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Thread: The Brave Jats

  1. #21
    ye jo dule jat ki (dhee) means beti, byahi thi, vo is ki asli beti nahin thi.. lekin is dule jat ne kisi bhi cost per itna chanda ikattha kar diya tha..ki kisi bhi gharib ladki ki shadi vo karva sakta tha...

  2. #22
    ye dula bhatti ek rajasthan ka jat tha. from there only started the myths of robinhood of dacia, romania..

  3. #23

    Kanha Rawat

    Kanha Rawat (कान्हा रावत) (born-1640, death-1684 AD) hailed from village Bahin, the place of origin of Rawat Jats, situated 60 miles South of Delhi in Faridabad district Haryana. He was a revolutionary freedom fighter. He lost his life fighting against the oppressions of Mugal rule in India and protection of Hinduism.

    कान्हा रावत का जन्म और बचपन

    हिंदुस्तान का इतिहास बलिदानी, साहसी देशभक्त वीरों की वीरगाथा से भरा पडा है. ऐसे वीर जिन्होंने भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाजों और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट वीरभूमि हरियाणा वैदिक सभ्यता नैतिकता, विशाल त्याग, यज्ञों की स्थली तथा विद्वानों की कर्म स्थली रही है. यहां के रणबांकुरों ने समय-समय पर देश की रक्षा व स्वाभिमान के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी. हरियाणा के जिला फरीदाबाद के मेवाती उपमंडल हथीन के निकटवर्ती गांव बहीन भी प्राचीन संस्कृति का एक दृश्य है.[1]

    धर्म बलिदानी कान्हा रावत का जन्म दिल्ली से ६० मील दक्षिण में स्थित रावत जाटों के उद्गम स्थान बहीन गाँव में चौधरी बीरबल के घर माता लाल देवी की कोख से संवत १६९७ (सन १६४०) में हुआ. वह समय भारत में मुग़ल साम्राज्य के वैभव का था. हर तरफ मुल्ले मौलवियों की तूती बोलती थी. कान्हा ने जन्म से ही मुग़लों के अत्याचारों के बारे में सुना था. यही कारण था कि कान्हा को छोटी अवस्था से ही लाठी, भाला, तलवार, ढाल चलाने की शिक्षा दी गई. [2]

    पारिवारिक जीवन

    युवा होने पर उनका विवाह अलवर रियासत के गाँव धीका की कर्पूरी देवी के साथ कर दिया गया. उनके दो पुत्र हुए लेकिन शीघ्र ही कर्पूरी देवी स्वर्ग सिधार गई. कर्पूरी देवी के चल बसने के बाद रिश्तेदारों के आग्रह पर कान्हा ने गुडगाँव जिले के ग्राम घरोंट निवासी उदयसिंह बड़गुजर की पुत्री तारावती को दूसरी जीवन संगिनी बना लिया लेकिन कान्हा के भाग्य में कुछ और ही लिखा था. जिस दिन कान्हा घरोंट से तारावती का गौना लेकर लाये उसी दिन बहीन के रावतों को मुग़लों ने घेर लिया. वीर कान्हा और तारावती अपने होने से पहले ही बेगाने हो गए. कान्हा ४४ वर्ष की उम्र में अमर पथ का पथिक बन गया. [3]

    फाल्गुन मास की अमावस्या सन् १६८४ को कान्हा रावत अपनी दूसरी शादी घर्रोट गांव से करके लाए औरंगजेब ने इसी अवसर का लाभ उठाना चाहा था. उन्होंने उसने बहीन गांव को चारों ओर से घेर लिया जब कान्हा रावत अपनी नई नवेली दुल्हन तारावती को लेकर बहीन पहुंचा तो मुगल सेना को देखकर दंग रह गया. कान्हा रावत को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए बहुत प्रलोभन दिए गए, परन्तु मात्रभूमि के मतवाले को गुलामी की जंजीरे मंजूर नहीं थी. इसलिए कंगन बंधे हाथों से मुगल सेना से भिड गया. बताया जाता है कि शाही हथियारों का मुकाबला, लाठी, फरसा, बल्लम और भालों से किया, कई दिनों तक चले इस युद्ध में जब कान्हा निहत्था रह गया तो अब्दुन नबी ने उसे बंदी बना लिया।[4]

    औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति

    औरंगजेब ने ९ अप्रेल १६६९ को फरमान जारी किया- "काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं". फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया. कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे . और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार. [5]


    सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया. [6]

    सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए. बस संघर्ष शुरू हो गया. [7]

    मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह

    मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह [सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा] ने स्पष्ट कहा है, राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके. असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ । आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे. शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया. [8] तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया [9]

    इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था. गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी. जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा. [10]

    गोकला जाट ने, अथक साहस का परिचय देकर मथुरा, सौख, भरतपुर, कामा, डीग, गोर्वधन, छटीकरा, चांट, सुरीर, छाता, भिडूकी, होडल, हसनपुर, सोंध, बंचारी, मीतरोल, कोट, उटावड, रूपाडाका, कोंडल, गहलब, नई, बिछौर के पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन के बंगले पर एकत्र कर एक विशाल पंचायत बुलाई. इस पंचासत में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई. इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला जाट को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे. युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई. जंगल की आग की तरह खबर विदेशी आंक्राता औरंगजेब तक पंहुच गई. उसने अपना सेनापति शेरखान को तुंरत बहीन भेजा.[11]

