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View Full Version : Prevention of Communal and Targeted Violence Bill 2013



DrRajpalSingh
December 17th, 2013, 09:52 AM
The 'Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Bill, 2013, was cleared by the Union Cabinet on Monday and is likely to be introduced in Parliament on Tuesday.
Your views, comments and opinion is solicited on how far this new bill would be able to handle the occurrence of communal riots and ensure access to justice and reparations to all affected citizens in future.

rajpaldular
December 17th, 2013, 03:34 PM
सोनिया गाँधी के "निजी मनोरंजन क्लब" यानी नेशनल एडवायज़री काउंसिल (nac) द्वारा ''सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा'' विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है, जिसके प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं-

1) कानून-व्यवस्था का मामला राज्य सरकार का है, लेकिन इस बिल के अनुसार यदि केन्द्र को "महसूस" होता है, तो वह साम्प्रदायिक दंगों की तीव्रता के अनुसार राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर सकता है और उसे
बर्खास्त कर सकता है… (इसका मोटा अर्थ यह है कि यदि 100-200 कांग्रेसी अथवा 100-50 जेहादी तत्व किसी राज्य में दंगा फ़ैला दें तो राज्य सरकार की बर्खास्तगी आसानी से की जा सकेगी)
2) इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार दंगा हमेशा "बहुसंख्यकों" द्वारा ही फ़ैलाया जाता है, जबकि "अल्पसंख्यक" हमेशा हिंसा का लक्ष्य होते हैं…
3) यदि दंगों के दौरान किसी "अल्पसंख्यक" महिला से बलात्कार होता है तो इस बिल में कड़े प्रावधान हैं, जबकि "बहुसंख्यक" वर्ग की महिला का बलात्कार होने की दशा में इस कानून में कुछ नहीं है…
4) किसी विशेष समुदाय (यानी अल्पसंख्यकों) के खिलाफ़ "घृणा अभियान" चलाना भी दण्डनीय अपराध है.. (फ़ेसबुक, ट्वीट और ब्लॉग भी शामिल)
5) "अल्पसंख्यक समुदाय" के किसी सदस्य को इस कानून के तहत सजा नहीं दी जा सकती. यदि उसने बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के खिलाफ़ दंगा अपराध किया है (क्योंकि कानून में पहले ही मान लिया गया है कि सिर्फ़
"बहुसंख्यक समुदाय" ही हिंसक और आक्रामक होता है, जबकि अल्पसंख्यक
तो अपनी आत्मरक्षा कर रहा है)
इस विधेयक के तमाम बिन्दुओं का ड्राफ़्ट तैयार किया है, सोनिया गाँधी की "किचन कैबिनेट" के सुपर-सेकुलर सदस्यों एवं अण्णा को कठपुतली बनाकर नचाने वाले ias व ngo गैंग के टट्टुओं ने…
इस बिल की ड्राफ़्टिंग कमेटी के सदस्यों के नाम पढ़कर ही आप समझ जाएंगे कि यह बिल "क्यों", "किसलिये" और "किसको लक्ष्य बनाकर" तैयार किया गया है…। "माननीय"(?) सदस्यों के नाम इस प्रकार हैं -
१. सैयद शहबुदीन
२. हर्ष मंदर
३. अनु आगा
४. माजा दारूवाला
५. अबुसलेह शरिफ्फ़
६. असगर अली इंजिनियर
७. नाजमी वजीरी
८. पी आई जोसे
९. तीस्ता जावेद सेतलवाड
१०. एच .एस फुल्का
११. जॉन दयाल
१२. जस्टिस होस्बेट सुरेश
१३. कमल फारुखी
१४. मंज़ूर आलम
१५. मौलाना निअज़ फारुखी
१६. राम पुनियानी
१७. रूपरेखा वर्मा
१८. समर सिंह
१९. सौमया उमा
२०. शबनम हाश्मी
२१. सिस्टर मारी स्कारिया
२२. सुखदो थोरात
२३. सैयद शहाबुद्दीन
२४. फरह नकवी

rajpaldular
December 17th, 2013, 03:39 PM
वोट आपका रहेगा परन्तु भारत पर राज अल्प संख्यक वोट बैंक का चलेगा।


हिंदुओं की सरकार क्यों नहीं सुनती?


