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View Full Version : Demoralization of Democracy !!!!!!



rajpaldular
October 9th, 2012, 10:54 AM
कांग्रेस किसी ज़माने में एक सीमा तक अच्छी पार्टी हुआ करती थी, जब तक उसमें स्वतंत्रता के युद्ध के समय के नेता थे, उस श्रेणी में आप लालबहादुर शास्त्री को रख सकते हैं परन्तु लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात जिन्हें कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं के कहने पर अमेरिका और रूस ने मिल कर मारा था, कांग्रेस की संस्कृति बदल गयी. लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात कर्नाटक के एक प्रभावी नेता एस.निन्जलिगप्पा के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनायें थी किन्तु इंदिरा गाँधी की कूटनीतिक चालों से वे नहीं बन पाए और मैं इंदिरा गाँधी की इस राजनैतिक चाल को भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट मानता हूँ. उस समय से भारत की राजनीति में जो गिरावट आना आरम्भ हुई वो आज गिरते-गिरते रसातल में पहुँच गयी है और अब तो भारत की राजनीति को अमेरिका तय कर रहा है कि प्रधानमंत्री कौन होगा, राष्ट्रपति कौन होगा, वित्त मंत्री कौन होगा, आदि, आदि.
अब तो एक व्यक्ति और हैं रघुराम राजन, इनको अमेरिका के कहने पर भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया है, और जब से ये महाशय आये हैं तब से भारत की आर्थिक सुधारों की (तथाकथित) गति में वृद्धि हुई है. रघुराम राजन के बारे में आप लोगों को थोड़ी सी जानकारी दे दूँ, ये महाशय वर्षों अमेरिका में रहे, कुछ एक बिजनेस स्कूल में ये प्रोफ़ेसर थे, कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे (अब पढ़ाते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता), कुछ वर्षों तक ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) के मुख्य अर्थशास्त्री रहे, IIT Delhi के पढ़े हुए इंजिनियर हैं, भोपाल में इन महाशय का जन्म हुआ था. ये जो सुधार कर रहे हैं आर्थिक क्षेत्र में, वो किसके लिए कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारा दुर्भाग्य है ये और विपक्ष तो धृतराष्ट्र की भूमिका में है, सब को सत्ता के मोह ने घेर लिया है. जिस लोकतंत्र के नाम पर मुलायम, मायावती और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हो गए हैं वो भी अमेरिका के पैसे के बल पर हुआ है और ध्यान दीजियेगा ये तीनों एक दूसरे के विरुद्ध हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लड़ चुके हैं और ये यूपीए गठबंधन वाले लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि "हाँ हम ऐसे ही करेंगे, तुम (आम आदमी) क्या कर लोगे ?"

हिंदी फ़िल्में आप लोग देखते होंगे. हमारी हिंदी फिल्मों में नायक के अतिरिक्त एक नायिका होती है और एक चरित्र अभिनेता होता है. आज भाजपा की स्थिति एक चरित्र अभिनेता की होकर रह गयी है, फिल्म में मुख्य पात्र के सन्निकट भी है परन्तु किसी काम का नहीं अर्थात उसके रहने, नहीं रहने से फिल्म की कहानी पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है. भाजपा आज एक ऐसे चरित्र अभिनेता के रोल में है जो घर के एक कोने में बैठ कर खांसता रहता है परन्तु उसकी उपस्थिति से न फिल्म (देश) के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने वाला है और ना उसके मर जाने से किसी को दुःख होने वाला है. भाजपा ने जब तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था तब तक ये पार्टी थोड़ी हट के लग रही थी परन्तु सत्ता में छः वर्ष व्यतीत करने के पश्चात ये कांग्रेस की "बी टीम" होकर रह गयी. मैं खानदानी जनसंघी हुआ करता था और जब वाजपेयी जी सत्ता में आये तो उस समय मेरे जैसे २०-२२ वर्ष के युवाओं को बहुत अच्छा लगा था पर सत्ता में रहते हुए भाजपा ने वो सब नहीं किया जो वो करने को कहा करती थी अपितु उसने वही किया जो कांग्रेस उसके पहले के पचास वर्षों से करती आई थी. सत्ता के लोभ में उसने (भाजपा ने) अपने सिद्धांतों की आहुति दे दी मैं जिसे राष्ट्रवादी पार्टी समझा करता था वो कुर्सीवादी पार्टी बन कर रह गयी. मेरे जैसे हिन्दुओं को लग रहा था कि चलिए हम हिन्दुओं की संरक्षक एक पार्टी है और वो हमारे हितों का ध्यान रखेगी परन्तु उसने इसकी भी तिलांजलि दे दी और भारतीय समाज में प्रचलित एक शब्द "धर्मनिरपेक्ष" का चोंगा ओढने के असफल प्रयास में लगी हुई है. भाजपा के शासन कल में एक बार प्याज का दाम बढ़ गया था तो कांग्रेस ने उस मुद्दे को ऐसा भुनाया था कि दिल्ली और मध्य प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी की प्रतीक्षा कर रही भाजपा को कांग्रेस ने पटकनी दे दी थी परन्तु आज इतने बड़े-बड़े घोटालों को भाजपा भुनाना तो दूर उसके माध्यम से कांग्रेस को निशाना तक नहीं बना पा रही है. | तो दोष किसका है? भाजपा की या जनता की?

