phoolkumar
November 15th, 2013, 12:46 AM
« जाटों की ब्राह्मिणवादिता खतरे में »
मुज़फ्फरनगर के बिडगे माहौल ने खड़े किये बहुत से सवाल|
लेख के मुख्य भाग:
1) ब्राह्मिणवाद क्या है?
2) जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं?
3) मुज़फ्फरनगर की बिसात और जाट
4) संधि-सौहार्द और सम्बन्ध के जाटों के ब्राह्मण रुपी गुण के मुज़फ्फरनगर में हुए विच्छेद का सबसे ज्यादा नुकसान किसको?
5) सम्बन्ध-सौहार्द रुपी जाटों के ब्राहम्णवाद के स्थाई रास्ते तलाशने ही होंगे
बचपन से ले के आजतक की उम्र में बहुत से ऐसे मौके, मोड़ और मुद्दे मिले जब सुनने में आता रहा कि जाट एंटी-ब्राह्मिण होते हैं| सबसे पहले मैंने जो मेरे अनुभव और विद्या से सीखा है उसके अनुसार ब्राह्मिणवाद क्या है वो बताऊंगा, फिर जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं वो और फिर उस समस्या का व्याखान जिसकी वजह से यह लेख लिखा|
1) ब्राह्मिणवाद क्या है: वास्तविक ब्राह्मिणवाद है, ‘इंसान को भगवान से प्राप्त जन्मजात गुण के हिसाब से कर्म करने देना, ना कि समाज द्वारा निर्धारित उसके वर्ण-कुल के अनुसार उसको कर्म करने को बाध्य करना’| जैसे कि नाचने-गाने के क्षेत्र जिसको कि हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के तहत शुद्र श्रेणी में रखा गया है, बावजूद इसके बालीवुड में ब्राह्मण सितारों की भरमार होना और वो भी शीर्ष हैसियतों में जैसे कि अमिताभ बच्चन, हेमा-मालिनी, श्री-देवी, माधुरी दीक्षित, संजय दत्त, सुनील दत्त आदि, हरियाणा के कला क्षेत्र में भी दादा लख्मीचंद, पंडित मांगेराम से ले श्री दीपचंद ब्राह्मण हुए जिन्होनें यहाँ के स्थानीय सांग-कला के क्षेत्र पर अपना वर्चस्व जमाया| हालाँकि जाटों में ‘धर्मेन्द्र दयोल परिवार व् अन्य’ बालीवुड में और कवि जाट मेहर सिंह हरियाणा के सांग और कला के क्षेत्र में इनके समकक्ष नाम हैं|
ऐसे ही खेलों का क्षेत्र वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षत्रियों के सुपुर्द रहा, लेकिन क्रिकेट जैसे कुछ ऐसे खेल हैं जहां सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली व् सुनील गावस्कर जैसे सर्वोत्तम ख्याति प्राप्त खिलाड़ी ब्राह्मिण हैं| हालंकि क्रिकेट में समकक्षता के साथ-साथ कुश्ती, कबड्डी, बॉक्सिंग जैसे खेलों में जाटों का वर्चस्व कायम है|
चाणक्य के बाद राज और राजनीति जो कि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षत्रियों का क्षेत्र होता था उसमें भी ब्राहम्णों ने अपना वर्चस्व सिद्ध किया और देश की आज़ादी के बाद तो चौधरी चरण सिंह और श्री मनमोहन सिंह जैसे कुछ नेताओं को हटा दें तो तमाम प्रधानमंत्री ब्राह्मण हुए हैं|
हाँ व्यापार यानी वर्णव्यवस्था की चौथी इकाई ‘वैश्य’ क्षेत्र में ब्राह्मिनों को अपना वर्चस्व सिद्ध करना अभी बाकी है| वैश्य क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जहां जाट ब्राहम्णों से आगे हैं| 2008 की फ़ोर्ब्स मैगज़ीन (FORBES) ने लक्ष्मी मित्तल व् अम्बानी परिवार के साथ DLF के कुशलपाल सिंह को टॉप दस में वरीयता दी, जो कि इस सूची में पहुँचने वाले अकेले गैर-बनिया है|