हिन्दू अपनी समस्याओं को रखने के लिए जंतर - मंतर से आगे नहीं जाता।

और अल्पसंख्यक देश के राज-तन्त्र में घुस कर सीधे अपने कानून बनवाते हैं।

जैसे कि सविधान की धारा 30, धारा 370, सच्चर कमिशन और रंग नाथ कमीशन, आसाम का नागरिकता कानून
जम्मू कश्मीर का सविंधान।

और अब आ रहा है "हिन्दू कम्युनिटी टारगेट एंड वायलेंस बिल।"

वोट आपका रहेगा किन्तु भारत पर राज अल्प संख्यक वोट बैंक का चलेगा।

rajpaldular
December 17th, 2013, 03:52 PM
'सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक' हिन्दुओं को बहुसंख्यक होने की सजा

दो साल से लापता किये गए 'सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक' को चुनाव आते ही मुसलमानों को खुश करने के लिए पुन: संसद में रखा जाने वाला है। शासकीय जिम्मेदारी उठाए वरिष्ठ कांग्रेस नेता इसे 'अल्पसंख्यकों' के हित में बता रहे हैं । उनकी बात से साफ़ झलकता है कि मानो सांप्रदायिक हिंसा के शिकार केवल अल्पसंख्यक यानी मुसलमान ही होते हैं। यही सेकुलर सोच इस विधेयक में भी है।
यह इस देश के लिए विडम्बना है कि यहाँ सिर्फ मुसलामानों की ही चिंता की जाती है बहुसंख्यक होने की सजा अनेक हिन्दू विरोधी योजनायें,कानून बनाकर हिन्दुओं को दी जा रही है. सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर यह ऐसे कानून का प्रस्ताव है जो किसी सांप्रदायिक हिंसा के लिए सदैव 'बहुसंख्यकों' या हिंदुओं को दोषी मानकर चलेगा। यह कानून बन जाने पर किसी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी किसी भी हिंदू को गिरफ्तार किया जा सकता है. यदि शिकायत सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की हो। मगर ऐसी शिकायत किसी 'अल्पसंख्यक' के विरुद्ध लागू नहीं होगी। अत: आरंभ से ही किसी हिंदू को ही दोषी मानकर चला जाएगा। उसकी कोई टीका-टिप्पणी भी सांप्रदायिक हिंसा उकसाने जैसी बात मानी जाएगी, जो दंडनीय होगा। इस प्रकार प्रस्तावित कानून स्थायी रूप से हिंदुओं के मुंह पर सदा के लिए ताला लगा देगा। इस कानून के बन जाने के बाद हिन्दू समाज मुसलमानों के बीच भयग्रस्त होकर जीवन भर घुट घुट कर मरता रहेगा. जब भी वह अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाएगा यह कानून उसे हमेशा के लिए जकड़कर जेल की सलाखों में भेज देगा.

इस विधेयक के अनुसार देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाला एक सर्वोच्च प्राधिकरण होगा। यह प्राधिकरण सांप्रदायिक हिंसा रोकने में विफलता आदि के लिए राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर सकेगा। इस प्राधिकरण में 'अल्पसंख्यक' अधिक संख्या में रखे जाएंगे, क्योंकि विधेयक की स्थायी मान्यता है कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक हिंसा निरपवाद रूप से बहुसंख्यक ही करेंगे। अत: किसी सांप्रदायिक मामले की जांच तथा निर्णय करने वाली इस अथॉरिटी में गैर-हिंदू ही निर्णायक संख्या में होने चाहिए। इसमें यह कल्पना है कि हिंदू तो हिंदू दंगाई के लिए पक्षपात करेगा, किंतु गैर-हिंदू पक्षपात नहीं कर सकता।

