rajpaldular
October 9th, 2012, 10:54 AM
कांग्रेस किसी ज़माने में एक सीमा तक अच्छी पार्टी हुआ करती थी, जब तक उसमें स्वतंत्रता के युद्ध के समय के नेता थे, उस श्रेणी में आप लालबहादुर शास्त्री को रख सकते हैं परन्तु लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात जिन्हें कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं के कहने पर अमेरिका और रूस ने मिल कर मारा था, कांग्रेस की संस्कृति बदल गयी. लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात कर्नाटक के एक प्रभावी नेता एस.निन्जलिगप्पा के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनायें थी किन्तु इंदिरा गाँधी की कूटनीतिक चालों से वे नहीं बन पाए और मैं इंदिरा गाँधी की इस राजनैतिक चाल को भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट मानता हूँ. उस समय से भारत की राजनीति में जो गिरावट आना आरम्भ हुई वो आज गिरते-गिरते रसातल में पहुँच गयी है और अब तो भारत की राजनीति को अमेरिका तय कर रहा है कि प्रधानमंत्री कौन होगा, राष्ट्रपति कौन होगा, वित्त मंत्री कौन होगा, आदि, आदि.
अब तो एक व्यक्ति और हैं रघुराम राजन, इनको अमेरिका के कहने पर भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया है, और जब से ये महाशय आये हैं तब से भारत की आर्थिक सुधारों की (तथाकथित) गति में वृद्धि हुई है. रघुराम राजन के बारे में आप लोगों को थोड़ी सी जानकारी दे दूँ, ये महाशय वर्षों अमेरिका में रहे, कुछ एक बिजनेस स्कूल में ये प्रोफ़ेसर थे, कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे (अब पढ़ाते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता), कुछ वर्षों तक ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) के मुख्य अर्थशास्त्री रहे, IIT Delhi के पढ़े हुए इंजिनियर हैं, भोपाल में इन महाशय का जन्म हुआ था. ये जो सुधार कर रहे हैं आर्थिक क्षेत्र में, वो किसके लिए कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारा दुर्भाग्य है ये और विपक्ष तो धृतराष्ट्र की भूमिका में है, सब को सत्ता के मोह ने घेर लिया है. जिस लोकतंत्र के नाम पर मुलायम, मायावती और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हो गए हैं वो भी अमेरिका के पैसे के बल पर हुआ है और ध्यान दीजियेगा ये तीनों एक दूसरे के विरुद्ध हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लड़ चुके हैं और ये यूपीए गठबंधन वाले लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि "हाँ हम ऐसे ही करेंगे, तुम (आम आदमी) क्या कर लोगे ?"
हिंदी फ़िल्में आप लोग देखते होंगे. हमारी हिंदी फिल्मों में नायक के अतिरिक्त एक नायिका होती है और एक चरित्र अभिनेता होता है. आज भाजपा की स्थिति एक चरित्र अभिनेता की होकर रह गयी है, फिल्म में मुख्य पात्र के सन्निकट भी है परन्तु किसी काम का नहीं अर्थात उसके रहने, नहीं रहने से फिल्म की कहानी पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है. भाजपा आज एक ऐसे चरित्र अभिनेता के रोल में है जो घर के एक कोने में बैठ कर खांसता रहता है परन्तु उसकी उपस्थिति से न फिल्म (देश) के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने वाला है और ना उसके मर जाने से किसी को दुःख होने वाला है. भाजपा ने जब तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था तब तक ये पार्टी थोड़ी हट के लग रही थी परन्तु सत्ता में छः वर्ष व्यतीत करने के पश्चात ये कांग्रेस की "बी टीम" होकर रह गयी. मैं खानदानी जनसंघी हुआ करता था और जब वाजपेयी जी सत्ता में आये तो उस समय मेरे जैसे २०-२२ वर्ष के युवाओं को बहुत अच्छा लगा था पर सत्ता में रहते हुए भाजपा ने वो सब नहीं किया जो वो करने को कहा करती थी अपितु उसने वही किया जो कांग्रेस उसके पहले के पचास वर्षों से करती आई थी. सत्ता के लोभ में उसने (भाजपा ने) अपने सिद्धांतों की आहुति दे दी मैं जिसे राष्ट्रवादी पार्टी समझा करता था वो कुर्सीवादी पार्टी बन कर रह गयी. मेरे जैसे हिन्दुओं को लग रहा था कि चलिए हम हिन्दुओं की संरक्षक एक पार्टी है और वो हमारे हितों का ध्यान रखेगी परन्तु उसने इसकी भी तिलांजलि दे दी और भारतीय समाज में प्रचलित एक शब्द "धर्मनिरपेक्ष" का चोंगा ओढने के असफल प्रयास में लगी हुई है. भाजपा के शासन कल में एक बार प्याज का दाम बढ़ गया था तो कांग्रेस ने उस मुद्दे को ऐसा भुनाया था कि दिल्ली और मध्य प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी की प्रतीक्षा कर रही भाजपा को कांग्रेस ने पटकनी दे दी थी परन्तु आज इतने बड़े-बड़े घोटालों को भाजपा भुनाना तो दूर उसके माध्यम से कांग्रेस को निशाना तक नहीं बना पा रही है. | तो दोष किसका है? भाजपा की या जनता की?