संधि और मैत्री का क्षेत्र भी ऐसा क्षेत्र रहा जहां भारत में ब्राह्मण सबसे आगे रहे| फिर उसमें चाहे मुगलों का दौर रहा हो या अंग्रेजों का, उन विपरीत परिस्थितियों में भी सबसे ज्यादा मैत्री और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध इन्होनें स्थापित किये| हालाँकि जाट यहाँ भी बराबर खड़े थे, जैसे कि सर छोटूराम, भरतपुर रियासत, जाट रेजिमेंट और 1857 के बहादुरशाह जफ़र के प्रस्ताव के बाद खापें| और खापों का यह मैत्रीपूर्ण सौहार्द तो अभी 7 सितंबर 2013 तक भी बिना किसी खटास के मुस्लिमों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जारी था| और सच कहूं तो इसी सौहार्द के टूटने का दर्द है जिसने मुझे यह लेख लिखने को मजबूर किया कहो या प्रेरित, किया|
यह व्याख्या यहाँ कोई तुलनात्मकता पैदा करने हेतु नहीं अपितु यह समझने हेतु प्रस्तुत की गई है कि वास्तव में ब्राहम्णवाद क्या है| तो वास्तव में ब्राह्मिणवाद वो है ही नहीं जिसके अनुसार समाज यह समझ लेता है कि हमें किसी नई या प्राचीन वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ही कर्म करने का अधिकार है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो फिर एक ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मण के ही कर्म करता, ना कि वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से शुद्र वाले कार्य करने वाली बालीवुड में जा के महानायक बनता, या क्षत्रियों वाले खेलजगत में जा के क्रिकेट का सरताज बनता, या राजनीती में जा के देश का प्रधानमंत्री बनता|
अगर इसके मूल-रूप को देखो और इसको सर्वसमाज में समानता से लागू करो तो ब्राह्मिणवाद से बढ़िया कोई चीज नहीं, परन्तु इस व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता यह रही कि ब्राह्मण समाज ने इसे अपने अंदर तो इसी मूल रूप में लागू किया और वर्ण से बाहर जा कर भी प्रतिभा साबित करते रहे; लेकिन दूसरे वर्णों पर इसकी बाध्यता नजर आई और वर्ण से बाहर जाने पर कार्य का अधिकार सम्पूर्ण रूप से लागू नहीं हुआ, जिसके कि इतिहास और वर्तमान तक में अनगिनत उदाहरण देखे जा सकते हैं|
2) जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं: क्योंकि इसके अंदर जांचने, परखने, आलोचनात्मकता और विश्लेषण करने की निर्भीक क्षमता होती है| आलोचना करने की इसकी क्षमता पे तो कहा भी गया है कि "छिका हुआ जाट राजा के हाथी को भी गधा बता दे|" और, वैसे तो यह बड़ा ही विवादित रहा है कि जाट हिन्दू हैं या वैदिक आर्य (क्योंकि सर छोटूराम जी अपना धर्म 'हिन्दू' नहीं अपितु 'वैदिक आर्य' बताते थे और कहते थे कि हिन्दू 'वैदिक आर्यों' का सबसेट (subset) है क्योंकि हिन्दू बाद में हुए और आर्य अनंत काल से थे| और इसका प्रमाण