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continued from Post No. 18
झज्जर के नवाब
रोहतक के दक्षिण में 22 मील व दिल्ली के पश्चिम-दक्षिण में 36 मील झज्जर नाम का प्रसिद्ध कस्बा है । यह कस्बा एक हजार साल पहले झज्झू नाम के जाट ने बसाया था और उसी के नाम से झज्जर प्रसिद्ध हुआ । मुगलकाल में यह शहर अपने व्यापार के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध था । झज्जर, रिवाड़ी, भिवानी एक त्रिकोण बनाते हैं, जो आज की तरह पूर्व काल में भी व्यापारिक केन्द्र थे । अकेले झज्जर शहर में 300 अत्तारों और गन्धियों की दुकानें थीं । झज्जर से दिल्ली जाने वाली सड़क पर शहर से बाहर बादशाह शाहजहां के जमाने की अनेक पुरानी इमारतें व मकबरे हैं जिनके द्वारों पर फारसी लिपि में अनेक वाक्य खुदे हुए हैं । उन भवनों व मकबरों के बीच में सदियों पुराना एक बहुत बड़ा पक्का तालाब है, जहां म्युनिसिपैलिटी की ओर से पशुओं का मेला भरता (लगता) है ।
हरयाणा का यह प्रदेश सन् 1718 में बादशाह फरुखसियर ने अपने वजीर अलीदीन को जागीर में दिया । सन् 1732 में फरुखनगर के नवाब को दे दिया । सन् 1760 में महाराजा सूरजमल (भरतपुर) ने फरुखनगर के नवाब मूसा खां को हराकर यह प्रदेश उससे छीन लिया । इस समय दिल्ली नगर की चारदीवारी तक उनका राज्य था । बादली नाम का प्रसिद्ध गांव उनकी एक तहसील था । सन् 1754 में बलोच सरदार बहादुरखां को बहादुरगढ़ बादशाहों से जागीर में मिला । झज्जर बेगम सामरू के पति वेनरेल साहब के कब्जे में आ गया । गोहाना, महम, रोहतक, खरखौदा आदि दिल्ली के वजीर नब्ज खां के कब्जे में थे । सन् 1790 में बेगम सामरू की मुलाजमत में रहने वाले अंग्रेज इस्किन्दर ने उत्तर हिन्दुस्तान में जाटों, मराठों, सिक्खों की खींचातानी देखकर हांसी, महम, बेरी, रोहतक, झज्जर पर कब्जा कर लिया और जहाजगढ़ में किला बनाकर अपना सिक्का भी चलाया । 1803 में अंग्रेजों ने मराठों को हराया । दिल्ली के साथ हरयाणा पर भी कब्जा जमा लिया । झज्जर, बल्लभगढ़, दुजाना आदि रियासतें कायम कीं । हरयाणा का बाकी हिस्सा 1836 तक गवर्नर बंगाल की मातहती में बंगाल के साथ रहा । इसके बाद आगरे के नये सूबे में शामिल कर दिया गया ।
1857 में हरयाणा में उस समय अनेक राजा राज्य करते थे । झज्जर इलाके में अब्दुल रहमान खां नवाब की नवाबी थी । झज्जर प्रान्त झज्जर, बादली, दादरी, नारनौल, बावल और कोटपुतली आदि परगनों में विभाजित था । झज्जर का नवाब जवान किन्तु भीरू प्रकृति का था । सदैव नाच-गान, राग-रंग व भोग-विलास में ही फंसा रहता था । इसके दुराचार से प्रजा उस समय प्रसन्न नहीं थी, फिर भी उसका राज्य अंग्रेजों की अपेक्षा अच्छा था । ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी नवाब के बख्शी थे । दीवान रामरिछपाल झज्जर निवासी नवाब के कोषाध्यक्ष (खजान्ची) थे । नवाब प्रकट रूप से तो दिल्ली बादशाह बहादुरशाह की सहायता कर रहा था क्योंकि हरयाणा की सारी जनता इस स्वतन्त्रता युद्ध में बड़े उत्साह से भाग ले रही थी । अतः नवाब भी विवश था किन्तु भीरु होने के कारण उसे यह भय था कि कभी अंग्रेज जीत गए तो मेरी नवाबी का क्या बनेगा । इसलिए गुप्त रूप से धन से अंग्रेजों की सहायता करना चाहता था । अपने दीवान मुन्शी रामरिछपाल द्वारा 22 लाख रुपये इसने अंग्रेजों को सहायता के लिए गुप्त रूप से भेजने का प्रबन्ध किया । मुन्शी रामरिछपाल ने ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी को जो एक प्रकार से झज्जर राज्य के कर्त्ता-धर्त्ता थे, यह भेद बता दिया । ठाकुर स्यालुसिंह ने मुन्शी रामरिछपाल को समझाया कि नवाब तो भीरु और मूर्ख है । अंग्रेजों को रुपया किसी रूप में भी नहीं मिलना चाहिये । हम दोनों बांट लेते हैं । उन दोनों ने ग्यारह-ग्यारह लाख रुपया आपस में बांट लिया, अंग्रेजों के पास नहीं भेजा ।
