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Thread: 1857 A.D. – Martyrs of Haryana

  1. #1

    1857 A.D. – Martyrs of Haryana

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    The First War of India's Independence (1857) took place just 150 years ago. Despite British suppressions and policies of later regimes, Marthas have not forgotten their heroes (Nana Sahab, Rani Jhansi, Tope etc.), Biharis have glorified the sacrifices of Thakur Kunwar Singh. Forget about Punjab, whose kings and Maharajas at that time proved to be traitors, who helped Britishers in 1857. Historically, Rajputs have also been able to preserve the tales of their heroes like Rana Pratap.

    But what happened to Jats who have failed to preserve their glorious history? Jats have been masters of sword but their pen has been rather weak. It is a pity that people of Haryana, Delhi etc. have forgotten the historical events which took place on its soils just 150 years ago in which the contribution of their forefathers was the largest compared to rest of India put together. We have heard about Mangal Pandey, Bahadurshah Zafar and Rani Jhansi, but are totally ignorant how the villages and towns of Haryana gave a tough fight to the whites. Today, the names of Raja Nahar Singh and Rao Tularam are missing from school textbooks. After the 1857 war, Britishers severely punished Jats and Ahirs of Haryana – their homes were looted, lands and properties confiscated and allocated to traitors. Haryana’s name was abolished and its eastern territories of Saharanpur, Meerut and Agra divisions were merged with Audh province, the northern parts (west of Jamuna) mingled into Punjab, areas close to Rewari transferred to Maharajas of Jaipur and Alwar, and Delhi was given a separate entity. Britishers destroyed temples, forcibly closed Sanskrit schools in villages, Urdu was introduced in courts and tehsils, panchayats de-recognised and thousands of villagers were hanged and sentenced to death in Andaman & Nicobar Islands.

    I have been reiterating that the word ‘Haryana’ should not be interpreted as territory of today’s Haryana state, but it means a wider area which we often call ‘Jatland’.

    Jats did produce a few good writers and historians but do we remember them and read their books? I am an admirer of Swami Omanand, the great Jat leader, historian, archaeologist and Vedic scholar who was bestowed the honour of “Rashtriya Pandit” by President V.V. Giri. Swamiji established an archaelogical museum at Jhajjar and wrote a voluminous history of 1857 War of Independence with specific reference to Jats and without prejudice to other communities. It is sad that the books and articles of Swamiji (and other Jat scholars) were neither allowed to be read in classrooms of Haryana, nor are available in university libraries anywhere in India. Why? This is the sole reason that our young generation remains to be ignorant of even our recent past. Who bothers about ancient or medieval history?

    German scholar Max Müeller has written – “A nation (or community) that forgets the glory of its past, loses the mainstay of its national character”.

    In this thread, in a phased manner, I would present a series of articles (in Hindi) written and published by Swami Omanand in the 1960s and afterwards, about role of Haryana in the 1857 War of Independence. Those who have time and patience and interest in Jat history, may please go through the posts in this thread. Others may wish to skip.


    .... to continue

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    Last edited by dndeswal; November 7th, 2008 at 09:20 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  2. #2

    Sacrifice of Libaspur, Murthal

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    हरयाणा का स्वातन्त्र्य संग्राम
    लेखक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती (आचार्य भगवान् देव)



    दिल्ली के चारों ओर डेढ़ सौ - डेढ़ सौ मील की दूरी तक का प्रदेश हरयाणा प्रान्त कहलाता है । सारे प्रान्त में जाट, अहीर, गूजर, राजपूत आदि योद्धा (जुझारू) जातियां बसती हैं । इसीलिये हरयाणा ने इस युद्ध में सब प्रान्तों से बढ़-चढ़कर भाग लिया था । इसी प्रान्त के एक भाग मेरठ में यह क्रान्ति की चिन्गारी सब से पहले सुलगी और शनैः-शनैः सारे भारत में फैल गई । इस स्वतन्त्रता के युद्ध के शान्त होने पर हरयाणा प्रान्त की जनता पर जो भीषण अत्याचार अंग्रेजों ने किए उनको स्मरण करने से वज्रहृदय भी मोम हो जाता है । कोटपुतली जयपुर राज्य के ठिकाने खेवड़ी के राजा को दे दिया । इसी के फलस्वरूप अंग्रेजों ने इस प्रान्त को अनेक भागों में विभाजित करके इस वीर प्रान्त की संगठन शक्ति को चूर-चूर कर दिया । मेरठ, आगरा, सहारनपुर आदि इसके भाग उत्तर-प्रदेश में मिला दिये । भरतपुर, अलवर आदि राजस्थान में मिला दिये । कुछ भाग को दिल्ली प्रान्त का नाम देकर के पृथक कर दिया । नारनौल को पटियाला राज्य, बावल को नाभा और दादरी-नरवाना को जीन्द स्टेट, जो फुलकिया राज्य कहलाते हैं, उन में मिला दिया जो झज्जर प्रान्त के भाग थे । शेष गुड़गावां, रोहतक, हिसार, करनाल आदि को पंजाब में मिला दिया । इस प्रकार हरयाणा की वीर-भूमि को खण्डशः करके नष्ट-भ्रष्ट कर दिया ।

    हरयाणा के एक एक ग्राम ने बड़ी वीरता से अंग्रेज के साथ युद्ध किया है, आज उन सब का इतिहास नहीं मिलता । आज तक सन् 57 के क्रान्तियुद्ध में भाग लेने वाले अनेक ग्रामों के वीर भूमिहीन कृषक के रूप में अपने कष्टपूर्ण दिन काट रहे हैं । जैसे लिबासपुर, कुण्डली, भालगढ़, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर, सराय इत्यादि जी. टी. रोड, जो दिल्ली से लाहौर की ओर जाता है, उस पर बसते हैं । कुछ ग्रामों के विषय में संक्षेप से लिखता हूं ।