अंत में, अगले लोकसभा के होनेवाले चुनाव में भाजपा, तथाकथित सहयोगी दलों को प्रसन्न करने के चक्कर में यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित नहीं करती है तो मैं मानता हूँ कि ये भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक पराजय होगी और इसे मैं भाजपा के द्वारा आत्महत्या का प्रयास मानूँगा. मन और बुद्धि को तो कभी भी बदला जा सकता है परन्तु भाजपा अपने मौलिक चरित्र को बदलने का लगातार प्रयास करती आ रही है, उसे चरित्र अभिनेता की भूमिका से बाहर निकलकर नायक की भूमिका में आना होगा और नायक ही नहीं "एंग्री यंग मैन" बनना होगा, तभी भाजपा के साथ-साथ देश का भी भला होगा.
कांग्रेस किसी ज़माने में एक सीमा तक अच्छी पार्टी हुआ करती थी, जब तक उसमें स्वतंत्रता के युद्ध के समय के नेता थे, उस श्रेणी में आप लालबहादुर शास्त्री को रख सकते हैं परन्तु लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात जिन्हें कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं के कहने पर अमेरिका और रूस ने मिल कर मारा था, कांग्रेस की संस्कृति बदल गयी. लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात कर्नाटक के एक प्रभावी नेता एस.निन्जलिगप्पा के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनायें थी किन्तु इंदिरा गाँधी की कूटनीतिक चालों से वे नहीं बन पाए और मैं इंदिरा गाँधी की इस राजनैतिक चाल को भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट मानता हूँ. उस समय से भारत की राजनीति में जो गिरावट आना आरम्भ हुई वो आज गिरते-गिरते रसातल में पहुँच गयी है और अब तो भारत की राजनीति को अमेरिका तय कर रहा है कि प्रधानमंत्री कौन होगा, राष्ट्रपति कौन होगा, वित्त मंत्री कौन होगा, आदि, आदि.
अब तो एक व्यक्ति और हैं रघुराम राजन, इनको अमेरिका के कहने पर भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया है, और जब से ये महाशय आये हैं तब से भारत की आर्थिक सुधारों की (तथाकथित) गति में वृद्धि हुई है. रघुराम राजन के बारे में आप लोगों को थोड़ी सी जानकारी दे दूँ, ये महाशय वर्षों अमेरिका में रहे, कुछ एक बिजनेस स्कूल में ये प्रोफ़ेसर थे, कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे (अब पढ़ाते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता), कुछ वर्षों तक ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) के मुख्य अर्थशास्त्री रहे, IIT Delhi के पढ़े हुए इंजिनियर हैं, भोपाल में इन महाशय का जन्म हुआ था. ये जो सुधार कर रहे हैं आर्थिक क्षेत्र में, वो किसके लिए कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारा दुर्भाग्य है ये और विपक्ष तो धृतराष्ट्र की भूमिका में है, सब को सत्ता के मोह ने घेर लिया है. जिस लोकतंत्र के नाम पर मुलायम, मायावती और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हो गए हैं वो भी अमेरिका के पैसे के बल पर हुआ है और ध्यान दीजियेगा ये तीनों एक दूसरे के विरुद्ध हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लड़ चुके हैं और ये यूपीए गठबंधन वाले लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि "हाँ हम ऐसे ही करेंगे, तुम (आम आदमी) क्या कर लोगे ?"