    माघ माह की काली घनी अंधेरी रात में देव राज इंद्र द्वारा किसानों की फसलों के लिए बरस रहे मेघ की बूंदों, काले बादलों के बीच नागिन की तरह चमकती बिजली, जानलेवा कडकडाती शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी. बंगले पर विराजमान वृद्धों ने भारतीय संस्कृति की रीतिरिवाज के अनुसार शेरखान को आदर सहित बंगले पर बुलवाया तथा उससे आने का कारण पूछा. शेरखान शाह मिजाज से वृद्धों का अपमान करता हुआ बोला - हम बादशाह औरंगजेब का फरमान लेकर आए है. यहां के लोग सीधे-सीधे ढंग से इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं, तो तुम्हारे मुखिया को नवाब की उपाधि से सम्मानित करेंगे. खास चेतावनी यह है कि यदि तुम लोगों ने गोकला जाट का साथ दिया तो अंजाम बुरा होगा।[12]


    इतनी बात सुनकर कान्हा रावत वहां से उठे और अपनी निजी बैठक में गया और भाला लेकर वापिस शेरखान पर टूट पडा. गांव के वृद्धों ने उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे. इधर शेरखान ने भी अपने साथियों को आदेश दिया कि वे इस छोकरे को शीघ्र काबू करके बंदी बनाएं. कान्हा रावत का उत्साह देखकर उसके युवा साथी भी लाठी, बल्लम आदि शस्त्र लेकर टूट पडे. युवाओं ने उन सैनिको को वहां से भगा कर ही दम लिया. [13]
    Laxman Burdak

  4. #24

    Kanha Rawat - Contd

    मुग़ल सेना से युद्ध

    तारावती को लाने से पूर्व रावतों के पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे [14] -

    * हम अपना वैदिक हिन्दू धर्म नहीं बदलेंगे.
    * मुसलमानों के साथ खाना नहीं खायेंगे.
    * कृषि कर अदा नहीं करेंगे. [15]

    रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा. उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी. सन १६८४ में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया. रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया. रावत जाटों ने मुग़ल सेना के छक्के छुडा दिए. यदि फिरोजपुर झिरका से मुग़लों को नई सैन्य टुकड़ी का सहारा नहीं मिलता तो मैदान रावत जाटों के हाथ रहता. लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन रावत जाट आखिर कब तक मुकाबला करते. इस युद्ध में पांचों रावत गांवों के अलावा अन्य रावत जाट भी लड़े थे और अनुमानतः २००० से अधिक रावत वीरगति को प्राप्त हुए थे. रावत जाटों के नेता कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया. [16][17]

    कान्हा रावत को जिन्दा जमीन में गाड़ा

    सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया. उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया. वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया. उसी जेल के आगे गढा खोदा गया. कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ. [18]

    शेर पिंजरे में बंद होकर भी दहाड़ रहा था -

    'जिन्दा रहा तो फिर क्रांति की आग सुलगाऊंगा' [19]

    रावतों के इतिहास के लेखक सुखीराम लिखते हैं कि - कान्हा रावत के कष्टों की दास्ताँ से निर्दयी औरंगजेब का दिल भी पसीज गया. एक दिन वह प्रात काल की वेला में अजमेरी गेट की जेल गया. कान्हा रावत की हालत देख वह बोला -

    "वीर रावत मैं तुम्हारी वीरता का कायल हूँ और तुम्हें माफ़ करना चाहता हूँ. तेरी युवा अवस्था है, घर में बैठी तेरी प्राण प्यारी विरह में रो-रोकर सूख कर कांटा हो गई है. तेरी माँ, बहन-भाई और रिश्तेदार बेहाल हैं. बहुत दिनों से रावतों के घर में दीपक नहीं जले हैं. किसी ने भी भर पेट खाना नहीं खाया है. तुम्हारे जैसा सात फ़ुट का होनहार जवान अपने दिल की उमंगों को साथ लिए जा रहा है. मुझे इसका अफ़सोस है. अरे पगले ! अपने ऊपर और अपनों पर रहम कर. यदि तू मेरी बात मानले तो तुझे मैं जागीर दे सकता हूँ. सेनापति बना सकता हूँ. तेरी मांगी मुराद पूरी हो सकती है. मेरे साथ चल. बाल कटवा, नहा धो और अच्छे कपडे पहन. दोनों साथ मिलकर खाना खयेंगे. अब बहुत हो चूका. तेरी हिम्मत ने मुझे हरा दिया है. अब तो दोस्ती का हाथ बढा दे." [20][21] [22]

    औरंगजेब की बात सुनकर वीर कान्हा रावत ने जवाब दिया था -

    "बादशाह तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है. खाना ही खाना होता, जागीर ही लेनी होती तो यहाँ इस तरह नहीं आता, इतना जान माल का नुकसान नहीं होता. मैंने सुब कुछ सोच विचार कर यह करने का निश्चय किया है. तुम ज्यादा से ज्यादा मुझे फांसी लगवा सकते हो, गोली से मरवा सकते हो या जमीन में दफ़न करवा सकते हो लेकिन मेरे अन्दर विद्यमान स्वाभिमान तथा देश एवं धर्म के प्रति प्रेम को तुम मार नहीं सकते. हाँ यदि तुझे मुझ पर रहम आता है तो बिना शर्त रिहा करदे." [23][24] [25]

    औरंगजेब अपमान का घूँट पीकर चला गया.

