phoolkumar
April 21st, 2013, 09:25 PM
जिस प्रकार कुछ भाड़े के इतिहासकार पहले नकली हीरो पैदा करते रहे वैसे ही इतिहासकारों ने कुछ नकली हीरो 1857 की क्रांति के समय भी पैदा किये जिस कारण 1857 के बाद भारत बुरी तरह से अंग्रेजी सत्ता में जकड़ा गया। उसका मुख्य जिम्मेवार एक व्यक्ति था, जो बंगाली ब्राह्मण था। जब नई ‘इन फिल्ड राईफल’ आई तो उनको ग्रीस देने के लिए अंग्रेजी सरकार ने भेड़-बकरी की चर्बी का आदेश दिया। लेकिन इस बंगाली ब्राह्मण ठेकेदार ने गाय की चर्बी सप्लाई की जो ज्यादा सस्ती पड़ती थी। इसी कारण सब बवाल मचा जिसमें मंगल पाण्डे जैसे हीरो बनाये गये, जबकि सच्चाई यह है कि वह बेचारा आजादी की परिभाषा तक नहीं जानता था। उसने तो गाय की चर्बी के कारण भांग के नशे में एक अंग्रेज अफसर ह्मसन को गोली मार दी थी। जो स्पष्ट तौर पर एक धार्मिक कारण था जिसे भारत की स्वतंत्रता से जोड़ दिया गया और उनका चित्र एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में संसद भवन के हाल तक पहुंचा दिया गया।
यदि ईमानदारी से कहा जाये तो मंगल पांडे का सन् 1857 की क्रान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था। यदि था तो केवल इसके विफल होने के बड़े कारण थे। क्योंकि क्रान्ति का दिन 31 मई 1857 निश्चित था जिसका मंगल पांडे को कोई पता नहीं था। इससे स्पष्ट है कि उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं था। इसलिए उसने कारतूस में लगी गाय की चर्बी के कारण 15 फरवरी 1857 को गोली चलाकर अंग्रेज लैटिनेंट अंग्रेज ह्मसन को गोली मारने के कारण उसे 8 अप्रैल 1857 को फांसी हो चुकी थी फिर इसमें आजादी की बात कहां से आ गई? मंगल पांडे को धर्म भगत तो कहा जा सकता है लेकिन देशभगत नहीं। इनका देशभक्ति का इतिहास पूरा मनघड़न्त है।
इसी प्रकार रानी लक्ष्मीबाई की कहानी है। जब वह अपने दत्तकपुत्र दामोदर राव को झांसी की गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं बनवा पाई तो चुप बैठकर पूजा पाठ करने लग गई। उसकी विद्रोह करने की कोई योजना नहीं थी और ना ही उसने स्वेच्छा से इसमें भाग लिया। जब झांसी के किले को क्रांतिकारी सैनिकों ने घेर लिया तो अंग्रेज कैप्टन गोर्डन भी घिर गये तो उसने रानी से मदद मांगी जिस पर रानी ने पत्र लिखकर उत्तर दिया ‘मुझे भी सैनिकों ने घेर लिया है, मैं क्या मदद करूं, फिर भी मैंने आपकी मदद के लिए गोला, बारुद व सिपाही भेज दिये हैं।’ इन लेखों से प्रमाणित है कि रानी ने गुप्त रूप से गोर्डन को 50-60 बन्दूकें, गोला बारूद और 50 अंगरक्षक दिये थे। जब 67 अंग्रेज किले में मारे गये तो इस बारे में इतिहासकार लेखक सर जान लिखते हैं, “इस हत्याकाण्ड में रानी लक्ष्मीबाई का कोई हाथ नहीं था। न तो उसका कोई आदमी मौके पर विद्यमान था और न ही उसने हुक्म दिया था।” एक लेखक मिश्रा जी ने अपनी पुस्तक में यहां तक लिखा है कि रानी झांसी कैप्टन गार्डन की प्रेमिका थी। यह पुस्तक उसी समय 2008 में प्रतिबंध हो गई। यदि हम इन बातों को भी असत्य मानें तो भी हमें इतिहास के नजरिये से यह मानना होगा कि यह क्रान्ति सन् 1857 के अंत तक विफल हो चुकी थी और लगभग सभी क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने जनवरी 