RavinderSura
November 6th, 2012, 05:49 PM
आज देश में दो मुख्य बड़ी पार्टी हैं एक कांग्रेस जिसको आज़ादी के बाद देश पर राज करते हुए 50 साल हो गए व दूसरी भाजपा जिसका सिर्फ 6 साल राज रहा । हर पार्टी की अपनी एक सोच एक विचारधारा होती हैं जिसका शीशा जनता को दिखाया जाता हैं । वैसे तो यह पार्टिया जनता को कई तरह के शीशे दिखाती हैं , कोई इनके जातिवाद के शीशे को देखता हैं, कोई धर्म के शीशे को , कोई क्षेत्रवाद के शीशे को , कोई विकास के शीशे को ।
पहले हम कांग्रेस पार्टी की विचारधारा पर गौर करते हैं । जैसे की कहने को तो काग्रेस गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखती हैं परन्तु यदि हम इसकी गहराई में जाए तो इस पार्टी का इस विचारधारा से कोई सरोकार नजर नहीं आता । कांग्रेस के बारे में देश में एक कथन यह भी हैं की यह पार्टी अंग्रेजो के पिट्ठुओ की हैं इसलिए अंग्रेज जाते जाते अपना राज इनको सौंप गए। अंग्रेजो की एक 'डिवाइड न रूल' की नीति थी जिसके दम पर अंग्रेज हिंदुस्तान पर 200 साल राज कर गए और उनकी इस नीति का अनुसरण कांग्रेस पार्टी ने आज़ादी से पहले और बाद अच्छी तरह से किया हैं । देश की आज़ादी में कांग्रेस पार्टी का अहम् योगदान माना जाता हैं जबकि मेरे आजतक एक बात समझ नहीं आई की एक तरफ तो कांग्रेस स्वदेशी अपनाओ की बात करती थी तो वहीँ दूसरी तरफ अंग्रेजो के बनाये हुए तंत्र में शामिल होती थी , चुनाव आदि में हिस्सा लेती थी । शायद चौधरी छोटूराम को कांग्रेस की यह दोगली नीति अच्छी तरह से समझ आ गई थी इसलिए उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया था । चौधरी छोटूराम समझ गए थे की कांग्रेस का आज़ादी के नाम का तो सिर्फ नाटक हैं असल में इसके पीछे कांग्रेस की सियासत सिर्फ देश पर हुकूमत की हैं और यदि देश आजाद हो गया और इनकी हुकूमत आई तो भी किसान के यहीं हालत रहेंगे , इस आज़ादी से देश में कुछ नहीं बदलेगा सिर्फ सियासती चेहरे बदलेंगे गोरो की जगह काले बनिए आ जायेंगे । इसलिए चौधरी छोटूराम ने फैजलें हुसैन के साथ मिल कर एक अलग पार्टी का गठन किया । कांग्रेस से अलग हो कर चौधरी साहब को दो कामयाबी मिली पहली तो यह की उन्होंने किसानो के लिए कई फायदेमंद कानून बनाए व दूसरा संयुक्त पंजाब में मजहब की दिवार को गिरा पूरी कौम को एक किया । चौधरी साहब की इस कामयाबी से कांग्रसियों के पसीने छुट गए । कांग्रेसी नेता भीम सेन सच्चर व उनके साथियों ने चौधरी साहब के खिलाफ हर तरह के हथकंडे अपनाए परन्तु उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली । ( उस समय कुछ युवा जाट नेताओ ने भी चौधरी छोटूराम की खिलाफत की । ये युवा जाट नेता गाँधी व गाँधीवादी सोच से इस कद्र प्रभावित थे की इन लोगो को चौधरी छोटूराम के द्वारा किसानो के हक में किये काम नजर नहीं आये बस आज़ादी की धुन में अंधे हो गाँधी के पीछे पागल हो रखे थे । मुझे आज तक समझ नहीं आया की जब उस वक़्त एक तरफ चौधरी छोटूराम जैसा जोशीला व्यक्ति था जो कौम के लिए किसानो के लिए कुछ करने का जज्बा रखता था तो वहीँ दूसरी तरफ भगत सिंह जैसा जोशीला युवा आज़ादी का दीवाना भी था तो फिर युवा जाट गांधीवादी सोच से कैसे प्रभावित थे ? जबकि जुवा जाट जोशीले होते हैं उनमे मरने मारने का कुछ करने का जोश होता हैं