    लिबासपुर का बलिदान

    जी० टी० रोड में से एक टुकड़ा सड़क का सोनीपत को जाता है, उसी स्थान पर यह गाँव बसा हुआ है । उस समय से अब तक इसमें जाटकुल क्षत्रिय बसते हैं । क्रांतियुद्ध के समय उदमी राम नाम का एक वीर युवक इसी ग्राम का निवासी था, जो अंग्रेज सैनिक दिल्ली से भागकर इधर से जते थे, यह उनके साथ युद्ध करता था । इसने अपने 22 वीर योद्धाओं का एक संगठन बना रखा था, जो अत्यन्त वीर, स्वस्थ, सुन्दर, सुदृढ़ शरीर वाले युवक थे । अतः उस सड़क पर से गुजरने वाले अंग्रेज सैनिकों को चुन-चुन कर मारते थे और सब को समाप्त कर देते थे । एक दिन एक अंग्रेज अपने धर्मपत्नी सहित ऊंटकराची में जी० टी० रोड पर देहली से पानीपत को जा रहा था । जब वह लिबासपुर के निकट आया तो इन वीरों ने उसे पकड़ लिया और अंग्रेज को तो उसी समय मार दिया, किन्तु भारतीय सभ्यता के अनुसार उस अंग्रेज औरत को नहीं मारा । ग्राम के कुछ दुष्ट प्रकृति के लोगों ने उस अंग्रेज स्त्री को गांव के चारों ओर मई की धूप में चक्कर लगवाया और खलिहान (पैर) में बैलों का गांहटा भी हंकवाया । इस प्रकार की घटनाओं को कुछ इतिहास लेखक झूठी और अंग्रेजों की घड़ी हुई बतलाते हैं । हरयाणा के ही नहीं, बल्कि सभी भारतीयों ने अंग्रेजी देवियों और बच्चों पर कहीं अत्याचार नहीं किए । सायंकाल भालगढ़ में रहने वाली बाई जी (ब्राह्मणी) को उस अंग्रेज स्त्री की देखभाल के लिए सौंप दिया । उसे समुचित भोजन वस्त्रादि देकर सेवा की । इस घटना के समाचार आस पास के सभी ग्रामों में फैल गये । कितने ही बाहर के ग्रामों के लोग समाचार जानने के लिए लिबासपुर आये । इनमें राठधना निवासी सीताराम भी था । उसने ग्राम में आकर सब वृत्त को जानने का विशेष यत्न किया और भालगढ़ ग्राम में बाई जी के पास, जहां वह अंग्रेज स्त्री ठहरी थी, उसके पास भी पहुंच गया । उस अंग्रेज स्त्री को इन्होंने बता दिया कि लिबासपुर के उदमीराम, गुलाब, जसराम, रामजस, रतिया आदि ने बहुत से अंग्रेजों को मृत्यु के घाट उतारा है और तुझे भी मारने का षड्यंत्र कर रहे हैं । सीताराम और बाई जी ने उस अंग्रेज महिला के साथ गुप्त मन्त्रणा की । उस अंग्रेज देवी ने इन्हें अनेक प्रकार के वचन दिये और प्रलोभन दिया कि यदि आप मुझे रातों रात पानीपत के सुरक्षित स्थान पर जहां अंग्रेजों का कैंप है, पहुंचा दो तो बहुत सारी सम्पत्ति मैं दोनों को दिलवाऊंगी । उन दोनों ने सवारी का प्रबन्ध करके उसे पानीपत में अंग्रेजों के कैम्प में पहुंचा दिया । युद्ध शान्त होने पर क्रांतियुद्ध के समय की कई रिपोर्टों के आधार पर अंग्रेजों ने लोगों को दण्ड और पारितोषिक देना आरम्भ किया और अपने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार एक दिन अंग्रेज सेना ने प्रातःकाल चार बजे लिबासपुर ग्राम को चारों ओर से घेर लिया । उदमी, जसराम, रामजस, सहजराम, रतिया आदि वीर योद्धाओं ने अपने साधारण शस्त्र जेली, तलवार, गण्डासे, लाठियां और बल्लम संभाले, किन्तु ये गिने चुने वीर साधारण शस्त्रों के एक बहुत बड़ी अंग्रेज सेना के साथ जो आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित थी, कब तक युद्ध कर सकते थे ? बहुत से मारे गए और शेष सब गिरफ्तार कर लिए गए । गिरफ्तार हुए व्यक्तियों की पहचान के लिए देश-द्रोही बाई जी और सीताराम को बुलाया गया । उन्होंने जिन जिन व्यक्तियों को बताया कि इन्होंने अंग्रेज मारे हैं, गिरफ्तार कर लिए गए । सारे ग्राम को बुरी प्रकार से लूटा गया । तीस पैंतीस बैलगाड़ियां गांव के तमाम धन-धान्य, मूल्यवान सामान से भर कर देहली भेज दीं गईं । ग्राम की सब स्त्रियों के आभूषण बलपूर्वक छीन लिए गए । किसी व्यक्ति के पास कुछ भी न रहने दिया । शेष गांव के निवासी मृत्यु के भय से गांव छोड़कर भाग गये और जीन्द राज्य के रामकली ग्राम, झज्जर तहसील के खेड़का ग्राम में और सोनीपत तहसील के कल्याणा और रत्नगढ़ ग्राम में जाकर बस गये । ये लोग इन ग्रामों में तीन वर्ष तक बसे रहे । जब तीन वर्ष के पश्चात् पूर्ण शान्ति हो गई, लौटकर अपने ग्राम में आये । ग्राम तीन वर्ष तक सर्वथा उजड़ा हुआ (निर्जन) पड़ा रहा । शान्ति होने पर सीताराम ने अपने सम्बन्धियों को मुरथल से तथा अन्य स्थानों से लाकर उस में बसा दिया और लिबासपुर का निवासी लिखवा दिया । उसने इस प्रकार की धूर्तता की । सीताराम ने इस ग्राम के कागजात में अपना नाम लिखवा दिया और लिबासपुर ग्राम को खरीदा हुआ बताया और कागजी कार्यवाही पूरी कर दी । तभी से लिबासपुर ग्राम सीताराम के बेटे पोतों की अध्यक्षता में है और कागजात में भी इसी प्रकार लिखा हुआ है ।

    ग्राम के यथार्थ निवासी भूमिहीन (मजारे) के रूप में चले आ रहे हैं । गांव का कोई भी व्यक्ति एक बीघे जमीन का भी (बिश्वेदार) स्वामी नहीं है । ग्रामवासियों ने जो कष्ट सहन किये उनका लिखना सामर्थ्य से बाहर है । इन कष्टों को तो वे ही जानते हैं जिन्होंने उन्हें सहर्ष सहन किया है । जिन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था उन्हें राई के सरकारी पड़ाव में ले जाकर सड़क पर लिटाकर भारी पत्थर के कोल्हूओं के नीचे डालकर पीस दिया गया । उन कोल्हुओं में से एक कोल्हू का पत्थर अब भी 23वें मील के दूसरे फर्लांग पर पड़ा हुआ है ।


    वीर योद्धा उदमीराम को पड़ाव के पीपल के वृक्ष पर बांधकर हाथों में लोहे की कीलें गाड़ दीं गईं, उनको भूखा-प्यासा रक्खा गया । पीने को जल मांगा तो जबरदस्ती उसके मुख में पेशाब डाला गया । अंग्रेजों का सख्त पहरा लगा दिया गया । भारत मां का यह सच्चा सपूत 35 दिन तक इसी प्रकार बंधा हुआ तड़फता रहा । इस वीर ने अपने प्राणों की आहुति देकर सदा के लिए हरयाणा प्रान्त और अपने गांव का नाम अमर कर दिया । उसके शव को भी अंग्रेजों ने कहीं छिपा दिया ।



    लिबासपुर के शहीदों की वंशावली


    जो व्यक्ति अंग्रेजों के अत्याचार के कारण हुतात्मा (शहीद) हुए उनके सम्बन्धियों की पीढ़ी (कुल) इस प्रकार है –