    कान्हा रावत ने औरंगजेब के साथ खाना खाने से इंकार कर दिया. उसको अपना धर्म त्यागना भी स्वीकार नहीं था. उसने अब्दुन नबी (मुग़ल सेनापति) के विरोध में उठने वाले किसान-आन्दोलन को नंदराम और गोकुला के साथ मिलकर हवा दी थी. इस जाट वीर ने प्राण भय से स्वधर्म और संघर्ष नहीं छोडा था. उसने जजिया कर के खिलाफ डटकर लडाई लड़ी थी. [26]

    एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया. उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे. कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था. दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दे. तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:

    "अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है. क्या तू रावतों की शान में कायरता का कलंक लगाना चाहता है. मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है. ताकि मैं शांति से मर सकूं. मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है. मैंने सोचा था कि तू रौताई (रावत पाल) का कोई हाल सुनाने आया है और मेरा सन्देश लेने आया है. लेकिन तुझे धिकार है. तू यहाँ आने से पहले मर क्यों नहीं गया. तूने मेरी आत्मा को छलनी कर दिया है." [27]

    कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर माफ़ी मांग कर वापिस गया. कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों के जाटों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया. यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली. इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली. इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत पर जुल्म बढा दिए. अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत १७३८ (सन १६८२ /सन १६८४) को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया. वह देशभक्त हिन्दू धर्म की खातिर शहीद होकर अमरत्व को प्राप्त किया. [28][29]

    कान्हा रावत के बलिदान ने दिल्ली के चारों तरफ बसे जाटों को जगा दिया. चारों और बगावत की ध्वनि गूंजने लगी. यह घटना मुग़ल सल्तनत के हरास का कारण बनी.

    जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है. [30]

    दिल्ली स्थित पहाडी धीरज पर आज भी वह जगह रावतपाडा के नाम से प्रसिद्ध है। कान्हा रावत को विदेशी छतरी को निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है। रावत पाल के लोगों ने उनकी स्मृति गौशाला का निर्माण कराया, जहां पर हर वर्ष दो दिन का उत्सव मनाया जाता है।[31]

    यह वक्त की ही विडम्बना है कि किसी भी राष्ट्रिय स्तर के लेखक ने इस शहीद पर कलम चलाने का प्रयास नहीं किया.

    कवियों की नजर में

    स्वर्गीय कवि रतन सिंह आर्य ने कान्हा रावत की वीरता और निडरता पर यह कविता लिखी है:


    शरीर आलमगीर आया रावत को तसखीर करने

    तीर क्या शमशीर संग भारी तोपखाना था

    कुकर्मी अधर्मी का हुकूमत की गर्मी का

    रौब और आतंक आर्यों पर बिठाना था

    धर्म कर्म नष्ट भ्रष्ट ललनाओं की लाज करी

    हरंग सजाये बड़े जुल्म का जमाना था

    रावत ने बगावत करके मुग़लों का विरोध किया

    शाही रकाबत को नहीं गिरना था

    पहचान स्वधर्म ठाना म्लेच्छों से विकट युद्ध

    मन नहीं खौप युद्ध महाबली कान्हा था

    देश के इतिहास में प्रकाशमान आज तलक

    रावत कुलभूषण रतन सिंह मरदाना था [32]

    कान्हा रावत के दुःख की दास्तान को स्थानीय कवि खेम सिंह ने इस तरह वर्णन किया है: हाथ में पड़ी हथकडी, सर पर थी केसरिया पगड़ी

    तगडी कली सी खिली, कर प्रणाम आखिरी चल दिया जब कान्हा बली

    देश धर्म जाती के लिए, नर थोड़े दिन ही जिया करे

    मुसीबत सर पर लिया करे, जहर के प्याले पिया करे

    जिनमें कुर्बानी का मादा, वे ना जिया करे नर ज्यादा

    इज्जत उन्ही को मिली [33]

    Notes

    1. The year of death is written as 1682 AD by Bhaleram Beniwal and Mahipal Arya, but Jat Duniya writes as 1684 AD. Mahipal Arya writes that he was 44 years of age when died. We have taken later to be more correct.

    2. This article is also on Jatland Wiki at - http://www.jatland.com/home/Kanha_Rawat


    सन्दर्भ

    1. ↑ http://www.jatduniya.com/gallery/His...at%20bali.html
    2. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 16
    3. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 16
    4. ↑ http://www.jatduniya.com/gallery/His...at%20bali.html
    5. ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 34
    6. ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 33
    7. ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 33
    8. ↑ डा. धर्मभानु श्रीवास्तव, The Province of Agra (Concept Publishing Company, New Delhi) pp7-8
    9. ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 5
    10. ↑ नरेन्द्र सिंह वर्मा - वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह, संकल्प प्रकाशन, आगरा, 1986, पृष्ट 6
    11. ↑ http://www.jatduniya.com/gallery/His...at%20bali.html
    12. ↑ http://www.jatduniya.com/gallery/His...at%20bali.html
    13. ↑ http://www.jatduniya.com/gallery/His...at%20bali.html
    14. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 16
    15. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008), प्रकाशक - बेनीवाल पुब्लिकेशन , ग्राम - दुपेडी, फफडाना, जिला- करनाल , हरयाणा, p.638
    16. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    17. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008) पृ. 638
    18. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008) पृ. 639
    19. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    20. ↑ सुखीराम रावत : रावतों का इतिहास, पृ. 261
    21. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    22. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008) पृ. 639
    23. ↑ सुखीराम रावत : रावतों का इतिहास, पृ. 261-262
    24. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    25. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008) पृ. 639
    26. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    27. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008) पृ. 640
    28. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008) पृ. 640
    29. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    30. ↑ महिपाल आर्य:जाट ज्योति, मार्च २००९ - "बलिदानी वीरवर कान्हा रावत की अमर कहानी" पृष्ट 17
    31. ↑ http://www.jatduniya.com/gallery/His...at%20bali.html
    32. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008), पृ. 639
    33. ↑ भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (2008), पृ. 639
    Laxman Burdak

  5. #25

    The unstoppable Subedar Chuna Ram Fageria

    The unstoppable Subedar Chuna Ram Fageria (b.1923 - d.31 May 1995) was the first winner of Mahavir Chakra in 1948 in Indo-Pak war.[1] He was born in Village Dalmas Ki Dhani in Laxmangarh tahsil in Dist- Sikar in year 1923. He was a wrestler.