हिंदी फ़िल्में आप लोग देखते होंगे. हमारी हिंदी फिल्मों में नायक के अतिरिक्त एक नायिका होती है और एक चरित्र अभिनेता होता है. आज भाजपा की स्थिति एक चरित्र अभिनेता की होकर रह गयी है, फिल्म में मुख्य पात्र के सन्निकट भी है परन्तु किसी काम का नहीं अर्थात उसके रहने, नहीं रहने से फिल्म की कहानी पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है. भाजपा आज एक ऐसे चरित्र अभिनेता के रोल में है जो घर के एक कोने में बैठ कर खांसता रहता है परन्तु उसकी उपस्थिति से न फिल्म (देश) के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने वाला है और ना उसके मर जाने से किसी को दुःख होने वाला है. भाजपा ने जब तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था तब तक ये पार्टी थोड़ी हट के लग रही थी परन्तु सत्ता में छः वर्ष व्यतीत करने के पश्चात ये कांग्रेस की "बी टीम" होकर रह गयी. मैं खानदानी जनसंघी हुआ करता था और जब वाजपेयी जी सत्ता में आये तो उस समय मेरे जैसे २०-२२ वर्ष के युवाओं को बहुत अच्छा लगा था पर सत्ता में रहते हुए भाजपा ने वो सब नहीं किया जो वो करने को कहा करती थी अपितु उसने वही किया जो कांग्रेस उसके पहले के पचास वर्षों से करती आई थी. सत्ता के लोभ में उसने (भाजपा ने) अपने सिद्धांतों की आहुति दे दी मैं जिसे राष्ट्रवादी पार्टी समझा करता था वो कुर्सीवादी पार्टी बन कर रह गयी. मेरे जैसे हिन्दुओं को लग रहा था कि चलिए हम हिन्दुओं की संरक्षक एक पार्टी है और वो हमारे हितों का ध्यान रखेगी परन्तु उसने इसकी भी तिलांजलि दे दी और भारतीय समाज में प्रचलित एक शब्द "धर्मनिरपेक्ष" का चोंगा ओढने के असफल प्रयास में लगी हुई है. भाजपा के शासन कल में एक बार प्याज का दाम बढ़ गया था तो कांग्रेस ने उस मुद्दे को ऐसा भुनाया था कि दिल्ली और मध्य प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी की प्रतीक्षा कर रही भाजपा को कांग्रेस ने पटकनी दे दी थी परन्तु आज इतने बड़े-बड़े घोटालों को भाजपा भुनाना तो दूर उसके माध्यम से कांग्रेस को निशाना तक नहीं बना पा रही है. तो दोष किसका है? भाजपा का या जनता का ?
अंत में, अगले लोकसभा के होनेवाले चुनाव में भाजपा, तथाकथित सहयोगी दलों को प्रसन्न करने के चक्कर में यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित नहीं करती है तो मैं मानता हूँ कि ये भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक पराजय होगी और इसे मैं भाजपा के द्वारा आत्महत्या का प्रयास मानूँगा. मन और बुद्धि को तो कभी भी बदला जा सकता है परन्तु भाजपा अपने मौलिक चरित्र को बदलने का लगातार प्रयास करती आ रही है, उसे चरित्र अभिनेता की भूमिका से बाहर निकलकर नायक की भूमिका में आना होगा और नायक ही नहीं "एंग्री यंग मैन" बनना होगा, तभी भाजपा के साथ-साथ देश का भी भला होगा.
mail recd from : Mr. Ravi Verma
अब तो एक व्यक्ति और हैं रघुराम राजन, इनको अमेरिका के कहने पर भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया है, और जब से ये महाशय आये हैं तब से भारत की आर्थिक सुधारों की (तथाकथित) गति में वृद्धि हुई है. रघुराम राजन के बारे में आप लोगों को थोड़ी सी जानकारी दे दूँ, ये महाशय वर्षों अमेरिका में रहे, कुछ एक बिजनेस स्कूल में ये प्रोफ़ेसर थे, कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे (अब पढ़ाते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता), कुछ वर्षों तक ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) के मुख्य अर्थशास्त्री रहे, IIT Delhi के पढ़े हुए इंजिनियर हैं, भोपाल में इन महाशय का जन्म हुआ था. ये जो सुधार कर रहे हैं आर्थिक क्षेत्र में, वो किसके लिए कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारा दुर्भाग्य है ये और विपक्ष तो धृतराष्ट्र की भूमिका में है, सब को सत्ता के मोह ने घेर लिया है. जिस लोकतंत्र के नाम पर मुलायम, मायावती और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हो गए हैं वो भी अमेरिका के पैसे के बल पर हुआ है और ध्यान दीजियेगा ये तीनों एक दूसरे के विरुद्ध हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लड़ चुके हैं और ये यूपीए गठबंधन वाले लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि "हाँ हम ऐसे ही करेंगे, तुम (आम आदमी) क्या कर लोगे ?"