और गांधीवादी सोच क्या हैं यह सबको पता हैं , एक ऐसी सोच जिसका जाट सोच से कहीं कोई तालमेल नहीं ।) इसे पंजाब की बदकिश्मत कहिये की 1945 में चौधरी छोटूराम का देहांत हो गया , चौधरी साहब के जाने के बाद कांग्रेस ने सबसे पहला काम यही किया की उसने पंजाब पर अपनी 'डिवाइड न रूल' वाली निति का प्रयोग किया । कांग्रेस ने जिन्नाह की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर पंजाब को मजहब के नाम पर बाँट दिया जबकि हकीक़त तो यह हैं की जिस जिन्नाह की मुस्लिम लीग को पंजाब सौंपा उस मुस्लिम लीग को सिर्फ 2 सीट मिली थी और कांग्रेस को 16 । मुस्लिम लीग के उन दो में से भी एक मुस्लिम लीग छोड़ चौधरी छोटूराम के साथ आ गया था । जबकि हकीक़त यह थी के पंजाब में उस वक़्त इन दोनों पार्टियों को जनमत हासिल नहीं था इसलिए इन लोगो ने पंजाब में ' डिवाइड न रूल' का सही इस्तेमाल किया और इसमें कामयाबी भी हासिल की । संयुक्त पंजाब में खेले गए इस डिवाइड न रूल के खेल में सबसे ज्यादा नुक्सान जाट का हुआ । 1947 में देश आजाद होने के बाद एक बार फिर कांग्रेस ने यह डिवाइड न रूल वाला खेल कश्मीर में खेला । भारत का हिस्सा होते हुए भी कश्मीर को ऐसा कर दिया की वो लोग आज तक भारत के नहीं हुए । यहाँ पर शायद नेहरु ने यह खेल इसलिए खेला था की उनके कश्मीरी भाइयों को एक विशेष राज्य का दर्जा हासिल रहेगा उनका अलग से कानून रहेगा और न ही उनकी ज़मीन पर दुसरे राज्य के लोग आ कर बस सकेंगे । पंडित जी ने सोची तो बहुत दूर की थी पर आज उनकी यह दूर की सोच ही देश के लिए गले का फास बनी बैठी हैं आज तक पता नहीं कितने जाट भाई इस झूठी लड़ाई में शहीद हुए हैं । उसके बाद कांग्रेस ने अपनी इस डिवाइड न रूल नीति का प्रयोग एक बार फिर से पंजाब में किया । पंजाब में अकाली दल की पकड़ थी कांग्रेस के पंजे यहाँ लग नहीं रहे थे तो कांग्रेस ने यहाँ अपना यह डिवाइड न रूल वाला पैंतरा खेलना शुरू किया और आखिर में कांग्रेस अपने इस पैंतरे में इस कद्र फंसी के इसे धर्म का रंग दे दिया यदि इस लड़ाई पर गौर करे तो असल में यह लड़ाई सिर्फ अकाली दल व कांग्रेस की सियासी लड़ाई थी । इस लड़ाई में भी सबसे ज्यादा नुक्सान जाट को ही हुआ था । यह था गांधीवादी सोच के पीछे का शीशा जो जनता को शायद कभी नजर ही नहीं आया ।
अब बात करते हैं देश की दूसरी सबसे बड़ी सियासी पार्टी भाजपा कि। भाजपा की नीवं ही कट्टर हिन्दू धर्म की विचारधारा पर रखी गई थी । 1991 में अडवानी ने देश में राम मंदिर के नाम से एक रथ यात्रा निकाली थी जिसके बाद से भाजपा के बारे में लोग जानने लगे थे । कांग्रेस के बोये हुए बीजों के कारण देश में आंतकवाद की समस्या बढती जा रही थी , भाजपा ने कट्टर हिन्दुवाद के नाम से सियासी खेल खेलना शुरू किया । भाजपा ने देश के 75% हिन्दू को यह एहसास दिलाना शुरू किया की उनकी इतनी तादाद होते हुए भी आज देश में हिन्दू अल्पसंख्यक से हैं । भाजपा ने राम मंदिर व धारा 370 हटाने का नारा दिया । सन 1996 में भाजपा इन नारों के दम पर केंद्र में अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई परन्तु उनकी सरकार 13 दिन में ही गिर गई व उसके बाद फिर 13 महीने में गिर गई । उसके बाद 1999 में एक बार फिर भाजपा को मौका मिला और इस बार भाजपा ने केंद्र में अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया । अपने इन 6-7 साल के कार्यकाल के दौरान भाजपा राम मंदिर व धारा 370 को बिलकुल भूल गई । भाजपा राज में कारगिल में ओप्रेसन विजय के दौरान लोगो को ऐसा लग रहा था की इस बार शायद कुछ आरपार की हो परन्तु उसमे भी भाजपा ने देश के सकड़ों जवान शहीद करवा दिए वो भी सिर्फ देश में अपनी ज़मीन बचाने के लिए न की किसी दुसरे पर हमले में । अपनी इस कमी को छुपाने के लिए भाजपा ने शहीदों के परिजनों को पेट्रोल पंप आदि की बंदर बाँट शुरू कर दी । कोई भाजपा वालो से पूछे की जो कारगिल में ओप्रेसन विजय के दौरान मरे क्या वोही लोग शहीद थे जिन्हें आप लोगो ने पंप बांटे , क्या वो लोग शहीद नहीं जो आये दिन कश्मीर में आंतकवाद से लड़ते हुए मर रहे थे ? खैर इस ओप्रेसन के बाद भाजपा पर ताबूत घोटाले का आरोप भी लगा । इन्ही कारणों के चलते जो लोग इनसे कट्टरवाद की सोच की वजह से जुड़े थे वे लोग कटने शुरू हो गए , हिन्दू अपने आप को ठगा महसूस करने लगा । भाजपा के राज में प्याज ने लोगो को बहुत रुलाया , ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाजपा बनिए बकालों की पार्टी हैं बड़े बड़े स्टॉकिस्ट हैं जिन्होंने ऐसा खेल खेला । 1991 से देश में दूरसंचार क्रांति की शुरुआत हुई और इस क्रांति में सबसे पह्ले भ्रष्टाचार का शेहरा बंधा कांग्रेस के राज में दूरसंचार मंत्री रहे सुखराम के माथे और इस भ्रष्टाचार का आगे भाजपा राज में भी प्रमोद महाजन ने जारी रखा । भाजपा देश की जनता को समझा रही थी की हमने महंगाई पर काबू रखा , इंडिया शाइनिंग के नाम से विकास के गीत गा रही थी परन्तु लोगो को इन सबमे कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि यह विकास व भ्रष्टाचार तो देश में जैसे तैसे चलता रहता हैं । देश में आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध कई आन्दोलन चल रहे हैं परन्तु फिर भी जनता सड़कों पर नहीं उतरी , महंगाई दिन ब दिन बढती जा रही हैं परन्तु चुनाव में लोगो के मुद्दे कुछ और होते हैं । इसीलिए असल में लोगो को इस सियासी शीशे के दुसरे पहलु में दिलचस्पी थी जिसमे भाजपा नाकामयाब रही । देश का हिन्दू अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगा शायद यही कारण था की देश का हिन्दू भाजपा से दुबारा पूरी तरह से रूह नहीं जोड़ पाया। इसी कारण आज भाजपा का भी यह आलम हैं की वह अपनी इस कट्टरवाद की छवि को छोड़ अपने आप को सेक्युलर सिद्ध करने में लगी हैं । यह था भाजपा का सियासी शीशा जो उसने जनता को दिखाया कुछ था और निकला कुछ ।
देश के इन दोनों बड़े सियासी दलों के बाद कुछ छोटे सियासी दलों पर भी चर्चा जरुरी हैं। आज देश में अपने आप को किसान मजदुर कमेरा वर्ग के हिमायती कहने वाले कई सियासी दल मौजूद हैं । आज़ादी के बाद कांग्रेस देश में एक ही बड़ी सियासी पार्टी थी , कांग्रेस को हम नेताओ की नर्सरी भी कह सकते हैं क्योंकि आज देश में जितने भी छोटे बड़े नेता हैं उनमे से 90% इसी कांग्रेस से निकले हैं । आज़ादी के बाद देश दो वर्गो में बंटना शुरू हो गया एक पढ़ा लिखा शहरी वर्ग दूसरा अनपढ़ ग्रामीण वर्ग , शहरी पढ़े लिखे वर्ग का सियासत में वर्चस्व बढ़ने लगा । पढ़े लिखे लोगो का सियासत में पूरा दखल था इन लोगो को ग्रामीण अनपढ़ में