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Thread: 1857 A.D. – Martyrs of Haryana

  1. #41

    Jhajjar-1

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    continued from Post No. 18

    झज्जर के नवाब

    रोहतक के दक्षिण में 22 मील व दिल्ली के पश्चिम-दक्षिण में 36 मील झज्जर नाम का प्रसिद्ध कस्बा है । यह कस्बा एक हजार साल पहले झज्झू नाम के जाट ने बसाया था और उसी के नाम से झज्जर प्रसिद्ध हुआ । मुगलकाल में यह शहर अपने व्यापार के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध था । झज्जर, रिवाड़ी, भिवानी एक त्रिकोण बनाते हैं, जो आज की तरह पूर्व काल में भी व्यापारिक केन्द्र थे । अकेले झज्जर शहर में 300 अत्तारों और गन्धियों की दुकानें थीं । झज्जर से दिल्ली जाने वाली सड़क पर शहर से बाहर बादशाह शाहजहां के जमाने की अनेक पुरानी इमारतें व मकबरे हैं जिनके द्वारों पर फारसी लिपि में अनेक वाक्य खुदे हुए हैं । उन भवनों व मकबरों के बीच में सदियों पुराना एक बहुत बड़ा पक्का तालाब है, जहां म्युनिसिपैलिटी की ओर से पशुओं का मेला भरता (लगता) है ।

    हरयाणा का यह प्रदेश सन् 1718 में बादशाह फरुखसियर ने अपने वजीर अलीदीन को जागीर में दिया । सन् 1732 में फरुखनगर के नवाब को दे दिया । सन् 1760 में महाराजा सूरजमल (भरतपुर) ने फरुखनगर के नवाब मूसा खां को हराकर यह प्रदेश उससे छीन लिया । इस समय दिल्ली नगर की चारदीवारी तक उनका राज्य था । बादली नाम का प्रसिद्ध गांव उनकी एक तहसील था । सन् 1754 में बलोच सरदार बहादुरखां को बहादुरगढ़ बादशाहों से जागीर में मिला । झज्जर बेगम सामरू के पति वेनरेल साहब के कब्जे में आ गया । गोहाना, महम, रोहतक, खरखौदा आदि दिल्ली के वजीर नब्ज खां के कब्जे में थे । सन् 1790 में बेगम सामरू की मुलाजमत में रहने वाले अंग्रेज इस्किन्दर ने उत्तर हिन्दुस्तान में जाटों, मराठों, सिक्खों की खींचातानी देखकर हांसी, महम, बेरी, रोहतक, झज्जर पर कब्जा कर लिया और जहाजगढ़ में किला बनाकर अपना सिक्का भी चलाया । 1803 में अंग्रेजों ने मराठों को हराया । दिल्ली के साथ हरयाणा पर भी कब्जा जमा लिया । झज्जर, बल्लभगढ़, दुजाना आदि रियासतें कायम कीं । हरयाणा का बाकी हिस्सा 1836 तक गवर्नर बंगाल की मातहती में बंगाल के साथ रहा । इसके बाद आगरे के नये सूबे में शामिल कर दिया गया ।


    1857 में हरयाणा में उस समय अनेक राजा राज्य करते थे । झज्जर इलाके में अब्दुल रहमान खां नवाब की नवाबी थी । झज्जर प्रान्त झज्जर, बादली, दादरी, नारनौल, बावल और कोटपुतली आदि परगनों में विभाजित था । झज्जर का नवाब जवान किन्तु भीरू प्रकृति का था । सदैव नाच-गान, राग-रंग व भोग-विलास में ही फंसा रहता था । इसके दुराचार से प्रजा उस समय प्रसन्न नहीं थी, फिर भी उसका राज्य अंग्रेजों की अपेक्षा अच्छा था । ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी नवाब के बख्शी थे । दीवान रामरिछपाल झज्जर निवासी नवाब के कोषाध्यक्ष (खजान्ची) थे । नवाब प्रकट रूप से तो दिल्ली बादशाह बहादुरशाह की सहायता कर रहा था क्योंकि हरयाणा की सारी जनता इस स्वतन्त्रता युद्ध में बड़े उत्साह से भाग ले रही थी । अतः नवाब भी विवश था किन्तु भीरु होने के कारण उसे यह भय था कि कभी अंग्रेज जीत गए तो मेरी नवाबी का क्या बनेगा । इसलिए गुप्त रूप से धन से अंग्रेजों की सहायता करना चाहता था । अपने दीवान मुन्शी रामरिछपाल द्वारा 22 लाख रुपये इसने अंग्रेजों को सहायता के लिए गुप्त रूप से भेजने का प्रबन्ध किया । मुन्शी रामरिछपाल ने ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी को जो एक प्रकार से झज्जर राज्य के कर्त्ता-धर्त्ता थे, यह भेद बता दिया । ठाकुर स्यालुसिंह ने मुन्शी रामरिछपाल को समझाया कि नवाब तो भीरु और मूर्ख है । अंग्रेजों को रुपया किसी रूप में भी नहीं मिलना चाहिये । हम दोनों बांट लेते हैं । उन दोनों ने ग्यारह-ग्यारह लाख रुपया आपस में बांट लिया, अंग्रेजों के पास नहीं भेजा ।

    ठाकुर स्यालुसिंह ने उस समय यह कहा - यदि अंग्रेज जीत गए तो नवाब मारा जायेगा, हमारा क्या बिगाड़ते हैं, यदि अंग्रेज हार ही गये तो हमारा बिगाड़ ही क्या सकते हैं । नवाब के भीरु और चरित्रहीन होने का कारण लोग यों भी बताते हैं कि नवाब अब्दुल रहमान खां किसी बेगम के पेट से उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु वह किसी रखैल स्त्री (वेश्या) का पुत्र था । उसके विषय में एक घटना भी बताई जाती है । इसके चाचा का नाम समद खां था । नवाब ने अपने इसी चाचा की लड़की के साथ विवाह किया था । समदखां इससे अप्रसन्न रहता था, इससे बोलता भी नहीं था । समदखां वैसे बहादुर और अभिमानी था । एक दिन नवाब ने अपनी बेगम को जो समदखां की लड़की थी, चिढ़ाने की दृष्टि से यह कहा कि समदखां की औलाद की नाक बड़ी लम्बी होती है । उसी समय बेगम ने जवाब दिया - जब मेरा विवाह (वेश्यापुत्र) आपके साथ हो गया तो क्या अब भी समदखां की औलाद की नाक लम्बी रह गई ? नवाब ने इसी बात से रुष्ट होकर बेगम को तलाक दे दिया । समदखां नवाब से पहले ही नाराज था, इस बात से वह और भी नाराज हो गया । वह नवाब से सदैव रुष्ट रहता था और कभी बोलता नहीं था । उन्हीं दिनों अंग्रेज फौजी अफसर मिटकाफ साहब जो आंख से काना था, किन्तु शरीर से सुदृढ़ था, छुछकवास अपने पांच सौ सशस्त्र सैनिक लेकर पहुंच गया और झज्जर नवाब की कोठी में ठहर गया । वहां नवाब झज्जर को मिलने के लिए उसने सन्देश भेजा । झज्जर का नवाब मिटकाफ साहब से मिलने के लिए हथिनी पर सवार होकर जाना चाहता था । उसकी 'लाडो' नाम की हथिनी थी, उसने सवारी के लिए उसे उठाना चाहा किन्तु हथिनी हठ कर के बैठ गई, उठी ही नहीं । नवाब के चाचा समदखां ने कहा - हैवान हठ करता है, खैर नहीं है, आप वहां मत जाओ । नवाब ने उत्तर दिया - आप नवाब होकर भी शकुन अपशकुन मानते हैं ? समदखां ने कहा हमने तेरे से बोलकर मूर्खता की । नवाब हथिनी पर बैठकर छुछकवास चला गया । मिटकाफ साहब ने वहां नवाब का आदर नहीं किया । नवाब हथिनी से उतरकर कुर्सी पर बैठना चाहता था किन्तु मिटकाफ ने नवाब को आज्ञा दी कि अपका स्थान आज कुर्सी नहीं अपितु काठ का पिंजरा है, वहां बैठो । नवाब को काठ के पिंजरे में बन्द करके दिल्ली पहुंचा दिया गया । वहां झज्जर के नवाब को और बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह तथा लच्छुसिंह कोतवाल को जो दिल्ली का निवासी था, फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया ।

    बहादुरशाह के विषय में उन दिनों एक होली गाई जाती थी । यह होली ठाकुरों, नवाबों, राजे-महाराजों के यहां नाचने वाली स्त्रियां गाया करतीं थीं ।

    टेक -

    मची री हिन्द में कैसो फाग मचो री ।
    बारा जोरी रे हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥

    कली -

    गोलन के तो बनें कुङ्कुमें, तोपन की पिचकारी ।
    सीने पर रखा लियो मुख ऊपर, तिन की असल भई होरी ।
    शोर दुनियां में मचो री हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥

    बहादुरशाह दीन के दीवाने, दीन को मान रखो री ।
    मरते मरते उस गाजी ने, दीन दी देन कहो री ॥
    दीन वाको रब न रखो री, हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥


    ...continued in next post.

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    Last edited by dndeswal; November 17th, 2008 at 06:39 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  2. #42

    Jhajjar-2

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    ..continued from previous post

    नवाब झज्जर के पकड़े जाने पर उसका चाचा समदखां और बख्शी ठाकुर स्यालुसिंह कई सहस्र सेना लेकर काणोड के दुर्ग (गढ़) को हथियाने के लिए आगे बढ़े । रिवाड़ी की तरफ से राव तुलाराम, राव श्री गोपाल और गोपालकृष्ण सहित जो रामपुरा के आसपास के राजा थे, बड़ी सेना सहित काणोड के गढ़ की ओर बढ़े । काणोड वही स्थान है जिसे आजकल महेन्द्रगढ़ कहते हैं । अंग्रेज भी अपनी सेना सहित उधर बढ़ रहे थे । जयपुर आदि के नरेशों ने अपनी सात हजार सैनिकों की सेना जो नागे और वैरागियों की थी, अंग्रेजों की सहायतार्थ भेजी । नवाब झज्जर और राव तुलाराम की सेना दोनों ओर से बीच में घिर गई । नारनौल के पास लड़ाई हुई, हरयाणे के सभी योद्धा बड़ी वीरता से लड़े । राव कृष्णगोपाल और श्री गोपाल वहीं लड़ते लड़ते शहीद हो गये । राव तुलाराम बचकर काबुल आदि के मुस्लिम प्रदेशों में चले गये । सहस्रों वीर इस आजादी की लड़ाई में नसीरपुर की रणभूमि में खेत रहे ।

    युद्ध के पश्चात् शान्ति हो जाने पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किये । अंग्रेज सैनिक लोगों को पकड़ पकड़ कर सारे दिन तक इकट्ठा करते थे और सायंकाल 3 बजे के पश्चात् सब मनुष्यों को तोपों के मुख पर बांध कर गोलियों से उड़ा दिया जाता था । ठाकुर स्यालुसिंह को भी परिवार सहित गिरफ्तार करके गोली से उड़ाने के लिए पंक्ति में खड़ा कर दिया । उस समय एक अंग्रेज जो जीन्द के महाराजा का नौकर था, जो पहले झज्जर भी नवाब के पास नौकरी कर चुका था, वह ठाकुर स्यालुसिंह का मित्र था । वह झज्जर आया हुआ था । उसने ठाकुर स्यालुसिंह को अपने परिवार सहित पंक्ति में खड़े देखा । उसने ठाकुर साहब से पूछा क्या बात है ठाकुर साहब ? ठाकुर साहब ने उत्तर दिया मेरे साथ अन्याय हो रहा है । नवाब ने तो मुझे अंग्रेजों का वफादार समझकर मेरी गढ़ी को कुतानी में तोपों से उड़ा दिया और आज मैं नवाब का साथी समझकर परिवार सहित मारा जा रहा हूं । यदि मैं अंग्रेज का शत्रु था तो मेरी गढ़ी नवाब द्वारा तोपों से क्यों उड़ाई गई और मैं नवाब का शत्रु हूं तो मुझे क्यों परिवार सहित गोली का निशाना बनाया जा रहा है ? यह सब सुनकर उस अंग्रेज की सिफारिश पर स्यालुसिंह को छोड़ दिया गया और उसे निर्दोष सिद्ध करने का प्रमाण देने के लिए वचन लिया गया । वह घोड़े पर सवार हो नंगे शरीर ही दिल्ली, चौधरी गुलाबसिंह बादली निवासी के पास पहुंचा । वह उस समय अंग्रेजों की नौकरी करता था । पहले ठाकुर स्यालुसिंह ने बादली से चौ. गुलाबसिंह को निकाल दिया था । फिर भी ठाकुर स्यालुसिंह के बार बार प्रार्थना करने पर चौ. गुलाबसिंह ने सहायता करने का वचन दे दिया और उसने ठा. स्यालुसिंह की गवाही देकर अपकार के बदले में उपकार किया । ठा. स्यालुसिंह का एक भाई ठा. शिवजीसिंह सेना में दानापुर में अंग्रेजों की सेना में सूबेदार था, उसने भी ठा. स्यालुसिंह की सहायता की । इस प्रकार ठा. स्यालुसिंह का परिवार बच गया । ठाकुर साहब के परिवार के लोग आज भी कुतानी व धर्मपुरा आदि में बसते हैं । उन्हीं में से ठा. स्वर्णसिंह जी आर्यसमाजी सज्जन हैं, जो धर्मपुरा में भदानी के निकट बसते हैं ।