हिंदी फ़िल्में आप लोग देखते होंगे. हमारी हिंदी फिल्मों में नायक के अतिरिक्त एक नायिका होती है और एक चरित्र अभिनेता होता है. आज भाजपा की स्थिति एक चरित्र अभिनेता की होकर रह गयी है, फिल्म में मुख्य पात्र के सन्निकट भी है परन्तु किसी काम का नहीं अर्थात उसके रहने, नहीं रहने से फिल्म की कहानी पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है. भाजपा आज एक ऐसे चरित्र अभिनेता के रोल में है जो घर के एक कोने में बैठ कर खांसता रहता है परन्तु उसकी उपस्थिति से न फिल्म (देश) के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने वाला है और ना उसके मर जाने से किसी को दुःख होने वाला है. भाजपा ने जब तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था तब तक ये पार्टी थोड़ी हट के लग रही थी परन्तु सत्ता में छः वर्ष व्यतीत करने के पश्चात ये कांग्रेस की "बी टीम" होकर रह गयी. मैं खानदानी जनसंघी हुआ करता था और जब वाजपेयी जी सत्ता में आये तो उस समय मेरे जैसे २०-२२ वर्ष के युवाओं को बहुत अच्छा लगा था पर सत्ता में रहते हुए भाजपा ने वो सब नहीं किया जो वो करने को कहा करती थी अपितु उसने वही किया जो कांग्रेस उसके पहले के पचास वर्षों से करती आई थी. सत्ता के लोभ में उसने (भाजपा ने) अपने सिद्धांतों की आहुति दे दी मैं जिसे राष्ट्रवादी पार्टी समझा करता था वो कुर्सीवादी पार्टी बन कर रह गयी. मेरे जैसे हिन्दुओं को लग रहा था कि चलिए हम हिन्दुओं की संरक्षक एक पार्टी है और वो हमारे हितों का ध्यान रखेगी परन्तु उसने इसकी भी तिलांजलि दे दी और भारतीय समाज में प्रचलित एक शब्द "धर्मनिरपेक्ष" का चोंगा ओढने के असफल प्रयास में लगी हुई है. भाजपा के शासन कल में एक बार प्याज का दाम बढ़ गया था तो कांग्रेस ने उस मुद्दे को ऐसा भुनाया था कि दिल्ली और मध्य प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी की प्रतीक्षा कर रही भाजपा को कांग्रेस ने पटकनी दे दी थी परन्तु आज इतने बड़े-बड़े घोटालों को भाजपा भुनाना तो दूर उसके माध्यम से कांग्रेस को निशाना तक नहीं बना पा रही है. | तो दोष किसका है? भाजपा की या जनता की?
अंत में, अगले लोकसभा के होनेवाले चुनाव में भाजपा, तथाकथित सहयोगी दलों को प्रसन्न करने के चक्कर में यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित नहीं करती है तो मैं मानता हूँ कि ये भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक पराजय होगी और इसे मैं भाजपा के द्वारा आत्महत्या का प्रयास मानूँगा. मन और बुद्धि को तो कभी भी बदला जा सकता है परन्तु भाजपा अपने मौलिक चरित्र को बदलने का लगातार प्रयास करती आ रही है, उसे चरित्र अभिनेता की भूमिका से बाहर निकलकर नायक की भूमिका में आना होगा और नायक ही नहीं "एंग्री यंग मैन" बनना होगा, तभी भाजपा के साथ-साथ देश का भी भला होगा.
कांग्रेस किसी ज़माने में एक सीमा तक अच्छी पार्टी हुआ करती थी, जब तक उसमें स्वतंत्रता के युद्ध के समय के नेता थे, उस श्रेणी में आप लालबहादुर शास्त्री को रख सकते हैं परन्तु लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात जिन्हें कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं के कहने पर अमेरिका और रूस ने मिल कर मारा था, कांग्रेस की संस्कृति बदल गयी. लालबहादुर शास्त्री की हत्या के पश्चात कर्नाटक के एक प्रभावी नेता एस.निन्जलिगप्पा के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनायें थी किन्तु इंदिरा गाँधी की कूटनीतिक चालों से वे नहीं बन पाए और मैं इंदिरा गाँधी की इस राजनैतिक चाल को भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट मानता हूँ. उस समय से भारत की राजनीति में जो गिरावट आना आरम्भ हुई वो आज गिरते-गिरते रसातल में पहुँच गयी है और अब तो भारत की राजनीति को अमेरिका तय कर रहा है कि प्रधानमंत्री कौन होगा, राष्ट्रपति कौन होगा, वित्त मंत्री कौन होगा, आदि, आदि.
