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View Full Version : पल्ला-झाड़ संस्कृति



phoolkumar
October 23rd, 2013, 07:28 PM
पश्चिमी देश विश्व पर इसलिए धाक रखते हैं क्योंकि वहाँ लिंग-भेद न्यूनतम स्तर का है|







किसी समाज-पंथ-देश का दुनियां पर वर्चस्व इसी बात से निर्धारित होता है कि वहां लिंग-भेद (gender-bias) किस स्तर का है। कोई मुझे पश्चिम (western europe) में बैठा होने के कारण कितना ही कोसे और इल्जाम लगाए कि मुझपे पाश्चात्य सभ्यता का असर बोल रहा है, लेकिन यह पाश्चात्य सभ्यता का वो वाला असर तो कदापि नहीं है जिसके कारण भारतीय और भारतीयता अपने यहाँ पनपने वाली नई-नई बुराइयों की जड़ें उनकी अपनी संस्कृति और दोगलेपन में ढूँढने के बजाय पाश्चात्य सभ्यता पे लांछन लगा "पल्ला झाड़ " लेती है।

अपितु यह वो असर है जिसने अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और लगभग हर यूरोपीय देश की धरती के हर कोने तक शौर्य पताका लहराई है। फिर चाहे उसमें अंग्रेजों द्वारा 200 साल तक भारत-अमेरिका समेत 72 राष्ट्रमंडल देशों (commonwealth countries) पर राज करने







की कहानी रही हो, चाहे फ्रांसीसियों द्वारा कनाडा से ले दक्षिण-अफ्रीका और मिडिल ईस्ट पे राज करने की या फिर स्पेनिशों द्वारा ब्राजील-अर्जेंटीना से ले लगभग सम्पूर्ण दक्षिण अमेरिका पर राज करने की कहानी रही हो।

जब गहनता से अध्यन करता हूँ तो पाता हूँ कि ये सब ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि इन्होनें लिंग-समानता को सदियों पहले से सुलझा रखा है। हालाँकि ऐसा नहीं कि इनका समाज लिंग-समानता के बारे एक आदर्श समाज है, परन्तु हाँ विश्व का सबसे सर्वश्रेष्ठ समाज जरूर है। ऐसे में मुझे भारतीय संस्कृत साहित्य का वो श्लोक याद आता है जो कहता है कि "यत्र नारी पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता"। हमारे समाज में तो कोई-कोई घर ऐसा मिलता है जहां नारी को बराबरी पे रखा पाया जाता है, पर इन पश्चिम वालों के यहाँ कोई-कोई घर ही ऐसा मिलेगा जहां नारी को बराबरी पे ना रखा गया हो|

और किसी समाज का लिंग-भेद जितना शून्य तक पहुंचा होता है वहाँ सभ्यताएं स्वत: बाहर के संसार को जानने के लिए उत्सुक रहती हैं वो अपने समाज से बाहर जा के विश्व-सभ्यता को पढ़ती हैं और कब्जे में लेने की सोचती हैं और वो ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वो अपनी अंतर-गृह विवादों को सुलझा चुके होते हैं। तभी तो कहीं कोलम्बस भारत की खोज में निकलता है तो अमेरिका खोज डालता है, कहीं वास्कोडिगामा भारत ढून्ढ देता है तो कहीं फाहयान और ह्यून-सांग चीन से निकल भारतीय सभ्यता और समाज पढ़ता नजर आता है। मुझे भारतीय समाज (जम्बू-द्वीप वाला भारत जो कि सुदूर इंडोनेशिया से ले अफगानिस्तान तक हुआ करता था) से इनके समकक्ष कोई भी ऐसा भारतीय नहीं मिलता जिसने उस काल में ऐसे विश्वभ्रमण किया हो। फिर यूरोपियन की तरह विश्व में राज करना तो दूर की बात है।

और इसे असफलता कहिये या पिछड़ापन इसका सीधा-सीधा नाता जाता है हमारी विचारधारा से, हमारे समाज की सरंचना से, उसमें औरत से व्यवहार यानी लिंग-भेद किस स्तर का है और इन्हीं के इर्द-गिर्द्ध बनती है सभ्यताओं की सोच और विकास।

