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View Full Version : सैम बहादुर



sanjeev_balyan
April 7th, 2014, 12:19 AM
उनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया. उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके नाती, उनके अफ़सर या उनके मातहत या तो उन्हें सैम कह कर पुकारते थे या "सैम बहादुर".

सैम को सबसे पहले शोहरत मिली साल 1942 में. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं.उनकी जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वीके सिंह ने बीबीसी को बताया, "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था."

जब मानेकशॉ घायल हुए थे तो आदेश दिया गया था कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती. लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया.

सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा. तब सूबेदार शेर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा था, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं. हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया. आप उनका इलाज करिए नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूंगा."

डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत.

साल 1946 में लेफ़्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को सेना मुख्यालय दिल्ली में तैनात किया गया. 1948 में जब वीपी मेनन कश्मीर का भारत में विलय कराने के लिए महाराजा हरि सिंह से बात करने श्रीनगर गए तो सैम मानेकशॉ भी उनके साथ थे.

1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई. पद संभालते ही सैम ने सीमा पर तैनात सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था, "आज के बाद आप में से कोई भी जब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते. ध्यान रखिए यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा."

उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं.

सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेकशॉ– द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे."

शरारती सैमसैम मानेक शॉ
सार्वजनिक जीवन में हँसी मज़ाक के लिए मशहूर सैम अपने निजी जीवन में भी उतने ही अनौपचारिक और हंसोड़ थे.

उनकी बेटी माया दारूवाला ने बीबीसी को बताया, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह. हमारे साथ शरारत करते थे. हमें बहुत परेशान करते थे. कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट. जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं."

रक्षा सचिव से भिड़ंत
शरारतें करने की उनकी यह अदा, उन्हें लोकप्रिय बनाती थीं लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी तो सैम कोई समझौता नहीं करते थे.
उनके मिलिट्री असिस्टेंट रहे लेफ़्टिनेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार सेना मुख्यालय में एक बैठक हो रही थी. रक्षा सचिव हरीश सरीन भी वहाँ मौजूद थे. उन्होंने वहां बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो. वह कर्नल उठने लगा. तभी सैम ने कमरे में प्रवेश किया. रक्षा सचिव की तरफ मुड़े और बोले, सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे. यह अफ़सर कर्नल है. यू देयर नहीं."

उस ज़माने के बहुत शक्तिशाली आईसीएस अफ़सर हरीश सरीन को उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी.

कपड़ों के शौकीनमानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था. अगर उन्हें कोई निमंत्रण मिलता था जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे.

दीपेंदर सिंह याद करते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊंगा. लेकिन वहां अचानक सैम पहुंच गए. मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो.लेकिन तुम इस "जंगली" के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"

सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था. एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे, उन्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा. वहां ब्रिगेडियर बहराम ने उन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की.

सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा,"इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो."

एक बार युगांडा के सेनाध्यक्ष इदी अमीन भारत के दौरे पर आए. उस समय तक वह वहां के राष्ट्रपति नहीं बने थे. उनकी यात्रा के आखिरी दिन अशोक होटल में सैम मानेकशॉ ने उनके सम्मान में भोज दिया, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें भारतीय सेना की वर्दी बहुत पसंद आई है और वो अपने साथ अपने नाप की 12 वर्दियां युगांडा ले जाना चाहेंगे.

सैम के आदेश पर रातोंरात कनॉट प्लेस की मशहूर दर्ज़ी की दुकान एडीज़ खुलवाई गई और करीब बारह दर्ज़ियों ने रात भर जाग कर इदी अमीन के लिए वर्दियां सिलीं.

सैम के ख़र्राटेसैम को खर्राटे लेने की आदत थी. उनकी बेटी माया दारूवाला कहती है कि उनकी मां सीलू और सैम कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे क्योंकि सैम ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लिया करते थे. एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए.

जब वह विदा लेने लगे तो सीलू ने कहा, "मेरा कमरा कहां है?"

रूसी अफ़सर परेशान हो गए. सैम ने स्थिति संभाली, असल में मैं ख़र्राटे लेता हूँ और मेरी बीवी को नींद न आने की बीमारी है. इसलिए हम लोग अलग-अलग कमरों में सोते हैं. यहां भी सैम की मज़ाक करने की आदत नहीं गई.