है भगवद गीता, रामायण और महाभारत की मूल-प्रतियों में हिन्दू शब्द का कहीं वर्णन ना होना| इसलिए हिन्दू शब्द वैदिक आर्यन काल के बाद सम्भवत: बोद्ध काल की कृति है|) लेकिन फिर भी वर्ण-व्यस्था में इनको क्षत्रिय सुनता आया हूँ| तो जहां इनके समकक्ष अन्य क्षत्रिय जातियां ब्राहम्णों के सुझावों, परामर्शों, निर्देशों, उपदेशों को बिना किसी तर्क-वितर्क और प्रतिरोध के स्वीकार करती आई, वहीँ जाटों ने हर बार अपनी जांचने, परखने और विश्लेषण शक्ति पर परख कर ही अच्छे-बुरे का चयन किया और अंध-भक्ति से हमेशा तटस्थ रहे|
जिस तरह हर जाति-समाज में अच्छे-बुरे दोनों पक्ष होते आये हैं, ऐसे ही जाटों ने जब स्वामी दयानद जी (जो कि जाति से एक ब्राह्मण थे) का दिया आर्य-समाज सिद्धांत पाखंडो और आडम्बरों से रहित लगा तो सबसे ज्यादा गले लगाया (अगर कोई यह मानता हो कि जाट ब्राह्मिणों से घृणा करते हैं इसलिए उनको एंटी-ब्राह्मण कहा जाता है तो वह अपना यह पक्ष दुरुस्त कर ले और देखे कि एक ब्राह्मण के ही दिए आर्य-समाज के सिद्दांत को जाटों ने कैसे सर-धार्य किया|) और हरियाणा (जिसके वास्तविक स्वरूप में आज का हरियाणा + दिल्ली + पश्चिमी उत्तर प्रदेश + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान आते हैं, इसको आप खापलैंड भी बोल सकते हैं) को ऐसी धरती बनाया कि जहां देश के कौने-कौने से साधू-तपस्वी आर्यसमाज की दीक्षा लेने आते रहे (जिनमें ताजा उदाहरण टीम अन्ना में रहे स्वामी अग्निवेश हैं जो मूलत: छतीसगढ़ के हैं लेकिन इन्होनें हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया) और जिस-जिस बात में खोट लगा उसका दुर्विरोध किया|
और क्योंकि यह आलोचना से ले विश्लेषण की दुर्लभ क्षमता और फिर इस क्षमता के बल पे सामने वाले को थोबने की क्षमता ब्राह्मिणों के बाद जाटों के पास थी और जिस तरह विज्ञान के सम-पोल की थ्योरी (Theory of replusion of same poles) कहती है कि समान भाव वाले आवेशित पोल एक-दूसरे को अस्वीकार करते हैं तो ऐसे ही जाटों और ब्राह्मण के साथ हुआ और वो एक दूसरे को मनौवैज्ञानिक क्षमता पर अस्वीकार करते रहे| जिसका फायदा इन दोनों जातियों में दूरियां बढ़ाने वालों ने उठाया और प्रचार किया जाने लगा कि जाट तो एंटी-ब्राह्मण हैं| जो कि विज्ञान के आधार पर देखो तो सत्य भी है परन्तु तार्किक क्षमता पर सबसे बड़ी समानता है| लेकिन लोग बजाये यह देखने के कि यह प्रचार किस आधार पर है इसमें दूर हटने की हीं भावना ज्यादा ढूँढ़ते हैं|
हालंकि स्वस्थ कम्पीटिशन और अस्वीकार्यता तो समाज में अनिवार्य भी है लेकिन वह दुर्भावना में तब तब्दील होनी शुरू हो जाती है जब उसको सिद्ध करने को गलत रास्ते अपनाये जाते हैं| जैसे कि 1931 में लाहौर कोर्ट की एक न्यायप्रति में ब्राह्मिणों द्वारा जाटों को शुद्र करार करवा देना, और यह करार करवाया गया ब्राह्मिणों में विदयमान स्वामी दयानंद के विरोधियों द्वारा| क्योंकि वो सोचने लगे थे कि जब से