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Thread: The Brave Jats

  1. #1

    The Brave Jats

    Jats being the most brave Martial community we have large number of Jats whose actions of bravery are unparalleled in History. But we do not have a system of recording them. There is a popular demand that we should document them and bring on record. We can put articles about them on JL wiki. So let us collect some content about them and their photos from the records. There are stories at village level about such people.

    This thread is started with the noble idea of such documentation.

    We have a thread on JL Wiki http://www.jatland.com/home/The_Brave_People

    So far we have following lists:

    Indian Army Martyrs - http://www.jatland.com/home/Indian_Army_Martyrs

    Martyrs of Kargil war from Rajasthan - http://www.jatland.com/home/Martyrs_...from_Rajasthan

    Martyrs of Kargil war from Haryana - http://www.jatland.com/home/Martyrs_...r_from_Haryana

    Martyrs of Kargil war from Uttar Pradesh - http://www.jatland.com/home/Martyrs_..._Uttar_Pradesh

    Names of Brave Jats - About whom some info is available in the form of Articles

    * Col. Hoshiyar Singh - PARAMVEER CHAKRA VIJETA
    * Navin Gulia - Adventurous personality
    * Flight Lieutenant Promila Dhaka
    * Capt NS Ahlawat - Sena Medal, Shaurya Chakra(posthumous)
    * Dayanand Sangwan
    * Lt. Ravinder Chhikara - Kirti Chakra (posthumous)
    * Major Vinod Kumar Rana - Sena Medal (posthumous)
    * Master Sudhir Jakhar - National bravery award for 2006
    * Lans Naik Vinod Kumar Katewa - Martyr of Kargil War
    * Naik Ramswarup Singh Mundaria (नायक रामस्वरुप सिंह मुन्दडिया) - Martyr of Kargil war
    * Subhash Burdak - Martyr of militancy War
    * Subedar Harful Singh Kulhari - Martyr of Kargil War
    * Hawaldar Mani Ram Mahla - Martyr of Kargil War
    * Sepoy Bajrang Lal Nain - Martyr of Kargil War
    * Sepoy Raj Kumar Punia - Martyr of Kargil War
    * Sepoy Shyodana Ram Bijarnia - Martyr of Kargil War
    * Shaheed Dayachand Jakhar - Martyr of Kargil war
    * Lt. Rakesh Singh - Martyr Kashmir valley- Ashoka Chakra
    * Ramnarayan Karwasra - Amrita Devi Vishnoi Smriti Award 1999
    * Lans Naik Daya Chand Jakhar - Martyr of Kargil War
    * Hon. Capt. Jai Lal Singh - Military Cross
    * Major Risal Singh (Joon) - Military Cross
    * Havildar Sahab Singh
    * Lt. Col. Jitendra Balwada, Shaurya Chakra
    * Smt Pravesh Devi Dagur - President of India's Jiwan Raksha Rashtriya Award
    * Digendra Kumar - Maha Vir Chakra, Sena Medal and many other medals of bravery. He was the Best Commando of the Indian Army.
    Laxman Burdak

  2. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    Moar (August 29th, 2011)

  3. #2

    Naik Digendra Kumar (Paraswal) - Maha Vir Chakra

    Naik Digendra Kumar (Paraswal) नायक दिगेंद्र कुमार (परस्वाल ) , born 3 July 1969, is recipient of Maha Vir Chakra, Sena Medal and many other medals of bravery. He was the Best Commando of the Indian Army.

    Introduction in English

    Naik Digendra Kumar (Paraswal) - Maha Vir Chakra, comes from village Jhalara, tehsil Neem Ka Thana, district Sikar Rajasthan. Nation's second highest wartime gallantry award Maha Vir Chakra was awarded to Naik Digendra Kumar on 15th August 1999 for his acts of bravery in Kargil War in occupying Tololing hill on 13 June 1999. He was in 2 Rajputana Rifles of the Indian Army.

    Digendra Kumar was born on 3 July 1969 in the family of Shivdan Singh Paraswal. His mother was Rajkaur. Shivdan Singh was a strong follower ofArya Samaj.

    Digendra Kumar joined 2 Rajputana Rifles and became the Best Commando of the Indian army. He was awarded Sena Medal in 1993 for his anti-terrorist operations in Kupwada area of Jammu-Kashmir. In 1994 his services were appreciated for recapturing Hazratbal Dargah from the terrorists. In 1998 he was sent in Indian Peace keeping Force and took part in 'Operation of Pawan' in Shrilanka where his acts of bravery were highly appreciated.

    Mansukh Ranwa, a young and energetic author from Sikar Rajasthan, has written a book in Hindi namely - Mahavir Chakradhari - Digendra Kumar, published by Kalpana Publication, Shop No. 57 Upper Storey, Nahargarh Road, Jaipur, First Edition 2008, ISBN: 81-89681-09-5

    Following text about Naik Digendra Kumar is from Mansukh Ranwa's book Mahavir Chakradhari - Digendra Kumar.
    Laxman Burdak

  4. #3

    Mahavir Chakra Vijeta - Digendra Kumar

    महावीर चक्र विजेता नाइक दिगेंद्र कुमार

    कारगिल वार के समय जम्मू कश्मीर में तोलोलिंग पहाड़ी की बर्फीली चोटी को मुक्त करवाकर 13 जून 1999 को सुबह चार बजे तिरंगा लहराते हुए भारत को कारगिल वार में प्रथम कामयाबी दिलाई जिसके लिए नाइक दिगेंद्र कुमार को भारत सरकार ने 15 अगस्त, 1999 को महावीर चक्र से नवाजा.
    [edit] दिगेंद्र कुमार की पारिवारिक दास्तान

    बहादुर बालक दिगेन्द्र का जन्म राजस्थान के सीकर जिले की नीम का थाना तहसील के गाँव झालरा में शिवदान सिंह परसवाल के घर श्रीमती राजकौर उर्फ़ घोटली के गर्भ से 3 जुलाई 1969 को हुआ. [1] दिगेंद्र की माँ मोटी ताजी होने के कारण प्यार से घोटली नाम से जानी जाती थी. दरअसल बालक की माँ भी क्रांतिकारी परिवार की पैदाइस थी. राजकौर के पिता बुजन शेरावत सवतंत्रता सेनानी थे. वे हरियाणा प्रान्त में महेंद्रगढ़ जिले की नारनौल तहसील में सिरोही भाली गाँव के रहने वाले थे. बुजन शेरावत सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सिपाही थे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बसरा-बगदाद की लडाई में वीरगति को प्राप्त हुए. [2]

    दिगेंद्र के पिता शिवदान आर्यसमाजी थे. देश की स्वतंत्रता एवं जनजागृति के लिए गाँव-गाँव जाकर प्रचार करते थे. वे भजनोपदेशक भी थे. रहबरे आजम दीनबंधु सर छोटूराम के आव्हान पर वे रेवाडी में जाकर सेना में भरती हो गए. 1948 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में पीर बडेसर की पहाड़ी पर साँस की नाली में ताम्बे की गोलियां घुस गई जो जीते जी वापिस नहीं निकलवाई. उनके जबड़े में 11 गोलियां लगी थी. [3]

    पिता की प्रेरणा से दिगेंद्र 2 राज राइफल्स में भरती हो गए. सेना में वह हर गतिविधि चाहे दौड़ हो, निशानेबाजी हो, या कोई अन्य कार्य हमेसा प्रथम रहे जिसके कारण उनको बेस्ट कमाण्डो ऑफ दॅ इंडियन आर्मी के रूप में ख्याति मिली. [4]

    जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से संघर्ष

    सन 1993 में दिगेंद्र की बटालियन जम्मू-कश्मीर के अशांत इलाके कुपवाडा में तैनात थी. कुपवाडा के उग्रवादियों का एरिया कमांडर मजीद खान जो बहुत खूंखार प्रकृति का था और प्रशासन को नाकों चने चबा रहा था. पहाड़ी इलाका होने और स्थानीय लोगों में पकड़ होने के कारण उग्रवादियों को पकड़ना मुश्किल था. मजीद खान एक दिन कंपनी कमांडर वीरेन्द्र तेवतिया के पास आए और धमकाया कि हमारे खिलाफ कोई कार्यवाही की तो उसके गंभीर दुष्परिणाम होंगे. कर्नल तेवतिया ने सारी बात दिगेंद्र को बताई. दिगेंद्र का खून खोल गया और वह तत्काल मजीद खान के पीछे दोड़ा. वह सीधे पहाड़ी पर चढा़ जबकि मजीद खान पहड़ी के घुमावदार रस्ते से 300 मीटर आगे निकल गया था. दिगेंद्र ने चोटी पर पहुँच कर मजीद खान के हथियार पर गोली चलाई. गोली से उसका पिस्टल दूर जाकर गिरा. दिगेंद्र ने तीन गोलियां चलाकर मजीद खान को ढेर कर दिया. उसे कंधे पर उठाया और मृत शरीर को कर्नल के सम्मुख रखा. कुपवाडा में इस बहादुरी के कार्य के लिए दिगेंद्र कुमार को सेना मैडल दिया गया. [5]

    जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की पावन स्थली मस्जिद हजरत बल दरगाह पर आतंकवादियों ने कब्जा करलिया था तथा हथियारों का जखीरा जमा कर लिया था. भारतीय सेना ने धावा बोला. दिगेंद्र कुमार और साथियों ने बड़े समझ से आपरेसन को सफल बनाया. दिगेंद्र ने आतंकियों के कमांडर को मार गिराया व 144 उग्रवादियों के हाथ ऊँचे करवाकर बंधक बना लिया. इस सफलता पर 1994 में दिगेंद्र कुमार को बहादुरी का प्रशंसा पत्र मिला. [6]

    श्रीलंका शान्ति अभियान में दिगेंद्र का पराक्रम

    अक्टूबर 1998 में श्रीलंका सरकार लिट्टे उग्रवादियों के समक्ष असहाय महसूस करने लगी तथा भारत से सैनिक सहायता मांगी. उग्रवादियों को खदेड़ने का दायित्व भारतीय सेना को मिला. सेना ने इस अभियान का नाम रखा 'ऑपरेशन ऑफ़ पवन' जो पवनसुत हनुमान के पराक्रम का प्रतीक था. टास्क के मुताबिक इस अभियान में दिगेंद्र कुमार सैनिक साथियों के साथ तमिल बहुल एरिया में पेट्रोलिंग कर रहे थे. पॉँच तमिल उग्रवादियों ने दिगेंद्र की पेट्रोलिंग पार्टी के पाँच सैनिकों को फायर कर मौत के घाट उतार दिया और भाग कर एक विधायक के घर में घुस गए. दिगेंद्र ने बाकी साथियों के साथ पीछा किया. और विधायक के घर का घेरा डलवा दिया. लिटे समर्थक विधायक ने बाहर आकर इसका विरोध किया. दिगेंद्र के फौजी कमांडो ने हवाई फायर किया तो अन्दर से दनादन गोलियां बरसने लगी. एक फौजी ने हमले पर उतारू विधायक को गोली मार दी और पांचो उग्रवादियों को ढेर कर दिया. [7] तमिल नेता की हत्या की ख़बर श्रीलंका में आग की तरह फ़ैल गयी. तमिल जनता में आक्रोस का गुब्बार फ़ूट पड़ा. सैन्य अभियान प्रमुख ने स्थिति को भांपते हुए दिगेंद्र सहित आरोपियों को बुलाया. [8]

