क्या तथाकथित हिन्दू जाटों को कोई धर्म धारण करना आवश्यक हैं ?
- पूर्व कमांडेंट हवा सिंह सांगवान
मो. +919416056145
धर्म का अर्थ हैं : धारणात धर्म : अर्थात धारण करने को धर्म कहते हैं | संसार में विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा अपने कुछ नियम , एक चिन्ह , एक स्थान . एक धर्म गुरु , एक पूजा पद्धति तथा एक धर्म ग्रन्थ निर्धारित करके उनको धारण कर लिया और उन्होंने अपने अलग - अलग धर्म स्थापित कर लिए | उदाहरण स्वरूप मुस्लिम, ईसाई , सिक्ख , जैन , तथा बौद्ध आदि | लेकिन केवल हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म हैं , जिसका ऊपर वर्णित कोई भी एक चीज नहीं हैं और इससे भी बड़ा आश्चर्यजनक प्रमाण हैं कि हिन्दू कहे जाने वाले ग्रंथो में जैसा कि वेद , उपनिषद , शास्त्र , गीता , रामायण , महाभारत तथा पुराणों में कही भी हिन्दू शब्द या हिन्दू धर्म का उल्लेख तक नहीं हैं | इसीलिए हिन्दू धर्म को धर्म कहना एक मुर्खता एवं अज्ञानता हैं | इसी सच्चाई के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय कि तीन जजों के पीठ ने रमेश यशवंत बनाम श्री प्रभाकर काशीनाथ कुंटे के केस में दिनांक 11 -12 -1995 को अपने फैसले में सपष्ट किया था कि हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं हैं | हालांकि न्यायालय ने इसे जीवन पद्धति कहा | लेकिन हिंदूओ कि यह जीवन पद्धति भी हिन्दू समाज में पुरे देश में आपस में कही भी मेल नहीं खाती | उदाहरण के लिए उत्तर भारत में अपनी बहन कि बेटी को अपनी बेटी समान तो बुआ और मामा कि बेटी को बहन का दर्जा प्राप्त हैं जबकि दक्षिण भारत के हिंदूओ (ब्रह्मण) में ठीक इसके विपरीत इनको अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया जाता हैं | इसी प्रकार अनेक हिंदूओ के नियम व संस्कार आपस में कहीं भी मेल नहीं खाते | उदाहरण के लिए हिन्दू समाज में उच्च जातियां कहीं जाने वाले समाज में विधवा का पुनर्विवाह करना अधर्म माना जाता रहा जबकि अन्य जातियों में ऐसा करना अपना धर्म समझा गया | जाटों में विधवाओ का चाहे उस स्त्री का मुकलावा (संयोग) हुआ हो या न हुआ हो , पुनर्विवाह एक धार्मिक कर्त्य समझा गया , इसी कारण जाटों में एक कहावत प्रचलित हुई : जाटनी कभी विधवा नहीं होती | और इस पर जाट कौम गर्व करती आई हैं | लेकिन अफ़सोस हैं कि स्वामी दयानंद के जाट शिष्य आज तक यह प्रचार करते रहे हैं कि स्वामी दयानंद ने विधवा विवाह का समर्थन किया और जाटों को क्षत्रिय माना | जबकि सत्यार्थ प्रकाश के चौथे सम्मुलास के पेज नंबर 74 के एक श्लोक में कहा हैं कि ऐसा केवल शुद्र वर्ण ही कर सकता हैं | बाकी के वर्ण कि विधवा स्त्री को मुकलावा होने के बाद पुनर्विवाह कि अनुमति नहीं हैं | इससे स्पष्ट होता हैं कि स्वामी जी ने जाटों को शुद्र माना न कि क्षत्रिय | इसलिए हमारी प्राथना हैं कि आर्य समाजी जाट भाई सत्यार्थ प्रकाश को गौर से पढ़े | इसी प्रकार जाट आर्य समाजियों ने चौ. छोटूराम को एक आर्य समाजी कहकर भारी भूल कि हैं क्योंकि सर्वविदित हैं कि आर्य समाज जाती - पाति पर नहीं , वर्ण व्यवस्था पर आधारित हैं | जबकि चौ. छोटूराम जाट जाति के संगठन जाट सभा के काफी वर्षो तक अध्यक्ष रहे और उन्होंने संयुक्त पंजाब में अपने हिन्दू मुस्लिम और सिक्ख जाट भाइयों को एक मंच पर खड़ा कर दिया | यह कार्य आर्यसमाजी कभी नहीं कर सकता हैं | इससे स्पष्ट हैं कि जब कोर्ट के अनुसार हिन्दू धर्म ही नहीं हैं तो हिन्दू मैरिज एक्ट कैसे वैध हो सकता हैं ?