स्वामी दयानंद हुए हैं, जाटों ने आर्यसमाज को शिखर पर पहुंचा दिया है| सो इससे वो डर गए कि एक तो जाट पहले से ही उनके आलोचक रहे हैं और ऐसे में अगर इनका असर दूसरी जातियों पर पड़ गया तो हम तो भूखे मर जायेंगे| इसलिए दूसरी जातियों को जाटों और स्वामी दयानंद के प्रभाव से हटाने के लिए और जाटों को आर्यसमाज की राह पर चलने से रोकने हेतु हतोत्साहित करने के लिए उनको लाहौर कोर्ट से शुद्र ठहरवा दिया| जबकि धरातलीय सच्चाई यह थी कि एक ब्राह्मण स्वामी दयानंद की प्रसिद्धि दूसरे ब्राह्मण वर्ग को पसंद नहीं आई|
यहाँ शुद्र ठहरवाने के पीछे एक वजह सर छोटूराम जी (जो कि जाट समाज के मसीहा थे) द्वारा खुद को खुलेआम ‘हिन्दू’ ना बता ‘वैदिक आर्य’ बताना भी बताई जाती है, जिसका कि मैंने ऊपर उल्लेख किया| और ऐसे ही दावे चचनामा में लिखवा दिए गए जबकि चचनामा का सत्य यह था कि राजा दाहिर (एक ब्राह्मण) ने एक जाट-राजा (जिसके दरबार में दाहिर उच्च पद पर होते थे) को गद्दी से उतार राज्य हथियाया था|
अत: जाटों को एंटी-ब्राह्मण कहना उनकी योग्यता का सूचक है ना कि अपमान का| ठीक वैसी ही योग्यता जिससे विद्वेष के चलते एक कर्मचारी अपने बॉस के आगे अपनी छवि बनाने या तरक्की पाने हेतु अपने समकक्ष काबिल सहकर्मी को नीचे से नीचा दिखाने की कोशिश करता है| तो यह है जाटों को एंटी-ब्राह्मण कहने की वजह| अब आता हूँ कि आज जाटों का ब्राह्मिणवाद खतरे में क्यों है पर|
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मुज़फ्फरनगर के बिडगे माहौल ने खड़े किये बहुत से सवाल|
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1) ब्राह्मिणवाद क्या है?
2) जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं?
3) मुज़फ्फरनगर की बिसात और जाट
4) संधि-सौहार्द और सम्बन्ध के जाटों के ब्राह्मण रुपी गुण के मुज़फ्फरनगर में हुए विच्छेद का सबसे ज्यादा नुकसान किसको?
5) सम्बन्ध-सौहार्द रुपी जाटों के ब्राहम्णवाद के स्थाई रास्ते तलाशने ही होंगे
बचपन से ले के आजतक की उम्र में बहुत से ऐसे मौके, मोड़ और मुद्दे मिले जब सुनने में आता रहा कि जाट एंटी-ब्राह्मिण होते हैं| सबसे पहले मैंने जो मेरे अनुभव और विद्या से सीखा है उसके अनुसार ब्राह्मिणवाद क्या है वो बताऊंगा, फिर जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं वो और फिर उस समस्या का व्याखान जिसकी वजह से यह लेख लिखा|
1) ब्राह्मिणवाद क्या है: वास्तविक ब्राह्मिणवाद है, ‘इंसान को भगवान से प्राप्त जन्मजात गुण के हिसाब से कर्म करने देना, ना कि समाज द्वारा निर्धारित उसके वर्ण-कुल के अनुसार उसको कर्म करने को बाध्य करना’| जैसे कि नाचने-गाने के क्षेत्र जिसको कि हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के तहत शुद्र श्रेणी में रखा गया है, बावजूद इसके बालीवुड में ब्राह्मण सितारों की भरमार होना और वो भी शीर्ष हैसियतों में जैसे कि अमिताभ बच्चन, हेमा-मालिनी, श्री-देवी, माधुरी दीक्षित, संजय दत्त, सुनील दत्त आदि, हरियाणा के कला क्षेत्र में भी दादा लख्मीचंद, पंडित मांगेराम से ले श्री दीपचंद ब्राह्मण हुए जिन्होनें यहाँ के स्थानीय सांग-कला के क्षेत्र पर अपना वर्चस्व जमाया| हालाँकि जाटों में ‘धर्मेन्द्र दयोल परिवार व् अन्य’ बालीवुड में और कवि जाट मेहर सिंह हरियाणा के सांग और कला के क्षेत्र में इनके समकक्ष नाम हैं|
