्वत लेगा, क्योंकि वो जानता है कि गाँव वालों के हाथ में कुछ नहीं है, ना वो मेरा CR लिख सकते हैं, ना promotion दे सकते हैं, ना मेरा स्थानांतरण कर सकते हैं. सब एक दूसरे को प्रसन्न करने में लगे रहते हैं और ये सब मेरे और आपके पैसे से वेतन (salary) पा रहे हैं, हमको प्रसन्न नहीं रखेंगे, हम और आप उनके वेतन के लिए पैसा दे रहे हैं टैक्स के रूप में. क्यों नहीं प्रसन्न रखेंगे ? क्योंकि उनका उत्तरदायित्व अपने उच्च अधिकारियों के प्रति है ना कि हमारे प्रति, क्योंकि कानून ऐसा है और इसीलिए भ्रष्टाचार है वहां, आप कैसे रोकेंगे भ्रष्टाचार को ? भ्रष्टाचार तो होगा ही.
हमारे यहाँ जो न्याय व्यवस्था है वो IPC, CRPC, CPC पर आधारित है जो यूरोप से लिया गया है और ये प्लेटो के laws पुस्तक पर आधारित है जिसको हमने बिना बुद्धि लगाये ले लिया है.आप देखिएगा कि भारत में जो न्याय व्यवस्था चलती है उसमे पैसे वालों को ही न्याय मिलता है. हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति थे तो उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था और पूछा था कि "क्या कारण है कि स्वतंत्रता के पश्चात के 50 वर्षों में निर्धनों को ही फाँसी हो रही है, किसी धनवान को फाँसी नहीं हुई जब कि उन्होंने निर्धनों से अधिक अपराध किये हैं " अब मुख्य न्यायाधीश साहब ने उत्तर दिया कि नहीं मुझे नहीं ज्ञात परन्तु मेरे पास उत्तर है. उत्तर ये है कि "हमने कानून और न्याय व्यवस्था अंग्रेजों से ली है और उनके यहाँ न्याय तो पैसे वालों को ही मिलता है, बलवान एवं सशक्त को मिलता है, निर्धन को तो न्याय लेने का अधिकार ही नहीं है क्योंकि उनके दार्शनिक प्लेटो के अनुसार निर्धनों में आत्मा ही नहीं होती है ". ऐसी व्यवस्था की नक़ल कर के हम सोचें कि सुख, समृद्धि और शांति आएगी तो मुझे नहीं लगता कि ऐसा होने वाला है.
Contd.

rajpaldular
November 30th, 2011, 04:18 PM
कुछ छोटी-छोटी पर अत्यंत हास्यास्पद बातें आपको बताता हूँ कि कैसे अंग्रेजों की व्यवस्था को हमारे यहाँ थोपा गया है और बड़े आनंद से चल रहा है, आज भी, बिना रुके, बिना बदले. अंग्रेजों ने कानून बना के जिनको अनुसूचित जाति घोषित कर दिया वो आज भी अनुसूचित जाति में हैं, जिनको कानून बना कर अनुसूचित जनजाति बना दिया वो आज भी अनुसूचित जनजाति में हैं. अंग्रेजों ने जो हिन्दू कोड बिल तय किया, वही हिन्दू कोड बिल आज भी चलता है पूरे देश में, और वो कहते थे कि मुस्लिम कोड बिल हमें बनाना नहीं है तो वो आज तक नहीं बना, अब बनना चाहिए कि नहीं वो अलग मुद्दा है पर महत्वपूर्ण ये है कि वो जो तय कर के गए वो आज भी चल रहा है. अंग्रेजों ने जिनको अल्पसंख्यक कह दिया वो आज भी अल्पसंख्यक हैं. अल्पसंख्यक अथवा बहुसंख्यक कोई अपने देश में होता है क्या ? अल्पसंख्यक किसको कह सकते हैं आप ? जो विदेशों से आ कर आपके देश में बसे अथवा विस्थापित होकर दूसरे देश से आये और आपने उनको शरण दी. मुझे तो आश्चर्य होता है कि इस देश के मुसलमानों ने अथवा सिखों ने इस बात का आजतक विरोध क्यों नहीं किया ? वो इस टैग के साथ प्रसन्न क्यों हैं? और तो और एक अल्पसंख्यक आयोग भी काम करता है इस देश में.