    जनरल कलकट ने क्रोध में दिगेंद्र को फटकारा कि तुम्हें संपर्क कर गोली चलाने के हुक्म के बाद ही गोली चलानी चाहिए थी. हत्या के जुर्म में अब तुम्हारा कोर्ट मार्शल होगा और दश साल की जेल होगी. दिगेंद्र की आत्म रक्षा की कोई बात नही सुनी और उसको कंटीले तारों के एक पिंजडे में दाल दिया. [9]

    उधर भारतीय सेना के साथ दुखांत घटना हुई. भारत के ३६ सैनिकों को तमिल उग्रवादियों ने कैद कर लिया. कमान्डोस को कैद किए जाने के स्थान का पता हेलीकॉप्टर की मशीन के जरिये लगा लिया लेकिन उन्हें छुडाना बड़ा मुश्किल काम था. बंधक सैनिकों को टायरों में उल्टा लटका दिया. बीहड़ जंगलों में उग्रवादियों से मुकाबला करना टेढी खीर था. टेन पैरा के 36 सैनिकों को कैद में 72 घंटे हो चुके थे लेकिन बचाव का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था. अफसरों की अनेक बैठकें हुई. जनरल कलकट को मेजर शेरावत ने दिगेंद्र कुमार की योजना सुझाई. जनरल ने दिगेंद्र को बुलाकर उसकी योजना सुनी. दिगेंद्र ने दुशमनों से नजर बचाकर नदी से तैर कर पहुँचने की योजना बताई. जनरल ने बताया कि नदी में 133 के.वि. का विद्युत् बह रहा है. फ़िर भी दुस्साहस कर दिगेंद्र ने पीठ पर 50 किलो एम्युनेशन लिया, अपने हथियार लिए और साथियों के लिए बिस्कुट पैकेट लिए जो 72 घंटे से भूखे थे. हिम्मत कर नदी में गोता लगाया. तेज वारिश शुरू हो गई. आकाश में बिजली कड़कने लगी. अचानक वह विद्युत् तारों से टकराया. सौभाग्य से तेज वर्षा के कारण विद्युत् कट गया था. दिगेंद्र ने झट कटर निकाला और तारों को काट कर आगे पार हो गया. [10]

    दिगेंद्र ने वायरलेस से सूबेदार झाबर को पॉइंट पूछा. दिगेंद्र ने अम्मुनिशन और खाने का सामान सूबेदार झाबर को दिया और साथियों को पहुचाने के निर्देश देकर चलता बना. दिगेंद्र से उग्रवादियों के ठिकाने छुपे न थे. वह नदी के किनारे एक पेड़ के पीछे छुप गया और बिजली की चमक में उग्रवादियों के आयुध डिपो दिखाई दिया. दिगेंद्र ने दोनों संतरियों को गोली से उड़ा दिया एवं ग्रेनेड का नाका दांतों से उखाड़ अम्मुनिशन डेम्प पर फेंक दिया. जोर-जोर से सैंकडों धमाके हुए, देखते ही देखते आकाश में धूंआ छा गया. उग्रवादियों में हड़कंप मच गया. दिगेंद्र की हिम्मत देख बाकी कमांडो भी आग बरसाने लगे. थोड़े ही समय में 39 उग्रवादियों को ढेर कर लिया. [11]

    जनरल कलकट ने दिगेंद्र को खुस होकर अपनी बाँहों में भर लिया और उसके खिलाफ चलाई गई फाइलों को खारिज कर दिया. उसे बहादुरी का मैडल दिया गया और रोज दाढ़ी बनाने से छूट दी गई. [12]
    Laxman Burdak

  5. #4

    Mahavir Chakra Vijeta - Digendra Kumar

    कारगिल संघर्ष में दिगेंद्र की महती भूमिका

    कारगिल युद्ध में सबसे प्रथम और अहम् काम तोलोलिंग की चोटी पर कब्जा करना था. 2 राजपुताना राइफल्स को यह टास्क सौंपा गया. जनरल मलिक ने राजपूताना रायफल्स का गुमरी में दरबार लिया. सभी को तोलोलिंग पहाड़ी को मुक्त कराने का प्लान पूछा. दिगेंद्र खड़ा हुआ और अपना परिचय दिया - मैं दिगेंद्र कुमार उर्फ़ कोबरा बेस्ट कमांडो ऑफ़ इंडियन आर्मी, २ राजपूताना रायफल्स का सिपाही. मेरे पास योजना है जिसके माध्यम से हमारी जीत सुनिश्चित है. [13]

    दिगेंद्र ने अपनी योजना बताई कि उसको 100 मीटर का रसियन रस्सा चाहिये जिसका वजन 6 किलो होता है और 10 टन वजन झेल सकता है तथा इसके साथ रसियन कीलें चाहिए जो चट्टानों में आसानी से ठोकी जा सकें. साथ ही हाई पावर के इंजेक्शन चाहिए जो थकान होने पर हिम्मत पैदा कर सकें. इतना सामान मिला तो एक रात में रस्सी बाँध कर आ जाऊंगा. रास्ता विकट और दुर्गम है लेकिन मेरा दूरबीन से अच्छी तरह जांचा परखा हुआ है. [14]

    दिगेंद्र उर्फ़ कोबरा 10 जून 1999 की शाम अपने साथियों से गले मिले. विकट पथ को देख कर सभी साथी भयभीत थे कि कोबरा व साथी मिसन में काम आयेंगे. संभवतः वे यह अन्तिम मुलाकात समझ रहे थे. रात का समय था. पहाडियों में बिल्कुल खामोशी थी धमाकों को छोड़कर. चारों तरफ़ बर्फ का साम्राज्य था. धीमे-धीमे कदमों के साथ कोबरा और उसके साथी सैन्य साज सामान के साथ आगे बढे. कीलें ठोकते गए और रस्से को बांधते गए. आधे रास्ते थक गए तो इंजेक्शन ठोक लिया. जब दिगेंद्र के हाथों ने काम करना बंद कर दिया तो दांतों से रस्से को पकड़ दोनों हाथों को खुला छोड़ दिया मानो जिन्दाही ईश्वर के भरोसे आसमान में झूल रही हो. पैरों के नीचे 5 हजार फिट गहरा गढा था. सरकते-सरकते मंजिल की तरफ़ बढ़ने लगे. कई लम्हे ऐसे आए कि मौत बालों को छू कर चली गई और वे बाल-बाल बचे. 14 घंटे की कठोर साधना के बाद मंजिल पर पहुंचे तो बड़ा शकुन मिला. आख़िर सफर रस्सी के सहारे जो था. रस्सा बाँध कर लटकते हुए बटालियन पहुंचे. [15]

    12 जून 1999 को दोपहर 11 बजे जनरल मलिक ने दिगेंद्र की पीठ थपथपाई और कहा, "बेटे ! वि. पि. मलिक की ४८ घंटे पूर्व प्रथम कामयाबी के लिए अग्रिम बधाई स्वीकार हो. बेटे ! कारगिल चोटी फतह कर लेगा तो मलिक ख़ुद कल सुबह नाश्ता लेकर आएगा." [16]

    कमांडो टीम में मेजर विवेक गुप्ता, सूबेदार भंवरलाल भाकर, सूबेदार सुरेन्द्र सिंह राठोर, लांस नाइक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमनसिंह, लांसनायक बच्चूसिंह, सी.ऍम.अच्. जशवीरसिंह, हवालदार सुल्तानसिंह नरवारिया एवं दिगेंद्र कुमार थे. [17]

    पाकिस्तानी सेना ने तोलोलिंग पहाड़ी की चोटी पर 11 बंकर बना रखे थे. सो दिगेंद्र ने प्रथम बंकर उड़ने की हाँ भरी. 9 सैनिकों ने बाकी के 9 बंकर उड़ने की सौगंध खाई. 11 वां बंकर दिगेंद्र ने ख़त्म करने का बीड़ा उठाया. गोला बारूद लेकर वे चल पड़े. [18]

    कारगिल घटी में बर्फीली हवा चल रही थी. घना अँधेरा था और दिल को दहला देने वाली दुरूह राहें. अचानक गोलों के धमाकों से कलेजा कांप जाता. मौत के सिवाय दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता था. वे पहाड़ी की सीधी चढान पर बंधी रस्सी के सहारे चढ़ने लगे. रेंगते-रेंगते दिगेंद्र अनजाने में वहां तक पहुँच गया जहाँ दुश्मन मशीनगन लगाये बैठा था. दिगेंद्र पत्थरों को पकड़ कर आगे बढ़ रहा था. शरीर में खून जमने लगता तो इंजेक्शन लगा लेते. दिगेंद्र के हाथ में अचानक दुश्मन की मशीनगन की बैरल हाथ लगी जो लगातार गोले फेंकते काफी गर्म हो गई थी. दुश्मन का भान होते ही बैरल को निकाल कर एक ही पल में हथगोला बंकर में सरका दिया जो जोर के धमाके से फटा और अन्दर से आवाज आई - "या अल्लाह या अकबर, काफिर का हमला !!!". [19]

    दिगेंद्र का तीर सही निशाने पर लगा. प्रथम बंकर राख हो गया और धूं-धूं कर आग उगलने लगा. पीछे से 250 कमांडो और आर्टिलरी टैंक गोलों की वर्षा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे. पाक आर्मी भी बराबर हिस्सेदारी निभा रही थी. कोबरा के साथियों ने जमकर फायरिंग की लेकिन गोलों ने इधर से उधर नहीं होने दिया. आग उगलती तोपों का मुहँ एक मीटर ऊपर करवाया और आगे बढे. दिगेंद्र बुरी तरह जख्मी हो गया था. कोबरा के सीने में तीन गोलियां लगी. एक पैर बुरी तरह जख्मी हो गया. टॉप में 18 गोलियां लगी. कोबरा का पिट्ठू छलनी हो गया. एक पैर से जूता गायब और पैंट लीर-लीर हो गई, कमीज के कुछ टुकड़े शेष थे. दिगेंद्र की अल.ऍम.जी. भी हाथ से छूट गई. शरीर कुछ भी करने से मना कर रहा था पर वीर मर्द ने हिम्मत नहीं हारी. झट से प्राथमिक उपचार कर बहते खून को रोका. [20]

    पाक सेना का नेत्रत्व कर रहा मेजर अनवर खान पहाड़ी की चोटी पर बैठा दहाड़ रहा था. अनवर की दहाड़ सुनकर दिगेंद्र की हिम्मत जागी. [21] पीछे देखा तो पता लगा सूबेदार भंवरलाल भाकर, लांस नाइक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमनसिंह, अन्तिम साँस ले चुके थे. लांसनायक बच्चनसिंह ने जाते जाते दिगेंद्र को अपनी पिस्टल पकड़ा दी तथा सुल्तानसिंह ने ग्रेनेड दिए और माँ की चुनरी लहराकर विदा हो गए. मेजर विवेक गुप्ता ने बहादुरी से दुश्मन का सामना किया लेकिन जैसे ही पत्थर के सहारे खड़े हुए गोली कनपटी के लगी और धरती लाल हो गई और माँ की गोद में सो गया सदा के लिए. राठोर ने पिस्टल और बारूद दी और वह भी शांत ओ गए. इस तरह दिगेंद्र के सारे साथी वीरगति को प्राप्त कर चुके थे. [22]

    दिगेंद्र ने फ़िर हिम्मत की और ग्रेनेड दूसरे बंकर में फेंका और ऐसा करते-करते सारे बंकर नष्ट कर दिए. 11 बंकरों में 18 हथगोले फेंके. मेजर अनवर खान अचानक सामने आ गया. अनवर खान की पिस्टल पर गोली मारी कि वह छूटकर दूर जा पड़ी, बस वो अन्तिम गोली थी. दिगेंद्र ने पिस्टल से दूसरी गोली चलानी चाही पर चली नहीं. उसे बड़ा अफ़सोस हुआ. दिगेंद्र ने डाई लगाई और अनवर खान पर झपट्टा मारा. दोनों लुढ़कते-लुढ़कते काफी दूर चले गए. अनवर खान ने भागने की कोशिस की तो उसकी गर्दन पकड़ ली. दिगेंद्र ने फ़िर छलांग लगाई और खान की पीठ पर लात मारी. वह खदान में गिरकर कराहने लगा. दिगेंद्र जख्मी था पर मेजर अनवर खान के बाल पकड़ कर डायगर सायानायड से गर्दन काटकर भारत माता की जय-जयकार की.