    Mahavir Chakra Award

    SUB- Chuna Ram Fageria MVC (JCO 15110) was awarded MVC on June 15,1948 For Capturing of PT 5460 During J & K Operations of Link up with Poonch & Raujori

    In June 1948 a company of 2 Rajputana Rifles was ordered to dislodge the enemy from the hills overlooking the Rajouri-Thana Mandi road, in Kashmir.

    Havildar Chuna Ram, commander of the reserve platoon of the company was asked to silence the guns on the spur. The havildar moved up with two sections of his platoon. When they neared the objective the enemy lobbed hand grenades at them, but that could not stop Chuna Ram. He charged the enemy post with a sten gun. He killed two and wounded three enemy soldiers and silenced the guns. Then bleeding profusely from his wounds, fell down, the life ebbing from his body.

    Havildar Chuna Ram was awarded Mahavir Chakra posthumously (?) for gallantry and leadership of a very high order. [2]

    Unit – Rajputana Rifles (Raj. Rif. Regt. Centre. Delhi. Cantt.)

    Date of Enrollment 29-12-1940,
    Date of Discharge 29-12-1968
    [edit] Family
    Brothers – Hardeva Ram, Khuma Ram, Kheta Ram, Pokhar Mal, Chuna Ram (Himself)
    Sisters – Kasturi, Parmeshawari, Chhoti, Anchi, Kanchan,
    MVC’S Sons- Puranmal, Ramratan, Hanuman, Rajendra Prasad,
    Father’s Name Biru Ram Fageria
    Mother’s Name Kisani Devi
    Wife’s Name Chandari Devi

    Medals and Awards

    Subedar Chuna Ram Fageria received the following medals for his meritorious service in the Indian Army:

    Star Medal,
    War Medal,
    Indian Service Medal,
    Independence Medal,
    Burma Star,
    Mahavir Chakra,
    Raksha Medal,
    Sauray Seva Medal,
    General Seva Medal.

    War Service


    J & K 8-2-1948 to 27-8-1948
    J & K 6-11-1953 to 7-7-1954; 3-12-1954 to 2-2-1955
    Concessional Area 19-7-1951 to 4-10-1951; 4-12-1951 to 8-3-1952

    What a tragedy ?

    Such a brave hero, about whom army records say unstoppable and large number of awards and medals of bravery to his credit, has no mention in any of records except a website [3] which says Havildar Chuna Ram was awarded Mahavir Chakra posthumously for gallantry and leadership of a very high order.

    I contacted Mansukh Ranwa from Sikar who went to his village Dalmas in Sikar district and collected photo and some details. These have been provided here. Munsukh Ranwa has sent me information that the hero Chua Ram died on 31 May 1995 and was cremated like an ordinary person without any army honour deserved by MVC.

    Author लेखक: Laxman Burdak लक्ष्मण बुरड़क

    References

    http://www.sikar.nic.in/Default.asp?stab=person1 GALLANTRY AWARD WINNERS
    http://www.geocities.com/siafdu/amvc68.html
    http://www.geocities.com/siafdu/amvc68.html
    ***************************************
    See also at JL Wiki - http://www.jatland.com/home/Subedar_Chuna_Ram_Fageria
    Laxman Burdak

  6. #26
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    The unstoppable Subedar Chuna Ram Fageria (b.1923 - d.31 May 1995) was the first winner of Mahavir Chakra in 1948 in Indo-Pak war.[1]

    Havildar Chuna Ram was awarded Mahavir Chakra posthumously (?) for gallantry and leadership of a very high order. [2]


    What a tragedy ?

    Such a brave hero, about whom army records say unstoppable and large number of awards and medals of bravery to his credit, has no mention in any of records except a website [3] which says Havildar Chuna Ram was awarded Mahavir Chakra posthumously for gallantry and leadership of a very high order.

    I contacted Mansukh Ranwa from Sikar who went to his village Dalmas in Sikar district and collected photo and some details. These have been provided here. Munsukh Ranwa has sent me information that the hero Chua Ram died on 31 May 1995 and was cremated like an ordinary person without any army honour deserved by MVC.
    Burdak Ji, thanks for compiling life history of one more brave jat.

    Why we are still using posthumously when we are confirm that he died in 1995? If we are confirm then we can write to the concerned site too and to the govt military site if any to include this.

  7. #27
    Jitenderji,

    I have removed posthumously word from the article on Jatland Wiki. Point here is what the army personnel deparment does after the retirement of such heroes.

    Thanks and regards,
    Laxman Burdak

  8. #28

    Jujhar Singh Nehra

    राजस्थान में नेहरा जाटों का तकरीबन २०० वर्ग मील भूमि पर किसी समय शासन रहा था. उनके ही नाम पर झुंझुनू के निकट पर्वत आज भी नेहरा कहलाता है. दूसरा पहाड़ जो मौरा (मौड़ा) है, मौर्य लोगों के नाम से मशहूर है.नेहरा लोगों में सरदार झुन्झा अथवा जुझार सिंह बड़े मशहूर योद्धा हुए हैं, उन्हीं के नाम से झुंझुनू जैसा नगर प्रसिद्द है.

    पंद्रहवीं सदी में नेहरा लोगों का नरहड़ में शासन था. वहां पर उनका एक किला भी था. उससे १६ मील पश्चिम में नेहरा पहाड़ के नीचे नाहरपुर में उनके दूसरे दल का राज्य था. सोलहवीं सदी के अंतिम भाग में और सत्रहवीं सदी के प्रारंभ में नेहरा लोगों का मुसलमान शासकों से युद्ध हुआ. अंत में नेहरा लोगों ने मुसलमानों से संधि करली.