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    यह लेख लिखने में श्री बलवीरप्रसाद चतुर्वेदी मुख्याध्यापक "संस्कृत हाई स्कूल लिबासपुर" बहालगढ़ से मुझे पूरी सहायता मिली । यह सामग्री एक प्रकार से आप ने ही इकट्ठी करके दी है । इसके लिए मैं आपका आभारी हूं । जब मैं आपके पास पहुंचा तो आपने तुरन्त स्कूल के सब कार्य छोड़कर मुझे यह लेख लिखने के लिए सामग्री लाकर दी और श्री भगवानसिंह आर्य भी लिबासपुर बुलाने से तुरन्त उसी समय आ गये । यह स्कूल पं. मनसाराम जी आर्य जाखौली निवासी ने खोला हुआ है जहाँ बैठकर मैंने यह सामग्री एकत्रित की । आपका सारा जीवन आर्यसमाज के प्रचार में बीता है ।



    मुरथल का बलिदान


    मुरथल ग्रामवासियों ने भी इसी प्रकार अत्याचारी अंग्रेजों के मारने में वीरता दिखाई थी । अंग्रेज शान्ति होने पर मुरथल ग्राम को भी इसी प्रकार का दण्ड देना चाहते थे । किन्तु नवलसिंह नम्बरदार मुरथल निवासी अंग्रेज सेना को मार्ग में मिल गया । अंग्रेज सेना ने उससे पूछा कि मुरथल ग्राम कहाँ है? तो नम्बरदार ने बताया कि आप उस गांव को तो बहुत पीछे छोड़ आये हैं । उस समय अंग्रेज सेना ने पीछे लौटना उचित न समझा और यह बात नम्बरदार की चतुराई से सदा के लिए टल गई । देशद्रोही सीताराम को इनाम के रूप में लिबासपुर ग्राम सदा के लिए दे दिया और उस बाई जी (ब्राह्मणी) को बहालगढ़ गांव दे दिया । आज भी इन दोनों ग्रामों के निवासी भूमिहीन (मजारे) कृषक के रूप में अपने दिन कष्ट से बिता रहे हैं । देश को स्वतन्त्र हुए 38 वर्ष हो गए किन्तु इनको कोई भी सुविधा हमारी सरकार ने नहीं दी । इनके पितरों (बुजुर्गों) ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने सर्वस्व का बलिदान दिया । किन्तु किसी प्रकार का पारितोषिक तो इनको देना दूर रहा, इनकी भूमि भी आज तक इनको नहीं लौटाई गई । सन् 1957 में स्वतन्त्रता के प्रथम युद्ध की शताब्दी मनाई गई, किन्तु देशभक्त ग्रामों को पारितोषिक व प्रोत्साहन तो देना दूर रहा, किसी राज्य के बड़े अधिकारी ने धैर्य व सान्त्वना भी नहीं दी । मेरे जैसे भिक्षु के पास देने को क्या रखा है, यह दो चार पंक्तियां इन देशभक्तों के लिए श्रद्धांजलि के रूप में इस बलिदानांक में लिख दी हैं । इस प्रकार के सभी देशभक्त ग्रामों के लिए यही श्रद्धा के पुष्प भेंट हैं ।



    ...continues in next post

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    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  3. #3

    Village 'Kundali' (Sonepat, Haryana)

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    कुण्डली का बलिदान



    सूबा देहली में नरेला के आस-पास लवौरक गोत्र के जाटकुल क्षत्रियों के दस बारह ग्राम बसे हुए हैं । उनमें से ही यह कुण्डली ग्राम सोनीपत जिले में जी. टी. रोड पर है । इस ग्राम के निवासियों ने भी सन् 1857 के स्वतन्त्रता युद्ध में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था । यहां के वीर योद्धाओं ने भी इसी प्रकार अत्याचारी भागने वाले अंग्रेज सैनिकों का वध किया था ।

    एक अंग्रेज परिवार ऊँटकराची में बैठा हुआ इस गांव के पास से सड़क पर जा रहा था । वे चार व्यक्ति थे, एक स्वयं, दो उसके पुत्र और एक उसकी धर्मपत्नी । जब वे चारों इस ग्राम के पास आए तो गांव के लोगों ने उँटकराची को पकड़ लिया । ऊँट को भगा दिया और कराची को एक दर्जी के बगड़ में बिटोड़े में रखकर भस्मसात् कर दिया । उस अंग्रेज और उसके दोनों लड़को को मार दिया । उस देवी को भारतीय सभ्यता के अनुसार कुछ नहीं कहा । उसे समुचित भोजनादि की व्यवस्था करके गांव में सुरक्षित रख लिया । जब युद्ध की समाप्ति पर शान्ति हुई तो एक अंग्रेज नरेला के पास पलाश-वन में, जो कुण्डली से मिला हुआ है, शिकार खेलने के लिए आया । उसकी बन्दूक के शब्द को सुनकर अंग्रेज स्त्री आंख बचाकर उसके पास पहुंच गई और उसने अपने परिवार के नष्ट होने की सारी कष्ट-कहानी उसको सुना दी । वह उसे अपने साथ लेकर तुरन्त देहली पहुंच गया । एक किंवदन्ती यह भी है कि उस कराची में 80 हजार का माल था जो उस ग्राम वालों ने लूट लिया । अंग्रेज आदि उस समय कोई कत्ल नहीं किया । वह माल लूटकर इस भय से कभी तलाशी न हो, नरेला भेज दिया गया । कुण्डली ग्राम के कुछ निवासी इस घटना को असत्य भी बताते हैं । कुछ भी हो, इस ग्राम को दण्ड देने के लिए एक दिन प्रातः चार बजे अंग्रेजी सेना ने आकर घेर लिया ।

    ग्राम के वस्त्र, आभूषण, पशु इत्यादि सब अंग्रेजी सेना ने लूट लिये और सारे पशु इत्यादि को अलीपुर ले जाकर नीलाम कर दिया । स्त्रियों के आभूषण बलपूर्वक उतारे गये, यहां तक कि भूमि खोद-खोद कर गड़ा हुआ धन भी निकाल लिया गया । बहुत से व्यक्ति तो जो भागने में समर्थ थे, ग्राम को छोड़कर भाग गए । ग्राम के कुछ मुख्य-मुख्य आदमी जो भागे नहीं थे, गिरफ्तार कर लिए गए । कुछ व्यक्ति ग्राम के सर्वनाश का एक कारण और भी बताते हैं । जब अत्याचारी मिटकाफ जो काणा साहब के नाम से प्रसिद्ध था और हरयाणा के वीर ग्रामों को दण्ड देता और आग लगाता हुआ फिर रहा था, वह नांगल की ओर से आया तो कुछ व्यक्ति उसके स्वागत के लिए दूध इत्यादि लेकर नांगल की ओर चले गए । वे मार्ग में ही इसका स्वागत करके अपने गांव को बचाना चाहते थे । किन्तु उस दिन मिटकाफ ने दूसरे किसी ग्राम का प्रोग्राम नांगल, जाखौली इत्यादि का बना लिया । कुण्डली वाले विवश हो लौट आये । जिस समय यह लौट रहे थे, तो अंग्रेजी सरकार की चौकी पर मालिम नाम का व्यक्ति रहता था । उसने ग्रामवासियों से दूध मांगा कि यह दूध मुझे दे जाओ, किन्तु चौधरी सुरताराम जो कठोर प्रकृति के थे, उसे यह कहकर धमका दिया कि तेरे जैसे तीन सौ फिरते हैं, तेरे लिए यह दूध नहीं है । उस व्यक्ति ने कहा - अच्छा, मुझे भी उन तीन सौ में से एक गिन लेना, समय पड़ने पर मैं भी आप लोगों को देखूंगा । उसी व्यक्ति ने मिटकाफ साहब को सूचना दी कि अंग्रेजों को कुण्डली ग्राम वालों ने मारा है । और अंग्रेज अपनी सेना लेकर ग्राम पर चढ़ आये । निम्नलिखित व्यक्तियों को गिरफ्तार किया –