ऐसे ही खेलों का क्षेत्र वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षत्रियों के सुपुर्द रहा, लेकिन क्रिकेट जैसे कुछ ऐसे खेल हैं जहां सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली व् सुनील गावस्कर जैसे सर्वोत्तम ख्याति प्राप्त खिलाड़ी ब्राह्मिण हैं| हालंकि क्रिकेट में समकक्षता के साथ-साथ कुश्ती, कबड्डी, बॉक्सिंग जैसे खेलों में जाटों का वर्चस्व कायम है|
चाणक्य के बाद राज और राजनीति जो कि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षत्रियों का क्षेत्र होता था उसमें भी ब्राहम्णों ने अपना वर्चस्व सिद्ध किया और देश की आज़ादी के बाद तो चौधरी चरण सिंह और श्री मनमोहन सिंह जैसे कुछ नेताओं को हटा दें तो तमाम प्रधानमंत्री ब्राह्मण हुए हैं|
हाँ व्यापार यानी वर्णव्यवस्था की चौथी इकाई ‘वैश्य’ क्षेत्र में ब्राह्मिनों को अपना वर्चस्व सिद्ध करना अभी बाकी है| वैश्य क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जहां जाट ब्राहम्णों से आगे हैं| 2008 की फ़ोर्ब्स मैगज़ीन (FORBES) ने लक्ष्मी मित्तल व् अम्बानी परिवार के साथ DLF के कुशलपाल सिंह को टॉप दस में वरीयता दी, जो कि इस सूची में पहुँचने वाले अकेले गैर-बनिया है|
संधि और मैत्री का क्षेत्र भी ऐसा क्षेत्र रहा जहां भारत में ब्राह्मण सबसे आगे रहे| फिर उसमें चाहे मुगलों का दौर रहा हो या अंग्रेजों का, उन विपरीत परिस्थितियों में भी सबसे ज्यादा मैत्री और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध इन्होनें स्थापित किये| हालाँकि जाट यहाँ भी बराबर खड़े थे, जैसे कि सर छोटूराम, भरतपुर रियासत, जाट रेजिमेंट और 1857 के बहादुरशाह जफ़र के प्रस्ताव के बाद खापें| और खापों का यह मैत्रीपूर्ण सौहार्द तो अभी 7 सितंबर 2013 तक भी बिना किसी खटास के मुस्लिमों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जारी था| और सच कहूं तो इसी सौहार्द के टूटने का दर्द है जिसने मुझे यह लेख लिखने को मजबूर किया कहो या प्रेरित, किया|
यह व्याख्या यहाँ कोई तुलनात्मकता पैदा करने हेतु नहीं अपितु यह समझने हेतु प्रस्तुत की गई है कि वास्तव में ब्राहम्णवाद क्या है| तो वास्तव में ब्राह्मिणवाद वो है ही नहीं जिसके अनुसार समाज यह समझ लेता है कि हमें किसी नई या प्राचीन वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ही कर्म करने का अधिकार है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो फिर एक ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मण के ही कर्म करता, ना कि वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से शुद्र वाले कार्य करने वाली बालीवुड में जा के महानायक बनता, या क्षत्रियों वाले खेलजगत में जा के क्रिकेट का सरताज बनता, या राजनीती में जा के देश का प्रधानमंत्री बनता|