नि:संदेह स्वतंत्र भारत में सामुदायिक भेदभाव के आधार पर बनने वाला यह सबसे विचित्र कानून होगा। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा भयंकर मजाक कौन लोग कर रहे हैं? क्या उन्हें भारत में सांप्रदायिक दंगों और हिंसा का इतिहास पता भी है? राष्ट्रीय एकता परिषद में प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन 1968 से 1970 के बीच हुए 24 दंगों में 23 दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए थे। उसके बाद से आज तक हुई सांप्रदायिक हिंसा की भी लगभग वही तस्वीर है। गोधरा से लेकर मऊ और उदालगिरि से लेकर मराड तक ऐसी हिंसा क्या बहुसंख्यक समुदाय ने आरंभ की? और पीछे चलें, तो अलीगढ़ दंगे , जमशेदपुर (1979), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1982), भागलपुर (1989), बंबई (1992-93) भी किसने शुरू किए थे? यह बुनियादी सच्चाई न केवल हर कहीं स्थानीय जनता जानती है, बल्कि जांच आयोगों की रिपोर्टो में भी दर्ज है। जस्टिस जितेंद्र नारायण आयोग (जमशेदपुर दंगा), जस्टिस आरएन प्रसाद आयोग (भागलपुर दंगा) की रिपोर्टो में क्या पाया गया था?

कड़वी सच्चाई यह है कि हर बार यहां बहुसंख्यक समाज को सांप्रदायिक हिंसा का भयानक दंश झेलना पड़ता है। यही स्वतंत्रता-पूर्व भी होता था। तुर्की में खलीफत खत्म होने (1921) पर यहां मोपला तथा अनगिनत स्थानों पर हिंदुओं को मारा गया। वह सब बार-बार देखकर महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को भी कहना पड़ा कि एक वर्ग स्वभाव से ही आक्रामक होता है। सांप्रदायिक हिंसा के संबंध में यह समकालीन सच्चाई गांधी ही नहीं, बंकिमचंद्र, श्रीअरविंद, एनी बेसेंट, रवींद्रनाथ टैगोर, बाबा साहेब अंबेडकर जैसे अनेकानेक मनीषी नोट कर चुके हैं। यदि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की सच्ची चिंता हो तब पहले देश में हुए प्रत्येक दंगे और हिंसा की पूरी जानकारी जनता के सामने रखी जाए। यह गिना जाए कि एक-एक दंगे की शुरुआत कैसे हुई, किसने की। तब स्वत: तय हो जाएगा कि समुदाय के आधार पर आगामी हिंसा से सुरक्षा किसको चाहिए? सच यह है कि कथित बहुसंख्यक होते हुए भी हिंदुओं का ही पीड़ित, शासित होना एक स्थायी स्थिति है। गांधी ने उसी को अपनी तरह से कहा था। ब्रिटिश शासन में भी कथित अल्पसंख्यक ही भारत के बहुसंख्यकों के उत्पीड़क थे। स्वतंत्रता पूर्व भारत में सांप्रदायिक दंगों का पूरा इतिहास इसकी अकाट्य गवाही है। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया' में अनगिनत दंगों का विस्तृत उल्लेख किया है। इसके अध्याय 7 से 12 तक पढ़कर स्वत: स्पष्ट हो जाएगा कि भारत में समुदाय के आधार पर कौन उत्पीड़क और कौन उत्पीड़ित रहा है।