बदबू आती थी अपने पास बैठाना तो दूर ग्रामीण को इन लोगो की कोठी के अंदर नहीं आने दिया जाता था । इस पढ़े लिखे वर्ग ने ग्रामीण अनपढ़ से एक फासला बना रखा था । ऐसे में ग्रामीण अनपढ़ मजदुर किसान का हाथ थामा चौधरी चरण सिंह चौधरी देवी लाल सरीखे नेताओ ने , इन लोगो ने इस ग्रामीण किसान मजदुर को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया उनको एक होंसला दिया । यही कारण था की 1975 की इमरजेंसी के बाद अधिकतर नेता देहात से आये जैसे बिहार से कर्पूरी ठाकुर , नितीश कुमार , शरद यादव , रामविलास पासवान , लालू यादव , यूपी से मुलायम सिंह यादव आदि और हरिजनों के लिए काशीराम एक विकल्प के रूप में उभरे । परन्तु बड़े अफ़सोस की बात हैं की जिस फासले को चौधरी छोटूराम , चौधरी चरण सिंह , चौधरी देवी लाल ने मिटाया था आज उसी फासले को उनके वंशज या उनके चेले फिर से बढ़ा रहे हैं । बड़ा ताजुब होता हैं जब देखते हैं की इन महान नेताओं के वंशज 50 लाख की गाड़ी में बैठ कर किसान मजदुर की हालत पर चिंता जताते हैं , इन लोगो के हाथ पर जितनी कीमत की घडी बंधी होती हैं बस उस घडी की कीमत जितनी कमाई की हसरत एक किसान मजदुर की होती हैं । आज किसान वहीँ का वहीँ रह गया बस तरक्की हुई हैं तो सिर्फ उन किसान मजदुर नेताओं के परिवारों की जिन्होंने कभी किसान मजदुर की आवाज़ बुलंद की थी ।
हमारी समस्या यह कांग्रेस या भाजपा नहीं हैं आज हमारी समस्या हमारे ही लोग हैं हमारे ही ये छोटे सियासी दल हैं जो अपने आप को किसान मजदुर का हिमायती बता रहे थे। अपने आप को किसान मजदुर का हिमायती बताने वाले यह सियासी दल आज खुद किसान मजदुर को ढिमक की तरह खा रहे हैं । यह कांग्रेस भाजपा तो हैं ही बनिया बकाल भापों की शहरियों की इनसे आश करना इनकी इमदाद करना भी एक मुर्खता हैं । बस जरुरत हैं इन लोगो द्वारा दिखाए जा रहे हैं शीशे के दुसरे पहलु को समझने की ।
पहले हम कांग्रेस पार्टी की विचारधारा पर गौर करते हैं । जैसे की कहने को तो काग्रेस गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखती हैं परन्तु यदि हम इसकी गहराई में जाए तो इस पार्टी का इस विचारधारा से कोई सरोकार नजर नहीं आता । कांग्रेस के बारे में देश में एक कथन यह भी हैं की यह पार्टी अंग्रेजो के पिट्ठुओ की हैं इसलिए अंग्रेज जाते जाते अपना राज इनको सौंप गए। अंग्रेजो की एक 'डिवाइड न रूल' की नीति थी जिसके दम पर अंग्रेज हिंदुस्तान पर 200 साल राज कर गए और उनकी इस नीति का अनुसरण कांग्रेस पार्टी ने आज़ादी से पहले और बाद अच्छी तरह से किया हैं । देश की आज़ादी में कांग्रेस पार्टी का अहम् योगदान माना जाता हैं जबकि मेरे आजतक एक बात समझ नहीं आई की एक तरफ तो कांग्रेस स्वदेशी अपनाओ की बात करती थी तो वहीँ दूसरी तरफ अंग्रेजो के बनाये हुए तंत्र में शामिल होती थी , चुनाव आदि में हिस्सा लेती थी । शायद चौधरी छोटूराम को कांग्रेस की यह दोगली नीति अच्छी तरह से समझ आ गई थी इसलिए उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया था । चौधरी छोटूराम समझ गए थे की कांग्रेस का आज़ादी के नाम का तो सिर्फ नाटक हैं असल में इसके पीछे कांग्रेस की सियासत सिर्फ देश पर हुकूमत की हैं और यदि देश आजाद हो गया और इनकी हुकूमत आई तो भी किसान के यहीं हालत रहेंगे , इस