स्वतंत्रता के दिनों में
भारत की स्वतंत्रता के दिनों एक दिन वे अपनी ससुराल से आ रहे थे. रास्ते में उनको एक वृद्ध औरत मिली जो लाठी के सहारे चल रही थी. उस समय चौधरी ताराचंद ने बुढ़िया से पूछा कहाँ जाओगी?
उत्तर मिला पाकिस्तान,
कहाँ है पाकिस्तान जानती हो?
जानती तो नहीं.
घर वाले कहाँ हैं?
छोड़कर चले गए हैं मेरे से चला नहीं गया मैं पीछे रह गई हूँ.
क्या ही ह्रदय विदारक दृश्य था. आज बेटे मां को भूल गए. ताराचंद बुढ़िया को गाड़ी में बैठाने लगे तो साथ वाले कहने लगे कि चौधरी साहब किस-किस का दुःख दूर करोगे. यहाँ तो सारी दुनिया ही दुखी है. लेकिन वे माने नहीं. पाँच मील जाकर काफिले को पीछे से पकड़ा व बुढ़िया के बेटे को तलाश कर उन्हें धिक्कारा तथा उनकी मां को उनके सुपुर्द किया.
भारत के बँटवारे के समय उनके साथ अनेकों घटनाएँ घटी . वे सभी मुसलमानों को बाईज्जत अपनी सुरक्षा से सीमा पार कराते थे तथा उनको पाकिस्तान भेजते थे. एक बार एक सिक्ख ने एक मुस्लमान की लड़की के साथ बलात्कार से मुक्त कराया. उसको अपने घर अपनी मां के संरक्षण में रखा तथा मां से कहा यह मुसलमान है. इसको प्यार से रखना. इसके आने से अपना घर पवित्र हुआ है. एक महीने बाद जब उसी लड़की के माता पिता मिले तो उनको उस लड़की को सौंप दिया.
उन्ही दिनों बीकानेर राजा का संदेश आया कि दो डाक्टर हिंदू औरत पाकिस्तान में फंस गई हैं. उनको भारत में लाना है. चौधरी ताराचंद छोटे से पुलिस काफिले के साथ पाकिस्तान पहुंचे तो वहां के लोग बंदूकों और गंडासों से लेस हमला करने के उद्देश्य से उनके पास आए लेकिन जब देखा कि चौधरी ताराचंद एस.पी. हैं तो वे उनके पैरों में पड़ गए और माफ़ी मांगी. चौधरी साहब और दोनों डाक्टर औरतों को २०० आदमियों का काफिला सुरक्षित सीमा तक छोड़ कर आया. यह उनकी मानवता के प्रति सच्ची वफादारी के कारण हुआ था.
डाकुओं से अन्तिम लडाई : शहीद हुए
चौधरी ताराचंद अपने पुलिस जीवन में अनेकों बार डाकुओं से भिड़े थे. अनेक डाकुओं को मारा था. वे फर्ज में मरने को बहादुरी समझते थे. जीवन के अन्तिम दिन भी उन्होंने जो बातें काफी समय पूर्व लिखी थी का शब्दशः पालन किया. १९ सितम्बर १९५३ को अपनी डायरी में लिखा था -
"मैं जानता हूँ कि मैं एक बहादुर की मौत मरूँगा".
इस बात को चरितार्थ किया उन की अन्तिम लड़ाई ने. ११-३-१९५८ को मुखबिर से सूचना मिली कि कल्याण सिंह डाकू एक राजपूत के घर ठहरा हुआ है तो पुलिस ने फ़ौरन अपनी तैयारी के साथ पार्टियाँ भेजी. एक पार्टी का नेतृत्व जोधपुर पुलिस कप्तान चौधरी ताराचंद को बनाया. साथ में थे उप पुलिस अधीक्षक दीनदयाल. ११ मार्च १९५८ की रात को उन जगहों का घेरा डाला तथा १२ मार्च १९५८ को शुबह अभियान शुरू हुआ. दोनों तरफ़ से फायरिंग होने लगी. डाकू कल्याण सिंह वहां से भाग खड़ा हुआ. पुलिस ने पीछा किया और डाकू को घेर लिया. डाकुओं की संख्या सात थी. भागते हुए डाकुओं ने जटिया की ढाणी में एक ऊँचे पक्के मकान में मोर्चा लिया. वहां से २५० गज की दूरी पर पुलिस ने भी मोर्चा लिया. डाकुओं की गोली के वार पुलिस पर सीधे आ रहे थे. पुलिस के वार उन पर सीधे नहीं जा रहे थे. यहीं पर बने एक नाले में चौधरी ताराचंद सहित तीन पुलिस अफसरों ने मोर्चा ले रखा था. डाकुओं पर कोई निशाना फिट नहीं बैठा तो ताराचंद ने लेटी पोजीसन छोड़कर आधी खड़ी पोजीसन ले ली. उन्होंने पहली ही गोली से एक डकैत को निशाना बनाया. लेकिन ठीक उसी समय एक डकैत की गोली भी उनकी छाती पर आकर लगी जो दिल व फेफडों को चीरती हुई गुर्दे के हिस्से से बाहर निकल कर दीन दयाल के हाथ में लगी. चौधरी ताराचंद वीर गति को प्राप्त हुए. इस तरह उन्होंने अपना जीवन सार्थक बनाया तथा अपनी ड्यूटी निभाते हुए भारत मां की सेवा में सदा के लिए १२ मार्च १९५८ को शहीद हो गए.
