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Thread: कलियुग की त्याग लीला

  1. #1

    कलियुग की त्याग लीला

    इस घनघोर कलयुग में जब कभी कोई व्यक्ति गैरकलयुगी हरकतें करता नज़र आता है तो लगता है कि सतयुग का कोई एंटीक आइटम किसी कब्र से निकल आया है.

    जया बच्चन की सदस्यता जाने के बाद सोनिया जी की नैतिकता की जान निकली हुई थी.

    उन्हें अपनी बेदाग़ छवि पर एक दाग़ अचानक लगने की चिंता हुई और उन्होंने दो दिन की नोक-झोंक के बाद लोकसभा की सीट छोड़ दी. छवि बची, जान बची.

    मगर काँग्रेसी चेले चाटियों ने कहा- धन्य-धन्य. क्या त्याग है? सोनिया इसीलिए तो महान हैं कि वे पद लोलुप नहीं है. पहले पीएम होना ठुकराया. अब संसद को त्यागा.

    त्याग लीला का ऐसा महात्म्य देख अन्य काँग्रेसी, सेमी-काँग्रेसी जनों की आत्मा कुलबुलाई और वे त्यागने के लिए कसमसाने लगे.

    कर्ण सिंह ने सीट त्याग दी. उधर संस्कृति और कलाओं की धरोहर की हिफ़ाजत करने वाली कपिला जी ने एकदम कल परसों मिली सदस्यता त्याग दी.

    काँग्रेस की आत्मा ऐसी ही है वह यों तो सोई पड़ी रहती है. अचानक सबसे पहले नेता की आत्मा जगती है. रे मूरख तू क्या कर रहा? कोई त्याग लीला नहीं की? धिक्कार है.

    नेताजी जानते होते हैं कि भारत की जनता को चाहे आप रोटी कपड़ा मकान दें न दें बस एक ठो ‘त्याग’ दे दें. लोग आपको कलयुग में सतयुगी अवतार कहेंगे पूजेंगे कि देखो आज भी त्यागता है, संग्रह नहीं करता.

    इन दिनों यह आत्मा कभी क़ानून कभी कंट्रोवर्सी कभी विपक्ष के दवाब में त्याग लीला करती है. मगर त्याग का कलयुगी महात्म्य यही है.

    त्याग की गारंटी

    इधर त्याग किया जाता है उधर उसके एवज में कुछ पाने की गारंटी कर ली जाती है.






    तभी तो ज्यों ही त्याग की बात हुई त्यों ही रायबरेली में जनता सड़कों पर आ गई और कहने लगी सोनिया तुम त्याग करो हम तुम्हारे साथ हैं.

    कभी आडवाणी जी ने भी सदस्यता छोड़ दी थी वे कुछ दिन के लिए महान हो गए थे. गाँधी जी ने सत्ता कभी चाही ही नहीं. उनके चेले जेपी ने भी सत्ता बनवाई-बिगाड़ी लेकिन चाही कभी नहीं. हैं न सुपर त्यागी आत्माएँ.

    इसे भारतीय संस्कृति में ‘भोग से त्याग’ करने की संस्कृति कहते हैं. पहले भोग लगा लो. मन भर जाए तो त्याग दो. भोग करने के कई लेवल होते हैं कोई सीधे भोग करते हैं कोई अपने बाल बच्चों को भोग लगाते देख आनंदित होते हैं.

    कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी त्याग कर डाला था. इस्तीफा लिए घूमते थे. दे दिया. बाद में बड़ा बड़ा पछताए. एक कवि ने उनकी व्यंग्य किया था- वीपी कह रहे हैं कि ‘मेरा इस्तीफ़ा लौटा दो वरना इस्तीफा दे दूंगा.’

    रिसर्च बताती है कि इस्तीफ़ा देने के बाद सब मन ही मन कहते हैं मेरा इस्तीफ़ा लौटा दो वरना इस्तीफा दे दूंगा. इस्तीफ़ा देकर सोनिया ने रायबरेली से यही कहा है.

    आने वाले दिनों में लोग जरा सी बात पर त्याग त्याग खेला करेंगे. त्याग होने लगेगा. किसी ने ‘तू’ कह दिया तो इस्तीफा दे दिया.

    दाल में नमक कम हुआ तो इस्तीफा दे दिया... ये पद पदारथ क्या चीज हैं ? कलयुग में अपने यहाँ ‘सत्य हरिचंद्रों’ की भरमार है.

    जब राजनीति गोल गप्पे की तरह मजेदार और फुटबॉल की तरह गोल हो जाती है तो उसे त्यागना बड़ा सुखकर लगता है.

    आप कितना भी त्यागो सत्ता लौटकर आती आपके पास ही है. इतनी इतनी सत्ता है प्रभु ? त्यागें नहीं तो क्या करें?

    पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम
    दो हाथ उलीचिए, यहै सयानो काम.

    कलयुग में त्याग की लीला इसी तरह चलती है.
    Last edited by anujkumar; April 4th, 2006 at 12:04 PM.
    _(~)_

  2. #2

    भाजपा में बूढे लोगों की महिमा निराली है. वे अक्सर बच्चों के मनोरंजन की खातिर कुछ न कुछ करते रहते हैं.

