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View Full Version : जाट समाज को अपना मौलिक सिद्धांत अपनाना चाì



HawaSinghSangwan
April 19th, 2013, 11:23 AM
जाट समाज को अपना मौलिक सिद्धांत अपनाना चाहिए
-हवासिंह सांगवान, पूर्व कमांडेंट, मो. 94160-56145
मैं जाट की बात करता हूं तो मेरा विषय ग्रामीण जाट होता है, जो आज भी 90 प्रतिशत से अधिक गांव में रहता है, जो मध्यप्रदेश के खंडवा से उद्यमपुर तथा रजौरी पुछ से आंध्रप्रदेश के नलगुंडा तक फैला हुआ है, जिसका सदियों से किसानी, पशुपालन और सैनिक मुख्य पेशा रहा है। हम शहरों में रहने वाले सेमी अर्बन और सेमी रूरल जाट हैं अर्थात अर्ध शहरी और अर्ध ग्रामीण हैं। हालांकि हमारी जड़ें आज भी गांवों में हैं तथा अधिकतर रिश्तेदारियां भी गांवों में ही हैं। हमारी आने वाली पीढिय़ां पूर्णतया शहरी हो जाएंगी, जिससे शहरों में हमारी संस्कृति की कोई पहचान नहीं रहेगी क्योंकि शहरों में हम अल्पसंख्यक हैं, जिसका कारण है कि शहरों में बहुसंख्यक होने का हमने कभी प्रयास नहीं किया।
भारतवर्ष के अंतिम बौद्ध राजा हर्षवर्धन का लगभग दो तिहाई भारत पर राज था। उस समय तक शेष राजा भी बौद्ध धर्म के मानने वाले थे। मध्य भारत, राजस्थान व सिंध तक जाटों के राज थे। उस समय तक जाट समाज परिवर्तनशीलता में अग्रणी था क्योंकि महात्मा बुद्ध अर्थात बौद्ध धर्म की शिक्षाएं आधुनिक थीं, जिसका मौलिक सिद्धांत था कि दुनिया में सनातन और शाश्वत कुछ भी नहीं है, सभी कुछ परिवर्तनशील है। परिवर्तन ही एकमात्र शाश्वत सत्य है और इसी सिद्धांत के बल पर देश और समाज को आगे बढ़ाया जा सकता है। ये सिद्धांत हकीकत पर आधारित था, इसीलिए इसने इंसान को हमेशा आगे बढऩे की प्रेरणा दी। यह हकीकत भी है कि दुनिया और पूरा ब्रह्मांड की सभी जड़ और चेतन शक्तियां सभी परिवर्तनशील हैं। सन् 647 में महाराजा हर्ष के देहांत के बाद उनका राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इसी के बाद दक्षिण में एक शंकराचार्य ब्राह्मण का जन्म हुआ, जिसने सबसे पहले मध्य भारत और उत्तर भारत में बुद्ध के सिद्धांत के विपरीत प्रचार करना शुरू किया कि हमारा जीवन सनातन और शाश्वत सत्य है। हम इसे बदल नहीं सकते क्योंकि ब्रह्म सत्य है, जो हमेशा ठहरा हुआ है। इसमें कोई विकास नहीं होगा। यही सिद्धांत तो कई वर्षों से हमारे देश का ब्राह्मणवाद चाहता था, जिससे एक बहुत बड़ा पाखंडवाद खड़ा किया जा सके। इसी सिद्धांत को फैलाने के लिए शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में चार पीठ स्थापित कर दीं, जिसके परिणामस्वरूप पूरे देश का विकास अवरूद्ध हो गया तथा जड़ होकर रह गया क्योंकि यह सच्चाई है कि कोई भी बुरी बात जल्दी से फैलती है और लोग अंधविश्वास को बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। इसी के परिणामस्वरूप पूरे देश की संपत्ति, सेाना और चांदी मंदिरों में इक_ा होने लगी। इसी सिद्धांत को हिंदू धर्म का नाम दिया गया, जो वास्तव में ब्राह्मणवादी धर्म या ब्राह्मणवाद था और जो आज भी है। पंडित शंकराचार्य इतना चतुर था कि उसने दक्षिण में पैदा होने वाले नारियल को हिंदू धर्म के अनुष्ठानों में चढ़ावे के तौर पर इस्तेमाल करने का नियम बनाया ताकि दक्षिण के लोगों को आर्थिक लाभ हो सके। इसी प्रकार उस समय चावल, जो केवल दक्षिण में पैदा होता था, को पवित्र अन्न बना दिया गया और इसको पीला करके शादियों में न्यौतों के तौर पर भेजा जाने लगा, जबकि उत्तर में पैदा होने वाले गेहूं, मूंग, मोठ या चने को दक्षिण में कभी किसी मंदिर में चढ़ाया नहीं जाता। ये शंकराचार्य का अर्थशास्त्र भी था।