आज़ादी से देश में कुछ नहीं बदलेगा सिर्फ सियासती चेहरे बदलेंगे गोरो की जगह काले बनिए आ जायेंगे । इसलिए चौधरी छोटूराम ने फैजलें हुसैन के साथ मिल कर एक अलग पार्टी का गठन किया । कांग्रेस से अलग हो कर चौधरी साहब को दो कामयाबी मिली पहली तो यह की उन्होंने किसानो के लिए कई फायदेमंद कानून बनाए व दूसरा संयुक्त पंजाब में मजहब की दिवार को गिरा पूरी कौम को एक किया । चौधरी साहब की इस कामयाबी से कांग्रसियों के पसीने छुट गए । कांग्रेसी नेता भीम सेन सच्चर व उनके साथियों ने चौधरी साहब के खिलाफ हर तरह के हथकंडे अपनाए परन्तु उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली । ( उस समय कुछ युवा जाट नेताओ ने भी चौधरी छोटूराम की खिलाफत की । ये युवा जाट नेता गाँधी व गाँधीवादी सोच से इस कद्र प्रभावित थे की इन लोगो को चौधरी छोटूराम के द्वारा किसानो के हक में किये काम नजर नहीं आये बस आज़ादी की धुन में अंधे हो गाँधी के पीछे पागल हो रखे थे । मुझे आज तक समझ नहीं आया की जब उस वक़्त एक तरफ चौधरी छोटूराम जैसा जोशीला व्यक्ति था जो कौम के लिए किसानो के लिए कुछ करने का जज्बा रखता था तो वहीँ दूसरी तरफ भगत सिंह जैसा जोशीला युवा आज़ादी का दीवाना भी था तो फिर युवा जाट गांधीवादी सोच से कैसे प्रभावित थे ? जबकि जुवा जाट जोशीले होते हैं उनमे मरने मारने का कुछ करने का जोश होता हैं और गांधीवादी सोच क्या हैं यह सबको पता हैं , एक ऐसी सोच जिसका जाट सोच से कहीं कोई तालमेल नहीं ।) इसे पंजाब की बदकिश्मत कहिये की 1945 में चौधरी छोटूराम का देहांत हो गया , चौधरी साहब के जाने के बाद कांग्रेस ने सबसे पहला काम यही किया की उसने पंजाब पर अपनी 'डिवाइड न रूल' वाली निति का प्रयोग किया । कांग्रेस ने जिन्नाह की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर पंजाब को मजहब के नाम पर बाँट दिया जबकि हकीक़त तो यह हैं की जिस जिन्नाह की मुस्लिम लीग को पंजाब सौंपा उस मुस्लिम लीग को सिर्फ 2 सीट मिली थी और कांग्रेस को 16 । मुस्लिम लीग के उन दो में से भी एक मुस्लिम लीग छोड़ चौधरी छोटूराम के साथ आ गया था । जबकि हकीक़त यह थी के पंजाब में उस वक़्त इन दोनों पार्टियों को जनमत हासिल नहीं था इसलिए इन लोगो ने पंजाब में ' डिवाइड न रूल' का सही इस्तेमाल किया और इसमें कामयाबी भी हासिल की । संयुक्त पंजाब में खेले गए इस डिवाइड न रूल के खेल में सबसे ज्यादा नुक्सान जाट का हुआ । 1947 में देश आजाद होने के बाद एक बार फिर कांग्रेस ने यह डिवाइड न रूल वाला खेल कश्मीर में खेला । भारत का हिस्सा होते हुए भी कश्मीर को ऐसा कर दिया की वो लोग आज तक भारत के नहीं हुए । यहाँ पर शायद नेहरु ने यह खेल इसलिए खेला था की उनके कश्मीरी भाइयों को एक विशेष राज्य का दर्जा हासिल रहेगा उनका अलग से कानून रहेगा और न ही उनकी ज़मीन पर दुसरे राज्य के लोग आ कर बस सकेंगे । पंडित जी ने सोची तो बहुत दूर की थी पर आज उनकी यह दूर की सोच ही देश के लिए गले का फास बनी बैठी हैं आज तक पता नहीं कितने जाट भाई इस झूठी लड़ाई में शहीद हुए हैं । उसके बाद कांग्रेस ने अपनी इस डिवाइड न रूल नीति का प्रयोग एक बार फिर से पंजाब में किया । पंजाब में अकाली दल की पकड़ थी कांग्रेस के पंजे यहाँ लग नहीं रहे थे तो कांग्रेस ने यहाँ अपना यह डिवाइड न रूल वाला पैंतरा खेलना शुरू किया और आखिर में कांग्रेस अपने इस पैंतरे में इस कद्र फंसी के इसे धर्म का रंग दे दिया यदि इस लड़ाई पर गौर करे तो असल में यह लड़ाई सिर्फ अकाली दल व कांग्रेस की सियासी लड़ाई थी । इस लड़ाई में भी सबसे ज्यादा नुक्सान जाट को ही हुआ था । यह था गांधीवादी सोच के पीछे का शीशा जो जनता को शायद कभी नजर ही नहीं आया ।
