Surajmal, Marathas and Third Battle of Panipat
(This article by Nihalsingh Arya was published long ago – reproduced for the benefit of all)
सूरजमल बाल्यकाल से ही उत्साही वीर थे । उन्हें ये संस्कार अपने पूर्वजों से विरासत में मिले थे । उन्होंने अपने वीर पिता बदन सिंह के सामने ही सन् 1755 ईस्वी तक कई युद्धों में शत्रुओं को पराजित कर विजयश्री का सुन्दर कीर्तिमान स्थापित किया था । इनके पूर्वज गोकुलदेव, राजाराम और चूड़ामन भी क्रान्तिकारी, वीर्यवान, स्वाधीनता-प्रिय सेनानी थे जिन्होंने मुगलों के छठे बादशाह औरंगजेब के शासन के प्रजापीड़न, शोषण एवं दमनचक्र के विरुद्ध निरन्तर बीसों वर्ष तक सफल संघर्ष करके अन्याय का निवारण किया था । यहां पर व्रजराज वीर गोकुलदेव के अमर बलिदान की अमर गाथा का कीर्तन करना प्रासंगिक ही है जो प्राचीन विशाल हरयाणा की सर्वखाप पंचायत के इतिहास में इस प्रकार है ।
मुगल खानदान के छठे बादशाह औरंगजेब ने धर्मान्ध होकर जब सारे भारत में हिंसा, अन्याय और धर्म के दमन का चक्र चलाया तो सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी । तब शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ने सारे भारत में विद्रोह का प्रबल प्रचार किया । बुन्देले राजा छत्रसाल के गुरु स्वामी प्राणनाथ और गुरु गोविन्दसिंह भी उनके सहयोगी प्रचारक थे । गुरु समर्थराम ने दिल्ली के चारों ओर तथा गंगा-जमना के तीर्थ मेलों और सारे विशाल हरयाणा में भी वि. सं. १७२३ से १७२५ तक सर्वत्र प्रचार किया और गढ़मुक्तेश्वर गंगा के मेले में १७२५ वि. में एक तलवार और पान का बीड़ा धारण किया । कार्तिक की पूर्णमासी को तिलपत ग्राम के ५४ धड़ी भार के मल्ल योद्धा गोकुलदेव ने वह पान का बीड़ा चबा लिया और हरयाणा के पांच हजार मल्लों सहित गंगाजल में खड़े होकर देश और धर्म रक्षा की प्रतिज्ञा की । मथुरा के शासकों द्वारा कुछ हिन्दू लड़कियों का अपमान करने पर बीस हजार मल्लों सहित गोकुलदेव ने आक्रमण करके मई 1669 ईस्वी को मथुरा के हाकिम अब्दुल नबी खां को मार दिया और लगातार पांच मोर्चों पर लड़ाई जीत ली । अत्याचारों के विरुद्ध यह योद्धा सारे भारत का सर्वप्रथम विद्रोही नेता था जो देशद्रोही विश्वासघातियों के षड्यंत्र से पकड़ा गया । आगरा लाल किले के दक्षिणी पक्ष में एक कुऐं के पास ऊंचे टीले पर उसके अंग-अंग काटने पर भी भारत मां का वीर सपूत देश-धर्म की जय के उदघोष के साथ हंसता ही रहा और गीता के उपदेश "हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं" के अनुसार स्वर्गारोहण के अमर पद को प्राप्त हुआ । श्रद्धालु जनता के सहस्रों देशभक्त रोते रह गए परन्तु उस नेता का बलिदान अपने पीछे विद्रोही संघर्ष की सतत श्रंखला का संकलन कर गया जिसे आगे चलकर राजाराम और चूड़ामन ने निरन्तर चालू रखा । सन् 1683 ईस्वी के पश्चात् मराठों ने भी लड़ाई छेड़ दी । मराठी सेना को झपट्टा मार युद्ध का प्रशिक्षण हरयाणा के मल्लों ने ही दिया था जिन्हें कुरड़ी नांगल (छपरौली) के टीले के मल्ल सेना प्रदर्शन में से गुरु समर्थराम दास ही अपने साथ ले गए थे । उनमें तीन मुख्य मल्ल मोहनचन्द्र जाट, हरिराम राजपूत और कलीराम अहीर थे । तब से ही वीर शिवाजी ने मराठा मण्डल का वीर संगठन खड़ा किया था ।