अंत में, अगले लोकसभा के होनेवाले चुनाव में भाजपा, तथाकथित सहयोगी दलों को प्रसन्न करने के चक्कर में यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित नहीं करती है तो मैं मानता हूँ कि ये भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक पराजय होगी और इसे मैं भाजपा के द्वारा आत्महत्या का प्रयास मानूँगा. मन और बुद्धि को तो कभी भी बदला जा सकता है परन्तु भाजपा अपने मौलिक चरित्र को बदलने का लगातार प्रयास करती आ रही है, उसे चरित्र अभिनेता की भूमिका से बाहर निकलकर नायक की भूमिका में आना होगा और नायक ही नहीं "एंग्री यंग मैन" बनना होगा, तभी भाजपा के साथ-साथ देश का भी भला होगा.


कांग्रेस किसी ज़माने में एक सीमा तक अच्छी पार्टी हुआ करती थी, जब तक उसमें स्वतंत्रता के युद्ध के समय के नेता थे, उस श्रेणी में आप लालबहादुर शास्त्री को रख सकते हैं परन्तु लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात जिन्हें कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं के कहने पर अमेरिका और रूस ने मिल कर मारा था, कांग्रेस की संस्कृति बदल गयी. लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात कर्नाटक के एक प्रभावी नेता एस.निन्जलिगप्पा के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनायें थी किन्तु इंदिरा गाँधी की कूटनीतिक चालों से वे नहीं बन पाए और मैं इंदिरा गाँधी की इस राजनैतिक चाल को भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट मानता हूँ. उस समय से भारत की राजनीति में जो गिरावट आना आरम्भ हुई वो आज गिरते-गिरते रसातल में पहुँच गयी है और अब तो भारत की राजनीति को अमेरिका तय कर रहा है कि प्रधानमंत्री कौन होगा, राष्ट्रपति कौन होगा, वित्त मंत्री कौन होगा, आदि, आदि.
अब तो एक व्यक्ति और हैं रघुराम राजन, इनको अमेरिका के कहने पर भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया है, और जब से ये महाशय आये हैं तब से भारत की आर्थिक सुधारों की (तथाकथित) गति में वृद्धि हुई है. रघुराम राजन के बारे में आप लोगों को थोड़ी सी जानकारी दे दूँ, ये महाशय वर्षों अमेरिका में रहे, कुछ एक बिजनेस स्कूल में ये प्रोफ़ेसर थे, कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे (अब पढ़ाते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता), कुछ वर्षों तक ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) के मुख्य अर्थशास्त्री रहे, IIT Delhi के पढ़े हुए इंजिनियर हैं, भोपाल में इन महाशय का जन्म हुआ था. ये जो सुधार कर रहे हैं आर्थिक क्षेत्र में, वो किसके लिए कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारा दुर्भाग्य है ये और विपक्ष तो धृतराष्ट्र की भूमिका में है, सब को सत्ता के मोह ने घेर लिया है. जिस लोकतंत्र के नाम पर मुलायम, मायावती और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हो गए हैं वो भी अमेरिका के पैसे के बल पर हुआ है और ध्यान दीजियेगा ये तीनों एक दूसरे के विरुद्ध हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लड़ चुके हैं और ये यूपीए गठबंधन वाले लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि "हाँ हम ऐसे ही करेंगे, तुम (आम आदमी) क्या कर लोगे ?"