अब बात करते हैं देश की दूसरी सबसे बड़ी सियासी पार्टी भाजपा कि। भाजपा की नीवं ही कट्टर हिन्दू धर्म की विचारधारा पर रखी गई थी । 1991 में अडवानी ने देश में राम मंदिर के नाम से एक रथ यात्रा निकाली थी जिसके बाद से भाजपा के बारे में लोग जानने लगे थे । कांग्रेस के बोये हुए बीजों के कारण देश में आंतकवाद की समस्या बढती जा रही थी , भाजपा ने कट्टर हिन्दुवाद के नाम से सियासी खेल खेलना शुरू किया । भाजपा ने देश के 75% हिन्दू को यह एहसास दिलाना शुरू किया की उनकी इतनी तादाद होते हुए भी आज देश में हिन्दू अल्पसंख्यक से हैं । भाजपा ने राम मंदिर व धारा 370 हटाने का नारा दिया । सन 1996 में भाजपा इन नारों के दम पर केंद्र में अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई परन्तु उनकी सरकार 13 दिन में ही गिर गई व उसके बाद फिर 13 महीने में गिर गई । उसके बाद 1999 में एक बार फिर भाजपा को मौका मिला और इस बार भाजपा ने केंद्र में अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया । अपने इन 6-7 साल के कार्यकाल के दौरान भाजपा राम मंदिर व धारा 370 को बिलकुल भूल गई । भाजपा राज में कारगिल में ओप्रेसन विजय के दौरान लोगो को ऐसा लग रहा था की इस बार शायद कुछ आरपार की हो परन्तु उसमे भी भाजपा ने देश के सकड़ों जवान शहीद करवा दिए वो भी सिर्फ देश में अपनी ज़मीन बचाने के लिए न की किसी दुसरे पर हमले में । अपनी इस कमी को छुपाने के लिए भाजपा ने शहीदों के परिजनों को पेट्रोल पंप आदि की बंदर बाँट शुरू कर दी । कोई भाजपा वालो से पूछे की जो कारगिल में ओप्रेसन विजय के दौरान मरे क्या वोही लोग शहीद थे जिन्हें आप लोगो ने पंप बांटे , क्या वो लोग शहीद नहीं जो आये दिन कश्मीर में आंतकवाद से लड़ते हुए मर रहे थे ? खैर इस ओप्रेसन के बाद भाजपा पर ताबूत घोटाले का आरोप भी लगा । इन्ही कारणों के चलते जो लोग इनसे कट्टरवाद की सोच की वजह से जुड़े थे वे लोग कटने शुरू हो गए , हिन्दू अपने आप को ठगा महसूस करने लगा । भाजपा के राज में प्याज ने लोगो को बहुत रुलाया , ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाजपा बनिए बकालों की पार्टी हैं बड़े बड़े स्टॉकिस्ट हैं जिन्होंने ऐसा खेल खेला । 1991 से देश में दूरसंचार क्रांति की शुरुआत हुई और इस क्रांति में सबसे पह्ले भ्रष्टाचार का शेहरा बंधा कांग्रेस के राज में दूरसंचार मंत्री रहे सुखराम के माथे और इस भ्रष्टाचार का आगे भाजपा राज में भी प्रमोद महाजन ने जारी रखा । भाजपा देश की जनता को समझा रही थी की हमने महंगाई पर काबू रखा , इंडिया शाइनिंग के नाम से विकास के गीत गा रही थी परन्तु लोगो को इन सबमे कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि यह विकास व भ्रष्टाचार तो देश में जैसे तैसे चलता रहता हैं । देश में आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध कई आन्दोलन चल रहे