महाराजा सूरजमल की धमनियों में पैतृक देन से क्रमशः गोकुलदेव से बदनसिंह तक का अदम्य स्वाभिमानी विशुद्ध रक्त संचार कर रहा था । जनक और जन्य समान संस्कारी होते हैं और उत्तम दादा पिता के संतान भी उत्तम होते हैं । अतः सूरजमल को आत्मविश्वास, स्वाधीनता, धर्मध्रुवता, उदारता, प्रजावात्सल्य, सौहार्द और सजगता आदि गुण इन्हीं पूर्वजों से मिले थे ।
एक विख्यात दुर्दान्त योद्धा, सफल राजनीतिज्ञ. सहिष्णु तथा धर्मवीर राजा होने के कारण सूरजमल भारत के इतिहास में उन्नत प्रतिष्ठा सहित उच्चासन रखते हैं , अतः इतिहासकारों की लेखनी के प्रशंसा पात्र बने हैं । यहां पाठकों के लिए सर्वखाप पंचायत के अभिलेखागार में से सन् 1761 ईस्वी के पानीपत के युद्ध में मराठे, राजा सूरजमल और पंचायती मल्लों का अछूता प्रसंग संक्षेप से प्रस्तुत किया जाता है जिसे ध्यानपूर्वक पढ़कर इतिहास लेखक अपनी भ्रान्तियां दूर करके तथ्यों का उचित मूल्यांकन कर अपनी मान्यता, स्मृति और लेखों को स्थायी अंग बनायेंगे ।
महाराजा सूरजमल के समय भारत की निर्बलता
उस समय मुगल शासन के पैर लड़खड़ा रहे थे । बादशाह इतने चरित्रहीन हो गए थे कि खौफजदा होकर कभी किसी का सहारा पकड़ते कभी किसी का । इसी दौड़ में मुगल दरबार में कत्ले-आम मच रहा था । आज किसी पर शक हुआ तो कल उसे किसी बहाने से मरवा डाला या जहर तक देने की नौबत आ जाती । इस रस्साकशी में मुगल बादशाही के घर की यह हालत थी तो उनका खयाल मुल्क की बिगड़ी हुई हालत को सुधारने में कैसे जाता ? मुगल खानदान का हर बच्चा और बूढ़ा या तो बादशाह या वजीर बनना चाहता था । ये सब इसी गुटबाजी में फंसे थे । मुगल राज्य की हड्डियों का ढ़ांचा जरूर खड़ा था मगर उसमें खून, मांस और चमड़ा सब गल चुका था । अब उस मसनुयी ढ़ांचे को एक धक्का मारकर गिराने से हड्डी अलग-अलग होकर बिखर सकती थी ।
उस वक्त भारत पर नादिरशाह और अब्दाली के दो हमले हुए थे । इन दोनों हमलावरों को मुगल दरबार के सरदारों और दरबारियों ने ही न्यौता देकर बुलवाया था । अहमदशाह अब्दाली को सन् 1760 ईस्वी में नजीब खां ने बुलवाया । पानीपत के मैदान में अब्दाली ढ़ाई लाख सेना सहित आ डटा । वह भारत की बिखरी हुई हालत को जानकर पहले भी कई आक्रमण कर चुका था । पानीपत के मैदान में उसके मुकाबले के लिए प्रमुख मराठा सेना थी जिसे पेशवा का भाई सदाशिवराव भाऊ लेकर आया था । आगरा, मथुरा और दिल्ली में सूरजमल और भाऊ की भेंट हुई थी । भाऊ अपनी सेना के साथ हजारों स्त्रियों को श्रंगार कर लाया था और आक्रमण से बहुत दिन पहले ही उसकी सेना आ चुकी थी । महीनों तक शत्रु की तथा भाऊ की सेना आमने-सामने मैदान में डंटी रही । भाऊ की मराठा सेना आस-पास के ग्रामों की जनता को भी पीटा करती और लूट लेती थी ।
सेनापति भाऊ को राजा सूरजमल के उत्तम सुझाव
सूरजमल राजनीति में बहुत प्रवीण थे । उन्होंने देश की सारी परिस्थितियों को देखकर सदाशिवराव भाऊ को बहुत अनुभवपूर्ण विजयकारी सुझाव दिए थे ।
1. अब्दाली की सेना पर अभी आक्रमण मत करो । अभी सर्दी है । गर्मी को ये लोग सहन नहीं कर सकते, अतः हम गर्मी में ही हमला करेंगे ।
2. कई हजार स्त्रियों और बच्चों को युद्ध में साथ लिए-लिए मत फिरो क्योंकि हमारा ध्यान इनकी सुरक्षा में बंट जाएगा । अतः इन्हें हमारे डीग के किले में सुरक्षित रखो ताकि हम निश्चिन्त होकर लड़ सकें ।
3. शत्रु की सेना पर सीधा आक्रमण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इनकी सेना बहुत अधिक है और भारत के बहुत मुस्लिम भी इनके पक्ष में हैं । अतः इनसे झपट्टा मार लड़ाई करके छापे मारो । (यह गुरिल्ला युद्ध ही था जो प्राचीन काल से ही हरयाणा के यौधेयगण और पंचायती मल्ल करते आ रहे थे और सारे भारत को सिखाया था । मनुस्मृति में भी इसका विधान है ।)
