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Thread: मां का आंचल ........................................

  1. #1

    मां का आंचल ........................................

    तपती गर्मी
    चिचिलाती धुंप
    लु के थपेङे
    बारिश की फुहार
    तुफान की मार
    कभी कोहरा तो
    कभी शीत लहर
    क्या करूं कहां जाऊं
    समझ नही आता बहुत हुं बैचेन
    भागता रहता हुं बचता रहता हुं,
    लेकिन दिल को नही है चैन ....
    हर समय रहता हुं भयभीत
    अनजाना डर सताता है.........
    भागता रहता हुं हर क्षण
    मन बहुत घबराता है....
    कितना टुटा कितना बिखरा
    बिखरता ही गया..........
    रोया बहुत बिलबिलाया
    कहीं ना मिला बसेरा..
    कभी अपनों ने मारा
    कभी गैरों ने लुटा
    कभी खुद गिर गया
    तो कभी समय ने पीटा
    विपत्तियां आती रही
    अलगाव होते रहे
    अपने सब बिछुङते गये
    याद करता हुं उस पल को
    जब
    करूणा, ममता, स्नेह और
    प्रेम का छाता
    मां का आंचल
    मेरे सिर पर होता था
    जब से छुटा है वो आंचल
    भय
    असुरक्षा
    व्याकुलता
    अशांति
    पीङा
    दुख
    और आंसु
    और कुछ नही मिला जीवन में..
    होकर बच्चा बैचेन जब भी बिलबिलाता है
    सुन आवाज दिल के टुकङे की
    मां का दिल भर आता है
    कितनी भी तपती धुंप हो
    या हों लु के थपेङे
    अपने आंचल में छुपा लेती है
    एक ममता भरा चुंबन देती गाल पर
    सारी पीङा हर लेती है............
    एक ना आंसु बहे मेरे लाल का
    उससे पहले ही आंसु बहा लेती है
    सारी दुनिया में भागता रहा
    ढुंढता रहा उस आंचल की छांव को
    लेकिन
    नही मिल सका
    नही मिल सका
    नही मिल सका
    लिख रहा हुं
    रो रहा हुं
    उस आंचल के पाने को
    लेना पङेगा नया जन्म
    होते हैं बदनशीब जो भुल जाते हैं
    उसे
    जिसने खुद कष्ट उठाये
    पीङा सही रात भर जागती रही
    एक आवाज सुनकर अपने लाल की
    नींद उङ जाती थी
    शरद रात गीला बिस्तर
    लेकिन बच्चे को सुखे में सुलाती थी
    जीवन में मिल जाती है हर चीज
    बस मां और मां का आंचल नही मिल पाता
    जय श्री कृष्णा शिवा Click image for larger version. 

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  3. #2
    अत्यंत मार्मिक एवं हृदयविदारक चित्रण !

    मानव जाति ने अपनी रचनात्मकता में पितृत्व की सदा घोर उपेक्षा की है ! जाटलैंड पर भी कवी हृदय लोगो ने गाहे बगाहे मातृत्व पर अनेक कविताये , अनुभव साँझा किये हैं , किन्तु पितृत्व को अनाथ छोड़ दिया है ! क्या कारन हो सकता है ?
    "All I am trying to do is bridge the gap between Jats and Rest of World"

    As I shall imagine, so shall I become.

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  5. #3
    Quote Originally Posted by Samarkadian View Post
    अत्यंत मार्मिक एवं हृदयविदारक चित्रण !

    मानव जाति ने अपनी रचनात्मकता में पितृत्व की सदा घोर उपेक्षा की है ! जाटलैंड पर भी कवी हृदय लोगो ने गाहे बगाहे मातृत्व पर अनेक कविताये , अनुभव साँझा किये हैं , किन्तु पितृत्व को अनाथ छोड़ दिया है ! क्या कारन हो सकता है ?
    FROM FB-

    Dr Vandana Sharma ki adhbhut Kavita....Pita par ek " Putri-Drishti"

    सोचती हूँ
    यदि पिता पर लिखनी पड़े कोई कविता,तो क्या लिखूंगी
    पिता पर लिखी गयी..
    ... किसी भी कविता में,एक प्रश्न निश्चित आयेगा
    कि क्या सचमुच मन्नतें नही होतीं बेटियाँ ....
    तब उम्मीद के उस साल मेरा न आना,क्यूँ उदास कर गया पिता को
    मेरे लिए सोचे गए नाम का हिस्सा,अग्रज को देते हुए,क्यों वे खुश नही थे !