हिंदी फ़िल्में आप लोग देखते होंगे. हमारी हिंदी फिल्मों में नायक के अतिरिक्त एक नायिका होती है और एक चरित्र अभिनेता होता है. आज भाजपा की स्थिति एक चरित्र अभिनेता की होकर रह गयी है, फिल्म में मुख्य पात्र के सन्निकट भी है परन्तु किसी काम का नहीं अर्थात उसके रहने, नहीं रहने से फिल्म की कहानी पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है. भाजपा आज एक ऐसे चरित्र अभिनेता के रोल में है जो घर के एक कोने में बैठ कर खांसता रहता है परन्तु उसकी उपस्थिति से न फिल्म (देश) के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने वाला है और ना उसके मर जाने से किसी को दुःख होने वाला है. भाजपा ने जब तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था तब तक ये पार्टी थोड़ी हट के लग रही थी परन्तु सत्ता में छः वर्ष व्यतीत करने के पश्चात ये कांग्रेस की "बी टीम" होकर रह गयी. मैं खानदानी जनसंघी हुआ करता था और जब वाजपेयी जी सत्ता में आये तो उस समय मेरे जैसे २०-२२ वर्ष के युवाओं को बहुत अच्छा लगा था पर सत्ता में रहते हुए भाजपा ने वो सब नहीं किया जो वो करने को कहा करती थी अपितु उसने वही किया जो कांग्रेस उसके पहले के पचास वर्षों से करती आई थी. सत्ता के लोभ में उसने (भाजपा ने) अपने सिद्धांतों की आहुति दे दी मैं जिसे राष्ट्रवादी पार्टी समझा करता था वो कुर्सीवादी पार्टी बन कर रह गयी. मेरे जैसे हिन्दुओं को लग रहा था कि चलिए हम हिन्दुओं की संरक्षक एक पार्टी है और वो हमारे हितों का ध्यान रखेगी परन्तु उसने इसकी भी तिलांजलि दे दी और भारतीय समाज में प्रचलित एक शब्द "धर्मनिरपेक्ष" का चोंगा ओढने के असफल प्रयास में लगी हुई है. भाजपा के शासन कल में एक बार प्याज का दाम बढ़ गया था तो कांग्रेस ने उस मुद्दे को ऐसा भुनाया था कि दिल्ली और मध्य प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी की प्रतीक्षा कर रही भाजपा को कांग्रेस ने पटकनी दे दी थी परन्तु आज इतने बड़े-बड़े घोटालों को भाजपा भुनाना तो दूर उसके माध्यम से कांग्रेस को निशाना तक नहीं बना पा रही है. तो दोष किसका है? भाजपा का या जनता का ?

अंत में, अगले लोकसभा के होनेवाले चुनाव में भाजपा, तथाकथित सहयोगी दलों को प्रसन्न करने के चक्कर में यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित नहीं करती है तो मैं मानता हूँ कि ये भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक पराजय होगी और इसे मैं भाजपा के द्वारा आत्महत्या का प्रयास मानूँगा. मन और बुद्धि को तो कभी भी बदला जा सकता है परन्तु भाजपा अपने मौलिक चरित्र को बदलने का लगातार प्रयास करती आ रही है, उसे चरित्र अभिनेता की भूमिका से बाहर निकलकर नायक की भूमिका में आना होगा और नायक ही नहीं "एंग्री यंग मैन" बनना होगा, तभी भाजपा के साथ-साथ देश का भी भला होगा.


