.
The following article by D.R. Chaudhary presents a gloomy picture about status of agriculture in Haryana. This is a chapter of the book published in 2007 and is still relevant in all respects.
हरयाणा में कृषि संकट
Name of Book - हरयाणा की दुविधा - समस्यायें और संभावनायें (page 26-32)
Writer - D.R. Chaudhary
Published by - National Book Trust, India, A-5, Green Park, New Delhi-110016
Year - 2007
कृषि में संकट सारे देश में व्याप्त है, किसी खास राज्य का तो कहना ही क्या । जी.डी.पी. में कृषि का हिस्सा एक-चौथाई से नीचे हो गया है और इसकी वार्षिक विकास की दर मात्र 2 प्रतिशत से नीचे है, जो आबादी की बढ़ोतरी से काफी कम है । वर्ष 2007 में भारत ने विश्व में नए "डालर खरबपतियों" की दूसरी बड़ी संख्या सृजित की । अर्थव्यवस्था की वृद्धि 9% से अधिक हुई और स्टॉक मार्केट का सूचकांक अब तक का सबसे ऊंचा रहा जो अब भी चढ़ रहा है । सेन्सेक्स ने 11,000 का आंकड़ा मार्च 2006 के अन्तिम सप्ताह में पार कर लिया और महाराष्ट्र के विदर्भ में उसी सप्ताह कृषकों की आत्महत्या की वारदातें 400 से बढ़ गईं ।
किसानों के बारे में राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष अम.एस. स्वामीनाथन के अनुसार हमारे 40 प्रतिशत किसान खेती को छोड़ रहे हैं । गांव में आधे गरीबी रेखा से नीचे हैं तथापि, स्वामीनाथन ने शोक प्रकट करते हुए कहा, "हम छलांगे मारते हुए सेंसक्स को विकास का संकेतक मानने की बात करते हैं । किसानों की ऋणग्रस्तता, किसानों की आत्महत्या का प्रमुख कारण, ने देशभर में भयप्रद आयाम छू लिए हैं ।"
पंजाब, जो कि हरित क्रांति में देशभर में पथ-प्रदर्शक है, में भी किसानों के ऋण की कुल देयता 24,000 करोड़ तक की हो गई है जबकि कृषि क्षेत्र की वार्षिक आय 7,200 करोड़ रुपये पर अटकी हुई है । पंजाब सरकार ने सन् 1988 से लेकर किसानों की आत्महत्या के 2,116 मामलों को स्वयं स्वीकार किया है । हरयाणा कृषक समाज द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण में हरयाणा, जो कि हरित क्रांति के लिए दूसरा राज्य माना जाता है, के नरवाणा सब-डिवीजन के तीन गांवों में कम से कम 72 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं । हरयाणा के एक पत्रकार राजकुमार ने हरयाणा कृषि के अपने अध्ययन में हरयाणा के आत्महत्या करने वाले ऋणग्रस्त किसानों की संख्या की जिलावार सारणी तैयार की है और यह संख्या पिछले कुछ वर्षों में लगभग 200 के आंकड़े को छू गई है । उसने इस घटना को "आत्महत्या की खेती" की संज्ञा ठीक ही दी है । खेतीहर मजदूरों की स्थिति और भी खराब है । पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के समाज विज्ञान विभाग के प्रो. मनजीत सिंह द्वारा आयोजित अध्ययन में उसने 3323 ग्रामीण मजदूर घरों के जो हरयाणा के छह जिलों में 200 से ज्यादा गांवों में फैले हुए थे, से जो आंकड़े एकत्र किए थे, उनसे पता चलता है कि 1.43 लाख लोग अत्यधिक ऋणग्रस्तता की हालत में हैं और बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 का उल्लंधन करते हुए बंधुआ मजदूर के रूप में कार्य कर रहे हैं । अध्ययन से पता चलता है कि 88 प्रतिशत ग्रामीण मजदूर दलित हैं, 74 प्रतिशत अनपढ़ हैं, और आधे से ज्यादा एक दिन में 9-12 घंटों तक काम करते हैं । इस कमरतोड़ मेहनत के बावजूद 67 प्रतिशत 15,000/- रुपये प्रतिवर्ष से कम कमाते हैं । किसानों और खेतीहर मजदूरों की स्थिति आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में और भी भयावह है जहां कि आत्महत्या की घटनाएं महामारी का रूप धारण कर गई हैं ।
