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Thread: हरियाणवी लोकगीत

  1. #1

    हरियाणवी लोकगीत

    रचनाकार: कवि नरसिंह

    कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का -
    आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

    कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही -
    हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही ।
    हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही -
    भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही ॥

    चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का -
    आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

    सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे -
    दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे ।
    बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे -
    मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे ॥

    एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का -
    आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

    दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये -
    माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये ।
    माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए -
    फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए ।

    तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का -
    आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

    ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया -
    भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया !
    देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया -
    छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया ।

    कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का ।
    आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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  3. #2
    रचनाकार: अज्ञात

    जरमन नैं गोला मारया,
    जा फूट्या था अम्बर मैं ।
    गारद मा त सिपाही भाजै
    रोटी छोड़ गए लंगर मैं ।
    उन की गोरी के जीवै ,
    जिनके बालम छे नम्बर में ।

    भावार्थ


    जर्मन ने गोला मारा । आकाश में जाकर वह गोला फट गया । लंगर में रोटी खा रहे सिपाही अपनी-अपनी
    रोटी छोड़कर भाग गए । अब उन औरतों का क्या जीवन ह , जिनके पति छह
    नम्बर की पलटन में सिपाही हैं ।
    Last edited by kuldeeppunia25; November 16th, 2011 at 07:58 PM.
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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  5. #3
    तेरा मारया ऎसा रोऊँ
    जिसा झरता मोर बणी का
    तेरे पाया के म पायल बाजै
    जिसा बाजे बीज सणीं का,,,
    थोड़ा-सा नीर पिला दै
    प्यासा मरता दूर घणीं का


    भावार्थ

    तेरे सौन्दर्य से घायल होकर मैं वन के मोर की तरह रोता हूँ । तेरे पैरों की पाजेब ऎसे बजती है, जैसे सन के बीज झंकार करते हैं । अरी ओ थोड़ा-सा जल पिला दे मुझे, दूर का पथिक हूँ मैं प्यास से व्याकुल ।
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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  7. #4
    रचनाकार: अज्ञात

    मेरा कैहा मान पिया, बाड़ी मत बोइए;
    सर पड़ेगी उघाई तेरे डंडा बाजै जाई,
    पिया बाड़ी मत बोइए ।


    भावार्थ


    --' प्रियतम जी, मेरी बात मान लो, कपास मत बोओ । कर्ज सिर पर चढ़ जाएगा । सिर पर डंडे बजेंगे सो
    अलग । प्रिय, मेरी बात मान लो, कपास मत बोऒ ।'
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




  8. #5
    ओ नये नाथ सुण मेरी बात,
    या चन्द्रकिरण जोगी तनै तन-मन-धन तै चाव्है सै!
    नीचे नै कंमन्द लटकार्ही चढ्ज्या क्यूँ वार लगावै सै !!

    (मेरे कैसी नारी चहिये तेरे कैसे नर नै,
    बात सुण ध्यान मैं धर कै ) - २

    दया करकै नाचिये मोर, मोरणी दो आंसू चाव्है सै !
    नीचे नै कंमन्द लटकार्ही चढ्ज्या क्यूँ वार लगावै सै !!
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    dahiyarocks (November 19th, 2011), JSRana (November 19th, 2011)

  10. #6
    Quote Originally Posted by kuldeeppunia25 View Post
    रचनाकार: अज्ञात

    जरमन नैं गोला मारया,
    जा फूट्या था अम्बर मैं ।
    गारद मा त सिपाही भाजै
    रोटी छोड़ गए लंगर मैं ।
    उन की गोरी के जीवै ,
    जिनके बालम छे नम्बर में ।

    भावार्थ


    जर्मन ने गोला मारा । आकाश में जाकर वह गोला फट गया । लंगर में रोटी खा रहे सिपाही अपनी-अपनी
    रोटी छोड़कर भाग गए । अब उन औरतों का क्या जीवन ह , जिनके पति छह
    नम्बर की पलटन में सिपाही हैं ।
    kitna ak purana hai yo?????