    झज्जर मे नवाब की नवाबी को तोड़ दिया गया और भिन्न-भिन्न प्रान्तों में बांट दिया गया, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है । अंग्रेज कोटपुतली को जयपुर नरेश को देना चाहते थे किन्तु उनके निषेध कर देने पर खेतड़ी नरेश को दे दिया गया ।

    बहादुरगढ़ में भी उस समय नवाब का राज्य था । सिक्खों की सेना जो 12 हजार की संख्या में थी, बहादुरगढ़ डेरा डाले पड़ी थी । हरयाणा के वीरों ने इसे आगे बढ़ने नहीं दिया । सिक्खों की सेना ग्रामों से भोजन सामग्री लूटकर अंग्रेजों की सहायता करती थी । उस समय कुछ नीच प्रकृति के मुसलमान भी चोरी से जनाजा (अर्थी) निकालकर मांस, अन्न, रोटी छिपाकर अंग्रेज सेना को बेच देते थे । उस समय एक-एक रोटी एक-एक रुपये में बिकती थी, जल भी बिकता था । कोतवाल लच्छुसिंह ने इस बात को भांप लिया । उस ने उन नीच मुसलमानों को जो काले पहाड़ पर घिरी हुई अंग्रेजी सेना को अन्न मांस बेचकर सहायता करते थे, पकड़वा कर मरवा दिया । अंग्रेजों ने इसी कोतवाल लच्छुसिंह, नरेश नाहरसिंह तथा नवाब झज्जर को इन्दारा कुंए के पीपल के वृक्ष पर बांधकर फांसी दी थी ।

    सन् 1857 के युद्ध के बाद बहादुरगढ़, बल्लभगढ़, फरुखनगर, झज्जर आदि की रियासतें समाप्त कर दीं । लोहारू, पटौदी, दुजाना की रियासतें रहने दीं । इसके बाद 1858 में हरयाणा को आगरा से निकाल कर सजा के तौर पर पंजाब के साथ जोड़ दिया । दिल्ली को कमिश्नरी का हैडक्वार्टर बना दिया । सिरसा और पानीपत के जिले तोड़कर उन्हें तहसील बना दिया गया ।



    अधिक जानकारी के लिए पढ़िये धागा - The Historical Calendar of Jhajjar



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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)



    Next post in this series will be :
    कुतानी की गढ़ी, फरुखनगर, बराणी के ठाकुर



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    Last edited by dndeswal; November 17th, 2008 at 05:50 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  3. #43

    Arrow Pataudi Riyasat

    Deshwal Ji,
    Thanks for such nice post about our local history. I don’t want to deviate from the theme of this thread, but I have a curiosity. Had Pataudi’s Nawab any contribution in 1857? We don’t hear much about Pataudi unlike Jhajjar and Farukhnagar, except being players’ of polo and cricket.

    लोहारू, पटौदी, दुजाना की रियासतें रहने दीं ।

  4. #44
    Quote Originally Posted by biotechs2001 View Post
    Deshwal Ji,
    Thanks for such nice post about our local history. I don’t want to deviate from the theme of this thread, but I have a curiosity. Had Pataudi’s Nawab any contribution in 1857? We don’t hear much about Pataudi unlike Jhajjar and Farukhnagar, except being players’ of polo and cricket.

    लोहारू, पटौदी, दुजाना की रियासतें रहने दीं ।
    Not at all. Britishers crushed everyone whosoever participated in that war. Rao Tularam of Rewari, Raja Nahar Singh of Ballabhgarh, Nawabs of Jhajjar and Farukhnagar fought against them and hence, all these states (रियासतें) were abolished outright. Those who sided with British or remained neutral during that time (लोहारू, पटौदी, दुजाना etc.) were allowed to retain their status.

    Please wait for posts on Nahar Singh and Rao Tularam in this thread.
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    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  5. #45

    Farukhnagar

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    कुतानी की गढ़ी

    ठाकुर स्यालुसिंह अपने छः भाइयों सहित निवास करते थे । यह झज्जर के नवाब के बख्शी थे अर्थात् वही सर्वेसर्वा थे । नवाब क्या, यही ठाकुर स्यालुसिंह राज्य किया करते थे । इसने नवाब की फौज में हरयाणा के वीरों को भर्ती नहीं किया, आगे चलकर इस भूल का फल भी उसे भोगना पड़ा । उसने सब पूर्वियों को ही फौज में भरती किया, वह यह समझता था कि यह अनुशासन में रहेंगे । एक पूर्वीय सैनिक को ठाकुर स्यालुसिंह ने लाठी से मार दिया था, अतः सब पूर्वीय सैनिक उस से द्वेष करने लगे थे । एक दिन काणोड के दुर्ग में नाच गाना हो रहा था । एक पूर्वीय सैनिक ने ठाकुर स्यालुसिंह पर अवसर पाकर तलवार से वार किया । तलवार का वार पगड़ी पर लगा और ठाकुर साहब बच गये किन्तु इस पूर्वीय को ठाकुर साहब ने वहीं मार दिया । पूर्वीयों ने दुर्ग का द्वार बंद कर दिया और द्वार पर तोप लगा दी और टके भरकर तोपें चलानी शुरू कर दीं । उस समय ठाकुर स्यालुसिंह के साथ 11 अन्य साथी थे । ठाकुर हरनाम सिंह रतनथल निवासी ने तोपची को मार दिया । इस प्रकार बचकर ये लोग अपने घर चले गए । ठाकुर स्यालुसिंह अपनी ससुराल पाल्हावास में जो भिवानी के पास है, जहां इसके बाल-बच्चे उस समय रहते थे, चला गया । किन्तु पीछे से सब पूर्वियों ने कुतानी की गढ़ी पर चढ़ाई कर दी । नवाब ने पूर्वी सैनिकों को ऐसा करने से बहुत रोका, उसने यह भी कहा कि तुम ठाकुर के विरुद्ध मेरे पास मुकद्दमा करो, मैं न्याय करूंगा, किन्तु वे किसी प्रकार भी नहीं माने । नवाब ने कुतानी के ठाकुरों के पास भी अपना सन्देश रामबख्श धाणक खेड़ी सुलतान के द्वारा भेजा कि गढ़ी को खाली कर दें । इस प्रकार यह सन्देश तीन बार भेजा किन्तु गढ़ी में स्यालुसिंह का भाई सूबेदार मेजर शिवजीसिंह था । वह यही कहता रहा कि स्यालुसिंह के रहते हुए हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । किन्तु रात्रि को पूर्वीय सैनिकों ने सारी गढ़ी को घेरकर तोपों से आक्रमण कर दिया । ठाकुर शिवजीसिंह ने अपनी मानरक्षा के लिए छः ठाकुरानियों को तलवार से कत्ल कर दिया । दो लड़कों का भी वध कर दिया । किन्तु वह अपनी मां का वध नहीं कर सका । उसकी मां ने स्वयं अपना सिर काट लिया और यह कहा कि मैं यदि पकड़ी गई तो कलकत्ता तक सब ठाकुर बदनाम हो जायेंगे । कुतानी की गढ़ी के सब लोग गांव छोड़कर भाग गये । कुतानी के ठाकुरों की हवेली आज भी टूटी पड़ी है । तोप के गोलों के चिन्ह अब तक दीवारों पर हैं । गढ़ी उजड़ अवस्था में पड़ी है ।


    फरुखनगर


    फरुखनगर के नवाब ने भी इस स्वतन्त्रता के युद्ध में भाग लिया था । नवाब का नाम फौजदार खां था । फरुखनगर का बड़ा अच्छा 'दुर्ग' था । नगर के चारों ओर भी परकोटा बना हुआ था, जो आजकल भी विद्यमान है । इस नवाब को भी गिरफ्तार करके फांसी पर लटका दिया । नवाब हिन्दू प्रजा को भी अपने पुत्र के समान समझता था । एक बार हिन्दुओं ने मिलकर नवाब से प्रार्थना की कि पशुओं का वध नगर में न किया जाये क्योंकि इससे हमारा दिल दुखता है । नवाब ने उनकी प्रार्थना मान ली और पशु वध बंद कर दिया । इसी कारण चारण, भाट, डूम इत्यादि उसके विषय में गाया करते थे -

    जुग जुग जीओ नवाब फौजदार खां ।
    पांच पुत्र पाचों श्रीश पांचों गुणनागर ।
    नख तुल्लेखां मुखराज करैं जो वंश उजागर ॥

    नवाब फौजदार खां ईश्वर का बड़ा भक्त था । वह सत्संग करने के लिए एक बार भरतपुर गया । रूपराम ब्राह्मण, महाराजा भरतपुर का मन्त्री तथा महाराजा भरतपुर की महारानी गंगा भी ईश्वरभक्त थी, और भी वहां अनेक ईश्वरभक्त रहते थे । नवाब हाथी पर चढ़कर सत्संग करने के लिए ही रानी और मन्त्री के पास गया था । उसने महाराजा भरतपुर को अपने आने की कोई सूचना पहले नहीं भेजी थी । अतः वह पकड़कर जेल में डाल दिया गया । उन्हीं दिनों महारानी गंगा के यहां पुत्र उत्पन्न हुआ । नवाब को प्रातःकाल हाथी पर चढ़कर भ्रमण करने की आज्ञा मिली हुई थी । एक दिन वह भ्रमण के लिए जा रहा था तो महारानी के महल को देखकर पूछा कि यह महल किसका है ? किसी ने उत्तर दिया - यह महारानी गंगा का महल है । नबाब कवि था, उसने उसी समय कहा -

    गंगा गंगा सब कहें यह गंगा वह नाय ।
    वह गंगा जगतारणी यह डोबे धारा मांह ॥

    महारानी गंगा उस समय महल पर थी, उसने उसे सुनाने के लिए ही यह कहा था । उसने भी यह सुन लिया । रूपराम मन्त्री का भी महल मार्ग में आया । नवाब के पूछने पर किसी ने बताया कि यह मन्त्री रूपराम का महल है । नवाब ने उसी समय कविता में कहा -

    रूपराम तब तें सुना जब तें पड़ो न काम
    काम पड़े पायो नहीं तां में रूप न राम ॥

    पुत्रोत्सव की प्रसन्नता में राजा ने दो सौ कैदियों को छोड़ने की आज्ञा दी । रूपराम ने दो सौ कैदियों में से सर्वप्रथम नवाब को छोड़ दिया । भरतपुर के महाराजा ने पीछे सूचना भेजी कि नवाब को न छोडे किन्तु वह पहले ही रूपराम के द्वारा छोड़ा जा चुका था । मंत्री रूपराम ने राजा के पास सूचना भेजी कि नवाब तो सत्संग करने के लिए आया था, बिना आज्ञा के नहीं आया । राजा की आज्ञा से वह एक मास तक भरतपुर में रहकर सत्संग करता रहा । राज्य की ओर से अतिथि के रूप में उसकी सेवा की गई । वह सत्संग करके सहर्ष फरुखनगर लौट गया ।