यूरोप में रविवार को छुट्टी होती है क्योंकि उन्हें चर्च जाना होता है, हम क्यों उस व्यवस्था को ढो रहे हैं? हमारे लिए तो सब दिन एक समान है, रविवार की छुट्टी तो बंद होनी चाहिए, हम उनकी मान्यताओं को क्यों ढो रहे हैं. छुट्टी ही देनी है तो किसी और दिन को हम तय कर लेंगे. हमसे तो खाड़ी के देश श्रेष्ट हैं जो रविवार के स्थान पर शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश रखते हैं. यूरोप में ठण्ड बहुत होती है और उनके यहाँ सूर्य साल के आठ-नौ मास नहीं निकलता तो ठण्ड के कारण लोग कार्यालय विलम्ब से जाते हैं, offices में काम विलम्ब से आरंभ होता है, हम क्यों उस व्यवस्था को चला रहे हैं अपने देश में ? जब कि हमारे यहाँ वर्ष में नौ-दस मास गर्मी पड़ती है हमें तो ऑफिस प्रातःकाल आरंभ करना चाहिए. हमारे यहाँ तो प्रातःकाल का समय सबसे उत्तम माना जाता है , क्यों हमें दस-ग्यारह बजे ऑफिस का काम आरंभ करना चाहिए जब आधा दिन निकल चुका होता है और हमारी आधी शक्ति समाप्त हो चुकी होती है. जब देश के सत्तर करोड़ कृषक सूर्योदय के साथ काम आरंभ कर सकते हैं तो दस-बारह करोड़ सरकारी कर्मचारी क्यों नहीं कर सकते? हमारे यहाँ बजट फ़रवरी के अंत में आता है, क्यों आना चाहिए फ़रवरी में? उनके यहाँ ऐसा होता है तो उसके कारण, कारण ये है कि उनका नया वर्ष अप्रैल से आरंभ होता है और उनको अपने लोगों को अप्रैल फूल बनाना होता है, हम क्यों वो व्यवस्था चला रहे हैं, हमारा तो नया वर्ष दिवाली से आरंभ होता है तो हमारा बजट दिवाली को आना चाहिए. हम उनकी मान्यताओं में फंसे हैं और जनवरी-फ़रवरी के हिसाब से मास मानते हैं, क्यों ऐसा होना चाहिए ? जनवरी का क्या अर्थ होता है कोई बता सकता है ? कोई नहीं जानता परन्तु आप चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, असाढ़, सावन आदि का अर्थ पूछेंगे तो मैं बता सकता हूँ. और मूर्खों के मासों के नाम देखिये कैसे-कैसे है --अक्टूबर को लीजिये, अक्टूबर बना है OCT से, ये ग्रीक का शब्द है, इसका अर्थ होता है आठ और अक्टूबर महीना कौन सा है ? दसवां. सितम्बर बना है SEPT शब्द से अर्थात होता है सात और मास है नौवां, ऐसे ही नवम्बर है, ये बना है NOV से जिसका अर्थ है नौ और मास है ग्यारहवां, क्या मूर्खता है ? कभी सोचा ही नहीं हमने. तो सिस्टम ऐसा है अपना, और ये सिस्टम इसी तरह अंग्रेज चलाते थे तो उनकी लाचारी थी कि 50 हजार अंग्रेजों को 20 -34 करोड़ भारतीयों पर शासन करना था, इसीलिए उन्होंने ऐसा सिस्टम बनाया था. तो 50 हजार लोग 20 -34 करोड़ लोगों पर शासन करेंगे तो उसके लिए उसी तरीके के नियम कानून बनेंगे और वही नियम कानून अब हम चलाएंगे तो परिणाम तो वही निकलेगा जो उस ज़माने में आता था. सिस्टम तो वही हैं ना ? तो प्रोडक्ट भी वही निकलेगा. हमने मशीन नहीं बदली, मशीन हम वही प्रयोग कर रहे हैं जो अंग्रेज