1858 तक सजाएं दे दी थी तो रानी जी इस अवधि में चुप क्यों बैठी रही। एक लेखक का तो यह कहना है कि जब 1857 में क्रान्तिकारी उससे गोली बारूद मांगने के लिए गए तो उसने एक भी गोली देने से मना कर दिया तो फिर रानी को अचानक मार्च 1858 में कैसे देश प्रेम हो गया? कई लेखकों ने तो लिखा है कि उसकी लड़ाई के अपने निजी कारण थे। यह पूरा ही विषय विरोध का नहीं शोध का है क्योंकि इसके पीछे दत्तक पुत्र वाली कहानी स्पष्ट हैं। जैसे कि कुछ लेखकों ने लिखा है स्थानाभाव के कारण यह किस्सा इस पुस्तक में यहीं छोड़ा जा रहा है। लेकिन यह सच्चाई है कि रानी का इस संग्राम में कोई योगदान नहीं था। यह सरासर झूठ है कि वह पीठ पर बच्चे को बांधकर लड़ी। वह कोई पहाड़ की रहने वाली नहीं थी कि बच्चे को पीठ पर बांधकर चल भी सके। बच्चे को पीठ पर बांधकर कोई फसल भी नहीं काट सकता लड़ाई की बात तो छोड़ो। इसमें शोध की आवश्यकता है।
1857 के सच्चे हीरो तो राजा नाहरसिंह, उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी, नाना साहिब, तात्या टोपे, अब्दुल रहमान नवाब झज्जर आरै राजा कुंवरसिंह आदि थे। जिसमें नाना जी जब महाराजा सिंधिया की शरण में आये तो उन्होंने उसे अंग्रेजों के सुपर्द कर दिया तथा तांत्या टोपे को महाराजा सिंधिया ने गिरफ्तार करवा दिया। क्या यह सिंधिया की गद्दारी नहीं थी? महाराजा नाहरसिंह बल्लभगढ़ व उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी ने दिल्ली के खूनी दरवाजे से लेकर बल्लभगढ़ के किले तक अंग्रेजों को नचा-नचा कर मारा और हार नहीं मानी। महाभारत का युद्ध तो केवल 18 दिन चला था, हल्दी घाटी की लड़ाई तो मात्र साढ़े तीन घण्टे चली जिसमें कुल 59 सैनिक शहीद हुए थे। लेकिन नाहरसिंह का युद्ध तो पूरे 134 दिन चला। इसके बाद भी अंग्रेज उसे पराजित नहीं कर पाये, तो अंग्रेजों ने संसार का सबसे बड़ा अधर्म किया कि शांति के प्रतीक सफेद झण्डे दिखलाकर अंग्रेज अफसर हैण्डरसन ने वार्तालाप के बहाने बुलाकर राजा नाहरसिंह व उनके सेनापति गुलाबसिंह सैनी को गिरफ्तार कर लिया।
इस पूरे समय में ब्राह्मण गंगाधर कौल क्रांतिकारियों की मुखबरी करके अंग्रेजों की सेवा करता रहा। जब अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को विफल कर दिया तो इसी गद्दार पंडित गंगाधर कौल को पदोन्नत करके दिल्ली का कोतवाल बना दिया। राजा नाहरसिंह व उसके साथियों पर 20 दिन मुकदमे का ड्रामा रचकर अंग्रेजों ने इन्हें 9 जनवरी सन् 1858 को इनके प्रिय व महान् योद्धा सेनापति गुलाबसिंह सैनी, साथी भूरासिंह व खुशालसिंह को फांसी देने के लिए दिल्ली के चांदनी चौंक में पंडित गंगाधर कौल उन्हें शृंगार कर लाया। समय का तकाजा देखिये कि इसी गंगाधर कौल का सगा पौत्र पंडित नेहरू देश का प्रथम प्रधानमंत्री बना। क्या पं० नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ जिसका मीडिया ने आज तक जोरदार प्रचार किया है अपने दादा गंगाधर कौल का जिक्र किया? कहीं नाम तक भी नहीं लिखा? इसी प्रकार इनकी पुत्री भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल के समय लाल किले में इतिहास के ताम्रपत्र दबवाए तो अपने खानदान के वर्णन में अपने परदादा गंगाधर कौल का इतिहास क्यों नहीं लिखवाया?