    जैसे ही आयेंगे पिता,कविता में
    लिखने तो होंगे परिक्षा परिणामों के वे दिन,प्रतियोगिताओं की जीतें
    या बड़े घरों के प्रस्तावों पर,वे विनम्र इन्कार पिता के ..
    गर्व के उन क्षणों में,कभी नही भूले पिता,माँ को यह जताना
    कि कितनी मिलती है उनकी बेटी उनसे और जरा नही है माँ के जैसी !

    पिता पर लिखी गई किसी भी कविता को हैरान कर देंगे पिता
    जो भटके हुए बादल से,तमाम लाभों को,डालते रहे मेरे हिस्से
    इस तर्क के साथ कि जिस वर्ष आई थी मै,कसबे में बिजली भी आई थी
    जरुरी तकाजों को परे हटा,वे लाये पोलर का पंखा
    जो देता रहा ताजी हवा, ठीक पिता की ही तरह !

    पिता पर लिखते हुए किसी भी कविता में जिक्र तो आयेगा
    उन तमाम काली रातों का कि जिनके दरवाजों की कुण्डी से
    बंधी रहीं,अनगिन चिंताएँ,धड़कता रहा माँ का ह्रदय,घडी की टिक टिक सा
    कि जाने कब हो जाएँ राजद्रोह में बंदी,कच्ची ग्रहस्थी के पाए !

    कविता में टहलेंगे चिंतित पिता,

    जानकर सोता हुआ
    द्रढ हाथ,बहुत हौले से सिर पर फेरते,
    हाँ वे हमें कभी नही दे पाए,सिरहाने की,थोड़ी भी चिंता !

    जब भी लिखूंगी वह कविता
    धवल हो जाएगी लज्जा..
    कि जब निर्धन पालित शिष्यों और बड़े हो रहे बच्चों से
    होड़ ले रहे खर्चों की खातिर,विवश पिता का,एक ट्यूशन करना
    नगरसेठ से,गाढे श्रम के,कुछ सौ रुपये लेकर आना
    देख लिया था दूर गाँव के जानकार ने !

    मुहँ दबाकर हंस पड़ेगी वह कविता
    जिसमे होंगी ब्याह सगाई की तारीखें,आज़ादी के जश्न सरीखी
    नही खुलते थे तब बस्ते,बस खुलते थे खाने के डिब्बे
    क्यों कि छुटपन की किताबें, जगतीं थीं पिता के पदचाप से
    और सो जातीं थीं, खर्राटों की, शुभसूचना के नाद से !

    माँ के गणेश या रामकथा पर,
    हँसते हुए पिता,कविता में गा ही जायेंगे
    हाँ कभी नही जाने दिया,पढ़ती बिटिया को, मेलों ठेलों शादी ब्याहों में
    हँसतीं हूँ, जब साथ नही देता मन,जागरणों,बन्ने,लाडो या जच्चा के गीतों में
    और नजर आती हूँ, निरी मूढ़ सी,महिला संगीतों में !

    पिता को कैसे लिख पाएगी कविता
    जिन्हें, समझ नही पाते,नाती पोते
    क्यों सुबह शाम का समाधान
    बस गेहूं की दो चुपड़ी रोटी
    छोड़कर,बर्गर पिज्जा !

    वृद्ध एकाकी पिता पर लिखते हुए
    भर आएँगी कविता की आँखें
    है कहाँ,किसी को फुर्सत,
    जो सुन सके,बीते अभाव की बातें
    पिता, जिन्हें याद कर नही मिलते वह चिन्ह
    जिनका होना है अपराध
    कुल गोत्र ब्राह्मण रहा, है इतना भर याद !

    और अंत में, मन ही मन पिघलेगी कविता
    उन पिता पर,जो त्यौहारों पर,कभी नही करते माँ जैसी जिद
    किन्तु सुबह होते ही करते बेचैन प्रतीक्षा
    द्वार पर बजते ही,गाड़ियों के होर्न.
    बहुत गौर से लगते पढने पढ़ी पढ़ाई पुस्तक
    या कोई अखबार, पढ़ चुके होते जिसे, कई कई बार कई कई बार !!!
    Only a biker knows why a dog sticks his head out of a car window.

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