करते थे. कई बार मैं विनोद में कहता हूँ कि हमने कार नहीं बदली, केवल ड्राइवर बदल लिया है. जो कार अंग्रेज चलाते थे वही कार जवाहर लाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक जितने प्रधानमंत्री हुए सब ने चलायी. अब सिस्टम नहीं बदलेंगे तो आप किसी को भी ड्राइवर बना कर बिठाएंगे परिणाम वही निकलेगा. आप मुझे भी बैठाएंगे तो परिणाम यही आएगा, नए परिणाम की अपेक्षा मत करियेगा. परिणाम नया चाहिए तो सिस्टम बदलना होगा और उसके लिए प्रयास नहीं करेंगे तो हमारी आँखों के सामने यही चित्र आता रहेगा और हम रक्त के आंसू रोते रहेंगे.निर्धनता, बेकारी, भुखमरी होने ही वाली है क्योंकि अंग्रेजों ने जो सिस्टम चलाया उसमे से निर्धनता निकलने ही वाली है, बेकारी निकलने ही वाली है, भुखमरी होने ही वाली है, क्योंकि वो यही चाहते थे और इसी हिसाब से उन्होंने ये सिस्टम बनाया था और उसी हिसाब से सिस्टम चलाते थे. अब आप पूछेंगे कि फिर क्या होना चाहिए ? मेरे हिसाब से आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण है भारत के उन नियम-कानूनों को बदलना जो आज भी बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले हुए चल रहे हैं. हमने संविधान बना लिया परन्तु वो चलता उसी नियम-कानून से है जो अंग्रेज तय कर के चले गए. क्योंकि संविधान अपने आप में कोई वस्तु नहीं है, संविधान से भिन्न जो नियम और कानून हैं वो तय करते हैं कि देश कैसे चलना चाहिए, संविधान में तो बहुत सी अमूर्त बाते हैं और वो नियम के हिसाब से follow की जाती है पूरे देश में. तो यदि वो नियम और कानून नहीं बदलते हैं तो सिस्टम बदलने का प्रश्न ही नहीं है. आप कहते रहिये, संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली, वो आपकी खुशफहमी के लिए है वास्तव में वो 100% दासता का Aristocratic System है. Contd.

rajpaldular
November 30th, 2011, 04:34 PM
करना क्या है?

अब हम भारत के लोगों को क्या करना चाहिए, तो मैं इस मान्यता का हूँ कि हमको बहुत शांत भाव से, प्रशांत भाव से अपनी व्यवस्था (system ) की समीक्षा (analysis) करनी होगी, और व्यवस्था की समीक्षा दो आधार पर होनी चाहिए, गाली-गलौज करके नहीं. एक तरीका तो ये हो सकता है कि हम गालियाँ दें, इस व्यवस्था को, तो ठीक है, दीजिये, परन्तु उसमे से कुछ निकलने वाला नहीं है अथवा फिर रोते रहिये कि ये गलत है, वो गलत है, वो तो होने ही वाला है. जैसे कई बार हम कहते हैं कि भ्रष्टाचार है, अब जिस सिस्टम में एक ऑफिसर अपने द्वारा सेवा की जाने वाली जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं है तो भ्रष्टाचार तो बनेगा ही वहां. भ्रष्टाचार बनाने के लिए ही तो ये सिस्टम बनाया था अंग्रेजों ने, आप इस सिस्टम में सदाचार की उम्मीद थोड़े ही कर सकते हैं, भ्रष्टाचार ही निकलेगा पूरे सिस्टम में से. यदि आप चाहते हैं कि भ्रष्टाचार, बेकारी, भुखमरी समाप्त हो तो इस सिस्टम को बदलिए तो सिस्टम बदलने का एक सामान्य सा सिद्धांत है कि जो कुछ अंग्रेज चलाते