Originally Posted by
dndeswal
.
First of all, why do we need to rely on false Western theories which only mislead us. Jat race is purely of Indian (Aryan) origin. It is also a fact that some of our ancestors left India and resided in far-off places. Some of them, after thousands of years, came back to India (Western scholars call them 'Scythians', 'Saka', 'Gaete', 'Skythai' etc.) So, it does not mean that their origin was from Western part or Central Asia etc.
Thakur Deshraj writes:
.....बौद्ध-काल में तथा बौद्ध-काल के बाद हिन्दू-काल में जातियों में इतना हेर-फेर हुआ कि वास्तव में जो जाति-समूह आगे थे वे पीछे और जो पीछे थे वे आगे हो गये। जहां कुछ समूह नितान्त लुप्त हो गये, वहां कुछ बिल्कुल नवीन पैदा भी हुए। क्रान्ति में होता भी ऐसा ही है। भारत में बौद्ध-धर्म का बहिष्कार एक महान् क्रान्ति के पश्चात् हुआ था। अर्जुन, शुंगमित्र, शशांक आदि हिन्दू राजाओं ने बौद्ध लोगों के साथ वैसे ही व्यवहार किये थे जैसे कि आगे उनके धर्म बन्धुओं के साथ मुसलमानों ने किये थे। हमें यहां उस रक्त-रंजित इतिहास की चर्चा नहीं करनी है जो धर्मान्धता में हिन्दू-नरेशों द्वारा बौद्ध लोगों के साथ, हिन्दू-पुजारी और आचार्यों के संकेत से बनाया गया था। हमें तो यह बताना है कि इन दो धार्मिक क्रान्तियों के बाद, आर्य जाति में इतना घपला हुआ कि आज इतिहासकारों के लिए यह बताना जटिल समस्या हो गई है कि अमुक जाति (उपजाति से अभिप्राय है) अमुक-वर्ण और अमुक-वंश से है। इस समस्या को विदेशी जातियों के भारत के आगमन और सम्मेलन ने और भी पेचीदा बना दिया है। शक, सीथियन, तुरष्क, कुषाण, तातार आदि विदेशी विजेता जाति-समूह भारत में आकर आबाद हुए और आज उनका कोई अलग अस्तित्व है नहीं? तब अवश्य ही भारत की जातियों में कुछ जातियां ऐसी हैं जो आर्य-नस्ल के सिवाय दूसरी नस्लें हैं। इसी आधार को लेकर कुछ विदेशी इतिहासज्ञों ने जाटों को भी राजपूत, मराठे और गूजरों के प्रसंग में शक, सीथियन और हूण आदि जातियों के उत्तराधिकारी साबित करने की व्यर्थ चेष्टा की है। ऐसे लोगों में मि. स्मिथ और उनके अनुयायियों को पहला नम्बर है। स्मिथ महोदय का अनुमान है कि '''विजेता हूणों में से जिनके पास राजशक्ति आ गई वे राजपूत और जो कृषि करने लग गये वे जाट और गूजर है।''' हम कहते हैं कि स्मिथ की यह धारणा जहां निर्मूल है, वहीं बगैर सोचे समझे और अनुसंधान किये हुए ही जल्दबाजी में बनाई हुई है।
......अतः यह अचम्भे की बात है कि इस सचाई के होते हुए भी कि प्रत्येक मनुष्य जो कि पंजाब के रहने वालों से पूरी जानकारी रखता है और जाट, गूजर एवं राजपूतों की मानव-तत्व अनुसन्धान की तुलना को देख लिया है कि वे स्पष्टतया सीथियन नहीं, आर्य हैं । तो भी अन्वेषकों ने आम तौर पर उनको सीथियन,गेटाई, यूची और खिजर न मालूम क्या-क्या होने के सिद्धान्त बना लिये हैं। यह भी निर्णय कर लिया है कि वे ऐतिहासिक काल में भारत में आये हैं। यही नहीं, अपितु सन् ईस्वी का भी बता दिया है। इस प्रकार के आ बसने के प्रमाण के लिए किंचित् भी ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है। (उनका भारत में आने का न तो कोई विदेशी वर्णन ही है और न उनकी अपनी ही कोई दन्त-कथा ही है ताकि भारत में आने का उनका समय बताया जा सके। न ऐतिहासिक व शिलालेख के प्रमाण हैं) हम ऐसे सिद्धान्तों को देशी व यूरोपियन के दिमाग का केवल भ्रम ही कह सकते हैं, जो कि भारत की हर एक अच्छी और उत्साही जाति को विदेशी और सीथियन साबित करते हैं।
जाट न हूणों की संतान हैं और न शक सीथियनों की किन्तु वे विशुद्ध आर्य हैं। उपर के उद्धरण से यह पूर्णतया सिद्ध हो जाता है, किन्तु इससे भी अधिक गहरा उतरा जाए तो पता चलता है कि बेचारे हूणों और शकों के आक्रमणों का जब नाम निशान तक न था, तब जाट उस समय भी भारत में आबाद थे। '''पाणिनि''', जो कि ईसा से लगभग 900 वर्ष पहले हुआ है उसके व्याकरण (धातु पाठ) में '''जट शब्द''' आता है जिसके कि माने संघ के होते हैं। पंजाब में जाट की अपेक्षा '''जट''' अथवा '''जट्ट''' शब्द का प्रयोग अब तक होता है। अरबी यात्री अलबरूनी तो यहां तक लिखता है कि '''श्रीकृष्ण जाट थे'''। ऐसे प्रबल प्रमाणों के होते हुए भी जाटों को हूण लिखने वाले लेखकों ने अपने अन्वेषण कार्य की जल्दबाजी को ही प्रकट किया है।.....
.