रूसी जनरल के कंधे पर हाथ रखते हुए उनके कान में फुसफुसा कर बोले, "आज तक जितनी भी औरतों को वह जानते हैं, किसी ने उनके ख़र्राटा लेने की शिकायत नहीं की है सिवाए इनके!"

1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी.

इंदिरा गांधी इससे नाराज़ भी हुईं. मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां."

इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए. मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी.

इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं. मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए. इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है. इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया."


पाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सीमा के कुछ इलाकों की अदलाबदली के बारे में बात करने सैम मानेकशॉ पाकिस्तान गए. उस समय जनरल टिक्का पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हुआ करते थे.

पाकिस्तान के कब्ज़े में भारतीय कश्मीर की चौकी थाकोचक थी जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था. जनरल एसके सिन्हा बताते है कि टिक्का ख़ां सैम से आठ साल जूनियर थे और उनका अंग्रेज़ी में भी हाथ थोड़ा तंग था क्योंकि वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे.

उन्होंने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस."

इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है. ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं. हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं."

सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए.

ललित नारायण मिश्रा के दोस्तबहुत कम लोगों को पता है कि सैम मानेकशॉ की इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के एक सदस्य ललित नारायण मिश्रा से बहुत गहरी दोस्ती थी.

सैम के मिलिट्री असिस्टेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, "एक शाम ललित नारायण मिश्रा अचानक मानेकशॉ के घर पहुंचे. उस समय दोनों मियां-बीवी घर पर नहीं थे. उन्होंने कार से एक बोरा उतारा और सीलू मानेकशॉ के पलंग के नीचे रखवा दिया और सैम को इसके बारे में बता दिया. सैम ने पूछा कि बोरे में क्या है तो ललित नारायण मिश्र ने जवाब दिया कि इसमें पार्टी के लिए इकट्ठा किए हुए रुपए हैं. सैम ने पूछा कि आपने उन्हें यहां क्यों रखा तो उनका जवाब था कि अगर इसे घर ले जाऊंगा तो मेरी पत्नी इसमें से कुछ पैसे निकाल लेगी. सीलू मानेकशॉ को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस बोरे में क्या है. कल आऊंगा और इसे वापस ले जाऊंगा."

दीपेंदर सिंह बताते हैं कि ललित नारायण मिश्रा को हमेशा इस बात का डर रहता था कि कोई उनकी बात सुन रहा है. इसलिए जब भी उन्हें सैम से कोई गुप्त बात करनी होती थी वह उसे कागज़ पर लिख कर करते थे और फिर कागज़ फाड़ दिया करते थे.


सैम की बेटी माया दारूवाला कहती हैं कि सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती हैं.

सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की. उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्ध बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था.

साल 1947 में मानेकशॉ और यहया ख़ां दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे. यहया ख़ां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी. वह इसे ख़रीदना चाहते थे लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे.

यहया ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को यहया ख़ां को बेचने के लिए तैयार हो गए. दाम लगाया गया 1,000 रुपए.

यहया मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे. सालों बीत गए लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया.

बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे. लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने यहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया. आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया."

SumitJattan
April 7th, 2014, 10:35 AM
If a man says he is not afraid of dying, he is either lying or is a Gurkha.

Great waords by Sam Bahadur for great warriors ..... I equate him with Gen Patton , Gen Abrams , Field Marshal Erwin Rommel. I am not afratd of saying that his stratigies were equvalent to Great Hannabal and Alexendar .

SumitJattan
April 7th, 2014, 11:01 AM
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swaich
April 7th, 2014, 12:56 PM
One of our best soldiers. Only him and Cariappa have had the honour of holding the rank of Field Marshal.

swaich
April 7th, 2014, 01:04 PM
If a man says he is not afraid of dying, he is either lying or is a Gurkha.

Great waords by Sam Bahadur for great warriors ..... I equate him with Gen Patton , Gen Abrams , Field Marshal Erwin Rommel. I am not afratd of saying that his stratigies were equvalent to Great Hannabal and Alexendar .

Indeed, he was a great soldier. But to be honest, to compare modern era generals with ancient ones like Hannibal or Alexander, is a disservice to both kinds. Different times, different resources and different tactics, my friend.

vicky84
April 7th, 2014, 03:18 PM
http://www.ndtv.com/article/india/remembering-sam-manekshaw-india-s-greatest-general-on-his-birth-centenary-503729


But Sam's larger-than-life image also earned him some enemies. For long, he was denied the benefits and status due to a Field Marshal. It was not until 2006-07 that President Abdul Kalam took the initiative and made sure the general got his full dues. But perhaps, it was too late by then. Sam was already in hospital. His wife's loss had left him weaker.