परिणामस्वरूप मंदिरों में इकट्ठी की गई धन-दौलत के समाचार दूर-दूर तक फैलते चले गए और इसी को हथियाने के लिए पहली बार सन् 712 में पहला बाहरी आक्रमण हुआ और ये आक्रमण देश को गुलाम होने पर भी नहीं थम पाए थे। इसी जड़ सिद्धांत को सरकारी रूप देने के लिए आठवीं सदी में राजस्थान के माऊंट आबू पर्वत पर एक वृहत यज्ञ रचाकर अग्रि से राजपूत जाति के जन्म का षडयंत्र रचा गया तथा आने वाले वर्षों ं में राजस्थान व कुछ अन्य जगह राजपूतों के राज स्थापित करने में सफल हुए, जबकि वास्तव में वे पहले सभी जाट थे। अब जो जाट रह गए, जिन्होंने इस सिद्धांत को नहीं माना, उन्हें मलेच्छ, शूद्र, वर्ण शंकर यहां तक कि चांडाल जाति भी लिखा गया, जिसका उद्देश्य जाट समाज को हीन बनाना था और इन राजपूत राजाओं के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मणवाद राज्य करता रहा और इसी सिद्धांत के तहत राजपूतों का शोषण भी करता रहा और आखिर में उनको भी धरातल पर लाकर छोड़ दिया। पूरे देश को तालाब का ठहरा हुआ पानी बना दिया गया, जिसके बीच जाट समाज को खड़ा कर दिया गया। यह पूरा समय हर प्रकार के षड्यंत्र करके बौद्ध धर्म व उसके सिद्धांतों को समाप्त करना था। डॉ. अंबेडकर ने इस पर चर्चा करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि भारत वर्ष का इतिहास केवल बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म बनाम ब्राह्मण धर्म के आपसी संघर्ष का इतिहास है।
जब हर्षवर्धन के समय तक जाट समाज परिवर्तन के सिद्धांत को सत्य मानकर उस समय की हर प्रकार की आधुनिकता को सबसे पहले स्वीकार करने वाला समाज था, इसलिए वह देश का सबसे अग्रणी समाज था। लेकिन धीरे-धीरे वह उस सिद्धांत को मानने लगा, जिसमें परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया गया और वह पिछड़ता चला गया और इस प्रकार बाद में देश भी पिछड़ता चला गया, जबकि उसी बौद्ध धर्म के अनुयायी चीन, जापान व कोरिया आदि में हमसे आगे निकल गए। हमारे देश में सरेआम झूठा नारा लगाया गया कि हमारा देश जगतगुरू है, जबकि यही जगतगुरू कहलाने वाला देश अनाज व अन्य सामान ने लिए दूसरे देशों से भीख मांगता रहा और आज तक नई तकनीकें व हमारी फौज के लिए आधुनिक हथियारों के लिए हम दूसरे देशों पर निर्भर हैं। यह इसी अपरिवर्तनशील अर्थात जड़ता सिद्धांत का परिणाम है कि आज हम जनसंख्या बढ़ाने में तथा भ्रष्टाचार में जगतगुरू हैं, बाकी तरक्की के लिए अमेरीका और दूसरे यूरोप के देशों की तरफ हम हमेशा हाथ फैलाए रहते हैं। यहां तक कि हमारे देश से कोई भी वहां नौकरी व पढऩे के लिए जाने पर हम बड़ा गर्व महसूस करते हैं। हमारे देश के राष्ट्रपिता कहलाए जाने वाले महात्मा गांधी भी इसी सिद्धांत के अनुयायी थे और वे अपने आप को बार-बार हिंदू कहा करते थे, जिन्होंने आधुनिकता व बड़े-बड़े कारखानों का विरोध किया और देश को चरखे से सूत कातकर देशवासियों को कपड़ा पहनने का अनुरोध किया, जिसे हम लोग गांधीवाद भी कहते हैं। यदि उनकी बात मान ली जाती तो आज भारत वर्ष की आधी जनता अपने परिवार और बच्चों के कपड़े बनाने के लिए चरखों पर बैठी नजर आती और देश की सुरक्षा के लिए सीमा पर चरखे काम आने वाले नहीं थे। वहीं दूसरी ओर गांधी अपने जीवन में ट्रस्टीशिप वाले पूंजीवाद की वकालत करते रहे, लेकिन वे चालीस साल में देश में एक भी ट्रस्टी पैदा नहीं कर पाए। ये अच्छा हुआ कि कांग्रेस पार्टी गांधी और गांधीवाद की बात तो करती रही, लेकिन उन्होंने कभी गांधीवाद को नहीं अपनाया, वर्ना हमारे यहां न तो कोई भाखड़ा बांध होता, न ही बिजली होती, न ही पंखा होता, न ही कूलर, टीवी, वाशिंग मशीन, टेलीफोन, मोबाइल और इंटरनेट आदि की आधुनिक सुविधाएं होतीं, बल्कि पूरा देश आज भी लंगोटी में होता। गांधी जी नजर से भी बहुत कमजोर थे क्योंकि उन्होंने हमेशा हिंदू और मुस्लिम एकता की रट्ट लगाए रखी और इसी रट्ट के कारण हिंदू और मुस्लिम एक होने की बजाय दूर होते चले गए और इसी कारण पाकिस्तान का निर्माण हुआ लेकिन उनको देश के सिख, इसाई, बौद्ध, जैन और पारसी कभी नजर नहीं आए। क्या इन धर्मों की एकता देश के लिए आवश्यक नहीं थी?
