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View Full Version : ' भूखे पेट हरि भजन ना होई '



RavinderSura
May 3rd, 2015, 12:22 PM
छत्तीसगढ़ में 52 घंटे में चार हमले , 13 जवान शहीद | ये नक्सली कोई धर्म के नाम पर नहीं लड़ रहे हैं , इन लोगों को नक्सली बनाया हैं इनके पेट ने ! मरने वाले भी किसान के बच्चे और मारने वाले भी ! खूब सियासत रची हैं दोनों को ही आपस में लड़ा दिया ? कहीं जवान मर रहा हैं तो कहीं मुफ़लिसी में किसान और तिलकधारीयों को असल मुद्दों से ज्यादा मुसलमान - ईसाई की आबादी की फिक्र पड़ी हैं | नक्सलवाद , ज़मीन अधिग्रहण , फसलों का उचित मुआवजा आदि की तरफ किसान का ध्यान ना जाए इसलिए समय समय पर ये धर्मों के ठेकेदार बेतुके वाहियात के शब्द बाण चलाते रहते हैं और इनके बाणों को गति देते हैं शहरों मे बसने वाले किसान-कमेरी जमात के लोग , जो इनके शंख बन कर बजते हैं | अब इस तरफ से तिलकधारीयों ने बाण चलाया हैं तो एक दो दिन बाद दूसरी तरफ से दूसरे मजहब का कोई ठेकेदार चलाएगा ! किसी भी मजहबी दंगों में इन ठेकेदारों के बच्चे या खुद इन ठेकेदारों को मरते सुना हैं ? हमें मरवाते हैं और अपनी खुद की दुकान चमकाते हैं !!!
सन 1846 में फेड्रिक नाम का एक जर्मन लड़का भारत में आया | वह ईसाई धर्म के प्रचार के लिए आया था | वह बंगाल के एक कपास डंगा नामक गाँव में पहुंचा | उसने कई दिन तक उस गाँव के निवासियों में धर्मप्रचार किया | गाँव नील के बागात में मजदूरी करने वाले लोगों का था | वे अति दीन-हीन थे | उन्होने जर्मन युवक के उपदेशों में कोई रुचि नहीं ली | उसने किसानों की धर्मप्रचार के प्रति उदासीनता के कारण पर विचार किया | उसे पता चला कि उसके मूल में पेट कि ज्वाला थी | ' भूखे पेट हरि भजन ना होई ' |
धर्म - मजहब के ठेकेदारों को ये लच्छेदार बातें इसीलिए आती हैं क्योंकि इनके पेट भरे हुए हैं और भरे हुए भी किसानों की कष्ट कमाई से हैं | इसलिए इन ठेकेदारों की बातों में ना बहक कर हमें अपने खुद के पेट की फिक्र करनी चाहिए | भगवान - धर्म अपनी रक्षा खुद कर लेगा | एक बार स्वामी विवेकानंद तीन-चार दिनों की एकांत समाधि से लौटकर सिस्टर निवेदिता से बोले , " मेरे मन में यह सोचकर बराबर क्षोभ उठता था कि मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिरों को क्यों तोड़ा , उनके देवी - देवताओं की मूर्तियों को क्यों भ्रष्ट किया ? किन्तु , आज काली माता ने मेरे मन को आश्वस्त कर दिया | उन्होने मुझे से कहा , ' अपनी मूर्तियों को मैं कायम रखूँ या तुड़वा दूँ , यह मेरी इच्छा हैं | इन बातों पर सोच - सोचकर तू क्यों दुःखी होता हैं ? "
मंदिर - मस्जिद ये सब उसके मकान हैं इनकी फिक्र वह खुद कर लेगा , इसके लिए तुम (किसान -कमेरे) दुःखी क्यों होते हो ? मंदिर-मस्जिद को लेकर तुम अलग क्यों होते हों ? तुम्हारा आधार तो वह मिट्टी हैं , जिस पर ये दोनों इमारतें खड़ी हैं | इन धूर्तों की बातों मे ना बहक कर बस अपने पेट की फिक्र करो | खासकर देहात के किसान - कमेरे वर्ग के लोगों को तो इन शहरियों की बातों से दूर रहना चाहिए , इनके पेट भरे हुए हैं तभी इनको ये उट-पटांग बातें सूझती हैं | सर छोटूराम वाली बात हैं , " हम (किसान ) अपने हकों पर दावा जताने लगे हैं तो वे (शहरी) बेचैन हो उठे हैं , भगवान का मुखौटा लगाए ये शैतान बेचैन हैं ! " और आज भी जो ये मुस्लिम आबादी ,नसबंदी , वोट का अधिकार आदि जैसी बाते कर के हमें बहकाने की कोशिश कर रहे हैं वह सिर्फ इसलिए की हम अपने हकों के प्रति जागरूक होने लगे हैं, आवाज़ उठाने लगे हैं , इसलिए ये बेचैन हो उठे हैं , इनको यही डर हैं कि यदि किसान कौम में जागृति आ गई तो तुम्हारी दुकानों का क्या होगा ? हमें सिर्फ हमारी किसान - कमेरे वर्ग की एकता पर ध्यान देना हैं , अपने साझा आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर ध्यान देना हैं , यदि हम बिखरे रहे तो वह हम पर ऐसे ही राज करेंगे , ऐसे ही हमारा शोषण करते रहेंगे |
" पीरोना हैं एक ही तस्बीह में इन बिखरे दानों को ,
जो मुश्किल हैं तो इस मुश्किल को आसान करके छोडुंगा "
' जय योद्धेय '