    1- श्री सुरताराम जी, 2- उनक पुत्र जवाहरा, 3- बाजा नम्बरदार 4- पृथीराम 5- मुखराम 6- राधे 7- जयमल । कुछ व्यक्ति जो और भी गिरफ्तार हुए थे, उनके नाम किसी को याद नहीं । यह लोकश्रुति है कि 14 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए थे - ग्यारह को दण्ड दिया गया और तीन को छोड़ दिया गया । इनमें से 8 को एक-एक वर्ष का कारागृह का दण्ड मिला । तीन को अर्थात् सुरताराम, उनके पुत्र जवाहरा तथा बाजा नम्बरदार को आजन्म काले पानी का दण्ड दिया गया । इनको अण्डमान द्वीप (कालेपानी में) भेज दिया गया । वहां पर चक्की, कोल्हू, बेड़ी इत्यादि भयंकर दण्ड देकर खूब अत्याचार ढ़ाये गये । अतः ये तीनों वीर अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए बलिवेदी पर चढ़ गये, इनमें से कोई लौटकर नहीं आया । इसके विषय में लोगों ने बताया कि जब इनको गिरफ्तार करके ले जाने लगे तो बाजा नम्बरदार ने सुरता नम्बरदार को कहा - यह ग्राम सुख से बसे, हम तो लौटकर आते नहीं । सुरता ने कहा - बाजिया, तू तो यों ही घबराता है, मेरे माथे में मणि है (अर्थात् मैं भाग्यवान् हूं), हम अलीपुर व देहली से ही छूटकर अवश्य घर लौट आयेंगे, हमारा दोष ही क्या है ? बात यथार्थ में यह है कि अंग्रेजों ने खूब यत्न किया । इस ग्राम के द्वारा अंग्रेजों के कत्ल के अभियोग को सिद्ध नहीं क्या जा सका । सुरता की बात सुनकर बाजा ने कहा - जिनके ढोर, पशुधन आदि ही नहीं रहा, वह लौटकर कैसे आयेगा ? हुआ भी ऐसा ही । ये तीनों बहीं पर समाप्त हो गए । जो इस ग्राम के वीर स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर चढ़े, उन की पीढ़ियां निम्न प्रकार से हैं -



    कुंडली के शहीदों की वंशावली

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    आजकल कुंडली ग्राम के स्वामी सोनीपत निवासी ऋषिप्रकाश आदि हैं, यह ग्राम उनको किस प्रकार मिला, इसके विषय में यह किंवदन्ती है कि सोनीपत निवासी मामूलसिंह नाम का ब्राह्मण (मोहर्रिर) लेखक था । सड़क पर एक आदमी की लाश पड़ी थी । कोई यह कहता है कि वह किसी अनाथ का ही शव था । उसके ऊपर वस्त्र डालकर उसके पास बैठकर मामूलसिंह रोने लगा । जब उसके पास से कुछ अंग्रेज गुजरे तो कहने लगा - यह मेरा आदमी आप लोगों की सेवा में मर गया । इसी के फलस्वरूप अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर उसे पहले तो खामपुर ग्राम पारितोषिक के रूप में दिया था किन्तु पीछे कुण्डली ग्राम का स्वामी बना दिया । जिस समय नोटिश (विज्ञापन) लगाया गया था कि यह गांव तीन वर्ष के लिए जब्त किया जा रहा है और मामूलसिंह को दिया जा रहा है, ग्राम वालों का कहना है कि उस समय उसने अपनी चालाकी, दबाव अथवा लोभ से दबा और सिखाकर सदा के लिए अपने नाम लिखा लिया । ग्राम के लोगों ने अनेक बार मुकदमा भी लड़ा और कलकत्ते तक भाग दौड़ भी की, किन्तु नकल ही नहीं मिली । मुकदमे में यह झूठ बोल दिया गया कि यह ग्राम मेरे बाप दादा का है, हमारी यह पैतृक सम्पत्ति है । इसीलिए आज तक भी मामूलसिंह के व्यक्ति इस ग्राम के स्वामी हैं और गांव के देशभक्त कृषक जो ग्राम के निवासी और स्वामी हैं, भूमिहीन (मजारे) के रूप में अनेक प्रकार से कष्ट सहकर अपने दिन काट रहे हैं । मामूलसिंह के बेटे पोतों ने इस ग्राम को खूब तंग किया । अनेक प्रकार के पूछी आदि टैक्स लगाये, चौपाल तक नहीं बनाने दी । ग्रामवासियों ने भी खूब संघर्ष किया । अनेक बार जेल में गये । अन्त में चौपाल तो बनाकर ही छोड़ी । श्री रत्नदेव जी आर्य, जो सुरता और जवाहरा के परिवार में से हैं, इन्होंने ग्राम पर होने वाले अत्याचारों को दूर करने के लिए संघर्षों में नेतृत्व किया और खूब सेवा की । इस ग्राम के निवासी प्रायः सभी उत्साही हैं । अंग्रेजी राज्य के रहते इस ग्राम के पढ़े लिखे को किसी भी सरकारी नौकरी में नहीं लिया गया । सभी प्रकार के कष्ट यह लोग सहते रहे और यह आशा लगाये बैठे थे कि जब देश स्वतन्त्र होगा तब हमारे कष्ट दूर हो जायेंगे । जब सन् 47 में 15 अगस्त को देश को स्वतन्त्रता मिली और लाल किले पर तिरंगा झण्डा फहराया गया उस समय यह गांव बड़े हर्ष में मग्न था कि अब हमारे भी सुदिन आ गये हैं । किन्तु आज देश को स्वतन्त्र हुए 38 वर्ष हो चुके हैं, यहां के ग्रामवासी पहले से भी अधिक दुःखी हैं । हमारे राष्ट्र के कर्णधारों व राज्याधिकारियों का इनके कष्टों की ओर कोई ध्यान नहीं । भगवान् ही इनके कष्टों को दूर करेगा । कुण्डली ग्राम के निवासी वृद्ध जीतराम जी जिनकी आयु 85 वर्ष है, तथा सुरता और जवाहरा के परिवार के श्री महाशय रत्नदेव जी और उनके बड़े भाई आशाराम जी ने इस ग्राम के इतिहास की सामग्री इकट्ठी करने में मुझे पूरा सहयोग दिया है, इन सबका मैं आभारी हूँ ।

    खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर, सराय आदि अनेक ग्राम हैं जिन्होंने सन् 1857 के युद्ध में बड़ी वीरता से अपने कर्त्तव्य का पालन किया था । जब कभी मुझे समय मिला, मेरी इच्छा है मैं हरयाणा का एक बहुत बड़ा इतिहास लिखूं, तब इनके विषय में विस्तार से लिखूंगा । खामपुर आदि ग्राम भी जब्त कर लिए गए थे । ग्राम खामपुर दिल्ली निवासी एक ब्राह्मण लछमनसिंह के बाप दादा को दिया गया था । आज भी वह परिवार उस ग्राम का स्वामी है । खामपुर ग्राम के जाट जो निवासी थे वे भाग गये थे, वह खेड़े आदि अन्य ग्रामों में बसते हैं । इस ग्राम में तो अन्य मजदूरी करने वाले लोग बसते हैं । अलीपुर ग्राम के आदमियों को भी लिबासपुर के निवासियों के समान सड़क पर डालकर कोल्हू से पीस दिया गया था और अलीपुर ग्राम को बुरी तरह लूटकर जलाकर राख कर दिया गया था । अलीपुर ग्राम को जब्त करके दिल्ली के कुछ देशद्रोही मुसलमानों को दे दिया गया था । उन मुसलमानों के परिवार ने जो इस ग्राम के स्वामी थे, चरित्र संबन्धी गड़बड़ कुण्डली ग्राम में आकर की । कुंडली ग्राम के दलितों ने इन पापियों के ऊपर अभियोग चलाया और उसी अभियोग में विवश होकर वह अलीपुर ग्राम मुसलमानों को जाटों के हाथ बेचना पड़ा । हमीदपुर ग्राम भी जब्त करके मुसलमानों को दिया गया था । इसी प्रकार ही ऐसे देशभक्त ग्रामों को जब्त करके देशद्रोहियों को दे दिया गया था । इसके विषय में विस्तार से कभी समय मिलने पर लिखूंगा ।



    ....continues



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  4. #4

    Village "Alipur" (Delhi)

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    ..Continuation of above post


    अलीपुर ग्राम की घटना जो माननीय वयोवृद्ध पं० बस्तीराम जी आर्योपदेशक के मुखारविन्द से सुनी, निम्न प्रकार से है ।

    अलीपुर की घटना - मानेलुक नाम का एक अंग्रेज घोड़े पर सवार अलीपुर ग्राम से जा रहा था । वह प्यास से अत्यन्त व्याकुल था । उसने एक किसान को, जो सड़क के पास ही अपने खलिहान (पैर) में गाहटा चला रहा था, संकेत से जल पीने को मांगा । किसान को दया आई और वह घड़े में से जल लेने के लिए गाहटा छोड़कर चल दिया किन्तु उस समय घड़े में जल न मिला । विवश होकर किसान अपने घड़े को उठाकर कुएं पर जल भरने को चला गया । किसान के इस सहानुभूति पूर्ण व्यवहार को देखकर अंग्रेज विचारने लगा इस व्यक्ति ने मेरे लिए अपना काम भी छोड़ दिया । वह अंग्रेज उसके खलिहान में आ गया और घोड़े से उतर कर, यह समझ कर कि किसान के कार्य में हानि न हो, उसमें घुस गया और बैलों को हांकना प्रारम्भ कर दिया और अपना घोड़ा पास के किसी वृक्ष से बांध दिया । उसी समय एक दूसरा अंग्रेज घुडसवार, जिसका नाम गिलब्रट था, उसी सड़क से जा रहा था । उसने यह समझा कि मानेलुक से बलपूर्वक गाहटा हंकवाया जा रहा है और वह शीघ्रता से वहां से भागकर चला गया और अपने डायरी में अलीपुर ग्राम के विषय में अंग्रेजों पर अत्याचार करने के लिए नोट लिख दिया, अर्थात् अलीपुर पर अत्याचार का आरोप लगाया । वह गिलब्रट नाम का अंग्रेज जो वहां से भय के मारे शीघ्रता से भाग गया, उसने भय के कारण सत्यता का अन्वेषण भी नहीं किया । इधर जब किसान जल का घड़ा भरकर लाया तो अंग्रेज गाहटे में खड़ा था और बैल उससे बिधक कर (डरकर) भाग गये थे । किसान ने अंग्रेज को सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में कहा - आपने ऐसा कष्ट क्यों किया ? उस किसान ने मानेलुक अंग्रेज के कपड़े झाड़े, धूल साफ की, जल पिलाया और रोटी भी खिलाई । इस प्रकार उसकी अच्छी सेवा की और वह अंग्रेज चला गया । उस अंग्रेज (मानेलुक) ने डायरी में लिखे गए अपने नोट में अलीपुर के विषय में बहुत अच्छा लिखा । शान्ति होने के पश्चात् गिलब्रट की डायरी, जिसमें अलीपुर के बारे में बुरा लिखा हुआ था, उसी के अनुसार अलीपुर ग्राम को बुरी तरह लूटा गया और मनुष्य, पशु आदि प्राणियों सहित अग्नि में जलाकर भस्मसात् कर दिया गया । कुछ दिन पीछे मानेलुक की सच्ची रिपोर्ट भी अंग्रेजों के आगे पेश हुई । तब अंग्रेजों को ज्ञात हुआ कि जिस अलीपुर ग्राम को पारितोषिक मिलना चाहिए था उसको तो भीषण अग्निकांड में जला दिया गया । यह अंग्रेजों की मूर्खता का एक उदाहरण है और हरयाणा के ग्रामों पर दोष लगाया जाता है कि यहां के किसानों ने सब अंग्रेज स्त्रियों से गाहटा चलवाया था । यह सब बात इस अलीपुर के गाहटे की घटना के समान मिथ्या और भ्रम फैलाने वाली है । भारतीयों ने अंग्रेज महिलाओं और बच्चों पर कभी अत्याचार नहीं किये ।



    अलीपुर ग्राम कई शताब्दियों से बड़ी सड़क जी. टी. रोड पर बसा हुआ है । इसी सड़क से अंग्रेजों की सेनायें गुजरती थीं । यहां के वीर लोगों ने भी सन् 1857 के स्वातन्त्र्य संग्राम में खूब बढ़ चढ़ कर भाग लिया और इस सड़क पर गुजरने वाले अनेक अत्याचारी अंग्रेजों को काल के गाल में पहुंचाया गया । यही नहीं, इस स्वतन्त्रता समर में बलिदान देने वाले वीरों की संख्या इस ग्राम में सबसे बढ़कर है । अलीपुर ग्राम में 1857 में सड़क के निकट ही सरकारी तहसील विद्यमान थी और उसके पास ही बाहर बाजार था । क्रांति के समय ग्राम के लोगों ने तहसील में घुसकर सब सरकारी कागजों को फूंक दिया और बाजार को भी लूट लिया । ऐसा अनुमान है कि बाजार में जो दुकान थीं, या तो वे सरकार की थी या सरकारी पिट्ठुओं की थी । इसलिए उन्हें लूटा गया । तहसील पर जिस समय जनता के लोगों ने आक्रमण किया तो तहसील के सरकारी नौकरों ने अवश्य कुछ न कुछ विरोध किया होगा । उसके फलस्वरूप युद्ध हुआ और वीरों ने गोलियां चलाईं । उन गोलियों के निशान आज भी लकड़ी के किवाड़ों पर विद्यमान हैं । उन्हीं दिनों अनेक अंग्रेज ग्रामीण योद्धाओं के द्वारा मारे गये ।