    बराणी के ठाकुर


    ठाकुर नौरंगसिंह छोटी बोन्द के निवासी थे । उनको ऊण ग्राम के पास फौजी अंग्रेज मिटकाफ साहब, जो काणा था, मिल गया । नौरंगसिंह ने उसको हलवा इत्यादि खिलाकर खूब सेवा की और फिर उसे सुरक्षित ऊँट पर बिठाकर भिवानी और हिसार पहुंचा दिया । इस सेवा के बदले उस अंग्रेज ने एक पत्र लिखकर ठाकुर साहब को दे दिया । उसी पत्र को देखकर जोन्ती के पास ठाकुरों को भूमि देना चाहा किन्तु ठाकुर के निषेध करने पर नवाब की भूमि में से 10 हजार बीघे जमीन छुछकवास के बीड़ में से देनी चाही, ठाकुर साहब ने कहा कि यह जमीन बहुत अधिक है । बड़ी कठिनता से 4 हजार बीघे जमीन स्वीकार की जहां आजकल बराणी ग्राम बसा हुआ है । कुछ जमीन 400 बीघे इनके संबन्धियों को खेतावास में दी गई । इसी प्रकार की सेवा से छुछकवास के पठानों को 6 हजार बीघे भूमि का बीड़ दिया । मौड़ी वाले जाटों को भी इसे प्रकार की सेवा के बदले भूमि दी गई ।



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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)





    Next post in this series :
    करनाल के वीर


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    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  6. #46

    Karnal

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    जब करनाल के वीरों ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किये



    प्रथम स्वातन्त्र्य समर में देहली से जब स्वतन्त्रता की लहरें उठीं तो इसका पूरा प्रभाव जिला करनाल पर भी पड़ा । देहली और अम्बाला के बीच में जिला करनाल एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर है और जिला करनाल को यह अधिकार जगतप्रसिद्ध महाभारत-युद्ध के काल से ही पितृ-संपत्ति की भांति प्राप्त है । जिला करनाल भारत के इतिहास को सदा उज्जवल करता रहा है । सन् 1857 के स्वातन्त्र्य समर में यह किस प्रकार पीछे रह सकता था ? सन् 1857 के युद्ध नेता श्री नाना साहब की दूरदर्शिता तथा अजीमुल्ला के सहयोग के कारण इलाहाबाद, झांसी और देहली के लोग सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युद्ध के लिए कटिबद्ध हो गये । 16 अप्रैल 1857 में नानासाहब और अजीमुल्ला तीर्थयात्रा के बहाने से थानेसर पधारे । उस समय अंग्रेज प्रधान सेनापति डानसन का केन्द्र अम्बाला ही था ।

    नानासाहब की योजना थी कि जब देहली के लोग अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करें तब अम्बाला से अंग्रेजी सेना और उनका प्रधान सेनापति अंग्रेजों की सहायता न कर सके । इसके लिए थानेसर, करनाल और पानीपत जैसे पुराने ऐतिहासिक नगर जो बड़ी सड़क देहली-अम्बाला विभाग पर निवास करते थे, उनको उत्साहित किया जिससे अंग्रेजी सर्प यदि देहली की ओर बढ़े तो मध्य में ही उसके सिर को कुचल दें । नानासाहब और इनके सहयोगी अजीमुल्ला अंग्रेजों की प्रत्येक कूटनीति को भली प्रकार से जानते थे । थानेसर के पश्चात् नानासाहब करनाल और पानीपत गये । इस नगर के निकटवर्ती देहातों के प्रसिद्ध व्यक्तियों से मिले । योजना तैयार की गई । थानेसर की ब्राह्मण पंचायत ने नानासाहब से प्रतिज्ञा की कि हम आपका यह सन्देश हरयाणा प्रान्त के प्रत्येक ग्राम में पहुंचायेंगे । वास्तव में ऐसा ही हुआ । एतत्पश्चात् कुरुक्षेत्र के पवित्र तीर्थों का 'लाल कमल' सन्देश हरयाणा प्रान्त के प्रत्येक घर पहुँचा ।

    नानासाहब के चले जाने पर जिला करनाल के नेताओं ने गुप्त सभा करके अम्बाला के स्वतन्त्रता को दबाने वाले प्रत्येक कर्मचारी के घर को फूंकने का प्रस्ताव पारित किया । इसके पश्चात् प्रतिदिन कर्मचारियों के घरों में आग लगाने की सूचना प्रधान सेनापति अम्बाला के पास जाने लगी । अपराधियों की खोज के लिए सहस्रों रुपये का पारितोषिक रखा गया परन्तु सफलता प्राप्त न हुई और विवशतावश गवर्नर जनरल को लिखना पड़ा ।

    जब 18 मई 1857 को करनाल में देहली पर आक्रमण की सूचना मिली तो थानेसर में स्थित सैनिकों ने जनता के साथ मिलकर अंग्रेज कर्मचारियों को मारकर शहर पर अधिकार कर लिया । 20 मई तक देहली अम्बाला सड़क सर्वथा बन्द रही और अंग्रेजी सेना देहली में सहायतार्थ जाने से रोकी गई । 21 मई 1857 को स्वतन्त्रता के शत्रु महाराजा पटियाला की सेना ने अंग्रेजों की सहायता की । स्वतन्त्रता प्रेमियों को कुचल दिया गया । स्वराज्य के दीवाने हिसार के रांघड़ों को जेल में बन्द करके कड़ा पहरा बिठाया गया । परन्तु अंग्रेजों को भय था कि कैथल के राजपूत 31 मई को इनको छुड़ाने के लिए आक्रमण करेंगे । इसलिए स्वतन्त्रता के प्रेमियों को अम्बाला की जेल में भेजना पड़ा ।

    19 जून 1857 को महाराजा पटियाला अपनी सेना सहित अपने राज्य की रक्षा के लिए चला गया । प्रान्त के लोगों ने पुनः थानेसर पर अधिकार कर लिया । थानेसर के देशद्रोही चौहान राजपूतों ने अंग्रेजों की सहायता की ।

    सन् 1857 में कैथल में अंग्रेज रजिडेन्ट मिस्टर मैकब था । जून 1857 में पाटी के जाटों ने कैथल पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया । अंग्रेजी सेना को तलवार का पानी पिलाया । मिस्टर मैकब अपने परिवार सहित ग्राम मोढ़ी में छुपे । फतेहपुर के कलालों ने मिस्टर मैकब को परिवार सहित मार दिया । जिस समय अंस की आज्ञानुसार प्रधान सेनापति हडसन फतेहपुर को तोपों से उड़ाने के लिए करनाल से रोहतक जा रहा था, तब एक कलाल ने मिस्टर मैकब को मारने का उत्तरदायित्व लिया परन्तु उसे तोप के मुंह पर बांधकर उड़ाया गया । इस वीर के बलिदान ने समस्त ग्राम को बचा लिया, निर्दयी हडसन ग्रामों में जनता के साधारण लोगों को मारता हुआ रोहतक की ओर चला गया ।

    कम्पनी सरकार की आज्ञा से महाराजा पटियाला और महाराजा जीन्द ने थानेसर और पानीपत को अधिकृत करके अंग्रेजों को पंजाब की ओर से निश्चिन्त कर दिया । सिख आरंभ से ही अंग्रेजों के साथ थे । जिला करनाल के जाटों और राजपूतों को बुरी तरह कुचला गया । 25 मई सन् 1857 को अंस अम्बाला से देहली की ओर जा रहा था परन्तु विसूचिका (हैजा) से मार्ग में ही हत्यारे को जीवन से हाथ धोने पड़े ।

    अंग्रेजों ने करनाल को मेरठ पर आक्रमण करने का केन्द्र बनाया । जमना पार आक्रमण किया गया, परन्तु असफलता मिली । अम्बाला से देहली के मार्ग में हजारों लोगों को पकड़ कर कोर्ट मार्शल के पश्चात् अत्यन्त बुरे ढ़ंग से मारा जाता था । हजारों हिन्दुस्तानियों को फांसी की रस्सी से लटका दिया गया । इनके सिरों के बाल एक-एक करके उखाड़े गये । इनके शरीरों को संगीनों से नोचा गया । भालों और संगीनों से हिन्दू व देहातियों के मुख में गोमांस डालकर उनका धर्म भ्रष्ट किया गया । इस प्रकार जिला करनाल के असंख्य लोगों ने असंख्य बलिदान इस स्वतन्त्रता युद्ध में दिये ।



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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 483-484 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)




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    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  7. #47
    Deswal ji, kuchh Rohtak ke veero ke baarein mein bi hai kyaa taaki is area ke baare mein bhi hamein pata chale,

    you are doing a wonderful job:rock

  8. #48

    Raja Nahar Singh of Ballabhgarh

    बल्लभगढ़ नरेश नाहरसिंह


    1857 में भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु प्रज्वलित प्रचण्ड समराग्नि में परवाना बनकर जलने वाले अगणित ज्ञात एवं अज्ञात नौनिहाल शहीदों में बल्लभगढ़ नरेश राजा नाहरसिंह का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है । दिल्ली की जड़ में अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लगाने का श्रेय इसी महावीर को मिला । रणक्षेत्र में उसे पराजित करना असंभव ही था क्योंकि अंग्रेज बल्लभगढ़ को दिल्ली का "पूर्वी लोह द्वार" मानकर उससे भय-त्रस्त रहते थे और बल्लभगढ़ नरेश से युद्ध करने का साहस तक उनमें न था । राजा नाहरसिंह के जीते जी उनको किसी पेन्शन या उत्तराधिकार की भी ऐसी कोई उलझन न थी, जिसके कारण महारानी लक्ष्मीबाई या नाना साहब की भांति उनके व्यक्तिगत स्वार्थों को अंग्रेजों ने कोई धक्का पहुंचाया हो । फिर भी रोटी और लाल फूल का संकेत पाते ही राजा नाहरसिंह देश की स्वतन्त्रता की रक्षार्थ स्वेच्छा से समराग्नि में कूद पड़े और दिल्ली के पराभव के उपरान्त भी अंग्रेजों से नाक से चना बिनवाते रहे ।

    यह थी उनकी निस्पृह देशभक्ति की प्रबल भावना जिससे अंग्रेज चकरा गए और अन्त में छल से सफेद झंडा दिखाकर धोखे से उन्हें दिल्ली लाए और वहां एक रात सोते हुए इस 'नाहर' को फिरंगियों ने कायरतापूर्वक जेल के सीखचों में बन्द कर दिया ।

    गिरफ्तारी के बाद भी अंग्रेज बराबर यह चेष्टा करते रहे कि नाहरसिंह उनकी मित्रता स्वीकार कर लें, किन्तु वह महावीर तो उस फौलद का बना था जो टूट सकती है किन्तु झुकना नहीं जानती । परिणामतः अंग्रेजों की मैत्री को अस्वीकार करने के अपराध में राजा नाहरसिंह ने दिल्ली के ऐतिहासिक फव्वारे पर सहर्ष फांसी के तख्ते पर झूल कर जर्जर भारत माता का अपने रक्त से अभिषेक किया और एक महान् उद्देश्य की प्राप्ति के मार्ग में वह मरकर भी अमर हो गए ।


    महत्वपूर्ण क्यों नहीं ?

    यह दूसरी बात है कि विदेशी दासत्व के युग में लिखे गए भारतीय इतिहास ग्रन्थों में भारत के इस अमर नौनिहाल को वह महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया है जिसका वह वास्तविक अधिकारी है । पर क्या अब स्वतन्त्र भारत में भी हम इस पिछली भूल को दोहराते रहें ?