और जब इन पहलुओं को सामने रख भारतीय समाज को पढ़ा जाता है तो समस्या दोगुनी जटिल हो जाती है। एक तो लिंग-भेद चरम-सीमा का और दूसरा उसपे समाज के अंतर्गत जाति-वर्ण-व्यवस्था की भू-गर्भ सी काली खाई। मैं यह नहीं कहना चाहता कि यूरोपियन में कभी रंग-नश्ल भेद के नाम पर मतभेद या झगड़े नहीं हुए, हुए परन्तु वो स्थाई कभी नहीं रहे। जैसे कि हिटलर-मुसोलिनी का किस्सा जिसको की यहूदियों के खिलाफ घृणा से जुड़ा हुआ पाया जाता है लेकिन वो चला कितने दिन? तुरंत ही खत्म कर दिया गया उसको।

लेकिन भारतीय समाज में इसका ना तो भूतकाल में कोई अंत था, ना वर्तमान में और जैसी आज की भारतीय राजनीती हो चली है उसको देखते हुए इसका सुदूर भविष्य में भी कोई अंत नहीं दीखता| वस्तुत: भूतकाल में तो यह चरमसीमा की थी। विश्व में भारत की संस्कृति को छोड़ शायद ही कोई ऐसी संस्कृति हो जो अपने ही समाज में से गुलाम चुनने या उनपे गुलामी मढ़ने की परम्परा रखती हो और विरोध करने का भी अधिकार ना देती हो। मैंने अंग्रेजों को देखा भारतियों को गुलाम बनाते, मैंने फ्रांसीसियों को देखा दक्षिण अफ्रीका के काले लोगों को गुलाम बनाते लेकिन ऐसे भारतीय सिर्फ भारत में ही हैं जिन्होनें अपने ही समाज में गुलाम बनाने की परम्परा आगे बढाई। मैंने कभी एक अंग्रेज को दूसरे अंग्रेज से गैर करवाते नहीं देखा, ना फ़्रांसिसी को देखा जबकि भारतीयता में तो वर्ण और जाति व्यवस्था का उद्देश्य ही यह रहा है|

अद्भुत सभ्यता है हमारी जिसमें दूसरे को गुलाम बनाने की पिपासा शांत करने के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण करने की कभी जरूरत नहीं हुई और अपना चेहरा उजला दिखाने के लिए प्रचार करते आये और अभी भी करते हैं कि "भारतीय शांतिप्रिय और जियो और जीने दो के सिधांत पर यकीन" करते हैं। जबकि कटु सत्य यह है कि ऐसे वाक्य सिर्फ अपनों के आगे सफाई देने के लिए घड़े गए, विदेशी तो इनको हास्यास्पद कहते हैं। हमारी सभ्यता के वाहकों ने कभी राजा-महाराजाओं को इस स्तर का ना ज्ञान दिया ना उनमें पनपने दिया कि वो भी सिकन्दर या नेपोलियन की तरह विश्व-विजय पर निकलते| क्योंकि उनको गुलाम उनकी सभ्यता के जरिये बने-बनाये ही मिलते थे। ठीक वैसे ही जैसे आज कुछ राजनैतिक घरानों को मिल रहे हैं|

दरअसल उनका ज्ञान इसी स्तर का होता था कि राजा उनकी वाह-वाही करे और राज करे, जैसे उनको डर रहा हो कि कहीं उनकी शिक्षा से राजा विश्वविजय पर निकल गया और जीत गया तो वो उनके हाथ से निकल जायेगा। इसलिए राजा को घर में बैठे ही स्वयं को सर्वश्रेष्ठ महसूस करवाने को जातीय और वर्ण-व्यवस्थाएं खड़ी करवा दी गई| यह डरने और डराने का चरित्र हमारी सभ्यता को विश्व की एनी सभ्यताओं से कोशों पीछे धकेल देता है, दब्बू बनने की प्रवृति पैदा करता है|