Shockingly, Sam Manekshaw was treated shabbily in his death too. Defence Minister AK Antony did not go for his funeral and neither did any of the military chiefs.

swaich
April 7th, 2014, 04:49 PM
http://www.ndtv.com/article/india/remembering-sam-manekshaw-india-s-greatest-general-on-his-birth-centenary-503729


But Sam's larger-than-life image also earned him some enemies. For long, he was denied the benefits and status due to a Field Marshal. It was not until 2006-07 that President Abdul Kalam took the initiative and made sure the general got his full dues. But perhaps, it was too late by then. Sam was already in hospital. His wife's loss had left him weaker.

Shockingly, Sam Manekshaw was treated shabbily in his death too. Defence Minister AK Antony did not go for his funeral and neither did any of the military chiefs.

Disappointing and shabby treatment for such a decorated war-hero. Perhaps his outspoken nature and tough principled stand didn't earn him friends among the civilian leadership.

Samarkadian
April 8th, 2014, 11:58 AM
Respect for the man.

Have interesting anecdotes of my grandfather and him interacting after 4th Jat soldiers and officers were released from Pakistan war priosner's camp.

Remembering such class of men makes you proud, inspires you completely.


उनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया. उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके नाती, उनके अफ़सर या उनके मातहत या तो उन्हें सैम कह कर पुकारते थे या "सैम बहादुर".

सैम को सबसे पहले शोहरत मिली साल 1942 में. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं.उनकी जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वीके सिंह ने बीबीसी को बताया, "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था."

जब मानेकशॉ घायल हुए थे तो आदेश दिया गया था कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती. लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया.

सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा. तब सूबेदार शेर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा था, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं. हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया. आप उनका इलाज करिए नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूंगा."

डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत.

साल 1946 में लेफ़्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को सेना मुख्यालय दिल्ली में तैनात किया गया. 1948 में जब वीपी मेनन कश्मीर का भारत में विलय कराने के लिए महाराजा हरि सिंह से बात करने श्रीनगर गए तो सैम मानेकशॉ भी उनके साथ थे.

1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई. पद संभालते ही सैम ने सीमा पर तैनात सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था, "आज के बाद आप में से कोई भी जब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते. ध्यान रखिए यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा."

उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं.

सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेकशॉ– द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे."

शरारती सैमसैम मानेक शॉ
सार्वजनिक जीवन में हँसी मज़ाक के लिए मशहूर सैम अपने निजी जीवन में भी उतने ही अनौपचारिक और हंसोड़ थे.

उनकी बेटी माया दारूवाला ने बीबीसी को बताया, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह. हमारे साथ शरारत करते थे. हमें बहुत परेशान करते थे. कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट. जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं."

रक्षा सचिव से भिड़ंत
शरारतें करने की उनकी यह अदा, उन्हें लोकप्रिय बनाती थीं लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी तो सैम कोई समझौता नहीं करते थे.
उनके मिलिट्री असिस्टेंट रहे लेफ़्टिनेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार सेना मुख्यालय में एक बैठक हो रही थी. रक्षा सचिव हरीश सरीन भी वहाँ मौजूद थे. उन्होंने वहां बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो. वह कर्नल उठने लगा. तभी सैम ने कमरे में प्रवेश किया. रक्षा सचिव की तरफ मुड़े और बोले, सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे. यह अफ़सर कर्नल है. यू देयर नहीं."

उस ज़माने के बहुत शक्तिशाली आईसीएस अफ़सर हरीश सरीन को उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी.

कपड़ों के शौकीनमानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था. अगर उन्हें कोई निमंत्रण मिलता था जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे.

दीपेंदर सिंह याद करते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊंगा. लेकिन वहां अचानक सैम पहुंच गए. मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो.लेकिन तुम इस "जंगली" के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"

सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था. एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे, उन्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा. वहां ब्रिगेडियर बहराम ने उन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की.

सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा,"इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो."

एक बार युगांडा के सेनाध्यक्ष इदी अमीन भारत के दौरे पर आए. उस समय तक वह वहां के राष्ट्रपति नहीं बने थे. उनकी यात्रा के आखिरी दिन अशोक होटल में सैम मानेकशॉ ने उनके सम्मान में भोज दिया, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें भारतीय सेना की वर्दी बहुत पसंद आई है और वो अपने साथ अपने नाप की 12 वर्दियां युगांडा ले जाना चाहेंगे.