    कदाचित् राजा नाहरसिंह के इस अमर बलिदान को दो कारणों से अधिक महत्त्व नहीं मिला । प्रथम तो यह कि बल्लभगढ़ उन रजवाड़ों में सबसे छोटा था जिन्होंने सन 1857 के स्वातन्त्र्य समर में खुल कर भाग लिया और उसमें अपना अस्तित्व ही लीन कर दिया । उगते सूर्य को नमस्कार करने वाली हमारी मनोवृत्ति इस डूबते सूर्य की ओर आकृष्ट नहीं हुई या फिर दूसरा कारण यह था कि राजा नाहरसिंह को फाँसी देने से पूर्व कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों ने उन्हें जबरन "नाहर खाँ" प्रचारित करके जनता में एक भ्रम फैला दिया था । हिन्दू धर्मानुसार राजा अवध्य होता है, किन्तु अंग्रेजों के हित में इस राजा का मारा जाना उस समय अनिवार्य था । अस्तु ।

    अंग्रेजों ने एक विरोधी शक्ति के रूप में राजनैतिक उद्देश्य से राजा नाहरसिंह के विरुद्ध जो कुछ भी किया, हम यहां उस पर विचार करना नहीं चाहते, क्योंकि स्वयं ब्रिटिश इतिहासकारों ने महाराजा नाहरसिंह का जिस रूप में उल्लेख किया है वही उनके व्यक्तित्व एवं वीरत्व की परख की उत्तम कसौटी है । यदि महाराजा और उनके पूर्वज अद्वितीय वीर, सुयोग्य सैन्य संचालक, चतुर राजनीतिज्ञ तथा प्रजा-वत्सल शासक न होते तो मुगल साम्राज्य की नाक के तले ही यह स्वतन्त्र जाट-राज्य बल्लभगढ़ शान से मस्तक उठाए यों खड़ा न रहता ।


    मुगलों से सन्धि

    बल्लभगढ़ का यह छोटा सा राज्य दिल्ली से केवल 20 मील दूर ही तो था । मुगल सिंहासन की जड़ में ही एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य स्वयं मुगलों को ही कब सहन होता ? इतिहास साक्षी है कि बार बार शाही सेना ने बल्लभगढ़ पर आक्रमण किए । पर बल्लभगढ़ के सुदृढ़ दुर्ग की अजेयता को स्वीकार करके दिल्ली दरबार बल्लभगढ़ नरेशों के साथ मित्रता के स्थायी सम्बंध में बंध गया । नवयुवक राजा नाहरसिंह की यह दूरदर्शिता ही कही जायेगी कि इन्होंने दिन-दूने बढ़ने वाले अंग्रेजी खतरे का सामना करने की दृष्टि से मुगल बादशाह से मित्रता कर ली ।

    मित्रता के साथ ही लड़खड़ाते मुगल साम्राज्य का बहुत सा उत्तरदायित्व भी राजा नाहरसिंह ने अपने कन्धों पर सम्भाला । परिणामतः दिल्ली नगर की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था की बागडोर बादशाह ने राजा को दे दी । शाही दरबार में राजा नाहरसिंह को विशेष सम्मान के रूप में 'सोने की कुर्सी' मिलती थी और वह भी बादशाह के बिल्कुल समीप ।

    इस प्रकार टूटते हुए मुगल साम्राज्य की ढ़ाल के रूप में सम्राट् बहादुरशाह के यदि कोई विश्वस्त सहायक थे तो वह राजा नाहरसिंह ही थे । हर संकट में वह दिल्ली की गद्दी की रक्षार्थ तत्पर रहते थे ।

    परन्तु समय की गति तो किसी के रोके नहीं रुकती । धीरे-धीरे दिल्ली का तख्त अंग्रेजों के चंगुल में आता गया । यह दशा देखकर राजा नाहरसिंह सशंक हो उठे । उन्होंने रात-दिन दौड़-धूप करके सैन्य संगठन किया और इस योजना की सफलता के लिए यूरोपीय कप्तानों को अपनी सेना में सम्मानपूर्ण पद दिए । श्री पीयरसन को दिल्ली में बल्लभगढ़ राज्य का रेजीडेन्ट नियत किया तथा बल्लभगढ़ की सेना को यथासम्भव आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित किया ।

    16 मई 1857 को जब कि दिल्ली फिर से आजाद हुई, राजा नाहरसिंह की सेना दिल्ली की पूर्वी सीमा पर तैनात हुई । शाही सहायता के लिए 15000 रुहेलों की फौज सजाकर मुहम्मद बख्त खां दिल्ली में आ चुका था किन्तु उसने भी पूर्वी मोर्चे की कमान राजा नाहरसिंह पर ही रहने दी । सम्राट् बहादुरशाह भी अपनी दाहिनी भुजा नाहरसिंह को ही मानते थे ।


    मजबूत मोर्चाबन्दी

    अंग्रेजी आधिपत्य से मुक्त राजधानी दिल्ली के 134 दिन के स्वतन्त्र जीवन में राजा नाहरसिंह ने रात दिन परिश्रम करके सुव्यवस्था बनाए रखने तथा मजबूत मोर्चाबन्दी करने का प्रयत्न किया । उन्होंने दिल्ली से बल्लभगढ़ तक फौजी चौकियां तथा गुप्तचरों के दल नियुक्त कर दिए । उनकी इस तैयारी से त्रस्त होकर ही सर जॉन लारेन्स ने पूर्व की ओर से दिल्ली पर आक्रमण करना स्थगित कर दिया । लार्ड केनिंग को लिखे गए एक पत्र में सर जॉन लारेन्स ने लिखा था - "यहां पूर्व और दक्षिण की ओर बल्लभगढ़ के नाहरसिंह की मजबूत मोर्चाबन्दी है और उस सैनिक दीवार को तोड़ना असंभव ही दीख पड़ता है, जब तक कि चीन अथवा इंग्लैंड से हमारी कुमक नहीं आ जाती ।"

    यही हुआ भी - 13 सितंबर को जब अंग्रेजी पलटनों ने दिल्ली पर आक्रमण किया तब वह कश्मीरी दरवाजे की ओर से ही किया गया । एक बार जब गोरे शहर में घुस पड़े तब अधिकांश भारतीय सैनिक तितर-बितर होने लगे । बादशाह को भी किला छोड़कर हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी । इस बिगड़ी परिस्थिति में राजा ने बादशाह से बल्लभगढ़ चलने का आग्रह किया किन्तु इलाहीबख्श नामक एक अंग्रेज एजेन्ट के बहकाने से बादशाह ने हुमायूं के मकबरे से आगे बढ़ना अस्वीकार कर दिया ।


    ….continued

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    Last edited by dndeswal; December 2nd, 2008 at 03:06 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  9. #49

    Nahar Singh-II

    ….continued from previous post


    राजा नाहरसिंह की बात न मानने का प्रतिफल यह हुआ कि 21 सितंबर को कप्तान हड़सन ने चुपचाप बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लिया । फिर भी राजा ने बहादुरी दिखाई और अंग्रेजी फौज को ही घेरे में डाल लिया । खतरे को पहचान कर कप्तान हडसन ने शाहजादों को गोली मार दी और सम्राट् को भी मार डालने की धमकी दी । अतः राजा ने सम्राट् की प्राणरक्षा की दृष्टि से घेराबन्दी उठा ली । दिल्ली के तख्त का यह अन्तिम अध्याय था ।

    रणबांकुरे नाहरसिंह ने तब भी हिम्मत नहीं हारी । उसने रातों रात पीछे हटकर बल्लभगढ़ के किले में घुसकर नए सिरे से मोर्चा लगाया और आगरे की ओर से दिल्ली को बढ़ने वाली गोरी पलटनों की धज्जियां उड़ाई जाने लगीं । हजारों गोरे बन्दी बना लिये गए और अगणित बल्लभगढ़ के मैदान में धराशायी हुए । कहा जाता है कि बल्लभगढ़ में रक्त की नाली बहने लगी थी जिससे राजकीय तालाब का रंग रक्तिम हो गया था । सम्राट् के शहजादों के रक्त का बदला बल्लभगढ़ में ले लिया गया ।


    धोखा

    परन्तु चालाक अंग्रेजों ने धोखेबाजी से काम लिया और रणक्षेत्र में सन्धिसूचक सफेद झंडा दिखा दिया । चार घुड़सवार अफसर दिल्ली से बल्लभगढ़ पहुंचे और राजा से निवेदन करने लगे कि सम्राट् बहादुरशाह से सन्धि होने वाली है, उसमें आपका उपस्थित होना आवश्यक है । अंग्रेज आपसे मित्रता ही रखना अभीष्ट समझते हैं ।

    भोला जाट नरेश अंग्रेजी जाल में फंस गया । उसने अंग्रेजों का विश्वास कर 500 चुने हुए जवानों के साथ दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया ।

    इस प्रकार अंग्रेजी कूटनीति बल्लभगढ़ की स्वतन्त्रता का अभिशाप बनकर राजा नाहरसिंह के सम्मुख उपस्थित हुई । दिल्ली में प्रवेश करते ही छिपी हुई गोरी पलटन ने अचानक राजा नाहरसिंह को बन्दी बना लिया । उनके बहादुर साथियों को मार-काट दिया गया ।

    दूसरे ही दिन पूरी शक्ति से अंग्रेजों ने बल्लभगढ़ पर आक्रमण कर दिया । वह सुदृढ़ दुर्ग जिसे अंग्रेज लौह द्वार कहते थे, तीन दिन तोप के गोलों से गले मिलता रहा । राजा ने अपने दुर्ग को गोला-बारूद का केन्द्र बना रखा था । बरसों तक लड़ने की क्षमता थी उस छोटे से किले में । किन्तु बिना सेनापति के आखिर कब तक लड़ा जा सकता था ?

    उधर स्वाभिमानी राजा ने अंग्रेजों का मित्र बनने से साफ इन्कार कर दिया । उसने कहा - "शत्रुओं को सिर झुकाना मैंने सीखा नहीं है" । 36 वर्षीय राजा की सुन्दर लुभावनी मुखाकृति को देखकर हड़सन ने बड़ा दयाभाव दर्शाते हुए समझाया "नाहरसिंह ! मैं तुम्हें अब भी फांसी से बचा सकता हूँ । थोड़ा सा झुक जाओ ।" राजा ने हड़सन की ओर पीठ करते हुए उत्तर दिया - "कह दिया, फिर सुन लो । गोरे मेरे शत्रु हैं, मेरे देश के शत्रु हैं, उनसे क्षमा मैं कदापि नहीं मांग सकता । लाख नाहरसिंह कल पैदा हो जायेंगे ।"

    नाहर के उपर्युक्त उत्तर से अंग्रेज बौखला गए । उन्होंने राजा को फांसी देने का निश्चय किया और चांदनी चौक में आधुनिक फव्वारे के निकट, जहां राजा नाहरसिंह का दिल्ली स्थित आवास था, उनको खुले आम फांसी देने की व्यवस्था की गई । दिल्ली की वह जनता जो किसी दिन राजा को शक्ति का देवता मानकर उसे अपनी सुरक्षा और सुव्यवस्था का अधिष्ठाता समझती थी, उदास भाव से गर्दन झुकाए, बड़ी संख्या में अन्तिम दर्शन को उपस्थित थी । उस दिन राजा की 36वीं वर्षगांठ थी जिसे मनाने के लिए वह वीर इस प्रकार फांसी के तख्ते के निकट आया मानो अपनी वर्षगांठ के उपलक्षय में तुलादान की तराजू के निकट आकर खड़ा हुआ हो । राजा के साथ उसके तीन अन्य विश्वस्त साथी और थे - खुशालसिंह, गुलाबसिंह और भूरासिंह । बल्लभगढ़ के ये चार नौनिहाल देशभक्ति के अपराध में साथ-साथ फांसी के तख्ते पर खड़े हुए ।

    दिल्ली की जनता नैराश्यभाव से साश्रु इस हृदयविदारक दृश्य को देख रही थी । परन्तु राजा नाहरसिंह के मुखमंडल पर मलिनता का कोई चिन्ह न था, वरन् एक दिव्य तेज शत्रुओं को आशंकित करता हुआ उनके मुख-मंडल पर छाया हुआ था ।


    चिंगारी बुझने न देना

    अन्त में फांसी की घड़ी आई और हड़सन ने सिर झुका कर राजा से उनकी अन्तिम इच्छा पूछी । राजा ने सतेज स्वर में उत्तर दिया, "तुम से कुछ नहीं मांगना । परन्तु इन भयत्रस्त दर्शकों को मेरा यह सन्देश दो कि जो चिंगारी मैं आप लोगों में छोड़े जा रहा हूं उसे बुझने न देना । देश की इज्जत अब तुम्हारे हाथ है ।"

    हड़सन समझ नहीं सका । उसने दुभाषिये की ओर इशारा किया । किन्तु दुभाषिये ने जब उसे राजा की यह इच्छा सुनाई तब वह सन्न रह गया और राजा की इस अन्तिम इच्छा को उपस्थित दर्शकों को कहने में अपनी असमर्थता प्रकट की ।

    इस प्रकार राजा नाहरसिंह निस्वार्थ भाव से देश की बलिवेदी पर चढ़कर अमर हो गए । उनका पार्थिव उनके परिवार को नहीं दिया गया । अतः उनके राजपुरोहित ने राजा का पुतला बनाकर, गंगा किनारे अन्तिम संस्कार की रस्म पूरी की ।


    ________________________________________


    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)





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    Last edited by dndeswal; December 2nd, 2008 at 03:16 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  10. #50

    histroy of haryana

    Deswal Ji,

    Thanks for such nice thread. Have you some material on Bahadurgarh,if yes then I will be thankful to you.
    Lage Raho, Mehnat Karo, Rome was not buit in a day.