    नेहरा लोगों के प्रसिद्द सरदार जुझार सिंह का जन्म संवत १७२१ विक्रमी श्रावण महीने में हुआ था. उनके पिता नवाब के यहाँ फौज के सरदार यानि फौजदार थे. युवा होने पर सरदार जुझार सिंह नवाब की सेना में जनरल बन गए. उनके दिल में यह बात पैदा हो गयी कि भारत में जाट साम्राज्य स्थापित हो. जुझार सिंह ने पंजाब, भरतपुर, ब्रज के जाट राजाओं और गोकुला के बलिदान की चर्चा सुन रखी थी. उनकी हार्दिक इच्छा थी कि नवाबशाही के खिलाफ जाट लोग मिल कर बगावत करें.

    उन्हीं दिनों सरदार जुझार सिंह की मुलाकात एक राजपूत से हुई. वह किसी रिश्ते के जरिये नवाब के यहाँ नौकर हो गया. उसका नाम शार्दुल सिंह था. दोनों का सौदा तय हो गया. शार्दुल सिंह ने वचन दिया कि इधर से नवाबशाही के नष्ट करने पर हम तुम्हें (सरदार जुझार सिंह को) अपना सरदार मान लेंगे. अवसर पाकर सरदार जुझार सिंह ने झुंझुनू और नरहड़ के नवाबों को परास्त कर दिया और बाकि मुसलमानों को भगा दिया.

    कुंवर पन्ने सिंह द्वारा लिखित 'रणकेसरी जुझार सिंह' नमक पुस्तक में अंकित है कि सरदार जुझार सिंह को दरबार करके सरदार बनाया गया. सरदार जुझार सिंह का तिलक करने के बाद एकांत में पाकर विश्वास घात कर शेखावतों ने सरदार जुझार सिंह को धोखे से मार डाला. इस घृणित कृत्य का समाचार ज्यों ही नगर में फैला हाहाकार मच गया. जाट सेनाएं बिगड़ गयी. फिर भी कुछ लोग विपक्षियों द्वारा मिला लिए गए. कहा जाता है कि उस समय चारण ने शार्दुल सिंह के पास आकर कहा था -

    सादे लीन्हो झूंझणूं, लीनो अमर पटै

    बेटे पोते पड़ौते, पीढी सात लटै

    अर्थात - सादुल्लेखान से इस राज्य को झून्झा (जुझार सिंह) ने लिया था, वह तो अमर हो गया. अब इसमें तेरे वंशज सात पीढी तक राज करेंगे.

    जुझार अपनी जाती के लिए शहीद हो गया. वह संसार में नहीं रहे , किन्तु उनकी कीर्ति आज तक गाई जाती है. झुंझुनू शहर का नाम जुझार सिंह के नाम पर झुन्झुनू पड़ा है.

    शेखावतों ने जाट-क्षत्रियों के विद्रोह को दबाने के लिए तथा उन्हें प्रसन्न रखने के लिए निम्नलिखित आज्ञायेँ जारी की गयी -

    1. लगान की रकम उस गाँव के जाट मुखिया की राय से ली जाया करेगी.
    2. जमीन की पैमयश गाँव के लम्बरदार किया करेंगे.
    3. गोचर भूमि के ऊपर कोई कर नहीं होगा.
    4. जितनी भूमि पर चारे के लिए गुवार बोई जावेगी उस पर कोई कर नहीं होगा.
    5. गाँव में चोरी की हुई खोज का खर्चा तथा राज के अधिकारियों के गाँव में आने पर उन पर किया गया खर्च गाँव के लगान में से काट दिया जावेगा. जो नजर राज के ठाकुरों को दी जायेगी वह लगान में वाजिब होगी.
    6. जो जमीन गाँव के बच्चों को पढ़ाने वाले ब्राहमणों को दो जायेगी उसका कोई लगान नहीं होगा. जमीन दान करने का हक़ गाँव के मुखिया को होगा.
    7. किसी कारण से कोई लड़की अपने मायके (पीहर) में रहेगी तो उस जमीन पर कोई लगान न होगा, जिसे लड़की अपने लिए जोतेगी.
    8. गाँव का मुखिया किसी काम से बुलाया जायेगा तो उसका खर्च राज देगा.
    9. गाँव के मुखिया को जोतने के लिए जमीन फुफ्त दी जायेगी. सारे गाँव का जो लगान होगा उसका दसवां भाग दिया जायेगा.
    10. मुखिया वही माना जायेगा जिसे गाँव के लोग चाहेंगे. यदि सरदार गाँव में पधारेंगे तो उन के खान=पान व स्वागत का कुल खर्च लगान में से काट दिया जायेगा.
    11. गाँव के टहलकर (कमीण) लोगों को जमीन मुफ्त दी जायेगी.
    12. जितनी भूमि पर आबादी होगी, उसका कोई लगान न होगा.
    13. इस खानदान में पैदा होने वाले सभी उत्तराधिकारी इन नियमों का पालन करेंगे.

    कुछ दिनों तक इनमें से कुछ नियम आंशिक रूप से अनेक ठिकानों द्वारा ज्यों-के-त्यों अथवा कुछ हेर-फेर के साथ मने जाते रहे. कुछ ने एक प्रकार से कटाई इन नियमों को मेट दिया.

    झुंझुनू का मुसलमान सरदार जिसे कि सरदार जुझार सिंह ने परास्त किया था , सादुल्ला नाम से मशहूर था. झुंझुनू किस समय सादुल्लाखान से जुझार सिंह ने छीना इस बात का वर्णन निम्न काव्य में मिलता है.