mail recd from : Mr. Ravi Verma

rakeshsehrawat
October 10th, 2012, 07:44 AM
अति का भला ना बोलना
अति की भली ना चुप
अति का भला ना बरसना
अति की भली ना धूप

ravinderjeet
October 10th, 2012, 09:51 AM
कांग्रेस किसी ज़माने में एक सीमा तक अच्छी पार्टी हुआ करती थी, जब तक उसमें स्वतंत्रता के युद्ध के समय के नेता थे, : Mr. Ravi Verma

खान्ग्रेस ने कभी कोई स्वतंत्रा युद्ध नहीं लड़ा ,ये अंग्रेजों के चमचे रजवाड़े और रहिसजादों द्वरा खड़ी की गई थी | जो एक छदम , बहरूपिये लोगों का समूह था |और स्वतन्त्रता आन्दोलन लड़ने वाले असली देशभक्तों से भारत की जनता को दूर रखने के लिए बनाई गई थी | कांग्रेस का मतलब ही चीम्पाजिओं का समूह होता हे जो की वो आज भी हैं |

rajpaldular
October 10th, 2012, 10:17 AM
भ्रष्ट और निकम्मी सरकार कई देशों में आयी हैं परन्तु हमारा दुर्भाग्य यह है कि जितनी दुष्ट और भ्रष्ट हमारी सरकार (Congress) है उतना ही सुस्त और निकम्मा हमारा विपक्ष है और मैं तो ४०% दोष सरकार को दूँगा और 60% दोष विपक्ष को, क्योंकि सुस्त तो ये हैं ही साथ ही इन नालायकों में राजनीतिक चतुराई तनिक भी नहीं है ये गठबंधन सरकार की मंथराओं और कैकेईयों को अब तक फोड़ ना सके जबकि अवसरों की कोई कमी नहीं थी. सरकार (Congress) विपक्ष (BJP) की नपुंसकता को पहचानती है इसीलिए आराम से जनता के सीने पर मूँग दल रही है.

desijat
October 10th, 2012, 10:31 AM
बहुत ही निस्पाक्ष और सटीक पोस्ट जिसने राजनीतिक दल सी उपर उठ कर कुछ अहम मुद्दे रखे. हालाँकि मैं थोड़े मुद्दो पे सहमति नही रखता और उन पर अपनी राय रखना चाहूँगा.

मुझे नही पता कॉंग्रेस आज़ादी में कितना योगदान था, मैं उसे ज़्यादा पॉज़िटिव नही मानता पर जो मैने इंदिरा गाँधी के बारे में पढ़ा है वो ज़रूर अछा पढ़ा है. कहते है वो अकेली मर्द प्रधान मंत्री हुई है देश की और हो भी क्यूँ ना, उन्होने कुछ फ़ैसले ऐसे लिए जो आज तक किसी प्रधान मंत्री ने नही लिए. एमर्जेन्सी को छोड़ दे तो मुख्यता उनके द्वारा लिए गये कुछ कदम जिसमे पंजाब से आतंकवाद का ख़ात्मा, १९७१ की लड़ाई, शिमला अग्रीमेंट, भारत रूसे शांति समझोता, पहला परमाणु परीक्षण और भी आने मुद्दे है.

मेरे अनुसार भारतीय राजनीति का पतन हुआ जब छोटी पार्टिया मुख्या धारा मैं आने लगी और खरीद फ़रोख़्त शुरू हुई. तब से जो राजनीति आ पतन शुरू हुआ अब तक थमने का नाम नही ले रहा.

भाजपा की बात भी अपने सटीक कही, मैने भी १९९९ मैं भाजपा को सपोर्ट दी थी और वो पार्टी उमीदो पर खरी नही उतरी और उसके बाद ये चलन आम हो गया. वाजपयी साहब एक कद्दावर नेता और कुशल शशक थे पर उनकी पार्टी के सीपे सलाहकार नाकाम रहे उमीदो पर खरा उतरने में. भाजपा को समझना चाईए की जो वोटर जिताता है वो शहर में इंडिया शाइनिंग नही देखता और ना ही इंटरनेट पर बैठ कर वाड्रा और मनमोहन के भद्दे कार्टून देख कर वोट देता है. कॉंग्रेस ये बात भली भाँति जानती है की वोट आते है शहरो के आगे से और तब की ऐसे ओच्चे कार्टूनो में ना समय बर्बाद करती है ना ही तूल देती है. शहरो को रिफॉर्म्स दे कर खुश कर देती है और गाओं में मांरेगा जैसे स्कीम चला कर. मेरे कुछ दोस्त मेरी इस बात से इत्तेफ़ाक़ ना रखे शायद पर २००९ के आँकड़ो का विश्लेषण करे तो बात समझ आ जाएगी.