स्वतंत्रता-पूर्व भारत के दंगे खुले तौर पर एकतरफा होते थे, जिनका मतलब ही था बहुसंख्यकों का संहार। यहां तक कि जिन्ना ने इस तथ्य का उपयोग भारत-विभाजन की मांग मनवाने के लिए भी किया था कि यदि पाकिस्तान की मांग न मानी गई तो मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन' (कलकत्ता, 1946) जैसा सामूहिक संहार और किया जाएगा। जिन्ना के अपने शब्दों में, अब हिंदुओं का भी हित इसी में है कि वे पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर लें, चाहे तो केवल हिंदुओं को कत्लेआम और विनाश से बचाने के लिए ही। क्या ऐसे अहंकारी बयान स्वयं नहीं बताते कि सामुदायिक बल पर हिंसा कौन करता और कौन झेलता है? जवाहरलाल नेहरू ने भी मुस्लिम लीग की पहचान यही बताई थी कि वह 'सड़कों पर हिंदू-विरोधी हिंसा करने के सिवा और कुछ नहीं करती'। विभाजन से पहले भारत में सांप्रदायिक दंगों के पीड़ित समुदाय का एक ही अर्थ था-बेचारे हिंदू! मगर विभाजन के बाद के भारत में भी स्थिति मूलत: नहीं बदली। कश्मीर से पूर्णत: और असम, केरल के कई इलाकों से अंशत: केवल हिंदू ही मार भगाए गए। अभी भारत में असंख्य ऐसे इलाके और बस्तियां हैं जहां पुलिस तक जाने से डरती है। इनमें कोई हिंदू बस्ती नहीं।

मुस्लिम वोटों के लिए हो रही ये सेकुलर साजिश को रोकने के लिए हिन्दू समाज को बहुत बड़े पैमाने पर विरोध के लिए आगे आना होगा .यह ये हिन्दू समाज की अस्तित्व लड़ाई है. सच कहें तो ओरंगजेब के बाद यह हिन्दुओं के खिलाफ सबसे बड़ी खुली साजिश है.(Sunil Anuragi)


(https://www.facebook.com/sanuragi/posts/557363884347689#)

rajpaldular
December 17th, 2013, 04:02 PM
राजनीतिक जजिया की तैयारी

प्रस्तावित ‘सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक (न्याय और क्षतिपूर्ति मिलने) विधेयक, 2011’ खुले तौर पर बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समुदायिक आधार पर बनाया गया है। सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर यह एक ऐसे कानून का प्रस्ताव है, जो किसी आगामी सांप्रदायिक हिंसा के लिए सदैव हिंदुओं को दोषी मानकर चलता है। किसी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी कोई हिन्दू गिरफ्तार होगा, यदि शिकायत सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की हो। ऐसी शिकायत किसी ‘अल्पसंख्यक’ पर लागू नहीं होगी। अतः आरंभ से ही किसी हिन्दू के दोषी होने की संभावना मानकर चली जाएगी। उसकी कोई टीका-टिप्पणी भी सांप्रदायिक हिंसा उकसाने जैसी बात मानी जाएगी। अर्थात् प्रस्तावित कानून स्थाई रूप से हिन्दुओं के मुँह पर सदा के लिए ताला लगा देगा।
यह कानून वर्तमान न्याय दर्शन के भी विपरीत होगा। यह दर्शन मानता है कि जब तक किसी का अपराध साबित न हो, उसे निर्दोष समझना चाहिए। प्रस्तावित कानून मानेगा कि हर हिन्दू सांप्रदायिक हिंसा का दोषी है, जब तक कि वह स्वयं को निर्दोष न साबित कर ले। किंतु यही मान्यता अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं होगी। क्योंकि प्रस्तावित कानून केवल उन्हें ही सांप्रदायिक हिंसा का पीड़ित मानकर चलता है।
तदनुरूप देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाली एक विशेष अथॉरिटी होगी। यह अथॉरिटी सांप्रदायिक हिंसा रोकने में विफलता आदि नाम पर राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर सकेगी। इस अथॉरिटी में ‘अल्पसंख्यकों’ अधिक संख्या में रखे जाएंगे। क्योंकि यह कानून स्थाई रूप से मानेगा कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक हिंसा निरपवाद रूप से हिन्दू ही करेंगे। अतः किसी सांप्रदायिक घटना की जाँच, विचार, तथा निर्णय करने वाली इस सुपर अथॉरिटी में गैर-हिन्दू ही निर्णायक संख्या में होने चाहिए। इसमें यह मान्यता निहित है कि हिन्दू तो हिन्दू दंगाई के लिए पक्षपात करेगा, किन्तु गैर-हिन्दू पक्षपात नहीं कर सकता!--शंकर शरण
http://www.pravakta.com/political-jizya-preparation