    सत्रह सौ सत्यासी, आगण मास उदार

    सादे लीन्हो झूंझणूं, सुदी आठें शनिवार

    अर्थात - संवत १७८७ में अघन मास के सुदी पक्ष में शनिवार के दिन झुंझुनू को सादुल्लाखान से जुझार सिंह ने छीना.

    सरदार जुझार सिंह के बाद ज्यों-ज्यों समय बीतता गया उनकी जाट जाति के लोग पराधीन होते गए. यहाँ तक कि वह अपनी नागरिक स्वाधीनता को भी खो बैठे. एक दिन जो राजा और सरदार थे उनको भी बादमें पक्के मकान बनाने के लिए जमीन खरीदनी पड़ती थी. उन पर बाईजी का लाग लगा और भेंट, न्यौता-कांसा अदि अनेक तरह की बेहूदी लाग और लगा दी गई.

    नोट - यह वृतांत ठाकुर देशराज द्वारा लिखित जाट इतिहास , महाराजा सूरज मल स्मारक शिक्षा संसथान , दिल्ली , १९९२ पेज ६१४ -६१७ पर अंकित है.

    अधिक जानकारी के लिए जाटलैंड विकी पर यह लेख पढिये

    http://www.jatland.com/home/Nera
    Laxman Burdak

  9. #29
    डॉ सुनीता मल्हान: एक प्रेरक व्यक्तित्व

    नई दिल्ली के विज्ञान भवन में महिला दिवस पर आयोजित 'स्त्री शक्ति पुरस्कार २००९' समारोह के दौरान भारत की राष्ट्रपति ने हरयाणा के रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के गर्ल्स होस्टल -३ की वार्डन डॉ सुनीता मल्हान को 'रानी लक्ष्मीबाई पुरस्कार' से सम्मानित किया. अवार्ड के लिए चयनित होने के बाद डा. सुनीता मल्हान खासी खुश नजर आई. उन्होंने बताया कि वह इस अवार्ड से खासी उत्साहित है. उसने अवार्ड व अपने जीवन में यहां तक पहुंचने का श्रेय अपने माता-पिता धनवंती व महेद्र सिंह को दिया. हरयाणा सरकार ने भी महिला दिवस पर उन्हें सम्मानित किया. इससे पहले ३ दिसंबर २००९ को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने डॉ सुनीता मल्हान को श्रेष्ठ विकलांग कर्मचारी होने का अवार्ड भी दिया था.

    डॉ सुनीता मल्हान झज्जर जिले के सुबाना गाँव की रहने वाली हैं.उनका संघर्ष काफी प्रेरणा दायक है. डॉ सुनीता मल्हान की शादी जनवरी १९८७ में ही हो गयी थी जब उन्होंने स्नातक की डिग्री ली ही थी. शादी के चार माह बाद ८ मई १९८७ को दोपहर रेलवे फाटक पार करते समय उनकी चुन्नी सायकिल के पहिये में उलझ गई और ट्रेन हादसे में वे अपने दोनों हाथ गवां बैठी. हादसे के बाद पति ने तलाक दे दिया. डॉ सुनीता मल्हान का यह सबसे कठिन दौर था. डा. सुनीता मल्हान की यह दर्द भरी कहानी है. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. सुनीता की हालात से हार न मानने की जिजीविषा के जिक्र के बगैर यह कहानी अधूरी है। वह हालात से लड़ीं, सिर्फ और सिर्फ अपने बूते पर। हाथ गंवाने के बाद उसने पैर से कलम थामी और पढ़ाई पूरी कीं। सुनीता ने हर इम्तिहान पास किया, पढ़ाई का भी और जिंदगी का भी। कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ने की सुनीता की जिजीविषा को अब पूरा राष्ट्र सलाम कर रहा है।

    इलाज के दौरान सुनीता ने एक नर्स के माध्यम से पैर के अंगूठे से लिखना सीखा. नर्स ने स्वयं ही कापी पैन लाकर दिए और पाँव से पैन पकड़ना सिखाया. पैर से लिखने में शुरू में बहुत कष्ट हुआ पर लगातार अभ्यास से वह लिखने में सफल रही. पैर से लिखने के अभ्यास के साथ ही परीक्षा की तैयारी भी की और ऍम.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा दी. कड़ी मेहनत और हौसले का मीठा फल सुनीता को मिला. सुनीता ने ऍम.ए. की पढाई पूरी करली. वह यहीं नहीं रुकी और पी एच ड़ी भी करली और डॉ सुनीता मल्हान कहलाने लगी.

    एमडी यूनिवर्सिटी हास्टल वार्डन डा. सुनीता मल्हान को स्त्री शक्ति के लिए देश के प्रतिष्ठित रानी लक्ष्मीबाई अवार्ड के लिए चुना गया है। उन्हे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आठ मार्च २००९ को राष्ट्रीय महिला दिवस पर विज्ञान भवन में होने वाले समारोह में सम्मानित किया. एमडी यूनिवर्सिटी के सरस्वती हास्टल (गर्ल्ज हास्टल नंबर तीन) की वार्डन डा. सुनीता देवी को यह पुरस्कार उन्हे कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ने के लिए दिया गया है. हर वर्ष यह पुरस्कार उस महिला को दिया जाता है जो कठिन परिस्थितियों में संभल कर अपने जीवन को आगे बढ़ाती है, अपने परिवार का सहारा बन समाज के लिए प्रेरणास्त्रोत बनती हैं.

    सुनीता मल्हान खेलों में भी काफी शौक रखती है तथा एथलेटिक में राष्ट्रीय स्तर पर पदक विजेता है.