और एक आख़िरी बात, अगर भाजपा मोदी को प्रधान मंत्री का उम्मेदवार नही बनती तो उसके लिए इसे बड़ी बेवकूफी की बात नही होगी.

sivach
October 11th, 2012, 02:03 PM
वर्तमान में देश में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसकी वजह अतीत में छिपी है और भविष्य में जो भी घटनाये होगी उसके कारक वर्तमान में है l इंदिरा गाँधी ने अपने शासनकाल में बेशक कई अहम फैसले लिए इसके बावजूद इंदिरा गाँधी ने देश को एक ऐसी व्यवस्था दी जिसके परिणाम आज देखने को मिल रहे है l किसी भी देश का संचालन व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि व्यवस्था (system ) द्वारा किया जाता है इंदिरा ने सभी नियमो कायदों को अपने फायदे के लिए तोडा और सभी संवधानिक संस्थाओ का अपने अहम और अपनी कुर्सी के लिए इस्तेमाल किया l चापलूस और निकम्मे सरकारी अधिकारियो को उच्च पदों पर रखा गया ईमानदार लोगो को किनारे कर दिया गया और धीरे धीरे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलने लगा l इसी क्रम को राजीव गाँधी एवं अन्य कांग्रेसी प्रधानमंत्रियो ने भी आगे बढाया पार्टी तथा सरकार में चापलूसों की एक बड़ी फौज है जो बस अपने आकाओ को खुश करने ने लगी रहती है और खरबूजो के रंग बदलने का क्रम जारी रहा और एक वक़्त वो भी आया जब लगभग सभी खरबूजे एक ही रंग के हो गए तथा व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त हो गयी जिसके परिणाम हम सब के सामने है l सरकारी विभाग सही से काम कर रहे होते तो आज जो बड़े बड़े घोटाले खुल रहे है ये सब नहीं होते l

प्रकृति के कुछ नियम है जिनमे से एक है चक्र (cycle ) और उसकी समयावधि l हर चीज़ का एक निश्चित चक्र और आयु होती है मुझे ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी की आयु समाप्ति की ओर है 127 साल आयु हो चुकी है कांग्रेस पार्टी की, जिस तरह के फैसले कांग्रेस ले रही उस देखकर तो एक ही बात सटीक बैठती है "बुढ़ापे में सठिया गयी"

देश की आजादी की लड़ाई का इतिहास जैसा कांग्रेस ने लिखा वैसा ही पढ़ने को मिलता है उसमे भी काफी गलत तथ्य कांग्रेस ने जोड़े है आजादी की लड़ाई के समय हम नहीं थे लेकिन 1947 के बाद भी इस देश में कई लड़ाई लड़ी गयी जिनमे से एक थी उत्तराखंड अलग राज्य बनाने की l हम सब उसके गवाह है जिन लोगो ने अपनी जान देकर उत्तराखंड बनवाया उनका आज कोई नाम भी नहीं लेता जिन लोगो ने इस संघर्ष में पूरा जीवन लगा दिया उन लोगो की उत्तराखंड सरकार में क्या जगह है आप सभी जानते है l बिलकुल यही हालात आजादी की लडाई के है जान किसी ने दी और मलाई कोई खा रहा है

पिछले 2 सालो में जो आन्दोलन देश में हुए तथा सभी वर्गों ने इस लचर व्यवस्था के खिलाफ जो आवाज उठायी है उसे देखकर उम्मीद बंधती है कि देश में एक सार्थक परिवर्तन आएगा और देश का भविष्य उज्जवल होगा l मैं तो ऐसी आशा करता हूँ

Bisky
October 11th, 2012, 03:05 PM
बहुत ही निस्पाक्ष और सटीक पोस्ट जिसने राजनीतिक दल सी उपर उठ कर कुछ अहम मुद्दे रखे. हालाँकि मैं थोड़े मुद्दो पे सहमति नही रखता और उन पर अपनी राय रखना चाहूँगा.