4. लालकिले की सम्पत्ति मत लूटो नहीं तो मुस्लिम शासक सरदार रुष्ट होकर अब्दाली के पक्ष में हमारा विरोध करेंगे । हम भरतपुर कोष से मराठा सेनाओं का वेतन भी दे देंगे ।
5. किसी मुगल सरदार की अध्यक्षता में एक दरबार लगाकर स्वदेश रक्षा और युद्ध योजना निश्चित करो ताकि भारत के मुसलमान भी सन्तुष्ट होकर हमारे सहयोगी बने रहें ।
6. जनता को मत लूटो और खड़ी फसलों को मत जलाओ । हम सारे भोजन पदार्थों का प्रबन्ध कर देंगे ।
7. शत्रु की खाद्य टुकड़ी को काटने की योजना बनाओ ।
8. गर्मी आते ही मिलकर शत्रु सेना पर हमला कर देंगे । अब्दाली को भारत के बाहर ही रोकना चाहिए था ।
भाऊ तगड़ा जवान और घमंडी था । उसने महाराजा के इन उत्तम सुझावों को भी उपेक्षा सहित ठुकरा दिया । वह अल्पायु और अनुभवहीन था । उसने महाराजा का अपमान भी किया । इस पर सूरजमल और इन्दौर के राजा ने भाऊ का साथ छोड़ दिया परन्तु सूरजमल ने फिर भी मराठों की सहायतार्थ अपनी आठ हजार सेना लड़ाई में भेजी थी और मराठों को भोजन, चारे और वस्त्रों की भी सहायता दी थी क्योंकि बहुत पहले से आई हुई सेना भूखी मरने लगी थी । भाऊ ने इन सुझावों के विपरीत बड़ी भारी भूल की । उसने लाल किले की दीवाने-खास की चांदी की छत को तोड़ कर 36 लाख रुपये के सिक्के ढ़लवा लिए और अपने भतीजे विश्वासराय की अध्यक्षता में एक सभा की जिससे भारत के अधिकांश मुसलमान नाराज होकर अहमदशाह अब्दाली के साथ हो लिए । भाऊ ने किसानों की खड़ी खेती को भी जला दिया, अपनी स्त्री-बच्चों को भी युद्धस्थल में साथ रखा और शरद् ऋतु जनवरी 1761 में गर्मी से पहले ही अफगान सेना पर सीधा आक्रमण कर दिया ।
पानीपत युद्ध में भाऊ और सर्वखाप पंचायत के मल्ल
सदाशिवराव भाऊ ने अब्दाली के युद्ध में सहायतार्थ हरयाणा की सर्वखाप पंचायत शौरम को चैत शुदी तीज संवत् १८१६ विक्रमी (1759 ई०) को एक पत्र भेजा था जिस पर विचारार्थ शिशौली ग्राम में चौ. दानतराय की अध्यक्षता में एक सभा ज्येष्ष्ट शुदी नवमी को हुई और पांच प्रस्ताव पारित करके भाऊ की सहायता के लिए बीस हजार पैदल मल्ल सेना और दो हजार घुड़सवार भेजने का निश्चय किया । इनके सेनापति सौरम के चौ. श्योलाल और उपसेनापति रामकला तथा पं० कान्हाराय बनाये गए । सौरम के पं० कान्हाराय का महाराजा सूरजमल से घनिष्ठ सम्बन्ध बताना भी आवश्यक है ।
पं० कान्हाराय सर्वखाप पंचायत के सहयोगी प्रचारक प्रशिक्षक मल्ल योद्धा थे । राजस्थान के राजाओं, महाराष्ट्र के सरदारों तथा सूरजमल के दरबार में इनका पर्याप्त सम्मान था । ये आठ भाषाओं के विद्वान थे । पंचायत इन्हें सारा खर्चा देती थी । ये पंचायत के युद्ध, तोड़-फोड़ के पटु नेता थे और 24 धड़ी की जोड़ी मोगरी को फिराते थे । पंचायती पाठशालाओं और मल्ल अखाड़ों के निरीक्षक थे । इन्होंने पंचायती संगठन को सुदृढ़ बनाकर उन्नत किया था । ये सम्मानपूर्वक मुगल दरबार में भी जाते थे । राजा सूरजमल भी इनको हर वर्ष अपने हाथी पर बिठाकर बुलाते थे और दरबार में बहुत सम्मान करते थे । इनको १०१ रुपये तथा सब ऋतुओं के गरम, सरद वस्त्र और पगड़ी देते थे और पांच-छः दिन तक इनको स्वादिष्ट, रुचिकर भोजन खिलाते थे ।
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