  11. #7
    भाई साब ,रायटर का तो बेरा नहीं ,द्वित्य विश्व युद्ध के समय की रचना ह/
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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  13. #8
    thikk se bhai........


    german naam sunke andajja te ho e gya tha

    Quote Originally Posted by kuldeeppunia25 View Post
    भाई साब ,रायटर का तो बेरा नहीं ,द्वित्य विश्व युद्ध के समय की रचना ह/

  14. #9
    कान पङा लिये जोग ले लिया

    कान पङा लिये जोग ले लिया, इब गैल गुरु की जाणा सै ।
    अपणे हाथां जोग दिवाया इब के पछताणा सै ॥

    धिंग्ताणे तै जोग दिवाया मेरे गळमैं घल्गि री माँ,
    इब भजन करुँ और गुरु की सेवा याहे शिक्षा मिलगी री माँ ।
    उल्टा घरनै चालूं कोन्या जै पेश मेरी कुछ चलगी री माँ,
    इस विपदा नै ओटूंगा जै मेरे तन पै झिलगी री माँ॥

    तन्नै कही थी उस तरियां तै इब मांग कै टुकङा खाणा सै ।
    अपणे हाथां जोग दिवाया इब के पछताणा सै ॥

    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    JSRana (November 20th, 2011)

  16. #10
    रचनाकार: अज्ञात

    अरे न्यू रौवे बुढा बैल,
    मने मत बेचै रे, पापी!


    तेरे कुल कोल्हू में चाल्या
    नाज कमा कै तेरे घरां घाल्या
    इब तन्ने कर ली है बज्जर की छाती ।


    तेरा बज्जड़ खेत मन्ने तोड्या,
    गडीते न मुँह मोड्या,
    इब मेरी बेचै से माटी ।


    मेरी रै क्यों बेचै से माटी?


    अरे न्यू रौवे बुढा बैल
    मने मत बेचै रे, पापी!


    भावार्थ



    अरे यूँ रो रहा है बूढ़ा बैल--'मुझे बेच मत, ओ पापी! मैं तेरे सारे परिवार के कोल्हू में जुता हूँ (यानी तेरे
    परिवार को पालने के लिए सारे काम मैंने किए हैं )। तेरे घर को मैंने अनाज से भर दिया और अब तूने अपना
    हृदय वज्र के सामान सख़्त बना लिया है । मैंने पूरी तरह से बंजर तेरे खेत को भी जोत-जोत कर उपजाऊ बना
    डाला । गाड़ी (छकड़ा या बैलगाड़ी) में जुतने से भी मैंने तुझे कभी इंकार नहीं किया । और अब तू मेरी मिट्टी--
    मेरी यह वृद्ध देह--बेचने जा रहा है । अरे भाई, क्यों बेच रहा है तू मेरी यह मिट्टी ?' बूढ़ा बैल यह कह-कह
    कर रो रहा है ।
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    deshi-jat (November 20th, 2011), JSRana (November 20th, 2011)

  18. #11
    Might be Jat Mehar Singh, he was involved in WW2
    Quote Originally Posted by kuldeeppunia25 View Post
    भाई साब ,रायटर का तो बेरा नहीं ,द्वित्य विश्व युद्ध के समय की रचना ह/

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    kuldeeppunia25 (November 20th, 2011)

  20. #12
    जम्मा लट्ठ सा गाड दिया सै रै छोरे.

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    kuldeeppunia25 (November 20th, 2011)

  22. #13
    Quote Originally Posted by kuldeeppunia25 View Post
    रचनाकार: अज्ञात

    अरे न्यू रौवे बुढा बैल,
    मने मत बेचै रे, पापी!


    तेरे कुल कोल्हू में चाल्या
    नाज कमा कै तेरे घरां घाल्या
    इब तन्ने कर ली है बज्जर की छाती ।


    तेरा बज्जड़ खेत मन्ने तोड्या,
    गडीते न मुँह मोड्या,
    इब मेरी बेचै से माटी ।


    मेरी रै क्यों बेचै से माटी?


    अरे न्यू रौवे बुढा बैल
    मने मत बेचै रे, पापी!


    भावार्थ



    अरे यूँ रो रहा है बूढ़ा बैल--'मुझे बेच मत, ओ पापी! मैं तेरे सारे परिवार के कोल्हू में जुता हूँ (यानी तेरे
    परिवार को पालने के लिए सारे काम मैंने किए हैं )। तेरे घर को मैंने अनाज से भर दिया और अब तूने अपना
    हृदय वज्र के सामान सख़्त बना लिया है । मैंने पूरी तरह से बंजर तेरे खेत को भी जोत-जोत कर उपजाऊ बना
    डाला । गाड़ी (छकड़ा या बैलगाड़ी) में जुतने से भी मैंने तुझे कभी इंकार नहीं किया । और अब तू मेरी मिट्टी--
    मेरी यह वृद्ध देह--बेचने जा रहा है । अरे भाई, क्यों बेच रहा है तू मेरी यह मिट्टी ?' बूढ़ा बैल यह कह-कह
    कर रो रहा है ।
    बहुत बढ़िया भाई कुलदीप ,या स जाट संस्कृति |
    Remember, we all stumble, every one of us.
    That's why it's a comfort to go hand in hand.
    :D