सैम के आदेश पर रातोंरात कनॉट प्लेस की मशहूर दर्ज़ी की दुकान एडीज़ खुलवाई गई और करीब बारह दर्ज़ियों ने रात भर जाग कर इदी अमीन के लिए वर्दियां सिलीं.

सैम के ख़र्राटेसैम को खर्राटे लेने की आदत थी. उनकी बेटी माया दारूवाला कहती है कि उनकी मां सीलू और सैम कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे क्योंकि सैम ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लिया करते थे. एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए.

जब वह विदा लेने लगे तो सीलू ने कहा, "मेरा कमरा कहां है?"

रूसी अफ़सर परेशान हो गए. सैम ने स्थिति संभाली, असल में मैं ख़र्राटे लेता हूँ और मेरी बीवी को नींद न आने की बीमारी है. इसलिए हम लोग अलग-अलग कमरों में सोते हैं. यहां भी सैम की मज़ाक करने की आदत नहीं गई.

रूसी जनरल के कंधे पर हाथ रखते हुए उनके कान में फुसफुसा कर बोले, "आज तक जितनी भी औरतों को वह जानते हैं, किसी ने उनके ख़र्राटा लेने की शिकायत नहीं की है सिवाए इनके!"

1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी.

इंदिरा गांधी इससे नाराज़ भी हुईं. मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां."

इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए. मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी.

इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं. मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए. इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है. इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया."


पाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सीमा के कुछ इलाकों की अदलाबदली के बारे में बात करने सैम मानेकशॉ पाकिस्तान गए. उस समय जनरल टिक्का पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हुआ करते थे.

पाकिस्तान के कब्ज़े में भारतीय कश्मीर की चौकी थाकोचक थी जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था. जनरल एसके सिन्हा बताते है कि टिक्का ख़ां सैम से आठ साल जूनियर थे और उनका अंग्रेज़ी में भी हाथ थोड़ा तंग था क्योंकि वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे.

उन्होंने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस."

इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है. ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं. हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं."

सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए.

ललित नारायण मिश्रा के दोस्तबहुत कम लोगों को पता है कि सैम मानेकशॉ की इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के एक सदस्य ललित नारायण मिश्रा से बहुत गहरी दोस्ती थी.

सैम के मिलिट्री असिस्टेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, "एक शाम ललित नारायण मिश्रा अचानक मानेकशॉ के घर पहुंचे. उस समय दोनों मियां-बीवी घर पर नहीं थे. उन्होंने कार से एक बोरा उतारा और सीलू मानेकशॉ के पलंग के नीचे रखवा दिया और सैम को इसके बारे में बता दिया. सैम ने पूछा कि बोरे में क्या है तो ललित नारायण मिश्र ने जवाब दिया कि इसमें पार्टी के लिए इकट्ठा किए हुए रुपए हैं. सैम ने पूछा कि आपने उन्हें यहां क्यों रखा तो उनका जवाब था कि अगर इसे घर ले जाऊंगा तो मेरी पत्नी इसमें से कुछ पैसे निकाल लेगी. सीलू मानेकशॉ को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस बोरे में क्या है. कल आऊंगा और इसे वापस ले जाऊंगा."

दीपेंदर सिंह बताते हैं कि ललित नारायण मिश्रा को हमेशा इस बात का डर रहता था कि कोई उनकी बात सुन रहा है. इसलिए जब भी उन्हें सैम से कोई गुप्त बात करनी होती थी वह उसे कागज़ पर लिख कर करते थे और फिर कागज़ फाड़ दिया करते थे.


सैम की बेटी माया दारूवाला कहती हैं कि सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती हैं.

सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की. उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्ध बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था.

साल 1947 में मानेकशॉ और यहया ख़ां दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे. यहया ख़ां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी. वह इसे ख़रीदना चाहते थे लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे.

यहया ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को यहया ख़ां को बेचने के लिए तैयार हो गए. दाम लगाया गया 1,000 रुपए.

यहया मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे. सालों बीत गए लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया.

बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे. लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने यहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया. आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया."

DrRajpalSingh
April 8th, 2014, 12:05 PM
Salute to the memory of ever Great Hero of 1971.