क्या अपने घर में घुस के आये दुश्मन को घर से निकालना या दुश्मन से घर छुड़वाना विजय कहलाएगी? लेकिन हमारी सभ्यता ने सिखाया कि घर से दुश्मन को निकालना भी आपकी विजय है। और इसी सभ्यता का असर 1999 के कारगिल युद्ध में भी नजर आया जब पाकिस्तान की घर-घुसपैठ से कारगिल को खाली करवाया गया। क्या भारत ने पाकिस्तान का कोई हिस्सा जब्त किया या इस बात की भरपाई तक भी करवाई कि तुम्हारी घुसपैठ से जो हमारा सैन्य-संसाधन व् आर्थिक नुकसान हुआ उसकी भरपाई करो या फिर उसपे शांति-समझौता उलंघन के तहत वसूली की गई? इनमें से कुछ भी नहीं हुआ और हमारी चिरपरिचित सभ्यता के अंदाज में कह दिया गया कि हमने कारगिल फ़तेह कर लिया।

अगर कारगिल की कहानी को अंग्रेजों या फ्रांसीसियों की नजर से देखें तो वो कहेंगे कि कारगिल फ़तेह तब होती जब फ़तेह से पहले कारगिल पाकिस्तान का हिस्सा होता और उसको भारत ने अपने में मिलाया होता अन्यथा पहले से जो भारत का हिस्सा था उससे दुश्मन को भगाने में कारगिल फ़तेह कैसे हुआ वो तो मुक्त करवाना हुआ। और यही फर्क है भारतीय और यूरोपियन सभ्यता में जिसके कारण यूरोपीयनों ने विश्व पर राज किया और हम उनके समेत मिडिल ईस्ट वालों के भी गुलाम बने।

और जब तक हमारी सभ्यता के संरक्षक-संवाहक-वाहक-प्रवर्तक ऐसी प्रवृति के लोग रहेंगे हम विश्व में वो रूतबा नहीं पा सकते जो यूरोपियनों के पास है। और ऐसा भी नहीं है कि हम ऐसा नहीं कर सकते, कर सकते हैं जैसे अमेरिका ने किया। अमेरिका कर गया तो आज राष्ट्रमंडल की सूची से बाहर हो गया, जबकि हम आज भी उसी सूची में खड़े हैं और यह सब इसलिए क्योंकि हमारी संस्कृति समस्या निवारक व् नाशक नहीं अपितु पल्ला झाड़क है|

यह तो हुई जाति और वर्ण भेद की बात, अब वो बात जिसको करने से आपको दैवीय व् प्रेरणात्मक शक्ति मिलती है और वो है नारी के प्रति लिंग-भेद को शून्य करने की बात|

मोटा-मोटा फर्क यही है कि यूरोपियन औरत को वस्तु, सम्पत्ति व् भोग्या नहीं समझते परन्तु इज्जत जरूर समझते हैं। और ये लोग युद्ध भी इज्जत के लिए ही करते हैं आधिपत्य के लिए नहीं, और इसके ही लिए इनके ‘ट्रॉय’ जैसे युद्ध विश्वविख्यात हैं। औरत को ले के चिंतित ये भी रहते हैं परन्तु सिर्फ उस हद तक जिस हद तक औरत असुरक्षित महसूस करे। जैसे ही औरत सुरक्षा के दायरे में आती है तो ये उससे बेफिक्र हो जाते हैं| फिर ये उसको स्वतंत्र छोड़ देते हैं|

जबकि हमारे यहाँ वैसे तो हर रंग-नश्ल-वर्ण सम्प्रदाय गुलामी के दौर के चलते सब भेद मिटा एक होने की कशमकश दिखाते रहे लेकिन जैसे ही आजादी पास आई "वही ढाक के तीन पात"| जैसे ही 1947 में आजादी मिली फिर से वही किस्से शुरू जिसकी वजह से देश गुलाम हुआ था। उसी सदियों पुरानी सभ्यता के वाहक फिर से सक्रिय हो गए और आज फिर से वही झूठ के पुलिंदों वाले नारी की सुरक्षा के प्रपंच घड़ने शुरू कर दिए। थोड़ा बहुत कुछ समाजों ने इस एकता को संभल के रखा हुआ था लेकिन सितम्बर 2013 में हुए मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद तो वो भी ख़त्म हो गई सी प्रतीत होती है|