सम्मान
चौधरी ताराचंद के शहीद होने की ख़बर जोधपुर पहुँची तो सारे शहर व राजस्थान में मातम छा गया. हजारों लोग उनके रातानाडा रोड़ पर स्थित निवास स्थान पर पहुंचे. सड़कों पर हजारों लोग दोनों तरफ़ अपने सच्चे रक्षक के अन्तिम दर्शन में मानों गा रहे हों :
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यों मरो ।
कि याद जो करें सभी, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले ।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।
भारत के इस सच्चे सपूत को मरणोपरांत २ अक्टूबर १९५९ को नागौर में तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनकी विधवा पत्नी को राष्ट्रपति पुलिस एवं गैलंट्री पदक से सम्मानित किया.
कवियों की नजर में
चौधरी ताराचंद शहीद के बारे में कवियों की कलमें उठी तथा लिखे बिना नहीं रह सकी. चुरू के कवि श्री वासुदेव कृष्ण जोशी ने लिखा:
तारों में वह चाँद समान ।
था प्रकाश का पुंज महान ।।
आत्म बल का श्रोत था वह,
था वह पुलिस की शान ।।
कितना भद्र विनयशाली था,
जनता की करता रखवाली था ।।
सत्य वाटिका का माली था,
था वीरत्व की खान ।।
प्रो. प्रेम अरोडा की लेखनी से :
सपनों में भी क्रोध जिसे था छुआ नहीं
जीवन भर जो माया के वश हुआ नहीं
कर्तव्य के रण में जो रणधीर हुआ
अर्जुन हुआ, एवं साथ ही कबीर हुआ
हुआ मरण भी जिसका ब्रह्मानंद था
तारा, वह ध्रुव तारा, ताराचंद था
दसवीं के एक छात्र चिंतामणि ने लिखा:
रहेगा जग में सुनाम ताराचंद का
शेरों में वह सवा सेर था
और देवों में महादेव था
राजस्थान के लोक कवि मोहन आलो की लेखनी से:
सत्य अहिंसा और कर्म में, था जिसका विश्वास,
पग-पग पर दोहराया जिसने गाँधी का इतिहास ।
निज समाज रक्षा में जिसने, जीवन सकल गुजारा,
अमर होगा ताराचंद ज्यों तारों में ध्रुवतारा ।
राजस्थान के लोक कवि मोहन आलो की कविता "तुमने ज्योति प्रज्वलित कर दी" के कुछ अंश:
लाज नहीं लगने दी मरू की माटी के विश्वास में,
अपना नाम जोड़कर तुमने वीरों के इतिहास में,
इससे पहले, देश भूलता मीरा के वैराग्य को,
सांगा के सौ घाव और पन्ना धाई के त्याग को ।
तुमने ज्योति प्रज्वलित करदी, महाराणा की आन को,
परम्परा जो सदा रही, गर्वीले राजस्थान की ।
कोई फर्क नहीं तुझ में और तब के दुर्गादास में
फल की इच्छा बिना, बढ़ा सदैव कर्म की राह पर,
रहा झेलता जीवन भर, संकट निर्बल की आह पर ।
नर को जहाँ झुका देती है, माया की मजबूरियां,
ठोकर से ठुकराई तुमने, धन से भरी तोजोरियाँ ।
साभार - चौधरी ताराचंद सारण के बारे में हिन्दी का यह लेख इतिहासकार भलेराम बेनीवाल जी की पुस्तक :जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008) पर आधारित है.
सन्दर्भ - भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008), प्रकाशक - बेनीवाल पुब्लिकेशन , ग्राम - दुपेडी, फफडाना, जिला- करनाल , हरयाणा, p.575-593
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नोट - यह लेख जाटलैंड विकी पर भी उपलब्ध है. यहाँ देखें -
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