    अलीपुर ग्राम को दण्ड देने के लिए मिटकाफ (काना साहब) सेना लेकर अलीपुर पहुंच गया । उसने अपनी सेना का शिविर दो कदम्ब (कैम) के वृक्षों के नीचे लगाया जो आज भी विद्यमान हैं । ये ऐतिहासिक वृक्ष अंग्रेजों के अत्याचार के मुंह बोलते चित्र हैं । गांव के चारों ओर सेना ने घेरा डाल दिया । तोपखाना भी लगा दिया । किसी व्यक्ति को भी गांव से बाहर नहीं निकलने दिया गया । सेना के बड़े बड़े अधिकारी गांव में घुस गए और गांव के 70-75 चुने हुए व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया गया । हंसराम नाम का एक व्यक्ति उस समय हलुम्बी ग्राम की ओर शौच गया हुआ था, उसे पकड़ने के लिए कुछ अंग्रेज जंगल में ही पहुंच गए और उसे गिरफ्तार कर लिया । वह खेड़े के निकट कुण्डों के पास पकड़ा गया । वह अत्यन्त स्वस्थ, सुन्दर आकृति का युवक था । पकड़ने वाले अंग्रेज अधिकारी के मन में दया आ गई तथा उसकी सुन्दर आकृति व स्वास्थ्य से प्रभावित होकर उसे छोड़ दिया । किन्तु उस युवक ने कहा कि मैं तो अपने साथियों के साथ रहना चाहता हूँ, जहां वे जायेंगे मैं भी वहीं जाऊंगा । मेरा कर्त्तव्य है कि मैं अपने साथियों के साथ जीऊँ और साथियों के साथ ही मरूँ । अंग्रेज सिपाहियों ने उसे बहुत छोड़ना चाहा और उसे भागने के लिए बार बार प्रेरणा की किन्तु उसने भागने से इन्कार कर दिया और गिरफ्तार हुए साथियों के साथ मिल गया । अंग्रेज 70-75 व्यक्तियों को गिरफ्तार करके लाल किले में ले गये और उन सब को फांसी पर चढ़ा दिया गया ।

    यह घटना 1857 के मई मास के अन्तिम सप्ताह की है ।

    लाल किले में से हंसराम को घसियारे के रूप में अंग्रेजों ने निकालना चाहा । वह अंग्रेज उसके सुन्दर शरीर तथा स्वास्थ्य को देखकर उसे छोड़ना चाहता था, किन्तु उसने फिर इन्कार कर दिया । तो फिर उसे भी फांसी पर चढ़ा दिया ।

    मुहम्मद नाम का एक मुसलमान किसी प्रकार बचकर भाग आया । वह फिर सकतापुर भोपाल राज्य में जाकर बस गया ।



    .....to continue in next post...


    .
    Last edited by dndeswal; November 7th, 2008 at 10:56 AM.
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  5. #5

    Alipur-2

    .

    ...in continuation of above post

    कुछ व्यक्तियों का ऐसा भी मत है कि इन व्यक्तियों को फांसी नहीं दी गई थी किन्तु इन सब को पत्थर के कोल्हू के नीचे सड़क पर डालकर पीसकर मार डाला गया था । वे पत्थर के कोल्हू अभी तक इस सड़क पर पड़े हुए हैं ।

    जिन व्यक्तियों को फांसी दी गई उनमें से तुलसीराम और हंसराम के अतिरिक्त और किसी के भी नाम का पता यत्न करने पर भी नहीं चल सका । अलीपुर ग्राम का भाट सोनीपत का निवासी है जो आजकल जाखौली ग्राम में रहता है । उसकी पोथी में पैंतीस व्यक्तियों के नाम मिलते हैं । उस विश्वम्भरदयाल भाट के पास जाखौली इन्हीं नामों को जानने के लिये मैं गया, किन्तु जिस पोथी में ये नाम हैं, उस पोथी को उस भाट का पुत्र लेकर किसी गांव में अपने यजमानों के पास चला गया था, दुर्भाग्य से वे नाम नहीं मिल सके ।

    अलीपुर ग्राम में भी मैं इसी कार्य के लिए तीन बार गया । जिन घरों में इन नामों के मिलने की आशा थी, खोज करवाने पर भी वे नाम नहीं मिल सके । यह हमारा दुर्भाग्य ही रहा कि जिन हुतात्मा वीरों ने हंसते हंसते देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया, आज उनके नाम भी हमें उपलब्ध न हो सके ।

    जिस किसी ने भी 1857 के स्वातन्त्र्य समर के विषय में लिखा है, हरयाणा प्रान्त के विषय में दो चार शब्द लिखने का भी कष्ट नहीं किया । यथार्थ में यह युद्ध हरयाणा प्रान्त के सैनिकों ने ही लड़ा था । सभी रिसाले और पलटनों में, मेरठ आदि सभी छावनियों में हरयाणा के वीर सैनिक ही अधिक संख्या में थे । उस समय तक हरयाणा प्रान्त के सभी ग्रामों में पंचायती सैनिक थे । सभी गांवों में अखाड़े चलते थे जहां पंचायती सैनिक तैयार किए जाते थे, किसी प्रकार की आपत्ति पड़ने पर जो धर्मयुद्ध में भाग लेते थे । अलीपुर गांव के जो नवयुवक इस क्रांति में हंसते-हंसते बलिवेदी पर चढ़ गये वे भी इसी प्रकार के पंचायती सैनिक थे । इन सबको फांसी देने के लिए जिस समय गिरफ्तार किया गया, तोपों के द्वारा गांव पर गोले बरसाये गए । जिस समय तोपें चलीं, उस समय तोपें चलाने वाला कोई अंग्रेज अफसर दयालु स्वभाव का था । उसने इस ढ़ंग से तोपें चलवाईं कि तोप के गोले गांव के ऊपर से गुजरकर जंगल में गिरते रहे । ग्राम नष्ट होने से बच गया । कुछ का ऐसा भी मत है कि ग्राम को लूटा भी गया । जितने व्यक्ति इस ग्राम के मारे गये, उनमें भंगी से लेकर ब्राह्मण तक सभी सम्मिलित थे । जाट उनमें कुछ अधिक संख्या में थे ।

    एक पटवारी और एक नम्बरदार ने, जब उनको बहुत तंग किया गया, तब इन सब लोगों के नाम लिखवाये थे जिनको फांसी दी गई थी । फांसी आने के बाद जो देवियां विधवा हो गईं थीं, उन्होंने उस नम्बरदार के घर के आगे आकर अपनी चूड़ियां फोड़कर डाल दीं । इस प्रकार उनकी सहानुभूति में ग्राम की अन्य देवियों ने भी अपनी चूड़ियां फोड़कर ढ़ेर लगा दिया । यहां यह लोकश्रुति है कि उस समय उस नम्बरदार के घर के सामने सवा मन चूड़ियों का ढ़ेर लग गया ।