थे उसको उठा के फ़ेंक देना और अपने हिसाब से नया बनाना. अंग्रेजों ने कानून बनाया कि सांसद बिल की ड्राफ्टिंग नहीं कर सकते तो हम उस कानून को उठा के फेंक दें और हम तय कर लें कि हमारे बिल की ड्राफ्टिंग हमारे सांसद करेंगे, हमें ज्वाइंट सेक्रेटरी की आवश्यकता नहीं है, हटाओ इस पोस्ट को. (एक बात और आप जान लीजिये कि हमारे सांसद जब JPC के तहत कोई रिपोर्ट बनाते हैं तो वो एकदम सटीक और सत्य होती है, ये आप किसी भी JPC की रिपोर्ट पढ़ के समझ सकते हैं, ऐसा नहीं है कि हमारे सांसदों में ये गुण नहीं है) अंग्रेजों ने तय किया कि पटवारी का उत्तरदायित्व SDO के प्रति होगी, हम तय करेंगे कि पटवारी का उत्तरदायित्व गाँव के पंचायत के प्रति होगा, उसकी CR गाँव के लोग लिखेंगे, पटवारी यदि गाँव के पंचायत के प्रति उत्तरदायी होगा तो सदैव उसको गाँव के पंचायत की प्रसन्नता देखनी होगी. भ्रष्टाचार अपने आप समाप्त हो जायेगा. SDO को डिविजन के लोगों के प्रति उत्तरदायी बना देना होगा, उसकी CR डिविजन के लोग तैयार करेंगे, जिलाधिकारी का उत्तरदायित्व उस जिले की जनता के प्रति होगा, उसकी CR जिले के लोग तैयार करेंगे, आप देख लीजियेगा जिलाधिकारी सीधा काम करना आरंभ कर देंगे. इसमें तनिक भी बाधा नहीं है, ये परिवर्तन अत्यंत सरल है. इसके अतिरिक्त अंग्रेजों द्वारा जो Service Manual छोड़ा गया है, जिसमे Police Manual है, Jail Manual है, जिसमे 14 -15 हजार पन्ने हैं, उसको भारत की आवश्यकता एवं मान्यताओं के हिसाब से बना लेना है.

अभी जो भारत का लोकतंत्र है, ये लोकतंत्र तो नहीं चलने वाला, क्योंकि ये मूर्खता पर आधारित तंत्र है, ये चलेगा तो देश का नाश ही करेगा. महर्षि चाणक्य का एक बहुत सुन्दर सूत्र है जिसमे वो कहते हैं कि " जब अज्ञानी (मूर्ख) लोग ज्ञानियों पर शासन करने लगे तो उस देश का सर्वनाश निश्चित है ". तो इस देश को तो बचाना ही है, तो बचायेंगे कैसे ? हम जहाँ रहते हैं वहां पर ऐसे लोगों को चुने जिनमे धर्म,संस्कृति,सभ्यता की समझ हो, जो हमारे और दूसरे देशों की संस्कृति और सभ्यता और धर्म में अंतर जानते हों, भारत को जानते हों, भारतीयता क्या है इसको पहचानते हों, कम से कम धर्म के दस लक्षण उन्हें मालूम हो ( धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं) , उनकी डिग्री से हमें कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि कई बार डिग्री लिए हुए लोग महामूर्ख अपितु वज्र मूर्ख निकल जाते हैं. और दूसरी योग्यता कि वो "लंगोट से पक्के हों और जेब से पक्के हों" अर्थात स्ख्लन्शील ना हों, जब स्खलित लोग ऊँचे पदों पर पहुंचते हैं तो बंटाधार ही करते हैं, इसके बहुत से उदहारण इस देश में उपलब्ध हैं आप कभी भी देख और समझ सकते हैं, जेब से पक्के अर्थात "पैसे पर फिसलने वाले ना हों". और जिनकी कथनी और करनी एक हों. ऐसे लोगों को हम चुन लें और हर स्थान पर ऐसे 10 -20 लोग तो कम से कम मिल ही जायेंगे, फिर उनको प्रशिक्षित किया जाये कि उनको करना क्या है, प्रशिक्षण के पश्चात