    इसे संयोग ही कहें कि अकस्मात ही अमेरिकी उपग्रह कारगिल के तोलोलिंग चोटी के ऊपर से गुजरा कि एक दाढ़ी वाला नौजवान जो सर पर दुपट्टा बांधे हाथ में मेजर अनवर खान की मुंडी लिए भारत माँ के जयकारे लगा रहा था तथा एक हाथ में तिरंगा झंडा लहराने को तत्पर था का उपग्रह ने इस नौजवान का फाइल फोटो कैद कर लिया.

    दिगेंद्र पहाड़ी की चोटी पर लड़खडाता चढा और 13 जून 1999 को सुबह चार बजे वहां तिरंगा झंडा गाड दिया. [23]

    अधिक जानकारी के लिए देखें

    * लेखक मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, 2008, ISBN: 81-89681-09-5, कल्पना पुब्लिकेशन, दुकान क्रमांक 57 की उपरी मंजिल, नाहरगढ़ रोड, जयपुर-1 , मूल्य 100/- जयपुर, फोन 09413134209

    सन्दर्भ

    1. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 21
    2. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 22
    3. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 24
    4. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 31
    5. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 31-33
    6. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 33
    7. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 39
    8. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 39
    9. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 40
    10. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 42
    11. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 43
    12. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 44
    13. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 49
    14. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 49
    15. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 50
    16. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 50
    17. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 51
    18. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 51
    19. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 53
    20. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 53
    21. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 53
    22. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 54
    23. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 56
    ************************************************** ****
    Note - The info is available on Jatland Wiki at - http://www.jatland.com/home/Digendra_Kumar
    Laxman Burdak

  6. #5
    but then there was herodotus, tomyris, cyrus, n her son was killed by cyrus..

    in their all culture n customs massagetae resemble sakae...

    herodotus wrote about jats/getae n became father of history...

    getae are so brave n so numerous in numbers... that if united ... they can conquer the whole world...

  7. #6

    Subedar Bhanwar Lal Bhakar

    भंवर लाल भाकर की वीरता की कहानी

    भंवर लाल भाकर राजस्थान में नागोर जिले के थेबड़ी गाँव के रहने वाले थे. भंवर लाल भाकर 13 जून 1999 को करगिल युद्ध में तोलोलिंग पहाड़ी पर शहीद हुए. उनके पिता का नाम भूरा राम भाकर है. वे भारतीय सेना की 2 राजपुताना राइफल्स में सूबेदार थे.

    कारगिल युद्ध में सबसे प्रथम और अहम् काम तोलोलिंग की चोटी पर कब्जा करना था. 2 राजपुताना राइफल्स को यह टास्क सौंपा गया. जनरल मलिक ने राजपूताना रायफल्स का गुमरी में दरबार लिया. सभी को तोलोलिंग पहाड़ी को मुक्त कराने का प्लान बताया . [2]

    प्लान के अनुसार तोलोलिंग पहाड़ी को मुक्त कराने के लिए कमांडो टीम में मेजर विवेक गुप्ता, सूबेदार भंवरलाल भाकर, सूबेदार सुरेन्द्र सिंह राठोर, लांस नाइक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमनसिंह, लांसनायक बच्चूसिंह, सी.ऍम.अच्. जशवीरसिंह, हवालदार सुल्तानसिंह नरवारिया एवं नायक दिगेंद्र कुमार थे. [3]

    पाकिस्तानी सेना ने तोलोलिंग पहाड़ी की चोटी पर 11 बंकर बना रखे थे. नायक दिगेंद्र कुमार ने प्रथम बंकर एवं 11 वां बंकर ख़त्म करने का बीड़ा उठाया. भंवर लाल भाकर को एक बंकर नष्ट करना था. गोला बारूद लेकर वे अभियान पर चल पड़े. [4] कारगिल घाटी में बर्फीली हवा चल रही थी. घना अँधेरा था और दिल को दहला देने वाली दुरूह राहें. अचानक गोलों के धमाकों से कलेजा कांप जाता. मौत के सिवाय दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता था. वे पहाड़ी की सीधी चढान पर बंधी रस्सी के सहारे चढ़ने लगे. रेंगते-रेंगते दल अनजाने में वहां तक पहुँच गया जहाँ दुश्मन मशीनगन लगाये बैठा था. दिगेंद्र के हाथ में अचानक दुश्मन की मशीनगन की बैरल हाथ लगी जो लगातार गोले फेंकते काफी गर्म हो गई थी. दुश्मन का भान होते ही बैरल को निकाल कर एक ही पल में हथगोला बंकर में सरका दिया जो जोर के धमाके से फटा और अन्दर से आवाज आई - "या अल्लाह या अकबर, काफिर का हमला !!!". [5]

    प्रथम बंकर राख हो गया और धूं-धूं कर आग उगलने लगा. पीछे से 250 कमांडो और आर्टिलरी टैंक गोलों की वर्षा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे. पाक आर्मी भी बराबर हिस्सेदारी निभा रही थी. भंवर लाल के साथियों ने जमकर फायरिंग की लेकिन गोलों ने इधर से उधर नहीं होने दिया. आग उगलती तोपों का मुहँ एक मीटर ऊपर करवाया और आगे बढे. मनसुख रणवा लिखते हैं कि तोलोलिंग पहाड़ी पर युद्ध करने वाले दल में से एक मात्र जिन्दा बचे दिगेंद्र कुमार, महावीर चक्र विजेता, के अनुसार दुश्मन का मुकाबला करते हुए पाँच शिकार कर चुके सूबेदार भंवाल लाल को माथे पर गोलियां लगी थी तो वह इतना ही बता पाया - "दिगेंद्र मैं जा रहा हूँ दुश्मन को ख़त्म कर देना". [6]

    जाट समाज पत्रिका में अक्टूबर 1999 अंक में प्रकाशित लेख से जानकारी मिलती है कि भंवर लाल भाकर ने मोर्चे पर रवाना होने से पहले प्रफुल्लित होकर कहा था कि - "देश के लिए कुछ कर गुजरने का सुनहरा मौका मिला है". भंवर लाल के पिता भूरा राम भाकर ने बताया कि उनके बेटे ने कारगिल में रवाना होते समय जो बात कही थी, उससे लगता है कि उसे अपनी सहादत का आभास हो गया था. अपने पुत्र की सहादत पर गर्व करते हुए उन्होंने बताया कि भंवर लाल ने चलते हुए कहा था - "देश की रक्षा के लिये सबसे पहले फौजियों को ही बलिदान देने का मोका मिलता है. अब जब मोका आया है तो मैं हरगिज पीछे नहीं हटूंगा और अपने प्राणों की बाजी लगा कर देश की सीमाओं की रक्षा करूँगा". [7]

    भंवर लाल जब स्कूल में पढ़ता था तभी से उसकी तमन्ना फौज में भरती होने की थी. वह बचपन से ही बहुत साहसिक प्रवृति के थे. [8]

    13 जून 1999 को शहीद हुए भंवर लाल की अन्तेष्ठी 17 जून 1999 को उनके पैतृक गाँव नागोर जिले के थेबड़ी में की गई. भंवर लाल का पार्थिव शरीर लेकर राजपुताना रायफल्स के बीजा राम कूंकड़ा लेकर आए थे. श्री कूंकड़ा ने बताया कि भंवर लाल ने विजय अभियान में जाने से पहले बताया था कि मैं अपने काम पर जा रहा हूँ और काम को अंजाम देकर ही रहूँगा. श्री कूंकड़ा ने बताया कि तोलोलिंग की पहाड़ी पर उसने सेना के अभियान में हमें बड़े जोश के साथ चढाया था. आमने-सामने की लडाई में हम उसके साथ पहाड़ी पर बने बंकर के नजदीक पहुँच गए थे, उसी समय दुश्मन की दो गोलियां भंवर लाल के बाएँ हाथ में आकर लगी, मगर वह शीघ्र ही हाथ पर पट्टी बाँध कर फ़िर घुसपैठियों को खदेड़ने में लग गए. उसी समय किसी ने भंवर लाल को पीछे हटने को कहा लेकिन उसने जोर से दहाड़ लगाकर बाकी सैनिकों का हौसला बंधाते हुए कहा - "भारतमाता के सपूतो, वीरो, दुश्मनों को मारो और कब्जा करलो". इस प्रकार वह सबसे आगे घुसपैठियों को मारते हुए बंकर पर चढ़ गया. घुसपैठिये तो भाग गए, बाकी मारे गए, लेकिन जब बंकर पर चढा भंवर लाल भागते हुए घुसपैठियों से लड़ रहा था तो कहीं दूर छिपे घुसपैठियों ने निशाना साधा और गोलियां भंवर लाल के सीने में आकर लगी. उसके सीने से घुटने तक कई गोलियां लगी. भारतमाता को आखिरी सलाम करते वह वहीं शहीद हो गए. [9]

    सन्दर्भ

    1. ↑ http://kargil.myiris.com/Gallantry/galstory.html
    2. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 49
    3. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 51
    4. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 51
    5. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 53
    6. ↑ मनसुख रणवा: महावीर चक्रधारी दिगेंद्र कुमार, जयपुर, 2008, p. 54
    7. ↑ जाट समाज पत्रिका, आगरा, अक्टूबर 1999, p.46
    8. ↑ जाट समाज पत्रिका, आगरा, अक्टूबर 1999, p.46
    9. ↑ जाट समाज पत्रिका, आगरा, अक्टूबर 1999, p.46
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    Note - You can see or add more info on Jatland Wiki - http://www.jatland.com/home/Subedar_Bhanwar_Lal_Bhakar
    Last edited by lrburdak; December 25th, 2008 at 09:34 AM.
    Laxman Burdak

  8. #7

    Havildar Kumar Singh Sogarwal - Vir Chakra

    Havildar Kumar Singh Sogarwal, recipient of Vir Chakra in Kargil war, is from village Baseri Kaji in district Agra in Uttar Pradesh was a martyr of Kargil War who died on 07 July 1999. He was in Unit-17 Jat Regiment of the Indian Army. He was awarded Vir Chakra for his daring actions of bravery on July 6-7, 1999 in recapturing Pinpal-1 and Pinpal- hills in Dras sector of Jammu and Kashmir.