हिंदूओ का एक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख पंडित मोहन भागवत को कहना पड़ा कि हिन्दू न तो कोई धर्म हैं और न ही जाति | जबकि वे स्वयं ब्रह्मण जाति से संबंध रखते हैं और हिन्दुत्व का प्रचार करते हुए हिन्दू अर्थात ब्रह्मण संगठन चलते हैं | ( पंजाब केसरी पेज नंबर 3 , दिनांक 17 -10 -2009 )
इसी प्रकार पंजाब के परिवहन मंत्री मा. मोहनलाल ने पंजाब केसरी पत्र के माध्यम से अपने लेख में स्पष्ट लिखा हैं कि हिन्दू कोई धर्म या मजहब नहीं , अपितु एक जीवन पद्धति हैं | जबकि मंत्री जी स्वयं भाजपा के नेता होते हुए हिन्दुत्व का अलाप करते रहे हैं | जिसे ये लोग पद्धति कहते हैं , जब हिन्दू कोई धर्म ही नहीं तो इसकी पद्धति कहा से आ गई ? जब कोई वस्तु संसार में हैं ही नहीं तो उसका गुण स्वभाव कैसे जाना जायेगा लेकिन बड़े आश्चर्य कि बात हैं कि उपरोक्त टिप्पणियों के बावजूद हिन्दू धर्म के चार शंकराचार्य इस विषय पर मौन क्यों हैं ?
हमने इस लेख के शीर्षक में तथाकथित शब्द का इस्तेमाल किया हैं क्योंकि जब हिन्दू धर्म ही नहीं हैं तो स्वाभाविक हैं कि जाट भी हिन्दू नहीं हैं | इसी कारण आज जाट कौम को 1955 हिन्दू विवाह कानून के कारण ही कष्ट और शर्मिंदगी उठानी पड़ रही हैं | जहाँ तक हिन्दुइज्म के आध्यात्म कि बात हैं , इस पर डा.हरदयाल ने एक बहुत सुंदर टिपण्णी करते हुए इसे उटपटांग कि संज्ञा दी हैं और आगे लिखा हैं कि : " हिन्दू अध्यात्म विद्या भारत का कलंक रही हैं जिसने भारतीय इतिहास को चौपट कर दिया और उसे विनाश में डालकर उन्हें निरर्थक जिज्ञासा और चेष्ठा के गलियारे में भटका दिया | उसने कुतर्क को कला और कपोल कि कल्पनाओ को ज्ञान के ऊँचे सिंहासन पर बैठा दिया | जिसने भारतीय को इतना निकम्मा बना दिया कि वे संकैड़ो सालों तक कोल्हू के बैल कि तरह उसी पुराने ढर्रे पर चलते हुए गुलामी कि जिल्लत झेलते रहे | कल्पना कि बेवकूफ भरी उड़ाने , विचित्र भ्रांतियों और अंट- शंट अटकलबाजियों से ग्रन्थ के ग्रन्थ भरे पड़े हैं जिन्हें हम अभी तक नहीं समझ पाए कि वे सभी व्यर्थ हैं |" इसी कारण यह सवर्ण हिन्दू समाज चींटियों को चीनी डालेगा , हवन यज्ञ में मूल्यवान सामग्री भस्म करेगा , सूर्य को पानी पहुचाएगा , मूर्तियों को भोग लगाएगा , मिठाई खिलाएगा और दूध पिलाएगा , बंदरों को केला और चना खिलाएगा और शनि महाराज को तेल पिलाएगा लेकिन गरीब को एक बूंद पानी तथा रोटी का टुकड़ा देने में भी रोएगा | इनमे से कुछ तो ऐसे भी हैं जो कि अपने बूढ़े माँ - बाप से झाड़ू पोचा तथा बर्तन साफ़ करवाने तक का काम भी करवाते हैं | इन्होने भगवान को वश में करने के तरीके तो ढूंढ़ लिए और कहते हैं कि हर प्राणी में ईश्वर समान रूप से वास करता हैं , लेकिन क्या इन्होने कभी इंसानों से भी समान रूप से व्यवहार किया हैं ?
