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View Full Version : मरे पर खाने वाले जाट !



RavinderSura
July 12th, 2015, 12:12 AM
मरे पर खाने वाले जाट !
जाटों में मृत्यु भोज यानि काज करने की प्रथा कम ही रही हैं | यह एक ब्राह्मणवादी प्रथा है और जाट हमेशा से ब्राह्मणवादी पाखंडो के विरुद्ध रहे हैं | जब छोटा था तब शायद ही सुनने को मिलता था कि किसी ने काज किया हैं , हाँ राजस्थान में जरूर ऐसा सुनने को मिलता था | राजस्थान के जाटों ने इस ब्राह्मणवादी प्रथा को रुतबे का प्रतीक बना रखा था , वहाँ अब भी ऐसा ही हैं | वहाँ एक गाँव दो गाँव या उससे अधिक गावों को जिमाने की हौड़ लगती हैं , जिसके बूढ़ा मर रखा हो वह चाहे कितना ही गरीब क्यों ना हो पर मरे पर खाने वालों को तो बस खाने से मतलब हैं | हरियाणा में समय समय पर खापे ऐसे पाखंड का विरोध करती रही हैं परंतु आजकल यह बीमारी खापलैंड में बढ़ती ही जा रही हैं , लोगों ने इसे रुतबे का प्रतीक मान लिया हैं | दिल्ली के आस पास तो दसौरी काज का रिवाज चल पड़ा हैं | दसौरी काज से अपनी रईसी की नुमाइश कर रहे हैं ! सबसे बड़ी ताज्जुब की बात तो यह हैं कि इन दसौरी काजों में जो खाप प्रधान काज का विरोध करते है वह भी पगड़ बांधे सबसे आगे खड़े मिलते हैं क्योंकि काज करने वाला पैसे वाला हैं ! यह लोग इन पैसों को स्कूल ,हॉस्पिटल आदि जैसे समाज हित के किसी नेक काम में नहीं लगाएंगे पर पाखंड में इनसे चाहे कितना ही खर्च करवा लो , क्योंकि इनकी जिसने अक्ल मार रखी है वह बहुत ही शातिर हैं ! हरियाणा में ' मरे पर खाना ' एक गाली समझी जाती हैं परंतु आजकल जाटों में ' मरे पर खाने ' वालों की तादाद ज्यादा ही होती जा रही हैं | मरे पर खाने की इस प्रथा को रुतबे के प्रतीक से जोड़ कर यह लोग गरीब की मार कर रहे हैं , क्योंकि समाज में शोशेबाजी बढ़ती जा रही हैं जिसका शिकार बेचारा गरीब भी होता हैं | ' मरे पर खाना और खिलाना ' जाटों की प्रथा नहीं हैं यह किसकी प्रथा हैं वह सबको पता हैं सो मरे पर उनको ही खाने खिलाने दो यह हमे शोभा नहीं देता | मरे की खुशी तो कोई कसाई ही मना सकता हैं ! जितना हो सके इस पाखंडी प्रथा का विरोध करें और इसे बंद करवाए | बड़े स्याणे ऐसे ही नहीं कह गए ' पंडा छोड़ ' |