अब तो एक व्यक्ति और हैं रघुराम राजन, इनको अमेरिका के कहने पर भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिया गया है, और जब से ये महाशय आये हैं तब से भारत की आर्थिक सुधारों की (तथाकथित) गति में वृद्धि हुई है. रघुराम राजन के बारे में आप लोगों को थोड़ी सी जानकारी दे दूँ, ये महाशय वर्षों अमेरिका में रहे, कुछ एक बिजनेस स्कूल में ये प्रोफ़ेसर थे, कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे (अब पढ़ाते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता), कुछ वर्षों तक ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) के मुख्य अर्थशास्त्री रहे, IIT Delhi के पढ़े हुए इंजिनियर हैं, भोपाल में इन महाशय का जन्म हुआ था. ये जो सुधार कर रहे हैं आर्थिक क्षेत्र में, वो किसके लिए कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है. हमारा दुर्भाग्य है ये और विपक्ष तो धृतराष्ट्र की भूमिका में है, सब को सत्ता के मोह ने घेर लिया है. जिस लोकतंत्र के नाम पर मुलायम, मायावती और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हो गए हैं वो भी अमेरिका के पैसे के बल पर हुआ है और ध्यान दीजियेगा ये तीनों एक दूसरे के विरुद्ध हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लड़ चुके हैं और ये यूपीए गठबंधन वाले लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि "हाँ हम ऐसे ही करेंगे, तुम (आम आदमी) क्या कर लोगे ?"
हिंदी फ़िल्में आप लोग देखते होंगे. हमारी हिंदी फिल्मों में नायक के अतिरिक्त एक नायिका होती है और एक चरित्र अभिनेता होता है. आज भाजपा की स्थिति एक चरित्र अभिनेता की होकर रह गयी है, फिल्म में मुख्य पात्र के सन्निकट भी है परन्तु किसी काम का नहीं अर्थात उसके रहने, नहीं रहने से फिल्म की कहानी पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है. भाजपा आज एक ऐसे चरित्र अभिनेता के रोल में है जो घर के एक कोने में बैठ कर खांसता रहता है परन्तु उसकी उपस्थिति से न फिल्म (देश) के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने वाला है और ना उसके मर जाने से किसी को दुःख होने वाला है. भाजपा ने जब तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था तब तक ये पार्टी थोड़ी हट के लग रही थी परन्तु सत्ता में छः वर्ष व्यतीत करने के पश्चात ये कांग्रेस की "बी टीम" होकर रह गयी. मैं खानदानी जनसंघी हुआ करता था और जब वाजपेयी जी सत्ता में आये तो उस समय मेरे जैसे २०-२२ वर्ष के युवाओं को बहुत अच्छा लगा था पर सत्ता में रहते हुए भाजपा ने वो सब नहीं किया जो वो करने को कहा करती थी अपितु उसने वही किया जो कांग्रेस उसके पहले के पचास वर्षों से करती आई थी. सत्ता के लोभ में उसने (भाजपा ने) अपने सिद्धांतों की आहुति दे दी मैं जिसे राष्ट्रवादी पार्टी समझा करता था वो कुर्सीवादी पार्टी बन कर रह गयी. मेरे जैसे हिन्दुओं को लग रहा था कि चलिए हम हिन्दुओं की संरक्षक एक पार्टी है और वो हमारे हितों का ध्यान रखेगी परन्तु उसने इसकी भी तिलांजलि दे दी और भारतीय समाज में प्रचलित एक शब्द "धर्मनिरपेक्ष" का चोंगा ओढने के असफल प्रयास में लगी हुई है. भाजपा के शासन कल में एक बार प्याज का दाम बढ़ गया था तो कांग्रेस ने उस मुद्दे को ऐसा भुनाया था कि दिल्ली और मध्य प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी की प्रतीक्षा कर रही भाजपा को कांग्रेस ने पटकनी दे दी थी परन्तु आज इतने बड़े-बड़े घोटालों को भाजपा भुनाना तो दूर उसके माध्यम से कांग्रेस को निशाना तक नहीं बना पा रही है. तो दोष किसका है? भाजपा का या जनता का ?
अंत में, अगले लोकसभा के होनेवाले चुनाव में भाजपा, तथाकथित सहयोगी दलों को प्रसन्न करने के चक्कर में यदि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित नहीं करती है तो मैं मानता हूँ कि ये भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक पराजय होगी और इसे मैं भाजपा के द्वारा आत्महत्या का प्रयास मानूँगा. मन और बुद्धि को तो कभी भी बदला जा सकता है परन्तु भाजपा अपने मौलिक चरित्र को बदलने का लगातार प्रयास करती आ रही है, उसे चरित्र अभिनेता की भूमिका से बाहर निकलकर नायक की भूमिका में आना होगा और नायक ही नहीं "एंग्री यंग मैन" बनना होगा, तभी भाजपा के साथ-साथ देश का भी भला होगा.
mail recd from : Mr. Ravi Verma