    जिस समय ग्राम पर यह आपत्ति आई, ग्राम के सब बाल-बच्चे, स्त्री और बूढ़े भागकर हलुम्बी ग्राम में चले गये । नवयुवक सब ग्राम में ही विद्यमान थे जिनमें से गिरफ्तार करके पचहत्तर को फांसी दी गई । ग्राम पर यही दोष लगाया गया था कि इन्होंने तहसील को जलाया और कुछ अंग्रेजों का वध किया था । एक दो व्यक्तियों ने ऐसा भी बताया कि दोनों प्रकार के प्रमाण-पत्र गांव में मिले । ग्राम ने कुछ अंग्रेजों को मारा और कुछ को बचाया भी । इसलिए एक अंग्रेज स्त्री के निषेध करने पर इस गांव को जलाया नहीं गया और न ही जब्त किया गया । बारह वर्ष पूर्व ही यह गांव कुछ नम्बरदारों के सरकारी लगान स्वयं खा जाने पर एक मुसलमान के पास चार हजार रुपये में गिरवी रख दिया गया था । क्रांति युद्ध के पीछे यहां के निवासियों ने रुपये देकर इसे खरीद लिया । जो अंग्रेज अलीपुर में मारे गए थे, उनकी कब्रें अलीपुर के पास ही बना दी गईं थीं, जो कुछ वर्ष पहले विद्यमान थीं ।

    अंग्रेज अफसरों की आज्ञा से सिक्ख सेना ने बादली ग्राम के आस पास के बारह ग्रामों के अहीर आदि सभी कृषकों के सब पशु हांक लिए थे । उस समय तोताराम नाम के एक चतुर व्यक्ति ने अपने अलीपुर ग्राम के सब निवासियों को उत्साहित किया और युद्ध करके सिक्खों से अपना सब पशुधन छुड़वा लिया और उन ग्रामों के, जिनके ये पशु थे, उनको ही सौंप दिये । किन्तु वह चतुर वीर तोताराम इस युद्ध में मारा गया । अब तक बादली, समयपुर आदि ग्रामों के निवासी उस उपकार के कारण अलीपुर के निवासियों का बड़ा आदर करते हैं ।

    पीपलथला, सराय आदि ग्रामों को भी इसी प्रकार लूटा और जलाया गया । इसी सराय ग्राम (भड़ोला) के पास आज भी एक अंग्रेज अफसर का स्मारक बना हुआ है जो उस समय ग्रामवासियों द्वारा मारा गया था । इस सराय ग्राम में कभी एक छोटी सी गढ़ी (दुर्ग) थी जो आज खण्डहर के रूप में पड़ी हुई है, केवल उसके दो द्वार खड़े हुए हैं । अनुमान यही है कि इस क्रान्तियुद्ध में ये अंग्रेजों द्वारा ही नष्ट किये गए ।

    हरयाणा के सैंकड़ों ग्रामों ने सन् 1857 के युद्ध में इसी प्रकार भाग लिया और पीछे अंग्रेजों द्वारा दंडित हुए । इनके विषय में मैं समय मिलने पर लिखूँगा ।


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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)




    .
    Last edited by dndeswal; November 7th, 2008 at 01:56 PM.

  6. #6
    Thanks a lot Deshwal ji for sharing.

    Isse isse to apne Rohtak side bhi hein. Aisa hi kuch ... Bhalothia LalChand ke bare mein suna hai ... aur Seth lala kishan das ke poorvajon ne Bhagat Singh ke khilaf gavahi di thi.

    Please put some light on this also.

  7. #7
    बड़ा अच्छा लेख है.
    देशवाल जी इसको सीधे विकी पर ले चलें तो कैसा रहे?
    Laxman Burdak

  8. #8
    good work.

    We need English Translations

    Without that, we will keep falling behind

    Ravi

  9. #9
    the first person to give a noun to this sepoy mutiny was shyamji krsn vrma..where as first shaheed who did not run away from the battle field was same jat like nahar singh...where as bahadur shah zafar did not get a land like 2 gaz sir chhupane ke liye, where as he burried in a foreign land while nahar was hanged n burried at ghanta ghar at chandmi chowk...the first mytyre of of first independendence war war was nahar...
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:23 PM.

  10. #10
    pratham swadeenta sangram ka samay kuchh arya samaj ke utthan ke aas pas aata hai
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:27 PM.

  11. #11
    there was one unknown martyre, debi singh godha of mathura where 20 villages of godha jats are there..
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:38 PM.

  12. #12
    there was detailed article about him in hindustan times long back, he received help from Jat raj nahar singh of ballabgarh and carried out revolution in mathura area
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:40 PM.

  13. #13
    there were two brothers of meham chaubisi who also received help from nahar singh and carried revolution there..
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:42 PM.

  14. #14
    inspite of all odds jats never changed his gots. its with amazement that british found all gots of jats as if they were their own ..
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:43 PM.

  15. #15
    from egypt to long distance they were named as djati
    Last edited by snandal1; November 8th, 2008 at 04:45 PM.

  16. #16
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    बड़ा अच्छा लेख है.
    देशवाल जी इसको सीधे विकी पर ले चलें तो कैसा रहे?

    धन्यवाद बुरडक जी । मेरा भी यही विचार था । इस धागे में अभी और भी लेख डालूंगा जो इसी विषय पर स्वामी ओमानन्द के लिखे हुए हैं । यह सब पूरा होने के बाद इसको एक साथ विकी पर डाल सकते हैं ।
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  17. #17
    .