    नोट - See more on Jatland Wiki at - http://www.jatland.com/home/Sunita_Malhan
    Last edited by lrburdak; May 14th, 2010 at 08:25 AM.
    Laxman Burdak

  10. #30

    प्रेरणा की अजस्त्र स्रौत

    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    डॉ सुनीता मल्हान: एक प्रेरक व्यक्तित्व

    नई दिल्ली के विज्ञान भवन में महिला दिवस पर आयोजित 'स्त्री शक्ति पुरस्कार २००९' समारोह के दौरान भारत की राष्ट्रपति ने हरयाणा के रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के गर्ल्स होस्टल -३ की वार्डन डॉ सुनीता मल्हान को 'रानी लक्ष्मीबाई पुरस्कार' से सम्मानित किया. अवार्ड के लिए चयनित होने के बाद डा. सुनीता मल्हान खासी खुश नजर आई. उन्होंने बताया कि वह इस अवार्ड से खासी उत्साहित है. उसने अवार्ड व अपने जीवन में यहां तक पहुंचने का श्रेय अपने माता-पिता धनवंती व महेद्र सिंह को दिया. हरयाणा सरकार ने भी महिला दिवस पर उन्हें सम्मानित किया. इससे पहले ३ दिसंबर २००९ को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने डॉ सुनीता मल्हान को श्रेष्ठ विकलांग कर्मचारी होने का अवार्ड भी दिया था.

    डॉ सुनीता मल्हान झज्जर जिले के सुबाना गाँव की रहने वाली हैं.उनका संघर्ष काफी प्रेरणा दायक है. डॉ सुनीता मल्हान की शादी जनवरी १९८७ में ही हो गयी थी जब उन्होंने स्नातक की डिग्री ली ही थी. शादी के चार माह बाद ८ मई १९८७ को दोपहर रेलवे फाटक पार करते समय उनकी चुन्नी सायकिल के पहिये में उलझ गई और ट्रेन हादसे में वे अपने दोनों हाथ गवां बैठी. हादसे के बाद पति ने तलाक दे दिया. डॉ सुनीता मल्हान का यह सबसे कठिन दौर था. डा. सुनीता मल्हान की यह दर्द भरी कहानी है. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. सुनीता की हालात से हार न मानने की जिजीविषा के जिक्र के बगैर यह कहानी अधूरी है। वह हालात से लड़ीं, सिर्फ और सिर्फ अपने बूते पर। हाथ गंवाने के बाद उसने पैर से कलम थामी और पढ़ाई पूरी कीं। सुनीता ने हर इम्तिहान पास किया, पढ़ाई का भी और जिंदगी का भी। कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ने की सुनीता की जिजीविषा को अब पूरा राष्ट्र सलाम कर रहा है।

    इलाज के दौरान सुनीता ने एक नर्स के माध्यम से पैर के अंगूठे से लिखना सीखा. नर्स ने स्वयं ही कापी पैन लाकर दिए और पाँव से पैन पकड़ना सिखाया. पैर से लिखने में शुरू में बहुत कष्ट हुआ पर लगातार अभ्यास से वह लिखने में सफल रही. पैर से लिखने के अभ्यास के साथ ही परीक्षा की तैयारी भी की और ऍम.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा दी. कड़ी मेहनत और हौसले का मीठा फल सुनीता को मिला. सुनीता ने ऍम.ए. की पढाई पूरी करली. वह यहीं नहीं रुकी और पी एच ड़ी भी करली और डॉ सुनीता मल्हान कहलाने लगी.

    एमडी यूनिवर्सिटी हास्टल वार्डन डा. सुनीता मल्हान को स्त्री शक्ति के लिए देश के प्रतिष्ठित रानी लक्ष्मीबाई अवार्ड के लिए चुना गया है। उन्हे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आठ मार्च २००९ को राष्ट्रीय महिला दिवस पर विज्ञान भवन में होने वाले समारोह में सम्मानित किया. एमडी यूनिवर्सिटी के सरस्वती हास्टल (ग*र्ल्ज हास्टल नंबर तीन) की वार्डन डा. सुनीता देवी को यह पुरस्कार उन्हे कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ने के लिए दिया गया है. हर वर्ष यह पुरस्कार उस महिला को दिया जाता है जो कठिन परिस्थितियों में संभल कर अपने जीवन को आगे बढ़ाती है, अपने परिवार का सहारा बन समाज के लिए प्रेरणास्त्रोत बनती हैं.

    सुनीता मल्हान खेलों में भी काफी शौक रखती है तथा एथलेटिक में राष्ट्रीय स्तर पर पदक विजेता है.

    नोट - See more on Jatland Wiki at - http://www.jatland.com/home/Sunita_Malhan
    Hats off to Dr Sunita.
    जिजीविषा और संघर्ष की अद्भुत प्रतिमा डॉ सुनीता मल्हान लोगो के लिए एक महान प्रेरणा है.
    जिंदगी पथ है मंजिल की तरफ जाने का,
    जिंदगी नाम है तूफानों से टकराने का.
    मौत तो बस चैन से सो जाने की बदनामी है,
    जिंदगी गीत है मस्ती से सदा गाने का..

  11. #31
    Dear all,
    A very few of us might be aware that last state to be taken over by british was of lahore from the jat sikhs in 1849.2nd last was bharatpur state of jats, when raja durjan saul fought against all the combined forces of british empire in india in year 1826. i never heard or read any rajputana state giving any resistance to britishres any time any where.they simply surrendered..very politelyand humbly.honest and dedicated servants of the raj

  12. #32
    dude, how can u forget Maharana pratap and his life long resistance against mugals?
    itz good to be proud of urself but plz dnt ignore others.
    Quote Originally Posted by rajendersingh View Post
    i never heard or read any rajputana state giving any resistance to britishres any time any where.they simply surrendered..raj
    khush raho na yaar...