उनको लोकसभा में और विधानसभाओं में भेजा जाये और जो काम करवाना है करवा के वापस बुला लिया जाये. व्यवस्था क्या हो कि पार्टी समाप्त कर दी जाये इस देश में से, पार्टी की आवश्यकता नहीं है हमें, और बिना पार्टी के प्रतिनिधियों को हम चुनें, हम जहाँ रहते हैं वहां के लोगों के बारे में हमें पता है और कौन सही है, कौन गलत है ये हम जानते हैं, और ये चुने हुए प्रतिनिधि अपने में से ही किसी को प्रधानमंत्री चुन लें, किसी को वित्तमंत्री चुन लें, और जिसको हमने भेजा है उनको वापस भी हम बुला लें एक ही मिनट में, यदि वो हमारी आशा के अनुरूप काम ना करे, गुंडा निकले, भ्रष्टाचारी निकले तो, ये नहीं कि पाँच वर्ष हम प्रतीक्षा करते रहें कि पुनः चुनाव होगा तो हम इसे हराएंगे, जैसे हम कार्यालय में अथवा दुकान पर किसी को काम पर रखते हैं और वो यदि गलत करता हुआ पाया जाता है तो हम प्रतीक्षा थोड़े ही करते हैं उसे निकालने में, वैसे ही इनके साथ होना चाहिए, और ये सारा नियंत्रण लोगों के हाथ में हो. तब जा कर व्यवस्था परिवर्तन हो सकेगा.
अमेरिका भी एक समय स्पैनिश और फिर अंग्रेजों का दास हुआ परन्तु जब अमेरिका स्वतंत्र हुआ तो उसने अपने यहाँ मौजूद सभी अंग्रेजी और स्पैनिश चिन्हों को हटाया. आप अमेरिका जायेंगे तो देखेंगे कि उन्होंने रोड पर चलने का अपना ढंग भी अंग्रेजों से उलट बनाया है, वो रोड पर दायें चलते हैं, इंग्लैंड में बिजली का स्विच नीचे ऑन होता है और अमेरिका में ऊपर की तरफ. इतने छोटे स्तर पर उन्होंने बदलाव किया अपने यहाँ, और हम ? आप जापान का इतिहास देखिये, फ़्रांस का इतिहास देखिये, जर्मनी का इतिहास देखिये, चीन का इतिहास देखिये, सब इंग्लॅण्ड के दास हुए थे परन्तु जब स्वतंत्र हुए तो उन्होंने अंग्रेजों की एक-एक व्यवस्था को अपने यहाँ से उखाड़ फेंका, फ़्रांस और जर्मनी ने तो अपने यहाँ के शब्दकोष में से उन सभी शब्दों को हटाया जो अंग्रेजी से लिया गया था, अमेरिका ने अपनी अलग अंग्रेजी विकसित की. आज इन सब देशों का अपना अस्तित्व तो है ही संसार भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती है और ये सब हुआ है अपने यहाँ स्वराज्य लाकर, अपनी व्यवस्था बनाकर. इंग्लैंड में जो जो व्यवस्था है, जो नियम है, जो कानून है वो उनके अपने हिसाब से है और उस व्यवस्था को वो बनायें, चलायें, प्रसन्न रहें, हमें कोई आपत्ति नहीं है, दुःख की बात ये है कि उनकी व्यवस्थाओं को हम अपने यहाँ लायें और सोचें कि भारत सुखी हो जायेगा, समृद्धशाली हो जायेगा, ये तो अपने को धोखा देना है और पिछले 64 वर्षों से यही हो रहा है इस देश में. जो भी सरकार आती है वो अंग्रेजी और यूरोप की व्यवस्थाओं में ही देश को सुधारने का प्रयास करती है, अंत में क्या होता है कि कुछ सुधरता नहीं है. 64 वर्ष छोड़िये पिछले 20 वर्षों में सभी पार्टियों ने देश पर शासन किया है परन्तु देश वहीं का वहीं है क्योंकि सत्ता तो बदली परन्तु व्यवस्था नहीं बदली है. भारत बनेगा भारत के मार्ग से अंग्रेजों के मार्ग से नहीं.