    वीर-चक्र विजेता हवलदार कुमर सिंह सोगरवल

    आगरा जिले के फतेहपुर सीकरी के पास तेरह मोरी बाँध से करीब तीन किमी दूर स्थित गाँव बसैरी काजी निवासी श्री रघुवीर सिंह सोगरवल के सुपुत्र १७ जाट रेजिमेंट के ४० वर्षीय हवलदार कुमर सिंह ने ६ एवं ७ जुलाई १९९९ की रात सुबह कश्मीर के द्रास सेक्टर में मुश्कोह घाटी की पिम्पल -एक और पिंपल-२ नामक पहाडियों से जो कारनामा कर दिखाया वह विस्मित कर देने वाला है. हवलदार कुमर सिंह की इस बहादुरी पर उनको मरणोपरांत वीर-चक्र के पुरस्कार से नवाजा गया है.

    जीवन परिचय

    आठवीं पास हवलदार कुमर सिंह सोगरवल १७ जाट रेजिमेंट में १९७८ में भरती हुए थे. सिपाही से हवलदार बनने के पीछे उनकी सेवा भावना और मेहनत थी. आपका विवाह १९७७ में नगला धनी के चौधरी साहब सिंह की सुपुत्री बलबिरी के साथ हुआ था. हवलदार कुमर सिंह के दो सुपुत्र और दो सुपुत्रियाँ हैं.

    हवलदार कुमर सिंह की शहादत रंग लाई और दुश्मन को जान-माल की भारी क्षति उठाते हुए दुम दबाकर भागना पड़ा. शून्य से कम तापमान में हथियार बर्फ में चलाने और बचने के सामान समेत ४० किलो वजन के साथ १८००० फीट ऊँची चोटी पर १० घंटे चढ़ कर आधा सफर तय करने के बाद ख़ुद को दिन भर पत्थरों में समेटे रहना कितना दुष्कर है. दिन ढलने के समय ही फ़िर चढाई करके दुश्मन से करीब २० मीटर दूर पहुँचने के बाद हवलदार कुमर सिंह की टुकड़ी ने धावा बोल कर १६ घुसपेठियों को मार भगाया. इसके बाद पहाडियों को पुरी तरह मुक्त कराने के लिए १० घंटे तक घमासान युद्ध हुआ और पिंपल-१ और पिंपल-२ पर फतह पा ली गई, परन्तु जांबाज हवलदार कुमर सिंह की कीमत पर.

    हवलदार कुमर सिंह की शहादत का मलाल है, तो उनके पराक्रम के कारण मिली फतह पर हर किसी को गर्व है. सेना के बख्तरबंद वाहन से तिरंगे में लिप्त हवलदार कुमर सिंह का शव तब गाँव में उतरा तो जमीं आसमान भी जैसे उदास थे. सैंकडों वृद्ध महिलाओं के हिलोरे लेते वात्सल्य ने खामोसी को करूण क्रंदन में बदल दिया. हवलदार कुमर सिंह के परिजनों के अलावा रिश्तेदार नातेदार, साथी सैनिकों के परिजनों और शुभ चिंतकों की लम्बी कतार ने श्रधा सुमन अर्पित किए.

    सन्दर्भ

    *जाट समाज पत्रिका आगरा, सितम्बर-अक्टूबर 1999, p.81

    * http://kargil.myiris.com/Gallantry/galawards.html
    ************************************************** **
    Note - This info is available on Jatland Wiki at - http://www.jatland.com/home/Kumar_Singh_Sogarwal
    Laxman Burdak

  9. #8

    Havildar Yash Vir Singh Tomar - Vir Chakra

    Havildar Yash Vir Singh Tomar , Vir Chakra, Aged 39, from Sirsali village in Bagpat district Uttar Pradesh died on 12 June 1999 in Kargil War. He was in Unit-2 Rajputana Rifles. He was by Maj Vivek Gupta's side when the party was in the final stages of capturing Point 4950. Fierce combat ensued during the mission and the strategic hill at Tololing was wrested from the Pakistanis, but only after the loss of this and many other brave soldiers.

    Fierce fighting is going on and the outcome is in God's hands." So wrote Havildar Yashbir Singh to his father, Chaudhary Girbar Singh, in a letter that came on June 8. The next day came the news that Yashbir was dead.

    Yashbir and his mates had been fighting for six days at 17,000 feet trying to capture an enemy post near Point 5140. The post had 60 Pakistanis.


    A bullet hit Yashbir in the temple; the second pierced his left arm and the third his chest. Five others died with him. But by dawn the post had fallen.

    For Yashbir's parents, wife Manesh Devi and children, Uday and Pankaj, life will never be the same again. His younger brother Harvir was also serving in Kargil.
    ************************************************** **************
    Note - More info about the hero on Jatland Wiki at

    http://www.jatland.com/home/Yash_Vir_Singh_Tomar
    Last edited by lrburdak; December 30th, 2008 at 09:15 PM.
    Laxman Burdak

  10. #9

    The Brave People page updated

    The Brave People page on Jatland Wiki has been modified, names clasiified and updated. Members may see it here.

    http://www.jatland.com/home/The_Brave_People

    New pages have been created for following Kargil War Heroes:

    Havaldar Madan Lal - Vir Chakra Vijeta from Jammu and Kashmir at

    http://www.jatland.com/home/Madal_Lal

    Subedar Bahadur Singh - Vir Chakra from village Digiana ( डिगियाना) in district Jammu. May see at

    http://www.jatland.com/home/Bahadur_Singh

    Subedar Karnail Singh - Vir Chakra. He comes from village Raniwala (रानीवाला) in district Amritsar, Punjab. He was in Unit-8 Sikh Regiment of the Indian Army. May see at

    http://www.jatland.com/home/Karnail_Singh

    Request - Members with Army back ground are requested to see and correct if there are mistakes.
    Laxman Burdak

  11. #10

    Havaldar Madal Lal - Vir Chakra

    Havaldar Madal Lal - Vir Chakra (Posthumous) from village Ban Talab (बन तलब) in Jammu district in Jammu-Kashmir. He became martyr in Kargil War on 5 July 1999. He was in Unit - 18 Grenadiers.

    He was part of the Commando 'Ghatak' Platoon tasked to capture three strategic bunkers on Tiger Hill, whose gunner Yogendra Singh Yadav was awarded Paramvir Chakra while fighting with 12 Northern Light Infantry of Pakistan in Dras sector of Kargil area to recapture the Tiger hill on 04 July 1999.

    Facts as narrated by Grenadier Yogendra Singh Yadav

    It was 10:30 a.m. on July 5, 1999 at 16,500 feet above the sea level. We were 25 soldiers of the 18 Granadiers unit of the Indian Army. We were ordered to advance to capture Tiger Hill in the Drass Sector. After scaling the rocks for three nights, we were just 50 metres below Tiger Hill. As chance would have it, a stone slipped during our scaling operation. As the stone rolled down, it provoked heavy crossfire from the Pakistani bunkers which were just 10 meters above us. Due to the heavy firing, 18 of our jawans and officers had to retreat. Now, we were just seven jawans near the Pakistani bunkers. We were in a precarious situation, neither could we advance nor retreat. We thus had to wait for the right opportunity. By then, the enemy had deployed a company of 135 soldiers on top of Tiger Hill. After the firing stopped, we (seven of us) slowly began advancing to capture the Pakistani bunkers, just 10 metres away from us. At about 11:30 a.m. we opened fire at the bunker and gunned down four Pakistani soldiers. After we captured the Pakistani bunker, the Pakistan Army from the top of Tiger Hill sent 10 jawans to assess our strength.

    Tiger Hill was just 40 metres away from us. As they moved near, we gunned down eight of them. Two escaped and reported back to their bosses that there were seven of us. After the preparations at 11:30 a.m. on the same day, 100 Pakistani Army men attacked our bunker. The attack was fierce, though we could gun down 35 Pakistani soldiers, I lost all six of my comrades. I carried 25 kg of ammunition with me and I almost got my ammunition exhausted and a re-supply wasn't possible from below. It was a very critical time. I was the sole survivor with six of my colleagues already dead and I was amid the corpses of Indian and Pakistani soldiers. The Pakistani troops thought they had destroyed the Indian Army below Tiger Hill. To ensure that all Indian jawans were dead, they shot at the bodies of Indian soldiers. I sustained about 15 gunshot injuries on my legs, arms, thigh and in other parts of my body. The Pakistanis were sure that I was dead. Then they took away the weapons from the bodies. But one soldier forgot the grenade that lay in my pocket. Meanwhile, I regained consciousness. And after that things moved fast. I took out my grenade, pulled the pin and threw it at the enemy. It fell in the enemy's cap which was hanging behind his neck. It exploded before he could react. After the explosion, his body was blown off in the air plunging the Pakistani Army camp into confusion - they thought that the Indian Army had attacked.

    By then, I picked up the Peeka Rifle of a Pakistani soldier lying nearby and I opened fire which left five Pakistani soldiers dead. After my attack, the enemy camp thought that it was the Indian Army which had attacked them. I heard the order on their wireless to retreat from the Tiger Hill and further heard the instruction to attack the Indian MMG-base 500 metres below Tiger Hill. My main task was now to save the MMG base. But by that time, I had lost too much blood and was unable to stay conscious. I decided to move through a drain. I dumped myself in the drain covering my head. Now within five minutes I was below 400 meters and I saw my boss, Lieutenant Balwan. I told him that the Pakistanis wanted to attack the MMG base and had vacated Tiger Hill. On this tip-off, the officials deployed 'Charlie' and 'Delta' companies at Tiger Hill and deployed 'Bravo' company to save the MMG base. After a few minutes, Pakistani forces attacked the MMG base. This battle resulted in all the Pakistani soldiers being killed, since we had prior information of their arrival. Meanwhile, the 'Delta' and 'Charlie' companies had captured Tiger Hill. The war of seven hours was over and this is how we won Tiger Hill!
    [edit] After the war

    The Param Vir Chakra was announced for Yadav posthumously, but it was soon discovered that he was recuperating in a hospital, and it was his namesake that had been slain in the mission. [1]

    जीवन परिचय

    अपनी वीरता के लिए मरणोपरांत 'वीर चक्र' प्राप्त कराने वाले हवलदार मदन लाल १८ ग्रेनेडियर्स की उस घातक प्लाटून के जांबाज थे जिसके गनर योगेन्द्र सिंह यादव रणक्षेत्र में बहादुरी दिखाने के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. दिवानगढ़ तहसील आर.अस.पुरा जम्मू के मूल निवासी चौधरी करनैल सिंह के बहादुर पुत्र हवलदार मदन लाल १३ अप्रेल १९७८ को सेना में भरती हुए और हवलदार तक की प्रोन्नति अपने साहस और कठोर परिश्रम के बूते पर हासिल की. कारगिल सेक्टर के द्रास एरिया में टायगर हिल को पाकिस्तान की १२ नार्दर्न लाइट इन्फैंट्री के कब्जे से मुक्त कराने के अभियान में मदन लाल ने अद्भुत शौर्य का परिचय दिया. घातक कमांडो प्लाटून ने चार में से ऐसी दो चोटियों पर कब्जा कर लिया, जिससे टायगर हिल के शिखर पर तिरंगा पहरना सम्भव हो सका. पाकिस्तानियों को छकाते हुए हवलदार मदन लाल तथा ६ अन्य कमांडो ने चार बंकर भी साफ़ कर दिए. ४ जुलाई १९९९ की रात को पूर्ण विजय लगभग निश्चित थी कि एक ग्रेनेडियर से उत्साह में आकर ऐसी हरकत हो गई जिससे पीछे की ढलान पर खाना खा रहे २५ पाकिस्तानी सैनिक ख़बरदार हो गए और उन्होंने ४ MMG तथा राकेटों से धावा बोल दिया. हवलदार मदन लाल एवं अन्य सभी ६ कमांडो जोहर दिखाते हुए दुश्मन से लड़े मगर ५ जुलाई १९९९ को सातों कमांडो मातृभूमि की रक्षा में शहीद हो गए. इन वीरों की शहादत व्यर्थ नहीं गई. बाद में सभी पाकिस्तानियों को हताहत कर टायगर हिल को मुक्त करा लिया. शहीद हवलदार मदन लाल का परिवार बन तलब जम्मू में रहता है. शहीद के परिवार में उनकी पत्नी कमला, दो पुत्र और एक पुत्री है. [2]
    सन्दर्भ

    1. ↑ http://www.rediff.com/news/1999/aug/17pvc.htm
    2. ↑ जाट समाज पत्रिका आगरा, सितम्बर-अक्टूबर 1999, p. 105

    See also - http://www.jatland.com/home/Madal_Lal
    Laxman Burdak

  12. #11

    Subedar Bahadur Singh - Vir Chakra

    Subedar Bahadur Singh - Vir Chakra (posthumous), from village Digiana (डिगियाना) in district Jammu. He became martyr on 11 June 1999 in Kargil War. He was in Unit - 12 JAK Light Infantry.