  13. #33
    rajender talked of britishers, not mughals. rana pratap may be an exception amongst rajputs. not to forget that these rajputs are also renowned for offering their bahu's and beti's to mughals.

    Quote Originally Posted by narendra81 View Post
    dude, how can u forget Maharana pratap and his life long resistance against mugals?
    itz good to be proud of urself but plz dnt ignore others.
    ! ... be BOLD in what you stand for !
    !! ... i've the simplest tastes, i'm always satisfied with the best !!
    !!! ... be yourself, everyone else is already taken !!!

  14. #34
    Brahm,
    1. does that matter if it was mugals ro britishars? look at the intension.
    2. when u say rana pratap was an exception, u should count exceptions when u say 'i never heard any'
    3. when u say "these rajputs are also renowned for offering their bahu's and beti's to mughals" that is not at all related to above words. that can be discusse d separatly.

    Quote Originally Posted by brahmtewatia View Post
    rajender talked of britishers, not mughals. rana pratap may be an exception amongst rajputs. not to forget that these rajputs are also renowned for offering their bahu's and beti's to mughals.
    khush raho na yaar...

  15. #35
    dear narender,no can deny the fact the rana's of chhitorgargh were the real heros.they realy sacrificed for the nation .they were the only one who fought agaisnt the mughals.they did not give their daughters /sisters to mughals in marriage as all other rajputs did. it is relevant to mention here that not a single rajput king took side with rana's of chitor against mughals.maximum of toops were non rajputs there were bhils ,jats or other castes,

    rajputs gave their daughters/ sisters to mughals to enjoy the patronage of mughals.it is also pertinent to know that not a single case of mughals giving their females to rajput has come to notice.rajputs sold their females to mughals to enjoy the best things of life ..shamelessly.rajputs lost all their selfrespect and ruthlessly exploited the poor public of rajsthan on behalf of mughals.where as it was never ever done by jats whether in rasjthan or punjab

  16. #36
    Bhai mere no doubt about bravery and sacrifice of Maharana Pratap, he was indeed one of the bravest warrior but why are you forgeting it was King of Jaipur, Man Singh who went to fight Maharana Pratap on behalf of Akbar. So called brave Rajputs surrendered to first Mugals n' offered their behen-betis and then licked Britishers and proudly followed their philosophy. U perhaps aint aware that Jaipur was colored pink in welcoming of Prince William.

    Jats on the other hand never accepted slavery of any one be it mugals, britishers or others .. we were born free n' always ll be.


    Quote Originally Posted by narendra81 View Post
    dude, how can u forget Maharana pratap and his life long resistance against mugals?
    itz good to be proud of urself but plz dnt ignore others.
    .. " Until Lions have their historians, tales of the hunt shall always glorify the hunter! " ..



  17. #37
    .

    Fully in sync with ur words Bhaisaab.


    Quote Originally Posted by rajendersingh View Post
    dear narender,no can deny the fact the rana's of chhitorgargh were the real heros.they realy sacrificed for the nation .they were the only one who fought agaisnt the mughals.they did not give their daughters /sisters to mughals in marriage as all other rajputs did. it is relevant to mention here that not a single rajput king took side with rana's of chitor against mughals.maximum of toops were non rajputs there were bhils ,jats or other castes,

    rajputs gave their daughters/ sisters to mughals to enjoy the patronage of mughals.it is also pertinent to know that not a single case of mughals giving their females to rajput has come to notice.rajputs sold their females to mughals to enjoy the best things of life ..shamelessly.rajputs lost all their selfrespect and ruthlessly exploited the poor public of rajsthan on behalf of mughals.where as it was never ever done by jats whether in rasjthan or punjab
    .. " Until Lions have their historians, tales of the hunt shall always glorify the hunter! " ..



  18. #38
    Quote Originally Posted by narendra81 View Post
    Brahm,
    1. does that matter if it was mugals ro britishars? look at the intension.
    narendra, if you talk of intention... as far as i can apprehend it all depends on what you perceive from a particular post. you, as per your perception overlooked the 1st part (shaded green) and commented on the 2nd part (shaded red).

    as of me, i perceived 1st part of the post, of which i was not aware >>> adds to my knowledge.

    since you replied on the 2nd part (which imo/perception, wasn't so important)... i just, replied to your reply.


    Quote Originally Posted by rajendersingh
    Dear all,
    A very few of us might be aware that last state to be taken over by british was of lahore f
    rom the jat sikhs in 1849.2nd last was bharatpur state of jats, when raja durjan saul fought against all the combined forces of british empire in india in year 1826
    . i never heard or read any rajputana state giving any resistance to britishres any time any where.they simply surrendered..very politelyand humbly.honest and dedicated servants of the raj
    ! ... be BOLD in what you stand for !
    !! ... i've the simplest tastes, i'm always satisfied with the best !!
    !!! ... be yourself, everyone else is already taken !!!

  19. #39
    also have a grasp on the title of the thread. we are talking of "brave JAT's" nd not brave rajputs. so you tell me now, which part of rajender's post should be more relevant... shaded green or shaded red ?

    hope that clarifies.
    ! ... be BOLD in what you stand for !
    !! ... i've the simplest tastes, i'm always satisfied with the best !!
    !!! ... be yourself, everyone else is already taken !!!

  20. #40
    Undoubtedly Jats were brave ... are brave and will be brave always.... and are, were and will be the first competitor of every economically and population wise rich caste. of any particular region...(In case Jat is the only caste there in that region, then gotra wise comparison comes into the picture and in the extreme case comparison on the basis of next of kin may arise ;-) )


    Being a Jat,I proud to be a thorn in the eyes of all other Non-jats :o

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