  11. #51
    there were other krantikari, like luxmi, tope, nana etc. all marathas in non-maratha lands having no political base in the lands where they were situated...n hence this sepoy mutiny, ended ....

    hun hun the surrender of bahadurshah zafar was taken by just a major in british army...

    arya samaj calcutta organised a debate "pratham bhartiya swatantrata sangram me arya samaj ka yogdan" in 1976.

    deswal ji, importance of Nahar Singh lies in fact that he had ground support. Where as usual in Jat kingdoms, he was considered brother by hindu-muslim masses more than a king. Due to this British feared him more as compared to Rani Jhansi, Nana Sahib, Tantia Tope etc.

    when nahar was being hanged, he said nahar will be born again n again he was born in the form of bhagat..

    ve dharm ki bailgadi se utter kar kranti ke rath par baith gaye....

    Nahar Singh patronised two Jat brothers in Meham Chaubisi who died as as Martyres. I've forgotten their names. There is another one on which one Upadhyay from Mathura completed his Ph.D. thesis. His extract of thesis was published in 1980 in Hindustan Times. There he showed that one unknown Jat Martyre Devi Singh Godha at Mathura was also patroniosed by Nahar Singh. There are about 20 villages of Godha Jats in Mathura. Nahar Singh's father in law was from Meerut.

    Arya Samaj (Shyam ji Krishna Verma) has rightly called this sepoy mutini as first freedom struggle but by all measurements Nahar was first shaheed of first freedom struggle
    Last edited by Samarkadian; December 7th, 2008 at 03:18 PM. Reason: Concrete one post.

  12. #52
    Quote Originally Posted by dndeswal View Post
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    राजा नाहरसिंह की बात न मानने का प्रतिफल यह हुआ कि 21 सितंबर को कप्तान हड़सन ने चुपचाप बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लिया । फिर भी राजा ने बहादुरी दिखाई और अंग्रेजी फौज को ही घेरे में डाल लिया । खतरे को पहचान कर कप्तान हडसन ने शाहजादों को गोली मार दी और सम्राट् को भी मार डालने की धमकी दी । अतः राजा ने सम्राट् की प्राणरक्षा की दृष्टि से घेराबन्दी उठा ली । दिल्ली के तख्त का यह अन्तिम अध्याय था ।

    रणबांकुरे नाहरसिंह ने तब भी हिम्मत नहीं हारी । उसने रातों रात पीछे हटकर बल्लभगढ़ के किले में घुसकर नए सिरे से मोर्चा लगाया और आगरे की ओर से दिल्ली को बढ़ने वाली गोरी पलटनों की धज्जियां उड़ाई जाने लगीं । हजारों गोरे बन्दी बना लिये गए और अगणित बल्लभगढ़ के मैदान में धराशायी हुए । कहा जाता है कि बल्लभगढ़ में रक्त की नाली बहने लगी थी जिससे राजकीय तालाब का रंग रक्तिम हो गया था । सम्राट् के शहजादों के रक्त का बदला बल्लभगढ़ में ले लिया गया ।

    धोखा

    परन्तु चालाक अंग्रेजों ने धोखेबाजी से काम लिया और रणक्षेत्र में सन्धिसूचक सफेद झंडा दिखा दिया । चार घुड़सवार अफसर दिल्ली से बल्लभगढ़ पहुंचे और राजा से निवेदन करने लगे कि सम्राट् बहादुरशाह से सन्धि होने वाली है, उसमें आपका उपस्थित होना आवश्यक है । अंग्रेज आपसे मित्रता ही रखना अभीष्ट समझते हैं ।

    भोला जाट नरेश अंग्रेजी जाल में फंस गया । उसने अंग्रेजों का विश्वास कर 500 चुने हुए जवानों के साथ दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया ।

    इस प्रकार अंग्रेजी कूटनीति बल्लभगढ़ की स्वतन्त्रता का अभिशाप बनकर राजा नाहरसिंह के सम्मुख उपस्थित हुई । दिल्ली में प्रवेश करते ही छिपी हुई गोरी पलटन ने अचानक राजा नाहरसिंह को बन्दी बना लिया । उनके बहादुर साथियों को मार-काट दिया गया ।

    दूसरे ही दिन पूरी शक्ति से अंग्रेजों ने बल्लभगढ़ पर आक्रमण कर दिया । वह सुदृढ़ दुर्ग जिसे अंग्रेज लौह द्वार कहते थे, तीन दिन तोप के गोलों से गले मिलता रहा । राजा ने अपने दुर्ग को गोला-बारूद का केन्द्र बना रखा था । बरसों तक लड़ने की क्षमता थी उस छोटे से किले में । किन्तु बिना सेनापति के आखिर कब तक लड़ा जा सकता था ?

    उधर स्वाभिमानी राजा ने अंग्रेजों का मित्र बनने से साफ इन्कार कर दिया । उसने कहा - "शत्रुओं को सिर झुकाना मैंने सीखा नहीं है" । 36 वर्षीय राजा की सुन्दर लुभावनी मुखाकृति को देखकर हड़सन ने बड़ा दयाभाव दर्शाते हुए समझाया "नाहरसिंह ! मैं तुम्हें अब भी फांसी से बचा सकता हूँ । थोड़ा सा झुक जाओ ।" राजा ने हड़सन की ओर पीठ करते हुए उत्तर दिया - "कह दिया, फिर सुन लो । गोरे मेरे शत्रु हैं, मेरे देश के शत्रु हैं, उनसे क्षमा मैं कदापि नहीं मांग सकता । लाख नाहरसिंह कल पैदा हो जायेंगे ।"

    नाहर के उपर्युक्त उत्तर से अंग्रेज बौखला गए । उन्होंने राजा को फांसी देने का निश्चय किया और चांदनी चौक में आधुनिक फव्वारे के निकट, जहां राजा नाहरसिंह का दिल्ली स्थित आवास था, उनको खुले आम फांसी देने की व्यवस्था की गई । दिल्ली की वह जनता जो किसी दिन राजा को शक्ति का देवता मानकर उसे अपनी सुरक्षा और सुव्यवस्था का अधिष्ठाता समझती थी, उदास भाव से गर्दन झुकाए, बड़ी संख्या में अन्तिम दर्शन को उपस्थित थी । उस दिन राजा की 36वीं वर्षगांठ थी जिसे मनाने के लिए वह वीर इस प्रकार फांसी के तख्ते के निकट आया मानो अपनी वर्षगांठ के उपलक्षय में तुलादान की तराजू के निकट आकर खड़ा हुआ हो । राजा के साथ उसके तीन अन्य विश्वस्त साथी और थे - खुशालसिंह, गुलाबसिंह और भूरासिंह । बल्लभगढ़ के ये चार नौनिहाल देशभक्ति के अपराध में साथ-साथ फांसी के तख्ते पर खड़े हुए ।

    दिल्ली की जनता नैराश्यभाव से साश्रु इस हृदयविदारक दृश्य को देख रही थी । परन्तु राजा नाहरसिंह के मुखमंडल पर मलिनता का कोई चिन्ह न था, वरन् एक दिव्य तेज शत्रुओं को आशंकित करता हुआ उनके मुख-मंडल पर छाया हुआ था ।

    चिंगारी बुझने न देना

    अन्त में फांसी की घड़ी आई और हड़सन ने सिर झुका कर राजा से उनकी अन्तिम इच्छा पूछी । राजा ने सतेज स्वर में उत्तर दिया, "तुम से कुछ नहीं मांगना । परन्तु इन भयत्रस्त दर्शकों को मेरा यह सन्देश दो कि जो चिंगारी मैं आप लोगों में छोड़े जा रहा हूं उसे बुझने न देना । देश की इज्जत अब तुम्हारे हाथ है ।"

    हड़सन समझ नहीं सका । उसने दुभाषिये की ओर इशारा किया । किन्तु दुभाषिये ने जब उसे राजा की यह इच्छा सुनाई तब वह सन्न रह गया और राजा की इस अन्तिम इच्छा को उपस्थित दर्शकों को कहने में अपनी असमर्थता प्रकट की ।

    इस प्रकार राजा नाहरसिंह निस्वार्थ भाव से देश की बलिवेदी पर चढ़कर अमर हो गए । उनका पार्थिव उनके परिवार को नहीं दिया गया । अतः उनके राजपुरोहित ने राजा का पुतला बनाकर, गंगा किनारे अन्तिम संस्कार की रस्म पूरी की ।

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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)





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    parthiv sarir tte Sir ji Bhagat ka bhi ko ni diyo. Vo ek date pahlyan hi phansi jya di angrezan nne.

  13. #53
    Quote Originally Posted by snandal1 View Post
    there were other krantikari, like luxmi, tope, nana etc. all marathas in non-maratha lands having no political base in the lands where they were situated...n hence this sepoy mutiny, ended ....

    hun hun the surrender of bahadurshah zafar was taken by just a major in british army...

    arya samaj calcutta organised a debate "pratham bhartiya swatantrata sangram me arya samaj ka yogdan" in 1976.
    Arya Samaj was established in the year 1875 by Swami Dayanand. Swamiji was born in 1824 and breathed his last in 1883.

    In the year 1857, Swami Dayanand was a 33-year youth. His activities during the three years (1857-1860) of his life are not mentioned in his biographies written by various writers. However, certain evidences point to the fact that he was involved, with other saints, in spreading awareness in masses to fight British Raj. Many articles (which need to be compiled at one place) indicate that he roamed all over India, riding a white horse and British intelligence agents were also after him. Swamiji travelled inside Haryana's villages during 1857 (at that time, he had not adopted 'sanyas) and after this war (upto 1860), when Britishers punished innocent villagers of Haryana.

    Swami Dayanand was born in Gujarat and his ancestors belonged to Haryana (they migrated to Gujarat from Haryana). This was the sole reason that Swami Dayanand could very well understand the language spoken by people of Haryana, Delhi etc.

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    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  14. #54
    but he (dayananda) died too young at the age of 52. but I hope he was not poisoned by british. a shaheed is one who sacrifices himself, but at the same time awakes masses. nahar did. bhagat did.

    nahar died when he was 33. bhagat I feel younger than him?