इस अवधि में झूठे लोगों ने झूठे इतिहास लिख डाले और भारतवर्ष का इतिहास गुमनामी में चला गया। इसी अवधि में जाट समाज को धीरे-धीरे हीन बनाने में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं छोड़ी। इसी भारतीय समाज में दलित जातियां पैदा करके उनको जानवर से भी बदत्तर बना दिया गया। परिणामस्वरूप आज जाट समाज उस हालात में पहुंच गया है कि वह पहले परिवर्तन के लिए दूसरे समाजों का मुंह ताकता रहता है कि वे क्या करते हैं। इसी जाट समाज ने बहुत देरी से अंग्रेजी विद्धान मकाले की शिक्षा को गृहण करना शुरू किया, जबकि वे जातियां, जो परिवर्तनशील सिद्धांत का विरोध कर रही थीं, ने सन् 1947 से पहले अंग्रेजों के समय से ही आईसीएस और आईपी बनना शुरू किया और आज सरकारी व गैर सरकारी बड़े-बड़े संस्थानों के डायरेक्टर व चेयरमैन बने बैठे हैं तथा दिल्ली में बैठकर इस देश के लिए कानून और नीतियां बनाते हैं, जबकि जाटों की पंचायतें इसी बात में उलझी हैं कि उनकी लड़कियों को जींस पैंट पहननी चाहिए या नहीं। जाट आजादी के 65 साल बाद तक भी लड़कियों को स्कूल और कॉलेजों में भेजने में संकोच करते रहे, जबकि जड़ता सिद्धांत का अनुसरण करने वाली उच्च जातियों ने सन् 1947 से पहले ही लड़कियों को शिक्षा की राह में डाल दिया था और वही ऊंचे लोग देश में गांवों से उठकर शहरों में आ गए और शहरों की सभी सुविधाओं पर कब्जा कर लिया, जबकि वहां अधिकतर जमीनें जाटों की थीं और आज भी हैं। आज यह तो बड़ा स्पष्ट है कि जाट लगभग सभी अपने बच्चों को अंग्रेजी के नाम पर स्कूलों में भेजते हैं, लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी का विरोध भी करते हैं और कहते हैं कि अंग्रेज चले गए, लेकिन अंग्रेजी छोड़ गए। यह अ्रंग्रेजी के साथ केवल दोगला व्यवहार ही नहीं, अपने आप को धोखा भी है। इससे जाटों का बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है, क्योंकि बगैर अंग्रेजी के देश में कहीं भी तकनीकी व मेडीकल साहित्य उपलब्ध नहीं है, जो हमारे बच्चों के लिए आज अनिवार्य है।
जाट समाज अपनी संस्कृति की बात करता है, जबकि हम सभी जानते हैं कि पर्दा और हुक्का हमारी संस्कृति के हिस्से नहीं हैं, बल्कि यह मुगल संस्कृति के हैं। एक तरफ तो हम कहते हैं कि हम अपने बेटे की बहू को अपनी बेटी के समान मानते हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी बेटियों से तो अपने घर में पर्दा नहीं करवाते, लेकिन अपने बेटे की बहुओं से पर्दा करवाने में हम अपना सम्मान समझते हैं, जो सरेआम दोगली बात है। आजकल जाटों के लडक़े-लड़कियां दूसरों के साथ भागने के अनेक समाचार आ रहे हैं, इसे रोकना है तो हमें अपने बच्चों को ये सिखाना ही होगा कि हम जाट हैं और हमारा धर्म अलग है। गांव में हमने अधिकतर अपनी औरतों को मशीन बना दिया है, जो पूरा दिन एक मशीन की तरह काम करती हैं लेकिन हमें ताश खेलने और शराब पीने से फुर्सत नहीं, इससे हमारे गांव का जीवन अंधकारमय प्रतीत होता है। आज जाट समाज आस्था और धर्म के नाम पर एक के बाद एक उन तीर्थों व धामों की ओर दौड़ रहा है, जिनका कभी हमारे पूर्वजों ने विरोध किया था और वे न ही जाट धर्म के हिस्से हैं। आज जाट समाज गंगा से कांवड़ लाना व मृत्यु भोज करना आदि कुरीतियों को अपनी संस्कृति मान बैठा है और गांवों में गुरूडम और अंधविश्वास का बोलबाला है, जो किसी भी विकास का द्योतक नहीं है। जाट समाज आज भी अनेकों रूढीवादी कुरीतियों को अपनाए बैठा है या अपना रहा है और जो उसे आधुनिक समाज में आधुनिकता के लिए दुनिया को सनातन और शाश्वत सिद्धांत को मानकर अपने वास्तविक परिवर्तनशील सिद्धांत व धर्म को बहुत पीछे छोड़ आया है, यही जड़ता का सिद्धांत है, जिसे शंकराचार्य ने हम पर थोपा था। आज इस सिद्धांत को फिर से छोडऩे का समय आ गया है और हमें बेहिचक होकर आधुनिकता और परिवर्तनशील सिद्धांत को सहृदय से स्वीकार करना होगा। इसी से समाज का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो सकेगा तथा कौम का भविष्य उज्ज्वल होगा। जय जाट।