मुझे नही पता कॉंग्रेस आज़ादी में कितना योगदान था, मैं उसे ज़्यादा पॉज़िटिव नही मानता पर जो मैने इंदिरा गाँधी के बारे में पढ़ा है वो ज़रूर अछा पढ़ा है. कहते है वो अकेली मर्द प्रधान मंत्री हुई है देश की और हो भी क्यूँ ना, उन्होने कुछ फ़ैसले ऐसे लिए जो आज तक किसी प्रधान मंत्री ने नही लिए. एमर्जेन्सी को छोड़ दे तो मुख्यता उनके द्वारा लिए गये कुछ कदम जिसमे पंजाब से आतंकवाद का ख़ात्मा, १९७१ की लड़ाई, शिमला अग्रीमेंट, भारत रूसे शांति समझोता, पहला परमाणु परीक्षण और भी आने मुद्दे है.

मेरे अनुसार भारतीय राजनीति का पतन हुआ जब छोटी पार्टिया मुख्या धारा मैं आने लगी और खरीद फ़रोख़्त शुरू हुई. तब से जो राजनीति आ पतन शुरू हुआ अब तक थमने का नाम नही ले रहा.

भाजपा की बात भी अपने सटीक कही, मैने भी १९९९ मैं भाजपा को सपोर्ट दी थी और वो पार्टी उमीदो पर खरी नही उतरी और उसके बाद ये चलन आम हो गया. वाजपयी साहब एक कद्दावर नेता और कुशल शशक थे पर उनकी पार्टी के सीपे सलाहकार नाकाम रहे उमीदो पर खरा उतरने में. भाजपा को समझना चाईए की जो वोटर जिताता है वो शहर में इंडिया शाइनिंग नही देखता और ना ही इंटरनेट पर बैठ कर वाड्रा और मनमोहन के भद्दे कार्टून देख कर वोट देता है. कॉंग्रेस ये बात भली भाँति जानती है की वोट आते है शहरो के आगे से और तब की ऐसे ओच्चे कार्टूनो में ना समय बर्बाद करती है ना ही तूल देती है. शहरो को रिफॉर्म्स दे कर खुश कर देती है और गाओं में मांरेगा जैसे स्कीम चला कर. मेरे कुछ दोस्त मेरी इस बात से इत्तेफ़ाक़ ना रखे शायद पर २००९ के आँकड़ो का विश्लेषण करे तो बात समझ आ जाएगी.

और एक आख़िरी बात, अगर भाजपा मोदी को प्रधान मंत्री का उम्मेदवार नही बनती तो उसके लिए इसे बड़ी बेवकूफी की बात नही होगी.

Dear Brother!
इन्दिरा गांधी फैसले लेने में बोल्ड थी, इसमें कोई दोराय नहीं है तथा केवल यहाँ तक तो सब कुछ ठीक भी है। लेकिन गलत/सही फैसला, इसमें बहस/विवाद की बहुत गुंजाइश है। 1971 की लड़ाई अथवा पाकिस्तान का विभाजन, इसे उपलब्धि में गिना जा सकता है लेकिन मुस्लिमों के अतीत और भौगोलिक दृष्टिकोण से अगर देखें तो यह तो एक दिन होना निश्चित ही था। ऑपरेशन ब्लू स्टार कोई एकदम से होने वाली घटना नहीं थी। उसके बीज भी इन्हीं लोगों के बोये हुए थे। अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद कुछ लोग उसके लिए खतरनाक और नकारा साबित हो रहे थे। जिन्हें किनारे लगाना उसके लिए जरूरी हो गया था। हमारा हिन्दू मन कुछ है भी इस तरह का ........ कि बस पूछिये मत। और वैसे तो अब जाट सिख भी उसे वोट करते हैं। इसे हम कुछ यूं भी लिख सकते हैं:

"कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रकीब
गालियां खा के भी बे-मज़ा न हुआ"

शीरीं:- मीठे
लब:- होंठ
रकीब:- दुश्मन