  15. #55
    Quote Originally Posted by dndeswal View Post
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    जब करनाल के वीरों ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किये


    प्रथम स्वातन्त्र्य समर में देहली से जब स्वतन्त्रता की लहरें उठीं तो इसका पूरा प्रभाव जिला करनाल पर भी पड़ा । देहली और अम्बाला के बीच में जिला करनाल एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर है और जिला करनाल को यह अधिकार जगतप्रसिद्ध महाभारत-युद्ध के काल से ही पितृ-संपत्ति की भांति प्राप्त है । जिला करनाल भारत के इतिहास को सदा उज्जवल करता रहा है । सन् 1857 के स्वातन्त्र्य समर में यह किस प्रकार पीछे रह सकता था ? सन् 1857 के युद्ध नेता श्री नाना साहब की दूरदर्शिता तथा अजीमुल्ला के सहयोग के कारण इलाहाबाद, झांसी और देहली के लोग सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युद्ध के लिए कटिबद्ध हो गये । 16 अप्रैल 1857 में नानासाहब और अजीमुल्ला तीर्थयात्रा के बहाने से थानेसर पधारे । उस समय अंग्रेज प्रधान सेनापति डानसन का केन्द्र अम्बाला ही था ।

    नानासाहब की योजना थी कि जब देहली के लोग अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करें तब अम्बाला से अंग्रेजी सेना और उनका प्रधान सेनापति अंग्रेजों की सहायता न कर सके । इसके लिए थानेसर, करनाल और पानीपत जैसे पुराने ऐतिहासिक नगर जो बड़ी सड़क देहली-अम्बाला विभाग पर निवास करते थे, उनको उत्साहित किया जिससे अंग्रेजी सर्प यदि देहली की ओर बढ़े तो मध्य में ही उसके सिर को कुचल दें । नानासाहब और इनके सहयोगी अजीमुल्ला अंग्रेजों की प्रत्येक कूटनीति को भली प्रकार से जानते थे । थानेसर के पश्चात् नानासाहब करनाल और पानीपत गये । इस नगर के निकटवर्ती देहातों के प्रसिद्ध व्यक्तियों से मिले । योजना तैयार की गई । थानेसर की ब्राह्मण पंचायत ने नानासाहब से प्रतिज्ञा की कि हम आपका यह सन्देश हरयाणा प्रान्त के प्रत्येक ग्राम में पहुंचायेंगे । वास्तव में ऐसा ही हुआ । एतत्पश्चात् कुरुक्षेत्र के पवित्र तीर्थों का 'लाल कमल' सन्देश हरयाणा प्रान्त के प्रत्येक घर पहुँचा ।

    नानासाहब के चले जाने पर जिला करनाल के नेताओं ने गुप्त सभा करके अम्बाला के स्वतन्त्रता को दबाने वाले प्रत्येक कर्मचारी के घर को फूंकने का प्रस्ताव पारित किया । इसके पश्चात् प्रतिदिन कर्मचारियों के घरों में आग लगाने की सूचना प्रधान सेनापति अम्बाला के पास जाने लगी । अपराधियों की खोज के लिए सहस्रों रुपये का पारितोषिक रखा गया परन्तु सफलता प्राप्त न हुई और विवशतावश गवर्नर जनरल को लिखना पड़ा ।

    जब 18 मई 1857 को करनाल में देहली पर आक्रमण की सूचना मिली तो थानेसर में स्थित सैनिकों ने जनता के साथ मिलकर अंग्रेज कर्मचारियों को मारकर शहर पर अधिकार कर लिया । 20 मई तक देहली अम्बाला सड़क सर्वथा बन्द रही और अंग्रेजी सेना देहली में सहायतार्थ जाने से रोकी गई । 21 मई 1857 को स्वतन्त्रता के शत्रु महाराजा पटियाला की सेना ने अंग्रेजों की सहायता की । स्वतन्त्रता प्रेमियों को कुचल दिया गया । स्वराज्य के दीवाने हिसार के रांघड़ों को जेल में बन्द करके कड़ा पहरा बिठाया गया । परन्तु अंग्रेजों को भय था कि कैथल के राजपूत 31 मई को इनको छुड़ाने के लिए आक्रमण करेंगे । इसलिए स्वतन्त्रता के प्रेमियों को अम्बाला की जेल में भेजना पड़ा ।

    19 जून 1857 को महाराजा पटियाला अपनी सेना सहित अपने राज्य की रक्षा के लिए चला गया । प्रान्त के लोगों ने पुनः थानेसर पर अधिकार कर लिया । थानेसर के देशद्रोही चौहान राजपूतों ने अंग्रेजों की सहायता की ।

    सन् 1857 में कैथल में अंग्रेज रजिडेन्ट मिस्टर मैकब था । जून 1857 में पाटी के जाटों ने कैथल पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया । अंग्रेजी सेना को तलवार का पानी पिलाया । मिस्टर मैकब अपने परिवार सहित ग्राम मोढ़ी में छुपे । फतेहपुर के कलालों ने मिस्टर मैकब को परिवार सहित मार दिया । जिस समय अंस की आज्ञानुसार प्रधान सेनापति हडसन फतेहपुर को तोपों से उड़ाने के लिए करनाल से रोहतक जा रहा था, तब एक कलाल ने मिस्टर मैकब को मारने का उत्तरदायित्व लिया परन्तु उसे तोप के मुंह पर बांधकर उड़ाया गया । इस वीर के बलिदान ने समस्त ग्राम को बचा लिया, निर्दयी हडसन ग्रामों में जनता के साधारण लोगों को मारता हुआ रोहतक की ओर चला गया ।

    कम्पनी सरकार की आज्ञा से महाराजा पटियाला और महाराजा जीन्द ने थानेसर और पानीपत को अधिकृत करके अंग्रेजों को पंजाब की ओर से निश्चिन्त कर दिया । सिख आरंभ से ही अंग्रेजों के साथ थे । जिला करनाल के जाटों और राजपूतों को बुरी तरह कुचला गया । 25 मई सन् 1857 को अंस अम्बाला से देहली की ओर जा रहा था परन्तु विसूचिका (हैजा) से मार्ग में ही हत्यारे को जीवन से हाथ धोने पड़े ।

    अंग्रेजों ने करनाल को मेरठ पर आक्रमण करने का केन्द्र बनाया । जमना पार आक्रमण किया गया, परन्तु असफलता मिली । अम्बाला से देहली के मार्ग में हजारों लोगों को पकड़ कर कोर्ट मार्शल के पश्चात् अत्यन्त बुरे ढ़ंग से मारा जाता था । हजारों हिन्दुस्तानियों को फांसी की रस्सी से लटका दिया गया । इनके सिरों के बाल एक-एक करके उखाड़े गये । इनके शरीरों को संगीनों से नोचा गया । भालों और संगीनों से हिन्दू व देहातियों के मुख में गोमांस डालकर उनका धर्म भ्रष्ट किया गया । इस प्रकार जिला करनाल के असंख्य लोगों ने असंख्य बलिदान इस स्वतन्त्रता युद्ध में दिये ।


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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 483-484 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)




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    oh ho sir plz come of it, this nana, tantian, luxmi virtually n practically had no role in 1857 war. I need not repeat rana pratap again here. similar were these people. they had practically no public support. n revolutions are always based on public suppot. when public revolts no ruler can sustain. because all rulers are based on public support.

    this principle was understood by bhagat. hence british butchered him like nahar.

    nana was pensioned at bithur kanpur, luxmi at jhansi where no marathas were there.

  16. #56

    Rao Tularam

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    हरयाणा प्रान्त के महान् योद्धा राव राजा तुलाराम


    इस असार संसार में कितने ही मनुष्य जन्म लेते हैं और अपना सांसारिक जीवन सामाप्त कर मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं । संस्कृत के एक कवि का वचन है -

    परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।
    स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥

    अर्थात् इस संसार में वह मनुष्य ही पैदा हुआ है जिसके पैदा होने से वंश वा जाति उन्नति को प्राप्त होती है । वैसे तो इस संसार में कितने ही नर पैदा होते हैं और मरते हैं । इस वचन के अनुसार रेवाड़ी के राव राजा तुलाराम अपनी अपनी उद्दात्त कार्यावली से अपने प्रान्त एवं जाति को प्रकाशित कर गए ।

    आज से 101 वर्ष पूर्व, जबकि ऋषियों एवं महान् योद्धाओं की पवित्र भूमि भारत विदेशी अंग्रेज जाति द्वारा पददलित की जा रही थी और अंग्रेज जाति इस राष्ट्र की फूट की बीमारी का पूर्ण लाभ उठाकर अपनी कूटनीति द्वारा इस राष्ट्र के विशाल मैदानों की स्वामिनी बन बैठी थी । इस विदेशी जाति ने मुसलमान बादशाहों एवं हिन्दू राजाओं को अपनी कूटनीति से बुरी तरह कुचला और इतना कुचला कि वे अपनी वास्तविकता को भूल ग्ये । किन्तु किसी जाति के अत्याचार ही दूसरी जाति को आत्म-सम्मान एवं आत्म-गौरव के रक्षार्थ प्रेरित करते हैं ।

    ठीक इसी समय जबकि अंग्रेज जाति भारतीय जनता पर लोम-हर्षण अत्याचार कर रही थी और भारतीय जनता इसका बदला लेने की अन्दर ही अन्दर तैयारी कर रही थी, उसी समय 10 मई 1857 को चर्बी वाले कारतूस के धार्मिक जोश की आड़ में मेरठ में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलन्द कर ही तो दिया । प्रसुप्त भावनायें जाग उठीं, देश ने विलुप्त हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए करवट बदली, राजवंशों ने तलवार तान स्वतन्त्रता देवी का स्वागत किया, समस्त राष्ट्र ने फिरंगी को दूर करने की मन में ठान ली ।

    भला इस शुभ अवसर को उपस्थित देख स्वाधीन भावनाओं के आराधक राव राजा तुलाराम कैसे शान्त बैठते ? उन्होंने भी उचित अवसर देख स्वतन्त्रता के लिए शंख ध्वनि की । वीर राजा तुलाराम की ललकार को सुन हरयाणा के समस्त रणबांकुरे स्वतन्त्रता के झण्डे के नीचे एकत्रित हो, अपने यशस्वी नेताओं के नेतृत्व में चल दिए, शत्रु से दो हाथ करने के लिए दिल्ली की ओर ।

    जब राव तुलाराम अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे, तो मार्ग में सोहना और तावड़ू के बीच अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ हो गई, क्योंकि फिरंगियों को राव तुलाराम के प्रयत्नों का पता चल गया था । दोनों सेनाओं का घमासान युद्ध हुआ । आजादी के दीवाने दिल खोल कर लड़े और मैदान जीत लिया । मिस्टर फोर्ड को मुंह की खानी पड़ी और उसकी सारी फौज नष्ट हो गई और वह स्वयं दिल्ली भाग आया ।

    उधर मेरठ में स्वाधीनता यज्ञ को आरम्भ करने वाले राव राजा तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल जो नांगल पठानी (रेवाड़ी) के राव जीवाराम के द्वितीय पुत्र थे और मेरठ में कोतवाल पद पर थे, उन्होंने समस्त कैदखानों के दरवाजों को खोल दिया तथा नवयुवकों को स्वतन्त्रता के लिए ललकारा और समस्त वीरों को स्वाधीनता के झण्डे के नीचे एकत्र किया । अपने साथियों सहित जहां अंग्रेज विद्रोह का दमन करने के लिए परामर्श कर रहे थे, उस स्थान पर आक्रमण किया तथा समस्त अंग्रेज अधिकारियों का सफाया कर दिया और फिर मार-धाड़ मचाते अपने साथियों सहित दिल्ली की तरफ बढ़े ।

    दिल्ली आये । भारत के अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह के समीप पहुंचे । अकबर, जहांगीर आदि के चित्रों को देख-देख ठण्डी आहें भरकर अपने पूर्वजों के वैभव को इस प्रकार लुटता देख बहादुरशाह चित्त ही चित्त में अपने भाग्य को कोसा करता था । आज उसने सुना कि कुछ भारतीय सैनिक मेरठ में स्वाधीनता का दीपक जलाकर तेरे पास आये हैं । उनका सोया हुआ मुगल-शौर्य जाग उठा । तुरन्त वीर सेनापति कृष्णगोपाल ने आगे बढ़कर कहा - जहांपनाह ! उठो, अपनी तलवार संभालो, अपना शुभाशीर्वाद दो, जिससे हम अपनी तलवार द्वारा भारतभूमि को फिरंगियों से खाली कर दें । बादशाह ने डबडबाई सी आंखें खोलकर कहा - मेरे वीर सिपाही ! क्या करूं ? आज मेरे पास एक सोने की ईंट भी नहीं जो तुम्हें पुरस्कार में दे सकूं ।

    वीर कृष्णगोपाल साथियों सहित गर्ज उठे - "महाराज, हमें धन की आवश्यकता नहीं है, हम इस प्रशस्त मार्ग में आपका शुभाशीर्वाद चाहते हैं । हम संसार की धन-दौलत को अपनी तलवार से जीतकर आपके चरणों पर ला डालेंगे ।"