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    kuldeeppunia25 (November 20th, 2011)

  24. #14
    रचनाकार: अज्ञात

    क्यों गेरे स भूल,रूप खिला दिया सरसों का फूल
    क्यों बोले से बात दरद की ।
    मेरे चुभ से ऎणी रे करद की,
    मालुम पट जा वीर मरद की,
    पा पीटें हवालात में ।

    भावार्थ


    (पत्नी अपने पति से मिलने के लिए सिपाही का रूप धर कर पलटन में पति के पास पहुँच गई है। वहीं पर दोनों के बीच यह वार्तालाप हो रहा है ।)
    --'अरी तू यह क्या भूल कर रही है । देख तो तेरा रूप सरसों के फूलों की तरह खिला हुआ है । तू ऎसी बात
    क्यों कहती है जिसे सुनकर पीड़ा होती है ? यदि दूसरों को यह भेद मालूम पड़ गया कि यह वीर मर्द कौन है तो पीट-पीट कर हवालात में बन्द कर देंगे ।
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    JSRana (November 22nd, 2011), vishalsunsunwal (November 22nd, 2011)

  26. #15
    रचनाकार: अज्ञात

    रूप तेरा चन्दा-सा खिल रया,
    बे ने घढ़ी बैठ के ठाली
    कर तावल वार भाजरी,
    जिसी दारू माँ आग लाग री
    कलियाँदार घाघरी,
    पतली कम्मर लचकती चाली ।


    भावार्थ



    --'तेरा रूप चांद की तरह खिला-खिला-सा है । लगता है, भगवान ने तुझे फ़ुरसत में बैठ कर गढ़ा है । यह
    सुनकर युवती वहाँ से भाग कर दूर चली गई । ऎसा लगा जैसे शराब में आग लग गई हो । कलीदार लहंगा पहने
    वह अपनी पतली कमर को लचकाती हुई वहाँ से चली गई ।'
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    JSRana (November 22nd, 2011), vishalsunsunwal (November 22nd, 2011)

  28. #16
    रचनाकार: अज्ञात

    पिया, भरती मैं हो लै ने,
    पट जा छत्तरीपन का तोल !
    जरमन मैं जाक लड़िए,
    अपने माँ-बाप का नाँ करिए ।
    ओड़े तोपों के आगे अड़िए,
    अपनी छाती ने दे खोल ।
    पिया, भरती मैं हो लै ने,
    पट जा छत्तरीपन का तोल !


    भावार्थ


    'प्रियतम ! जाओ, फ़ौज में भरती हो जाओ । मुझे भी तो पता लगे कि तुम कितने बड़े क्षत्रिय हो । जाओ
    और जाकर जर्मनों से लोहा लो । अपने मात-पिता का नाम उज्ज्वल करो । जाओ, तोपों के सामने जाकर अड़
    जाओ । उनके सामने अपनी छाती खोल दो । फ़ौज में भरती हो जाओ, प्रियतम! ताकि यह मालूम हो जाए कि
    तुम वास्तव में सच्चे क्षत्रिय हो ।'
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    JSRana (November 22nd, 2011), vishalsunsunwal (November 22nd, 2011)

  30. #17
    रचनाकार: अज्ञात

    थोड़ा-सा नीर पिला दै, बाकी घाल मेरे लोटे मैं
    अरे तूँ भले घराँ की दीखै स ,जन्म लिया तन्ने टोटे मैं
    तू होले मेरे गैल, दामण मढ़वा दिऊँ घोटै मैं !


    भावार्थ


    --'थोड़ा-सा पानी मुझे पिला दे, बाकी मेरे लोटे में डाल दे । अरी ओ, तू तो भले घर की लगती है, लेकिन
    ऎसा लगता है जैसे तेरा जन्म बड़े ग़रीब घर में हुआ है । चल, मेरे साथ चल । मैं तेरे लहंगे को गोटे से मढ़वा
    दूंगा ।
    चालना राही का, चाहे फेर क्यूं ना हो । बैठना भाइयाँ का, चाहे बैर क्यूं ना हो ।।




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    rana1 (November 22nd, 2011), vishalsunsunwal (November 22nd, 2011)

  32. #18
    Ya ragni azad singh ne gayi hai

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