हरयाणा की लोक प्रसिद्ध छवि, जो कि खासतौर पर राज्य सरकार के प्रचार तंत्र के कर्मचारियों ने दी है, एक प्रगतिशील और आधुनिक राज्य की है जिसने विभिन्न क्षेत्रों में द्रुतगामी प्रगति की है । यहां हरित क्रांति हो चुकी है । इसकी बुनियादी संरचना (अर्थात् सड़कें, विद्युत, दूरसंचार, अस्पताल, शिक्षा संस्थान इत्यादि) अच्छी है । तथापि इस प्रसिद्ध छवि में उतना नहीं बताया जाता जितना कि इसमें छुपाया जाता है । संरचना टूट के कगार पर है । हरित क्रांति अपनी बुलंदी को पा चुकी है और हरयाणा में कृषि संकट की स्थिति में है । देश में विशेष आर्थिक जोन के युग के प्रवर्तन से पूर्व यहां पर औद्योगिक विकास के नाम पर कुछ नहीं था । औद्योगिक विकास के लिए पता लगा नया मंत्र हरयाणा में उत्तेजित स्थिति में पहुंच चुका है । इतनी जल्दी उसकी किस्मत की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती (हरयाणा में औद्योगिकरण के बारे में)। हरयाणा की लोक प्रसिद्ध छवि बड़े तेजी से अपनी चमक खो रही है । हरयाणा के खाद्य और आपूर्ति मंत्री ने विधान सभा में 14 मार्च 1997 को एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि राज्य में 43.88 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे थे । इनमें से 36.56 लाख ग्रामीण क्षेत्रों में थे और 7.32 लाख शहरी क्षेत्रों में । नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकानॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार हरयाणा की 27 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे रह रही है ।
हरयाणा में विकासात्मक संवेग न केवल रुक गया है बल्कि हर क्षेत्र में कमी होने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं । हरयाणा में कृषि पर नजर डालें तो यह बात साबित हो जायेगी । हरयाणा मुख्यतः कृषीय राज्य है जहां कि लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर कृषि पर निर्भर है । हरयाणा में हरित क्रांति की सफलता की एक बड़ी कहानी रही है और राज्य इसके लिए यथार्थ रूप में स्वाभिमान महसूस कर सकता है । हरयाणा को सन् 1966 में जब अलग राज्य का दर्जा मिला उस समय यहां खाद्यान्नों की कमी थी । इसे अधिशेष राज्य बनने में कुछ समय लगा जिसके लिए सुधरी हुई प्रौद्योगिकी को श्रेय जाता है । खाद्यान्नों की सन् 1966-67 के 25.92 लाख टन के मुकाबले सन् 2003-04 में बढ़ोतरी 131.93 लाख टन तक पहुंच गई अर्थात् चार गुणा वृद्धि हो गई । इसी अवधि के दौरान कृषि के अन्य क्षेत्रों में हुई वृद्धि हरित क्रान्ति की रणनीति की सफलता का बखान करती है । कपास की खेती 2.88 हजार गाठों से बढ़कर 14.07 हजार गांठें हो गईं । निवल सिंचित भूमि क्षेत्र 12.93 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 29.69 लाख हेक्टेयर हो गया । रसायन उर्वरकों का प्रयोग 13 हजार टन से बढ़कर 11.25 लाख टन तक पहुंच गया । कीटनाशकों का प्रयोग 27 टन के मुकाबले बढ़कर 4,700 टन हो गया । राज्य में ट्रैक्टरों की संख्या में भी वृद्धि हुई है जो 4,803 से बढकर 2,39,814 हो गए हैं । ट्यूबवैल और पंपिंग सेट 0.25 लाख से बढ़कर 6.12 लाख हो गए ।