लेकिन अभी प्रश्न पैदा होता हैं कि फिर भी धर्म आवश्यक क्यों हैं ? क्योकि इंसान जितना मजबूत हैं उतना ही कमजोर भी हैं और उसके इस कमजोर पक्ष को किसी सहारे कि जरुरत पड़ती हैं , जिसे हम आस्था कहते हैं और इसी आस्था को कायम रखने के लिए किसी धर्म का सहारा लेना पड़ता हैं | इसीलिए मानव जाति के लिए धर्म एक सर्वाधिक शक्तिशाली प्रेरक शक्ति हैं | लेकिन अफ़सोस हैं कि यही धर्म और आस्था , पाखंडवाद , अन्धविश्वास और जादू - टोनों में भटक कर रह जाता हैं | जबकि धर्म का सर्वोत्तम नियम कमा कर खाने का हो , उसमे आत्मसम्मान और आत्मविश्वास श्रेष्ठ हो और धर्म अन्धविश्वास , गुरुडम और मूर्तिपूजा का विरोधी हो , ऐसा धर्म कभी न हो जिसमे नंगे बाबा , भगवाधारी , अवधूत साधू , पांडे - पुजारी और मठाधीश आदि अपने राष्ट्र पर बोझ बनकर रहे |
जब संसार के दुसरे लोगो को धर्म कि आवश्यकता हैं तो फिर जाट कौम को क्यों नहीं होगी | यदि हम जाट कौम के सिद्धांत , आचरण परम्पराए और उनकी संस्कृति को हिन्दू धर्म से मिलाते हैं तो उनमे कोई मेल नहीं हैं | उदाहरण के लिए जाटों कि विधवा विवाह प्रथा , मूर्तिपूजा का न होना , गोत्र प्रथा , खाप प्रथा , समानता का सिद्धांत , कट्टर छुआछात को न मानना तथा सबसे बढकर जाट कौम इस देश में ही नहीं , संसार में सबसे बड़ी शाकाहारी कौम हैं जो जिव - हत्या कि पूर्णतया विरोधी हैं | जबकि उत्तर पूर्व के हिन्दू मंदिरों में पशुओ कि बलि दी जाती हैं तो जाट बाहुल्य क्षेत्र को छोड़ कर पुरे देश का ब्रह्मण मासाहारी हैं और केरला का हिन्दू तो बीफ ( गाये - बछड़े का मॉस ) तक खाता हैं | पुस्तकों में तो यहाँ तक लिखा हैं कि वैदिक काल में ब्रह्मण गाये का मॉस खाते थे | इस बात को इतिहासकार पंडित रामशरण शर्मा ने सवीकार किया हैं | इसके अतिरिक्त विधवा विवाह का विरोध करने वालो से ही रखेल प्रथा वेश्या प्रथा का जन्म हुआ और मंदिरों में देवदासियां पहुचाई | इस बारे में विस्तार से न लिखते हुए संक्षेप में इतना ही कहना सार्थक होगा कि हिन्दू धर्म एक ब्रह्मण धर्म हैं और हिन्दुत्व ब्राह्मणवाद हैं जिसने शैन:- शैन: वैदिक धर्म को भी अपने अंदर अपने स्वार्थवश समेट लिया , इस कारण वैदिक धर्म संविधान और कानून से लोप होकर ब्राह्मणवाद में समा गया | आश्चर्यजनक बात तो यह हैं कि हिन्दू धर्म नहीं हैं तो इस देश में 1955 हिन्दू विवाह कानून कैसे लागु हैं ?
यह ब्रह्मण धर्म जाट कौम का कभी धर्म नहीं रहा | इससे पहले प्राचीन में जाट प्रकर्ति कि पूजा करते थे उनके बाद उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया , जिसका मुख्य कारण था जाट राजा बौद्ध धर्मी हो गए थे | इस कारण जाट प्रजा भी बौद्ध धर्मी हो गई अर्थात यथा राजा तथा प्रजा | उदाहरण के लिए अशोक मोर गोत्रीय जाट , कनिष्क कुषाण गोत्रीय जाट , हर्षवर्धन बैंस गोत्रीय जाट तथा यशोधर्मा विर्क गोत्रीय जाट आदि सभी बौद्ध धर्म के मानने वाले थे | इसलिए आज भी जाट कोई भी नुक्सान होने पर बार बार अपने प्राचीन धर्म बौद्ध के प्रतिक मठ को याद करता हैं | मठ मार दिया , मठ मार दिया | वह इसीलिए कहता हैं क्योंकि कट्टरपंथी ब्रह्मंवादियो ने हमारे इन बौद्ध मठो को बर्बाद कर दिया था | जाटों का शाकाहारी होना और विधवा विवाह प्रथा आदि आज भी जाटों में बौद्ध धर्म के संस्कार हैं |
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