    It was 12 JAK LI, which after its first successful assault operation between June 7 and 9 provided a firm base for the Indian defence forces to throw back infiltrators from our territory. The battalion continues to hold its fort in the Batalik sector. After initial probing through regular patrols, the battalion mounted its first major assault on feature 5203 in the Batalik sector on June 7.

    The attack was mounted north of the Sindh river to capture the immediate dominating heights. It was during this operation that Capt Amol Kalia along with his Junior Commissioned Officer (JCO), Subedar Bahadur Singh, in an exemplary display of valour, bravery and courage, made the supreme sacrifice. Besides them, 12 other ranks (ORs) also laid down their lives. An equal number of men and officers from the battalion were injured.

    The success at point 5209 was the first major triumph for the Indian forces in the Batalik sector.

    Anju Bala lost her father Subedar Bahadur Singh whose desire was to see his daughter joining the Army as an officer.

    Their house at Digiana, 12 km from Jammu, situated on the Jammu-Pathankot national highway could easily be located. The market on the highway remained closed the day the news of his death came.

    Subedar Bahadur Singh was also on his way to Delhi after completing his two-year tenure at the Bana post in Siachen. An advance party had already left for Delhi when they were asked to go to Kargil, said his son Pawan Kumar (24), adding that they had no information regarding the whereabouts of their father since he had left Jammu in March this year after spending 20 days with his family. "There was no letter or money order from his side since then," informed Rachpal Singh, younger brother of Subedar Bahadur Singh. He said they were expecting him on his way to Delhi but his body came instead.

    The soldier had also discussed his future plans with his family members as he had only six months left to complete his service. Father of three children, he always encouraged his daughter to join the Army as an officer. Besides, he had told his son Pawan that he would send him to join the Army after his retirement.

    Throwing light on his father's supreme sacrifice, Pawan said Captain Kalia had hand-picked men for his mission to clear one of the Batalik peaks from the intruders. Subedar Bahadur Singh was however given the choice to forego the mission keeping in view his slight fatness. But the valiant soldier had replied, "How can I let go the opportunity provided to me for the first time in 28 years?"

    Pawan informed that his father had succeeded in climbing the hill and killing the intruders along with his colleagues. In this action, Sepoy Rajinder Singh of Basohli (Kathua District) had got injured. Bahadur Singh tried to evacuate his injured colleague manning the light machine gun. He had also succeeded in communicating to his officers at the base about the success of the mission and Captain Kalia's death as he had seen him falling to a volley of bullets fired by the militants. He was asking them to send more reinforcements when he was shot by a telescopic gun," said Pawan.

    References

    * http://www.tribuneindia.com/1999/99jun24/j&k.htm
    * http://www.tribuneindia.com/1999/99jul21/j&k.htm.

    See also - http://www.jatland.com/home/Bahadur_Singh
    Laxman Burdak

  13. #12
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Subedar Bahadur Singh - Vir Chakra (posthumous), from village Digiana (डिगियाना) in district Jammu. He became martyr on 11 June 1999 in Kargil War. He was in Unit - 12 JAK Light Infantry.

    It was 12 JAK LI, which after its first successful assault operation between June 7 and 9 provided a firm base for the Indian defence forces to throw back infiltrators from our territory. The battalion continues to hold its fort in the Batalik sector. After initial probing through regular patrols, the battalion mounted its first major assault on feature 5203 in the Batalik sector on June 7.

    The attack was mounted north of the Sindh river to capture the immediate dominating heights. It was during this operation that Capt Amol Kalia along with his Junior Commissioned Officer (JCO), Subedar Bahadur Singh, in an exemplary display of valour, bravery and courage, made the supreme sacrifice. Besides them, 12 other ranks (ORs) also laid down their lives. An equal number of men and officers from the battalion were injured.

    The success at point 5209 was the first major triumph for the Indian forces in the Batalik sector.

    Anju Bala lost her father Subedar Bahadur Singh whose desire was to see his daughter joining the Army as an officer.

    Their house at Digiana, 12 km from Jammu, situated on the Jammu-Pathankot national highway could easily be located. The market on the highway remained closed the day the news of his death came.

    Subedar Bahadur Singh was also on his way to Delhi after completing his two-year tenure at the Bana post in Siachen. An advance party had already left for Delhi when they were asked to go to Kargil, said his son Pawan Kumar (24), adding that they had no information regarding the whereabouts of their father since he had left Jammu in March this year after spending 20 days with his family. "There was no letter or money order from his side since then," informed Rachpal Singh, younger brother of Subedar Bahadur Singh. He said they were expecting him on his way to Delhi but his body came instead.

    The soldier had also discussed his future plans with his family members as he had only six months left to complete his service. Father of three children, he always encouraged his daughter to join the Army as an officer. Besides, he had told his son Pawan that he would send him to join the Army after his retirement.

    Throwing light on his father's supreme sacrifice, Pawan said Captain Kalia had hand-picked men for his mission to clear one of the Batalik peaks from the intruders. Subedar Bahadur Singh was however given the choice to forego the mission keeping in view his slight fatness. But the valiant soldier had replied, "How can I let go the opportunity provided to me for the first time in 28 years?"

    Pawan informed that his father had succeeded in climbing the hill and killing the intruders along with his colleagues. In this action, Sepoy Rajinder Singh of Basohli (Kathua District) had got injured. Bahadur Singh tried to evacuate his injured colleague manning the light machine gun. He had also succeeded in communicating to his officers at the base about the success of the mission and Captain Kalia's death as he had seen him falling to a volley of bullets fired by the militants. He was asking them to send more reinforcements when he was shot by a telescopic gun," said Pawan.

    References

    * http://www.tribuneindia.com/1999/99jun24/j&k.htm
    * http://www.tribuneindia.com/1999/99jul21/j&k.htm.

    See also - http://www.jatland.com/home/Bahadur_Singh
    happy new year you getae of india. Wished if u had been born

    in trans-oxiana like herodotus who could have done justice to the exploits of these brave people who r still called barbarians means little known as compared to the roman emporers. Later on barbarians used to be used even for arian/aryan/jat/sakha/di/dahiya/kaswana/xwn/...........

  14. #13
    Nandal bhai aap kya kahna chah rahe hian............vistaar se samha do plz
    Quote Originally Posted by snandal1 View Post
    happy new year you getae of india. Wished if u had been born

    in trans-oxiana like herodotus who could have done justice to the exploits of these brave people who r still called barbarians means little known as compared to the roman emporers. Later on barbarians used to be used even for arian/aryan/jat/sakha/di/dahiya/kaswana/xwn/...........

  15. #14
    Quote Originally Posted by AmitGahlawat View Post
    Nandal bhai aap kya kahna chah rahe hian............vistaar se samha do plz


    as far as i could decipher
    pahle geeta ko happy neww year kahata hai pher
    actually he is talking to chowdhry herodotus the jat oxus nadi ke us par rahwe tha , the subject matter is barbarian khap panchayat of sweden to discuss latest invasion of isle of england. aur kisi roman jat ke khilaf chowdhry xwn jat ka ka dispute bhi lag raha hai kuchh khet ka mukadma lagge se.
    Last edited by singhran; January 4th, 2009 at 12:36 PM. Reason: s

  16. #15

    Chaudhary Tara Chand Saharan (1913-1958)

    Chaudhary Tara Chand Saharan (चौधरी ताराचन्द सहारण) (born 6 June 1913, death 12 March 1958) was an Indian Police Service officer from Hanumangarh district in Rajasthan.

    Birth and childhood

    He was born in a poor family in village Makkasar in Hanumangarh district. His father Ch. Kesho ram Saran had died prior to his birth.His mother was Jaitabai. When child Tara Chand became of 5 years, one famous social worker of the area named Sant Swami Mansanath took away him from his mother and got admitted in a newly opened school in Sangaria.

    Education

    He could complete his fourth class with great difficulty but there was no money for studying further. His bhabhi (brother’s wife) was kind enough to help him in fifth class by offering two and half rupees for purchase of books. Next year he worked digging soil on a canal and got money for his school expenditure. Third year fortunately he got a scholarship from Birla-house and completed his middle school. His further regular studies were not possible due to poor financial conditions. So he completed high school as a private student from Punjab Education Board.

    Career

    In 1930 he joined service in Jodhpur state as a sepoy in Sardar Infantry, but left this job due to unfavourable conditions. Later in 1935 he joined Bikaner state police. He was directly appointed as a sub-Inspector due to his talents. In 1944 he was promoted to rank of Inspector and further promoted as Dy.S.P. on 13-2-1948. He became S.P. in 1951. He was awarded IPS in 1957. He was a dead-honest officer. When he died there was a saving of only Rs. 139 in his account. He spent most of his savings in helping poor and needy students.

    Marriage

    After Tara Chand got job, there were number of offers of marriage. There were proposals of dowry as well. Meanwhile a social worker and educationist from the area named Chaudhary Harish Chandra Nain (Vakil) sent a proposal of marriage with his elder brother’s daughter as per strict Arya Samaji system without any dowry. Tara Chand readily accepted this offer and married without taking any dowry.
    [edit] Achievements

    After independence there were Hindi-Muslim tensions. It so happened that The Maharaja of Bikaner wanted to bring two Hindu Sindhi lady doctors from Bahawalpur in Pakistan, so he asked for a brave police officer. It was a very tough and risky job. Tara Chand opted to go there with his team. The Muslim crowd when saw the Indian Police in Bahawalpur, they first attacked the police but when came to know that it was led by Tara Chand they became soft and courteous. They had so much of faith in the honesty and sincerity of Tara Chand that they not only sent the two lady doctors with him but also offered them a great welcome dinner. They all came to boarder to see them off. This was the result of his good reputation.

    He was generally posted in dacoit affected areas. In 1953 he shooted a dacoit Shivnath for which he was awarded “Indian Police Gallantry award” in 1954. Pali district was badly affected by dacoit menace during those days. In 1954 he traveled 400 miles on foot in the remote areas in search of dacoits and spent 200 days continuously out of his house. The state Home Minister on 23 January 1958 called meeting of police officers regarding eradication of gang of dacoit Kalyan Singh. Tara Chand assured the minister that either he will catch the dacoit or he will dye. The dacoits were very afraid of Tara Chand. It was first event in the history of police in India that Tara Chand IPS and SP Jodhpur was martyred in encounter with dacoit Kalyan Singh after eradicating the gang of Kalyan Singh on 12 March 1958. He was awarded posthumously the “President Police and Fire Medal for Gallantry” on 2 October 1959 by then Prime Minister of India Pandit Jawahar Lal Nehru in Nagaur. He had received 81 letters of appreciation from his seniors during his service.