पाठकों को देश के गद्दारों के बारे में पढ़ना है तो यह पुस्तकें अवश्य पढ़ें - ‘Letters of Spies and Delhi was Lost’ और ‘Jeevan Lal Traitor of Mutiny’ ये जीवनलाल कायस्थ जाति से सम्बन्ध रखते थे जो गंगाधर कौल तथा राजा सिंधिया की तरह 1857 के बड़े गद्दार थे। जिस आत्मसम्मान और इस जमीन के लिए राजा नाहरसिंह 34 वर्ष की आयु में शहीद हुये उनकी न तो चांदनी चैंक में मूर्ति है न ही संसद में कोई चित्र और ना ही किसी प्रकार की दिल्ली में यादगार जबकि गद्दार गंगाधर कौल के वंशजों के नाम हजारों बीघा जमीन पर राजघाट से लेकर शांन्तिवन तक शानदार स्मारक बने हैं। जबकि इस देश का नारा है ‘सत्यमेवेव जयते।’ न ही सत्य था आरै न ही कहीं जीत थी। मेरा देश वाकई में महान् है और इस प्रकार ‘शहीद’ की परिभाषा ही बदल डाली और जो शहीद नहीं थे उनको शहीद कहा जा रहा है
यदि ईमानदारी से कहा जाये तो मंगल पांडे का सन् 1857 की क्रान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था। यदि था तो केवल इसके विफल होने के बड़े कारण थे। क्योंकि क्रान्ति का दिन 31 मई 1857 निश्चित था जिसका मंगल पांडे को कोई पता नहीं था। इससे स्पष्ट है कि उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं था। इसलिए उसने कारतूस में लगी गाय की चर्बी के कारण 15 फरवरी 1857 को गोली चलाकर अंग्रेज लैटिनेंट अंग्रेज ह्मसन को गोली मारने के कारण उसे 8 अप्रैल 1857 को फांसी हो चुकी थी फिर इसमें आजादी की बात कहां से आ गई? मंगल पांडे को धर्म भगत तो कहा जा सकता है लेकिन देशभगत नहीं। इनका देशभक्ति का इतिहास पूरा मनघड़न्त है।
इसी प्रकार रानी लक्ष्मीबाई की कहानी है। जब वह अपने दत्तकपुत्र दामोदर राव को झांसी की गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं बनवा पाई तो चुप बैठकर पूजा पाठ करने लग गई। उसकी विद्रोह करने की कोई योजना नहीं थी और ना ही उसने स्वेच्छा से इसमें भाग लिया। जब झांसी के किले को क्रांतिकारी सैनिकों ने घेर लिया तो अंग्रेज कैप्टन गोर्डन भी घिर गये तो उसने रानी से मदद मांगी जिस पर रानी ने पत्र लिखकर उत्तर दिया ‘मुझे भी सैनिकों ने घेर लिया है, मैं क्या मदद करूं, फिर भी मैंने आपकी मदद के लिए गोला, बारुद व सिपाही भेज दिये हैं।’ इन लेखों से प्रमाणित है कि रानी ने गुप्त रूप से गोर्डन को 50-60 बन्दूकें, गोला बारूद और 50 अंगरक्षक दिये थे। जब 67 अंग्रेज किले में मारे गये तो इस बारे में इतिहासकार लेखक सर जान लिखते हैं, “इस हत्याकाण्ड में रानी लक्ष्मीबाई का कोई हाथ नहीं था। न तो उसका कोई आदमी मौके पर विद्यमान था और न ही उसने हुक्म दिया था।” एक लेखक मिश्रा जी ने अपनी पुस्तक में यहां तक लिखा है कि रानी झांसी कैप्टन गार्डन की प्रेमिका थी। यह पुस्तक उसी समय 2008 में प्रतिबंध हो गई। यदि हम इन बातों को भी असत्य मानें तो भी हमें इतिहास के नजरिये से यह मानना होगा कि यह क्रान्ति सन् 1857 के अंत तक विफल हो चुकी थी और लगभग सभी क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने जनवरी 1858 तक सजाएं दे दी थी तो रानी जी इस अवधि में चुप क्यों बैठी रही। एक लेखक का तो यह कहना है कि जब 1857 में क्रान्तिकारी उससे गोली बारूद मांगने के लिए गए तो उसने एक भी गोली देने से मना कर दिया तो फिर रानी को अचानक मार्च 1858 में कैसे देश प्रेम हो गया? कई लेखकों ने तो लिखा है कि उसकी लड़ाई के अपने निजी कारण थे। यह पूरा ही विषय विरोध का नहीं शोध का है क्योंकि इसके पीछे दत्तक पुत्र वाली कहानी स्पष्ट हैं। जैसे कि कुछ लेखकों ने लिखा है स्थानाभाव के कारण यह किस्सा इस पुस्तक में यहीं छोड़ा जा रहा है। लेकिन यह सच्चाई है कि रानी का इस संग्राम में कोई योगदान नहीं था। यह सरासर झूठ है कि वह पीठ पर बच्चे को बांधकर लड़ी। वह कोई पहाड़ की रहने वाली नहीं थी कि बच्चे को पीठ पर बांधकर चल भी सके। बच्चे को पीठ पर बांधकर कोई फसल भी नहीं काट सकता लड़ाई की बात तो छोड़ो। इसमें शोध की आवश्यकता है।
