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View Full Version : अवतार सिंह संधू "पाश",



Bisky
August 18th, 2013, 11:04 PM
उपरोक्त वर्णित चरित्र व्यवहार्य रूप से जाट के घर की दीवारों का Wallpaper होना चाहिए था। लेकिन हम लोगों में से कितने लोग इस कवि के बारे में जानते हैं, यह जान कर हमें शर्मिंदगी तो जरूर होगी। हाँ, मुझे यह जानकार कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि वह पंजाब की धरती से निकला था। हम पंजाब को मिलाकर बेशक हमारी इज्ज़त-आफजाई कर लें, लेकिन हरियाणा की संस्कृति में ऐसी शख़्सियत तो दुर्लभ है ही, हम इन धरोहरों को इज्ज़त बख़्शने में भी कोताही बरतते हैं। इतिहास तथा संस्कृति हमारी धरती से पंजाब के साथ ही चले गए। बौद्धिक स्तर निम्नतम बिन्दु पर जाने को है। आलोचनात्मक रवैय्या रखने वाला व्यक्ति अपवाद भले ही खोज कर इस सच्चाई का मुंह मोड़ दें। लेकिन वास्तविकता यह है कि हम लोगों ने विचार करना छोड़ दिया है, किसी दूसरे को धैर्यपूर्वक सुनना, हमारे खून की अल्हड़ता स्वीकार नहीं करती।
कहने को तो कोई इस व्यक्ति का संबंध अतिवाद से जोड़कर बहस को खत्म कर सकता है। इस हस्ती की रचनाओं को पढ़ कर आप अपनी-2 टिप्पणियाँ यहाँ दे सकते हैं। लेकिन इस Thread का अंजाम उसकी रचनाओं के स्तरानुसार ही हो, यह सुनिश्चित करने की हम कोशिश कर सकते हैं। हालांकि हर कोई अपना-2 मत रखने के लिए स्वतंत्र है। और लोकतन्त्र यही कहता है कि हम किसी को किसी बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते, चाहे वह भली हो अथवा बुरी। जितनी भी आठ-दस रचनाएँ मेरे पास हैं, वह एक-एक कर मैं हर रोज़ Attach करने की कोशिश करूंगा।

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है

गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा

और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है

गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

अवतार सिंह संधू 'पाश'

ravinderjeet
August 19th, 2013, 09:18 AM
विचारोतेजक स भाई । ६६ साल के आधुनिक इतिहास में तो न्यू-ए होण लाग्र्या स । बाकी भी ताव्ला छाप दे भाई ।

Bisky
August 19th, 2013, 10:02 PM
The Next Poem is "अब मैं विदा लेता हूँ"

अब विदा लेता हूं
अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का जिक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नही
जिन्हें जिन्दगी ने हिसाबी बना दिया
ख़ुशी और नफरत में कभी लीक ना खींचना
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूं
तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने
कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना।


अवतार सिंह संधु "पाश"

थोड़ी सी लंबी जरूर है, लेकिन शुरू से अंत तक धार कुंद नहीं होती।

Bisky
August 20th, 2013, 09:54 PM
मैं आजकल अखबारों से बहुत डरता हूं
जरूर उनमें कहीं-न-कहीं
कुछ न होने की खबर छपी होगी
शायद आप जानते नहीं, या जानते भी हों
कि कितना भयानक है कहीं भी कुछ न होना
लगातार नजरों का हांफते जाना
और चीजों का चुपचाप लेटे रहना-किसी ठंडी औरत की तरह

मुझे तो आजकल चौपालों में होती गपशप भी ऐसी लगती है
जैसे किसी झूमना चाहते वृक्ष को
सांप गुंजलक मार कर सो रहा हो
मुझे डर है खाली कुरसियों की तरह कम हुई दीखती
यह दुनिया हमारे बारे में क्या उलटा-पुलटा सोचती होगी
अफसोस है कि सदियां बीत गयी हैं
रोटी, काम और श्मशान अब भी समझते होंगे
कि हम इनकी खातिर ही हैं...
मैं उलझन में हूं कि कैसे समझाऊं
लजीले सवेरों को
संगठित रातों और शरीफ शामों को
हम कोई इनसे सलामी लेने नहीं आये
और साथ-को-साथ जैसा कुछ कहां है
जो आलिंगन के लिए खुली बांहों से
बस हाथ भर की दूरी पर तड़पता रहे
आजकल हादसे भी मिलते हैं तो ऐसे
जैसे कोई हांफता हुआ बूढ़ा
वेश्या की सीढ़ी चढ़ रहा हो
कहीं कुछ इस तरह का क्यों नहीं है
जैसे किसी पहली को कोई मिलता है