    Tara Chand Memorials

    * Chaudhari Tara Chand Memorial, Jodhpur
    * Chaudhari Tara Chand Memorial, Ganganagar
    * Chaudhari Tara Chand Memorial, Hanumangarh
    Laxman Burdak

  17. #16

    Chaudhary Tara Chand Saharan (1913-1958) Contd

    जीवन परिचय

    बचपन

    ताराचन्द का जन्म ६ जून १९१३ को हनुमानगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव मक्कासर में चौधरी केशोराम सारण के घर पर एक सामान्य जाट किसान परिवार में हुआ था. इनके दो बड़े भाई थे. बड़े का नाम चुन्नीलाल तथा दूसरे का नाम गंगाराम था. इनकी माता जी का नाम जैताबाई था.

    इनके पैदा होते ही इनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया तथा परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. इनके पिताजी ने इनका मुख तक नहीं देखा था. इनकी माताजी ने बालक को अभिशप्त समझा और चिंता में खाना पीना छोड़ दिया. पड़ोस की स्त्रियों को पता लगा तो उन्होंने खूब समझाया पर नहीं मानी और सेहत दिन-प्रतिदिन गिरती गई. उनके दूध उतरना भी बंद हो गया पर यह विचित्र बालक उस समय भी बिना रोये निश्चल लेटा रहता था. उसी समय एक घटना ऐसी घटी कि पड़ोस का एक आठ वर्ष का बालक वहां से गुजर रहा था वह बालक ताराचंद को देख कर बोला कि आप यह मन्दिर की मूर्ती क्यों उठा कर ले आए. यह तो हमारे भगवान की मूर्ती है. इस बात का असर इनकी माता जी पर ऐसा पड़ा कि उसने समझ लिया यह बालक होनहार है तथा एक दिन कुल का नाम ऊँचा करेगा. इनकी माताजी ने अनशन छोड़ दिया तथा तीनों बेटों का लालन-पालन करने लगी.

    शिक्षा

    उन्ही दिनों संगरिया में एक विद्यालय खुला था. उसी समय स्वामी मंसानाथ जी उस गाँव में आए उन्होंने उस तीक्ष्ण बुद्धि बालक को देखा तथा उसको पढ़ने के लिए संगरिया ले गए वहां पर इस बालक ने इतनी मेहनत से पढ़ाई में अपना मन लगाया कि वह प्रथम आया. इन्ही दिनों गाँव से दो मील की दूरी पर हनुमानगढ़ में भी एक स्कूल खुल गया. बालक को संगरिया से हनुमानगढ़ के स्कूल में दाखिल करा दिया. गांवों से कई और बच्चे भी स्कूल में जाते थे. वे उन सभी के नेता थे. वे जो नाटक खेलते थे उस में वे तहसीलदार का रोल करते थे. इसके कारण इनका नाम ही तहसीलदार पड़ गया.

    एक बार स्कूल में जाते समय रस्ते में एक १३ रुपयों की थैली मिली. किसी ने भी उसे नहीं उठाया. तब ताराचंद ने इसे उठाकर इसे गुरूजी की मेज पर रख दिया. घर में इतनी गरीबी थी कि माताजी उसकी किताबों के पैसे ही मुश्किल से जुटा पाती थी. एक बार छुटियाँ समाप्त होने वाली थी. माताजी के पास पैसे नहीं थे . बालक उदास रहने लगा तब उनकी बड़ी भाभी ने उनको ढाई रुपये दिए. जिससे उसने अपनी जूती और पुस्तकें खरीदी. उसके माताजी व बड़े भाई जब खेत में काम करते थे तो ताराचंद भी स्कूल से आकर घर का सारा काम करता था, पशुओं को घास व गोबर, कूड़ा आदि साफ़ कर देता था.

    हनुमानगढ़ में केवल पांचवीं तक स्कूल थी. इसलिए मिडिल पास करने के लिए संगरिया जाना पड़ा. इन्होने अपनी लगन से ही छात्रवृति प्राप्त की. जिससे पढ़ाई का कार्य सुचारू ढंग से चल सका. आठवीं पास करने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि दूर जाकर दसवीं कर सकते. आस पास कोई भी दसवीं की स्कूल नहीं थी. इसलिए प्राईवेट दसवीं करने का फ़ैसला किया. इस काम के लिए भी पास में पैसे नहीं थे इसलिए घग्गर नदी के खुदाई के कार्य में भाग लेकर कुछ पैसे इकट्ठे किए तब ताराचंद ने पढ़ाई शुरू की. यूनिवर्सिटी की फीस देने के पैसे उनके पास नहीं थे. इस बात का पता जब समाज सेवी वकील चौधरी हरीश चन्द्र नैन को लगा तो उन्होंने ताराचंद को २५ रुपये दिए. इस प्रकार ताराचंद ने दसवीं की परीक्षा पास करली. यह परीक्षा उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से की थी. अपने गाँव में 10 वीं पास करने वाला वह पहला विद्यार्थी था.

    विवाह

    ताराचंद जब संगरिया में पढ़ते थे तो चौधरी हरिश्चंद्र नैन इनके काम से बहुत प्रभावित हुए. वह उनको अपने परिवार का दामाद बनाना चाहते थे. उन्होंने दिनांक १८-११-१९३० को एक पत्र ताराचंद को लिख कर प्रस्ताव दिया कि वह उनके बड़े भाई हिमताराम की बड़ी पुत्री खींवणीं से शादी करलें. पत्र में प्रस्तावित किया कि यह शादी वैदिक रीती रिवाज से सामाजिक कुरीतियों को दूर करते हुए की जायेगी. इस पर ताराचंद ने सहमती दी. उनकी शादी आर्य समाजी तरीके से की गई. लेकिन ६ साल बाद एक पुत्र के पैदा करते ही इनकी पत्नी का देहांत हो गया. यह पुत्र धर्मवीर था जो बाद में भारतीय प्रसाशनिक सेवा में आया. पुनः इनकी शादी खींवणीं देवी की बहिन सुलभा से कर दी गई. सुलभा से इनको तीन पुत्रियाँ पैदा हुई.

    नौकरी की तलास

    मेट्रिक परीक्षा पास करने के बाद इन्होने कई जगह नौकरी की तलास की. उन दिनों सिफारिसों का दौर था जो ताराचंद के पास नहीं थी. इनका चयन पोस्ट मास्टर के लिए हुआ पर वे यह नौकरी नहीं करना चाहते थे. बाद में जोधपुर में सरदार इन्फैन्ट्री में भरती हो गए. चौधरी बलदेव राम मिर्धा उस समय उप पुलिस महानिरीक्षक थे. उन्होंने इनको चरित्र प्रमाण पत्र दिया. वे शीघ्र ही पदोन्नति पाकर हवलदार बन गए. दिनांक २०-२-१९३१ को इन्होने चौधरी हरिश्चंद्र नैन को पत्र लिखा -

    "इस रियासत में एक बड़ी चीज की आवश्यकता होती है और वह है सिफारिश. यहाँ जिसकी सिफारिश नहीं होती है, इससे कोई बुरा हाल कहीं नहीं देखा."

    जोधपुर में बाहर से आने वालों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाता था. ताराचंद ने वार सम्बन्धी तरीकों में ९३ प्रतिशत अंक प्राप्त हुए थे. इसके बाद उनको ट्रेनिंग के लिए कराची बलूच रेजिमेंट में भेजा गया. अंग्रेज अड्वाइसरी ऑफिसर गैर क्षेत्रीय होने के कारण इनका बहुत तगड़ा विरोध किया गया. इस बात का इनपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा तथा ये छुट्टी लेकर घर आगये. ये बीकानेर के पुलिस महा निरीक्षक से मिले. वे इनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और इनको थानेदार के पद पर नियुक्ति का विश्वास दिलाया. इन्होने २९ अगस्त १९३५ को सैन्य जीवन से विदाई ली. इनके साथियों और अधिकारियों ने बहुत समझाया कि जल्दी ही सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर तरक्की हो जायेगी किन्तु इनको इतनी नफरत हो गई थी कि सेना की नौकरी छोड़ दी. उस समय इन्होने कहा था कि -

    "I am the master of my fate,
    I am the captain of my soul."

    बीकानेर पहुँच कर २ सितम्बर १९३५ को बतौर थानेदार इन्होने ३० रुपये माहवार नौकरी शुरू की. आप पीटी व हथियार चलाने में पहले ही दक्ष थे. आपकी पहली नियुक्ति पुलिस लाइन बीकानेर में की गई. यहाँ पर आपने एक प्रशिक्षक के रूप में कार्य किया. तीन मास के पश्चात आपको एक साल के लिए पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र मुरादाबाद भेजा गया. प्रशिक्षण में सेक्शन कमांडर के पद पर नियुक्ति पाने वाले वे पहले अधिकारी थे. आप सूरतगढ़, हनुमानगढ़, रायसिंह नगर, पुरहानापुर , टीपी करनपुर, मंगोनगर आदि थानों के प्रभार में रहे. १९४४ में पदोन्नत होकर इंस्पेक्टर बने. तीन साल बाद १३-२-१९४८ को उप खंड अधिकारी तथा एक वर्ष पश्चात पुलिस अधीक्षक बने.

    उपलब्धियां

    आप लंबे और ऊँचे कद के व्यक्ति थे. आपका कद ५ फ़ुट ९ इंच था. छाती चोडी तथा शरीर गठीला एवं बलिष्ट था. एक बार एक पहलवान आपके गाँव में आए. उसके सर पर एक मोटी चोटी थी. उसका चैलेंज था कि कोई भी चोटी को पकड़े मैं छुड़वा सकता हूँ. उसकी चुटिया को अनेक लोगों ने पकड़ा पर वह छुटा लेते थे. एक दिन पहलवान का पाला ताराचंद से पड़ा. ताराचंद ने चुटिया को कस के पकड़ लिया. पहलवान ने झटका मारा और साथ ही अट्टहास भी कि देखो मैंने चोटी छुड़ाली है. पहलवान बड़ा खुश नजर आया पर गाँव वाले सब जोर जोर से हंस रहे थे. पहलवान ने सर पर हाथ फेरा देखा चोटी तो है ही नहीं. चोटी तो ताराचंद के हाथ में आ गई थी.

    वे ११-१२ फ़ुट ऊँची दिवार पर भागकर चढ़ जाते थे. एक बार आप की ड्यूटी कानपुर मेले में लगी थी. आपको चेकिंग करनी थी. मेले में एक कोठे पर तहसीलदार एवं डॉ आदि बैठे थे. ऊपर बैठे हुए व्यक्ति में से किसी ने कहा कि ऊपर आ जाओ. ताराचंद ने पूछा सीधा ही आऊं क्या. उस व्यक्ति ने कहा पुलिस वाले हो तो आओ . वे वर्दी समेत जूतों में दौड़कर सीधे ऊपर छत पर पहुँच गए. जिन लोगों ने देखा वे स्तंभित रह गए.

    वे मुश्किल से मुश्किल काम हंसकर कर लेते थे. पुलिस में होते हुए भी वे इतना अच्छा व्यवहार लोगों एवं दोषियों के साथ करते थे कि इनके व्यवहार से लोग दंग रह जाते थे. ताराचंद की मान्यता थी कि इस प्रजातंत्र में यह मानव समाज के लिए घातक है कि पुलिस वाले ऐसा क्रूर व कटु व्यवहार करे.