phoolkumar
April 19th, 2013, 12:20 PM
kaafi dinon baad aapki taraf se itna badhiya lekh padhne ko mila sir, aapne to poori tasvir khol ke rakh di aur ek-ek baat 16 aanne sach hai.....is lekh ko padhne ke baad mere ander kuchh swaalon ke jwaab jaanne ki utsukta jaagi hai:

Q1) aapke lekh mein Buddh dharm ka jikar hai, main ye janna chahta hu ki Jats ne Buddh dharm ko kab aur kyon chhoda aur vaapis Hindu dharm mein kyon laute...???

Q2) apni aam bhasha mein jab kisi ka nuksaan ho jaaye ya kar diya jaaye to sahanubhooti rakhne wala kahta hai ki, "le bhai aagle ka to MATH mar gaya" ya "le bhai yu maar diya MATH".....to mujhe is kahawat mein use hone waale "MATH" word ka itna to pata hai ki ye Buddh dharm ka hai, kyonki MATH Buddh dharm mein hi hue hain, aur iska hamaari local kahavaton mein hona yah bhi prmanit karta hai ki Jats aur MATH ka koi to relation hai jo ye hamare itne gahre tak utar aaya ki iska use hamaari kahawaton mein bhi hota hai....but main ye janna chahta hu ki ye Jats mein kis had tak tha aur Jats ke ander agar ye itna gahra ja chuka tha to Jats se isko door kaise kiya gaya?

Q3) Jats kyon nahin waapis Buddh Dharm mein hi aa jaate, jo ki casteless system hai ya fir apna hi "KHAP Dharm" kyon na bana liya jaaye, kyonki Khaapen bhi casteless system hoti thi aur har caste ka banda inme shamil hota tha aur Khaap word pe to Jats ka patent bhi hona chahiye....aisa main isliye kah raha hu kyonki Hindu Dharm mein to hamara majaak hi bana rahta hai, tathakathit buddhivi jab dekho mauke ke anusaar hamara vivechana kar lete hain.....jaise ki jab Jats Brahmins se door jaate dikhte hain for example: Jab Buddh bane to Brahmins ne humko "CHANDAL" kaha, jab Arya Samaaj apanaya to inhin Brahmins ne humko 1931 mein Lahore Court bakayada legal mechinary yaani court ki madad se "Shudra" karaar karwa diya.....lekin jab inhin Jats ko hak dene ki baat aati hai to 1991 mein "Reservation" ke adhikar se door karte hue humen hi "UPPER Caste" thahra diya.....abhi afresh danga Kaithal ke Pubnawa mein hua to humko kyaas laga rahe hain ki Jats Dalits ki tarrakki se chidte hain.....jabki mamla inter-caste marriage ka hai, usi inter-caste marriage ka jo in Brahmins ne hi banai hain.....Koi Brahmin ya buddhijivi partkar ye nahin kahta ki Pubnawa, Hindu dharm ke caste system ki vajah se hua, isliye usko khatm karo, nahin yahan bhi apne se nishana hatwa ke Brahmins and inke patrkar bandhu, Jats aur DAlits mein nafrat ki khaai ko uchhaal rahe hain, jabki yah sach hai hi nahin....?

aur bhi points dimaag mein aaye to likhunga...
Thanks!