ठाकुर स्यालुसिंह ने उस समय यह कहा - यदि अंग्रेज जीत गए तो नवाब मारा जायेगा, हमारा क्या बिगाड़ते हैं, यदि अंग्रेज हार ही गये तो हमारा बिगाड़ ही क्या सकते हैं । नवाब के भीरु और चरित्रहीन होने का कारण लोग यों भी बताते हैं कि नवाब अब्दुल रहमान खां किसी बेगम के पेट से उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु वह किसी रखैल स्त्री (वेश्या) का पुत्र था । उसके विषय में एक घटना भी बताई जाती है । इसके चाचा का नाम समद खां था । नवाब ने अपने इसी चाचा की लड़की के साथ विवाह किया था । समदखां इससे अप्रसन्न रहता था, इससे बोलता भी नहीं था । समदखां वैसे बहादुर और अभिमानी था । एक दिन नवाब ने अपनी बेगम को जो समदखां की लड़की थी, चिढ़ाने की दृष्टि से यह कहा कि समदखां की औलाद की नाक बड़ी लम्बी होती है । उसी समय बेगम ने जवाब दिया - जब मेरा विवाह (वेश्यापुत्र) आपके साथ हो गया तो क्या अब भी समदखां की औलाद की नाक लम्बी रह गई ? नवाब ने इसी बात से रुष्ट होकर बेगम को तलाक दे दिया । समदखां नवाब से पहले ही नाराज था, इस बात से वह और भी नाराज हो गया । वह नवाब से सदैव रुष्ट रहता था और कभी बोलता नहीं था । उन्हीं दिनों अंग्रेज फौजी अफसर मिटकाफ साहब जो आंख से काना था, किन्तु शरीर से सुदृढ़ था, छुछकवास अपने पांच सौ सशस्त्र सैनिक लेकर पहुंच गया और झज्जर नवाब की कोठी में ठहर गया । वहां नवाब झज्जर को मिलने के लिए उसने सन्देश भेजा । झज्जर का नवाब मिटकाफ साहब से मिलने के लिए हथिनी पर सवार होकर जाना चाहता था । उसकी 'लाडो' नाम की हथिनी थी, उसने सवारी के लिए उसे उठाना चाहा किन्तु हथिनी हठ कर के बैठ गई, उठी ही नहीं । नवाब के चाचा समदखां ने कहा - हैवान हठ करता है, खैर नहीं है, आप वहां मत जाओ । नवाब ने उत्तर दिया - आप नवाब होकर भी शकुन अपशकुन मानते हैं ? समदखां ने कहा हमने तेरे से बोलकर मूर्खता की । नवाब हथिनी पर बैठकर छुछकवास चला गया । मिटकाफ साहब ने वहां नवाब का आदर नहीं किया । नवाब हथिनी से उतरकर कुर्सी पर बैठना चाहता था किन्तु मिटकाफ ने नवाब को आज्ञा दी कि अपका स्थान आज कुर्सी नहीं अपितु काठ का पिंजरा है, वहां बैठो । नवाब को काठ के पिंजरे में बन्द करके दिल्ली पहुंचा दिया गया । वहां झज्जर के नवाब को और बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह तथा लच्छुसिंह कोतवाल को जो दिल्ली का निवासी था, फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया ।
बहादुरशाह के विषय में उन दिनों एक होली गाई जाती थी । यह होली ठाकुरों, नवाबों, राजे-महाराजों के यहां नाचने वाली स्त्रियां गाया करतीं थीं ।
टेक -
मची री हिन्द में कैसो फाग मचो री ।
बारा जोरी रे हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥
कली -
गोलन के तो बनें कुङ्कुमें, तोपन की पिचकारी ।
सीने पर रखा लियो मुख ऊपर, तिन की असल भई होरी ।
शोर दुनियां में मचो री हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥
बहादुरशाह दीन के दीवाने, दीन को मान रखो री ।
मरते मरते उस गाजी ने, दीन दी देन कहो री ॥
दीन वाको रब न रखो री, हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥
...continued in next post.
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