    इस विभाग में केवल योगी पुरूष ही आने के अधिकारी हैं क्योंकि एक पुलिस कर्मचारी का वास्ता तो हमेशा बुरे लोगों और बुराई से ही पड़ता है इसलिए उनको सद्मार्ग पर लाने के लिए पुलिस में स्वच्छ-छवि एवं उच्च चरित्र वाले लोग ही आने चाहिये. एक पुलिस अधिकारी के नाते वे इतने सरल, समझदार, कर्तव्य परायण थे कि एक बार एक आदमी को हथकडी न लगाने के लिए उन्हें १८००० रुपये देने की पेशकश की गई तथा तफसिश को बिगाड़ने के लिए एक लाख रुपये की आफर दी गई. घर तथा रिश्तेदारों ने भी कहा कि दुनियादारी की तरह रहना सीखो वरना पिछड़ जाओगे. उस समय उन्होंने कहा था कि - "मुझे यह जानकर महान आतंरिक वेदना हुई है कि जिनके हाथों मैं जन्मा हूँ, मेरा विकास हुआ है, वे निज जन भी अब तक समझ नहीं पाए."

    इन्होने कभी भी १०००-१५०० से ज्यादा धनराशी इकट्ठी नहीं की. उनका १ फरवरी १९५१ का डायरी का अंश बताता है कि -"आज वेतन मिला. इस महीने की बचत व वेतन मिलाकर अब मेरे पास ५१०/- रुपये हैं. १२००/- पिछले सालों की बचत के हैं. मेरे २० साल के सेवाकाल में बस इतना ही बचा पाया हूँ."

    चौधरी ताराचंद का व्यवहार एक पुलिस अधिकारी के तौर पर बड़ा सराहनीय एवं विचित्र था. जब भी कोई व्यक्ति शिकायत लेकर आता तो वे उसकी बात ध्यान पूर्वक सुनते थे तथा उसी की बातों से सचाई का पता लगा लेते थे. उन्होंने कभी भी अपने जीवन में किसी दुखिया को दुत्कारा नहीं. परन्तु हमेशा प्यार से सहायता की. एक बार बीकानेर में हिंदू मुस्लिम दंगा हो गया. शहर में अफवाहें फ़ैल गई कि मुसलमानों ने हिन्दुओं को मारा है तो एक भारी हिंदू समूह ने मुसलमानों के मुहल्ले पर हमला कर दिया. रास्ते में चौधरी ताराचंद मिल गए थे उन्होंने हिन्दुओं को आगे बढ़ने से रोक दिया तथा कहा ऐसी कोई बात नहीं है. जब भीड़ न मानी और कहने लगी कि हम मुसलमानों को मारेंगे. ठीक उसी समय चौधरी साहब ने अपनी रिवाल्वर में ६ गोलियां भरी थी, भीड़ की और फेंक दी और कहा उठाओ इस रिवाल्वर को और मारो मेरे को गोली. जहाँ रिवाल्वर गिरी थी सभी लोग वहां से २-२ गज दूर हो गए. लोग उनकी इस बात से सहम गए और अपने अपने घरों को वापिस लौट गए. रात के समय सारे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया. इस प्रकार एक घटना के कारण सैंकडों मनुष्यों के खून के फव्वारे बंद हो गए तथा वातावरण में शान्ति छा गई.
    Laxman Burdak

  18. #17

    Chaudhary Tara Chand Saharan (1913-1958) Contd

    स्वतंत्रता के दिनों में

    भारत की स्वतंत्रता के दिनों एक दिन वे अपनी ससुराल से आ रहे थे. रास्ते में उनको एक वृद्ध औरत मिली जो लाठी के सहारे चल रही थी. उस समय चौधरी ताराचंद ने बुढ़िया से पूछा कहाँ जाओगी?

    उत्तर मिला पाकिस्तान,

    कहाँ है पाकिस्तान जानती हो?

    जानती तो नहीं.

    घर वाले कहाँ हैं?

    छोड़कर चले गए हैं मेरे से चला नहीं गया मैं पीछे रह गई हूँ.

    क्या ही ह्रदय विदारक दृश्य था. आज बेटे मां को भूल गए. ताराचंद बुढ़िया को गाड़ी में बैठाने लगे तो साथ वाले कहने लगे कि चौधरी साहब किस-किस का दुःख दूर करोगे. यहाँ तो सारी दुनिया ही दुखी है. लेकिन वे माने नहीं. पाँच मील जाकर काफिले को पीछे से पकड़ा व बुढ़िया के बेटे को तलाश कर उन्हें धिक्कारा तथा उनकी मां को उनके सुपुर्द किया.

    भारत के बँटवारे के समय उनके साथ अनेकों घटनाएँ घटी . वे सभी मुसलमानों को बाईज्जत अपनी सुरक्षा से सीमा पार कराते थे तथा उनको पाकिस्तान भेजते थे. एक बार एक सिक्ख ने एक मुस्लमान की लड़की के साथ बलात्कार से मुक्त कराया. उसको अपने घर अपनी मां के संरक्षण में रखा तथा मां से कहा यह मुसलमान है. इसको प्यार से रखना. इसके आने से अपना घर पवित्र हुआ है. एक महीने बाद जब उसी लड़की के माता पिता मिले तो उनको उस लड़की को सौंप दिया.

    उन्ही दिनों बीकानेर राजा का संदेश आया कि दो डाक्टर हिंदू औरत पाकिस्तान में फंस गई हैं. उनको भारत में लाना है. चौधरी ताराचंद छोटे से पुलिस काफिले के साथ पाकिस्तान पहुंचे तो वहां के लोग बंदूकों और गंडासों से लेस हमला करने के उद्देश्य से उनके पास आए लेकिन जब देखा कि चौधरी ताराचंद एस.पी. हैं तो वे उनके पैरों में पड़ गए और माफ़ी मांगी. चौधरी साहब और दोनों डाक्टर औरतों को २०० आदमियों का काफिला सुरक्षित सीमा तक छोड़ कर आया. यह उनकी मानवता के प्रति सच्ची वफादारी के कारण हुआ था.


    डाकुओं से अन्तिम लडाई : शहीद हुए

    चौधरी ताराचंद अपने पुलिस जीवन में अनेकों बार डाकुओं से भिड़े थे. अनेक डाकुओं को मारा था. वे फर्ज में मरने को बहादुरी समझते थे. जीवन के अन्तिम दिन भी उन्होंने जो बातें काफी समय पूर्व लिखी थी का शब्दशः पालन किया. १९ सितम्बर १९५३ को अपनी डायरी में लिखा था -

    "मैं जानता हूँ कि मैं एक बहादुर की मौत मरूँगा".

    इस बात को चरितार्थ किया उन की अन्तिम लड़ाई ने. ११-३-१९५८ को मुखबिर से सूचना मिली कि कल्याण सिंह डाकू एक राजपूत के घर ठहरा हुआ है तो पुलिस ने फ़ौरन अपनी तैयारी के साथ पार्टियाँ भेजी. एक पार्टी का नेतृत्व जोधपुर पुलिस कप्तान चौधरी ताराचंद को बनाया. साथ में थे उप पुलिस अधीक्षक दीनदयाल. ११ मार्च १९५८ की रात को उन जगहों का घेरा डाला तथा १२ मार्च १९५८ को शुबह अभियान शुरू हुआ. दोनों तरफ़ से फायरिंग होने लगी. डाकू कल्याण सिंह वहां से भाग खड़ा हुआ. पुलिस ने पीछा किया और डाकू को घेर लिया. डाकुओं की संख्या सात थी. भागते हुए डाकुओं ने जटिया की ढाणी में एक ऊँचे पक्के मकान में मोर्चा लिया. वहां से २५० गज की दूरी पर पुलिस ने भी मोर्चा लिया. डाकुओं की गोली के वार पुलिस पर सीधे आ रहे थे. पुलिस के वार उन पर सीधे नहीं जा रहे थे. यहीं पर बने एक नाले में चौधरी ताराचंद सहित तीन पुलिस अफसरों ने मोर्चा ले रखा था. डाकुओं पर कोई निशाना फिट नहीं बैठा तो ताराचंद ने लेटी पोजीसन छोड़कर आधी खड़ी पोजीसन ले ली. उन्होंने पहली ही गोली से एक डकैत को निशाना बनाया. लेकिन ठीक उसी समय एक डकैत की गोली भी उनकी छाती पर आकर लगी जो दिल व फेफडों को चीरती हुई गुर्दे के हिस्से से बाहर निकल कर दीन दयाल के हाथ में लगी. चौधरी ताराचंद वीर गति को प्राप्त हुए. इस तरह उन्होंने अपना जीवन सार्थक बनाया तथा अपनी ड्यूटी निभाते हुए भारत मां की सेवा में सदा के लिए १२ मार्च १९५८ को शहीद हो गए.

    सम्मान

    चौधरी ताराचंद के शहीद होने की ख़बर जोधपुर पहुँची तो सारे शहर व राजस्थान में मातम छा गया. हजारों लोग उनके रातानाडा रोड़ पर स्थित निवास स्थान पर पहुंचे. सड़कों पर हजारों लोग दोनों तरफ़ अपने सच्चे रक्षक के अन्तिम दर्शन में मानों गा रहे हों :

    विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यों मरो ।
    कि याद जो करें सभी, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
    शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले ।
    वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।

    भारत के इस सच्चे सपूत को मरणोपरांत २ अक्टूबर १९५९ को नागौर में तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनकी विधवा पत्नी को राष्ट्रपति पुलिस एवं गैलंट्री पदक से सम्मानित किया.

    कवियों की नजर में

    चौधरी ताराचंद शहीद के बारे में कवियों की कलमें उठी तथा लिखे बिना नहीं रह सकी. चुरू के कवि श्री वासुदेव कृष्ण जोशी ने लिखा:

    तारों में वह चाँद समान ।
    था प्रकाश का पुंज महान ।।
    आत्म बल का श्रोत था वह,
    था वह पुलिस की शान ।।
    कितना भद्र विनयशाली था,
    जनता की करता रखवाली था ।।
    सत्य वाटिका का माली था,
    था वीरत्व की खान ।।

    प्रो. प्रेम अरोडा की लेखनी से :

    सपनों में भी क्रोध जिसे था छुआ नहीं
    जीवन भर जो माया के वश हुआ नहीं
    कर्तव्य के रण में जो रणधीर हुआ
    अर्जुन हुआ, एवं साथ ही कबीर हुआ
    हुआ मरण भी जिसका ब्रह्मानंद था
    तारा, वह ध्रुव तारा, ताराचंद था

    दसवीं के एक छात्र चिंतामणि ने लिखा:

    रहेगा जग में सुनाम ताराचंद का
    शेरों में वह सवा सेर था
    और देवों में महादेव था

    राजस्थान के लोक कवि मोहन आलो की लेखनी से:

    सत्य अहिंसा और कर्म में, था जिसका विश्वास,
    पग-पग पर दोहराया जिसने गाँधी का इतिहास ।
    निज समाज रक्षा में जिसने, जीवन सकल गुजारा,
    अमर होगा ताराचंद ज्यों तारों में ध्रुवतारा ।

    राजस्थान के लोक कवि मोहन आलो की कविता "तुमने ज्योति प्रज्वलित कर दी" के कुछ अंश:

    लाज नहीं लगने दी मरू की माटी के विश्वास में,
    अपना नाम जोड़कर तुमने वीरों के इतिहास में,
    इससे पहले, देश भूलता मीरा के वैराग्य को,
    सांगा के सौ घाव और पन्ना धाई के त्याग को ।
    तुमने ज्योति प्रज्वलित करदी, महाराणा की आन को,
    परम्परा जो सदा रही, गर्वीले राजस्थान की ।
    कोई फर्क नहीं तुझ में और तब के दुर्गादास में
    फल की इच्छा बिना, बढ़ा सदैव कर्म की राह पर,
    रहा झेलता जीवन भर, संकट निर्बल की आह पर ।
    नर को जहाँ झुका देती है, माया की मजबूरियां,
    ठोकर से ठुकराई तुमने, धन से भरी तोजोरियाँ ।

    साभार - चौधरी ताराचंद सारण के बारे में हिन्दी का यह लेख इतिहासकार भलेराम बेनीवाल जी की पुस्तक :जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008) पर आधारित है.