भला कहां तक जायेगा
सींगोंवाली कब्र के आगे दौड़ता हुआ
महात्मा लोगों का वरदान दिया हुआ यह मुल्क
आखिर कब लौटेंगे, घटनाओं से गूंजते हुए घरों में
हम जीने के शोर से जलावतन हुए लोग
और बैठ कर अलावों पर कब सुनेंगे, आग के मिजाज की बातें
किसी-न-किसी दिन जरूर अपने चुबंनों से
हम मौसम के गालों पर चटाख डालेंगे
और सारी-की-सारी धरती अजीबो-गरीब अखबार बनेगी
जिसमें बहुत कुछ होने की खबरें
छपा करेंगी किसी-न-किसी दिन.

~अवतार सिंह संधू 'पाश'
हमें उठने के लिए बोल रहा है, लेकिन एक तरह से हमसे नींद का कर्ज़ ही नहीं उतर रहा है।

Bisky
August 23rd, 2013, 11:08 PM
The next one is, One of My Favorite also:

तुम्हारे रुक रुक कर जाते पावों की सौगंध बापू
तुम्हारे रुक रुक कर जाते पावों की सौगंध बापू
तुम्हें खाने को आते रातों के जाड़ों का हिसाब
मैं लेकर दूंगा
तुम मेरी फीस की चिंता न करना
मैं अब कौटिल्य से शास्त्र लिखने के लिये
विद्यालय नहीं जाया करूंगा
मैं अब मार्शल और स्मिथ से
बहिन बिंदरों की शादी की चिंता की तरह
बढ़ती कीमतों का हिसाब पूछने नहीं जाऊँगा
बापू तुम यों ही हड्डियों में चिंता न जमाओं
मैं आज पटवारी के पैमाने से नहीं
पूरी उम्र भत्ता ले जा रही मां के पैरों की बिवाईयों से
अपने खेत मापूंगा
मैं आज संदूक के खाली ही रहे खाने की
भायँ - भायँ से तुम्हारा आज तक का दिया लगान गिनूँगा
तुम्हारे रुक रुक कर जाते पावों की सौगंध बापू
मैं आज शमशान भूमि में जा कर
अपने दादा और दादा के दादा के साथ गुप्त बैठके करूंगा
मैं अपने पुरखों से गुफ्तगू कर जान लूँगा
यह सब कुछ किस तरह हुआ
कि जब दुकानों जमा दुकानों का जोड़ मंडी बन गया
यह सब कुछ किस तरह हुआ
कि मंडी जमा तहसील का जोड़ शहर बन गया
मैं रहस्य जानूंगा
मंडी और तहसील बाँझ मैदानों में
कैसे उग आया था थाने का पेड़
बापू तुम मेरी फीस की चिंता न करना
मैं कॉलेज के क्लर्कों के सामने
अब रीं रीं नहीं करूंगा
मैं लेक्चर कम होने की सफाई देने के लिये
अब कभी बेबे या बिंदरों को
झूठा बुखार न चढ़ाया करूंगा
मैं झूठमूठ तुम्हें वृक्ष काटने को गिराकर
तुम्हारी टांग टूटने जैसा कोई बदशगन सा बहाना न करूंगा
मैं अब अंबेदकर के फंडामेंटल राइट्स
सचमुच के न समझूंगा
मैं तुम्हारे पीले चहरे पर
किसी बेजमीर टाउट की मुस्कराहट जैसे सफ़ेद केशों की
शोकमयी नज़रों को न देख सकूंगा
कभी भी उस संजय गांधी को पकड़ कर
मैं तुम्हारे कदमो में पटक दूंगा
मैं उसकी उटपटांग बड़को को
तुम्हारें ईश्वर को निकाली गाली के सामने पटक दूंगा
बापू तुम गम न करना
मैं उस नौजवान हिप्पी को तुम्हारें सामने पूछूंगा
मेरे बचपन की अगली उम्र का क्रम
द्वापर युग की तरह आगे पीछे किस बदमाश ने किया है
मैं उन्हें बताउँगा
निः सत्व फतवों से चीज़ों को पुराना करते जाना
बेगाने बेटों की मांओं के उलटे सीधे नाम रखने
सिर्फ लोरी के लोरी के संगीत में ही सुरक्षित होता हैं
मैं उससे कहूंगा
ममता की लोरी से ज़रा बाहर तो निकलो
तुम्हें पता चले
बाकी का पूरा देश बूढ़ा नहीं है ....

ravinderjeet
August 25th, 2013, 10:51 AM
क्रांतिकारी बीचार !!!!!!