अगर इसके मूल-रूप को देखो और इसको सर्वसमाज में समानता से लागू करो तो ब्राह्मिणवाद से बढ़िया कोई चीज नहीं, परन्तु इस व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता यह रही कि ब्राह्मण समाज ने इसे अपने अंदर तो इसी मूल रूप में लागू किया और वर्ण से बाहर जा कर भी प्रतिभा साबित करते रहे; लेकिन दूसरे वर्णों पर इसकी बाध्यता नजर आई और वर्ण से बाहर जाने पर कार्य का अधिकार सम्पूर्ण रूप से लागू नहीं हुआ, जिसके कि इतिहास और वर्तमान तक में अनगिनत उदाहरण देखे जा सकते हैं|
2) जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं: क्योंकि इसके अंदर जांचने, परखने, आलोचनात्मकता और विश्लेषण करने की निर्भीक क्षमता होती है| आलोचना करने की इसकी क्षमता पे तो कहा भी गया है कि "छिका हुआ जाट राजा के हाथी को भी गधा बता दे|" और, वैसे तो यह बड़ा ही विवादित रहा है कि जाट हिन्दू हैं या वैदिक आर्य (क्योंकि सर छोटूराम जी अपना धर्म 'हिन्दू' नहीं अपितु 'वैदिक आर्य' बताते थे और कहते थे कि हिन्दू 'वैदिक आर्यों' का सबसेट (subset) है क्योंकि हिन्दू बाद में हुए और आर्य अनंत काल से थे| और इसका प्रमाण है भगवद गीता, रामायण और महाभारत की मूल-प्रतियों में हिन्दू शब्द का कहीं वर्णन ना होना| इसलिए हिन्दू शब्द वैदिक आर्यन काल के बाद सम्भवत: बोद्ध काल की कृति है|) लेकिन फिर भी वर्ण-व्यस्था में इनको क्षत्रिय सुनता आया हूँ| तो जहां इनके समकक्ष अन्य क्षत्रिय जातियां ब्राहम्णों के सुझावों, परामर्शों, निर्देशों, उपदेशों को बिना किसी तर्क-वितर्क और प्रतिरोध के स्वीकार करती आई, वहीँ जाटों ने हर बार अपनी जांचने, परखने और विश्लेषण शक्ति पर परख कर ही अच्छे-बुरे का चयन किया और अंध-भक्ति से हमेशा तटस्थ रहे|
जिस तरह हर जाति-समाज में अच्छे-बुरे दोनों पक्ष होते आये हैं, ऐसे ही जाटों ने जब स्वामी दयानद जी (जो कि जाति से एक ब्राह्मण थे) का दिया आर्य-समाज सिद्धांत पाखंडो और आडम्बरों से रहित लगा तो सबसे ज्यादा गले लगाया (अगर कोई यह मानता हो कि जाट ब्राह्मिणों से घृणा करते हैं इसलिए उनको एंटी-ब्राह्मण कहा जाता है तो वह अपना यह पक्ष दुरुस्त कर ले और देखे कि एक ब्राह्मण के ही दिए आर्य-समाज के सिद्दांत को जाटों ने कैसे सर-धार्य किया|) और हरियाणा (जिसके वास्तविक स्वरूप में आज का हरियाणा + दिल्ली + पश्चिमी उत्तर प्रदेश + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान आते हैं, इसको आप खापलैंड भी बोल सकते हैं) को ऐसी धरती बनाया कि जहां देश के कौने-कौने से साधू-तपस्वी आर्यसमाज की दीक्षा लेने आते रहे (जिनमें ताजा उदाहरण टीम अन्ना में रहे स्वामी अग्निवेश हैं जो मूलत: छतीसगढ़ के हैं लेकिन इन्होनें हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया) और जिस-जिस बात में खोट लगा उसका दुर्विरोध किया|