    continued from Post No. 5


    रोहट गांव


    छोटे थाने वाले भागे हुए अंग्रेजों को ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़ कर मारते थे । एक दिन नहर की पटरी पर एक अंग्रेज अपने एक बच्चे और स्त्री सहित घोड़ा गाड़ी में आ रहा था, यह नहर का मोहतमीम था । इसके तांगे से एक अशर्फियों की थैली नीचे गिर गई । स्त्री स्वभाव के कारण वह अंग्रेज स्त्री उसे उठाने के लिए उतरकर पीछे चली गई । थाने ग्राम के निवासी पहले ही पीछे लगे हुए थे । उन्होंने वह थैली छीन ली और उस अंग्रेज स्त्री को न जाने मार दिया या कहीं लुप्त कर दिया । आगे चलकर रोहट ग्राम का रामलाल नाम का ठेकेदार उसे मिला जो इसे जानता था । उसने उस मोहतमीम को बचाने के लिए बच्चे सहित घास के ढ़ेर में छिपा दिया, बाद में अपने घर ले गया । थाने ग्राम के लोगों को यह कह दिया कि तांगा आगे चला गया, उसी में अंग्रेज है । वह ग्राम में कई दिन रहा । फिर उसको ग्राम के बाहर उसकी इच्छा के अनुसार आमों के बाग में रखा । वहां वह आम के वृक्ष पर बन्दूक लिए बैठा रहता था । पचास ग्राम वाले भी उसकी रक्षा करते थे । शान्ति होने पर उसे सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया । रोहट ग्राम की 14 वर्ष तक के लिए नहरी और कलक्ट्री उघाई माफ कर दी गई । बोहर और थाने ग्राम के लोगों ने अंग्रेजों को मारा था, अतः इन दोनों ग्रामों को दण्डस्वरूप जलाना चाहते थे किन्तु रामलाल ने कहा था कि पहले मुझे गोली मारो फिर इन ग्रामों को दण्ड देना । रामलाल के कहने पर यह दोनों ग्राम छोड़ दिये गये । रामलाल को एक तलवार, प्रमाणपत्र और मलका का एक चित्र पुरस्कार में दिया गया । उस रामलाल ठेकेदार के लिए यह लिखकर दिया कि इसके परिवार में से कोई मैट्रिक पास भी हो तो उसे अच्छा आफीसर बनाया जाये । वह अंग्रेज ग्राम वालों की सहायता से शान्ति होने पर करनाल पहुंच गया । मार्ग में कलाये ग्राम में उसका लड़का मर गया । गाड़ने के लिए ग्राम वालों ने भूमि नहीं दी । एक किसान ने भूमि दी जिसमें उसकी कब्र बना दी गई । चिन्हस्वरूप उसका स्मारक बना दिया गया । रोहट ग्राम में सर्वप्रथम छैलू को जेलदारी मिली । सुजान, छैलू ठेकेदार और रामलाल ठेकेदार को प्रमाणपत्र दे दिया गया ।


    वीर अमरसिंह

    अमरसिंह सुनारियां ग्राम (रोहतक शहर से थोड़ी दूर) का निवासी था । वह डी. सी. साहब के यहां (रोहतक में) चपरासी का कार्य करता था । वह डी. सी. चरित्रहीन था । अमरसिंह को यह बुरा लगा और उसने त्यागपत्र देकर अपना वेतन मांगा । डी.सी ने उसे वेतन नहीं दिया । इस पर अनबन बढ़ गई ।

    अमरसिंह ग्राम में जाकर बल्लू लुहार से कसोला लेकर आया और डी.सी की कोठी में जाकर रात को उसे जगाकर कत्ल कर दिया । कसोला वहीं डाल दिया । उसकी मेम को नहीं मारा, उसे स्त्री समझकर छोड़ दिया । इसके बाद नीम पर चढ़कर जब वह बाहर निकला तो मेम ने शिकारी कुत्ते छोड़ दिये, वह उन कुत्तों ने फाड़ लिया । वह ग्राम में चला गया ।

    अंग्रेजों ने वहाँ जाकर सारे गांव को तोपों से उड़ाना चाहा किन्तु अमरसिंह स्वयं उपस्थित हो गया । अंग्रेज उसे घोड़े के पीछे बांधकर ले गए और उसके ऊपर दही छिड़क कर शिकारी कुत्तों से फड़वाया गया । यह वृत्तान्त कचहरी में लिखा हुआ है ।



    हांसी का शहीद हुकमचन्द

    जिसको घर के सामने ही फाँसी पर लटका दिया गया

    1857 की महान् क्रंति ने भारत के कोने कोने में उथल पुथल मचा दी थी । अनेक देशभक्त वीर हंसते-हंसते आजादी की बलिवेदी पर अपना जीवन न्यौछावर कर गए । इतिहास प्रसिद्ध हांसी नगर पृथ्वीराज चौहान के समय से अपनी विशेषता रखता है । सन् 1857 में भी हांसी नगर किसी से पीछे नहीं रहा । दिवंगत दुनीचन्द के सुपुत्र श्री हुकमचन्द जी (जो हांसी, हिसार और करनाल के कानूनगो थे) को मुगल बादशाह ने 1841 में विशिष्ट पदों पर नियुक्त करके इन प्रान्तों का प्रबन्धक बना दिया ।

    जब भारतवासी अंग्रेजों की परतन्त्रता से स्वतन्त्र होने के लिए संघर्ष कर रहे थे तब श्री हुकमचन्द जी ने फारसी भाषा में मुगल बादशाह जाफर को निमंत्रण पत्र भेजा कि वह अपनी सेना लेकर यहां के अंग्रेजों पर चढ़ाई कर दे ।

    सितम्बर 1857 के अन्तिम सप्ताह में जब शाह जफर को अंग्रेजों ने बन्दी बना लिया तब उनकी विशेष फाइल में वह निमन्त्रण पत्र मिला जो कि हुकमचन्द ने बादशाह को भेजा था । हिसार की सरकारी फाइल में वह पत्र आज तक भी विद्यमान है ।

    देहली के अंग्रेज कमिश्नर ने वह पत्र हिसार डिवीजन के कमिश्नर को उस पर तत्काल कार्यवाही हेतु भेज दिया । किन्तु सरकार का विरोध करने के अपराध में 19 जनवरी 1858 को श्री हुकमचन्द को उनके घर के सामने फांसी पर लटका दिया गया । उनके सम्बन्धियों को उनका शव तक भी नहीं दिया गया । लाला हुकमचन्द के शव को जलाने के स्थान पर भूमि में दफना कर हमारी धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात किया और उनकी चल और अचल सम्पत्ति भी जब्त कर ली गई । उस समय अपने देश से प्रेम करने वालों को गद्दार बताकर बिना अपराध असंख्य लोगों को फांसी पर चढ़ाकर अंग्रेजों ने अपनी पिपासा को शान्त किया ।

    लाला हुकमचन्द जी के दो भाई और थे, किन्तु केवल उन्हीं के भाग की 84-85 एकड़ भूमि जब्त कर ली गई जो अंग्रेजों के चाटुकारों ने आपस में बांट ली । शेष दोनों की पितृ-संपत्ति अब तक चली आ रही है ।

    50 वर्ष की आयु में हुकमचन्द जी को फांसी पर लटकाया गया था । उनके दो सुपुत्र एक 8 वर्ष का और दूसरा केवल 19 दिन का ही था । कोई 400 तोला सोना, 4 हजार तोले चांदी, अनेक गाय, भैंस, ऊँट आदि पशु और अन्न तथा घर का सामान अल्पतम मूल्य पर नीलाम कर दिया गया ।

    श्री हुकमचन्द जी के दस कुटुम्ब अब भी फल फूल रहे हैं । हरयाणा प्रान्त का इतिहास ऐसे ही वीरों के बलिदानों से भरपूर है ।


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    उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
    पृष्ठ - 112-150 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
    लेखक एवं सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
    प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)





    Next post in this series will be : झज्जर के नवाब


    .
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  18. #18
    deswal saab, a tribute to unsung heroes .. good thread..keep posting
    Last edited by downtoearth; November 10th, 2008 at 05:12 PM.
    I dont have personality,i am mere statistics.I used to be "downtoearth". Now this is my present name. Do i possess a name, a face ,an individuality ?:rolleyes:


  19. #19
    this is an excellent information shared by Ch. Deshwal. We must make an effort to know our glorious past.

  20. #20
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    good info deswal sir!

    Abhimanyu Phougat

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