    सन्दर्भ - भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008), प्रकाशक - बेनीवाल पुब्लिकेशन , ग्राम - दुपेडी, फफडाना, जिला- करनाल , हरयाणा, p.575-593
    ************************************************** *****************************
    नोट - यह लेख जाटलैंड विकी पर भी उपलब्ध है. यहाँ देखें - http://www.jatland.com/home/Tara_Chand
    Laxman Burdak

  19. #18
    सर, बहुत ही मार्मिक वृतांत लिखा है आपने...और आपकी लेखन-शैली इतनी सजीव है के लगता है मानो दृश्य आँखों के सामने घट रहा हो
    I AM WHAT I AM....JAT.... 16X2=8

  20. #19
    Thanks Sunitaji !
    Laxman Burdak

  21. #20
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    स्वतंत्रता के दिनों में

    भारत की स्वतंत्रता के दिनों एक दिन वे अपनी ससुराल से आ रहे थे. रास्ते में उनको एक वृद्ध औरत मिली जो लाठी के सहारे चल रही थी. उस समय चौधरी ताराचंद ने बुढ़िया से पूछा कहाँ जाओगी?

    उत्तर मिला पाकिस्तान,

    कहाँ है पाकिस्तान जानती हो?

    जानती तो नहीं.

    घर वाले कहाँ हैं?

    छोड़कर चले गए हैं मेरे से चला नहीं गया मैं पीछे रह गई हूँ.

    क्या ही ह्रदय विदारक दृश्य था. आज बेटे मां को भूल गए. ताराचंद बुढ़िया को गाड़ी में बैठाने लगे तो साथ वाले कहने लगे कि चौधरी साहब किस-किस का दुःख दूर करोगे. यहाँ तो सारी दुनिया ही दुखी है. लेकिन वे माने नहीं. पाँच मील जाकर काफिले को पीछे से पकड़ा व बुढ़िया के बेटे को तलाश कर उन्हें धिक्कारा तथा उनकी मां को उनके सुपुर्द किया.

    भारत के बँटवारे के समय उनके साथ अनेकों घटनाएँ घटी . वे सभी मुसलमानों को बाईज्जत अपनी सुरक्षा से सीमा पार कराते थे तथा उनको पाकिस्तान भेजते थे. एक बार एक सिक्ख ने एक मुस्लमान की लड़की के साथ बलात्कार से मुक्त कराया. उसको अपने घर अपनी मां के संरक्षण में रखा तथा मां से कहा यह मुसलमान है. इसको प्यार से रखना. इसके आने से अपना घर पवित्र हुआ है. एक महीने बाद जब उसी लड़की के माता पिता मिले तो उनको उस लड़की को सौंप दिया.

    उन्ही दिनों बीकानेर राजा का संदेश आया कि दो डाक्टर हिंदू औरत पाकिस्तान में फंस गई हैं. उनको भारत में लाना है. चौधरी ताराचंद छोटे से पुलिस काफिले के साथ पाकिस्तान पहुंचे तो वहां के लोग बंदूकों और गंडासों से लेस हमला करने के उद्देश्य से उनके पास आए लेकिन जब देखा कि चौधरी ताराचंद एस.पी. हैं तो वे उनके पैरों में पड़ गए और माफ़ी मांगी. चौधरी साहब और दोनों डाक्टर औरतों को २०० आदमियों का काफिला सुरक्षित सीमा तक छोड़ कर आया. यह उनकी मानवता के प्रति सच्ची वफादारी के कारण हुआ था.


    डाकुओं से अन्तिम लडाई : शहीद हुए

    चौधरी ताराचंद अपने पुलिस जीवन में अनेकों बार डाकुओं से भिड़े थे. अनेक डाकुओं को मारा था. वे फर्ज में मरने को बहादुरी समझते थे. जीवन के अन्तिम दिन भी उन्होंने जो बातें काफी समय पूर्व लिखी थी का शब्दशः पालन किया. १९ सितम्बर १९५३ को अपनी डायरी में लिखा था -

    "मैं जानता हूँ कि मैं एक बहादुर की मौत मरूँगा".

    इस बात को चरितार्थ किया उन की अन्तिम लड़ाई ने. ११-३-१९५८ को मुखबिर से सूचना मिली कि कल्याण सिंह डाकू एक राजपूत के घर ठहरा हुआ है तो पुलिस ने फ़ौरन अपनी तैयारी के साथ पार्टियाँ भेजी. एक पार्टी का नेतृत्व जोधपुर पुलिस कप्तान चौधरी ताराचंद को बनाया. साथ में थे उप पुलिस अधीक्षक दीनदयाल. ११ मार्च १९५८ की रात को उन जगहों का घेरा डाला तथा १२ मार्च १९५८ को शुबह अभियान शुरू हुआ. दोनों तरफ़ से फायरिंग होने लगी. डाकू कल्याण सिंह वहां से भाग खड़ा हुआ. पुलिस ने पीछा किया और डाकू को घेर लिया. डाकुओं की संख्या सात थी. भागते हुए डाकुओं ने जटिया की ढाणी में एक ऊँचे पक्के मकान में मोर्चा लिया. वहां से २५० गज की दूरी पर पुलिस ने भी मोर्चा लिया. डाकुओं की गोली के वार पुलिस पर सीधे आ रहे थे. पुलिस के वार उन पर सीधे नहीं जा रहे थे. यहीं पर बने एक नाले में चौधरी ताराचंद सहित तीन पुलिस अफसरों ने मोर्चा ले रखा था. डाकुओं पर कोई निशाना फिट नहीं बैठा तो ताराचंद ने लेटी पोजीसन छोड़कर आधी खड़ी पोजीसन ले ली. उन्होंने पहली ही गोली से एक डकैत को निशाना बनाया. लेकिन ठीक उसी समय एक डकैत की गोली भी उनकी छाती पर आकर लगी जो दिल व फेफडों को चीरती हुई गुर्दे के हिस्से से बाहर निकल कर दीन दयाल के हाथ में लगी. चौधरी ताराचंद वीर गति को प्राप्त हुए. इस तरह उन्होंने अपना जीवन सार्थक बनाया तथा अपनी ड्यूटी निभाते हुए भारत मां की सेवा में सदा के लिए १२ मार्च १९५८ को शहीद हो गए.

    सम्मान

    चौधरी ताराचंद के शहीद होने की ख़बर जोधपुर पहुँची तो सारे शहर व राजस्थान में मातम छा गया. हजारों लोग उनके रातानाडा रोड़ पर स्थित निवास स्थान पर पहुंचे. सड़कों पर हजारों लोग दोनों तरफ़ अपने सच्चे रक्षक के अन्तिम दर्शन में मानों गा रहे हों :

    विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यों मरो ।
    कि याद जो करें सभी, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
    शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले ।
    वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।

    भारत के इस सच्चे सपूत को मरणोपरांत २ अक्टूबर १९५९ को नागौर में तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनकी विधवा पत्नी को राष्ट्रपति पुलिस एवं गैलंट्री पदक से सम्मानित किया.

    कवियों की नजर में

    चौधरी ताराचंद शहीद के बारे में कवियों की कलमें उठी तथा लिखे बिना नहीं रह सकी. चुरू के कवि श्री वासुदेव कृष्ण जोशी ने लिखा:

    तारों में वह चाँद समान ।
    था प्रकाश का पुंज महान ।।
    आत्म बल का श्रोत था वह,
    था वह पुलिस की शान ।।
    कितना भद्र विनयशाली था,
    जनता की करता रखवाली था ।।
    सत्य वाटिका का माली था,
    था वीरत्व की खान ।।

    प्रो. प्रेम अरोडा की लेखनी से :

    सपनों में भी क्रोध जिसे था छुआ नहीं
    जीवन भर जो माया के वश हुआ नहीं
    कर्तव्य के रण में जो रणधीर हुआ
    अर्जुन हुआ, एवं साथ ही कबीर हुआ
    हुआ मरण भी जिसका ब्रह्मानंद था
    तारा, वह ध्रुव तारा, ताराचंद था

    दसवीं के एक छात्र चिंतामणि ने लिखा:

    रहेगा जग में सुनाम ताराचंद का
    शेरों में वह सवा सेर था
    और देवों में महादेव था

    राजस्थान के लोक कवि मोहन आलो की लेखनी से:

    सत्य अहिंसा और कर्म में, था जिसका विश्वास,
    पग-पग पर दोहराया जिसने गाँधी का इतिहास ।
    निज समाज रक्षा में जिसने, जीवन सकल गुजारा,
    अमर होगा ताराचंद ज्यों तारों में ध्रुवतारा ।

    राजस्थान के लोक कवि मोहन आलो की कविता "तुमने ज्योति प्रज्वलित कर दी" के कुछ अंश:

    लाज नहीं लगने दी मरू की माटी के विश्वास में,
    अपना नाम जोड़कर तुमने वीरों के इतिहास में,
    इससे पहले, देश भूलता मीरा के वैराग्य को,
    सांगा के सौ घाव और पन्ना धाई के त्याग को ।
    तुमने ज्योति प्रज्वलित करदी, महाराणा की आन को,
    परम्परा जो सदा रही, गर्वीले राजस्थान की ।
    कोई फर्क नहीं तुझ में और तब के दुर्गादास में
    फल की इच्छा बिना, बढ़ा सदैव कर्म की राह पर,
    रहा झेलता जीवन भर, संकट निर्बल की आह पर ।
    नर को जहाँ झुका देती है, माया की मजबूरियां,
    ठोकर से ठुकराई तुमने, धन से भरी तोजोरियाँ ।

    साभार - चौधरी ताराचंद सारण के बारे में हिन्दी का यह लेख इतिहासकार भलेराम बेनीवाल जी की पुस्तक :जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008) पर आधारित है.

    सन्दर्भ - भलेराम बेनीवाल:जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa) (2008), प्रकाशक - बेनीवाल पुब्लिकेशन , ग्राम - दुपेडी, फफडाना, जिला- करनाल , हरयाणा, p.575-593
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    नोट - यह लेख जाटलैंड विकी पर भी उपलब्ध है. यहाँ देखें - http://www.jatland.com/home/Tara_Chand
    sundri mundri aala..
    tera ki vichara...

    dula bhatti wala...
    dulle di dhi byahi..
    sher shakkar payi...
    chacha churi kutti...
    zammendaron lutti..
    zammendar sudhar...
    har har bede paar...



    is dula bhatti jat ke geet ab tak bhi rajasthan se le kar sindh tuk gaye jate hain as a folk lore...

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