हैं परन्तु फिर भी जनता सड़कों पर नहीं उतरी , महंगाई दिन ब दिन बढती जा रही हैं परन्तु चुनाव में लोगो के मुद्दे कुछ और होते हैं । इसीलिए असल में लोगो को इस सियासी शीशे के दुसरे पहलु में दिलचस्पी थी जिसमे भाजपा नाकामयाब रही । देश का हिन्दू अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगा शायद यही कारण था की देश का हिन्दू भाजपा से दुबारा पूरी तरह से रूह नहीं जोड़ पाया। इसी कारण आज भाजपा का भी यह आलम हैं की वह अपनी इस कट्टरवाद की छवि को छोड़ अपने आप को सेक्युलर सिद्ध करने में लगी हैं । यह था भाजपा का सियासी शीशा जो उसने जनता को दिखाया कुछ था और निकला कुछ ।
देश के इन दोनों बड़े सियासी दलों के बाद कुछ छोटे सियासी दलों पर भी चर्चा जरुरी हैं। आज देश में अपने आप को किसान मजदुर कमेरा वर्ग के हिमायती कहने वाले कई सियासी दल मौजूद हैं । आज़ादी के बाद कांग्रेस देश में एक ही बड़ी सियासी पार्टी थी , कांग्रेस को हम नेताओ की नर्सरी भी कह सकते हैं क्योंकि आज देश में जितने भी छोटे बड़े नेता हैं उनमे से 90% इसी कांग्रेस से निकले हैं । आज़ादी के बाद देश दो वर्गो में बंटना शुरू हो गया एक पढ़ा लिखा शहरी वर्ग दूसरा अनपढ़ ग्रामीण वर्ग , शहरी पढ़े लिखे वर्ग का सियासत में वर्चस्व बढ़ने लगा । पढ़े लिखे लोगो का सियासत में पूरा दखल था इन लोगो को ग्रामीण अनपढ़ में बदबू आती थी अपने पास बैठाना तो दूर ग्रामीण को इन लोगो की कोठी के अंदर नहीं आने दिया जाता था । इस पढ़े लिखे वर्ग ने ग्रामीण अनपढ़ से एक फासला बना रखा था । ऐसे में ग्रामीण अनपढ़ मजदुर किसान का हाथ थामा चौधरी चरण सिंह चौधरी देवी लाल सरीखे नेताओ ने , इन लोगो ने इस ग्रामीण किसान मजदुर को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया उनको एक होंसला दिया । यही कारण था की 1975 की इमरजेंसी के बाद अधिकतर नेता देहात से आये जैसे बिहार से कर्पूरी ठाकुर , नितीश कुमार , शरद यादव , रामविलास पासवान , लालू यादव , यूपी से मुलायम सिंह यादव आदि और हरिजनों के लिए काशीराम एक विकल्प के रूप में उभरे । परन्तु बड़े अफ़सोस की बात हैं की जिस फासले को चौधरी छोटूराम , चौधरी चरण सिंह , चौधरी देवी लाल ने मिटाया था आज उसी फासले को उनके वंशज या उनके चेले फिर से बढ़ा रहे हैं । बड़ा ताजुब होता हैं जब देखते हैं की इन महान नेताओं के वंशज 50 लाख की गाड़ी में बैठ कर किसान मजदुर की हालत पर चिंता जताते हैं , इन लोगो के हाथ पर जितनी कीमत की घडी बंधी होती हैं बस उस घडी की कीमत जितनी कमाई की हसरत एक किसान मजदुर की होती हैं । आज किसान वहीँ का वहीँ रह गया बस तरक्की हुई हैं तो सिर्फ उन किसान मजदुर नेताओं के परिवारों की जिन्होंने कभी किसान मजदुर की आवाज़ बुलंद की थी ।
हमारी समस्या यह कांग्रेस या भाजपा नहीं हैं आज हमारी समस्या हमारे ही लोग हैं हमारे ही ये छोटे सियासी दल हैं जो अपने आप को किसान मजदुर का हिमायती बता रहे थे। अपने आप को किसान मजदुर का हिमायती बताने वाले यह सियासी दल आज खुद किसान मजदुर को ढिमक की तरह खा रहे हैं । यह कांग्रेस भाजपा तो हैं ही बनिया बकाल भापों की शहरियों की इनसे आश करना इनकी इमदाद करना भी एक मुर्खता हैं । बस जरुरत हैं इन लोगो द्वारा दिखाए जा रहे हैं शीशे के दुसरे पहलु को समझने की ।