    वीर की सिंहगर्जना सुनकर वृद्ध बादशाह की अश्रुपूर्ण आंखें हो गईं और कह ही तो दिया कि -

    "गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की ।
    तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की ।"

    राव कृष्णगोपाल को तब यह समाचार मिला कि रेवाड़ी में राजा तुलाराम स्वतन्त्रता के लिए महान् प्रयत्न कर रहे हैं, तो वे स्वयं अपने साथियों सहित रेवाड़ी पहुंच गए । उन्हीं दिनों मि० फोर्ड से युद्ध के ठीक उपरान्त राजा तुलाराम ने अपने प्रान्त की एक सभा बुलाई । इस सभा में महाराजा अलवर, राजा बल्लभगढ़, राजा निमराणा, नवाब झज्जर, नवाब फरुखनगर, नवाब पटौदी, नवाब फिरोजपुर झिरका शामिल हुए । राम तुलाराम ने अपने विशेष मित्र महाराजा जोधपुर को विशेष रूप से निमन्त्रित किया किन्तु उन्होंने राव तुलाराम को लिखकर भेज दिया कि अंग्रेज बहादुर से लोहा लेना कोई सरल कार्य नहीं है । नवाब फरुखनगर, नवाब झज्जर एवं नवाब फिरोजपुर झिरका ने भी नकारात्मक उत्तर दे दिया । इस पर उनको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने सभा में ही घोषणा कर दी कि "चाहे कोई सहायता दे या न दे, वह राष्ट्र के लिए कृत-प्रतिज्ञ हैं ।" अपने अन्य वीर साथियों की तरफ देखकर उनका वीर हृदय गर्ज उठा - "हे भारतमाता ! मैं सब कुछ तन, मन, धन तुम्हारी विपत्तियों को नष्ट करने में समर्पित कर दूंगा । यह मेरी धारणा है । भगवान् सूर्य ! मुझे प्रकाश दो । भूमि जननी ! मुझे गम्भीरता दो, वायु शान्ति दो और दो बाहुओं में अपार बल, जो सच्चे चरित्र के नाम पर मर मिटे तथा मार भगाये कायरता को हृदय मंदिरों से ।" आओ वीरो ! अब सच्चे क्षत्रियत्व के नाते इस महान् स्वाधीनता युद्ध (यज्ञ) को पूरा करें ।" उनकी इस गर्जना से प्रभावित होकर उपरोक्त राजा, नवाबों के भी पर्याप्त मनचले नवयुवक योद्धा राजा तुलाराम की स्वाधीनता सेना में सम्मिलित हो गये जिनमें नवाब झज्जर के दामाद समदखां पठान भी थे ।

    राजा तुलाराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध और नई सेना भी भरती की और स्वातन्त्र्य-संग्राम को अधिक तेज कर दिया । उन्होंने अपने चचेरे भाई गोपालदेव को सेनापति नियत किया । जब अंग्रेजों को यह ज्ञात हुआ कि राव तुलाराम हम से लोहा लेने की पुरजोर तैयारी कर रहे हैं और आस-पास के राजाओं एवं नवाबों को हमारे विरुद्ध उभार रहे हैं तो मि० फोर्ड के नेतृत्व में पुनः एक विशाल सेना राव तुलाराम के दमन के लिए भेजी । जब राव साहब को यह पता चला कि इस बार मि० फोर्ड बड़े दलबल के साथ चढ़ा आ रहा है तो उन्होंने रेवाड़ी में युद्ध न करने की सोच महेन्द्रगढ़ के किले में मोर्चा लेने के लिए महेन्द्रगढ़ की ओर प्रस्थान किया । अंग्रेजों ने आते ही गोकुलगढ़ के किले तथा राव तुलाराम के निवासघर, जो रामपुरा (रेवाड़ी) में स्थित है, को सुरंगें लगाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और तुलाराम की सेना के पीछे महेन्द्रगढ़ की तरफ कूच किया ।

    राव तुलाराम ने पर्याप्त प्रयत्न किया कि किसी प्रकार महेन्द्रगढ़ किले के फाटक खुल जावें, किन्तु दुर्ग के अध्यक्ष ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी ने हजार विनती करने पर भी किले के द्वार आजादी के दीवानों के लिए नहीं खोले । (बाद में अंग्रेजों ने दुर्ग न खोलने के उपलक्ष्य में स्यालुसिंह को समस्त कुतानी ग्राम की भूमि प्रदान कर दी ।)

    वीर सेनापति तुलाराम दृढ़ हृदय कर, असफलताओं को न गिनते हुए नारनौल के समीप एक पहाड़ी स्थान नसीबपुर के मैदान में साथियों सहित वक्षस्थल खोलकर रणस्थल में डट गये । अंग्रेजों के आते ही युद्ध ठन गया । भीषण युद्ध डटकर हुआ । रणभेरियां बज उठीं । वीरों के खून में उबाल था । गगनभेदी जयकारों से तुमुल निनाद गुंजार करने लगा । साधन न होने पर भी सेना ने संग्राम में अत्यन्त रणकौशल दिखाया । रक्त-धारा बह निकली । नरमुंडों से मेदिनी मंडित हो गई । शत्रु सेना में त्राहि-त्राहि की पुकार गूंज उठी ।




    ….continued

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    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  17. #57

    Rao Tularam-2

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    ….continued from previous post


    तीन दिन तक भीषण युद्ध हुआ । तीसरे दिन तो इतना भीषण संग्राम हुआ कि हिन्दू कुल गौरव महाराणा प्रताप के घोड़े की भांति राव तुलाराम का घोड़ा भी शत्रु सेना को चीरते हुए अंग्रेज अफसर (जो काना साहब के नाम से विख्यात थे) के हाथी के समीप पहुंचा । पहुंचते ही सिंहनाद कर वीरवर तुलाराम ने हाथी का मस्तक अपनी तलवार के भरपूर वार से पृथक् कर दिया । दूसरे प्रहार से काना साहब को यमपुर पहुंचाया ।

    काना साहब के धराशायी होते ही शत्रु सेना में भगदड़ मच गई । शत्रु सेना तीन मील तक भागी । मि० फोर्ड भी मैदान छोड़ भागे और दादरी के समीप मोड़ी नामक ग्राम में एक जाट चौधरी के यहां शरण ली । बाद में मि० फोर्ड ने अपने शरण देने वाले चौधरी को जहाजगढ़ (रोहतक) के समीप बराणी ग्राम में एक लम्बी चौड़ी जागीर दी और उस गांव का नाम फोर्डपुरा रखा, वहां पर आजकल उस चौधरी के वंशज निवास करते हैं ।

    परन्तु इस दौरान में पटियाला, नाभा, जीन्द एवं जयपुर की देशद्रोही नागा फौज के अंग्रेजों की सहायता के लिए आ जाने से पुनः भीषण युद्ध छिड़ गया । वीरों ने अन्तिम समय सन्निकट देखकर घनघोर युद्ध किया परन्तु अपार सेना के समक्ष अल्प सेना का चारा ही क्या चलता ? इसी नसीबपुर के मैदान में राजा तुलाराम के महान् प्रतापी योद्धा, मेरठ स्वाधीनता-यज्ञ को आरम्भ करने वाले, अहीरवाल के एक-एक गांव में आजादी का अलख जगाने वाले, राव तुलाराम के चचेरे भाई वीर शिरोमणि राव कृष्णगोपाल एवं कृष्णगोपाल के छोटे भाई वीरवर राव रामलाल जी और राव किशनसिंह, सरदार मणिसिंह, मुफ्ती निजामुद्दीन, शादीराम, रामधनसिंह, समदखां पठान आदि-आदि महावीर क्षत्रिय जनोचित कर्त्तव्य का पालन करते हुए भारत की स्वातन्त्र्य बलिवेदी पर बलिदान हो गये । उन महान् योद्धाओं के पवित्र रक्त से रंजित होकर नसीबपुर के मैदान की वीरभूमि हरयाणा का तीर्थस्थान बन गई । दुःख है कि आज उस युद्ध को समाप्त हुए एक शताब्दि हो गई किन्तु हरयाणा निवासियों ने आज तक उस पवित्र भूमि पर उन वीरों का कोई स्मारक बनाने का प्रयत्न ही नहीं, साहस भी न किया । यदि भारत के अन्य किसी प्रान्त में इतना बलिदान किसी मैदान में होता तो उस प्रान्त के निवासी उस स्थान को इतना महत्व देते कि वह स्थान वीरों के लिए आराध्य-भूमि बन जाता तथा प्रतिवर्ष नवयुवक इस महान् बलिदान-भूमि से प्रेरणा प्राप्त कर अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए उत्साहित होते ।

    आज मराठों की जीवित शक्ति ने सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युद्ध की अमर सेनानी लक्ष्मीबाई एवं तांत्या टोपे नाना साहब के महान् बलिदान को अंग्रेजों के प्रबल दमनचक्र के विपरीत भी समाप्त नहीं होने दिया । अंग्रेजों के शासन काल में भी उपर्युक्त वीरों का नाम भारत के स्वातन्त्र्य-गगन में प्रकाशित होता रहा । बिहार के बूढ़े सेनापति ठा. कुंवरसिंह के बलिदान को बिहार निवासियों ने जीवित रखा । जहां कहीं भी कोई बलिदान हुआ, किसी भी समय हुआ, वहां की जनता ने अपने प्राचीन गौरव के प्रेरणाप्रद बलिदानों को जीवित रखा । आज मेवाड़ प्रताप का ही नहीं, अपितु उसके यशस्वी घोड़े का "चेतक चबूतरा" बनाकर प्रतिष्ठित करता है । चूड़ावत सरदार के बलिदान को "जुझार जी" का स्मारक बनाकर जीवित रखे हुए हैं । परन्तु अपने को भारत का सबसे अधिक बलशाली कहने वाला हरयाणा प्रान्त अपने 100 वर्ष पूर्व के बलिदान को भुलाये बैठा है । यदि यह लज्जा का विषय नहीं तो क्या है ? जर्मन के महान् विद्वान मैक्समूलर लिखते हैं - A nation that forgets the glory of its past, loses the mainstay of its national character. अर्थात् जो राष्ट्र अपने प्राचीन गौरव को भुला बैठता है, वह राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता के आधार स्तम्भ को खो बैठता है । यही उक्ति हरयाणा के निवासियों पर पूर्णतया चरितार्थ होती है ।

    नसीबपुर के मैदान में राव तुलाराम हार गये और अपने बचे हुए सैनिकों सहित रिवाड़ी की तरफ आ गये । सेना की भरती आरम्भ की । परन्तु अब दिन प्रतिदिन अंग्रेजों को पंजाब से ताजा दम सेना की कुमुक मिल रही थी ।