    जिंदा रहने के लिए हाथपैर चलाते रहने होते हैं. जब अक्ल सठिया जाए घुटने गठिया जाएं तो ज़्यादा हिलना डुलना पड़ता है. इस तरह भाजपा के लोग स्वास्थ्य टूरिज्म की राजनीति करते हैं.

    जब तक हूक उठती है. अतीत के महान दिन याद आते हैं. तो एक यात्री अपनी टॉयटा में तेल भरवाकर यात्रा करने लगता है.

    यात्रा का नाम कुछ भी हो सकता है. जोड़ू यात्रा, जुगाड़ यात्रा, तोड़ू यात्रा. नाम कुछ भी हो भाव को समझे.

    इससे नेता और टूर गाइड का फ़र्क मिट जाता है. जो काम कोई गाइड पाँच- दस रुपए में करता भाजपा में आडवाणी जी के जिम्मे आया है. तकदीर की बात ठहरी.

    यात्रा करने से गठिया, ब्लडप्रेशर सब ठीक हो जाता है. सड़कों के खड्डों के मारक झटकों से दुखती कमर सीधी हो जाती है.

    हिंदुत्व में ‘एक पंथ कई काज’ का बड़ा महात्म्य है. ‘फिसल पड़े तो हर गंगा की’ कहावत इसी तरह बनी. यात्रा होगी स्वास्थ्य लाभ होगा और नेतागिरी बनेगी.

    लेकिन जरा देखो तो इन निकम्मे ‘नई उम्र की नई फसलों को’ सुषमा, प्रमोद, अरुण जेटली आदि को.

    डालडा की पीढी हैं. दम नहीं है. एक बार भी यात्रा की नहीं सोचते. असली घी में पले बूढे सोचते हैं.

    कई कतारें

    भाजपा में वृद्धजनों की कई कतारें हैं. उनमें से ‘पतझर के पीपल के अटके हुए पत्ते’ की मानिंद खुराना साहब नज़र आते हैं.

    उन्हें अतीत की दिल्ली की हुडक उठी नहीं कि वे पार्टी को एकाध लात लगा देते हैं. पार्टी नियम पूर्वक उन्हें निलंबित करती है वे फिर कुछ दिन बाद माफी माँग कर बुलबुल की तरह परिवार में गाना गाने लगते हैं.

    इस बार वे उमा की रैली के रेले में बह जाना चाहते हैं. पार्टी ने कहा बह जा सिर मत खा.

    भाजपा को जर्जरता का रोग लग गया है. बड़ी मुश्किल से 80 के आसपास टहल रहे आडवाणी खिसके.

    अटल खिसके वरना जमे बैठे थे. परिवारों में बूढे लोग जब वानप्रस्थी नहीं होते संन्यास नहीं लेते और मरते नहीं तो बड़ा खून चूसते हैं.

    उनके बाल बच्चों से पूछो तो कहते मिलेंगे साला डोकरा मरता ही नहीं कब पीछा छोड़ेगा. अरे टले तो हमें भी कुछ करने को मिले. डोकरा हिलता ही नहीं.

    हिंदुत्व एक आकुल व्याकुल संयुक्त महान परिवार है. उसमें डोकरों की कलह है. डोकर जोकर नजर आते हैं.

    यहाँ भी हिंदुत्ववादी परिवार ने एक नया फ्रेश आइटम दिया है. परिवार में बूढे मचलते हैं, बच्चे गमगीन रहते हैं.

    आडवाणी जिन्ना की मजार पर मचल गए. बहुत मार खाई मगर मचले रहे. खुराना भी हर छह महीने बाद डोकर-लीला करते रहते हैं.

    डोकर समझके सब माफ़ कर देते हैं. यह बूढे लोगों की चतुराई है. सारी जवानी भोगते लेकिन कामना नहीं मरी.

    जितनी भारतीय संस्कृति पढ़ी जितनी कामना को कंट्रोल में रखने की बात की उतनी ही कामना की कैद में बंद होते गए.

    भाजपा के बुजुर्गों की तालठोकूं कलह को देखकर ऐसा लगता है कि डोकर लोगों की किसी ने जवानी की दवाई पिला दी है. वे ‘एस्टरिक्स’ के चरित्रों की तरह फू-फा करते दिखते हैं.

    कभी कभी भाजपा को देखकर बाबर्ची फ़िल्म की याद आती है जिसमें एक बुड्ढा एक बक्से को कब्ज़े में रखे है. लोग समझते हैं कि उसमें बड़ा माल है. बक्से की हिफाजत करता हुआ डोकरा अपनी पूजा कराता रहता है.

    सब उस बक्से पर नज़र लगाए रहते हैं. जब उसकी चोरी हो जाती है तो चोर को वह खाली मिलता है.
    _(~)_

  3. #3

    Kalyug And Buddhey

    aree anju, tune to in political parties walo ki acchi red maar di .Excellent vyang as well as very good humor.:D

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