और क्योंकि यह आलोचना से ले विश्लेषण की दुर्लभ क्षमता और फिर इस क्षमता के बल पे सामने वाले को थोबने की क्षमता ब्राह्मिणों के बाद जाटों के पास थी और जिस तरह विज्ञान के सम-पोल की थ्योरी (Theory of replusion of same poles) कहती है कि समान भाव वाले आवेशित पोल एक-दूसरे को अस्वीकार करते हैं तो ऐसे ही जाटों और ब्राह्मण के साथ हुआ और वो एक दूसरे को मनौवैज्ञानिक क्षमता पर अस्वीकार करते रहे| जिसका फायदा इन दोनों जातियों में दूरियां बढ़ाने वालों ने उठाया और प्रचार किया जाने लगा कि जाट तो एंटी-ब्राह्मण हैं| जो कि विज्ञान के आधार पर देखो तो सत्य भी है परन्तु तार्किक क्षमता पर सबसे बड़ी समानता है| लेकिन लोग बजाये यह देखने के कि यह प्रचार किस आधार पर है इसमें दूर हटने की हीं भावना ज्यादा ढूँढ़ते हैं|
हालंकि स्वस्थ कम्पीटिशन और अस्वीकार्यता तो समाज में अनिवार्य भी है लेकिन वह दुर्भावना में तब तब्दील होनी शुरू हो जाती है जब उसको सिद्ध करने को गलत रास्ते अपनाये जाते हैं| जैसे कि 1931 में लाहौर कोर्ट की एक न्यायप्रति में ब्राह्मिणों द्वारा जाटों को शुद्र करार करवा देना, और यह करार करवाया गया ब्राह्मिणों में विदयमान स्वामी दयानंद के विरोधियों द्वारा| क्योंकि वो सोचने लगे थे कि जब से स्वामी दयानंद हुए हैं, जाटों ने आर्यसमाज को शिखर पर पहुंचा दिया है| सो इससे वो डर गए कि एक तो जाट पहले से ही उनके आलोचक रहे हैं और ऐसे में अगर इनका असर दूसरी जातियों पर पड़ गया तो हम तो भूखे मर जायेंगे| इसलिए दूसरी जातियों को जाटों और स्वामी दयानंद के प्रभाव से हटाने के लिए और जाटों को आर्यसमाज की राह पर चलने से रोकने हेतु हतोत्साहित करने के लिए उनको लाहौर कोर्ट से शुद्र ठहरवा दिया| जबकि धरातलीय सच्चाई यह थी कि एक ब्राह्मण स्वामी दयानंद की प्रसिद्धि दूसरे ब्राह्मण वर्ग को पसंद नहीं आई|
यहाँ शुद्र ठहरवाने के पीछे एक वजह सर छोटूराम जी (जो कि जाट समाज के मसीहा थे) द्वारा खुद को खुलेआम ‘हिन्दू’ ना बता ‘वैदिक आर्य’ बताना भी बताई जाती है, जिसका कि मैंने ऊपर उल्लेख किया| और ऐसे ही दावे चचनामा में लिखवा दिए गए जबकि चचनामा का सत्य यह था कि राजा दाहिर (एक ब्राह्मण) ने एक जाट-राजा (जिसके दरबार में दाहिर उच्च पद पर होते थे) को गद्दी से उतार राज्य हथियाया था|
अत: जाटों को एंटी-ब्राह्मण कहना उनकी योग्यता का सूचक है ना कि अपमान का| ठीक वैसी ही योग्यता जिससे विद्वेष के चलते एक कर्मचारी अपने बॉस के आगे अपनी छवि बनाने या तरक्की पाने हेतु अपने समकक्ष काबिल सहकर्मी को नीचे से नीचा दिखाने की कोशिश करता है| तो यह है जाटों को एंटी-ब्राह्मण कहने की वजह| अब आता हूँ कि आज जाटों का ब्राह्मिणवाद खतरे में क्यों है पर|
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