इस दृश्य पर यदि गहराई से नजर डाली जाए तो यह पता चलेगा कि यह वृद्धि अत्यधिक विषम रही है । प्रथम दशक में खाद्यान्नों की बढ़ोतरी लगभग दुगुनी हुई अर्थात् 25.92 लाख से 50.40 लाख टन तक पहुंच गई जबकि अगले दशक में यह 67.5 प्रतिशत रही जो 54.40 से बढ़कर 84.46 लाख टन हो गई । नब्बे के तीसरे दशक में यथार्थ स्थिरता बनी रही जिसमें खाद्यान्न उत्पादन 100 टन के इर्द-गिर्द रहा । इसके पश्चात् कोई महत्वपूर्ण तेजी नहीं आई । यही प्रक्रिया कपास के उत्पादन के मामले में भी देखी जा सकती है । हरयाणा में कपास की फसल में अवसरिक खराबी का कारण अमेरिकी बाल कीड़ा है जो कीटनाशकों के प्रयोग से नहीं मरता है । इसने हरयाणा की कपास की खेती करने वाले किसानों की व्यथा को और बढ़ा दिया है । राज्य में कुल सिंचित भूमि अपनी अधिकतम सीमा तक पहुंच गई है । दक्षिण हरयाणा के लम्बे चौड़े क्षेत्र में सिंचाई की सुविधायें नहीं हैं । हरयाणा के राजनीतिज्ञों द्वारा इसके अंतिम हल के रूप में कभी-कभार सतलुज-यमुना लिंक को पूरा करने का वायदा दोहराया जाता है । तथापि पंजाब के शासकों द्वारा इस मामले पर अपने कड़े रवैए को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक पाइप-ड्रीम है । पार्टी संबंधों का ध्यान किए बगैर पंजाब के राजनेताओं ने यह बार-बार पूर्णतया स्पष्ट कर दिया है कि पंजाब हरयाणा को एक बूंद भी पानी ज्यादा नहीं देगा ।
1990-91 में की गई राज्य की कृषीय गणना के अनुसार (इसके पश्चात् यह गणना नहीं हुई है) 37,11,215 हेक्टेयर भूमि क्षेत्र पर कुल भूमिदारों की संख्या 15,29.799 थी, 0.2 हेक्टयर से 10 हेक्टयर वालों की संख्या 14,83,714 थी जिनके पास कुल क्षेत्र 30,01,809 हेक्टेयर था । केवल 38,038 भूमिदार ऐसे थे जिनके पास 10 से 20 हेक्टेयर भूमि थी जिसका कुल क्षेत्र 4,76,677 हेक्टेयर था । बीस हेक्टेयर या उससे अधिक भूमिदारों की संख्या 7,927 थी जिसका कुल क्षेत्र 2,32,729 हेक्टेयर था । राज्य में और उपविभाजन हो जाने के कारण तब से लेकर स्थिति बहुत ही खराब हो चुकी है । इसलिए ज्यादातर खेती जोतने वाले सीमांतिक, लघु और मध्यम दर्जे के किसान हैं । हरयाणा की ज्यादातर खेती मालिक करते हैं । ये खेती करने वाले लोग थे - हरयाणा के बलिष्ठ किसान - जिन्होंने हरित क्रांति को बुलन्दियों पर पहुंचाया था । लेकिन अब वह अपने अधिकतम पर पहुंच चुकी है और उसके आगे बढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं है । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट के अनुसार पंजाब और हरयाणा में हरित क्रांति का प्रभाव क्षीण हो रहा है ।
हरयाणा में कृषि का महत्त्वपूर्ण परिमाण किसानों की ऋणग्रस्तता है । कृषीय ऋण की समस्या का अध्ययन करने के लिए केंद्रीय सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति के अनुमानों के अनुसार हरयाणा में लगभग 45% किसान ब्याज की भारी दरों पर जो 24 से 36% के बीच है, अल्पावधि ऋणों के लिए उधार देने वालों पर अत्यधिक निर्भर होते हैं । इन उधार देने वालों में ज्यादातर कमीशन एजेंट होते हैं जो कृषीय उत्पादों को किसानों से खरीद लेते हैं और उन्हें निवेश के रूप में बीज, उर्वरक और कीटनाशक जैसी वस्तुएं देते हैं । इनमें दोनों तरह से धोखाधड़ी की गुंजाइश रहती है । रसायनों को बर्दाश्त करने वाले नए कीटों के बढ़ जाने से, जहरीले कीटनाशी जो बेईमान व्यापारियों द्वारा भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों से गठजोड़ करके बेचे जाते हैं, असर नहीं करते और इससे हरयाणा में फसल खराब होने के अवसर आम हो गए हैं ।
अवसरिक फसल बर्बाद होने के साथ-साथ भारी ऋणग्रस्तता के कारण देश के विभिन्न भागों में आत्महत्या की वारदातें हो रही हैं । किसानों को मार्केट की घटा-बढ़ी की जानकारी, खासतौर पर वैश्वीकरण की नीति से, उच्च लाभ कमाने की गर्ज से कैश क्रॉप पर निर्भरता, उधार देने वालों का शिकंजा, ये सभी तथ्य ऐसे हैं कि जब फसल खराब हो जाती है तो कुछ किसान अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं - जो कि एक ऐसा कदम है जो मजबूर होकर उठाना पड़ता है क्योंकि बचने के लिए फसल बीमा अथवा कारगार राहत देने जैसा कोई रक्षात्मक उपाय है ही नहीं ।
.....continued
.