DrRajpalSingh
December 18th, 2013, 11:03 AM
To understand the full implications of the new bill, read 'Bill to contain riots' editorial in The Tribune Chandigarh 18 December 2013 page 14 or log

www.tribuneindia.com (http://www.tribuneindia.com)

http://www.tribuneindia.com/2013/20131218/edit.htm#1

swaich
December 18th, 2013, 12:44 PM
To understand the full implications of the new bill, read 'Bill to contain riots' editorial in The Tribune Chandigarh 18 December 2013 page 14 or log

www.tribuneindia.com (http://www.tribuneindia.com)

http://www.tribuneindia.com/2013/20131218/edit.htm#1

Thanks for sharing the link. Very incisively written editorial. Here's the full text.

THE original communal violence Bill was opposed mainly on two counts. The BJP criticised it for being against the majority community, while the chief ministers of Tamil Nadu, Odisha and West Bengal objected to its anti-federal provisions. The Congress is keen to get the Bill passed, even if diluted significantly, with an eye on elections. In the watered down version the Bill has become less effective than what was proposed by Sonia Gandhi-led National Advisory Council.

Initially, the Bill put the onus of riots on the majority community. Now it is community neutral. The earlier Bill allowed the Centre to send its forces to the riot-hit areas. Now its role has been limited to coordination and the responsibility for controlling communal violence stays with the states.

Communal riots, it has been seen, do not happen; these are engineered. The government becomes a silent spectator or a facilitator, depending on the political goals of the ruling party. It is usually the minority community which is "taught a lesson". The riots of 1984 targeting Sikhs and those against Muslims in Gujarat and more recently in Muzaffarnagar illustrate this. Law and order is a state subject. What if the state government either instigates riots or looks the other way as mobs go on the rampage? The Centre has the power to dismiss a state government on account of the failure of constitutional machinery. What if the same party rules in the state and at the Centre?

The original Bill did try to address some of these concerns. In the reworked Bill all is still not lost. It makes bureaucrats accountable for any acts of omission and commission while dealing with communal riots. A district magistrate can be held responsible for the outbreak of and failure to contain communal fire. He has the power to call in the Army if the situation so warrants. He can refuse to obey unlawful orders of his superiors and politicians at the helm. The civil servants can handle any situation if they do their duty and do not join hands with the trouble-makers.

RajatSingh
December 18th, 2013, 01:02 PM
History utha k dekhe to communal voilence ko shuru bjp ne kiya hie...

Advani,modi jiase neta log desh ko todne mie luge hue hien..

Bjp ne ti shuruat hi ayodhya mandir drame se ki thi....

swaich
December 19th, 2013, 12:44 PM
History utha k dekhe to communal voilence ko shuru bjp ne kiya hie...

Advani,modi jiase neta log desh ko todne mie luge hue hien..

Bjp ne ti shuruat hi ayodhya mandir drame se ki thi....

Not necessarily. Just one party or one community cannot be held responsible for all communal riots.

In case of Babri, Rajiv Gandhi began his campaign in the 1991 elections from Ayodhya to wrest the Hindu vote from BJP which was engaged in Rath Yatras. When thousands congregated at Ayodhya and senior BJP leaders gave rabble rousing speeches, it was the Congress govt. under Narasimha Rao that kept sitting on its backsides and didn't use central forces in spite of intelligence warnings. They did dismiss the Kalyan Singh govt in UP later, but the damaged had been done and Indian society still hasn't recovered from it.

And the less said of Congress' involvement in the 1984 riots, the better.