तो मेरे मन में हमेशा एक बात आती है कि यदि हम स्वतंत्रता चाहते हैं, स्वराज्य चाहते हैं, स्वराज्य जो कि एक बहुत सुन्दर शब्द है, स्वराज्य अर्थात अपना राज्य, वो है कहाँ ? ये तो अंग्रेजों का राज्य है, अपना कहाँ हैं ? स्वतंत्रता मिल गयी, दासता से मुक्ति मिल गयी, परन्तु स्वराज्य नहीं आया, अपना कुछ भी नहीं है, स्वतंत्रता के 64 वर्षों के पश्चात भी हम दास ही हैं, स्वराज्य तो कोसों दूर है. 1947 के पहले के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता लाने की लड़ाई लड़ी, अब हमको स्वराज्य के लिए लड़ना होगा. ऐसे ही स्वराज्य नहीं आएगा, या तो आप तय कर लीजिये कि हम स्वराज्य लाने के लिए लड़ेंगे नहीं तो ऐसे ही अपमान से मरते रहेंगे हम इस देश में. दो कौड़ी की आपकी कोई पूछ नहीं है, आपको एक थर्ड क्लास का व्यक्ति सबक सिखा सकता है इस देश में. ना कहीं न्याय है, ना कहीं व्यवस्था है, और कानून इतने बेहूदे हैं इस देश में जिसकी कोई कल्पना नहीं है. अब आवश्यकता है व्यवस्था बदलने की.
देखिये जब देश की स्वतंत्रता की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था कुछ लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें स्वतान्रता दिलाई थी अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य अर्थात अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें पूरे भारत से आशा मत रखियेगा कि वो इसमें सम्मिलित हो जायेगा परन्तु हाँ सभी भारतीयों के समर्थन की आवश्यकता अवश्य होगी और किसी क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है और मैं अभी उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही आपको प्रेरित कर रहा हूँ क्योंकि जब क्रांति हो तो हमारे मष्तिस्क में ये भी तो हो कि हमें करना क्या है, इसलिए ये बातें स्मरण रखियेगा क्योंकि समय निकट आ गया है.
आपने इतने लम्बे लेख को धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका पुनः कोटि-कोटि धन्यवाद्, इस लेख को और लोगों को फॉरवर्ड करेंगे तो और भी आभारी रहूँगा. मेरा ये लेख कॉपी राईट कानून के अंतर्गत है अर्थात हर किसी को कॉपी करने का राईट है, आप इसे कॉपी कीजिये, मेरा नाम हटाइए और अपना नाम डालिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है, मेरी तो बस इतनी ही इच्छा है कि ये पत्र अधिक से अधिक राष्ट्रप्रेमी भाइयों और बहनों तक पहुंचे.
भारत माता की जय.
mail recd. from Mr. Ravi Verma

amankadian
December 2nd, 2011, 09:56 PM
Very Nice thread

Desh ne kia bhi kya hai azaad hoke......................... Sirf leader log hi banne hai
ager aaj bhi desh main angraj hi hote to...........to aaj desh kafi alag hota.
Garib ke liye to aaj bhi azaadi ka koi mol nhi......or us time bhi kuch mol nhi tha.
Ham azaad hi kha hue hai ... 120 Crore Kamjoor haato ne is desh ko Bach dia hai leaders ko.

Dagar25
December 3rd, 2011, 02:53 PM
ppl should understand that it is "Change of System" and not "Change of Govt." which can bring real properity to our nation. There are both bad and good ppl in every political party. System should be changed keeping in mind the huge populations of poors in our country. The development which is happening is just an illusion. Ppl dont know at what cost it is happening. . Bhagat Singh also stressed on Change of system installed by Britishers. He wanted to save the nation from looters of society.