यानी वही पुरानी संस्कृति फिर से करवट ले रही है समाज को अपनी गिरफ्त में जकड़ने को और हम, जिनको कि आगे बढ़ के इन पुरानी जकड़नों से बाहर आना चाहिए, फिर से इस नूरा-कुस्ती शैली वाली "पल्ला झाड़ सभ्यता" पे सवार हो लिए हैं|

हमें यह समझना होगा कि अगर आज भारत पे वित्तीय (आर्थिक) संकट से ले सामाजिक द्वेष, जमाखोरी से ले भ्रष्टाचार, औरत पे आपराधिकता से ले राजनैतिक गुलामी हावी होती जा रही है तो किसी पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव के चलते नहीं अपितु हमारी इसी "पल्ला झाड़" संस्कृति के फिर से मुखर होने के कारण|

देश में कहीं भी बलात्कार हो जाए या छेड़खानी की घटना, हमारे लिए उस समस्या का जड़ से निवारण मान्य नहीं रखता अपितु उसमें भी अपनी साफगोई कैसे ढूँढी जाए वो प्रपंच जरूरी होता है। कहीं बाबा-संत लोग इसमें पाश्चात्यता का असर ढूँढने लग जाते हैं तो कहीं फिल्मों वाले इसको समाज की संकीर्ण सोच पे मढ़ते नजर आते हैं, कहीं धर्म वाले इसमें साम्प्रदायिकता ढूँढने लग जाते हैं तो कहीं डेमोक्रेट कहलाने वाले समाज की रूढ़िवादिता पे ऊँगली ताने मिलते हैं, कोई इसमें कम कपड़ों और फैशन की वजह बता इसका पोस्टमोर्टम करता नजर आता है तो कहीं सरकारें यही ढूँढने में रह जाती है कि इसके लिए कौनसा विभाग या अधिकारी जिम्मेदार है, कोई पैतृक सत्ता पे चढ़ा डोलता है तो कोई नारी की अज्ञानता का रूदन करता है|

जबकि समस्या सारी हमारी सभ्यता के मूल सिद्धांतों में है जो औरत को सिर्फ निर्देशित करती हैं सुरक्षित नहीं। औरत को सिर्फ फर्ज बताती हैं अधिकार नहीं। औरत को सिर्फ देवी कहती हैं इंसान नहीं| औरत से सिर्फ त्याग मांगती है, स्वाभिमान नहीं|

और औरत को द्वितीय दर्जे पर रख कर खुद को स्वाभिमानी होने का अहंकारी दम्भ जब तक हमारी सभ्यता भरती रहेगी हमारे यहाँ कभी देवताओं का वास नहीं होगा; भारत यूरोपियनों की तरह स्वाभिमानी नहीं बन पायेगा|










continue on post 2.....

phoolkumar
October 23rd, 2013, 07:29 PM
Continue from post 1.....

और यही वो चीजें हैं जिनके हल यूरोपियन सदियों पहले निकाल चुके हैं, इसीलिए तब से ले आज भी विश्व पर उन्हीं की चलती है। उनकी इसलिए नहीं चलती कि उनके पास पैसा है, संसाधन है, व्यापार है, ताकत है या रूतबा है अपितु इसलिए चलती है क्योंकि उनके पास पैसा-संसाधन-व्यापर-ताकत-रूतबा पाने का जज्बा पैदा करने का सूत्र है जो कि इनकी इन सब उपलब्धियों की जड़ों में वास करता है और वो है अपनी नारियों को लिंग-भेद शून्यता देना और सवधर्मियों में रंग-वर्ण भेद ना करना।