1857 के सच्चे हीरो तो राजा नाहरसिंह, उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी, नाना साहिब, तात्या टोपे, अब्दुल रहमान नवाब झज्जर आरै राजा कुंवरसिंह आदि थे। जिसमें नाना जी जब महाराजा सिंधिया की शरण में आये तो उन्होंने उसे अंग्रेजों के सुपर्द कर दिया तथा तांत्या टोपे को महाराजा सिंधिया ने गिरफ्तार करवा दिया। क्या यह सिंधिया की गद्दारी नहीं थी? महाराजा नाहरसिंह बल्लभगढ़ व उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी ने दिल्ली के खूनी दरवाजे से लेकर बल्लभगढ़ के किले तक अंग्रेजों को नचा-नचा कर मारा और हार नहीं मानी। महाभारत का युद्ध तो केवल 18 दिन चला था, हल्दी घाटी की लड़ाई तो मात्र साढ़े तीन घण्टे चली जिसमें कुल 59 सैनिक शहीद हुए थे। लेकिन नाहरसिंह का युद्ध तो पूरे 134 दिन चला। इसके बाद भी अंग्रेज उसे पराजित नहीं कर पाये, तो अंग्रेजों ने संसार का सबसे बड़ा अधर्म किया कि शांति के प्रतीक सफेद झण्डे दिखलाकर अंग्रेज अफसर हैण्डरसन ने वार्तालाप के बहाने बुलाकर राजा नाहरसिंह व उनके सेनापति गुलाबसिंह सैनी को गिरफ्तार कर लिया।
इस पूरे समय में ब्राह्मण गंगाधर कौल क्रांतिकारियों की मुखबरी करके अंग्रेजों की सेवा करता रहा। जब अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को विफल कर दिया तो इसी गद्दार पंडित गंगाधर कौल को पदोन्नत करके दिल्ली का कोतवाल बना दिया। राजा नाहरसिंह व उसके साथियों पर 20 दिन मुकदमे का ड्रामा रचकर अंग्रेजों ने इन्हें 9 जनवरी सन् 1858 को इनके प्रिय व महान् योद्धा सेनापति गुलाबसिंह सैनी, साथी भूरासिंह व खुशालसिंह को फांसी देने के लिए दिल्ली के चांदनी चौंक में पंडित गंगाधर कौल उन्हें शृंगार कर लाया। समय का तकाजा देखिये कि इसी गंगाधर कौल का सगा पौत्र पंडित नेहरू देश का प्रथम प्रधानमंत्री बना। क्या पं० नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ जिसका मीडिया ने आज तक जोरदार प्रचार किया है अपने दादा गंगाधर कौल का जिक्र किया? कहीं नाम तक भी नहीं लिखा? इसी प्रकार इनकी पुत्री भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल के समय लाल किले में इतिहास के ताम्रपत्र दबवाए तो अपने खानदान के वर्णन में अपने परदादा गंगाधर कौल का इतिहास क्यों नहीं लिखवाया?
पाठकों को देश के गद्दारों के बारे में पढ़ना है तो यह पुस्तकें अवश्य पढ़ें - ‘Letters of Spies and Delhi was Lost’ और ‘Jeevan Lal Traitor of Mutiny’ ये जीवनलाल कायस्थ जाति से सम्बन्ध रखते थे जो गंगाधर कौल तथा राजा सिंधिया की तरह 1857 के बड़े गद्दार थे। जिस आत्मसम्मान और इस जमीन के लिए राजा नाहरसिंह 34 वर्ष की आयु में शहीद हुये उनकी न तो चांदनी चैंक में मूर्ति है न ही संसद में कोई चित्र और ना ही किसी प्रकार की दिल्ली में यादगार जबकि गद्दार गंगाधर कौल के वंशजों के नाम हजारों बीघा जमीन पर राजघाट से लेकर शांन्तिवन तक शानदार स्मारक बने हैं। जबकि इस देश का नारा है ‘सत्यमेवेव जयते।’ न ही सत्य था आरै न ही कहीं जीत थी। मेरा देश वाकई में महान् है और इस प्रकार ‘शहीद’ की परिभाषा ही बदल डाली और जो शहीद नहीं थे उनको शहीद कहा जा रहा है