    निकलसन ने नजफगढ़ के स्थान में नीमच वाली भारतीय सेनाओं के आपसी झगड़े से लाभ उठाकर दोनों सेनाओं को परास्त कर दिया । सारांश यह है कि अक्तूबर 1857 के अन्त तक अंग्रेजों के पांव दिल्ली और उत्तरी भारत में जम गये । अतः तुलाराम अपने नये प्रयत्न को सफल न होते देख बीकनेर, जैसलमेर पहुंचे । वहां से कालपी के लिए चल दिये । इन दिनों कालपी स्वतन्त्रता का केन्द्र बना हुआ था । यहां पर पेशवा नाना साहब के भाई, राव साहब, तांत्या टोपे एवं रानी झांसी भी उपस्थित थी । उन्होंने राव तुलाराम का महान् स्वागत किया तथा उनसे सम्मति लेते रहे । इस समय अंग्रेजों को बाहर से सहायता मिल रही थी । कालपी स्थित राजाओं ने परस्पर विचार विमर्श कर राव राजा तुलाराम को अफगानिस्तान सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से भेज दिया । राव तुलाराम वेष बदलकर अहमदाबाद और बम्बई होते हुए बसरा (ईराक) पहुंचे । इस समय इनके साथ श्री नाहरसिंह, श्री रामसुख एवं सैय्यद नजात अली थे । परन्तु खाड़ी फारस के किनारे बुशहर के अंग्रेज शासक को इनकी उपस्थिति का पता चल गया । भारतीय सैनिकों की टुकड़ी जो यहां थी, उसने राव तुलाराम को सूचित कर दिया और वे वहां से बचकर सिराज (ईरान) की ओर निकल गये । सिराज के शासक ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें शाही सेना की सुरक्षा में ईरान के बादशाह के पास तेहरान भेज दिया । तेहरान स्थित अंग्रेज राजदूत ने शाह ईरान पर उनको बन्दी करवाने का जोर दिया, शाह ने निषेध कर दिया । तेहरान में रूसी राजदूत से राव तुलाराम की भेंट हुई और उन्होंने सहायता मांगी और राजदूत ने आश्वासन भी दिया । परन्तु पर्याप्त प्रतीक्षा के पश्चात् राव तुलाराम ने अफगानिस्तान में ही भाग्य परखने की सोची । उनको यह भी ज्ञात हुआ कि भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वाले बहुत से सैनिक भागकर अफगानिस्तान आ गये हैं । राजा तुलाराम डेढ़ वर्ष पीछे तेहरान से अमीर काबुल के पास आ गये, जो उन दिनों कंधार में थे । वहां रहकर बहुत प्रयत्न किया परन्तु सहायता प्राप्त न हो सकी । राव तुलाराम को बड़ा दुःख हुआ और छः वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर रहकर उसकी पराधीनता की जंजीरों को काटने के प्रयत्न में एक दिन काबुल में पेचिस द्वारा इस संसार से प्रयाण कर गये । उन्होंने वसीयत की कि उनकी भस्म रेवाड़ी और गंगा जी में अवश्यमेव भेजी जावे । ब्रिटिश शासन की ओर से 1857 के स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वालों के लिए सार्वजनिक क्षमादान की सूचना पाकर उनके दो साथी राव नाहरसिंह व राव रामसुख वापस भारत आये ।

    लेख को समाप्त करते हुए अन्तरात्मा रो उठती है कि आज भारतीय जनता उस वीर शिरोमणि राव तुलाराम के नाम से परिचित तक नहीं । मैं डंके की चोट पर कहता हूं कि यदि झांसी की लक्ष्मीबाई ने स्वातन्त्र्य-संग्राम में सर्वस्व की बलि दे दी, यदि तांत्या टोपे एवं ठाकुर कुंवरसिंह अपने को स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर उत्सर्ग कर गये - यदि यह सब सत्य है तो यह भी सुनिर्धारित सत्य है कि सन् 1857 के स्वातन्त्र्य महारथियों में राव तुलाराम का बलिदान भी सर्वोपरि है । किन्तु हमारी दलित भावनाओं के कारण राजा तुलाराम का बलिदान इतिहास के पृष्ठों से ओझल रहा । आज भी अहीरवाल में जोगी एवं भाटों के सितारे पर राजा तुलाराम की अमर गाथा सुनी जा सकती है । किं बहुना, एक दिन उस वीर सेनापति राव तुलाराम के स्वतन्त्रता शंख फूंकने पर अहीरवाल की अन्धकारावृत झोंपड़ियों में पड़े बुभुक्षित नरकंकालों से लेकर रामपुरा (रेवाड़ी) के गगनचुम्बी राजप्रसादों की उत्तुंग अट्टालिकाओं में विश्राम करने वाले राजवंशियों तक ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध किये जा रहे स्वातन्त्र्य आन्दोलन में अपनी तलवार के भीषण वार दिखाकर क्रियात्मक भाग लिया था । आज भी रामपुरा एवं गोकुलगढ़ के गगन-चुम्बी पुरातन खंडहरावशेष तथा नसीबपुर के मैदान की रक्तरंजित वीरभूमि इस बात की साक्षी दे रहे हैं कि वे अपने कर्त्तव्य पालन में किसी से पीछे नहीं रहे ।

    इस प्रान्त को स्वातन्त्र्य-युद्ध में भाग लेने का मजा तुरन्त ब्रिटिश सरकार ने चखा दिया । राव तुलाराम के राज्य की कोट कासिम की तहसील जयपुर को, तिजारा व बहरोड़ तहसील अलवर को, नारनौल व महेन्द्रगढ़ पटियाला को, दादरी जीन्द को, बावल तहसील नाभा को, कोसली के आस-पास का इलाका जिला रोहतक में और नाहड़ तहसील के चौबीस गांव नवाब दुजाना को पुरस्कार रूप में प्रदान कर दिया । यह था अहीरवाल का स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने का परिणाम, जो हमारे संगठन को अस्त-व्यस्त करने का कारण बना । और यह एक मानी हुई सच्चाई है कि आज अहीर जाति का न तो पंजाब में कोई राजनैतिक महत्व है और न राजस्थान में । सन् 1857 से पूर्व इस जाति का यह महान् संगठन रूप दुर्ग खड़ा था, तब था भारत की राजनीति में इस प्रान्त का अपना महत्व ।

    अन्त में भारतवर्ष के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास लेखकों से यह आशा करता हूं कि वे भारत के नवीन इतिहास में इस वीर प्रान्त की आहुति को उपयुक्त स्थान देना न भूलेंगे ।


    ________________________________________


    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)




    Last post in this series :
    सर्वखाप पंचायत का योगदान


    .
    Last edited by dndeswal; December 15th, 2008 at 12:43 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  18. #58
    Again thanks for your efforts and sharing this. I am reading about Rao Tularam in detail first time. Salute to all those who sacrificed their lives.

  19. #59
    deswal saab thanx for sharing such a valuable stuff...
    I dont have personality,i am mere statistics.I used to be "downtoearth". Now this is my present name. Do i possess a name, a face ,an individuality ?:rolleyes:


  20. #60

    The concluding article in the series

    .

    भारत का प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध

    लेखक - चौ. कबूल सिंह (मन्त्री, सर्वखाप पंचायत)



    सं० १९१४ वि० (1857 ई०) में भारतीयों ने अंग्रेजी राज्य को भारत से उखाड फेंकने के लिए प्रथम यत्न किया । सैनिक विद्रोह भी हुआ । जनता ने पूरी शक्ति लगाई । यह यत्न यद्यपि सफल न हो सका परन्तु इससे अंग्रेजों की मनोवृत्ति अवश्य बदली ।


    विरोधी


    अंग्रेजी राज्य के विरोधी और विरोध के कारण नीचे लिखे जाते हैं ।

    1. अंग्रेजों का प्रथम विरोधी हरयाणा सर्वखाप पंचायत का संगठन था क्योंकि -

    क - अंग्रेजों ने गरीब किसानों पर अत्याचार किये । अन्न बलपूर्वक लेते थे । किसानों और गरीबों से बेगार लेते थे । कारीगरों की देशी चीजों को बाहर नहीं जाने देते थे । छोटे मोटे व्यापार धन्धे नष्ट कर डाले ।

    ख - अदालतें बनाकर पंचायतों के संगठन और शक्ति को नष्ट कर डाला । लोगों के आपसी झगड़े अदालतों में जाने लगे । गरीबों की लुटाई होने लगी । झूठ, मक्कारी, बेईमानी और रिश्वत फैलाई जाने लगी । लोग तंग हो गये ।

    ग - किसानों पर साहूकारों के अत्याचार बढ़ने लगे ।

    घ - अंग्रेजी माल जबरदस्ती बेचा जाने लगा ।

    ङ - अच्छे-अच्छे आचार वाले कुलों को दबाया जाने लगा ।

    च - पंचायती नेताओं का अपमान किया जाने लगा ।

    इन कारणों से सर्वखाप पंचायत ने सबसे पहले अंग्रेजों के विरोध में झंडा ऊँचा किया । हरयाणा सर्वखाप पंचायत के दो भाग किये । जमना आर और पार । पंचायत ने दोनों ओर देहली को केन्द्र मानकर मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलन्दशहर, बहादुरगढ़, रेवाड़ी, रोहतक और पानीपत में अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंका जिसके कारण भारी कष्ट सहन किये । जनता कोल्हू में पेली गई । जायदाद छीन ली गई । खेद है कि यह जायदाद अब तक नहीं लौटाई गई है ।

    2. दूसरा विरोधी दल मराठों का था क्योंकि मराठों का राज्य छिन गया था ।

    3. तीसरा दल उन मुसलमानों का था जिनको कि अंग्रेजों ने अपमानित किया था और जागीरें हड़प ली थीं । नवाबों को कंगाल बना दिया था ।

    4. यह दल पंडे-पुजारियों और मुल्ला-मौलवियों का था क्योंकि इनके पास धर्म और मजहब के नाम पर जो जायदाद थी, वह छीनी गई ।

    5. अनेक जागीरदारों की भूमि छीन ली गई और दूसरों को दे दी गई ।

    6. पुराने कर्मचारी नौकरी से निकाल दिए गये थे ।

    7. जनता के साथ की गई प्रतिज्ञाओं को तोड़ दिया गया और अंग्रेजों के वचन से विश्वास उठ गया ।

    8. ईसाई धर्म का प्रचार राज्य के बल पर किया जाने लगा था । इंग्लैंड की पार्लियामेंट में ऐसा करने का भाषण दिया गया था ।

    9. पण्डारी दल के मार्ग में बाधा डाली गई ।

    10. बड़े-बड़े राजनैतिक दल समाप्त किये जा रहे थे ।

    11. भारतीय सेना में नये कारतूस दिए गए जो कि दांत लगाकर काटने पड़ते थे । इससे हिन्दू और मुसलमान सैनिकों में असन्तोष बढ़ा ।

    इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कारणों से भारतीय जनता, राजा, नवाब और अन्य दलों में असन्तोष हुआ ।


    बहादुरशाह का पत्र


    देहली के बहादुरशाह बादशाह ने ऐसे समय सर्वखाप पंचायत के प्रधान को एक पत्र लिखा जिसका आशय यह है -

    "सर्वखाप पंचायत के नेताओ ! अपने पहलवानों को लेकर फिरंगी को निकालो । आप में शक्ति है । जनता आपके साथ है । आपके पास योग्य वीर और नेता हैं । शाही कुल में नौजवान लड़के हैं परन्तु इन्होंने कभी युद्ध में बारूद का धुआँ नहीं देखा । आपके जवानों ने अंग्रेजी सेना की शक्ति की कई बार जाँच की है । आजकल यह राजनैतिक बात है के नेता राजघराने का हो । परन्तु राजा और नवाब गिर चुके हैं । इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली है । आप पर देश को अभिमान और भरोसा है । आप आगे बढ़ें । फिरंगी को देश से निकालें । निकलने पर एक दरबार किया जाये और राजपाट स्वयं पंचायत संभाले । मुझे कुछ उजर नहीं होगा ।"

    इस पत्र को पाकर पंचायत ने अपने शक्ति का संग्रह करना आरम्भ किया और अन्य शक्तियों से सम्पर्क बढ़ाया ।

    हरद्वार में नाना साहब और अजीमुल्ला पंचायत नेताओं से मिले ।


    नेता


    आन्दोलन के मुख्य नेता यह थे - नाना साहब, तांत्या टोपे, झाँसी की रानी, कुंवरसिंह, अजीमुल्ला, बख्त खाँ पठान आदि । पंचायतों के दो नेता चुने गये - नाहरसिंह सूबेदार और हरनामसिंह जमादार ।


    परिणाम


    जो कुछ परिणाम हुआ, आपको ज्ञात है । आन्दोलन सफल न हो सका ।


    विफलता के कारण

    यद्यपि सब पेशों और सम्प्रदायों के लोग आन्दोलन में थे । परन्तु शीघ्रता करने से शक्ति संग्रह न हो सका । अंग्रेजों ने फाड़ने की नीति से काम लिया और उनकी सेना नए शस्त्रों से सुसज्जित थी । राजा और नवाबों की शक्ति अलग रही । मराठों में आपसी झगड़े थे । यह कारण सबको ज्ञात है । हमने उन बातों पर ही प्रकाश डाला है जो कि इतिहास के पत्रों पर नहीं लिखी गई ।



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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 485-486 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)




    .
    Last edited by dndeswal; December 23rd, 2008 at 12:25 PM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

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