आप पानी के ऊपर तैर रहे जिस आइसबर्ग (iceberg) की चोटी (tip) देखकर विष्मित हैं मैंने उसकी पानी के नीचे की गहराई इस लेख में नापने, देखने और दिखाने की कोशिश करी है, मैं इस प्रयास में कितना सफल हुआ यह आप निर्धारित करें| हाँ अंत में एक बात और जरूर कहूँगा कि सभ्यताएं सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ प्राकृतिक व् भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से बना करती हैं। मैंने इस लेख में सिर्फ सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन किया है। भविष्य का पूरा खाका क्या हो उसके लिए प्राकृतिक व् भौगोलिक परिस्थितियाँ भी परिदृश्य में रखनी होंगी| और ये परिस्थितियाँ कहती हैं कि कोई भी दो सभ्यताएं एक जैसी नहीं हो सकती परन्तु उनमें लिंग-भेद व् नश्ल-वर्ण भेद शून्य जरूर हो सकता है। इसलिए इस लेख से अपनी सभ्यता की समस्याओं के समाधान के रास्ते तो निकाले जा सकते हैं; परन्तु अंत:पुर की मंजिल मिलेगी आपके अंत:मन में ही|

निष्कर्ष: बांटों और राज करो की नीति के तहत हम गुलाम नहीं किये गए थे अपितु बांटों और राज करो की नीति हमारे यहाँ पहले से विद्यमान थी इसलिए हम गुलाम हुए थे। हम बंटे हुए थे जाति के नाम पर, हम बंटे हुए थे नश्ल-वर्ण के नाम पर और सबसे घातक हम बंटे हुए थे लिंग के नाम पर। जो कि आज भी बदस्तूर जारी है|


जय दादा बड़ा बीर!

लेखक: फूल कुमार मालिक

rkumar
October 23rd, 2013, 09:24 PM
You have raised quite a number of very pertinent points. There is no doubt that our society decayed internally and became very weak. Rigid internal divisions harmed us. Every society goes through up and downs. Average of any action taken over a short time is very different than a longer time. Actions which appear spectacular momentarily, may not be so over longer time. Rigid and loosely bound, both are very important steps in social evolution. We were a free and gender equal society at one time. Rigidity came along the way, I suppose for some valid reasons and keeping in view the conditions prevailing at the time. Compare India with Greek, Persian. Egyptian and other similar old civilizations and see where we stand comparatively today. I don't think Indian civilization has fared that badly. I am very sure that Indians will adjust to the demanding times and will not only survive but progress culturally and economically. No doubt, there are many internal challenges. With all tall claims of Christians and Muslims, we Hindus are still more than a billion world wide, which in my view is not a small thing. Compare India of today with that of 50 or 100 years back, we have come a long way. At the same time look at USA and Britain of 50 years back and of today. I can tell you with full confidence that they have come down significantly. USA I saw first time in 1984 and of today are very different. Slide of USA is quite significant in my view. I am very optimistic about India.

RK^2

phoolkumar
October 24th, 2013, 12:36 PM
Its not as easy as it seems Rajendra Ji. Actually what is the issue with our indian's psychology that we live on lollypop of hope. Hope usually is of two types, one to float-out of the problem and second to achieve the target and we Indian live in former one. in matter of civilization, bitter truth is that we Indian never reach the later type of hope.


You have raised quite a number of very pertinent points. There is no doubt that our society decayed internally and became very weak. Rigid internal divisions harmed us. Every society goes through up and downs. Average of any action taken over a short time is very different than a longer time. Actions which appear spectacular momentarily, may not be so over longer time. Rigid and loosely bound, both are very important steps in social evolution. We were a free and gender equal society at one time. Rigidity came along the way, I suppose for some valid reasons and keeping in view the conditions prevailing at the time. Compare India with Greek, Persian. Egyptian and other similar old civilizations and see where we stand comparatively today. I don't think Indian civilization has fared that badly. I am very sure that Indians will adjust to the demanding times and will not only survive but progress culturally and economically. No doubt, there are many internal challenges. With all tall claims of Christians and Muslims, we Hindus are still more than a billion world wide, which in my view is not a small thing. Compare India of today with that of 50 or 100 years back, we have come a long way. At the same time look at USA and Britain of 50 years back and of today. I can tell you with full confidence that they have come down significantly. USA I saw first time in 1984 and of today are very different. Slide of USA is quite significant in my view. I am very optimistic about India.

RK^2